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417 Puran Chand 1
417 Puran Chand 1
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साहहत्य के क्षेत्र में जो रचनाकार भाव और भाषा के द्वंध से टकरािे हुए
दोनो में साम्य स्थाविि करिा है अथाशि ् अिने भाव के अनुसार भाषा की खोज
करिा है वह बड़ा रचनाकार होिा है कबीर ऐसे कवव है क्जनकी क्जिनी प्रखर
अनभ
ु नू ि है उिनी ही महत्विूर्श अभभव्यक्ति भी ।
1
भर्वकुमार भमश्र, भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य, 2010, ि.ृ -91
2.िुरुषोत्िम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की,2010,ि.ृ -339-340
3
.जी.एन.दास : भमक्स्टक सांग्स ऑफ कबीर,1996, ि.ृ -78
62
महत्व तसबाि में है कक वे समानसत्िा और धमशसत्िा द्वारा भक्ति िर चढा
हदये वए आवरर् को हटाकर तसके मूल आर्य भावीदारी को वािस लािे ह।।''1
अथाशि तस प्रेम भक्ति के दरबार में प्रवेर् के भलए अहं कार और दं भ को छोड़ना
िड़ेवा। साथ ही साथ भति में वह िाकि और होना चाहहए क्जसमें अिने घर
को जला दे ने का दमखम हो-
63
क्षेत्र में ऐसे ही दृढ ननश्चयी और ननभशय व्यक्ति की आवश्यकिा थी।''1 र्ूर वीर
को कबीर सबसे बड़ा साधक मानिे ह। उसे जीने मरने की कोई चचंिा नहीं रहिी-
ै़
''कबीर खेि न छाडै सूखख, जूझिं दल माहहिं।
आसा जीवन-मरण की, मन में आनैं नाहहिं।।''2
कबीर की भक्ति को ‘प्रेमा भक्ति’, 'नारदी भक्ति', ‘भाव भक्ति’ तत्याहद कहा
जािा है । कबीर भक्ति के क्षेत्र में भक्ति के र्ास्त्रीय प्रर्ाली में दीत हक्षि होकर
नहीं उिरे थे कफर भी अनजाने ही उनहकने वैष्र्व भक्ति सत्र
ू के सभी सत्र
ू क िथा
अनासक्तियक का िालन अिने भक्ति में ककया है । नारदी भक्ति के भलए ''नारद
िांचरात्र में स्िष्ट ूकि से कहा वया है कक भववान के सववोपिाचध स्वूकि को
ित्िर होकर (अथाशि अननय भाव से) समस्ि तंहद्रयक और मन के द्वारा सेवन
करना ही भक्ति है ।''10 कुछ तसी िरह के लक्षर् कबीर के भक्ति के भी है
क्जसमें अननय भाव की ही प्रमुखिा है । ईश्वर के प्रनि प्रेम ग्यारह की
आसक्तियक वुर् माहत्म्यसक्ति, िूजासक्ति, स्मरर्ासक्ति, दास्यासक्ति,
सख्यासक्ति, वात्सकयासक्ति, कांिार्क्ति, आत्मननवेदवासक्ति, िरम ववरहासक्ति
1
रामचंद्र निवारी, कबीर मीमांसा,2007, ि.ृ 75
2
. मािा प्रसाद वु्ि, कबीर ग्रंथावली,1969, ि.ृ 115
3
वही, ि.ृ 119
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में प्रवट होिा है । वैष्र्व भक्ति के तन आसक्तियक को कबीर की भक्ति में दे खा
जा सकिा है । कबीर जब अिने को राम का कुत्िा कहिे ह। िो वो दास्य भाव
की भक्ति को ही प्रकट कर रहे होिे ह।-
कबीर राम को अिना वप्रयिम िथा अिने को उनकी बहुररया कहकर कांिासक्ति
का ही िररचय दे िे ह।-
''हरर मोरा पीव मैं हरर की बहुररया,
ै़
राम बडे मैं छुटक लहुररया।''2
जब कबीर हरर को जननी और अिने को उसके बेटे ूकि में प्रस्िुि करिे
ह। िो वहा वे वात्सकय भाव व्यति करिे ह।
1
श्यामसंद
ु र दास, कबीर ग्रंथावली, ,2011,ि.ृ 63
2
वही, 2011 ि.ृ 143
3
मोहन भसंह ककी, कबीर(अनूहदि)ि.ृ -30
4
राम कुमार वमाश, कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ 85
65
''मेरा मुझ में कुछ नहीिं, जो कुछ है सो िेरा
िेरा िुझको सौंपिा, तया लागै है मेरा।''1
1
श्यामसंद
ु र दास, कबीर ग्रंथावली, , 2011ि.ृ -,62
2
हजारी प्रसाद हदवेदी, कबीर,1990, ि.ृ 250
3
रामकुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ 87
4
श्यामसुंदर दास: कबीर ग्रंथवली, 2011, ि.ृ 54
66
सकिा है , जहा खड़े होकर कबीर िथा कचथि योचवयक, िंडडि और भति िीनक
को चुनलिी दे रहे थे।''1
कबीर ननवुर्
श भक्ति साधना को उसके चरम िररर्नि िक ले जािे ह।।
कबीर की ननवुर्
श भक्ति उस सवुर् राम भक्ति के सीधे ववरोध में आिी है ,
क्जसमें राम को दर्रथ का िुत्र मानकर उनके अविारी ूकि का चचत्रर् है । कबीर
राम के तस ूकि के कायल नहीं थे उनका राम िो कोई दस
ू रा ममश रखने वाला
था-
दसरथ सुि तिहुाँ लोक बखाना
1
रामचंद्र निवारी :कबीर मीमांसा ,2007,ि-ृ 78
2
रामचंद्र निवारी: कबीर मीमांसा, 2007 ि.ृ 78
3
धीरें द्र वमाश (प्र॰सं.) :हहंदी साहहत्यकोर् (प्रथम भाव ),2009 ,ि.ृ 535
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हदव्य र्क्ति से ति-प्रोि, नूिन िरम आननद, मुति और प्रवक्ृ त्िकृि अनुभव
करिी है ।
लेडी अिंडर हहल के अनुसार - ''रहस्यवाद िरम सत्िा के प्रनि भावुकिा भरी
प्रनिकरियया को कहा है ।"1
प्रो. आर. डी. रानाडे के अनुसार ''“ईश्वर के प्रनि साधक की सरल, सहज, सीधी
िथा प्रत्यक्ष अनि:प्रज्ञात्मक अनुभूनि ही रहस्यवाद ह।।”2
1
The Poetry of my mysticism might be defined on the one hand as a temperamental
