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हिन्द ू मापन
प्रणाली
अनक्र
ु म
[छुपाएँ]
१ योग का इतिहास
२ प्राणायाम
३ योगासनों के गुण और लाभ
४ आसन की शुरुआत से पूर्व
५ आसन
o ५.१ श्वास क्रिया
o ५.२ सूर्य नमस्कार
o ५.३ पादहस्त आसन
o ५.४ शवासन
o ५.५ कपाल भाति क्रिया
o ५.६ पद्मासन
६ योगमुद्रा के लाभ अनेक
७ कम्प्यूटर और योग
८ इन्हें भी दे खें
९ बाहरी कड़ियाँ
१० बाहरी कड़ियाँ
18, मंत्र-7। अर्थात- योग के बिना विद्वान का भी कोई यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। वह योग क्या है ?
योग चित्तवत्ति
ृ यों का निरोध है , वह कर्तव्य कर्ममात्र में व्याप्त है ।
स घा नो योग आभुवत ् स राये स पुरं ध्याम। गमद् वाजेभिरा स न:।।- ऋ. 1-5-3 अर्थात वही
परमात्मा हमारी समाधि के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेक, ख्याति तथा
ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो, अपितु वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी ओर
आगमन करे ।
उपनिषद में इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद में इसके लक्षण को बताया गया है - तां
योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों
और मर्ति
ू यों में मिलता है । योग का प्रामाणिक ग्रंथ 'योगसत्र
ू ' 200 ई.पू. योग पर लिखा गया पहला
सुव्यवस्थित ग्रंथ है ।
हिंद,ू जैन और बौद्ध धर्म में योग का अलग-अलग तरीके से वर्गीकरण किया गया है । इन सबका
वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। इसके लिए उन्होंने चार आश्रमों की व्यवस्था
निर्मित की थी। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी
जाती थी। ऋग्वेद को 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच लिखा गया माना जाता है । इससे पूर्व वेदों
भारतीय दर्शन के मान्यता के अनुसार वेदों को अपौरुषेय माना गया है अर्थात वेद परमात्मा की
वाणी हैं तथा इन्हें करीब दो अरब वर्ष पुराना माना गया है । इनकी प्राचीनता के बारे में अन्य मत
भी हैं। ओशो रजनीश ऋग्वेद को करीब 90 हजार वर्ष पुराना मानते हैं।
563 से 200 ई.पू. योग के तीन अंग तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का प्रचलन था। इसे क्रिया
जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर दिया जाने
लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और
स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा। यहाँ तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था।
पहली दफा 200 ई.पू. पातंजलि ने वेद में बिखरी योग विद्या का सही-सही रूप में वर्गीकरण किया।
पातंजलि के बाद योग का प्रचलन बढ़ा और यौगिक संस्थानों, पीठों तथा आश्रमों का निर्माण होने
भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है । बाद में कृष्ण,
महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात पातंजलि ने इसे
सुव्यवस्थित रूप दिया। इस रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ, शैवपंथ, नाथपंथ वैष्णव और शाक्त
कंदराओं में ।
जिस तरह राम के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े है उसी तरह
मख्
ु य लेख : प्राणायाम
योग साधना के आठ अंग हैं, जिनमें प्राणायाम चौथा सोपान है । अब तक हमने यम, नियम तथा
योगासन के विषय में चर्चा की है , जो हमारे शरीर को ठीक रखने के लिए बहुत आवश्यक है ।
प्राणायाम के बाद प्रत्याहार, ध्यान, धारणा तथा समाधि मानसिक साधन हैं। प्राणायाम दोनों
प्रकार की साधनाओं के बीच का साधन है , अर्थात ्यह शारीरिक भी है और मानसिक भी। प्राणायाम
से शरीर और मन दोनों स्वस्थ एवं पवित्र हो जाते हैं तथा मन का निग्रह होता है ।
आवश्यकता होती है ।
(3) आसनों में जहां मांसपेशियों को तानने, सिकोड़ने और ऐंठने वाली क्रियायें करनी पड़ती हैं, वहीं
दस
ू री ओर साथ-साथ तनाव-खिंचाव दरू करनेवाली क्रियायें भी होती रहती हैं, जिससे शरीर की
थकान मिट जाती है और आसनों से व्यय शक्ति वापिस मिल जाती है । शरीर और मन को
(4) योगासनों से भीतरी ग्रंथियां अपना काम अच्छी तरह कर सकती हैं और युवावस्था बनाए रखने
(5) योगासनों द्वारा पेट की भली-भांति सुचारु रूप से सफाई होती है और पाचन अंग पुष्ट होते हैं।
(6) योगासन मेरुदण्ड-रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाते हैं और व्यय हुई नाड़ी शक्ति की पर्ति
ू करते
हैं।
(7) योगासन पेशियों को शक्ति प्रदान करते हैं। इससे मोटापा घटता है और दर्ब
ु ल-पतला व्यक्ति
तंदरुस्त होता है ।
(8) योगासन स्त्रियों की शरीर रचना के लिए विशेष अनुकूल हैं। वे उनमें सुन्दरता, सम्यक-
वाला बनाते हैं, अत: मन और शरीर को स्थाई तथा सम्पूर्ण स्वास्थ्य, मिलता है ।
(11) योगासन श्वास- क्रिया का नियमन करते हैं, हृदय और फेफड़ों को बल दे ते हैं, रक्त को शुद्ध
(12) योगासन शारीरिक स्वास्थ्य के लिए वरदान स्वरूप हैं क्योंकि इनमें शरीर के समस्त भागों
(13) आसन रोग विकारों को नष्ट करते हैं, रोगों से रक्षा करते हैं, शरीर को निरोग, स्वस्थ एवं
(14) आसनों से नेत्रों की ज्योति बढ़ती है । आसनों का निरन्तर अभ्यास करने वाले को चश्में की
(15) योगासन से शरीर के प्रत्येक अंग का व्यायाम होता है , जिससे शरीर पुष्ट, स्वस्थ एवं सुदृढ़
बनता है । आसन शरीर के पांच मुख्यांगों, स्नायु तंत्र, रक्ताभिगमन तंत्र, श्वासोच्छवास तंत्र की
क्रियाओं का व्यवस्थित रूप से संचालन करते हैं जिससे शरीर पूर्णत: स्वस्थ बना रहता है और
कोई रोग नहीं होने पाता। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक सभी क्षेत्रों के विकास में
आसनों का अधिकार है । अन्य व्यायाम पद्धतियां केवल वाह्य शरीर को ही प्रभावित करने की
क्षमता रखती हैं, जब कि योगसन मानव का चहुँमुखी विकास करते हैं।
1. योगासन शौच क्रिया एवं स्नान से निवत्ृ त होने के बाद ही किया जाना चाहिए तथा एक घंटे
चाहिए।
3. योगासन खुले एवं हवादार कमरे में करना चाहिए, ताकि श्वास के साथ आप स्वतंत्र रूप से शुद्ध
वायु ले सकें। अभ्यास आप बाहर भी कर सकते हैं, परन्तु आस-पास वातावरण शुद्ध तथा मौसम
सुहावना हो।
4. आसन करते समय अनावश्यक जोर न लगाएँ। यद्धपि प्रारम्भ में आप अपनी माँसपेशियों को
कड़ी पाएँगे, लेकिन कुछ ही सप्ताह के नियमित अभ्यास से शरीर लचीला हो जाता है । आसनों को
5. मासिक धर्म, गर्भावस्था, बुखार, गंभीर रोग आदि के दौरान आसन न करें ।
6. योगाभ्यासी को सम्यक आहार अर्थात भोजन प्राकृतिक और उतना ही लेना चाहिए जितना कि
पचने में आसानी हो। वज्रासन को छोड़कर सभी आसन खाली पेट करें ।
7. आसन के प्रारं भ और अंत में विश्राम करें । आसन विधिपूर्वक ही करें । प्रत्येक आसन दोनों ओर
8. यदि आसन को करने के दौरान किसी अंग में अत्यधिक पीड़ा होती है तो किसी योग चिकित्सक
9. यदि वातों में वायु, अत्यधिक उष्णता या रक्त अत्यधिक अशुद्ध हो तो सिर के बल किए जाने
वाले आसन न किए जाएँ। विषैले तत्व मस्तिष्क में पहुँचकर उसे क्षति न पहुँचा सकें, इसके लिए
10. योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है । इससे अंगों की जकड़न समाप्त
होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है । अंग-संचालन कैसे किया जाए इसके लिए 'अंग
संचालन' दे खें।
अंतत: आसनों को किसी योग्य योग चिकित्सक की दे ख-रे ख में करें तो ज्यादा अच्छा होगा।
क्रोन्चसन
वश्चि
ृ कासन
मख्
ु य लेख : आसन
यद्यपि योग की उत्पत्ति हमारे दे श में हुई है , किंतु आधुनिक समय में इसका प्रचार-प्रसार
विदे शियों ने किया है , इसलिए पाश्चात्य सभ्यता की नकल करने वाले 'योग' शब्द को 'योगा'
प्राचीन समय में इस विद्या के प्रति भारतीयों ने सौतेला व्यवहार किया है । योगियों का महत्व कम
नहीं हो जाए। अत: यह विद्या हर किसी को दी जाना वर्जित थी। योग ऐसी विद्या है जिसे रोगी-
निरोगी, बच्चे-बढ़
ू े सभी कर सकते हैं।
महिलाओं के लिए योग बहुत ही लाभप्रद है । चेहरे पर लावण्य बनाए रखने के लिए बहुत से आसन
और कर्म हैं। कंु जल, सूत्रनेति, जलनेति, दग्ु धनेति, वस्त्र धौति कर्म बहुत लाभप्रद हैं। कपोल शक्ति
पैर सुंदर-सुडौल बनाने, बुद्धि तीव्र करने, कमर और जंघाएँ सुंदर बनाने, गुस्सा कम करने, कपोलों
को खूबसूरत बनाने, आत्मबल बढ़ाने, गुप्त बीमारियाँ दरू करने, गर्दन लंबी और सुराहीदार बनाने,
हाथ-पैरों की थकान दरू करने, पाचन शक्ति सुधारने, अच्छी नींद, त्वचा संबंधी रोगों को दरू करने
व अन्य कई प्रकार के कष्टों का निवारण करने के लिए योग में व्यायाम, आसन और कर्म शामिल
हैं। प्राचीन समय में इस विद्या के प्रति भारतीयों ने सौतेला व्यवहार किया है । योगियों का महत्व
कम नहीं हो जाए। अत: यह विद्या हर किसी को दी जाना वर्जित थी। योग ऐसी विद्या है जिसे
किंतु योगाभ्यास करने से पूर्व कुशल योग निर्देशक से अवश्य सलाह लेना चाहिए। निम्नांकित
आसन क्रियाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं जिन्हें आप सहजता से कर सारे दिन की स्फूर्ति अर्जित कर
सकती हैं।
सीधे खड़े होकर दोनों हाथों की उँ गलियाँ आपस में फँसाकर ठोढ़ी के नीचे रख लीजिए। दोनों
इस बीच कंठ के नीचे हवा का प्रवाह अनुभव करते हुए कुहनियों को भी ऊपर उठाइए। ठोढ़ी से हाथों
पर दबाव बनाए रखते हुए साँस खींचते जाएँ और कुहनियों को जितना ऊपर उठा सकें उठा लें। इसी
अब सिर आगे ले आइए। यह अभ्यास दस बार करें , थोड़ी दे र विश्राम के बाद यह प्रक्रिया पुन:
सूर्य नमस्कार योगासनों में सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है । यह अकेला अभ्यास ही साधक को सम्पूर्ण योग
व्यायाम का लाभ पहुंचाने में समर्थ है । इसके अभ्यास से साधक का शरीर निरोग और स्वस्थ
होकर तेजस्वी हो जाता है । 'सूर्य नमस्कार' स्त्री, पुरुष, बाल, युवा तथा वद्ध
ृ ों के लिए भी उपयोगी
बताया गया है । मनोज कुमार चतुर्वेदी के द्वारा
सीधे खड़ा होकर अपने नितंब और पेट को कड़ा कीजिए और पसलियों को ऊपर खीचें । अपनी
भुजाओं को धीरे से सिर के ऊपर तक ले जाइए। अब हाथ के दोनों अँगूठों को आपस में बाँध
लीजिए। साँस लीजिए और शरीर के ऊपरी हिस्से को दाहिनी ओर झुकाइए। सामान्य ढं ग से साँस
लेते हुए दस तक गिनती गिनें फिर सीधे हो जाएँ और बाएँ मुड़कर यही क्रिया दस गिनने तक
दोहराएँ।
पन
ु : सीधे खड़े होकर जोर से साँस खींचें। इसके पश्चात कूल्हे के ऊपर से अपने शरीर को सीधे
सामने की ओर ले जाइए। फर्श और छाती समानांतर हों। ऐसा करते समय सामान्य तरीके से साँस
लेते रहें । अपने धड़ को सीधी रे खा में रखते हुए नीचे ले आइए।
बिना घुटने मोड़े फर्श को छूने की कोशिश करें । यथासंभव सिर को पाँवों से छूने का प्रयास करें । दस
तक गिनती होने तक इसी मुद्रा में रहें । अपनी पकड़ ढीली कर सामान्य अवस्था में आ जाएँ। इस
आसन से पीठ, पेट और कंधे की पेशियाँ मजबूत होती हैं और रक्त संचार ठीक रहता है ।
इस आसन में आपको कुछ नहीं करना है । आप एकदम सहज और शांत हो जाएँ तो मन और शरीर
को आराम मिलेगा। दबाव और थकान खत्म हो जाएगी। साँस और नाड़ी की गति सामान्य हो
जाएगी। इसे करने के लिए पीठ के बल लेट जाइए। पैरों को ढीला छोड़कर भुजाओं को शरीर से
सटाकर बगल में रख लें। शरीर को फर्श पर पूर्णतया स्थिर हो जाने दें ।
अपनी एड़ी पर बैठकर पेट को ढीला छोड़ दें । तेजी से साँस बाहर निकालें और पेट को भीतर की ओर
खींचें। साँस को बाहर निकालने और पेट को धौंकनी की तरह पिचकाने के बीच सामंजस्य रखें।
प्रारं भ में दस बार यह क्रिया करें , धीरे -धीरे 60 तक बढ़ा दें । बीच-बीच में विश्राम ले सकते हैं। इस
क्रिया से फेफड़े के निचले हिस्से की प्रयुक्त हवा एवं कार्बन डाइ ऑक्साइड बाहर निकल जाती है
और सायनस साफ हो जाती है साथ ही पेट पर जमी फालतू चर्बी खत्म हो जाती है ।
शांति या सुख का अनुभव करना या बोध करना अलौकिक ज्ञान प्राप्त करने जैसा है , यह तभी
संभव है , जब आप पूर्णतः स्वस्थ हों। अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करने के यूँ तो कई तरीके हैं, उनमें से
पद्मासन विधि: जमीन पर बैठकर बाएँ पैर की एड़ी को दाईं जंघा पर इस प्रकार रखते हैं कि एड़ी
नाभि के पास आ जाएँ। इसके बाद दाएँ पाँव को उठाकर बाईं जंघा पर इस प्रकार रखें कि दोनों
मेरुदण्ड सहित कमर से ऊपरी भाग को पूर्णतया सीधा रखें। ध्यान रहे कि दोनों घुटने जमीन से
उठने न पाएँ। तत्पश्चात दोनों हाथों की हथेलियों को गोद में रखते हुए स्थिर रहें । इसको पुनः पाँव
बदलकर भी करना चाहिए। फिर दृष्टि को नासाग्रभाग पर स्थिर करके शांत बैठ जाएँ।
विशेष : स्मरण रहे कि ध्यान, समाधि आदि में बैठने वाले आसनों में मेरुदण्ड, कटिभाग और सिर
को सीधा रखा जाता है और स्थिरतापूर्वक बैठना होता है । ध्यान समाधि के काल में नेत्र बंद कर
लेना चाहिए। आँखे दीर्घ काल तक खुली रहने से आँखों की तरलता नष्ट होकर उनमें विकार पैदा
लाभ : यह आसन पाँवों की वातादि अनेक व्याधियों को दरू करता है । विशेष कर कटिभाग तथा
टाँगों की संधि एवं तत्संबंधित नस-नाड़ियों को लचक, दृढ़ और स्फूर्तियुक्त बनाता है । श्वसन
इससे बुद्धि बढ़ती एवं सात्विक होती है । चित्त में स्थिरता आती है । स्मरण शक्ति एवं
विचार शक्ति बढ़ती है । वीर्य वद्धि
ृ होती है । सन्धिवात ठीक होता है ।
योग शास्त्र में मुद्राओं का एक अलग विभाग है । इन मुद्राओं का निर्माण आसन, प्राणायाम एवं
मद्र
ु ाओं के माध्यम से हम शरीर की उन क्रियाओं को नियमित करने का प्रयास करते हैं, जो हमारे
वश में नहीं हैं।
पकड़ते हैं। अब लंबी और गहरी श्वास अंदर लेते हैं तथा शरीर को शिथिल करते हुए धड़ को धीरे -
धीरे बाईं जंघा पर रखते हैं। ऐसा करते समय श्वास छोड़ते हैं।
कुछ समय तक इसी अवस्था में रहने के बाद पुनः पहले वाली स्थिति में आ जाते हैं। अब यही
क्रिया सामने की ओर झुककर करते हैं। ऐसा करते समय मस्तक और नाक दोनों जमीन से स्पर्श
करते हैं। कुछ समय तक इसी अवस्था में रहने के बाद मूल स्थिति में आते हैं। फिर धड़ को दाहिनी
यह आसन करने में आसान परं तु बड़ा लाभदायक है । इससे पेट का व्यायाम होता है तथा अपचन
एवं पेट की अन्य शिकायतें दरू होती हैं। रीढ़ की हड्डी का भी अच्छा व्यायाम होता है और वह
अपना काम सुचारु रूप से करती है । इस आसन के दौरान गर्दन एवं टांगों की मांसपेशियों का भी
व्यायाम होता है ।
कभी-कभी धड़ को सामने या दाहिनी ओर झुकाते समय पीठ, घुटनों या जांघों पर अधिक जोर
मुख्य लेख : माइग्रेन और योग, योग और मोटापा, योग से चिर यौवन, और योग निद्रा
शिकार हो जाते हैं या फिर तनाव व थकान से ग्रस्त रहते हैं। निश्चित ही कंप्यूटर पर लगातार
आँखे गड़ाए रखने के अपने नुकसान तो हैं ही इसके अलावा भी ऐसी कई छोटी-छोटी समस्याएँ भी
पैदा होती है , जिससे हम जाने-अनजाने लड़ते रहते है । तो आओं जाने की इन सबसे कैसे निजात
पाएँ।
नक
ु सान
स्मति
ृ दोष, दरू दृष्टि कमजोर पड़ना, चिड़चिड़ापन, पीठ दर्द, अनावश्यक थकान आदि। कंप्यूटर
पर लगातार काम करते रहने से हमारा मस्तिष्क और हमारी आँखें इस कदर थक जाती है कि
केवल निद्रा से उसे राहत नहीं मिल सकती। दे खने में आया है कि कंप्यूटर पर रोज आठ से दस घंटे
काम करने वाले अधिकतर लोगों को दृष्टि दोष हो चला है । वे किसी न किसी नंबर का चश्मा पहने
निकाले। कंप्यूटर की वजह से जो भारी शारीरिक और मानसिक हानि पहुँचती है , उसकी चर्चा
बचाव
पहली बात कि आपका कंप्यूटर आपकी आँखों के ठीक सामने रखा हो। ऐसा न हो की आपको
अपनी आँखों की पुतलियों को उपर उठाये रखना पड़े, तो जरा सिस्टम जमा लें जो आँखों से कम से
योग एक्सरसाइज
इसे अंग संचालन भी कहते हैं। प्रत्येक अंग संचालन के अलग-अलग नाम हैं, लेकिन हम विस्तार
घम
ु ाते हुए नीचे की ओर साँस छोड़ते हुए ले जाएँ। ऐसा 5 से 6 बार करें फि
र कोहनियों को विपरीत
दिशा में घम
ु ाइए। गर्दन को दाएँ-बाएँ, फिर ऊपर-नीचे नीचे करने के बाद गोल-गोल पहले दाएँ से
बाएँ फिर बाएँ से दाएँ घम
ु ाएँ। बस इतना ही। इसमें साँस को लेने और छोड़ने का ध्यान जरूर रखें।
कामसूत्र और योगासन
आमतौर पर यह धारणा प्रचलित है कि संभोग के अनेक आसन होते हैं। 'आसन'
कहने से हमेशा योग के आसन ही माने जाते रहे हैं। जबकि संभोग के सभी आसनों
का योग के आसनों से कोई संबंध नहीं। लेकिन यह भी सच है योग के आसनों के
अभ्यास से संभोग के आसनों को करने में सहजता पाई जा सकती है ।
योग के आसन : योग के आसनों को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं:-
(1). पहले प्रकार के वे आसन जो पश-ु पक्षियों के उठने-बैठने और चलने-फिरने के
ND ढं ग के आधार पर बनाए गए हैं जैसे- वश्चि
ृ क, भुंग, मयूर, शलभ, मत्स्य, सिंह, बक,
कुक्कुट, मकर, हं स, काक आदि।
(2). दस
ू री तरह के आसन जो विशेष वस्तुओं के अंतर्गत आते हैं जैसे- हल, धनुष, चक्र, वज्र, शिला, नौका आदि।
(3). तीसरी तरह के आसन वनस्पतियों और वक्ष
ृ ों पर आधारित हैं जैसे- वक्ष
ृ ासन, पद्मासन, लतासन, ताड़ासन आदि।
(4). चौथी तरह के आसन विशेष अंगों को पष्ु ट करने वाले माने जाते हैं-जैसे शीर्षासन, एकपादग्रीवासन,
हस्तपादासन, सर्वांगासन आदि।
(5). पाँचवीं तरह के वे आसन हैं जो किसी योगी के नाम पर आधारित हैं-जैसे महावीरासन, ध्रुवासन, मत्स्येंद्रासन,
अर्धमत्स्येंद्रासन आदि।
संभोग के आसनों का नाम : आचार्य बाभ्रव्य ने कुल सात आसन बताए हैं- 1. उत्फुल्लक, 2. विजम्भि
ृ तक, 3.
