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तुलसी

दोहावली
सं. राघव ‘रघु’
अपनी बात
िह दु क पिव ंथ ‘रामच रतमानस’ क गो वामी रचियता तुलसीदास को उ र भारत क घर-घर म वही स मान
ा ह, जो भगवा ीराम को ा ह। राम क अन य भ ने उनका पूरा जीवन राममय कर िदया था। हालाँिक
उनका आरिभक जीवन बड़ा क पूण बीता, अ पायु म माता क िनधन ने उ ह अनाथ कर िदया। उ ह िभ ाटन करक
जीवन-यापन करना पड़ा। धीर-धीर वे भगवा राम क भ क ओर आक ए। हनुमानजी क कपा से उ ह राम-
ल मण क सा ा दशन का सौभा य ा आ। इसक बाद उ ह ने ‘रामच रतमानस’ क रचना आरभ क । उ ह
ा ण वग का कोपभाजन भी बनना पड़ा; लेिकन अंत म भगवा राम क क‘ पा ि से उनक िवरोिधय को मुँह क
खानी पड़ी और समाज म उ ह मान-स मान िमलने लगा। इतनी कठोर थित म भी इतनी महा रचना का सृजन
सचमुच दैवी आशीवाद ही कहा जा सकता ह।
इसक बाद राम, सीता और हनुमान क तुित- व प उ ह ने अनेक ंथ क रचना क , जैसे—‘रामलला नहछ’,
इसम ीराम क य ोपवीत का वणन ह। इसका रचनाकाल सं. १६१६ िव. माना जाता ह; ‘जानक मंगल’, इसम नाम क
अनुकल सीताजी क िववाह का वणन ह; ‘पावती मंगल’, इसम पावतीजी क िववाह का वणन ह। इनक अलावा
‘गीतावली’, ‘िवनयपि का’, ‘क ण गीतावली’, ‘सतसई दोहावली’, ‘हनुमान बा क’ आिद उनक िस रचनाएँ ह।
लेिकन िजस ंथ ने उ ह लोकि य बनाया, वह रामच रतमानस ही ह। यह वही िस ंथ ह िजसका पारायण
सम त भारत म करोड़ लोग करते ह। इसम रामकथा बड़ ही सुंदर एवं मौिलक ढग से कही गई ह, िजसम एक
पा रवा रक जीवन का आदश उप थत करते ए अ या म क महा त व क िववेचना क गई ह। ‘रामच रतमानस’ क
लोकि यता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता ह िक उ र भारत क म य े से उ प यह कथा भारतवािसय
को ही नह , अिपतु दुिनया भर क लोग को िकसी-न-िकसी प म े रत करती आ रही ह।
यह पु तक उ ह तुलसी को समिपत ह, जो अपनी रचना ारा हमारा मागदशन करते ह, हम सामािजक व
आ या मक प से े बनने क िश ा देत े ह। जो रचनाएँ उ ह ने िनजी क -िनवारणाथ िलख , आज वे सावजिनक
क -िनवारण का मा यम और वंदनीय ह। यह लोक-िव ास एवं जन-आ था ही ह िक उनक रचना म लोग अपना
भौितक, लौिकक व आ या मक क याण न कवल देखते ह, ब क पाते भी ह।
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अमर रामभ तुलसीदास
जीवन प रचय
भा रतीय समाज और सं कित क उ ारक गो वामी तुलसीदास का ज म उ र देश क बाँदा िजले क राजापुर नामक
ाम म संव 1554 म आ था। उनक ज म क बार म यह दोहा चिलत ह—
पं ह सौ चौवन िवषै, कािलंदी क तीर।
सावन शु स मी, तुलसी धरउ शरीर॥

माता-िपता
ा ण वण म सरयूपारीण ा ण का उ थान ह। इसी वंश म आ माराम दूब े ए, िजनका समाज म िति त
थान था। तुलसी इ ह क सुपु थे। इनक माता का नाम लसी था। कहते ह, इनका ज म बारह महीने तक माता क
गभ म रहने क प ा आ। माता लसी तुलसी क परम भ थ । तुलसी क पूजा क फल व प उ प उस बालक
का नाम उ ह ने ‘तुलसी’ रख िदया। ज म क समय इनक मुँह से ‘राम’ श द का उ ारण आ और उस समय इनक
मुँह म ब ीस दाँत मौजूद थे।
िशशु का डील-डौल भी आम िशशु से हटकर था। वे पाँच साल क बालक क समान लगते थे। यह देखकर ा ण
दंपती िकसी अिन क आशंका से भयभीत हो गए। कई बुरी क पनाएँ उ ह यिथत करने लग । कई योितिषय ने
सलाह दी िक ब े को थोड़ िदन क िलए कह बाहर िभजवा द। अंत म वही िकया गया। ज म क तीन िदन बाद दसव
ितिथ को नवजात िशशु को ा ण दंपती ने अपनी दासी चुिनया क साथ उसक ससुराल भेज िदया और उसक अगले
िदन ही, िजस अिन क आशंका वे कर रह थे, वह आ गया। तुलसी क माता लसी का वगवास हो गया। लेिकन
दासी चुिनया ने बालक तुलसी को माँ का अभाव खलने नह िदया। उसने बड़ लाड़- यार से उनक परव रश क ।
लेिकन भगवा को यह भी अिधक िदन मंजूर नह आ। कहते ह न, कदन बनने क िलए कड़ी अ न परी ा से गुजरना
पड़ता ह, बालक तुलसी क साथ भी यह सब हो रहा था। जब वे साढ़ पाँच साल क ए, तभी चुिनया भी चल बसी।
अब तुलसी अनाथ हो गए। वे जीवन-यापन क िलए घर-घर जाकर िभ ाटन करने लगे। कहते ह िक भगवती पावती को
उनक यह हालत देखकर तरस आ गया और वे ा णी का वेश रखकर ितिदन उनक पास आकर उ ह भोजन
करवाने लग । इस कार तुलसी का पालन-पोषण होने लगा।

बचपन
बाद म भगवा शंकर क ेरणा से नरहयानंदजी ने तुलसी को अपना िश य बनाया और चूँिक ज म क समय उ ह ने
‘राम’ श द का उ ारण िकया था, अत: उनका नाम ‘रामबोला’ रख िदया।
‘रामबोला’ को कछ समय बाद वे अयो या ले गए। वह संव 1561 क माघ शु ा पंचमी शु वार को उनका
य ोपवीत सं कार करवाया गया।
िश ा
बालक रामबोला क बु ब त तेज थी। एक िदन उ ह ने जब िबना िसखाए ही गाय ी मं का उ ारण िकया तो गु
नरहयानंद और उनक अ य िश य अचंिभत रह गए। गु जी ने उ ह राममं क दी ा दी और उ ह बड़ चाव से
िव ा ययन कराने लगे। रामबोला एक बार सुनकर ही गु जी क सारी बात कठ थ कर लेत े थे। गु जी उनसे ब त
स रहते थे।
कछ समय अयो या म िबताकर गु िश य सोर (शूकर े ) प चे। यहाँ नरह रजी ने रामबोला को भगवा राम क
कथा सुनाई। यहाँ से वे काशी आ गए। काशी म रहकर शेष सनातनजी महाराज क सा य म रामबोला ने पं ह वष
तक वेद का अ ययन िकया। िश ा पूरी होने पर वे वापस अपने पैतृक घर लौट तो ात आ िक उनक िपता का
वगवास हो गया ह। उ ह ने उनका ा आिद िकया और वह रहकर लोग को रामकथा सुनाने लगे।

िववाह
तुलसी क रामकथा वाचन शैली इतनी भावशाली और रसपूण थी िक ज दी ही चार ओर उनक याित फल गई।
लोग दूर-दूर से उनक कथा सुनने आने लगे। इ ह म एक थे पं. दीनबंध।ु वे भी तुलसी क रामकथा वाचन शैली से
बेहद भािवत थे और एक िदन इसी भावावेश म उ ह ने अपनी बारह वष या पु ी र नावली से उनका िववाह कर िदया।
यह िववाह संव 1583 क ये शु ा योदशी, गु वार को संप आ।
िववाह क बाद नव-दंपती का वैवािहक जीवन मजे से गुजरने लगा। कहते ह िक तुलसी अपनी प नी से बेहद ेम करते
थे। एक िदन र नावली को उनका भाई मायक ले गया तो आस म डबे तुलसी भी पीछ-पीछ ससुराल प च गए। उ ह
वहाँ देखकर र नावली ल ा से गड़ गई और उ ह िध ारते ए बोल , ‘‘ह वामी! तुम मेर हाड़-मांस क शरीर म
इतना अनुराग रखते हो, इतना यिद अपने आरा य भगवा म रखते तो तु हारा क याण हो जाता।’’
हाड़ मांस को देह मम, तापर िजतनी ीित।
ितसु अधो जो राम ित, अविस िमिटिह भवभीित॥
ये श द तुलसी को ममाहत कर गए। उनक ने म ढ़ता क चमक उ प हो गई और वे उलट पैर वहाँ से लौट गए।

वैरा य
प नी क श द ने उनक आँख खोल दी थ । अब उ ह ने अपने आरा य को पाने का िन य कर िलया। उ ह ने घर-बार
याग िदया और साधु वेश धारण करक तीथाटन करने लगे। याग होते ए वे काशी प चे। वहाँ से जग ाथ, रामे र
तथा बदरीनारायण क पैदल या ा करते ए मानसरोवर प चे। यहाँ उनक भट काक-भुशुंडी से ई। ये एक ा ण थे,
जो लोमश ऋिष क शाप से कौआ हो गए थे। यह रामचं जी क बड़ भ थे। इ ह ने ‘भुशुंडी रामायण’ क रचना भी
क ह। तुलसी और भुशुंडीजी म बड़ िदन तक राम-चचा होती रही। इसी कार तीथाटन करते ए तुलसी काशी लौट
आए। यहाँ रहकर वे रामकथा कहने लगे। यहाँ उनक भट एक रामभ ेत से ई। उ ह ने ेत से भगवा राम क दशन
क इ छा जािहर क । ेत ने उ ह हनुमानजी का पता बताया िक वे राम-दशन म उनक सहायता कर सकते ह।

आरा य भगवा राम क दशन


तुलसी जाकर हनुमानजी से िमले। हनुमानजी ने कहा िक वे िच कट जाएँ, वहाँ उ ह भगवा राम क दशन ह गे।
तुलसी खुशी क अितरक से ओत ोत िच कट आ गए। यहाँ गंगा क रामघाट पर उ ह ने अपना आसन जमाया और
अपने आरा य देव कदशन क ती ा करने लगे। एक िदन वे मण करने िनकले। सामने से उ ह दो सुकोमल िकशोर
घुड़सवार आते िदखे। उ ह ने धनुष-बाण धारण कर रखा था। उनक मनोहारी और अ ुत छिव ने तुलसी को
आ मिवभोर कर िदया। वे उ ह तब तक देखते रह जब तक िक वे नजर से ओझल नह हो गए।
तभी पीछ से हनुमानजी ने आकर उ ह थपक दी और बोले, ‘‘ये ही भगवा राम और ल मण थे।’’
उनक बात सुनकर तुलसी प ा ाप करने लगे िक वे अपने आरा य को नह पहचान सक। तब हनुमानजी ने उ ह
ढाढ़स बँधाया और बोले, ‘‘सुबह वे िफर तु ह दशन देने आएँगे। अबक बार कोई भूल मत करना।’’
तुलसी ने बात को गाँठ से बाँध िलया। अगले िदन बुधवार और मौनी अमाव या थी। संव 1604 चल रहा था। सुबह
तुलसी रामघाट पर आसन जमाए थे तभी दो सुकमार बालक वहाँ आए और बोले, ‘‘बाबा, हम चंदन दो।’’
हनुमान जी भी अ य प म वह मौजूद थे। वे तुलसी को अपना िम मानते थे। उ ह ने सोचा इस बार तुलसी कोई
धोखा न खा जाएँ, इसिलए वे तोते का प रखकर बोले—
िच कट क घाट पर भइ संतन क भीर।
तुलसीदास चंदन िघस ितलक देत रघुवीर॥
तुलसी फौरन अपने आरा य को पहचान गए। वे भावािभभूत होकर अपना आपा खो बैठ। भगवा राम ने उनसे चंदन
लेकर अपने तथा तुलसी क म तक पर लगाया और अंतधान हो गए। तुलसी अपने आरा य क दशन पाकर कतक य हो
गए। इसक इ स वष तक वे िच कट म ही रह, िफर संव 1628 म हनुमानजी क आदेश से वे अयो या क ओर
चल पड़। माग म उ ह भर ाज मुिन और या व य मुिन क दशन ए। यह उ ह वह रामकथा सुनने को िमली, जो
कभी उ ह ने अपने गु नरह रजी क मुँह से सुनी थी।
कछ िदन अयो या म रहकर वे वापस काशी लौट आए। यहाँ वे ाद घाट पर एक ा ण क यहाँ रहने लगे। यह
रहकर उनम का य-सृजन क चेतना जा ई और वे सं कत म प िलखने लगे; लेिकन इस दौरान एक अ ुत
घटना घिटत ई। िदन म वे िजतने भी प िलखते, रात को वे सार गायब हो जाते थे। ऐसा सात रात तक लगातार होता
रहा। तुलसी बेहद हत भ थे। कछ समझ म नह आ रहा था। आठव रात को भगवा िशव ने उ ह व न म दशन िदए
और बोले, ‘‘व स, तुम सं कत छोड़ो, अपनी भाषा म का य-सृजन करो।’’
व न देखकर तुलसी हड़बड़ाकर उठ बैठ।
उसी ण िशव-पावती उनक सम कट ए। तुलसी उनक चरण म लेट गए। िशवजी उ ह आशीवाद देत े ए बोले,
‘‘व स, तुम सं कत छोड़ो, अपनी भाषा म का य-रचना करो और अयो या जाकर रहो। मेर आशीवाद से तु हारी रचनाएँ
जग- िस ह गी और सृि रहते तु हारा नाम अजर-अमर रहगा।’’
इसक बाद िशव-पावती अंतधान हो गए और तुलसी उसी ण उठकर अयो या क ओर चल पड़।
संव 1631 चल रहा था। इसी वष रामनवमी क िदन से तुलसीदासजी ने ीरामच रतमानस क रचना आरभ क । इस
ंथ को पूरा करने म उ ह 2 वष, 7 महीने और 26 िदन लगे।
अपने इस ि य ंथ क रचना क बाद वे िशवजी क आ ा से पुन: काशी आ गए। यहाँ अपना गं◌थ सव थम उ ह ने
भगवा िव नाथ (िशवजी) और माता पावती को सुनाया। इसक बाद राि को ंथ को िव नाथ मंिदर म ही रख िदया
गया। सुबह सबने देखा िक ंथ पर ‘स यं िशवं सुंदर ’ िलखा था। लोग ने स यं िशवं सुंदर क आवाज भी सुनी। यह
देखकर सब तुलसीदास क जय-जयकार करने लगे। कछ पुजा रय - ा ण को इससे ई या होने लगी। उ ह ने दो चोर
को उसे चुराने क िलए भेजा। अब वह पु तक तुलसीदासजी क किटया म रखी थी। चोर वहाँ प चे तो उ ह ने देखा िक
तुलसी क किटया पर दो धनुधारी सुकमार पहरा दे रह थे। उ ह देखते ही चोर क मन से सारा पाप ितरोिहत हो गया
और वे राम-भजन करने लगे।
पंिडत क यह यु कामयाब नह ई तो उ ह ने कई कार से ‘रामच रतमानस’ क परी ा ली और वह उन सब पर
खरी उतरी। एक बार िव नाथ मंिदर म ‘रामच रतमानस’ को रखा गया और उसक ऊपर अनेक धािमक ंथ-वेद,
पुराण, मृित आिद रख िदए गए। ात: सबने देखा िक ‘रामच रतमानस’ सभी धम- ंथ क ऊपर रखी ह। तब सभी
पंिडत, ा ण और तुलसी से जलनेवाले बड़ ल त ए और मायाचना करने लगे। अब उनक माग क सभी
अवरोध दूर हो गए। तुलसीदास काशी म ही असी घाट पर रहने लगे।

तुलसी क रचनाएँ
तुलसीदासजी ने अनेक कालजयी रचना का सृजन िकया ह, िजनम मुख ह—रामच रतमानस, हनुमान चालीसा,
िवनय पि का, किवतावली, दोहावली इ यािद।

कछ अ य मुख रचनाएँ ह—
1. पावती मंगल, 2. गीतावली, 3. रामलला नहछ, 4. रामा ा न, 5. वैरा य संदीपनी, 6. जानक मंगल, 7. बरवै
रामायण, 8. सतसई, 9. राम शलाका, 10. ीक ण गीतावली, 11. कडिलया रामायण, 12. छदावली रामायण, 13.
किव रामायण, 14. छ पय रामायण, 15. रोला रामायण, 16. झूलना, 17. किलधमाधम िन पण, 18. संकट मोचन,
19. हनुमान बा क, 20. रामनाम मिण, 21. कोष मंजूषा और 22. रामा ा आिद।

अंितम समय
तुलसीदासजी क जीवन क सां य वेला ब त क पूण बीती। एकाएक उनक दोन बाँह म पक फोड़ जैसी पीड़ा होने
लगी थी। इसी दौरान उ ह ने ‘हनुमान बा क’ क रचना क , िजसम उ ह ने वयं कहा ह—
पायपीर पेटपीर बाँहपीर मुँह पीर;
जजर सकल सरीर पीर भई ह।
देव, भूत, िपतर, करम, खल, काल ह;
मोिह पर दव र दमानक-सी दई ह॥
इस कार, अपने 126 वष क जीवनकाल का अिधकांश समय गो वामी तुलसीदासजी ने काशी म राम-का य-सृजन म
यतीत िकया और संव 1680 ावण शु ा स मी, शिनवार को अपना पंच भौितक शरीर यागकर मो पा िलया।
संव सोलह सौ असी, असी गंग क तीर।
ावण शु ा स मी, तुलसी त यो शरीर॥
आज तुलसी हमार बीच नह ह, लेिकन उनक कालजयी रचनाएँ— रामच रतमानस और हनुमान चालीसा आिद हमारा
सतत आ या मक मागदशन कर रही ह और सृि रहते यह िसलिसला जारी रहगा।

2
चम कार और सं मरण
अकबर क बंदी
अ पनी रामकथा वाचन प ित और रचना से तुलसीदासजी क याित दूर-दूर तक फलने लगी थी। यदा-कदा राम
नाम क सहार वे चम कार भी कर बैठते थे। उ ह महिष वा मीिक का अवतार भी कहा जाता था। इस सब बात से
भािवत होकर एक बार स ा अकबर ने उ ह अपने दरबार म आमंि त िकया।
आवभगत क बाद अकबर ने उनसे कोई चम कार िदखाने को कहा, लेिकन तुलसी ने ऐसा करने से इनकार कर िदया;
य िक यह उनक वभाव और आदत क िवपरीत था।
तुलसी ने स ा का म नह माना तो उसने उ ह बंदी बनाकर कदखाने म डलवा िदया। कछ समय बाद ही अकबर
को खबर िमली िक उसक राजमहल और रा य म बंदर का भीषण उप व शु हो गया ह। अनेक उपाय करने पर भी
जब यह उप व नह का तो स ा क कछ मंि य ने उसे बताया िक तुलसीदास रामजी क भ और हनुमानजी क
सखा-समान ह। यह बंदर सेना हनुमानजी क आ ा से ही उप व मचा रही ह य िक हमने तुलसीदासजी को अकारण
ही बंदी बना िलया ह।
बात अकबर क समझ म आ गई और उसने मन मारकर तुलसीदासजी को मु कर िदया।
★★★
मीरा क पाती तुलसी क नाम
ीक ण क अन य भ मीराबाई तुलसीदासजी क समकालीन थ । वे तुलसी से बेहद भािवत थ । जब उनक भ
माग म प रजन तरह-तरह क अवरोध खड़ करने लगे तो उ ह ने एक प िलखकर तुलसीदासजी से दी ा दान करने
का अनुरोध िकया था। तब ‘िवनयपि का’ क एक प म इसका जवाब देते ए उ ह ने कहा था िक जैसे ाद ने
अपने िपता िहर यकिशपु का, िवभीषण ने अपने बंध-ु बांधव का और भरत ने अपनी माता का याग कर िदया था, उसी
कार भ -माग क सभी अवरोधक का प र याग कर देना चािहए।
★★★
ेत का वरदान
िच कट म तुलसीदासजी बड़ सवेर उठकर दूर गंगा पार शौच क िलए जाते थे। लौटते समय लोट म बचा पानी वे एक
पेड़ क जड़ म डाल देते थे। यह िसलिसला कई िदन तक चला। उस पेड़ पर एक ेत रहता था। िन य पानी िमलने से
वह ेत संतु होकर तुलसी क सामने कट हो गया और उनसे वर माँगने को कहा।
तुलसी तो अपने इ ीराम कदशन करना चाहते थे। वर म उ ह ने यही इ छा कट क । ेत ने उ ह एक मंिदर का
पता बताते ए कहा िक वहाँ िन य रामकथा होती ह, िजसे सुनने किलए एक कोढ़ी क वेश म हनुमानजी सबसे पहले
आते ह और सबसे बाद म जाते ह। वे उ ह राम से िमला सकते ह।
तुलसी एक भी पल क देरी िकए बगैर उस मंिदर म प चे और कोढ़ी-वेश म हनुमानजी क पैर पकड़कर अपनी इ छा
जािहर कर दी।
तुलसी क अन य भ से हनुमानजी पसीज गए। उ ह ने राम-दशन क यु बता दी, िजसक फल व प िच कट क
घाट पर तुलसी को अपने इ देव क दशन ए।
★★★
घर का ा ण बैल बराबर
एक बार गो वामी तुलसीदासजी काशी म िव ान क म य बैठकर भगव -चचा कर रह थे िक दो देहाती कौतूहलवश
वहाँ आ गए। वे दोन गो वामीजी क ही ाम क थे और गंगा- ान करने काशी गए थे। दोन ने तुलसीदासजी को
पहचाना और उनम से एक देहाती दूसर से बोला, ‘‘अर भैया, यह तुलिसया अपने संग खेला करता था। आज ितलक
लगा िलया तो इसक काफ पूछताछ हो रही ह।’’ दूसर ने भी हामी भरते ए कहा, ‘‘हाँ भैया, यह तो प ा ब िपया
ह। कसा ढ ग कर रहा ह!’’
तुलसीदासजी ने उ ह देखा तो वे उनक पास चले आए। तब उनम से एक बोला, ‘‘अर तुलिसया, तूने यह या भेस बना
रखा ह? तू सबको धोखे म डाल सकता ह, पर हम लोग तेर धोखे म नह आएँगे।’’
तुलसीदासजी उन दोन क गँवारपन पर मन-ही-मन मुसकरा उठ और उनक मुँह से यह दोहा िनकला—
तुलसी वहाँ न जाइए, ज मभूिम क ठाम।
गुण-अवगुण ची ह नह , लेत पुरानो नाम॥
उ ह ने जब दोन को इस दोह का अथ समझाया, तब कह उ ह िव ास आ िक ‘तुलिसया’ तो महा मा बन गया ह।
★★★
राम स रस कोउ नाह
एक बार गो वामी तुलसीदास संत नाभादास से स संग करने वृंदावन गए। तब उ ह यह देख बड़ा दु:ख आ िक य -
त क ण का ही भजन-पूजन हो रहा ह और उनक आरा य देव रामचं जी का नाम कह सुनाई ही नह दे रहा ह। तब
उनक मुख से ये श द फट पड़—
राधा-क ण सबै कह, आक ठाक अ कर।
तुलसी का ज म कहा, िसयाराम स बैर॥
उनक मन-मंिदर म तो भु रामचं क ही मन-मोहक मूित िवराजमान थी, अत: वे जब गोपाल मंिदर प चे और वहाँ भी
जब उ ह क णािनधान राम क मूित न िदखाई दी, तो उ ह ने संक प िकया िक जब तक राघव क मूित िदखाई नह
देगी, वे अपना माथा नह नवाएँग े और आँख बंद कर उ ह ने िन न दोहा कहा—
कहाँ-कहाँ छिब आप क , भले बने हो नाथ।
तुलसी म तक तब नवै, धनुष-बाण लो हाथ॥
और दीनदयालु ीक ण को उनक संक प क आगे झुकना पड़ा। उ ह ने य ही आँख खोल , सामने रघुकल-ितलक
ीराम क ितमा िदखाई दी और तब उ ह ने दंडव णाम िकया।
महारा किव मोरोपंत (मयूर किव) ने ‘ककाविल’ म उपयु घटना का इस कार वणन िकया ह—
ीक णमूित जेण कली, ीराममूित स न हो।
रामसुत मयूर हणे याचा सुयशामृतांत म न हो॥
★★★
राम-ही-राम
एक बार गो वामी तुलसीदासजी राि को कह से लौट रह थे िक सामने से कछ चोर आते िदखाई िदए। चोर ने
तुलसीदासजी से पूछा, ‘‘कौन हो तुम?’’
उ र िमला, ‘‘भाई, जो तुम, सो म।’’
चोर ने उ ह भी चोर समझा। बोले, ‘‘मालूम होता ह, नए िनकले हो। हमारा साथ दो।’’
चोर ने एक घर म सध लगाई और तुलसीदासजी से कहा, ‘‘यह बाहर खड़ रहो। अगर कोई िदखाई दे तो हम खबर
कर देना।’’
चोर अंदर गए ही थे िक गोसाईजी ने अपनी झोली म से शंख िनकाला और उसे बजाना चालू िकया।
चोर ने आवाज सुनी तो डर गए और बाहर आकर देखा तो तुलसीदासजी क हाथ म शंख िदखाई िदया। उ ह ख चकर
वे एक ओर ले गए और पूछा, ‘‘शंख य बजाया था?’’

‘ ‘आपने ही तो बताया था िक जब कोई िदखाई दे तो खबर कर देना। मने अपने चार तरफ देखा तो मुझे
भु रामचं जी
िदखाई िदए। मने सोचा िक आप लोग को उ ह ने चोरी करते देख िलया ह और चोरी करना पाप ह, इसिलए वे ज र
दंड दगे, इसिलए आप लोग को सावधान करना उिचत समझा।’’

‘ ‘मगर रामचं जी तु ह कहाँ िदखाई िद?’’ एक चोर ने पूछ ही िलया।


‘ ‘भगवा का वास कहाँ नह ह? वे तो सव ह, अंतयामी ह और उनका सब तरफ वास ह। मुझ े तो इस संसार म वे
सब तरफ िवराजमान िदखाई दे रह ह, तब िकस थान पर वे िदखाई िदए, कसे बताऊ?’’ तुलसीदासजी ने जवाब िदया।
चोर ने सुना तो वे समझ गए िक यह कोई चोर नह , महा मा ह। अक मा उनक ित ाभाव जा त हो गया और वे
उनक पैर पर िगर पड़। उ ह ने िफर चोरी करना छोड़ िदया और वे उनक िश य हो गए।
★★★
जीवनदान
एक बार गो वामी तुलसीदासजी मंिदर क ओर जा रह थे िक माग म एक ा ण ी िमली। तुलसीदासजी को देख
उसने णाम िकया। तब उ ह ने उसे आशीवाद देते ए कहा, ‘‘सौभा यवती भव!’’
इस पर ी क आँख म आँसू आ गए और वह दुःिखत अंतःकरण से बोली, ‘‘महाराज, आपने यह या आशीवाद दे
िदया? मेर पित का आज ही िनधन आ ह और म सती होने वाली ।’’
तुलसीदासजी ने सुना तो उ ह बेहद दु:ख आ िक उ ह ने अनजाने म एक िवधवा को सधवा होने का आशीवाद दे िदया
ह। उ ह ने मन-ही-मन अपने आरा य देव से ाथना क िक वे उनक आशीवाद को वृथा न जाने द।
क णामूित भु रामचं जी ने उनक ाथना सुन ली। वह ी जब घर गई तो उसने देखा िक उसकपित को जीवनदान
िमल गया ह। उसने जान िलया िक यह गोसाईजी क ही कपा ह। उसे िव ास हो गया िक संत और साधु पु ष क
वचन कभी िम या नह होते।
★★★
आ मानं सततं र े
एक बार गो वामी तुलसीदासजी और भ वर सूरदासजी क भट ई। वे दोन स संग कर रह थे िक अक मा एक
उ म हाथी दौड़ता आ उधर आ प चा। लोग म हड़कप मच गया और वे भयभीत हो इधर-उधर भागने लगे। वे जोर-
जोर से िच ाकर अ य लोग को भी हाथी क आने क बार म आगाह करने लगे। इससे दोन क स संग म यवधान
आया। पूछने पर जब पागल हाथी क उधर ही आने क बार म पता चला, तब सूरदासजी भागने को उठ खड़ ए।
यह देख गो वामीजी ने उनसे कहा, ‘‘अर, दूसर को भागने दीिजए, आप य भाग रह ह? लगता ह, भगवा पर
आपका िव ास नह ह! या दीनदयालु भगवा हमारी र ा करने म समथ नह ?’’
यह सुन सूरदासजी मुसकराए, बोले, ‘‘आपक भगवा धनुधारी ह, इस कारण वे आपक र ा करने म समथ ह। मगर
मेर आरा य तो बाल-गोपाल ठहर। उनसे भला मेरी र ा कसे हो सकती ह!’’
सूरदासजी क कथन का मम गो वामीजी क यान म आ गया िक सूरदासजी का अपने उपा य पर िव ास तो था,
लेिकन वे उनक िजस प क उपासक थे, उसी प पर उनक ढ़ आ था और ा थी। अपनी र ा क िलए
बालक ण पर िनभर रहना वे उिचत नह समझते थे, इसी कारण हाथी से अपनी र ा वयं करना उ ह ने ठीक समझा।
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देनहार कोई और ह
एक बार संत तुलसीदासजी क पास एक िनधन य आया और उसने अपनी क या क िववाह क िलए कछ मदद
करने क िवनती क । तुलसीदासजी ने कहा, ‘‘म तो ठहरा प ा साधु! भला तेरी या मदद कर सकता म! हाँ, मेरा
एक िम ह—अ दुरहीम खानखाना, जो बादशाह क दरबार म ऊचे पद पर ह और बड़ा ही दानी पु ष ह। मगर दानी
लोग से सीधे माँगना उिचत नह ह, इसिलए तेर िलए सांकितक प से माँगकर देखूँगा।’’ और उ ह ने एक कागज क
टकड़ पर िन न पं िलखी—

‘ ‘सुरितय नरितय नागितय, यह चाहत सब कोय।’’


ा ण जब वह कागज लेकर खानखाना क पास गया, तो उ ह ने िलिखत पं का आशय समझकर पूछा, ‘‘िकतना
धन चािहए?’’ ा ण ने क या क िववाह का योजन बताया। तब उ ह ने कहा, ‘‘िववाह से पहले मुझे सूिचत कर
देना। म आकर सारी यव था कर दूँगा।’’
कछ समयोपरांत ा ण से सूचना िमलने पर उ ह ने सचमुच िववाह का सारा खच वहन िकया। लेिकन जाते समय वही
कागज का टकड़ा ा ण को देते ए कहा, ‘‘इसम मने तुसलीह को जवाब दे िदया ह। उ ह यह िदखा देना।’’
ा ण ने पढ़ा तो उसम यह िलखा पाया—‘‘गोद िलये लसी िफर, तुलसी सो सुत होय।’’
तुलसीदासजी ने जब यह पं पढ़ी तो ा ण से पूछा, ‘‘उ ह ने तेरी आिथक प से मदद क थी? मगर तुझसे कोई
खास बात भी तो कही होगी?’’
ा ण ने जवाब िदया, ‘‘मदद तो खूब क , लेिकन कहा कछ नह । हाँ, वे पहले अपना हाथ ऊपर उठाते थे और िफर
नीचे क ओर देखकर सब धन देते थे।’’
तुलसीदासजी ने सुना, तो कागज पर िलख िदया।

‘ ‘सीखी कहाँ खानानजू ऐसी देनी देन।


य - य कर ऊचे करी, य - य नीचे नैन।।’’
(खानखाना, आपने इस कार से दान देना कहाँ सीखा? य िक देते समय िजतना हाथ आप ऊपर उठाते थे, उतनी ही
नजर नीचे करते थे।) और उ ह ने ा ण से वह कागज खानखाना को देने क िलए कहा।
खानखाना ने जब यह दोहा पढ़ा तो उ ह ने िन न दोहा उसक नीचे जोड़ िदया—

‘ ‘देनहार कोई और ह, भेजत जो िदन रन।


लोग भरम मुझपे कर, याते नीचे नैन॥’’
(देनेवाला तो कोई और अथा जग पालक ई र ह, लेिकन लोग को म ह िक म देता । इससे मुझ े लािन होती ह,
इस कारण अपनी नजर नीची कर लेता ।)
तुलसीदासजी ने पढ़ा तो ग द हो गए।

3
तुलसी का का य-संसार
दोहावली
राम-नाम-जप क मिहमा
िच कट सब िदन बसत भु िसय लखन समेत।
राम नाम जप जापकिह तुलसी अिभमत देत॥

भ गवा ीराम—सीता और ल मण क साथ िच कट म सदा िनवास करते ह। तुलसीदास कहते ह िक वे राम-नाम