reaction to the vision of prophecyरवींद्र नाथ टै वोर :वन हं ड्रेड िोएम्स ऑफ कबीर ,1995 ,ि ृ xix
2
“Mysticism denotes that attitude of mind which involves a direct, immediate firsthand
intuitive apprehension of God”.-रामचंद्र निवारी : कबीर मीमांसा, 2007 , से उद्धृि, ि ृ 87
3
आचायश रामचंद्र र्ुतल :भाव -2,1999,ि ृ .48
4
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ . 92
श्यामसंद
ु र दास :कबीर ग्रंथावली , 2011
5
68
श्यामसुनदर दास कहिे ह। कक कवविा में रहस्यवाद भावुकिा का आधार िािे ह।।
वे भलखिे ह।- ''चचनिन के क्षेत्र का ्रहह्मवाद कवविा के क्षेत्र में जाकर ककिना
और भावुकिा का आधार िाकर रहस्यवाद का ूकि िकड़िा है ।''1
उियुत
श ि कथनक से स्िष्ट है कक रहस्यवाद आत्मा-िरमात्मा के एकात्म
स्थाविि करने की प्रवक्ृ त्ि है । यह प्रत्यक्ष संयोवानुभव की प्रकरियया ववर्ेष है ।
तसकी अनुभूनि की अवस्था में ववषय और व्यक्ति का अववभाज्य एकात्म-भमश्रर्
हो जािा है । िरमात्मा सवाशिीि है और आत्मा उसकी प्रकृनि की अंर्ाचधकाररर्ी
है । अनुभूनि की अवस्था भी सवाशिीि होिी है । यह दयदय का धमश है । वह अिने
जीवन में ववचारर्ा, एकानि, आध्याक्त्मक आननद को स्वीकार करिा है ।
साक्षात्कार की क्स्थनि अननवशचनीय होिी है । तस िरह हम कह सकिे ह। कक
दृश्य जवि में व्या्ि उस व्यति और अवोचर सत्िा से आत्मा के रावात्मक
संबंध स्थाविि करने को रहस्यवाद कहा जािा है । रहस्यवादी िरम सत्िा की
क्जज्ञासा प्रकट करिा है । तसके अनिवशि एक कवव उस ववराट सत्िा के प्रनि
अिने ऐसे भावोद्वारक को व्यति करिा है , क्जनमें सुख-द:ु ख, आननद-ववषाद,
हास-रुदन, संयोव-ववयोव घुले रहिे ह। और अननवशचनीय आननद का अनुभव
ककया जा सकिा है ।
1
वही, ि ृ 56
69
रहस्यवाद, बलद्ध रहस्यवाद और व्यक्तििरक रहस्यवाद के ूकि में भमलिा है ।
अंनिम प्रकार के भी दो ूकि र्ास्त्रीय और सावशललककक, स्वीकार ककए वए ह।।''1
तस िरह रहस्यवाद की तस व्यािक अवधारर्ा को सवशसम्मि दार्शननक
मानयिातं के ूकि में बांधना कह न है ।
ईसाई धमश में भी रहस्यवादी ििव् भमलिे ह।। बातबबल रहस्यवाद का श्रेष्
ग्रंथ है ।''उसके एविभसकस नामक अंर्क में ईश्वर के प्रत्यक्ष साक्षात्कार की
हदव्यानभ
ु नू ि का वर्शन है । संि िाल की श्रद्धा, आस्था और ववश्वास का आधार
यह हदव्य साक्षात्कार ही है ...''2 तस िरह ईसाई धमश के अंिवशि बहुि से संि
ऐसे हुए है जो रहस्यवादी है ।तस्लाम में रहस्यवाद का प्रारं भ सूफीवाद से हुआ।
उनकी ''साधना में अनेक सीहि़या िार करनी होिी है प्रायक्श्चि, िररविशन, त्याव,
दररद्रिा, धैय,श ईश्वर में ववश्वास ईश्वरे ्छा में संिोष आहद। तनके उिरांि
आध्याक्त्मक अनुभूनि की भय, आर्ा, प्रेम ्यास और साक्षात्कार की दर्ाए
आिी है । सूफी साधना से दररद्रिा, िि और िववत्रिा युति जीवन िथा सदवुूक
की कृिा अननवायश है ।''3 उियत
ुश ि वववरर् से स्िष्ट है कक तस्लामी रहस्यवाद में
भी िरम ित्व, वूक
ु की महिा, अध्याक्त्मक अनभ
ु नू ि, साक्षात्कार आहद का
समावेर् है । यह भारिीय रहस्यवाद से अचधक ननकट है । वजाली, जलालुद्दीन
सूफी, हाकफज, उमर, खैयास, ननजामी,सादी और जामी प्रभसद्ध ईरानी सूफी कवव
ह।। भारि में भी सूफी संि और कवव हुए है ।
1
वासुदेव भसंह(सं) : कबीर , 2004 ,ि ृ . 138
2
धीरें द्र वमाश (प्र॰सं.) :हहंदी साहहत्यकोर् (प्रथम भाव ),2009, ि ृ . 37
3
वही, ि-ृ 37
70
उिलब्ध है । रवीद्रनाथ से प्रभाववि होकर छायावादी कववयक ने भी रहस्यवादी
रचनाए दी। एक िरह से यह कृबत्रम रहस्वाद है ।
उियुत
श ि वववरर्क से स्िष्ट है कक रहस्यवादी ववचार बहुि ही व्यािक है ।
ककसी न ककसी ूकि में यह मनुष्य के आहदम काल से आज िक उिक्स्थि है ।
तसके ववववध प्रकार और भेद है । यह ककसी ववभर्ष्ट अवधारर्ा में नहीं बंधा है ।
िक्श्चमी रहस्यवाद और भारिीय रहस्यवाद में अनिर के बावजूद समान ित्व
मलजूद है ।
रहस्यवाद की क्स्थति
उियुत
श ि उद्धरर्क से स्िष्ट है रहस्यवाद में िरम सत्िा के प्रनि क्जज्ञासा
की भावना रहिी है । रहस्यवादी साधक िरम सत्िा के महत्व का प्रदर्शन करिे
हुए उससे भमलन या दर्शन करने का प्रयास करिे ह।। भलनिक ववध और तलेष से
1
रामकुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ . 96
2
वही ,ि ृ . 97
3
वही,ि.ृ 97
71
छुटकारा िाने के बाद उस सत्िा का आभास या दर्शन होिा है िथा संसार का
वास्िववक ज्ञान या िरोक्ष अनुभूनि होिी है । कफर, आत्मा और िरमात्मा का चचर
भमलन होिा है । आत्मा में िरमात्मा के वुर्क का समाहार हो जािा है ।
कबीर के रहस्यवाद की क्स्थनि और ववर्ेषिा के अध्ययन से ििा चलिा
है कक रहस्यवाद के कुछ सामानय ित्वक के अनिररति उनकी अलव ववर्ेषिा है ।