इंद्राणिक, 4. संपुटक, 5. पीड़ितक, 6. वेष्टितक, 7. बाड़वक।
आचार्य सव
ु र्णनाभ ने दस आसन बताए हैं: 1.भग्ु नक, 2.जम्भि
ृ तक, 3.उत्पीड़ितक, 4.अर्धपीड़ितक, 5.वेणद
ु ारितक,
6.शूलाचितक, 7.कार्क टक, 8.पीड़ितक, 9.पद्मासन और 10. परावत्ृ तक।
(3) सर्वांगासन : यह आपके कंधे और गर्दन के हिस्से को मजबूत बनाता है। यह नपुंसकता, निराशा, यौन शक्ति और
यौन अंगों के विभिन्न अन्य दोष की कमी को भी दरू करता है ।
(4) हलासन : यौन ऊर्जा को बढ़ाने के लिए इस आसन का इस्तेमाल किया जा सकता है । यह पुरुषों और महिलाओं की
यौन ग्रंथियों को मजबत
ू और सक्रिय बनाता है।
(5) धनुरासन : यह कामेच्छा जाग्रत करने और संभोग क्रिया की अवधि बढ़ाने में सहायक है। पुरुषों के वीर्य के
पतलेपन को दरू करता है। लिंग और योनि को शक्ति प्रदान करता है।
(7) भद्रासन : भद्रासन के नियमित अभ्यास से रति सुख में धैर्य और एकाग्रता की शक्ति बढ़ती है। यह आसन पुरुषों
और महिलाओं के स्नायु तंत्र और रक्तवह-तन्त्र को मजबूत करता है।
(8) मुद्रासन : मुद्रासन तनाव को दरू करता है । महिलाओं के मासिक धर्म से जुड़े हए विकारों को दरू करने के अलावा
यह आसन रक्तस्रावरोधक भी है। मूत्राशय से जुड़ी विसंगतियों को भी दरू करता है।
(10) कटी चक्रासन : यह कमर, पेट, कूल्हे , मेरुदं ड तथा जंघाओं को सुधारता है। इससे गर्दन और कमर में लाभ
मिलता है । यह आसन गर्दन को सुडौल बनाकर कमर की चर्बी घटाता है । शारीरिक थकावट तथा मानसिक तनाव दरू
करता है ।
शरीर को स्वस्थ रखने के लिये व्यायाम की क ई विधियां प्रचलित हैं। लेकिन योगासन से बेहतर
कुछ भी नहीं। आसनशरीर और मन दोनों को स्वस्थ व संतलि
ु त करता है । आसन शरीर को स्वस्थ
रखने का एक वैज्ञानिक तरीका है । आचार्य पतंजलि ने अष्टांगयोग में योग के आठ अंगो का वर्णन
किया है । आसन अष्टांग योग में तीसरे क्र म पर आता है । वेसे तो आसनों की संख्या सेकड़ों में हे
किन्तु कुछ आसन अधिक महत्वपर्ण
ू एवं सभी के लिये लाभदायक हैं। क्योंकि आसन सक्ष्
ू म
व्यायाम है इसलिये इसे करने के कुछ नियम भी हैं जिनका पालन करना आवश्यक है ।
पश्चिमोत्तासन
विधी- समतल भमि
ू पर आसन बिछाकर दोनों पैरों को सीधा सामने करके बैठ जायें। धीरे -धीरे
शरीर का ऊपरी भाग आगे की ओर झक
ु ाते हुए दोनों पेरों के अंगूठों को पकडऩे का प्रयास करें ।
घुटने को न मोणे तथा सिर को घुटनों से मिलाएं। इस स्थ ्िित में कुछ दे र रुकें। जब अच्छी
तरह अभ्यास हे ा जाए तो दोनों हाथों की अंगलि
ु यां आपस में फंसाकर दोनों पेरों के तलुओं को
पकडऩे का प्रयत्न करें । इस आसन को तीन आवत्ति
ृ में करें । जिन्हें कमर में दर्द हो वे इस
आसन को न करें ।
लाभ- इस आसन के नियमित अभ्यास से शरीर और मन दोनों स्वस्थ और शक्तिशालाी बनते
हैं। इसके साथ ही तन और मन के अनेक प्रकार के रोग भी इस आसन को करने से समाप्त होते
हैं। शरीर स्वस्थ एवं कांतिमय तथा मन प्रसन्न होता है । आत्मविश्वास बढ़ता है तथा भय व
निराशा समाप्त होते हैं। इससे प्राण की गति इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि व्यक्ति एक मिनिट में
पांच श्वंास से ही अपना काम चला लेता है । इससे व्यक्ति दीर्घायू होता है । इस आसन के
करने से चर्म रोग दरू होते हें तथा कमर पतली व सुडोल होती है । इस आसन के करने से अनिद्रा
दरू होती है तथा अच्छी व अटूट नींद आती है ।
सर्वांगासन
विधि- समतल भूमि पर आसन बिछाकर शवासन में लेट जाइये। अपने दोनों हाथों को जांघों
की बगल में तथा हथेलियों को जमीन पर रखें। पैरों को घुटनों से मोड़कर ऊपर उठाइये तथा
पाीठ को कं धों तक उठाइये। दोनों हाथ कमर के नीचे रखकर शरीर के उठे हुए भाग को सहारा
दीजिये। इस तरह ठुड्डी को छाती से लगाए रखें। अब श्वांस को रोके नहीं स्वाभाविक रुप से
चलने दें । यथा शक्ति पैर और धड़ को एक सीध में चित्रानुसार रखें। यथाशक्ति इस स्थिति में
रुकने के बाद, पैरों को जमीन पर वापस लाइये। पैरों को घट
ु नों से मोड़ते हुए घट
ु नों को माथे के
पास लाइये। हाथों को जमीन रखते हुये शरीर और पैरों को धीरे -धीरे वापस शवासन में लाइये।
अब शवासन में शरीर को शिथिल अवस्था में लाइये। आसन करते समय आंखों को खल
ु ा रखें।
सावधानियां - आसन का अभ्यास करते समय धैर्य से काम लें। जल्दबाजी एवं हड़बड़ाहट में
आसन न करें । इस आसन का अभ्यास पीठ दर्द, कमर दर्द ,नेत्र रोगी और उच्च रक्तचाप के
रोगी ने करें ।
लाभ- इस आसन के नियमित अभ्यास से मानसिक तनाव, निराशा ,हताशा एवं चिंताएं आदि
रोगों का नाश होता है । इससे आखों का तेज बढ़ता है और चेहरा कांतिमय बनता हैै । स्त्रियों के
स्वास्थ मेँ इस आसन से विशेष लाभ होता है । स्त्रियों की मासिक धर्म संबंधी समस्याएं दरू
होती हैं। सर्वांगासन से शरीर के उन अंगों से रक्त संचरण बढ़ जाता हे , जहां रक्त संचरण कम
होता है । शरीर का प्रत्येक अंग स्वस्थ हो जाता है । इस आसन के प्रभाव से चेहरे पर झाइयां नहीं
पड़ती हैं। लम्बी उम्र तक चेहरे पर चमक बनी रहती है । समय से पूर्व बाल सफेद नहीं होते हैं।
नेत्र ज्योति अंत तक बनी रहती है । इस आसन के करने से मानसिक तनाव दरू होता है । का्रेध
और चिड़चिडापन
़ दरू होता है । बच्चों के बोद्धिक विकास में यह आसन विशेष लाभदायक है ।
इसके करने से मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियां जाग्रत होती हैं तथा सतोगुण की वद्धि
ृ
होती है ।
भज
ु ंगासन
विधी- पेट के बल आसन पर लेट जाएं। दोनों पैरों को परस्पर सटाकर पूरी तरह जमीन से
चिपका लीजिये। दोनों हथेलियां कधों के पास रखिये, कोहनियां उठी रहें । हथेलियां भूमि की
और रखें तथा उगलियां आपस में मिली रहें । आंखों को खुली रखें। अब गहरा श्वंास लेकर
गर्दन को ऊपर उठाइये, फिर नाभि से ऊपर पेट और छाती को उठा लीजिये। इस आसन में
शरीर की आकृति फन उठाए हुए भुजग
ं अर्थात सर्प जैसी बनती है इसीलिए इसको भुजग
ं ासन
या सर्पासन कहा जाता है ।
सावधानी- इस आसन को करते समय अकस्मात ् पीछे की तरफ बहुत अधिक न झुकें। इससे
आपकी छाती या पीठ की माँस-पेशियों में खिंचाव आ सकता है तथा बाँहों और कंधों की पेशियों
में भी बल पड़ सकता है जिससे दर्द पैदा होने की संभावना बढ़ती है । पेट में कोई रोग या पीठ में
अत्यधिक दर्द हो तो यह आसन न करें ।
लाभ- इस आसन से रीढ़ की हड्डी सशक्त होती है । और पीठ में लचीलापन आता है । यह
आसन फेफड़ों की शुद्धि के लिए भी बहुत अच्छा है और जिन लोगों का गला खराब रहने की, दमे
की, परु ानी खाँसी अथवा फेंफड़ों संबंधी अन्य कोई बीमारी हो, उनको यह आसन करना चाहिए।
इस आसन से पित्ताशय की क्रियाशीलता बढ़ती है और पाचन-प्रणाली की कोमल पेशियाँ
मजबत
ू बनती है । इससे पेट की चर्बी घटाने में भी मदद मिलती है और आयु बढऩे के कारण से
पेट के नीचे के हिस्से की पेशियों को ढीला होने से रोकने में सहायता मिलती है । इससे बाजओ
ु ं
में शक्ति मिलती है । पीठ में स्थित इड़ा और पिंगला नाडिय़ों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है ।
विशेषकर, मस्तिष्क से निकलने वाले ज्ञानतंतु बलवान बनते है । पीठ की हड्डियों में रहने
वाली तमाम खराबियाँ दरू होती है । कब्ज दरू होता है ।
योगासन
WD
WD
पूर्णधनुरासन
शरीर की आकृति पूरी तरह खिंचे हुए धनुष के समान हो जाती है , इसीलिए इसको पूर्ण धनुरासन कहते हैं।
अर्धधनरु ासन और पर्ण
ू धनरु ासन में कोई खास फर्क नहीं होता। आमतौर पर इसे भी धनरु ासन ही कहा जाता है , किं तु
लगातार प्रयास करते रहने से जब यह आसन सिद्ध हो जाता है तो पूर्ण धनुरासन की आकृति-सा प्रतीत होता है अर्थात
पूरी तरह से खिंचे हुए धनुष की तरह।
आलेख
उचित श्वास के लाभ
(मंगलवार 21 दिसंबर 2010)
श्वास लेना और छोड़ना हमारे मस्तिष्क के भाव-विचार और बाहरी वातावरण की
स्थिति पर निर्भर करता है । क्रोध के दौरान श्वास की गति बदल जाती है उसी तरह
प्रदष
ू ण भी हमारी श्वास को अवरुद्ध कर दे ता है । मौसम के बदलाव से भी हमारी श्वास
बदल जाती है । उचित और भरपूर श्वास नहीं ले पाने के कारण शरीर और मन रोग
ग्रस्त होने लगता है । प्राणायाम योग द्वारा श्वासों की दशा और दिशा सुधारी जा
सकती है ।
तनाव घटाए अनुलोम-विलोम
(शुक्रवार 17 दिसंबर 2010)
प्राणायाम करते समय तीन क्रियाएँ करते हैं- 1.पूरक 2.कुम्भक 3.रे चक। इसे ही
हठयोगी अभ्यांतर वत्ति
ृ , स्तम्भ वत्ति
ृ और बाह्य वत्ति
ृ कहते हैं। यही अनुलोम और
विलोम क्रिया है ।
आलेख
विश्रामासन योग से पाएँ विश्राम
(शुक्रवार 29 अक्टूबर 2010)
इस आसन को करने से व्यक्ति स्वयं को पूर्ण विश्राम की स्थिति में
अनुभव करता है इसीलिए इसे विश्रामासन कहते हैं। इसका दस
ू रा नाम
बालासन भी है । यह तीन प्रकार से किया जाता है । पेट के बल लेटकर,
पीठ के बल लेटकर और वज्रासन में बैठकर। यहाँ प्रस्तत
ु है पेट के बल
लेटकर किया जाने वाला विश्रामासन। यह कुछ-कुछ मकरासन जैसा है ।
इसकी विधि- सिद्धासन में बैठकर श्वास को बाहर निकालकर फेंफड़ों को खालीकर दें । अब श्
वास अंदर लेते हुए
घुटने पर रखें हाथों पर जोर दे कर मूलबंध करें अर्थात गुदा को ऊपर की ओर खींचते हुए पेट को अंदर की ओर
खींचें।
फिर श्वास छोड़ते हुए पेट को जितना संभव हो पीठ से पिचकाएँ अर्थात उड्डीयान बंघ लगाएँ। साथ ही ठोड़ी को
कंठ से लगाकर जलन्धर बंध भी लगा लें। उक्त बंध की स्थिति में अपनी क्षमता अनस
ु ार रुकें और फिर कुछ दे र
आराम करें ।
FILE
योग की आठ सिद्धियों में से एक कपाल सिद्धि योगा का योग में बहुत महत्व माना गया है । मस्तक के भीतर
कपाल के नीचे एक छिद्र है , उसे ब्रह्मरं ध्र कहते हैं। उक्त स्थान पर लगातार ध्यान धरने से कपाल सिद्धि योग
फलित होता है । इस प्रक्रिया को कपाल सिद्धि योग कहते हैं।
विधि : सिद्धासन में बैठकर दोनों हाथों की हथेलियों को घुटनों पर रखें। अब आँखें बंद कर सिर के चोटी वाले
स्थान के नीचे ध्यान करें । गहरी श्वास लेकर छोड़ें और श्वासों को सामान्य कर लें। पाँच से दस मिनट तक ध्यान
को ब्रह्मरं ध्र पर ही टिका कर रखें।
सावधानी : यह ध्यान क्रिया किसी शांत और स्वच्छ स्थान पर ही करें । क्रिया करते वक्त मन में किसी भी प्रकार
की चिंता ना रखें। चेहरे पर खिंचाव या तनाव ना रखें। रीढ़ सीधी रखें और ध्यान को विचलित ना होने दें ।
लाभ : यह सिद्धिदायी क्रिया है । इससे मन निर्भिक तथा दिमाग तेज बनता है । इससे तनावमुक्त होकर मन शांत
तथा सुदृढ़ होता है तथा इसका लगातार अभ्यास करने से हृदय और श्वास संबंधी रोग में भी लाभ पाया जा
सकता है । योगानस
ु ार ब्रह्मरं ध्र की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्धगणों के दर्शन भी होते हैं। यह क्रिया
शरीर और मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास करती है ।
मूर्च्छा कुम्भक प्राणायाम
मंगलवार, 30 नवंबर 2010( 14:24 IST )
ND
मुर्च्छा का अर्ध होता है बेहोशी। इस कुम्भक के अभ्यास से वायु मर्च्छि
ू त होती है , लेकिन व्यक्ति नहीं।
परिणामतः मन भी मर्च्छि
ू त होता है , इसी कारण इसे मर्च्छा
ू कुम्भक कहा जाता है । मर्च्छा
ू प्राणायाम का
अभ्यास अधिक कठिन है । परं तु इसके लाभ अनेक है यह मन को शांत कर आयु को बढ़ाता है ।
विधि- सिद्धासन में बैठ जाएँ और गहरी श्वास लें फिर श्वास को रोककर जालन्धर बंध लगाएँ। फिर दोनो हाथों
की तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से दोनों आँखों की पलकों को बंद कर दें । दोनों कनिष्का अँगुली से नीचे के होठ
को ऊपर करके मँह
ु को बंद कर लें। इसके बाद इस स्थिति में तब तक रहें , जब तक श्वास अंदर रोकना सम्भव
हों। फिर धीरे -धीरे जालधर बंध खोलते हुए अँगुलियों को हटाकर धीरे -धीरे श्वास बाहर छोड़ दें । इस क्रिया को 3 से
5 बार करें ।
लाभ- इस क्रिया को करते वक्त पानी बरसने जैसी आवाज कंठ से उत्पन्न होती है , तथा वायु मर्च्छि
ू त होती है ,
जिससे मन मूर्च्छि त होकर अंततः शान्त हो जाता है । इस प्राणायाम के अभ्यास से तनाव, भय, चिंता आदि दरू
होते हैं। यह धातु रोग, प्रमेह, नपुंसकता आदि रोगों को खत्म करता है । इस प्राणायाम से शारीरिक और मानसिक
स्थिरता कायम होती है ।
सावधानी- श्वास को रोककर रखते समय मन में किसी भी प्रकार के विचार न आने दें । यह क्रिया हाई ब्लडप्रेशर,
चक्कर या मस्तिष्क से पीड़ित लोगों को नहीं करनी चाहिए। इस क्रिया से शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा कम
होने से हृदय की गति कम हो जाता है , जिससे व्यक्ति बेहोशी की अवस्था में चला जाता है , लेकिन वह बेहोश
नहीं होता है । इसीलिए इस क्रिया को योग शिक्षक की दे ख-रे ख में ही करना चाहिए।
सर्य
ू मद्र
ु ा के लाभ
शुक्रवार, 19 नवंबर 2010( 15:05 IST )
PR
सर्य
ू मद्र
ु ा हमारे भीतर के अग्नि तत्व को संचालित करती है । सर्य
ू की अँगल
ु ी अनामिका को रिंग फिं गर भी कहते
हैं। इस अँगुली का संबंध सूर्य और यूरेनस ग्रह से है । सूर्य ऊर्जा स्वास्थ्य का प्रतिनिधित्व करती है और यूरेनस
कामक
ु ता, अंतर्ज्ञान और बदलाव का प्रतीक है ।
