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SAC के पेपर

“इस्कॉन में
ब्रह्म-गायत्री-मं त्र”
को प्रारं भिक जवाब
द्वारा,
श्यामसंदर दास (ACBSP),
ज्योभिषी
Shyamasundara1976@gmail.com

शास्त्रचक्ुः पररषि्
की ओर से
Copyright © 2024
सारोद्धार

कृष्ण की वैदिक सभ्यता में , उपनयन -- पदवत्र उपवीत और


ब्रह्म-गायत्री मन्त्र में िीक्षा -- दवशेष रूप से योग्य पु रुषोों को
प्रिान दकया जाता है ; दजसमें से मदहलाओों और शूद्ोों को बाहर
रखा जाता है । शुरुआती दिनोों में , श्रील प्रभुपाि ने कुछ नाराज
मदहला दशष्ोों को, दजन्ोोंने दितीय िीक्षा नही ों दमलने पर दवद्ोह
दकया था, उनको शाों त करने के दलए, अपनी महला दशष्ओों
को ब्रह्म-गायत्री िे ने की प्रथा शुरु की थी लेदकन उन्ें पदवत्र
उपवीत दिये दबना, दजसका अथथ था दक वे वास्तदवक ब्राह्मण
नही ों थी । जैसे-जैसे समय बीतता गया और वररष्ठ भक्ोों को
कृष्ण की वैदिक सोंस्कृदत के बारे में गहरा ज्ञान प्राप्त हुआ, उन्ें
एहसास हुआ दक क्या हुआ था। कुछ लोग जो अब तक िीक्षा
िे ने वाले गुरु बन गए थे , वे कृष्ण के मूल दसद्धन्ोों पर लौट आए
और िू सरी िीक्षा के समय अपनी मदहला दशष्ोों को ब्रह्म-गायत्री
िे ना बोंि कर दिया । वे पुरुष दशष्ोों के साथ भी अदिक कठोर
हो गए -- इसे केवल ब्राह्मण प्रवृदि वाले दशष्ोों के दलए ही
आरदक्षत कर दिया। इस बिलाव ने उन लोगोों को चुनौदत िी जो
इस्कॉन में स्त्री-िीक्षा-गुरु और अन्य नारी-स्वतन्त्रवािी मामलोों
को आगे बढ़ाने में रत हैं । नतीजतन, जीबीसी ने इस मामले पर
मागथिशथन के दलए शास्त्रीय सलाहकार सदमदत (SAC) से सोंपकथ
दकया और SAC ने मदहलाओों और अयोग्य पुरुषोों को ब्रह्म-
गायत्री प्रिान करने की मोंजूरी िे ने के दलए अप्रदसद्धाों दतक और
िमथ दवरुद्ध तकथ प्रिान दकए।

1
यह दनबोंि SAC के पेपर की प्रारम्भिक प्रदतदिया या जवाब के
रूप में प्रकादशत है । यहााँ , हम इस बात पर प्रकाश डालते हैं
दक SAC ने सोंशय समािान कर वास्तदवक अथथ को समझने की
कृष्ण की मूल पद्धदत -- मीमाों सा -- की उपेक्षा करते हुए सोंशय
समािान की अपनी नयी मनगढ़ों त पद्धदत बनाई (जो पूवथ
दनिाथ ररत पररणाम िे ती है ) । हम गु रु के कायों की व्याख्या करते
समय उनके " मनोऽभिष्टम ् " (मन की इच्छा) को समझने के
महत्व पर जोर िे ते हैं , दजसका मूल अोंततः शास्त्र में हैं । SAC
हमारी िीक्षा प्रदिया को समझने में गलती करती है । चूाँदक ब्रह्म-
गायत्री हमारे िीक्षा प्रोटोकॉल का दहस्सा है , इसदलए हमें पहले
यह समझना होगा दक हमारी िीक्षा प्रणाली कैसे काम करती
है । इस प्रकार हम अपने सों प्रिाय में िीक्षा के ढाों चे का दवश्लेषण
करते हैं -- दजसमें भागवत, पाों चरादत्रक और वैदिक परों पराओों
के तत्व शादमल हैं ।

दिर हम दिखाते हैं दक SAC ने उस मूलभूत प्रश्न को


नजरअोंिाज कर दिया दजस पर सब कुछ दनभथर है -- "श्रील
भम्भक्दसद्धाों त सरस्वती ठाकुर ने उपनयन की शुरुआत क्योों की
?" और, दिखाते हैं दक इस प्रश्न का उिर दमलते ही SAC का
पूरा तकथ ध्वस्त हो जाता है । हम जीबीसी के त्रुदटपूणथ प्रस्तावोों
पर भी चचाथ करते हैं जो उन्ोोंने SAC के समीक्षा रदहत पेपर पर
आिाररत दकया था।

2
दप्रय महाराजोों, प्रभुओ,ों और माताओों,

कृपया मेरे दवनम्र प्रणाम स्वीकार करें ।

श्रील प्रभुपाि की जय ।

SAC के पेपर -- "इस्कॉन में ब्रह्म-गायत्री मोंत्र"-- पर प्रदतदिया


िे ने वाले कई भागोों में से यह पहला है । 1 इस आरम्भिक
आलोचना में , मैं उनके उस व्यापक 177 पॄष्ठ दनबोंि के दबोंिु-
िर-दबोंिु खोंडन पर ध्यान नही ों िू ाँ गा , जो एक टीम के िो साल
2
के प्रयास का उत्पाि है । शास्त्र-चक्षुः -पररषत् से वे दवस्तृत
प्रदतदियाएाँ एक के बाि एक अनुसरण करें गी। इसके बजाय ,
मैं इसके कुछ चुदनोंिा दबोंिुओों का दवश्लेषण करके इस बात पर
प्रकाश डालूाँगा दक दक दकस प्रकार सामान्य तौर पर उनकी
(SAC की) म्भिदत बहुत ही कमज़ोर है ।

1
https://archive.org/details/brahma-gayatri-sac-
complete_202401
2
उन लोगोों की एक सभा दजनकी आों खें शास्त्र हैं । [जो शास्त्रोों के माध्यम से
िे खते हैं ।]
3
प्रारम्भिक टिप्पटियााँ

शुरू करने से पहले मैं "हे मेनेयुदटक्स" शब्द के बारे में कुछ
प्रारम्भिक दटप्पदणयााँ करना चाहाँ गा दजसे SAC अपने
मागथिशथक दसद्धान् के रूप में उपयोग करता है ।
"हे मेनेयुदटक्स" मूल रूप से एक ईसाई अविारणा है जो मानव
दनदमथत अकािदमक दवषयोों के ढे र में बिल गयी है , दजसमें "क्वीर
बाइदबल हे मेनेयुदटक्स,"3 "लेम्भियन हे मेनेयुदटक्स,"4
"माक्सथवािी हे मेनेयुदटक्स,"5 "फेदमदनस्ट हे मेनेयुदटक्स,"6
"पोस्टमॉडनथ हे मेनेयुदटक्स,"7 इत्यादि जैसे दवदवि मनगढ़ों त क्षेत्र

3
https://blog.smu.edu/ot8317/queer-bible-hermeneutics-
ot8317-at-perkins-school-of-theology/

4
https://www.wjkbooks.com/Products/0334029589/when-
deborah-met-jael-lesbian-biblical-hermeneutics.aspx
5

https://academiccommons.columbia.edu/doi/10.7916/D8CJ8Q8
8
6
https://academic.oup.com/edited-volume/41623/chapter-
abstract/353456419?redirectedFrom=fulltext&login=false
7
https://publish.iupress.indiana.edu/projects/the-hermeneutics-
of-postmodernity
4
शादमल हैं ।8 यह दृढ़ता से इों दगत करता है दक अब्राह्मीक
आिाओों और नाम्भस्तक िमथदनरपेक्ष अकािदमक दशक्षा जगत
का प्रभाव SAC में घुस गया है । यह उनमें हमारे दवश्वास को
ठे स पहुाँ चाता है । SAC, जहााँ "एस" का अथथ " शास्त्र" है , वैष्णव
िशथकोों के दलए बने ले खोों में म्ले च्छ और यवन अकािमी के
शब्दोों और भाषा का उपयोग क्योों करता है ?

प्रभुपाि को बड़ा डर था दक इस्कॉन के भक् दिन ब दिन


बाहरी प्रभावोों से ज्यािा प्रभादवत होते जायेंगे -- ऐसे प्रभाव
जो हमारे सोंप्रिाय की शुद्धभम्भक् की दशक्षाओों के अनुरूप
नहीों है ।9

पूवथ दनिाथ ररत (नारीवािी) उद्दे श्य को प्राप्त करने के दलए


"हे मेनेयुदटक्स" की एक कस्टम-दनदमथत प्रणाली बनाने के दलए
SAC की पहले भी आलोचना की गई है इस पेपर में --
“शाम्भस्त्रक सलाहकार पररषि (SAC) की हे मेनेयुदटक्स प्रणाली
की आलोचना” 10

8
दजसे यवन "हमेनेयुदटक्स" कहते हैं, उसकी कई दकस्ोों की लोंबी चचाथ के
दलए िे खें https://plato.stanford.edu/entries/hermeneutics/
9
हरर सौरी िास, एक टर ान्सेंडैंटल डायरी: टर े वल्स दवि दहज दडवाइन ग्रेस ए।
सी. भम्भक्वेिाोंत स्वामी प्रभुपाि, जून 1976 - अगस्त 1976 (अलाचुआ,
फ्लोररडा: लोटस इम्भरोंट्स, 1994), 534.
10
https://tinyurl.com/sac-critique-herm
5
कृष्ण की वैदिक सोंस्कृदत में , सोंशय दनवारण करके वास्तदवक
अथथ को समझने की (समन्वय की) एक प्रणाली पहले से ही
मौजूि है -- मीमाों सा -- दजसे कृष्ण ने बनाया है । मीमाों सा की
दवशेष म्भिदत के बारे में दनम्नदलम्भखत स्पष्टीकरण मेरे अप्रकादशत
लेख -- क्या "वैदिक ज्योदतष" शब्द एक दमथ्यानाम है ? --
इससे उि् िृत है :

कदलयुग में वैदिक अध्ययन की सभी आवश्यकताओों को


पूरा करने के दलए, न्याय (एक तकथ प्रणाली जो वैदिक
अदिकार को मान्यता िे ती है) और मीमाोंसा जैसे दवशेष
दवषयोों का उपयोग दकया जाता था वेिोों के अथथ को समझने
के दलए । केन -उपदनषि् (4.8) का िावा है दक सोंपूणथ ज्ञान
के दलए तीन तत्वोों की आवश्यकता होती है: वेि, वेिाोंग और
सत्य । जबदक िू सरे अनुवािक "सत्य" शब्द का अनुवाि
"सत्य" ही कर िे ते है , श्रीपाि मध्वाचायथ , अपनी दटप्पणी
में,11 िादपत करते हैं दक "सत्य" शब्द यहााँ मीमाोंसा को
सोंिदभथत करता है ; इसे िादपत करने के दलये वे शब्द दनणथय
नामक ग्रन्थ का उल्लेख करते हैं । इस प्रकार, स्वयों वेि
के अनुसार (केन उपदनषि् के अनुसार) मीमाोंसा और वेिाोंग
िोनोों ही वेि को समझने के दलए अदत महत्वपूणथ हैं । वैदिक

11
श्रीश चोंद् वसु, उपदनषि, मािवाचायथ की दटप्पदणयोों के साथ, भाग 1, ईश,
केना, कठ, प्रश्न, मुोंडक, और माण्डु क्य, अनुवाि. श्रीश चोंद् वसु (इलाहाबाि:
पादणदन कायाथलय, 1909). या,
https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/kena-upanishad-
madhva-commentary/d/doc486104.html
6
ग्रोंथोों को समझने में , समन्वय12 प्राप्त करने के दलए इन तीनोों
घटकोों का उपयोग दकया जाना अदनवायथ है -- और इस
प्रकार ही वास्तव में वैदिक ज्ञान को समझना चादहए। यह
दिखाता है दक वेि, वेिाोंग और न्याय-मीमाोंसा ग्रन्थ हमेशा
से साथ में ही मौजूि हैं ।