उनके रहस्यवाद में भारिीय और ववदे र्ी दोनक प्रकार की ववर्ेषिातं का समावेर्
है । यह कबीर के हहंद ू और मस
ु लमान दोनक प्रकार के संिक के साननध्य में रहने
का िररर्ाम है । कबीर रहस्यवादी क्स्थनियक को बड़े सजीव ि़ं व से प्रस्िुि करिे
ह।। यथा-
(1.) क्जज्ञासा की भावना- रहस्यवाद में िरम ित्व को जानने की त्छा िीव्र
होिी है । उसी िरह कबीर में भी क्जज्ञासा की भावना है । कबीर का ईश्वर ननवुर्
श
एवं ननराकार है । वह सवशत्र ववद्यमान है । कबीर का मन अिने तष्टदे व के प्रनि
क्जज्ञासा उत्िनन करि है और जानना चाहि है , कक वह ्रहह्म कैसा है ? कहा
है ? और ककस िरह वह अिनी संिूर्श करियया करिा रहिा है । तस चचंिन में
डूबकर भलखिे ह। कक क्जस ्रहह्म का न ूकि है , न रे खा है और न क्जसका वर्श
है , वह तया है ? यह ्रहह्माण्ड िथा ये प्रार् कहा से आिे ह।? मि
ृ जीव कहा
जाकर ववलीन हो जािा है ? जीवक की समस्ि तक्नद्रया कहा ववश्राम करिी है , वह
मरने के बाद कहा जािी है -
72
नहीिं ब्रहमािंड पुतन नााँही, पिंच ित्व भी नाहीिं।
इडा वपिंगला सुखमन नााँही ,ए गुण कहााँ समाहीिं''1
उियुत
श ि िंक्तियक से स्िष्ट है कक कबीर के मक्स्िष्क में कुििूहल, क्जज्ञासा एवं
ववस्मय की भावना है । कबीर सब कुछ जानने के भलए िीव्र उत्कं ा व्यति करिे
ह। ।
1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि ृ 125
2
वही, ि ृ . 49
73
''सबै रसायन मैं ककया, हरर सा और न कोई।
तिल इक घट में सिंचरै , िौ सब िन किंचन होइ।।''1
1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 61
2
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ -97
33
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 54
74
''ववरह कहैं कबीर सौं, िू क्जन छााँछे मोहह।
पार ब्रहम के िेज में , िहााँ लै राखो िोहह।''1
1
द्वाररका प्रसाद सतसेना:हहनदी के प्राचीन प्रनिननचध कवव( नवीिम सं.), ि ृ 85
2
िुूकषोिम अग्रवाल :अकथ कहानी प्रेम की ,2010 ,ि ृ .-368
3
िुूकषोिम अग्रवाल :अकथ कहानी प्रेम की ,2010 ,ि ृ .-368
4
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 74
75
करना िड़ा। कबीर ने मन को ननयंबत्रि करने िरमात्मा के नाम का स्मरर्
करने, आचरर् को र्ुद्ध रखने, ववचार और आचरर् में एकिा लाने, सांसाररक
प्रलोभनक से अलव रहने ,सत्य को ग्रहर् करने, अहहंसात्मक दृक्ष्टकोर् को
अिनाने,अहं कार को त्यावने और जीवन को मत
ु ि होने की आवश्यकिा िर जो
बार-बार बल हदया है , वह मन के िररष्कार के भलए ही होिा है । सब वुूक की
कृिा से संभव होिे ह।-
अथाशि म। ससीम को िार करके असीम में िहुच वया। वही मेरा र्ाश्वि ननवास
हो वया। वहा म।ने अनुभव ककया कक बबना फूल के एक कमल िखला हुआ है ।
तसका दर्शन भववान का ननजी दास ही कर सकिा है । तस िरह कबीर
सांसाररक माया मोह िर ववजय प्रा्ि करके ्रहह्म ज्योनि दर्शन करने लविा
है ।‘्रहह्म-ज्योनि’ का दर्शन सब नहीं,बक्कक कोई साधक ही कर सकिा है ।
1
मािा प्रसाद वु्ि :कबीर ग्रंथावली, 1969 , ि-ृ 41
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 58
76
(6) वास्िववक ज्ञान और परमानुभूति
स्थायी भमलन
1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 59
2
वही,ि ृ . 117
77
वववाहोिरांि िरम ित्व से अदभूि भमलन होिा है , क्जससे अननवचशनीय आनंद
की उिलब्ध होिी है । कबीर कहिे ह। भववान की संवनि से म। र्ीिल हो वया
हू। अब मोह की िाि भमट वई है । अब अंदर में साक्षात्कार हो जाने के कारर्
म। राि-हदन सख
ु की ननचध प्रा्ि कर रहा हू।
''हरर सिंगति सीिल भया, भमटा मोह की िाप।
तनस बासुरर सुख तनध्य लहया,जब अिंिरर प्रकटना आप।।''2
1
जी.एन.दास : लव सग्ज ऑफ कबीर,1994, ि ृ .39
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 59
3
वही,ि ृ 128
78
जल में भरा घड़ा जल में िैर रहा है । तसके बाहर,भीिर िानी है । घड़ा
(माया) फूटने िर जल एक हो जािा है ।
ईसा के 8वीं र्िाब्दी में तस्लाम धमश के अंिवशि तनके िरं िरावि आदर्ों
के ववरोध में सूफी संप्रदाय का उदय हुआ। सूफीमि में बंदे और खुदा का
एकीकरर् हो सकिा है , िर माया की ववर्ेष चचाश नहीं है । िरमात्मा से भमलने
के भलए आत्मा की चार दर्ाए िार करनी िड़िी ह।- (1). र्रीयि (2). िरीकि
(3).हकीकि(4). माररफि
सूफीमि में ईश्वर स्त्री ूकि में है , िर कबीर यहा ईश्वर िुरुष ूकि में है । कबीर
के रहस्यवाद के बारे में आवे रामकुमार वमाश ने भलखा ह। ''कबीर ने अिने
रहस्यवाद के स्िष्टीकरर् में दोनक की अद्वैिवाद और सूफीमि की बािें ली ह।।
फलि: उनहकने अद्वैिवाद से माया और चचंिन िथा सूफीमि से प्रेम लेकर
अिने रहस्यवाद की सक्ृ ष्ट की है ।’’3
1
