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अनुपम श्रीवास्तव
सहायक प्रोफ़े सर (अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान)
कें द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
भक्ति-साहित्य के अध्येता आलोचकों ने मीराँ के काव्य में अद्भुत मर्मस्पर्शी प्राभाविकता के दर्शन किए हैं। शास्त्रीय सम्मति के सन्दर्भ में कदाचित अमानक और अनगढ़
होते हुए भी उनकी काव्याभिव्यक्ति में अपूर्व आकर्षण है। इस दृष्टि से उनकी गहन अन्तश्चेतना और विस्तृत बाह्य-लोकगत प्रभावों के सन्दर्भ समाकलन के अतिरिक्त
उनके काव्य का एक महत्वपूर्ण पक्ष है: उनकी भाषा और भाषिक-कला। प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य शैलीय दृष्टि से मीराँ की काव्य भाषा के विविध पक्षों का विहंगावलोकन
करना है।
4. मारवाड़ी
राणा जी रूठयाँ वारो देस राख सी
हरि रूठयाँ कु म्हलास्याँ हो माइ
निश्चय ही उपरोक्त कु छ चयनित उद्धरणों के माध्यम से मीराँ की काव्य-भाषा में स्रोतगत, रचनागत, प्रकार्यगत और ऐतिहासिक-आधारगत सन्दर्भों में शब्द-चयन के
व्यापक परास और आयाम उभरते हैं। स्रोतगत दृष्टि से विचार करें तो इन पदों में देशीयता का खरापन भी है, सांस्कृ तिक निष्ठाओं का तत्सम-बोध भी, विराट लोकानुभव
का तद्भाव भी और सहज स्फू र्तिजन्य परिवेशी और विदेशी भाषागत शब्दों का आदान-सम्मान भी। प्रयोग और परास की पृष्ठभूमि में मीराँ के शब्द भण्डार का वर्गीकरण
इस प्रकार किया जा सकता है -
(क) भाषा-स्रोत के आधार पर:
1. संस्कृ त तत्सम -
पति, मुकु ट, गोपाल, दुष्ट, दोष, विचार , मृत्यु, उद्यम, गरल, अमृत, रस, रसना, रसिक, भक्ति, श्रंखला, जगदीश, अंग, भगवान, श्री , पूर्व, जन्म, वर ,
ज्ञान, कं चन, चरण, तन, मन, पंच, पवन, प्रेम, प्रिय, रंग, चेतन, साधु, निन्दा, रोष, आभूषण, भोग, भाव, संसार, विष, चरणामृत, क्ले श, देह, हरि, अधर,
मधुर, तिलक, छवि, लोक, रूप, दिवस, व्याकु ल, विरहिणी, कठिन, घर, सुधा, लीला, कुं ज, पीताम्बर, वेद, पतित, पावन, दधि, धृत, स्थावर-जंगम
आदि ।
2. संस्कृ त तदभव -
मोर, निसान, सुपना, हल्दी, दूल्हा, सुहाग, साँवरो, ब्रज, चूड़ला/ली/लो, सत, कं कर, कपूर, गुंज, मिरच, बुद्ध, जडि़त, स्याम, सांइ्र, चन्दा, सूरज, धरनि,
अकास, पीहर, रतन, सराप, बानी, भगति, राज, सास, सोभा, पुन्न, मारग, मरजा(/ज्या)दा, लाज, सेंदुर, सेज, सिंगार, भगत, साँची, काँची, कारन, पीर,
मूरख, नैन/ना, मूरति, सूरति, विसाल, सुन्न, जोवन, जेठ, पंछी, कोयल, मारग, दरसन(ण), जुग, घर, जतन, किवार/री, बदला, देस, संतोख, भरम,
हाथी, वैजन्ती, साँप, सालिगराम, निरमल, सिंघासन, खेवटिया, करम, नीच, भीर, पाँच, हाड़, जज्ञ, आँसू, मथनियाँ, माखन, साघ, तंदुल, मूदड़ी,
पिव्पिउ्पी, छिन, विथा, गाँव, पीयूख, पलका, मग, हिय, धनी, साजन, सैंया, बालमा, तन्त्मन्त, औषद, जन्तर, मुग(गु)ट, विज्जु, हिरण्यकस्यप आदि ।
3. राजस्थानी(मारवाडी) # गुजराती:
हिवडो, ढाढ़ी , औखद , नेणा, वणज, लूण, मगद, लापसी, तलफ, ताळो , पैड़ा, खगवालो, चढ़ेतो, वैद, चितवाँ , चितवोणाँ, छव्छिव, मुगट, मण, कडू ला,
बणराई, रैण, दिण, नौसर, आगुळियाँ, राखड़ी, चुड़लो, नीण, ऐडी, कानूड़ो, पैंजणि, रूड़ो , अलूणी , दाध्या , कू यां, क्रोड, रूम-रूम आदि।
