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पठन सामग्री

कक्षा : VII
पाठ का नाम : भक्ति के भाव – सुमन

कवियों का परिचय : रै दास

जन्म 1388 ई ॰ में वाराणसी में हुआ था


पहचान ‘ रविदास ‘ के नाम से जाने जाते हैं |
और प्रसिद्धि मोची का काम करते हुए भी ईश्वर भक्ति के भजन गया करते थे |
मर्ति
ू पूजा , तीर्थयात्रा जैसे दिखावों पर विश्वास नहीं करते थे |
उनके चालीस पद सिक्खों के पवित्र ग्रंथ ‘ गुरु ग्रंथसाहब ‘ में सम्मिलित किए गए हैं |
दे हांत 1518 ई ॰ वाराणसी में हुआ था |

मीराबाई :

जन्म संवत 1560 में हुआ था |


कृष्ण की भक्तिन श्री कृष्ण की परम साधिका
इनके गीत विभिन्न राग – रागनियों में आबद्ध , कृष्ण – भजन के रूप में आज भी पाए
जाते हैं |
विवाह उनका विवाह चित्तौड़ के महाराण i सांगा के बड़े सुपत्र
ु भोजराज के साथ हुआ था |
बचपन से ही कृष्ण की भक्ति में लीन रहने वाली मीरा अपना घर – वार , राजपरिवार
छोड़कर साधु – संतों की संगति में कृष्ण – भक्ति के गीत गाने लगी |

रसखान :

जन्म विक्रम संवत 1660 ई ॰ में हुआ था |


कृष्ण के परम श्री कृष्ण के परम भक्त थे |
भक्त कृष्ण का दर्शन पाने के लिए वे बार – बार ब्रजभमि
ू पर जन्म लेना चाहते थे |
रचनाएँ ‘ प्रेम वाटिका ‘ और ‘ सज
ु ान रसखान ‘ उनकी प्रमख
ु रचनाएँ हैं |
मत्ृ यु उनकी मत्ृ यु विक्रम संवत 1690 में हुई थी |

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कठिन शब्दार्थ :

क्रम शब्द अर्थ


संख्या
1 बास सुगंध

2 चितवत एकटक दे खते रहना

3 अमोलक बहुमूल्य

4 हरख प्रसन्न

5 लकुटि लाठी

6 कामरिया छोटा – सा कंबल

7 तड़ाग सरोवर

रै दास

अब कैसे छूटे राम नाम रट लागी |

प्रभु जी , तम
ु चंदन हम पानी , जाकी अंग – अंग बास समानी

प्रभु जी , तुम घन वन हम मोरा , जैसे चितवत चंद चकोरा |

प्रभु जी , तुम दीपक हम बाती , जाकी जोति बरै दिन राती |

प्रभु जी , तम
ु मोती हम धागा , जैसे सोनहि मिलत सह
ु ागा |

प्रभु जी , तुम स्वामी हम दासा , ऐसी भक्ति करै रै दास |

भावार्थ : हे प्रभु ! हमारे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है , वह कैसे छूट सकती है ? अब मैं
आपका परम भक्त हो गया हूँ | जो चंदन और पानी में होता है | चंदन के संपर्क में रहने से पानी में उसकी
सुगंध फैल जाती है , उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो गई है | आप आकाश में आ
छाए काले बादल के समान हैं , मैं जंगल में नाचने वाला मोर हूँ | जैसे बरसात में घुमड़ते बादलों को दे खकर
मोर खुशी से नाचता है , उसी भाँति मैं आपके दर्शन को पा कर खश
ु ी से भावमुग्ध हो जाता हूँ | जैसे चकोर

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पक्षी सदा अपने चंद्रमा की ओर ताकता रहता है उसी भाँति मैं भी सदा आपका प्रेम पाने के लिए तरसता रहता
हूँ |

हे प्रभु ! आप दीपक हो , मैं आपकी बाती के समान सदा आपके प्रेम में जलता हूँ | प्रभु आप मोती के
समान उज्ज्वल , पवित्र और सुंदर हैं | मैं उसमें पिरोया हुआ धागा हूँ | आपका और मेरा मिलन सोने और
सुहागे के मिलन के समान पवित्र है | जैसे सुहागे के संपर्क से सोना खरा हो जाता है , उसी तरह मैं आपके
संपर्क से शुद्ध हो जाता हूँ | हे प्रभु ! आप स्वामी हो मैं आपका दास हूँ |

