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Ram Autar Topic
Ram Autar Topic
राम कौन थे उनका अवतार क्यों हुआ ,इस महत्वपूर्ण तथ्य को समझना बहुत आवश्यक है .
भगवान् शिव ने माता पार्वती को समझाते हुए कहते है कि
हरि अवतार हेतु जेहि होई | इदमिथ्यम कही जाई न सोई
अर्थात भगवान् का अवतार इस कारण हुआ है यह के वल यही कारण है नहीं कहा जा सकता .
अब मैं इस सम्पूर्ण विषय को रामचरित मानस के अनुसार व्याख्या करूँ गा . सबसे पहले मैं
भगवान् गणेश जी की प्रार्थना करके इस विषय की विवेचना करूं गा .
जिनका नाम स्मरण करने से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं और जो गणों के नायक है वो
सुन्दर हांथी के मुख वाले दयालु हम पर कृ पा करे जो बुद्धि के भण्डार है और शुभ गुण के भवन
हैं.
अजहुं जासु उर सपनेहु काऊ | बसहु लखन सिय रामु बटाऊ||
राम धाम पथ पाईहि सोई | जो पथ पाव कबहु मुनि कोई ||
आज भी जिसके ह्रदय में स्वप्नों में भी राम ,लक्ष्मण और सीता आ जाये तो उसे राम
धाम का रास्ता मिल जायेगा जिस पथ को कभी कोई मुनि पाने के अधिकारी हैं.
मैं भगवान् गणेश जी और माँ सरस्वती जी की वन्दना करके और उनका सादर स्मरण
कर, राम के अवतार की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करने का प्रयास करता हूँ.
श्रद्धा और विश्वास के स्वरुप मैं माता पार्वती जी और भगवान शिव की वंदना करता हूँ
,जिनके विना सिद्ध जन अपने अंतःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते .
प्रनवउ पवन कु मार खल वन पावक ज्ञान घन |
जासु ह्रदय आगार बसहि राम सर चाप धरि ||
मैं पवन पुत्र हनुमान जी को प्रणाम करता हूँ जो दुष्टों के वन को भस्म करने के लिए
ज्ञान रूपी बादल के समान हैं ,जिनके ह्रदय रुपी घर में धनुषधारी भगवान् राम निवास करते हैं
.
मैं आदि कवि बाल्मीक मुनि और गोस्वामी तुलसीदास जी को प्रणाम कर उनके लिखे
महाकाव्य के आधार पर भगवान् राम के अवतार का विशद वर्णन करता हूँ . भगवान् राम का
इतना महात्म क्यों है इस पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने कितना सुन्दर वर्णन किया है .
भगवान् राम के चरण जिस भूमि ,गाँव देश में पड़े उनके सौभाग्य की सराहना करते हुए
कहते है .
जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं | तिनहिं नाग सुर नगर सिहाहीं||
के हि सुकृ ती के हि घरी बसाये | धन्य पुण्य मय परम सुहाए ||
तुम पुनि राम राम दिन राती ,सादर जपहु अनंग आराती
राम सो अवध नृपति सुत सोई ,की अज अगुन अलख गति कोई
और हे कामदेव के शत्रु ; आप भी दिन रात आदरपूर्वक राम राम जपा करते हैं . ये राम वही
अयोध्या के राजा के पुत्र हैं ? या अजन्मा ,निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं .
अर्थात क्या राम दसरथ के पुत्र है अथवा परम ब्रह्म है.
शिव जी ने कहा की जो निर्गुण ब्रह्म है वही भक्तो के हित के लिए सगुन रूप धारण
करता है.
झूंठे उ सत्य जाहि विनु जाने, जिमि भुजंग विन रज पहिचाने ||
जेहि जाने जग जाई हेराई ,जागे जथा सपन भ्रम जाई ||
जिसके बिना जाने झूंठ भी सत्य मालूम होता है ,जैसे बिना पहचाने रस्सी में सांप का भ्रम हो
जाता है ; और जिसको जान लेने पर जगत का उसी प्रकार लोप हो जाता है ,जैसे जागने पर
स्वप्न का भ्रम जाता रहता है.
बंदउ बाल रूप सोई रामू ,सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ||
मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ||
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू, मायाधीश ज्ञान गुण धामू ||
अर्थात भगवान् राम जो दशरथ के पुत्र के रूप में अवतार लिया है वही ब्रह्माण्ड नायक
जगत को प्रकाशित करने वाले भगवान् है ,जो मंगल के भवन है और अमंगल का नाश करने
वाले है ऐसे बाल रूप राम को जो दशरथ के आँगन में विहार करने वाले को मैं सादर प्रणाम
करता हूँ .
भगवान शिव ने पार्वती जी के पुनः यह पूंछने पर कि क्या राम कोई अलग ब्रह्म है या
वही हैं जिन्होंने अवतार लिया था .