विधि : सूर्य की अँगुली को हथेली की ओर मोड़कर उसे अँगूठे से दबाएँ। बाकी बची तीनों अँगुलियों को सीधा रखें।
इसे सर्य
ू मद्र
ु ा कहते हैं।
लाभ : इस मुद्रा का रोज दो बार 5 से 15 मिनट के लिए अभ्यास करने से शरीर का कोलेस्ट्रॉल घटता है । वजन
कम करने के लिए भी इस मद्र
ु ा का उपयोग किया जाता है । पेट संबंधी रोगों में भी यह मद्र
ु ा लाभदायक है । बेचैनी
और चिंता कम होकर दिमाग शांत बना रहता है । यह मुद्रा शरीर की सूजन मिटाकर उसे हलका बनाती है ।
सौंदर्य के लिए सीत्कारी
सीत्कारी प्राणायाम के लाभ
मंगलवार, 16 नवंबर 2010( 17:14 IST )
ND
सीत्कारी या सीत्कार एक प्राणायाम का नाम है । इस प्राणायाम को करते समय 'सीत ्सीत'्की आवाज निकलती
है , इसी कारण इसका नाम सीत्कारी कुम्भक या प्राणायाम पड़ा है ।
जब खाने में मिर्च तेज लगती है तो कैसे व्यक्ति सी..सी करता है , बस यह कुछ-कुछ इसी तरह का है ।
इसके लाभ- इस प्राणायाम के अभ्यास से शरीर में ऑक्सिजन की कम दरू होती है और शारीरिक तेज में वद्धि
ृ
होती है । मूलत: यह चेहरे की चमक बढ़ाकर सौंदर्य वद्धि
ृ करता है । इसके अभ्यास से भूख-प्यास, नींद आदि नहीं
सताते तथा शरीर सतत स्फूर्तिवान बना रहता है ।
लाभदायक योगा स्टे प
मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010( 12:02 IST )
ND
यह कुछ आसनों का क्रम है । इसे क्रम से करने से सभी तरह के रोगों में लाभ पाया जा सकता है । जिन्हें अपनी
बॉडी को फिट रखकर सेहतमंड बने रहना है वह इन आसनों को क्रम से नियमित करते रहें गे तो हमेशा तरोजाता
बने रहें गे।
स्टे प 1- नमस्कार मुद्रा करते हुए नटराजासन, एकपाद आसन, कटि चक्रासन, उत्कटासन करने के बाद पुन:
नमस्कार मद्र
ु ा में लौटकर, चंद्रासन, अर्ध उत्तनासन और फिर पादस्तासन करते हुए पन
ु : चंद्रासन करके
नमस्कार की मुद्रा में लौट आएँ।
स्टे प 3- उत्थिष्ठ पार्श्वकोणासन के बाद फिर पुन: हनुमानासन करते हुए अधोमुख श्वानासन करें । अब दाएँ पैर
को सामने रखते हुए पुन: हनुमान आसन करते हुए विरभद्रासन-1 करें । विरभद्रासन के बाद फिर प्रसारिता
पादोत्तनासन करें । फिर कोहनी को घुटने पर टिकाते हुए उत्थिष्ठ पार्श्वकोणासन करें ।
स्टे प 4- उत्थिष्ठ पार्श्वकोणासन के बाद पुन: हनुमान आसन में लौटकर अधोमुख श्
वानासन में आकर
मार्जायासन और फिर बिटिलियासन करें ।
स्टे प 5- बिटिलियासन के बाद, वज्रासन में बैठ जाएँ। वज्रससन में बैठकर योग मुद्रा, उष्ट्रासन, भारद्वाजासन,
आंजेनेय आसन, दं डासन, बंधकोणासक, वक्रासन, पवन मुक्तासन और नौकासन करें ।
स्टे प 6- नौकासन के बाद पुन: नमस्कार मुद्रा में लौट आएँ और फिर चतुरंग दं डासन, भुजंगआसन, धनुरासन
करते हुए मकरासन में लेट जाएँ।
स्टे प 7- मकरासन के बाद शवासन करते हुए पादअँगुष्ठासन, विपरितकर्णी आसन, आनंद बालासन, हलासन,
पवन मुक्तासन, सेतुबंध आसन, मत्स्यासन करते हुए पुन: शवासन में लौट आएँ। शवासन में कुछ दे र आराम
करने के बाद उठ जाएँ।
(A).खड़े होकर: 1.नटराजासन, 2.एकपाद आसन, 3.कटि चक्रासन 4.उत्कटासन 5.चंद्रासन, 6.अर्ध उत्तनासन,
7.पादहस्तासन 8.हनुमान आसन 9.अधोमुख श्
वानासन 10.विरभद्रासन 11.प्रसारिता पादोत्तनासन
12.उत्थिष्ठ पार्श्वकोणासन।
WD
इस आसन को करने से व्यक्ति स्वयं को पूर्ण विश्राम की स्थिति में अनुभव करता है इसीलिए इसे विश्रामासन
कहते हैं। इसका दस
ू रा नाम बालासन भी है । यह तीन प्रकार से किया जाता है । पेट के बल लेटकर, पीठ के बल
लेटकर और वज्रासन में बैठकर। यहाँ प्रस्तुत है पेट के बल लेटकर किया जाने वाला विश्रामासन। यह कुछ-कुछ
मकरासन जैसा है ।
विधि : पेट के बल लेटकर बाएँ हाथ को सिर के नीचे भूमि पर रखें तथा गर्दन को दाई ओर घुमाते हुए सिर को
हाथों पर रखें, बाएँ हाथ सिर के नीचे होगा तथा बाएँ हाथ की हथेली दाएँ हाथ के नीचे रहे गी। दाएँ पैर को घट
ु ने
मोड़कर जैसे बालक लेटता है , वैसे लेटकर विश्राम करें । इसी प्रकार दस
ू री ओर से किया जाता है ।
सावधानी : आँखें बंद रखना चाहिए। हाथों को सिर के नीचे सुविधानुसार ही रखें और शरीर को ढीला छोड़ दे ना
चाहिए। श्वास की स्थिति में शरीर को हिलाना नहीं चाहिए। श्वास गहरी और आरामपूर्ण तरीके से लेना चाहिए।
लाभ : श्वास की स्थिति में हमारा मन शरीर से जुड़ा हुआ रहता है , जिससे किशरीर में किसी प्रकार के बाहरी
विचार उत्पन्न नहीं होते। इस कारण से हमारा मन पूर्णत: आरामदायक स्थिति में होता हैं, तब शरीर स्वत: ही
शांति का अनभ
ु व करता है । आंतरिक अंग सभी तनाव से मक्
ु त हो जाते हैं, जिससे कि रक्त संचार सच
ु ारु रूप से
प्रवाहित होने लगता है ।
और जब रक्त सच
ु ारु रूप से चलता है तो शारीरिक और मानसिक तनाव घटता है । खासकर जिन लोगों को उच्च
रक्तचाप और अनिद्रा की शिकायत है , ऐसे मरीजों को बालासन से लाभ मिलता है । पाचंनतंत्र सही रखता है तथा
भोजन को सरलता से पचाने में सहायता करता है । यह शरीर में स्थिति सभी तरह के दर्द से निजात दिलाता है ।
तेज दिमाग के लिए ध्यान
शक्र
ु वार, 24 सितंबर 2010( 16:57 IST )
ND
वर्तमान में ध्यान की आवश्यकता बढ़ गई है । व्यग्र और बैचेन मन के चलते जहाँ व्यक्ति मानसिक तनाव से
घिरा रहता हैं वहीं यह मौसमी और अन्य गंभीर रोगों की चपेट में भी आ जाता है । दवाई से कुछ हद तक रोग का
निदान हो जाता है , लेकिन जीवनभर कमजोरी रह जाती है । ध्यान दवा, दआ
ु और टॉनिक तीनों का काम करता
है ।
ध्यान का अर्थ : ध्यान का अर्थ ध्यान दे ना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है । शरीर पर, मन पर और
आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान दे ने के जरा से
प्रयास से ही चित्त स्थिर होकर शांत होता है तथा जागरूकता बढ़ती। वर्तमान में जीने से ही जागरूकता जन्मती
है । भविष्य की कल्पनाओं और अतीत के सुख-दख
ु में जीना ध्यान विरूद्ध है ।
ध्यान की शुरुआती विधि : प्रारं भ में सिद्धासन में बैठकर आँखें बंद कर लें और दाएँ हाथ को दाएँ घुटने पर तथा
बाएँ हाथ को बाएँ घुटने पर रखकर, रीढ़ सीधी रखते हुए गहरी श्वास लें और छोड़े। सिर्फ पाँच मिनट श्वासों के
इस आवागमन पर ध्यान दें कि कैसे यह श्वास भीतर कहाँ तक जाती है और फिर कैसे यह श्वास बाहर कहाँ तक
आती है ।
ध्यान की अवधि : उपरोक्त ध्यान विधि को नियमित 30 दिनों तक करते रहें । 30 दिनों बाद इसकी समय
अवधि 5 मिनट से बढ़ाकर अगले 30 दिनों के लिए 10 मिनट और फिर अगले 30 दिनों के लिए 20 मिनट कर दें ।
शक्ति को संवरक्षित करने के लिए 90 दिन काफी है । इससे जारी रखें।
सावधानी : ध्यान किसी स्वच्छ और शांत वातावरण में करें । ध्यान करते वक्त सोना मना है । ध्यान करते वक्त
सोचना बहुत होता है । लेकिन यह सोचने पर कि 'मैं क्यों सोच रहा हूँ' कुछ दे र के लिए सोच रुक जाती है । सिर्फ
श्वास पर ही ध्यान दें और संकल्प कर लें कि 20 मिनट के लिए मैं अपने दिमाग को शून्य कर दे ना चाहता हूँ।
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आम भारतीयों में डायबिटीज रोग अब आम हो चला है । दिनोदिन इसके रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है ।
योग मुद्रासन को सिखकर यदि इसका समय समय पर अभ्यास किया जाए तो डायबिटीज से बचा जा सकता है ।
इसकी विधि : पद्मासन में बैठकर दाएँ हाथ की हथेली को पहले नाभि पर रखें और बाएँ हाथ कि हथेली दाएँ हाथ
पर रखें। फिर श्वास बाहर निकालते हुए आगे झुककर ठोड़ी भमि
ू पर टिकाइए। दृष्टि सामने रहे । श्वास अन्दर
भरते हुए वापस आएँ। इस तरह 4-5 बार करें ।
योग मुद्रासन विधि : पद्मासन में बैठकर दोनों हाथों को पीठ के पीछे ले जाकर दाएँ हाथ से बाएँ हाथ की कलाई
को पकड़े। फिर श्वास बाहर छोड़ते हुए भमि
ू पर ठोड़ी स्पर्श करें । इस दौरान दृष्टि सामने रखें। ठोड़ी यदि भमि
ू पर
नहीं लगती है , तो यथाशक्ति सामने झुकें।
योग मुद्रासन के लाभ : पेन्क्रियाज को सक्रिय करके डायबिटीज को कम करने में यह आसन लाभकारी है ।
क्योंकि इसके अभ्यास से पेट का उत्तम व्यायाम होता है । जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा गैस, अपचन व कब्ज
आदि रोग मी मिट जाते हैं।
ब्रह्म मुद्रा के लाभ
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010( 13:45 IST )
ND
ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार। ब्रह्म शब्द का उपयोग परमेश्वर के लिए किया जाता है । ब्रह्म मद्र
ु ा को मद्र
ु ा,
क्रिया और आसन की श्रेणी में रखा गया है । योग में इसका स्थान बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है । पहले हम
आसन की बात करें ।
ब्रह्म मुद्रा आसन- कुछ लोग इसे ब्रह्मा मुद्रा भी कहते हैं, क्योंकि इस आसन में गर्दन को चार दिशा में घुमाया
जाता है और ब्रह्माजी के चार मख
ु थे इसीलिए इसका नाम ब्रह्मा मद्र
ु ा आसन रखा गया। लेकिन असल में यह
ब्रह्म मुद्रा आसन है और इसमें सभी दिशाओं में स्थित परमेश्वर को जानकर उसका चिंतन किया जाता है ।
नमाज पढ़ते वक्त या संध्या वंदन करते वक्त उक्त मुद्रासन को किया जाता रहा है ।
कैसे करें - पद्मासन, सिद्धासन या वज्रासन में बैठकर कमर तथा गर्दन को सीधा रखते हुए गर्दन को धीरे -धीरे दायीं
ओर ले जाते हैं। कुछ सेकंड दायीं ओर रुकते हैं, उसके बाद गर्दन को धीरे -धीरे बायीं ओर ले जाते हैं। कुछ सेकंड
तक बायीं ओर रुककर फिर दायीं ओर ले जाते हैं। फिर वापस आने के बाद गर्दन को ऊपर की ओर ले जाते हैं,
उसके बाद नीचे की तरफ ले जाते हैं। फिर गर्दन को क्लाकवाइज और एंटीक्लाकवाइज घुमाएँ। इस तरह यह एक
चक्र परू ा हुआ। अपनी सवि
ु धानस
ु ार इसे चार से पाँच चक्रों में कर सकते हैं।
सावधानियाँ- जिन्हें सर्वाइकल स्पोंडलाइटिस या थाइराइड की समस्या है वे ठोडी को ऊपर की ओर दबाएँ। गर्दन
को नीचे की ओर ले जाते समय कंधे न झक
ु ाएँ। कमर, गर्दन और कंधे सीधे रखें। गर्दन या गले में कोई गंभीर
रोग हो तो योग चिकित्सक की सलाह से ही यह मुद्राआसन करें ।
इसके लाभ- जिन लोगों को सर्वाइकल स्पोंडलाइटिस, थाइराइड ग्लांट्स की शिकायत है उनके लिए यह आसन
लाभदायक है । इससे गर्दन की माँसपेशियाँ लचीली तथा मजबूत होती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह आसन
लाभदायक है । आलस्य भी कम होता जाता है तथा बदलते मौसम के सर्दी-जुकाम और खाँसी से छुटकारा भी
मिलता है ।
कब्ज है रोग की जड़
मंगलवार, 17 अगस्त 2010( 14:57 IST )
ND
कब्ज आधुनिक मनष्ु य का रोग है । कुछ भी कभी भी खा लेने की आदत के चलते आज कब्ज से लगभग सभी
लोग पीड़ित हैं। कब्ज से आँते कमजोर और दर्गं
ु धयक्
ु त हो जाती है । ज्यादा समय कब्ज रहने वाली कब्ज हमारी
पेनक्रियाज, किडनी और मूत्राशाय पर गंभीर असर डालने लगती है । आओ, जानें कि कब्ज के क्या हैं कारण और
निदान।
कारण- अनियमित भोजन और जीवन शैली इसका मुख्य कारण है । लगातार मसालेदार भोजन करते रहना।
फिर कुछ लोग खाने के बाद बैठे रहते हैं या रात को भोजन पश्चात सो जाते हैं। मद्यपान और अत्यधिक भोजन
भी इसके कारण हैं। कब्ज रहता है तो समझो यह सभी गंभीर बीमारियों का मूल कारण बन सकता है ।
नक
ु सान- इससे वायु प्रकोप और रक्त विकार होता है । सिरदर्द, अनिद्रा, चक्कर और भख
ू न लगने की शिकायत
भी रहती है । कब्ज बने रहने से ब्लड प्रेशर भी शुरू हो जाता है । बड़ी आँत में मल जमा रहने से उसमें सड़ांध लग
जाती है , जिससे आँतों में सूजन और दाँतों में सड़न जैसे रोग भी उत्पन्न होते है । सड़ांध बनी रहने से मसड़
ू े भी
कमजोर होने लगते हैं।
कंट्रोल पावर- सर्वप्रथम तीन दिन तक भोजन त्यागकर सिर्फ घी मिली खिचड़ी खाएँ। इसके बाद चाय, कॉफी,
धूम्रपान व मादक वस्तुओं से परहे ज तो करें ही साथ ही गरिष्ठ, बासी व बाजारू खाद्य पदार्थों का सेवन न करें ।
रोज रात्रि में हरड़ और अजवाइन का बारीक चूर्ण एक चम्मच फाँककर एक गिलास कुनकुना पानी पीने से कब्ज
दरू होकर पेट साफ रहे गा। बेड-टी को छोड़कर बेड-वाटर लेने की आदत डालें। पानी लेने के बाद पेट का व्यायाम
करें ।
प्लाविनी और अग्निसार प्राणायाम भी है तथा योग क्रिया भी। पाचन तंत्र को शक्तिशाली बनाने के
लिए यहाँ प्रस्तत
ु है प्लाविनी और अग्निसार प्राणायाम की सामान्य जानकारी। निम्न प्राणायाम को
मौसम और योग शिक्षक की सलाह अनुसार करते हैं तो निश्चित ही लाभ मिलेगा।
प्लाविनी प्राणायाम : पेट को गब्ु बारे की तरह फुलाकर श्वास भल लें। जालंधर बंध (कंठ को ठोड़ी सीने
से लगाकर बंद करना) एवं मूलबंध लगाकर (गुदाद्वार को खींचकर यथाशक्ति रोकना) कुछ दे र तक
इसी स्थिति में रोककर रखना।
फिर क्षमता अनुसार रोकने के बाद धीरे से सिर सीधा करते हुए पहले बिना मूलबंध शिथिल करें
जालंधर बंध खोल दें । फिर रे चन करते हुए, पेट को अंदर दबाते हुए उड्डीयान की स्थिति तक ले जाएँ
और फिर मल
ू बंध खोल दें ।
इसके लाभ : मुख्यत: बड़ी आँत व मलद्वार की क्रियाशीलता बढ़ाती है। अध्यात्म की दृष्टि से ये चारों
क्रियाएँ मणिपुर चक्र को प्रभावित करती है । तथा अन्नि तत्व पर नियंत्रण लाती है ।