का जाप करनेवाले भ को मनोवांिछत फल दान करते ह।
पय अहार फल खाइ जपु राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल िस सब करतल तुलसीदास॥
तुलसीदास कहते ह िक छह महीने तक कवल दूध पीकर अथवा फल खाकर ापूवक राम-नाम का जाप करो। ऐसा
करने से मनु य को सब कार क मंगल एवं सम त िस याँ सहज ही ा हो जाएँगी।
नाम राम को अंक ह सब साधन ह सून।
अंक गएँ कछ हाथ निह अंक रह दस गून॥
राम-नाम क मिहमा का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक इस संसार म कवल ीराम का नाम ही अंक ह, उसक
अित र शेष सब शू य ह। अंक क न रहने पर कछ ा नह होता, परतु शू य क पहले अंक क आने पर वह दस
गुना हो जाता ह। अथा राम-नाम का जाप करते ही साधन दस गुना लाभ देनेवाले हो जाते ह।
नाम राम को कलपत किल क यान िनवासु।
जो सुिमरत भयो माँग त तुलसी तुलसीदासु॥
किलयुग म कवल राम-नाम ही ऐसा क पवृ ह, जो मनोवांिछत फल दान करनेवाला तथा परम क याणकारी ह।
इसका सुिमरन करने से तुलसी भाँग से बदलकर तुलसी क समान हो गए ह। अथा काम, ोध, मोह, लोभ आिद
िवषय-िवकार से मु होकर पिव , िनद ष और ई र क ि य हो गए ह।
राम नाम जिप जीह जन भए सुकत सुखसािल।
तुलसी इहाँ जो आलसी गयो आज क कािल॥
तुलसीदास कहते ह िक िजन लोग क िज ा िनरतर राम-नाम का जाप करती रहती ह, वे सभी दुख से मु होकर
परम सुखी और पु या मा हो गए ह। परतु जो आल य क कारण नाम-जाप से िवमुख रहते ह, उनका वतमान और
भिव य न समझना चािहए।
नाम गरीबिनवाज को राज देत जन जािन।
तुलसी मन प रहरत निह घुर िबिनआ क बािन॥
तुलसीदास कहते ह िक दीनबंध ु भगवा ीराम का नाम इतना पावन ह िक वह इसका जाप करनेवाले मनु य को सभी
सुख से यु राज दान कर देता ह। परतु यह मन पी प ी कड़ क ढर म पड़ दाने को चुगने क आदत नह छोड़ता
अथा यह मन सदैव िवषय-वासना म डबा रहता ह।
राम नाम सुिमरत सुजस भाजन भए कजाित।
कत क सुरपुर राजमग लहत भुवन िब याित॥
राम-नाम का सुिमरन करने से लहीन और नीच मनु य भी स ुण से यु होकर यश क पा हो गए ह। वग क
राजमाग पर थत बुर वृ भी तीन लोक म याित ा कर लेत े ह।
मोर मोर सब कह कहिस तू को क िनज नाम।
क चुप साधिह सुिन समुिझ क तुलसी जपु राम॥
ह जीव! तू सबको ‘मेरा-मेरा’ कहता ह, लेिकन तू वयं कौन ह? तेरा नाम या ह? तुलसीदास कहते ह िक ह जीव!
तुम नाम और प क रह य को सुनकर और समझकर चुप हो जा अथा ‘मेरा-मेरा’ कहना छोड़कर अपने व प म
थत हो जा अथवा राम-नाम का जाप कर।
राम नाम अवलंब िबनु परमारथ क आस।
बरषत बा रद बूँद गिह चाहत चढ़न अकास॥
जो मनु य राम-नाम का सहारा िलये िबना ही परमाथ अथा मो क कामना करते ह, उनक थित उन मनु य जैसी
होती ह, जो वषा क बूँद को पकड़कर आकाश पर चढ़ना चाहते ह। अथा राम-नाम क शरण िलये िबना जीवन-मृ यु
क च से मु होना असंभव ह।
िबगरी जनम अनेक क सुधर अबह आजु।
होिह राम को नाम जपु तुलसी तिज कसमाजु॥
तुलसीदास कहते ह िक ह मनु य! यिद तुम कई ज म से िबगड़ी ई अपनी थित को सुधारना चाहते हो तो
संगित और मन क सम त िवकार को यागकर राम-नाम का सुिमरन करो, राम क बन जाओ।
दंपित रस रसना दसन प रजन बदन सुगेह।
तुलसी हर िहत बरन िससु संपित सहज सनेह॥
तुलसीदास परमाथ म लीन साधक क गृह थी क िवषय म बताते ए कहते ह िक रस और रसना (जीभ) पित-प नी ह।
दाँत उसक टबी तथा मुख सुंदर घर ह। ‘रा’ और ‘म’ अ र दो सुंदर बालक ह, जबिक ेह ही संपि ह।
राम नाम नर कसरी कनककिसपु किलकाल।
जापक जन हलाद िजिम पािलिह दिल सुरसाल॥
राम का नाम भगवा नृिसंह तथा किलयुग िहर यकिशपु ह; ीराम क नाम का जाप करनेवाले भ ाद ह। इस
संसार म राम-नाम पी नृिसंह भगवा ही किलयुग पी िहर यकिशपु ारा संत भ क र ा करगे।
राम नाम किल कामत सकल सुमंगल कद।
सुिमरत करतल िस सब पग पग परमानंद॥
भगवा राम का नाम क पवृ क समान ह तथा सभी कार से े मंगल का भंडार ह। उनका सुिमरन करने से सभी
िस याँ उसी कार ा हो जाती ह, जेसे हथेली पर रखी ई कोई व तु। राम-नाम का जाप पग-पग पर परम आनंद
दान करता ह।
सकल कामना हीन जे राम भगित रस लीन।
नाम सु ेम िपयूष द ित िकए मन मीन॥
जो ाणी सभी कामना से रिहत होकर ीराम क भ म डबे ए ह, उन महा मा ने भी राम-नाम क ेम पी
अमृत-सरोवर म वयं को मछली बना रखा ह। अथा राम-नाम को यागने मा क िवचार से ही वे मछली क भाँित
तड़पने लगते ह।
सबरी गीध सुसेवकिन सुगित दी ह रघुनाथ।
नाम उधार अिमत खल बेद िबिदत गुन गाथ॥
ीरघुनाथ (राम) ने शबरी, जटायु आिद भ को सुगित अथा मो दान िकया ह। लेिकन राम-नाम ने तो असं य
पािपय और अधिमय का उ ार कर िदया ह। वेद म भी राम-नाम क गुणगाथा विणत ह।
लंक िबभीषन राज किप पित मा ित खग मीच।
लही राम स नाम रित चाहत तुलसी नीच॥
िवभीषण ने ीराम से लंका ा क , सु ीव ने रा य ा िकया, हनुमान ने सेवक क पदवी ा क तथा जटायु ने
देव से भी दुलभ मृ यु ा क ; परतु तुलसीदास ीराम से उनक राम-नाम म ही ेम चाहते ह।
जल थल नभ गित अिमत अित अग जग जीव अनेक।
तुलसी तो से दीन कह राम नाम गित एक॥
इस संसार म अनेक जीव ह। उन जीव म से कछ क गित जल म ह, कछ क पृ वी पर ह और कछ क आकाश म।
लेिकन तुलसी क िलए कवल राम-नाम ही एकमा गित ह।
राम भरोसो राम बल राम नाम िब वास।
सुिमरत सुभ मंगल कसल माँगत तुलसीदास॥
तुलसीदास कहते ह िक कवल ीराम पर मेरा भरोसा ह; मुझम राम का ही बल रह िजसक मरण मा से सभी दुख का
नाश हो जाता ह तथा शुभ मंगल क ा होती ह, उस राम-नाम म मेरा िव ास बना रह।
राम नाम रित राम गित राम नाम िब वास।
सुिमरत सुभ मंगल कसल दु िदिस तुलसीदास॥
तुलसीदास कहते ह िक िजन मनु य का राम-नाम से ेम ह; िजनक राम ही एकमा गित ह; जो राम-नाम म अगाध
िव ास रखते ह, राम-नाम का मरणमा करने से ही लोक और परलोक म उनका शुभ एवं मंगल हो जाता ह।
रामिह सुिमरत रन िभरत देत परत गु पायँ।
तुलसी िज हिह न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ॥
तुलसीदास कहते ह िक ीराम का मरण होने पर, धमयु म श ु का सामना करते समय, दान देते समय तथा गु -
चरण म णाम करते समय िजनक शरीर म स ता क कारण रोमांच नह होता, वे संसार म यथ ही जी रह ह।
दय सो किलस समान जो न वइ ह रगुन सुनत।
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम॥
तुलसीदास कहते ह िक जो दय ीराम का यशोगान सुनकर िवत नह होता, वह व क भाँित कठोर ह; जो िज ा
राम-गुण का गान नह करती, वह मेढ़क क समान कवल यथ क टर-टर करनेवाली ह।
रह न जल भ र पू र राम सुजस सुिन रावरो।
ितन आँिखन म धू र भ र भ र मूठी मेिलये॥
ीराम का यश सुनकर िजन आँख म ेमजल न भर जाए, उन आँख म म ी भर-भरकर धूल झ कनी चािहए।
तुलसी जाक होयगी अंतर बािहर दीिठ।
सो िक कपालुिह देइगो कवटपालिह पीिठ॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस मनु य क बाहरी आँख क साथ-साथ आंत रक आँख भी पूरी तरह से खुली ह गी, वह
कवट का उ ार करनेवाले राम से कभी िवमुख नह हो सकता। अथा सांसा रक माया और परम-त व को
समझनेवाला मनु य पर ीराम क वा तिवक व प को भली-भाँित जानता ह। इसिलए वह उनसे िवमुख होने क
बार म कभी नह सोच सकता।
र मन सब स िनरस ै सरस राम स होिह।
भलो िसखावत देत ह िनिस िदन तुलसी तोिह॥
तुलसीदास मोह-माया म डबे मन को संबोिधत करते ए कहते ह िक ह मन! संसार क सम त बंधन िणक सुख दान
करनेवाले तथा नाशवान ह। इसिलए तू सांसा रक पदाथ से िवर होकर ीराम से ेम कर। उनक शरणागत होकर तुम
जीवन-मृ यु क च से सदा क िलए मु हो जाओगे। इसिलए तुलसी तुझे िदन-रात कवल यही सीख देता ह।
वारथ सीता राम स परमारथ िसय राम।
तुलसी तेरो दूसर ार कहा क काम॥
सीता-राम ही तु हार परमाथ अथा एकमा परम येय ह। उनक कपा से तु हार सम त वाथ िस हो जाएँग।े
तुलसीदास कहते ह िक िफर तुझे िकसी दूसर क ार पर जाने से या लाभ?
तुलसी वारथ राम िहत परमारथ रघुबीर।
सेवक जाक लखन से पवनपूत रनधीर॥
तुलसीदास क सभी वाथ कवल ीराम क िलए ह और परमाथ भी वे ीरघुनाथ ह, िजनक ल मण और पवनपु
हनुमान जैसे सेवक ह।
तुलसीदासजी क अिभलाषा
राम मे िबनु दूबरो राम ेमह पीन।
रघुबर कब क कर गे तुलिसिह य जल मीन॥
ह रघुनाथ! िजस कार जल म रहकर मछली पु होती ह तथा जल से दूर होते ही दुबल होकर ाण याग देती ह, उसी
कार आप तुलसीदास को कब ऐसा करगे िक वे ीराम क ेम पी जल से पु ह तथा उनक िवयोग म दुबल होकर
ाण याग द।
आपु आपने त अिधक जेिह ि य सीताराम।
तेिह क पग क पानह तुलसी तनु को चाम॥
तुलसीदास कहते ह िक िजन भ को भौितक पदाथ एवं सुख-साधन क अपे ा ीसीता-राम अिधक ि य ह, यिद
मेरा चमड़ा उन भ क चरण क जूितय म लगे तो यह मेरा सौभा य होगा।
वारथ परमारथ रिहत सीता राम सनेह।
तुलसी जो फल चा र को फल हमार मत एह॥
जो मनु य वाथ अथा भौितक सुख एवं परमाथ (मो ) क कामना िकए िबना ीसीताराम से िनः वाथ ेम करते ह,
मेर िवचार म वे धम, अथ, काम, मो क फल से भी े फल ा करते ह।
राम-िवमुखता का कफल
तुलसी ीरघुबीर तिज कर भरोसो और।
सुख संपित क का चली नरक नाह ठौर॥
तुलसीदास कहते ह िक जो ाणी ीरघुबीर क शरण यागकर िकसी और पर भरोसा करता ह, उसे सुख-संपि िमलना
तो दूर, नरक म भी थान नह िमलता।
तुलसी प रह र ह र हरिह पाँवर पूजिह भूत।
अंत फजीहत होिहगे गिनका क से पूत॥
ह र-मिहमा का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य ीह र और शंकर क शरण यागकर नीच भूत क
पूजा करते ह, अंत म वे या क पु क समान उनक बड़ी दुदशा होती ह।
तुलसी ह र अपमान त होइ अकाज समाज।
राज करत रज िमिल गए सदल सकल क राज॥
पािपय एवं अधिमय को सचेत करते ए तुलसीदास कहते ह िक ीह र का अपमान करनेवाले को उसी कार येक
कदम पर हािन-ही-हािन झेलनी पड़ती ह, िजस कार भगवा ीक ण का अपमान करने क कारण राज दुय धन
अपने प रवार और सेना सिहत धूल म िमल गया था।
राम दू र माया बढ़ित घटित जािन मन माँह।
भू र होित रिब दू र लिख िसर पर पगतर छाँह॥
ीराम क तुलना तेजवा सूय से करते ए तुलसीदास कहते ह िक िजस कार सूय क दूर रहने पर छाया लंबी हो जाती
ह और सूय क ठीक िसर क ऊपर आ जाने से छाया पैर क नीचे आ जाती ह, उसी कार ीराम से दूर अथा उनसे
िवमुख होकर मनु य-मन सांसा रक मायाजाल म फस जाता ह; परतु मन म ीराम क िवराजते ही उसक ऊपर से माया
का भाव दूर हो जाता ह।
क रहौ कोसलनाथ तिज जबिह दूसरी आस।
जहाँ तहाँ दुख पाइहौ तबह तुलसीदास॥
तुलसीदास कहते ह िक कौशलपित ीराम को यागकर जब-जब दूसर क आशा करोगे, तब-तब येक ओर दुख-
क ही पाओगे।
बरसा को गोबर भयो को चह को कर ीित।
तुलसी तू अनुभविह अब राम िबमुख क रीित॥
तुलसीदास कहते ह िक ीराम क शरण याग देनेवाले मनु य क गित बरसात म भीगे ए उस गोबर क समान हो जाती
ह, जो न तो लीपने क यो य रहता ह और न ही पाथने क। िफर कौन भला उससे ेम करगा!
तुलसी उ म करम जुग जब जेिह राम सुडीिठ।
होइ सुफल सोइ तािह सब सनमुख भु तन पीिठ॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस मनु य पर ीराम क कपा- ि हो जाती ह, उसक उ म एवं कम सफल हो जाते ह। देह
सिहत सांसा रक सुख का मोह छोड़कर वह भु क स मुख हो जाता ह।
क याण का सुगम उपाय
िनज दूषन गुन राम क समुझ तुलसीदास।
होइ भलो किलकाल उभय लोक अनयास॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य अपने अपराध तथा ीराम क गुण को भली-भाँित समझ लेता ह, किलयुग म उसका
लोक और परलोक—दोन म क याण हो जाता ह।
तुलसी दुइ मह एक ही खेल छाँि़ड छल खेल।ु
क क ममता राम स क ममता परहलु॥
तुलसीदास कहते ह िक ह मन! सबकछ छोड़कर तू दोन म कवल एक ही खेल खेल। या तो तू कवल ीराम क साथ
ममता कर अथवा ममता का सदा क िलए याग कर दे।
सनमुख आवत पिथक य िदएँ दािहनो बाम।
तैसोइ होत सु आप को य ही तुलसी राम॥
िजस कार सामने आते ए पिथक को कोई मनु य अपने दाएँ या बाएँ क ओर िनकलने का थान देता ह और वह
पिथक भी उसी कार दाएँ या बाएँ हो जाता ह, उसी कार मनु य िजस भाव से ीराम को भजता ह, वे उसी भाव से
ा होते ह।
तुलसी जौ ल िबषय क मुधा माधुरी मीिठ।
तौ ल सुधा सह सम राम भगित सुिठ सीिठ॥
तुलसीदास कहते ह िक जब तक िवषय-वासना क िम या माधुरी िमठास-यु लगती ह, तब तक ीराम क भ
अमृत क समान मधुर होने क बाद भी िबलकल फ क लगती ह। अथा भौितक सुख म डबे ए मन को भ का
सुख दुख क समान तीत होता ह।
ह तुलसी क एक गुन अवगुन िनिध कह लोग।
भलो भरोसो रावरो राम रीिझबे जोग॥
तुलसीदास कहते ह िक लोग मुझे अवगुण का भंडार कहते ह, अथा मुझम कवल अवगुण-ही-अवगुण ह। लेिकन
मुझम एक गुण यह ह िक म ीराम क शरण म ; मुझ े कवल ीराम का ही भरोसा ह। इसिलए ह राम! आप मुझ पर
रीझ जाना अथा मुझपर अपनी कपा ि करना।
किलयुग से कौन नह छला जाता
स य बचन मानस िबमल कपट रिहत करतूित।
तुलसी रघुबर सेवकिह सक न कलजुग धूित॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य स य वचन बोलते ह, उनका मन िनमल और िन काम होता ह, उनका यवहार कपट-
रिहत होता ह। ीराम क ऐसे भ को किलयुग कभी भिमत नह कर सकता अथा उ ह मोह-माया क बंधन म
फसाया नह जा सकता।
गो वामीजी क ेम-कामना
नातो नाते राम क राम सनेह सने ।
तुलसी माँगत जो र कर जनम जनम िसव दे ॥
तुलसीदास कहते ह िक ह िशवजी! म हाथ जोड़कर वरदान माँगता िक ज म-ज मांतर म ीराम क नाते ही मेरा िकसी
से नाता हो और ीराम क ेम क कारण ही ेम हो।
ज जगीस तौ अित भलो ज महीस तौ भाग।
तुलसी चाहत जनम भ र राम चरन अनुराग॥
तुलसीदास कहते ह िक यिद ीराम सम त संसार क वामी ह तो यह ब त ही अ छी बात ह, परतु यिद वे कवल पृ वी
क वामी ह तो भी मेरा बड़ा सौभा य ह। मेरी यही इ छा ह िक राम-चरण म मेरा अनुराग सदा बना रह।
रामभ क ल ण
िहत स िहत रित राम स , रपु स बैर िबहाउ।
उदासीन सब स सरल तुलसी सहज सुभाउ॥
रामभ क ल ण बताते ए तुलसीदास कहते ह िक रामभ को इतना स दय और मावा होना चािहए िक ीराम
म उसका ेम हो, िम से मै ी हो, श ु को भी मा कर दे, िकसी क साथ प पात न कर तथा सबक साथ ेम एवं
सरलता का यवहार कर।
उ ोधन
रामिह ड क राम स ममता ीित तीित।
तुलसी िन पिध राम को भएँ हार जीित॥
तुलसीदास कहते ह िक ह ाणी! तुम ीराम से डरो, उनसे ेम करो तथा उन पर पूण िव ास रखो। उनक कपट-रिहत
सेवक बनकर हार भी जीत क समान हो जाती ह। अतएव सदा उनका सुिमरन करो।
सुिमरन सेवा राम स साहब स पिहचािन।
ऐसे लाभ न ललक को तुलसी िनत िहत हािन॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य ीराम का मरण करने, उनक सेवा का सौभा य ा होने तथा उनक पर त व
को पहचानने क लोभ से भी नह ललचाता, उसका जीवन यथ ह। उसक िहत क सदा हािन होती ह। सम त भौितक
सुख ा करने क बाद भी वह दुख झेलता ह।
करमठ कठमिलया कह यानी यान िबहीन।
तुलसी ि पथ िबहाइ गो राम दुआर दीन॥
तुलसीदास कहते ह िक गले म काठ क माला डाल लेने क कारण कमकांडी (कमठ) लोग मुझे ‘कठमिलया’ समझते
ह; जबिक ानी मनु य मुझे ‘ ान-िवहीन’ कहते ह; उपासना करने क िविध से म पूणतः अनिभ । इसिलए म तीन
माग यागकर ीराम क ार पर जा पड़ा , अथा म उनक शरण म ।
बाधक सब सब क भए साधक भए न कोइ।
तुलसी राम कपालु त भलो होइ सो होइ॥
तुलसीदास कहते ह िक संसार म सभी मनु य सबक बाधक होते ह; कोई भी साधक का नह होता। साधक क िलए
कवल ीराम ही उपयु ह। उनका भला उ ह से होता ह।
िबलग िबलग सुख संग दुख जनम मरन सोइ रीित।
रिहअत राखे राम क गए ते उिचत अनीित॥
चूँिक आस ही दुख का मूल कारण ह, अतः सांसा रक मायाजाल से दूर रहने म ही परम सुख ह। ज म-मरण क भी
यही रीत ह। ीराम इस संसार म रखना चाहते ह, इसिलए मोह-रिहत होकर यहाँ रहना चािहए, अ यथा इस नाशवा
संसार से मु हो जाएँ। अथा या तो संसार म ीराम क भ बनकर रह अथवा मु क िलए य न कर।
लोग मगन सब जोगह जोग जायँ िबनु छम।
य तुलसी क भावगत राम ेम िबनु नेम॥
सभी मनु य अ ा व तु को ा करने क योग म लगे ए ह; परतु ा व तु क र ा का उपाय िकए िबना योग
यथ ह। इसी कार तुलसीदास कहते ह िक ीराम क ेम क िबना सभी िनयम-धम यथ ह।
तुलसी राम जो आदय खोटा खरो खरोइ।
दीपक काजर िसर धय धय सुधय धरोइ॥
तुलसीदास कहते ह िक ीराम ने िजसे आदर ( ेम) दे िदया, वह खोटा य भी खरा हो जाता ह। जब दीपक ने
काजल को अपने माथे पर धारण कर िलया तो िफर कर िलया।
घर घर माँगे टक पुिन भूपित पूजे पाय।
जे तुलसी तब राम िबनु ते अब राम सहाय॥
तुलसीदास कहते ह िक जब म ीराम क आ य से रिहत था, तब घर-घर टकड़ माँगता था; परतु ीराम क शरण म
जाते ही वे मेर सहायक हो गए और अब राजा भी मेर पैर पूजते ह।
तुलसी राम त अिधक राम भगत िजयँ जान।
रिनया राजा राम भे धिनक भए हनुमान॥
राम-भ क मह ा बताते ए तुलसीदास कहते ह िक ीराम वयं भ क सेवक प म रहते ह। इसिलए उनक
भ को उनसे भी ऊपर समझना चािहए। हनुमान क भ से सराबोर ीराम उनक ऋणी तथा हनुमान उनक सा कार
बन गए।
िकयो सुसेवक धरम किप भु कत य िजयँ जािन।
जो र हाथ ठाढ़ भए बरदायक बरदािन॥
हनुमानजी ने कवल सेवक-धम का पालन िकया था, परतु उनक इसी भ भाव से कत होकर वर देनेवाले देवता
को भी वरदान देनेवाले ीराम उनक सम हाथ जोड़कर खड़ हो गए और ेम भर वर म वयं को उनका ऋणी कहने
लगे।
भगत हतु भगवान भु राम धरउ तनु भूप।
िकए च रत पावन परम ाकत नर अनु प॥
भ क िलए ही पर भगवा राम ने धरती पर राजा क प म शरीर धारण िकया तथा उनक क याण क िलए
उ ह ने साधारण मनु य क भाँित पिव लीलाएँ क ।
िहर या छ ाता सिहत मधु कटभ बलवान।
जेिह मार सोइ अवतरउ कपािसंधु भगवान॥
िजस जगदी र भगवा ने िहर या सिहत िहर यकिशपु तथा मधु-कटभ जैसे श शाली और मायावी दै य का संहार
िकया था, वे ही राम क प म धरती पर अवत रत ए ह।
भगवा क बाल-लीला
बाल िबभूषन बसन बर धू र धूस रत अंग।
बालकिल रघुबर करत बाल बंध ु सब संग॥
बाल- प ीराम सुंदर आभूषण और व से सुस त ह। धूल से उनक अंग- यंग मटमैल े हो गए ह, परतु वे म न
होकर अपने भाइय और सखा क साथ खेल खेल रह ह।
राम भरत लिछमन लिलत स ु समन सुभ नाम।
सुिमरत दसरथ सुवन सब पूजिह सब मन काम॥
राम, भरत, ल मण और श ु न—ये चार परम पावन और शुभ नाम ह। दशरथ क इन सुपु का सुिमरन करते ही
मनु य क सम त मनोकामनाएँ पूण हो जाती ह।
भगत भूिम भूसुर सुरिभ सुर िहत लािग कपाल।
करत च रत ध र मनुज तनु सुनत िमटिह जगजाल॥
पर भगवा ीराम—भ , भूिम, ा ण, गो एवं देवता क क याण क िलए मनु य- प धारण कर अवत रत
होते ह तथा िविभ लीलाएँ करते ह। इन लीला क वण मा से ही मनु य क सम त दुख का अंत हो जाता ह।
ाथना
परमानंद कपायतन मन प रपूरन काम।
ेम भगित अनपायनी दे हमिह ीराम॥
ह परमानंद! ह कपालु! मन क कामना को पूण करनेवाले ीराम! मुझे अपनी अिवचल ेम पी भ दान कर।
यही मेर उ ार का एकमा साधन ह।
जो चेतन कह जड़ करइ जड़िह करइ चैत य।
अस समथ रघुनायकिह भजिह जीव ते ध य॥
जो पर भगवा चेतन (सजीव) को जड़ (िनज व) तथा जड़ को चेतन कर देते ह, ऐसे साम यवा ीराम क भ
करनेवाले जीव ध य ह।
लव िनमेष परमानु जुग बरस कलप सर चंड।
भजिस न मन तेिह राम कह कालु जासु कोदंड॥
ह मन! िजनका धनुष वयं काल ह; लव, िनमेष, परमाणु, युग, वष एवं क प िजनक बाण ह, तू ऐसे भगवा राम को
य नह भजता?
िबनु सतसंग न ह रकथा तेिह िबनु मोह न भाग।
मोह गएँ िबनु रामपद होइ न ढ़ अनुराग॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस कार स संग क िबना भगवा क कथा सुनने को नह िमलती, उनक लीला को सुने
िबना मोह भंग नह होता, उसी कार मोह का याग िकए िबना ीराम क चरण म अचल ेम नह होता।
अस िबचा र मितधीर तिज कतक संसय सकल।
भज राम रघुबीर क नाकर सुंदर सुखद॥
ह धीरबु ! ीराम क कपा क िबना ाणी का उ ार नह होता, यह सोचकर सभी तकऱ्◌ एवं संशय का
याग कर दो तथा क णामय, परम सुंदर, सुख- दायक ीराम का भजन करो।
िबनु गुर होइ न यान यान िक होइ िबराग िबनु।
गाविह बेद पुरान सुख िक लिहअ ह र भगित िबनु॥
वेद-पुराण कहते ह िक िजस कार गु क िबना ान नह िमलता या वैरा य क िबना ान नह िमलता, उसी कार ह र-
भ क िबना ाणी को सुख क ा कभी नह हो सकती। इसिलए कवल ह र क भ कर।
जरउ सो संपित सदन सुखु सु द मातु िपतु भाइ।
सनमुख होत जो रामपद करइ न सहस सहाइ॥
तुलसीदास कहते ह िक जो संपि , घर, सुख, िम , माता, िपता, भाई आिद ीराम क चरण क स मुख होने म
स तापूवक सहायता नह करते, वे जलकर न हो जाएँ। उनक होने का कोई औिच य नह ह।
सेइ साधु गु समुिझ िसिख राम भगित िथरताइ।
ल रकाई को पै रबो तुलसी िबस र न जाइ॥
स े साधु -महा मा एवं स ु क सेवा करक राम-भ क मूल त व को समझना चािहए। इससे मन म ीराम
क भ उसी कार थर हो जाएगी, िजस कार बचपन का सीखा आ िफर तैरना नह भूलता।
जेिह सरीर रित राम स सोइ आदरिह सुजान।
देह तिज नेहबस बानर भे हनुमान॥
िव ा और ानी लोग उसी शरीर का आदर-स मान करते ह िजसक मा यम से ीराम से ेम होता ह। इसी ेम क
िलए हनुमानजी ने - प यागकर वानर का शरीर धारण कर िलया।
जािन राम सेवा सरस समुिझ करब अनुमान।
पु षा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान॥
भगवा ीराम क सेवा म ही परम आनंद और सुख िनिहत ह। यह स य जानकर ही जग -रचियता िपतामह ाजी ने
जांबवंत तथा िशवजी ने हनुमान का प धारण िकया। इस रह य को समझ और ीराम क भ क मिहमा का
अनुमान लगाएँ।
रावन रपुक दास त कायर करिह कचािल।
खर दूषन मारीच य नीच जािहगे कािल॥
कायर, नीच, पापी और अधम मनु य ही रावण-संहारक भगवा राम क सेवक क साथ दु यवहार करते ह। ऐसे मनु य
उसी कार संसार से शी कच कर जाते ह िजस कार खर-दूषण एवं मारीच जैसे नीच काल का ास बन गए।
खेलत बालक याल सँग मेलत पावक हाथ।
तुलसी िससु िपतु मातु य राखत िसय रघुनाथ॥
िजस कार साँप क साथ खेलते या अ न म हाथ डालते बालक को उसक माता-िपता रोक लेत े ह, उसी कार मनु य
को िवषय-वासना तथा िवषय- पी अ न क ओर अ सर होते देख ीसीताराम उ ह बचा लेत े ह।
तुलसी िदन भल सा कह भली चोर कह राित।
िनिस बासर ता कह भलो मानै राम इताित॥
तुलसीदास कहते ह िक य िप सा कार क िलए िदन भला होता ह तथा चोर क िलए रात अ छी होती ह, परतु जो मनु य
स े दय से ीराम क भ करते ह, उनक िदन और रात—दोन ही क याणकारी होते ह।
राम मिहमा
तुलसी जाने सुिन समुिझ कपािसंधु रघुराज।
महगे मिन कचन िकए स धे जग जल नाज॥
राम-मिहमा का गान करते ए तुलसीदास कहते ह िक संत-महा मा क वाणी सुनकर वे भली-भाँित समझ गए ह िक
ीराम परम कपालु और दया क सागर ह। उ ह ने र न-मिणय तथा वण को तो महगा कर िदया, परतु जीिवत रहने क
िलए आव यक व तु अथा जल एवं अ को संसार म सुलभ बना िदया ह।
चा र चहत मानस अगम चनक चा र को ला ।
चा र प रहर चा र को दािन चा र चख चा ॥
मन कवल धम, अथ, काम और मो —इन चार क कामना करता ह; लेिकन इनक ा अ यंत किठन ह। इनक
थान कवल चार चने अथा कछ िवषय ही िमलते ह। इसिलए इनक कामना छोड़कर इ ह दान करनेवाले भगवा
ीराम क भ करो, बाहर क दो तथा अंदर क दो ने (मन और बु ) से इनका दशन कर।
राम ा म बाधक
बेष िबसद बोलिन मधुर मन कट करम मलीन।
तुलसी राम न पाइए भएँ िबषय जल मीन॥
तुलसीदास राम- ा म बाधक त व का उ ेख करते ए कहते ह िक यिद बाहरी वेश साधु का बना िलया जाए
तथा बोली भी मीठी कर ली जाए, परतु मन कठोर और कम मिलन ह तो इस कार िवषय पी सागर क मछली बनने
से ीराम क ा कभी नह हो सकती। ीराम कवल उ ह ही ा होते ह िजनक मन पिव और कम िन काम होते
ह।
ीराम क शरणागत व सलता
जाितहीन अघ ज म मिह मु क ह अिस ना र।
महामंद मन सुख चहिस ऐसे भुिह िबसा र॥
ह महामूख मन! नीच जाित से संबंिधत तथा पाप क ज मभूिम शबरी को भी िज ह ने मु कर िदया, तू उस भगवा
ीराम से िवमुख होकर सुख क कामना करता ह? जबिक सम त सुख क आधार कवल वे ही ह।
बािल बली बलसािल दिल सखा क ह किपराज।
तुलसी राम कपालु को िबरद गरीब िनवाज॥
ीराम ने सेना-रा य आिद बल से यु परम श शाली बािल को मारकर िम सु ीव को वानरराज बना िदया।
तुलसीदास कहते ह िक कपालु ीराम क अवतार का उ े य ही भ का क याण करना ह। वे शरणागत क सदैव
र ा करते ह।
तुलसी कोसलपाल सो को सरनागत पाल।
भ यो िबभीषन बंधु भय भं यो दा रद काल॥
तुलसीदास कहते ह िक शरणागत-धम का पालन करनेवाला कौशलपित ीराम क अित र संसार म दूसरा कौन ह?
रावण क भय से िवभीषण ने ीराम का भजन िकया था, परतु उसक भ से स होकर ीराम ने उसक द र ता
और काल को न कर िदया।
जो संपित िसव रावनिह दी ह िदएँ दस माथ।
सोइ संपदा िबभीषनिह सकिच दी ह रघुनाथ॥
भगवा िशव ने जो धन-संपि रावण को उसक दस िसर क बिल चढ़ाने क बाद दी थी, भगवा ीराम ने बड़ संकोच
क साथ वह िवभीषण को स प दी। वे यही सोचते रह िक वे अपने भ को िकतनी तु छ व तु दान कर रह ह।
कहा िबभीषन लै िम यो कहा िदयो रघुनाथ।
तुलसी यह जाने िबना मूढ़ मीिजह हाथ॥
िवभीषण या लेकर ीराम से िमला था और उसक बदले म ीराम ने उसे या दे िदया? िवभीषण क दय म ीराम
क ित अगाध ेम था। उसक इसी भ भाव को देखकर ीराम ने उसे लंका का रा य स प िदया। तुलसीदास कहते ह
िक जो मनु य भगवा राम क इस वभाव से अप रिचत ह, वे उनक शरण यागकर इस दुखमय संसार म भटकते रहते
ह।
तेिह समाज िकयो किठन पन जेिह तौ यो कलास।
तुलसी भु मिहमा कह सेवक को िब वास॥
िजस रा सराज रावण ने कलास पवत को अपने हाथ से उठा िलया था, उसी क दरबार म राम-भ अंगद ने अपना
पैर रखकर ण िकया था िक यिद वह उसका पैर िहला देगा तो ीराम सीता को यागकर वापस लौट जाएँग।े तब
भगवा राम ने भ क ण क र ा क । तुलसीदास कहते ह िक इसे भगवा क मिहमा कह या भ का िव ास
कह।
ािह तीिन क ो ौपदी तुलसी राज समाज।
थम बढ़ पट िबय िबकल चहत चिकत िनज काज॥
िजस समय दुशासन भर दरबार म ौपदी का चीर-हरण कर रहा था, उस समय ौपदी ने तीन बार ािह- ािह कर
भगवा ह र को पुकारा था। उनक थम पुकार सुनते ही भगवा ह र ने उनक व को बढ़ा िदया था। दूसरी पुकार म
ौपदी क र ा हतु वे वयं वहाँ आने क िलए या ल हो उठ। तीसरी पुकार म उ ह ने चिकत होकर दु क
संहार का िन य कर िलया। अथा भ ारा स े मन से ापूवक क गई एक भी पुकार को भगवा कभी यथ
नह जाने देते।
किपन देइ पाइअ परो िबनु साध िसिध होइ।
सीतापित सनमुख समुिझ जो क जै सुभ सोइ॥
क जूस दे देता ह, पड़ा िमल जाता ह, िबना साधन क िस हो जाती ह। अथा सीतापित ीराम को अपने स मुख
जानकर जो काय िकया जाता ह, वह शुभ हो जाता ह।
िबनह रतु त बर फरत िसला वित जल जोर।
राम लखन िसय क र कपा जब िचतवत जेिह ओर॥
भगवा ीराम, सीताजी और ल मण—िजस ओर भी ेह-यु ि से देख लेत े ह, वृ बेमौसम फलने लगते ह,
प थर क िशला से ती वेग म जल बहने लगता ह।
िसला साप मोचन चरन सुिमर तुलसीदास।
तज सोच संकट िमिटिह पूजिह मनक आस॥
तुलसीदास कहते ह िक ह ाणी! िशला पी अह या को शाप से मु करनेवाले भगवा ीराम का िन य सुिमरन करो
तथा सम त िचंता को याग दो। उनक यान मा से तु हार संकट न हो जाएँग े तथा मनोकामनाएँ पूण ह गी।
मुए िजआए भालु किप अवध िब को पूत।
सुिमर तुलसी तािह तू जाको मा ित दूत॥
ह तुलसीदास! तुम उन भगवा राम का मरण करो िज ह ने लंका-यु म मर ए वानर एवं भालु को पुन ीिवत
कर िदया, अयो या म ा ण क मृत पु म ाण पूँ क िदए, संजीवनी बूटी लाकर ल मण को जीिवत करनेवाले
पवनपु हनुमान िजनक सेवक ह। इससे तु हार सभी क दूर हो जाएँग।े
रोग िनकर तनु जरठपनु तुलसी संग कलोग।
राम कपा लै पािलए दीन पािलबे जोग॥
तुलसीदास ीराम से िवनती करते ए कहते ह िक ह भु! वृ ाव था से िघरा आ मेरा शरीर रोग क खान ह; बुर
लोग का संग ह। ह ीराम! अपना समझकर मेरा पालन क िजए। यह दीन आपक पालने क यो य ह।
भव भुअंग तुलसी नकल डसत यान ह र लेत।
िच कट एक औषधी िचतवत होत सचेत॥
िच कट क मिहमा का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक संसार पी िवषैला सप तुलसीदास पी नेवले को
डसकर उसका सारा ान हरण कर लेता ह। उस दशा म कवल िच कट ही ऐसी औषध ह, िजसक ओर देखते ही वह
पुनः सचेत हो जाता ह।
राम रा य क मिहमा
राम राज राजत सकल धरम िनरत नर ना र।
राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चा र॥
राम रा य क मिहमा का वणन करते ए किव तुलसीदास कहते ह िक उनक रा य म सभी नर-नारी अपने-अपने धम
का यथोिचत पालन करते ह। वहाँ कह भी राग, ेष, ोध, दुख आिद नह ह; लोग को चार पदाथ—धम, अथ,
काम, मो सहज ही उपल ध ह।
दंड जित ह कर भेद जह नतक नृ य समाज।
जीत मनिह सुिनअ अस रामचं क राज॥
राम रा य म दंड सं यािसय क हाथ म सुशोिभत ह तथा भेद नतक-समाज म; ‘जीतो’ श द का योग कवल मन को
जीतने क िलए िकया जाता ह।
ीराम क दयालुता
मुकर िनरिख मुख राम भू्र गनत गुनिह दै दोष।
तुलसी से सठ सेवक ह लिख जिन परिह सरोष॥
दयालुता का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक ीराम क टढ़ी भौह एक गुण ह; परतु दपण म अपने ीमुख को
देखकर वे यह सोचते ए भौह को दोष देत े ह िक इ ह देखकर तुलसी क समान सेवक को कह इन भौह म ोध का
आभास न हो जाए।
ीराम क धम धुरधरता
सहसनाम मुिन भिनत सुिन तुलसी ब भ नाम।
सकिचत िहयँ हिस िनरिख िसय धरम धुरधर राम॥
मुिन ारा कह गए राम क सह नाम म ‘तुलसी-व भ’ नाम सुनकर धम धुंधर भगवा ीराम हसते ए सीताजी को
देखते ह तथा मन-ही-मन स चाते ह।
ीराम क क ित
तुलसी िबलसत नखत िनिस सरद सुधाकर साथ।
मुकता झाल र झलक जनु राम सुजसु िससु हाथ॥
ीराम क क ित का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक राि म शरद पूिणमा क चं मा क साथ न ावली ऐसी
शोभायमान ह मानो ीराम क सुयश पी िशशु क हाथ म मोितय क झालर िझलिमला रही हो।
भु गुन गन भूषन बसन िबसद िबसेष सुबेस।
राम सुक रित कािमनी तुलसी करतब कस॥
भगवा ीराम क गुण का समूह उनक क ित पी कािमनी क व एवं आभूषण ह, िजनसे उनका वेश अ यंत सुंदर
और व छ तीत होता ह। तुलसीदास क जो करतूत ह, काली होने क कारण वह उनक कश ह।
राम च रत राकस कर स रस सुखद सब का ।
स न कमुद चकोर िचत िहत िबसेिष बड़ ला ॥
ीराम का च र पूिणमा क चं मा क िकरण क भाँित सम त संसार को सुख दान करने वाला ह, परतु स न पी
मुद और चकोर क िच क िलए वह िवशेष प से िहतकारी और लाभदायक ह।
राम कथा क मिहमा
राम कथा मंदािकनी िच कट िचत चा ।
तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहा ॥
रामकथा क मिहमा का वणन करते ए किव तुलसीदास कहते ह िक ीराम-कथा मंदािकनी नदी तथा भ से प रपूण
िच िच कट क समान ह। ेह ही वह सुंदर वन ह, िजसम ीराम सीता सिहत िवहार करते ह।
ह र हर जस सुर नर िगर बरनिह सुकिब समाज।
हाँड़ी हाटक घिटत च राँधे वाद सुनाज॥
किवगण भगवा ीह र और भोलेनाथ क यश का वणन सं कत और थानीय भाषा—दोन म करते ह। उ म अनाज
िम ी क हाँड़ी म पकाया जाए या सोने क पा म, वािद ही होता ह।
राम स प तु हार बचन अगोचर बु पर।
अिबगत अकथ अपार नेित नेित िनत िनगम कह॥
तुलसीदास कहते ह िक ह ीराम! आपक व प का वणन वाणी से अगोचर और बु से पर ह। इसे न तो कोई जान
सकता ह, न ही इसका वणन कर सकता ह और न ही इससे पार पा सकता ह। इसिलए वेद म भी ‘नेित-नेित’ कहकर
उसका वणन करते ह।
ीरामजी क भ -व सलता :
िहत उदास रघुबर िबरह िबकल सकल नर ना र।
भरत लखन िसय गित समुिझ भु चख सदा सुबा र॥
ीराम क िवरह म अयो या क सम त नर-नारी उदास और या ल थे। लेिकन भरत, ल मण और सीता क दशा
को देख-समझकर ीराम क ने म आँसू भर रहते थे।
सीता, ल मण और भरत क राम ेम क अलौिककता
सीय सुिम ा सुवन गित भरत सनेह सुभाउ।
किहबे को सारद सरस जिनबे को रघुराउ॥
सीताजी और ल मण क अन य ेम तथा भरत क ेह-यु वभाव का वणन कवल सर वती ही कर सकती ह तथा
उसे जानने क िलए ीरघुनाथजी ही समथ ह।
सब िबिध समरथ सकल कह सिह साँसित िदन राित।
भलो िनबाहउ सुिन समुिझ वािमधम सब भाँित॥
सभी यही कहते ह िक ेम क त व को जानने तथा उसका िनवाह करने म कवल राम ही समथ ह। इसिलए उ ह ने
सबकछ सुन-समझकर, िदन-रात क सहते ए अपने वामी-धम का यथोिचत पालन िकया ह।
संपित चकई भरत चक मुिन आयस खेलवार।
तेिह िनिस आ म िपंजराँ राखे भा िभनुसार॥
तुलसीदास कहते ह िक भोग-िवलास क साम ी चकवी ह और भरत चकवे ह। भर ाज मुिन क आ ा िखलाड़ी ह,
िजसने चकवा और चकवी को आ म पी िपंजर म बंद कर िदया। लेिकन सवेरा होने पर भी उन दोन म िमलन नह
आ। अथा राम- ेम म डबे भरत को भौितक सुख भी अपनी ओर नह ख च पाए।
सधन चोर मग मुिदत मन धनी गही य फट।
य सु ीव िबभीषनिह भई भरत क भट॥
िजस कार धन लेकर जाते ए चोर को माग म धनी पकड़ लेते ह और उस समय चोर क जो दशा होती ह, वैसी ही
दशा राम-भरत क िमलन पर सु ीव और िवभीषण क हो रही ह। वे रा य क िलए अपने भाई को मरवाकर वयं को
ीराम का सबसे बड़ा और िनकटतम भ समझते थे, परतु भरत ने भाई क िलए सबकछ यागकर वयं को उनसे भी
बड़ा भ िस कर िदया।
राम सराह भरत उिठ िमले राम सम जािन।
तदिप िबभीषन क सपित तुलसी गरत गलािन॥
तुलसीदास कहते ह िक भगवा राम ने सु ीव और िवभीषण क बड़ी शंसा क ; भरत भी उ ह ीराम क समान
समझकर ेमपूवक गले िमले। परतु िफर भी सु ीव और िवभीषण उनक िन वाथ भाव को देखकर लािन से भर जा रह
थे।
ल मण मिहमा
लिलत लखन मूरित मधुर सुिमर सिहत सनेह।
सुख संपित क रित िबजय सगुन सुमंगल गेह॥
ल मण-मिहमा का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक जो सुख, संपि , क ित, िवजय, स ुण और सुंदर क याण
क घर ह, उन ील मण क मधुर मूित का ेमभाव से सुिमरन करो।
कौश या मिहमा
कौस या क यानमइ मूरित करत नाम।
सगुन सुमंगल काज सुभ कपा करिह िसयराम॥
कौश या क मिहमा का गान करते ए तुलसीदास कहते ह िक माता कौश या ममता क मूित ह। उ ह णाम करने से
सभी शुभ शगुन और सुंदर मंगल होते ह, भ क सम त काय पूण होते ह तथा ीसीताराम कपा करते ह।
सीता मिहमा
सीताचरन नाम क र सुिम र सुनाम सुनेम।
होिह तीय पितदेवता ाननाथ ि य ेम॥
जो ि याँ सीताजी क चरण म िनयिमत णाम करती ह तथा उनक नाम का सुिमरन करती ह, वे पित ता हो जाती ह।
उ ह अपने ि य ाणनाथ का ेम ा होता ह।
रामच र क पिव ता
तुलसी कवल कामत रामच रत आराम।
किलत किप िनिसचर कहत हमिह िकए िबिध बाम॥
तुलसीदास कहते ह िक ीरामच र पी बगीचे म कवल क पवृ ही ह। सु ीव आिद वानर और िवभीषण आिद
रा स कहते ह िक ई र ने हम पाप-यु देह दान क , परतु ीराम ने इस प म भी हम अपने च रत पी उ ान म
थान िदया।
ककयी क किटलता
मातु सकल सानुज भरत गु पुर लोग सुभाउ।
देखत देख न ककइिह लंकापित किपराउ॥
सभी माता , ल मण, भरत, श ु न, गु जन और सम त अयो यावािसय क ेमयु वभाव को सु ीव एवं िवभीषण
भाव-िवभोर होकर देख रह ह। लेिकन ककयी क िटलता-यु वभाव को देखकर उ ह दुख होता ह।
तुलसी जा यो दसरथिह धरमु न स य समान।
रामु तजे जेिह लािग िबनु राम प रहर ान॥
तुलसीदास कहते ह िक स य क अित र कोई मानव-धम नह ह, इस बात को महाराज दशरथ ने समझा था। इसी
स य-पालन क िलए उ ह ने अपने ि य राम का याग कर िदया और िफर उनक िवयोग म अपने ाण याग िदए।
जीवन मरन सुनाम जैस दसरथ राय को।
िजयत िखलाए राम नाम िबरह तनु प रहरउ॥
जीवन-मृ यु म राजा दशरथ का जो नाम आ, वह िकसी क िलए भी संभव नह ह। जीिवत रहते ए उ ह ने ीराम को
गोद म िखलाया और अंत म उ ह क िवरह म अपने ाण याग िदए।
िबरत करम रत भगत मुिन िस ऊच अ नीचु।
तुलसी सकल िसहात सुिन गीधराज क मीचु॥
तुलसीदास कहते ह िक िग राज क दुलभ मृ यु क िवषय म सुनकर िवर , कमयोगी, भ , ानी, मुिन, िस —
सभी उनसे ई या करने लगे। वे सोचने लगे िक इस कार क मृ यु उ ह य नह िमली?
मुएँ मुकत जीवत मुकत मुकत मुकत बीचु।
तुलसी सबही त अिधक गीधराज क मीचु॥
तुलसीदास कहते ह िक मु -मु म अंतर होता ह। कोई मृ यु क बाद मु होता ह तो कोई जीिवत रहते ए ही मु
हो जाता ; परतु इन सबसे बढ़कर िग राज क मु ई ह, य िक उ ह ने ीराम का काय करते ए अपने ाण
यागे।
रघुबर िबकल िबहग लिख सो िबलोिक दोउ बीर।
िसय सुिध किह िसय राम किह देह तजी मित धीर॥
ीरघुनाथ ने पीड़ा से या ल िग राज को देखा। उस धीर बु जटायु ने भी दोन भाइय को देखा और सीताजी
का समाचार सुनाकर ‘सीताराम-सीताराम’ कहकर ाण याग िदए।
रामकपा क मह ा
कवट िनिसचर िबहग मृग िकए साधु सनमािन।
तुलसी रघुबर क कपा सकल सुमंगल खािन॥
रामकपा क मिहमा गाते ए तुलसीदास कहते ह िक ीरघुनाथ सम त सुंगल क खान ह। उनक कपा ा करक
कवट, िवभीषण जैसे रा स, जटायु जैसे प ी तथा वानर-भालू भी स मािनत होकर साधु बन गए ह।
धीर बीर रघुबीर ि य सुिमर समीर कमा ।
अगम सुगम सब काज क करतल िस िबचा ॥
तुलसीदास कहते ह िक ीराम क यार धीर-वीर पवनपु हनुमान का मरण करक िकया गया कोई भी दुलभ या सुलभ
काय सहज ही पूण हो जाता ह, सफलता सदा कदम चूमती ह।
सकल काज सुभ समउ भल सगुन सुमंगल जानु।
क रित िबजय िबभूित भिल िहयँ हनुमानिह आनु॥
दय म हनुमानजी का ापूवक यान करने से ाणी क सभी काय िस होते ह, दुख-रिहत अ छ िदन आते ह;
स ुण, सुंगल, क ित, िवजय और िवमल िवभूित क ा होती ह।
भुज त कोटर रोग अिह बरबस िकयो बेस।
िबहगराज बाहन तुरत काि़ढअ िमट कलेस॥
ह ग ड़वाहन ह र! मेरी भुजा कोटर क समान ह, िजसम रोग पी सप घुस गया ह। आप मुझपर कपा कर और इसे
शी िनकाल डाल, िजससे मेर क का नाश हो जाए।
काशी मिहमा
मु ज म मिह जािन यान खािन अघ हािन कर।
जह बस संभ ु भवािन सो कासी सेइअ कस न॥
िजस काशी म देवी पावती सिहत सा ा भगवा िशव िवराजमान ह, उसे पाप का नाश करनेवाली, ान- दायक और
मु देनेवाली समझकर उसका सेवन करो।
शंकर मिहमा :
जरत सकल सुर बृंद िबषम गरल जेिह पान िकय।
तेिह न भजिस मन मंद को कपालु संकर स रस॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस समय समु -मंथन क समय िनकलनेवाले हलाहल िवष से सम त देवगण जल उठ, उस
समय भगवा िशव ने उसका पान करक सृि क र ा क । ह मूख मन! तू उस भगवा िशव का सुिमरन य नह
करता? उनक समान परम कपालु दूसरा कोई नह ह।
ेम म पंच बाधक ह
मे सरीर पंच ज उपजी अिधक उपािध।
तुलसी भली सुबैदई बेिग बाँिधऐ यािध॥
तुलसीदास कहते ह िक िवषयास का रोग लगने से ेम पी शरीर म भयंकर पीड़ा उ प हो जाती ह; परतु े
उपचार इसी म ह िक यािध को शी रोक िदया जाए। अथा राम-भ ारा वयं को िवषय-आस से दूर रख।
अिभमान ही बंधन का मूल ह
हम हमार आचार बड़ भू र भार ध र सीस।
हिठ सठ परबस परत िजिम क र कोस किम क स॥
अिभमान क बार म तुलसीदास कहते ह िक ‘हम बड़, हमारा आचार बड़ा’, ऐसे अिभमान का बोझ िसर पर रखकर हम
मूख तोते, रशम क क ड़ और बंदर क भाँित वयं को बंधन म बाँधकर पराधीन कर लेत े ह।
भगव माया क दु यता
सुखसागर सुख न द सब सपने सब करतार।
माया मायानाथ क को जग जानिनहार॥
इस सृि म कवल सुखसागर परमा मा ही जीव प म सुख क न द सोते ए व न म सम त काय कर रह ह। माया
क वामी क माया को जानने वाला संसार म उनक अित र दूसरा कौन ह?
सृि व नव ह :
सपन होइ िभखा र नृपु रक नाकपित होइ।
जाग लाभु न हािन कछ ितिम पंच िजयँ जोइ॥
िजस कार व न म राजा िभखारी और इ क गाल हो जाता ह, परतु न द से जागने पर सकछ यथाव रहता ह—
अथा कोई लाभ या हािन नह होती, उसी कार िवषयास से भर इस संसार को भी दय से व न क भाँित देखना
चािहए।
हमारी मृ यु ित ण हो रही ह
तुलसी देखत अनुभवत सुनत न समुझत नीच।
चप र चपेट देत िनत कस गह कर मीच॥
मृ यु का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक ह नीच! मृ यु तेरी चोटी पकड़कर िन य तुझे चपत लगा रही ह अथा
ण- ित ण तेरा भ ण कर रही ह, परतु अपनी यह दशा देखकर, सुनकर और अनुभव करक भी तू नह समझता और
भोग-िवलास म डबा आ ह।
काल क करतूत
करम खरी कर मोह थल अंक चराचर जाल।
हनत गुनत गिन गुिन हनत जगत योितषी काल॥
काल क काय का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक संसार म काल पी योितषी हाथ म कम पी खि़डया
लेकर मोह पी प ी पर चराचर जीव पी अंक को बनाता ह, िहसाब लगाता ह और िफर एक-एक कर उ ह िमटा
देता ह।
इि य क साथकता
किहबे कह रसना रची सुिनबे कह िकए कान।
ध रबे कह िचत िहत सिहत परमारथिह सुजान॥
परमा मा ने जीभ क रचना भगव -चचा क िलए क ह; भगव को सुनने क िलए कान क रचना क तथा ेम सिहत
भगवा का यान करने क िलए िच को बनाया।
िवषयास क नाश िबना ान अधूरा ह
परमारथ पिहचािन मित लसित िबषयँ लपटािन।
िनकिस िचता त अधज रत मान सती परािन॥
परमाथ को जानने क बाद भी िवषय म िलपटी ई बु ऐसी तीत होती ह मानो िचता से िनकलकर भागी ई कोई
अधजली सती।
साधु क िलए पूण याग क आव यकता
ख रया खरी कपूर सब उिचत न िपय ितय याग।
क ख रया मोिह मेिल क िबमल िबबेक िबराग॥
इस दोह ारा तुलसीदास उन मनु य को संबोिधत कर रह ह, जो साधु हो जाने क बाद भी िवषयास से िघर रहते ह।
वे कहते ह िक साधु हो जाने क बाद भी यिद झोली म खरी और कपूर रखना ह तो साधु-वेश का याग कर दो, अ यथा
िवशु ान और वैरा य को धारण करो।
िवषय क आशा दु:ख का मूल ह
तुलसी अ ुत देवता आसा देवी नाम।
सेए ँ सोक समपई िबमुख भएँ अिभराम॥
तुलसीदास कहते ह िक ‘आशा’ एक ऐसी अ ुत देवी ह िजसक सेवा करने से शोक और इससे िवमुख होने पर सुख
ा होता ह।
िवषय-सुख क हयता
करत न समुझत झूठ गुन सुनत होत मित रक।
पारद गट पंचमय िस उ नाउ कलंक॥
िवषय म डबा मनु य िवषय क िलए चे ा करते ए यह नह समझता िक इसम कह भी सुख नह िमलता। िवषय म
डबे रहने क कारण उनक बु न हो जाती ह। यह ंचमय िवषय-सुख य पार क समान ह, िजसक िस होने
पर भी उसक नाम ‘कलंक’ लगता ह।
लोभ क बलता :
यानी तापस सूर किब कोिबद गुन आगार।
किह क लोभ िबडबना क ह न एिह संसार॥
ानी, तप वी, शूरवीर, किव, पंिडत और गुण से यु इस संसार म ऐसा कौन सा मनु य ह, लोभ ने िजसका सवनाश
न िकया हो।
माया क फौज
यािप रहउ संसार म माया कटक चंड।
सेनापित कामािद भट दंभ कपट पाषंड॥
माया पी राजा क ंड सेना संसार म पूरी तरह से फली ई ह। काम, ोध, मद, लोभ, मोह और म सर आिद इस
सेना क सेनापित तथा दंभ, कपट, पाखंड इसक वीर यो ा ह।
काम, ोध, लोभ क बलता
तात तीिन अित बल खल काम ोध अ लोभ।
मुिन िब यान धाम मन करिह िनिमिष म छोभ॥
तुलसीदास कहते ह िक ह तात! काम, ोध एवं लोभ—ये तीन दु बड़ ही बलवान और मोिहत कर देन े वाले ह।
इनक भाव से ानवा मुिन भी पल भर म ोभ से िसत हो जाते ह।
मोह क सेना
काम ोध लोभािद मद बल मोह क धा र।
ित ह मह अित दा न दुखद माया पी ना र॥
काम, ोध, लोभ, मद आिद मोह क बल सेना ह। इसम ी माया क सा ा मूित ह जो अित भयंकर दुख दान
करने वाली ह।
अ न, समु , बल ी और काल क समानता
काह न पावक जा र सक का न समु समाइ।
का न कर अबला बल किह जग कालु न खाइ॥
तुलसीदास अ न, समु , बल ी और काल क समानता करते ए कहते ह िक अ न या नह जला सकती? समु
िकसे डबो नह सकता? बल पाकर अबला ी या नह कर सकती? जग म काल िकसे नह खा सकता?
उ ोधन
दीपिसखा सम जुबित तन मन जिन होिस पतंग।
भजिह राम तिज काम मद करिह सदा सतसंग॥
तुलसीदास मन को संबोिधत करते ए कहते ह िक ह मन! ि य का सुंदर शरीर दीपक क जलती ई लौ क समान
होता ह। तू पतंगा मत बन, अ यथा यथ म जल जाएगा। ह मन! तू काम, ोध आिद िवकार का याग कर ीराम का
भजन करते ए िनरतर स संग कर।
गृहास ीरघुनाथजी क व प क ान म बाधक ह
काम ोध मद लोभ रत गृहास दुख प।
ते िकिम जानिह रघुपितिह मूढ़ पर भव कप॥
जो मनु य काम, ोध, मद और लोभ म डबे रहते ह; दुख पी घर म आस रखते ह, वे संसार पी एँ म
पड़ ए मूख क समान ीरघुनाथ क त व को जानने म असमथ होते ह।
ान माग क किठनता
कहत किठन समुझत किठन साधत किठन िबबेक।
होइ घुना छर याय ज पुिन यूह अनेक॥
ान को कहना और समझना अ यंत किठन ह; साधन करने म भी यह किठन ह। यिद िकसी कार ान ा हो जाए
तो भी इसे बचाए रखने म अनेक िव न का सामना करना पड़ता ह।
संतोष क मिहमा
कोउ िब ाम िक पाव तात सहज संतोष िबनु।
चलै िक जल िबनु नाव कोिट जतन पिच पिच म रअ॥
संतोष क मिहमा बताते ए तुलसीदास कहते ह िक िजस कार अनेक य न करने क बाद भी जल क िबना सूखी
जमीन पर नाव नह चलती, उसी कार सहज संतोष क िबना कोई भी शांित नह पा सकता।
गो वामीजी क अन यता :
एक भरोसो एक बल एक आस िब वास।
एक राम घन याम िहत चातक तुलसीदास॥
एक पर ही िव ास ह, एक ही बल ह, एक ही आशा ह और एक ही िव ाम ह। एक राम पी मेघ क िलए ही
तुलसीदास चातक बने ए ह।
चातक तुलसी क मत वाित िपऐ न पािन।
ेम तृषा बाढ़ित भली घट घटगी आिन॥
ह चातक! तुलसीदास क अनुसार तू वाित न म बरसा आ पानी भी मत पीना, य िक ेम क यास बढ़ती ई ही
अ छी होती ह, इसक कम होने से ेम क िन ा कम होती जाएगी।
रटत रअत रसना लटी तृषा सूिख गे अंग।
तुलसी चातक ेम क िनत नूतन िच रग॥
तुलसीदास कहते ह िक य िप मेघ का नाम रटते-रटते चातक क जीभ लटक गई, उसक शरीर क सार अंग सूख गए,
तथािप उसक ेम का रग िन य नया और सुंदर होता जाता ह।
मान रािखबो माँिगबो िपय स िनत नव ने ।
तुलसी तीिनउ तब फब जौ चातक मत ले ॥
तुलसीदास कहते ह िक पहले आ मस मान क र ा, िफर माँगना और िफर ि यतम से ेम को िन य बढ़ाने क ाथना
करना—ये तीन बात तभी उिचत लगती ह जब चातक क मत का अनुसरण िकया जाए।
तुलसी चातक माँगनो एक एक घन दािन।
देत जो भू भाजन भरत लेत जो घूँटक पािन॥
तुलसीदास कहते ह िक माँगनेवाला चातक एक ही ह और देनेवाला मेघ भी एक ही दानी ह। मेघ पृ वी पर इतना जल
बरसाता ह िक चार ओर जल-ही-जल ि गोचर होता ह; परतु चातक कवल एक बूँद ही पीता ह और उसी म संतु
हो जाता ह।
निह जाचत निह सं ही सीस नाइ निह लेइ।
ऐसे मानी मागनेिह को बा रद िबनु देइ॥
चातक न तो मुँह से कछ माँगता ह, न जल का सं ह करता ह और न ही िसर झुकाकर कछ लेता ह। ऐसे माँगनेवाले
चातक को मेघ क अित र और कौन जल दे सकता ह?
चातक जीवन दायकिह जीवन समयँ सुरीित।
तुलसी अलख न लिख पर चातक ीित तीित॥
चातक को जीवन दान करनेवाले मेघ क सुंदरता उसक जीवनकाल म ही िदखाई देती ह, लेिकन चातक का ेम एवं
िव ास तो अ य ह। तुलसीदास कहते ह िक चातक का ेम िकसी को िदखाई नह देता, जबिक वह मरते समय भी
बना रहता ह।
जीव चराचर जह लग ह सब को िहत मेह।
तुलसी चातक मन ब यो घन स सहज सनेह॥
तुलसीदास कहते ह िक य िप मेघ (परमा मा) संसार क सभी चराचर जीव का िहतकारी ह; परतु कवल चातक क
दय म ही उस मेघ क ित वाभािवत ेम बसा आ ह।
मुख मीठ मानस मिलन कोिकल मोर चकोर।
सुजस धवल चातक नवल र ो भुवन भ र तोर॥
तुलसीदास कहते ह िक कोयल, मोर और चकोर कवल मुँह क मीठ होते ह, लेिकन उनक मन म मैल भरा होता ह;
परतु ह चातक! संसार म कवल तेरा ही िनमल यश छाया आ ह।
होइ न चातक पातक जीवन दािन न मूढ़।
तुलसी गित हलाद क समुिझ ेम पथ गूढ़॥
तुलसीदास कहते ह िक न तो चातक पापी ह और न ही जीवन- दायक मेघ मूख ह। ह ाणी! ाद क दशा पर
िवचार करो और समझो िक ेम का माग िकतना किठन ह; उसक माग पर क -ही-क िमलते ह।
चरग चंग ु गत चातकिह नेम ेम क पीर।
तुलसी परबस हाड़ पर प रह प मी नीर॥
तुलसीदास कहते ह िक बाज क पंजे म फसे ए चातक को अपने ेम क िनयम क िचंता होती ह, अथा वह अपनी
मृ यु क िवषय म नह सोचता। उसे पल- ितपल यही भय सताता ह िक मृ यु उपरांत उसका शरीर वाित न क जल
म न िगरकर साधारण जल म िगरगा।
तुलसी चातक देत िसख सुतिह बारह बार।
तात न तपन क िजए िबना बा रघर धार॥
तुलसीदास कहते ह िक चातक अपने पु को बार-बार यही सीख देता ह िक ह तात! मेरा तपण मेघ क धारा क
अित र िकसी अ य जल से मत करना।
सुन ु र तुलसीदास यास पपीहिह ेम क ।
प रह र चा रउ मास जो अँचवै जल वाित को॥
ह तुलसीदास! पपीह को जल क अपे ा कवल ेम क यास होती ह। इसिलए वह वषा क चार महीने छोड़कर कवल
वाित न का ही जल हण करता ह।
तुलस क मत चातकिह कवल ेम िपआस।
िपअत वाित जल जान जग जाँचत बारह मास।
तुलसीदास कहते ह िक चातक को कवल ेम क यास होती ह। वह वाित न का जल पीता ह, लेिकन िफर भी
वष भर याचक बना रहता ह।
एक अंग जो सनेहता िनिस िदन चातक नेह।
तुलसी जास िहत लगे विह अहार विह देह॥
तुलसीदास कहते ह िक चातक का िदन-रात का ेम एकाक ेम ह। अथा वह यह नह देखता िक ेम क बदले म
उसे ेम िमलता ह या नह । ऐसा ेम िजसक साथ हो जाता ह, वही उसका आहार और उसका शरीर ह। अथा वह
भोजन और शरीर क सुधबुध भूलकर उसक ेम म खो जाता ह।
सप का उदाहरण
तुलसी मिन िनज दुित फिनिह याधिह देउ िदखाइ।
िबछरत होइ न आँधरो ताते ेम न जाइ॥
सप का उदाहरण देते ए तुलसीदास कहते ह िक मिण क काश क कारण भले ही िशकारी को सप िदखाई दे जाए,
लेिकन ाण संकट म होने क बाद भी सप का मिण क ित अनुराग कम नह होता। उसक ेम म वह अंधा होकर अपने
ाण गँवा बैठता ह।
मछली का उदाहरण
देउ आपन हाथ जल मीनिह मा र घो र।
तुलसी िजऐ तो बा र िबनु तौ तु देिह किब खो र॥
तुलसीदास कहते ह िक जल वयं अपने हाथ से िवष घोलकर मछली को दे दे, लेिकन मछली जल क िबना जीिवत रह
जाए तो यह किवय क मा क पना ही हो सकती ह। अथा जल चाह कोई भी दु काय कर ले, लेिकन एकाक ेम
म डबी मछली उसक िबना जीिवत नह रह सकती।
सुलभ ीित ीतम सबै कहत करत सब कोइ।
तुलसी मीन पुनीत ते ि भुवन बड़ो न कोइ॥
लोग कहते ह िक ेम और ि यतम—दोन सरलता से सुलभ हो जाते ह; सभी ऐसा करते भी ह। लेिकन तुलसीदास
कहते ह िक स े ेम म मछली से बढ़कर तीन लोक म कोई दूसरा नह ह। वह जल से अन य ेम करती ह और
उसक िवयोग म अपने ाण याग देती ह।
अन यता क मिहमा
तुलसी जप तप नेम त सब सबह त होइ।
लह बड़ाई देवता इ देव जब होइ॥
तुलसीदास कहते ह िक जप, तप, नेम तथा त आिद कोई भी मनु य कर सकता ह। लेिकन वह बड़ाई तभी ा करता
ह जब भगवा को अपना ेम का देवता बना लेता ह।
िम ता म छल बाधक ह
मा य मीत स सुख चह सो न छऐ छल छाह।
सिस ि संक ककइ गित लिख तुलसी मन माह॥
तुलसीदास कहते ह िक यिद मनु य अपने िम से सुख चाहता ह तो उसे चं मा, ि शं और ककयी क गित को
यान म रखकर छल से दूर रहना चािहए।
वैर और ेम अंधे होते ह
तुलसी बैर सनेह दोउ रिहत िबलोचन चा र।
सुरा सेवरा आदरिह िनंदिह सुरस र बा र॥
तुलसीदास कहते ह िक ेम और वैर—दोन ही आंत रक और बाहरी आँख से अंध े होते ह। अथा वैरी अपने श ु क
सम त गुण क भी अवहलना कर देता ह तथा ेमी को अपने ि यतम क अवगुण भी िदखाई नह देत।े ठीक इसी कार
वाममाग साधक मिदरा का आदर और गंगाजल क िनंदा करते ह।
वाथ ही अ छाई-बुराई का मानदंड ह
िहत पुनीत सब वारथिह अ र असु िबनु चाड़।
िनज मुख मािनक सम दसन भूिम पर ते हाड़॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस कार मुँह म दाँत मािण य क समान ब मू य तीत होते ह, टटकर िगर जाने पर वे ही
हाड़ कहलाते ह। उसी कार जब तक वाथ रहता ह, तब तक सभी व तुए ँ पिव और िहतकारी तीत होती ह; परतु
वाथ पूण होते ही वे अपिव और श ु क समान हो जाती ह।
किलयुग म कपट क धानता
दयँ कपट बर बेष ध र बचन कहिह गि़ढ छोिल।
अब क लोग मयूर य य िमिलए मन खोिल॥
कपट क िवषय म बताते ए तुलसीदास कहते ह िक आजकल ाणी कपटपूण यवहार करते ह। वे मोर क समान सुंदर
वेश तो धारण करते ह, लेिकन उनक दय म कपट िव मान रहता ह। अथा बाहर से वे स य और िश यवहार
करते ह, लेिकन अंदर-ही-अंदर ई या और ेष का भाव रखते ह।
कपट अंत तक नह िनभता
चरन च च लोचन रगौ चलौ मराली चाल।
छीर नीर िबबरन समय बक उघरत तेिह काल॥
भले ही बगुला अपने पैर, च च और आँख को हस क भाँित रग ले, हस क समान चाल चलने लगे,। लेिकन दूध और
पानी को अलग-अलग करने का जब समय आता ह, उस समय उसक पोल खुल जाती ह।
किटल मनु य किटलता नह छोड़ता
िमलै जो सरलिह सरल ै किटल न सहज िबहाइ।
सो सहतु य ब गित याल न िबलिह समाइ॥
िजस कार साँप क चाल टढ़ी होती ह, परतु िबल म घुसने क िलए वह टढ़ी चाल छोड़कर सीधा हो जाता ह, उसी
कार िकसी सरल मनु य से स दयता से िमलने पर भी िटल मनु य का वभाव नह बदलता। इसम उसका कोई-
न-कोई वाथ अव य िछपा होता ह।
संग सरल किटलिह भएँ ह र हर करिह िनबा ।
ह गनती गिन चतुर िबिध िकयो उदर िबनु रा ॥
यिद स न और िटल का साथ हो जाए तो उस थित म कवल भगवा ीिव णु और िशव ही र ा करते ह।
रा क ह म थान ा कर लेने क बाद चतुर ाजी ने उसे िबना उदर का बना िदया। अ यथा वह अ य साथी
ह को खा जाता।
स संग और अस संग का प रणामगत भेद
संत संग अपबग कर कामी भव कर पंथ।
कहिह संत किब कोिबद ुित पुरान सद ंथ॥
संत का संग मनु य क िलए मो - दायक होता ह, जबिक िवषय म डबे ए मनु य का संग सांसा रक मोह-माया म
जकड़नेवाला होता ह। संत, किव, ानी और वेद-पुराण आिद ंथ भी इस बात को कहते ह।
स न और दुजन का भेद
सुजन सुत बन ऊख सम खल टिकका खान।
परिहत अनिहत लािग सब साँसित सहत समान॥
स न और दुजन का भेद बताते ए तुलसीदास कहते ह िक स न मनु य कपास और ऊख क सुंदर पौधे क समान
होता ह, जबिक दुजन मनु य बबूल क समान। य िप संसार म दोन ही दुख सहते ह, परतु स न क झेलते ह पर-
िहत क िलए, जबिक दुजन दूसर को क देन े क िलए।
अवसर क धानता
अवसर कौड़ी जो चुक ब र िदएँ का लाख।
दुइज न चंदा देिखऐ उदौ कहा भ र पाख॥
अवसर क धानता क मह ा क बार म बताते ए तुलसीदास कहते ह िक आव यकता पड़ने पर यिद मनु य कौड़ी
क भी सहायता न कर तो अनाव यक समय म लाख पए देने का भी कोई लाभ नह होता। यिद तीया क चं मा को
न देखा जाए तो प भर चं मा क उदय होने से या होगा?
भलाई करना िबरले ही जानते ह
यान अनभले को सबिह भले भले काउ।
स ग सूँड़ रद लूम नख करत जीव जड़ घाउ॥
बुराई कसे क जाती ह, इसका ान सभी को होता ह; परतु भलाई करने का ान कवल स न मनु य को ही होता ह।
िटल मनु य क तुलना मूख जानवर से करते ए तुलसीदास कहते ह िक वे अपने स ग, सूँड़, दाँत, पूँछ तथा नख
इ यािद से दूसर को क ही प चाते ह।
संसार म िहत करनेवाले कम ह
तुलसी जग जीवन अिहत कत कोउ िहत जािन।
सोषक भानु कसानु मिह पवन एक घन दािन॥
तुलसीदास कहते ह िक संसार म जीव का अिहत करनेवाले असं य ह, परतु िहत करनेवाला कोई एकाध ही होता ह।
सूय, अ न, पृ वी, पवन—सभी जल को सुखानेवाले ह, लेिकन देनेवाला कवल एक मेघ ह।
जलचर थलचर गगनचर देव दनुज नर नाग।
उ म म यम अधम खल दस गुन बढ़त िबभाग॥
जल म रहनेवाले, थल पर रहनेवाले एवं आकाश म िवचरनेवाले जीव तथा देवता, रा स, मनु य एवं नाग—इन
सभी योिनय म उ म क अपे ा म यम; म यम क अपे ा अधम और अधम क अपे ा नीच ािणय क सं या
अिधक होती ह।
सुजन कहत भल पोच पथ पािप न परखइ भेद।
करमनास सुरस रत िमस िबिध िनषेध बद बेद॥
िजस कार वेद—कमनाश और गंगाजी क बहाने िविध और िनषेध; दोन कार क कम का उ ेख करते ह, उसी
कार स पु ष अ छ और बुर दोन कार क माग बतलाते ह; परतु मूख एवं पापी मनु य इस भेद को नह समझते। वे
िनरतर पाप म लीन रहते ह।
ीित और वैर क तीन ेिणयाँ
उ म म यम नीच गित पाहन िसकता पािन।
ीित प र छा ित न क बैर बीित म जािन॥
तुलसीदास ने ीित क परी ा म उ म, म यम और नीच—इन तीन थितय क तुलना मश: प थर, बालू और जल
क लक र से क ह—अथा उ म पु ष क ीित प थर क लक र क समान ह, जो अनेक दुख सहने क बाद भी
अिमट रहती ह। म यम पु ष क ीित बालू क लक र क तरह ह, जो हवा न लगने तक ही रहती ह। लेिकन नीच पु ष
क ीित जल क लक र क तरह होती ह िजसका कोई अ त व नह होता। लेिकन वैर इसक िवपरीत होता ह। अथा
उ म, म यम और नीच—इन तीन पु ष म वैर क कित मश: जल, बालू और प थर क तरह होती ह।
िजसे स न हण करते ह, उसे दुजन याग देते ह
पु य ीित पित ापितउ परमारथ पथ पाँच।
ललिह सुजन प रहरिह खल सुन िसखावन साँच॥
तुलसीदास कहते ह िक पु य, ेम, ित ा, ा और परमाथ का माग—स न पु ष इ ह हण करते ह। इसक
िवपरीत दुजन मनु य इनका प र याग कर देते ह। इस स ी सीख को भली-भाँित समझ लो।
अपना आचरण सभी को अ छा लगता ह
तुलसी अपनो आचरन भलो न लागत कासु।
तेिह न बसत जो खात िनत लहसुन को बासु॥
तुलसीदास कहते ह िक कोई ऐसा ाणी नह ह िजसे अपना आचरण अ छा न लगता हो। लहसुन खानेवाले को भला
लहसुन क दुगध कहाँ से महसूस होगी!
संग क मिहमा
तुलसी भलो सुसंग त पोच कसंगित सोइ।
नाउ िकनरी तीर अिस लोह िबलोक लोइ॥
संगित का मह व बताते ए तुलसीदास कहते ह िक अ छी संगित से मनु य अ छा और बुरी संगित क भाव से बुरा हो
जाता ह। जो लोहा नाव म लगकर लोग को पार उतारनेवाला तथा िसतार म लगकर मधुर संगीत सुनाकर सबको सुख
देनेवाला होता ह, वही तीर-तलवार म लगकर ाणघातक हो जाता ह।
तुलसी िकएँ कसंग िथित होिह दािहने बाम।
किह सुिन सकिचअ सूम खल गत ह र संकर नाम॥
तुलसीदास कहते ह िक बुरी संगित म रहकर अ छ मनु य भी बुर हो जाते ह। ह र, शंकर आिद भगवा क नाम परम
क याणकारी और सुख दान करने वाले ह; परतु यही नाम क जूस और अधिमय क रख िदए जाएँ तो लोग इन नाम
को लेन े म सकचाते ह।
राम कपाँ तुलसी सुलभ गंग सुसंग समान।
जो जल पर जो मन िमलै क जै आपु समान॥
तुलसीदास कहते ह िक गंगाजी और स संगित—दोन समान ह। िजस कार गंगाजी म िकसी भी कार का जल िगर,
वह उसे भी पिव कर देती ह; उसी कार स संगित म िकतना भी बुरा य आ जाए, वह पिव और स पु ष बन
जाता ह, परतु गंगाजी और स संगित क ा कवल भगवा ीराम क कपा से ही संभव ह।
आखर जो र िबचार क सुमित अंक िलिख लेख।ु
जोग कजोग सुजोग मय जग गित समुिझ िबसेष॥ु
ह सुमित! अ र को जोड़कर िवचार करो और उ ह िलखकर िहसाब लगाओ। तब तुम भली-भाँित समझ जाओगे िक
जग क गित योग से योग और सुयोगमयी हो जाती ह। अथा अ र क हर-फर से ही ‘धम’ ‘अधम’ हो जाता
ह।
िववेक क आव यकता
जड़ चेतन गुन दोष मय िब व क ह करतार।
संत हस गुन गहिह पय प रह र बा र िबकार॥
िववेक क आव यकता बताते ए तुलसीदास कहते ह िक परमा मा ने इस जड़-चेतन संसार क रचना गुण और दोष क
साथ क ह, परतु संत पी हस िववेक ारा दोष पी जल को यागकर गुण पी दूध को हण करते ह।
जो जो जेिह जेिह रस मगन तह सो मुिदत मन मािन।
रसगुन दोष िबचा रबो रिसक रीित पिहचािन॥
ाणी िजस-िजस रस म म न होता ह, उसी म संतोष मानकर आनंिदत होता ह। लेिकन उसक गुण-दोष को कवल
रिसक जन ही पहचानते ह।
कभी-कभी भले को बुराई भी िमल जाती ह
लोक बेद ल दगो नाम भले को पोच।
धमराज जम गाज पिब कहत सकोच न सोच॥
लोक और वेद म भी भले क िलए बुरा श द िस ह। यही कारण ह िक धमराज को यम तथा िबजली को व कहने
से भी लोग को संकोच नह होता।
नीच पु ष क नीचता
भु सनमुख भएँ नीच नर होत िनपट िबकराल।
रिब ख लिख दरपन फिटक उिगलत ालाजाल॥
नीच मनु य क नीचता का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक मािलक (परमा मा) क अनुकल होने पर नीच मनु य
उसी कार बड़ भयंकर हो जाते ह, िजस कार सूय का ख अपनी ओर देखकर दपण और फिटक आग क लपट
उगलने लगते ह।
नीच िनराविह िनरस त तुलसी स चिह ऊख।
पोषत पयद समान सब िबष िपयूष क ख॥
तुलसीदास कहते ह िक नीच मनु य रसहीन और सूखे वृ को उखाड़ फकते ह; वे कवल रसयु हर-भर वृ को
स चते ह। परतु मेघ (स न पु ष) िवष और अमृत—दोन कार क वृ का समान प से पोषण करते ह।
नीचिनंदा
लिख गयंद लै चलत भिज वान सुखानो हाड़।
गज गुन मोल अहार बल मिहमा जान क राड़॥
नीच मनु य क िनंदा करते ए तुलसीदास कहते ह िक हाथी को आते देखकर ा ह ी लेकर वहाँ से भाग जाता
ह। उसे भय होता ह िक कह हाथी ह ी को छीन न ले। लेिकन वह मूख और अ ानी हाथी क गुण, मू य, आहार
और बल क मिहमा से पूणत: अनिभ होता ह।
दुजन का वभाव
ठाढ़ो ार न दै सक तुलसी जे नर नीच।
िनंदिह बिल ह रचंद को का िकयो करन दधीच॥
तुलसीदास दुजन क वभाव का उ ेख करते ए कहते ह िक नीच मनु य वयं तो ार पर खड़ ए िभ ुक को
कछ दान नह देते, ब क बिल और ह र ं जैसे दानवीर क भी िनंदा करते ह। वे कण और दधीच क काय को
सामा य से भी िन न कोिट का मानते ह।
गुण का ही मू य ह, दूसर क आदर-अनादर का नह
िनज गुन घटत न नाग नग परिख प रहरत कोल।
तुलसी भु भूषन िकए गुंजा बढ़ न मोल॥
े पु ष क मिहमा गाते ए तुलसीदास कहते ह िक यिद चं मा अपनी सोलह कला से पूण होकर तार क समूह
क साथ उदय हो जाए तथा सभी पवत पर आग लगा दी जाए तो भी सूय क उदय ए िबना राि का अंधकार नह
िमटता।
दु पु ष ारा क ई िनंदा- तुित का कोई मू य नह ह
भलो कहिह िबनु जाने िबनु जान अपबाद।
ते नर गादुर जािन िजयँ क रय न हरष िबषाद॥
तुलसीदास कहते ह िक जो लोग िकसी को ठीक कार से जाने-समझे िबना उसे भला कहने लगते ह तथा जाने िबना
उनक िनंदा करने लगते ह; वे चमगादड़ क समान होते ह। इसिलए उनक बात को सुनकर मन म िकसी कार का हष
या िवषाद नह करना चािहए।
िम या अिभमान का दु प रणाम
तनु गुन धन मिहमा धरम तेिह िबनु जेिह अिभमान।
तुलसी िजअत िबडबना प रनाम गत जान॥
तुलसीदास कहते ह िक सुंदर शरीर, स ुण, पया धन, स मान और धम म िन ा—इनक न होने पर भी िजन मनु य
को िम या अिभमान होता ह, उनका जीवन िवडबना मा ह। उसका प रणाम भी बुरा ही होता ह। अथा अिभमान
करनेवाले मनु य को मृ यु-उपरांत भी स ित नह िमलती।
छल-कपट सव विजत ह
िबनु पंच छल भीख भिल लिहअ न िदएँ कलेस।
बावन बिल स छल िकयो िदयो उिचत उपदेस॥
तुलसीदास छल-कपट क िनंदा करते ए कहते ह िक जो भीख िबना िकसी छल-कपट क िमलती ह, वही उ म होती
ह। िकसी को धोखा देकर ा क गई भीख दुख का कारण बनती ह। भगवा िव णु ने वामन प धारण करक बिल
से छलपूवक उसका रा य छीन िलया और इसी कारण उ ह पाताल म बिल का ारपाल बनना पड़ा। इस कार उ ह ने
छल ारा िमलनेवाले दुख का उपदेश िदया।
िबबुध काज बावन बिलिह छलो भलो िजय जािन।
भुता तिज बस भे तदिप मन क गइ न गलािन॥
भगवा िव णु ने देवता क क याण क िलए दै यराज बिल क साथ छल िकया था। बाद म वे अपने व प को
यागकर बिल क वश म हो गए और पाताल म उसक ारपाल बन गए। िफर भी छल करने क कारण उनक मन क
लािन यथाव रही।
खल उपकार िबकार फल तुलसी जान जहान।
मेढक मकट बिनक बक कथा स य उपखान॥
दु क िनंदा करते ए तुलसी कहते ह िक संपूण जग जानता ह िक दु क साथ उपकार करने का फल बुरा होता
ह। स योपा यान म भी मेढक, वानर, विणक और बगुल े क कथा ारा इस बात को िस िकया गया ह।
भरदर बरसत कोस सत बच जे बूँद बराइ।
तुलसी तेउ खल बचन सर हए गए न पराइ॥
तुलसीदास कहते ह िक मनु य सौ कोस तक बरसती ई घनी वषा क बीच म से भी िबना भीगे िनकल सकता ह, लेिकन
दु क यं य-बाण से बच पाना उसक िलए असंभव ह। अथा दु क िनंदा से कोई नह बच सकता।
सहबासी काचो िगलिह पुरजन पाक बीन।
कालछप किह िमिल करिह तुलसी खग मृग मीन॥
तुलसीदास कहते ह िक प ी, िहरन और मछली िकसक साथ अपना जीवन यतीत कर? प ी को एक ही आकाश म
उड़नेवाले बाज, िहरण को एक ही वन म रहनेवाले िसंह तथा मछली को एक ही जल म रहनेवाली बड़ी मछली या
मगरम छ िनगल जाते ह, जबिक गाँव एवं नगर-िनवासी इ ह पकाकर खा जाते ह। इस पद ारा तुलसीदास कहना
चाहते ह िक संसार म दुबल क िलए कोई थान सुरि त नह ह।
जासु भरोस सोइऐ रािख गोद म सीस।
तुलसी तासु कचाल त रखवारो जगदीस॥
तुलसीदास कहते ह िक िव ास करक यिद िकसी क गोद म िसर रखकर सोया जाए और िफर वह ही िव ासघात कर
दे तो कवल भगवा ही उससे र ा कर सकते ह।
पर ोही परदार रत परधन पर अपबाद।
ते नर पावँर पापमय देह धर मनुजाद॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य दूसर क ित श ुता रखते ह; पराई ि य , पराए धन और परिनंदा म िजनक आस
होती ह, वे पापी और अधम मनु य नर प म रा स ही ह।
कपटी को पहचानना बड़ा किठन ह
बचन बेष य जािनए मन मलीन नर ना र।
सूपनखा मृग पूतना दसमुख मुख िबचा र॥
कपटी क पहचान क िवषय म तुलसीदास कहते ह िक िकसी पु ष या ी क बाहरी वेश अथवा वचन से उसक मन
क थित का अनुमान नह लगाया जा सकता। शूपणखा, मारीच, पूतना, रावण आिद बड़ सुंदर थे; लेिकन इनका मन
अ यंत मिलन और पापयु था। अथा संसार म दंभी लोग को उनक वेश-भूषा से पहचानना असंभव ह।
कपट ही दु ता का व प ह
कपट सार सूची सहस बाँिध बचन परबास।
िकयो दुराउ चहौ चातुर सो सठ तुलसीदास॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य वचन पी ऊपरी कपड़ म कपट पी लोह क हजार सुइय को चतुराई से िछपाना
चाहता ह, वह दु ह।
पाप ही दु:ख का मूल ह
बड़ पाप बाढ़ िकए छोट िकए लजात।
तुलसी ता पर सुख चहत िबिध स ब त रसात॥
पाप ही दुख का मूल कारण ह। इस िवषय म तुलसीदास कहते ह िक जो बड़-बड़ पाप तो सहज ही कर लेते ह, परतु
छोट-छोट पाप को करने म ल ा अनुभव करते ह, वे उस िटल मनु य क समान ह जो ातःकाल पूजा-पाठ क
बाद घर से िनकलते ह, परतु िदन-रात छल-कपट आिद म डबे रहते ह। ऐसे मनु य वयं को धमा मा मानकर सम त
सुख क कामना करते ह और इनक न िमलने पर ई र पर ोध करते ह।
अिववेक ही दु:ख का मूल ह
देस काल करता करम बचन िबचार िबहीन।
ते सुरत तर दा रदी सुरस र तीर मलीन॥
िजन मनु य को देश, काल, कता, कम और वचन का ान नह होता, वे क पवृ क पास होने पर भी द र और
गंगाजी क तट पर िनवास करने क बाद भी पापी रहते ह।
राज करत िबनु काजह करिह कचािल कसािज।
तुलसी ते दसकध य जइह सिहत समाज॥
तुलसीदास कहते ह िक जो राजा रा य करते ए िबना िकसी कारण क बुर काय करने लगते ह, वे उसी कार समाज
सिहत न हो जाते ह िजस कार रावण क गित ई थी।
पांड सुअन क सदिस ते नीको रपु िहत जािन।
ह र हर सम सब मािनअत मोह यान क बािन॥
यह जानते ए भी िक ोण और भी म कौरव क प म ह, पांडव क सभा म सभी लोग उ ह भगवा िव णु और िशव
क समान मानते थे। अ ान और ान म यही भेद ह।
सहज सु द गुर वािम िसख जो न करइ िसर मािन।
सो पिछताइ अघाइ उर अविस होइ िहत हािन॥
जो मनु य िहतैषी िम , गु तथा वामी क सीख को वीकार कर उसक अनुसार काय नह करता, वह बाद म ब त
पछताता ह तथा उसक िहत एवं सुख क भी हािन होती ह।
लड़ना सवथा या य ह
सुमित िबचारिह प रहरिह दल सुमन सं ाम।
सकल गए तनु िबनु भए साखी जादौ काम॥
तुलसीदास कहते ह िक बु मान लोग प एवं फल से भी लड़ाई करने को बुरा मानकर उसे याग देत े ह। यादव और
कामदेव इस बात क य माण ह। ितनक ारा पर पर लड़कर जहाँ यादव क वंश का समूल नाश हो गया ह,
वह पु प-बाण ारा िशवजी पर हार करनेवाला कामदेव भी भ म होकर काल का ास बन गया।
कौरव पांडव जािनऐ ोध छमा क सीम।
पाँचिह मा र न सौ सक सयौ सँघार भीम॥
तुलसीदास कहते ह िक कौरव को ोध तथा पांडव को मा क सीमा भली-भाँित समझनी चािहए। इसी ोध क
कारण सौ कौरव पाँच पांडव को नह मार सक। जबिक अकले भीम ने ही अनेक कौरव का नाश कर िदया।
जूझ े ते भल बूिझबो भली जीित त हार।
डहक त डहकाइबो भलो जो क रअ िबचार॥
तुलसीदास कहते ह िक यिद हार से िकसी का भला हो तो जीतने क अपे ा हारना यादा अ छा ह; िकसी को ठगने क
अपे ा ठगा जाना अिधक े ह। इसी कार यिद बु म ा से िवचार िकया जाए तो लड़ाई क अपे ा पर पर
समझौता कर लेना ही उिचत ह।
जा रपु स हार हसी िजते पाप प रतापु।
तास रा र िनवा रए समयँ सँभा रअ आपु॥
यिद िकसी श ु से हारने पर अपमान सहना पड़ तथा उससे जीतने पर पाप एवं दुख हो तो ऐसी थित म अवसर आने
पर उससे श ुता समा कर लेना ही उिचत ह।
रोष न रसना खोिलऐ ब खोिलअ तरवा र।
सुनत मधुर प रनाम िहत बोिलअ बचन िबचा र॥
तुलसीदास कहते ह िक ोध म कभी भी जुबान नह खोलनी चािहए; इसक अपे ा तलवार िनकालना अिधक उिचत ह।
सोच-समझकर ऐसे मीठ वचन का योग करना चािहए, जो िहतकारी और स ता देनेवाले ह ।
दीन क र ा करनेवाला सदा िवजयी होता ह
राम लखन िबजई भए बन गरीब िनवाज।
मुख बािल रावन गए धरह सिहत समाज॥
िनधन एवं दुबल पर दया करनेवाले ीराम और ल मण वन म रहते ए भी यु म िवजयी ए, जबिक महल म
रहनेवाले बािल एवं रावण जैसे परम श शाली राजा अपने प रवार और समाज सिहत न हो गए।
अवसर चूक जाने से बड़ी हािन होती ह
लाभ समय को पािलबो हािन समय क चूक।
सदा िबचारिह चा मित सुिदन किदन िदन दूक॥
उिचत समय पर काम कर लेन े से लाभ होता ह, जबिक समय क िनकल जाने क बाद कवल हािन ही हाथ लगती ह।
य िक अ छा और बुरा समय दो िदन का होता ह, इसिलए बु मान लोग इस बात का सदैव िवचार करते ह।
िवपि काल क िम कौन ह
तुलसी असमय क सखा धीरज धरम िबबेक।
सािहत साहस स य त राम भरोसो एक॥
िवपि काल क िम का प रचय देत े ए तुलसी कहते ह िक धैय, धम, िववेक, साहस, स य- त और भगवा राम का
भरोसा—िवपि से िघर मनु य क यही परम िम ह। इनक ारा वह बड़-से-बड़ क को सहज सहन कर लेता ह।
परमाथ पाने क चार उपाय
क जूिझबो क बूिझबो दान िक काय कलेस।
चा र चा परलोक पथ जथा जोग उपदेस॥
परमाथ- ा क उपाय क िववेचना करते ए तुलसीदास कहते ह िक चार वण क िलए परमाथ क अलग-अलग
चार उपाय ह। ान-अजन ा ण क िलए, यु करना ि य क िलए, दान देना वै य क िलए तथा क सहकर भी
सेवा करना शू क िलए परलोक- ा क े उपाय ह।
अपनो ऐपन िनज हथा ितय पूजिह िनज भीित।
फरइ सकल मन कामना तुलसी ीित तीित॥
िव ास क श का उ ेख करते ए तुलसीदास कहते ह िक ि याँ चावल और ह दी को पीसकर बनाए ए रग से
घर क दीवार पर अपने हाथ क छाप लगाकर िन य उसका पूजन करती ह। इससे ही उनक सभी मनोकामनाएँ पूण हो
जाती ह। ऐसा कवल िव ास और ेम क श से ही संभव होता ह।
कौन सी ितिथयाँ कब हािनकारक होती ह
रिब हर िदिस गुन रस नयन मुिन थमािदक बार।
ितिथ सब काज नसावनी होइ कजोग िबचार॥
ादशी, एकादशी, दशमी, तृतीया, ष ी, तीया एवं स मी—ये सात ितिथयाँ यिद म से रिव, सोम, मंगल, बुध,
बृह पित, शु और शिन को पड़ तो इ ह योग माना जाता ह। इन भाव से बनते काय भी िबगड़ जाते ह।
कौन-सा चं मा घातक समझना चािहए
सिस सर नव दुइ छ दस गुन मुिन फल बसु हर भानु।
मेषािदक म त गनिह घात चं िजयँ जानु॥
मेष क थम, वृष क पाँचव, िमथुन क नौव, कक क दूसर, िसंह क छठ, क या क दसव, तुला क तीसर, वृ क क
सातव, धनु क चौथे, मकर क आठव, ंभ क यारहव और मीन रािश क बारहव चं मा पड़ जाए तो उसे घातक
समझना चािहए।
सात व तुएँ सदा मंगलकारी ह
सुधा साधु सुरत सुमन सुफल सुहाविन बात।
तुलसी सीताविन भगित सगुन सुमंगल सात॥
मंगलकारी व तु क िवषय म तुलसीदास कहते ह िक संसार म कवल सात मंगलकारी शकन ह। ये ह—अमृत, साधु,
क पवृ , पु प, सुंदर फल, सुहावनी बात और ीसीतापित क भ ।
वेद क अपार मिहमा
अतुिलत मिहमा बेद क तुलसी िकएँ िबचार।
जो िनंदत िनंिदत भयो िबिदत बु अवतार॥
वेद क मिहमा का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक िवचार करने क बाद िस होता ह िक वेद क मिहमा
अतुलनीय ह। संपूण संसार जानता ह िक इनक िनंदा करने से भगवा का बु ावतार भी िनंिदत हो गया ह। इसिलए इसे
यथोिचत आदर-स मान देना चािहए।
नीित का अवलंबन और ीरामजी कचरण म ेम ही े ह
चलब नीित मग राम पग नेह िनबाहब नीक।
तुलसी पिह रअ सो बसन जो न पखार फ क॥
नीित पर चलना अथा नीित का पालन करना तथा भगवा ीराम क चरण से अटट ेम करना ही संसार म मनु य क
िलए उ म ह। तुलसीदास कहते ह िक िजन व का रग धोने पर भी फ का नह होता, सदा ऐसे व को ही धारण
करना चािहए।
िववेकपूवक यवहार ही उ म ह
तुलसी सो समरथ सुमित सुकित साधु स मान।
जो िबचा र यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान॥
िववेकपूण यवहार क िवषय म तुलसीदास कहते ह िक जो आय क अनुमान क अनुसार यय करता ह तथा संसार म
िववेकपूण यवहार करता ह, वही मनु य साम यवा , बु मान, पु या मा, साधु और चतुर ह।
सात व तु को रस िबगड़ने से पहले ही छोड़ देना चािहए
नगर ना र भोजन सिचव सेवक सखा अगार।
सरस प रहर रग रस िनरस िवषाद िबकार॥
नगर, ी, भोजन, मं ी, सेवक, िम और घर—इन सात व तु क सरसता समा होने से पूव ही इ ह याग देना
चािहए। इसी म मनु य क शोभा ह, परम आनंद ह। नीरस होने पर इनका याग करने पर मनु य को अशांित और दुख
सहना पड़ता ह।
समथ पापी से वैर करना उिचत नह
धाइ लगै लोहा ललिक खिच लेइ नइ नीचु।
समरथ पापी स बयर जािन िबसाही मीचु॥
िजस कार लोहा बड़ी ती ता क साथ चुंबक क साथ जुड़ जाता ह, उसी कार नीच और पापी मनु य न ता का ढ ग
करक दूसर को अपनी ओर ख च लेता ह। इसिलए समथ पापी से ई दु मनी को खरीदी ई मौत क समान समझना
चािहए।
मनु य आँख होते ए भी मृ यु को नह देखते
िबन आँिखन क पानह पिहचानत लिख पाय।
चा र नयन क ना र नर सूझत मीचु न माय॥
िबना आँख क जूती भी पैर को पहचान लेती ह। लेिकन चार ने (दो बाहरी और दो आंत रक) होने क बाद भी नर-
ना रयाँ मौत और माया को नह समझ पाते। वे अंधे क समान भौितक साधन म डबे रहते ह।
जौ पै मूढ़ उपदेस क होते जोग जहान।
य न सुजोधन बोध क आए याम सुजान॥
मूख क िलए उपदेश िनरथक ह। यिद वे ान-उपदेश क यो य होते तो भगवा ीक ण मूख दुय धन को समझा लेते।
ई र-िवमुख क दुगित ही होती ह
िनडर ईस त बीस क बीस बा सो होइ।
गयो गयो कह सुमित सब भयो कमित कह कोइ॥
ई र का भय यागकर यिद मनु य बीस िसर से यु होकर रावण क समान परम श शाली हो जाए तो कवल
बु लोग इसे उ ित समझगे। इसक िवपरीत बु मान लोग उसे न आ मानगे।
जग क लोग को रझानेवाला मूख ह
लोगिन भलो मनाव जो भलो होन क आस।
करत गगन को गडआ सो सठ तुलसीदास॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य अपने वाथ एवं लाभ हतु भगवा को छोड़कर लोग को रझाता रहता ह, उसक
दशा उस मूख जैसी होती ह, जो आकाश को तिकया बनाना चाहता ह।
तुलसी तोरत तीर त बक िहत हस िबडा र।
िबगत निलन अिल मिलन जल सुरस र बि़ढ आ र॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस कार गंगा म बाढ़ आने पर वह अपने िकनार क सम त वृ को उखाड़ फकती ह,
बगुल अथा दंिभय क िलए हस (स न ) को भगा देती ह, कमल और भ र (स ुण ) से रिहत हो जाती ह, उसी
कार अनाव यक बल-ऐ य क बढ़ जाने से स न मनु य भी दोष-यु हो जाते ह। अिभमान म भरकर वे आि त
को दूर करक दंिभय को आ य देते ह, स ुण से रिहत होकर पाप म िल हो जाते ह।
याल त िबकराल बड़ यालफन िजयँ जानु।
विह क खाए मरत ह विह खाए िबनु ानु॥
तुलसीदास कहते ह िक अफ म को सप से भी अिधक भयंकर और घातक समझना चािहए। य िक सप क काटने से
मनु य उसी समय ाण याग देता ह, परतु अफ म खाकर वह जीिवत होते ए भी ाणहीन मुरदे क समान हो जाता ह।
जथा अमल पावन पवन पाइ कसंग सुसंग।
किहअ कबास सुबास ितिम काल महीस संग॥
िजस कार िनमल और व छ वायु—सुंिधत और दुगध-यु व तु क संसग म आकर सुंध-यु अथवा दुगध-यु
हो जाती ह, उसी कार अ छ या बुर राजा क संसग से काल भी अ छ या बुर प म पहचाना जाता ह।
बरषत हरषत लोग सब करषत लखै न कोइ।
तुलसी जा सुभाग ते भूप भानु सो होइ॥
तुलसीदास कहते ह िक सूय ारा जल सोखने क बार म िकसी को पता नह चलता, क तु जब मेघ बरसते ह तो
सभी लोग स ता और आनंद से भर जाते ह। उसी कार सूय क समान ऐसे राजा ब त सौभा य से ा होते ह जो
जा को िबना क िदए उनसे उिचत कर वसूलते ह तथा समय आने पर उसे यव थत प से जा क िहत म खच
करते ह।
धरिन धेनु चा रतु चरत जा सुब छ पे हाइ।
हाथ कछ निह लािगह िकएँ गोड़ क गाइ॥
तुलसीदास कहते ह िक राजा क जा-व सलता और धमयु उ म च र पी चार को खाकर जब पृ वी पी गो
दु धयु होती ह तथा जा पी सुंदर बछड़ ारा चोखे जाने पर ही दूध देती ह। तभी उ म और अिधक दूध िमलता ह।
कवल पैर बाँधने से कछ ा नह होता।
िकसका रा य अचल हो जाता ह
भूिम िचर रावन सभा अंगद पद मिहपाल।
धरम राम नय सीय बल अचल होत सुभ काल॥
तुलसीदास कहते ह िक यह संपूण पृ वी रावण क राजसभा ह। राजा इसम अगंद क पैर क समान ह। धम पी भगवा
राम और नीित पी सीता क भाव से ही राजा पी अंगद का पैर शुभ समय म अचल होता ह।
गोली बान सुमं सर समुिझ उलिट मन देख।ु
उ म म यम नीच भु बचन िबचा र िबसेष॥ु
गोली, साधारण बाण और सुंि त बाण क गुण को भली-भाँित मन म समझकर इनक म को उलटकर देखो। उ म,
म यम और नीच राजा क कम मश: ऐसे ही होते ह। अथा उ म राजा क वचन सुंि त बाण क समान अमोघ,
म यम राजा क वचन साधारण बाण क समान भाव डालनेवाले तथा नीच राजा क वचन गोली क समान भयंकर वर
करनेवाले, परतु ल य चूक जाने पर यथ जाने वाले होते ह।
सिचव बैद गुर तीिन ज ि य बोलिह भय आस।
राज धम तन तीिन कर होइ बेिगह नास॥
यिद मं ी और गु िकसी भय, वाथ या िकसी अ य कारण से िहत क बात न कहकर हाँ म हाँ िमलाने लग तो राजा क
धम, शरीर और रा य का शी ही नाश हो जाता ह।
लकड़ी डोआ करछली सरस काज अनुहा र।
सु भु सं हिह प रहरिह सेवक सखा िबचा र॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस कार काय क आव यकता क अनुसार लकड़ी क च मच या धातु क करछली का
योग अथवा याग िकया जाता ह, उसी कार स न वामी भी भली-भाँित सोच-समझकर िम तथा सेवक का सं ह
एवं याग करते ह।
क ित पु षाथ से ही होती ह
तुलसी िनज करतूित िबनु मुकत जात जब कोइ।
गयो अजािमल लोक ह र नाम स यो निह धोइ॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य अपना पु षाथ िकए िबना ही मु हो जाता ह, मृ यु उपरांत भी उसक क ित नह
होती। तुलसीदास अजािमल का उदाहरण देते ए कहते ह िक य िप अजािमल भगवा ीह र क लोक म चला गया,
लेिकन आज भी उसका नाम पािपय और अधिमय क साथ िलया जाता ह।
कपटी दानी क दुगित
तुलसी दान जो देत ह जल म हाथ उठाइ।
ित ाही जीवै नह दाता नरक जाइ॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य अपने वाथ हतु मछिलय को फसाने क िलए जल म दान देत े ह, उस दान को हण
करनेवाली मछिलयाँ ाण गँवा बैठती ह। साथ ही वे मनु य भी घोर नरक भोगते ह।
अपने लोग क छोड़ देन े पर सभी वैरी हो जाते ह
आपन छोड़ो साथ जब ता िदन िहतू न कोइ।
तुलसी अंबुज अंबु िबनु तरिन तासु रपु होइ*॥
अपने लोग क मह व को बताते ए तुलसीदास कहते ह िक िजस िदन अपने लोग साथ छोड़ देते ह, उस िदन कोई भी
िहत करनेवाला नह रह जाता। य िप सूय—कमल का िम ह, परतु जब जल कमल का साथ छोड़ देता ह तब वही
सूय कमल को जलाकर सुखा देता ह।
स न को दु का संग भी मंगलदायक होता ह
तुलसी संगित पोच क सुजनिह होित म-दािन।
य ह र प सुतािह त क िन गोहारी आिन॥
तुलसीदास कहते ह िक स न मनु य क िलए दुजन क संगित भी उसी कार मंगलदाियनी होती ह, िजस कार िव णु
बने ए बढ़ई से िववाह करने वाली राजक या क पुकार पर भगवा िव णु सहायता क िलए दौड़ आए थे।
जीवन िकनका सफल ह
मातु िपता गु वािम िसख िसर ध र करिह सुभायँ।
लहउ लाभु ित ह जनम कर नत जनमु जग जायँ॥
जीवन क सफलता का रह य बताते ए तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य माता, िपता, गु तथा वामी क सीख को
िसर पर धारण कर उसका पालन करते ह, उनका जीवन ही सफल होता ह। अ यथा इस संसार म ज म लेना यथ ह।
िपता क आ ा का पालन सुख का मूल ह
अनुिचत उिचत िबचा तिज जे पालिह िपतु बैन।
ते भाजन सुख सुजस क बसिह अमरपित ऐन॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य उिचत-अनुिचत क िचंता िकए िबना ापूवक िपता क आ ा का पालन करते ह,
वे जीवन भर सुख, समृ और यश भोगने क बाद मृ यु उपरांत इ पुरी म िनवास करते ह।
शरणागत का याग पाप का मूल ह
सरनागत क जे तजिह िनज अनिहत अनुमािन।
ते नर पावँर पापमय ित हिह िबलोकत हािन॥
जो मनु य अपने िहत को यान म रखते ए अथवा अपने अिहत क बात सोचकर शरणागत का याग कर देते ह, वे
ु और पापमय ह; उनका मुख देखने से भी पाप लगता ह।
दंभ सिहत किल धरम सब छल समेत यवहार।
वारथ सिहत सनेह सब िच अनुहरत अचार॥
तुलसी कहते ह िक किलयुग क सभी धम दंभ-यु , यवहार कपट से यु तथा ेम वाथ-यु ह। इसम धम,
िन कपट यवहार तथा िन वाथ ेम का याग कर मनु य मनमाना आचरण करते ह।
असुभ बेष भूषन धर भ छाभ छ जे खािह।
तेइ जोगी तेइ िस नर पू य ते किलजुग मािह॥
तुलसी कहते ह िक किलयुग म जो मनु य अशुभ वेष धारण करते ह; अशुभ अलंकार से यु होते ह तथा खाने यो य व
न खाने यो य सबकछ खा जाते ह, वे ही योगी और िस होकर सभी क िलए पू य ह।
सकल धरम िबपरीत किल क पत कोिट कपंथ।
पु य पराय पहार बन दुर पुरान सु ंथ॥
किलयुग म नीित-अनीित, पाप-पु य, याय-अ याय—सबकछ धम क अनुकल हो गया ह तथा नए-नए अनेक
माग क पत हो गए ह। इससे पु य तथा पुराणािद ंथ वन म रहनेवाले साधु-महा मा तक ही सीिमत होकर रह
गए ह।
फोरिह िसल लोढ़ा सदन लाग अढक पहार।
कायर कर कपूत किल घर घर सहस डहार॥
िजस कार पहाड़ क ठोकर लगने पर मूख लोग घर क िसल-लोढ़ को तोड़ देत े ह, उसी कार किलयुग म घरवाल
को तंग करनेवाले कायर, र और कपूत येक घर म ह गे।
भगवा म ेम नह घटना चािहए
वन घट पुिन ग घट घटउ सकल बल देह।
इते घट घिटह कहा ज न घट ह रनेह॥
तुलसीदास कहते ह िक चाह वण-श ीण हो जाए, चाह आँख क रोशनी म यम हो जाए, चाह शरीर का बल
साथ छोड़ दु; परतु भगवा ीह र क ित ेम नह घटना चािहए। यिद ेम अ ु ण रह तो िकसी क रहने या न रहने से
कोई भाव नह पड़ता।
कसमय का भाव
तुलसी पावस क समय धरी कोिकलन मौन।
अब तो दादुर बोिलह हम पूिछह कौन॥
तुलसीदास कहते ह िक िजस कार बरसात क ऋतु म मेढक टराते ह, इसिलए कोयल मौन हो जाती ह, उसी कार बुर
समय म जब दुजन लोग का भाव बढ़ता ह, तब स न मौन हो जाते ह।
तुलसी सिहत सनेह िनत सुिमर सीता राम।
सगुन सुमंगल सुभ सदा आिद म य प रनाम॥
तुलसीदास कहते ह िक जो मनु य िनरतर भगवा ीराम और सीताजी क सगुण व प का िचंतन करते ह, उनक
आिद, म य और अंत सदा शुभ, मंगलदायक और क याणकारी होते ह।
का भाषा का संसकत ेम चािहए साँच।
काम जु आवै कामरी का लै क रअ कमाच॥
भगवा क गुण का गान करने क िलए भाषा या सं कत नह चािहए। इसक िलए कवल स ा ेम ही ब त ह। जहाँ
क बल से काम चल जाए, वहाँ बि़ढया दुशाला लेन े क या आव यकता?

