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हिषय हहन्दी

प्रश्नपत्र स. एि शीषषक P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहिकालीन काव्य)

इकाई स. एि शीषषक M10 : कबीर की भाषा

इकाई टैग HND_P5_M10


प्रधान हनरीक्षक प्रो. रामबक्ष जाट

प्रश्नपत्र -सयोजक प्रो. चौथीराम यादि

इकाई-लेखक डॉ. अहनल शमाष

इकाई-समीक्षक प्रो. जिरीमल्ल पतारख

भाषा-सम्पतादक प्रो. देिशकर निीन

पताठ का प्रारूपत
1. पताठ का उद्देश्य
2. प्रस्तािना
3. कबीर की भाषा के सम्बन्ध मं हिद्वानं के हिचार
4. शब्द भण्डार
5. कबीर द्वारा प्रयकि हिहभन्न भाषाओं के शब्द
6. काव्य-रूपत और छन्द
7. अलकार
8. प्रतीक योजना
9. उलटबाँहसयाँ
10. व्यग्यात्मक भाषा
11. कोमलकान्त पतदािली
12. हनष्कषष

HND : हहन्दी P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहिकालीन काव्य)


M10 : कबीर की भाषा
1. पताठ का उद्देश्य
इस पताठ के अध्ययन के उपतरान्त आपत -

 कबीर की रचनाओं मं प्रयकि भाषा के हिहभन्न रूपतं से पतररहचत हो सकं गे।

 कबीर की रचनाओं की हिहभन्न शैहलयं की जानकारी ले पताएँग।े

 कबीर की रचना और भाषा के सम्बन्ध मं हिहभन्न हिद्वानं के मत जान पताएँग।े

2. प्रस्तािना
कबीर मूलतः भि थे। उन्हंने न तो काव्य-शास््र का अध्ययन ककया था, न ही कहिता करना उनका उद्देश्य था। किर भी
उनकी रचनाओं मं भािं और हिचारं का अकन हिलक्षण भाषा मं हुआ है। शैली ऐसी चमत्कारपतूणष है कक उनकी उहियाँ
आज लोक मं कहाितं और लोकोहियं के रूपत मं प्रचहलत हं। सृजन-सौष्ठि की दृहि से उनकी रचनाओं का महत्त्ि
असहन्दग्ध है।

3. कबीर की भाषा के सम्बन्ध मं हिद्वानं के हिचार


हहन्दी साहहत्य के इहतहास मं कबीरदास हजतने लोकहप्रय हं, भाषा-प्रयोग के कारण उतने ही हििादास्पतद भी। उनकी
भाषा प्रयकहि के सम्बन्ध मं हिहभन्न हिद्वानं के अलग-अलग मत हं। स्िय कबीर ने अपतनी भाषा के सम्बन्ध मं हलखा है –
हम पतूरब के पतूरहबया जात न पतूछे कोय ll
हमको तो सोई लखै धकर पतूरब का होय ll
‘बीजक’ की इस साखी के आधार पतर कई हिद्वानं ने कबीर की भाषा को ‘पतूरबी’ कहा है।

आचायष रामचन्र शकक्ल के अनकसार “बीजक की भाषा सधकक्कड़ी, अथाषत राजस्थानी-पतजाबी हमली खड़ी बोली है, पतर

रमैनी और सबद मं गाने के पतद हं हजनमं काव्य की ब्रजभाषा और कहं-कहं पतूरबी बोली का भी व्यिहार है (रामचन्र
शकक्ल, हहन्दी साहहत्य का इहतहास, पतृ.80)।”

श्यामसकन्दर दास के अनकसार “कबीर की भाषा का हनणषय करना टेढ़ी खीर है, क्यंकक िह हखचड़ी है... कबीर मं के िल शब्द
ही नहं, कियापतद, कारक हचह्नाकद भी कई भाषाओं के हमलते हं, किया पतदं के रूपत अहधकतर ब्रजभाषा और खड़ी बोली
के हं। कारक हचह्नं मं कै , सन, सा आकद अिधी के हं, को ब्रज का है और थं राजस्थानी का। इस पतँचमेल हखचड़ी का
कारण यह है कक उन्हंने दूर-दूर के साधक सन्तं का सत्सग ककया था, हजससे स्िाभाहिक ही उन पतर हभन्न-हभन्न प्रान्तं की
बोहलयं का प्रभाि पतड़ा (श्यामसकन्दर दास, ‘कबीर ग्रन्थािली’ की भूहमका, पतृ. 48)।”