अग्निसार क्रिया : पूर्ण रे चन (श्वास छोड़ना) कर श्वास रोक दें । सहजता से जितनी दे र श्वास रोक
सकें, पेट को नाभि पर से बार-बार झटके से अंदर खींचें और ढीला छोड़ें। ध्यान मणिपुर चक्र (नाभि के
पीछे रीढ़ में ) पर रहे । यथाशक्ति करने के बाद श्वास लेते हुए श्वास को सामान्य कर लें।
यम है धर्म का मूल। यह हम सब को संभाले हुए है। निश्चित ही यह मनुष्य का मूल स्वभाव भी है। यम से मन मजबूत
और पवित्र होता है । मानसिक शक्ति बढ़ती है। इससे संकल्प और स्वयं के प्रति आस्था का विकास होता है ।
यम के पाँच प्रकार हैं- (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य और (5) अपरिग्रह
अहिंसक भाव रखने से मन और शरीर स्वस्थ होकर शांतिका अनुभव करता है।
ND ND
(2) सत्य : सत्य का आमतौर पर अर्थ माना जाता है झूठ न बोलना। सत ् और तत ्
धातु से मिलकर बना है सत्य, जिसका अर्थ होता है यह और वह- अर्थात यह भी और वह भी, क्योंकि सत्य पूर्ण रूप से
एकतरफा नहीं होता। रस्सी को दे खकर सर्प मान लेना सत्य नहीं है , किं तु उसे दे खकर जो प्रतीति और भय उत्पन हुआ,
वह भी सत्य है ।
सत्य को समझने के लिए एक तार्कि क बुद्धि की आवश्यकता होती है । तार्कि कबुद्धि आती है भ्रम और द्वंद्व के मिटने
से। भ्रम और द्वंद्व मिटता है मन, वचन और कर्म से एक समान रहने से।
(3) अस्तेय : इसे अचौर्य भी कहते हैं अर्थात चोरी की भावना नहीं रखना, न ही मन में चुराने का विचार लाना। धन,
भूमि, संपत्ति, नारी, विद्या आदि किसी भी ऐसी वस्तु जिसे अपने पुरुषार्थ से अर्जित नहीं किया या किसी ने हमें भें ट
या पुरस्कार में नहीं दिया, को लेने के विचार मात्र से ही अस्तेय खंडित होता है । इस भावना से चित्त में जो असर होता
है उससे मानसिक प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है। मन रोगग्रस्त हो जाता है।
(4) ब्रह्मचर्य : इसका अर्थ भी व्यापक है । आमतौर पर गुप्तें द्रियों पर संयम रखना ही ब्रह्मचर्य माना जाता है ।
ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ है उस एक ब्रह्म की चर्या या चरना करना। अर्थात उसके ही ध्यान में रमना और उसकी
चर्चा करते रहना ही ब्रह्मचर्य है । समस्त इंद्रियों के संयम के अस्खलन को ही ब्रह्मचर्य कहते हैं।
(5) अपरिग्रह : इसे अनासक्ति भी कहते हैं अर्थात किसी भी विचार, वस्तु और व्यक्ति के प्रति मोह न रखना ही
अपरिग्रह है । कुछ लोगों में संग्रह करने की प्रवत्ति
ृ होती है , जिससे मन में भी व्यर्थ की बातें या चीजें संग्रहित होने
लगती हैं। इससे मन में संकुचन पैदा होता है। इससे कृपणता या कंजूसी का जन्म होता है । आसक्ति से ही आदतों का
जन्म भी होता है । मन, वचन और कर्म से इस प्रवत्ति
ृ को त्यागना ही अपरिग्रही होना है ।
अंतत: : उक्त पाँच 'यम' कहे गए है यह अष्टांग योग का पहला चरण है । यम को ही विभिन्न धर्मों ने अपने-अपने
तरीके से समझाया है किं तु योग इसे समाधि तक पहुँचने की पहली सीढ़ी मानता है। यह उसी तरह है जिस तरह की
प्राथमिक स्कूल में दाखिला लिया जाता है। निश्चित ही इसे साधना कठिन जान पड़ता है किं तु सिर्फ उन लोगों के लिए
जिन्होंने जमाने की हवा के साथ बहकर अपना स्वाभाविक स्वभाव खो दिया है।
कैसे कम करें तोंद
शक्र
ु वार, 3 सितंबर 2010( 14:43 IST )
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तोंद एक वैश्विक समस्या है और इसका जन्म खान-पान और शरीर के प्रति लापरवाही से होता है । तोंद के
निकल आने से व्यक्ति बहुत ही बेडोल लगता है । उसे सभी तोंद ू कहते हैं और कुछ लोग तो उसे चलता-फिरता
मिनी सेप्टीटैंक भी कहते हैं। अक्सर किसम-किसम के तोंद ू दे खे जा सकते हैं। तोंद कम करने के लिए यहाँ कुछ
टिप्स दी जा रही है ।
*खड़े होकर : सावधान मुद्रा में खड़े होकर कटिचक्रासन फिर त्रिकोणासन करें ।
*बैठकर : वज्रासन में बैठकर पहले उष्ट्रासन करें फिर दं डासन में बैठकर पश्चिमोत्तनासन करें ।
*लेटकर : मकरासन अर्थात पेट के बल लेटकर भुजंगासन करें फिर शवासन अर्थात पीठ के बल लेटकर हलासन
करें ।
*सावधानी : मसालेदार और अत्यधिक भोजन को त्याग दें । भोजन में सलाद का ज्यादा इस्तेमाल करें । किसी
भी प्रकार का गंभीर रोग होने की स्थिति में योग प्रशिक्षक की सलाह लेकर ही आसन करें ।
*इसके लाभ :
तोंद घटाने के योगासन करने से तोंद तो कम होगी ही साथ ही उक्त आसन अन्य बहुत से रोगों में भी लाभदायक
है । जैसे कटिचक्रासन और त्रिकोणासन कमर, पेट, कुल्हे , मेरुदं ड तथा जँघाओं को सध
ु ारता है । इससे गर्दन और
कमर में लाभ मिलता है । उष्ट्रास से घुटने, ब्लडर, किडनी, छोटी आँत, लीवर, छाती, लंग्स एवं गर्दन तक का
भाग एक साथ प्रभावित होता है , जिससे किउपर्युक्त अँग समह
ू का व्यायाम होकर उनका निरोगीपन बना रहता
है ।
भुजंगासन से गला खराब रहने की, दमे की, पुरानी खाँसी अथवा फेंफड़ों संबंधी अन्य कोई बीमारी और पाचन
शक्ति में लभ मिलता है । हलासन के नियमित अभ्यास से अजीर्ण, कब्ज, अर्श, थायराइड का अल्प विकास,
अँगविकार, असमय वद्ध
ृ त्व, दमा, कफ, रक्तविकार आदि दरू होते हैं। सिरदर्द दरू होता है । रीढ़ में कठोरता होना
वद्ध
ृ ावस्था की निशानी है । हलासन से रीढ़ लचीली बनती है ।
शॉर्ट कट : भोजन को साधकर सिर्फ उष्ट्रासन और पश्चिमोत्तनास करते रहने से भी तोंद कम की जा सकती है ।
उज्जायी क्रिया और प्राणायाम
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010( 13:42 IST )
ND
योग में उज्जायी क्रिया और प्राणायाम के माध्यम से बहुत से गंभीर रोगों से बचा जा सकता है बशर्तें की उक्त
प्राणायाम और क्रिया को किसी योग्य योग शिक्षक से सीखकर नियमित की जाए।
प्राणायाम की विधी : कंठ को सिकुड़ कर श्वास इस प्रकार लें व छोड़ें की श्वास नलिका से घर्षण करते हुए आए
और जाए। इसको करने से उसी प्रकार की आवाज उत्पन्न होगी जैसे कबूतर गुटुर-गँू करते हैं। उस दौरान मूलबंध
भी लगाएँ।
पाँच से दस बार श्वास इसी प्रकार लें और छोड़ें। फिर इसी प्रकार से श्वास अंदर भरकर जालंधर बंध (कंठ का
संकुचन) शिथिल करें और फिर धीरे -धीरे रे चन करें अर्थात श्वास छोड़ दें । अंत में मल
ू बंध शिथिल करें । ध्यान
विशुद्धि चक्र (कंठ के पीछे रीढ़ में ) पर रखें।
उज्जायी क्रिया : यह क्रिया दो प्रकार से की जाती है (1). खड़े रहकर (2). लेटकर। यहाँ प्रस्तत
ु है लेटकर की जाने
वाली क्रिया।
पीठ के सहारे जमीन पर लेट जाएँ शरीर सीधा रखें। हथेलियों को जमीन पर शरीर से सटाकर रखें। एड़ियों को
सटा लें तथा पैरों को ढीला रखें। सीधा ऊपर दे खें तथा स्वाभाविक श्वास लें।
1.मँह
ु के द्वारा लगातार तेजी से शरीर की परू ी हवा निकाल दें । हवा निकालने की गति वैसी ही रहनी चाहिए जैसी
सीटी बजाने के समय होती है । चेहरे पर से तनाव को हटाते हुए होठों के बीच से हवा निकाल दी जाती है ।
2.नाके के दोनों छीद्रों से धीरे -धीरे श्वास खींचना चाहिए। शरीर ढीला रखें, जितना सुखपूर्वक श्वास खींचकर भर
सकें, उसे भर लें।
3.तब हवा को भीतर ही रोके और दोनों पैरों के अँगूठे को सटाकर उन्हें आगे की ओर फैला लें, प्रथम सप्ताह केवल
तीन चार सेंकड रहें इसे बढ़ाकर आठ सेकंड तक करें या जितनी दे र हम आसानी से श्वास रोक सकें, रोकें।
4.फिर मँह
ु से ठीक उसी प्रकार श्वास निकालें , जैसे प्रथम चरण में किया गया, जल्दबाजी ना करें , श्वास छोड़ने के
समय माँसपेशियों को ऊपर से नीचे तक ढीला करें अर्थात पहले सीने को तब पेट को जाँघों, पैरों और हाथों को
पूरी श्वास छोड़ने के बाद, पूरे शरीर को ढीला छोड़ दें 5-6 सेकंड विश्राम करें ।
ND
आधुनिक अनुसंधान के आधार पर यह कहा जाता है कि दमा-एलर्जी बाह्य वातावरण, हवा में विजातीय द्रव्य
कण, फंगस, ठं डी हवा, भोजन में कुछ पदार्थ, ठं डे पेय, धुएँ, मानसिक तनाव, इत्र और रजोनिवत्ति
ृ जैसे अनेक
कारणों से होकर व्यक्ति स्थायी रूप से दमा का रोगी हो जाता है । व्यक्ति की नाक, गला, त्वचा आदि पर इसका
परिणाम एलर्जी कहलाता है ।
आधनि
ु क चिकित्सक यह जानते हैं परं तु आंतरिक प्रक्रिया से अनभिज्ञ रहते हैं। आंतरिक बदलाव, व्यक्ति के
शरीर की अतिसंवेदनशीलता का कारण उन्हें ज्ञात नहीं होता है । योगाभ्यासी इस रोग का कारण आंतरिक और
गलत जीवनशैली को मानते हैं। योग की सभी प्रायोगिक विधाएँ जैसे आसन, प्राणायाम, शुद्धिकरण की क्रियाएँ,
ध्यान आदि आंतरिक गड़बड़ियों को ठीक करने और समझने का अवसर प्रदान करती है ।
'अ' (मध्यम पीड़ा) और 'ब' (जटिल रोगी)। फेफड़ों की क्षमता 'पीक फ्लो' मीटर से नापकर वजन और पेट की
परिधि को योग प्रशिक्षण के पूर्व नाप लिया गया था। दो सप्ताह तक दोनों समह
ू ों को योगाभ्यास में प्रशिक्षित
किया गया।
इसके तहत ब्रह्ममुद्रा 10 बार, कन्धसंचालन 10 बार (सीधे-उल्टे ), मार्जगसन 10 बार, शशकासन 2 बार (10
श्वास-प्रश्वास के लिए), वक्रासन 10 श्वास के लिए, भज
ु ंगासन 3 बार (10 श्वास के लिए), धनरु ासन 2 बार (10
श्वास-प्रश्वास के लिए), पाश्चात्य प्राणायाम (10 बार गहरी श्वास के साथ), उत्तानपादासन 2 बार, 10 सामान्य
श्वास के लिए, शवासन 5 मिनट, नाड़ीसांधन प्राणायाम 10-10 बार एक स्वर से, कपालभाँति 50 बार, भस्त्रिका
कुम्भक 10 बार, जल्दी-जल्दी श्वास-प्रश्वास के बाद कुम्भक यथाशक्ति 3 बार दोहराना था।
अध्ययन से यह ज्ञात हुआ कि योगाभ्यास के साथ जीवनशैली में बदलाव किए बिना योग से रोग निवारण संभव
नहीं है । लोग योगाभ्यास करते हैं परं तु जीवनशैली में बदलाव नहीं करते और संपूर्ण लाभ से वंचित रह जाते हैं।
योगाभ्यास और जीवनशैली में साधारण बदलाव से इस रोग का संपूर्ण निवारण संभव है । एक बार रोगी ठीक हो
जाने के बाद योगाभ्यास छोड़ सकता है परं तु जीवनशैली को पर्व
ू वत करते ही पन
ु : रोगी हो सकता है क्योंकि रोग
का मूल कारण जीवनशैली ही है ।
- डॉ. बी.के. बांद्रे
वजन घटाओ, उम्र बढ़ाओ
बध
ु वार, 25 अगस्त 2010( 13:25 IST )
ND
यदि आप मोटे या तोंद ू है तो वजन घटाना कोई मुश्किल कार्य नहीं बशर्ते की हम सोच लें कि घटाना ही है ।
व्यक्ति एक अति से दस
ू री अति पर जाने लगता है । वजन घटाने के लिए कुछ लोग कड़े उपवास करते हैं तो कुछ
लोग पसीना बहाऊ एक्सरसाइज करते हैं, जबकि यह दोनों ही करने की आवश्यकता नहीं है । सिर्फ मध्यम मार्ग
का अनस
ु रण करें ।
डाइट पर कंट्रोल करें : सर्वप्रथम भोजन की मात्रा कम करते हुए भोजन में सलाद का इस्तेमाल ज्यादा करें ।
स्पाइसी व हे वी खाने की बजाय ब्रोकली, कैबिज और कई तरह के सलाद खाएँ। दो रोटी की भूख हमेशा बचा कर
रखें और सिर्फ दो वक्त का भोजन ही करें बाकि समय कुछ भी न खाएँ। भोजन करने के आधा घंटे बाद ही पानी
पीएँ। भोजन करने के नियम बनाएँ दे र रात को भोजन ना करें ।
योगा टिप्स : किसी योग शिक्षक से सीखकर योग में सूर्य नमस्कार, त्रिकोणासन, कटिचक्रासन,
अर्धमत्स्येंद्रासन, भुजंगासन, मत्स्यासन, हलासन, चक्रासन और हनुमानासन या आंजनेय आसन करें । भोजन
की मात्रा कम कर दे ने तथा योगासन नियमित करते रहने से अवश्य ही वजन घट जाएगा।
वज्रोली और वायभ
ु क्षण
मंगलवार, 14 सितंबर 2010( 14:58 IST )
ND
योग अनस
ु ार वज्रोली तथा वायभ
ु क्षण प्राणायाम भी है और क्रिया भी। दोनों ही प्राणायाम से हम पाचन व यौन
संबंधी छोटी-छोटी समस्या से निजात पा सकते हैं।
वज्रोली मद्र
ु ा : पर्ण
ू रे चन करके श्वास रोक दें । जितनी दे र सहजता से श्वास रुके बार-बार वज्रनाड़ी (जननेंद्रिय)
का संकोचन विमोचन करें । ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र (मूलाधार से चार अँगुल ऊपर रीढ़ में , जननेंद्रिय के ठीक
पीछे ) पर केंद्रित रहे।
वायु भक्षण : हवा को जानबूझकर कंठ से अन्न नली में निगलना। यह वायु तत्काल डकार के रूप में वापस
आएगी। वायु निगलते वक्त कंठ पर जोर पड़ता है तथा अन्न नलिका से होकर वायु पेट तक जाकर पन
ु : लौट
आती है ।
दोनों के लाभ : वज्रोली क्रिया प्रजनन संस्थान को सबल बनाती है और यौन रोग में भी यह लाभदायक है । वायु
भक्षण क्रिया अन्न नलिका को शुद्ध व मजबत
ू करती है ।
चमत्कारिक केवली प्राणायाम
मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010( 18:23 IST )
ND
केवली प्राणायाम को कुम्भकों का राजा माना गया है । सभी प्राणायामों का अच्छे से अभ्यास होने से केवली
प्राणायाम स्वत: ही घटित होने लगता है , लेकिन फिर भी साधक इसे साधना चाहे तो साध सकता है । इस केवली
प्राणायाम को कुछ योगाचार्य प्लाविनी प्राणायाम भी कहते हैं। हालाँकि प्लाविनी प्राणायाम करने का और भी
तरीका है ।
विधि- स्वच्छ तथा उपयुक्त वातावरण में सिद्धासन में बैठ जाएँ। अब दोनों नाक के छिद्र से वायु को धीरे -धीरे
अंदर खींचकर फेफड़े समेत पेट में पूर्ण रूप से भर लें। इसके बाद क्षमता अनुसार श्वास को रोककर रखें। फिर
दोनों नासिका छिद्रों से धीरे -धीरे श्वास छोड़ें अर्थात वायु को बाहर निकालें। इस क्रिया को अपनी क्षमता अनस
ु ार
कितनी भी बार कर सकते हैं।
दस
ू री विधि- रे चक और परू क किए बिना ही सामान्य स्थिति में श्वास लेते हुए जिस अवस्था में हो, उसी अवस्था