4. देशज:
झुरमुट, झख, झरोखा, झाँकी, बेर-बेर, छाछ, डगर, नीको, बाट, ठाकु र।
5. विदेशी (अ़रबी-फ़ारसी):
दिलगीरी, मोती, महल, फू ल, महीना, पखावज, हरामी, बाग, जौहरी, तीर-कमान, कलेजा, गुलफाम, जुल्फ, बन्दा, बन्दगी, खता, खत, खुमारी, सहर,
सिरताज, साहिब, खरची, सरम, दरद, दिवानी, कागद, खूबी आदि।
(ख) सर्वप्रथम टेक की अर्धाली, फिर कु छ शब्दों के साथ प्रथम अर्धाली (टेक) की पुनरावृत्ति, तदुपरान्त शेष पंक्तियाँ, जो टेक से डेढ़ या दोगुनी मात्रा दीर्धता
वाली होती हैं । उदाहरणार्थः
’’ निपट बंकट छवि अटके
मोरे नैना निपट बंकट छवि अटके
देखत रूप मदन मोहन को पियत पियूख न मटके ’’ xxx
(ग) बिना किसी टेक या अर्धाली के पूर्ण समान मात्रा दीर्धता वाली पंक्तियों के पद। उदाहरणार्थः
’’ अब नहिं मानूँ राणा थारी मैं घर पायो गिरधारी
मनि कपूर की एक गति है कोऊ कहाँ हजारी’ xxx
उपरोक्त सभी पदो में अंत्यानुप्रास ( तुक ) का निर्वाह तीन प्रकार से हुआ है - आद्यन्त समान अन्त्यानुषक प्रायः दो दो या कु छ पंक्तियों में समुच्चय
पूर्वक समान क्रम से एक अन्त्यानुप्रास, इसकी दो स्थितियाँ है: आधारपंक्ति(टेक) से स्वतन्त्र, आधारपंक्ति के अधीन तथा अनिश्चित अन्त्यानुप्रास- निर्वाह।
(घ) मीराँ के कु छ पद सम्वादपरक हैं (यथा: मीराँ-ऊदा, सास-बहू, मीराँ-राणा आदि)। इन पदों में प्राय: तुकान्तता की प्रवृति दृष्टिगत नही होती। उदाहरणार्थः
(ऊदा) भाभी मीराँ साधाँ को संग निवार
सारो सहर थाँरी निन्दा करै,
(मीराँ) बाई ऊदा की तो पड्या झख मारो
मन लागो रमता राम सूँ ’’ xxx
इन पदों में कु छ ऐसे हैं जिनमें एक के स्थान पर दो अर्धालियाँ आती हैं और फिर शेष पंक्तियाँ। उदाहरणार्थः
थाने वरज वरज मैं हारी
भाभी मानों बात हमारी
राणा रोष कियो थाँ ऊपर साधों में मत जारी ’’ xxx
(घ) पदों के अतिरिक्त मीराँ के काव्य में कु छ छोटे मीटर वाले छन्द, गीत, भजन और दोहे भी आते हैं। उपरोक्त सभी छन्द जैसा कि पूर्वोक्त है, काव्यशास्त्रीय
मानदण्डों की अपेक्षा लोक और शास्त्रीय संगीत की मर्यादाओं से अधिक सुसंगति रखते हैं। मीरा के भजनों में बहुलता के घटते क्रम से सत्तर के लगभग राग मिलते हैं
जिनमें पीलू सर्वप्रमुख है।
(घ) प्रतीक-बिम्ब और विचलन:
मीराँ का काव्य लोक और शास्त्र के आडम्बरों के प्रति विद्रोह का काव्य है। स्वभावतः मीरा ने अपने दीर्ध रागानुभव, संघर्षानुभव और लोकानुभव से जो कु छ सीखा जाना
और महसूस किया, उसकी प्रबल प्रतिक्रिया और उत्कट अभिव्यक्ति उनकी काव्यभाषा में समादृत है। यह भी ध्यातव्य है कि मीराँ का विद्रोह लोक और शास्त्र के
आडम्बरों/दोहरावों से है न कि स्वयं लोक और शास्त्र से अतः उनके काव्य में प्रयुक्त प्रतीकों-बिम्बों और विचलनों का अध्ययन इसी सन्दर्भ में किया जाना चाहिये।
मीराँ के काव्य का मूलस्वर माधुर्यपरक है जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्षतः उनके रागात्मक सम्वेगों और दमित-अवचेतन से सन्दर्भ ग्रहण करता है। ये प्रतीक और बिम्ब सीधे
सरल भी है और गूढ़-जटिल भी। दोनों प्रकार का एक-एक उदाहण देखिए-
‘‘ मधुर मन्द हाँसी
दसन दमक दाडिम दुति चमकै चपला सी
कु ण्डल सी अलक झलक कपोलन पर छाई
