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अध्याय 2 – कबीर का काव्य : अनुभूति और अभभव्यक्ति

2.1 कबीर की भक्ति भावना

2.2 कबीर का रहस्यवाद

2.3 कबीर के दार्शननक ववचार

2.4 कबीर का समाज दर्शन

2.5 कबीर की अभभव्यंजना र्ैली

61
साहहत्य के क्षेत्र में जो रचनाकार भाव और भाषा के द्वंध से टकरािे हुए
दोनो में साम्य स्थाविि करिा है अथाशि ् अिने भाव के अनुसार भाषा की खोज
करिा है वह बड़ा रचनाकार होिा है कबीर ऐसे कवव है क्जनकी क्जिनी प्रखर
अनभ
ु नू ि है उिनी ही महत्विूर्श अभभव्यक्ति भी ।

2.1 कबीर की भक्ति

हहंदी साहहत्य के तनिहास में 'कबीर' का व्यक्तित्व अनोखा है । भक्तिकाल


के वे िहले ऐसे संि है क्जनहें िूर्श भति का दजाश प्रा्ि है । ''कवविा करना
उनका लक्ष्य नहीं था। उनका लक्ष्य भववि भक्ति था और उस भसलभसले में
उनहकने जो कुछ कहा या भलखा, यहद उसमें कवविा है , िो जैसा कक आचायश
हजारी प्रसाद द्वववेदी का कहना है , वह घलुए में भमली वस्िु है ।''1 तस प्रकार
कबीर मल
ू ि: भति ह।।
कबीर की 'भक्ति’ के केंद्र में प्रेम है । तस भक्ति के भलए िुरुषोत्िम
अग्रवाल ने भलखा ह। कक ''भक्ति' र्ब्द मूलि: अनुराव और भावीदारी का आर्य
लेकर ही आया था। तस मूल आर्य में समिशर् सत्िा के भय से उत्िनन नहीं,
प्रेम और अनरु ाव का ही समिशर् है । भति िराक्जि सैननक की िरह समिशर्
करने वाले को नहीं, बराबरी के प्रेम में समिशर् करने वाले को कहा जािा था।
यह बाि यास्क के ननूकति और ििर्नन के सूत्रक से स्िष्ट हो जािी है । समाज
के बदलने के समानांिर भक्ति भावीदारी कहने को रह वई, निमस्िक समिशर्
को ही भक्ति मान और मनवा भलया वया। नामदे व, रामानंद और कबीर का

1
भर्वकुमार भमश्र, भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य, 2010, ि.ृ -91
2.िुरुषोत्िम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की,2010,ि.ृ -339-340
3
.जी.एन.दास : भमक्स्टक सांग्स ऑफ कबीर,1996, ि.ृ -78

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महत्व तसबाि में है कक वे समानसत्िा और धमशसत्िा द्वारा भक्ति िर चढा
हदये वए आवरर् को हटाकर तसके मूल आर्य भावीदारी को वािस लािे ह।।''1

'भक्ति' माने भावीदारी कहने का अथश भक्ति के वास्िववक ममश को जानने का


है , भक्ति का वास्िववक ममश राजसत्िा के सामने या प्रभु सत्िा के सामने
झुकना नहीं है बक्कक यह िो बराबरी का समिशर् है क्जसके मूल में प्रेम है । िर
भक्ति के रास्िे बहुि कह न है क्जसके बारे में कबीर कहिे ह। कक -
कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहहिं |
सीस उिारै हाथ करर, सो पैसे घर मााँहह।।1

अथाशि तस प्रेम भक्ति के दरबार में प्रवेर् के भलए अहं कार और दं भ को छोड़ना
िड़ेवा। साथ ही साथ भति में वह िाकि और होना चाहहए क्जसमें अिने घर
को जला दे ने का दमखम हो-

“कबबरा खडा बाजार में भलए लक


ु ाठी हाथ |
जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।''2

''सचमुच कबीर की र्िों िर कबीर के साथ चलना मामल


ू ी बाि नहीं है कबीर
जीवन भर वुहार लवा लवा कर थक वए कक कोई माई का लाल िो उनके साथ
चले, ककनिु र्िश तिनी क ोर थी कक ककसी का हलसला नहीं हुआ कक उसे िूरा
करिे हुए वह उनके साथ आए और आवे बढे ।''3 भक्ति कबीर के भलए एक
दस
ु ाध्य साधना है तस दस
ु ाध्य साधना के भलए वे ककसी भति के सामने भसफश
दो प्रिीक रखिे ह।- ‘सिी’ और ‘र्ूरवीर’। ''र्ूर वीर युद्ध भूभम में िीछे िैर नहीं
रखिा। प्रार्क का उत्सवश करके लक्ष्य भसवद्ध करिा है । वह धीर बुवद्ध और क्स्थर
चचत्ि होिा है । उसका संककि अववचल होिा है । कबीर को भक्ति साधना के

1 भर्वकुमार भमश्र, भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य, 2010, ि.ृ 77


2
वही, ि.ृ 77
3
वही, ि.ृ 77

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क्षेत्र में ऐसे ही दृढ ननश्चयी और ननभशय व्यक्ति की आवश्यकिा थी।''1 र्ूर वीर
को कबीर सबसे बड़ा साधक मानिे ह। उसे जीने मरने की कोई चचंिा नहीं रहिी-

ै़
''कबीर खेि न छाडै सूखख, जूझिं दल माहहिं।
आसा जीवन-मरण की, मन में आनैं नाहहिं।।''2

र्ूर की िरह सिी का मन अववचल होिा है वह अिने वप्रय की एकननष् प्रेभमका


होिी है , वे साधक को तसी सिी के तसी अननय प्रेम को आदर्श मानने को
कहिे ह। वह संसार के सारे प्रलोभनक और आकषशर्क को त्याव कर भव में मात्र
अिने वप्रयिम के भमलन की भावना सजाये चचिा िर चढ जािी है । यह साक्त्वक
उत्सवश उसे प्रेम साधना के उ्चिम स्िर िर िहुचा दे िा है -

“कबीर सिी जलन कूाँ नीकलो चचिधारी एक वववेक।


िन मन सौंप्या पीव कूाँ, िब अिंिर रही न रे खा।।''3

कबीर की भक्ति को ‘प्रेमा भक्ति’, 'नारदी भक्ति', ‘भाव भक्ति’ तत्याहद कहा
जािा है । कबीर भक्ति के क्षेत्र में भक्ति के र्ास्त्रीय प्रर्ाली में दीत हक्षि होकर
नहीं उिरे थे कफर भी अनजाने ही उनहकने वैष्र्व भक्ति सत्र
ू के सभी सत्र
ू क िथा
अनासक्तियक का िालन अिने भक्ति में ककया है । नारदी भक्ति के भलए ''नारद
िांचरात्र में स्िष्ट ूकि से कहा वया है कक भववान के सववोपिाचध स्वूकि को
ित्िर होकर (अथाशि अननय भाव से) समस्ि तंहद्रयक और मन के द्वारा सेवन
करना ही भक्ति है ।''10 कुछ तसी िरह के लक्षर् कबीर के भक्ति के भी है
क्जसमें अननय भाव की ही प्रमुखिा है । ईश्वर के प्रनि प्रेम ग्यारह की
आसक्तियक वुर् माहत्म्यसक्ति, िूजासक्ति, स्मरर्ासक्ति, दास्यासक्ति,
सख्यासक्ति, वात्सकयासक्ति, कांिार्क्ति, आत्मननवेदवासक्ति, िरम ववरहासक्ति

1
रामचंद्र निवारी, कबीर मीमांसा,2007, ि.ृ 75
2
. मािा प्रसाद वु्ि, कबीर ग्रंथावली,1969, ि.ृ 115
3
वही, ि.ृ 119

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में प्रवट होिा है । वैष्र्व भक्ति के तन आसक्तियक को कबीर की भक्ति में दे खा
जा सकिा है । कबीर जब अिने को राम का कुत्िा कहिे ह। िो वो दास्य भाव
की भक्ति को ही प्रकट कर रहे होिे ह।-

''कबीर कुिा राम का मुतिया मेरा नािंउ।

गलै राम की जेवड़ड, क्जि खैचे तिउ जािंउ।1

कबीर राम को अिना वप्रयिम िथा अिने को उनकी बहुररया कहकर कांिासक्ति
का ही िररचय दे िे ह।-
''हरर मोरा पीव मैं हरर की बहुररया,
ै़
राम बडे मैं छुटक लहुररया।''2

जब कबीर हरर को जननी और अिने को उसके बेटे ूकि में प्रस्िुि करिे
ह। िो वहा वे वात्सकय भाव व्यति करिे ह।

''हरर जननी मैं बालक िेरा।


काहे न औगुण बकसहु मेरा॥''3

राम में िूर्ि


श : लीन होने की दर्ा कबीर के यहा अद्भि
ु ूकि से ह। यह िूर्श
िनमयिा की क्स्थनि है ।
''लाली मेरे लाल की क्जि दे खो तिि लाल।
लाली दे खन में गई मैं भी हो गई लाल।।''4

कबीर के यहा आत्म-ननवेदन का स्वर भी है वे अिने को समग्र ूकि से िरमात्मा


के प्रनि ननवेहदि करिे ह।-

1
श्यामसंद
ु र दास, कबीर ग्रंथावली, ,2011,ि.ृ 63
2
वही, 2011 ि.ृ 143
3
मोहन भसंह ककी, कबीर(अनूहदि)ि.ृ -30
4
राम कुमार वमाश, कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ 85

65
''मेरा मुझ में कुछ नहीिं, जो कुछ है सो िेरा
िेरा िुझको सौंपिा, तया लागै है मेरा।''1

िरमात्मा के ववयोव में कबीर ने दयदय ननकाल कर रख हदया है । प्रेम, भमलन के


बाद बबरह की क्स्थनि बहुि िड़िाने वाली है । उनके यहा ववरहासक्ति को भरिूर
मात्रा में दे खा जा सकिा है -
''िलफै बबन बालम मोर क्जया।
हदन नहीिं चैन राि नहह तनिंहदया,
िलफ िलफ के भोर ककया।”2

कबीर की भक्ति में तन आसक्तियक के अनिररति ‘नाम-स्मरर्’ की महहमा का


भी बखान है ,’नामस्मरर्’ सवुर् भक्ति एवं ननवुर्
श भक्ति दोनक के केंद्र में रहा
है । ''ववचध ननषेध से जब मन र्ुद्ध हो जािा है , िभी उसमें नाम स्मरर् की
भावना उत्िनन होिी है ।''3 कबीर कहिे ह।-

''कबीर राम ध्याइ लै, क्जभ्या सौं कहट मिंि|


हरर सागर क्जतन बीसरै , छीलर दे क्ज अनिंि।।”4

कबीर ने ज्ञान और भक्ति के र्ुद्ध ूकि को भमलाकर एक ऐसा रसायन


बनाया, क्जसमें सांप्रदानयक आडंबर, धाभमशक िाखण्ड की बू िक नहीं है | ''यहद
योव से प्रदर्शन और कृ्छ साधना को ननकाल कर उसे सहज बना हदया जाय,
ज्ञान हो भमथया दं भ एवं अहं कार ननकालकर उसे ववनयर्ील बना हदया जाये और
भक्ति से अंधववश्वास, फलासक्ति एवं वाह्य िूजाववधान ननकालकर उसे र्ुद्ध
रावात्मक प्रकरियया के ूकि में दे खा जाये िो सामांजस्य का वह बबंद ु प्रा्ि हो

1
श्यामसंद
ु र दास, कबीर ग्रंथावली, , 2011ि.ृ -,62
2
हजारी प्रसाद हदवेदी, कबीर,1990, ि.ृ 250
3
रामकुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ 87
4
श्यामसुंदर दास: कबीर ग्रंथवली, 2011, ि.ृ 54

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सकिा है , जहा खड़े होकर कबीर िथा कचथि योचवयक, िंडडि और भति िीनक
को चुनलिी दे रहे थे।''1

कबीर ननवुर्
श भक्ति साधना को उसके चरम िररर्नि िक ले जािे ह।।
कबीर की ननवुर्
श भक्ति उस सवुर् राम भक्ति के सीधे ववरोध में आिी है ,
क्जसमें राम को दर्रथ का िुत्र मानकर उनके अविारी ूकि का चचत्रर् है । कबीर
राम के तस ूकि के कायल नहीं थे उनका राम िो कोई दस
ू रा ममश रखने वाला
था-
दसरथ सुि तिहुाँ लोक बखाना