रामकक मार िमाष के अनकसार, “कबीर के काव्य का व्याकरण पतूिी हहन्दी रूपत ही हलए हुए है। उसमं स्थान-स्थान पतर पतजाबी

प्रभाि अिश्य दृहिगत होता है (रामकक मार िमाष, ‘सन्त कबीर’ की भूहमका)।”

बाबूराम सक्सेना उन्हं अिधी का प्रथम सन्त कहि मानते हं।

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M10 : कबीर की भाषा
उपतयकषि हिचारं से यह बात स्पति है कक कबीर के यहाँ कई भाषाओं का
मेल है। इसहलए उनकी रचनाओं मं भाषा और व्याकरण का हनहश्चत और हस्थर रूपत नहं हमलता। कबीर की भाषा पतर
हिचार करते समय लगातार ध्यान रखना होगा कक उन्हंने दोहे, पतद इत्याकद हलखे नहं कहे थे। बहुप्रचहलत हिषय है, कक
कबीर उत्तर भारत मं एक स्थान से दूसरे स्थान पतर घूमते रहते थे। सम्भितः इसहलए उन्हंने प्रादेहशक बोहलयं के शब्दं
का प्रयोग अपतनी कहिता मं ककया है। उनके कहे गए पतद और साहखयाँ कई पतीकढ़यं तक मौहखक रूपत मं ही रहे, अतः उनके
मूल रूपत मं पतररितषन की सम्भािना से भी इनकार नहं ककया जा सकता। जब अलग-अलग प्रदेशं मं उनकी रचनाओं को
हलहपतबद्ध ककया गया होगा, तब प्रदेश हिशेष का प्रभाि भी भाषा पतर अिश्य आया होगा, पतररणामस्िरूपत आज हमारे
सामने कबीर की कहिता के जो पताठ उपतलब्ध हं, उनमं भाषा के हिहभन्न रूपत कदखाई पतड़ते हं। इसके साथ ही “लगभग

1000 ई. के अपतभ्रश के हिहभन्न रूपतं से आधकहनक भारतीय भाषाओं का हिकास प्रारम्भ हुआ तथा लगभग 1500 ई. तक
उन भाषाओं का रूपत स्पति हुआ। अतः इन पताँच सौ िषं के बीच हजतने भी कहि हुए हं, उनकी भाषा सहन्धकालीन है।

हिहभन्न व्याकरहणक प्रिृहत्तयं के बीज उनकी भाषाओं मं हं (महंर, कबीर की भाषा, पतृ. 21)।” कबीर की रचनाएँ भी इसी
मं शाहमल हं।

4. शब्द भण्डार
शब्द भण्डार की दृहि से कबीर की भाषा मं अिधी, ब्रज, खड़ी बोली, राजस्थानी, पतजाबी आकद के शब्द और रूपत हमलते

हं। इसके अहतररि कबीर पतर नाथ पतन्थ का प्रभाि भी रहा है, उस समय अपतभ्रश भाषा अपतने अहन्तम स्िरूपत मं थी। अतः
अपतभ्रश के शब्द भी कबीर की कहिता मं देखने को हमलते हं। कबीर ने सस्कृ त को ‘कू पत जल’ कहा है, लेककन इसके बािजूद
तत्सम शब्द उनके काव्य मं हमल जाते हं। रहस्यिाद और दशषन से जकड़ी पतदािली मं तत्सम शब्दं का समािेश है।
तत्कालीन समय मं मकग़ल शासन के अन्तगषत दरबार की भाषा फ़ारसी थी और इस्लाम की भाषा अरबी। अतः इन भाषाओं
के शब्दं का समािेश भी उनके साहहत्य मं हुआ। कबीर जब इस्लाम धमष मं व्याप्त पताखण्डं पतर कटाक्ष करते हं तो उनकी
भाषा मं अरबी-फ़ारसी शब्दं का प्रयोग करते हं, और जब िे हहन्दू धमष की रूकढ़िाकदता की पतोल खोलते हं तो तत्सम
शब्दं का प्रयोग करते हं। इसके अहतररि हिहभन्न देशज शब्दं का प्रयोग भी उनकी रचनाओं मं हमलता है। कबीर पतेशे से
जकलाहा थे। अतः उनकी कहिता मं जकलाहं, बकनकरं, दस्तकारी, हाट-बाज़ार, खेती-ककसानी आकद क्षे्र ं मं प्रयकि शब्द भी
हमलते हं।
5. कबीर द्वारा प्रयकि हिहभन्न भाषाओं के शब्द