4
गीतावली
राग कदारा
घर-घर अवध बधावने मंगल साज-समाज।
सगुन सोहावने मुिदत मन कर सब िनज-िनज काज॥
िनज काज सजत सँवा र पुर-नर-ना र रचना अनगनी।
गृह, अिजर, अटिन, बजार, बीिथ ह चा चौक िबिध घनी॥
चामर, पताक, िबतान, तोरन, कलस, दीपाविल बनी।
सुख-सुकत-सोभामय पुरी िबिध सुमित जननी जनु जनी॥
चैत चतुरदिस चाँदनी, अमल उिदत िनिसराज।
उडगन अविल कासह , उमगत आनँद आज
आनंद उमगत आजु, िबबुध िबमान िबपुल बनाइक।
गावत, बजावत, नटत, हरषत, सुमन बरषत आइक॥
नर िनरिख नभ, सुर पेिख पुरछिब परसपर सचु पाइक।
रघुराज-साज सरािह लोचन-ला लेत अघाइक॥
जािगय राम छठी सजिन रजनी िचर िनहा र।
मंगल-मोद-मढ़ी मूरित नृपक बालक चा र॥
मूरित मनोहर चा र िबरिच िबरिच परमारथमई।
अनु प भूपित जािन पूजन-जोग िबिध संकर दई॥
ित हक छठी मंजुल मठी, जग सरस िज ह क सरसई।
िकए न द-भािमिन जागरन, अिभरािमनी जािमिन भई ॥
सेवक सजग भए समय-साधन सिचव सुजान।
मुिनबर िसखये लौिककौ बैिदक िबिबध िबधान॥
बैिदक िबधान अनेक लौिकक आचरत सुिन जािनक।
बिलदान-पूजा मूिलकामिन सािध राखी आिनक॥
जे देव-देवी सेइयत िहत लािग िचत सनमािनक।
ते जं -मं िसखाइ राखत सबिनस पिहचािनक॥
सकल सुआिसिन, गुरजन, पुरजन, पा न लोग।
िबबुध-िबलािसिन, सुर-मुिन, जाचक जो जेिह जोग॥
जेिह जोग जे तेिह भाँित ते पिहराइ प रपूरन िकये।
जय कहत देत असीस, तुलसीदास य लसत िहये॥
य आजु कािल पर जागन होिहगे, नेवते िदये।
ते ध य पु य-पयोिध जे तेिह समै सुख-जीवन िजये॥
भूपित-भाग बली सुर-बर नाग सरािह िसहािह।
ितय-बरबेष अली रमा िसिध अिनमािद कमािह॥
अिनमािद सारद सैलनंिदिन बाल लालिह पालह ।
भ र जनम जे पाए न ते प रतोष उमा-रमा लह ॥
िनज लोक िबसर लोकपित घर क न चरचा चालह ।
तुलसी तपत ित ताप जग जनु भु छठी-छाया लह ॥

