You are on page 1of 24

कबीर की भाषा

ह द
िं ी डी सी -1
सेमेस्टर-I
प्रश्न पत्र- III, आहदकालीन और भक्तिकालीन काव्य
इकाई-1
अध्याय: कबीर की भाषा
अध्याय लेखक: नीरज
कॉलेज / विभाग : भारती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

कबीर की भाषा

1. विषय प्रिेश : भाषा, भाषा और साह त्य का सिंबिंध


2. भक्तिकाल और भाषा का प्रश्न
3. कबीर की भाषा
I. मत शिन्नता के कारण
II. आलोचकों की दृश्टि में
III. ववशिन्न बोशलर्यों/िाषाओँ की िूशमका
4. भावषक सिंरचना के विभभन्न आयाम और कबीर की भाषा
I. िब्ि-िण्डार
II. व्र्यंग्र्यात्मकता
III. अलंकार
IV. मुहावरे एवं लोकोश्ततर्यााँ
V. ‘कहै कबीर’ र्यानी ववद्रोहात्मक संबोधन िैली
VI. काव्र्य-रूप एवं छं ि
VII. प्रतीकात्मकता एवं उल्िबााँशसर्यााँ
5. ननष्कषष
6. प्रश्नािली
7. सिंदभष-ग्रिंथ सूची
8. स ायक ग्रिंथ सच
ू ी

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

1. विषय प्रिेश : भाषा, भाषा और साह त्य का सिंबिंध

मानव सभ्र्यता मल
ू रूप से अनि
ु तू तर्यों के आिान-प्रिान पर आधाररत है . िाषा मनटु र्य की
सवोत्कृटि सामाश्जक, सांस्कृततक एवं अनुिूततजन्र्य उपलश्ब्ध होती है श्जसके माध्र्यम से वह
अपने िावों एवं ववचारों को अशिव्र्यतत करता है . हालांकक आज के इस ‘सूचना क्ांतत’ के र्युग में
िाषाएाँ बाज़ार की मांग के अनुसार सीखी, समझी और पढ़ी िले जा रही है , परन्तु िाषा के साथ
मनुटर्य का संबंध आज िी शसर्फ साधन र्या शसर्फ साध्र्य का न होकर साधन और साध्र्य िोनों का
है . जहााँ तक सादहत्र्य के साथ िाषा के संबंध का सवाल है तो कोई िी सादहत्र्य िाषा के िीतर
ही अपना स्वरूप ग्रहण करता है . िाषा िावानुरूप रचनावस्तु को तनधाफररत करने वाली िश्तत
होती है श्जसके द्वारा ककसी रचनाकार की प्रततिा, उसके सादहत्र्य की उत्कृटिता एवं उस पररवेि
की संस्कृतत का मूल्र्यांकन ककर्या जाता है . र्यही कारण है कक प्रत्र्येक र्यग
ु की रचनािीलता िाषा
के संकि और उसके समाधान की प्रकक्र्या से गुजरकर ही अथफवान होती है . इसशलए सादहत्र्य में
िाषा का अध्र्यर्यन शसर्फ उसके संरचनात्मक संगठनों जैसे रस, अलंकार िैली, लोकोश्तत, मह
ु ावरे ,
बबम्ब, प्रतीक इत्र्यादि) का अध्र्यर्यन न होकर उस परं परा, पररवेि एवं संस्कृतत की ववकासमानता
/ ह्रासोंमुखता का िी अध्र्यर्यन होता है श्जसके माध्र्यम से वह रचना में मूतफ होता है .

(चचत्र : कबीरदास, साभार : विककपीडडया, भलिंक – http://en.wikipedia.org/wiki/Kabir )

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

भक्तिकाल और भाषा का प्रश्न :

िारतीर्य समाज, संस्कृतत और सादहत्र्य के इततहास में िश्तत-आन्िोलन अखखल िारतीर्य


सामाश्जक-सांस्कृततक आन्िोलन था. लोकव्र्यापी स्वरुप, आनुिूततक गहराई, अखखल िारतीर्य
ववस्तार एवं लोक की चचंता (चाहे वह लोकधमफ हो र्या लोक जागरण) के कारण इस आन्िोलन में
एक ओर “भारिीय सिंस्कृनि के अिीि की स्मृनि, अपने समय के समाज िथा सिंस्कृनि की
सजग चेिना और भविष्य की ग री चेिना विद्यमान ै .” 1
ू री ओर इसका संबंध “सिषत्र
तो िस
लोक भाषाओँ से र ा ै ” 2
‘िश्तत आन्िोलन और सरू का काव्र्य’ के प्रथम संस्करण की िशू मका
में आलोचक मैनेजर पाण्डेर्य शलखते हैं- “भक्ति आन्दोलन के साथ-साथ विभभन्न जािीय भाषाओँ
के गठन की प्रकिया िेज ोिी ै और आधुननक भारिीय भाषाओँ के ननमाषण का आधार िैयार
ोिा ै . सिंस्कृि, पाली, प्राकृि और अपभ्रिंश से स्िििंत्र दे शी भाषाओँ में साह त्य-रचना के आरम्भ
के साथ भारिीय साह त्य का इनि ास विकास की एक नई अिस्था में प्रिेश करिा ै . ...सामिंिी
सिंस्कृनि, दरबारी िािािरण और पुराने काव्यशास्त्र के रीनििाद से मुति भक्ति-काव्य लोक
भाषाओँ में जन सिंस्कृनि और जनभाषाओिं की अभभव्यक्ति का काव्य ै .” 3

कबीर की भाषा :

I. मि भभन्निा के कारण

कबीर मध्र्यकालीन तनगण


ुफ संत कववर्यों में अग्रगण्र्य हैं. िारतीर्य इततहास वविेषकर दहंिी सादहत्र्य
के इततहास में कबीर पर जब िी चचाफ होती है तो वहााँ गहराई में जाने के बजार्य ‘कबीर कवव थे
र्या समाज सुधारक’, कबीर मूलतः रहस्र्यवािी कवव थे, ‘कबीर पढ़े शलखे नहीं थे’, उन्हें सुनी
सन
ु ाई बातों का ज्ञान था’, जैसे मद्द
ु ों पर ववचार करके इतत श्री मान शलर्या जाता है . र्यहााँ तक कक
(संििफ चाहे जो िी रहा हो) सादहत्र्य और इततहास में कबीर को स्थावपत करने वाले ववद्वान
आचार्यफ हजारी प्रसाि द्वववेिी ने िी कबीर के कववत्व को ‘बाई प्रोडति’ र्या फ़ोकि का माल कहा
है , लेककन हम जानते हैं कक िश्ततकाल का मुख्र्य अंतववफरोध ‘लोक और िास्र, अनुिूतत और
ज्ञान, िाषा और िाखा के बीच का अंतववफरोध है , और कबीर में िी र्यह अंतववफरोध हमें िे खने को
शमलता है . जहााँ तक कबीर की िाषा का सवाल है है तो कबीर ने ककस िाषा में काव्र्य-रचना की
है र्या उनकी िाषा का मूल रूप तर्या है ? इस बात को लेकर ववद्वानों में पर्याफप्त मत शिन्नता है
. इसके कई कारण है श्जनमें से कुछ महत्त्वपूणफ तनम्नशलखखत हैं-

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

1. कबीर का समर्य सादहत्र्य ही नहीं इततहास का िी संक्मण काल है . इततहास में कबीर का
समर्य तर्या था इस बात को लेकर अलग-अलग ववद्वानों की अलग-अलग रार्य है .
2. कबीर की रचनाओं के प्रामाखणक पाठ का न शमलना अथाफत ् उनकी रचनाओं के जो संग्रह
शमलते हैं उनमें प्रर्यत
ु त िाषा एक िस
ू रे से साम्र्य नहीं रखती.
3. स्वर्यं कबीर द्वारा िाषा के सम्बन्ध में कहे गर्ये कुछ िोहे जैसे –
 बोली मारी पूरब की मै लखै नह िं कोय|
मको िो सोई लखै, धुर पूरब का ोय||
 सिंसककरि ै कूप जल, भाखा ब िा नीर|
 मभस कागद छूओ नह ,िं कलम गह न ीिं ाथ|
II. आलोचकों की दृक्ष्ट में :