खड़ी बोली

भारी कहूँ तो बहु डरूँ, हलका कहूँ तो झूठ l


मं का जानं राम को, नैनं कबहुँ न दीठ ll
उदूष

मीयाँ तकम्ह्सो बोल्याँ िाणी नहं आिै l


हम मसकीन खकदाई बन्दे, तकम्हारा जस महन भािै ll

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M10 : कबीर की भाषा
अल्लाह अिली दं का साहहब, जारे नहं िक रमाया l
मकरहसद पतीर तकम्हारै है को, कहौ कहाँ थै आया ll
अरबी-िारसी
हमरकत रहबरहुँ समाँ मं खकदाष सकभाँ हिहसयार l
हमहजमं आसमाँन खलिलक गकन्दा मकसककल कार ll

राजस्थानी
आँखहड़या प्रेम कसाइयाँ, लोग जाने दूखहड़याँ l
साईं अपतने कारनै, रोई रोई रातहड़याँ ll

अिधी
साध सागत हमली करहु हिचारा l
ब्रज
घर जारौ
भोजपतकरी
जलहै तहन बकनी पतार न पतािल l

िस्तकतः कबीर ने अपतनी रचनाओं मं शब्दं का प्रयोग भाि, हिचार, हिषय और व्यहि के अनकरूपत ककया है। कबीर की
भाषा को हिद्वानं ने ‘सधकक्कड़ी’ नाम भी कदया है। आचायष हजारी प्रसाद हद्विेदी ने कबीर की भाषा की व्याकरहणक और
भाषा िैज्ञाहनक हिशेषताएँ नहं हगनाई। उन्हंने कबीर की कहिता के कलात्मक उपतकरण के रूपत मं भाषा का हििेचन
ककया और उसका सम्बन्ध कबीर के व्यहित्ि से जोड़ा। हजारीप्रसाद हद्विेदी के शब्दं मं कहं तो “भाषा पतर कबीर का
जबरदस्त अहधकार था। िे िाणी के हडक्टेटर थे। हजस बात को उन्हंने हजस रूपत मं प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूपत मं
भाषा से कहलिा हलया – बन गया है तो सीधे-सीधे, नहं तो दरे रा देकर। भाषा कक छ कबीर के सामने लाचार-सी नज़र
आती है। उसमं मानो ऐसी हहम्मत ही नहं है कक इस लापतरिाह िक्कड़ की ककसी िरमाइश को नाहं कर सके । और अकह
कहानी को रूपत देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा मं है, िैसी बहुत कम लेखकं मं पताई जाती है
(हजारीप्रसाद हद्विेदी, कबीर, पतृ.170)।”

6. काव्य-रूपत और छन्द
कबीर ने अपतनी मकिक रचनाओं साखी, सबद और रमैनी मं मकख्य रूपत से तत्कालीन समय मं लोक मं बहु-प्रचहलत भाषा
का प्रयोग ककया। साखी, दोहे से हमलती-जकलती है। कबीर के ‘सबदं’ मं लोक मं गाए जाने िाले राग-राहगहनयं और पतदं
का प्रयोग ककया गया है। रमैहनयं मं अहधकाशतः कक छ चौपताइयं के बाद कबीर ने एक साखी का प्रयोग ककया है। इन
छन्दं के अहतररि कबीर नं चौतीसी, कहरा, हहण्डोला, बसन्त चाचर, बेहल आकद का भी कई स्थानं पतर प्रयोग ककया है।
ककन्तक इतना तय है कक कबीर ने शास््र ीय दृहि से ककसी भी छन्द का प्रयोग नहं ककया है। िस्तकतः “कबीर दास छन्दशास््र