प्रश्न अत्यंत सुन्दर और आज भी प्राशंगिक है और इस बात को स्पष्ट करना बहुत ही
आवश्यक था . इसलिए शिव जी ने बहुत कड़े और साफ़ शब्दों में इस प्रकार कहा –
एक बात नहि मोहि सुहानी | जदपि मोह बस कहेउ भवानी ||
तुम जो कहा राम कोऊ आना | जेहि श्रुति गाव धरहि मुनि ध्याना ||
कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिशाच |
पाखंडी हरि पद बिमुख जानहि झूंठ न साच ||
परन्तु हे पार्वती ; एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी ,यद्यपि वह तुमने मोहबस ही कही है .
तुमने जो यह कहा कि वो राम कोई और हैं ,जिन्हें वेद गाते हैं और मुनि जन जिनका ध्यान
धरते हैं .
जो मोह रूपी पिशाच से ग्रस्त हैं ,पाखंडी हैं ,भगवान् के चरणों से विमुख हैं और जो झूंठ और
सच कु छ भी नहीं जानते ,ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते सुनते हैं .
सगुन और निर्गुण के बारे में कु छ यूँ समझाया –
सगुनहि अगुनहिं नहिं कछु भेदा | गावहि मुनि पुराण बुध बेदा ||
अगुन अरूप अलख अज जोई | भगत प्रेम बस सगुन सो होई ||
अर्थात सगुन और निर्गुण में कोई भेद नहीं है . मुनि ,पुराण ,पंडित और वेद सभी ऐसा
कहते हैं . जो निर्गुण ,अरूप ,अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है ,वही भक्तों के प्रेम वश सगुन हो
जाता है .
जिस परम ब्रह्म को निर्गुण ब्रह्म मानते हैं और जिसका आदि अंत किसी को नहीं पता
वही दशरथ नंदन श्री राम हैं .
जेहि इमि गावहि वेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान
सोई दसरथ सुत भगत हित कोशल पति भगवान्
जिसका वेद और पंडित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं ,वही
दसरथ नंदन ,भक्तों के हितकारी , अयोध्या के स्वामी भगवान् श्री राम चन्द्र जी हैं .
भगवान के बाम भाग में जगत की मूल कारन रूपा आदिशक्ती श्री जानकी जी सुशोभित
हैं .
तब मनु ने कहा कि मेरी ऐसी मनोकामना है जो कहने में संकोच होता है और आप को
देने में सुगम है.
भगवान ने कहा –
सकु चि विहाय मांग नृप मोही | मोरे नहि अदेय कछु तोंही ||
मनु जी ने भगवान् से कहा की मैं आप जैसा पुत्र चाहता हूँ-
देखि प्रीति सुनि वचन अमोले | एवमस्तु करूणानिधि बोले ||
आपु सरिस खोजों कह जाई .मैं नृप तनय होब मैं आई ||
अर्थात भगवान ने कहा कि हे राजन मुझसे संकोच छोंड़कर मागो ,ऐसा कु छ नहीं जो मैं
तुम्हें न दे सकूं . मनु ने कहा कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ . भगवान ने उनकी प्रीति और
अमोल वचनों को सुनकर एवमस्तु कहा कि ऐसा ही होगा . मैं अपने समान कहाँ खोजूं मैं ही
आपका पुत्र होउं गा .
रानी ने भी कहा कि जो चतुर राजा ने मांगा मुझे भी वही अच्छा लगा .रानी ने भक्ति
का भी वरदान मांग लिया . राजा ने फिर कहा कि मुझे पुत्र मोह हो पर मुझे कोई मूढ़ न कहे .
भगवान् ने कहा की आप लोग अभी इंद्र की राजधानी अमरावती में निवास करो फिर
समय आने पर आप अयोध्या के राजा , रानी होगे तब मैं आपके घर में अंशों सहित अवतार
लूँगा तथा मेरी आदिशक्ति भी अवतार लेगी.
इसप्रकार यह ध्यान देने की बात है कि राम वस्तुतः कौन थे और उनका अवतार कै से
हुआ . भगवान राम को ठीक से जान लेने पर उनके परम पावन चरित्र सुनने की लालसा और
बढ़ जायेगी .
इधर प्रतापभानु राजा ,उसके छोटे भाई अरिमर्दन तथा उनके सचिव धर्मरूचि तथा राजा
का समस्त परिवार विप्र श्राप के कारण राक्षस हो गए . प्रतापभानु ,रावन हुआ ,उसका छोटा भाई
कु म्भकरण तथा सचिव विभीषण हुए .ये सब पुलस्त्य ऋषि के पुत्र विश्रवा ऋषि और दैत्य कन्या
कै कसी के पुत्र हुए , यद्यपि ये सब उत्तम पुलस्त्य कु ल में पैदा हुए परन्तु विप्र श्राप के कारण
अघ रूप राक्षस हुए .