कबीर का व्र्यश्ततत्व एवं कृततत्व समकालीन पररश्स्थततर्यों के संघात से तनशमफत हुआ था. जीवन
और उसकी अनि
ु तू त के प्रतत जबाबिे ह होने के कारण उनकी रचनाओं में अनि
ु तू त, संघषफ, ज्ञान
और तनिीकता के साथ-साथ ‘आखखन िे खी की प्रामाखणकता’ का प्रिाव तो दिखता है , परन्तु
जीवन और रचना की िाषा एक होने के बावजूि उनके िाषा-तनधाफरण में ववद्वानों में पर्याफप्त
मत-शिन्नता दिखाई पड़ता है . उनकी िाषा को ककसी ने अवधी तो ककसी ने िोजपुरी, ककसी ने
राजस्थानी तो कोई ववववध िाषाओँ के सश्म्मश्रणसे र्यत
ु त ब्रजिाषा बतार्या है . दहंिी आलोचना के
शिखर परु ु ल ने कबीर की साखखयों की भाषा को ‘सधुतकड़ी’ नाम हदया
ु ष आचार्यफ रामचंद्र ित ै,
क्जसका िात्पयष राजस्थानी, पिंजाबी भमचिि खड़ी बोली से ै . ककन्िु रमैननयों एििं पदों में उन् ोंने
पूिी बोली के मेल के साथ मुख्यिः ब्रजभाषा माना ै . उन् ी के शब्दों में – “इसकी भाषा सधुतकड़ी
अथाषि राजस्थानी, पिंजाबी भमली खड़ी बोली ै , पर ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पड़ ैं क्जनमें
काव्य की ब्रजभाषा और क ीिं-क ीिं पुरबी बोली का भी व्यि ार ै .” 4
बाबू वर्याम सन्
ु िर िास ने
“कबीर की िाषा को ‘पंचमेल खखचड़ी’ और इसका कारण “उन् ोंने दरू -दरू के साधू-सिंिों का सत्सिंग
ककया था क्जससे स्िाभाविक ी उन पर भभन्न-भभन्न प्रान्िों की बोभलयों का प्रभाि पड़ा.” 5

बतार्या है . आचार्यफ हजारी प्रसाि द्वववेिी, सुनीतत कुमार चिजी तथा उिर्य नारार्यण ततवारी जैसे
मनीषी कबीर की िाषा को िोजपुरी मानने के पक्ष में हैं. आचार्यफ ववववनाथ प्रसाि शमश्र के

ु ार- “साखखयों की भाषा में खड़ी बोली का क्जिना अचधक व्यि ार भमलिा
अनस ै उिना सबदी में
न ीिं. उनमें ब्रजी के शब्द कुछ अचधक भमलिे ैं. रमैनी में पूिी रूप बराबर हदखाई दे िे ैं. जैसे

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

कोई-कोई या कोऊ-कोऊ के स्थान पर केऊ-केऊ. इस प्रकार विचार करने से कबीर की िीन प्रकार
की प्रिक्ृ त्ियों में स्थूल रूप से ह द
िं ी की िीन उपभाषाओिं की स्पष्ट और ननक्श्चि प्रिक्ृ त्ि भमल
जािी ै .” 6
इससे अलग रामकुमार वमाफ ‘दहंिी सादहत्र्य का आलोचनात्मक इततहास’ में स्पटि
करते हैं- “कबीर ने अपनी भाषा पूरबी भलखी ै पर नागरी प्रचाररणी सभा ने ‘कबीर ग्रिंथािली’ का
जो प्रमाखणक सिंस्करण प्रकाभशि ककया ै , उसमें पूरबीपन ककसी प्रकार भी न ीिं ै . इसके पयाषय
उसमें पिंजाबीपन ब ु ि ै.”7 गोववन्ि बरगुणार्यत के मतानुसार “कबीर ने ककसी एक भाषा का
प्रयोग न ीिं ककया. उनकी बानी में ह द
िं ,ू उदष ,ू फारसी आहद कई भाषाओँ का सक्म्मिण िो भमलिा
ी ै साथ ी साथ अिधी, खड़ी, भोजपुरी, पिंजाबी, मारिाड़ी आहद का भी प्रचुर प्रयोग ककया
गया ै .8

तया आप जानिे ै ?

कबीर की भाषा में ककसी एक बोली या भाषा की प्रधानिा न ीिं ै. ि कई बोभलयों या भाषाओँ
के भमिण से ननभमषि ु ई ै . उसमें एक ओर भोजपुरी, अिधी, ब्रज, पिंजाबी और खड़ी बोली की
प्रधानिा ै िो दस
ू री ओर अरबी-फारसी का प्रभाि भी हदखाई दे िा ै .

कबीर अमि
ृ िाणी का िीडडयो दे खने के भलए य ााँ क्तलक करें -
http://www.youtube.com/watch?v=JWrqvgJ4oLM (साभार : यू ट्यब
ू िीडडयो)

III. विभभन्न बोभलयों / भाषाओँ की भूभमका


कबीर पढ़े शलखे नहीं थे, दहंिी िाषा और व्र्याकरण के अनि
ु ासन का मानक रूप उनमें शमलता
है र्या नहीं इस ककम्विं ततर्यों में पड़े बगैर कबीर के नाम पर जो उपलब्ध प्रमाखणक ग्रंथ हैं
उसका अध्र्यर्यन करने पर हम पाते हैं कक कबीर ने अपनी िाषा का चन
ु ाव मध्र्यकाल में
ववकशसत होने वाली आर्यफिाषाओं से ककर्या था. उनके िाषा-तनमाफण में एक से अचधक िाषाओँ
एवं बोशलर्यों की िशू मका रही है . इसशलए उनकी िाषा में अनेक बोशलर्यों के िब्ि शमलते हैं.
िाषा की र्यह वविेषता कबीर के अलावा अन्र्य ितत-कववर्यों में िी शमलती है . इसका कारण
इन रचनाकारों का र्यहााँ-वहााँ घूमना जैसी प्रवश्ृ त्त ही नहीं बश्ल्क रामववलास िमाफ ने ‘संत
सादहत्र्य के अध्र्यर्यन की समस्र्याओं’ का अवलोकन करते हुए सही ही शलखा है - “अिध, ब्रज,
बुिंदेलखिंड आहद की जनिा ज्यों की त्यों अपने जनपदों में बिंद न र कर इधर-उधर बबखरने

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

लगी थी. भोजपुरी और मैचथली जनपदों में अिधी बोलने िाले, अिध में ब्रजभाषा या खड़ीिं
बोली बोलने िाले प्रिेश करने लगे थे. भारिें दु ररश्चिंद्र और रामचिंद्र शुतल दोनों ने ी इस
िथ्य पर प्रकाश डाला ै कक पूिष में खड़ी बोली का प्रसार पछािं की व्यापारी जानियों ने ककया.
16-17िीिं सदी के आगरा और बनारस में एक से अचधक बोभलयााँ सुनी जािी थी. न केिल
अनेक जानियों के व्यापारी ि ााँ आिे थे िरन कारीगर, बुनकर, नौकरी पेशा-लोग, सैननक आहद
भी ि ााँ एकत्र ोिे थे. जनपदों का अलगाि कम ोना, बोभलयों का परस्पर घुलना भमलना इसी
पररक्स्थनि से सिंभि ु आ.”9 कारण चाहे जो कुछ िी हो लेककन कबीर की रचनाएं आज हमें
श्जस रूप में प्राप्त है उनमें खड़ी बोली, ब्रज, अवधी, पंजाबी, राजस्थानी, िोजपुरी एवं अन्र्य
िाषाओँ का लोक-धरातल ववद्र्यमान है . कुछ उिाहरण-

खड़ी बोली- - य सिंसार कागद की पुडड़या, बूाँद पड़ै घुल जाना ै .