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M10 : कबीर की भाषा
से अनहभज्ञ थे, यहाँ तक कक िे दोहं को लिपतगल की खराद पतर न चढ़ा
सके । डिली बजाकर गाने मं जो शब्द हजस रूपत मं हनकल गया, िही ठीक था। मा्र ाओं के घट-बढ़ जाने की हचन्ता करना
व्यथष था। पतर साथ ही कबीर मं प्रहतभा थी, मौहलकता थी, उन्हं कक छ सन्देश देना था और उनके हलए शब्द की मा्र ा हगनने

की आिश्यकता न थी, उन्हं तो इस ढग से अपतनी बातं कहने की आिश्यकता थी, जो सकनने िाले के हृदय मं पतैठ जाए और

पतैठकर जम जाए (स श्यामसकन्दर दास, कबीर ग्रथािली, पतृ.45)।” हालाँकक ‘गकरु ग्रन्थ साहहब’ मं सकहलत कबीर के पतदं मं
हिहभन्न रगं के सके त हं, हजनसे पतता लगता है कक कबीर को सगीत ि लोक मं बजाए जाने िाले िाद्यों का सामान्य ज्ञान
था।
7. अलकार
कबीर का लक्ष्य कहिता करना नहं, सासाररक लोगं को जीिन का ममष समझाने के हलए सहज भाि से अपतने भािं की
अहभव्यहि करना था। “उन्हंने अपतनी उहियं पतर कभी गकण, अलकाराकद का कृ ह्र म मकलम्मा चढ़ाने की चेिा नहं की थी।
यह बात दूसरी है कक उहि और उपतदेशं को अत्यहधक प्रभािात्मक बनाने के प्रयत्न मं अलकारं की योजना स्ितः हो गई
हो। अलकार कबीर के हलए साध्य नहं, स्िाभाहिक साधन मा्र थे (स हिजयंर स्नातक, गोहिन्द ह्र गकणायत, कबीर,
पतृ.168)।” इस सहज भाि मं भी कबीर की कहिता मं अलकारं की सकन्दर योजना बन पतड़ी है। कक छ अलकारं के उदाहारण
इस प्रकार हं -
अनकप्रास
लोक जाहन न भूलो भाई l
खाहलक खलक खलक मं खाहलक सब घट रह्यो समाई ll
रूपतक
नैनं की करर कोठरी, पतकतली पतलग हबछाय l
पतलकं की हचक डाहलकै , हपतय को हलया ररझाय ll

उपतमा और उत्प्रेक्षा
पतानी के रा बकदबकदा, अस मानस की जाहत l
देखत ही छक पत जाएँग,े ज्ययं तारे प्रभाहत ll

हिभािना
हबन मकख खाइ चरन हबन चालै, हबन हजभ्या गकण गािै l

हिरोधाभास
कबीर आगे-आगे दौ जलै, पतीछे हररया होइ l
बहलहारी ता हबष की जड़ काट्या िल होइ ll
दृिात
कबीर कहा गरहबयौ, इस जोबन की आस l

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टेसू िू ले कदिस चारर, खखर भये पतलास ll

रूपतकाहतशयोहि
कबीर हनरभै राम जहपत जब लहग दीिै बाहत l
तेल घट्या बाती बकझी तब सोिैगा कदन राहत ll
हिहभन्न भािं-हिचारं को प्रकट करते समय कबीर की रचनाओं मं अलकारं का सहज और स्िाभाहिक समािेश चाहे-
अनचाहे होता गया है।