मीराबाई :

पायो जी मैंने राम – रत्न – धन पायो |

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायों |

जनम – जनम की पँज


ू ी पाई , जग में सबै खोवायो |

खरचे न खट
ू े , चोर न लट
ू े , दिन – दिन बढ़त सवायो |

सत की नाव खेवटिया सतगरु


ु , भवसागर तर आयो |

‘ मीरा ‘ के प्रभु गिरधर नागर , हरख – हरख जस गायों |

भावार्थ : मीराबाई प्रेम और भक्ति में इतनी सराबोर है कि उसे राम नाम कि भक्ति प्राप्त होने के बाद उसे
दनि
ु या कि कोई और चिंता नहीं है | मीराबाई को राम नाम के रतन की प्राप्ति हो गई है ,जो अमल्
ू य है | ऐसी
अमल्
ू य वस्तु भक्ति के अलावा और कुछ नहीं हो सकती | जो गरु
ु के द्वारा प्राप्त हुई है , यह जन्म – जन्म
की पँज
ू ी अर्थात कमाई होती है |जिसे आसानी से प्राप्त नहीं की जा सकती , इसके लिए साधना की
आवश्यकता होती है |

यह ऐसी पँज
ू ी है जो लूटने का या खोने का भय नहीं होता ,यह सदै व भवसागर से पार लगाने का धन है | यह
केवल सत्य का आचरण और प्रभु की भक्ति के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है | यह पँज
ू ी नहीं खर्च की जाती है
और ना ही बांटी जाती है | यह सतगुरु से मिलने की एकमात्र निधि और कमाई है , मेरा जो अपने ईश्वर ,
मित्र , सखा और पति के रूप में कृष्ण की सदै व भक्ति करती है |वे अमल्
ू य निधि को प्राप्त कर स्वयं को
सौभाग्यशाली मान रही हैं |

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रसखान :

या लकुटि अरु कामरिया पर , राज तिहूँ पुर को तजि डारों |

आठहु सिद्धि नवों निधि को सुख , नंद के गाय चराय बिसारों |

रसखानि कबों इन आंखिन सौं , ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारो |

कोटिक हौं कलधौत के धाम , करील के कंु जन ऊपरि वारौं |

भावार्थ : रसखान जी कहते हैं कि श्री कृष्ण के हाथों की लकुटि और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज भी
त्याज्य है | आठों सिद्धि और नवों निधि का सुख भी जब श्री कृष्ण नंद की गाय चराते हैं उस लीला रस के
आगे फीका है | भक्ति भाव में विभोर होकर रसखान कहते हैं कि यदि कभी इन आँखों से ब्रज के वन , बाग
कंु ज इत्यादि निहारने का अवसर मिले तो सोने से बने अनगिनत महलों को भी इन मधुवन की झाड़ियों के
ऊपर मैं न्योछावर कर दँ ू |

पत्र लेखन

औपचारिक पत्र लेखन

पत्र लेखन एक कला है l इसमें लेखक और पाठक के मध्य आत्मीयता एवं सामीप्यता स्थापित होती है l यह
संदेश भेजने एव प्राप्त करने का सुगम एवं सस्ता साधन है l अधिक प्रभावशाली पत्र वही हो सकता है जिसकी
भाषा सरल एवं भाव स्पष्ट हों l औपचारिक पत्र कार्यालयों, संपादकों, सरकारी विभागों, व्यापारियों,कंपनियों आदि
को लिखे जाते हैं l

परीक्षा भवन

नई दिल्ली

प्रधानाचार्या जी

‘अ’ विद्यालय

प्रशांत विहार, रोहिणी

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दिल्ली – 110085

दिनांक – 23 अकटूबर ,2021

विषय -

संबोधन(महोदय, महोदया)

पहला अनच्
ु छे द – पत्र लिखने का कारण

दस
ू रा अनच्
ु छे द – विषय का विस्तत
ृ वर्णन

धन्यवाद

पत्र प्राप्तकर्ता के साथ संबंध (आपका /आपकी आज्ञाकारी शिष्य / शिष्या)

क.ख.ग

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