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ .102
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011,ि.ृ -61
3
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि-ृ 104
79
रहस्यवाद में प्रेम का महत्विूर्श स्थान है । तसमें उिनी ज्ञान की
आवश्यकिा नहीं है , क्जिने प्रेम की। तसभलए कबीर कहिे ह।-
''अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाई।
1
गाँग
ू े केरी सरकरा, बैठा मस
ु क
ु ाई।।''
1
जी.एन.दास : लव सांग्स ऑफ कबीर,1994, ि.ृ -115
2
काभलक प्रासाद( सं ):वह
ृ ि हहनदी कोर् ,1992 ि ृ . 509
3
वही ,509
4
'' The Study of the nature and meaning of universe and the human life."-
एस. हॉनशबी:औतसफोडश लनशर डडतसनरी ,2010 ,ि ृ 1137
80
ित्व चचंिन की प्रकरिययातं के भलए आिा है ।ककंिु मूल ूकि में यह आत्म ज्ञान,
ित्व ज्ञान अथवा िरम ित्व के ज्ञान ूकि में आिा है । यह अनुभव का िाककशक
अथवा प्रमािर्क मीमांसा है । यह संसार के ममश को उद्घाहटि करिा है । यह
िरु
ु ष प्रकृनि का ज्ञान है ।
81
संवह
ृ ीि हुए। यह दर्शन स्वाक्जशि अनुभूनि है , जैसे सहत्रक िुरुषक की सुवंचधि
मधु की एक बूद में समाहहि है ।''1
1
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ 85
हजारी प्रसाद द्वेदी कबीर,1990‘ि-ृ 38
2
3
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि-ृ .33
82
ववलक्षर् समत्त्ववाद है ।''1िरर्ुराम चिुवेदी कथन है कक ''कबीर के मि में जो
ित्व प्रकाभर्ि हुआ था वह उनके स्वाधीन चचंिन का ही िररर्ाम था।''2 श्री
अयोध्या भसंह उिाध्याय हररऔध ने भी भलखा है कक ''कबीर साहब स्वाधीन
चचंिा के िरु
ु ष थे।......उनहकने अिने ववचारक के भलए कोई आधार नहीं ि़ूि़ा, ककसी
ग्रंथ का प्रमार् नहीं चाहा। ''3 वास्िव में कबीर साहब ककसी ग्रंथ आहद ननूकिर्
नहीं करिे ह।। डॉ. राम कुमार वमाश का कथन है ''वह एक तर िो हहंदत
ु ं के
अद्वैिवाद के रियोड में िोवषि है और दस
ू री तर मस
ु लमानक के सूफी भसद्धांिक को
स्िर्श करिा है ।''4
उियत
ुश ि वववेचना के आधार िर उनके ववषय में ननम्न बािें कही जा
सकिी है -1. कबीरदास एकेश्वरवादी थे। 2.कबीरदास ्रहह्मवादी या अद्वैिवादी
थे।3. कबीरदास द्वैिाद्वैि ववलक्षर् समत्त्ववादी थे। 4. कबीरदास स्विंत्र ववचार
थे।
उियत
ुश ि बबनदत
ु ं िर चचंिकक में मिैतय नहीं है । कबीर की ववचार
िरम्िरा का िररर्ाम है या उनका स्विंत्र ववचार है । तस वववाद में िड़े बबना यह
कहना उचचि होवा कक कबीर ने ववभभनन प्रकार के अनुभवक को ववचारक को
अिने काव्य में स्थान हदया है । कबीर भाषातं की सीमातं को बार-बार िार
करिे ह।, कफर भी जीवन के ववभभनन धरािलक, स्िरक िथा वैयक्तिक साधना के
ववभभनन चरर्क के कारर् उनके काव्य में ववभभनन िरह के ववचारक का समावेर्
भमल जािा है । डॉ. रघुवंर् के र्ब्दक में यह कहा जा सकिा है कक ''काव्यात्मक
अभभव्यक्ति में अनभ
ु व की समग्रिा को दे खा जा सकिा है , क्जसके ित्ववादी
चचंिन अनिननशहहि हो जािा है ।''5
1
हजारी प्रसाद द्वेदी :कबीर,1990 ि ृ .38
2
िारर्ुरम चिव
ु ेदी ;कबीर साहहत्य की िरख , 2011 , ि ृ 89
3
आयोघ्यभसंह उिाध्याय :कबीर वाचनावली ,2004,ववरियम सं.,ि ृ 49
4
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ 101
5
रघुवंर् , कबीर ,एक नई दृक्ष्ट 2004 ,ि ृ . 68
83
कबीर के काव्य में अनिननशहहि दार्शननक ववचारक को ननम्नभलिखि
बबनदत
ु ं के ूकि में िरखा जा सकिा है —
ब्रहम ववचार
1
कबीर :हजारी प्रसाद द्वेदी,1990 ि ृ 86
2
हजारी प्रसाद द्वेदी :कबीर,1990, ि ृ . 86
3
वही , ि ृ . 86
4
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ . 84
84
मस्िक, न ूकि है न कुूकि, जो िुष्ि के सुवंध से भी िहला होने के कारर् अनि
सूक्ष्म है । कबीर कहिे ह।-
''जाकै मुाँह माथा नहीिं, नाहीिं रूप कुरूप।
्रहह्म िेज से भरा है , ऐसा िेज है जैसे सूत्रक की माला हो। वह प्रकार् ूकि है ।
जीव
भारिीय दर्शन में आत्मा (जीव) के अक्स्ित्व को स्वीकारा वया है । हजारी
प्रसाद द्वववेदी कहिे ह। ''भारिीय दार्शननकक में प्राय: कोई मिभेद नहीं ह। कक
आत्मा नामक एक स्थायी वस्िु है जो बाहरी दृश्यभाव जवि के ववववध
िररविशनक के भीिर से वुजरिा हुआ सदा एक रस रहिा है ।''4 कबीर जीवात्मा के
अलव अक्स्ििव् को स्वीकार नहीं करिे है । उनहोने जीवात्मा और िरमात्मा को
एक सत्िा माना है , ककंिु माया के प्रभाव के कारर् दोनक में अंिर प्रिीि होिा
है । वे कहिे ह। राबत्र के स्व्न में िारस (्रहह्म) और जीव में भेद रहिा है , जब
1
मोहन भसंह ककी :कबीर,2001, ि.ृ - 70
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 58
3
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि3