-आऊिंगा न जाऊिंगा, मरूाँगा न जीऊिंगा.

राजस्थानी- - तया जाणौ उस पीि कूाँ कैसे र सी रिं ग

-क्जभडड़या छाला पड्या. नाम पुकारर-पुकारर

-जािंणैगा रे जीिड़ा, मार पडैगी िुझ.

पंजाबी – -अिंषडड़या िो झाई पड़ी, पिंथ नन ारर नन ारर.

-रभल गया आटे लूण

-लूण विलग्गा पाखणयााँ पाणी लूण विलग्ग.

ब्रज- -कौन पूि को काकौं बाप.

-मेरौ मन लागौ िो ी रे

िोजपुरी- -मनिािं िो च ु ाँ हदभस कफरै , य िो सुभमरै नाह

तया आप जानिे ैं ?
कबीर के भाषा की सिोपरर विशेषिा य ै कक जब उन् ोंने अिधू या साधनात्मक चीजों को
सिंबोचधि ककया िो प्रायः नाथपिंचथयों का प्रयोग ककया ै . जब ह न्दू विचध-विधानों पर अपने िीखे

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

बाण चलािे ैं िब ित्सम एििं िद्भि शब्दों का प्रयोग करिे ैं और जब मौलिी या उनके
कमषकािंडों को फटकारिे ैं जब अरबी-फारसी शब्दों की स जिा दे खिे ी बनिी ै .

4. भावषक सिंरचना के विभभन्न आयाम और कबीर की भाषा

I. शब्द-भण्डार -

िब्ि-िण्डार के धरातल पर कबीर की िाषा कार्ी समद्ध


ृ िाली एवं लोक-तनकि है . उनकी रचनाओं
में तत्सम, तद्भव, िे िज तथा वविे िी चारों प्रकार के िब्िों का िरपूर प्रर्योग िे खने को शमलता है .
इतना ही नहीं कबीर ने “लो ार, कुिंभकार, बढई, जुला ा, ककसान आहद के जीिन और व्यिसाय
से क्जन शब्दों को भलया ै उनमें अचधकााँश अब अप्रभाविि ो चुके ैं. कुछ िो इिने व्यिंजक
और अथष गाम्भीयष ैं कक उनके पयाषय खोजना कहठन ै . जैसे बजननया, नििरबानी, पासिंग,
िालाबेभल, नन ोरा, पोिान ारी इत्याहद.”10 अनेक तद्भव िब्ि “ऐसे ै क्जन् ें प चानना भी कहठन
ो जािा ै िे ित्सम जैसे ी लगने लगिे ैं. जैस-े स्यिंघ (भसिं ), ननह्य (ननचध), विनान
(विज्ञान), म्यिंि (भमत्र).”11 तत्कालीन पररश्स्थततर्यों में संस्कृत जहााँ परं परा से प्राप्त सभ्र्य एवं
सस
ु ंस्कृत वगों की िाषा थी, वहीँ अरबी मश्ु स्लम िासकों की धमफ-िाषा एवं र्ारसी को राजिाषा
का िजाफ प्राप्त था. इसशलए मुश्स्लम िासन में अरबी एवं र्ारसी िोनों िाषाओँ का प्रसार-प्रचार
काफ़ी बढ़ गर्या था. र्यह अकारण नहीं है कक न केवल कबीर बश्ल्क अन्र्य ितत कववर्यों (सूर,
तुलसी, जार्यसी) के र्यहााँ िी अरबी र्ारसी का प्रर्योग बहुतार्यत में शमलता है . जनजीवन में घुले-
शमले िब्िों का सवाफचधक प्रर्योग कबीर ने अपनी िाषा में ककर्या है . कबीर के िाषा की सवोपरर
वविेषता र्यह है कक जब उन्होंने अवधू र्या साधनात्मक चीजों को संबोचधत ककर्या तो प्रार्यः
नाथपंचथर्यों का प्रर्योग ककर्या है . जब दहन्ि ू ववचध-ववधानों पर अपने तीखे बाण चलाते हैं तब
तत्सम एवं तद्भव िब्िों का प्रर्योग करते हैं और जब मौलवी र्या उनके कमफकांडों को र्िकारते हैं
जब अरबी-र्ारसी िब्िों की सहजता िे खते ही बनती है . इससे िाषा में स्वािाववकता एवं
प्रमाखणकता-सी आ गई है . जैसे-

ित्सम- कूप, पंथ, लोचन, गगन, नीर, पावक, सज्जन, क्ोध.

िद्भि- पाथर, रातत, चाम, गााँव.

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

दे शज- घूंि, जंजाल, बांगर, थोथा, मुराड़ा

विदे शी- (अरबी-र्ारसी)- खब


ू , साहब, गोर, खसम, ख़सक, जहाज, िीवाना, िोजख, ईमान
इत्र्यादि.

II. व्यिंग्यात्मकिा -

कबीर की रचनाधशमफता का मूल स्वर उसकी व्र्यंग्र्यात्मकता में अन्ततनफदहत है . हजारी प्रसाि
द्वववेिी शलखते है - “ह द
िं ी कवििा के जार िषों के इनि ास में कबीर जैसा व्यिंग्यकार पैदा न ीिं

ु आ.... अत्यिंि सीधी भाषा में िे ऐसी चोट करिे ैं कक चोट खाने िालों के भलए केिल धूल
झाड़कर चलने के भसिाय कोई रास्िा ी न ीिं र िा.”12 वस्तुतः व्र्यंग्र्यात्मकता के कारण ही कबीर
की िाषा की मार बहुत तेज है . सिी धमों में व्र्याप्त बाह्र्याडम्बर एवं शमथ्र्याचार को र्िकार
लगाने में वे अपना सानी नहीं रखते हैं . कबीर का मानना था कक धाशमफक रुदिर्यों की जकड़बंिी
के कारण ही मनुटर्य सार तत्व को ग्रहण नहीं कर पाता है और वह ईववर की कृपा पाने से
वंचचत रह जाता है . इसशलए उन्होंने एक ओर दहंि ू धमफ में प्रचशलत अंधववववास, रुदढ़र्यों, ततलक
एवं अन्र्य कमफकांडों की तनस्सारता पर जोरिार प्रहार ककर्या है , तो िस
ू री ओर
इस्लाम,धमाफवलंबबर्यों के रोज़ा,नमाज़ तथा धमफ क नाम पर की जाने वाली दहंसा का िी खंडन
ककर्या है . साथ ही उन्होंने नाथपंथी र्योचगर्यों एवं जैतनर्यों के ब्राह्र्याचार का िी कड़ा ववरोध ककर्या
है . कबीर लगिग सिी धमं में प्रचशलत ऐसे सिी कमफकांडों की तनंिा कर रहे थे जो मनटु र्य और
मनटु र्य के बीच िेि पैिा करता,उनके बीच की खाई को िरने के बजाए बढ़ाता हो.इसशलए
व्र्यंग्र्यात्मकता कबीर के कववताओं की बुतनर्यािी वविेषता बनकर उिरी है .

1. काकर पाथर जोरर के,मक्स्जद नई बनाय.

िा चहढ मुल्ला बािंग दे ,ब रो भयो खुदाय.