इनके अनगिनत पुत्र ,पौत्र राक्षस के रूप में हुए, जिन्होंने स्वर्ग लोक सहित पूरे विश्व
को जीत लिया रावन की आयु एक लाख वर्ष बताई गई है .
इन तीनो भाइयों ने घनघोर तपश्या की और ब्रह्मा ने उन्हें वरदान भी दिया . रावन ने
जब अजर अमर होने का वरदान चाहा तब बह्मा ने कहा कि कु छ और वर मांग लो तब रावन
ने कहा कि हम मनुष्य और वानर को छोंड़कर किसी के मारे न मरे ,तब ब्रह्मा ने एवमस्तु कह
कर रावन को ऐसा वरदान दे दिया .
कु म्भकर्ण के बड़े भारी शरीर को देखकर उसे इन्द्रासन की जगह सरस्वती को प्रेरित कर
निद्रासन का वर मागने पर विवश कर दिया और कहा की यह ६ माह सोयेगा और एक दिन के
लिए जागेगा . जब भी इसे असमय जगाया जाएगा तभी निश्चर कु ल का नाश होगा.
विभीषण ने भगवान् की भक्ति मागी .
रावन पूरे ब्रह्माण्ड को जीत लेता है और अपने सौतेले भाई कु बेर से विस्वकर्मा द्वारा
निर्मित लंका को जीतकर अपना राज्य स्थापित करता है. अपने सौतेले भाई कु बेर से पुष्पक
विमान जीत कर ले आता है. उसका पुत्र मेघनाद , इंद्र को जीतकर ,अपने पिता रावन को उसके
कै द से मुक्त कराकर इंद्रको बंदी बना लेता है जिसे ब्रह्मा ने आकर छु ड़ाया और उसे इन्द्रजीत
नाम दिया ,तथा इंद्र को छोड़ने के बदले दिव्य रथ जो अपराजेय था प्राप्त कर लेता है.
राक्षस इतना अत्याचार करते थे कि जिस नगर ,गाँव में ब्राह्मण ,गाय पाते उस गाँव में
आग लगा देते हैं. आये दिन स्वर्ग लोक में भगदड़ मची रहती थी और सभी देवता सुमेर पर्वत
की गुफाओं में छु प गए .
जहाँ तक ब्रह्मा की श्रष्टि थी उसके सभी नर नारी दसमुख के बस में थे .
देव जक्ष गन्धर्व नर किन्नर नाग कु मारि |
जीति वरी निज बाहुबल बहु सुन्दर बर नारि ||
अर्थात देवता ,यक्ष ,गन्धर्व ,मनुष्य ,किन्नर और नागों की कन्यायों तथा बहुत सी अन्य
सुन्दरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपने भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया .
राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ,हिंसा पर
जिनकी प्रीति है उनके पापो का क्या ठिकाना .वे ऐसा कार्य करते थे जिससे धर्म नष्ट हो और
इसप्रकार समस्त विश्व को त्रस्त कर रखा था .
सभी देवता ,मुनि प्रथ्वी मिलकर ब्रह्मा जी के पास गए कि रावण के अत्याचार से हमें
मुक्ति दिलाने का उपाय बताइये . तब ब्रह्मा जी ने कहा कि हमारे पास कोई उपाय नहीं है .
भगवान् परम ब्रह्म ही कु छ कर सकते हैं.
फिर सब लोग चर्चा करते है कि उस भगवान को कहां खोजने जाए .कोई कहता कि
भगवान बैकुं ठ में है कोई कहता कि वही भगवान छीरसागर में रहते हैं . जिसके अन्दर जैसी
भक्ति है वो बता रहे थे .
तब शिव जी ने कहा कि –
तेहि समाज गिरिजा मैं रहेउँ अवसर पाई वचन एक कहेउँ
हरि व्यापक सर्वत्र समाना | प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना
हे पार्वती मैं भी उस समाज में था और अवसर पाकर मैंने एक बात कही. परम ब्रह्म परमेश्वर
सर्वत्र समान रूप से विद्यमान है , लेकिन वह प्रेम से प्रार्थना करने पर ही प्रकट होता है.
यंहा यह समझने की बात है कि भगवान हर जगह है और प्रेम से प्रकट होता है. जब सबने
स्तुति की तो भगवान् प्रकट हो गए और कहा कि मैं आप लोगों के कष्ट को जानता हूँ और
आप लोग डरो मत , मैं अंशो के साथ अवतार लूँगा . मेरी आदि शक्ति भी अवतार लेगी . मैंने
कश्यप और अदिति को पूर्व में ही वर दे दिया था और वो दसरथ तथा कौशल्या के रूप में हैं मैं
उनके घर में अवतार लूंगा .
इसके बाद ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं को समझाया कि तुम सब लोग वानर ,भालू हो
जाओं और भगवान के आने का इंतज़ार करो.