ृ 6
4
कबीर:हजारी प्रसाद द्वेदी,1990 ि ृ 88
85
िक म। सोिा रहिा हू िब द्वैिभाव बना रहिा है , जब जाविा हू िो अभेद हो
जािा है ।' यहा िर राबत्र अज्ञानावस्था का प्रिीक है और जावनृ ि ज्ञान दर्ा का।
जावनृ ि अवस्था में जीव और ्रहह्म की सत्िा एक है । कबीर भलखिे ह।-
वे कहिे ह। कक क्जन िंच ित्वक में र्रीर बना है , उन ित्वक का आहद कारर् भी
वही है । उसी ने जीव को कमश बंधन से युति ककया है । उसी का सब में
अक्स्ित्व है । वे कहिे ह।-
''पिंच ििु भमभल का काया , कीनी ििु कहा िे कीनरे ।
करम बिंध िु जीउ कहि हौ, करमहह ककतन जीउ दीनु रे '
हरर महह िनु है िन महह हरर है सरब तनरिं िर सेईरे ’’3
कबीर कहिे ह। यह र्रीर िंच ित्व र्रीर जब नष्ट होिा है , िब जीव और िरम
ित्व का भेद नष्ट हो जािा है । वे कहिे ह।-
''जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीिरर पातन।
फूटा कुम्भ जल जलहहिं समाना, यह िथ कहयों ज्ञानी''4
माया
कबीर दास ने माया को िर्रहह्म की एक र्क्ति माना है जो ववश्वमयी
1
श्यामसंद
ु र दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 66
2
राम कुमार वमाश(सं) : संि कबीर, ि ृ . 168
3
वही, ि ृ .87
4
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011, ि ृ .128
86
नारी के ूकि में प्रकट होकर सम्िूर्श जीवक को भ्रभमि कर विी है । रामकुमार
वमाश कबीर के संदभश में भलखा है कक “संि मि में माया अद्वैि माया की भानि
भ्रमात्मक और भमथया िो है ही, ककंिु तसके अनिररति यह सकरियय ूकि से जीव
को सत्िथ से हटाने वाली भी है । तस दृक्ष्ट में संि संप्रदाय में माया का
मानवीकरर् है । एक नारी के ूकि में है , जो चवनी है , डाककनी है , सबको खाने
वाली है ।''1 कबीर कहिे ह। कक बत्रवुर्मयी माया के वुर्क का वर्शन करना सवशथा
कह न है तयककक काटने िर वह हरी-भरी हो जािी है , यहद सींचक िो कुम्हला
जािी है । माया सि, रज, िम से उत्िनन एक वक्ष
ृ है द:ु ख और संिोष तसकी
र्ाखाए है । र्ीिलिा तसके सिने में भी नहीं है -
''कबीर माया िरबर बिबबध का, साखा दख
ु सिंिाप।
सीिलिा सवु पनै नहीिं, फल फीको ितन िाप।।''2
कबीर माया से दरू रहने की सलाह दे िे ह।। कबीर कहिे ह। कक यहद माया सल
बार भी बाह दे कर बुलाए, कफर भी उससे नहीं भमलना चाहहए, क् यककक तसने
नारद जैसे मुननयक को भी ननवल भलया िो तस िर कैसे भरोसा ककया जाय।
साधारर् जीव को वह कैस छोड़ सकिी है ।
1
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ .85
2
जी.एन.दास : भमक्स्टक सग्ज ऑफ कबीर,1994, ि.ृ -42
3
वही, ि.ृ -42
87
''कबीर माया क्जतन भमलै, सौ बररयािं दे बााँहह।
नारद से मुतनयर भमले, ककसौ भरौसो त्यााँह।।''1
जगि
भलनिक ूकि से दृक्ष्टवोचर होने वाला विंड जवि है । कबीर की दृक्ष्ट में
जवि का कोई स्विंत्र अक्स्ित्व नहीं है । केवल माया के कारर् तसकी सत्िा
दीखिी है । जवि नश्वर है , चंचल है , वनिर्ील है । कबीर कहिे ह। कक संिूर्श एक
घड़े के समान, जो ्रहह्म ूकिी जल में रखा है और अनदर बाहर वही एक ्रहह्म
ूकिी जल भरा हुआ है , ककनिु जैसे ही घड़ा फूटिा है , िो उसका जल बाहर के
जल में भमल जािा है , वैसे ही यह नाम ूकिािमक
् जवि भी अंि में उसी ्रहह्म
में लीन हो जािा है ।
मोक्ष
कबीर मोक्ष के भलए मुक्ति, ननवाशर्, अभय-िद, िरम िद, जीवनि आहद
र्ब्दक का प्रयोव करिे ह।। कबीर ने आत्मा का िंच ित्वक से मत
ु ि होकर ्रहह्म
में लीन होना या आत्मा और िरमात्मा की द्वैिानुभूनि का समा्ि हो जाना ही
मुक्ति की दर्ा माना है । कबीर कहिे ह। कक जहा िरम ज्योनि प्रकार्मान है ,
वहा तक्नद्रय माध्यमक से न िहुचा जा सकिा है और न दे खा जा सकिा है । वहा
ककसी ललककक साधन से नहीं िहुचा जा सकिा। िानी और बफश के ूकिानिरर्
की प्रकरियया के समान ववर्ुद्ध चैिनय माया से संबभलि होकर बद्ध जीव हो जािा
है और आत्मबोध या ज्ञान प्रा्ि होने िर वह माया आहद से युति होकर ववर्ुद्ध
चैिनय या र्द्ध
ु ्रहह्म हो जािा है । तनमें ित्वि: भेद नहीं रहिा है । कबीर कहिे
1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि ृ . 75
2
वही, ि ृ 128
88
ह।-
''पााँणी ही िें हहम भया, हहम हवै गया बबलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कछू कहृया न जाय।''1
उियुत
श ि वववेचन से स्िष्ट होिा है कक कबीर दास के काव्य में अनेक िरस्िर
ववरोधी दर्शन ित्वक का भी समावेर् दृक्ष्टवि होिा है ।
1
मोहन भसंह ककी :कबीर,2001 , ि.ृ - 28
2
श्यामाचरर् दब
ू े, िरम्िरा तनिहास और संस्कृनि,1991, ि.ृ - 154
89
कबीर के समय को दे खें िो ''कबीर भारिीय तनिहास के क्जसयुव में िैदा
हुए, वह युव मुक्स्लम काल के नाम से जाना जािा है । उनके जनम से बहुि