ी राम क ज म क उपरांत क थित का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक अयो या क घर-घर म मंगल
मनाया जा रहा ह, शुभ शकन हो रह ह। सभी नर-नारी हिषत होकर अपने-अपने काय कर रह ह। घर, आँगन, बाजार
तथा गिलय को सुंदर ढग से सजा िदया गया ह। चँवर, पताका, मंडप, तोरण, कलश और दीपावली से सजी ऐ य एवं
वैभवता से यु अयो या इ पुरी क समान लग रही ह। देवगण नाचते-गाते ए पु प क वषा कर रह ह तथा राजा
दशरथ क वैभवता क शंसा कर रह ह। राम क छठी होने क कारण आज क राि अ यंत सुंदर और मंगलमय ह।
चार राजकमार इस कार सुशोिभत ह मानो िवधाता ने चार सुंदर मूितयाँ रचकर पूजा क िलए दशरथ को स प दी ह ।
दशरथ का महल सुख और आनंद म डबा आ ह। गु वर महिष विस ने सेवक और सुजान मंि य को लौिकक
और वैिदक िनयम का आदेश दे िदया ह। अत: वे सभी समय को साधने अथा तं -मं का योग करने क िलए तैयार
ह। पूजा क साम ी तथा दानािद क व तुएँ एक ओर सजाकर रखी ई ह। गु जन, ऋिष, मुिन, देवगण, सेवक—राजा
दशरथ ने सभी को उनक यो यता क अनुसार काय स प िदए ह। वे भी तुलसीदास क भाँित ीराम क ेम म डबे ए
सम त काय कर रह ह। अिणमािद िस याँ, शारदा और पावतीजी उन बालक का लालन-पालन कर रही ह।
महाल मी और पावती को आज वह सुख िमल गया ह, जो उ ह सार ज म म नह िमला था। लोकपाल अपने लोक क
बात भूलकर इस आनंदमय उ सव को भाव-िवभोर होकर देख रह ह। तुलसीदास कहते ह िक ऐसा तीत होता ह मानो
तीन ताप से तपे ए लोक को छठी क प म भु क छाया ा हो गई ह।
राम-िससु गोद महामोद भर दसरथ,
कौिसला ललिक लषनलाल लये ह।
भरत सुिम ा लये, ककयी स ुसमन,
तन ेम-पुलक मगन मन भये ह॥
मेढ़ी लटकन मिन-कनक-रिचत, बाल-
भूषन बनाइ आछ अंग-अंग ठये ह।
चािह चुचुका र चूिम लालत लावत उर
तैस े फल पावत जैसे सुबीज बये ह॥
घन-ओट िबबुध िबलोिक बरषत फल
अनुकल बचन कहत नेह नये ह।
ऐसे िपतु, मातु, पूत, ि य, प रजन िबिध
जािनयत आयु भ र येई िनरमये ह॥

‘ अजर अमर को ’, ‘करौ ह रहर छो ’


जरठ जठ र ह आिसरबाद दये ह।
तुलसी सराह भाग ित हक िज हक िहये
िडभ-राम- प-अनुराग रग रये ह॥
बालक राम को गोद म लेकर राजा दशरथ अ यंत स हो रह ह। कौश या ने ल मण को, सुिम ा ने भरत को तथा
ककयी ने श ु न को उठा िलया ह। उस समय सभी आनंद और सुख क सागर म डबिकयाँ लगा रह ह। सुंदर आभूषण
एवं व से सुस त चार बालक क शोभायमान छिव देखकर देवगण भी पुलिकत हो रह ह तथा दशरथ एवं उनक
रािनय क भा य क शंसा कर रह ह। बूढ़-बुजुग उ ह ‘अजर-अमरता’ का आशीवाद दे रह ह। तुलसीदास कहते ह िक
वे उनक भा य क सराहना करते ह िजनक दय भगवा राम क ेम से रगे ए ह।
साइये लाल लािडले रघुराई।
मगन मोद िलये गोद सुिम ा बार-बार बिल जाई॥
हसे हसत, अनरसे अनरसत ितिबंबिन य झाँई।
तुम सबक जीवन क जीवन, सकल सुमंगलदाई॥
मूल मूल सुरबीिथ-बेिल, तम-तोम सुदल अिधकाई।
नखत-सुमन, नभ-िबटप ब िड मानो छपा िछटिक छिब छाई॥
हौ जँभात, अलसात, तात! तेरी बािन जािन म पाई।
गाइ गाइ हलराइ बोिलह सुख न दरी सुहाई॥
छब , छबीलो छगन मगन मेर, कहित म हाइ म हाई।
सानुज िहय लसित तुलसी क भु क लिलत ल रकाई ॥
सुिम ा ने बालक राम को गोद म उठाया आ ह और उनपर बिलहारी होकर कहती ह िक ह लाल! ह रघुवीर! सो
जाओ। िजस कार िबंब क अनु प उसक छाया पड़ती ह, उसी कार हमार हसते ही तुम भी हसने लगते हो तथा
हमार उदास होते ही तुम भी उदास हो जाते हो। तुम सभी का मंगल करनेवाले तथा सुख दान करनेवाले हो। ह तात!
तु ह जँभाई आ रही ह और तुम अलसा रह हो। म लोरी गाकर सुखमयी िन ा को बुलाती । िफर माता सुिम ा यार से
उ ह पुचकारने लग । तुलसीदास कहते ह िक उस समय भु का बाल प भाइय सिहत मेर दय म उमग मारता ह।
राग का हारा
पालने रघुपित झुलावै।
लै-लै नाम स ेम सरस वर कौस या कल क रित गावै॥
किक कठ दुित यामबरन बपु, बाल-िबभूषन िबरिच बनाए।
अलक किटल, लिलत लटकन ू, नील निलन दोउ नयन सुहाए ॥
िससु-सुभाय सोहत जब कर गिह बदन िनकट पदप व लाए।
मन सुभग जुग भुजग जलज भ र लेत सुधा सिस स सचु पाए॥
उपर अनूप िबलोिक खेलौना िकलकत पुिन-पुिन पािन पसारत।
मन उभय अंभोज अ न स िबधु-भय िबनय करत अित आरत ॥
तुलिसदास ब बास िबबस अिल गुंजत, सुछिब न जाित बखानी।
मन सकल ुित ऋचा मधुप ै िबसद सुजस बरनत बर बानी॥
माता कौश या राम को पालने म झुलाते ए ेम भर वर म भु क सुंदर क ित का गान कर रही ह। मयूरक ठ क
कांित क समान उनक शरीर पर रच-रचकर बालोिचत िवभूषण बनाए गए ह। उनक ने कमल क समान सुंदर तीत
होते ह। जब वे अपने हाथ से अपने पैर को पकड़कर मुख क पास लाते ह, उस समय ऐसा लगता ह मानो दो सुंदर
सप चं मा से अमृत लेते ए शोभायमान ह। जब वे ऊपर लटकते ए िखलौने को देखकर िकलकारी मारते ह तथा बार-
बार अपने हाथ पसारते ह तो मानो दो कमल चं मा से भयभीत होकर सूय क ाथना कर रह ह। तुलसीदास कहते ह
िक उनक छिव का वणन करना असंभव ह। ऐसा लगता ह मानो वेद क सम त ऋचाएँ भ र बनकर िनमल वाणी म
भगवा क िवशद यश का वणन कर रही ह।
राग लिलत
छोटी-छोटी गोि़डयाँ अँगु रयाँ छबील छोटी,
नख-जोित मोती मानो कमल-दलिन पर।
लिलत आँगन खेल, ठमुक-ठमुक चल,
झुँझुनु झुँझुन ु पाँय पैजनी मृदु मुखर ॥
िकिकनी किलत किट हाटक जिटत मिन,
मंजु कर-कजिन प िचयाँ िचरतर।
िपयरी झीनी झँगुली साँवर सरीर खुली,
बालक दािमनी ओढ़ी मानो बार बा रधर ॥
उर बघनहा, कठ कठला, झँडले कश,
मेढ़ी लटकन मिसिबंदु मुिन-मन-हर।
अंजन-रिजत नैन, िचत चोर िचतविन,
मुख-सोभापार वार अिमत असमसर॥
चुटक बजावती नचावती कौस या माता,
बालकिल गावती म हावती सु ेम-भर।
िकलिक िकलिक हस, -ै ै दँतु रयाँ लस,
तुलसी क मन बस तोतर बचन बर ॥
उनक छोट-छोट पैर म न ही-न ही उगिलयाँ ह, िजनक नख क चमक ऐसी लगती ह जैसे कमल दल पर मोती
सुशोिभत ह । आँगन म खेलते समय वे जब ठमक-ठमककर चलते ह तो उनक पैर क पैजिनय का वर गूँज उठता ह।
कमर पर वण क मिणजि़डत करधनी ह तथा हाथ म अित सुंदर प िचयाँ ह। उनक साँवले शरीर पर पीत वण का व
ऐसे सुशोिभत ह जैसे िकसी छोट बादल ने बाल-िव ु ओढ़ रखी हो। उनक माथे पर गभुआर कश, चोटी, लटकन तथा
काजल क िबंदी िवराजमान ह। उनक सुंदर िचतवन िच को चुरानेवाली ह तथा उनक मुखछिव पर अनंत कामदेव भी
योछावर ह। माता कौश या चुटक बजाते ए तथा बालगीत गाते ए राम को दुलार रही ह। ीराम िकलकारी मारकर
हसते ह; उनक मुख म दो दाँत शोभायमान ह। तुलसीदास कहते ह िक उनक दय म ीराम क मधुर तोतले वचन बसे
ए ह।
अह यो ार
रामपद-पदुम-पराग परी।
ऋिषितय तुरत यािग पाहन-तनु छिबमय देह धरी॥
बल पाप पित-साप दुसह दव दा न जरिन जरी।
कपा सुधा िसंिच िबबुध-बेिल य िफ र सुख-फरिन फरी॥
िनगम-िनगम मूरित महस-मित-जुबित बराय बरी।
सोइ मूरित भइ जािन नयन पथ इकटकत न टरी॥
बरनित दय स प, सील गुन ेम- मोद-भरी।
तुलिसदास अस किह आरतक आरित भु न हरी॥
अह या महिष गौतम क प नी थ । महिष ने उ ह शाप देकर प थर का बना िदया। परतु भगवा राम क चरण का पश
होते ही वह पुन: अपने वा तिवक व प म आ गई थ । शाप से जलती ई अह या भगवा ीराम क कपा पी अमृत
से भीगकर सुख-आनंद से संप हो गई। वेद क िलए भी अगम भगवा क िजस व प का िशवजी भी यान करते ह,
उ ह एकटक देखकर भी अह या िवचिलत नह । वे मन-ही-मन ेम एवं आनंद से भरकर उनक प, शील और गुण
का गान करने लग । तुलसीदास कहते ह िक भगवा राम दीन क दीनता हरने वाले ह।
जनक िबलोिक बार-बार रघुबर को।
मुिनपद सीस नाय, आयसु-असीस पाय,
एई बात कहत गवन िकयो घर को॥
न द न परित राित, ेम-पन एक भाँित,
सोचत, सकोचत िबरिच-ह र-हरको।
तु हते सुगम सब देव! देिखबे को अब
जस हस िकए जोगवत जुग पर को॥
याए संग कौिसक, सुनाए किह गुनगन,
आए देिख िदनकर कल-िदनकर को।
तुलसी तेऊ सनेह को सुभाउ बाउ मानो
चलदल को सो पात कर िचत चर को॥
रघुनाथ को देखकर जनक मोिहत हो गए। तदनंतर महिष को णाम कर वे अपने घर चले गए। रघुनाथजी का ेम और
धनुष-भंग क ित ा—ये दोन ही समान ह। इसिलए इसक िलए वे बड़ा सोच रह ह। इस कारण राि को उ ह न द भी
नह आती। अपनी काय-िस क िलए वे ा, िव णु एवं िशव से ाथना कर रह ह िक ह ि देवो! आपक कपा से
सबकछ संभव ह। आप ेम और ण को एक साथ सँभाल सकते ह। उसी समय ीराम-ल मण को साथ लेकर महिष
िव ािम पधार और उनक गुण का बखान करने लगे। तुलसीदास कहते ह िक सूय क समान तेजवा ीराम को
देखकर राजा जनक का दय ेह पी वायु क झ क से पीपल क प े क समान चंचल हो उठा।
रगभूिम म
रगभूिम आए दसर थक िकसोर ह।
पेखनो सो पेखन चले ह पुर-नर-ना र,
बार-बूढ़, अंध-पंगु करत िनहोर ह॥
नील पीत नीरज कनक मरकत घन
दािमनी-बरन तनु प क िनचोर ह।
सहज सलोने, राम-लषन लिलत नाम,
जैसे सुन े तैसेई कवर िसरमौर ह॥
रन-सरोज, चा जंघा जानु ऊ किट,
कधर िबसाल, बा बड़ बरजोर ह।
नीक क िनषंग कसे, कर कमलिन लसै
बान-िबिसषासन मनोहर कठोर ह॥
कानिन कनक फल, उपबीत अनुकल,
िपयर दुकल िबलसत आछ छोर ह।
रािजव नयन, िबधुबदन िटपार िसर,
नख-िसख अंगिन ठगौरी ठौर-ठौर ह॥
सभा-सरवर लोक-कोक-नद-कोकगन
मुिदत मन देिख िदनमिन भोर ह।
अबुध असैल े मन-मैल े मिहपाल भये,
कछक उलूक कछ कमुद चकोर ह॥
भाइस कहत बात, कौिसकिह सकचात,
बोल घन घोर-से बोलत थोर-थोर ह।
सनमुख सबिह, िबलोकत सबिह नीक,
कपा स हरत हिस तुलसी क ओर ह॥
दशरथ-पु ीराम क रगभूिम म पधारने क बात सुनकर िमिथला क सभी ी-पु ष उस ओर चल पड़। बालक, वृ
और िवकलांग य भी वयं को वहाँ ले जाने क िलए िवनती कर रह ह। राम-ल मण नीले एवं पीले कमल, वण
एवं मरकत मिण, मेघ और िबजली क समान वण वाले ह। वे बड़ सुंदर और मनोहारी िदखाई दे रह ह। उनक चरण
कमल क समान, जंघा, जानु एवं किट देश बड़ सुंदर; कधे िवशाल तथा भुजाएँ बड़ी बलशाली ह। कध पर सुंदर
तरकश और हाथ म कठोर धनुष-बाण सुशोिभत ह। उनक कान म वण-िनिमत कणफल, गले म सुंदर य ोपवीत तथा
शरीर पर पीतांबर सुशोिभत ह। उनक ने कमल क समान तथा मुख चं मा क समान ह। उस समय रगभूिम सरोवर क
भाँित, भगवा ीराम चं मा क समान तथा उप थत दशक चकवे क समान तीत हो रह ह। इसक िवपरीत ए अ ानी
राजा मन-ही-मन ई या से त हो रह थे। ीराम जब ल मण से बात करते ह तो िव ािम से सकचाकर और मेघ क
समान गंभीर श द बोलते ह। भु क सम सभी एक समान ह। वे सभी को समभाव से देखते ह। तुलसीदास क ओर
भी वे कपापूवक हसकर देख रह ह।
जयमाल जानक जलकर लई ह।
सुमन सुमंगल सगुन क बनाइ मंजु,
मान मदनमाली आपु िनरमई ह॥
राज- ख लिख गुर भूसुर सुआिसिन ह,
समय-समाज क ठविन भली ठई ह।
चल गान करत, िनसान बाजे गहगह,
लहलह लोयन सनेह सरसई ह॥
हिन देव दुंदुभी हरिष बरषत फल,
सफल मनोरथ भौ, सुख-सुिचतई ह।
पुरजन-प रजन, रानी-राउ मुिदत,
मनसा अनूप राम- प-रग रई ह ॥
सतानंद-िसष सुिन पाँय प र पिहराई,
माल िसय िपय-िहय, सोहत सो भई ह।
मानसत िनकिस िबसाल सुतमालपर,
मान मरालपाँित बैठी बिन गई ह॥
िहतिनक लाह क , उछाह क , िबनोद-मोद,
सोभा क अविध निह अब अिधकई ह।
याते िबपरीत अनिहतन क जािन लीबी
गित, कह गट, खुिनस खासी गई ह॥
िनज िनज बेद क स ेम जोग-छम-मई,
मुिदत असीस िब िबदुषिन दई ह।
छिब तेिह काल क कपालु सीतादूलह क
लिसत िहये तुलसी क िनत नई ह॥
जानक जी ने हाथ म जयमाला ले ली। ऐसा लगता ह िक कामदेव पी माली ने वयं उस मनोहर माला को बनाया ह।
राजा जनक का संकत पाकर गु शतानंद, ा ण-समूह एवं सुवािसनी ि य ने सजी ई सीता को साथ िलया और
मंगल गीत गाते ए चल । ीराम और सीता पर पर एक-दूसर क दशन क िलए उतावले हो रह थे। देवगण शंखािद
बजाते ए उनपर पु प-वषा कर रह थे। अपना मनोरथ िस होने से वे बड़ स होकर सुख का अनुभव कर रह थे।
राजा, रानी, प रजन तथा नगरवासी—सभी आनंिदत होकर ीराम क रग म रग गए ह। तदनंतर गु शतानंद क िश ा
सुनने क बाद सीताजी ने भगवा राम क गले म वरमाला डाल दी। उनक शोभा ऐसी लग रही ह मानो हस क जोड़ी
मानसरोवर से िनकलकर िकसी सुंदर तालवृ पर बैठी ई हो। भ क िलए इतना सुहावना, उ सािहत एवं आनंिदत
कर देनेवाला समय दूसरा नह था; परतु भु से ेष करनेवाल को उस समय ई या और ोध ने घेर िलया था।
त प ा िव ा ा ण ने स होकर नविववािहत जोड़ को आशीवाद िदया। ीसीताजी क साथ सुशोिभत भगवा
ीराम क अ ुत छिव तुलसीदास क दय म अंिकत हो गई।
कसे िपतु-मातु, कसे ते ि य-प रजन ह?
जगजलिध ललाम, लोने लोने, गोर- याम,
िजन पठए ह ऐसे बालकिन बन ह॥
प क न पारावार, भूप क कमार मुिन-बेष,
देखत लोनाई लघु लागत मदन ह।
सुखमा क मूरित-सी साथ िनिसनाथ-मुखी,
नखिसख अंग सब सोभा क सदन ह॥
पंकज-करिन चाप, तीर-तरकस किट,
सरद-सरोज त सुंदर चरन ह।
सीता-राम-लषन िनहा र ामना र कह,
ह र, ह र, ह र! हली िहय क हरन ह॥
ान क ानसे, सुजीवन क जीवन से,
ेम क ेम, रक किपन क धन ह।
तुलसी क लोचन-चकोर क चं मा से,
आछ मन-मोर िचत चातक क घन ह॥
अरी सखी! वे माता, िपता, कटबी कसे ह िज ह ने संसार पी समु म इन सुंदर और सुकोमल बालक को वन म भेज
िदया? इ ह मुिनवेषधारी सुकमार क सुंदरता देख कामदेव भी ल त हो रहा ह। इनक साथ सुशोिभत सीता क सुंदरता
नख से िशख तक कट हो रही ह। उनक कध पर लटक तरकश म असं य बाण ह तथा हाथ म धनुष-बाण सुशोिभत
हो रह ह। राम, ल मण एवं सीता क इस व प को देखकर गाँव क ि याँ कहने लग िक ह सखी! इनक छिव दय
को चुराने वाली ह। ये ाण क भी ाण, जीवन क भी जीवन, ेम क भी ेम तथा कपण क भी धन जैसे ह। तुलसीदास
कहते ह िक उनक ने पी चकोर क िलए ीराम चं मा क समान, मन पी मोर तथा िच पी चातक क िलए सुंदर
मेघ क समान ह।
देख ु री सखी! पिथक नख-िसख नीक ह।
नीले पीले कमल-से कोमल कलेवरिन,
तापस बेष िकये काम कोिट फ क ह॥
सुकत-सनेह-सील-सुषमा-सुख सकिल,
िबरचे िबरिच िकध अिमय, अमीक ह।
पक -सी दािमनी सुभािमनी सोहित संग,
उम रमात आछ अंग-अंग ती क ह॥
बन-पट कसे किट, तून-तीर-धनु धर,
धीर, बीर, पालक कपालु सबही क ह।
पानही न, चरन-सरोजिन चलत मग,
कानन पठाए िपतु-मातु कसे ही क ह॥
आली अवलोिक ले , नयनिन क फल ये ,
लाभ क सुलाभ, सुख जीवन-से जी क ह।
ध य नर-ना र जे िनहा र िबनु गाहक ,
आपने आपने मन मोल िबनु बीक ह॥
िबबुध बरिष फल हरिष िहये कहत,
ाम-लोभ मगन सनेह िसय-पी क ह।
जोगी जन-अगम दरस पायो पाँवरिन,
मुिदत मन सुिन सुरप-सची क ह॥
ीित क सुबालक-से लालत सुजन मुिन,
मग चा च रत लषन-राम-सी क ह।
जोग न िबराग-जाग, तप न तीरथ- याग,
एही अनुराग भाग खुले तुलसी क ह॥
अरी सखी! ये पिथक तो नख से िशख तक सुंदर ह। नीले और पीले कमल क समान अपने कोमल शरीर से तप वी वेष
धारण करने क बाद भी वे कामदेव को ल त कर रह ह। उनक साथ िव ु पी एक सुंदर युवती भी शोभायमान ह।
अव य िवधाता ने इनक रचना सुकत, ेह, शील, सुषमा और सुख को एकि त करक क ह। य िप इ ह ने वनवासी
वेष धारण िकया ह, परतु इनक हाथ म धनुष-बाण तथा कध पर तरकश सुशोिभत ह। इ ह देखकर तीत होता ह िक ये
बड़ ही धीर, वीर, कपालु और सभी का पालन करने वाले ह। इनक माता-िपता न जाने िकतने कठोर दय क ह, जो
इ ह वन म भटकने क िलए भेज िदया। िजनक दशन योिगय क िलए भी अ यंत दुलभ ह, उनक सलोने व प को गाँव
और वन क िनरीह ाणी एकटक होकर देख रह ह। योग, वैरा य, य , तप, तीथ और याग आिद का अभाव होने पर
भी ीराम क चरण म अनुराग होने क कारण तुलसीदास क भा य खुल गए ह।
िच कट-वणन
राग चंचरी
िच कट अित िबिच , सुंदर बन, मिह पिब ,
पाविन पय-स रत सकल मल-िनकिदनी।
सानुज जह बसत राम, लोक-लोचनािभराम,
बाम अंग बामाबर िब व-बंिदनी॥
रिषबर तह छद बास, गावत कलकठ हास,
क तन उनमाय काय ोध-किदनी।
बर िबधान करत गान, वारत धन-मान- ान,
झरना झर िझंग िझंग िझंग जलतरिगनी॥
बर िबहा चरन चा पाँड़र चंपक चनार
करनहार बार पार पुर-पुरिगनी।
जोबन नव ढरत ढार दु म मृग मराल
मंद-मंद गुंजत ह अिल अिलंिगनी॥
िचतवत मुिनगन चकोर, बैठ िनज ठौर-ठौर,
अ छय अकलंक सरद-चंद-चंिदनी।
उिदत सदा बन-अकास, मुिदत बदत तुलिसदास,
जय-जय रघुनंदन जय जनकनंिदनी॥
िच कट पवत बड़ा िविच ह। वहाँ का वन बड़ा सुंदर तथा भूिम ब त पिव ह। संपूण पाप को न करनेवाली परम
पावन पय वनी (मंदािकनी) नदी भी वहाँ बहती ह। उस थान पर तीन लोक को मोिहत करनेवाले राम अपने अनुज
ल मण और प नी सीता क साथ िनवास कर रह ह। ऋिषगण भगवा ीराम क क ित का गान करते ए व छद
िवचरण करते ह तथा उन पर धन, मान एवं ाण को योछावर करते ह। गाँव क ि याँ वयं को उनक चरण म
योछावर करती ह। मृग एवं हस म होकर कोलाहल कर रह ह, जबिक भ र मंद-मंद वर म गा रह ह। तुलसीदास
स होकर उ ोष करते ह िक भगवा राम और ीजानक क जय हो।
मारीच-वध
राग सोरठ
बैठ ह राम-लषन अ सीता।
पंचबटी बर परनकटी तर, कह कछ कथा पुनीता॥
कपट-करग कनक मिनमय लिख ि य स कहित हिस बाला।
पाए पािलबे जोग मंज ु मृग, मार मंजुल छाला॥
ि या-बचन सुिन िबहिस ेमबस गविह चाप-सर ली ह।
च यो भािज, िफ र िफ र िचतवत मुिनमख-रखवार ची ह॥
सोहित मधुर मनोहर मूरित हम-ह रनक पाछ।
धाविन, नविन, िबलोकिन, िबथकिन बसै तुलसी उर आछ ॥
पंचवटी क सुंदर पणकटी म ीराम, ल मण एवं सीता बैठ ए पिव कथाएँ कह रह ह। तभी एक वण-यु कपटी
मृग को देखकर सीताजी ने ि यतम से हसकर कहा िक यिद यह मनोहर मृग पकड़ िलया जाए तो इसक सुंदर मृगछाला
आपक िलए यो य होगी। ाणि या क बात सुनकर ीरघुनाथ ने ेमवश धनुष-बाण हाथ म िलया और मृग का पीछा
करने लगे। लेिकन िव ािम मुिन क य क र ा करनेवाले भगवा राम को पहचानकर मृग वहाँ से दौड़ चला।
वणमय मृग का पीछा करते भगवा राम क छिव बड़ी शोभायमान हो रही ह। उस समय ीराम का दौड़ना, झुकना,
देखना, थककर खड़ रह जाना—सब तुलसीदास क दय म अ छी तरह से बस गया।
देखी जानक जब जाइ।
परम धीर समीरसुत क ेम उर न समाइ॥
कस सरीर सुभाय सोिभत, लगी उि़ड-उि़ड धूिल।
मन मनिसज मोहनी-मिन गयो भोर भूिल॥
रटित िनिसबासर िनरतर राम रािजव नैन।
जात िनकट न िबरिहनी-अ र अकिन ताते बैन॥
नाथ क गुनगाथ किह किप दई मुँदरी डा र।
कथा सुिन उिठ लई कर बर, िचर नाम िनहा र॥
दय हरष-िवषाद अित पित-मुि का पिहचािन।
दास तुलसी दसा सो किह भाँित कह बखािन? ॥
िजस समय हनुमानजी ने सीताजी को अशोक वािटका म देखा, उनक दय म ेम समाए नह समाता। उनका दुबल
शरीर भी शोभायमान ह; उस पर धूल जम गई ह। उ ह देखकर ऐसा तीत होता ह मानो कामदेव भूलवश अपनी मोिहनी
मिण को भूल गया हो। वे िदन-रात िनरतर ीराम क नाम का मरण कर रही ह। िवरिहणी ि य का श ु अथा शीतल,
मंद पवन भी उनक ओर जाने का साहस नह करता, य िक उसे उनक िवरहा न म जल जाने का भय ह। राम-कथा
का गान करते ए हनुमानजी ने सीताजी क सम मुि का डाल दी। सीताजी ने कथा सुनकर तथा मुि का पर अपने
ि यतम का नाम देखकर उसे अपने सुंदर हाथ से उठा िलया। ीराम क मुि का देखकर सीताजी को बड़ा हष आ,
जबिक िवयोग से उनका दय पुन: िवषाद से भर गया—उनक उस दशा का वणन तुलसीदास िकस कार कर सकते
ह?
तु हर िबरह भई गित जौन।
िचत दै सुन , राम क नािनिध! जानौ कछ, पै सक किह ह न ॥
लोचन-नीर किपन क धन य रहत िनरतर लोचनन कोन।