यहाँ यह स्पष्ट है की वो लोग देवता के अंश रूप बन्दर ,और भालू के भेष में थे किन्तु
उनमे अतुलित बल था . इस प्रकार बंदरो के द्वारा भगवान की सहायता करने के लिए पूर्व श्राप
के कारण निर्धारित था . यह कहना कि बंदरों से राम ने सहायता ली ,हमारी अधूरी जानकारी है
वास्तव में सभी देवता लोगो ने इस प्रकार अवतार लिया ,क्योंकि नारद जी के श्राप की बात
रखनी थी . डार्विन की परिकल्पना कि मनुष्य बन्दर से आंगे क्रमबद्ध विकाश के बाद मनुष्य
हुआ है पूरी तरह गलत है.
भगवान के मनुष्य रूप में अवतार लेने की एक और रोचक कथा है जिसे इस कारण
समझना जरुरी है क्योंकि अज्ञानी लोग भगवान की नर रूप में लीला को मानव की तरह देखते
है. हरि की माया से मुनि और ग्यानी भी मोहित हो जाते है.
तुलसीदास ने लिखा –
नारद श्राप दीन्ह एक बारा | एक जन्म यहि लगि अवतारा ||
गिरिजा चकित भई सुनि वाणी | नारद विष्णु भक्त पुनि ज्ञानी ||
शिव जी ने पार्वती जी को बताया कि एक बार नारद जी ने भगवान को श्राप दे दिया था
कि आपको मनुष्य रूप में अवतार लेना होगा और पत्नी वियोग में भटकना होगा और आपको
वानर ही सहायता करेंगे, एक जन्म इसीकारण अवतार लेना पड़ा .
कथा संछे प में इस प्रकार है कि नारद जी एक बार हिमालय की एक गुफा में तपश्या
करने लगे तब इंद्र ने उनकी तपश्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा ,इंद्र को लगा कि
नारद उसका इंद्र पद प्राप्त करना चाहते हैं.
किन्तु कामदेव ने मुनि के पैर पकड़ लिए और इस तरह नारद जी ने कामदेव को जीत
लिया . भगवान शिव ने ही के वल कामदेव को जीता था और उसको अपनी तीसरी नेत्र से भस्म
कर दिया था .
अब नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उन्होंने कामदेव को जीत लिया है और वो
इसको बताने ब्रह्म लोक गए जहा ब्रह्मा ने इसको आंगे चर्चा करने से मना किया . तब नारद
जी भगवान शिव के पास गए वहा भी उन्होंने कामदेव के जीतने की बात बताई तब शिव जी ने
उनको अपना प्रिय जानकर समझाया कि आप कभी भी इसका जिक्र विष्णु भगवान से न करें
,चर्चा चलने पर भी उसको टाल जाए ,किन्तु नारद जी नहीं माने और छीरसागर में भगवान
विष्णु से मिलने चले गए और वहां पर कामदेव को जीतने की बात कु छ अभिमान के साथ कही
,यद्यपि उसे उनकी कृ पा बताया . विष्णु भगवान् समझ गए कि नारद जी के अन्दर अभिमान
आ गया है जिसे मैं उखाड़ फें कूं गा .
इसके लिए विष्णु भगवान ने एक लीला की ,उन्होंने माया से एक विशाल नगर बसा
दिया जिसमे शीलनिधि नाम के राजा की कन्या विश्वमोहनी नाम की राजकु मारी थी जिसका
स्वयम्बर हो रहा था .
नारद जी ने जाकर पता किया और राजा से मिले और उनके द्वारा अपनी कन्या को
दिखाया गया और उसके भाग्य को पूंछा .
नारद जी ने कन्या की सुन्दरता को देखते ही अपनी सुध बुध खो बैठे और कु छ बनाकर
उसके लक्षण बता दिए जबकि उन्होंने कन्या का हाँथ देखकर यह समझ लिया कि इस कन्या से
जिसकी शादी होगी वो अज़र अमर और विश्व विजेता वन जाएगा .
किन्तु इस रूप में कन्या से विवाह नहीं हो सकता इसलिए उन्होंने विष्णु भगवान की
प्रार्थना की और उनके प्रगट हो जाने पर उनसे अपना स्वरुप देने की बात कही . तब भगवान ने
व्यंग पूर्वक यह बात कही कि यदि रोगी कु पथ मांगता है तो उसे नहीं दिया जाता इसलिए हम
वही करेंगे जिससे आपका परम हित हो .
तुलसीदास ने लिखा –
जेहि विधि होइहैं परम हित नारद सुनहु तुम्हार |
सोई हम करब न आन कछु वचन न मृषा हमार ||
यद्यपि विष्णु भगवान ने अटपट वाणी कही परन्तु बुद्धि भ्रम के कारण नारद जी को
समझ नहीं आया . और भगवान ने अत्यंत कु रूप बानर का रूप दे दिया जो और किसी को नहीं
दिखाई देता था ,किन्तु स्वयंबर में राज कन्या ने उनका मर्क ट वदन और भयंकर रूप देखकर
उस ओर फिर मुड़कर भी नहीं देखा .