िहले हदकली में मुक्स्लम र्ासन स्थाविि हो चुका था। ....कबीर के समय िक
उत्िर भारि की आबादी का एक अ्छा-खासा भाव मस
ु लमान हो चुका था।
स्वयं कबीर क्जस जुलाहा िररवार में िैदा हुए थे, वह एक दो िीढी िहले
मुसलमान हो चुकी थी।''1
1
राजककर्ोर (सं.)कबीर की खोज, ि.ृ - 53
2
हजारी प्रसाद द्वेदी, कबीर, 1990 ,ि ृ . 139
90
भक्ति आंदोलन अिने समय के सामाक्जक-आचथशक, राजनीनिक एवं
धाभमशक क्स्थनियक से टकराहट से उत्िनन हुआ था। वह र्ुद्ध ूकि से धाभमशक
आंदोलन नहीं था। के. दामोदरन भलखिे ह। कक ''भक्ति आनदोलन के रचनाकारक
(कबीर आहद) ने सांस्कृनिक क्षेत्र में राष्रीय नवजावरर् का ूकि धारर् ककया,
सामाक्जक ववषयवस्िु में वे जानिप्रथा के आचधित्य और अनयाय के ववरुद्ध
अत्यंि महत्विूर्श ववद्रोह के द्योिक थे। तस आंदोलन ने भारि में ववभभनन
राष्रीय तकातयक के उदय को नया बल प्रदान ककया, साथ ही राष्रीय भाषातं
और उसके साहहत्य की अभभववृ द्ध की माव भी प्रर्स्ि ककया। व्यािारी और
दस्िकार, सामंिी र्ोषर् का मुकाबला करने के भलए, तस आनदोलन से प्रेरर्ा
प्रा्ि करिे थे। यह भसद्धानि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य कफर ऊची जानि के
हक अथवा नीची जानि के समान ह।, तस आनदोलन का ऐसा केनद्र बबनद ु बन
वया, क्जसने िुरोहहि ववश और जानि प्रथा के आिंक के ववरुद्ध संघषश करने वाले
आम जनिा के व्यािक हहस्सक को अिने चारक तर एक जुट ककया।”1
1
के. दामोदरन - भारिीय चचनिन िरम्िरा.ि.ृ -315
2
तरफान हबीब - साम्प्रदानयकिा एवं संस्कृनि के सवाल, ि.ृ - 23
91
“तया अजू जप मिंजन कीएाँ, तया मसीति भसरुनाएिं|
1
हदल महह कपट तनवाज गज
ु ारै , तया हज कावै जाये||”
भक्ति काव्य में िुलसीदास ने क्जस िरह कवविावली में ित्कालीन यथाथश
को उकेरा है उससे कहीं वहरे अथों में कबीर अिने समय के यथाथश को रच रहे
थे। कबीर के समय का समाज धनी और वरीब के बीच बंटा हुआ था। ककसी के
िास अत्यचधक धन था िो ककसी को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होिी थी,
यह मुहम्मद िुवलक का समय था क्जसके बारे में के. एम. अर्रफ ने भलखा है
कक ''चार मंबत्रयक में से प्रत्येक को प्रनिवषश 20,000 से 40,000 टं का भमलिे थे,
सचचवालय के कमशचारी, जो लवभव 300 थे, कम से कम 10 हजार टं का
प्रनिवषश िािे थे। उनमें से कुछ को 50 हजार टं का भी भमलिा था''3 यह उस
समय का सच था, उसी समय में एक वरीब जुलाहा िररवार में कबीर िैदा हुए
थे। उनके भलए िेट काटना मुक्श्कल हो वया था। अिनी दररद्रिा के संदभश में
कबीर ने भलखा है कक-
भूखे भगति न की जै। यह माला अपनी लीजै॥
1
िारसनाथ निवारी(सं): कबीर ग्रंथवली,1961ि.ृ 103
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 85
3
के. एम. अर्रफ :हहनदस्
ु िान के ननवाभसयक का जीवन और उनकी िररक्स्थनिया,2006 ,सं.- 158
92
कबीर को अस्वीकार के साहस वाला कवव कहा जािा है उनके अनदर
अिनी ित्कालीन समाज के उन प्रनिकरिययावादी ित्त्वक को अस्वीकार कर दे ने का
साहस था जो समाज को िीछे ले जािी थी। ''यह अस्वीकार ही कबीर को ननवुर्
श
संि के ूकि में उनको अिनी अलव िहचान दे िा है । ि।िीस करोड़ दे वी-दे विातं
और दभसयक अविारक वाले दे र् में उनहें एकेश्वरवादी होने का हलसला प्रदान करिा
है - सारे अविारक और दे वी-दे विातं का ननषेध करिे हुए उनहें ईश्वर-्रहह्म-
अकलाह, राम-रहीम से उस एक के ही अनेक नामक को जोड़िा है । यह
एकेश्वरवाद ही उनहें मक्स्जद, मंहदर, काबा-कार्ी, िीथश व्रि-रोजा-उिवास-समाज-
बंदवी सबसे अलव-घर घर में, विण्ड-विण्ड में और दनु नया जहान में उनहें दे खने
और िाने का ववश्वास दे िा है ।''1
कबीर अिने समय एंव समाज के कटु आलोचक ही नहीं बक्कक समाज
को लेकर स्व्न द्रष्टा भी है ।उनके भति मन में भारिीय समाज का एक प्राूकि
है क्जस िर वे ववजन के साथ काम कर रहे थे। ''वे मस
ु लमान होकर भी असल
में मुसलमान नहीं थे। वे हहंद ू होकर भी हहंद ू नहीं थे। वे साधू होकर भी योवी
(अग्रहस्थ) नहीं थे। वे वैष्र्व होकर भी वैष्र्व नहीं थे।''2
1
भर्वकुमार भमश्र, भक्ति आनदोलन और भक्ति काव्य-,2010 ि.ृ - 107
2
हजारी प्रसाद द्वववेदी, हहनदी साहहत्य उद्भव और ववकार्, ि.ृ - 77
93
वे खड़े थे। वे दोनक को दे ख सकिे थे और िरस्िर ववरुद्ध हदर्ा में वये मावों के
वुर्दोष उनहें स्िष्ट हदखाई दे जािे थे।''1
कबीर मूलि: भति थे, िर तस भक्ति साधना में उनहकने जो कुछ कहा
उस कथन के भलए, उनहकने जो भाषा प्रयोव की वह कवविा की कसलटी िर उ्च
कोहट की है । उनहकने अनजाने में ही कवविा के उ्च भर्खर को छू भलया है ।
आचायश हजारी प्रसाद द्वववेदी भलखिे ह। कक ''हहंदी साहहत्य के हजार वषों के
तनिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्िनन नहीं हुआ।...