राम नाम को मरम है आना।।2

तस प्रकार कबीर की भक्ति सहज साधना िर आधाररि है ।क्जसमें लोक को


एकाकार कर लेने की अद्भि
ु क्षमिा है ।

2.2 कबीर का रहस्यवाद

हहंदी में 'रहस्यवाद' र्ब्द अंग्रेजी के 'भमक्स्टभसज्म' का हहंदी ूकिांिरर् है ।


हहंदी साहहत्यकोर् के अनस
ु ार ''अिनी अंि:स्फुररि अिरोक्ष अनभ
ु नू ि द्वारा सत्य,
िरम-ित्व अथवा ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने की प्रवनृ ि रहस्यवाद है ।''3
रहस्यवाद मनुष्य की ऐसी प्रवक्ृ त्ि है जो उनको िरमित्व का अनुभव करािी है ।
माना जािा है कक िरमित्व प्रा्ि करने के बाद मनष्ु य की मक्ु ति भमलिी है ।
रहस्यवादी साधक रहस्यवादी सत्य के प्रनि आश्वस्ि रहिा है । तसभलए यह
व्यक्तिवि धमश का आधार बनिी है । अनुभूनि के िरम क्षर्क में आत्मा एक

1
रामचंद्र निवारी :कबीर मीमांसा ,2007,ि-ृ 78
2
रामचंद्र निवारी: कबीर मीमांसा, 2007 ि.ृ 78
3
धीरें द्र वमाश (प्र॰सं.) :हहंदी साहहत्यकोर् (प्रथम भाव ),2009 ,ि.ृ 535

67
हदव्य र्क्ति से ति-प्रोि, नूिन िरम आननद, मुति और प्रवक्ृ त्िकृि अनुभव
करिी है ।

लेडी अिंडर हहल के अनुसार - ''रहस्यवाद िरम सत्िा के प्रनि भावुकिा भरी
प्रनिकरियया को कहा है ।"1

प्रो. आर. डी. रानाडे के अनुसार ''“ईश्वर के प्रनि साधक की सरल, सहज, सीधी
िथा प्रत्यक्ष अनि:प्रज्ञात्मक अनुभूनि ही रहस्यवाद ह।।”2

साहहत्य चचंिकक ने भी रहस्यवाद को वववेचन करने का प्रयास ककया है । आचायय


रामचिंद्र शुतल रहस्यवाद को तस प्रकार िररभावषि करिे ह। कक ''काव्य की वह
प्रवक्ृ त्ि क्जसमें िरोक्ष सत्िा से रावात्मकसंबंध करके उससे भमलन िथा ववयोव
की क्स्थनियक के काकिननक चचत्र अंककि ककये जािे ह।।''3 रामचनद्र र्ुतल काव्य
में िरम सत्िा से रावात्मक संबंध िथा संयोव-ववयोव की क्स्थनियक में ववववध
प्रकार के अनुभूनि होने की क्स्थनि माना है ।

रामकुमार वमाश के अनुसार ''रहस्यवाद जीवात्मा की उस अनिहहशि


प्रवक्ृ त्ि का प्रकार्न है क्जसमें वह हदव्य और अललककक र्क्ति से अिना र्ांि
और ननश्छल संबंध जोड़ना चाहिी है । यह संबंध यहा िक बढ जािा है कक दोनक
में कुछ भी अंिर नहीं रह जािा।''4 रहस्यवाद में जीव के आत्मा का िरमात्मा
से भमलन का आवेव का प्रकार्न होिा है , क्जससे मनुष्य हदव्य र्क्ति प्रा्ि कर
लेिा है ।5

1
The Poetry of my mysticism might be defined on the one hand as a temperamental
reaction to the vision of prophecyरवींद्र नाथ टै वोर :वन हं ड्रेड िोएम्स ऑफ कबीर ,1995 ,ि ृ xix
2
“Mysticism denotes that attitude of mind which involves a direct, immediate firsthand
intuitive apprehension of God”.-रामचंद्र निवारी : कबीर मीमांसा, 2007 , से उद्धृि, ि ृ 87
3
आचायश रामचंद्र र्ुतल :भाव -2,1999,ि ृ .48
4
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ . 92
श्यामसंद
ु र दास :कबीर ग्रंथावली , 2011
5

68
श्यामसुनदर दास कहिे ह। कक कवविा में रहस्यवाद भावुकिा का आधार िािे ह।।
वे भलखिे ह।- ''चचनिन के क्षेत्र का ्रहह्मवाद कवविा के क्षेत्र में जाकर ककिना
और भावुकिा का आधार िाकर रहस्यवाद का ूकि िकड़िा है ।''1

उियुत
श ि कथनक से स्िष्ट है कक रहस्यवाद आत्मा-िरमात्मा के एकात्म
स्थाविि करने की प्रवक्ृ त्ि है । यह प्रत्यक्ष संयोवानुभव की प्रकरियया ववर्ेष है ।
तसकी अनुभूनि की अवस्था में ववषय और व्यक्ति का अववभाज्य एकात्म-भमश्रर्
हो जािा है । िरमात्मा सवाशिीि है और आत्मा उसकी प्रकृनि की अंर्ाचधकाररर्ी
है । अनुभूनि की अवस्था भी सवाशिीि होिी है । यह दयदय का धमश है । वह अिने
जीवन में ववचारर्ा, एकानि, आध्याक्त्मक आननद को स्वीकार करिा है ।
साक्षात्कार की क्स्थनि अननवशचनीय होिी है । तस िरह हम कह सकिे ह। कक
दृश्य जवि में व्या्ि उस व्यति और अवोचर सत्िा से आत्मा के रावात्मक
संबंध स्थाविि करने को रहस्यवाद कहा जािा है । रहस्यवादी िरम सत्िा की
क्जज्ञासा प्रकट करिा है । तसके अनिवशि एक कवव उस ववराट सत्िा के प्रनि
अिने ऐसे भावोद्वारक को व्यति करिा है , क्जनमें सुख-द:ु ख, आननद-ववषाद,
हास-रुदन, संयोव-ववयोव घुले रहिे ह। और अननवशचनीय आननद का अनुभव
ककया जा सकिा है ।

दार्शननक दृक्ष्ट से रहस्यवाद र्ब्द बहुि व्यािक है । तसे ककसी ववभर्ष्ट


दार्शननक मि िक सीभमि करना समाचीन नहीं है । तसके अंिवशि कई भेदक को
स्वीकार ककया जा सकिा है । नावेनद्रनाथ उिाध्याय रहस्यवाद के यहा िर ववचार
करिे हुए भलखिे ह।-''प्रकार अथवा भेद के ववषय में कभी वववेचक िूवी और
िक्श्चमी का भेद स्वीकार करिे है , कभी धमों के आधार िर ईसाई, सूफी, हहंद,ू
बलद्ध आहद भेद स्वीकार करिे ह। और कभी धमशननष् ावादी िथा उदारवादी भेदक
में उनका ववभाजन करिे ह।। िूवी रहस्यवाद के अंिवशि भारिीय रहस्यवाद में
भी भेदक का ननूकिर् कमशकाण्डिरक रहसयवाद,
् औिननषद रहस्यवाद, योविरक

1
वही, ि ृ 56

69
रहस्यवाद, बलद्ध रहस्यवाद और व्यक्तििरक रहस्यवाद के ूकि में भमलिा है ।
अंनिम प्रकार के भी दो ूकि र्ास्त्रीय और सावशललककक, स्वीकार ककए वए ह।।''1
तस िरह रहस्यवाद की तस व्यािक अवधारर्ा को सवशसम्मि दार्शननक
मानयिातं के ूकि में बांधना कह न है ।
ईसाई धमश में भी रहस्यवादी ििव् भमलिे ह।। बातबबल रहस्यवाद का श्रेष्
ग्रंथ है ।''उसके एविभसकस नामक अंर्क में ईश्वर के प्रत्यक्ष साक्षात्कार की
हदव्यानभ
ु नू ि का वर्शन है । संि िाल की श्रद्धा, आस्था और ववश्वास का आधार
यह हदव्य साक्षात्कार ही है ...''2 तस िरह ईसाई धमश के अंिवशि बहुि से संि
ऐसे हुए है जो रहस्यवादी है ।तस्लाम में रहस्यवाद का प्रारं भ सूफीवाद से हुआ।
उनकी ''साधना में अनेक सीहि़या िार करनी होिी है प्रायक्श्चि, िररविशन, त्याव,
दररद्रिा, धैय,श ईश्वर में ववश्वास ईश्वरे ्छा में संिोष आहद। तनके उिरांि
आध्याक्त्मक अनुभूनि की भय, आर्ा, प्रेम ्यास और साक्षात्कार की दर्ाए
आिी है । सूफी साधना से दररद्रिा, िि और िववत्रिा युति जीवन िथा सदवुूक
की कृिा अननवायश है ।''3 उियत
ुश ि वववरर् से स्िष्ट है कक तस्लामी रहस्यवाद में
भी िरम ित्व, वूक
ु की महिा, अध्याक्त्मक अनभ
ु नू ि, साक्षात्कार आहद का
समावेर् है । यह भारिीय रहस्यवाद से अचधक ननकट है । वजाली, जलालुद्दीन
सूफी, हाकफज, उमर, खैयास, ननजामी,सादी और जामी प्रभसद्ध ईरानी सूफी कवव
ह।। भारि में भी सूफी संि और कवव हुए है ।

हहंदी में आहदकाल से रहस्यवाद की िरम्िरा रही है । हहंदी साहहत्य के


आरं भभक रहस्यवादी कवव भसद्ध है । हहंदी साहहत्य के मध्य युव (भक्तिकाल) में
सवुर् एव ननवुर्
श दो ूकिक में रहस्यवादी रचनाए प्रचुर मात्रा में उिलब्ध है । तस
युव में रहस्यवादी रचनाकार कबीर, नानक, दाद ू , सूरदास, िुलसीदास, मीराबाई,
आहद बहुि से कवव है । अनय भारिीय भाषातं में भी रहस्यवादी रचनाए

1
वासुदेव भसंह(सं) : कबीर , 2004 ,ि ृ . 138
2
धीरें द्र वमाश (प्र॰सं.) :हहंदी साहहत्यकोर् (प्रथम भाव ),2009, ि ृ . 37
3
वही, ि-ृ 37

70
उिलब्ध है । रवीद्रनाथ से प्रभाववि होकर छायावादी कववयक ने भी रहस्यवादी
रचनाए दी। एक िरह से यह कृबत्रम रहस्वाद है ।

उियुत
श ि वववरर्क से स्िष्ट है कक रहस्यवादी ववचार बहुि ही व्यािक है ।
ककसी न ककसी ूकि में यह मनुष्य के आहदम काल से आज िक उिक्स्थि है ।
तसके ववववध प्रकार और भेद है । यह ककसी ववभर्ष्ट अवधारर्ा में नहीं बंधा है ।
िक्श्चमी रहस्यवाद और भारिीय रहस्यवाद में अनिर के बावजूद समान ित्व
मलजूद है ।

रहस्यवाद की क्स्थति

रामकुमार वमाश ने रहस्यवाद की िीन िररक्स्थनियक का उकलेख ककया है -


1. ''िहली िररक्स्थनि वह है जहा व्यक्ति ववर्ेष अनंि र्क्ति से अिना संबंध
जोड़ने के भलए अग्रसर होिा है ।''1

2. ''द्वविीय क्स्थनि िब आिी है जब आत्मा िरमात्मा से प्रेम करने लव जािी


है । भावनाए तिनी िीव्र हो जािी है कक आत्मा में एक प्रकार का उनमाद या
िावलिन छा जािा है ।''2

3. ''तसके िश्चाि रहस्यवाहदयक की िीसरी क्स्थनि आिी है जो रहस्यवाद की


चरम सीमा बिला सकिी है । तस दर्ा में आत्मा और िरमात्मा का तिना
ऐतय हो जािा है कक कफर उनमें कोई भभननिा नहीं रहिी।''3

उियुत
श ि उद्धरर्क से स्िष्ट है रहस्यवाद में िरम सत्िा के प्रनि क्जज्ञासा
की भावना रहिी है । रहस्यवादी साधक िरम सत्िा के महत्व का प्रदर्शन करिे
हुए उससे भमलन या दर्शन करने का प्रयास करिे ह।। भलनिक ववध और तलेष से

1
रामकुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ . 96
2
वही ,ि ृ . 97
3
वही,ि.ृ 97