‘ हा’ धुिन-खगी लाज-िपंजरी मह रािख िहये बड़ बिधक हिठ मौन॥


जेिह बािटका बसित, तह खग-मृग तिज-तिज भजे पुरातन भौन।
वास-समीर भट भइ भोर , तेिह मग पगु न धय ित पौन॥
तुलिसदास भु! दसा सीय क मुख क र कहत होित अित गौन।
दीजै दरस दू र क जै दुख, हौ तु ह आरत-आरित दौन ॥
ह क णािनधान रघुनाथजी! आपक िवरह म जानक जी क जो गित ई ह, उसे यानपूवक सुनो। लेिकन म भी िजतना
जानता उतना प प से नह कह सकता। ीराम, उनक ने का जल िकसी कपण क धन क समान ने क कोने
म ही रह जाता ह। उनक मौन पी बिधक ने ‘आह’ नामक विन पी प ी को ल ा पी िपंजर म बंद करक दय
म रख िलया ह। अथा दुख से पीि़डत होने क बाद भी उनक आह दय म ही दबी रह जाती ह। वे िजस वािटका म
रहती ह, वहाँ क पशु-प ी भी दुखी होकर चले गए ह। ह भु! मने अ यंत गौण श द म सीताजी क दशा का वणन
िकया ह। अत: आप दशन देकर उनक दुख का नाश कर, य िक आप दीन क दुख का अंत करने वाले ह।
दूसरो न देखतु सािहब सम रामै।
बेदऊ पुरान, किब-कोिबद िबरद-रत,
जाको जिस सुनत गावत गुन- ामै॥
माया-जीव, जग-जाल, सुभाउ, करम-काल,
सबको सासक, सब म, सब जाम।
िबिध-से करिनहार, ह र-से पालिनहार,
हर-से हरिनहार जप जाक नाम॥
सोइ नरबेष जािन, जानक िबनती मािन,
मतो नाथ सोई, जात भलो प रनाम।
सुभट-िसरोमिन कठारपािन सा रखे
लखी औ लखाई, इहाँ िकए सुभ साम॥
बचन-िबभूषन िबभीषन बचन सुिन
लागे दु:ख दूषन-से दािहनेउ बाम।
तुलसी मिक िहये ह यो लात, ‘भले तात’,
च यो सुरत तािक तिज घोर घाम॥
इस पद म िवभीषण रावण को संबोिधत करते ए कहते ह िक ह रा सराज! िजनक यशोगान म वेद, पुराण, किव और
िव न लीन रहते ह, उन ीराम क अित र संसार का कोई और वामी िदखाई नह देता ह। जो माया- जीव, जग-
जंजाल, वभाव, कम और काल—सबक शासक ह; जो संसार क कण-कण म या ह; सृि -रचियता ाजी,
सृि -पालक ीिव णु और संहारक िशव भी िजनक नाम का मरण करते रहते ह, वे पर ही ीराम क मनु य-वेश
म अवत रत ए ह। देखो, परशुराम ने भी देख-समझकर उनक साथ संिध कर ली ह। िवभीषण क बात सुनकर रावण
िवचिलत हो उठा। उसे अनुकल होने पर भी उनक वचन ितकल और दुखमय तीत ए। उसने ोध म भरकर
िवभीषण क छाती पर लात मारी। तब आहत िवभीषण रावणसिहत लंका को यागकर क पवृ पी ीराम क पास
चल पड़।
िवभीषन-शरणागित
जाय माय पाय प र कथा सो सुनाई ह।
समाधान करित िबभीषन को बार-बार,

‘ कहा भयो तात!’ लात मार बड़ो भाई ह॥


सािहब, िपतु समान जातुधान को ितलक,
ताक अपमान तेरी बि़डए बड़ाई ह।
गरत गलािन जािन, सनमािन िसख देित,

‘ रोष िकये दोष, सह समुझ भलाई ह ॥


इहाँत िबमुख भये, राम क सरन गए
भलो नेमु, लोक राखे िनपट िनकाई ह’।
मातु-पग सीस नाइ, तुलसी असीस पाइ
चले भले सगुन, कहत ‘मन भाई’ ह ॥
माता क चरण म िगरकर िवभीषण ने उ ह सारी बात बताई। तब माता उ ह समझाते ए बोली िक ह व स! उसक लात
मारने का बुरा मत मानना; आिखरकार वह तु हारा बड़ा भाई ह। एक तो वह तु हारा वामी ह, दूसर िपता क समान
ये भाता ह तथा तीसरा रा स कल का ितलक ह। उसक ारा िकया गया अपमान भी तु हार िलए स मान क तरह
ह। इस समय ोध करना उिचत नह ह। उसक साथ रहने म ही तु हारी और रा स कल क भलाई ह। यिद तुम ीराम
क शरण म चले गए तो यह कवल तु हार िलए अ छा ह, परतु यिद तुम यह रहकर रावण क सेवा करोगे तो इसम
सम त रा स कल क भलाई िनिहत ह। तुलसीदास कहते ह िक तब िवभीषण ने माता क चरण म णाम िकया और
आशीवाद ा कर ीराम क पास चल पड़। उस माग म अनेक शुभ शकन होने लगे, िज ह देखकर िवभीषण क सभी
संदेह न हो गए।
सुजस सुिन वन ह नाथ! आयो सरन।
उपल-कवट-गीध-सबरी-संसृित-समन,
सोक- म-सीव सु ीव आरितहरन ॥
राम राजीव-लोचन िबमोचन िबपित,
याम नव-तामरस-दाम बा रद-बरन।
लसत जटाजूट िसर, चा मुिनचीर किट,
धीर रघुबीर तूनीर-सर-धनु-धरन॥
जातुधानेस- ाता िबभीषन नाम
बंध-ु अपमान गु लािन चाहत गरन।
पिततपावन! नतपाल? क नािसंध!ु
रािखए मोिह सौिमि -सेिवत-चरन॥
दीनता- ीित-संकिलत मृदुबचन सुिन
पुलिक तन ेम, जल नयन लागे भरन।
बोिल, ‘लंकस’ किह अंक भ र भिट भु,
ितलक िदयो दीन-दुख-दोष दा रद-दरन॥
राितचर-जाित, आराित सब भाँित गत
िकयो सो क यान-भाजन सुमंगलकरन।
दास तुलसी सदय दय रघुबंसमिन

‘ पािह’ कह कािह क ह न तारन-तरन?॥


ीराम क पास प चकर िवभीषण क ण वर म बोले िक ह नाथ! म आपका सुयश सुनकर आपक शरण म आया ।
आप िशला पी अह या, कवट, िग राज जटायु एवं शबरी का उ ार करनेवाले तथा सु ीव क दुख का नाश
करनेवाले ह। ह ीराम! आप नीलकमल क समान यामल कांित वाले, कमल क समान ने वाले, मेघ-वण तथा
सम त िवपि य का नाश करनेवाले ह। आपक िसर पर जटाजूट सुशोिभत ह। कमर म मुिनव तथा हाथ म धनुष-बाण
एवं कधे पर तरकश धारण करनेवाले रघुवीर आप ही ह। ह भु! म रा सराज रावण का भाई िवभीषण तथा अपमान
क लािन से गला जा रहा । ह नाथ! ल मण क समान मुझ े भी अपने चरण म थान दीिजए। िवभीषण क बात
सुनकर ीराम का दय स ता से पुलिकत हो उठा तथा ने म जल भर आया। उ ह ने िवभीषण को ‘लंकश’ कहकर
गले से लगा िलया। जाित का रा स और श ु-प क होने क कारण िवभीषण सब ओर से या य थे, परतु ीराम ने
उ ह शरण म लेकर क याण और स मान का पा कर िदया। तुलसीदास कहते ह िक भगवा राम बड़ दयालु ह। ‘र ा
करो’—ऐसा कहते ही उ ह ने पािपय को भी तार िदया।
ल मण-मू छा
राग कदारा
राम-लषन उर लाय लए ह।
भर नीर राजीव नयन सब अँग प रताप तए ह॥
कहत ससोक िबलोिक बंध-ु मुख बचन ीित गुथए ह।
सेवक-सखा भगित-भायप-गुन चाहत अब अथए ह॥
िनज क रित-करतूित ताप! तुम सुकती सकल जए ह।
म तु ह िबनु तनु रािख लोक अपने अपलोक लए ह॥
मेर पनक लाज इहाँ ल हिठ ि य ान दए ह।
लागित साँिग िबभीषन ही पर, सीपर आपु भए ह॥
सुिन भु-बचन भालु-किप-गन, सुर सोच सुखाइ गए ह।
तुलसी आइ पवनसुत-िबिध मानो िफर िनरमये नए ह॥
यु म मेघनाद ारा चलाई गई श से ल मण मू छत हो गए। तब हनुमान उ ह ीराम क पास ले आए। उस
समय ीरघुनाथ ने ल मण को दय से लगा िलया। उनक ने म आँसू भर आए तथा दुख से शरीर द ध हो उठा। वे
ल मण का मुख देखकर रोते ए कहने लगे िक अब सेवक, िम , भ और भातृ व क सभी गुण समा होने वाले ह।
ह तात! तुमने अपनी क ित और कित से सभी सुकितय को जीत िलया। तु हार िबना जीिवत रहकर म संसार म अपक ित
ही अिजत क गा। मेरी ित ा क लाज रखने क िलए तुमने अपने ाण संकट म डाल िदए। मेघनाद ने िवभीषण पर
श का हार िकया था, लेिकन तुमने उसे अपने दय पर सह िलया। भगवा ीराम क ये वचन सुनकर उप थत
वानर, रीछ तथा देवगण—सभी शोक म डब गए। तुलसीदास कहते ह िक उस समय ा प हनुमानजी ने संजीवनी
बूटी लाकर ल मण को पुन: नवीन जीवन दान िकया।
राग लिलत
आज रघुपित-मुख देखत लागत सुख
सेवक सु ष, सोभा सरद-सिस िसहाई।
दसन-बसन लाल, िबसद हास रसाल
मानो िहमकर-कर राखे राजीव मनाई॥
अ न नैन िबसाल, लिलत किट, भाल
ितलक, चा कपोल, िचबुक-नासा सुहाई।
िबथुर किटल कच, मान मधु लालच अिल,
निलन-जुगल उपर रह लोभाई॥
वन सुंदर, सम कडल कल जुगम,
तुलिसदास अनूप, उपमा कही न जाई।
मानो मरकत सीप सुंदर सिस समीप
कनक मकरजुत िबिध िबरची बनाई ॥
आज रघुनाथ का मुख देखने से असीम आनंद का अनुभव हो रहा ह। य िक आज वे अपने सेवक क अनुकल ह।
शर पूिणमा का चं मा भी उ ह एकटक िनहार रहा ह। उनक ह ठ लाल तथा उन पर सुशोिभत मुसकान ऐसी तीत हो
रही ह मानो चं मा क िकरण को ह ठ पी कमल ने अपने पास रख िलया हो। भु क अ ण वण, िवशाल ने ,
मनोहर भृकिट, ललाट पर ितलक, मनोहर कपोल, िचबुक और नािसका बड़ सुंदर तथा मनभावन लग रह ह। उनक
किटल अल ं िबखरी ई ह, िजन पर मधु क लोभ म दो भ र मँडरा रह ह। उनक कान म सुंदर क डल
सुशोिभत ह। तुलसीदास कहते ह िक वे अ यंत अनुपम ह; उनक उपमा नह क जा सकती। ऐसा तीत होता ह मानो
िवधाता ने उनक मुख पी चं मा क िनकट क डल पी वण क मछिलय क साथ कण पी मरकत मिण क
सीिपय को रचकर बनाया हो।
लव-कश ज म
सुभ िदन, सुभ घरी, नीको नखत, लगन सुहाइ।
पूत जाये जानक ै, मुिनबधू उठ गाइ॥
हरिष बरषत सुमन सुर गहगह बधाए बजाइ।
भुवन, कानन, आ मिन रह मोद-मंगल छाइ॥
तेिह िनसा तह स ुसूदन रह िबिधबस आइ।
माँिग मुिन स िबदा गवन भोर सो सुख पाइ॥
मातु-मौसी-बिहिन त, सासु त अिधकाइ।
करिह तापस-तीय-तनया सीय-िहत िचत लाइ॥
िकए िबिध- यवहार मुिनबर िब बृंद बोलाइ।
कहत सब रिषकपा को फल भयो आजु अघाइ॥
सु ष ऋिष, सुख सुतिन को, िसय-सुखद सकल सहाइ।
सूल राम-सनेह को तुलसी न िजयत जाइ॥
शुभ िदन, शुभ घड़ी, शुभ न और शुभ ल न म ीजानक ने दो सुंदर बालक को ज म िदया। उस समय मुिन-प नयाँ
मंगल गीत गाने लग । देवगण स होकर वा बजाते ए पु प-वषा करने लगे। तीन लोक , वन और आ म म
आनंद छा गया। दैवयोग से उसी राि वहाँ श ु न आ गए। इस सुख को भोगकर वे ातःकाल मुिन से आ ा लेकर चले
गए। मुिनय क ि याँ और क याएँ—माँ, मौसी, सास और बहन से भी बढ़कर सीताजी क सेवा करती ह। वा मीिक ने
ा ण को बुलाकर सभी कार क वैिदक सं कार पूण िकए। सभी यही कहते ह िक आज ऋिष-कपा का पूरा फल
ा आ ह। तुलसीदास कहते ह िक ऋिष क अनुकलता और पु -सुख सीताजी क िलए सुखदायक ह, परतु िफर भी
उनक दय से ीराम क ेह का शूल नह िनकलता।

5
किवतावली
पात भरी सहरी, सकल सुत बार-बार,
कवट क जाित, कछ बेद न पढ़ाइह ।
सबु प रवा मेरो यािह लािग राजा जू,
ह दीन िब हीन कस दूसरी गढ़ाइह ॥
गौतम क घरनी य तरनी तरगी मेरी,
भु स िनषादु ै क बादु ना बढ़ाइह ।
तुलसी क ईस राम, रावर स साँची कह ,
िबना पग धोएँ नाथ, नाव ना चढ़ाइह ॥

इ स पद म कवट भगवा राम से िवनती करते ए कहता ह िक घर म मछली क अित र और कछ नह ह; मेर ब े


भी छोट-छोट ह। मेरी जाित कवट क ह, अतः उ ह वेद पढ़ाना भी संभव नह ह। ह राजाजी! मेर संपूण प रवार का यही
एकमा आ य ह। द र और िनधन होने क कारण म दूसरी नाव कहाँ से बनाऊगा? ह ीराम! यिद गौतम मुिन क
प नी क भाँित मेरी नाव भी तर गई तो िनषाद होने क कारण म आपसे झगड़ भी नह सकगा। ह नाथ! ह तुलसी क राम!
म सच कहता िक आपक चरण धोए िबना म आपको नाव पर नह चढ़ाऊगा।
सुंदरकांड
अशोक वन
बासव-ब न िबिध-बनत सुहावनो,
दसानन को काननु बसंत को िसंगा सो।
समय पुराने पात परत, डरत बातु,
पालत लालत रित-मार को िबहा सो॥
देख बर बािपका तड़ाग बाग को बनाउ,
रागबस भो िबरागी पवनकमा सो।
सीय क दसा िबलोिक िबटप अशोक तर,

‘ तुलसी’ िबलो यो सो ितलोक-सोक-सा सो॥


अशोक वन क सुंदरता का वणन करते ए गोसाइऔजी कहते ह िक रावण का वन इ , व ण एवं ाजी से भी
अिधक सुंदर व सुहावना था। वह ऐसा तीत होता था मानो वसंत ऋतु का ंगार कर रहा हो। पवनदेव भी उस वन म
आने से डरते थे और उसक र ा रित-कामदेव क िवहार- थल क समान करते थे। यही कारण था िक वृ क प े
समय क अनुसार ही िगरते थे। बाग क बनावट, उ म बावली और कमल-पु प से यु तालाब को देखकर हनुमान
जैसे वैरागी भी राग क अधीन हो गए; परतु अशोक वृ क नीचे ीजानक को दुखी देखकर उ ह सारा बाग तीन लोक
क दुख का सार िदखाई देने लगा।
माली मेघमाल, बनपाल िबकराल भट,
नीक सब काल स च सुधासार नीर क।
मेघनाद त दुलारो, ान त िपयारो बागु,
अित अनुरागु िजयँ जातुधान धीर क॥

‘ तुलसी’ सो जािन-सुिन, सीय को दरसु पाइ,


पैठो बािटकाँ बजाइ बल रघुबीर क।
िब मान देखत दसानन को काननु सो
तहस-नहस िकयो साहसी समीर क॥
मेघ क समूह उस बाग क माली ह और बड़-बड़ िवकराल रा स वहाँ क र क ह। वे अमृत क समान जल से उस
बाग क िसंचाई करते ह। धीर-वीर रावण क मन म भी उस बाग क िलए अ यंत अनुराग था। इसिलए वह उसे अपने
पु मेघनाद से भी अिधक ेम करता था। गोसाइऔजी कहते ह िक यह बात जानते ए भी सीताजी को देखकर
हनुमानजी बाग म िनडर होकर घुस गए और बाग को तहस-नहस कर डाला।
बड़ो िबकराल बेषु देिख सुिन िसंघनादु,
उ यो मेघनादु, सिबषाद कह रावनो।
बेग िज यो मा तु, ताप मारतंड कोिट,
कालऊ करालताँ, बड़ाई िज यो बावनो॥

‘ तुलसी’ सयाने जातुधान पिछताने कह,


जाको ऐसो दूतु, सो तो साहबु अबै आवनो।
काह को कसल रोष राम बामदेव क ,
िबषम बलीस बािद बैर को बढ़ावनो॥
हनुमानजी का रौ िसंहनाद सुनकर मेघनाद ोिधत होकर अपने थान से उठा। तब रावण िचंितत होकर बोला िक इस
वानर ने वेग म वायु को, तेज म करोड़ सूय को, करालता म काल को और िवशालता म भगवा वामन को भी जीत
िलया ह। तुलसीदास कहते ह िक उस समय जो रा स समझदार थे, वे प ा ाप करते ए कहने लगे िक िजसका दूत
इतना ंड ह, उसका वामी िकतना वीर और तेजवा होगा! भला ीराम क ोिधत होने पर भगवा िशव भी कसे
कशल रह सकते ह! ऐसे बाँक वीर से वैर करना यथ ह।
भूिम भूिमपाल, यालपालक पताल, नाक-
पाल, लोकपाल जेते, सुभट-समाजु ह।
कह मालवान, जातुधानपित! रावर को
मन अकाजु आनै, ऐसो कौन आजु ह॥
रामको पावक, समी सीय- वासु, क सु,
ईस-बामता िबलोक, बानरको याजु ह।
जारत पचा र फ र-फ र सो िनसंक लंक,
जहाँ बाँको बी तोसो सूर-िसरताजु ह॥
जब हनुमान लंका-दहन कर रह थे, उस समय मा यवा रावण से बोला िक ह रा सराज! पृ वी पर िजतने राजा ह।
पाताल म िजतने सपराज ह, वग क िजतने लोकपाल एवं अिधपित ह तथा िजतना वीर का समाज ह, उसम से कोई
ऐसा नह ह जो आपक अिहत क िवषय म सोच भी सक; िकतु यह अ न रामचं का ोध तथा वायु जानक क ास
ह। यह वानर नह ह, व तुतः वानर- प म ई र क ितकलता ह। इस समय लंका म जब तुम जैसा वीर उप थत ह,
तब भी यह वानर िबना िकसी भय क लंका को जला रहा ह।
सीताजी से िवदाई
जा र-बा र, क िबधूम, बा रिध बुताइ लूम,
नाइ माथो पगिन, भो ठाढ़ो कर जो र क।
मातु! कपा क जै, सिहदािन दीजै, सुिन सीय,
दी ही ह असीस चा चूड़ामिन छो र क॥
कहा कह तात! देख े जात य िबहात िदन,
बड़ी अवलंब ही, सो चले तु ह तो र क।

‘ तुलसी’ सनीर नैन, नेह सो िसिथल बैन,


िबकल िबलोिक किप कहत िनहो र क॥
लंका को जलाने क बाद हनुमानजी ने समु क जल से अपनी पूँछ क अ न बुझाई। तदनंतर ीजानक क चरण म
िसर झुकाकर णाम िकया और हाथ जोड़कर िवनती करते ए बोले िक ह माते! भगवा ीराम क िलए कोई िच
दान कर। तब सीताजी ने हनुमान को आशीवाद देते ए उ ह अपनी चूड़ामिण स प दी और बोली िक ह भैया! ीराम
क िवयोग म यहाँ मेर िदन िकस कार कट रह ह, यह तुम भली-भाँित देख चुक हो। तु हार रहने से कछ सहारा िमला
था, लेिकन तुम भी अब जा रह हो।... गोसाइऔजी कहते ह िक उस समय ीजानक क आँख से आँसू बहने लगे और
उनक वाणी ीण हो गई। तब हनुमानजी उ ह िवनयपूवक समझाने लगे।
भगवा राम क उदारता
नग कबेर को सुमे क बराबरी,
िबरिच-बु को िबलासु लंक िनरमान भो।
ईसिह चढ़ाइ सीस बीसबा बीर तहाँ,
रावनु सो राजा रज-तेज को िनधानु भो॥

‘ तुलसी’ ितलोक क समृ , स ज, संपदा,


सकिल चािक राखी, रािस, जाँग जहानु भो।
तीसर उपास बनबास िसंधु पास सो,
समाजु महाराजजू को एक िदन दानु भो॥
भगवा राम क उदारता का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक कबेर क संपूण लंका वण से िनिमत होने क
कारण सुमे पवत क समान ह। उसे देखकर ऐसा लगता ह मानो ाजी क बु का कौशल ही लंका क प म
खड़ा हो गया ह। राजसी तेज से यु तथा बीस भुजा वाले रावण ने भगवा िशव को अपने म तक पर धारण करक
लंकापित बनने का सौभा य ा िकया ह। तुलसीदास कहते ह िक ऐसा लगता ह मानो तीन लोक का ऐ य, वैभवता
और धन-संपि को एकि त करक यहाँ सीमा म बाँधकर रख िदया ह। इसी का भूसा शेष संसार बन गया ह। परतु
भगवा राम क उदारता तो देखो; समु -तट पर तीन िदन उपवास करने क बाद संपूण ऐ यशाली लंका उनक एक
िदन का दान हो गई—अथा उ ह ने िन क च उसे िवभीषण को दान म दे िदया।
िबपुल िबसाल िबराल किप-भालु, मानो
कालु ब बेष धर, धाए िकएँ करषा।
िलये िसला-सैल, साल, ताल औ तमाल तो र
तोप तोयिनिध, सुर को समाजु हरषा॥
डगे िदगकजर कमठ कोलु कलमले,
डोले धराधर धा र, धराध धरषा।

‘ तुलसी’ तमिक चल, राघौ क सपथ कर,


को कर अटक किप कटक अमरषा॥
समु पर सेत ु बनाने क िवषय म तुलसी कहते ह िक िवकराल और भयंकर भालू एवं वानर इस कार दौड़ पड़ मानो
अनेक ोिधत काल दौड़ रहा हो। कोई िशला, कोई पवत, कोई शाल, कोई ताड़ और कोई तमाल वृ को लेकर समु
को पाटने लगे। इस काय से देवता म हष क लहर दौड़ गई। इस उथल-पुथल से िदशा क हाथी डोलने लगे,
क छप और वाराह िवचिलत हो गए, पहाड़ काँपने लगे तथा शेषनाग दब गए। वानर ीराम क नाम का उ ोष करते
ए तमककर चल रह थे। उस समय भला ऐसा कौन था, जो उनक वेग को रोक सकता!
अंगदजी का दूत व

‘ आयो! आयो! आयो सोई बानर बहो र!’ भयो


सो च ओर लंकाँ आएँ जुबराज क।
एक काढ़ स ज, एक ध ज कर, ‘कहा ैह,
पोच भई’, महासोचु सुभट समाज क॥
गा यो किपराजु रघुराज क सपथ क र,
मूँदे कान जातुधान मानो गाज गाज क।
सहिम सुखात बातजात क सुरित क र,
लवा य लुकात, तुलसी झपेट बाज क॥
भगवा ीराम ने अंगद को दूत बनाकर रावण क दरबार म भेजा तो उनक आने से लंका म भगदड़ मच गई। चार ओर
एक ही शोर मच गया िक यह वही वानर पुन: आ गया ह िजसने लंका को भ म कर िदया था। कोई अपना सामान
समेटने लगा तो कोई घर क ओर दौड़ पड़ा। इस कार रावण क वीर म एक वानर क आने से ही हलचल मच गई।
जब भगवा राम क नाम का उ ोष करते ए अंगद गरजे तो ऐसा लगा मानो करोड़ िबजिलयाँ एक साथ गरज उठी
ह । रा स ने कान पर हाथ रख िलये। उ ह हनुमानजी का मरण था। अत: भय से वे सूख गए और इधर-उधर उसी
कार िछपने लगे िजस कार बाज को देखकर िनरीह प ी िछप जाते ह।
रावण और मंदोदरी
झूलना
कनक िग रसृंग चि़ढ देिख मकट कटक,
बदत मंदोदरी परम भीता
सहसभुज-म गजराज-रनकसरी
परसुधर गबु जेिह देिख बीता॥
दास तुलसी समरसूर कोसलधनी,
याल ह बािल बलसािल जीता।
र कत! तृन दंत गिह ‘सरन ीरामु’ किह,
अज एिह भाँित लै स पु सीता॥
वणिग र क िशखर पर चढ़कर जब मंदोदरी ने वानर-सेना को देखा तो भयभीत होकर कहने लगी िक िज ह देखकर
सह बा पी म गजराज तथा कसरी क समान वीर परशुराम का गव जाता रहा, वे भगवा राम रणभूिम म ब त वीर
और बल ह। उ ह ने खेल-ही-खेल म परम श शाली बािल को भी जीत िलया था। ह वामी! आप दाँत म ितनका
दबाकर ‘म भगवा ीराम क शरण म ’ कहते ए जानक को ले जाकर उ ह स प दो। इसी म सम त रा स कल
का क याण ह।
अंग-अंग दिलत लिलत फले िकसुक-से
हने भट लाखन लखन जातुधान क।
मा र क, पछा र क, उपािह भुजदंड चंड,
खंिड-खंिड डार ते िबदार हनुमान क॥
कदत कबंध क कदंब बंब-सी करत,
धावत िदखावत ह लाघौ राघौबान क।
तुलसी महसु, िबिध, लोकपाल, देवगन,
देखत बेवान चढ़ कौतुक मसान क॥
यु का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक ल मणजी ारा मार गए बाण से रावण क लाख वीर का अंग-अंग
घायल हो गया। इससे वे फले ए पलाश क समान िदखाई दे रह ह। कछ वीर को हनुमानजी ने मारकर, पछाड़कर,
उनक भुजा को उखाड़कर तथा उनक शरीर को खंिडत करक मार िदया ह। कबंध क झुंड भयंकर श द करते ए
रा स का संहार करते ए कदते िफर रह ह। गोसाइऔजी कहते ह िक उस समय महश, ा, लोकपाल और अ य
देवगण अपने-अपने िवमान पर चढ़ यु भूिम का य देख रह ह।
मार रन रािचर रावनु सकल दिल,
अनुकल देव-मुिन फल बरषतु ह।
नाग, नर, िक र, िबरिच, ह र ह ह र
पुलक सरीर िहएँ हतु हरषतु ह॥
बाम ओर जानक कपािनधान क िबराज,
देखत िबषादु िमट, मोदु करषतु ह।
आयसु भो, लोकिन िसधार लोकपाल सबै,

‘ तुलसी’ िनहाल क क िदए सरखतु ह॥


तुलसीदास कहते ह िक भगवा ीराम ने रावण का कल सिहत नाश करक यु म रा स का पूणत: संहार कर िदया।
इससे स होकर देवगण तथा ऋिष-मुिन जन ीराम पर पु प-वषा करते ए उनक जय-जयकार करने लगे। यह य
देखकर ा, िव णु और िशव सिहत नाग, नर एवं िक र क शरीर पुलिकत हो रह ह; उनक दय म ेम और आनंद
का समु उमड़ रहा ह। भगवा ीराम क बाइऔ ओर ीजानक िवराजमान ह, िजनक दशन मा से सम त दुख न
हो जाते ह तथा सुख-आनंद म वृ होती ह। तब लोकपाल आ ा पाकर अपने-अपने लोक लौट गए। गोसाइऔजी
कहते ह िक भगवा ीराम ने सबको िनहाल करक उ ह अभय दान कर िदया।
सेवा अनु प फल देत भूप कप य ,
िब ने गुन पिथक िपआसे जात पथ क।
लेख-जोख चोख िचत ‘तुलसी’ वारथ िहत,
नीक देखे देवता देवैया घने गथ क॥
गीधु मानो गु किप-भालु माने मीत क,
पुनीत गीत साक सब साहब सम थ क।
और भूप परिख सुलािख तौिल ताइ लेत,
लसम क खसमु तुह पै दसर थ क॥
राजा कएँ क समान सेवा क अनुकल फल दान करते ह। जबिक गुण पी र सी क िबना कई पिथक यासे ही चले
जाते ह। तुलसीदास कहते ह िक शु दय से यान लगाकर भली-भाँित समझ गए ह िक वाथ हतु धन-संपदा दान
करनेवाले अनेक देवता ह; परतु िज ह ने िग राज (जटायु) को िपता-तु य तथा वानर-भालु को िम -तु य समझा,
ऐसे समथ वामी क गीत और सभी क ित-कथाएँ पिव ह। िजतने भी राजा ह, वे अ छी तरह से जाँच-परखकर तथा
नाप-तौलकर सेवक लेत े ह। परतु ह दशरथनंदन! आप सम त संसार क वामी ह।
नाम-िव ास
वारथ को साजु न समाजु परमारथ को,
मोसो दगाबाज दूसरो न जगजाल ह।
क न आय , कर न कर गो करतूित भली,
िलखी न िबरिच भलाई भूिम भाल ह॥
रावरी सपथ, राम नाम ही क गित मेर,
इहाँ झूठो, झूठो सो ितलोक ित काल ह।
तुलसी को भलो पै तु हार ही िकएँ कपाल,
क जै न िबलंब ु बिल, पानी भरी खाल ह॥
तुलसीदास िवनती करते ए कहते ह िक ह ीराम! मेर पास न तो वाथ साधने का सामान ह और न ही परमाथ क
साम ी ह। इस संसार म मेर समान दगाबाज भी दूसरा कोई नह ह। न तो म स कम करक आया , न ही करता और
न ही क गा। ाजी ने मेर भा य म भूलकर भी भलाई नह िलखी। परतु ह ीराम! आपक शपथ ह; मुझ े कवल
आपक नाम क ही गित ह। जो आपक सम झूठा ह, वह तीन लोक और काल म झूठा ह। ह कपालु! तु हार ारा
ही तुलसी क भलाई होगी। ह राम! िबना िवलंब िकए मुझ पर अपनी कपा ि करो। मेरी दशा जल से भीगी ई उस
खाल क समान ह, जो पल- ितपल सड़ रही ह। मेर न होने म देर नह ह; मुझे अपनी शरण म ले लो।
बेद पुरान कही, लोक िबलोिकअत,
राम नाम ही स रीझ सकल भलाई ह।
कासी मरत उपदेसत महसु सोई,
साधना अनेक िचतई न िचत लाई ह॥
छाछी को ललात जे, ते रामनाम क साद,
खात, खुनसात स धे दूधक मलाई ह।
रामराज सुिनअत राजनीित क अविध,
नामु राम! रावरो तौ चामक चलाई ह॥
राम-नाम क मिहमा का वणन करते ए तुलसीदास कहते ह िक वेद एवं पुराण म कहा गया ह िक ीराम-नाम से ेम
करने म ही सभी तरह क भलाई िनिहत ह। काशी म ाण यागनेवाले जीव को भी भगवा िशव यही उपदेश देते ह।
उ ह ने न तो िकसी अ य साधन क ओर देखा और न ही उ ह अपने दय म थान िदया। जो छाछ क लोभी ह, वे
ीराम पी सुंिधत दूध क मलाई खाने म िहचिकचाते ह। ीराम क रा य म राजनीित क पराका ा सुनी जाती ह। परतु
ह राम! आपक नाम ने तो अधिमय और पािपय का भी उ ार कर िदया।
रामु मातु, िपतु, बंधु, सुजन, गु , पू य, परमिहत।
साहबु, सखा, सहाय, नेह-नाते, पुनीत िचत॥
देस,ु कोसु, कलु, कम, धम, धनु, धामु, धरिन, गित।
जाित-पाँित सब भाँित लािग रामिह हमा र पित॥
परमारथु, वारथु, सुजसु, सुलभ राम त सकल फल।
कह तुलिसदासु, अब, जब-कब एक रामते मोर भल॥
तुलसीदास कहते ह िक भगवा राम ही मेर माता, िपता, बंध,ु वजन, गु , पू य और परम िहतकारी ह। वे ही मेर
वामी, सखा एवं सहायक ह। पिव दय से िजतने भी ेम क संबंध ह, सब राम ही ह। ीराम ही मेरा देश, कोश,
कल, कम, धम, धन, धाम और गित ह। राम ही मेरी जाित-पाँित ह और राम ही मेरी ित ा क मूल ह। परमाथ, वाथ,
सुयश एवं सभी कार क पु य फल कवल भगवा ीराम क कपा से संभव ह। तुलसीदास कहते ह िक मेरा भला
कवल ीराम से ही होगा।
िवनय
हनूमान! ै कपाल, लािडले लखनलाल!
भावते भरत! क जै सेवक-सहाय जू।
िबनती करत दीन दूबरो दयावनो सो
िबगरत आपु ही सुधा र लीजै भाय जू॥
मेरी सािहिबनी सदा सीस पर िबलसित
देिब य न दास को देखाइयत पाय जू।
खीझ म रीिझबे क बािन, सदा रीझत ह,
रीझे ैह, राम क दोहाई, रघुराय जू॥
तुलसीदास िवनती करते ए कहते ह िक ह वीर हनुमान! ह लाड़ले लखनलाल! ह मनभावन भरतजी! कपा कर मुझ
सेवक क सहायता कर। यह दीन, दुबल और दया का पा आपसे िवनती करता ह िक यिद मुझसे कोई बात िबगड़
जाए तो आप उसे सुधार ल। मेरी वािमनी मेर म तक पर सदैव िवराजमान रहती ह। अत: ह देवी! आप इस दास को
अपने चरण क दशन य नह करवात ? मेर भु का खीझने म भी रीझने का भाव िनिहत ह। वे सदैव स रहते ह।
अत: इस समय भी वे अव य रीझे ह गे।
सीतावट-वणन
जहाँ बालमीिक भए याधत मुिनंद ु साधु
‘ मरा-मरा’ जप िसख सुिन रिष सात क ।
सीय को िनवास लव-कस को जनमथल
तुलसी छवत छाँह ताप गर गात क ॥
िबटप महीप सुरस रत समीप सोह,
सीताबट पेखत पुनीत होत पात क ।
बा रपुर िदगपुर बीय िबलसित भूिम,
अंिकत जो जानक -चरन-जलजात क ॥
तुलसीदास कहते ह िक स िषय ारा े रत िकए जाने पर िजस थान पर वा मीिक ‘मरा-मरा’ श द का जाप करते
ए याध से महिष हो गए, िजस थान पर ीसीताजी ने लव-कश को ज म िदया, जहाँ क छाया का पश होते ही
शरीर का सम त ताप शांत हो जाता ह, वह परम पिव वृ सीतावट गंगाजी क तट पर थत ह। उसक दशन मा से
पािपय क सम त पाप का नाश हो जाता ह। वा रपुर ( याग) और िदगपुर (काशी)—इन दो गाँव क बीच म थत यह
थान सीतामढ़ी क नाम से िस ह। इसी थान पर सीताजी क चरण-कमल अंिकत ह।
पंचकोस पु यकोस वारथ-परमारथ को
जािन आपु आपने सुपास बास िदयो ह।
नीच नर-ना र न सँभा र सक आदर,
लहत फल कादर िबचा र जो न िकयो ह॥
बारी बारानसी िबनु कह च पािन च ,
मािन िहतहािन सो मुरा र मन िभयो ह।
रोस म भरोसो एक आसुतोस किह जात
िबकल िबलोिक लोक कालकट िपयो ह॥
पाँच कोस क बीच म थत काशी पु य का भंडार और वाथ-परमाथ का साधन ह—इस बात को जानकर ही आपने
यहाँ िनवास करने वालेलोग को अपने पा म थान दान िकया ह। परतु जो ी-पु ष इस आदर को सह नह सक, वे
नीच कम करते ए उसक पाप-फल को भोगते ह; परतु बड़ आ य क बात ह िक किलयुग आपसे भयभीत नह
होता। भगवा ीक ण क कह िबना ही सुदशन च ने प क क वध क िलए काशी को जला िदया था। य िप उसम
ीक ण का कोई दोष नह था, िफर भी इसे आपक ेम क हािन समझकर उनक दय म बड़ा संकोच ह। दैव कोप
होने पर भ को एकमा भगवा आशुतोष का ही भरोसा ह, य िक आपने ही तीन लोक क क याण हतु कालकट
िवष िपया था।
िविवध
रामनाथ मातु-िपतु, वािम समरथ, िहतु,
आस रामनाम क , भरोसो रामनाम को।
मे रामनाम हीस , नेम रामनाम ही को,
जान नाम मरम पद दािहनो न बाम को॥
वारथ सकल परमारथ को रामनाम,
रामनाम हीन तुलसी न का काम को।
राम क सपथ, सरबस मेर रामनाम,
कामधेन-ु कामत मोसे छीन छाम को॥
तुलसीदास कहते ह िक राम-नाम ही मेर माता-िपता, मेरा समथ वामी और मेरा िहतकारी ह। मुझे राम-नाम से ही आशा
ह और कवल उसी का भरोसा ह। राम-नाम से ही मुझे ेम ह और राम-नाम जपने का ही िनयम ह। इसक अित र मुझे
अनुकल- ितकल का कोई भेद ात नह ह। मेर सम त वाथ और परमाथ को िस करनेवाला एकमा राम-नाम ही
ह। उसक िबना तुलसीदास िकसी यो य नह ह। म ीराम क शपथ खाकर कहता िक राम-नाम ही मेरा सव व ह।
मुझ जैसे दीन-हीन क िलए वे ही कामधेनु और क पवृ क समान ह।