2. मूिंड मुिंडाए रर भमले ,सब कोई लेय मुिंडाय

बार-बार के मुिंडिे ,भेड़ न बैकुिंठ जाय

कबीर के सामने जैसा कक रामस्वरूप चतुवेिी ने िी शलखा है - “समाज सुधार की भािना या ह द


िं -ू
मुक्स्लम एकिा एक प्रमुख िस्िु थी क्जसे उन् ोंने अपनी काव्य सिंिेदना में ढाला.”13 समाज

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

सुधार र्या दहंि ू मुश्स्लम एकता के शलए र्यह जरूरी था कक उन धमों में व्र्याप्त कुरीततर्यों का
पिाफर्ाि ककर्या जाए,और कबीर ने ऐसा ही ककर्या.इसशलए व्र्यंग्र्यात्मकता के धरातल पर ववकशसत
कबीर की वाणी में आक्ामकता का गुण िी कथ्र्य के अनुसार आता चला गर्या.आक्ामकता
व्र्यश्ततत्व के साथफक अश्स्तत्व के शलए ककए जान वाले संघषफ से उत्पन्न होती है .हस्तक्षेप की
अतनवार्यफता िी िाषा और व्र्यश्ततत्व को आक्ामक बनाती है .संघषफ एवं अन्र्यार्य के प्रततकार की
साहसी िश्तत ने कबीर की िाषा को बहुत हि तक आक्ामक बना दिर्या है .-

हदन में रोजा रखि ै ,राि नि ै गाय

य िो खुन ि बिंदगी,कैसी खुशी खुदाय

III. अलिंकार-

अलंकार को काव्र्य का िोिावधफक धमफ माना जाता है श्जससे िाषागत सौन्िर्यफ को समुचचत रूप
से समझा जाता है . िारतीर्य परं परा में अलंकारों का वविेष महत्व है . आचार्यफ िं डी ने इसे काव्र्य
की िोिा करने वाला धमफ बतार्या गर्या है . “काव्य शोभाकरान ् धमाषन ् अलिंकरान ् प्रयक्षिे” तो
आचार्यफ वामन के अनुसार अलंकार के कारण ही आचार्यफ काव्र्य ग्राह्र्य होता है (काव्र्यं ग्राह्र्यं
अलंकरात ्) कबीर काव्र्यिास्र की बारीककर्यों से सवफथा अपररचचत थे (हालााँकक तनत्र्य नए खोजों से
र्यह वववाि बना हुआ है कक कबीर तनरक्षर नहीं थे, उन्हें िास्र और समाज का इतना ज्ञान नहीं
होता तो उनका सादहत्र्य िाषा और संवेिना िोनों दृश्टि से इतना समथफ नहीं होता) इसीशलए
अपने काव्र्य को व्र्याकरखणक तनर्यमों की श्रंख
ृ ला में नहीं बााँध सके. कर्र िी उनके काव्र्य में
िब्िगत और अथफगत अलंकार अनार्यास ही सही परन्तु स्वािाववक रूप से आ गए हैं. कबीर की
रचनाओं को पढ़कर ऐसा कतई नहीं लगता है कक उन्होंने अलंकार-वणफन के शलए कववता शलखी
होगी. अपनी उश्ततर्यों पर अलंकारों का मुलम्मा चिाने, उससे मानशसक कलाबाजी करने के
बजार्य कबीर का उद्देवर्य सामाश्जक-ववषमता के कारणों एवं मनुटर्य-मनुटर्य के बीच के िेि को
सामने लाना था. इसशलए उनकी रचनाओं को समझते हुए हमें छं ि, गुण, अलंकार, रस, िब्ि-
िश्तत जैसी’ व्र्याकरखणक कोदिर्यों के तनधाफरण की पद्धतत से बचना चादहए. गोववन्ि बरगुणार्यत के

ु ार– “उन् ोंने अपनी उक्तियों पर कभी गुण अलिंकाराहद का कृबत्रम मुलम्मा चढाने की
मतानस
चेष्टा न ीिं की थी. य बाि दस
ू री ै कक उक्ति और उपदे शों को अत्यचधक प्रभािात्मक बनाने के
प्रयत्न में स्िाभाविक अलिंकारों की योजना स्ििः ो गई ो. अलिंकार कबीर के भलए साध्य न ीिं,

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

स्िाभाविक साधन मात्र थे.”14 कबीर की कववताओं में हलांकक अनुप्रास, वलेष, अन्र्योश्तत, उत्प्रेक्षा,
र्यमक, ववरोधािास, अततवर्योश्तत, असंगतत, वविावना जैसे अनेक अलंकारों की सुंिर र्योजना
िे खने को शमलती है , परन्तु कबीर का वप्रर्य अलंकार उपमा और रूपक है . कबीर रूपक बााँधने में
बड़े कुिल थे. उनके सांगरूपक जीवन के ववववध क्षेरों से चन
ु े गए उपमानों पर आधाररत हैं. इसी
प्रकार उनके द्वारा आध्र्याश्त्मक प्रेम, साधना-पद्धतत, िरु ाग्रही प्रवश्ृ त्त के स्पटिीकरण के शलए चन
ु े
गए उपमान जहााँ एक ओर कबीर की मौशलक कल्पना-िश्तत का पररचर्य िे ते है वहीँ िस
ू री और
उनके व्र्यापक जीवनानुिव का प्रमाण िी प्रस्तुत करते हैं. कुछ उिाहरण िे खखए-

रूपक – माया दीपक नर पििंग, भ्रभम-भ्रभम मािंह पडिंि I

क ै कबीर गुरु ग्यान िे, एक आध उबरिं ि II

- नैनो की करर कोठरी, पुिली पलिंग बबछाय I

पलकों की चचक डाभलकै, वपय को भलया ररझाय II

उपमा- य सिंसार ऐसा, जैसा सेमल फूल

दृष्टािंि- पाणी केरा बुदबुदा अस मानस की जानि I

दे खि ी नछपी जाएिंगे ज्यों िारे परभानििं II

अन्र्योश्तत- माली आिि दे खकर कभलयााँ करी पुकार I

फुभल-फुभल चुनन भलए काक्ल् मारी बार II

व्र्यततरे की- चकई बबछुरी रै नन की आई भमले परभानि I

जे नर बबछुरे राम िे, हदन भमले न रानि II

अनप्र
ु ास+वक्ोश्तत- बबरह न उहठ-उहठ भुई परै , दरसन कारन राम I

मुए दरसन दे ु गे, सो आिै कौनो काम II

वविेषोश्तत+दृटिांत+र्यमक- सिंि न छोड़े सिंिई जौ कोहटक भमलह असिंि I

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

मलय भुजिंगम बेहढऔ, िऊ शीिलिा न िजिंि II इत्याहद

IV. मु ािरे एििं लोकोक्तियााँ-

मुहावरे एवं लोकोश्ततर्यााँ िाषा को प्रौढ़ता प्रिान कर लेखक को समाज से जोड़ने का कार्यफ करते
हैं. कबीर पैिा चाहे जहााँ शलए हो उनका पालन पोषण गरीब जल
ु ाहा पररवार में , तनम्न वगफ में
हुआ था. ग्रामीण जीवन में लोग सिीक अशिव्र्यश्तत एवं उस अशिव्र्यश्तत में पैनापन लाने के
शलए अन्र्य उपकरणों के साथ लोकोश्तत एवं मुहावरे का प्रर्योग लगिग हर बात में ककर्या करते हैं
कबीर की रचना का िी मूल स्रोत ‘कागि लेखी’ नहीं अवपतु ‘आखखन िे खी’ था. वे तनिीक एवं
स्पटि वतता थे. उन्होंने किी ककसी की झूठी खुिामि नहीं की. र्योगी हो र्या पंडडत, िैव हो र्या
िातत, दहंि ू हो र्या मस
ु लमान, स्री हो र्या परु
ु ष, राजा हो र्या प्रजा, मल्
ु ला र्या मौलवी सिी के
कठमुल्लेपन पर समान िाव से प्रहार ककर्या. साथ ही वे लोकिाषा के समथफक िी थे (तिी बार-
बार िाखा पर लौिते हैं) र्यह िी कारण हो कक लोक-जीवन में प्रचशलत अनेक लोकोश्तत और
मुहावरे एवं उससे अथफ-गाम्िीर्यफ में होने वाले पैनापन को उन्होंने जो सादहश्त्र्यकता प्रिान की है .,
वह बहुत कम रचनाकारों में िे खने को शमलता है . उनके द्वारा प्रर्यत
ु त लोकोश्तत एवं मुहावरे
आज िी जनमानस में ऐसे बसे हुए हैं.

उिाहरण-

-बोए पेड़ बबूर का िो आम क ााँ से ोई.