71
छुटकारा िाने के बाद उस सत्िा का आभास या दर्शन होिा है िथा संसार का
वास्िववक ज्ञान या िरोक्ष अनुभूनि होिी है । कफर, आत्मा और िरमात्मा का चचर
भमलन होिा है । आत्मा में िरमात्मा के वुर्क का समाहार हो जािा है ।
कबीर के रहस्यवाद की क्स्थनि और ववर्ेषिा के अध्ययन से ििा चलिा
है कक रहस्यवाद के कुछ सामानय ित्वक के अनिररति उनकी अलव ववर्ेषिा है ।
उनके रहस्यवाद में भारिीय और ववदे र्ी दोनक प्रकार की ववर्ेषिातं का समावेर्
है । यह कबीर के हहंद ू और मस
ु लमान दोनक प्रकार के संिक के साननध्य में रहने
का िररर्ाम है । कबीर रहस्यवादी क्स्थनियक को बड़े सजीव ि़ं व से प्रस्िुि करिे
ह।। यथा-

(1.) क्जज्ञासा की भावना- रहस्यवाद में िरम ित्व को जानने की त्छा िीव्र
होिी है । उसी िरह कबीर में भी क्जज्ञासा की भावना है । कबीर का ईश्वर ननवुर्

एवं ननराकार है । वह सवशत्र ववद्यमान है । कबीर का मन अिने तष्टदे व के प्रनि
क्जज्ञासा उत्िनन करि है और जानना चाहि है , कक वह ्रहह्म कैसा है ? कहा
है ? और ककस िरह वह अिनी संिूर्श करियया करिा रहिा है । तस चचंिन में
डूबकर भलखिे ह। कक क्जस ्रहह्म का न ूकि है , न रे खा है और न क्जसका वर्श
है , वह तया है ? यह ्रहह्माण्ड िथा ये प्रार् कहा से आिे ह।? मि
ृ जीव कहा
जाकर ववलीन हो जािा है ? जीवक की समस्ि तक्नद्रया कहा ववश्राम करिी है , वह
मरने के बाद कहा जािी है -

कबीर जानना चाहिे ह। कक ‘र्ब्द’कहा लीन हो जािा है ? जब ्रहह्म और


विंड कुछ नहीं है , िब िंच ित्व कहा लीन हो जािा है ? समस्ि वुर् कहा समा
जािे ह।?-
“सिंिो धागा टूटा गगन ववतनभस गया, सबद जु कहााँ समाई।
ए सिंसा मोहह तनस हदन व्यापै, कोई न कहैं समझाई।।

72
नहीिं ब्रहमािंड पुतन नााँही, पिंच ित्व भी नाहीिं।
इडा वपिंगला सुखमन नााँही ,ए गुण कहााँ समाहीिं''1

उियुत
श ि िंक्तियक से स्िष्ट है कक कबीर के मक्स्िष्क में कुििूहल, क्जज्ञासा एवं
ववस्मय की भावना है । कबीर सब कुछ जानने के भलए िीव्र उत्कं ा व्यति करिे
ह। ।

(2)ब्रहम का महत्त्व प्रदशयन और अतनवयचनीयिा-

क्जज्ञासा और कुिूहल की क्स्थनि में साधक को िथ-प्रदर्शक की


आवश्यकिा िड़िी है । अि: साधक सिवुूक की र्रर् में िहुच जािा है । वुूक की
कृिा से ही ज्ञान की आधी आिी है और भ्रम टूट जािा है । कबीर कहिे ह। कक
वुूक अिने हाथ में कमान लेकर उससे प्रेम सहहि ऐसा उिदे र् ूकिीबार् चलािा
है कक वह भर्ष्य के दयदय में लविा है -
''सिगरू
ु लई कमािंण करर, बााँहण लागा िीर।
एक जू बाहय प्रीति साँू, भीिरी रहया सरीर।''2

अललककक सत्िा अननवशचनीय है । वह अद्भि


ु और अललककक सत्िा है , जो
सवशत्र व्या्ि होकर भी कहीं हदखाई नहीं दे िी, उसका िररचय मन, बुवद्ध एवं
वार्ी से प्रा्ि करना सवशथा असम्भव है और उसका वर्शन करना 'वूवे का वुड़'
है । कफर भी वर्शन करने काप्रयत्न करिे हुए कहिे ह। कक कभी उसे ‘िुहूि बास
से िािरा’ कहकर उसकी सक्ष्
ू मानि सक्ष्
ू म क्स्थनि की तर संकेि करिे ह।, िो
कभी उसे िेज-िुंज िारसमिर् कहकर उसकी श्रेष् िा का प्रनििादन करिे ह।।
कबीर िरम सत्िा को एक ऐसा रसायर् कहिे है , क्जसमें स्िर्श मात्र से सारा
र्रीर कंचन बन जािा है ।

1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि ृ 125
2
वही, ि ृ . 49

73
''सबै रसायन मैं ककया, हरर सा और न कोई।
तिल इक घट में सिंचरै , िौ सब िन किंचन होइ।।''1

तस िरह स्िष्ट है कक कबीर उस अव्यति िरम सत्िा की महत्िा,


श्रेष् िा का प्रनििादन करिे ह।, साथ ही उसकी अननवशचनीयिा भी स्वीकार करिे
ह।।
(3) दशयन और भमलन का प्रयत्न-
रहस्यवादी साधक िरम ित्व से साक्षात्कार या भमलन का प्रयत्न करिे
ह।। क्जस िरह एक ववयोचवनी प्रेमी से भमलने के भलए आिुर रहिी है , उसी िरह
कबीर भी िरम सत्िा से भमलने का प्रयत्न करिे ह।। कबीर भावुकिा में अव्यति
सत्िा से भमलना चाहिे ह।। रहस्यवादी कववयक में भावनाए तिनी िीव्र हो जािी
है कक िरम ित्व से भमलन के भलए िावलिन छा जािा है । रामकुमार वमाश के
अनुसार ''क्जस प्रकार ककसी जलप्रिाि के याद में समीि के सभी छोटे छोटे स्वर
अंिननशहहि हो जािे है , ीक उसी प्रकार उस ईश्वरीय प्रेम में सारे ववचार या िो
लु्ि हो जािे ह। अथवा उसी प्रेम के बहाव में बह जािे ह।।''2 कबीर भमलन की
उत्कं ा में स्वयं को भस्म कर दे ना चाहिे ह।। भमलन के प्रयत्न में कबीर र्रीर
को जलाकर राख कर डालना चाहिे ह। और कहिे ह। कक उस राख की स्याही
बनाकर अिनी हड्डी की लेखनी से अिने वप्रयत्िम राम के िास चचट्ठी भलखकर
भेजू। सम्भवि: िभी मेरा स्मरर् हो सकेवा और वे मुझसे भमलने आ सकेंवे-
''यहु िनु जारौं मभस करौं, भलखौं राम का नाऊाँ।

लेखनी करूाँ करिं क की, भलखख, भलखख राम पठाउाँ ।''3

कबीर कहिे ह। ववरह स्वयं मुझसे कह रहा है कक िू मुझे कभी मि छोड़ना,


तयककक म। ही िुझे उस िरम ्रहह्म के िेज में लीन कर दवा-

1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 61
2
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ -97
33
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 54

74
''ववरह कहैं कबीर सौं, िू क्जन छााँछे मोहह।
पार ब्रहम के िेज में , िहााँ लै राखो िोहह।''1

कबीर की िंक्तियक में क्जस िरह का प्रयत्न है वह प्रेम का चरमोत्कषश है ।


तसमें दाम्ित्य प्रेम है , क्जसमें स्वयं को 'राम की बहुररया' कहिे ह।। तसभलए
िुरुषोत्िम अग्रवाल का कथन है - “उनकी साधना ही प्रेम के सबसे संक्श्लष्ट
ूकि दांित्य रनि का ूकिक है ।''2 तस दाम्ित्य ूकि में कबीर िरम सत्िा का
वप्रयिमा है । अग्रवाल जी आवे कहिे है -''रीनि-ररवाज, धमश-कमश और प्रदत्ि
मयाशदा का िुरुषोनमुख मुहावरा नारी ननंदा करिा है , िो साधना का प्रेमोनमुख
3
मह
ु ावरा कवव को नारी ही बना दे िा है ।'' तस िरह कबीर के मन में ऊष्मा है ,
जुनून है जो आत्मानुभूनि की तर अग्रसर करिा है ।

(4) सिंसाररक बाधाएाँ

ननवक्ृ त्ि रहस्यवादी साधना िथ िर अनेक प्रकार के संसाररक कष्टक का


सामना करना िड़िा है । उस िरम सत्िा का साक्षात्कार सरलिा से संभव नहीं
होिा। कबीर ने भी अिने साधना िथ िर अनेक सांसाररक ववघ्नक का सामना
ककया है । उनहोने सबसे बड़ा कारर् माया को माना है । तस माया के कारर् ही
काम, रियोध, लोभ, मोह, आहद ववकार सिािे रहिे ह।। तसके दो प्रमख
ु ूकि ह।-
कंचन और काभमनी। कबीर कहिे ह। कक माया वयाभभचाररर्ी
् है , मोहहनी है और
सभी जीवक को धोखक में डालिी रहिी है । माया विर्ाचनी है -''कबीर माया
डाकणीिं, सब ककसही कौं खाइ।''4

वुूक के कृिा से कबीर का मन तस संसार से ववमुख होकर ईश्वरोनमुख


हुआ। तस क्स्थनि को प्रा्ि करने के भलए उनहें अिने मन का िूर्श िररष्कार

1
द्वाररका प्रसाद सतसेना:हहनदी के प्राचीन प्रनिननचध कवव( नवीिम सं.), ि ृ 85
2
िुूकषोिम अग्रवाल :अकथ कहानी प्रेम की ,2010 ,ि ृ .-368
3
िुूकषोिम अग्रवाल :अकथ कहानी प्रेम की ,2010 ,ि ृ .-368
4
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 74

75
करना िड़ा। कबीर ने मन को ननयंबत्रि करने िरमात्मा के नाम का स्मरर्
करने, आचरर् को र्ुद्ध रखने, ववचार और आचरर् में एकिा लाने, सांसाररक
प्रलोभनक से अलव रहने ,सत्य को ग्रहर् करने, अहहंसात्मक दृक्ष्टकोर् को
अिनाने,अहं कार को त्यावने और जीवन को मत
ु ि होने की आवश्यकिा िर जो
बार-बार बल हदया है , वह मन के िररष्कार के भलए ही होिा है । सब वुूक की
कृिा से संभव होिे ह।-

''कबीर िीछे लावा जात था, लोक वेद के साथ।


आव। थ। सिवुूक भमकया, दीिक दीया हाचथ।''1
उियत
ुश ि वववेचन से स्िष्ट है कक कबीर की साधना के मावशमें ववघ्न आिे ह।
और उनसे ननवक्ृ त्ि का उिाय भी बिािे ह।।
(5) िरम सत्िा के दर्शन का आभास

रहस्यवाद में जब कोई साधक माया-मोह िर ववजय प्रा्ि करके मावश के


समस्ि भलनिक ववघ्न को िार कर साधना मावश िर आवे बढिा है वह थोड़ा
आध्याक्त्मक संसार में िहुच जािा है । साधक के दयदय में ज्ञान ज्योनि का िीव्र
आलोक भर जािा है । तस सांसाररक अंधकार से दरू हदव्य र्क्ति का दर्शन करने
लविा है । कबीर कहिे ह।-
''हदे छाड़डै़ बेहहद गया, हुआ तनरन्िर बास।
काँवल ज फूलया फूल बबन, को नीरषै दास।''2

अथाशि म। ससीम को िार करके असीम में िहुच वया। वही मेरा र्ाश्वि ननवास
हो वया। वहा म।ने अनुभव ककया कक बबना फूल के एक कमल िखला हुआ है ।
तसका दर्शन भववान का ननजी दास ही कर सकिा है । तस िरह कबीर
सांसाररक माया मोह िर ववजय प्रा्ि करके ्रहह्म ज्योनि दर्शन करने लविा
है ।‘्रहह्म-ज्योनि’ का दर्शन सब नहीं,बक्कक कोई साधक ही कर सकिा है ।

1
मािा प्रसाद वु्ि :कबीर ग्रंथावली, 1969 , ि-ृ 41
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 58

76
(6) वास्िववक ज्ञान और परमानुभूति

जब ककसी साधक को िरम सत्िा का आभास होने लविा है िो उसके


दयदय में ज्ञान की ज्योनि जलने लविी है और उसे वास्िववक संसार का बोध
होने लविा है यही ज्ञान भ्रभमि प्रािर्यक का मावश-दर्शन करिी है । कबीर कहिे ह।
कक क्जस उत्कटिा और िीव्रिा के साथ मन माया-जनय, ववषयक में रमिा है
उिनी ही उत्कटिा और िीव्रिा के साथ यहद वह राम में रम जाए िो वह
साधक िारामण्डल से भी िरे वहा िहुच सकिा है जहा से वह आया है अथाशि
उस ्रहह्म में लीन हो जािा है -
''जैसे माया मन रमैं, यूाँ जे राम रमाइ।
िौ िारामण्डल छााँड़ड करर जहााँ के सो िहााँ जाई।''1