जब जैदमनी ऋदष िारा मीमाोंसा को वेिोों के कमथ -खोंड पर


लागू दकया गया तो इसे पूवथ मीमाोंसा या कमथ मीमाोंसा कहा
गया और इसका उपयोग वेिोों के ब्राह्मण खोंड में वदणथत यज्ञोों
को ठीक से समझने के दलए दकया जाता है। और जब
व्यासिे व िारा मीमाोंसा को वेिोों के ज्ञान-खोंड (अरण्यकोों
और उपदनषिोों) पर लागू दकया गया तो इसे उिर मीमाोंसा
या वेिाोंत सूत्र के रूप में जाना गया । दवशेष रूप से ,
मीमाोंसा के दसद्धाोंत िमथशास्त्र सदहत दवदभन्न दवषयोों पर लागू
होते हैं, दजसका उिाहरण याज्ञवल्क्य स्ृदत पर दवज्ञानेश्वर
की दमताक्षरा दटप्पणी से दमलता है ।

फदलत ज्योदतष सदहत अन्य दवदशष्ट दवषय वेिाोंगोों का दहस्सा


थे । इस प्रकार, जैसा दक हम िे खेंगे, ज्योदतष में खगोल
दवज्ञान और फदलत ज्योदतष िोनोों शादमल थे क्योोंदक
ज्योदतष, "वेि की आाँ ख " के रूप में , अतीत, वतथमान और
भदवष् को िे खने के दलए था।

हमें इस बात पर ध्यान िे ना चादहये दक यद्यदप न्याय,


मीमाोंसा, और व्याकरण जैसे दवषय वेि सोंदहताओों में सीिे

12
सोंस्कृत में "समन्वय" शब्द दवरोिाभासोों को सुलझाने और सुसोंगतता और
एकवाक्यता बनाने के दलए दवदभन्न तत्वोों या दवचारोों को एक साथ लाने या
समन्वदयत करने के कायथ का प्रतीक है। इसका अथथ एक सामान्य लक्ष्य या
उद्दे श्य के प्रदत दवदभन्न पहलुओों की म्भिरता या सोंरेखण भी हो सकता है ।
7
बताएाँ या दवस्तार से समझाएाँ नहीों गये तथादप उन्ें वैदिक
ही समझा जाता है क्योोंदक उनके दबना वेिोों को नहीों समझा
जा सकता । इस प्रकार न्याय और मीमाोंसा जैसे दवषयोों को
वेिोों और वेिाोंगोों के साथ वैदिक दवद्याओों के रूप में दगना
जाता है ।13 ठीक इसी प्रकार, ज्योदतष (काल दवद्या) समय
का दवज्ञान, भी वेिोों को समझने के दलए आवश्यक था
क्योोंदक काल अथाथत् टाइम फैक्टर भगवान की ऊजाथओों में
से एक है ,14 जैसा दक हमने पहले िे खा। काल शब्द का
तात्पयथ केवल समय के माप से कहीों अदिक है।

जब कृष्ण ने पहले से ही एक आदर्श प्रिाली (मीमाांसा)


बनाई है , तो कुछ अलग प्रिाली क्ोां उपयोग करें ? जब
तक टक कोई गुप्त उद्दे श्य न हो ।

अपने पेपर के पृष्ठ 9 पर SAC ने हमें सूदचत दकया है दक उनका


एक हे मेनेयुदटक्स सािन है , "हमें कई अलग अलग दृदष्टकोणोों
से शास्त्र को समझना चादहए।" और यद्यदप श्रील प्रभुपाि ने
जरुर से कहा था:

हमारा कृष्ण िशथन इतना शानिार है दक आप


एक ही दवचार को कई दृदष्ट कोणोों से समझा

13
मीमाोंसा, न्याय, और वेिाोंगोों का उल्लेख दवष्णु पुराण (3.6.28-29) और
ब्रह्माण्ड पुराण (1.2.35.87-89 ) में 14 (या कभी-कभी 18) दवद्याओों से
सोंबोंदित बताया गया है। और मत्स्य पुराण (3.2-4, 53.6) में कहा गया है दक
मीमाोंसा और न्याय शास्त्र वेिोों, वेिाोंगोों, और पुराणोों के साथ सीिे नारायण की
श्वास से उत्पन्न हुए हैं ।
14
उिाहरण के दलए, भगवि-गीता (11.32) और श्रीमि-भागवतम (3.26.16-
18) िे खें ।
8
सकते हैं और इस प्रकार सत्य का आनोंि ले
सकते हैं और िू सरोों को उनकी समझ बढ़ाने
में मिि कर सकते हैं। (पत्र: हयग्रीव, 18
जनवरी, 1972)

यदि ऐसा है तो दफर क्योों SAC ने 177 पन्ने का पेपर दलखने का


२-साल का कठोर पररश्रम दकया इस दृदष्टकोण का खोंडन करने
के दलये दक म्भस्त्रयोों को ब्रह्म-गायत्री नही ों दमलनी चादहये ? "कोई
भी दृदष्टकोण चलेगा लेदकन बस ये वाला नही ों ।" सीिे शब्दोों में
रखें तो SAC िारा "कई दृदष्टकोण" की चाल का उपयोग
दिखाता है दक वे स्पष्ट को नजरअोंिाज करके , जदटल अप्रत्यक्ष
तररकोों को चुन करके, सच्चाई से िू र पूवथ दनिाथ ररत पररणाम
प्राप्त करना चाहते है । यह दवशेष रूप से गोंभीर है जब SAC
िारा प्रस्तादवत "कई दृदष्टकोण/कोण" हमारे सोंिापक-आचायथ
सदहत हमारे आचायों की मानक और समय-सम्मादनत प्रथाओों
से दवचदलत होते हैं ।

SAC ने अपने "हे मेनेयुदटक्स" का उपयोग करके श्रील


भम्भक्दसद्धाों त सरस्वती ठाकुर के मनोऽभीष्ट और उद्दे श्य को
नजरअोंिाज कर दिया है । अब हम SAC के पेपर की आलोचना
शुरु करें गे।

SAC के तकों की आलोचना


..और जो शब्दोों की बाज़ीगरी में बहुत होदशयार होोंगे
दविान माने जायेंग... और जो िृष्ट है उसको सच्चा माना
जाएगा। (कदलयुग के लक्षण. श्रीमद्भागवतम् 12.2.4,6)
9
इस दवश्लेषण में , हम अपनी आलोचना को एक मु ख्य दबोंिु तक
सीदमत रखेंगे जो उनकी तकथ-श्रेणी को ध्वस्त करने के दलये
पयाथ प्त है ।। सबसे पहले , कुछ पृष्ठभूदम की जानकारी.

॥ मनोऽभीष्टम् ॥

श्रीचैतन्य मनोऽभीष्टम्

िादपतम् येन भूतले ।

स्वयों रूपः किा मह्यम्

ििादत स्व-पिाम्भन्कम् ॥

"दजनके िारा श्री चैतन्य महाप्रभु की **मन की


इच्छा** को इस भूतल पर िादपत दकया गया
है ऐसे श्रील रूप गोस्वामी कब मुझे अपने
चरणकमलोों में आश्रय िें गे ।"

गुरु की इच्छाओों को पूरा करने के दलए दशष् के दलए गुरु के


मन को समझना एक महत्वपूणथ गुण है । उिम स्तर का दशष्
गुरु के स्पष्ट दनिे श के दबना ही उनकी इच्छाओों को हृिय से ही
समझ लेता है और दियाम्भन्वत करता है । दितीय श्रेणी के दशष्
को कायथ करने से पहले गुरु की इच्छाओों पर स्पष्ट मागथिशथन
की आवश्यकता होती है । तीसरी श्रेणी का दशष् दनिे श दिए
जाने पर भी अयोग्य रहता है और गुरु की इच्छाओों को पूरा
करने में असमथथ रहता है । जहााँ तक चतुथथ श्रेणी के दशष् की

10
बात है , गुरु िारा स्पष्ट रूप से दनिे दशत दकए जाने के बाि भी
उसकी अवज्ञा बनी रहती है ; वह काम नही ों करता ।15

हम सिै व उिाहरण िे खकर ही नही ों समझ सकते। यदि कोई


प्रामादणक गुरु कुछ करता है तो उसे अोंततः शास्त्र और आचायों
(सािुओ)ों की दशक्षा के आिार पर समझा जाना चादहए। यदि
हम सीिे अपने गुरु से परामशथ करने की म्भिदत में नही ों हैं और
ऐसी म्भिदत में हमें कोई बड़ा दनणथय लेना पड़ रहा है जो हमारे
दलए अपररदचत है (या हमारे गुरु िारा उल्लेम्भखत नही ों दकया गया
) तो हमें शास्त्र से मागथिशथन लेना ही होगा। क्योों? क्योोंदक यही ों
से तो आचायों को भी मागथिशथन दमला है । 16 अन्यथा, हम ऐसे
बन जायेंगे:

गुरु और उसके मूर्श टर्ष्य


एक बार गुरु अपने दशष्ोों के साथ गोंगा स्नान के दलए गये
। पानी में उतरने से पहले गुरु ने अपना कीमती सामान
कपड़े में लपेटकर और रे त में गाड़कर सुरदक्षत कर दलया।
उस िान को दचम्भन्त करने के दलए उसने एक छोटी सी
लकड़ी जमीन में गाड़ िी। स्नान के बाि, उसने अपना

15
उिाहरण के दलए वाल्मीकी रामायण 6.1.7-9 िे खें
16
यदि कोई बात शास्त्र में वदणथत नहीों है तो हमें कृष्ण की वैदिक सोंस्कृदत में
प्रदशदक्षत ऐसे सिाचारी पुरुषोों के उिाहरण और आचरण का अनुसरण करने
के दलए दनिे दशत दकया जाता है। श्रीमि-भागवतम (11.19.17) और मनु स्ृदत
2.6 िे खें । यह दसद्धाोंत तब सबसे महत्वपूणथ होता है जब दकसी कायथ का
शास्त्रीय आिार खो जाता है या भुला दिया जाता है ।
11
सामान दनकालने का प्रयास दकया, लेदकन वह भ्रदमत हो
गया क्योोंदक निी के दकनारे अनदगनत लकदड़यााँ गड़ी हुई
थीों। उन्ोोंने अपने दशष्ोों से पूछा दक क्या हुआ। दशष्ोों ने
उिर दिया, "गुरुजी, हमने आपको रे त में लकड़ी गाड़ते हुए
िे खा, इसदलए हमने आपका अनुसरण दकया और वैसा ही
दकया।" मूखथ दशष्ोों ने गुरु के उद्दे श्य को जाने दबना नकल
करके गुरु का काम नष्ट कर दिया।

कहानी का सार: गुरु से दनकटता और उनकी गदतदवदियोों


को िे खना ही पयाथप्त नहीों है। व्यम्भक् को यह जानना चादहए
दक उसके कायों का आिार क्या है और वह ऐसा क्योों
करता है। आचायथ के कायथ का अोंदतम आिार शास्त्र है । तो
हमें शास्त्र के आिार पर समझना होगा ।

इसे प्रिदशथत करने के दलए श्रील प्रभुपाि ने बताया दक कैसे एक


बार वह मायापुर में थे जब आश्रम में एक सााँ प पाया गया था ।
श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर ने इसे मारने का आिे श
दिया। प्रभुपाि को सोंिेह था दक एक सािु दकसी प्राणी की हत्या
का आिे श क्योों िे गा और इससे उनके मन में सोंिेह रह गया।
लेदकन, बाि में जब उन्ोोंने श्रीमि-भागवतम् (7.9.14) में पढ़ा
जहााँ श्री प्रह्लाि ने कहा दक जब सााँ प या दबच्छू को मार दिया
जाता है तो सािु भी प्रसन्न होते हैं , तब श्रील प्रभुपाि ने अपने
सभी सोंिेह िू र कर दिए क्योोंदक वे समझ गए थे दक श्रील
भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर का कायथ शास्त्र पर आिाररत
था।

एक गुरु तभी गुरु होता है जब वह र्ास्त्र का पालन करता


है । एक साधु तभी साधु है जब वह र्ास्त्र का पालन करता
है । एक आचायश केवल तभी आचायश होता है जब वह र्ास्त्र
का पालन करता है । 12
सािु, शास्त्र , गुरु -- वे एक ही बात बोलेंगे ।
गुरु का अथथ है जो शास्त्र के आिार पर बोलता
है; अन्यथा वह गुरु नहीों है । (श्रीमद्भागवत
1.7.32-33 - 27 दसतम्बर 1976, वृ न्दावन)