-जाका बासा गोर में सो तयूाँ सोिै सुख

-पााँि कुल् ारी माररया मूरख अपने ाथ

-खलक चबैना काल का

जौ ाँ भस बोलाँ ू और सौ िौ नील रिं गाऊ दिं ि” इत्र्यादि I

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

V. ‘क ै कबीर’ यानी विद्रो ात्मक सिंबोधन शैली -

ु ा कर्रा कर कहने की प्रवश्ृ त्त कबीर में नहीं थी. उनकी कववता उनके “स ज
ककसी बात को घम
जीिन बोध और ित्कालीन समाज व्यापी भमथ्याचार के बीच उत्पन्न द्ििंद्ि एििं िनाि की
कवििा ै ”15. मध्र्यकाल के वे ऐसे अकेले कवव हैं श्जन्होंने जीणफ-िीणफ परं पराओं एवं परं परा के
नाम पर अंधववववास एवं कमफकांडों का खल
ु कर ववरोध ककर्या है . वे पररचचत िब्ि-संसार के
माध्र्यम से ऐसा सजीव और द्वंद्वात्मक चचर उपश्स्थत करते हैं कक श्रोता स्वर्यं को लेखक से
रु-ब-रु समझने लगता है . अनि
ु वों की इसी अशिव्र्यश्तत को श्जसे आधतु नक आलोचना की
िब्िावली में सपािबर्यानी कहते हैं , कबीर की िाषा में स्पटितः और काव्र्यात्मक रूप में िे खा जा
सकता है . मनुटर्य मार की एकता में ववववास एवं िीन-हीन तथा उपेक्षक्षत मानव समाज के प्रतत
अपार सहानुिूतत और उन तक अपनी आवाज पहुाँचाने का उद्देवर्य िी उन्हें घुमा-कर्रा कर कुछ
कहने से सचेत करता है . उिाहरण-

“सुखखया सब सिंसार ै , खािै अरु सोिै

दखु खया दास कबीर ै , जागै अरु रोिै”

कबीर के र्यहााँ िाषा और संवेिना िोनों के कई रं ग हैं . कबीर पर जब िी बात की जाती है तो


उनकी संवेिना को उनकी ववद्रोही चेतना एवं उनके कवव र्या समाजसुधारक वाले रूप से जोड़
दिर्या जाता है . तो िाषा को काव्र्यिास्रीर्य प्रततमानों पर कसकर ‘िाखा’ के पक्ष में तनटकषफ िे
दिर्या जाता है . हमें र्यह िी ध्र्यान िे ना होगा कक कबीर के नाम पर आज जो िी उपलब्ध रचनाएाँ
हैं, उनमें आधे से अचधक पिों में ‘कहै कबीर’ का संबोधन आता है और र्यह िैली मार कबीर की
ही नहीं सूरिास, तुलसीिास एवं रहीम तक में शमलती है . परन्तु कबीर के र्यहााँ इस संबोधन का
वविेष सन्ििफ है . इस पर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने िी ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में ववस्तार से चचाफ
की है . कवव की पहचान िब्ि से नहीं आवाज से होती है . कबीर ककसको और तर्या सुनाना चाहते
थे इसकी तकफसंगत व्र्याख्र्या करते हुए परु
ु षोत्तम अग्रवाल शलखते हैं “जो पांडे और मौलाना, राजा
और सामंत समझ रहे हैं कक उनका काम है कहना और बाकी सब का सुनना और मानना, उन्हें
चन
ु ौती िे ती कासी के जुलाहे की, िस्तकार की आवाज किम-किम पर सीना ठोंककर कहती है
कक- कहै कबीर.... िो साधारण िब्ि असाधारण चन
ु ौती िे ते हैं सत्ता तंर को, ज्ञान पर

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

एकाचधकार के िावों को. श्जन्हें संबोचधत करते हैं- ‘पांडे कौन कुमतत तोदह लागी’ र्या “जोरै खुदाइ
िुरक मोह करिा, आपै ककन कट जाई”. क्जस िोिा को िे अपनेपन के साथ, लगाि के साथ
सिंबोचधि करिे ैं. क्जसे सुनाना चा िे ैं ि साधु ै , कबीर का भाई जाि भाई ै न ीिं. “सुनो
भाई साधो...”16

तया आप जानिे ैं ?
कबीर की अचधकांि साखखर्यों में िोहा छं ि का प्रर्योग ककर्या गर्या है श्जसके कारण किी-किी
साखी को िोहे का पर्याफर्य समझ शलर्या जाता है . वस्तुतः कुछ साखखर्यााँ िोहे के अततररतत सोरठा
और चौपाई जैसे छं िों में िी शलखी गई है . हजारी प्रसाि द्वववेिी का मत है – “श्जसे शसद्धों ने
‘उएस’ (उपिे ि) कहा है वही बाि में साखी बन गर्या है .”

VI. काव्य-रूप एििं छिं द-

तनगण
ुफ संतों का सारा सादहत्र्य मुख्र्यतः मत
ु तक रूप में उपलब्ध है . श्जस अंतस्साधनात्मक
अनि
ु तू तर्यों, अमत
ू फ एवं रुदिर्यों तथा कमफकाण्डीर्य पाखंडों से वे समाज को अवगत करा रहे थे,
उसके शलए मत
ु तक िैली ही सबसे उपर्यत
ु त थी. कबीर ‘िास्र के ववरुद्ध लोक का सच’ व्र्यतत
कर रहे थे. उनकी कववता लोक को संबोचधत है . उन्होंने कववता के शलए कववता नहीं शलखा
अवपतु उनकी कववता लोक को संबोचधत है इसशलए उनकी कववता को पारं पररक काव्र्यिास्रीर्य
प्रततमानों पर परखने के बजार्य उसे लोक, स्वानुिूतत एवं ववद्रोह के स्तर पर ही सही तरीके से
समझा जा सकता है . कबीर की समस्त रचनाओं को “िो प्रकार की रचनाओं में ववितत ककर्या है .
बानी और बीजक. बानी के िी तीन िाग ककर्ये गए हैं - साखी, सबद और रमैनी I बीजक में भी
ये िीनों भाग भमलिे ैं ककन्िु उसमें साखी एििं सबदों की सिंख्या अपेक्षाकृि कम ैं.”17 कबीर
सादहत्र्य का अध्र्यर्यन करने पर हम िे खते हैं कक कबीर ने हलांकक चौतीसी, ववप्रितीसी, कहरा,
दहंडोला, वसंत, चाचर, बेशल, बबरहुली, बावनी, चथतत आदि अनेक छं िों का प्रर्योग ककर्या है , परन्तु
उनका वप्रर्य छं ि साखी, सबि और रमैनी ही है. इनमें से िी साखी न केवल कबीर का अवपतु
अचधकांि संत कववर्यों का वप्रर्य एवं बहुप्रर्यत
ु त काव्र्य रूप है . कबीर की अचधकांि साखखर्यों में
िोहा छं ि का प्रर्योग ककर्या गर्या है श्जसके कारण किी-किी साखी को िोहे का पर्याफर्य समझ
शलर्या जाता है . वस्तुतः कुछ साखखर्यााँ िोहे के अततररतत सोरठा और चौपाई जैसे छं िों में िी
शलखी गई है . हजारी प्रसाि द्वववेिी का मत है – “क्जसे भसद्धों ने ‘उएस’ (उपदे श) क ा ै ि ी बाद

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

में साखी बन गया ै .”18 साखी के बाि कबीर के द्वारा बहुप्रर्युतत काव्र्य रूप सबि’ है . इसके
शलए पि र्या बानी का प्रर्योग िी ककर्या जाता है . कबीर तथा अन्र्य संत इन पिों को जनमानस
के बीच गार्या करते थे, इसशलए अचधकांि ‘सबि’ रागबद्ध है . रमैनी को लेकर र्यह भ्रम है कक
इसमें राम से संबंचधत बातें कही गई है . इसशलए माना जाता है कक ‘रामार्यण’ िब्ि बबगड़ते –
बबगड़ते रमैनी हो गर्या. ककन्तु सिी रमैतनर्यााँ इसी ववषर्य तक सीशमत नहीं हैं. कुछ में सामाश्जक
ववद्रप
ू ताओं पर िी प्रहार ककर्या गर्या है . स्पटि है कक कबीर ने अपने काव्र्य में मूल रूप से िोहा
के रूप में साखखर्यों तथा ववशिन्न राग-रागतनर्यों के रूप में पिों का प्रर्योग ककर्या गर्या है . छं िों में
बंधे एवं लोक-जीवन की सहजता से संबंध होने के कारण ही कबीर के काव्र्य में सुर, लर्य एवं
ताल की तारतम्र्यता िी पररलक्षक्षत हुई है - उिाहरण-

“मोको क ााँ ढूढै रे बिंदे, मैं िो िेरे पास में ”

न मैं दे िल, न मैं मक्स्जद न काबे कैलास में .”