8. प्रतीक-योजना
भारतीय साहहत्य मं प्रतीकं का प्रयोग आरम्भ से ही देखने को हमलता है। िेदं, उपतहनषदं मं प्रतीकं का प्रयोग हिद्वानं ने
माना है। सूिी काव्य मं आत्मा-पतरमात्मा का सम्बन्ध व्यि करने के हलए प्रतीक बहुतायत मं देखने को हमलते हं। कबीर ने
आत्मा-पतरमात्मा के रहस्यात्मक सम्बन्ध और उनके हिरह-हमलन की हस्थहत प्रकट करने हेतक दाम्पतत्य प्रतीकं का सहारा
हलया है। ऐसे स्थलं पतर भािं की तीव्रता, प्रेम की उत्कटता मार्ममक बन पतड़ी है। यहाँ आध्याहत्मक प्रेम से सम्बहन्धत
हनम्नहलहखत पतद मं आत्मा रूपती िधू, पतरमात्मा रूपती हप्रय से हमलने के हलए आतकर और व्याकक ल है -
ककयो लिसगार हमलन के ताईं, हरर न हमले जगजीिन गकसाईं l
हरर मेरो पतीि मं हरर की बहुररया, राम बड़े मं छक टक लहररया ll
धहन हपतय एकै सग बसेरा, सेज एक पतै हमलन दकहरे ा l
धन्न सकहाहगन जो हपतय भािै, कही कबीर किर जानहम न पतािै ll
भहि-पतरम्पतरा के अनकरूपत कबीर ने भि और भगिान का सम्बन्ध बताते हुए कई बार स्िामी-सेिक एि िात्सल्य प्रतीकं
का भी प्रयोग ककया है। माता–पतक्र के प्रतीक का एक उदाहरण रिव्य है -
हरर जननी मं बाहलक तेरा, काहे न औगकण बकसहु मेरा l
सकत अपतराध करै कदन के ते, जननी के हचत रहं न तेते ll
कर गहह करै जो घाता, तऊ न हेत उतारै माता l
कहै कबीर एक बकहद्ध हिचारी, बालक दकखी दकखी महतारी ll
साधनात्मक रहस्यिाद के अन्तगषत हठयोग सम्बन्धी दोहं मं कबीर ने इड़ा, लिपतगला, कक ण्डहलनी, सहस्रार कमल, कदव्य
ज्ययोहत इत्याकद प्रतीकं का प्रयोग भी बहुतायत से ककया है।
चंसठ दीया जँय के चौदह चन्दा मालिह l
तेहह घर ककसका चानडो जेलिह घर गोहिन्द नालिह ll

यहाँ ‘चंसठ’ शब्द चंसठ कलाओं का तथा ‘चौदह’ शब्द चौदह हिद्योाओं का प्रतीक है। ये सख्यामूलक शब्द पताररभाहषक
प्रतीक के उदाहरण हं।

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9. उलटबाँहसयाँ
उलटबाँसी का शाहब्दक अथष है - ‘उल्टी उहि’ अथाषत ऐसी बात जो हिपतयषय का बोध कराए। उलटबाँसी अपतनी बात की

ओर ध्यान आकर्मषत करने का एक कारगर माध्यम है। “ये उलटबाहसयाँ बहुधा अटपतटी बाहनयं के रूपत मं रची गई हं,
हजस कारण इनके गूढ़ आशय को शीघ्र न समझ पताने िाला इन्हं सकनकर आश्चयष मं अिाक रह जाता है और जब कभी इन
पतर ध्यानपतूिषक हिचार कर लेने पतर िह इन शब्दं के पतीछे हनहहत रहस्य को जान पताता है तो उसे अपतार आनन्द भी
हमलता है (पतरशकराम चतकिेदी, कबीर साहहत्य की पतरख, पतृ.150)।” भारत मं कबीर से पतहले िेदं, उपतहनषदं, नाथ-हसद्धं
के साहहत्य मं उलटबाँसी की पतरम्पतरा देखने को हमलती है।

कबीर अपतनी उलटबाँहसयं के हलए भी प्रहसद्ध रहे हं। हिद्वानं नं कबीर की उलटबाँहसयं पतर नाथ-हसद्धं का प्रभाि माना
है। उनके यहाँ आध्याहत्मक उहियं की अहभव्यहि का भरपतूर इस्तेमाल हुआ है। “उलटबाहसयाँ उन्हंने साधारण जनता को

अपतने ज्ञान से आतककत करने के हलए नहं हलखी। उनका लक्ष्य पतोथी ज्ञान से लदे पतहण्डत थे, हजनके बीच कबीर को रहना
और जीना था। जाहहर है कक उनकी उलटबाँहसयं के अथष पतोहथयं मं नहं थे और पतहडतं की नगरी काशी का कोई भी
पतहण्डत उनका अथष करने मं समथष नहं था। पतहडतं के अहकार को कबीर की ये उलटबाहसयाँ तोड़ती हं, उनके सारे ज्ञान
की पतोल खोल देती हं (हशिकक मार हमश्र, भहि आन्दोलन और भहि काव्य, पतृ.83)।” कबीर ने उलटबाँहसयं का प्रयोग
हिशेष रूपत से ससार, आत्मा-पतरमात्मा, योग, प्रेम-साधना, धमष से सम्बहन्धत पतदं मं ककया है। कबीर की उलटबाँसी का