6
िवनयपि का
अब ल नसानी, अब न नसैह ।
राम-कपा भव-िनसा िसरानी, जागे िफ र न डसैह ॥
पायेउ नाम चा िचंतामिन, उर कर त न खसैह ।
याम प सुिच िचर कसौटी, िचत कचनिह कसैह ॥
परबस जािन ह यो इन इि न, िनज बस ै न हसैह ।
मन मधुकर पनक तुलसी रघुपित-पद-कमल बसैह ॥

तु लसीदास कहते ह िक अब तक यह आयु यथ ही न ई; लेिकन अब इसे और न नह होने दूँगा। भगवा राम


क कपा से संसार पी राि बीत चुक ह। अब जागने क बाद पुन: माया क बंधन म नह फसूँगा। मुझे रामनाम पी
मिण िमल गई ह। उसे दय पी हाथ से कभी दूर नह होने दूँगा। भगवा ीराम क पिव व प को दय म बसाकर
िनरतर उनका मरण क गा। जब तक म इि य क वश म था, तब तक उनक हाथ क कठपुतली बनकर नाचता रहा;
परतु अब म अपने मन पी भ र को वश म करक अपने िच को भगवा राम क चरण म लगाऊगा।
एक सनेही सािचलो कवल कोसलपालु।
ेम-कनोड़ो रामसो निह दूसरो दयालु॥
तन-सा थी तब वारथी, सुर यवहार-सुजान।
आरत-अधम-अनाथ िहत को रघुबीर समान॥
नाद िनठर, समचर िसखी, सिलल सनेह न सूर।
सिस सरोग, िदनक बड़, पयद ेम-पथ कर॥
जाको मन जास बँ यो, ताको सुखदायक सोइ।
सरल सील सािहब सदा सीतापित स रस न कोइ॥
सुिन सेवा सही को कर, प रहर को दूषन देिख।
किह िदवान िदन दीन को आदर-अनुराग िबसेिख॥
खग-सबरी िपतु-मातु य माने, किप को िकए मीत।
कवट भ यो भरत य , ऐसो को क पितत-पुनीत॥
देइ अभागिह भागु को, को राखै सरन सभीत।
बेद-िबिदत िब दावली, किब-कोिबद गावत गीत॥
कसेउ पाँवर पातक , जेिह लई नाम क ओट।
गाँठी बाँ यो दाम तो, पर यो न फ र खर-खोट॥
मन-मलीन, किल िबलिबषी होत सुनत जासु कत-काज।
सो तुलसी िकयो आपुनो रघुबीर गरीब-िनवाज॥
कवल कौशल-नरश ीरामचं ही एकमा स े ेही ह। रामजी क समान ेमी कोई दूसरा नह ह। इस न र देह से
संबंध रखनेवाले सभी वाथ ह। देवगण भी यवहार म बड़ चतुर ह। िजतनी सेवा करोगे, वे उतना ही फल दगे; यिद
सेवा से हट तो सबकछ यथ कर दगे। परतु दुखी, नीच और अनाथ का भला करने वाले कवल भगवा राम ही ह।
राग अथवा संगीत क रस म फसकर िहरण मारा जाता ह; अ न सभी क साथ समान यवहार करती ह, इसिलए उसका
ेमी भ रा भी जलकर भ म हो जाता ह। जल भी ेम का स मान नह करता। मछली तो उसक िबना एक पल भी नह
रह सकती, परतु मछली क रहने अथवा न रहने का उस पर कोई असर नह होता। चं मा क रोगी होने क बाद भी
चकोर उससे अन य ेम करता ह; उसपर मु ध होकर वह अंगार चुग लेता ह, परतु चं मा को उसपर तरस नह आता।
सूय भी ेम का अथ नह जानता। कमल क कली उसे देखकर ेम से िखल उठती ह, परतु िनदयी सूय अपनी त
िकरण से उसे पल भर म सुखा देता ह। मेघ अपने ेमी चातक पर िनदयता से ओले और िबजली िगराता ह, परतु या
िकया जा सकता ह? जो िजसक साथ ेम क बंधन म बँध जाता ह, वह उसक ारा िदए जाने वाले दुख को भी सुख
समझकर वीकार कर लेता ह; परतु ीरघुनाथ जैसा दयालु, सरल, सुशील और भ -व सल वामी दूसरा कोई नह ह।
उ ह ने िग राज जटायु को िपता तथा शबरी को माता क समान माना। वानरराज सु ीव एवं जांबवंत को अपना िम
बनाया; कवट को भाई से अिधक ेम िदया। पािपय को पिव करने वाला उनक अित र कौन हो सकता ह? िजसने
भी भगवा राम क शरण ले ली, उसक सम त पाप न हो गए। िजन भगवा राम क लीला का वण करक
किलयुग म पापी भी पिव हो जाते ह, तुलसीदास ने वयं को उनका दास मान िलया ह। ीरघुनाथ ऐसे ही भ -व सल
और दीन क भगवा ह।
ऐसी आरती राम रघुबीर क करिह मन।
हरन दुखदुंद गोिबंद आनंदघन॥
अचरचर प ह र, सरबगत, सरबदा बसत, इित बासना धूप दीजै।
दीप िनजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम, ौढ़ अिभमान िचतबृि छीजै॥
भाव अितशय िवशद वर नैवे शुभ ीरमण परम संतोषकारी।
ेम-तांबूल गत शूल संशय सकल, िवपुल भव-बासना-बीजहारी॥
अशुभ-शुभकम-घृतपूण दश वितका, याग पावक, सतोगुण कासं।
भ -वैरा य-िव ान दीपावली, अिप नीराजनं जगिनवासं॥
िबमल िद-भव कत शांित-पयक शुभ, शयन िव ाम ीरामराया।
मा-क णा मुख त प रचा रका, य ह र त निह भेद-माया॥
आरती-िनरतसनकािद, ुित, शेष, िशव, देव रिष, अिखल मुिन त व-दरसी।
कर सोइ तर, प रहर कामािद मल, वदित इित अमलमित-दास तुलसी॥
आरती क मिहमा गाते ए तुलसीदास कहते ह िक ह मन! रघुंदन भगवा राम क ेमपूवक आरती कर। वे राग- ेष
का नाश करनेवाले, दुख का हरण करनेवाले तथा इि य को वश म कर आनंद दान करने वाले ह। जड़-चेतन सिहत
संपूण सृि उ ह ीह र का प ह। उनक आरती का वर सुनकर पाप पी प ी उड़ जाते ह तथा अ ान पी
अंधकार को दूर कर दय म ान का काश फलाती ह। मोह, मद, ोध, लोभ आिद िवकार तथा किलयुग पी
कमल क नाश क िलए यह जाड़ क रात क समान ह। तुलसीदास क अिभमान पी मिहषासुर क वध क िलए यह
अनेक कला क समान ह।
ऐसी कौन भु क रीित?
िबरद हतु पुनीत प रह र पाँवरिन पर ीित॥
गई मारन पूतना कच कालकट लगाइ।
मातुक गित दई तािह कपालु जादवराइ॥
काममोिहत गोिपकिन पर कपा अतुिलत क ह।
जगत-िपता िबरिच िज हक चरन क रज ली ह॥
नेमत िससुपाल िदन ित देत गिन गिन गा र।
िकयो लीन सु आपम ह र राज-सभा मँझा र॥
याध िचत दै चरन माय मूढ़मित मृग जािन।
सो सदेह वलोक पठयो गट क र िनज बािन॥
कौन ित हक कह िज हक सुकत अ अघ दोउ।
गट पातक प तुलसी सरन रा यो सोउ॥
भगवा क अित र िकसक ऐसी रीत ह िक पिव जीव को छोड़कर वह पािपय से ेम कर? रा सी पूतना तन म
िवष लगाकर ीक‘ ण को मारने गई थी, लेिकन उ ह ने उसे भी माता क समान गित दान क । आपने काम से
पीि़डत गोिपय पर कपा कर उनका उ ार िकया। जो िशशुपाल आपको ितिदन गािलयाँ देकर अपमािनत करता था,
उसे भी आपने मो दान कर िदया। मूख बहिलए ने मृग क भम म अपने बाण से आपक चरण को बेध िदया, परतु
आपक दयालुता पाकर वह भी गोलोक चला गया। िज ह ने पाप-पु य दोन ही िकए, उ ह तो िफर भी स ित पाने का
अिधकार था, परतु आपने पाप क मूित तुलसीदास को अपनी शरण म लेकर उसका उ ार कर िदया।
ऐसी तोिह न बूिझए हनुमान हठीले।
साहब क न राम से, तोसे न उसीले॥
तेर दे खत िसंह क िससु मढक लीले।
जानत ह किल तेरऊ मन गुनगन क ले॥
हाँक सुनत दसकध क भए बंधन ढीले।
सो बल गयो िकध भये अब गरब गहीले॥
सेवक को परदा फट तू समरथ सीले।
अिधक आपतुते आपुनो सुिन मान सही ले॥
साँसित तुलसीदास क सुिन सुजस तुही ले।
ित काल ितनको भलौ जे राम-रगीले॥
ह भ क क का िनवारण करने वाले हनुमान! िजस कार ीराम जैसा वामी नह ह, उसी कार तुम जैसा सेवक
भी संसार म नह ह; परतु आज तु हारी शरण म होने क बाद भी किलयुग पी मेढक मुझ े िनगल रहा ह। लगता ह िक
किलयुग ने तु हारी भ -व सलता, उदारता तथा भ क र ा क िलए हठका रता को क ल िदया ह। तु हारी िजस
कार को सुनकर रावण क अंग-अंग क जोड़ भी ढीले पड़ जाते थे, तु हारा वह बल-परा म कहाँ चला गया ह?
अथवा तुम दयालु होने क थान पर घमंडी हो गए हो? पहले तुम सेवक को वयं से अिधक मह व देते थे, उनक हर
कार से र ा करते थे; परतु अब तु ह या हो गया ह? इस तुलसीदास क संकट को दूर करक तुम सुयश ले लो।
य िक जो राम क भ ह, उनका तीन लोक म क याण ही ह।
ऐसे राम दीन िहतकारी।
अितकोमल क नािनधान िबनु कारन पर-उपकारी॥
साधन-हीन दीन िनज अघ-बस, िसला भई मुिन-नारी।
गृहत गविन परिस पद पावन घोर सापत तारी॥
िहसारत िनषाद तामस बपु, पसु समान बनचारी।
भ यो दय लगाइ ेमबस, निह कल जाित िबचारी॥
ज िप ोह िकयो सुरपित-सुत, किह न जाय अित भारी।
सकल लोक बवलोिक सोहकत, सरन गए भय टारी॥
िबहग जोिन आिमष अहार पर, गीध कौन तधारी।
जनक-समान ि या ताक िनज कर सब भाँित सँवारी॥
अधम जाित सबरी जोिषत जड़, लोक-बेद त यारी।
जािन ीित, दै दरस कपािनिध, सोउ रघुनाथ उधारी॥
किप सु ीव बंधु-भय- याकल आयो सरन पुकारी।
सिह न सक दा न दुख जनक, ह यो बािल, सिह गारी॥
रपु को अनुज िबभीषन िनिशचर, कौन भजन अिधकारी।
सरन गए आगे ै ली ह भ यो भुजा पसारी॥
असुभ होइ िज हक सुिमर ते बानर रीछ िबकारी।
बेद-िबिदत पावन िकए ते सब, मिहमा नाथ! तु हारी॥
कह लिग कहाँ दीन अगिनत िज ह क तुम िबपित िनवारी।
किलमल- िसत दास तुलसी पर, काह कपा िबसारी? ॥
दीन का उपकार करनेवाले भगवा ीराम अित कोमल, क णा क भंडार तथा िबना कारण दूसर का भला करने वाले
ह। उनक पश मा से दीन-हीन िशला पी अह या पाप-रिहत होकर पुन: चेतन हो गई। जो िनषाद तामसी शरीर धारण
कर वन-वन भटकता था, उसे जाित और वंश का िवचार िकए िबना ही दय से लगा िलया। अिभमानी इ -पु जयंत ने
काक प म सीताजी क चरण म च च मार दी। िफर भयभीत होकर वह तीन लोक म िछपता िफरा। अंतत: आपक
शरण म आकर उसे अभय िमल गया। िग -योिन म ज म लेनेवाले जटायु को आपने िपता-तु य समझा और अपने
हाथ से उसक अं येि कर मु दान क । शबरी को माता-तु य स मान देकर उसका उ ार कर िदया। भाई ारा
पीि़डत सु ीव जब आपक शरण म आया तो आपने बािल का वध कर उसक दुख का अंत कर िदया। इसी कार
िवभीषण को शरण म लेकर उसे वणमयी लंका दान म दे दी। ह नाथ! आपने पािपय और अधिमय को भी पिव बना
िदया। ऐसे असं य दीन ह, आपने िजनक सभी िवपि याँ दूर कर द । लेिकन ह ीराम! आप इस तुलसीदास पर कपा
करना कसे भूल गए, जो किलयुग क पाप से जकड़ा आ ह।
कब कपा क र रघुबीर! मो िचतैहो।
भलो-बुरो जन आपनो, िजय जािन दयािनिध! अवगुन अिमत िबतैहो॥
जनम-जनम ह मन िज यो, अब मोिह िजतैहो।
ह सनाथ ैहौ सही, तुम अनाथपित, जो लघुतिह न िभतैहो॥
िबनय कर अपभय त, तु ह परम िहतै हो।
तुलिसदास कास कह, तुम ही सब मेर, भु-गु , मातु-िपतै हो॥
तुलसीदास िवनती करते ए कहते ह िक ह रघुवीर! मुझ दीन पर कब कपा करोगे? ह दयािनधान! म भला-बुरा जैसा भी
, परतु आपका दास , इस बात को समझकर मेर अवगुण का नाश करो। येक ज म म मेरा मन मुझ े जीतता आ
रहा था—अथा म येक ज म म िवषय-वासना म डबा रहा। इस बार कपा करक मुझे इससे िजता दो। मेरी नीचता
पर यान न देकर यिद मुझे अपना लगे तो मेरा जीवन साथक हो जाएगा। म वयं क डर क कारण आपसे िवनती कर
रहा । कवल आप ही मेर परम िहतैषी ह। यह तुलसीदास अपना दुख िकससे दूर करने को कह; य िक मेर माता-
िपता, वामी, गु —सबकछ आप ही ह।
किल नाम कामत राम को।
दलिनहार दा रद दुकाल दुख, दोष घोर घन घाम को॥
नाम लेत दािहनो होत मन, बाम िबधाता बाम को।
कहत मुनीस महस महातम, उलट सूधे नाम को॥
भलो लोक-परलोक तासु जाक बल लिलत-ललाम को।
तुलसी जग जािनयत नामते सोच न कच मुकाम को॥
किलयुग म कवल राम-नाम ही क पवृ ह, जो द र ता, दुिभ , दुख, दोष, अ ान तथा िवषय-वासना का नाश
करने वाला ह। राम-नाम का जाप करते ही िवधाता का ितकल मन भी अनुकल हो जाता ह—अथा वे ािणय क
सभी पाप मा कर उ ह सुख दान कर देते ह। मुिन वा मीिक ने उलट नाम अथा ‘मरा-मरा’ का जाप िकया और
याध से िष हो गए। जबिक राम-नाम क मिहमा गाते ए भगवा िशव हलाहल िवष पीकर भगव व प माने गए,
िजसक पास राम-नाम का बल ह, उसक लोक-परलोक सुखमय हो जाते ह। ह तुलसी! राम-नाम का बल होने पर न तो
मनु य मोह-माया क बंधन म जकड़ता ह और न ही उसक दय म िवकार का भाव रहता ह। अथा वह जीवन-मृ यु
क आवागमन से मु होकर पर श म लीन हो जाता ह।
कहाँ जाउ, कास कह , और ठौर न मेर।
जनम गँवायो तेर ही ार िककर तेर॥
म तो िबगारी नाथ स आरित क ली ह।
तोिह कपािनिध य बनै मेरी-सी क ह॥
िदन-दुरिदन िदन-दुरदसा, िदन-दुख िदन-दूषन।
जब ल तू न िबलोिकह रघुबंस-िबभूषन॥
दई पीठ िबनु डीठ म तुम िब व-िबलोचन।
तो स तुही न दूसरो नत-सोच िबमोचन॥
पराधीन देव दीन ह , वाधीन गुसाई।
बोलिनहार स कर बिल िबनय क झाई॥
आपु देिख मोिह देिखए जन मािनय साँचो।
बड़ी ओट रामनाम क जोिह लई सो बाँचो॥
रहिन रीित राम रावरी िनत िहय लसी ह।
य भावै य क कपा तेरो तुलसी ह॥
कहाँ जाऊ? िकससे क ? आपक अित र मेरा कोई और िठकाना नह ह। इस सेवक ने आपक ार पर ही सारी
िजंदगी काट दी ह। ह नाथ! दुख से भयभीत होने क कारण मने अपनी करनी िबगाड़ दी ह। परतु यिद तुम मेरी करनी
देखकर फल दोगे तो मेरा उ ार कसे होगा? ह रघुकल े ! जबतक तुम मुझपर कपा ि नह करोगे, तब तक
ितिदन बुर िदन, ितिदन बुरी दशा, ितिदन ही दुख और ितिदन ही दोष लगे रहगे। मने तेरी ओर से पीठ कर ली ह—
अथा तुझसे िवमुख हो रहा तो म अ ानी । ह नाथ! तु हार अित र दुख का हरण करनेवाला दूसरा कोई नह ह।
अत: तुम मेरी ओर देखो,मुझपर कपा करो। तु हार शील- वभाव को सोचकर मन-ही-मन म ब त स हो रहा । ह
ीराम! यह तुलसी आपका ह; जैसे भी हो उस पर कपा करो।
कहाँ जाउ, कास कह , कौन सुनै दीन क ।
ि भुवन तुही गित सब अंगहीन क ॥
जग जगदीस घर घरिन घनेर ह।
िनराधार क अधार गुनगन तेर ह॥
गजराज-काज खगराज तिज धायो को।
मोसे दोस-कोस पोसे तोसे माय जायो को॥
मोसे कर कायर कपूत कौड़ी आधक।
िक ए ब मोल त करया गीध- ाधक॥
तुलसी क तेर ही बनाए, बिल बनैगी।
भु क िबलंब-अंब दोष-दुख जनैगी॥
कहाँ जाऊ? िकससे क ? कौन इस दीन क सुनेगा? ह नाथ! मुझ जैसे साधनहीन क गित करनेवाला तीन लोक म
आपक अित र कोई नह ह। वैसे तो संसार म वयं को भगवा कहनेवाले अनेक ह, लेिकन कवल आपक गुण का
गान करक ही ाणी संसार पी भवसागर को पार करता ह। गज ारा पुकार जाने पर उसक सहायता क िलए आप ही
दौड़ आए थे। मुझ जैसे पाप क भंडार का पालन-पोषण करनेवाले भी आप ही ह। ह जटायु का ा करने वाले!
आपने उसका भी उ ार कर िदया। ह भु! तुलसी क िबगड़ी ई बात आप ही बनाएँग।े यिद आपने मेरा उ ार करने
म देर क तो वह देर पी माता दुख और दोष से यु संतान ही जनेगी। अथा यिद आप मेरा शी उ ार नह करगे
तो म पाप और दुख से पुन: िघर जाऊगा।
काह को िफरत मन, करत ब जतन,
िमट न दुख िबमुख रघुकल-बीर।
क जै जो कोिट उपाइ, ि िबध ताप न जाइ,
क ो जो भुज उठाय मुिनबर क र॥
सहज टव िबसा र तुही ध देख ु िबचा र,
िमलै न मथत बा र घृत िबनु छीर।
समुिझ तजिह म, भजिह पद-जुगम,
सेवत सुगम, गुन गहन गँभीर॥
आगम िनगम ंथ, रिष-मुिन, सुर-संत,
सब ही को एक मत सुन,ु मितधीर।
तुलिसदास भु िबनु िपयास मर पसु,
ज िप ह िनकट सुरस र-तीर॥
ह मन! तू िकसिलए इतने य न कर रहा ह? जब तक तू भगवा राम से िवमुख ह तब तक तू चाह िकतने भी य न कर
ले, तेर दुख कदािप न नह ह गे। भगवा से िवमुख रहनेवाला चाह िकतने भी य न कर, उसक दैिहक, दैिवक और
भौितक ताप न नह हो सकते। जो ाणी स े दय से भगवा राम क चरण-कमल का भजन-मनन-िचंतन करता ह,
उसे िववेक, वैरा य, शांित, सुख आिद अनायास ही ा हो जाते ह। इसिलए ह मन! तू सबकछ यागकर भगवा राम
का शरणागत हो जा। इसी म तेरा परम क याण ह। ह तुलसीदास! िजस कार गंगा क तट पर वामी क न होने से पशु
यास से मर जाता ह, उसी कार भगवा क ा सहज ह; परतु िवषय-वासना म डबे ाणी क िलए वह दुलभ हो
जाती ह।
काह को िफरत मूढ़ मन धायो।
तिज ह र-चरन-सरोज सुधारस, रिबकर-जल लय लायो॥
ि जग देव नर असुर अपर जग जोिन सकल िम आयो
गृह, बिनता, सुत, बंध ु भये ब , मातु-िपता िज ह जायो॥
जाते िनरय-िनकाय िनरतर, सोइ इ ह तोिह िसखायो।
तुव िहत होइ, कट भव-बंधन, सो मगु तोिह न बतायो॥
अज िबषय कह जतन करत, ज िप ब िबिध डहकायो।
पावक-काम भोग-घृत त सठ, कसे परत बुझायो॥
िबषयहीन दुख, िमले िबपित अित, सुख सपने निह पायो।
उभय कार ेत-पावक य धन दुख द ुित गायो॥
िछन-िछन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो।
तुलिसदास ह र भजिह आस तिज, काल-उरग जग खायो॥
ह मूख मन! ीह र क चरण-कमल का रस छोड़कर िवषय पी मृगतृ णा क जल से य ेम लगा रहा ह? पशु, प ी,
दै य, मनु य—सभी योिनय म भटकने क बाद भी िवषय-भोग क ित तु हारी आस कम नह ई ह। तू बार-बार
इ ह क ा क िलए य न कर रहा ह, जबिक माया क सभी बंधन जीवन-मृ यु क च म उलझाने वाले ह। िवषय
पी िजस धन को वेद ने दुख का कारण कहा ह, ह मनु य! तू उसी को ा करने क िलए अपना जीवन न कर रहा
ह। ह तुलसीदास! काल पी नाग पल- ितपल इस देह को खा रहा ह। इसिलए तुम सांसा रक सुख को यागकर
भगवा का यान करो।
काह न रसना, रामिह गाविह?
िनिसिदन पर-अपवाद बृथा कत रिट-रिट राग बढ़ाविह॥
नरमुख सुंदर मंिदर पावन बिस जिन तािह लजाविह।
सिस समीप रिह यािग सुधा कत रिबकर-जल कह धाविह॥
काम-कथा किल-करव-चंिदिन, सुनत वन दै भाविह।
ितनिह हटिक किह ह र-कल-क रित, करन कलंक नसाविह॥
जात प मित, जुगुित िचर मिन रिच-रिच हार बनाविह।
सरन-सुखद रिबकल-सरोज-रिब राम-नृपिह पिहराविह॥
बाद-िबबाद, वाद तिज भिज ह र, सरस च रत िचत लाविह।
तुलिसदास भव तरिह, ित पुर तू पुनीत जस पाविह॥
अरी जीभ! िदन-रात परिनंदा म डबकर तू य यथ म आस बढ़ा रही ह? इन सबको यागकर तू ीराम का गुणगान
य नह करती? मनु य क मुख पी मंिदर म िनवास करते ए य उसे ल त कर रही ह? चं मा क पास रहते ए
भी अमृत को छोड़कर य मृगतृ णा क पीछ दौड़ रही ह? अरी जीभ! िवषय-चचा को छोड़कर भगवा ीह र क गुण
का गान कर, िजससे िवषयी बात को सुनकर कलंिकत ए कान का कलंक दूर हो। िवशु बु और उ म यु य
ारा भगवा राम क नाम का क तन कर। वाद, िववाद तथा वाद का याग करक उनक लौ म लगन लगा। यिद तू
ऐसा करगी तो तुलसीदास संसार पी भवसागर से पार हो जाएगा और तू भी तीन लोक म क ित ा करगी।
कपािसंधु! जन दीन दुवार दािद न पावत काह।
जब जह तुमिह पुकारत आरत, तह ित हक दुख दाह॥
गज, हलाद, पांडसुत, किप सबको रपु-संकट मे यो।
नत, बंधु-भय-िबकल, िबभीषन, उिठ सो भरत य भ यो।
म तु हारो लेइ नाम ाम इक उर आपने बसाव ।
भजन, िबबेक, िबराग, लोग भले, म म- म क र याव ॥
सुिन रस भले किटल कामािदक, करिह जोर ब रआई।
ित हिह उजा र ना र-अ र-धन पुर राखिह राम गुसाई॥
सम-सेवा-छल-दान-दंड ह , रिच उपाय पिच हाय ।
िबनु कारनको कलह बड़ो दुख, भुस गिट पुकाय ॥
सुर वारथी, अनीस, अलायक, िनठर, दया िचत नाह ।
जाउ कहाँ, को िबपित-िनवारक, भवतारक जग माह ॥
तुलसी जदिप पोच, तउ तु हरो, और न का करो।
दीजै भगित-बाँह बारक, य सुबस बसै अब खेरो॥
ह कपासागर! तु हार ार पर प चकर भी इस दीन को सहायता य नह िमलती? जबिक दुिखय ने तु ह जब भी और
जहाँ भी पुकारा, तुमने उसी ण वहाँ प चकर उनक दुख का नाश िकया। गजराज, ाद, पांडव, सु ीव आिद सभी
क श ु का संहार करक तुमने उनक दुख को दूर कर िदया। ह भु! भजन, िववेक और वैरा य ारा म अपने दय
म आपको बसाना चाहता । परतु काम, ोध, मद, लोभ, मोह आिद िवकार बलपूवक मुझे िवषय-वासना क ओर
धकलते ह। साम, दाम, दंड, भेद—हर तरह क उपाय करक म थक गया , परतु इनसे पार पाना मेर िलए अ यंत
किठन ह। इसिलए म आपसे िनवेदन कर रहा । मेर दुख को सुननेवाला तु हार अित र और कौन ह? मेरी िवपि
का हरण कवल आप ही कर सकते ह। य िप तुलसी नीच और पापी ह, परतु िफर भी आपका दास ह। आप मुझे
भ पी अ दान करो, िजससे मेर दय क िवकार का नाश हो जाए तथा वहाँ ान एवं वैरा य का सार हो।
कौन जतन िबनती क रये।
िनज आचरन िबचा र हा र िहय मािन जािन ड रये॥
जेिह साधन ह र! व जािन जन सो हिठ प रह रये।
जाते िबपित-जाल िनिसिदन दुख, तेिह पथ अनुस रये॥
जानत मन बचन करम पर-िहत क ह त रये।
सो िबपरीत देिख पर-सुख, िबनु कारन ही ज रये॥
ुित पुरान सबको मत यह सतसंग सु ढ़ ध रये।
िनज अिभमान मोह इ रषा बस ितनिह न आद रये॥
संतत सोइ ि य मोिह सदा जात भविनिध प रये।
कहौ अब नाथ, कौन बल त संसार-सोग ह रये॥
जब कब िनज क ना-सुभाव त, व तौ िन त रये।
तुलिसदास िब वास आन निह, कत पिच-पिच म रये॥
ह नाथ! िकस कार म आपसे िवनती क ? जब अपने आचरण को सोचता और समझता , तब दय म हार मानकर
डर जाता । ह ह र! िजस साधन ारा आप मनु य पर कपा करते ह, उसका म हठपूवक याग कर रहा । म उस
कमाग पर चल पड़ा , जहाँ िवपि क जाल म फसकर िदन-रात दुख ही िमलता ह। मन, वचन और कम से दूसर क
भलाई करने से म संसार पी भवसागर से तर जाऊगा—यह जानते ए भी म िवपरीत आचरण करता । वेद-पुराण क
अनुसार ढ़तापूवक स संग का आ य लेना चािहए। परतु म अिभमान, अ ान और ई या क वशीभूत होकर स संग का
अपमान करता । ह नाथ! आप ही बताएँ, अब म िकस कार अपने दुख दूर करने क ाथना क ? जब आप दयालु
वभाव क कारण मुझ पर दया करगे, तभी मेरा उ ार संभव होगा। तुलसीदास को आपक अित र िकसी पर िव ास
नह ह; िफर वह िकसिलए अ य साधन म उलझकर मर?
कौशलाधीश, जगदीश, जगदेकिहत, अिमत गुण, िवपुल िव तार लीला।
गायंित तव च रत सुपिव ुित-शेष-शुक-शंभु-सनकािद मुिन मननशीला॥
वा रचर-वपुष ध र भ -िन तार पर, धरिणकत नाव मिहमाितगुव ।
सकल य ांशमय उ िव ह ोड, मिद दनुजेश उ रण उव ॥
कमठ अित िवकट तनु किठन पृ ोपरी, मत मंदर कड-सुख मुरारी।
कटकत अमृत, गो, इिदरा, इदु, वृंदारकावृंद-आनंदकारी॥
मनुज-मुिन-िस -सुर-नाग- ासक, दु दनुज ज-धम मरजाद-ह ा।
अतुल मृगराज-वपुध रत, िव रत अ र, भ हलाद-अहलाद-क ा॥
छलन बिल कपट-वट प वामन , भुवन पयत पद तीन करणं।
चरण-नख-नीर- ैलोक-पावन परम, िवबुध-जननी-दुसह-शोक-हरणं॥
ि याधीश-क रिनकर-नव-कसरी, परशुधर िव -सस-जलद पं।
बीस भुजदंड दससीस खंडन चंड वेब सायक नौिम राम भूप॥ं
भूिमभर-भार-हर, कट परमातमा, नर पधर भ हतू।
वृ ण-कल-कमुद-राकश राधारमण, कस-बंसाटवी-धूमकतू॥
बल पाखंड मिह-मंडलाकल देिख, िनं कत अिखल मख कम-जालं।
शु बोधैकघन, ान-गुणधाम, अज बौ -अवतार वंदे कपालं॥
कालकिलजिनत-मल-मिलनमन सवनर मोह-िनिश-िनिबड़यवनांधकार।
िव णुयश पु कलक िदवाकर उिदत दासतुलसी हरण िवपितभार॥
ह कौशलपित! ह जगदी र! संसार क कवल आप ही िहतकारी ह। आपने अपने गुण क लीला फलाई ह। चार वेद,
शेषजी, शुकदेव, िशव और सनकािद आिद मुिनजन भी आपक पिव च र का गान करते ह। आप सम त य क
अंश से पूण ह। आपने भयंकर दै य िहर या का वध कर पृ वी का उ ार िकया, समु -मंथन क समय िवशालकाय
कछए का प धारण कर मंदराचल को अपनी पीठ पर थर िकया। आपक कपा क कारण ही समु -मंथन क उपरांत
देवता को अमृत ा आ। ा ण क परम श ु िहर यकिशपु का वध करक आपने भ ाद क र ा क ।
वामन प धारण करक आपने दै यराज बिल से तीन पग भूिम दान म माँगी। तदनंतर तीन पग म संपूण ांड को
नापकर बिल को पाताल भेज िदया। सह बा जैसे परम श शाली और अिभमानी राजा क संहार क िलए आप
परशुराम क प म अवत रत ए। रामावतार म दस िसर और बीस भुजा वाले रावण का वध करक पृ वी को अभय
दान िकया। ह नाथ! आपने ही ीक ण क प म अवत रत होकर कसािद पािपय क अ याचार से भ क र ा
क । ऐसे ही सवगुण-संप , अज मे, कपालु भगवा क म वंदना करता । किलयुग म मोह पी अंधकार क नाश क
िलए सूय दय क भाँित िव णुयश नामक ा ण क घर आप पु - प म ज म लेकर क क अवतार धारण करगे। ह
नाथ! आप इस तुलसीदास क िवपि य का हरण कर।
जमुना य - य लागी बाढ़न।
य - य सुकत-सुभट किल भूपिह, िनद र लगे ब काढ़न॥
य - य जल मलीन य - य जमगन मुख मलीन लह आढ़न।
तुलिसदास जगदघ जवास य अनघ मेघ लगे डाढ़न॥
जैसे-जैसे यमुनाजी बढ़ने लग वैस-े वैसे पु य पी यो ागण किलयुग पी राजा का िनरादर करते ए उसे िनकालने
लगे। बरसात म जैसे-जैसे यमुनाजी का जल काला पड़ने लगा, वैस-े वैसे यमदूत का मुख भी काला होता गया। अंत म
वे सोच म पड़ गए िक िकसे यमलोक लेकर जाएँ? तुलसीदास कहते ह िक पु य पी मेघ ने संसार क पाप पी
जवासे को जलाकर भ म कर िदया ह।
जयित जय सुरसरी जगदिखल-पावनी।
िव णु-पदकज-मकरद इव अंबुवर वहिस, दुख दहिस, अघवृंद-िव ािवनी॥
िमिलत जलपा -अज यु -ह रचरण रजिवरज-वर-वा र ि पुरा र िशर-धािमनी।
ज ु-क या ध य, पु यकत सगर-सुत, भूधर ोिण-िव रिण, ब नािमनी॥
य , गंधव, मुिन िक रोरग, दनुज, मनुज म ािह सुकत-पुंज युत-कािमनी।
वग-सोपान, िव ान- ान दे, मोह-मद-मदन-पाथोज-िहमयािमनी॥
ह रत गंभीर वानीर दु तीरवर, म य धारा िवशद, िव अिभरािमनी।
नील-पयक-कत-शयन सपश जनु, सहस सीसावली ोत सुर- वािमनी॥
अिमत-मिहमा, अिमत प, भूपावली-मुकट-मिनवं ैलोक पथगािमनी।
देिह रघुबीर-पद- ीत िनभर मातु, दास तुलसी ास हरिण भवभािमनी॥
गंगाजी! तु हारी जय हो। तुम अपने जल से संपूण जग को पिव करनेवाली हो। ीिव णु क चरण-कमल से मकरद
रस क समान सुंदर जल धारण करनेवाली हो। तुम ही ािणय क दुख एवं पाप का नाश करनेवाली हो। ाजी क
कमंडलु म भी तु हारा जल भरा रहता ह। भगवा िशव ने तु ह अपने म तक पर धारण िकया ह। तुमने ही इ वाक वंश
क राजा सगर क साठ हजार पु का उ ार िकया। तु हार अनेक नाम ह। देवता, मनु य, य , मुिन, गंधव, नाग, दै य
—जो भी तु हार जल म ान करते ह, वे पाप से मु होकर पु य क भागी हो जाते ह। ह देवता क वािमनी!
तु हार अनेक झरने शेषनाग क फन क भाँित सुशोिभत ह। तु हारी मिहमा अपरपार ह। ह तीन मागऱ्◌ से जानेवाली! ह
िशवि ये! मुझ तुलसीदास को ीरघुनाथ क चरण म अन य ेम दो।
श ु न- तुित
जयित जय श -ु क र-कसरी श ुहन,
श ुतम-तुिननहर िकरणकतू।
देव-मिहदेव-मिह-धेन-ु सेवक सुजन-
िस -मुिन-सकल-क याण-हतू॥
जयित सवागसुंदर सुिम ा-सुवन,
भुवन-िव यात-भरतानुगामी।
वमचमािस-धनु-बाण-तूणीर-धर
श ु-संकट-समय य णामी॥
जयित लवणा बुिनिध-कभसंभव महा-
दनुज-दुजनदवन, दु रतहारी।
ल मणानुज, भरत-राम-सीता-चरण-
रणु-भूिषत-भाल-ितलकधारी॥
जयित- ुितक ित-व भ सुदुलभ सुलभ
नमत नमद भु मु दाता।
दास तुलसी चरण-शरण सीदत िवभो,
पािह दीना -संताप-हाता॥
श ु पी हािथय क नाश करनेवाले िसंह पी श ु न क जय हो। जो श ु पी अंधकार को हरने क िलए सा ा सूय-
समान ह; जो देवता, ा ण, पृ वी और गो क सेवक तथा ऋिष-मुिनय का क याण करनेवाले ह; िजनक सभी अंग
अ यंत सुंदर ह; जो माता सुिम ा क पु और भरतजी क आ ा क अनुसार काय करनेवाले ह; जो कवच, ढाल,
तलवार, धनुष, बाण और तरकस धारण िकए ए ह और जो श ु ारा िदए गए संकट का नाश करनेवाले ह, उन
परम वीर श ु न को म कोिट-कोिट णाम करता । वे ल मण क छोट भाई ह तथा ीराम, सीता एवं भरत क
चरणधूिल म तक पर धारण करते ह। ये ुतक ित क पित ह तथा दु को दुलभ एवं सेवक को सुलभ ह। ह भु!
तु हार चरण म आकर भी तुलसीदास क भोग रहा ह। ह दीन क संताप हरनेवाले! मेरी भी र ा करो।
जाउ कहाँ ठौर ह कहाँ देव! दुिखत-दीन को?
को कपालु वामी-सा रखो, राखै सरनागत सब अँग बल-िबहीन को॥
गिनिह, गुिनिह सािहब लह, सेवा समीचीन को।
अधम/अधन अगुन आलिसन को पािलबो फिब आयो रघुनायक नवीन को॥
मुखक कहा कह , िबिदत ह जीक भु बीन को।
ित काल, ित लोक म एक टक रावरी तलसी से मन मलीन को।
ित काल, ित लोक म एक टक रावरी तुलसी से मन मलीन को। ॥
ह देव! तु हारी शरण छोड़कर म कहाँ जाऊ? तु हार िबना मुझ दुखी-दीन का कहाँ िठकाना ह? आपक समान कपालु
वामी और कौन ह, जो सब कार क साधन म बल-िवहीन शरणागत को आ य दे? जो दूसर वामी ह, वे कवल
धनी, गुणी और भली-भाँित सेवा करनेवाले सेवक को ही वीकार करते ह; परतु मुझ जैसे नीच, िनधन और अवगुण से
यु मनु य क कवल आप ही ह। ह भु! आप सबकछ जानते ह। तुलसी जैसे मिलन मनवाले क िलए तीन लोक
और तीन काल म कवल आप ही एकमा सहारा ह।
जाउ कहाँ तिज चरन तु हार।
काको नाम पितत-पावन जग, किह अित दीन िपयार॥
कौने देव बराइ िबरद-िहत, हिठ-हिठ अधम उधार।
खग, मृग, याध, पषान, िबटप जड़, जवन कवन सुर तार॥
देव, दनुज, मुिन, नाग, मनुज सब, माया-िबबस िबचार।
ितनक हाथ दास तुलसी भु, कहा अपनपौ हार॥
ह नाथ! आपक चरण को यागकर म कहाँ जाऊ? संसार म आप ही ‘पितत-पावन’ नाम से िस ह। आपक समान
दीन-दुिखयार भला िकसे यार ह? आज तक िकस देवता ने हठपूवक चुन-चुनकर पािपय का उ ार िकया ह? प ी
(जटायु), पशु (वानर-रीछ), याध (वा मीिक), प थर (अह या), जड़ वृ (यमलाजुन) और यवन का उ ार
करनेवाला आपक अित र कौन ह? देवता, दै य, मुिन, नाग, मनु य आिद सभी आपक माया क अधीन ह। इसिलए ह
भु! तुलसी वयं को उनक हाथ म स पकर या कर?
जागु, जागु जीव जड़! जोह जग-जािमनी।
देह-गेह-नेह जािन जैसे घन-दािमनी॥
सोवत सपने सह संसृित-संताप र।
बूडयो मृग-बा र खायो जेवरी को साँप र॥
कह बेद-बुध, तू तो बूिझ मनमािह र।
दोष-दुख सपने क जागे ही पै जािह र॥
तुलसी जागेत े जाय ताप ित ताय र।
राम-नाम सुिच िच सहज सुभाय र॥
ह मूख जीव! जाग और इस संसार पी राि को देख। शरीर और घर क ित ेम को उसी कार णभंगुर समझ, िजस
कार बादल म िबजली चमककर िछप जाती ह। तू सोते समय सपने म भी संसार क क भोग रहा ह। वेद-पुराण
बारबार कह रह ह िक व न क सभी दुख और दोष जागने पर न हो जाते ह, तू यह बात भली-भाँित समझ ले। ह
तुलसी! अ ान पी िन ा से जागने क बाद संसार क तीन ताप न हो जाते ह। तदनंतर राम-नाम ारा वाभािवक
ीित उ प होती ह।
जानक नाथ, रघुनाथ, रागािद-तम-तरिण, ता यतनु तेजधामं।
सि दानंद, आनंदकदाकर, िव -िव ाम, रामािभरामं॥
नीलनव-वा रधर-सुभग-शुभकांित, किट पीत कौशेय वर वसनधारी।
र न-हाटक-जिटत-मुकट-मंिडत-मौिल, भानु-शत-स श उ ोतकारी॥
वण कडल, भाल ितलक, ू िचर अित, अ ण अंभोज लोचन िवशालं।
व -अवलोक, ैलोक-शोकाप , मार- रपु- दय-मानस-मरालं॥
नािसका चा सुकपोल, ज व दुित, अधर िबंबोपमा, मधुरहासं।
कठ दर, िचबुक वर, वचन गंभीरतर, स य-संक प, सुर ास-नासं॥
सुमन सुिविच नव तुलिसकादल-युत ं मृदुल वनमाल उर ाजमानं।
मत आमोदवश म मधुकर-िनकर, मधुरतर मुखर कव त गानं॥
सुभग ीव स, कयूर, ककण, हार, िकिकणी-रटिन किट-तट रसालं।
वाम िदिस जनकजासीन-िसंहासनं कनक-मृदुव वत त तमालं॥
आजानु भुजदंड कोदंड-मंिडत वाम बा , दि ण पािण बाणमेक।
अिखल मुिन-िनकर, सुर, िस , गंधव वर नमत नर नाग अविनप अनेक।।
अनघ, अिविछ , सव , सवश, खलु सवतोभ -दाताऽसमाक।
णतजन-खेद-िव छद-िव ा-िनपुण नौिम ीराम सौिमि सांक॥
युगल पदप सुखस प ालयं, िच किलशािद शोभाित भारी।
हनुमंत- िद िवमल कत परममंिदर, सदा दास तुलसी-शरण शोकहारी॥
जानक नाथ ीरघुनाथ राग- ेष पी अंधकार का नाश करने क िलए सूय प, त ण शरीरवाले, तेज-धाम,
सि दानंद, आनंद क भंडार, संसार को शांित देने वाले तथा परम सुंदर ह। िजनक नवीन नील सजल मेघ क समान
सुंदर और शुभ कांित ह, जो किट-तट म सुंदर रशमी पीतांबर धारण िकए ह, िजनक म तक पर सैकड़ सूय क समान
आलोिकत र नजि़डत वण-मुकट सुशोिभत ह; जो कान म कडल पहने, म तक पर ितलक लगाए, अ यंत सुंदर भृकिट
तथा लाल कमल क समान बड़-बड़ ने वाले ह; िजनक नािसका बड़ी सुंदर, कपोल मनोहर तथा दाँत हीर जैसे
चमकदार ह; िजनक दय पर सुंदर ीव स का िच ह; बाजु म बाजूंद, हाथ म ककण और गले म मनोहर हार
सुशोिभत हो रहा ह; िजनक वाम भाग म ीजानक जी िवराजमान ह; िजनक बाएँ हाथ म धनुष-बाण सुशोिभत ह; संपूण
मुिनमंडल, देवता, िस , मनु य, नाग और े गंधव भी िज ह णाम करते ह; जो पापरिहत, अखंड, सव , सबक
वामी और जग का क याण करनेवाले ह, उन भगवा ीराम को म बार-बार णाम करता । ील मी िजनक
चरण क सेवा करती ह, हनुमानजी ने िजनक चरण को अपने मन-मंिदर म बसा रखा ह, तुलसी उ ह भगवा राम क
चरण क शरण म ह।
जाँिचये िग रजापित कासी। जासु भवन अिनमािदक दासी॥
औढर-दािन वत पुिन थोर। सकत न देिख दीन कर जोर॥
सुख-संपित, मित-सुगित सुहाई। सकल सुलभ संकर-सेवकाई॥
गये सरन आरितक ली ह। िनरिख िनहाल िनिमषमह क ह॥
तुलिसदास जाचक जस गावै। िबमल भगित रघुपित क पावै॥
पावतीजी और िशवजी से ाथना करनी चािहए, िजनका घर काशी ह; अिणमा, ग रमा, मिहमा, लिघमा, ा , ाका य,
ईिश व और विश व नामक आठ िस याँ िजनक दासी ह। िशवजी अ यंत भोले और भ -व सल ह। वे थोड़ी-सी
सेवा से ही िपघल जाते ह। वे दीन ारा हाथ जोड़ते ही उनक सभी मनोकामनाएँ पूण कर देते ह। उनक सेवा से सुख,
संपि , सुबु और मो —सभी पदाथ सहज ही सुलभ हो जाते ह। जो जीव उनक शरण म गए, िशवजी ने उ ह
अपनाकर उनक सम त मनोकामनाएँ पूण कर द । िभ ुक तुलसीदास भी उनका यश गाता ह, िजससे उसे भी राम-भ
क िनमल भीख िमले।
जो पै चेराई राम क करतो न लजातो।
तौ तू दाम कदाम य कर-कर न िबकातो॥
जपत जीह रघुनाथ को नाम निह अलसातो।
बाजीगर क सूम य खल खेह न खातो॥
जौ तू मन! मेर कह राम-नाम कमातो।
सीतापित सनमुख सुखी सब ठाँव समातो॥
राम सोहाते तोिह जौ तू सबिह सोहातो।
काल करम कल कारनी कोऊ न कोहातो॥
राम-नाम अनुरागही िजय जो रितआतो।
वारथ-परमारथ-पथी तोिह सब पितआतो॥
सेइ साधु सुिन समुिझ क पर-पीर िपरातो।
जनम कोिट को काँदलो हद- दय िथरातो॥
भव-मग अगम अनंत ह, िबनु मिह िसरातो।
मिहमा उलट नाम क मुिन िकयो िकरातो॥
अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो।
होतो मंगल-मूल तू, अनुकल िबधातो॥
जो मन, ीित- तीित स राम-नामिह रातो।
तुलसी राम साद स ित ताप न तातो/नसातो॥
ह मन! अगर तू ीराम क गुलामी करने म ल त होता ह तो खरा दाम होकर भी तू खोट दाम क भाँित इस हाथ से
उस हाथ न िबकता, अथा परमा मा का अंश होने पर भी उससे िवमुख होकर जीव-योिन म भटक रहा ह। यिद भगवा
क नाम का जाप करने म आल य न करता तो आज इस कार उसे भटकना न पड़ता। ह मन! यिद तू जानक नाथ क
शरण म चला जाता तो सव तेरा आदर-स मान होता; काल, कम और कल भी तेर अनुकल हो जाते। यिद तू संत क
सेवा करता तथा दूसर क दुख को देखकर दुखी होता तो तेर दय म जमी ई पाप पी मैल न हो जाती, तेरा
अंतःकरण िनमल हो जाता। ीराम का नाम न लेन े वाले क िलए यह संसार अग य और अनंत ह, परतु राम-नाम का
आ य लेकर तू सहजता से भवसागर पार कर जाता ह। ीराम क उलट नाम क बड़ी मिहमा ह। वा मीिक ‘मरा-मरा’
का उ ारण करते ए ही याध से िष बन गए। ह मूख! देवता क िलए भी दुलभ मनु य-शरीर इस कार तेर
ारा यथ न जाता। ह तुलसी! यिद मन म भगवा राम क लौ होती तो संसार क दुख इस कार न सताते।
जो मन लागै रामचरन अस।
देह-गेह-सुत-िबत-कल मह मगन होत िबनु जतन िकये जस॥
ं रिहत, गतमान, यानरत, िवषय-िबरत खटाइ नाना कस*।
सुखिनधान सुजान कोसलपित ै स , क , य न ह िह बस॥
सवभूत-िहत, िन यलीक िचत, भगित- ेम ढ़ नेम, एकरस।
तुलिसदास यह होइ तबिह जब वै ईस, जेिह हतो सीसदस॥
ह मन! िजस कार तू वभाववश शरीर, घर, पु और धन म म न हो जाता ह, उसी कार भगवा ीराम क चरण म
रम जा। इससे सुख-दुख क ं एवं अिभमान से रिहत होकर िवषय-वासना से उसी कार िवर हो जाएगा।
इससे भगवा राम स होकर उसक अधीन हो जाएँगे। सभी ािणय क िहत म संल न, िनिवकार िच वाला, भ -
ेम और भगवदीय िनयम म ढ़ होता ह। परतु ह तुलसीदास! यह दशा तभी ा होगी, जब रावण को मारनेवाले
वामी ीराम स होकर कपा कर।
य - य िनकट भयो चह कपालु! य - य दू र पय ह ।
तुम च जुग रस एक राम! ह रावरो, जदिप अघ अवगुनिन भय ह ॥
बीच पाइ एिह नीच बीच ही छरिन छय ह ।
ह सुबरन कबरन िकयो, नृपत िभखा र क र, सुमितत कमित कय ह ॥
अगिनत िग र-कानन िफरयो, िबनु आिग जय ह ।
िच कट गये ह लिख किल क कचािल सब, अब अपडरिन डय ह ॥
माथ नाइ नाथ स कह , हाथ जो र खय ह ।
ची ह चोर िजय मा रह तुलसी सो कथा सुिन भु स गुद र िनबय ह ॥
ह कपािनधान! जैसे-जैसे म आपक िनकट आना चाहता वैस-े वैसे दूर होता जाता । ह ीराम! आप चार युग म
एकरस ह और म भी आपका सेवक रहा , जबिक म पाप और अवगुण से भरा । आपसे अलग रहने का अवसर
पाकर नीच किलयुग ने मुझ े बीच म ही छल िलया। म वण था, परतु इसने उसे कवण कर िदया। राजा से रक तथा
ानी से अ ानी बना िदया ह। तभी से म अनेक योिनय म भटक रहा तथा अ ानजिनत दुख-दावानल से जलता रहा।
परतु जब िच कट जाकर मने आपका भजन िकया, तब म किल क सभी कचाल समझ गया । अब म वयं से भी
डर रहा । म हाथ जोड़कर भु क सामने म तक झुकाकर कह रहा िक पहचाना आ चोर जीव को ायः मार ही
देता ह। अथा किलयुग पी चोर मनु य को जकड़ने क िलए तैयार ह। इस बात को सुनकर तुलसी अपने वामी से
ाथना करक िन ंत हो चुक ह।
तात हाँ बार-बार देव! ार प र पुकार करत।
आरित, नित, दीनता कह भु संकट हरत॥
लोकपाल सोक-िबकल रावन-डर डरत।
का सुिन सकचे कपालु नर-सरीर धरत॥
कौिसक, मुिन-तीय, जनक सोच-अनल जरत।
साधन किह सीतल भये, सो न समुिझ परत॥
कवट, खग, सब र सहज चरन-कमल न रत।
सनमुख तोिह होत नाथ! कत सुफ फरत॥
बंध-ु बैर किप-िबभीषन गु गलािन गरत।
सेवा किह रीिझ राम, िकये स रस भरत॥
सेवक भयो पवनपूत सािहब अनुहरत।
ताको िलये नाम राम सबको सुढर ढरत॥
जाने िबनु राम-रीित पिच पिच जग मरत।
प रह र छल सरन गये तुलिस -से तरत॥
ह नाथ! तु हार वभाव को जानकर म तु हार ार पर पड़ा आ बारबार तु ह पुकारते ए कह रहा िक ह भु! दुख,
न ता और दीनता सुनाते ही तुम दुिखय क सम त संकट हर लेते हो। रावण क भय से जब इ , कबेर आिद देवगण
याकल हो गए थे, तब ह कपालु! तुमने य सोचकर मनु य शरीर धारण िकया था? िव ािम , अह या और जनक
िचंता क अ न म जल रह थे, परतु आपक कपा से वे शीतल हो गए। िनषाद, जटायु, शबरी आिद वभाव से तु हार
चरण-कमल म रत नह थे; िकतु ह नाथ! तु हार सामने आते ही इन बुर-बुर वृ म रसयु फल लग गए। अथा
आपक शरण म आकर इनका जीवन भी सफल हो गया। भाई से पीि़डत होकर सु ीव और िवभीषण आपक शरण म
आए, परतु आपने उ ह भरत क समान गले से लगाकर भातृ- ेम िदया। आपक सेवा करते-करते हनुमानजी भी संसार म
पूजनीय और स माननीय हो गए। अत: ह नाथ! आपक रीझने क रीत न जानने क कारण ही जग अ य साधन म
उलझकर मर रहा ह। परतु जो आपक शरण म आता ह, उसका उ ार हो जाता ह; य िक कपट यागकर आपक
शरण म जाने से तुलसी जैसे पापी जीव भी भवसागर से तर गए।
तुम अपनायो तब जािनह , जब मन िफ र प रह।
जेिह सुभाव िबषयिन ल यो, तेिह सहज नाथ स नेह छाि़ड छल क रह॥
सुत क ीित, तीित मीत क , नृप य डर ड रह।
अपनो सो वारथ वािम स , च िबिध चातक य एक टकते निह ट रह॥
हरिषह न अित आदर, िनदर न ज र म रह।
हािन-लाभ दुख-सुख सबै समिचत िहत-अनिहत, किल-कचािल प रह रह॥
भु-गुन सुिन मन हरिषह, नीर नयनिन ढ रह।
तुलिसदास भयो राम को िब वास, ेम लिख आनँद उमिग उर भ रह॥
ह भु! िजस िदन मेरा मन आपक ओर से िफर जाएगा उस िदन से म समझूँगा िक आपने मुझ े अपना बना िलया ह। यह
मन सहज वभाव क कारण िवषय-वासना म उलझा आ ह; परतु जब कपट छोड़कर यह आपसे ेम करगा तभी म
समझूँगा िक आपने मुझ े अपना सेवक मान िलया ह। िजस कार मेरा मन पु से ेम करता ह, िम पर िव ास करता
ह, राज-भय से डरता ह, वैस े ही जब ये अपने सार वाथ वामी से ही रखेगा तथा चातक क भाँित अपने िन य पर
अटल रहगा; आदर पाने पर जब उसे न तो हष होगा और न ही िवषाद; हािन-लाभ, सुख-दुख म समभाव रखेगा तथा
किलकाल क कचाल को छोड़ देगा, तभी म मानूँगा िक आपने मुझे अपना िलया ह। िजस समय आपक ेम क
अितरक से मेरी आँख से आँसू क धाराएँ बहने लगगी, तब तुलसीदास को िव ास होगा िक ीराम ने उसे वीकार
कर िलया ह। ह भु! मुझ े अपनाकर शी मेरी ऐसी दशा कर।
तुम सम दीनबंधु, न दीन कोउ मो सम, सुन नृपित रघुराई।
मोसम किटल-मौिलमिन निह जग, तुम सम ह र! न हरन किटलाई॥
ह मन-बचन-कम पातक-रत, तुम कपालु पिततन-गितदाई।
ह अनाथ, भु! तुम अनाथ-िहत, िचत यिह सुरित कब निह जाई॥
ह आरत, आरित-नासक तुम, क रित िनगम पुरानिन गाई।
ह सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कपा िबसराई॥
तुम सुखधाम राम म-भंजन, ह अित दुिखत ि िबध म पाई।
यह िजय जािन दास तुलसी कह राख सरन समुिझ भुताई॥
ह ीरामचं ! दीन का क याण करनेवाला आपक समान दूसरा कोई नह ह और मेर समान दीन कोई नह ह। ह नाथ!
संसार म मेर समान किटल और आपक समान किटलता का नाश करनेवाला कोई नह ह। मन, वचन और कम से म
पाप म लीन । ह कपालु! आप पािपय को परम गित देनेवाले ह। म अनाथ और आप अनाथ का िहत करनेवाले तथा
म दुखी और आप दुख का नाश करनेवाले ह। वेद-पुराण भी आपका यश गाते ह। म ज म-मृ यु पी संसार से भयभीत
और आप सम त भय का नाश करनेवाले ह। इतना सबकछ होने पर भी या कारण ह िक आप मुझपर कपा नह
करते? ह राम! आप आनंद और सुख क धाम ह, जबिक म संसार क तीन ताप से द ध । इसिलए ह भु! मुझ े अपनी
शरण म ले ल।
दनुज-वन-दहन, गुन-गहन, गोिवंद नंदािद-आनंद-दाताऽिवनाशी।
शंभु, िशव, , शंकर, भयंकर, भीम, घोर, तेजायतन, ोध-राशी॥
अनँत, भगवंत-जगदंत-अंतक- ास-शमन, ीरमन, भुवनािभरामं।
भूधराधीश जगदीश ईशान, िव ानघन, ान-क यान-धामं॥
वामना य , पावन, परावर, िवभो, कट परमातमा, कित- वामी।
चं शेखर, शूलपािण, हर, अनघ, अज, अिमत, अिविछ , वृषभेश-गामी॥
नीलजलदाभ तनु याम, ब काम छिव राम राजीवलोचन कपाला।
कबु-कपूर-वपु धवल, िनमल मौिल जटा, सुर-तिटिन, िसत सुमन माला॥
वसन िकज कधर, च -सारग-दर-कज-कौमोदक अित िवशाल।
मार-क र-म -मृगराज, ैनैन, हर, नौिम अपहरण संसार-जाला॥
क ण, क णाभवन, दवन कालीय खल, िवपुल कसािद िनवशकारी।
ि पुर-मद-भंगकर, म गज-चमधर, अ धकोरग- सन प गारी॥
, यापक, अकल, सकल, पर, परमिहत, यान, गोतीत, गुण-वृि -ह ा।
िसंधुसुत-गव-िग र-व , गौरीश, भव, द -मख अिखल िव वंसक ा॥
भ ि य, भ जन-कामधुक धेन,ु ह र हरण दुघट िवकट िवपित भारी।
सुखद, नमद, वरद, िवरज, अनव ऽिखल, िविपन-आनंद-वीिथन-िवहारी॥
िचर ह रशंकरी नाम-मं ावली ं -दुख हरिन, आनंदखानी।
िव णु-िशव-लोक-सोपान-सम सवदा वदित तुलसीदास िवशद बानी॥
इस भजन ारा तुलसीदास ने भगवा िव णु और भगवा िशव क तुित क ह। इसिलए इसका नाम ह र-शंकरी ह।
तुलसीदास तुित करते ए कहते ह िक भगवा िव णु—दानव पी वन को जलानेवाले, सा वक गुण से यु , इि य
को िनयंि त करनेवाले, नंद-उपनंद को आनंद देनेवाले तथा अिवनाशी ह। भगवा िशव—शंभु, िशव, , शंकर आिद
क याणकारी नाम से िस ह; वे बड़ भयंकर, महा तेज वी और ोध से यु ह।
भगवान िव णु अनंत ह; छह कार क ऐ य से यु ह; जग का अंत करनेवाले, यम क ास िमटानेवाले, ल मी क
वामी और सम त ांड को आनंद देनेवाले ह। भगवा िशव—कलाश क राजा, जग - वामी, ईशान, िव ानघन,
ान तथा मो - दायक ह।
भगवा िव णु—वामन प धारण करनेवाले, मन-इि य से अ य , िवकार-रिहत, जड़-चेतन और लोक-परलोक क
वामी, सा ा परमा मा और कित क वामी ह। भगवा िशव—म तक पर चं मा और हाथ म ि शूल धारण
करनेवाले, सृि क संहारकता, पापशू य, अज मा, अप रमेय, अखंड और नंदी पर सवार होकर चलने वाले ह।
भगवा िव णु नीले मेघ क समान याम शरीरवाले, अनेक कामदेव क समान शोभावाले, कमल क समान सुंदर
ने वाले और सम त िव म रमनेवाले कपालु ह। भगवा िशव—शंख और कपूर क समान िचकने, ेत और सुंिधत
शरीरवाले, मल-रिहत, म तक पर जटाजूट और गंगाजी को धारण करनेवाले तथा सफद पु प क माला पहने ए ह।
भगवा िव णु—कमल क कसर क समान पीतांबर धारण िकए तथा हाथ म शंख, च , प , शारग धनुष और अ यंत
िवशाल कौमोदक गदा िलए ए ह। भगवा िशव—कामदेव पी मतवाले हाथी को मारने क िलए िसंह प, तीन
ने वाले तथा आवागमन पी जग क जाल का नाश करनेवाले ह।
भगवा िव णु—सबका आकषण करनेवाले, क णा क धाम, कािलय नाग का दमन करनेवाले तथा कस आिद दु का
संहार करनेवाले ह। भगवा िशव—ि पुरासुर का मद चूर करनेवाले, मतवाले हाथी का चम धारण करनेवाले तथा
अंधकासुर पी सप को सने क िलए ग ड़ ह।
भगवा िव णु—पूण , यापक, कला-रिहत, सबसे े , परम िहतैषी, ान- व प, अंतःकरण पी भीतरी और
वणािद बाहरी इि य से अतीत और तीन गुण क वृि य का हरण करनेवाले ह। भगवा िशव—
जलंधर क गव को तोड़नेवाले, पावतीजी क पित, संसार क उ पि थान तथा द क संपूण य का िव वंस करने वाले
ह।
भगवा िव णु—िज ह भ ि य ह, जो भ क मनोरथ पूण करने क िलए कामधेन ु क समान ह; जो किठन और
भयंकर िवपि य को भी हरने क कारण ह र कहलाते ह। भगवा िशव—सुख, आनंद और मनोवांिछत वर देन े वाले;
िवर , सम त दोष एवं िवकार से रिहत तथा काशी क गिलय म िवहार करने वाले ह।
तुलसीदास कहते ह िक ह र और िशव क नाम-मं क ये सुंदर पं याँ राग- ेष आिद से उ प होनेवाले दुख का
नाश करनेवाली, आनंद का भंडार तथा मो क ा क िलए सीढ़ी क समान ह।
ार- ार दीनता कही, काि़ढ रद, प र पा ।
ह दयालु दुनी दस िदसा, दुख-दोष-दलन-छम, िकयो न सँभाषन का ॥
तनु ज यो/जनतेऊ किटल क ट य , त य मातु-िपता ।
काह को रोष, दोष कािह ध , मेर ही अभाग मोस सकचत छइ सब छा ॥
दुिखत देिख संतन क ो, सोचै जिन मन माँ ।
तोसे पसु-पाँवर-पातक प रहर न सरन गये, रघुबर ओर िबना ॥
तुलसी ितहारो भये भयो सु खी ीित- तीित िबना ।
नाम क मिहमा, सील नाथको, मेरो भलो िबलोिक अब त सकचा िसहा ॥
ह नाथ! संसार म परमाथ का काय करनेवाले ऐसे अनेक दयालु ह, जो दुख एवं दोष का दमन करने म समथ ह। म
पैर पड़-पड़कर उनक ार पर अपनी दीनता सुनाता रहा, परतु मेरी िकसी ने नह सुनी। माता-िपता ने भी मुझे ऐसे
याग िदया जैसे किटल क ड़ा अपने शरीर से ज मे ए ब े को भी याग देता ह। म िकस बात पर ोध क , िकसे
दोष दू?ँ यह सब मेर दुभा य का ही प रणाम ह। मुझ पापी क छाया से भी लोग दूर भागते ह। मेरी ऐसी दुदशा देखकर
संत ने मुझे आपक शरण म जाने का परामश िदया। यह तुलसी तभी से आपका हो गया। उसी िदन से मेर सम त दुख
का नाश हो गया और म अनेक सुख भोग रहा । ह नाथ! आपक नाम क मिहमा ने मेरा क याण िकया, यह सोच-
सोचकर म सकचा रहा ; य िक मने आपक कपा ा करने वाला कोई काय नह िकया, िफर भी आपने मेर सम त
दुख हर िलये।
दीन-दयालु िदवाकर देवा। कर मुिन मनुज सुरासुर सेवा॥
िहम-तम-क र-कह र करमाली। दहन दोष-दुख-दु रत- जाली॥
कोक-कोकनद-लोक- कासी। तेज- ताप- प-रस-रासी॥
सारिथ-पंग ु िद य रथ-गामी। ह र-संकर-िबिध-मूरित वामी॥
बेद-पुरान गट जस जागै। तुलसी राम-भगित बर माँग॥ै
ह दीनदयालु भगवा सूयदेव! मुिन, मनु य, देवता और रा स—सभी आपक उपासना करते ह। आप अंधकार पी हाथी
को मारनेवाले िसंह ह तथा िकरण क माला से यु ह। आपक सम दोष, दुख, दुराचार और रोग भ म हो जाते ह।
रात क िबछड़ ए चकवा-चकवी को िमलानेवाले; कमल को िखलानेवाले तथा सम त लोक को कािशत करनेवाले
आप ही ह; आप तेज, ताप, प और रस क भंडार ह। ह वामी! आप ा, िव णु और िशव क ही प ह। वेद-
पुराण म आपक क ित जगमगा रही ह। तुलसीदास िवनयपूवक आपसे राम-भ का वरदान माँगता ह।
दीनदयालु, दु रत दा रद दुख दुनी दुसह ित ताप तई ह।
देव दुवार पुकारत आरत, सबक सब सुख हािन भई ह॥
भु क बचन, बेद-बुध-स मत, ‘मम मूरित मिहदेवमई ह।’
ितनक मित रस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीिल गई ह॥
राज-समाज कसाज कोिट कट कलिपत कलुष कचाल नई ह।
नीित, तीित, ीित परिमत पित हतुबाद हिठ फ र हई ह॥
आ म-बरन-धरम-िबरिहत जग, लोक-बेद-मरजाद गई ह।
जा पितत, पाखंड-पापरत, अपने अपने रग रई ह॥
सांित, स य, सुभ, रीित गई घिट, बढ़ी करीित, कपट-कलई ह।
सीदत साधु, साधुता सोचित, खल िबलसत, लसित खलई ह॥
परमारथ वारथ, साधन भये अफल, सफल निह िस सई ह।
कामधेन-ु धरनी किल-गोमर-िबबस िबकल जामित न बई ह॥
किल-करनी बरिनये कहाँ ल , करत िफरत िबनु टहल टई ह।
तापर दाँत पीिस कर म जत, को जानै िचत कहा ठई ह॥
य - य नीच चढ़त िसर ऊपर, य - य सीलबस ढील दई ह।
स ष बरिज तरिजये तरजनी, क हलैह क हड़ क जई ह॥
दीजै दािद देिख ना तौ बिल, मही मोद-मंगल रतई ह॥
भर भाग अनुराग लोग कह, राम कपा-िचतविन िचतई ह॥
िबनती सुिन सानंद ह र हिस, क ना-बा र भूिम िभजई ह।
राम राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत-िबजई ह॥
समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकत-सैन हारत िजतई ह।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसित िबतई ह॥
उथपे थपन, उजा र बसावन, गई बहो र िबरद सदई ह।
तुलसी भु आरत-आरितहर, अभयबाँह किह-किह न दई ह॥
ह दीनदयालु! पाप, द र ता, दुख और तीन कार क ताप —दैिहक, दैिवक और भौितक—से दुिनया त हो रही ह। ह
भगव ! यह दुिखयारा ार पर खड़ा आपको पुकार रहा ह, य िक सभी कार क सुख चले गए ह। वेद तथा िव ान
क स मित क साथ-साथ भगवा ीह र क मुख से िनकले वचन क अनुसार ा ण उनक ही सा ा व प ह। परतु
किलयुग म ा ण क बु को ोध ने अपना दास बना िलया ह; आस , मोह, मद और लोभ ने उ ह कमाग क
ओर अ सर कर िदया ह। वे वाभािवक गुण को यागकर अ ानी, कामी, ोधी और लोभी हो गए ह। इसी कार
ि य भी अपने धम को छोड़कर अनेक कार क यिभचार म उलझ गए ह। ना तकता ने राजनीित, धम, िव ास,
ेम और कल क मयादा का सवनाश कर िदया ह। जाजन पाप और अधम म लीन होकर वे छाचारी हो गए ह।
स य, ेम, अिहसा, परोपकार, दान—सबकछ छल-कपट क सामने बलहीन हो रह ह। यही कारण ह िक स पु ष क
भोग रह ह, साधुता शोक त ह, दु और पापी आनंद म डबे ए ह। लोग धम क नाम पर धन बटोरने म लगे ए ह।
किलयुग पी कसाई क हाथ म पड़कर पृ वी पी कामधेन ु अ यंत याकल हो रही ह। ह ीराम! आप िजतनी ढील दे
रह ह उतना ही संसार पाप त होता जा रहा ह। अब आप ही पृ वी क र ा कर, अ यथा यह सुख और आनंद से शू य
हो जाएगी। तुलसीदास कहते ह िक आप इस कार कपा कर िक लोग कह िक िवनती सुनकर भगवा राम ने ेम क
ऐसी वृि क , िजससे संपूण भूिम तर हो गई। रामरा य क थािपत होते ही सभी काय सफल हो गए, शुभ शकन होने
लगे; परतु ह ीराम! आप ऐसा य नह करते? आप तो सदा से उजड़ ए को बसाते रह ह। ह तुलसी! भगवा राम ने
दुिखय क दुख दूरकर िकस-िकसको अभय दान नह िकया?
दीनबंध,ु सुखिसंधु, कपाकर, का नीक रघुराई।
सुन नाथ! मन जरत ि िबिध जुर, करत िफरत बौराई॥
कब जोगरत, भोग-िनरत सठ हठ िबयोग-बस होई।
कब मोहबस ोह करत ब , कब दया अित सोई॥
कब दीन, मितहीन, रकतर, कब भूप अिभमानी।
कब मूढ़, पंिडत िबडबरत, कब धमरत यानी॥
कब देव! जग धनमय रपुमय कब ना रमय भासै।
संसृित-संिनपात दा न दुख िबनु ह र-कपा न नासै॥
संजम, जप, तप, नेम, धरम, त ब भेषज-समुदाई।
तुलिसदास भव-रोग रामपद- ेम-हीन निह जाई॥
ह दीनबंधु! सुखिसंध!ु ह कपाकर! ह क णामय रघुंदन! आप दीन क बंध,ु सुख क समु तथा कपा क भंडार ह। ह
नाथ! संसार क ि िवध ताप से मेरा दय त ह। उसे काम, ोध, लोभ पी दोष ने जकड़ िलया ह। कभी यह
योगा यास करता ह तो कभी िवषय-वासना फस जाता ह; कभी िवयोग क वश हो जाता ह तो कभी मोहवश नाना
कार क ोह करता ह। कभी दीन, बु हीन तथा िनबल बन जाता ह तो कभी घमंडी राजा क समान यवहार करता
ह। कभी मूख तो कभी पंिडत, कभी पाखंडी तो कभी धमपरायण ानी बन जाता ह। ह देव! यह संसार पी र का
दुख आपक कपा क िबना न नह होगा। य िप जप, तप, संयम, िनयम, धम, त आिद अनेक औषिधयाँ ह; परतु
तुलसीदास का संसार पी रोग भगवा राम क ेम क िबना कदािप दूर नह होगा।
देव बड़, दाता बड़, संकर बड़ भोर।
िकये दूर दुख सबिन क, िज ह-िज ह कर जोर॥
सेवा, सुिमरन, पूिजबौ, पात आखत थोर।
िदये जगत जह लिग सबै, सुख, गज, रथ, घोर॥
गाँव बसत बामदेव, म कब न िनहोर।
अिधभौितक बाधा भई, ते िककर तोर॥
बेिग बोिल बिल बरिजये, करतूित कठोर।
तुलसी दिल, यो चह सठ सािख िसहोर॥
ह िशव! ह शंकर! आप बड़ देव ह, बड़ दानी ह तथा बड़ ही भोले ह। िजन-िजन लोग ने आपक सम हाथ जोड़,
आपने पल भर म उनक सभी दुख दूर कर िदए। थोड़ से बेलप , चावल और जल से ही आपक सेवा, मरण और
पूजा का काय संप हो जाता ह। परतु इसक बदले म आप भ को संसार का सम त ऐ य दान कर देत े ह; ह
नाथ! म आपक परम धाम काशी म रहता । मने आजतक आप से कछ नह माँगा, परतु अब भौितक बंधन मुझे
जकड़ने वाले ह। अतएव आप मुझपर शी कपा कर िजससे ये दु तुलसीदास पी तुलसी क पेड़ क थान पर काँट
का पेड़ न लगा स ं ।
नाथ गुननाथ सुिन होत िचत चाउ सो।
राम रीिझबे को जान भगित न भाउ सो॥
करम, सुभाउ, काल, ठाकर न ठाउ सो।
सुधन न, सुतन न, सुमन, सुआउ सो॥
जाँच जल जािह कह अिमय िपयाउ सो।
कास कह का स न बढ़त िहयाउ सो॥
काप! बिल जाउ, आप क रए उपाउ सो।
तेर ही िनहार पर हार सुदाउ सो॥
तेर ही सुझाए सूझै असुझ सुझाउ सो।
तर ही बुझाए बूझै अबुझ बुझाउ सो॥
नाम-अवलंबु-अंब ु दीन मीन-राउ सो।
भु स बनाइ कह जीह ज र जाउ सो॥
सब भाँित िबगरी ह एक सुबनाउ-सो।
तुलसी सुसािहबिह िजए ह जनाउ सो॥
ह नाथ! आपक गुण का गान सुनकर मेर दय म ेम उमड़ता ह, परतु आप िजस भ और भाव से स होते ह,
उससे म पूणतः अनिभ । य िक न तो मेर कम उ म ह, न वभाव े ह, न समय अ छा ह, न वामी ह, न कोई
िठकाना ह, न साधन पी उ म धन ह, न सेवापरायण शरीर ह, न परमाथ म लगनेवाला मन ह, न भजन से पिव ई
आयु ह। अथा आपक भ करने क िलए मेर पास कोई भी साधन नह ह। िजससे म पानी माँगता , वह ही मुझसे
अमृत िपलाने क िलए कहता ह। अब म अपनी बात िकससे क ? ह नाथ! आप ही मुझ े कोई अ छा उपाय बता द।
आपक कपा ि से बड़-से-बड़ा पापी भी पापमु होकर आपक परमधाम का अिधकारी बन जाता ह, न समझ म
आनेवाला आपका व प भी समझ म आ जाता ह। मेरी बात हर कार से िबगड़ चुक ह। अब मेरी िबगड़ी आप ही
बना सकते ह। यह बात तुलसीदास ने अपने दयालु वामी को बता दी ह।
नाम राम रावरोई िहत मेर।
वारथ-परमारथ सािथ ह स भुज उठाइ कह टर॥
जानक -जनक त यो जनिम, करम िबनु िबिध सृ यो अवडर।
मो सो कोउ-कोउ कहत रामिह को, सो संग किह कर॥
िफय ललात िबनु नाम उदर लिग, दुखउ दुिखत मोिह हर।
नाम- साद लहत रसाल-फल अब ह बबुर बहर॥
साधत साधु लोक-परलोकिह, सुिन गुिन जनत घनेर।
तुलसी क अवलंब नाम को, एक गाँिठ कइ फर॥
ह ीराम! म हाथ उठाकर वाथ और परमाथ क सभी बंध-ु बांधव को यह बात पुकारकर कहता िक आपका परम
पावन नाम ही मेरा िहत करने वाला ह। माता-िपता ने ज म देकर मुझ े छोड़ िदया, ाजी ने भी मुझ े अभागा और बेढब-
सा बना िदया। िफर भी लोग मुझ े ‘राम का दास’ कहते ह। यह सब राम-नाम का ही ताप ह। जब तक म ीराम से
िवमुख रहा तब तक ार- ार िभ ा माँगता था। मेरी दशा अ यंत दयनीय थी। परतु जब से ीराम ने मुझपर कपा क
ह तब से मेर सम त दुख न हो गए ह तथा मेरा जीवन सुखमय हो गया ह। संतजन शा क वण-मनन-िचंतन पी
साधन ारा अपना लोक-परलोक सुधार लेते ह, परतु तुलसी क िलए कवल राम-नाम ही मु का एकमा साधन ह।
पावन ेम राम-चरन-कमल जनम ला परम।
राम नाम लेत होत, सुलभ सकल धरम॥
जोग, मख, िबबेक, िबरत, बेद-िबिदत करम।
क रबे कह कट कठोर, सुनत मधुर, नरम॥
तुलसी सुिन, जािन-बूिझ, भूलिह जिन भरम।
तेिह भु को होिह, जािह सब ही क सरम॥
ीराम क चरण-कमल म िन काम ेम का होना ही जीवन का पु य फल ह। राम-नाम लेते ही सभी धम सुलभ हो जाते
ह। वेद म योग, य , िववेक, वैरा य आिद से संबंिधत अनेक कम बताए गए ह। ये सुनने म बड़ मधुर लगते ह, परतु
करने म बड़ कट और कठोर ह। इसिलए ह तुलसीदास! सबकछ यागकर तू कवल भगवा ीराम का शरणागत हो
जा।
बंद रघुपित क ना-िनधान जाते छट भव-भेद- यान॥
रघुबं -कमुद-सुख द िनसेस-सेवत पद-पंकज अज महस॥
िनज भ - दय-पाथोज-भृंग। लाव य बपुष अगिनत अनंग॥
अित बल मोह-तम-मारतंड। अ यान-गहन-पावक चंड॥
अिभमान-िसंधु-कजभ उदार। सुररजन, भंजन भूिमभार॥
रागािद-सपगन-प गा र। कदप-नाग-मृगपित, मुरा र॥
भव-जलिध-पोत चरनारिबंदु। जानक -रवन आनंद-कद॥
हनुमंत- ेम-बापी-मराल। िन काम कामधुक गो दयाल॥
ै ोक-ितलक, गुनगहन राम। कह तुलिसदास िब ाम-धाम॥