स्थायी भमलन

रहस्यवाद की अंनिम क्स्थनि आत्मा और िरमात्मा का स्थायी भमलन


माना वया है । भमलन की तस अवस्था को कबीर ने ववववध प्रिीकक और ूकिकक
के माध्यम से कहा है । स्वयं को दक
ु हन बिािे हुए कबीर कहिे ह। क्जस प्रकार
एक ित्नी अिने िनि के साथ र्यन करिी है , उसी प्रकार आत्मा और िरमात्मा
दोनक एक होकर र्यन करिे ह।‒

'बहुि हदनन थे प्रीिम पाए, बडे घर बैठे आए।


मिंहदर मााँहह भया उक्जयारा, लै सूिी अपना पीव प्यारा।।''2

कबीर ने चचर भमलन का ूकिक वैवाहहक उत्सव के माध्यम से व्यति ककया है -


''दल
ु हहन गावहुाँ मिंगलाचार, हम घरर आये हो परम पुररस भरिार|
िन रति करर मैं मन रति करहूाँ, पिंच ित्ि बरािी|''1

1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 59
2
वही,ि ृ . 117

77
वववाहोिरांि िरम ित्व से अदभूि भमलन होिा है , क्जससे अननवचशनीय आनंद
की उिलब्ध होिी है । कबीर कहिे ह। भववान की संवनि से म। र्ीिल हो वया
हू। अब मोह की िाि भमट वई है । अब अंदर में साक्षात्कार हो जाने के कारर्
म। राि-हदन सख
ु की ननचध प्रा्ि कर रहा हू।
''हरर सिंगति सीिल भया, भमटा मोह की िाप।
तनस बासुरर सुख तनध्य लहया,जब अिंिरर प्रकटना आप।।''2

तस िरह आत्म ित्व और िरम ित्व का स्थायी भमलन हो जािा है । भति और


भववान, साधक और साध्य ,जीव और ्रहह्म एक हो जािे ह।। दोनक अमर हो
जािे ह।।

कबीर के काव्य में व्यति रहस्यवादी िररक्स्थयक का अध्ययन करने िर


ज्ञाि होिा है कक उनकी रहस्यवाद की अिनी ववर्ेषिाए है । तन िर हहंदत
ु ं के
अद्वैिवाद िथा मुसलमानक के सूफी-मि का प्रभाव लत हक्षि होिे ह।। तनके
रहस्यवाद में आक्स्िकिा, माधुयश भावना, अनिमख
ुश ी साधना, प्रेम ित्व,
भावनात्मक संबंधक का समावेर् है ।
र्ंकर के अद्वैिवाद का प्रादभ
ु ाशव 8वीं र्िाब्दी में होिा है । अद्वैिवाद के
अनुसार आत्मा और िरमात्मा एक सत्िा है । माया के कारर् ही िरमात्मा के
नाम और ूकि का अक्स्ित्व है । वस्िुि: आिमा
् और िरमात्मा एक ही र्क्ति के
दो भाव ह।, जो माया के कारर् अलव ह।। लेककन वे िुन: एक ही में भमल जािे
ह। तस प्रकरियया को कबीर तस िरह व्यति करिे ह।।

''जल में किंु भ, किंु भ में जल है , बाहहर भीिर पानी।


फूटा किंु भ जल जलहह समान, यह िि कथो चगयानी॥''3

1
जी.एन.दास : लव सग्ज ऑफ कबीर,1994, ि ृ .39
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011 , ि.ृ 59
3
वही,ि ृ 128

78
जल में भरा घड़ा जल में िैर रहा है । तसके बाहर,भीिर िानी है । घड़ा
(माया) फूटने िर जल एक हो जािा है ।

ईसा के 8वीं र्िाब्दी में तस्लाम धमश के अंिवशि तनके िरं िरावि आदर्ों
के ववरोध में सूफी संप्रदाय का उदय हुआ। सूफीमि में बंदे और खुदा का
एकीकरर् हो सकिा है , िर माया की ववर्ेष चचाश नहीं है । िरमात्मा से भमलने
के भलए आत्मा की चार दर्ाए िार करनी िड़िी ह।- (1). र्रीयि (2). िरीकि
(3).हकीकि(4). माररफि

तन दर्ातं को िार करके ही आत्मा और िरमात्मा का सक्म्मलन होिा


है । तस प्रकार आत्मामें िरमात्मा का अनुभव होने लविा है । दस
ू री बाि यह है
कक सूफी मि में प्रेम का अंर् महत्विूर्श है ।प्रेम ही कमश है , और प्रेम ही धमश है ।
रामकुमार वमाश का कथन है कक ''नन:स्वाथश प्रेम ही सूफीमि का प्रार् है । फारसी
में क्जिने सूफी कवव ह।। वे कवविा में प्रेम के अनिररति कुछ जानिे ही नहीं
ह।।''1प्रेम सूफीमि में नर्ा है , खुमारी है । प्रेम के नर्े में साधक को संसार का
कुछ ध्यान नहीं रहिा। कबीर ने भलखा है -

''हरर रसपीया जााँतनये, कबहुाँ न जाय खुमार।


2
मैमिंिा घम
ुाँ ि रहै , नााँही िन की सार।।''

सूफीमि में ईश्वर स्त्री ूकि में है , िर कबीर यहा ईश्वर िुरुष ूकि में है । कबीर
के रहस्यवाद के बारे में आवे रामकुमार वमाश ने भलखा ह। ''कबीर ने अिने
रहस्यवाद के स्िष्टीकरर् में दोनक की अद्वैिवाद और सूफीमि की बािें ली ह।।
फलि: उनहकने अद्वैिवाद से माया और चचंिन िथा सूफीमि से प्रेम लेकर
अिने रहस्यवाद की सक्ृ ष्ट की है ।’’3

1
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ .102
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली , 2011,ि.ृ -61
3
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि-ृ 104

79
रहस्यवाद में प्रेम का महत्विूर्श स्थान है । तसमें उिनी ज्ञान की
आवश्यकिा नहीं है , क्जिने प्रेम की। तसभलए कबीर कहिे ह।-
''अकथ कहानी प्रेम की, कछु कही न जाई।
1
गाँग
ू े केरी सरकरा, बैठा मस
ु क
ु ाई।।''

प्रेम की कहानी अकथ है जो उसका आस्वाद ले लेिा है वह वूवे के र्तकर खाने


के अनुभव जैसा होिा है , क्जसका वर्शन वह नहीं कर सकिा। तसभलए कबीर के
रहस्यवाद को भक्तिमूलक और प्रेममूलक रहस्यवाद जाना जा सकिा है ।

2.3 कबीर का दाशयतनक ववचार

मानव एक ववचारर्ील प्रार्ी है । संसार में घहटि होने वाले प्रत्येक


वनिववचध के प्रनि जावूकक रहिा है , और चचंिन के माध्यम से रहस्य समझने
का प्रयत्न करिे ह। । ित्िश्चाि एक ववचार का जनम होिा है , यही ववचार दर्शन
का ूकि धारर् करिा है । दार्शननक ववचार जब भाव में ूकिांिररि होिे ह। िो
भक्ति का ववषय बनिा है ।

दर्शन र्ब्द का र्ाक्ब्दक अथश ''चाक्षुष प्रत्यक्ष, साक्षात्कार, जानना''2


तत्याहद है । सामानय ूकि में प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई दर्शन अवश्य होिा
है । र्ास्त्र के ूकि में ''वह र्ास्त्र क्जसमें आत्मा, अनात्मा, जीव, ्रहह्म, प्रकृनि,
िुरुष, जवि, धमश, मोक्ष, मानव जीवन के उद्देश्य आहद का ननूकिर् हो।''3
अंग्रेजी कोर् के अनुसार “दर्शन एक अध्ययन है क्जसमें जीवन और जवि के
प्रकृनि और अथश का अध्ययन ककया जािा है ।”4सामानय अथश में ‘दर्शन’ का
प्रयोव ककसी ववचार या भसद्धांि की व्याख्या, िाककशक ियशवेक्षर् अथवा ववभभनन

1
जी.एन.दास : लव सांग्स ऑफ कबीर,1994, ि.ृ -115
2
काभलक प्रासाद( सं ):वह
ृ ि हहनदी कोर् ,1992 ि ृ . 509
3
वही ,509
4
'' The Study of the nature and meaning of universe and the human life."-
एस. हॉनशबी:औतसफोडश लनशर डडतसनरी ,2010 ,ि ृ 1137

80
ित्व चचंिन की प्रकरिययातं के भलए आिा है ।ककंिु मूल ूकि में यह आत्म ज्ञान,
ित्व ज्ञान अथवा िरम ित्व के ज्ञान ूकि में आिा है । यह अनुभव का िाककशक
अथवा प्रमािर्क मीमांसा है । यह संसार के ममश को उद्घाहटि करिा है । यह
िरु
ु ष प्रकृनि का ज्ञान है ।

भक्ति काव्य में भति कववयक ने अिने आचायवोप से दार्ननशक ित्त्ववादी


भसद्धांिक का ज्ञान प्रा्ि ककया है । प्रा्ि ज्ञान को उनहकने अिनी रचनातं में
अनुभव के स्िर िर उिारा है । भति कवव अिनी रचनातं के स्िर िर िहले
रचनाकार है । उसे सीधे िलर िर दार्शननक नहीं कहा जा सकिा। उनके काव्य में
चचंिन भावाभभव्यक्ति की अिेक्षा वलर् है । यद्यवि भति कवव ककसी न ककसी
वैष्र्व आचायश के भर्ष्य माने जािे ह।, िरनिु उनके काव्य में संबद्ध आचायों के
ित्ववाद को िाककशक चचंिन के ूकि में िररर्ि नहीं है । जहा िक कबीर का प्रश्न
है िो यह कहा जा सकिा है कक कबीर अचधक स्विंत्र व्यक्तित्व के साधक है ।
कबीर मल
ू ि: दार्शननक नहीं है । िरनिु उनके काव्य में कई िरह के भसद्धांिक को
दे खा जा सकिा है । कबीर ककसी िूवश प्रचभलि ववभर्ष्ट सम्प्रदाय यामिवाद से
नहीं बंधे थे।

रामकुमार वमाश ने कबीर के दर्शन के संदभश में भलखा ह। -'' संि मि का


दर्शन ककसी ववर्ेष र्ास्त्र से नहीं भलया वया। र्ास्त्रक में कबीर की आस्था नहीं
थी तयककक र्ास्त्र एक दृक्ष्टकोर् ववर्ेष से भलए या कहे जािे ह। और
सांप्रदानयकिा के आधार िर ही हटके होिे ह।।… अि: संि संप्रदाय का दर्शन
उिननषद, भारिीय, षडदर्शन, बलद्ध धमश, सूफी संप्रदाय, नाथ संप्रदाय की
ववश्वजनीन अनुभूनियक के ित्वक को भमलाकर सुवह ि हुआ है । ये ित्व सीधे
र्ास्त्र से नहीं आये, वरन ् र्िाक्ब्दयक की अनुभनू ि िल
ु ा िल
ु कर महात्मातं की
व्यावहाररक ज्ञान की कसलटी िर कसे जाकर सत्संव और वुूक के उिदे र्क से

81
संवह
ृ ीि हुए। यह दर्शन स्वाक्जशि अनुभूनि है , जैसे सहत्रक िुरुषक की सुवंचधि
मधु की एक बूद में समाहहि है ।''1