और,

श्रील नरोिम िास ठाकुर कहते हैं , सािु-


शास्त्र-गुरु-वाक्य, दचिेते कररया/कायथ ऐक्य।
सािु, गुरु और शास्त्र के वचनोों का अध्ययन
करके ही दकसी भी चीज़ को वास्तदवक मानना
चादहए। वास्तदवक केंद् शास्त्र है , प्रकट
शास्त्र। यदि एक आध्याम्भिक गुरु शास्त्र के
अनुसार नहीों बोलते , उन्ें स्वीकार नहीों दकया
जा सकता। इसी प्रकार, यदि कोई सािु
व्यम्भक् शास्त्र के अनुसार नहीों बोलता है , तो
वह सािु व्यम्भक् नहीों है। शास्त्र सभी का केंद्
है । (श्री चैतन्य-चररतामृत 2.20.352,ता)17

इसटलए जब तक हम गुरु के मन को, उनके कुछ करने के


उद्दे श्य को नही ां जानते , तब तक नकल करना र्तरनाक
है; हम मूर्श टर्ष्य बन सकते हैं ।

दीक्षा के प्रकार
आगे चलते हैं । चूाँदक ब्रह्म-गायत्री हमारी िीक्षा प्रदिया का
दहस्सा है , इसदलए हमें यह समझना चादहए दक हमारी िीक्षा

17
"ता" -- श्लोक के तात्पयथ को िशाथता है ।
13
प्रणाली कैसे काम करती है । हमारे उद्दे श्योों के दलए , िीक्षा के
िो अलग-अलग प्रकार प्रासोंदगक हैं : वैदिकी और पञ्चरादत्रकी,
िोनोों का अलग-अलग भाग है । यद्यदप सामान्य रूप से िम
वैदिकी िीक्षा के बाि पञ्चरादत्रकी िीक्षा का होता है , उन्ें
परस्पर या समवती रूप से भी दकया जा सकता है । महत्वपूणथ
बात यह है दक ये िीक्षाएाँ आजीवन होती हैं ।

इनके अलावा, वैदिक-िीक्षा के अन्य रूप भी होते हैं , जैसे


अदिष्टोम या अश्वमेि जैसे दवदशष्ट यज्ञोों से पहले यजमान को
िीदक्षत करते हैं । इन यज्ञोों की सीदमत अवदि को िे खते हुए ,
यह िीक्षा अिायी है , जो यज्ञ की समाम्भप्त पर अवभृथ/अवभृत-
स्नान के साथ समाप्त होती है । इसी प्रकार, पञ्चरादत्रक यज्ञ िीक्षा
की एक इसी प्रकार की श्रेणी है : कुछ अिायी हैं जबदक अन्य
आजीवन हैं । आजीवन िीक्षा की श्रेणी चचाथ के दलए महत्वपूणथ
है और हम इस पर बाि में लौटें गे।

भागवती दीक्षा ?
चूोंदक हम मुख्य रूप से भागवत सोंप्रिाय हैं ,18 जो पदवत्र नाम
पर जोर िे ता है , तो भागवत िीक्षा के बारे में क्या? श्री चैतन्य-
चररतामृत (2.15.108) हमें सूदचत करता है दक पदवत्र नाम का
जप करने के दलए टकसी दीक्षा की आवश्यकता नही ां है ।

18
भम्भक्दसद्धाोंत सरस्वती ठाकुर, ब्राह्मण और वैष्णव, अनुवाि:- भूदमपदत िास
(नई दिल्ली: व्रजराज प्रेस, 1999), 90.
14
िीक्षा-पुरश्चयाथ -दवदि अपेक्षा न करे ।

दजह्वा-स्पशे आ-चाोंडाल सबरे उद्धारे

दकसी को िीक्षा लेने या िीक्षा से पहले


आवश्यक (पुरश्चयाथ) गदतदवदियोों को
दनष्पादित करने की आवश्यकता नहीों है।
व्यम्भक् को बस अपने होठोों से पदवत्र नाम का
उच्चारण करना है। इस प्रकार सबसे दनचले
(चाोंडाल) वगथ के व्यम्भक् का भी उद्धार दकया
जा सकता है।

और,

कृष्ण-मोंत्र हईते हबे सोंसार-मोचन ।

कृष्ण-नाम हईते पाबे कृष्णेर चरण ॥

केवल कृष्ण के पदवत्र नाम का जप करके


व्यम्भक् भौदतक अम्भस्तत्व से मुम्भक् प्राप्त कर
सकता है। दनदश्चत रूप से , केवल हरे कृष्ण
मोंत्र का जप करने से व्यम्भक् भगवान के चरण
कमलोों के िशथन कर सकेगा। (श्री चैतन्य-
चररतामृत 1.7.73)

इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है दक पदवत्र नाम जप और कीतथन


के सम्बन्ध में कोई भागवत िीक्षा अथवा दकसी भी प्रकार की
िीक्षा नही ों है ।19

19
गौड़ीय मठ के अनुयादययोों में यह प्रचदलत है दक श्रील भम्भक्दसद्धाोंत
सरस्वती ठाकुर ने गौर-दकशोर िास बाबाजी से "भागवती िीक्षा" प्राप्त की थी
15
लेटकन कुछ चेतावटनयााँ हैं,

जैसा दक बृजवासी प्रभु ने अपने दशक्षाप्रि दनबन्ध "चैतन्य-


वैष्णव पररप्रेक्ष्य से हरे कृष्ण महा-मोंत्र" में बताया है :20

उपरोक् कथनोों से और दवशेष रूप से चैतन्य-चररतामृत


श्लोक (आदि 7.73) से जो दनष्कषथ दनकलता है , वह यह है
दक हरर-नाम-मोंत्र दबल्कुल ये सभी पररणाम िे ता है: यह
दकसी के पापोों को नष्ट कर िे ता है (गौण पररणाम रूप से -
- यह "सोंसार-मोचन" है ) और कृष्ण के साथ सम्बन्ध का
दिव्य ज्ञान िे ता है (मुख्य पररणाम के रूप में - "कृष्णेर
चरण" )। इस प्रकार कोई भी व्यम्भक् हरर-नाम का जप और
कीतथन अोंगीकार कर सकता है और मोंत्र-िीक्षा (पञ्चरादत्रक-
िीक्षा) की प्रदिया से गुजरे दबना भी पररणाम प्राप्त कर
सकता है ।

। हालााँदक, नाम समान है दकन्ु यह भागवती िीक्षा पदवत्र नाम के जप के


सोंबोंि में नहीों अदपतु दशक्षा परों परा के सोंबोंि में है । अदिक जानकारी के दलए
िे खें: भम्भक् दवकास स्वामी, श्री भम्भक्दसद्धाोंत वैभव, खोंड 2 (वल्लभ दवद्यानगर,
गुजरात: भम्भक् दवकास टर स्ट, 2010), 227.
20
बृजबासी िास (कोस्त्यम्भन्न पेरुन), 2022. "हरे कृष्ण महा-मोंत्र, चैतन्य-
वैष्णव पररप्रेक्ष्य से: वैष्णव अध्ययन जनथल." जनथल ऑफ वैष्णव स्टडीज 24
(2):216-60
https://archive.org/details/hare-krsna-maha-mantra-from-the-
gv-perspective-by-brijabasi-
prabhu_202401/page/n15/mode/1up
16
दफरभी यहााँ एक अटधक सूक्ष्म टवचार है , दजसका उल्ले ख
दवश्वनाथ चिवती ठाकुर ने श्रीमि् -भागवतम् (6.2.9-10)
पर अपनी दटप्पणी में दकया है जो गुरु और िीक्षा के महत्व
को और स्पष्ट करता है:

"कुछ लोगोों की राय ऐसी है दक --- वे व्यम्भक्


जो भगवान् के नाम के अपरािी हैं , लेदकन
उनमें कमथ , ज्ञान आदि की कोई प्रवृदि नहीों है ;
वे श्रवण, जप आदि िारा भम्भक् सेवा में लगे
हुए हैं, दफर भी उन्ें िीक्षा नहीों दमली है क्योोंदक
उन्ोोंने गुरु के चरण कमल की शरण नहीों ली
है -- उन्ें भी वैष्णव नाम से सम्बोदित दकया
जाना चादहए। वास्तव में , वैष्णव शब्द को
पादणदन के व्याकरण के "सास्य िे वता" ("वह
उसका िे वता है") इस सूत्र से समझा जा
सकता है ; या दफर उस सूत्र से समझा जा
सकता है दजसमें "भम्भक्:" दलखा है ("वह
उसकी भम्भक् का आश्रय है"); इस प्रकार
दजन्ोोंने अपनी िीक्षा से दवष्णु को अपना िे वता
बनाया है और वे भी दजन्ोोंने अपनी पूजा के
अभ्यास से दवष्णु को अपनी पूजा की वस्तु
बनाया है , िोनोों को वैष्णव कहा जाता है ,
क्योोंदक उनका उदचत वणथन करने के दलए
कोई अन्य शब्द नहीों है। इन वैष्णवोों के दलए
भी, जैसा दक पहले वदणथत लोगोों के दलए है ,
नरक आदि में कोई पतन नहीों है। --- लेदकन
यह राय बहुत ठोस नहीों है ; चूाँदक "नृ -िे हम्
आद्यम" श्लोक के आरों भ में ही कहा गया है
दक गुरु जहाज का चालक (कणथिार) होता है ,
वे गुरु के दबना आसानी से भगवान् को प्राप्त
नहीों कर सकते। इसटलए यह कहा जाता है
17
टक केवल वही ां सांत व्यम्भि टजन्ोांने टपछले
जन्म में गुरु के चरिोां का आश्रय प्राप्त कर
टलया था, मात्र अपनी पूजा की र्म्भि से
भगवान् को प्राप्त कर सकते हैं ; अन्यथा
कोई भी केवल अपनी भम्भि से परम
भगवान् को प्राप्त नही ां कर सकता ।

इस पर कोई दवरोि उठा सकता है --- "हम


िे खते हैं दक अजादमल ने भी, दजसने दकसी
गुरु की शरण नहीों ली थी, आसानी से परम
भगवान् को प्राप्त कर दलया।" --- तो इसे
इस प्रकार समझाया जाना चादहए: जो लोग
गाय और गिे की तरह अपनी इों दद्योों को
इम्भियतृम्भप्त की वस्तुओों पर ही चराते रहते हैं
और उन्ें सपने में भी पता नहीों है दक भगवान्
कौन है , भम्भक् क्या है , और गुरु क्या है , वे
अजादमल प्रवृदि के लोगोों की तरह गुरु के
दबना भी मात्र अपनी भम्भक् के बल पर बच
सकते हैं ; इसमें नामाभास की प्रदिया का बल
काम करता है ।

केवल भगवान् हरर ही पूजा के उदचत पात्र हैं ,


भम्भक्पूणथ पूजा ही उन्ें प्राप्त करने का सािन
है, इन दवषयोों पर दशक्षा िे ने के दलए गुरु ही
उदचत व्यम्भक् हैं , और अतीत में भी वही भक्
जो गुरु िारा दनिे दशत हुए उन्ोोंने भगवान्
हरर को प्राप्त दकया है -- इन सब िादपत
दसद्धान्ोों को जानते हुए भी कोई ऐसे दनष्कषथ
पर आ सकता है दक "मैं गुरु स्वीकार करने
की परे शानी क्योों उठाऊाँ ? मैं भी केवल नाम-
कीतथन और िू सरे भम्भक्अोंगोों को पालन करके
18
भगवान् को प्राप्त कर सकता हुाँ ।" ऐसा
व्यम्भक् इस प्रकार के दनष्कषथ पर आता है ,
अजादमल जैसे लोगोों का उिाहरण िे ख करके
तथा शास्त्रोों के इस प्रकार के वचनोों को
सुनकर के दक दजसमें कहा गया है -- ’कोई
िीक्षा की आवश्यकता नहीों है , कोई पुरश्चरण
दवदि की आवश्यकता नहीों है । मात्र दजह्वा को
स्पशथ करने से ही यह कृष्णनामािक मन्त्र
फलिायक हो जाता है ,’ (नो िीक्षाों न च
सम्भियाों न च पुरश्चयाां मनागीक्षते....) । लेदकन
वास्तव में गुरु की अवज्ञा रूपी घोर अपराि
के कारण वह भगवान् को प्राप्त नहीों कर
सकता । अदपतु जब इस जीवन में या दकसी
आने वाले जन्म में उसका यह अपराि शदमत
होगा तब वह दकसी गुरु की शरण ले सकता
है और तब उसे भगवान् प्राप्त होोंगे ।