म क णािनधान भगवा ीराम क वंदना करता , िजससे सांसा रक माया का बंधन छट जाए। भगवा राम रघुंश पी
कमुद को चं मा क समान फ त करनेवाले ह। ा और िशव भी िजनक चरण-कमल क वंदना करते ह; जो
भ क दय म िनवास करते ह, िजनक शरीर का लाव य असं य कामदेव क समान ह; जो मोह पी अंधकार का
नाश करने क िलए सूय और अ ान पी वन को भ म करने क िलए अ न प ह; जो अिभमानी सागर को पीनेवाले
अग य ह; राग- ेषािद सप का भ ण करने क िलए ग ड़ और काम पी हाथी को मारने क िलए िसंह ह; िजनक
चरण-कमल से भवसागर पार हो जाता ह; जो िन काम भ क िलए कामधेन ु क समान ह, उ ह म शत-शत नमन
करता । तुलसीदास कहते ह िक तीन लोक क िशरोमिण, स ुण से यु भगवा राम ही एकमा शांित- दायक ह।
िब वास एक राम-नाम को।
मानत निह परतीित अनत ऐसोइ सुभाव मन बाम को॥
पि़ढबो पय न छठी छ मत रगु जजुर अथवन साम को।
त तीरथ तप सुिन सहमत पिच मर कर तन छाम को?॥
करम-जाल किलकाल किठन आधीन सुसािधत दाम को।
यान िबराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह काम को॥
सब िदन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन- ाम को।
बैठ नाम-कामत -तर डर कौन घोर घन घाम को॥
को जानै को जैह जमपुर को सुरपुर पर धाम को।
तुलिसिह ब त भलो लागत जग जीवन रामगुलाम को॥
तुलसीदास कहते ह िक मुझ े कवल राम-नाम का ही िव ास ह। मेर किटल मन का ऐसा वभाव ह िक वह िकसी और
पर िव ास नह करता। छह शा तथा चार वेद को पढ़ना मेर भा य म नह ह। त, जप, तप, तीथ आिद क नाम से
मेरा मन भयभीत ह। किलयुग म कमकांड किठन ह, य िक ये भी धन क अधीन हो गए ह। ान, वैरा य, योग, जप
और तप आिद साधन को करने म भी काम, ोध, मोह, लोभ आिद का भय लगा रहता ह; परतु इस संसार पी
भवसागर म ीरघुनाथ क गुण का गान करनेवाले सवथा यो य ह। अ ान पी अंधकार उ ह भिमत नह कर सकता,
िवषय-वासना क बंधन म नह जकड़ते। तुलसीदास को तो इस संसार म ीराम का सेवक होकर जीने म अ यंत
आनंद तीत होता ह।
बीर महा अवरािधए, साधे िसिध होय।
सकल काम पूरन कर, जानै सब कोय॥
बेिग, िबलंब न क िजए लीजै उपदेस।
बीज महा मं जिपए सोई, जो जपत महस॥
ेम-बा र-तरपन भलो, घृत सहज सने ।
संसय-सिमध, अिगिन छमा, ममता-बिल दे ॥
अघ-उचािट, मन बस कर, मार मद मार।
आकरषै सुख-संपदा-संतोष-िबचार॥
िज ह यिह भाँित भजन िकयो, िमले रघुपित तािह।
तुलिसदास भुपथ चढ़यौ, जौ ले िनबािह॥
ह ाणी! तु ह वीर रघुनाथ क आराधना करनी चािहए, िज ह साधने से सम त मनोकामनाएँ िस हो जाती ह। वे सभी
क दय क बात जानते ह। अत: इस काय म िबना िवलंब िकए स ु से उपदेश ल और रामनाम क बीजमं से जाप
कर, िजससे िशवजी भी जाप करते ह। मं जप क बाद ेम पी जल से तपण कर। तदनंतर सहज वाभािवक ेह का
घी बनाना चािहए। िफर संदेह पी सिमधा को मा पी अ न म हवन करते ए ममता का बिलदान कर द। पाप का
नाश मन पर िनयं ण अहकार एवं काम का मारण तथा संतोष एवं ान पी सुख-संपि का आ ान करना चािहए। जो
इस कार भजन करता ह, उसे भगवा राम िमल जाते ह। तुलसीदास भी इसी माग का अनुसरण कर रह ह, िजसे भु
िनबाह लगे।
भरोसो जािह दूसरो सो करो।
मोको तो रामको नाम कलपत किल क यान फरो॥
करम उपासन, यान, बेदमत, सो सब भाँित खरो।
मोिह तो ‘सावनक अंधिह’ य सूझत रग हरो॥
चाटत र ो वान पात र य कब न पेट भरो।
सो ह सुिमरत नाम-सुधारस पेखत प िस धरो॥
वारथ औ परमारथ को निह कजरो-नरो।
सुिनयत सेतु पयोिध पषानिन क र किप कटक-तरो॥
ीित- तीित जहाँ जाक , तह ताको काज सरो।
मेर तो माय-बाप दोउ आखर, ह िससु-अरिन अरो॥
संकर सािख जो रािख कह कछ तौ ज र जीह गरो।
अपनो भलो राम-नामिह ते तुलिसिह समुिझ परो॥
िजसे ीराम क अित र िकसी दूसर का भरोसा ह तो वैसा कर। लेिकन किलयुग म मेर िलए राम-नाम ही क पवृ ह,
िजससे क याण पी फल क ा होती ह। य िप कम, उपासना और ान आिद वैिदक िस ांत भी े ह, परतु
मुझ े राम-नाम क अित र कछ और सुझाई नह देता। क े क समान मने अनेक प ल चाट —अथा ान हतु अनेक
महा मा क शरण म गया, परतु कह परमानंद नह िमला। लेिकन राम-नाम का मरण करते ही मेर सामने मु पी
थाल म ान पी पदाथ कट हो गए। य िप इसका भ ण करते ही मुझ े मो िमल जाएगा, परतु म भगवा राम क
ेम-रस का पान कर रहा । मेर िलए राम का नाम वाथ और परमाथ—दोन का ही साधक ह। इसी नाम क भाव से
वानर-सेना ने समु पर पुल बना िदया था। िजसने िजस कार ेम और िव ास िकया, उसका उसी कार काय िस
आ। ‘र’ और ‘म’ ही मेर माता-िपता ह। अब ये ही मेर क याण और मो क एकमा साधन ह।
भलो भली भाँित ह जो मेर कह लािगह।
मन राम-नाम स सुभाय अनुरािगह॥
राम-नाम को भाउ जािन जूड़ी आिगह।
सिहत सहाय किलकाल भी भािगह॥
राम-नाम स िबराग, जोग, जप जािगह।
बाम िबिध भाल न करम दाग दािगह॥
राम-नाम मोदक सनेह सुधा पािगह।
पाइ प रतोष तू न ार- ार बािगह॥
राम-नाम काम-त जोइ-जोइ माँिगह।
तुलिसदास वारथ परमारथ न खाँिगह॥
ह मन! यिद तू भगवा राम से ेम करगा तो सब ओर से तेरा भला होगा। राम-नाम का भाव िठठरनेवाली सद का
नाश करनेवाली अ न क समान ह। राम-नाम क भय से मनु य क बु को भिमत कर देनेवाला किलयुग भी अपने
काम, ोध आिद सहायक क साथ तुंत भाग जाता ह। राम-नाम क भाव से वैरा य, योग, जप, तप आिद वयं ही
जा त हो जाते ह। तु हार सभी पाप और ककम न हो जाएँग।े रामनाम पी ल को खाते ही परम संतोष ा हो
जाएगा। िफर आ मक सुख पाने क िलए इधर-उधर भटकने क कोई आव यकता नह होगी। ह तुलसीदास! राम-नाम
क पवृ ह, इसिलए तू उससे वाथ अथवा परमाथ कछ भी माँगेगा, सब िमल जाएगा। तुझे िकसी बात क कमी नह
रहगी।
भीषणाकार, भैरव, भयंकर, भूत- ेत- मथािधपित, िवपित-हता।
मोह-मूषक-माजार, संसार-भय-हरण, तारण-तरण, अभयकता॥
अतुल बल, िवपुल िव तार, िव ह गौर, अमल अित धवल धरणीधराभं।
िशरिस संकिलत-कल-जूट िपंगलजटा, पटल शत-कोिट-िव ु छटाभं॥
ाज िवबुधापगा आप पावन परम, मौिल-मालेव शोभा िविच ॥ं
इदु-पावक-भानु-नयन, मदन-मयन, गुण-अयन, ान-िव ान- पं।
रमण-िग रजा, भवन भूधरािधप सदा, वण कडल, वदनछिव अनूप॥ं
चम-अिस-शूल-धर, डम -शर-चाप-कर, यान वृषभेश, क णा-िनधानं।
जरत सुर-असुर, नरलोक शोकाकलं, मृदुल िचत, अिजत, कत गरलपानं॥
भ म तनु-भूषणं, या -चमा बर, उरग-नर-मौिल उर मालधारी।
डािकनी, शािकनी, खेचर, भूचर, यं -मं -भंजन, बल क मषारी॥
काल अितकाल, किलकाल, यालािद-खग, ि पुर-मदन, भीम-कम भारी।
सकल लोका त-क पा त शूला कत िद गजा य -गुण नृ यकारी॥
पाप-संताप-घनघोर संसृित दीन, मत जग योिन निह कोिप ाता।
पािह भैरव- प राम- पी , बंध,ु गु , जनक, जननी, िवधाता॥
य य गुण-गण गणित िवमल मित शारदा, िनगम नारद- मुख चारी।
शेष, सवश, आसी आनंदवन, दास तुलसी णत- ासहारी॥
िशव क भैरव प क तुित करते ए तुलसीदास कहते ह िक ह भीषण मूित भैरव! आप अ यंत भयंकर ह; आप ही
भूत, ेत और गण क वामी ह। मोह पी चूह क िलए आप िबलाव ह, जीवन-मृ यु पी संसार क सम त भय को दूर
करनेवाले ह, सबको अभय दान करनेवाले ह। ह नाथ! आपक म तक पर चं मा सुशोिभत ह। चं मा, अ न एवं सूय
आपक ने ह। आप कामदेव का दमन करनेवाले ह। आप ही गुण क भंडार और ान-िव ान ह। आप कलास म
िनवास करते ए पावतीजी क साथ िवहार करते ह। सृि क क याण हतु समु -मंथन से िनकलनेवाले हलाहल िवष को
आप िन क च पी गए। डािकनी, शािकनी, खेचर, भूचर तथा यं -मं -तं का नाश कर भ को अभय दान
करनेवाले आप ही ह। महा लय क समय आप अपने ि शूल क न क से िद गज को छदकर नृ य करते ह। ह भु! म
पाप त होकर अनेक योिनय म भटक रहा । ह भैरव! ह राम पी िशव! आप ही एकमा मेर उ ारक ह। ाजी,
सर वती, वेद, नारद आिद भी आपक गुण का गान करते ह। तुलसीदास कहते ह िक भ को अभय दान करनेवाले
भगवा िशव काशी म िवराजमान ह।
मंगल मूरित मा त नंदन। सकल-अमंगल-मूल-िनकदन॥
पवन तनय संतन-िहतकारी। दय िबराजत अवध-िबहारी॥
मातु-िपता, गु , गनपित, सारद। िसवा-समेत संभु, सुक, नारद॥
चरन बंिद िबनव सब का । दे रामपद-नेह-िनबा ॥
बंद राम-लखन-बैदेही। जे तुलसी क परम सनेही॥
रामभ हनुमान परम क याणकारी, भ -व सल, सम त दुख एवं बुराइय का नाश करनेवाले ह। पवनदेव क पु
हनुमान संत एवं महा मा का सदैव िहत करते ह। भगवा राम सीताजी सिहत सा ा प म इनक दय म िनवास
करते ह। हनुमानजी, उनक माता-िपता, गु , गणेश, सर वती, पावती और भगवा िशव क चरण म णाम कर म
िवनती करता िक ीराम क चरण म मेरा अगाध ेम रह, मुझ े यही वरदान द। अंत म भगवा राम, सीताजी और
ल मण को णाम करता , जो तुलसीदास क परम ेमी और सव व ह।
मन पिछतैह अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ ह रपद भजु, करम, बचन अ ही ते॥
सहसबा दसबदन आिद नृप बचे न काल बलीते।
हम-हम क र धन-धाम सँवार, अंत चले उिठ रीते॥
सुत-बिनतािद जािन वारथरत, न क नेह सबही ते।
अंत तोिह तजगे पामर! तू न तजै अबही ते॥
अब नाथिह अनुरागु, जागु जड़, यागु दुरासा जी ते।
बुझै न/िक काम अिगिन तुलसी क , िवषय-भोग ब घी ते॥
ह मन! मनु य-ज म बीत जाने पर तुझे पछताना पड़गा। इसिलए दुलभ मनु य ज म को इस कार यथ मत जाने दे; तू
कम, वचन एवं दय से भगवा राम क चरण-कमल का सुिमरन कर। सह बा और रावण जैसे काल-िवजयी भी
काल से नह बच सक। िज ह ने मोहवश अगाध धन व धा य का संचय िकया, वे भी इस लोक से खाली हाथ गए। घर-
प रवार को वाथ मानकर इनसे ेम मत जोड़। ह मूख! अ ान पी िन ा से जागकर ेम और भ ारा भगवा
राम का शरणागत हो जा। ह तुलसीदास! िजस कार घी डालने से अ न और भड़कती ह, उसी कार िवषय क िमलने
से कामना बढ़ती जाती ह। कवल संतोष पी जल ही इसे शांत कर सकता ह।
मेरी न बनै बनाए मेर कोिट कलप ल
राम! रावर बनाए बनै पल पाउ म।
िनपट सयाने हौ कपािनधान! कहा कह ?
िलये बेर बदिल अमोल मिन आउ म॥
मानस मलीन, करतब किलमल पीन
जीह न ज यो नाम, ब यो आउ-बाउ म।
कपथ कचाल च यो, भयो न भूिल भलो,
बाल-दसा न खे यो खेलत सुदाउ म॥
देखा-देखी दंभ त िक संग त भई भलाई,
किट जनाई, िकयो दु रत-दुराउ म।
राग रोष दोष/ ेष पोषे, गोगन समेत मन
इनक भगित क ही इनही को भाउ म॥
आिगली-पािछली, अब क अनुमान ही त
बूिझयत गित, कछ क ह तो न काउ म।
जग कह राम क तीित- ीित तुलसी ।
झूठ-साँच े आसरो साहब रघुराउ म॥
ह ीराम! मेर बनाए ए साधन ारा मेरी स ित अनेक ज म तक नह होगी; परतु यिद आप कपा कर द तो यह पल
भर म संभव हो जाएगा। ह कपािनधान! मने अनमोल मिण क समान आयु क बदले म िवषय पी बेर ले िलये। अथा
अपना संपूण जीवन िवषय-वासना म खो िदया, िजससे मेरा मन मिलन हो गया तथा किलयुग म मेर ककम और भी
पु हो गए। जीभ से कभी आपका नाम नह जपा, िनरतर बुर माग क ओर अ सर रहा। स संग से सदैव दूर रहकर
िन य पापकम करता रहा। राग, ेष आिद िवकार का िनरतर पालन-पोषण करता रहा। मन आिद इि य को पूणत:
वतं कर िदया। अथा मने जीवन भर कभी भला काय नह िकया; िकतु संसार कहता ह िक ‘तुलसीदास कवल राम
का ह’ और मुझ े कवल आप पर ही िव ास और ेम ह। ह वामी! अब म आपक शरण म ।
मेरो भलो िकयो राम आपनी भलाई।
ह तो साई- ोही पै सेवक-िहत साई॥
राम स बड़ो ह कौन, मो स कौन छोटो।
राम सो खरो ह कौन, मो स कौन खोटो॥
लोक कह रामको गुलाम ह कहाव ।
एतो बड़ो अपराध भौ न मन बाव ॥
पाथ माथे चढ़ तृन तुलसी य नीचो।
बोरत न बा र तािह जािन आपु सीच ॥
ीराम भले ह, इसिलए उ ह ने मेरा भला कर िदया, य िक वे सेवक क िहतकारी ह; जबिक म वामी क साथ बुराई
करनेवाला । ीराम से बड़ा और मुझसे छोटा भला कौन हो सकता ह? उनक समान खरा और मेर समान खोटा कौन
ह? सेवक न होते ए भी संसार कहता ह िक तुलसी ीराम का सेवक ह और म भी यह बात वीकार कर लेता ।
इससे बड़ा अपराध और या होगा? िफर भी ीराम क दय म मेर िलए कोई अमंगल भाव नह उठा। ह तुलसी! िजस
कार ितनका जल क म तक पर चढ़ जाता ह और जल भी उसे नह डबोता, उसी कार भगवा ीराम भी शरणागत
क र ा करते ह।
म ह र पितत-पावन सुन।े
म पितत तुम पितत-पावन दोउ बानक बने॥
याध गिनका गज अजािमल सािख िनगमिन भने।
और अधम अनेक तार जात कापै गने॥
जािन नाम अजािन ली ह नरक सुरपुर* मने।
दास तुलसी सरन आयो, रािखए आपने॥
ह ीह र! मने सुना ह िक तुम पितत को भी पिव करनेवाले हो। म पितत और तुम पिततपावन, दोन का मेल हो
गया। अब मेर पिव होने म कोई संदेह नह ह। वेद सा ी ह िक आपने याध (वा मीिक), गिणका (िपंगला वे या),
गज और अजािमल जैसे पािपय व अधिमय को भी भवसागर से पार उतार िदया। िज ह ने अनजाने म ही तु हारा नाम
ले िलया, वे वग-नरक से मु होकर आपक परम धाम चले गए। अथा जीवन-मृ यु क च से मु होकर वे मो
क अिधकारी ए। ह भगवा ! तुलसी भी आपक शरण म ह, उस पर कपा कर।
यह िबनती रघुबीर गुसाई।
और आस-िब वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई॥
चह न सुगित, सुमित, संपित कछ, रिध-िसिध िबपुल बड़ाई।
हतु-रिहत अनुराग राम-पद बढ़ अनुिदन अिधकाई॥
किटल करम लै जािह मोिह जह जह अपनी ब रआई।
तह तह जिन िछन छोह छाँि़डयो, कमठ-अंडक नाई॥
या जगम जह लिग या तनु क ीित तीित सगाई।
ते सब तुिलसदास भु ही स होिह सिमिमट इक ठाई॥
ह ीरघुनाथ! मेरी िवनती ह िक इस जीव को आपक अित र दूसर साधन, देवता या कम पर जो आशा और िव ास
ह, उस मूखता को आप न कर द। ह ीराम! शुभ गित, स ु , धन-संपि , मान-स मान—इनम से मुझ े कछ नह
चािहए। मुझे कवल आपक चरण-कमल म थान चािहए, िजससे आपक ित मेरा ेम िदन- ितिदन बढ़ता रह। मेर बुर
कम मुझ े िजस भी योिन म ले जाएँ, आप मेरा साथ कदािप न छोड़ना। ह नाथ! इस संसार क सम त बंधन, ेम,
िव ास और संबंध कवल आप तक िसमट जाएँ।
रघुपित-भगित करत किठनाई।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेिह बिन आई॥
जो जेिह कला कसल ताकह सोइ सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल- वाह सुरसरी बह गज भारी॥
य सकरा िमलै िसकता मह, बल त न कोउ िबलगावै।
अित रस य सू छम िपपीिलका, िबनु यास ही पावै॥
सकल य िनज उदर मेिल, सोवै िन ा तिज जोगी।
सोइ ह रपद अनुभवै परम सुख, अितसय ैत-िबयोगी॥
सोक मोह भय हरष िदवस-िनिस देस-काल तह नाह ।
तुलिसदास यह दसाहीन संसय िनरमूल न जाह ॥
राम-भ क बात करना सहज ह, परतु इसे करना बड़ा किठन ह। इसक किठनता कवल वही जानता ह, जो इसे
करता ह। इसम डबनेवाले भ क िलए ही यह सहज, सरल और सुख- दायक ह। िजस कार छोटी सी मछली गंगा
क धारा से िनकल जाती ह, परतु िवशालकाय हाथी बह जाता ह; िजस कार धूल म चीनी िमल जाए तो उसे अलग
नह िकया जा सकता, परतु एक छोटी-सी च टी उसे अलग कर लेती ह, उसी कार जो योगी अ ान पी िन ा तथा
िवषय-वासना को यागकर स े दय से भगवा का मनन-िचंतन करता ह, वह ही परमानंद क अनुभूित कर सकता
ह। इस अव था म शोक, मोह, हष, सुख, दुख इ यािद कछ शेष नह रहता; िकतु ह तुलसीदास! जब तक इस दशा क
ा नह होती तब तक संदेह का पूणत: नाश नह होता।
राम कब ि य लािगहौ जैसे नीर मीन को?
सुख जीवन य जीव को, मिन य फिनको िहत, य धन लोभ-लीन को॥
य सुभाय ि य लगित नागरी नागर नवीन को।
य मेर मन लालसा क रये क नाकर! पावन ेम पीन को॥
मनसा को दाता कह ुित भु बीन को।
तुलिसदास को भावतो, भावतो, बिल जाउ दयािनिध! दीजै दान दीन को॥
ह ीराम! िजस कार मछली को जल, जीव को सुखमय जीवन, सप को मिण, लोभी को धन, नवयुवक को सुंदर
नवयुवती ि य लगती ह, या उसी कार कभी आप मुझ े यार लगगे? ह भगव ! आप मेर दय म भी पिव और
िन काम ेम क उ पि कर द। वेद कहते ह िक आप भ को मनोवांिछत व तुए ँ देनेवाले ह। ह दयािनधान! इस
तुलसीदास को भी इ छत व तु दान कर।
रामचं ! रघुनायक तुम स ह िबनती किह भाँित कर ।
अघ अनेक अवलोिक आपने, अनघ नाम अनुमािन डर ॥
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील निह दय धर ।
देिख आनक िबपित परम सुख, सुिन संपित िबनु आिग जर ॥
भगित-िबराग- यान साधन किह ब िबिध डहकत लोग िफर ।
िसव-सरबस सुखधाम नाम तव, बिच नरक द उदर भर ॥
जानत ह िनज पाप जलिध िजय, जल-सीकर सम सुनत लर ।
रज-सम पर-अवगुन सुमे क र, गुन िग र-सम रजत िनदर ॥
नाना बेष बयान िदवस-िनिस, पर-िबत जेिह तेिह जुगुित हर ।
एकौ पल न कब अलोल िचत िहत दै पद-सरोज सुिमर ॥
जो आचरन िबचार मेरो, कलप कोिट लिग औिट मर ।
तुलिसदास भु कपा-िबलाकिन, गोपद- य भविसंध ु तर ॥
ह ीराम! म िकस कार आपसे िवनय क ? अपने अनंत पाप को देखकर तथा आपका पाप-रिहत नाम सुनकर मेरा
मन भयभीत हो रहा ह। य िप दूसर क दुख से दुखी होना तथा दूसर क सुख म सुखी होना संत का वभाव ह, तथािप
उसे भी म कभी दय म धारण नह करता। दूसर को िवपि म देखकर मुझ े परम सुख और दूसर क सुख को देखकर
मुझ े अपार दुख होता ह। ान, वैरा य, ान आिद का उपदेश देकर म लोग को ठगता रहता तथा तु हार नाम से
अपना भरण-पोषण करता । महापापी होने क बाद भी म इस बात को वीकार नह करता; वयं को पु या मा और
परोपकारी कहलाना मुझ े ि य लगता ह। अपने तु छ गुण को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताना तथा दूसर क े गुण को भी
तु छ समझना—यही मेरा वभाव ह। मेरा मन कभी भी एक पल को एका िच होकर तु हारा सुिमरन नह करता। यिद
म अपने पाप का वणन करने लगूँ तो उनक िनवारण क िलए मुझ े अनेक ज म तक संसार पी अ न म जलना पड़गा।
परतु ह भु! यिद आप एक बार कपा कर दगे तो म इन सबसे मु होकर सहज ही मो ा कर लूँगा।
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावर।
घोर भव-नीर-िनिध नाम िनज नाव र॥
एक ही साधन सब र -िस सािध र।
से किल-रोग जोग-संजम-समािध र॥
भलो जो ह, पोच जो ह, दािहनो जो, बाम र।
राम-नाम ही स अंत सब ही को काम र॥
जग नभ-बािटका रही ह फिल फिल र।
धुवाँ कसे धौरहर देिख तू न भूिल र॥
राम-नाम छाि़ड जो भरोसो कर और र।
तुलसी परोसो यािग माँग ै कर कौर र॥
ह मन! कवल राम-नाम जप, राम-नाम जप। इस संसार पी भयंकर भवसागर को पार करने क िलए राम-नाम नौका क
समान ह। अथा संसार क बंधन से मु होने क िलए राम-नाम का जाप कर। इसी एकमा साधन से अनेक ऋ -
िस याँ ा क जा सकती ह; य िक योग, संयम और समािध को किलयुग पी रोग ने स िलया ह। यह जग
सवथा िम या ह, तू धुएँ क महल क भाँित ण म िदखने और िमटनेवाले सांसा रक पदाथ को देखकर भिमत मत हो।
ह तुलसीदास! जो राम-नाम का आ य छोड़कर दूसर पर िव ास करते ह, वे साम य होते ए भी जीवन भर भटकते
रहते ह।
राम! रािखए सरन, रािख आए सब िदन।
िबिदत ि लोक ित काल न दयालु दूजो,
आरत- नन-पाल को ह भु िबन॥
लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,
नाथ! पै अनाथिनस भये न उ रन।
वामी समरथ ऐसो, ह ितहारो जैसो-तैसो
काल-चाल ह र होित िहये घनी िघन॥
खीिझ-रीिझ, िबहिस-अनख, य एक बार