VII. प्रिीकात्मकिा एििं उल्टबााँभसयााँ -


र्यह ववचचर ववरोधािास है कक कबीर की िाषा में जहााँ एक ओर सािगी, आक्ामकता, व्र्यंग्र्य और
स्पटिता है वहीँ िस
ू री और उसका शमजाज उसकी प्रतीकात्मकता में खल
ु ता है . दहंिी सादहत्र्य में
कबीर के रचनात्मक व्र्यश्ततत्व का िो रूप हमें दिखाई पड़ता है . एक पक्ष उनकी सामाश्जक
चेतना से संबद्ध और इस रूप में सामाश्जक ववकृततर्यों से मठ
ु िेड़ उनकी रचनात्मक अतनवार्यफता
है . िस
ू रा पक्ष कबीर की साधना-पद्धतत का है जहााँ वे अपनी आध्र्याश्त्मक अनि
ु वों की ितु नर्या से
जुड़ते हैं और इसकी अशिव्र्यश्तत सामान्र्य िाषा में संिव नहीं है जब सामान्र्य िाषा अनुिव की
गहनता की अशिव्र्यश्तत में अक्षम हो जाती है तब साधक प्रतीकों का आश्रर्य लेता है . प्रतीक
अनुिूतत की सूक्ष्मता को लौककक स्तर पर व्र्याख्र्यातर्यत करने की एक व्र्यवस्था है . कबीर िी
अपने आध्र्याश्त्मक अनि
ु वों की अशिव्र्यश्तत के शलए प्रतीकों का िरपरू प्रर्योग करते हैं. उिाहरण-

“जल में कुिंभ, कुिंभ में जल, बा र भीिर पानी I

फूटा कुिंभ जल जलह समाना, इनि िथ्य कह्यौ ग्यानी II”

कबीर ने अपने प्रतीकों का चन


ु ाव ववशिन्न क्षेरों से ककर्या है . उनके प्रतीकों की ितु नर्या का एक
सन्ििफ र्योग, साधना र्या साधनात्मक अनुिवों को बर्यााँ करता है तो िस
ू रा पक्ष लोक जीवन की

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

माशमफक अनुिूतत को उकेरने में िी सक्षम है . जीवन के ववववध क्षेरों से प्रर्युतत कबीर के कुछ
प्रतीकों का उिाहरण िे खखए-

ठयोग- “आकासे मुाँ औधा कुआाँ, पािाले पनन ारर / िाको पानी ाँ सा पीिै बबरला आहद
विचारर I”

प्राकृनिक प्रिीक- माली आिि दे खकै कभलयााँ करै पुकार / फुभल-फुभल चुनन भलए काक्ल्
मारी बार I”

साधनात्मक प्रिीक- “लम्बा मारग टूरर घर, विकट पिंथ ब ु मार,

क सिंिों तयों पाइए, दल


ु भ
ष रर दीदार II “

कबीर की प्रतीक-र्योजना का सबसे महत्वपूणफ पक्ष है उल्िबााँशसर्यााँ. उल्िबााँसी का िाश्ब्िक अथफ है


वह उश्तत जो अपने वाच्र्याथफ में सामान्र्य अनुिव के उलि र्या ववपरीत पड़ती हो. जब तक
उल्िबााँसी में तनदहत प्रतीक स्पटि नहीं होते तब तक वह अबझ
ू पहे ली बनी रहती है , ककन्तु जैसे
ही उसमें तनदहत प्रतीकों का अथफ खल
ु ता है वैसे ही उल्िबााँसी का अथफ िी खल
ु जाता है .
पीताम्बर ित्त बड़थ्वाल शलखते हैं- “आध्याक्त्मक अनुभि की अननिषचनीयिा के कारण साधक
को कभी-कभी परस्पर विरोधी उक्तियों द्िारा व्यति करने का ढिं ग अपनाना पड़िा ै , और इसके
आधार पर ऐसे गूढ़ प्रिीकों की सक्ृ ष्ट ो जािी ै क्जन् ें उल्टबााँसी का विपयषय क िे ै . ककन्िु
कभी-कभी इन उल्टबााँभसयों का प्रयोग अथष को जान बुझकर नछपाने के भलए भी ु आ करिा ै
क्जससे आध्याक्त्मक मागष के र स्यों का पिा अयोग्य व्यक्ति को न लग पािै.”19 संत सादहत्र्य
के वविेषज्ञ-ववद्वान परिुराम चतुवेिी का िी मानना है - “ये उल्टबााँभसयााँ ब ु धा अटपटी बाननयों
के रूप में रची गई र िी ै क्जस कारण इनके गूढ़ आशय को शीघ्र न समझ पाने िाला इन् ें
सुनकर आश्चयष में अिाक् र जािा ै और जब कभी इन पर ध्यानपूिक
ष विचार कर लेने पर
ि इन शब्दों के पीछे ननह ि र स्य को जान पािा ै िो उसे अपार आनिंद भी भमलिा ै .”20

कबीर की अचधकांि आध्र्याश्त्मक उश्ततर्यााँ उल्िबााँशसर्यों के रूप में अशिव्र्यतत हुई हैं. वस्तुतः
कबीर की उल्िबााँशसर्यााँ आदिकालीन नाथ एवं शसद्ध परं परा में प्रर्युतत हुई संधा िाषा र्या संध्र्या
िाषा) का ही ववकशसत रूप मालम
ु होती है . नाथ परं परा के साधक हठर्योग में ववववास रखते थे
श्जसमें इश्न्द्रर्यों का स्विाव पलिने एवं कुण्डशलनी जागरण का प्रर्यास ककर्या जाता था. चाँ कू क

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

कबीर की परवररि नाथ परं परा में हुई थी. इसशलए कबीर पर संधा िाषा का सीधा असर दिखता
है . आध्र्याश्त्मक अनुिूततर्यों (संधा िाषा का प्रिाव ही सही) के अलावा कबीर द्वारा उलिवाशसर्यों
के प्रर्योग का एक और कारण था. शिव कुमार शमश्र शलखते हैं- “उल्टबााँभसयााँ उन् ोंने साधारण
जनिा को अपने ज्ञान से आििंककि करने के भलए न ीिं भलखी. उनका लक्ष्य पोथी ज्ञान से दबे
पक्ण्डि थे, क्जनके बीच कबीर को र ना और जीना था. जाह र ै कक उनकी उल्टबााँभसयों के अथष
पोचथयों में न ीिं थे और पिंडडिों की नगरी कासी का कोई भी पक्ण्डि उनका अथष करने में समथष
न ीिं था. पिंडडिों के अ िंकार को कबीर की ये उल्टबााँभसयााँ िोड़िी ैं, उनके सारे ज्ञान की पोल
खोल दे िी ैं.”21 स्पटि है कबीर ने उल्िबााँशसर्यों का प्रर्योग आध्र्याश्त्मक अनुिूततर्यों को बताने के
साथ-साथ कासी के अहं काररर्यों की पोल-खोल के शलए िी ककर्या जान पड़ता हैं. ववरोधािासमर्यी
प्रस्तुतत के कारण उल्िबााँसी िैली में रचे गए पिों में प्रर्युतत प्रतीक अचधक सूक्ष्म और सांकेततक
हैं. र्यथा-