इसदलये हररनाम से कोई भी पूणथता को प्राप्त कर सकता है


दकन्ु यदि कोई जानते हुए भी गुरु की शरणागदत लेकर
उनसे प्रदशदक्षत होने से खचकता है तो वह अपराि करता
है और वह अपने हररनाम उच्चारण का फल प्राप्त नहीों
करे गा ।

और, श्रील प्रभुपाि एक िीक्षा गुरु की आवश्यकता की पुदष्ट इस


प्रकार करते हैं :

हमको हमेशा याि रखना चादहए दक जो


व्यम्भक् आध्याम्भिक गुरु को स्वीकार करने
और िीक्षा लेने में अदनच्छु क है , वह भगवान्
के पास वापस जाने के अपने प्रयास में दनदश्चत
रूप से भ्रदमत होगा। दजसने ठीक से िीक्षा
19
नहीों ली है , वह खुि को एक महान भक् के
रूप में प्रस्तुत कर सकता है , लेदकन वास्तव
में उसे आध्याम्भिक प्राम्भप्त की दिशा में प्रगदत
के रास्ते में कई बािाओों का सामना करना
पड़े गा, दजसके पररणामस्वरूप उसे भौदतक
अम्भस्तत्व के अपने कायथकाल को दबना दकसी
राहत के जारी रखना होगा। ऐसे असहाय
व्यम्भक् की तुलना दबना पतवार के जहाज से
की जाती है , क्योोंदक ऐसा जहाज कभी भी
अपने गोंतव्य तक नहीों पहुाँच सकता।
इसटलए, यह अटनवायश है टक यटद कोई
भगवान् की कृपा को प्राप्त करना चाहता
है तो उसे आध्याम्भिक गुरु स्वीकार करना
ही होगा । आध्याम्भिक गुरु की सेवा अदनवायथ
है। यदि दकसीको गुरु की साक्षात् सेवा का
अवसर प्राप्त नहीों होता तो उसे गुरु की वाणी
की स्रणपूवथक सेवा करनी चादहये ।
आध्याम्भिक गुरु के दनिे शोों और स्वयों
आध्याम्भिक गुरु के बीच कोई अोंतर नहीों है।
अत: उनकी अनुपम्भिदत में उनके दिशा-
दनिे श दशष् का गौरव होने चादहए। यदि कोई
सोचता है दक वह दकसी अन्य से परामशथ करने
से ऊपर है , यहााँ तक दक आध्याम्भिक गुरु के
भी, तो वह तुरोंत भगवान् के चरण कमलोों का
अपरािी है। ऐसा अपरािी कभी भी भगवान्
के पास वापस नहीों जा सकता। यह अदनवायथ
है दक एक गिीर व्यम्भक् शास्त्रीय आिे शोों के
अनुसार एक प्रामादणक आध्याम्भिक गुरु को
स्वीकार करे । श्रील जीव गोस्वामी सलाह िे ते
हैं दक दकसी को आध्याम्भिक गुरु को
20
वोंशानुगत या प्रथागत सामादजक और
पाररवाररक सम्बन्धोों के आिार पर स्वीकार
नहीों करना चादहए। आध्याम्भिक समझ में
वास्तदवक प्रगदत हेतु व्यम्भक् को चादहये दक
वह एक प्रामादणक गुरु की खोज करें । (श्री
चैतन्य-चररतामृत 1.1.35ता)

इसके अदतररक्, श्रील कृष्णिास कदवराज गोस्वामी हमें बताते


हैं दक उन्ोोंने भी एक "मन्त्र -गु रु" की शरण ली थी, दजसका
अनुवाि श्रील प्रभुपाि "िीक्षा िे ने वाले गुरु" के रूप में करते हैं
:

मन्त्र -गुरु आर यत दशक्षा-गुरु-गण


तन्ार चरण आगे कररये वन्दन ॥

"मैं अपने दीक्षा दे ने वाले गुरु और तथा दशक्षा


िे ने वाले सभी आध्याम्भिक गुरुओों के चरण
कमलोों में आिरपूवथक प्रणाम करता हाँ ।" (श्री
चैतन्य-चररतामृत 1.1.35)

यदि कोई भागवत िीक्षा नही ों है तो उन्ोोंने दकस प्रकार की िीक्षा


प्राप्त की थी? इस पहे ली का समािान यह है दक गुरु दशष् को
पञ्चरादत्रक िीक्षा के दसद्धान्ोों पर पदवत्र नाम की िीक्षा िे ते हैं ।
इस दवषय पर बाि में और अदिक जानकारी िी जाएगी।

21
वैटदक दीक्षा
दवदशष्ट सामादजक समथथन प्रणादलयोों वाले कृष्ण के वैदिक
समाज में, पुरुष बच्चोों को उनके गुण और वे दकस वणथ की इच्छा
रखते हैं , उसके आिार पर उदचत उम्र में उपनयन ( वैदिक-
िीक्षा ) दमलता था । आिशथ रूप से , ब्राह्मण लड़कोों को
गभाथ िान के बाि 8 साल में उपनयन दमलता है ,21 क्षदत्रय लड़कोों
को 11 साल में, और वैश्य लड़कोों को 12 साल की उम्र में ।22
यदि वे ऊपरी सीमा के भीतर उपनयन प्राप्त करने से चूक जाते
हैं (अथाथ त, ब्राह्मण के दलए 16, क्षदत्रय के दलए 22 , और वैश्य
के दलए 24) तो उन्ें "' व्रात्य ' (िमथत्यागी) के रूप में जाना
जाता है , जो सभी अच्छे लोगोों िारा दतरस्कृत होते हैं ।"23

एक स्वि सोंस्कृदत में लड़के को बचपन में ही उपनयन कराया


जाता था और दफर वह वेि पाठशाला में भाग ले ने के योग्य हो
जाता था और वह कम से कम एक वेि याि करके सीखता था
। इस प्रकार उपनयन उसे दिज बनाता है और वेिोों का अध्ययन

21
चैतन्य -भागवत 1.8.7 पर श्रील भम्भक्दसद्धान् की दटप्पदणयााँ िे खें | श्री
वृन्दावन िास ठाकुर और भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर, श्री चैतन्य भागवत,
अनुवाि:- भूदमपदत िास (वृोंिावन: रास दबहारी लाल एों ड सोंस, 2001). चैतन्य-
भागवत के अन्य सोंिभथ भी इसी सोंस्करण से उि् िृत दकये गये हैं ।
22
मनु 2.36.
23
मनु 2.38-39.
22
करने के दलए योग्य बनाता है । जैसा दक आपस्तोंब िमथ सूत्र 24
(1.1.1.9-10) में ( एक ब्राह्मण-ग्रन्थ के बल पर ) कहा गया है
दक सादवत्री गायत्री सीखने का उद्दे श्य वेि -अध्ययन की िु दनया
में प्रवेश करना है :

उपनयनों दवद्याथथस्य श्रुदततः सोंस्कारः

“सवेभ्यो वै वेिेभ्यः सादवत्र्यानुच्यत” इदत दह


ब्राह्मणम् ॥

"िीक्षा या उपनयन एक ऐसे पुरुष का श्रौत


(श्रुदत उक्) सोंस्कार है जो वेिोों के पदवत्र ज्ञान
को प्राप्त करने का इच्छु क है और जो इसका
सहीों उपयोग कर सकता है । एक ब्राह्मण ग्रन्थ
घोदषत करता है दक सादवत्री या गायत्री तीनोों
वेिो को सीखने के दलये िी जाती है ।"

यद्यदप ऐसा व्यम्भक् एक दिज है , दफर भी उसे वैष्णव मोंदिर में


अचाथ दवग्रह की पूजा करने की अनुमदत नही ों है । अचाथ दवग्रह की
पूजा करने के दलए, उसे वैष्णव बनना होगा। बाि में यदि वह
इस प्रकार वैष्णव बनना चाहता है तो वह पञ्च-सों स्कार प्राप्त
करने के दलए दकसी गुरु के पास जा सकता है । पञ्चसोंस्कार
अथाथ त् एक व्यम्भक् को वैष्णव करने के दलए पञ्चरादत्रक िीक्षा -
- यह" दत्रज" है , तीसरा जन्म -- इस पर अदिक दववरण नीचे
दिया गया है ।

24
यह भी िे खें, "वैदिक सोंग्रह में आपस्तोंब िमथ सूत्र की म्भिदत ।"
https://archive.org/details/position-of-apastamba/mode/1up
23
पाञ्चराटत्रक दीक्षा

पञ्चरादत्रक िीक्षा पर चचाथ करने से पहले पञ्चरात्र पर कुछ


दटप्पदणयााँ आवश्यक हैं । गौड़ीय दसद्धान् और अभ्यास के मूल
दसद्धान् मुख्य रूप से पञ्चरात्र और श्रीमि् -भागवतम् इन िो
अदवभाज्य स्रोतोों से प्राप्त होते हैं । िोनोों के दवषय ओवरलैप हैं
और उनमें पूणथ सामोंजस्य है । भागवतम् भम्भक् के दसद्धान्ोों पर
अदिक जोर िे ता है और उनकी व्याख्या करता है , जबदक
पञ्चरात्र भागवतम् के दनष्कषों और दसद्धान्ोों के बारे में दवस्तृत
दववरण प्रिान करता है , दजसमें भम्भक् को दनष्पादित करने
(िीक्षा के दलए प्रदियाएाँ , आदि) से सोंबोंदित दवषयोों का दववरण
दिया गया है , साथ ही भम्भक् के आवश्यक दसद्धान् और भम्भक्
की मदहमा भी बताई गई है । उिाहरण के दलए , प्रदसद्ध श्लोक
-- सवोपादि-दवदनमुथक्म् -- और -- आरादितो यदि हररस
तपसा तत: दकों --- ये पञ्चरात्र से हैं । पञ्चरात्र शास्त्र में वणथन
दमलता है चतुर-व्यूहोों का, दवदभन्न रूपोों में हरर की दवशेषताओों
इत्यादि का, नाम-कीतथन और इसके अलग-अलग प्रकारोों का,
कई प्रकार के सहस्र-नामोों और उनकी मदहमाओों का पञ्चरात्र
दनिे श िे ते हैं दक मोंदिरोों का दनमाथ ण कैसे दकया जाना चादहए
और भगवान् का सम्मान करने वाले त्योहारोों को कैसे मनाया
जाना चादहए, और अन्य भम्भक् सम्बन्धी दवषय भी है ।

भागवत दसखाता है दक क्या करना है और क्योों करना है ;


पञ्चरात्र व्यावहाररक दववरण के साथ यह बताता है दक इसे कैसे
करना है । उिाहरण के दलए, भागवतम् तीन गुणोों में की जाने
24
वाली भम्भक् के बारे में और उससे ऊपर तीनोों गुणोों से परे
(दनगुथण) भम्भक् का वणथन करता है ; और पञ्चरात्र शास्त्र इन
दवभागोों के अनुसार शरीर, मन और वचनोों िारा की जाने वाली
भम्भक् की गदतदवदियोों को दनदिथ ष्ट करता है । एक अन्य
उिाहरण: भागवतम् पदवत्र नामोों का उच्चारण करने का दनिे श
िे ता है और इसके िाशथदनक कारण बताता है ; पञ्चरात्र 108
मनकोों वाली तुलसी माला पर जप करने का दनिे श िे ता है , जो
बड़े दसरे से शुरू होता है , इत्यादि। लेदकन पञ्चरात्र शास्त्र को
केवल "कैसे करें " इस प्रकार के व्यावहाररक दववरणोों को बताने
वाले मैनुअल के रूप में सोचना दनराशाजनक होगा । वे इससे
कही ों अदिक हैं ।

उिाहरण के दलए, श्री ब्रह्म-सोंदहता को ले जो गौड़ीय वैष्णवता


में सबसे प्रदतदष्ठत और आवश्यक ग्रोंथोों में से एक है । यह
पञ्चराटत्रक25 शास्त्र भगवान् चैतन्य िारा अपने भक्ोों के लाभ
के दलए व्यम्भक्गत रूप से सुिूर िदक्षण भारत से बोंगाल और
ओदडशा में लाया गया था।26

