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कवि कबीर

जन्म 1398
जन्म स्थान लहरतारा ताल, काशी
मृत्यु 1518
मृत्यु स्थान मगहर, उत्तर प्रदे श
सावहत्यत्यक विशेषताएँ कुरीवतय ,ों सामावजक एिों
धावमिक बुराइय ों का खोंडन
1. जावत न पू छौ साधु की , ज पू छ त ज्ञान।
म ल कर तरिार का , पडा रहन द म्यान।।

व्याख्या
कबीरदास जी कहते हैं साधु की सच्ची पहचान करने के वलए
उसकी जावत न पू छ कर उसका ज्ञान पू छ ना चावहए। साधु का ज्ञान
ही उसकी असली पहचान है ।
कबीरदास उदाहरण दे कर अपनी बात स्पष्ट करते हैं वक मू ल्य त
तलिार का ह ता है , म्यान का क ई विशे ष महत्त्व नही ों ह ता हमें
िास्तविक िस्तु की पहचान करनी चावहए। ज्ञान से ही ईश्वर की
प्रात्यि ह ती है ।
2. आित गारी एक है , उलटत ह इ अने क ।
कह ' कबीर ' नवहों उलवटए , िही एक की एक।।

व्याख्या
कबीरदास जी कहते हैं वक जब गाली आती है तब िह एक ही
ह ती है । उसके उलट दे ने पर िह कई रूप ले ले ती है ।
जिाब दे ने पर गावलय ों का वसलवसला चल वनकलता है ।
कबीरदास का कहना है वक गाली का उलटकर उत्तर नही ों दे ना
चावहए। ऐसा करने पर िह एक की एक ही रह जाती है ।
3. माला त कर में विरै , जीवि विरै मु ख माँ वह ।
मनिा त चहँ वदवस विरै , यह त सु वमरन नावहों । ।

व्याख्या
कबीरदास यथाथि त्यस्थवत का िणि न करते हए कहते हैं प्रायः यह
ह ता है वक ल ग ों के हाथ में त माला घू म ती रहती है और मु ख में
जीि िी घू म ती रहती है अथाि त् हाथ से माला िे रकर और मुँ ह से
राम नाम का मौन उच्चारण करके हम िगिान के स्मरण का ढ ग
ों
करते हैं ।
इसका कारण यह है वक उस समय िी हमारा मन चार ों वदशाओों में
घू म ता रहता है अथाि त् हम एकाग्रवचत नही ों ह ते , अतः इसे प्रिु -
स्मरण नही ों कहा जा सकता।
4. ' कबीर ' घास न नीवदए , ज पाऊँ तवल ह इ।
उवड पडे जब आँ त्यख मैं , खरी दु हे ली ह इ।।

व्याख्या
कबीरदास वकसी िी तु च्छ व्यत्यि या िस्तु की वनों दा की मनाही
करते हैं । उनका त यहाँ तक कहना है वक अपने पै र ों के नीचे की
घास तक की िी वनों दा नही करनी चावहए।
इस व्यथि प्रतीत ह ने िाली घास का वतनका तक हमें परे शान करने
के वलये कािी है । जब यह वतनका उडकर हमारी आँ ख में वगर
जाता है तब आँ ख बहत दु खने लगती है ।
5. जग में बैरी क इ नवहों , ज मन सीतल ह य
या आपा क डारर दे , दया करै सब क य ॥

व्याख्या
कबीरदास जी कहते हैं वक यवद हमारा मन शीतल अथाित् शाोंत है त
हमें इस सोंसार में अपना क ई िी शत्रु प्रतीत नही ों ह गा।
हमें आिश्यकता इस बात की है वक हम अपने अहों कार क त्याग दें ,
तिी सिी मनुष्य हमारे प्रवत दया की िािना वदखाएों गे।
साधु - साधू या सज्जन तवल - नीचे
म ल - खरीदना खरी - कविन
तरिार - तलिार दु हेली - दु ःख दे ने िाली
म्यान - वजसमे तलिार रखी ों जाती है आँ त्यख आँ ख
पाऊँ - पाँि
नी ोंवदए - वनोंदा करना
आित - आते हए
गारी - गाली जग - सोंसार
उलटत - पलटकर बैरी - शत्रु
ह इ - ह ती सीतल - शाोंवत
आपा - अहों कार
कर - हाथ
विरै - घूमना
माँवह - में
दहँ - दस ों
वदवस - वदशा
सुवमरन - स्मरण
प्र॰1 - ‘ तलिार का महत्त्व ह ता है म्यान का नही ों ’ - उि
उदाहरण से कबीर क्या कहना चाहते हैं ? स्पष्ट कीवजए।

उत्तर - तलिार तथा म्यान के उदाहरण के द्वारा ‘कबीर दास’


जी ने जावत-पावत का विर ध वकया है । िह कहते हैं वक हमें
वकसी मनु ष्य की जावत नही ों पू छ नी चावहए क्य वों क उसके
व्यत्यित्व की विशे ष ता उसके ज्ञान से ह ती है । ज्ञान के आगे
जावत का क ई अत्यस्तत्व नही ों है । उसी प्रकार हमें तलिार का
म लिाि करना चावहए म्यान का नही ों क्य वों क काम त हमे
तलिार से ले ना ह ता है , म्यान त तलिार रखने के वलए ह ती
है ।
प्र॰2 - पाि की तीसरी साखी -वजसकी एक पों त्यि है ‘ मनु िाँ त
दहँ वदवस विरै , यह त सु वमरन नावहों ’ के द्वारा कबीर क्या
कहना चाहते हैं ?

उत्तर - तीसरी साखी में कबीर कहना चाहते हैं वक अगर आप


हाथ में माला जप रहे हैं , मुँ ह से प्रिु का नाम रट रहे हैं , ले वकन
आपका मन अलग -अलग विचार ों में उलझा हआ है , त ये
बे कार है । प्रिु का नाम ले ना और उनकी ित्यि करना तिी
साथि क है , जब आप अपने मन पर काबू पा लें और सच्चे मन से
ित्यि करें ।
प्र॰3 - कबीर घास की वनों दा करने से क्य ों मना करते हैं । पढे
हए द हे के आधार पर स्पष्ट कीवजए।

उत्तर - उि द हे में श्री कबीर जी कहना चाहते हैं वक अपने से


छ टा समझ कर हमें वकसी की वनों दा नही ों करनी चावहए। घास
का उदाहरण दे ते हए िे कहते हैं वक पै र ों के तले आने पर घास
क मत कु चल क्य वों क अगर घास का एक वतनका िी आँ ख में
चला जाए, त आपक बहत कष्ट ह गा। अथाि त , छ टे -से -छ टे
व्यत्यि में िी कु छ गु ण ह ते हैं और हमें उनका िी सम्मान
करना चावहए।
प्र॰4 - कबीर के द ह ों क साखी क्य ों कहा जाता है ? ज्ञात
कीवजए।

उत्तर - कबीर के द ह ों क साखी इसवलए कहा जाता है


क्य वों क साखी का अथि है साक्ष्य अथाि त् गिाह। कबीर ने ज
कु छ आँ ख ों से दे खा उसे अपने शब् ों में व्यि करके ल ग ों क
समझाया। कबीर समाज में िै ली कु रीवतय ,ों जातीय िािनाओों,
और बाह्य आडों बर ों क अपने ज्ञान के द्वारा समाि करना
चाहते थे ।

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