में श्वास को रोक दें । फिर चाहे श्वास अंदर जा रही हो या बाहर निकल रही हो। कुछ दे र तक श्वासों को रोककर
रखना ही केवली प्राणायाम है ।
विशेषता- इस प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने के बाद फलरूप में जो प्राप्त होता है , वह है केवल कुम्भक।
इस कुम्भक की विशेषता यह है कि यह कुम्भक अपने आप लग जाता है और काफी अधिक दे र तक लगा रहता
है । इसमें कब पूरक हुआ, कब रे चक हुआ, यह पता नहीं लगता। अपने आप कभी भी कुम्भक लग जाता है ।
उसका श्वास-प्रश्वास इतना अधिक लंबा और मंद हो जाता है कि यह भी पता नहीं रहता कि योगी कब श्वास-
प्रश्वास लेता-छोड़ता है । इसके सिद्ध होने से ही योगी घंटों समाधि में बैठे रहते हैं। यह भूख-प्यास को रोक दे ता है ।
इसके लाभ- यह प्राणायाम कब्ज की शिकायत दरू कर पाचनशक्ति को बढ़ाता है । इससे प्राणशक्ति शुद्ध होकर
आयु बढ़ती है । यह मन को स्थिर व शांत रखने में भी सक्षम है । इससे स्मरण शक्ति का विकास होता है । इससे
व्यक्ति भूख को कंट्रोल कर सकता है और तैराक पानी में घंटों बिना हाथ-पैर हिलाएँ रह सकता है ।
सिद्धासन में बैठे तब दोनों घुटने जमीन को छूते हुए होने चाहिए तथा हथेलियाँ उन घुटनों पर टिकी होनी चाहिए।
फिर गहरी साँस लेकर वायु को अंदर ही रोक लें। इसके बाद गद
ु ाद्वार को परू ी तरह से सिकोड़ लें। अब साँस को
रोककर रखने के साथ आरामदायक समयावधि तक बंध को बनाए रखें। इस अवस्था में जालंधर बंध भी लगाकर
रखें फिर मूलाधार का संकुचन छोड़कर जालंधर बंध को धीरे से खोल दें और धीरे से साँस को बाहर छोड़ दें । इस
अभ्यास को 4 से 5 बार करें ।
सावधानी- किसी भी प्रकार का यौन और उदर रोग होने की स्थिति में इस मूलबंध का अभ्यास जानकार
योगाचार्य के निर्देशन में ही करना चाहिए।
लाभ- इससे यौन ग्रंथियाँ पष्ु ट होकर यौन रोग में लाभ मिलता है । इस मुद्रा को करने से शरीर के अंदर से कब्ज
का रोग समाप्त हो जाता है और भूख भी तेज हो जाती है । शरीर का भारीपन समाप्त होता है और सुस्ती मिटती
है । पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में ये मुद्रा बहुत ही लाभकारी मानी गई है । इस
बंध को करने से बवासीर रोग भी समाप्त हो जाता है ।
सेक्स पॉवर बढ़ाता है मल
ू बंध
यौन रोग में लाभदायक मूलबंध
शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010( 15:00 IST )
ND
गद
ु ाद्वार को सर्वथा बंद कर दे ने को मल
ू बंध कहा जाता है । मल
ू त: पाँच बंध है - 1.मल
ू बंध, 2.उड्डीयान बंध,
3.जालंधर बंध, 4.बंधत्रय और 5.महाबंध। यहाँ प्रस्तुत है मूलबंध के बारे में जानकारी।
सिद्धासन में बैठे तब दोनों घुटने जमीन को छूते हुए होने चाहिए तथा हथेलियाँ उन घुटनों पर टिकी होनी चाहिए।
फिर गहरी साँस लेकर वायु को अंदर ही रोक लें। इसके बाद गद
ु ाद्वार को परू ी तरह से सिकोड़ लें। अब साँस को
रोककर रखने के साथ आरामदायक समयावधि तक बंध को बनाए रखें। इस अवस्था में जालंधर बंध भी लगाकर
रखें फिर मूलाधार का संकुचन छोड़कर जालंधर बंध को धीरे से खोल दें और धीरे से साँस को बाहर छोड़ दें । इस
अभ्यास को 4 से 5 बार करें ।
सावधानी- किसी भी प्रकार का यौन और उदर रोग होने की स्थिति में इस मूलबंध का अभ्यास जानकार
योगाचार्य के निर्देशन में ही करना चाहिए।
लाभ- इससे यौन ग्रंथियाँ पष्ु ट होकर यौन रोग में लाभ मिलता है । इस मुद्रा को करने से शरीर के अंदर से कब्ज
का रोग समाप्त हो जाता है और भूख भी तेज हो जाती है । शरीर का भारीपन समाप्त होता है और सुस्ती मिटती
है । पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में ये मुद्रा बहुत ही लाभकारी मानी गई है । इस
बंध को करने से बवासीर रोग भी समाप्त हो जाता है ।
योग आसनों के प्रकार
WD
ऋषि-मुनियों ने स्वास्थ और आध्यात्मिक प्रश्नों की खोज के दौरान प्रकृति, पशु और पक्षियों का गहन अध्ययन कर
यह जानने का प्रयास किया कि सहज रूप से किस तरह से स्वस्थ और चैतन्य रहा जा सकता है । यहाँ प्रस्तुत है
ऋषियों द्वारा अविष्कृत आसनों के प्रकार।
1.वश्चि
ृ क आसन, 2.भुजंगासन, 3. मयूरासन, 4. सिंहासन, 5. शलभासन, 6. मत्स्यासन 7.बकासन 8.कुक्कुटासन,
9.मकरासन, 10. हं सासन, 11.काकआसन 12. उष्ट्रासन 13.कुर्मासन 14. कपोत्तासन, 15. मार्जरासन 16.क्रोंचासन
17.शशांकासन 18.तितली आसन 19.गौमुखासन 20. गरुड़ासन 21. खग आसन 22.चातक आसन, 23.उल्लुक आसन,
24.श्वानासन, 25. अधोमुख श्वानासन, 26.पार्श्व बकासन, 27.भद्रासन या गोरक्षासन, 28. कगासन, 29. व्याघ्रासन,
30. एकपाद राजकपोतासन आदि।
1.हलासन, 2.धनुरासन, 3.आकर्ण अर्ध धनुरासन, 4. आकर्ण धनुरासन, 5. चक्रासन या उर्ध्व धनुरासन, 6.वज्रासन,
7.सप्ु त वज्रासन, 8.नौकासन, 9. विपरित नौकासन, 10.दं डासन, 11. तोलंगासन, 12. तोलासन, 13.शिलासन आदि।
1.वक्ष
ृ ासन, 2.पद्मासन, 3.लतासन, 4.ताड़ासन 5.पद्म पर्वतासन 6.मंडूकासन, 7.पर्वतासन, 8.अधोमुख वक्ष
ृ ासन 9.
अनंतासन 10.चंद्रासन, 11.अर्ध चंद्रासन 13.तालाबासन आदि
(D). अंग या अंग मुद्रावत आसन : चौथी तरह के आसन विशेष अंगों को पुष्ट करने वाले माने जाते हैं जैसे-
(E). योगीनाम आसन : पाँचवीं तरह के वे आसन हैं जो किसी योगी या भगवान के नाम पर आधारित हैं जैसे-
प्राण मद्र
ु ा : छोटी अँगल
ु ी (चींटी या कनिष्ठा) और अनामिका (सर्य
ू अँगल
ु ी) दोनों को अँगठ
ू े से स्पर्श करो। इस स्थिति
में बाकी छूट गई अँगुलियों को सीधा रखने से अंग्रेजी का 'वी' बनता है ।
WD
प्राण मुद्रा के लाभ : प्राण मुद्रा हमारी प्राण शक्ति को शक्ति और स्फूर्ति प्रदान करती है । इसके
कारण व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है । यह मुद्रा नेत्र और फेंफड़े के रोग में लाभदायक सिद्ध
होती है । इससे विटामिनों की कमी दरू होती है । इस मुद्रा को प्रतिदिन नियमित रूप से करने से कई
तरह के लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं।
अपान मुद्रा : मध्यमा और अनामिका दोनों को आपस में मिलाकर उनके शीर्षों को अँगूठे के शीर्ष से
स्पर्श कराएँ। बाकी दोनों अँगुलियों को सीधा रखें।
अपान के लाभ : इस मुद्रा को करने से मधुमेह, मूत्र संबंधी रोग, कब्ज, बवासीर और पेट संबंधी रोगों में
लाभ मिलता है । गर्भवती महिलाओं के लिए यह मुद्रा लाभदायक बताई गई है। अपान वायु का संबंध
पथ्ृ वी तत्व और मल
ू ाधार चक्र से है ।
अपान वायु मुद्राः अँगूठे के पास वाली पहली उँ गली अर्थात तर्जनी को अँगूठे के मूल में लगाकर
मध्यमा और अनामिका को मिलाकर उनके शीर्ष भाग को अँगूठे के शीर्ष भाग से स्पर्श कराएँ। सबसे
छोटी उँ गली (कनिष्ठिका) को अलग से सीधी रखें। इस स्थिति को अपान वायु मुद्रा कहते हैं।
अपान वायु मुद्रा के लाभ : हृदय रोगियों के लिए यह मुद्रा बहुत ही लाभदायक बताई गई है । इससे
रक्तचाप को ठीक रखने में सहायता मिलती है । पेट की गैस एवं शरीर की बेचैनी इस मुद्रा के
अभ्यास से दरू होती है । आवश्यकतानस
ु ार हर रोज 20 से 30 मिनट तक इस मद्र
ु ा का अभ्यास किया
जा सकता है ।
शून्य और सूर्य मुद्रा
अ
न
ि
र
ु
द
्
ध
ज
ो
श
ी
'
श
त
ा
य
ु
'
शन्
ू य मद्र
ु ा हमारे भीतर के आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती है । मध्यमा अँगल
ु ी का संबंध आकाश से जड़
ु ा माना
गया है। शून्य मुद्रा मुख्यत: हमारी श्रवण क्षमता को बढ़ाती है । सूर्य मुद्रा हमारे भीतर के अग्नि तत्व को संचालित
करती है । सूर्य की अँगुली अनामिका को रिंग फिं गर भी कहते हैं। इस अँगुली का संबंध सूर्य और यरू े नस ग्रह से है। सूर्य
ऊर्जा स्वास्थ्य का प्रतिनिधित्व करती है और यूरेनस कामुकता, अंतर्ज्ञान और बदलाव का प्रतीक है।
(1) शन्
ू य मद्र
ु ा
ND
हम प्रतिदिन अपने वस्त्रों को साफ करते हैं। यदि एक दिन भी वस्त्र नहीं
ND धोए जाएँ तो वस्त्र मैले हो जाते हैं। हमारे उदर में भी लगभग 32 फुट
लम्बी आँत है । उसकी सफाई हम जिंदगी में कभी नहीं करते। इससे उसकी दीवारों पर सूक्ष्म मल की
पर्त बन जाती है ।
क्रिया हे तु आवश्यक सामग्री : एक ग्लास (पानी पीने के लिए), गुनगुना पानी, जिसमें उचित परिमाण में
नींबू का रस एवं सैंधा नमक डला हुआ हो, चावल व मँग
ू दाल की पतली खिचड़ी, प्रति व्यक्ति के
हिसाब से लगभग 100 ग्राम गाय का घी; गाय का घी यदि न मिले तो भैंस का ले सकते हैं। आसन
करने हे तु दरी या कम्बल, ओढ़ने हे तु हल्की चादर तथा पास में ही शौचालय हो।
पूर्व तैयारी : शंख प्रक्षालन क्रिया को करने से पहले कम से कम एक सप्ताह पूर्व ही आसनों का
अभ्यास प्रारम्भ कर दे ना चाहिए। जिस दिन शंख प्रक्षालन करना हो उससे पूर्व रात्रि को सुपाच्य
हल्का भोजन लगभग 8 बजे तक कर लेना चाहिए।
सायंकाल दध
ू में लगभग 50 से 100 ग्राम तक मुनक्का डालकर पी लें तो शुद्धि की क्रिया अति उत्तम
होती है । रात्रि को 10 बजे से पर्व
ू रात्रि को सो जाएँ। दस
ू रे दिन प्रातः काल नित्यकर्म-स्नान, मंजन व
शौच आदि से, यदि सम्भव हो तो निवत्ृ त हो जाएँ। यदि शौच न भी हो, तो कोई बात नहीं।
वरुण और वायु मुद्रा
हमारा शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है। शरीर में जल और वायु तत्व का संतुलन बिगड़ने से वात और कफ संबंधी
रोग होते हैं। इन रोगों की रोकथाम के लिए ही योग में कई मुद्राओं के महत्व को बताया गया है । यहाँ प्रस्तुत है वरुण
और वायु मुद्रा का संक्षिप्त परिचय।
विधि : छोटी या चीठी अँगुली के सिरे को अँगूठे के सिरे से स्पर्श करते हुए दबाएँ। बाकी की
तीन अँगुलियों को सीधा करके रखें । इसे वरुण मुद्रा कहते हैं।
PR
लाभ : यह शरीर के जल तत्व के संतल
ु न को बनाए रखती है। आँत्रशोथ तथा स्नायु के दर्द और
संकोचन को रोकती है । तीस दिनों के लिए पाँच से तीस मिनट तक इस मुद्रा का अभ्यास करने से यह मुद्रा अत्यधिक
पसीना आने और त्वचा रोग के इलाज में सहायक सिद्ध हो सकती है। यह खून शद्ध
ु कर उसके सुचारु संचालन में
लाभदायक है । शरीर को लचीला बनाने हेतु भी इसका उपयोग किया जाता है।
विधि : इंडक्
े स अर्थात तर्जनी को हथेली की ओर मोड़ते हुए उसके प्रथम पोरे को अँगठ
ू े से
दबाएँ। बाकी बची तीनों अँगलि
ु यों को ऊपर तान दें । इसे वायु मद्र
ु ा कहते हैं।
PR
लाभ: प्रतिदिन 5 से 15 मिनट तक इस मुद्रा का अभ्यास 15 दिनों तक करने से जोड़ों,
पक्षाघात, एसिडिटी, दर्द, दस्त, कब्ज, अम्लता, अल्सर और उदर विकार आदि में राहत मिल सकती हैं।
पथ्
ृ वी मुद्रा
मुद्राओं में पथ्
ृ वी मुद्रा का बहुत महत्व है । यह हमारे भीतर के पथ्
ृ वी तत्व को जागत
ृ
करती है । योगियों ने मनुष्य के शरीर में दो मुख्य नाड़ियाँ बतलाई हैं। एक सूर्यनाड़ी
और दस
ू री चन्द्र नाड़ी। पथ्
ृ वी मुद्रा करने के दौरान अनामिका अर्थात सूर्य अंगुली पर
दबाव पड़ता है , जिससे सूर्य नाड़ी और स्वर के सक्रिय होने में सहयोग मिलता है।
लाभ : पथ्
ृ वी मुद्रा से सभी तरह की कमजोरी दरू होती है । इससे वजन बढ़ता है। चेहरे की त्वचा साफ और चमकदार
बनती है। यह मुद्रा शरीर को स्वस्थ्य बनाए रखने में मदद करती है ।
अनुलोम-विलोम
प्राणायाम करते समय तीन क्रियाएँ करते हैं- 1. पूरक 2. कुम्भक 3. रे चक। इसे ही
हठयोगी अभ्यांतर वत्ति
ृ , स्तम्भ वत्ति
ृ और बाह्य वत्ति
ृ कहते हैं।
(1) पूरक:- अर्थात नियंत्रित गति से श्वास अंदर लेने की क्रिया को पूरक कहते हैं।
अ
(2) कुम्भक:- अंदर की हुई श्वास को क्षमतानुसार रोककर रखने की क्रिया को
न
कुम्भक कहते हैं।
ि
(3) रे चक:- अंदर ली हुई श्वास को नियंत्रित गति से छोड़ने की क्रिया को रे चक कहते
र
IFM हैं। ु
द
इस पूरक, रे चक और कुम्भक की प्रक्रिया को ही अनुलोम-विलोम कहते हैं। इसके बारे में योगाचार्यों के मत अलग-
्
अलग हैं। इसे ठीक प्रक्रिया से करते हैं अर्थात पतंजलि अनस
ु ार 1 : 4 : 2 के अनप
ु ात में तो इसे ही नाड़ी शोधन ध
प्राणायम भी कहा जाता है ।
ज
इसके लाभ : तनाव घटाकर शांति प्रदान करने वाले इस प्राणायम से सभी प्रकार की नाड़ियों को भी स्वस्थ लाभ
ो
मिलता है । नेत्र ज्योति बढ़ती है और रक्त संचालन सही रहता है। अनिद्रा रोग में लाभदायक है । इसके नियमित
श
अभ्यास से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता। चेहरे की कांति बढ़ती है।
ी
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पाचन तंत्र के लिए महामुद्रा
महामुद्रा
शुक्रवार, 7 मई 2010( 16:24 IST )
- स्वामी ज्योतिर्मयानंद की पस्
ु तक से अंश
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मल
ू बंध लगाकर दाहिनी एड़ी से कंद (मलद्वार और जननांग का मध्य भाग) को दबाएँ। बाएँ पैर को
सीधा रखें। आगे की ओर झुककर बाएँ पैर के अँगूठे को दोनों हाथों से पकड़े। सिर को नीचे झुका कर
बाएँ घुटने का स्पर्श कराएँ। इस स्थिति को जानुशिरासन भी कहते हैं।
महामुद्रा में जानुशिरासन के साथ-साथ, बंध और प्राणायाम, किया जाता है । श्वास लीजिए। श्वास रोकते
हुए जालंधर बंध करें (ठुड्डी को छाती के साथ दबाकर रखें)। श्वास छोड़ते हुए उड्डीयान बंध (नाभी
को पीठ में सटाना) करें । इसे जितनी दे र तक कर सकें करें ।