मस्िी, फतकड़ना स्वभाव और सब कुछ डांट फटकार कर चल दे ने वाली िेज ने
कबीर को हहंदी साहहत्य का अद्वविीय व्यक्ति बना हदया है । उनकी वािर्यक में
सबकुछ को छूकर उनका सवशजयी व्यक्तित्व ववराजिा है । कबीर की वार्ी का
अनुकरर् नहीं हो सकिा। अनुकरर् करने की सभी चेष्टाए व्यथश भसद्ध हुई है ।
तसी व्यक्तित्व के कारर् कबीर की उक्तिया श्रोिा को बलिव
ू क
श आकृष्ट करिी
ह।। तसी व्यक्तित्व के आकषशर् को समालोचक संभाल नहीं िािा और खीझकर
कबीर को कवव कहने में संिोष िािा है । ऐसे आकषशक वतिा को कवव न कहा
जाए िो और तया कहा जाए?''2 कबीर की कवविाई को दे खिे हुए ऐसा लविा है
कक कबीर को कवविा की र्ास्त्रीय प्रर्ाली का ज्ञान था िर यह सही नहीं वास्िव
में वह उनके अनुभव की उिज थी। उनहकने ''कवविा भलखने की प्रनिज्ञा करके
अिनी बािें नहीं कहीं थी। उनका कवव ूकि घलुए में भमली हुई वस्िु है । उनकी
छं दक योजना, उक्ति वैचचत्य और अलंकार ववधान िर्
ू श ूकि से स्वभाववक और
प्रयत्नसाचधि है । काव्य ूकहि़यक के वे न जानकार थे न कायल।''3
1
हजारी प्रसाद, द्वववेदी कबीर, ि ृ . 77 -78
2
वही, ि.ृ 170-171
3
वही, ि.ृ 171
94
तस प्रकार कबीर की कवविा प्रयत्न साध्य न होकर अयत्नसाचधि है ।
अभभव्यंजना के अनेक कलात्मक ित्व कबीर की कवविा में सहज भाव से आिे
ह।। लेककन यह ध्यान रखना होवा कक िूरे भक्तिकाल में यहद कबीर क्जिने
भति के ूकि में चचचशि है उिने ही कवव के ूकि में भी। वे अनुभनू ि को
अभभव्यति करने के भलए भाषा की सजशना करिे है तसीभलए भाषा के सजशक
कवव ह। क्जसके संदभश में आचायश हजारी प्रसाद द्वववेदी ने भलखा है कक '' भाषा
िर कबीर का जबरदस्ि अचधकार था। वे वार्ी के डडतटे टर थे। क्जस बाि को
उनहकने क्जस ूकि में प्रकट करना चाहा है उसे उसी ूकि में भाषा से कहलवा
भलया- बन वया है िो सीधे सीधे नहीं िो दरे रा दे कर। भाषा कबीर के सामने
कुछ लाचार सी नजर आिी है ।''1
1
हजारी प्रसाद द्वववेदी, कबीर,ि.ृ 170
2
मुक्तिबोध रचनावली-मुक्तिबोध, ि.ृ 90
95
तसी भलए कबीर की भाषा के संदभश में ननर्शय करना टे ढी खीर है । ''कबीर की
रचना में कई भाषातं के र्ब्द भमलिे ह। िरं िु भाषा का ननर्शय अचधकिर र्ब्दक
िर ननभशर नहीं है । भाषा के आधार िर करिययािद, संयोजक र्ब्द िथा कारक
चचनह है जो वातय ववनयास की ववर्ेषिातं के भलए उत्िरदायी होिे ह।। कबीर में
केवल र्ब्द ही नहीं करिययािद, कारक चचनहाहद भी कई भाषातं के भमलिे ह।,
करियया िदक के ूकि में अचधकिर ्रहजभाषा और खड़ी बोली के ह।। कारक चचनहक में
'कै, सब, सा, आहद अवधी के है , 'को' ्रहज का है और 'थे' राजस्थानी का|''1
यद्यवि कबीर खुद कहिे ह। कक मेरी बोली 'िूरबी' है ।
1
कबीर ग्रंथावली-श्यामसंद
ु र दास, ि.ृ 45
2
राम ककर्ोर र्माश:कबीर ग्रंथावली2010, ि.ृ 90
3
प्रभाकर माचवे , कबीर, ि.ृ 36
4
हजारी प्रसाद द्वववेदी, कबीर 1990 ि.ृ 127
96
2.िूरबी, भोजिुरी, बबहारी के साथ कई बोभलयक का मेल भमलिा है -
“मोरी चुनरी में परर गयो दाग वपया
पााँच िि की बनी चुनररया, सोलह सै बिंद लागे क्जया।
यह चुनरी मेरे मैके िें आई, ससुरा में मनुआाँ खोय हदया।”1
3. कबीर के काव्य में अंषडडया, जीभडड़या तत्याहद िंजाबी र्ब्दक के साथ 'िड़या'
करियया िर राजस्थानी प्रभाव भी भमलिा है -
“अिंखखयााँ िो झााँई पडी पिंथ तनहारर तनहारर।
जीभड़डयााँ छाला पडया, नाम पुकारर पुकारर।।”2
1
कबीर-हजारी प्रसाद द्वववेदी1990,ि ृ 151
2
जी. एन .दास :लव सग्ज आफ कबीर ,ि-ृ 106
3
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली,2011, ि-ृ 179
97
भाषातं के प्रयोव दे खने को भमलिे ह।। कबीर के र्ब्द चयन की क्षमिा िर