रामानंद कबीर के वुूक माने जािे ह।। यह स्िष्ट नहीं है कक कबीर


रामानंद जी से कबीर तया ग्रहर् करिे है । रामानंद के आनंद भाष्य के आधार
िर माना वया है कक ववभर्ष्टाद्वैि ही ्रहह्म-सूत्र-सम्मि है । ित्ववाद की दृक्ष्ट
से रामानुजम के मि को ही स्वीकार करिे ह। ककनिु उनके केनद्र में अननय
भक्ति ही है । हजारी प्रसाद द्वववेदी समस्ि चचंिन के बाद यह स्वीकार करिे ह।
कक ''तस प्रकार यह अनुमान असंवि नहीं जचिा कक रामानंद जी के मि में
भक्ति ही सबसे बड़ी चीज थी, ित्ववाद नहीं। उनके भर्ष्यक में और संप्रदाय में
अद्वैि वेदांि का िूर्श समादर है िथावि वे स्वयं ववभर्ष्टिा द्वैिवाद के प्रचारक
थे। तसी िरह उनके भर्ष्यक में केवल एक बाि को छोड़कर अनय बािक में काफी
स्विंत्रिा का िररचय िाया जािा है । वह बाि है अननय भक्ति।”2 कबीर ने भी
अिने आचायश से अननय भक्ति ग्रहर् करिे ह।।
चचंिकक ने कबीर िर ववभभनन दृक्ष्ट से ववचार ककया है । बाबू श्यामसुंदर
दास ने ्रहह्मवादी या अद्वैिवादी माना है - ''यह र्ंकर का अद्वैि है , क्जसमें
आत्मा और िरमात्मा एक माने जािे ह।, िरनिु बीच में अज्ञान के आ िड़ने से
आत्मा अिनी िारमचथशकिा की अनूभुनि हो जािी है यही बाि कबीर में भी दे ख
चुके ह।।”3 ''हजारी प्रसाद ने द्वववेदी अिनी स्थािना दे िे हुए भलखा ह।- ''कबीर
दास ने हसकर जवाब हदया कक भला उन लड़ने वाले िंडडिक से िूछो कक भववान
ूकि से ननकल वया, रस से अिीि हो वया वर्
ु क के ऊिर उ वया, करिययातं के
िहुच के बाहर ही रहा, वह अंि में आकर संख्या में अटक जाएवा? जो सबसे
िरे है वह कथा संख्या से िरे नहीं हो सकिा? यह कबीर का द्वैिाद्वैि

1
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ 85
हजारी प्रसाद द्वेदी कबीर,1990‘ि-ृ 38
2

3
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि-ृ .33

82
ववलक्षर् समत्त्ववाद है ।''1िरर्ुराम चिुवेदी कथन है कक ''कबीर के मि में जो
ित्व प्रकाभर्ि हुआ था वह उनके स्वाधीन चचंिन का ही िररर्ाम था।''2 श्री
अयोध्या भसंह उिाध्याय हररऔध ने भी भलखा है कक ''कबीर साहब स्वाधीन
चचंिा के िरु
ु ष थे।......उनहकने अिने ववचारक के भलए कोई आधार नहीं ि़ूि़ा, ककसी
ग्रंथ का प्रमार् नहीं चाहा। ''3 वास्िव में कबीर साहब ककसी ग्रंथ आहद ननूकिर्
नहीं करिे ह।। डॉ. राम कुमार वमाश का कथन है ''वह एक तर िो हहंदत
ु ं के
अद्वैिवाद के रियोड में िोवषि है और दस
ू री तर मस
ु लमानक के सूफी भसद्धांिक को
स्िर्श करिा है ।''4

उियत
ुश ि वववेचना के आधार िर उनके ववषय में ननम्न बािें कही जा
सकिी है -1. कबीरदास एकेश्वरवादी थे। 2.कबीरदास ्रहह्मवादी या अद्वैिवादी
थे।3. कबीरदास द्वैिाद्वैि ववलक्षर् समत्त्ववादी थे। 4. कबीरदास स्विंत्र ववचार
थे।
उियत
ुश ि बबनदत
ु ं िर चचंिकक में मिैतय नहीं है । कबीर की ववचार
िरम्िरा का िररर्ाम है या उनका स्विंत्र ववचार है । तस वववाद में िड़े बबना यह
कहना उचचि होवा कक कबीर ने ववभभनन प्रकार के अनुभवक को ववचारक को
अिने काव्य में स्थान हदया है । कबीर भाषातं की सीमातं को बार-बार िार
करिे ह।, कफर भी जीवन के ववभभनन धरािलक, स्िरक िथा वैयक्तिक साधना के
ववभभनन चरर्क के कारर् उनके काव्य में ववभभनन िरह के ववचारक का समावेर्
भमल जािा है । डॉ. रघुवंर् के र्ब्दक में यह कहा जा सकिा है कक ''काव्यात्मक
अभभव्यक्ति में अनभ
ु व की समग्रिा को दे खा जा सकिा है , क्जसके ित्ववादी
चचंिन अनिननशहहि हो जािा है ।''5

1
हजारी प्रसाद द्वेदी :कबीर,1990 ि ृ .38
2
िारर्ुरम चिव
ु ेदी ;कबीर साहहत्य की िरख , 2011 , ि ृ 89
3
आयोघ्यभसंह उिाध्याय :कबीर वाचनावली ,2004,ववरियम सं.,ि ृ 49
4
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि.ृ 101
5
रघुवंर् , कबीर ,एक नई दृक्ष्ट 2004 ,ि ृ . 68

83
कबीर के काव्य में अनिननशहहि दार्शननक ववचारक को ननम्नभलिखि
बबनदत
ु ं के ूकि में िरखा जा सकिा है —

ब्रहम ववचार

कबीर के वुूक रामानंद ने ्रहह्म को (ननभमत्िोिादानकारर् ्रहह्म) को माना


है । आचायश हजारी प्रसाद जी भलखिे ह।, ''रामानंद अननय भक्ति को मोक्ष का
अव्यवहहिोिाय माना है प्रिक्त्ि को मोक्ष का हे िु माना है , कमश को भक्ति का
अंव माना है , जवि का अभभनन ननभमत्िकिादारकारर् ्रहह्म को माना है ।''1 ्रहह्म
दो प्रकार के माने जािे ह।- एक सवुर् और दस
ू रा ननवुर्
श । ''श्रुनियक के िररर्ीलन
से स्िष्ट ही जान िड़िा है कक ऋवषयक के मक्स्िस्क में ्रहह्म के दो स्वूकि थे,
एक वुर्, ववश्लेषर् आकार और उिाचध से िरे ननवर्
ुश , ननववशर्ेष, ननराकार, और
2
दस
ू रा तन सब बािक से युति अथाशि सवुर्, सववर्ेष, साकार और सोिाचध।''
्रहह्म सवुर् होिे है या ननवुर्
श ? तस प्रश्न िर द्वववेदी जी एक और मि का
उकलेख करिे ह। ''तसके उत्िर में वेदांिी लोव कहिे ह। कक ्रहह्म अिने-आिमें
िो ननवुर्
श , ननराकार,ननववशर्ेष और ननूकिाचध ही है ,िरनिु अववद्या या
वलिफहमी के कारर्, या उिासना के भलए हम उसमें उिाचधयक या सीमातं का
श या सवुर् उस िर बहुि बहस होिी है ककंिु
आरोि करिे ह।।''3 ्रहह्म ननवुर्
कबीर या संि कवव का ्रहह्म ननवुर्
श है ।'' संि संप्रदाय का ्रहह्म एक है , उसका
ूकि और आकार नहीं है । वह ननवुर्
श और सवुर् से िरे है । वह संसार के कर्-
कर् में है । यह मूनिश या िीथश में नहीं है । वह हमारे र्रीर में ही है । हमारी
प्रत्येक सास में ह।। वह अविार लेकर नहीं आिा है वरन ् संसार की प्रत्येक वस्िु
में प्र्छनन ूकि से विशमान है ।''4नन:संदेह कबीर का ्रहह्म का ूकि है , न आकार
वह ननवुर्
श -सवुर् से िरे है । वह अजनमा अव्यति है । क्जसके न मुख है , न

1
कबीर :हजारी प्रसाद द्वेदी,1990 ि ृ 86
2
हजारी प्रसाद द्वेदी :कबीर,1990, ि ृ . 86
3
वही , ि ृ . 86
4
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ . 84

84
मस्िक, न ूकि है न कुूकि, जो िुष्ि के सुवंध से भी िहला होने के कारर् अनि
सूक्ष्म है । कबीर कहिे ह।-
''जाकै मुाँह माथा नहीिं, नाहीिं रूप कुरूप।

पुहुाँप बास िे पािला,ऐसा ित्ि अनूप॥”1

्रहह्म िेज से भरा है , ऐसा िेज है जैसे सूत्रक की माला हो। वह प्रकार् ूकि है ।

''पारब्रहम के िेज का, कैसा है उनमान|


कहहबे किंू सोभा नहीिं, दे ख्याही परवान||'’2

स्िष्ट है कक कबीर के ्रहह्म ननवुर्


श -सवुर् से िरे ह।। वह ननरं जन, अजनमा है ।
वह िेजयुति है । वह सत्य स्वूकि है और उसने ्रहह्मांड में अिनी लीला का
ववस्िार वह सबके अंदर ववद्यमान रहिा है । संक्षेि में िारसनाथ निवारी के
र्ब्दक में कहे िो ''कबीर का ्रहह्म, ननवर्
ुश , ननराकार, अजनमा, आचचंत्य,
अव्यति और अलक्ष्य है ।''3

जीव
भारिीय दर्शन में आत्मा (जीव) के अक्स्ित्व को स्वीकारा वया है । हजारी
प्रसाद द्वववेदी कहिे ह। ''भारिीय दार्शननकक में प्राय: कोई मिभेद नहीं ह। कक
आत्मा नामक एक स्थायी वस्िु है जो बाहरी दृश्यभाव जवि के ववववध
िररविशनक के भीिर से वुजरिा हुआ सदा एक रस रहिा है ।''4 कबीर जीवात्मा के
अलव अक्स्ििव् को स्वीकार नहीं करिे है । उनहोने जीवात्मा और िरमात्मा को
एक सत्िा माना है , ककंिु माया के प्रभाव के कारर् दोनक में अंिर प्रिीि होिा
है । वे कहिे ह। राबत्र के स्व्न में िारस (्रहह्म) और जीव में भेद रहिा है , जब

1
मोहन भसंह ककी :कबीर,2001, ि.ृ - 70
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 58
3
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि3
ृ 6
4
कबीर:हजारी प्रसाद द्वेदी,1990 ि ृ 88

85
िक म। सोिा रहिा हू िब द्वैिभाव बना रहिा है , जब जाविा हू िो अभेद हो
जािा है ।' यहा िर राबत्र अज्ञानावस्था का प्रिीक है और जावनृ ि ज्ञान दर्ा का।
जावनृ ि अवस्था में जीव और ्रहह्म की सत्िा एक है । कबीर भलखिे ह।-

''कबीर सुवपनै रै खण कै जीय में छे क।

जे सोऊाँ िो दोइ जणााँ, जे जागाँू िो एक।''1

कबीर जीव को ्रहह्म का अंर् मानिे हुए कहिे ह।-


''कहु कबीर इहु राम कौं अिंसु।
जर-कागद पर भमटै न यिंसु।''2

वे कहिे ह। कक क्जन िंच ित्वक में र्रीर बना है , उन ित्वक का आहद कारर् भी
वही है । उसी ने जीव को कमश बंधन से युति ककया है । उसी का सब में
अक्स्ित्व है । वे कहिे ह।-
''पिंच ििु भमभल का काया , कीनी ििु कहा िे कीनरे ।
करम बिंध िु जीउ कहि हौ, करमहह ककतन जीउ दीनु रे '
हरर महह िनु है िन महह हरर है सरब तनरिं िर सेईरे ’’3
कबीर कहिे ह। यह र्रीर िंच ित्व र्रीर जब नष्ट होिा है , िब जीव और िरम
ित्व का भेद नष्ट हो जािा है । वे कहिे ह।-
''जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीिरर पातन।
फूटा कुम्भ जल जलहहिं समाना, यह िथ कहयों ज्ञानी''4

माया
कबीर दास ने माया को िर्रहह्म की एक र्क्ति माना है जो ववश्वमयी

1
श्यामसंद
ु र दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 66
2
राम कुमार वमाश(सं) : संि कबीर, ि ृ . 168
3
वही, ि ृ .87
4
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011, ि ृ .128

86
नारी के ूकि में प्रकट होकर सम्िूर्श जीवक को भ्रभमि कर विी है । रामकुमार
वमाश कबीर के संदभश में भलखा है कक “संि मि में माया अद्वैि माया की भानि
भ्रमात्मक और भमथया िो है ही, ककंिु तसके अनिररति यह सकरियय ूकि से जीव
को सत्िथ से हटाने वाली भी है । तस दृक्ष्ट में संि संप्रदाय में माया का
मानवीकरर् है । एक नारी के ूकि में है , जो चवनी है , डाककनी है , सबको खाने
वाली है ।''1 कबीर कहिे ह। कक बत्रवुर्मयी माया के वुर्क का वर्शन करना सवशथा
कह न है तयककक काटने िर वह हरी-भरी हो जािी है , यहद सींचक िो कुम्हला
जािी है । माया सि, रज, िम से उत्िनन एक वक्ष
ृ है द:ु ख और संिोष तसकी
र्ाखाए है । र्ीिलिा तसके सिने में भी नहीं है -
''कबीर माया िरबर बिबबध का, साखा दख
ु सिंिाप।
सीिलिा सवु पनै नहीिं, फल फीको ितन िाप।।''2