इसी बीच विष्णु भगवान ने राजा का रूप धारण कर स्वयंबर में पहुंचे तो राज कन्या ने
वरमाला उनके गले में डाल दी . राज कन्या को विष्णु भगवान राजा का रूप धारण कर ले गए
,तब नारद जी बड़े दुखी हुए .
उनके बगल में बैठे दो रूद्र गण सब देख रहे थे और यह भी जान रहे थे कि भगवान ने
उनको बन्दर का रूप दिया है ,इसलिए उन्होंने नारद जी से कहा –
नीक दीन हरि सुन्दर ताई | निज मुख मुकु र विलोकहु जाई
अर्थात भगवान् ने आपको अच्छी सुन्दरता दी है ,जाकर सीसे में अपना मुहं तो देख लीजिये .
ऐसा कहकर हँसते हुए दोनों भागे . तब नारद जी ने पानी में अपना रूप देखा जो अत्यंत
भयंकर था ,तब उनको लगा कि भगवान ने उनके साथ छल किया और हरि यानी विष्णु का रूप
न देकर हरि माने बन्दर का रूप दिया है . क्रोध में आकर उन्होंने दोनों रुद्र गणों को अत्यंत
भयंकर श्राप दे दिया कि जाओ तुम लोग राक्षस हो जाओ ,तुमने एक मुनि की हंसी उड़ाई है
इसलिए अब तुम फिर किसी मुनि की हंसी नहीं उडा पाओगे .
इसके बाद नारद जी भारी क्रोध में आंगे विष्णु भगवान से मिलने चल दिए कि आज या
तो मैं उन्हें श्राप दूंगा या मर जाऊँ गा क्योंकि मेरी संसार में बड़ी हंसी कराई है . कु छ दूरी पर ही
विष्णु भगवान उसी राज कन्या और लक्ष्मी जी के साथ मिल गए .
बीचहि पंथ मिले दनुजारी | संग रमा सोई राजकु मारी ||
नारद जी भारी क्रोध में होने के कारण विष्णु भगवान को बहुत बुरा भला कहा और श्राप
दे दिया कि-
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा | सोई तनु धरहु श्राप मम एहा ||
कपि आकृ ति तुम कीन्ह हमारी | करिहहि कीस सहाय तुम्हारी ||
मम अपकार कीन्ह तुम भारी | नारि बिरह तुम होब दुखारी ||
आपने मुझे जिस रूप को धरकर ठगा है वही शरीर आपको धारण करना पडेगा , अर्थात आप
को मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ेगा यही मेरा श्राप है.
अर्थात नारद जी ने मनुष्य रूप में जन्म लेने और स्त्री विरह में दुखी होने तथा बंदरों की
सहायता लेने की बात अपने श्राप में ही कह दी थी .
श्राप शीस धरि हरषि हिय प्रभु वहु विनती कीन्हि |
निज माया कै प्रबलता करषि कृ पानिधि लीन्हि ||
जब हरि माया दूरि निवारी | नहि तंह रमा न राज कु मारी |
तब मुनि अति सभीत हरि चरना | गहे पाहि प्रनतारति हरना ||
श्राप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारदजी से बहुत विनती की
और कृ पानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली।
जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहां न लक्ष्मी ही रह गयी न ही
राजकु मारी ही। तब मुनिने अत्यंत भयभीत होकर श्रीहरि के चरण पकड़ लिये और कहा हे
शरणातगत के दुःखों को हरने वाले मेरी रक्षा की जीये।
मृषा होऊ मम श्राप कृ पाला | मम इच्छा कह दीन दयाला |
मैं दुर्वचन कहे बहुतेरे | कह मुनि पाप मिटहि किमि मेरे ||
जपहु जाई शंकर सतनामा | होइहि ह्रदय तुरत विश्रामा
कोऊ नहि शिव समान प्रिय मोरे | अस परतीति तजहु जनि भोरे |
हे कृ पालु। मेरा श्राप मिथ्या हो जाये। तब दीनों पर दया करने वाले भगवान ने कहा कि
यह सब मेरी ही इच्छा से हुआ है। मुनिने ने कहा मैंने आपको अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे
पाप कै से मिटंगे।
भगवान ने कहा जाकर शंकरजी के सतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति
होगी। शिव जी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है। इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना।
जेहि पर कृ पा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।।
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई।।
हे मुनि,शिवजी जिसपर कृ पा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय
करके जाकर पृथ्वी पर विचरो . अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आवेगी।
जब नारद जी मोह से मुक्त होकर जा रहे थे तब वे दोनों हर गण डरे हुए नारद जी के
चरणों में गिर पड़े और बताया कि हम लोग शिव के गण है अतः हमारे श्राप का अनुग्रह करने
का उपाय बताइए .