25
भम्भक्दसद्धाोंत सरस्वती ठाकुर, श्री ब्रह्म सोंदहता श्रील जीव गोस्वामी की
दटप्पणी के साथ (मद्ास: श्री गौड़ीय मठ, 1973), vii.
https://archive.org/details/shri-brahma-samhita-trans-by-
bhakthi-siddhanta-sarasvati-gosvami-thakur-
ocr/page/n6/mode/1up
26
अदिक जानकारी के दलए श्री चैतन्य-चररतामृत 2.1 िे खें । 120; 2.9.237-
241; 2.9.309,323; 2.11.143
25
आदि-केशव के मोंदिर में , श्री चैतन्य महाप्रभु
ने अत्यदिक उन्नत भक्ोों के बीच आध्याम्भिक
दवषयोों पर चचाथ की। वहााँ रहते हुए, उन्ें ब्रह्म
सोंदहता का एक अध्याय दमला । श्री चैतन्य
महाप्रभु इस एक अध्याय को प्राप्त कर बहुत
प्रसन्न थे और भावािक दवकार के लक्षण --
कोंपन, अश्रु, स्वेि, समादि और उल्लास --
उनके शरीर में प्रकट हुए थे।

जहााँ तक अोंदतम आध्याम्भिक दनष्कषथ का


सवाल है , ब्रह्म-सोंदहता के बराबर कोई शास्त्र
नहीों है । वास्तव में , वह ग्रोंथ भगवान् गोदवोंि
की मदहमा का सवोच्च रहस्योि् घाटन है ,
क्योोंदक यह उनके बारे में सवोच्च ज्ञान को
प्रकट करता है। चूाँदक सभी दनष्कषथ सोंक्षेप में
ब्रह्म-सोंदहता में प्रस्तुत दकए गए हैं , यह सभी
वैष्णवोों शास्त्रोों के बीच आवश्यक शास्त्र है ।
(श्री चैतन्य-चररतामृत 2.9.237-240)

इन िो श्लोकोों के तात्पयथ में श्रील प्रभुपाि दलखते है :

ब्रह्म -सोंदहता एक अत्योंत महत्वपूणथ ग्रोंथ है। श्री


चैतन्य महाप्रभु ने आदि-केशव मोंदिर से
पााँचवााँ अध्याय प्राप्त दकया। उस पााँचवें
अध्याय में , अदचन्त्य-भेिाभेि-तत्व (एक साथ
एकता और दभन्नता) का िाशथदनक दनष्कषथ
प्रस्तुत हुआ है । इस अध्याय में इन दवषयोों का
भी वणथन हुआ है -- भम्भक् सेवा के तरीके;
अठारह अक्षर वाला वैदिक मन्त्र; आिा,
परमािा और सकाम कमथ पर प्रवचन; काम-
गायत्री, काम-बीज और मूल महा-दवष्णु की
26
व्याख्या; और आध्याम्भिक जगत् का दवस्तृत
दववरण भी प्रस्तुत दकया गया है , दवशेष रूप
से गोलोक वृन्दावन का। ब्रह्म -सोंदहता में िे वता
गणेश; गभोिकशायी दवष्णु ; गायत्री मोंत्र की
उत्पदि; गोदवोंि का रूप और उनकी दिव्य
म्भिदत और दनवास; जीव; सवोच्च लक्ष्य; िे वी
िु गाथ; तपस्या का अथथ ; पााँच भौदतक तत्त्व; ईश्वर
का प्रेम, दनदवथशेष ब्रह्म; भगवान् ब्रह्मा की
िीक्षा, और पारलौदकक प्रेम की दृदष्ट जो
व्यम्भक् को भगवान् को िे खने में सक्षम बनाती
है। भम्भक् सेवा के सोपानोों को भी समझाया
गया है। मन; योग-दनद्ा; भाग्य की िे वी; भाव
के स्तर की भम्भक् सेवा; भगवान् रामचि से
शुरू होने करके सभी अवतार, अचाथदवग्रह;
बद्ध आिा और उसके कतथव्य; भगवान् दवष्णु
के बारे में सत्य; प्राथथनाएाँ ; वैदिक स्तोत्र;
भगवान् दशव; वैदिक सादहत्य; दनदवथशेषवाि
और सदवशेषवाि, सिाचार, इत्यादि कई अन्य
दवषयोों पर भी चचाथ हुई है। सूयथ और भगवान्
के दवश्वरूप का भी वणथन है। इन सभी दवषयोों
को ब्रह्म-सोंदहता में सोंक्षेप में दनणाथयक रूप से
समझाया गया है । (श्री चैतन्य-चररतामृत
2.9.239-240ता)

यह पञ्चरात्र की िाशथदनक गहराई को इों दगत करता है और इसे


िादपत करता है दक यह हमारे सोंप्रिाय के दलए महत्वपूणथ क्योों
है ।27

27
इसके बारे में अदिक जानकारी के दलए पोंचरात्र का पररचय िे खें
27
पञ्चरादत्रक िीक्षा ( पोंच-सों स्कार28 ) के दवषय पर लौटते हुए :
इसमें शादमल है --- ऊध्वथपुण्डर ( दतलक - प्रभु के पिदचह्न),
िास्य नाम (हरर के दनत्य िास के रूप में नादमत होना), ताप
(उन स्वामी29 के दचह्नोों से दचदह्नत होना), मन्त्र (दवदभन्न
पञ्चरादत्रक मन्त्र), और याग (अचाथदवग्रह का पूजन) ।

अपने गुरु से प्राप्त कुछ मोंत्रोों का उपयोग करके , दशष्


शालग्राम दशला या श्रीमूदतथ, कृष्ण के अचाथ दवग्रह की पूजा शुरू
करता है । इसे "याग" के नाम से जाना जाता है ।

पााँ च सोंस्कार प्राप्त करके एक श्रद्धालू व्यम्भक् भजन-दिया या


भगवान् की व्यम्भक्गत पूजा में प्रवेश करता है , जो अोंततः उसे
श्रीहरर के प्रदत शुद्ध प्रेम की ओर ले जाता है । अब "दत्रज"
(तीसरी बार जन्मा) दजसने पञ्च-सोंस्कार प्राप्त कर दलया है , ऐसा
व्यम्भक् घर में या तो मोंदिर में भी पूजा करने के योग्य है जो पूजा

28
पोंच-सोंस्कार के दवस्तृत दववरण के दलए िे खें : एम. लक्ष्मीथाथाचर और वी.
वरिाचारी, ईश्वरसोंदहता खोंड 4 (दिल्ली: इों दिरा गाोंिी राष्टरीय कला केंद्, और
मोतीलाल बनारसीिास पम्भिशसथ प्राइवेट दलदमटे ड, 2009), 1335
ईश्वरसोंदहता मेलुकोटे में, जो श्री वैष्णववाि के सबसे महत्वपूणथ केंद्ोों में से एक
है और जो श्रीपाि रामानुज आचायथ िारा व्यम्भक्गत रूप से पुनः िादपत
दकया गया है, वहााँ पर मुख्य पोंचरादत्रक ग्रन्थ के रूप में उपयोग होती है ।
29
श्री और मािव सोंप्रिाय में, शोंख और चि की तप्तिातु मुद्ाओों से शरीर को
अोंदकत करके ताप दिया जाता है, लेदकन श्री चैतन्यिे व ने (पद्म पुराण के
आिार पर) दनिे श दिया है दक हम इसके बजाय चोंिन के लेप आदि का
उपयोग करके शरीर को हरर-नाम से दचदह्नत करें ।
28
पञ्चरात्र शास्त्रोों के मानकोों के अनुसार और उसकी अपनी
म्भिदत एवों उसके सरिाय के अनुरूप की जाती है ।

कैसे एक योग्य व्यम्भि टत्रज बन


जाता है
एक योग्य व्यम्भक् दत्रज कैसे बनता है इसका खु लासा
श्रीमद्भागवत में दकया गया है :

दकों जन्मादभम्भस्त्रदभवेहा

शुि-सादवत्र-यादज्ञकैः ।

कमथदभवाथ त्रयी-प्रोक्ैः

पुोंसोऽदप दवबुिायुषा ॥

"एक सभ्य मनुष् के तीन प्रकार के जन्म


होते हैं । पहला जन्म शुद्ध दपता और माता
िारा होता है और इस जन्म को वीयथ िारा जन्म
कहा जाता है। अगला जन्म तब होता है जब
कोई आध्याम्भिक गुरु से िीक्षा लेता है और
इस जन्म को "सादवत्र" कहा जाता है । तीसरा
जन्म, दजसे यादज्ञक कहा जाता है , तब होता है
जब दकसी को भगवान् दवष्णु की पूजा करने
का अवसर दिया जाता है। ऐसे जन्म प्राप्त
करने के अवसरोों के बावजूि भी, भले ही
दकसी को एक िे वता का जीवन काल दमल भी
क्योों न दिया जाए, यदि कोई वास्तव में भगवान्
की सेवा में सोंलि नहीों होता है , तो सब कुछ
बेकार है। इसी प्रकार, दकसी की गदतदवदियााँ
29
साोंसाररक या आध्याम्भिक हो सकती हैं ,
लेदकन यदि वे भगवान् को सोंतुष्ट करने के
दलए नहीों हैं तो वे बेकार हैं।" (श्रीमद्भागवत
4.31.10)

पहला जन्म माता-दपता से होता है । िू सरा जन्म, सादवत्र,30


वैदिक-िीक्षा है । और जैसा दक इस श्लोक के तात्पयथ में बताया
गया है , यादज्ञक नामक तीसरा जन्म पञ्चरादत्रक-दवदि के माध्यम
से होता है । यह एक और उिाहरण है जहााँ भागवतम् दकसी
चीज़ के दसद्धान् का उल्लेख करता है (इस मामले में तीसरा
जन्म) लेदकन यह दियम्भन्वत कैसे होता है इसका दववरण
पञ्चरात्र में है ।

म्लेच्छोों, यवनोों, पोंचमोों, या व्रात्योों के मामले में म्भिदत अलग है ।


वे आमतौर पर, लेदकन हमेशा नही,ों उपनयन का समय बीत
जाने के काफी समय बाि वैष्णव िमथ में रुदच लेने लगते हैं ।
इसदलए उन्ें पहले पञ्चरादत्रक िीक्षा (यादज्ञक) दमलेगी और दफर
योग्य होने पर उपनयन (वैदिक-िीक्षा) दमलेगा ।

"याग"31 और "यज्ञ"32 इन िोनोों शब्दोों का अथथ एक ही है और


ये मूल 'यज्' िातु से बने हैं दजसका अथथ है पूजा करना , होम
करना, या प्रिान करना। यह बाि में एक महत्वपूणथ दवचार

मन्त्र में दनदहत शब्दोों के आिार पर यह ब्रह्म गायत्री का एक


30

और नाम है
31
https://tinyurl.com/5n859p4h
32
https://tinyurl.com/4twedh48
30
होगा। सूक्ष्म अोंतर यह है दक याग अच्रादवग्रह की पूजा से
सोंबोंदित है ।33

इसके अलावा, हमें यह भी ध्यान रखना चादहए दक (पञ्च -


सोंस्कार में) मन्त्र सोंस्कार एक ही बार की घटना नही ों है क्योोंदक
अलग-अलग समय पर अलग-अलग उद्दे श्योों के दलए अलग-
अलग मन्त्र िे ने की आवश्यकता हो सकती है । उिाहरण के
दलए, दकसी दवशेष मन्त्र जैसे नृदसोंह मोंत्र34 में िीक्षा, या सोंन्यास
के समय दिये गये सोंन्यास मन्त्र की िीक्षा भी मन्त्र सोंस्कार का
दहस्सा होगी । उसी प्रकार पूजा करने के दलए दकसी भी िे वता-
दवदशष्ट मन्त्र की आवश्यकता होती है जो पहले नही ों दिए गए
थे, ये सब मन्त्र सों स्कार से दिये जाते है । उिाहरण के दलए ,
पञ्चरादत्रक आगम मोंदिरोों में अचथना के दवदभन्न स्तर होते हैं ,
दजनमें से प्रत्येक में दवदशष्ट मोंत्रोों की आवश्यकता होती है --
उच्चतम अचथक िीक्षा (चिब्ज मों डल िीक्षा ) है जो प्रिान पुजारर
को िी जाती है । इसदलए जब मन्त्र सोंस्कार की बात आती है
तो दशष् की आवश्यकता के अनुसार कुछ फेरबिल का
अवकाश होता है ।

33
नारि-पोंचरात्र (भारिाज-सोंदहता) पररदशष्ट 2.48-50
https://archive.org/details/VDNAP/page/n129/mode/2up
34
लक्ष्मीथाथाचार और वरिाचारी, ईश्वरसोंदहता खोंड 4 , 1287.
31
पटवत्र नाम का जप और कीतशन --
पञ्चराटत्रक-दीक्षा के एक भाग के रूप में
हमने पहले ऊपर बताया था दक हरे कृष्ण महा-मन्त्र की िीक्षा
पञ्चरादत्रक िीक्षा के माध्यम से होती है । अब हम इस िावे को
प्रमादणत करने के दलए प्रमाण प्रिान करें गे। श्रीमद्भागवत में
हमें दनम्नदलम्भखत श्लोक दमलते हैं :