दाहिने पैर को सीधा रखते हुए बाई एड़ी से कंद को दबाकर इसी क्रिया को पुन: करें । आज्ञाचक्र पर
ध्यान करें । भ्रू मध्य दृष्टि रखें। इसके अतिरिक्त सुषुम्ना में कंु डलिनी शक्ति के प्रवाह पर भी ध्यान
कर सकते हैं।
लाभ : यह मुद्रा महान सिद्धियों की कँु जी है । यह प्राण-अपान के सम्मिलित रूप को सुषुम्ना में
प्रवाहित कर सुप्त कंु डलिनी जाग्रत करती है । इससे रक्त शुद्ध होता है । यदि समचि
ु त आहार के साथ
इसका अभ्यास किया जाय तो यह सुनबहरी जैसे असाध्य रोगों को भी ठीक कर सकती है। बवासीर,
कब्ज, अम्लता और शरीर की अन्य दष्ु कर व्याधियाँ इस के अभ्यास से दरू की जा सकती हैं। इसके
अभ्यास से पाचन क्रिया तीव्र होती है तथा तंत्रिकातंत्र स्वस्थ और संतुलित बनता है।
पुस्तक : आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंध (Yaga Exercises For Health and Happiness)
लेखक : स्वामी ज्योतिर्मयानंद
हिंदी अनुवाद : योगिरत्न डॉ. शशिभूषण मिश्र
प्रकाशक : इंटरनेशनल योग सोसायटी
जालंधर बंध को जानें
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इसे चिन बंध भी कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस बंध का अविष्कार
जालंधरिपाद नाथ ने किया था इसीलिए उनके नाम पर इसे जालंधर बंध कहते हैं।
हठयोग प्रदीपिका और घेरंड संहिता में इस बंध के अनेक लाभ बताएँ गए हैं। कहते हैं
कि यह बंध मौत के जाल को भी काटने की ताकत रखता है , क्योंकि इससे दिमाग,
दिल और मेरुदं ड की नाड़ियों में निरं तर रक्त संचार सच
ु ारु रूप से संचालित होता
रहता है।
ND विधि : किसी भी सुखासन पर बैठकर पूरक करके कंु भक करें और ठोड़ी को छाती के
साथ दबाएँ। इसे जालंधर बंध कहते हैं। अर्थात कंठ को संकोचन करके हृदय में ठोड़ी
को दृढ़ करके लगाने का नाम जालंधर बंध है।
इसके लाभ : जालंधर के अभ्यास से प्राण का संचरण ठीक से होता है। इड़ा और पिंगला नाड़ी बंद होकर प्राण-अपान
सुषुन्मा में प्रविष्ट होता है । इस कारण मस्तिष्क के दोनों हिस्सों में सक्रियता बढ़ती है। इससे गर्दन की माँसपेशियों में
रक्त का संचार होता है , जिससे उनमें दृढ़ता आती है । कंठ की रुकावट समाप्त होती है। मेरुदं ड में खिच
ं ाव होने से उसमें
रक्त संचार तेजी से बढ़ता है। इस कारण सभी रोग दरू होते हैं और व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है ।
सावधानी : शरू
ु में स्वाभाविक श्वास ग्रहण करके जालंधर बंध लगाना चाहिए। यदि गले में किसी प्रकार की तकलीफ
हो तो न लगाएँ। शक्ति से बाहर श्वास ग्रहण करके जालंधर न लगाएँ। श्वास की तकलीफ या सर्दी-जुकाम हो तो भी न
लगाएँ। योग शिक्षक से अच्छे से सीखकर इसे करना चाहिए।
क्या घुटनों में दर्द है ?
मंगलवार, 6 जुलाई 2010( 14:22 IST )
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8 से 9 घंटे कुर्सी पर बैठे रहने से पैरों के घुटने अकड़ जाते हैं। लगातार सफर करने से भी घुटने दर्द करने लगते
हैं। बढ़
ु ापे में अक्सर घट
ु नों की शिकायत बनी रहती है । घट
ु नों के कारण ही परु ा पैर दर्द करने लगता है । इस सबसे
छुटकारा पाने के लिए यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ योगा टिप्स।
स्टे प 1- पैरों को सामने फैलाकर अर्थात दं डासन में बैठ जाएँ फिर दाएँ पैर को मोड़कर बाईं जँघा पर रखें, बाएँ हाथ
से दाहिने पंजे को पकड़े तथा दाएँ हाथ को दाएँ घुटने पर रखें। अब दाएँ हाथ को दाएँ घुटने के नीचे लगाते हुए
घुटने को ऊपर उठाकर छाती से लगाए तथा घुटने को दबाते हुए जमीन पर टिका दें । इस तरह ऊपर और नीचे 8-
10 बार करें । इसी प्रकार इस अभ्यास को विपरीत अर्थात बाएँ पैर को मोड़कर दाएँ जँघा पर रखकर पहले के
समान करें ।
स्टे प 3- दोनों हाथों की हथेलियों से घुटने को पकड़कर उसकी होले-होले मालिश करें । घुटनों की कटोरीनुमा हड्डी
को अच्छे से सहलाते हुए उन्हें हल्के से हिलाएँ और फिर पैरों की अँगुलियों को ऊपर नीचे करें ।
इसके लाभ : उक्त योगा एक्सरसाइज से घुटनों का दर्द जाता रहे गा तथा कभी भी घुटनों में अकड़न की शिकायत
नहीं रहे गी। जिन लोगों को पिंडलियाँ दर्द करती है उनके लिए भी यह योगा एक्सरसाइज लाभदायक है ।
निर्भिक बनाए त्राटक क्रिया
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शरीर को स्वस्थ्य और शद्ध
ु करने के लिए छ: क्रियाएँ विशेष रूप से की जाती हैं। जिन्हें षट्कर्म कहा जाता है ।
क्रियाओं के अभ्यास से संपूर्ण शरीर शुद्ध हो जाता है । किसी भी प्रकार की गंदगी शरीर में स्थान नहीं बना पाती
है । बुद्धि और शरीर में सदा स्फूर्ति बनी रहती है ।
ये क्रियाएँ हैं:- 1.त्राटक 2.नेती. 3.कपालभाती 4.धौती 5.बस्ती और 6.नौली। आओ जानते हैं त्राटक के बारे में ।
त्राटक क्रिया विध : जितनी दे र तक आप बिना पलक गिराए किसी एक बिंद,ु क्रिस्टल बॉल, मोमबत्ती या घी के
दीपक की ज्योति पर दे ख सकें दे खते रहिए। इसके बाद आँखें बंद कर लें। कुछ समय तक इसका अभ्यास करें ।
इससे आप की एकाग्रता बढ़े गी।
सावधानी : त्राटक के अभ्यास से आँखों और मस्तिष्क में गरमी बढ़ती है , इसलिए इस अभ्यास के तुरंत बाद
नेती क्रिया का अभ्यास करना चाहिए। आँखों में किसी भी प्रकार की तकलीफ हो तो यह क्रिया ना करें । अधिक
दे र तक एक-सा करने पर आँखों से आँसू निकलने लगते हैं। ऐसा जब हो, तब आँखें झपकाकर अभ्यास छोड़ दें ।
यह क्रिया भी जानकार व्यक्ति से ही सीखनी चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा आत्मसम्मोहन घटित हो सकता है ।
इसके लाभ : आँखों के लिए तो त्राटक लाभदायक है ही साथ ही यह आपकी एकाग्रता को बढ़ाता है । स्थिर आँखें
स्थिर चित्त का परिचायक है । इसका नियमित अभ्यास कर मानसिक शांति
और निर्भिकता का आनंद लिया जा
सकता है । इससे आँख के सभी रोग छूट जाते हैं। मन का विचलन खत्म हो जाता है ।
त्राटक के अभ्यास से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है । सम्मोहन और स्तंभन क्रिया में त्राटक की
महत्वपूर्ण भमि
ू का होती है । यह स्मति
ृ दोष भी दरू करता है और इससे दरू दृष्टि बढ़ती है ।
पेट के लिए करें मयूरासन
ND
मयूर आसन को करते समय शरीर मोर समान स्थिति में दिखाई दे ता है , इसलिए इसे मयूरासन कहते हैं। पेट
संबंधी रोगों को दरू करने में यह आसन काफी मदद करता है । इसके करते रहने से जीवन में कभी भी मधुमेह
नहीं होता। इससे शरीर में कहीं भी चर्बी नहीं बढ़ती।
कैसे करें : सबसे पहले दोनों हाथों को अपने दोनों घुटनों के बीच में रखें। हाथ के अँगूठे और अँगुलियाँ अंदर की
ओर रखते हुए हथेली जमीन पर रखें। अब दोनों हाथ की कोहनियों को नाभि केन्द्र के दाएँ-बाएँ अच्छे से जमा लें।
पैर उठाते समय दोनों हाथों पर बराबर वजन दे कर धीरे -धीरे पैरों को उठाएँ।
हाथ के पंजे और कोहनियों के बल पर धीरे -धीरे सामने की ओर झुकते हुए शरीर को आगे झुकाने के बाद पैरों को
धीरे -धीरे सीधा कर दें । पुनः सामान्य स्थिति में आने के लिए पहले पैरों को जमीन पर ले आएँ और तब पुनः
वज्रासन की स्थिति में आ जाएँ।
यह रखें सावधानी : यदि ब्लड प्रेशर, टीबी, हृदय रोग, अल्सर और हार्निया रोग की शिकायत हो तो यह आसन
योग विशेषज्ञ और चिकित्सक के परामर्श के बाद ही यह करें ।
इस आसन से वक्षस्थल, फेफ़ड़े, पसलियों और प्लीहा को शक्ति प्राप्त होती है । इस आसन को करने से
पेन्क्रियाज पर दबाव पड़ने के कारण मधुमेह के रोगियों को भी काफी लाभ मिलता है । यह आसन गर्दन और
मेरुदं ड के लिए भी लाभदायक है ।
ND
ऑफिस या शॉप पर बैठे-बैठे पीठ तो अकड़ जाती है साथ ही अपच की शिकायत भी रहने लगती है । कुछ लोगों के
तो पेट निकल आते हैं तो कुछ के पेट दख
ु ते रहते हैं। यह समस्या कभी भी गंभीर रूप धरण कर सकती है । कुछ
लोग कमर दर्द से परे शान रहते हैं तो कुछ अन्य किसी गंभीर रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। यहाँ प्रस्तत
ु है , पेट और
पीठ को स्वस्थ बनाए रखने के कुछ योगा टिप्स।
स्टे प 1- दोनों पैरों को थोड़ा खोलकर सामने फैलाए। दोनों हाथों को कंधों के समकक्ष सामने उठाकर रखें। फिर
दाहिनें हाथ से बाएँ पैर के अँगूठे को पकड़े एवं बाएँ हाथ को पीछे की ओर ऊपर सीधा रखें, गर्दन को भी बाईं ओर
घम
ु ाते हुए पीछे की ओर दे खने का प्रयास करें । इसी प्रकार दस
ू री ओर से करें ।
स्टे प 3- घट
ु ने और हथेलियों के बल बैठ जाएँ। जैसे बैल या बिल्ली खड़ी हो। अब पीठ को ऊपर खिचें और गर्दन
झुकाते हुए पेट को दे खने का प्रयास करें । फिर पेट व पीठ को नीचे खिंचे तथा गर्दन को ऊपर उठाकर आसमान में
दें खे। यह प्रक्रिया 8-12 बार करें ।
इसके लाभ : इन अभ्यासों से कमर दर्द दरू होता है तथा पेट स्वस्थ रहता है । कमर की बढ़ी हुई चर्बी दरू होती है ,
परन्तु जिनको अत्यधिक कमर दर्द है या पेट में कोई गंभीर शिकायत है वे इस अभ्यास को न करें ।
योगा मसाज और बाथ
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योगा मसाज और स्नान के बहुत से चरण होते हैं। सप्ताह में एक बार योग अनुसार मसाज और स्नान करने से
शरीर फिर से तरोताजा होकर युवा बना रहता है । यह व्यक्ति की थकान, चिंता, रोग आदि को दरू करने में सक्षम
है । तनाव और प्रदष
ू ण भरे माहौल से निकल कर व्यक्ति हल्का और तरोताजा होना चाहता है इसी के चलते योगा
रिजॉर्टों में आजकल इसका प्रचलन बढ़ गया है , लेकिन आप चाहे तो इसे घर में भी कर सकते हैं।
*योगा मसाज : चेहरे पर हल्का-सा क्रीम या तेल लगाकर धीरे -धीरे उसकी मालिश करें । इसी तरह हाथों और पैरों
की अँगलि
ु याँ, सिर, पैर, कंधे, कान, पिंडलियाँ, जंघाएँ, पीठ और पेट की मालिश करें । अच्छे से शरीर के सभी
अँगों को हल्के-हल्के दबाएँ जिससे रुकी हुई ऊर्जा मुक्त होकर उन अँगों के स्नायु में पहुँचे तथा रक्त का पुन:
संचार हो। हालाँकि योगा मासाज और भी व्यापक तरीके से होता है इसके अंतर्गत पूरे बदन का घर्षण, दं डन,
थपकी, कंपन और संधि प्रसारण के तरीके से मसाज किया जाता है ।
*योगा स्नान : सुगंध, स्पर्श, प्रकाश और तेल का औषधीय मेल सभी शारीरिक व मानसिक विकारों को दरू करता
है । इसे आयुर्वेदिक या स्पा स्नान भी कहते हैं। इस स्नान के कई चरण होते हैं। इन चरणों में अभ्यंगम,
शिरोधारा, नास्यम, स्वेदम और लेपन आदि अनेक तरीके अपनाए जाते हैं। इसके पूर्व आप चाहें तो पंचकर्म को
भी अपना सकते हैं। पंचकर्म अर्थात पाँच तरह के कार्य से शरीर की शद्धि
ु करना। ये पाँच कार्य हैं- वमन, विरे चन,
बस्ति-अनुवासन, बस्ति-आस्थापन और नस्य।
*इसके लाभ : इससे माँसपेशियाँ पष्ु ट होती हैं। दृष्टि तेज होती है । चैन की नींद आती है । शरीर में शक्ति उत्पन्न
होकर शरीर का रं ग सोने के समान चमकता है । योगा मसाज या स्नान से ब्लड सर्कु लेशन सुचारु रूप से चलता
है । इससे टें शन और डिप्रेशन भी दरू होता है । बहुत से रोगों में योगचिकित्सक इसे करने की सलाह दे ते हैं।
*आसान है ये आसन : इसके अलावा आप चाहे तो निम्न बारह आसनों को नियमित कर सकते हैं। इनके करने
से किसी भी प्रकार का रोग नहीं होगा। इससे आपका यौवन बरकरार रहे गा। यह बारह आसन निम्न हैं- पद्मासन,
अर्धमत्स्येंद्रासन, सर्वांगासन, हलासन, धनुरासन, पश्चिमोत्तनासन, मयुरासन, भद्रासन, मुद्रासन, भुजंगासन,
चंद्रासन और शीर्षासन।
कफ मिटाए बाधी क्रिया
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हठयोग में शुद्धि क्रियाओं का बहुत महत्व है । क्रियाओं में प्रमुख है - नेती, धौती, बस्ती, कंु जर, न्यौली, त्राटक
आदि। उक्त क्रियाओं के अभ्यास से संपूर्ण शरीर शुद्ध हो जाता है । किसी भी प्रकार की गंदगी जब शरीर में स्थान
नहीं बना पाती है तो चित्त भी निर्मल और प्रसन्न रहता है । उक्त अवस्था से सभी तरह के रोग और शोक मिट
जाते हैं। यहाँ प्रस्तत
ु है बाधी क्रिया के बारे में संक्षिप्त जानकारी।
बाधी क्रिया भी अन्य क्रियाओं की तरह कठिन और एक प्राचीन शुद्धि क्रिया है । हालाँकि इसका प्रचलन अब योग
के साधकों तक ही सीमित रह गया है । बाघ आदि जानवर अस्वस्थ होने पर इसी प्रकार की क्रिया से स्वास्थ्य
लाभ लेते हैं, इसलिए इसका नाम बाधी क्रिया है ।
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विधि : खान-पान के दो घंटे बाद जब आधी पाचन क्रिया हुई होती है , तब दो अँगुली गले में डालकर
वमन (उल्टी) किया जाता है जिससे अधपचा भोजन बाहर निकल आता है - यही बाधी क्रिया है ।
सावधानी : बाधी क्रिया को करने के लिए किसी योग्य योग चिकित्सक की सलाह लें। यदि किसी भी
प्रकार का शारीरिक रोग हो तो यह क्रिया नहीं करना चाहिए। किसी भी प्रकार से किसी भी योगासन
या क्रियाओं को जबरदस्ती नहीं करना चाहिए।
इसका लाभ : इससे पेट की सभी प्रकार की गंदगी, कफ आदि उस अधपचे अन्न के साथ निकल जाती
ं ी शिकायतें दरू होती हैं, साथ ही कफजन्य रोगों में काफी लाभ मिलता है ।
है । फलतः पेट संबध
उक्त क्रिया से बद्धि
ु उज्जवल हो जाती है और शरीर में सदा स्फूर्ति बनी रहती है । इससे
योगाभ्यास का शत-प्रतिशत लाभ प्राप्त होता है ।