तथा
‘‘ सरवर मधि मनो मीन मकर मिलन आई ’’
मीराँ के काव्य में प्रतीकों और बिम्बों का एक बड़ा और महत्वपूर्ण अंश है उनकी भक्ति और उपासना सम्बन्धी शब्दावली जो उन्होंने अपने समकालीन और पुरातनपन्थी
विभिन्न भक्ति-सम्प्रदायों से ग्रहण की है। एक उदाहरण देखिए-
‘‘ मै गिरधर रंग राती सैंया मैं गिरधर रंगराती
पँचरँग चोला पहन सखी मै झिरमिट खेलन जाती ’’ xxx
मीराँ की काव्यभाषा में रूप-रचनात्मक और अर्थपरक दोनों प्रकार के विचलनों का सशक्त प्रयोग प्राप्त होता है। ये दोनों के प्रकार के विचलन उनकी भावाभिव्यंजना की
सटीकता, प्रखरता और उत्कष्टता को प्रस्तुत करते हैं। कु छ उदाहरण देखिए-
‘‘ हो गये स्याम दुहिन के चन्दा
मधुवन जाए भये मधु-बनियाँ, हम पर डारो प्रेम को फन्दा
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, अब तो णेह पडी कु छ मन्दा ’’
‘‘ पुन्न के मारग चालतां झख मारो संसार ’’
‘‘ करमगत टाराँ णाही टराँ ’’
मीराँ की काव्यभाषा में उक्त अन्तिम उदाहरण के समान किसी एकल वस्तु, तथ्य, व्यक्ति विषयक बहुलता/सघनता या आदर का अर्थ व्यक्त करने के लिये पुँल्लिंग बहुवचन
क्रिया के प्रयोग की व्यापक प्रवृत्ति मिलती है।’ इसके साथ ही काव्य में विचलन-वक्रता और प्रेषणीयता उत्पन्न करने के लिये यह विविधता क्रियासाधक प्रव्ययो में ही
नहीं अपितु सर्वनाम, अव्यय कारक, वाच्य-वृति आदि के बोधक/अंकन में भी परिलक्षित होती है।
उन्होंने प्रचुर भाव से मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग किया है। मुहावरे एवं लोकोक्ति प्रयोग के कु छ उदाहरण दृष्टव्य हैं -
मुहावरे:
मीरा गिरधर हाथ बिकानी, लाज सरम कु ल की मरजादा सिर से दूर करी, प्रान तजूँ करवत ल्यूँ कासी, काटि कलेजो मैं धरूँ रे कौआ तू ले जाइ, जोगिया जी
निसि दिन जोऊँ बाट, रैन में सोवत मोरा नैना न लगे, नैन ललचावत जीवरा उदासी, तन मन धन गिरधर पर वारूँ , मीरा हरि रंग राचूँगी, म्हारो अँचरा ना
छु ये बाको घूँघट खोले हो, फरुखे बाँई आँखड़ी... आदि।
लोकोक्तियाँ:
हसती की असवारी पाछे लाल कू तिया भूसी, गज सूँ उतर गधे नहीं चढ़स्याँ या तो बात न होई, नाचण लागी तब घूँघट कै सो, लोक लाज तिनका क्यूँ तोर्यो,
दाइया ऊपर लूण लगायो, हिबड़ो करवत सार्यो, सोती को सुपणा आबिया जी सुपणा बिस्वा बीस, लोकां ने लोकां री भाव म्हे म्हांको राम लड़ावस्या, साधु
सन्त हिरदे वसै हथले की लाग्यो पाप, प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल, स्याम म्हासूँ ऐड़ी डोले हो और न सूँ खेले धमात, मने लागी कटारी प्रेम जी... आदि।
इस प्रकार मीरा का काव्य अभिव्यक्ति के धरातल पर अपनी व्यापक और बहुआयामी पहुँच और पहचान के साथ उपस्थित होता है। विस्तृत शब्द-सामथ्र्य, भाषाधिकार
और गहन सृजन- सम्वेदना का समाहार करके अपने अन्तर्निहित तमाम भाषागत, रचनागत और पाठगत वैषम्यों/व्यतिक्रमों के बावजूद यह अपना मूल भाव जन-जन तक
सहज सम्प्रेषित एवं स्पन्दित करने में सफल रहता है। फिर भी निस्सन्देह मीरा की काव्य-भाषा के विस्तृत भाषालोचन और पाठालोचन की अद्यतन आवश्यकता और
अपेक्षा है, न के वल उनके काव्य के वस्तुबोध की दृष्टि से अपितु स्वयं मीराँ के भावबोध की दृष्टि से भी।