‘ तुलसी तू मेरो,’ बिल, किहयत िकन?


जािह सूल िनरमूल, होिह सुख अनुकल,
महाराज राम! रावरी स , तेिह िछन॥
ह ीराम! मुझ े िनल , नीच, कगाल और अवगुण से यु पापी का न तो आपक अित र कोई वामी ह और न ही
कोई िठकाना ह। अत: मुझ शरणागत को सदैव अपनी शरण म रखना। य िप संसार म अनेक वामी ह, परतु वे सभी
वाथ से िघर ए ह। म सु ीव क िम और िवभीषण क िहतैषी भगवा राम को छोड़कर कह शरण नह पा सकता। ह
नाथ! आप आि त क दुख का नाश कर उ ह सुख दान करनेवाले ह। आपका नाम लेत े ही वे दुख एवं शोक से मु
हो जाते ह। इसिलए ह कपासागर! अब आप इस तुलसीदास को अपना दास बना ल।
राम-राम, राम-राम, राम-राम जपत।
मंगल-मुद उिदत होत, किल-मल-छल छपत॥
क क लह फल रसाल, बबुर बीज बपत।
हारिह जिन जनम जाय गाल गूल गपत॥
काल, करम, गुन, सुभाउ सबक सीस तपत।
राम-नाम-मिहमा क चरचा चले चपत॥
साधन िबनु िस सकल िबकल लोग लपत।
किलजुग बर बिनज िबपुल, नाम-नगर खपत॥
नाम स तीित- ीित दय सुिथर थपत।
पावन िकए रावन- रपु तुलिस -से अपत॥
ह मन! राम-नाम क िनरतर जाप से दय म ान और आनंद का उदय होता ह; इसक भाव से किलयुग क पाप और
छल भी िछप जाते ह। भला बबूल क बीज बोकर आम कसे ा िकए जा सकते ह? इसिलए ह मन! तू यथ क काय
म उलझकर दुलभ मनु य-ज म को न मत कर। काल, कम, गुण और वभाव—इनक भाव से सभी को दुख और
क भोगने पड़ते ; परतु राम-नाम का जाप करने से इनका भाव न हो जाता ह। इसिलए ह मन! तू िनरतर राम-नाम
का जाप कर। किलयुग क पाप का समूह भी राम-नाम क तेज से न हो जाता ह। राम-नाम ने ही रावण जैसे पापी
और तुलसी जैसे पितत को पावन कर िदया ह।
राम-से ीतम क ीित-रिहत जीव जाय िजयत।
जेिह सुख सुख मािन लेत, सुख सो समुझ िकयत॥
जह-जह जेिह जोिन जनम मिह, पताल, िबयत।
तह-तह तू िबषय-सुखिह, चहत लतह िनयत॥
कत िबमोह ल यो, फ यो गगन मगन िसयत।
तुलसी भु-सुजस गाइ, य न सुधा िपयत॥
जो जीव राम पी ि यतम से ेम नह करता, वह अपना जीवन यथ ही गँवाता ह। ह जीव! तू िजस िवषय-वासना को
सुख मान रहा ह, वे ण भंगुर ह। तूने िजस-िजस योिन म ज म िलया, वहाँ-वहाँ तून े िवषय-वासना क लालसा क ।
िवधाता ने तुझ े वे दान भी िकए, परतु तुझे वा तिवक सुख क ा नह ई। अत: ह तुलसी! यिद तुझे सुख और
आनंद क कामना ह तो भगवा राम क शरण म जा। तुझे सबकछ ा हो जाएगा।
लाभ कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन सपने कब क घटत न काज पराये॥
जे सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत िबनिह बुलाये।
तेिह सुख कह ब जतन करत मन, समुझत निह समुझाये॥
पर-दारा, पर- ोह, मोहबस िकये मूढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरािस जातना ती िबपित िबसराये॥
भय-िन ा, मैथुन-अहार, सबक समान जग जाये।
सुर-दुरलभ तनु ध र न भजे ह र मद अिभमान गँवाये॥
गई न िनज-पर-बु , सु ै रह न राम-लय लाये।
तुलिसदास यह अवसर बीते का पुिन क पिछताये॥
ह जीव! यिद तुम कभी व न म भी मन, वाणी और शरीर से िकसी क काम नह आए तो तु हारा मनु य-ज म यथ ह।
वग, नरक, घर और वन म जो िवषय संबंधी सुख िबना य न क ा हो जाता ह, ह मन! तू उस सुख क ा क
िलए य न कर रहा ह? ह मूख! अ ान क वशीभूत होकर तून े अनेक ककम िकए। इसक कारण तून े िविभ योिनय म
ज म लेकर अनेक क भोगे। य िप संसार म ज म लेनेवाले असं य जीव ह, परतु दुलभ मनु य-शरीर पाकर तुमने
उससे भगवा का सुिमरन नह िकया और अहकार म भरकर उसे खो िदया। िजनक बु तेर-मेर क कारण न नह
ई और शु अंतःकरण से िज ह ने ीराम म िच को लीन नह िकया, ह तुलसीदास! मनु य-योिन का सुअवसर
िनकल जाने पर िफर उ ह पछताने से या िमलेगा? इसिलए भगवा का सुिमरन कर।
ीरामचं कपालु भजु मन हरण भवभय दा णं।
नवकज-लोचन कज-मुख, कर-कज पद कजा णं॥
कदप अगिणत अिमत छिव, नवनील नीरद सुंदर।
पट पीत मान ति़डत िच शुिच नौिम जनक सुतावर॥
भजु दीनबंधु िदनेश दानव-दै य-वंश िनकदनं।
रघुनंद आनँदकद कोशलचंद दशरथ-नंदनं॥
िसर मुकट कडल ितलक चा उदा अंग िवभूषणं।
आजानुभुज शर-चाप-धर सं ाम-िजत-खरदूषणं॥
इित वदित तुलसीदास शंकर-शेष-मुिन-मन-रजनं।
मम दय कज िनवास क कामािद खल-दल गंजनं॥
ह मन! तू कपालु भगवा ीराम का भजन कर। ज म-मरण पी दा ण भय को कवल वे ही दूर करने वाले ह। उनक
ने , मुख, हाथ और चरण लाल कमल क समान ह। उनक स दय क छटा अनिगनत कामदेव से बढ़कर ह। उनक
शरीर का वण नीले मेघ क समान सुंदर ह। उस पर मेघ पी शरीर पर सुशोिभत पीतांबर िबजली क तरह चमक रहा ह।
ऐसे परम पावन व पवाले ीराम को म नम कार करता । ह मन! दीन क बंध,ु सूय क समान तेज वी, दानव और
दै य क वंश का समूल नाश करनेवाले, आनंद दान करनेवाले, चं मा क समान, दशरथनंदन ीराम का भजन कर।
िजनक म तक पर र नजि़डत मुकट, कान म कडल, भाल पर सुंदर ितलक तथा अंग पर सुंदर आभूषण सुशोिभत ह;
िजनक हाथ म धनुष-बाण और कध पर तरकस ह; िज ह ने पल भर म खर-दूषण को जीत िलया; जो िशव, शेष और
मुिनय क मन को स करनेवाले तथा काम, ोध आिद िवकार का नाश करने वाले ह, ऐसे भगवा राम तुलसीदास
क दय म सदा िनवास करते ह।
सकल सुखकद आनंदवन-पु यकत, िबंदुमाधव ं -िवपितहारी।
य यंि पाथोज अज-शंभु-सनकािद-शुक-शेष-मनुवृंद-अिल-िनलयकारी॥
अमल मरकत याम, काम शतकोिट छिव, पीतपट ति़डत इव जलदनीलं।
अ ण शतप लोचन, िवलोकिन चा , णतजन-सुखद क णा शीलं॥
काल-गजराज-मृगराज, दनुजेश-वन-दहन पावक, मोह-िनिश-िदनेशं।
चा रभुज च -कौमोदक -जलज-दर, सरिसजोप र यथा राजहसं॥
मुकट, कडल, ितलक, अलक अिल ात इव, भृकिट, ज, अधरवर, चा नासा।
िचर सुकपोल, दर ीव सुखसीव, ह र, इदुकर-कदिमव मधुरहासा॥
उरिस वनमाल सुिवशाल नवमंजरी, ाज ीव स-लांछन उदार।
परम य, अितध य, गतम यु, अज, अिमतबल, िवपुल मिहमा अपार॥
हार-कयूर, कर कनक ककन रतन-जिटत मिण-मेखला किट देशं।
युगल पद नूपुरामुखर कलहसवत, सुभग सवाग स दय वेश॥ं
सकल सौभा य-संयु ैलो य- ी दि िदिश िचर वारीश-क या।
बसत िवबुधापगना िनकट तट सदनवर, नयन िनरखंित नर तेऽित ध या॥
ह माधव! आप सुख क वषा करनेवाले मेघ ह। परम पु यमय काशी को पिव करनेवाले ह; राग- ेष ारा उ प
होनेवाली िवपि को हरनेवाले ह। ा, िशव, सनकािद मुिनजन, शुकदेव, शेषनाग—सभी भ र बनकर आपक चरण-
कमल म िनवास करते ह। अनेक कामदेव क तरह आपक सुंदरता ह। आपक शरीर पीतांबर नीले बादल म िबजली क
समान सुशोिभत ह। आपक ने कमल क समान ह। आपक सुंदर िचतवन भ को सुख दान करनेवाली ह। आप
काल पी हाथी को मारनेवाले िसंह, रा स पी वन को जलाने क िलए अ न और मोह पी राि का नाश करनेवाले
सूय क समान ह। आपक चार भुजा म शंख, च , गदा और कमल सुशोिभत ह। आप ा ण का आदर
करनेवाले; ोध-रिहत, अज मे, परा मी और अनंत ह। आपक सम त अंग सुंदर और वेश सुंदरतामय ह। तीन लोक
को ऐ य दान करने वाली महाल मी आपक वामभाग म सुशोिभत ह। आप भ क दुख एवं क का नाश
करनेवाले, िव का सृजन-पालन-संहार करनेवाले तथा योिगय को िस याँ दान करनेवाले ह। ह भगव ! मुझ
तुलसीदास को संसार पी सप िनगल रहा ह। ह ग ड़ क सवारी करनेवाले भु! कपा कर मुझ े बचा लीिजए।
सहज सनेही रामस त िकयो न सहज सनेह।
तात भव-भाजन भयो, सुन ु अज िसखावन एह॥
य मुख मुकर िबलोिकये अ िचत न रह अनुहा र।
य सेवत न आपने, ये मातु-िपता, सुत-ना र॥
दै दै सुमन ितल बािसक, अ ख र प रह र रस लेत।
वारथ िहत भूतल भर, मन मेचक, तन सेत॥
क र बी यो, अब करतु ह क रबे िहत मीत अपार।
कब न कोउ रघुबीर सो नेह िनबाहिनहार॥
जास सब नात फर, तास न करी पिहचािन।
तात कछ समु यो नह , कहा लाभ कह हािन॥
साँचो जा यो झूठको, झूठ कह साँचो जािन।
को न गयो को जात ह, को न जैह क र िहतहािन॥
बेद क ो, बुध कहत ह, अ ह कहत ह ट र।
तुलसी भु साँचो िहतू, तू िहय क आँिखन ह र॥
ह कपािसंधु! िदन-रात म अपने मन को मार रखता । काम, ोध, मद, लोभ और मोह—िम बनकर मेर साथ रहते ह,
लेिकन मुझे मारना भी चाहते ह। ये मेर िबना रहते भी नह और मेर साथ ही छल करते ह। मने सम त िवषय भोग िलये
ह िफर भी इन िवकार ने मुझ े जादू क लकड़ी बना िदया ह। ये जैसा चाहते ह, म वैसा ही नाचता । कम ये करते ह,
परतु फल मुझ े भोगना पड़ता ह। ह भु! म ब त ही असमंजस म । आप ही हाथ पकड़कर मुझ े इससे बाहर िनकाल।
आपक कपा ि होने से तुलसी का दुख सरलतापूवक भाग जाएगा।
िसव! िसव! होइ स क दाया।
क नामय उदार क रित, बिल जाउ हर िनज माया॥
जलज-नयन, गुन-अयन, मयन- रपु, मिहमा जान कोई।
िबनु तव कपा राम-पद-पंकज, सपने भगित न होई॥
रषय, िस , मुिन, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माह ।
तब पद िबमुख न पार पाव कोउ, कलप कोिट चिल जाह ॥
अिहभूषन, दूषन- रपु-सेवक, देव-देव, ि पुरारी।
मोह-िनहार-िदवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी॥
िग रजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-िनवासी।
तुलिसदास ह र-चरन-कमल-बर, दे भगित अिबनासी॥
ह क याण पी िशव! आप क णामय ह, स होकर मुझपर दया कर। सब ओर आपक क ित फली ई ह। मुझे
अपनी माया से मु कर। आपक ने कमल क समान ह, आप सवगुण संप ह। आपक कपा क िबना कोई भी
आपक माया को नह जान सकता। ऋिष, िस , मुिन, मनु य, दै य, देवता—करोड़ वष तक आपसे िवमुख रहने क
बाद भी सांसा रक माया से पार नह पा सकते। ह िशव! आप मोह पी अंधकार को दूर करनेवाले तथा शरणागत जीव
का शोक हरनेवाले ह। ह िशव! तुलसीदास को ीह र क े चरण-कमल म अन य भ का वरदान दीिजए।
सुन राम रघुबीर गुसाई, मन अनीित-रत मेरो।
चरन-सरोज िबसा र ितहार, िनिसिदन िफरत अनेरो॥
मानत नािह िनगम-अनुसासन, ास न का करो।
भू यो सूल करम-कोलु ह ितल य ब बारिन पेरो॥
जह सतसंग कथा माधव क , सपने करत न फरो।
लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, ित हस ेम घनेरो॥
पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख ब तेरो।
आप पापको नगर बसावत, सिह न सकत पर खेरो॥
साधन-फल, ुित-सार नाम तव, भव-स रता कह बेरो।
सो पर-कर काँिकनी लािग सठ, बिच होत हिठ चेरो॥
कब क ह संगित- भाव त, जाउ सुमारग नेरो।
तब क र ोध संग कमनोरथ देत किठन भटभेरो॥
इक ह दीन, मलीन, हीनमित, िबपितजाल अित घेरो।
तापर सिह न जाय क नािनिध, मन को दुसह दररो॥
हा र पय क र जतन ब त िबिध, तात कहत सबेरो।
तुलिसदास यह ास िमट जब दय कर तुम डरो॥
ह राम! ह रघुनाथ! अ याय म उलझा आ मेरा मन आपक चरण-कमल को िव मृत कर इधर-उधर िवषय-वासना म
भटक रहा ह। यह न तो वेद क आ ा मानता ह और न ही इसे िकसी का भय ह। इसे कई बार कम पी को म पीसा
गया ह, परतु यह सभी क भूल गया ह। जहाँ स संग अथवा भगवा क कथा होती ह, उस ओर यह भूलकर भी नह
जाता। दूसर क गुण से ई या करता ह तथा अवगुण को सुनकर स होता ह। इसे वयं क बड़-से-बड़ पाप भी
ि गोचर नह होते। जो राम-नाम भवसागर को पार करने का एकमा साधन ह, उसे अपने वाथ हतु गली-गली बेचता
ह। यिद स संग क भाव से यह भगव माग क ओर अ सर होता ह तो िवषय-भोग का लोभ इसे पुन: सांसा रक बंधन
क ओर धकल देता ह। ह भु! म दीन-मन क इस ध को िकस कार सह सकता ? तुलसीदास का उ ार अब
तभी होगा, जब आप वयं उसक दय म िनवास करगे।
सुनु मन मूढ़ िसखावन मेरो।
ह र-पद-िबमुख ल ो न का सुख, सठ! यह समुझ सबेरो॥
िबछर सिस-रिब मन-नैनिनत, पावत दुख ब तेरो।
मत िमत िनिस-िदवस गगन मह, तह रपु रा बड़रो॥
ज िप अित पुनीत सुरस रता, ित पुर सुजस घनेरो।
तजे चरन अज न िमटत िनत, बिहबो ता करो॥
छट न िबपित भजे िबनु रघुपित, ुित संदे िनबेरो।
तुलिसदास सब आस छाँि़ड क र, हो राम को चेरो॥
ह मूख मन! ीह र से िवमुख होकर संसार म िकसी ने सुख नह पाया। मेरी इस सीख को भली-भाँित समझ ले। अभी
भी कछ नह िबगड़ा, उनक शरण म जाने से तेरा भला हो जाएगा। जब से सूय और चं मा भगवा क ने और मन से
अलग ए ह, तभी से अनेक दुख भोग रह ह। िदन-रात वे आकाश म भटकते रहते ह। इनका बल श ु रा भी इ ह
सता रहता ह। य िप गंगा देवनदी ह और तीन लोक म उसका बड़ा यश ह, परतु भगवा क चरण से अलग होकर
आज तक वह िन य बह रही ह। ीराम क भजन क िबना िवपि य एवं दुख का नाश नह होता। वेद ने भी इस बात
को प िकया ह। इसिलए ह तुलसीदास! सम त कार क कामना का यागकर ीराम क चरण का दास बन जा।
सुिम सनेह-सिहत सीतापित। रामचरन तिज निहन आिन गित॥
जप, तप, तीरथ, जोग समाधी। किलमित िबकल, न कछ िन पाधी॥
करत सुकित न पाप िसराह । रकतबीज िजिम बाढ़त जाह ॥
हरित एक अघ-असुर-जािसका। तुलिसदास भु-कपा-कािलका॥
ह मन! भगवा ीराम क चरण को छोड़कर तेरी कह गित नह ह। इसिलए तू ीजानक -व भ का ेमपूवक सुिमरन
कर। य िप ई र- ा क िलए जप, तप, तीथ, त, समािध, योग आिद कई साधन ह, परतु किलयुग म जीव क
बु थर नह ह। इसिलए इन साधन म अनेक िवकार उ प हो गए ह। पु य करने क उपरांत भी पाप का समूल
नाश नह होता, अिपतु िदन- ितिदन ये बढ़ते जा रह ह। अत: ह तुलसीदास! ऐसे म कवल भगवा राम क कपा ही पाप
पी रा स क संहार क िलए सवथा उपयु ह।
सेव िसवचरन सरोज-रनु। क यान-अिखल- द कामधेन॥ु
कपूर-गौर, क ना-उदार। संसार-सार, भुजगे -हार॥
सुख-ज मभूिम, मिहमा अपार। िनगुन, गुननायक, िनराकार॥
यनयन, मयन-मदन महस। अहकार िनहार-उिदत िदनेस॥
बर बाल िनसाकर मौिल ाज। ैलोक-सोकहर मथराज॥
िज ह कह िबिध सुगित न िलखी भाल। ित ह क गित कासीपित कपाल॥
उपकारी कोऽपर हर-समान। सुर-असुर जरत कत गरल पान॥
ब क प उपायन क र अनेक। िबनु संभु-कपा निह भव-िबबेक॥
िब यान-भवन, िग रसुता-रमन। कह तुलिसदास मम ाससमन॥
ह मन! क याणकारी कामधेन ु क समान भगवा िशव क चरण क िनरतर सेवा करो। भगवा िशव कपूर क समान गौर
वण ह, क णा करने म ब त उदार और संसार म आ म प सार-त व ह। उनक गले म सप का हार सुशोिभत ह।
उनक अपार मिहमा ह। वे तीन गुण से अतीत ह तथा सभी गुण क वामी ह। उनक तीन ने ह; वे कामदेव का मदन
करने वाले मह र तथा अहकार प कोहर क िलए सूय क समान ह। उनक म तक पर चं मा सुशोिभत ह। िजनक
कोई गित नह ह, वे भी भगवा िशव का आशीवाद ा कर सुगित ा कर लेते ह। सृि -क याण क िलए उ ह ने
ही हलाहल िवष का पान िकया था। अनेक यास करने क बाद भी भगवा िशव क कपा क िबना संसार क वा तिवक
व प को समझना असंभव ह। तुलसीदास कहते ह िक ह पावती-रमण शंकर! आप मेर भय को दूर करनेवाले ह।
ह र तुम ब त अनु ह क ह ।
साधन-धाम िबबुध दुरलभ तनु, मोिह कपा क र दी ह ॥
कोिट मुख किह जात न भुक, एक एक उपकार।
तदिप नाथ कछ और माँिगह , दीजै परम उदार॥
िबषय-बा र मन-मीन िभ निह होत कब पल एक।
ताते सह िबपित अित दा न, जनमत जोिन अनेक॥
कपा-डो र बनसी पद अंकस, परम ेम-मृदु-चारो।
एिह िबिध बेिध हर मेरो दुख, कौतुक राम ितहारो॥
ह ुित-िबिदत उपाय सकल सुर, किह किह दीन िनहोर।
तुलिसदास येिह जीव मोह-रजु, जेिह बाँ यो सोइ छोर॥
ह ीह र! आपने देवता क िलए भी दुलभ मनु य-शरीर देकर मुझ पर बड़ी अनुंपा क ह। आपक उपकार का वणन
करना मेर िलए असंभव ह। ह नाथ! आप इतने उदार ह िक म जो कछ माँगता , आप िबना संकोच क मुझ े दान कर
देते ह। ह भु! मेरा मन पी म छ िवषय पी जल से एक पल क िलए भी अलग नह होता। इसक कारण म िविभ
योिनय म भटकते ए अनेक दुख भोग रहा । ह ीराम! इस म छ को पकड़ने क िलए आप अपनी कपा क डोरी
बनाएँ। उस पर अपने चरण क िच को अंकश, वंशी को काँटा बनाएँ और उस पर ेम पी चारा िचपका द। इस
कार मेर मन पी म छ को िवषय पी जल से बाहर िनकालकर मेर दुख का हरण कर। ह तुलसीदास! िजसने इस
जीव को मोह म डाला ह, वे ही इसे मु करगे।
ह ह र! कवन दोष तोिह दीजै।
जेिह उपाय सपने दुरलभ गित, सोइ िनिस-बासर क जै॥
जानत अथ अनथ- प, तमकप परब यिह लागे।
तदिप न तजत वान अज खर य , िफरत िबषय अनुरागे॥
भूत- ोह कत मोह-ब य िहत आपन म न िबचारो।
मद-म सर-अिभमान यान- रपु, इन मह रहिन अपारो॥
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथसकल जग यापी।
बेधत निह ीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी॥
म अपराध-िसंधु क नाकर! जानत अंतरजामी।
तुलिसदास भव- याल- िसत तव सरन उरग- रपु-गामी॥
ह ीह र! इसम तु हारा कोई दोष नह ह। म ही िदन-रात उन कम को करता रहा, िजनक ारा व न म भी मो
िमलना दुलभ ह। इि य क भोग अनथ प ह; इनम फसकर अ ान पी कएँ म िगरना होगा—यह जानते ए भी म
िवषय-वासना म आस होकर भटकता रहा। मद, ई या, लोभ, काम, अहकार आिद ान क श ु को िम
समझता रहा। वेद-पुराण म पढ़ता-सुनता रहा िक भगवा राम सम त संसार म िव मान ह। िफर भी मेरा िववेकहीन मन
इस बात को अ वीकार कर पाप-कम म िल रहा। ह राम! ह क णा क खान! म पाप का अथाह सागर ; तुम
अंतयामी यह बात अ छी तरह से जानते हो। इसिलए ह ग ड़गामी! संसार पी सप से डसा आ यह तुलसीदास
आपक शरण म ह। इस पर कपा कर, िजससे संसार पी सप इसे मु कर दूर भाग जाएँ।
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