एक पतद रिव्य है –

एक अचम्भा देखा रे भाई l


ठाढ़ा लिसघ चरािै गाई ll
पतहलै पतूत पतीछै भई माइ l
चेला कै न गकरु लागै पताइ ll
जल की मछली तरिर ब्याई l
पतकड़ी हबलाई मकगे खाई ll
बैलहह डारर गूहन घरर आई l
कक त्ता कूँ लै गई हबलाई ll
तहल करर साखा ऊपतरर करर मूल l
बहुत भाहत जड़ लागे िू ल ll
कहै कबीर या पतद कं बूझै l
ताकूँ तीन्यूँ ह्र भकिन सूझै ll
उलटबाँसी शैली के पतदं मं प्रतीकं की बहुतायत है, हजनमं आध्याहत्मक धरातल पतर रहस्यात्मक, सूक्ष्म तथा गम्भीर अथं
की व्यजना की गई है। कबीर की कक छ उलटबाँहसयं ने पतहेहलयं का रूपत भी धारण कर हलया है। कई स्थानं पतर हठयोग

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की पताररभाहषक शब्दािली के कारण ऐसी उहियाँ अथष की दृहि से दकरूह
भी हो गई हं। ककन्तक किर भी कहा जा सकता है कक “...कबीर की उलटबाँहसयं का एक-एक प्रतीक अपतने ममष के हलए
अहनिायष है। प्रतीकं के पतीछे हछपता हुआ अथष उद्घारटत होने पतर जीिन और साधना-सम्बन्धी अनकभूहतयं के रहस्य का भी
उद्घाटन हो जाता है (स हिजयेन्र स्नातक, कबीर, पतृ.190)।”

10. व्यग्यात्मक भाषा


कबीर का व्यहित्ि हिरोही था। तत्कालीन सामाहजक रूकढ़यं को िे तकष और मानिता की कसौटी पतर पतरखते हुए,
नकारते हुए और उन पतर व्यग्य करते चले हं। इस व्यग्यात्मकता के कारण रचना महत्त्िपतूणष और हिशेष बन गई है। समाज
मं िै ले हुए बाह्याडम्बरं, धार्ममक रूकढ़यं, कमषकाडं, जाहतिाद और हमथ्याचारं पतर चोट करते समय व्यग्यात्मक प्रहार
देखते ही बनता है। ऐसे स्थलं पतर उनकी भाषा की भहगमा, तेिर और पतैनापतन प्रखरता से व्यि होता है। ‘हसर मकड
ँ िाने’

की धार्ममक रूकढ़ पतर कटाक्ष करते हुए कबीर कहते हं –


के सौ कहा हबगाहड़या, जे मूड
ँ ै सौ बार l
मन कौ काहे न मूँहडये, जामै हिषै हिकार ll
इसी प्रकार इस्लाम धमष मं महस्जद पतर चढ़कर अजान देने की प्रिृहत को भी उन्हंने आड़े हाथं हलया है। तत्कालीन समाज
मं अलग-अलग धमं और सम्प्रदायं के तथाकहथत सन्तं, योहगयं, साधकओं के कदखािटी व्यिहार और समाज को भ्रहमत
करने िाले किया-व्यापतारं पतर भी कबीर की दृहि गई और उन्हंने अपतने तरीके से उनका भण्डािोड़ ककया -

मन न रगाए, रगाए जोगी कपतरा l


आसन मारी महन्दर मं बैठे, नाम छाँड़ी पतूजन लागे पतथरा l
कनिा िड़ाय जोगी जतािा बढ़ोलं, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा l
जगल जाय जोगी धकहनया रमौले, काम ज़राय जोगी होय गैले हहजरा l
मथिा मकड
ँ ाय जोगी कपतड़ा रगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा l
कहत कबीर सकनो भाई साधो, जम दखजिाँ
बाँधल जैबे बकरा l
मानिीय मूल्यं की िास्तहिकता से अिगत कराने के हलए कबीर ने भाषा मं व्यग्यात्मक मकरा अपतनाई। उनसे पतहले हहन्दी
साहहत्य के इहतहास मं इस प्रकार की मारक उहियाँ बहुत कम देखने को हमलती हं। “हहन्दी कहिता के हज़ारो िषं के
इहतहास मं कबीर जैसा व्यग्यकार पतैदा नहं हुआ... अत्यन्त सीधी सरल भाषा मं िे ऐसी चोट करते हं कक चोट खाने िालं
के हलए के िल धूल झाड़कर चलने के हसिाय कोई रास्ता नहं रहता (हजारीप्रसाद हद्विेदी, कबीर, पतृ.170)।”