तसभलए किई नहीं संदेह ककया जा सकिा कक वे िढे भलखे नहीं थे। उनहकने
भावक के उत्कट अभभव्यक्ति के भलए उस उत्कटिा को अभभव्यति करने वाले
र्ब्दक िक िहुचिे ह।। जैसे नीचे हदये जा रहे िद में कबीर 'ददश ', 'िीर', 'िीड़ा'
तत्याहद र्ब्दक से कहीं आवे जाकर ददश के टीस को अभभव्यति करने के भलए
'िलफै' र्ब्द का प्रयोव करिे ह।, जो 'िलफै' में ददश की टीस है वह और र्ब्दक में
नहीं आ सकिी थी-
"िलफै बबन बालम मोर क्जया।
हदन नहीिं चैन राि नहहिं तनिंदया।
िलफ िलफ के भोर ककया।।”1
कबीर ने अिनी कवविा में प्रिीकक का खूब प्रयोव ककया है उनके द्वारा
प्रयुति अचधकांर् प्रिीक दर्शन एवं योव, की िरं िरा से आए ह।। कबीर ने
आध्याक्त्मक अनभ
ु नू ियक से बोधवम्य बनाने के भलए प्रिीकक का प्रयोव ककया है ।
''तड़ा, विंवला, नाडडयक के भलए वंवा-यमुना, तड़ा विंवला और सुषुम्ना के भमलन
स्थल के भलए बत्रवेर्ी, र्ूनय चरिय के भलए आकार्, मन के भलए मव
ृ , र्र्क,
मस
ू , जीव के भलए िारधी, ्रहह्मनाड़ी के भलए बाबी, अनाहिनाद के भलए सबद,
वासना के भलए सविशर्ी आहद ऐसे सैकड़क प्रिीक ह।, क्जनहें र्ास्त्रीय िरं िरा के
माध्यम से आसानी से समझा जा सकिा है ।''2 कबीर अिनी मलभलक प्रनिभा से
अिनी रचना में उियुत
श त्ा प्रिीकक का संयोजन करिे ह।।
1
जी. एन .दास :लव सग्ज आफ कबीर ,ि-ृ 41
2
राम ककर्ोर र्माश ;कबीर ग्रंथावली, 2006 ि ृ . 95
3
श्यामसुंदर दास:कबीर ग्रंथावली,2011,ि ृ -41
98
2) “अिंिर गति अतन अतन बाणी।
गगन गुपि मधुकर मधु पीवि,
1
. िरु षोिम अग्रवाल :अकथ कहानी प्रेम की ,ि.ृ 426
2
श्यामसुंदर दास:कबीर ग्रंथावली,2011 ि.ृ 44
3
वही, ि.ृ -49
4
. वही,ि.ृ 307
99
1) “सन्ि न छाडै सिंिई जे कोहटक भमलै असिंि
चिंदन भुविंगा बैहठया, सीिलिा न िजिंि।।“1(दृष्टािंि अलिंकार)
2) “काहे रे नभलनी िू कुक्म्हलानी
िेरे ही नाभल सरोवर पानी।।”2
1
. श्यामसंद
ु र दास:कबीर ग्रंथावली,2011,ि.ृ 87
2
जयदे व भसंह, कबीर वांड्नमय खंड-2 (सबद),2002 ि.ृ 104
3
. िारसनाथा निवारी, कबीर वार्ी :,ि ृ 129
4
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली,2011,ि ृ 154
100
प्रिीक िथा उलटबासी जैसे प्रयोव के बाद कबीर की कवविा में बबंब धभमशिा भी
उत्कृष्ट कोहट की है । क्जस कवव में बबंब सजशनात्मक र्क्ति अचधक होिी है ,
उसका काव्य उिना ही मानभसक बोधवम्य बनिा है । कबीर ने भी आत्मा और
िरमात्मा जैसे अवोचर ित्व को अनेक बबम्बक द्वारा दृश्यवि करिे ह।। कबीर
बबम्बक का चयन लोक के िररवेर् से करिे है । वे लोक के िर्ु, िक्षी, वनस्िनि,
कृवष, सामाक्जक रीनि-ररवाज, संस्कार आहद के द्वारा बबंब का सज
ृ न करिे है ।
उनकी बबंब ननधान की प्रकरियया अचधकिर ूकिक िथा उिमानक िर आधाररि है ।
प्रस्िुि िथा अप्रस्िुि चचत्रक द्वारा भी वे भाव बबंब रहिे है । कबीर दास के
ननम्न िद को दे खा जा सकिा है क्जसमें उनहकने लोक बबंब के द्वारा अिनी
आध्याक्त्मक मानयिातं को ननूकविि करिे ह।।
''दल
ु हहनी गावहु मिंगलचार
हम घरर आए हौ राजा राम भरिार।।टे क।।
1
हजारी प्रसाद द्वववेदी, कबीर,1990, ि.ृ 81
101
वैष्र्व के अद्वैिवाद, अहहंसा और प्रवक्त्ि िो दस
ू री िरफ तस्लाम के
एकेश्वरवाद का प्रभाव है । कबीरदास ने जानि-िांनि, ऊंच-नीच, छुआ-छूि आहद
का िुरजोर ववरोध ककया। वे धाभमशक- कमशकांड, वाह्य-आडंबर और सांप्रदानयकिा
आहद से आजीवन लड़िे रहे । कबीर की भाषा सधत
ु कड़ी है अथाशि िंचमेल
िखचड़ी है ।कबीर की दृक्ष्ट में अनुभूनि महत्विूर्श है , अभभव्यति कलर्ल िो
उसकी अनुचारी है । लोक र्ैभलयक का प्रयोव कबीर के काव्य की एक महत्व
महत्विूर्श ववर्ेषिा है ।
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