निसिचर जाई होब तुम दोउ | वैभव बिपुल तेज बल होऊ
भुज बल बिस्व जितब तुम जहिया | धरिहहिं विष्णु मनुज तनु तहियाँ
अर्थात तुम बहुत पराक्रमी राक्षस होओंगे और सारे विश्व को जीत लोगे तब तुमको मारने
के लिए विष्णु भगवान मनुष्य रूप धारण करेंगे .
इसप्रकार राम ने मनुष्य रूप में अवतार धारण किया . यह समझाना जरुरी है की राम थे
कौन और उनके अनुचर के रूप में कै से बंदरो ने सहायता की . यह सब पहले से ही निर्धारित था
.
अयोध्या नरेश महाराज दसरथ को चिंता होती है कि चौथपण हो जाने के बाद भी कोई पुत्र
नहीं हुआ . तब वो गुरु वशिष्ट के घर जाकर अपनी चिंता व्यक्त की . तब बशिष्ट जी ने
समझाया और श्रंगी ऋषि को बुलाकर पुत्र काम यज्ञ कराया .
वशिष्ट जी ने दसरथ जी को पहले ही बता दिया था –
धरहु धीर होइहैं सुत चारी | त्रिभुँवन विदित भगत भय हारी
वशिष्ट जी उन १० मानस पुत्रों जो सबसे पुराने ऋषियों में है जिनका जन्म ब्रह्मा के
मन की इच्छा होने पर प्रथम चार ऋषियों सनत ,सनन्दन , सनातन एवं सनत्कु मार के बाद हुआ
था . इन ऋषियों में मारीचि , बशिष्ट , भ्रगु ,पुलह ,पुलस्त्य ,क्रतु ,अंगिरा , अत्रि ,दक्ष ,नारद .
वशिष्ट जी को ब्रह्मा ने अयोध्या राज्य के पुरोहित के रूप में जाने के लिए जब कहा
तो वशिष्ट जी पुरोहित का कार्य नहीं ले रहे थे तब ब्रह्मा जी ने समझाया कि पुत्र आंगे बहुत
लाभ है क्योंकि इसी रघुवंश में परम ब्रह्म राम अवतार लेंगे जिनके गुरु होने का सौभाग्य तुम्हें
मिलेगा . वशिष्ट जी पहले से जानते थे कि दसरथ के यंहा भगवान राम अवतार लेंगे ,तभी
उन्होंने कहा कि हे राजन धैर्य रखो आपके यहाँ चार पुत्र पैदा होंगे जो त्रिलोकी में विख्यात होंगे
और जो भक्तों का उद्धार करेंगे .
यज्ञ के पूर्ण होने पर अग्नि देवता एक पात्र में पायस लेकर राजा दसरथ को देते है कि
हे राजन आप इसको यथायोग्य अपनी रानियों में बाँट दो.
दसरथ जी ने अपनी तीनो रानियों को बुलाकर पायस को इसप्रकार बांटा . पायस के दो
भाग किये ,उसमे से आधा कौशल्या को दिया . फिर आधे के दो भाग किये और उसमे से आधे
को कै के यी को दिया . और आधे को दो भागो में बांटकर एक भाग को कौशल्या के हांथों और
शेष को कै के यी के हाँथ से सुमित्रा को दिए .
समय आने पर तीनो रानियां गर्भ सहित हो गई .
जोग लग्न गृह बार तिथि सकल भये अनुकू ल
चर अरु अचर हर्षजुत राम जन्म सुखमूल
नौमी तिथि मधु मास पुनीता | शुक्ल पक्ष अभिजित हरि प्रीता
मध्य दिवस अति शीत न घामा | पावन काल लोक विश्रामा
अर्थात जिस समय राम के प्रकट होने का समय था उस समय योग ,लग्न ,गृह ,बार
,तिथि सब अनुकू ल हो जाते हैं . भगवान राम का जन्म मध्य दिवस में अभिजित मुहूर्त में हुआ
.
दसरथ जी को ६०००० वर्ष(साठ हजार वर्ष ) बीत जाने पर राम का अवतार हुआ .
गोस्वामी तुलसीदास के राम चरित मानस के अनुसार चैत्र शुक्ल की नवमी तिथि तथा पुनर्वसु
नक्षत्र के चतुर्थ चरण एवं कर्क लग्न में भगवान श्री राम का जन्म हुआ .
गुरु और चन्द्र लग्न में हैं .पांच गृह – शनि ,मंगल ,गुरु ,शुक्र तथा सूर्य अपनी अपनी
उच्च राशि में स्थिति हैं. गुरु ,कर्क राशि में उच्च का होता है .
गुरु लग्न में चन्द्र के साथ स्थित है जिससे प्रबल कीर्ति देने वाला गजके सरी योग
बनता है .लेकिन शनि चतुर्थ भाव में अपनी उच्च राशि तुला में स्थित होकर लग्न को पूर्ण द्रष्टि
से देख रहा है. मंगल सप्तम भाव में अपनी उच्च राशि मकर में स्थित होकर लग्न को पूर्ण
द्रष्टि से देख रहा है . इससे प्रबल राजभंग योग बनता है.