योग का इतिहास
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उपनिषद में इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद में इसके लक्षण को बताया गया है - ''तां
योगमित्तिमन्यन्ते स्थिरोमिन्द्रिय धारणम ्''
योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता
है । योग का प्रामाणिक ग्रंथ 'योगसत्र
ू ' 200 ई.प.ू योग पर लिखा गया पहला सव्ु यवस्थित ग्रंथ है।
हिंद,ू जैन और बौद्ध धर्म में योग का अलग-अलग तरीके से वर्गीकरण किया
गया है। इन सबका मूल वेद और उपनिषद ही रहा है।
वैदिक काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। इसके लिए उन्होंने चार
आश्रमों की व्यवस्था निर्मित की थी। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के
साथ ही शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी। ऋग्वेद को 1500 ई.पू. से
1000 ई.पू. के बीच लिखा गया माना जाता है। इससे पूर्व वेदों को कंठस्थ
कराकर हजारों वर्षों तक स्मति
ृ के आधार पर संरक्षित रखा गया।
563 से 200 ई.प.ू योग के तीन अंग तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का प्रचलन था। इसे क्रिया योग कहा जाता है ।
जैन और बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम के अंगों पर जोर
दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय,
अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा। यहाँ तक
योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया था।
पहली दफा 200 ई.पू. पातंजलि ने वेद में बिखरी योग विद्या का सही-सही रूप में
वर्गीकरण किया। पातंजलि के बाद योग का प्रचलन बढ़ा और यौगिक संस्थानों, पीठों
ND ND तथा आश्रमों का निर्माण होने लगा, जिसमें सिर्फ राजयोग की शिक्षा-दीक्षा दी जाती
थी।
भगवान शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का प्रारम्भ माना जाता है। बाद
में कृष्ण, महावीर और बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके पश्चात
पातंजलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया। इस रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ,
शैवपंथ, नाथपंथ वैष्णव और शाक्त पंथियों ने अपने-अपने तरीके से विस्तार दिया।
ND ND
योग परम्परा और शास्त्रों का विस्तत
ृ इतिहास रहा है । हालाँकि इसका इतिहास दफन
हो गया है अफगानिस्तान और हिमालय की गुफाओं में और तमिलनाडु तथा असम
सहित बर्मा के जंगलों की कंदराओं में ।
जिस तरह राम के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह बिखरे पड़े है
उसी तरह योगियों और तपस्वियों के निशान जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी
दे खे जा सकते है । बस जरूरत है भारत के उस स्वर्णिम इतिहास को खोज निकालने
की जिस पर हमें गर्व है।
सरहपा और उनके शिष्य
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सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों
की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ
(मछं दरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों
को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है । कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और
नाथमत एक ही हैं।
सिद्ध साहित्य के इतिहास में चौरासी सिद्धों का उल्लेख मिलता है । सिद्ध सरहपा
PR (सरहपाद, सरोजवज्र, राहुल भ्रद्र) से इस सम्प्रदाय की शुरुआत मानी जाती है। यह
पहले सिद्ध योगी थे। जाति से यह ब्राह्मण थे। राहुल सांकृत्यायन ने इनका
जन्मकाल 769 ई. का माना, जिससे सभी विद्वान सहमत हैं। इनके द्वारा रचित बत्तीस ग्रंथ बताए जाते हैं।
शबरपा : इनका जन्म 780 ई. में हुआ। यह क्षत्रिय थे। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। चर्यापद इनकी प्रसिद्ध
पुस्तक है ।
लइ
ु प : ये राजा धर्मपाल के राज्यकाल में कायस्थ परिवार में जन्मे थे। शबरपा ने इन्हें अपना शिष्य माना था। चौरासी
सिद्धों में इनका सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है । उड़ीसा के तत्कालीन राजा और मंत्री इनके शिष्य हो गए थे।
डोम्भिया : मगध के क्षत्रिय वंश में जन्मे डोम्भिया ने विरूपा से दीक्षा ग्रहण की थी। इनका जन्मकाल 840 ई. रहा।
इनके द्वारा इक्कीस ग्रंथों की रचना की गई, जिनमें 'डोम्बि-गीतिका', योगाचार्य और अक्षरद्विकोपदे श प्रमुख हैं।
कण्हपा : इनका जन्म ब्राह्मण वंश में 820 ई. में हुआ था। यह कर्नाटक के थे, लेकिन बिहार के सोमपुरी स्थान पर
रहते थे। जालंधरपा को इन्होंने अपना गुरु बनाया था। इनके लिखे चौहत्तर ग्रंथ बताए जाते हैं। यह पौराणिक रूढि़यों
और उनमें फैले भ्रमों के खिलाफ थे।
कुक्कुरिपा : कपिलवस्तु के ब्राह्मण कुल में इनका जन्म हुआ। चर्पटीया इनके गरु
ु थे। इनके द्वारा रचित 16 ग्रंथ
माने गए हैं।
पातंजलि का योगसत्र
ू
भारत की अमूल्य धरोहर
योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है -योगसूत्र। योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था।
इसे योग पर लिखी पहली सुव्यवस्थित लिखित कृति मानते है ।
इस पुस्तक में 195 सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित है । पातंजलि ने इस ग्रंथ
में भारत में अनंत काल से प्रचलित तपस्या और ध्यान-क्रियाओं का एक स्थान
पर संकलन किया और उसका तर्क सम्मत सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत किया। यही
ND
संपूर्ण धर्म का सुव्यवस्थित केटे ग्राइजेशन है ।
इस ग्रंथ के चार अध्याय है- (1) समाधिपाद (2) साधनापाद (3) विभति
ू पाद (4) कैवल्यपाद।
(1)समाधिपाद : योगसत्र
ू के प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में पातंजली ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी है -
'योगश्चितवत्ति
ृ र्निरोध'- अर्थात चित्त की वत्ति
ृ यों का निरोध करना ही योग है । मन में उठने वाली विचारों और
भावों की श्रंख
ृ ला को चित्तवत्ति
ृ अथवा विचार-शक्ति कहते है । अभ्यास द्वारा इस श्रंख
ृ ला को रोकना ही योग
कहलाता है । इस अध्याय में समाधि के रूप और भेदों, चित्त तथा उसकी वत्ति
ृ यों का वर्णन है ।
(2)साधनापाद : योगसूत्र के दस
ू रे अध्याय- 'साधनापाद' में योग के व्यावहारिक पक्ष को रखा है । इसमें
अविद्यादि पाँच क्लेशों को सभी दख
ु ों का कारण मानते हुए इसमें द:ु ख शमन के विभिन्न उपाय बताए गए है ।
योग के आठ अंगों और साधना विधि का अनुशासन बताया गया है ।
(4) कैवल्यपाद : योगसूत्र के चतुर्थ अध्याय 'कैवल्यपाद' में समाधि के प्रकार और वर्णन को बताया गया है ।
अध्याय में कैवल्य प्राप्त करने योग्य चित्त का स्वरूप बताया गया है साथ ही कैवल्य अवस्था कैसी होती है
इसका भी जिक्र किया गया है । यहीं पर योग सूत्र की समाप्ति होती है ।
अंतत: : पांतजलि ने ग्रंथ में किसी भी प्रकार से अतिरिक्त शब्दों का इस्लेमाल नहीं किया और ना ही उन्होंने
किसी एक ही वाक्य को अनावश्यक विस्तार दिया। जो बात दो शब्द में कही जा सकती है उसे चार में नहीं कहा।
यही उनके ग्रंथ की विशेषता है ।
कर्मों में कुशलता है योग-कृष्ण
'तस्माद्योगाय यज्
ु यस्व योग: कर्मसु कौशलम ्'-गी. 2-50 अर्थात इससे समत्वबद्धि
ु योग के लिए ही चेष्टा करो,
यह समत्वबुद्धि-रूप योग ही कर्मों में चतुरता है । अर्थात कर्मो में कुशलता को ही योग कहते है । सुकर्म, अकर्म
और विकर्म- तीन तरह के कर्मों की योग और गीता में विवेचना की गई है ।
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मौन समर्थक कहा जाता है । सुकर्म और विकर्म का अस्तित्व होता है परन्तु अकर्म का नहीं।
कर्म में कुशलता : कर्मवान अपने कर्म को कुशलता से करता है । कर्म में कुशलता आती है कार्य की योजना से।
योजना बनाना ही योग है । योजना बनाते समय कामनाओं का संकल्प त्यागकर विचार करें । तब कर्म को सही
दिशा मिलेगी। कामनाओं का संकल्प त्याग का अर्थ है ऐसी इच्छाएँ न रखे जो केवल स्वयं के सुख, सुविधाओं
और हितों के लिए हैं। अत: स्वयं को निमित्त जान कर्म करो जिससे कर्म का बंधन और गुमान नहीं रहता।
निमित्त का अर्थ उस एक परमात्मा द्वारा कराया गया कर्म जानो।- भ.गी. 5-8,9
समत्व बुद्धि : जिस मनुष्य का जीवन योगयुक्त है , उसे जीवन चलाने के कर्म बंधन में बाँधने वाले नहीं होते।
जैसे कमल किचड़ में रहकर भी कमल ही रहता है । युक्त और अयुक्त का अर्थ योगयुक्त और योगअयुक्त से है
अर्थात योग है समत्व बद्धि
ु । समत्वं योग उच्यते-भ.गी.6-7,8। 5-8,9।
समत्व बुद्धि से तात्पर्य सोच-विचार कर किए गए कर्म को योगयुक्त कर्म कहते है । समत्व बुद्धि से अर्थ सुख-दख
ु ,
विजय-पराजय, हर्ष-शोक, मान-अपमान इत्यादि द्वन्द्वों में विचलित हुए बगैर एक समान शांत चित्त रहे - वही
कर्मयोगी कहलाता है ।
कर्म का महत्व : गीता में कर्म योग का बहुत महत्व है । कर्म बंधन से मक्
ु त का साधन योग बताता है । कर्मों से
मक्ति
ु नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मक्ति
ु ही योग है । कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते है उससे जो
शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से आवश्यक है । जहाँ तक अच्छा प्रभाव पड़ता है वहाँ तक
सही है किं तु योगी सभी तरह के प्रभाव बंधन से मुक्ति चाहता है । यह म
ुक्ति ही स्थितिप्रज्ञ योग है । अर्थात ्
अविचलित बुद्धि और शरीर। भय और चिंता से योगी न तो भयभित होता है और न ही उस पर वातावरण का कोई
असर होता है ।
स्थितप्रज्ञ : जैसे जहाज को चलाने वाले के पास ठीक दिशा बताने वाला कम्पास या यंत्र होना चाहिए उसी तरह
श्रेष्ठ जीवन जीने के तथा मोक्ष के अभिलाषी व्यक्ति के पास 'योग' होना चाहिए। योग नहीं तो जीवन दिशाहीन
है । यही बात कृष्ण ने गीता में स्थितप्रज्ञ के विषय में कही है । बुद्धि को निर्मल और तीव्र करने के लिए योग ही
एक मात्र साधन है । योग स्थित व्यक्ति साधारण मनष्ु यों से विलक्षण दे खने लगता है ।
विलक्षण समन्वय : गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति का विलक्षण समन्वय हुआ है । ज्ञानमार्ग या ज्ञान योग को
ध्यान योग भी कहा जाता है जो कि योग का ही एक अंग है । भक्ति मार्ग या भक्तियोग भी आष्टांग योग के
नियम का पाँचवाँ अंग ईश्वर प्राणिधान है । इस तरह कृष्ण ने गीता में योग को तीन अंगों में सिमेट कर उस पर
परिस्थिति अनुसार संक्षित विवेचन किया है ।
व्यायाम मात्र नहीं : बिना ज्ञान के योग शरीर और मन का व्यायाम मात्र है । ज्ञान प्राप्त होता है यम और नियम
के पालन और अनश
ु ासन से। यम और नियम के पालन या अनश
ु ासन के बगैर भक्ति जाग्रत नहीं होती। तब
योग और गीता कहते है कि कर्म करो, चेष्ठा करो, संकल्प करो, अभ्यास करो, जिससे की ज्ञान और भक्ति का
जागरण हो। अभ्यास से धीरे -धीरे आगे बढ़ों। कर्म में कुशलता ही योग है । कर्म से शरीर और मन को साधा जा
सकता है और कर्म से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है इसलिए जबरदस्त कर्म करो।
जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है , वैसे ही योगी का चित्त स्थिर रहता है ।-6-19 - योगेश्वर
श्रीकृष्ण
अतत: : योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने योग की शिक्षा और दिक्षा उज्जैन स्थित महर्षि सांदिपनी के आश्रम में रह
कर हासिल की थी। वह योग में पारगत थे तथा योग द्वारा जो भी सिद्धियाँ स्वत: की प्राप्य थी उन सबसे वह
मुक्त थे। सिद्धियों से पार भी जगत है वह उस जगत की चर्चा गीता में करते है । गीता मानती है कि चमत्कार
धर्म नहीं है ।
बहुत से योगी योग बल द्वारा जो चमत्कार बताते है योग में वह सभी वर्जित है । सिद्धियों का उपयोग प्रदर्शन के
लिए नहीं अपितु समाधि के मार्ग में आ रही बाधा को हटाने के लिए है ।
नेती क्रिया फॉर द ब्रेन
WD
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योग में बहुत सारी क्रियाओं का उल्लेख मिलता है । आसन, प्राणायाम के बाद क्रियाओं को भी करना
सीखना चाहिए। क्रियाएँ करना बहुत कठिन माना जाता है , लेकिन क्रियाओं से तुरंत ही लाभ मिलता
है । योग में प्रमख
ु त: छह क्रियाएँ होती है :-1.त्राटक 2.नेती. 3.कपालभाती 4. धौती 5.बस्ती 6.नौली। यहाँ
प्रस्तुत है नेती के बारे में जानकारी।
2.जल नेती : दोनों नासिका से बहुत ही धीरे -धीरे पानी पीएँ। गिलास की अपेक्षा यदि नलीदार बर्तन
होतो नाक से पानी पीने में आसानी होगी। यदि नहीं होतो पहले एक ग्लास पानी भर लें फिर झक ु कर
नाक को पानी में डुबाएँ और धीरे -धीरे पानी अंदर जाने दें । नाक से पानी को खींचना नहीं है । ऐसा
करने से आपको कुछ परे शानी का अनुभव होगी। गले की सफाई हो जाने के बाद आप नाक से पानी
पी सकते हैं।
सावधानी : सूत को नाक में डालने से पहले गरम पानी में उबाल लिया जाता है जिससे किसी प्रकार
के जीवाणु नहीं रहते। नाक, गले, कान, दाँत, मँह
ु या दिमाग में किसी भी प्रकार की समस्या होतो नेती
क्रिया योगाचार्य के मार्गदर्शन में करना चाहिए। इसे करने के बाद कपालभाती कर लेना चाहिए।