इदत िापर उवीश

स्तुवम्भन् जगिीश्वरम् ।

नाना-तोंत्र-दविानेन

कलावदप तथा श्रृणु ॥

"हे राजन, इस प्रकार िापर युग में लोगोों ने


जगत् के ईश्वर का मदहमा गान दकया।
कदलयुग में भी लोग शास्त्रोों के दवदभन्न दनयमोों
का पालन करके भगवान् की पूजा करते हैं।
अब कृपया इस दवषय में मुझसे सुनें।
(श्रीमद्भागवत 11.5.31)

तात्पयथ

श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर के


अनुसार "नाना-तांत्र-दविानेन" शब्द कदलयुग
में पञ्चरात्र या सात्वत पञ्चरात्र शास्त्रोों नामक
वैष्णव शास्त्रोों के महत्व को इों दगत करता है।
... भगवान् के पटवत्र नामोां का जप, कीतशन,
और उनके अचाथदवग्रह रूप की पूजा जैसी
भम्भक् प्रदियाएाँ ऐसे पञ्चरात्र नामक वैष्णव
32
शास्त्रोों में दवस्तृत रूप से वदणथत हुई हैं । ऐसे
ताम्भिक ग्रन्थोों का वणथन इस श्लोक में दकया
गया है और बताया गया है दक कदलयुग में
नारिादि आचायों िारा दसखाई गई भम्भक् की
यही सब प्रदियाएाँ भगवान् की पूजा करने के
दलए एकमात्र व्यावहाररक उपाय है । यह बात
अगले श्लोक में ज्यािा स्पष्ट हो जायेगी ।

कृष्णवणथम् म्भत्वषाकृष्णम्

सोंगोपाोंगास्त्र-पाषथिम् ।

यज्ञैः सोंकीतथन-प्रायैर्

यजम्भन् दह सुमेिशः ॥
"कदलयुग में , बुम्भद्धमान व्यम्भक् भगवान् के
एक ऐसे अवतार की पूजा करने के दलए
सामूदहक कीतथन करते हैं जो अवतार लगातार
कृष्ण के नाम गाते रहते हैं। यद्यदप उनका रों ग
काला नहीों है , वे स्वयों कृष्ण हैं। वे अपने
पाषथिोों, सेवकोों, अस्त्रोों, और दनजी पररकरोों
िारा दघरे रहते हैं ।" (श्रीमद्भागवतम् 11.5.32)

इस श्लोक को सीिे पढ़ने से पता चलता है दक श्लोक 31 में


करभजन योगेि राजा दनदम से कहते हैं दक कदलयुग में लोग
दवदभन्न तोंत्रोों35 ( पोंचरात्र आगमोों ) के माध्यम से भगवान् की
पूजा करते हैं । दफर 32वें श्लोक में पूजा की दवदि बताई गई है ।

35
इस तन्त्र शब्द को तामदसक शैव , शाक् और बौद्ध ताोंदत्रक परों पराओों से न
जोड़े ।
33
उनका कहना है दक बुम्भद्धमान लोग कृष्ण (या गौराों ग) की पूजा
"यज्ञैः सोंकीतथन-प्रायैर्" के माध्यम से करें ग, अथाथ त, अचथना
प्रदिया के माध्यम से ( यज्ञैः ) दजसमें सोंकीतथन मुख्य भाग
(सोंकीतथन-प्रायैर्) के रूप में दकया जाता है । सभी आचायथ अपनी
व्याख्याओों में इस दबोंिु पर एकमत हैं । िू सरे शब्दोों में , अचथ न
सोंकीतथन के साथ दकया जाना चादहए, क्योोंदक यह सोंकीतथन ही
है जो अचथन को सफल बनाता है । इसीदलए हम िे खते हैं दक
इस्कॉन और गौड़ीय मठ में आरदतयोों (और यज्ञ आदि के दलए
होम) के साथ-साथ महा-मोंत्र का सोंकीतथन भी चलता है , जो
वास्तव में आरती आदि को अपना प्रभाव दिखाकर उदचत
पररणाम प्रिान करने में सक्षम बनाने वाली मुख्य प्रदिया है ।

कुछ लोग सोचते हैं टक पञ्चराटत्रक दीक्षा केवल अचाशटवग्रह


की पूजा के टलए है और यह हरे कृष्ण महा-मि के टलए
आवश्यक नही ां है । इसके बारे में कोई भी सोंिेह श्री चैतन्य-
भागवत पर श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर की दटप्पणी से
िू र हो जाता है , दजसमें भगवान् चैतन्य तपन दमश्रा को दनिे श
िे ते हैं :

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

एइ श्लोक नाम बदल' लय महा-मोंत्र

शोला-नाम बदत्रश-अक्षर एई तोंत्र


"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे
राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ इस श्लोक
को महामन्त्र कहा जाता है । इसमें बिीस
34
अक्षरोों से बने भगवान के सोलह पदवत्र नाम
शादमल हैं। (श्री चैतन्य-भागवत 1.14.145-
146)

तात्पयथ:

सम्बोिन के रूप में बिीस अक्षरोों से बने ये


सोलह पदवत्र नाम महामन्त्र कहलाते हैं ।
पञ्चरात्र (तांत्र) की प्रटिया के अनुसार इस
महा-मि का उच्चरि जप और ऊाँचे स्वर
में कीतशन दोनोां में टकया जाना चाटहए । जो
व्यम्भक् इस महामन्त्र का ऊाँचे स्वर से कीतथन
करता है , उसके हृिय में उस ऊाँचे कीतथन के
प्रभाव से भगवान् के प्रेम का बीज अोंकुररत
होता है; और पदवत्र नामोों की दवकदसत हो रही
कृपा से वह व्यम्भक् शीघ्र ही जीवन के लक्ष्य के
दवज्ञान और उसे प्राप्त करने की प्रदिया में
दवशेषज्ञ बन जाता है। (श्री चैतन्य-भागवत
1.14.146ता)

इसटलए टनष्कर्श यह है टक महा-मि का


उच्चारि या कीतशन पञ्चरात्र ( तांत्र ) की
प्रटिया के अनुसार टकया जाना चाटहए ।

35
सांकीतशन-यज्ञ दीक्षा
हमने पहले िीक्षा का उल्लेख दकया था दजसमें यजमान को यज्ञ
करने के दलए िीदक्षत दकया जाता है । श्रीमि् -भागवतम्
(11.5.32) हमें बताता है दक कदलयुग में दनिाथ ररत यज्ञ है
सोंकीतथन यज्ञ। कदलयुग के दलए, पदवत्र नामोों के सोंकीतथन में
िीक्षा की तुलना यज्ञ-िीक्षा से की जा सकती है । नाम-आचायथ
के रूप में पहचाने जाने वाले हररिास ठाकुर इस िावे का
समथथन करते हैं :36

"सोंख्या-नाम-सोंकीतथन -- एई 'महा-यज्ञ '


मन्ये

ताहाते िीदक्षत अदम हई प्रदत-दिने ।

“प्रदतदिन एक दनदश्चत सोंख्या में पदवत्र नाम का


जप करके एक महान यज्ञ करने की प्रदतज्ञा
में मुझे िीदक्षत दकया गया है ।" (श्री चैतन्य-
चररतामृत 3.3.240)

36
उल्लेखनीय रूप से कुछ लोग यह दनष्कषथ दनकालते हैं दक चूोंदक यहााँ िीक्षा
गुरु का नाम नहीों दिया गया है या हररिास ठाकुर के दलए िीक्षा समारोह का
वणथन नहीों दकया गया है , इसदलए दकसी को िीक्षा लेने की आवश्यकता नहीों है
! यह "आगुथमेंटम एक्स साइलेंदटयो" (मौन से तकथ) का एक रूप है । यह एक
मजबूत तकथ नहीों है क्योोंदक "सबूत की अनुपम्भिदत अनुपम्भिदत का सबूत नहीों
होती ।" हररिास ठाकुर स्पष्ट रूप से कहते हैं दक उन्ें िीक्षा िी गई थी ।
दिर दसफथ इसदलए दक हम (इस समय) नहीों जानते दक उनके गुरु कौन थे ,
इसका मतलब यह नहीों है दक उन्ें गुरु िारा िीक्षा नहीों दमदल थी और दक
िू सरोों के दलए भी दकसी गुरु की आवश्यकता नहीों है। 36
चैतन्य-मोंगल ने सोंकीतथन-यज्ञ को एक वैदिक यज्ञ के रूप में
वदणथत दकया है , जहााँ जीवोों के कान यज्ञ िार हैं , जीभ -- स्रुक्-
स्रुव है , और भगवान् कृष्ण की मदहमा -- यज्ञीय घी है ।

सोंकीतथन-यज्ञ और वैदिक यज्ञ के बीच इस प्रकार के सहसोंबोंिोों


की गहन खोज के दलए, कृपया चै तन्य-मोंगल 2.21.81-90 को
िे खें।37

गौडीय सम्प्रदाय में दीक्षा


जबदक हमारे सोंप्रिाय38 में भागवत, पञ्चरादत्रक और वैदिक
तीनोों के तत्व शादमल हैं , हमारी िीक्षा प्रणादल केवल पञ्चरात्र
और वैदिक तत्त्वोों पर आिाररत है ।

पञ्चरादत्रक िीक्षा, पञ्च-सोंस्कार है दजसका वणथन हमने पहले कर


दिया है । इन पााँ चोों में से प्रत्येक सोंस्कार अलग-अलग, एक साथ
या गुरु के दनणथय के अनुसार के भागोों में प्रिान दकया जा सकता
है ।39

इस्कॉन की पहली िीक्षा में पााँ च में से पहले तीन सों स्कार
औपचाररक रूप से दिए जाते हैं ( ऊध्वथपुण्डर, ताप, और िास्य

37
https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/chaitanya-
mangala/d/doc1112748.html
38
दवशेष रूप से श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर के अनुयायी ।
39
नारि-पोंचरात्र (भारिाज-सोंदहता) पररदशष्ट 2.54-56
https://archive.org/details/VDNAP/page/n131/mode/2up
37
नाम ) । और िू सरी िीक्षा में अन्य िो (याग के साथ मन्त्र -
सोंस्कार) प्रिान दकये जाते हैं ।40 िू सरी िीक्षा में दिए गए
पञ्चरादत्रक मन्त्र गुरु बीज, गुरु गायत्री, काम बीज, आदि हैं जो
अचाथ दवग्रह पूजन और ध्यान करने के दलए आवश्यक हैं । 41

पञ्च-सोंस्कार में सभी पााँ च आवश्यक सोंस्कार के पूरा होने के


साथ ही व्यम्भक् अब पूरी तरह से िीदक्षत वैष्णव हो गया है ।
इसके अदतररक् अन्य दकसी वस्तु की आवश्यकता नही ों है ; यह
पयाथ प्त है । यह प्रजादत,42 वणथ, सामादजक वगथ , या दलोंग का
दवचार दकए दबना सभी के दलए खुला है । 43

यह याद रर्ना महत्वपूिश है टक ब्रह्म-गायत्री (SAC के पेपर


का टवर्य) प्राप्त करना टकसी को वैष्णव नही ां बनाता है ।
न तो ब्रह्मगायत्री पटवत्र नाम का जप करने के टलए
आवश्यक है, न ही यह अचाशटवग्रह की पूजा करने के टलये
आवश्यक है ।

40
ऐसा प्रतीत होता है दक गौड़ीय मठ में िास्य नाम को कभी-कभी िू सरी
िीक्षा में शादमल दकया जाता था, और कभी-कभी पहली में। जैसा दक कहा
गया है, यह गुरु का दवशेषादिकार है दक व्यम्भक्गत सोंस्कार दकस िम में,
दकतने और कब दिए जाएाँ ।
41
उिाहरण के दलए, भगवान ब्रह्मा ने ब्रह्माोंड का दनमाथण करने के दलए काम
बीज में ध्यान लगाया ।
42
उिाहरण के दलए, गरुड़ और हनुमान मनुष् नहीों हैं ।
43
नारि-पोंचरात्र (भारिाज-सोंदहता) 1.14-15
https://archive.org/details/VDNAP/page/n107/mode/2up
38
इसके बाि पुरुषोों के दलए अदतररक् के रूप में , श्रील
भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर उन्ें उपनयन िे ते थे -- पदवत्र
उपवीत और ब्रह्म-गायत्री (वैदिक तत्व) के साथ। पहले वे व्रात्य
थे और उपनयन की समय सीमा के भीतर नही ों थे , लेदकन पञ्च
-सोंस्कार के माध्यम से दिज बनने के बाि अब वे नए दसरे से
पैिा हुए हैं और यदि उनमें अपेदक्षत चररत्र और गुण हैं तो वे
उपनयन के दलए पात्र हैं ।