11. कोमलकान्त पतदािली


कबीर की भहि सम्बन्धी रचनाओं मं उनके हृदय का कोमल और भािकक रूपत देखने को हमलता है। ऐसे पतदं मं भाषा भी
स्ियमेि कोमल रूपत धारण करके चली है। भि हृदय की सरलता और हनमषलता कोमलकान्त पतदािली मं सहज रूपत से
प्रभािशाली बन पतड़ी है –

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M10 : कबीर की भाषा
साईं इतना दीहजए, जामै कक टक म समाय l
मं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय ll
एक अन्य स्थल पतर कबीर पतरम-तत्त्ि की खोज करने िाले मनकष्य को बड़ी सीधी सरल भाषा मं समझाते हुए कहते हं कक
िह तो तेरे भीतर, हर एक साँस मं बसा हुआ है--

मोको कहाँ ढू ँढं बन्दे, मं तो तेरे पतास मं l


ना मं देिल ना मं महस्जद, ना काबे कै लास मं l
ना तो कोनो किया कमष मं, ना योगी बैराग मं l
खोजी होय तो तकरते हमहलहं पतल भर की तालास मं l
कहं कबीर सकनो भाई साधो, सब स्िाँसं की स्िाँस मं l

12. हनष्कषष
कबीर की भाषा उनके व्यहित्ि के अनकरूपत जीिन्त और मकखर है। कबीरदास ‘कागद’ पतर हलखने िाले पतरम्पतरागत कहि
नहं थे। उन्हंने ईश्िर की साधना के समय, कदग्भ्रहमत समाज को सही कदशा और िास्तहिक जीिन-मूल्य कदखाते समय

अपतने आध्याहत्मक, दाशषहनक और रहस्यिादी भािं और हिचारं को जब और हजस रूपत मं प्रकट ककया, उन्हं को आज
हम कबीर की कहिता के रूपत मं देख रहे हं। के िल शास््र ीय हनयमं की कसौटी पतर कबीर की कहिता को पतरखना सन्तकहलत
उद्योम नहं है। क्यंकक “कहिता के हलए उन्हंने कहिता नहं की है। उनकी हिचारधारा सत्य की खोज मं बही है, उसी का
प्रकाश करना उनका ध्येय है। उनकी हिचारधारा का प्रिाह जीिनधारा के प्रिाह से हभन्न नहं है, उसमं उनका हृदय
घकला-हमला है। उनकी प्रहतभा हृदय समहन्ित है। उनकी बातं मं बल है, जो दूसरे पतर प्रभाि डाले हबना नहं रह सकतं।
अक्खड़ ढग से कही होने पतर भी उनकी बेलाग बातं मं एक और ही हमठास है, जो खरी-खरी बातं कहने िाले ही की बातं
मं हमल सकती है। उनकी सत्यभाहषता और प्रहतभा का ही िल है कक उनकी बहुत सी उहियाँ लोगं की जबान पतर चढ़
कर कहाितं के रूपत मं चल पतड़ी हं। हार्ददक उमग की लपतेट मं जो सहज हिदग्धता उनकी उहियं मं आ गई है, िह
अत्यन्त भािापतन्न है। उसी मं उनकी प्रहतभा का चमत्कार है (स. श्यामसकन्दर दास, कबीर ग्रथािली, पतृ.44)।” हनष्कषषतः

कहा जा सकता है कक कबीर की कहिता की भाषा मं कक छ भी आरोहपतत या सायास नहं है। सीधी-सादी, सरल, सहज और
स्िाभाहिक भाषा मं भी हिषयानकरूपत अलकाररकता, प्रतीकात्मकता, पताररभाहषकता, सगीतात्मकता आकद गकण आ गए हं।

HND : हहन्दी P 5 : मध्यकालीन काव्य-II (भहिकालीन काव्य)


M10 : कबीर की भाषा

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