-नैया बीच नहदया डूबी जाए I

-एक अचम्भा दे खा रे भाई I ठाढा भसिंध चरािे गाई I

-बैल बबयाय गाय भई बााँझ बछरा दु े िीनी सााँझ I

कहीं-कहीं गोरखनाथ की प्रतीकात्मक उश्ततर्यों का प्रिाव िी कबीर की उलिवाशसर्यों पर िे खने को


शमलता है . जैस-े

गोरखनाथ- “नाथ बोलै अमृि िाणी / बररसैगी कम्बली भीजेगा पाणी I”

कबीर- “कबीरदास के उल्टे िाणी / बरसै कम्बल भीजै पानी I”

कबीर में मूलतः अथफ ग्रहण नहीं बबम्ब ग्रहण होता है . गद्र्य की िाषा सामान्र्यतः ववचारात्मक
और अशिधात्मक होती है जबकक पद्र्य की िाषा बबम्बात्मक और ध्वन्र्यात्मक. लेककन कबीर की
िाषा में अनि
ु तू त के साथ-साथ ववचारों की बहुलता के कारण वह अचधकांितः गद्र्य के गण
ु ों को
ही धारण करती है . इसशलए उनके द्वारा प्रर्यत
ु त बबम्ब सामान्र्यतः सहज और सवफग्राह्र्य है . जैस-े

“नैनो की करर कोठरी, पुिरी पलिंग बबछाय

पलकों की चचकक डारर कै, वपया को भलया ररझाय.”

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

तया आप जानिे ैं ?
हजारी प्रसाि द्वववेिी ने कबीर की िाषा को िावानुरुवपणी माना है जो िाषा का सवोत्तम गुण
होता है . उनके अनुसार –“कबीर का िाषा पर जबरिस्त अचधकार था. वे िाषा के डडतिे िर थे
श्जस बात को श्जस रूप में कहना चाहा उसी रूप में िाषा से कहला दिर्या. बन गए तो सीधे
सािे नहीं तो िरे रा िे कर. िाषा कबीर के सामने कुछ लाचार सी नजर आती थी.”

5. ननष्कषष -

कबीर की िाषा अनुिूततर्यों के साथ-साथ साधना एवं ववचारों से िी तनर्यंबरत है . इसशलए उन्होंने
एक और र्यौचगक कक्र्याओं और आध्र्याश्त्मक चचन्तनों को प्रतीकों के माध्र्यम से व्र्यतत ककर्या है
तो िस
ू री और मध्र्यकालीन धमफ-साधना, िारतीर्य ििफन, इस्लाम तथा सूर्ी के पाररिावषक िब्िों
को िी समादहत ककर्या है . र्यथा- अनहि नाि, कुण्डशलनी, समाचध, सरु तत, तनरतत, तनरं जन, इवक
इत्र्यादि. इसके अततररतत कबीर की िाषा सरल, स्वािाववक और लोकोन्मुख होते हुए िी अनेक
स्थानों पर संकेतात्मक, प्रतीकात्मक और पाररिावषक िब्िावली से पररपूणफ है . पररणामस्वरूप
कुछ स्थानों पर उनकी िाषा में िरु
ु हता का िी समावेि हो गर्या है . र्यथा-

दक्ु ल् न गाि ु ाँ मिंगलचार/ म घर आए राजा राम भरिार

कबीर की िाषा के ववववध पक्षों का अध्र्यर्यन-वववलेषण करने के उपरांत अब कबीर की िाषा की


मूल प्रकृतत को समझने की कोशिि करें तो हम पाते हैं कक वह एक ओर जहााँ साधना एवं
ववचारों से प्रिाववत होने के कारण गद्र्यात्मक है वहीँ िस
ू री और अनुिूतत की तीव्रता एवं
िावानुकूलता के कारण पद्र्य-रचना के तनर्यमों की िी वहााँ रक्षा हुई है हलााँकक अपनी रचना-
प्रकक्र्या में कबीर न तो तरािे हुए िब्िों की प्रतीक्षा करते हैं न ही उन्हें रशसकों के ताशलर्यों की
परवाह है . इसशलए अकथ कहानी को रूप िे कर मनोहारी बनाने की जैसी ताकत कबीर में है वह
अन्र्यर िल
ु ि
फ है . संिवतः इसीशलए हजारी प्रसाि द्वववेिी ने कबीर की िाषा को िावानुरुवपणी
माना है जो िाषा का सवोत्तम गुण होता है . उनके अनुसार– “कबीर का भाषा पर जबरदस्ि
अचधकार था. िे भाषा के डडतटे टर थे क्जस बाि को क्जस रूप में क ना चा उसी रूप में भाषा
से क ला हदया. बन गए िो सीधे सादे न ीिं िो दरे रा दे कर. भाषा कबीर के सामने कुछ लाचार
सी नजर आिी थी.”22

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

समग्रतः हम कह सकते है कक िाषा की दृश्टि से कबीर ऐसे सच्चे लोकनार्यक हैं श्जन्होंने अपनी
बात को लोकिाषा में अशिव्र्यतत ककर्या. र्यह उनकी लेखनी का ही जाि ू था कक सैकड़ों वषों के
बाि आज िी जनता अपने को कबीर के नजिीक पाती है , उनकी रचनाओं से िश्तत और साहस
पाती है . िाषा की इस वविेषता को दहंिी में बहुत बाि प्रेमचंि की रचनाओं में िे खने को शमलता
है . हलांकक कबीर की िाषा में कई िोष िी है . आलोचकों ने उनकी िाषा पर कई आरोप िी
लगार्ये हैं. वर्यामसुंिर िास को उनमें सादहश्त्र्यकता का अिाव, िहु राव से रोचकता की कमी,
अपररमाश्जफत एवं ज्ञान की िुटकता से बंधी लगती है तो ववजर्यिे व नारार्यण साही का मानना है
कक कबीर अपनी प्रततिा के सहारे िाषा को ठे ल-ठे ल कर आगे बढ़ाते हैं. अनेक आलोचकों को
कबीर की िाषा उज्जड्ड एवं गवााँरु िी लगती है . इन आलोचकों की रार्य एवं उनके पव
ू ाफग्रह
उनके खि
ु के िार्यरे में िले तकफसंगत हो परन्तु हम िे खते हैं कक कबीर की िाषा संघषफ से
साक्षात्कार और ववद्रोह की िाषा है जो िास्र से ज्र्यािा लोक-सच को बर्यााँ करती है . वे पांडडत्र्य
के आतंक को अस्वीकार कर कववता में मानवीर्य अनुिूततर्यों की सहजता और उसकी प्रततबद्धता
को व्र्यापक पररप्रेक्ष्र्य प्रिान करने वाले कालजर्यी रचनाकार है . उनकी िाषा कहने के शलए
“उज्जड्ड, गाँवारु चाहे जो कुछ कह ली जार्ये परन्तु उनकी अशिव्र्यश्तत के छलकते सौन्िर्यफ एवं
िैली की ववववधता पर बड़े-बड़े नागर एवं पररटकृत कववर्यों की िाषा न्र्यौछावर की जा सकती है .”
उनकी िाषा सचमुच में िारतीर्य संस्कृतत की ववववधता में एकता का प्रतततनचधत्व करती है तथा
िास्र से अचधक लोक एवं िाषा के बिले िाखा के पक्ष में तकफपूणफ िं ग से ववचार करने को हमें
मजबूर करती है .

प्रश्नािली

िस्िुननष्ठ प्रश्न-

1. कबीर को “िाषा का डडतिे िर” ककस आलोचक ने कहा है -


(क) रामचंद्र ित
ु ल
(ख) जारी प्रसाद द्वििेदी
(ग) नगेन्द्र
(घ) ववववनाथ बरपाठी
2. कबीर ग्रन्थावली के संपािक कौन हैं ?