कबीर कहिे ह। कक माया डाककनी है विर्ाचनी है ।यह सारे संसाररक प्रािर्यक को


खा जाने वाली है -

''कबीर माया ढ़ाकडी, सब ककसही कौ खाइ।


दााँि उपाणौंपापडी, जे सिंिौ नेडी जाइ।''3

कबीर माया से दरू रहने की सलाह दे िे ह।। कबीर कहिे ह। कक यहद माया सल
बार भी बाह दे कर बुलाए, कफर भी उससे नहीं भमलना चाहहए, क् यककक तसने
नारद जैसे मुननयक को भी ननवल भलया िो तस िर कैसे भरोसा ककया जाय।
साधारर् जीव को वह कैस छोड़ सकिी है ।

1
राम कुमार वमाश :कबीर एक अनुर्ीलन ,1998,ि ृ .85
2
जी.एन.दास : भमक्स्टक सग्ज ऑफ कबीर,1994, ि.ृ -42
3
वही, ि.ृ -42

87
''कबीर माया क्जतन भमलै, सौ बररयािं दे बााँहह।
नारद से मुतनयर भमले, ककसौ भरौसो त्यााँह।।''1

जगि
भलनिक ूकि से दृक्ष्टवोचर होने वाला विंड जवि है । कबीर की दृक्ष्ट में
जवि का कोई स्विंत्र अक्स्ित्व नहीं है । केवल माया के कारर् तसकी सत्िा
दीखिी है । जवि नश्वर है , चंचल है , वनिर्ील है । कबीर कहिे ह। कक संिूर्श एक
घड़े के समान, जो ्रहह्म ूकिी जल में रखा है और अनदर बाहर वही एक ्रहह्म
ूकिी जल भरा हुआ है , ककनिु जैसे ही घड़ा फूटिा है , िो उसका जल बाहर के
जल में भमल जािा है , वैसे ही यह नाम ूकिािमक
् जवि भी अंि में उसी ्रहह्म
में लीन हो जािा है ।

''जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीिरर पातन।


फूटा कुम्भ जल जलहहिं समाना, यह िथ कहयों ज्ञानी''2

मोक्ष

कबीर मोक्ष के भलए मुक्ति, ननवाशर्, अभय-िद, िरम िद, जीवनि आहद
र्ब्दक का प्रयोव करिे ह।। कबीर ने आत्मा का िंच ित्वक से मत
ु ि होकर ्रहह्म
में लीन होना या आत्मा और िरमात्मा की द्वैिानुभूनि का समा्ि हो जाना ही
मुक्ति की दर्ा माना है । कबीर कहिे ह। कक जहा िरम ज्योनि प्रकार्मान है ,
वहा तक्नद्रय माध्यमक से न िहुचा जा सकिा है और न दे खा जा सकिा है । वहा
ककसी ललककक साधन से नहीं िहुचा जा सकिा। िानी और बफश के ूकिानिरर्
की प्रकरियया के समान ववर्ुद्ध चैिनय माया से संबभलि होकर बद्ध जीव हो जािा
है और आत्मबोध या ज्ञान प्रा्ि होने िर वह माया आहद से युति होकर ववर्ुद्ध
चैिनय या र्द्ध
ु ्रहह्म हो जािा है । तनमें ित्वि: भेद नहीं रहिा है । कबीर कहिे

1
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि ृ . 75
2
वही, ि ृ 128

88
ह।-
''पााँणी ही िें हहम भया, हहम हवै गया बबलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कछू कहृया न जाय।''1

उियुत
श ि वववेचन से स्िष्ट होिा है कक कबीर दास के काव्य में अनेक िरस्िर
ववरोधी दर्शन ित्वक का भी समावेर् दृक्ष्टवि होिा है ।

2.4 कबीर का समाज दशयन

ककसी रचनाकार की समाज दृक्ष्ट, उसकी वैचाररक प्रनिबद्धिा और


सामाक्जक िक्षधरिा से ही बनिी है । तस दनु नया के सामानिर एक ऐसा सामाज
है ,जो रचनाकार की रचना में सक्ृ जि होिा है । रचनाकार के स्िर िर कबीर की
िक्षधरिा उसी जनिा से है , जो धमश, कमशकांड और बाह्य आडंबर में बुरी िरह
फसी हुई है। तस धमश कांड और बाह्य आडंबर को िहचानने की दृक्ष्ट उनहें
अद्वैिवाद से भमलिी है क्जसके प्रनि वैचाररक ूकि से प्रनिबद्ध है यह अद्वैिवादी
दृक्ष्ट समाज में सबको एक समान या बराबर मानिी है ।

साहहत्य का मुख्य प्रयोजन और प्रकायश सामाक्जक आलोचना भी


है ।''साहहत्य सामाक्जक प्रवक्ृ त्ियक के संबंध में प्राय: कभी भी िूरी िरह िटस्थ
नहीं हो सकिा। वह ियाशवरर् का सवेक्षर् करिा है और सामाक्जक प्रवक्ृ त्ियक की
ननवरानी भी। सामाक्जक रीनि-नीनि, चाहे िुरानी हो या नयी, उसकी हट्िर्ी का
ववषय बनिी ह।।''2 कबीर जो मूलि: भति थे िर उनकी भक्ति को अभभव्यक्ति
दे ने से जो साहहत्य उिजा है , वह साहहत्य भी अिने समय के सवालक से
टकराने वाला साहहत्य है ।

1
मोहन भसंह ककी :कबीर,2001 , ि.ृ - 28
2
श्यामाचरर् दब
ू े, िरम्िरा तनिहास और संस्कृनि,1991, ि.ृ - 154

89
कबीर के समय को दे खें िो ''कबीर भारिीय तनिहास के क्जसयुव में िैदा
हुए, वह युव मुक्स्लम काल के नाम से जाना जािा है । उनके जनम से बहुि
िहले हदकली में मुक्स्लम र्ासन स्थाविि हो चुका था। ....कबीर के समय िक
उत्िर भारि की आबादी का एक अ्छा-खासा भाव मस
ु लमान हो चुका था।
स्वयं कबीर क्जस जुलाहा िररवार में िैदा हुए थे, वह एक दो िीढी िहले
मुसलमान हो चुकी थी।''1

तस्लाम के भारि में आने के फलस्वूकि हहंद ू धमश की जो िन


ु व्श याख्या
र्ुूक हुई उनमें हहनदत
ु ं को और भी हहंद ू बना हदया। हहंद ू धमश ''िीथश, व्रि
उिवास और होमाचार की िरं िरा उसकी केनद्र बबंद ु हो वई। तस समय िव
ू श और
उत्िर में सबसे प्रबल संप्रदाय नाथ िंथी योचवयक का था।.....ववववध भसवद्धयक के
द्वारा वे काफी सम्मान और संभ्रम के िात्र बन वए थे। ये वुर्ािीि भर्व या
ननवुर्
श -ित्त्व के उिासक थे। .....कुछ काल के तस्लामी संसवश के बाद ये लोव
धीरे -धीरे मस
ु लमानी धमश-मि की तर झुकने लवे, िर तनके संस्कार बहुि हदनक
िक बने रहे । जब वे तसी प्रकरियया से वुजर रहे थे उसी समय कबीर का
आववभाशव हुआ था।''2 कबीर िर तसका जबरदस्ि प्रभाव दे खने को भमला है ।
कबीर ने तन भसद्धक एवं नाथक की िरह वर्शव्यवस्था वैरबराबरी को चन
ु लिी दी।
वोरखनाथ के समय से ही नाथ िंथी लोव हहंदत
ु ं और मुसलमानक के धाभमशक
िाखंड, वाह्य आडंबर, जाििाि की कट्टरिा, सामाक्जक ूकहि़वाद तत्याहद के
िखलाफ आंदोलन चला रहे थे। तस आनदोलन की बावडोर नाथिंचथयक फकीरक के
हाथ में थी। नाथिंचथयक का यह आनदोलन सामंिवाद के ऐसो- अराम, र्ाहखची
से लेकर उसके उन िमाम उिादानक के िखलाफ था क्जससे जनिा का र्ोषर् हो
रहा था। कबीर की समाज दृक्ष्ट के अनि: सूत्र नाथो को तस प्रनिरोध में खोजा
जा सकिा है ।

1
राजककर्ोर (सं.)कबीर की खोज, ि.ृ - 53
2
हजारी प्रसाद द्वेदी, कबीर, 1990 ,ि ृ . 139

90
भक्ति आंदोलन अिने समय के सामाक्जक-आचथशक, राजनीनिक एवं
धाभमशक क्स्थनियक से टकराहट से उत्िनन हुआ था। वह र्ुद्ध ूकि से धाभमशक
आंदोलन नहीं था। के. दामोदरन भलखिे ह। कक ''भक्ति आनदोलन के रचनाकारक
(कबीर आहद) ने सांस्कृनिक क्षेत्र में राष्रीय नवजावरर् का ूकि धारर् ककया,
सामाक्जक ववषयवस्िु में वे जानिप्रथा के आचधित्य और अनयाय के ववरुद्ध
अत्यंि महत्विूर्श ववद्रोह के द्योिक थे। तस आंदोलन ने भारि में ववभभनन
राष्रीय तकातयक के उदय को नया बल प्रदान ककया, साथ ही राष्रीय भाषातं
और उसके साहहत्य की अभभववृ द्ध की माव भी प्रर्स्ि ककया। व्यािारी और
दस्िकार, सामंिी र्ोषर् का मुकाबला करने के भलए, तस आनदोलन से प्रेरर्ा
प्रा्ि करिे थे। यह भसद्धानि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य कफर ऊची जानि के
हक अथवा नीची जानि के समान ह।, तस आनदोलन का ऐसा केनद्र बबनद ु बन
वया, क्जसने िुरोहहि ववश और जानि प्रथा के आिंक के ववरुद्ध संघषश करने वाले
आम जनिा के व्यािक हहस्सक को अिने चारक तर एक जुट ककया।”1

कबीर के सामने एक तर हहंद ू समाज था िो दस


ू री िरफ मुक्स्लम
समाज। कबीर दोनक समाजक के धाभमशक आडम्बर एवं िाखण्ड के िखलाफ खड़े
थे। धमश उनके भलए एक मात्र सत्य था, ककनिु हहंद ू -मक्ु स्लम धमश में वे भेद
नहीं मानिे थे। वे एकेश्वरवादी थे क्जसके संदभश में तरफान हबीब भलखिे ह। कक
''वास्िव में कबीर ऐसे एकेश्वरवाद की स्थािना करिे ह।, क्जसमें ईश्वर के प्रनि
िूर्श समिशर् िो है िरनिु सारे धाभमशक अनुष् ानक को नकारा वया है और तस
िरह वह कट्टर तस्लाम से बहुि आवे ननकल वया है । कबीर के भलए ईश्वर से
एकाकार होने का अथश मनुष्यक का एक होना है और तसभलए वहा र्ुद्धिा और
छुआछूि की प्रथा को सम्िूर्श ूकि से स्िष्ट र्बदक
् में नकारा वया है िथा सब
िरह के अनुष् ानक को अस्वीकार ककया वया है ।''2 कबीर कहिे ह। –

1
के. दामोदरन - भारिीय चचनिन िरम्िरा.ि.ृ -315
2
तरफान हबीब - साम्प्रदानयकिा एवं संस्कृनि के सवाल, ि.ृ - 23

91
“तया अजू जप मिंजन कीएाँ, तया मसीति भसरुनाएिं|

1
हदल महह कपट तनवाज गज
ु ारै , तया हज कावै जाये||”

कबीर के समय में समाज में वर्शव्यवस्था जानि-भेद, छुआ-छूि का जबदस्ि


बोल बाला था| कबीर ने उसका प्रनिवाद ककया है | वे कुल िररवार के श्रेष् िा के
आधार िर अिने को श्रेष् मान लेने वालो िर िीखा व्यंव करिे ह।-

ऊाँचे कुल तया जनभमयााँ, जै करणीिं ऊाँच न होई।


सोवन कलस सुरे भरया, साधूाँ तनिंद्या सोई॥2

भक्ति काव्य में िुलसीदास ने क्जस िरह कवविावली में ित्कालीन यथाथश
को उकेरा है उससे कहीं वहरे अथों में कबीर अिने समय के यथाथश को रच रहे
थे। कबीर के समय का समाज धनी और वरीब के बीच बंटा हुआ था। ककसी के
िास अत्यचधक धन था िो ककसी को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होिी थी,
यह मुहम्मद िुवलक का समय था क्जसके बारे में के. एम. अर्रफ ने भलखा है
कक ''चार मंबत्रयक में से प्रत्येक को प्रनिवषश 20,000 से 40,000 टं का भमलिे थे,
सचचवालय के कमशचारी, जो लवभव 300 थे, कम से कम 10 हजार टं का
प्रनिवषश िािे थे। उनमें से कुछ को 50 हजार टं का भी भमलिा था''3 यह उस
समय का सच था, उसी समय में एक वरीब जुलाहा िररवार में कबीर िैदा हुए
थे। उनके भलए िेट काटना मुक्श्कल हो वया था। अिनी दररद्रिा के संदभश में
कबीर ने भलखा है कक-
भूखे भगति न की जै। यह माला अपनी लीजै॥