लाभ : इस क्रिया को करने से दिमाग का भारीपन हट जाता है , जिससे दिमाग शांत, हल्का और
सेहतमंद बना रहता है । इस क्रिया के अभ्यास से नासिका मार्ग की सफाई होती ही है साथ ही कान,
नाक, दाँत, गले आदि के कोई रोग नहीं हो पाते और आँख की दृष्टि भी तेज होती है। इसे करते रहने
से सर्दी, जुकाम और खाँसी की शिकायत नहीं रहती।
थायराइड के रोग और योग
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व्यक्तिगत जीवन की चिंताएँ जैसे बच्चों का भविष्य, महँगाई में जीवन जीना, आतंकवाद, आपसी परिवार में संबंध
आदि अनेक बातें व्यक्ति को चिंताओं से घेरे हुए हैं। ये तो हो गए वयस्कों की चिंता के विषय, परं तु किशोरों की भी
चिंताएँ हैं जैसे उनको माताओं से डर है कि कभी डायरियाँ, कॉपियाँ, एसएमएस न पढ़ लें।
किशोरियों को वजन बढ़ने की चिंताएँ, किशोर मित्र (ब्यॉयफ्रेंड) बनाए रखने की चिंताएँ, सौंदर्य निखारने के लिए
साधनों की प्राप्ति की चिंताएँ आदि चिंताएँ आत्मिक शक्ति को कम करती हैं। आजकल हम सभी लोग सुरक्षा के प्रति
चिंतित हैं।
एक बड़ी आबादी काम-धंधे के उतार-चढ़ाव को लेकर चिंतित है । ब़ड़ी आयु के लोग आने वाले बढ़
ु ापे से चिंतित हैं। कई
लोग स्वास्थ्य और भविष्य के प्रति चिंतित हैं। ये सब लोग मानसिक स्तर पर चिंतित हैं तो कुछ इनके विपरीत
मिलाजुला वर्ग है , जो आलस्यप्रेमी है ।
शारीरिक परिश्रम के प्रति केवल आधा-एक घंटा योग व जिम करने के बाद संपूर्ण दिन आराम और आलस्य की भें ट
चढ़ जाता है । ऊँचे तकिए लगाकर सोने या टीवी दे खने, किताब पढ़ने से भी पीनियल और पिट्यट
ू री ग्रंथियों के कार्य
पर विपरीत प्रभाव पड़ता है , जो थायराइड पर परोक्ष रूप से दिखाई दे ता है। इन स्थितियों में हाइपोथायराइड रोग होने
की आशंका है।
हाइपोथायराइड के लक्षणों में अनावश्यक वजन बढ़ना, आवाज भारी होना, थकान, अधिक नींद आना, गर्दन का दर्द,
सिरदर्द, पेट का अफारा, भूख कम हो जाना, बच्चों में ऊँचाई की जगह चौड़ाई बढ़ना, चेहरे और आँखों पर सूजन रहना,
ठं ड का अधिक अनुभव करना, सूखी त्वचा, कब्जियत, जोड़ों में दर्द आदि लक्षणों को व्यक्ति तब अनुभव करता है ,
जब उसकी थायराइड ग्रंथि का थायरोक्सीन संप्रेरक (हार्मोन) कम बनने लगता है। यह समस्या स्त्री-पुरुषों में एक
समान आती है , परं तु महिलाओं में अधिक पाई जाती है । इसका कोलेस्ट्रॉल, मासिक रक्तस्राव, हृदय की धड़कन आदि
पर भी प्रभाव पड़ता है।
थाइराडड की दस
ू री समस्या है हायपरथायराइड अर्थात थायराइड ग्रंथि के अधिक कार्य
करने की प्रवत्ति
ृ । यह जीवन के लिए अधिक खतरनाक होती है । थायराइड ग्रंथि की
अधिक संप्रेरक (हर्मोन) निर्माण करने की स्थिति से चयापचय (बीएमआर) बढ़ने से
भख
ू लगती है । व्यक्ति भोजन भी भरपरू करता है फिर भी वजन घटता ही जाता है।
व्यक्ति का भावनात्मक या मानसिक तनाव ही प्रमुख कारण होता है ।
ND
कोलेष्ट्रॉल की मात्र रक्त में कम हो जाती है । हृदय की धड़कनें बढ़कर एकांत में सुनाई
पड़ती है। पसीना अधिक आना, आँखों का चौड़ापन, गहराई बढ़ना, नाड़ी स्पंदन 70 से 140 तक बढ़ जाता है।
थायराइड ग्रंथि के साथ ही पैराथायराइड ग्रंथि होती है। यह थायराइड के पास उससे आकार में छोटी और सटी होती है
और इसकी सक्रियता से दाँतों और हड्डियों को बनाने में मदद मिलती है। भोजन में कैल्शियम और विटामिन डी का
उपयोग करने में यह ग्रंथि अपना सहयोग दे ती है। इसके द्वारा प्रदत्त संप्रेरक की कमी से रक्त के कैल्शियम बढ़कर
गुर्दों में जमा होने की आशंका होती है।
माँसपेशियों में कमजोरी आने लगती है , हड्डियाँ सिकुड़कर व्यक्ति की ऊँचाई कम होकर कूबड़ निकलता है । कम आगे
की ओर झुक जाती है । इन सभी समस्याओं से बचने के लिए नियमित रक्त परीक्षण करने के साथ रोगी को सोते
समय शवासन का प्रयोग करते हुए तकिए का उपयोग नहीं करना चाहिए। उसी प्रकार सोते-सोते टीवी दे खने या
किताब पढ़ने से बचना चाहिए। भोजन में हरी सब्जियों का भरपूर प्रयोग करें और आयोडीनयक्
ु त नमक का प्रयोग
भोजन में करें ।
अगले पेज पर रोग के निदान हेतु आसन...
थायराइड के रोग और योग
नाड़ीशोधन प्राणायाम : कमर-गर्दन सीधी रखकर एक नाक से धीरे -धीरे लंबी गहरी श्वास लेकर दस
ू रे स्वर से निकालें,
फिर उसी स्वर से श्वास लेकर दस
ू री नाक से छोड़ें। 10 बार यह प्रक्रिया करें ।
ध्यान : आँखें बंद कर मन को सामान्य श्वास-प्रश्वास पर ध्यान करते हुए मन में श्वास भीतर आने पर 'सो' और श्वास
बाहर निकालते समय 'हम' का विचार 5 से 10 मिनट करें ।
ब्रह्ममद्र
ु ा : वज्रासन में या कमर सीधी रखकर बैठें और गर्दन को 10 बार ऊपर-नीचे चलाएँ। दाएँ-बाएँ 10 बार चलाएँ
और 10 बार सीधे-उल्टे घुमाएँ।
मांजरासन : चौपाये की तरह होकर गर्दन, कमर ऊपर-नीचे 10 बार चलाना चाहिए।
उष्ट्रासन : घट
ु नों पर खड़े होकर पीछे झक
ु ते हुए एड़ियों को दोनों हाथों से पकड़कर गर्दन पीछे झक
ु ाएँ और पेट को आगे
की तरफ उठाएँ। 10-15 श्वास-प्रश्वास करें ।
शशकासन : वज्रासन में बैठकर सामने झुककर 10-15 बार श्वास -प्रश्वास करें ।
सर्वांगासन : पीठ के बल लेटकर हाथों की मदद से पैर उठाते हुए शरीर को काँधों पर रोकें। 10-15 श्वास-प्रश्वास करें ।
भज
ु ंगासन : पीठ के बल लेटकर हथेलियाँ कंधों के नीचे जमाकर नाभि तक उठाकर 10- 15 श्वास-प्रश्वास करें ।
धनुरासन : पेट के बल लेटकर दोनों टखनों को पकड़कर गर्दन, सिर, छाती और घुटनों को ऊपर उठाकर 10-15 श्वास-
प्रश्वास करें ।
शवासन : पीठ के बल लेटकर, शरीर ढीला छोड़कर 10-15 श्वास-प्रश्वास लंबी-गहरी श्वास लेकर छोड़ें तथा 30
साधारण श्वास करें और आँखें बंद रखें ।
नाड़ी शोधन प्राणायाम
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ी
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श
त
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य
ु
'
नाड़ियों की शुद्धि और मजबूती से अन्य अंगों में स्वत: ही शुद्धि और मजबूती का संचार होता है। प्रदषि
ू त वातावरण के
चलते वर्तमान में प्राणायाम का अभ्यास हमारे प्राणों के लिए आवश्यक है ।
प्राणायम की शुरुआत आप नाड़ी शोधन प्राणायाम से कर सकते हैं। यह बहुत सरल है। आप इसका अभ्यास
प्रभातकाल में करें । संध्यावंदन के समय भी आप इसका अभ्यास कर सकते हैं। गॉर्डन या घर के शद्ध
ु वातावरण में ही
इसका अभ्यास करें ।
विधि : किसी भी सुखासन में बैठकर कमर को सीधा करें और आँखें बंद कर लें। दाएँ
हाथ के अँगठ
ू े से दायीं नासिका बंद कर पूरी श्वास बाहर निकालें। अब बायीं नासिका
से श्वास को भरें , तीसरी अँगल
ु ी से बायीं नासिका को भी बंद कर आंतरिक कंु भक
करें । जितनी दे र स्वाभाविक स्थिति में रोक सकते हैं, रोकें। फिर दायाँ अँगठ
ू ा हटाकर
श्वास को धीरे -धीरे बाहर छोड़ें (रे चक करें )। 1-2 क्षण बाह्य कंु भक करें । फिर दायीं
नासिका से गर्दन उठाकर श्वास को रोकें, फिर बायीं से धीरे से निकाल दें ।
IFM यह एक आवत्ति ृ हुई। इसे 5 से 7 बार करें । शुरू में 1:1:1 और 1:2:2 का अनुपात रखें ।
धीरे -धीरे आंतरिक कंु भक के अभ्यास को बढ़ाएँ। फिर 1:4:2 के अनुपात में करें ।
इसके लाभ : इससे सभी प्रकार की नाडि़यों को स्वस्थ लाभ मिलता है साथ ही नेत्र ज्योति बढ़ती है और रक्त संचालन
सही रहता है। अनिद्रा रोग में लाभ मिलता है।
दाँतों का दर्द दरू करे प्राणायाम
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010( 17:00 IST )
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सुंदर, स्वस्थ और चमकिले दाँतों से चेहरे की सुंदरता बढ़ जाती है , लेकिन यदि दाँत खराब हो तो हँसते वक्त
उन्हें छिपाने का प्रायास करते हुए हमें अक्सर लोगों को दे खा हैं। दाँत यदि खराब है या नहीं है फिर भी उनमें दर्द
तो होता ही रहता है ।
शरीर के मख्
ु य अंगों में दाँत भी शामिल है । दाँतों से खन
ू निकलना, पायरिया के साथ ही दाँतों में दर्द जैसी
शिकायतों को योग के जरिए ठीक किया जा सकता है । सीतकारी प्राणायाम व कुछ घरे लू नुस्खों को अपनाकर
इस तकलीफ को कम किया जा सकता है ।
सीतकारी प्राणायाम :
* प्राणायाम के लिए पहले ध्यान मुद्रा में बैठ जाएँ। अब दाँतों को दबाकर साँस भर लें।
* साँस भरने के बाद नाक से धीरे -धीरे साँस छोड़ें।
* ऐसा तीन से पाँच बार नियमित करें ।
* इसके साथ ही पालथी मारकर बैठ जाएँ। दोनों हाथ बाजू में रख लें। अब दसों उँ गलियों के प्वाइंट प्रेस करें ।
* इन दोनों प्राणायाम से नियमित अभ्यास से दाँतों में होने वाली अन्य तकलीफों से निजात पाई जा सकती है ।
ये उपाय अपनाएँ :
* कुछ भी खाने के तुरंत बाद कूल्ला करके मँह
ु धोएँ। ऐसा करने से दाँतों में जमे खाने के कीटाणु नष्ट हो जाएँगे।
* रोजाना सरसों तेल व नमक मिलाकर मसूड़ों का मसाज करें ।
युवाओं में बढ़ता नजर का चश्मा
ND
आँखों के प्रति सभी लापरवाह होते हैं, जब अंधे होने लगते हैं तभी समझ में आता है कि आँखें हैं तो संसार है ।
आज के आधनि
ु क यग
ु में प्रदष
ू ण, खान-पान, विटामिन 'ए' की कमी, टीवी, फिल्म, इंटरनेट और कंप्यट
ू र आदि
के अत्यधिक प्रचलन के कारण आँखों पर दबाव बढ़ गया है । इसी के चलते युवाओं में नेत्र रोग बढ़ता जा रहा है ।
प्रदष
ू ण से जहाँ आँखों में जलन, दर्द, घाव और चिपचिपापन बढ़ गया है , वहीं टीवी, फिल्म, कम्प्यट
ू र से उसकी
दरू या पास दे खने की क्षमता पर भी असर पड़ा है । अब अच्छी, बड़ी और साफ-सुथरी आँखें कम ही नजर आती
हैं। महिलाएँ या लड़कियों की आँखें तो आर्टिफिशियल हो चली हैं। उनका स्वाभाविक रूप भी कम ही नजर आता
है । आओ जानते हैं कि आँखों की दे खभाल के लिए योग आपकी क्या मदद कर सकता है ।
आई केयर : झक
ु कर, लेटकर, कम प्रकाश या ज्यादा प्रकाश तथा आँखों पर दबाव डालकर पढ़ना-लिखना छोड़
दें । पढ़ते या लिखते वक्त प्रकाश बायीं ओर या पीछे से आना चाहिए। नजला, जुकाम, धूल, धुएँ आदि से बचें। दे र
रात तक जगना, अत्यधिक टीवी दे खना बंद करें । कम्प्यूटर पर काम करते वक्त निश्चित दरू ी बनाएँ रखें।
अक्षरों को बड़ा करके पढ़ें । पलकें झपकाते रहें और हर पाँच मिनट बाद दरू तक दे खें। आँखों में धल
ू का कण पड़
जाए तो उसे मसलें नहीं। ऐसी स्थिति में कुछ कदम पीछे चलते हुए आँखों को झपकाते जाएँ। या फिर आँखों की
पलकों को पकड़कर धीरे से बाहर की ओर खींचें। तब खलु ी आँखों पर पानी के छींटे मारते हुए आँखों को अच्छे से
धोएँ।
अन्य उपाय : आँखों को हलके नमक के पानी या त्रिफला से धोएँ। कान में तेल, नाक में शुद्ध घी और आँखों में
शहद की दो बँद
ू कभी-कभी डालने से आँखें स्वस्थ रहती हैं, लेकिन ऐसा आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह
अनुसार ही करें । प्रतिदिन पाँच से दस मिनट का ध्यान करे जो आपकी आँखों से तनाव को हटा दे गा।
योगा पैकेज : प्राणायम में अनुलोम-विलोम, योगासनों में आँखों का व्यायाम, उष्ट्रासन, हलासन, ब्रह्ममुद्रा,
सर्वांगासन, शीर्षासन और अर्ध मत्स्येंद्रासन करें । इसके अलावा सूत्र और जल नेति का अभ्यास भी आँखों के
लिए लाभदायक होता है ।
पद्मासन : योगा फॉर मेमोरी
मन को एकाग्र करे पद्मासन
ND
सुख का अनुभव तभी किया जा सकता है , जब आप पूरी तरह स्वस्थ और तनाव रहित हों। पद्मासन
आपका तनाव दरू कर मन को एकाग्र करने में मदद कर सकता है ।
विधि
जमीन पर बैठकर बाएँ पैर की ए़ड़ी को दाईं जँघा पर इस प्रकार रखें कि एड़ी नाभि के पास आ जाए।
इसके बाद दाएँ पैर को उठाकर बाईं जँघा पर इस प्रकार रखें कि दोनों एड़ियाँ नाभि के पास आकर
मिल जाएँ।
मेरुदं ड सहित कमर के ऊपरी भाग को पूरी तरह सीधा रखें। ध्यान रहे कि दोनों घुटने जमीन से ऊपर
न उठें । इसके बाद दोनों हाथों की हथेलियों को गोद में रखते हुए स्थिर रहें । इसको पन
ु ः पाँव बदलकर
भी करना चाहिए। इसके बाद नाक के अगले भाग पर दृष्टि को स्थिर कर शांत बैठ जाएँ।
सावधानी
यह आसन ध्यान में बैठने वाले आसनों में से एक है । इसलिए इसमें मेरुदं ड, कटिभाग और सिर को
सीधा रखा जाता है । आसन करते समय आँखों को बंद कर लेना चाहिए, क्योंकि ज्यादा समय तक
आँखें खुली रखने पर उनकी तरलता नष्ट होने का डर रहता है ।
लाभ
यह आसन पैरों की वात आदि की तकलीफों को दरू करता है । टाँगों की संधियों और
उससे संबंधित नस-नाड़ियों को लचीला और स्फूर्तियुक्त बनाता है । इस आसन को करने
से बुद्घि सात्विक होती है । मन में स्थिरता आती है । स्मरण शक्ति एवं विचार शक्ति
बढ़ती है ।
योग दिलाए कमर दर्द से छुटकारा
इतना ही नहीं, कमर दर्द का योग द्वारा उपचार के वैज्ञानिक प्रशिक्षण के लिए योग
प्रशिक्षकों की एक टीम ने बारह हफ्तों का एक प्रशिक्षण कोर्स प्रारं भ किया है।
इस शोध का नेतत्ृ व यॉर्क क्लीनिकल ट्रायल्स यूनिट विश्वविद्यालय के निर्देशक डेविड टोर्गेरसन करें गे। प्रोफेसर
टोर्गेरसन के अनस
ु ार हाल ही में हुई छोटी-सी शोध ने इस तथ्य का दावा किया है , जिसके आधार पर इस शोध को
संचालित किया जाएगा।
आर्थराइटिस रिसर्च अभियान द्वारा प्रोत्साहित यह प्रोजेक्ट इस साल के नवंबर माह से प्रारं भ होगा।