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

(क) हजारी प्रसाि द्वववेिी


(ख) रामचंद्र िुतल
(ग) श्यामसुिंदरदास
(घ) रामकुमार वमाफ
3. तनम्नशलखखत में से ककस िाषा का प्रिाव कबीर की िाषा में नहीं दिखाई पड़ता है ?
(क) पंजाबी
(ख) खड़ी बोली
(ग) िोजपुरी
(घ) िभमल
4. “बोली हमारी पूरब की हमें लखैं नहीं कोर्य” र्यह कथन ककसका है ?
(क) कबीरदास
(ख) तुलसीिास
(ग) धरमिास
(घ) जार्यसी
5. तनम्नशलखखत में से ककस काव्र्य-रूप में कबीर ने रचना नहीं की है ?
(क) साखी
(ख) प्रबिंध-काव्य
(ग) सबि
(घ) रमैनी
6. आचार्यफ रामचंद्र िुतल ने कबीर की िाषा को तर्या माना है ?
(क) पंचमेल खखचड़ी
(ख) सधत
ु कड़ी
(ग) पंजाबी
(घ) िोजपरु ी
7. ‘माली आवत िे खकर कशलर्यााँ करै पुकार’ इस पंश्तत में माली ककसका प्रतीक है ?
(क) बगीचे के माली का
(ख) र्ूलों की माला का
(ग) काल का

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

(घ) इनमें से कोई नहीं


8. िोहा के रूप में साखखर्यों का प्रर्योग ककस रचनाकार ने ककर्या है –
(क) कबीरदास

(ख) तल
ु सीिास
(ग) हजारी प्रसाि द्वववेिी
(घ) मीराबाई
9. कबीर की िाषा को ‘पंचमेल खखचड़ी’ ककसने कहा है ?
(क) हजारी प्रसाि द्वववेिी
(ख) रामचंद्र ित
ु ल
(ग) नामवर शसंह
(घ ) श्यामसुिंदर दास
10. कबीर की िाषा को पंजाबीपन के नजिीक ककसने माना है ?
(क) नामवर शसंह
(ख) प्रिाकर माचवे
(ग ) रामकुमार िमाष
(घ) रामस्वरूप चतुवेिी
11. “कबीर के बाि दहंिी में नागाजुन
फ से बड़ा व्र्यंग्र्यकार पैिा नहीं हुआ.” र्यह कथन ककसका है
?
(क) हजारी प्रसाि द्वववेिी
(ख) नामिर भसिं
(ग) रामचंद्र िुतल
(घ) वर्यामसुंिर िास
12. “िश्तत आन्िोलन पूरे िारत में माति
ृ ाषाओं के रचनात्मक ववस्र्ोि का आन्िोलन है ” इस
कथन के लेखक हैं -
(क) रामचंद्र िुतल
(ख) शिव कुमार शमश्र
(ग ) मैनेजर पाण्डेय
(घ) रामववलास िमाफ

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

स ी भमलान करें -

हजारी प्रसाि द्वववेिी परं परा का मल्


ू र्याङ्कन

शिवकुमार शमश्र कबीर

प्रिाकर माचवे िश्तत आन्िोलन और सूर का काव्र्य

मैनजर पाण्डेर्य िश्तत आन्िोलन और िश्तत काव्र्य

रामववलास िमाफ दहंिी सादहत्र्य का आदिकाल

दीघष उत्िरीय प्रश्न-

1. ‘आाँखखन िे खी’ के धरातल पर कबीर की िाषा का मूल्र्याङ्कन कीश्जए.


2. ‘कबीर िाषा के डडतिे िर थे’ इस कथन के आलोक में कबीर की िाषा का वववलेषण करें .
3. ‘मध्र्यकालीन काव्र्य िाषा और कबीर की िाखा’ पर अपना ववचार प्रकि कीश्जए.
4. कबीर अध्र्यर्यन में आने वाली समस्र्याओं को ध्र्यान में रखकर कबीर के िाषा के िोषों
पर ववचार कीश्जए.
5. कबीर की िाषा पूरे उत्तर िारत के जनमानस का प्रतततनधत्व करती है . इससे आप कहााँ
तक सहमत हैं? तकफसंगत ववचार कीश्जए.

सन्दभष ग्रिंथ सूची-

मैनेजर पाण्डेर्य : िश्तत आन्िोलन और सूर का काव्र्य, पटृ ठ- िस


ू रे संस्करण की िूशमका
1

रामववलास िमाफ : परं परा का मल्


ू र्यांकन, पटृ ठ-69
2

मैनेजर पाण्डेर्य : िश्तत आन्िोलन और सूर का काव्र्य, पटृ ठ- प्रथम संस्करण की िूशमका
3

रामचंद्र िुतल : दहंिी सादहत्र्य का इततहास, पटृ ठ-44


4

वर्यामसुंिर िास : कबीर ग्रंथावली, पटृ ठ-46


5

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

ववववनाथ प्रसाि शमश्र : दहंिी सादहत्र्य का अतीत, िाग-1, पटृ ठ-152


6

रामकुमार वमाफ : दहंिी सादहत्र्य का आलोचनात्मक इततहास, पटृ ठ-249-50


7

गोववन्ि बरगुणार्यत : कबीर की ववचारधारा, पटृ ठ-295


8

रामववलास िमाफ : परं परा का मूल्र्यांकन, पटृ ठ-47


9

सािार- वासुिेव शसंह : कबीर साखी सुधा, पटृ ठ-45


10

सािार- िोलानाथ ततवारी : कबीर की िाषा , कबीर- सं. ववजर्येन्द्र स्नातक, पटृ ठ-242
11

हजारी प्रसाि द्वववेिी : कबीर, पटृ ठ-170


12

रामस्वरूप चतुवेिी : दहंिी सादहत्र्य और संवेिना का ववकास, पटृ ठ-40


13

सािार- ववजर्येन्द्र स्नातक (सं.) : कबीर , पटृ ठ-168


14

रामचंद्र ततवारी : कबीर मीमांसा, पटृ ठ-177


15

पुरुषोत्तम अग्रवाल – अकथ कहानी प्रेम की, पटृ ठ-406


16

द्वाररका प्रसाि सतसेना : दहंिी के प्राचीन प्रतततनचध कवव, पटृ ठ-110


17

हजारी प्रसाि द्वववेिी : दहंिी सादहत्र्य का आदिकाल, पटृ ठ-112


18

पीताम्बर ित्त बड़थ्वाल : दहंिी काव्र्य में तनगण


ुफ संप्रिार्य, पटृ ठ-370-71
19

परिुराम चतुवेिी : कबीर सादहत्र्य की परख, पटृ ठ-150


20

शिव कुमार शमश्र : िश्तत आन्िोलन और िश्तत काव्र्य, पटृ ठ-83


21

हजारी प्रसाि द्वववेिी : कबीर, पटृ ठ-170


22

स ायक पस्
ु िकें –
 हजारी प्रसाि द्वववेिी : कबीर
 ववजर्येन्द्र स्नातक (सं.) : कबीर

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य


कबीर की भाषा

 रामचंद्र ततवारी : कबीर मीमांसा


 वर्यामसुंिर िास : कबीर ग्रंथावली
 अकथ कहानी प्रेम की : परु
ु षोत्तम अग्रवाल
 दहंिी के प्राचीन प्रतततनचधत्व कवव : द्वाररका प्रसाि सतसेना
 िश्तत आन्िोलन और िश्तत काव्र्य : शिव कुमार शमश्र
 कबीर : एक अनुिीलन – रामकुमार वमाफ
 मध्र्यकालीन दहंिी काव्र्य िाषा : रामस्वरूप चतुवेिी
 दहंिी सादहत्र्य का इततहास : रामचंद्र िुतल
 कबीर के आलोचक : धमफवीर
 इन्द्रप्रस्थ िारती (कबीर वविेषांक) पबरका – अप्रैल-जन
ू 2000

जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

You might also like