जैसा दक मनु बताते हैं , उपनयन केवल पुरुषोों के दलए है ।


मदहलाओों के दलए दववाह सोंस्कार उपनयन के समकक्ष है । 44

वैवादहको दवदिः स्त्रीणाम्

सोंस्कारो वैदिकः स्ृतः ।

पदतसेवा गुरौ वासो

गृहाथोऽदिपरीदिया ॥

"मदहलाओों के दलए दववाह सोंस्कार को उनका


’वैदिक सोंस्कार,’ पदत की सेवा को ’गुरु के
साथ दनवास,’ और घरे लू कतथव्योों को ’पदवत्र

44
इस्कॉन के कुछ भक्ोों सदहत, समकालीन नाम्भस्तक दविानोों के बीच एक
गलत िारणा प्रचदलत है दक प्राचीन वैदिक सोंस्कृदत में, मदहलाओों को उपनयन
सोंस्कार (पदवत्र उपवीत और ब्रह्म-गायत्री) प्राप्त होते थे । इस िावे की इस
दलोंक पर दवस्तार से जाोंच की गई है: https://guru-sadhu-
sastra.blogspot.com/p/women-upanayana.html
39
अदि की िे खभाल,’ इस प्रकार करके दविाता
ने सौोंपा है।" (मनु -सोंदहता 2.67)

इस पृष्ठभूदम के साथ, अब हम SAC के पहले और मु ख्य तकथ


पर दवचार कर सकते हैं जो उनके उपयुथक् पेपर के पृष्ठ 16 पर
पाया गया है ।

SAC का पहला और मुख्य तकश


भाग एक का ’हमेन्यूदटकल’ अवलोकन:

1. टवर्य--- ब्रह्म-गायत्री मन्त्र िीदक्षत व्यम्भक् को उच्च


योग्यता प्रिान करता है

2. सांर्य--- क्या ब्रह्म-गायत्री एक वैष्णव मन्त्र है, दजसका


जप भम्भक् का अोंग है , या यह वणथ िमथ का दहस्सा है ?

3. पूवशपक्ष--- यद्यदप कुछ सािक भक् ब्रह्म-गायत्री का


जप कर सकते हैं , यह वणाथश्रम का ही एक दहस्सा है और
इसे वणाथश्रम के अभ्यास के रूप में लागू दकया जाना चादहए

4. उत्तर-पक्ष--- ब्रह्म-गायत्री को समझने और इस पर


ध्यान करने के ऐसे तररके हैं दक जो दवष्णु या कृष्ण की पूजा
से सोंबोंदित हैं

5. टनिशय--- ब्रह्म-गायत्री का जप केवल भम्भक् के अभ्यास


के रूप में भी दकया जा सकता है।

6. टसद्धान्त --- ब्रह्म-गायत्री का जप वणाथश्रम के अोंग के


रूप में करना भी सोंभव है और केवल भम्भक् के अोंग के
रूप में करना भी सोंभव है ; और िोनोों के दमश्रण के रूप में

40
भी सोंभव है । श्रील प्रभुपाि ने इसे अपने दशष्ोों को दवशेष
रूप से भम्भक् के अोंग के रूप में दिया है ।

ऊपर के छः दबन्िु ओों को पढ़कर हम िे ख सकते हैं दक SAC


ने मूल प्रश्न को नजरअोंिाज कर दिया है । मूल प्रश्न यह है दक
"श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर ने उपनयन की शुरुआत
क्योों की ?" आप उपनयन से वै ष्णव नही ों बन जाते । पञ्च -
सोंस्कार उसके दलए आवश्यकता है । कई दिजोों ( स्ातथ , शैव,
शाक्, गाणपत्य, आदि ) का उपनयन हुआ है , लेदकन वे वै ष्णव
नही ों हैं ।

ऐदतहादसक तथ्य के अनुसार, उस समय श्रील भम्भक्दसद्धान्


सरस्वती ठाकुर जादत ब्राह्मणोों के साथ युद्ध में थे और यह
दिखाना चाहते थे दक चररत्र से वैष्णव भी ब्राह्मण थे। यह बहुत
ही महत्वपूिश टबांदु है क्योोंदक पूवथपक्ष (SAC) इसे नजरअोंिाज
करके अन्य बातोों पर ध्यान बाँटाता है जैसे दक यह जोर िे ता है
दक ब्रह्म गायत्री भम्भक् का एक महत्त्वपूणथ अोंग है । दफर इस
म्भिदत से SAC अप्रत्यक्ष और घु माविार मागों से हमें ले जाते
हुए अपने जोर-जबरिस्ती वाले दनष्कषथ पर लाकर रख िे ता है

गौर-दकशोर िास बाबाजी, वोंशीिास बाबाजी, और जगन्नाथ


िास बाबाजी जैसे दपछले गौड़ीय आचायथ दकसी भी उद्दे श्य के
दलए ब्रह्म-गायत्री का जप नही ों दकये थे , भम्भक् के दलए करने
की तो बात ही छोड़ो।

ब्रह्म-गायत्री जैसा दक हमने ऊपर दिखाया है , वैदिक िीक्षा का


दहस्सा है क्योोंदक यह योग्य पुरुष छात्र को वैदिक अध्ययन की
41
िु दनया में प्रवेश करने का अदिकार िे ता है , जो मदहलाओों और
शूद्ोों के दलये वदजथत है । इसदलए SAC के पूरे दृदष्टकोण एवों
कायथप्रणादल में कुछ बहुत गड़बड़ है । SAC ने श्रील
भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर के मनोऽभीष्टम् को पूरी तरह से
नजरअोंिाज कर दिया है ।

क्ोां श्रील भम्भिटसद्धान्त


सरस्वती ठाकुर ने उस समय
एक अपरां परागत तरीके से
उपनयन की र्ुरुआत की?

इस सबसे स्पष्ट और महत्वपूणथ सवाल को SAC पूछता नही ों


दकन्ु नजरअोंिाज कर िे ता है -- "श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती
ठाकुर ने उस समय अपरों परागत तरीके से उपनयन की
शुरुआत क्योों की?" यदि हम इसका उिर जान लें तो सब कुछ
ठीक समझ में आ जाता है । यदि श्रील भम्भक् दसद्धान् सरस्वती
ठाकुर ने भम्भक् के अभ्यास के दलए ब्रह्म-गायत्री की शुरुआत
की तो SAC सही है , लेदकन यदि उन्ोोंने इसे दकसी अलग
कारण से शुरु दकया तो SAC का पूरा तकथ ध्वस्त हो जायेगा।
श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर चैतन्य-भागवत पर अपनी

42
व्याख्या में उपनयन -- पदवत्र उपवीत समारोह -- का कारण
इस प्रकार बताते हैं :

यज्ञोपवीत सांस्कार का उद्दे श्य व्यम्भि को


वेदोां का अध्ययन करने की योग्यता प्रदान
करना है , क्योोंदक ब्रह्म-सूत्र में कहा गया है दक
शूद् , या दबना पदवत्र उपवीत वाले लोग,
वेिान् सुनने के पात्र नहीों हैं । पञ्चरादत्रक मोंत्रोों
को स्वीकार करने और श्री नारि पञ्चरात्र के
अनुसार उदचत रूप से िीदक्षत होने के बाि
व्यम्भक् को िस सोंस्कारोों45 को करना चादहए
और उसके बाि मन्त्रोों का अथथ सुनना चादहए।
(श्री चैतन्य-भागवत 1.8.7ता).

यह वही कारण है जो आपस्तोंब ने दिया है दजसे हमने पहले


उि् िृत दकया था। और हम ध्यान िें दक श्रील भम्भक् दसद्धान्
सरस्वती ठाकुर कहते हैं , " पञ्चरादत्रक मोंत्रोों को स्वीकार करने
के बाि ..." व्यम्भक् को वैदिक सोंस्कार का पालन करना चादहए
। और यही वस्तु उन्ोोंने पञ्च-सोंस्कार िे ने के बाि उपनयन
िे कर के िादपत की ।46

45
“सोंस्कार” शब्द यहााँ पर मानक वैदिक सोंस्कारोों जैसे गभाथिान, उपनयन,
दववाह, इत्यादि को लदक्षत करता है ।
46
श्रीपाि भम्भक् दवकास स्वामी के अनुसार श्रील भम्भक्दसद्धाोंत ने गौड़ीय मठ
में जो प्रोटोकॉल िादपत दकया था, वह यह था दक उपनयन (ब्रह्म -गायत्री मोंत्र
और पदवत्र उपवीत) ६ पोंचरादत्रका मोंत्र दिए जाने के बाि उसी दिन एक अलग
समारोह में दिया जाता था ।
43
और श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर के जातीय ब्राह्मणोों के
साथ युद्ध के सोंबोंि में --- श्रील प्रभुपाि ने इसे शुरू करने का
अपना अन्य कारण बताया है :

श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर ने अपने


वैष्णव दशष्ोों के दलए यज्ञोपवीत सोंस्कार की
शुरुआत की इस दवचार के साथ दक लोगोों को
यह समझना चादहए दक जब कोई वैष्णव बन
जाता है तो उसने पहले से ही एक ब्राह्मण की
योग्यता हादसल कर ली है ।

इसदलए अोंतराथष्टरीय कृष्णभावनामृत सोंघ में , जो


िो बार िीदक्षत होकर ब्राह्मण बनें है उनको
अपने मनमें अपनी बहुत ही बड़ी दजम्मेिारी
समझनी होगी दक उनको सत्यवािी, मन और
इम्भियोों पर दनग्रह, सदहष्णु, इत्यादि का पालन
करना होगा । (श्रीमद्भागवत 10.7.13-15
तात्पयथ)

और यहााँ पर श्रील प्रभुपाि पुदष्ट करते हैं दक वे उसी कारण से


पदवत्र उपवीत प्रिान कर रहे हैं :

प्रभुपाि: हााँ । हम यूरोप और अमेररका में इन्ें


ब्राह्मण कहकर क्योों स्वीकार कर रहे हैं ? वे
ब्राह्मण पररवार में पैिा नहीों हुए हैं। लेटकन
हम उन्ें जनेऊ (उपवीत) क्ोां दे रहे हैं ?
केवल गुि और कायश के टलए। यह शास्त्र में
कहा गया है । नारि मुदन कहते हैं दक गुण
और लक्षण ही यह दनणथय करने का वास्तदवक
मोंच है दक कौन ब्राह्मण है , कौन शूद् है ।
नारि ने कहा, और श्रीिर स्वामी ने उन पर
44
दटप्पणी की है दक जन्म का इतना महत्त्व नहीों
है; गुि और कमश को दे र्ा जाना चाटहये ।
(8 दिसम्बर 1973, लॉस एों दजल्स)

यह SAC के इस िावे का खोंडन करता है दक, "श्रील


प्रभुपाद ने इसे मुख्य रूप से भम्भि के एक भाग के
रूप में अपने टर्ष्योां को टदया था ।"

श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर की ओर लौटते हुए ---


उन्ोोंने उपनयन की दशक्षा िी क्योोंदक यह वैदिक अध्ययन का
प्रवेश िार है और यह जादत ब्राह्मणोों के म्भखलाफ उनके युद्ध का
दहस्सा था।

टनष्कर्श यह है टक SAC की म्भिटत िू ि कर के बचावहीन


अविा में आ गई है ; कारि है उपनयन (यज्ञोपवीत
सांस्कार) प्रदान करने के पीछे के कारिोां का उन्ोांने तोड-
मरोड करके गलत प्रटतटनटधत्व टकया है । SAC के लेर्क
या तो घोर अज्ञानी होने , या गलत इरादे वाले दु राचारी
नािकी होने , या दोनोां के दोर्ी हैं। टकसी भी मामले में , वे
प्रत्यक्ष व्याख्या के टसद्धान्त के अनु सार र्ोिे हैं।