हौं मािंगों सिंिन रै ना। मैं नाहीिं ककसी का दे ना॥

माधों कैसे बने िुमसिंगे। आप न दे उ ि लेवउ मिंगे||

1
िारसनाथ निवारी(सं): कबीर ग्रंथवली,1961ि.ृ 103
2
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली, , 2011 ि.ृ 85
3
के. एम. अर्रफ :हहनदस्
ु िान के ननवाभसयक का जीवन और उनकी िररक्स्थनिया,2006 ,सं.- 158

92
कबीर को अस्वीकार के साहस वाला कवव कहा जािा है उनके अनदर
अिनी ित्कालीन समाज के उन प्रनिकरिययावादी ित्त्वक को अस्वीकार कर दे ने का
साहस था जो समाज को िीछे ले जािी थी। ''यह अस्वीकार ही कबीर को ननवुर्

संि के ूकि में उनको अिनी अलव िहचान दे िा है । ि।िीस करोड़ दे वी-दे विातं
और दभसयक अविारक वाले दे र् में उनहें एकेश्वरवादी होने का हलसला प्रदान करिा
है - सारे अविारक और दे वी-दे विातं का ननषेध करिे हुए उनहें ईश्वर-्रहह्म-
अकलाह, राम-रहीम से उस एक के ही अनेक नामक को जोड़िा है । यह
एकेश्वरवाद ही उनहें मक्स्जद, मंहदर, काबा-कार्ी, िीथश व्रि-रोजा-उिवास-समाज-
बंदवी सबसे अलव-घर घर में, विण्ड-विण्ड में और दनु नया जहान में उनहें दे खने
और िाने का ववश्वास दे िा है ।''1

कबीर अिने समय एंव समाज के कटु आलोचक ही नहीं बक्कक समाज
को लेकर स्व्न द्रष्टा भी है ।उनके भति मन में भारिीय समाज का एक प्राूकि
है क्जस िर वे ववजन के साथ काम कर रहे थे। ''वे मस
ु लमान होकर भी असल
में मुसलमान नहीं थे। वे हहंद ू होकर भी हहंद ू नहीं थे। वे साधू होकर भी योवी
(अग्रहस्थ) नहीं थे। वे वैष्र्व होकर भी वैष्र्व नहीं थे।''2

तस प्रकार कबीर का अिने समाज के प्रनि दृक्ष्ट कोर् वैज्ञाननक एंव


व्यवक्स्थि था, वो ककसी प्रकार के बाह्य आडंबर िथा र्ोषर् के िखलाफ खड़े थे
अंि में तस सनदभश में हजारी प्रसाद द्वववेदी ने भलखा भी है कक ''कबीरदास
ऐसे ही भमलन बबनद ु िर खड़े थे, जहा एक तर हहनदत्ु व ननकल जािा था, दस
ू री
तर मुसलमानत्व, जहा एक तर ज्ञान ननकल जािा है , दस
ू री तर अभर्क्षा,
जहा एक तर योवमावश ननकल जािा है , दस
ू री तर भक्ति मावश, जहा एक तर
ननवुर्
श भावना ननकल जािी है , दस
ू री तर सवर्
ु साधना उसी प्रर्स्ि चलराहे िर

1
भर्वकुमार भमश्र, भक्ति आनदोलन और भक्ति काव्य-,2010 ि.ृ - 107
2
हजारी प्रसाद द्वववेदी, हहनदी साहहत्य उद्भव और ववकार्, ि.ृ - 77

93
वे खड़े थे। वे दोनक को दे ख सकिे थे और िरस्िर ववरुद्ध हदर्ा में वये मावों के
वुर्दोष उनहें स्िष्ट हदखाई दे जािे थे।''1

2.5 कबीर की अभभव्यिंजना शैली

कबीर मूलि: भति थे, िर तस भक्ति साधना में उनहकने जो कुछ कहा
उस कथन के भलए, उनहकने जो भाषा प्रयोव की वह कवविा की कसलटी िर उ्च
कोहट की है । उनहकने अनजाने में ही कवविा के उ्च भर्खर को छू भलया है ।
आचायश हजारी प्रसाद द्वववेदी भलखिे ह। कक ''हहंदी साहहत्य के हजार वषों के
तनिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्िनन नहीं हुआ।...
मस्िी, फतकड़ना स्वभाव और सब कुछ डांट फटकार कर चल दे ने वाली िेज ने
कबीर को हहंदी साहहत्य का अद्वविीय व्यक्ति बना हदया है । उनकी वािर्यक में
सबकुछ को छूकर उनका सवशजयी व्यक्तित्व ववराजिा है । कबीर की वार्ी का
अनुकरर् नहीं हो सकिा। अनुकरर् करने की सभी चेष्टाए व्यथश भसद्ध हुई है ।
तसी व्यक्तित्व के कारर् कबीर की उक्तिया श्रोिा को बलिव
ू क
श आकृष्ट करिी
ह।। तसी व्यक्तित्व के आकषशर् को समालोचक संभाल नहीं िािा और खीझकर
कबीर को कवव कहने में संिोष िािा है । ऐसे आकषशक वतिा को कवव न कहा
जाए िो और तया कहा जाए?''2 कबीर की कवविाई को दे खिे हुए ऐसा लविा है
कक कबीर को कवविा की र्ास्त्रीय प्रर्ाली का ज्ञान था िर यह सही नहीं वास्िव
में वह उनके अनुभव की उिज थी। उनहकने ''कवविा भलखने की प्रनिज्ञा करके
अिनी बािें नहीं कहीं थी। उनका कवव ूकि घलुए में भमली हुई वस्िु है । उनकी
छं दक योजना, उक्ति वैचचत्य और अलंकार ववधान िर्
ू श ूकि से स्वभाववक और
प्रयत्नसाचधि है । काव्य ूकहि़यक के वे न जानकार थे न कायल।''3

1
हजारी प्रसाद, द्वववेदी कबीर, ि ृ . 77 -78
2
वही, ि.ृ 170-171
3
वही, ि.ृ 171

94
तस प्रकार कबीर की कवविा प्रयत्न साध्य न होकर अयत्नसाचधि है ।
अभभव्यंजना के अनेक कलात्मक ित्व कबीर की कवविा में सहज भाव से आिे
ह।। लेककन यह ध्यान रखना होवा कक िूरे भक्तिकाल में यहद कबीर क्जिने
भति के ूकि में चचचशि है उिने ही कवव के ूकि में भी। वे अनुभनू ि को
अभभव्यति करने के भलए भाषा की सजशना करिे है तसीभलए भाषा के सजशक
कवव ह। क्जसके संदभश में आचायश हजारी प्रसाद द्वववेदी ने भलखा है कक '' भाषा
िर कबीर का जबरदस्ि अचधकार था। वे वार्ी के डडतटे टर थे। क्जस बाि को
उनहकने क्जस ूकि में प्रकट करना चाहा है उसे उसी ूकि में भाषा से कहलवा
भलया- बन वया है िो सीधे सीधे नहीं िो दरे रा दे कर। भाषा कबीर के सामने
कुछ लाचार सी नजर आिी है ।''1

बड़ा रचनाकार भी वही होिा है जो भाषा और भाव में साम्यिा स्थाविि


कर ले अथाशि अिने भावक को अभभव्यति करने के भलए सही भाषा की िलार्
कर सके। मक्ु ति बोध ने सज
ृ न के िीन क्षर्क की चचाश करिे हुए ककसी भी
साहहत्यकार के भलएिीसरे क्षर् को महत्विूर्श माना है - ''कला का िहला क्षर् है
जीवन का उत्कट िीव्र अनुभव क्षर्। दस
ू रा क्षर् है तस अनुभव का अिने
कसकिे-दख
ु िे हुए मल
ू क से िथ
ृ क हो जाना और ऐसी फैनटे सी का ूकि धारर् कर
लेना मानो वह फैनटे सी अिनी आखक के सामने ही खड़ी हो। िीसरी और अंनिम
क्षर् है तस फैनटे सी के र्ब्द बद्ध होने की प्रकरियया का आरं भ और उस प्रकरियया
की िररिूर्ाशवस्था िक वनिमानिा।...तस प्रकार कला के िीसरे क्षर् में मूल द्वंद
है भाषा िथा भाव के बीच।''2 भाषा और भाव के द्वंद्व के उिरांि जो कवविा
उिजिी है वह कालजयी कवविा होिी है । कबीर की कवविा कालजयी कवविा
तनहीं अथों में है कक उनहकने भाषा को अिने भावक के अनुसार ि़ाल भलया था। वे
क्जस भाषा भाषी क्षेत्र में जािे थे वहा की भाषा में वे उक्तिया कहा करिे थे।

1
हजारी प्रसाद द्वववेदी, कबीर,ि.ृ 170

2
मुक्तिबोध रचनावली-मुक्तिबोध, ि.ृ 90

95
तसी भलए कबीर की भाषा के संदभश में ननर्शय करना टे ढी खीर है । ''कबीर की
रचना में कई भाषातं के र्ब्द भमलिे ह। िरं िु भाषा का ननर्शय अचधकिर र्ब्दक
िर ननभशर नहीं है । भाषा के आधार िर करिययािद, संयोजक र्ब्द िथा कारक
चचनह है जो वातय ववनयास की ववर्ेषिातं के भलए उत्िरदायी होिे ह।। कबीर में
केवल र्ब्द ही नहीं करिययािद, कारक चचनहाहद भी कई भाषातं के भमलिे ह।,
करियया िदक के ूकि में अचधकिर ्रहजभाषा और खड़ी बोली के ह।। कारक चचनहक में
'कै, सब, सा, आहद अवधी के है , 'को' ्रहज का है और 'थे' राजस्थानी का|''1
यद्यवि कबीर खुद कहिे ह। कक मेरी बोली 'िूरबी' है ।

“बोली हमरी परू ब िाहह न चचन्है कोई।


हमरी बोली सो लखै, जो पूरब का होय।“2

लेककन यह ध्यान दे ना होवा कक कबीर ने '' अिने को केवल िरू बी बोली


िक सीभमि नहीं रखा, बक्कक ऐसी सब बोभलयक का प्रयोव ककया, क्जससे उनकी
बानी लर- लर के साधुतं के भलए सहज प्रेषर्ीय बनिी। कबीर जब हहंद ू िंडडिक
को बाि करिे ह। िो फारसी भमचश्रि हहंदी प्रयुति करिे ह।। उनके िदक में यहद
बंवाली करिययाूकि आनछनक आहद भमलिे ह।, िो राजस्थानी और लहं दा के ूकि भी
िाये जािे ह।।''3 तस िंचमेल िखचड़ी भाषा का कारर् भी यही है कक वे दरू -दरू
िक संिो के साथ सत्संव ककया करिे थे। कुछ अलव-अलव बोली बानी के िद
दे खिे ह। तससे कबीर की भाषा को स्िष्टिा से समझा जा सकिा है ।
1. खड़ी बोली िथा उदश ू भमचश्रि ूकि द्रष्टव्य है -
“हमन है इश्क मस्िाना हमन को हाभशयारी तया ।
रहे आजाद या जग से हमन दतु नया से यारी तया।”4

1
कबीर ग्रंथावली-श्यामसंद
ु र दास, ि.ृ 45
2
राम ककर्ोर र्माश:कबीर ग्रंथावली2010, ि.ृ 90
3
प्रभाकर माचवे , कबीर, ि.ृ 36
4
हजारी प्रसाद द्वववेदी, कबीर 1990 ि.ृ 127

96
2.िूरबी, भोजिुरी, बबहारी के साथ कई बोभलयक का मेल भमलिा है -
“मोरी चुनरी में परर गयो दाग वपया
पााँच िि की बनी चुनररया, सोलह सै बिंद लागे क्जया।
यह चुनरी मेरे मैके िें आई, ससुरा में मनुआाँ खोय हदया।”1

3. कबीर के काव्य में अंषडडया, जीभडड़या तत्याहद िंजाबी र्ब्दक के साथ 'िड़या'
करियया िर राजस्थानी प्रभाव भी भमलिा है -
“अिंखखयााँ िो झााँई पडी पिंथ तनहारर तनहारर।
जीभड़डयााँ छाला पडया, नाम पुकारर पुकारर।।”2