भगवान राम मंगली थे .शनि और मंगल ने श्री राम को अनेक संघर्षों के लिए विवश
किया . राहु ,तीसरे भाव में होने से अरिष्टों का समन करता है. ग्रहों के प्रभाव बस राम को
दाम्पत्य ,मात्र ,पित् एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकी . यद्यपि दशम भाव में उच्च
राशि मेष में स्थित सूर्य ने श्री राम को एक ऐसे सुयोग्य शासक के रूप में प्रतिष्ठित किया कि
उनके अच्छे शासनकाल को राम राज्य की आज भी दुहाई दी जाती है.
पौराणिक आख्यानो के अनुसार राम राज्य ११००० वर्ष तक चला . राम का जन्म लगभग
८६९१२२ वर्ष पूर्व हुआ था (१८ .२ .२०२० तक की गणना ) . राम त्रेता युग के अंत में हुए और
जिस दिन त्रेता युग समाप्त हुआ उस दिन वो निज लोक में चले गए . उनका प्रथ्वी में समय
बाल्मीक रामायण के अनुसार ११००० वर्ष था . द्वापर युग का कु ल समय ८६४००० वर्ष और
कृ ष्ण का जन्म ५२५२ वर्ष पहले हुआ था . तथा कृ ष्ण १८.२.३१०२ ईशा वर्ष पूर्व निज लोक को
गए और उसके दूसरे दिन से कलियुग लग गया .
जिस समय भगवान राम के जन्म का समय हुआ ,ब्रह्मा जी और समस्त देवतागण
आकाश में अपने अपने विमान में चढ़कर आकाश से पुष्प वर्षा करने लगे .
भगवान प्रकट हुए और वो अपनी चारों भुजाओं में अपने प्रिय आयुध धारण किये हुए थे .
माता कौशल्या ने जब स्तुति की , कि आप शिशु लीला कीजिये तब भगवान बालक रूप होकर
रुदन करने लगे . दसरथ जी ने पुत्र का जन्म सुनकर मानो ब्रह्मानंद का अनुभव किया .
विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार |
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ||
ब्राह्मण ,गौ ,देवता और संतो के लिए भगवान ने मनुष्य अवतार लिया .उनका शरीर
माया और उसके गुणों से परे और उनका दिव्य शरीर अपनी इच्छा से बना है.
इस अवसर पर शिव जी ने पार्वती से कहा –
औरउ एक कहउ निज चोरी | सुन गिरिजा अति दृढ मति तोरी
कागभुसुण्डी संग हम दोऊ | मनुज रूप जानइ नहीं कोई
परमानन्द प्रेम सुख फू ले | बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले
यह शुभ चरित जान पे सोई | कृ पा राम के जापर होई
हे पार्वती तुम्हारी बुद्धि श्री राम जी के चरणों में बहुत दृढ है ,इसलिए मैं और भी अपनी
छिपाव की बात कहता हूँ सुनो ; कागभुशुंडी और मैं दोनों वहां साथ साथ थे ,परन्तु मनुष्य रूप
में होने के कारण हमें कोई जान न सका .
परम आनंद और प्रेम के सुख में फू ले हुए हम दोनों मगन मन से गलियों में तन मन की
सुधि भूले हुए फिरते थे . परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है ,जिस पर श्री राम जी की
कृ पा हो .
अर्थात भगवान राम के जन्म के समय स्वयं शिव भगवान ,कागभुशुंडी के साथ यह
उत्सव देखने के लिए मनुष्य का रूप धारण किये अयोध्या की गलियों में मगन मन से फू ले
घूम रहे थे . इसी से आपको राम भगवान को यथार्थ रूप में समझना चाहिए .
कागभुशुंडी जी का एक कथन कि जब जब भगवान राम अयोध्या में जन्म लेते है तब तब वो
अयोध्या में जाकर बालकरूप राम की बाल लीलाए देखते हैं . और ५ वर्ष वहीँ रहते है .
जब जब राम मनुज तनु धरही . भक्ति हेतु लीला बहु करही.
तब तब अवधपुरी मैं जाऊं .प्रभु लीला विलोकि हरषाऊँ
जन्म महोत्सव देखऊ जाई . वरष पांच तंह रहऊँ लोभाई .
अर्थात राम का हर कल्प में अवतार होता है और कागभुशुंडी जी एक कल्प इंतजार करते
है कि कब जन्म होगा कब वो जन्म महोत्सव देखूंगा और पांच वर्ष अपने प्रभू के साथ उनकी
बाल लीला देखूंगा .
धन्य है अयोध्या और धन्य है वो गाँव जहाँ से वो गुजरे ,धन्य है चित्रकू ट जहां
भगवान राम ने १० वर्ष से अधिक का वनवास काटा ,धन्य है भारत भूमि जहा भगवान राम ने
जन्म लिया ,और धन्य है हम सब भारतवासी जो यहाँ रहते है .