4. कबीर के यहा अरबी, फारसी र्ब्दक की भरमार है जैसे ननम्न िद में दे खा जा


सकिा है -

“पिंजर जभस करद दस


ु मन मुरद करर पैमाल।
भभस्ि हुसकााँ दोजगााँ दिं द
ु र दराज हदवाल।
पहनाम परदा ईि आिम, जहर जिंगम जाल।।”3

कबीर की तस भाषा वैववध्य का कारर् दे र्ाटन है वे िूरे दे र् में घम


ू िे
रहे , िढे भलखे नहीं थे ''तसीभलए वे बाहरी प्रभावक के ज्यादा भर्कार हुए। भाषा
एवं व्याकरर् की क्स्थरिा उनमें नहीं भमलिी। यह भी संभव है कक उनहकने जान
बझ
ू कर अनके प्रांिक के र्ब्दक का प्रयोव ककया हो अथवा र्ब्द भण्डार के कमी
कारर् क्जस भाषा का सुना- सुनाया र्ब्द सामने आया उसे उनहकने उसे कवविा
में रख हदया है । कुल भमलाकर कबीर की भाषा को ध्यान से िरखे िो ्रहजभाषा,
अवधी, मैचथली, भोजिुरी, खड़ी बोली, फारसी, अरबी तत्याहद बोभलयक एवं

1
कबीर-हजारी प्रसाद द्वववेदी1990,ि ृ 151
2
जी. एन .दास :लव सग्ज आफ कबीर ,ि-ृ 106
3
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथवली,2011, ि-ृ 179

97
भाषातं के प्रयोव दे खने को भमलिे ह।। कबीर के र्ब्द चयन की क्षमिा िर
तसभलए किई नहीं संदेह ककया जा सकिा कक वे िढे भलखे नहीं थे। उनहकने
भावक के उत्कट अभभव्यक्ति के भलए उस उत्कटिा को अभभव्यति करने वाले
र्ब्दक िक िहुचिे ह।। जैसे नीचे हदये जा रहे िद में कबीर 'ददश ', 'िीर', 'िीड़ा'
तत्याहद र्ब्दक से कहीं आवे जाकर ददश के टीस को अभभव्यति करने के भलए
'िलफै' र्ब्द का प्रयोव करिे ह।, जो 'िलफै' में ददश की टीस है वह और र्ब्दक में
नहीं आ सकिी थी-
"िलफै बबन बालम मोर क्जया।
हदन नहीिं चैन राि नहहिं तनिंदया।
िलफ िलफ के भोर ककया।।”1

कबीर ने अिनी कवविा में प्रिीकक का खूब प्रयोव ककया है उनके द्वारा
प्रयुति अचधकांर् प्रिीक दर्शन एवं योव, की िरं िरा से आए ह।। कबीर ने
आध्याक्त्मक अनभ
ु नू ियक से बोधवम्य बनाने के भलए प्रिीकक का प्रयोव ककया है ।
''तड़ा, विंवला, नाडडयक के भलए वंवा-यमुना, तड़ा विंवला और सुषुम्ना के भमलन
स्थल के भलए बत्रवेर्ी, र्ूनय चरिय के भलए आकार्, मन के भलए मव
ृ , र्र्क,
मस
ू , जीव के भलए िारधी, ्रहह्मनाड़ी के भलए बाबी, अनाहिनाद के भलए सबद,
वासना के भलए सविशर्ी आहद ऐसे सैकड़क प्रिीक ह।, क्जनहें र्ास्त्रीय िरं िरा के
माध्यम से आसानी से समझा जा सकिा है ।''2 कबीर अिनी मलभलक प्रनिभा से
अिनी रचना में उियुत
श त्ा प्रिीकक का संयोजन करिे ह।।

1) “काहे री नलनी िू !कुम्हलानी। िेरे ही नाभल सरोवर पानी।।


जल मैं उिपति जल मै बास। जल मै नलनी िोर तनवास।।”3

1
जी. एन .दास :लव सग्ज आफ कबीर ,ि-ृ 41
2
राम ककर्ोर र्माश ;कबीर ग्रंथावली, 2006 ि ृ . 95
3
श्यामसुंदर दास:कबीर ग्रंथावली,2011,ि ृ -41

98
2) “अिंिर गति अतन अतन बाणी।
गगन गुपि मधुकर मधु पीवि,

सुगति सेस भसवजाणी।1

''कबीर छं दर्ास्त्र से अनभभज्ञ थे, यहािक की वे दोहक को विंवल की खराद


िर न चढा सके। डफली बजाकर वाने में जो र्ब्द क्जस ूकि में ननकल वया,
वही ीक था। मात्रातं के घट-बढ जाने की चचंिा व्यथश थी। िर साथ ही कबीर
में प्रनिभा थी, मलभलकिा थी।''2 उनहकने सािखया दोहा छं द में , रमैनी में कुछ
चलिाई के बाद एक दोहा िथा रमैनी िद र्ैली में भलखा। छं द कबीर के भलए एक
साधन मात्र था साध्य नहीं तसीभलए कबीर ने उस िर कोई ववर्ेष ध्यान नहीं
हदया।
दोहा-
"बभलहारी गुरू आपणै, द्यौ हाडी कै बार।
क्जनी मतनष मैं दे विा, करि न लागी बार।।“3

कबीर के िदक को राव-राचवननयक के सहयोव से वाया जा सकिा है कबीर के िद


वायन के भलए आज के संदभश काफी लोक वप्रय हुए। कबीर ने कुछ लोक छं दक
का भी प्रयोव अिनी कवविा में ककया। राव वलड़ी का यह िद दे खें-
“दल
ु हहनी गावहुाँ मिंगलचार
हम घरर आए हौ राजा राम भरिार।।टे क।।”4

कबीर ने जानबूझ कर नहीं बक्कक अनजाने में ही अलंकारक का जबरदस्ि प्रयोव


अिनी कवविा में ककया है अनुप्रास, दृष्टांि, अनयोक्ति, ववभावना, उिमा,
सांवूकिक तत्याहद अलंकार उनके वप्रय अलंकार ह।-

1
. िरु षोिम अग्रवाल :अकथ कहानी प्रेम की ,ि.ृ 426
2
श्यामसुंदर दास:कबीर ग्रंथावली,2011 ि.ृ 44
3
वही, ि.ृ -49
4
. वही,ि.ृ 307

99
1) “सन्ि न छाडै सिंिई जे कोहटक भमलै असिंि
चिंदन भुविंगा बैहठया, सीिलिा न िजिंि।।“1(दृष्टािंि अलिंकार)
2) “काहे रे नभलनी िू कुक्म्हलानी
िेरे ही नाभल सरोवर पानी।।”2

कबीर की 'उलटबासी’ प्रभसद्ध ह।। वैसे ‘उलटबासी’की व्युत्िक्त्ि अभी िक


संदेहास्िद ही है , सहजयाननयक के यहा से चली आ रही ‘उलटबासी’की िरम्िरा
कबीर के यहा आकर ववकभसि होिी है। तसके भलए प्रयत
ु ि भाषा को संध्या
भाषा कहा जािा है । उलटवासी को कबीर ने 'उलटा' वेद कहा है । िारसनाथ
निवारी ने ''िं. िरर्रु ाम चिव
ु ेदी ने तसकी व्युत्िक्त्ि की दो संभावनातं का
संकेि ककया है । एक तसे 'उलटा' िथा 'अंर्' से भमलाकर बना हुआ बिाया जा
सकिा है क्जसके अनुसार तसका िात्ियश उस रचना से होवा, क्जसके ककसी न
ककसी अंर् में उलटी बािें भमलिी ह।। दस
ू री संभावना के संबंध में चिुवेदी जी
कहिे ह। कक ''उलटबासी र्ब्द के तस अथश का समथशन उसे 'उलटा' एवं 'बास'
र्ब्दक द्वारा ननभमशि मानकर भी ककया जा सकिा है - िरनिु यहद तसके मूल ूकि
की ककिना तसके अनुस्वार को हटा कर केवल 'उलटवासी' मात्र ूकि में की जाय
िो तसका िात्ियश उस रचना से भी हो सकिा है , जो उसके 'वकवास' 'ललटवास'
आहद के समान ककस 'उलटवास' र्ब्द के आधार िर ननभमशि होने के कारर्
व्यथश की उलट-िुलट सूचचि करने वाले उदाहरर्क से भरी हो।''3

“अिंबर बरसै धरिी भीजै, बुझै जााँणै सब कोई।


धरिी बरसै अिंबर भीजै बुझै बबरला कोई॥”4
कबीर की कवविा का रास्िा भी उनके व्यक्तित्व की िरह सिाट न होकर उबड़-
खाबड़ है क्जस िर चलना उनकी कवविाई के वास्िववक ममश को समझना है ।

1
. श्यामसंद
ु र दास:कबीर ग्रंथावली,2011,ि.ृ 87
2
जयदे व भसंह, कबीर वांड्नमय खंड-2 (सबद),2002 ि.ृ 104
3
. िारसनाथा निवारी, कबीर वार्ी :,ि ृ 129
4
श्यामसुंदर दास :कबीर ग्रंथावली,2011,ि ृ 154

100
प्रिीक िथा उलटबासी जैसे प्रयोव के बाद कबीर की कवविा में बबंब धभमशिा भी
उत्कृष्ट कोहट की है । क्जस कवव में बबंब सजशनात्मक र्क्ति अचधक होिी है ,
उसका काव्य उिना ही मानभसक बोधवम्य बनिा है । कबीर ने भी आत्मा और
िरमात्मा जैसे अवोचर ित्व को अनेक बबम्बक द्वारा दृश्यवि करिे ह।। कबीर
बबम्बक का चयन लोक के िररवेर् से करिे है । वे लोक के िर्ु, िक्षी, वनस्िनि,
कृवष, सामाक्जक रीनि-ररवाज, संस्कार आहद के द्वारा बबंब का सज
ृ न करिे है ।
उनकी बबंब ननधान की प्रकरियया अचधकिर ूकिक िथा उिमानक िर आधाररि है ।
प्रस्िुि िथा अप्रस्िुि चचत्रक द्वारा भी वे भाव बबंब रहिे है । कबीर दास के
ननम्न िद को दे खा जा सकिा है क्जसमें उनहकने लोक बबंब के द्वारा अिनी
आध्याक्त्मक मानयिातं को ननूकविि करिे ह।।
''दल
ु हहनी गावहु मिंगलचार
हम घरर आए हौ राजा राम भरिार।।टे क।।

िन रति करर मैं, मन रि कररहुाँ, पिंच िि बरािी।


राम दे व मोरै पाहुाँनैं आये, मैं जोबन मैंमािी॥”1

अिः स्िष्ट है कक कबीर भाषा सजशक कवव ह। वे अिने भावक की िूर्श


अभभव्यक्ति के भलए भाषा की िलार् करिे ह।। कबीर की कवविा वस्िु और ूकि
में एकूकििा स्थाविि करिी है , उनकी कवविाई कक यही ववर्ेषिा भी है ।

ननष्कषश ूकि में हम कहा सकिे ह। कक कबीरदास भक्तिकाल की ज्ञानमावी


र्ाखा के प्रनिननचध कवव ह।। उनकी भक्ति का मूल ित्व प्रेम है जो समिशर् िर
आधाररि है कबीर की भक्ति िर 'नारदीय भक्ति' और श्रीमदभाववि की ग्यारह
आसक्तियक का प्रभाव है । कबीर के काव्य में साधनात्मक और भावनात्मक
रहस्यवाद है । कबीर साधनात्मक रहस्यवाद को भसद्धक और नाथक से ग्रहर् करािे
ह। जबकक भावनात्मक रहस्यवाद को सूकफयक से। कबीर के दर्शन िर एक िरफ

1
हजारी प्रसाद द्वववेदी, कबीर,1990, ि.ृ 81

101
वैष्र्व के अद्वैिवाद, अहहंसा और प्रवक्त्ि िो दस
ू री िरफ तस्लाम के
एकेश्वरवाद का प्रभाव है । कबीरदास ने जानि-िांनि, ऊंच-नीच, छुआ-छूि आहद
का िुरजोर ववरोध ककया। वे धाभमशक- कमशकांड, वाह्य-आडंबर और सांप्रदानयकिा
आहद से आजीवन लड़िे रहे । कबीर की भाषा सधत
ु कड़ी है अथाशि िंचमेल
िखचड़ी है ।कबीर की दृक्ष्ट में अनुभूनि महत्विूर्श है , अभभव्यति कलर्ल िो
उसकी अनुचारी है । लोक र्ैभलयक का प्रयोव कबीर के काव्य की एक महत्व
महत्विूर्श ववर्ेषिा है ।

102

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