यदि हम भक्ति भावना से उनके वन गमन के पावन मार्ग में चल कर उन बटोही सिय,
राम और लक्ष्मण को ध्यान में ला सके तो हमारा जीवन सफल हो जाए.
कै के यी से एक पुत्र और सुमित्रा से दो पुत्र पैदा हुए . पुत्रों के नामकरण का अवसर
जानकर राजा ने गुरु वशिष्ट को बुलाकर नाम करन करवाया .
जो आनंद सिन्धु सुख रासी | सीकर ते त्रैलोक्य सुपासी ||
सो सुख धाम राम अस नामा | अखिल लोक दायक विश्रामा||
जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं , जिनके एक कण से तीनो लोक सुखी होते है , उन
आपके सबसे बड़े पुत्र का नाम राम है जो सुख के भवन और सम्पूर्ण लोको को शान्ति देने वाले
हैं .
राम के विमुख होकर चाहे जितना प्रयत्न कर ले कोई भव बंधन से नहीं छु ड़ा सकता .
जो माया चराचर जगत को नचाती है वह माया भी प्रभु से भय खाती है.
भगवान् उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं . ऐसे प्रभु को छोंड़कर कहो किसका
भजन किया जाए ? मन ,वचन और कर्म से चतुराई छोंड़कर भजते ही रघुराई कृ पा करेंगे .
पहले भगवान राम का और उनके सभी भाइयों का चूडाकरण संस्कार गुरु जी करवाते है
और जब कु मार हो जाते है तब गुरु के गृह में अर्थात गुरुकु ल में पढने जाते है .
गुरु गृह पढन गए रघुराई | अल्प काल विद्या सब आई
जाकी सहज स्वांस श्रुति चारी | सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी ||
गुरु वशिष्ट के यहाँ सभी भाई पढने जाते हैं . और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याये आ
गई . चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वांस हैं ,वे भगवान् पढ़े यह अचरज की बात है .
राम चन्द्र जी भाइयों सहित वन में शिकार करने जाते है और मृगों का शिकार करके
लाकर पिता को दिखाते है.
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा | मातु पिता गुरु नावहि माथा
आयुष मांगि करहि पुर काजा | देखि चरित हरषइ मन राजा ||
व्यापक अकल अनीह अज निर्गुण नाम न रूप |
भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप ||
श्री रघुनाथ जी प्रातः काल उठकर माता,पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर
नगर का काम करते हैं . उनके चरित्र देख देख कर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं .
जो व्यापक ,निरवयव ,इच्छारहित ,अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है ,न रूप ,वही
भगवान् भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम चरित्र करते हैं .
बाल्मीक रामायण के अनुसार जब राम की आयु लगभग १५ वर्ष की हो जाती है तब
विस्वामित्र उन्हें मागने के लिए अयोध्या आते है.
हम ऐसे ब्रह्मांड नायक परम ब्रम्ह परमेश्वर के नर रूप में किये चरित्र पर चर्चा कर रहे
है और उनके दो महत्व पूर्ण वन भ्रमण के रास्तों का विस्तृत वर्णन करेंगे .
पहला वन भ्रमण मुनि बिस्वामित्र के साथ उनके यज्ञ को पूर्ण करने सिद्धाश्रम गए और
पहले ताड़का राक्षसी का वध किया फिर यज्ञ को विध्वंस करने आये सुबाहु राक्षस का बध और
मारीच को विना फर का बाण मारकर १०० योजन समुद्र के उस पार फें कना . मुनि का यज्ञ
संपन्न करने के बाद राजा जनक के बुलावे पर जनकपुर जाकर शिव का धनुष तोड़कर जानकी
जी से विवाह होना .
दूसरा वन गमन जब उन्हें उनके पिता दसरथ द्वारा ,कै के यी के कहने पर चौदह वर्ष का
वनवास दिया गया . इस दौरान भगवान राम ने भक्तों के लिए जो चरित्र किये और जिन रास्तों
से गुजरे उन रास्तों की पहचान करना और उस दौरान उनकी विभिन्न ऋषियों और प्रमुख लोगों
से मुलाक़ात के प्रशंगों का वर्णन किया जाएगा .
राम की जन्म कुं डली
पुत्र काम यज्ञ
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हे | प्रगटे अगिन चरू कर लीन्हे
व्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुण बिगत बिनोद
सो अज प्रेम भगति बस कौशल्या के गोंद
बालक रूप में प्रभु श्री राम
काग भुशुण्डी जी बालक रूप में प्रभु राम के साथ खेलते हुए
लघु वायस वपु धरि हरि संगा | देखऊँ बाल चरित बहु रंगा
गुरु गृह गए पढन रघुराई | अल्प काल बिद्या सब आई