जो कोई भी अपना मत या िशथन िादपत


करना चाहता है वह दनश्चय ही दकसी भी शास्त्र
की व्याख्या प्रत्यक्ष व्याख्या के दसद्धान् के
अनुसार नहीों कर सकता। (श्री चैतन्य-
चररतामृत 2.25.49)

45
जीबीसी का प्रस्ताव

जीबीसी केवल SAC के परामशथ के आिार पर एक प्रस्ताव


कैसे पास कर सकता है ? खासकर यह िे खते हुए दक
सामादजक मुद्दो पर भूतकाल में भी SAC के कई अनुसोंिान
पेपरोों को बुरी तरह से खाररज़ दकया गया है । SAC के 2005
के स्त्री-िीक्षा-गुरु के समथथनवाले पेपर को ही लें , दजसे 2009-
2010 में मेरे िारा इस्कॉन इों दडया का प्रदतदनदित्व करते हुए
टलर्े गए पेपर द्वारा चु नौती िी गई थी। इसके अलावा, SAC
का 2013 का स्त्री-दीक्षा-गुरु के टवर्य पर जो पेपर था
उसने अपनी खराब गुणविा के कारण कभी भी दिन का प्रकाश
नही ों िे खा। इस्कॉन इों दडया की ओर से , फूट के करीब पहुाँ च रहे
पयाथ प्त प्रदतरोि के कारण ही जीबीसी ने स्त्री-िीक्षा-गुरु पर
अपने रुख का पु नमूथ ल्ाों कन दकया है , दजससे उन्ें इस पर रोक
लगाना पड़ रहा है ।

ऐसे मुद्दोों पर ऐदतहादसक प्रदतदिया को ध्यान में रखते हुए ,


जीबीसी ने दवरोिी दवचारोों को आमोंदत्रत करने से पहले एक
प्रस्ताव पाररत करने में जल्दबाजी क्योों की ? दवशेष रूप से
(जैसा दक हमने प्रिदशथत दकया है ) जब SAC के तकों में स्पष्ट
रूप से बहुत बड़ी त्रुदटयााँ हैं । (और यह तो दसफथ शुरुआत है ।)

46
जीबीसी के प्रस्ताव को दे र्ते हैं , इसका सबसे गांभीर
टहस्सा तो समस्या को और अटधक जटिल और धूां धला बना
दे ता है:

2. िू सरी िीक्षा में , िीक्षा िे ने वाले गुरु वहीों दवदशष्ट सात मन्त्र
िें गे जो श्रील प्रभुपाि ने सभी िीदक्षतोों को दिए थे , दजसे हम
ब्राह्मि-दीक्षा या िू सरी िीक्षा कहते हैं , और उन्ें इन मन्त्रोों
का दिन में तीन बार जप करने का दनिे श िें गे --- (सुबह
में, मध्याह्न में , सायों काल में) ।

3. प्रथम और िू सरी िीक्षा के समय उन उन प्रणोों को और


उन सभी मन्त्रोों को पूरी तरह से प्राप्त करने के दलये कौन
अदिकारी (योग्य) है इस दवषय में न तो गुरु, न ही जो िीक्षा
के दलये अनुशोंसा (recommendation) िे ने वाले भक् है
वे इन टकसी भी आधार पर भेद कर सकते हैं ---जन्म,
राष्टरीयता, वोंश, जादत, पूवथ सोंस्कार , वैवादहक म्भिदत, दलोंग,
या विों में टवभाजन (जैसे टक व्यावसाटयक कायश)।

"हमें यह नही ां सोचना चाटहए टक हर


टकसी को ब्राह्मि बनना होगा"
यटद मैं इसे सही ढां ग से पढ़ रहा हाँ , तो जीबीसी इस बात
पर जोर दे रही है टक, ब्राह्मि47 दीक्षा के टलए, टकसी को
ब्राह्मि गुि धारि करने की आवश्यकता नही ां है ! यह

47
हालाोंदक यह सच है दक कृष्ण की वैदिक सोंस्कृदत में, वैश्योों और क्षदत्रयोों को
भी उपनयन दमलता था, दकन्ु इस बात के भी प्रचुर प्रमाण हैं दक श्रील
प्रभुपाि ने इस्कॉन की कल्पना ब्राह्मणोों के दनमाथण करने वाली एक सोंिा के
रूप में की थी ।
47
वणाथ श्रम-िमथ को लागू करने का एक मनगढ़ों त तरीका है । 48
चाहे कोई कब्र खोिने वाला हो, ऑटो मैकेदनक हो, स्टोर क्लकथ
हो, या दकसी वेतनभोगी कमथचारी ( शूद् ) के रूप में काम कर
रहा हो, उसे भी अभी ब्राह्मण के पि पर घोदषत दकया जाना
होगा। मेरा मानना है दक वे लोग इसे "प्रगदतशील" मानते है ।
इसके दवपरीत, वास्तव में दकसी पुरुष के दलए वणथ 49 में गु ण
और कमथ शादमल होते हैं , जहााँ कमथ उसके गुण के अनुरूप
कायथ होता है । जीबीसी का प्रस्ताव सीिे तौर पर इस्कॉन के
दलए श्रील प्रभुपाि के मागथिशथन का खोंडन करता है । श्रील
प्रभुपाि ने "िजी ब्राह्मणोों" के दवचार का दवरोि दकया है , ऐसे
ब्राह्मण जो ब्राह्मण के मानकोों को पालन करने के प्रदत उत्साही
नही ों होते । उन्ोोंने ऐसे भक्ोों को िू सरी िीक्षा िे ने के दवषय में
चेतावनी िी है । श्रील प्रभुपाि ने इस बात पर जोर दिया दक हर

48
इस बात के प्रचुर प्रमाण हैं दक श्रील प्रभुपाि इस्कॉन में वणाथश्रम-िमथ की
िापना करना चाहते थे । सुिामा को दलखा पत्र, दजसे हमने नीचे उि् िृत
दकया है, दृढ़तापूवथक सुझाव िे ता है दक ब्राह्मणीय िीक्षा इसका अदभन्न अोंग
थी। उन उद्धरणोों के सोंग्रह के दलए दजनमें श्रील प्रभुपाि इस बात पर जोर िे ते
हैं दक वणाथश्रम-िमथ की िापना उनका अगला प्रोजेक्ट है : https://guru-
sadhu-sastra.blogspot.com/p/varnasrama-srila-prabhupadas-
plan-for.html
49
म्भस्त्रयोों का कोई वणथ नहीों होता; क्योों? क्योोंदक जबदक म्भस्त्रयोों मेंअलग-अलग
गुण होते हैं, लेदकन उन सभी का कमथ एक ही होता है -- स्त्री-िमथ -- जैसा
दक श्रीमद्भागवत 7.11.20-25 में उम्भल्लम्भखत हुआ है। यह एक बड़ा दवषय है
दजस पर हम बाि में कभी दवस्तार से चचाथ करें गे ।
48
दकसी को ब्राह्मण नही ों बनना चादहए और जो लोग ब्राह्मण
दसद्धान्ोों का पालन नही ों करते हैं उन्ें पु नः शूद् बन जाना
चादहए ।

गायत्री िीक्षा की दसिाररश करते समय


टे म्पल प्रेदसडे न्ोों को बहुत ही साविान रहना
चादहए । आद़िरकार, हम िजी जादत ब्राह्मणोों
की आलोचना कर रहे हैं , यटद हम स्वयां फजी
ब्राह्मि हैं तो हमारी म्भिटत बहुत र्राब है।
अब क्ोांटक हम और अटधक प्रयास कर
रहे हैं समाज के विाशश्रम टवभाजन को
लागू करने का, हमें यह नही ां सोचना
चाटहए टक हर टकसी को ब्राह्मि बनना
होगा। उिाहरण के दलए आप वहााँ एक फामथ
दवकदसत कर रहे हैं ; इसदलए जो लोग खेतोों में
काम करते हैं , तो उनका ब्राह्मण होना जरूरी
नहीों है, यदि वे ब्राह्मण मानकोों के प्रदत इच्छु क
नहीों हैं । इस प्रकार, िू सरी िीक्षा िे ने में
साविानी बरतें। (सुिामा को पत्र, रोम, 26 मई
1974)

अब इस बात की जााँच होनी चादहए दक क्या


तथाकदथत ब्राह्मण वास्तव में ब्राह्मण दनयामक
दसद्धान्ोों का पालन कर रहे हैं और दनयदमत
रूप से मन्त्र का जप कर रहे हैं। अन्यथा
उन्ें पुनः र्ूद्र बना दे ना चाटहए। यदि हम
केवल िागा प्राप्त करके अपने आप को
सुरदक्षत करले दकन्ु सही से पालन नहीों करें ,
तो यह क्या है ? इसकी पररक्षा होनी चादहये ।
प्रत्येक व्यम्भक् से कहा जाना चादहए, "अब इस

49
गायत्री-मन्त्र का जप करें ।" (सुबह की सैर -
12 दिसोंबर, 1973, लॉस एों दजल्स)

श्रील प्रभुपाि केवल कृष्ण के वैदिक मानक को िोहरा रहे थे


दक एक ब्राह्मण को उसके व्यवसाय, उसके िारा दकए जाने
वाले कायथ से जाना जाता है ।

न योदनर नादप सोंस्कारो

न श्रुतों न च सोंतदत: ।

कारणादन दिजत्वस्य

वृिों एव तु कारणम् ॥

"इसदलए, न तो दकसी के जन्म का स्रोत, न ही


उसका सोंस्कार, न ही उसकी दशक्षा, एक
ब्राह्मण होने की कसौटी है । वृि, या व्यवसाय
(कायथ) ही वास्तदवक मानक है दजसके िारा
दकसी को ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है ।"
(महाभारत, अनुशासन पवथ 143.50)

इससे पता चलता है दक श्रील प्रभु पाि ने शुरुआत में िू सरी िीक्षा
के सोंबोंि में उिारता दिखाई लेदकन बाि में मानकोों को कड़ा
कर दिया। इसका तात्पयथ यह है दक कृष्ण की वैदिक सोंस्कृदत
के मूल मानिों ड पर वापस लौटना अनुदचत नही ों है अदपतु
अपेदक्षत या वाों छनीय है , दजस सोंस्कृदत के मानिों डोों में मदहलाओों
को ब्रह्म-गायत्री प्राप्त करने से बाहर रखा गया है ।

50
जीबीसी सोंकल्प पर लौटते हुए,

जीबीसी इस मामले पर श्रील प्रभुपाद के सीधे टनदे र्


के साथ अपने सांकल्प को कैसे समेिेगा?

इस दवषय पर हमारी म्भिदत यह है दक यद्यदप यह दबल्कुल सत्य


है दक जादत, वगथ, सामादजक म्भिदत या दलोंग की परवाह दकए
दबना हर कोई भी व्यम्भक् पञ्च-सों स्कार के माध्यम से पञ्चरादत्रक
िीक्षा प्राप्त करने के दलए पात्र है और इस प्रकार एक वैष्णव के
रूप में िीदक्षत दकया जा सकता है , और इस प्रकार पदवत्र नाम
का उच्चारण करने और पञ्चरादत्रक दविान के अनुसार
अचाथ दवग्रह की पूजा करने के दलए पात्र हो सकता है ,50 दकन्ु
यही बात उपनयन -- पदवत्र उपवीत और ब्रह्म-गायत्री को प्राप्त
करने के दवषय लागू नही ों होती है । ये िो अलग-अलग िीक्षाएाँ
हैं दजन्ें गलत ही एक समझ दलया गया है दजसका कारण है
उनके प्रशादसत होने के तरीके, इस्तेमाल दकए गए नामकरण
और सामादजक पररवेश ।51

प्रत्येक व्यम्भक् की पहली िीक्षा में पञ्च-सोंस्कार के कुछ अोंश


शादमल होते हैं , जबदक उनकी िू सरी िीक्षा में बाकी बचे पञ्च-
सोंस्कार है , और इसके साथ वैदिक उपनयनम है जो केवल
योग्य पुरुषोों के दलए है ।

50
म्भस्त्रयोों और शूद्ोों के दलये मात्र घर में ही पूजा का दविान है ।
51
श्रील प्रभुपाि की गुरु-बहनें, जो स्त्री-िमथ का पालन कर रही थीों और कृष्ण
की वैदिक सोंस्कृदत को जानती थीों, उन्ोोंने यह गलती नहीों की।
51
अभी भी एक स्त्री भक् पञ्च-सों स्कार पूरा करके िू सरी िीक्षा
प्राप्त कर सकती है , लेदकन वह वैदिक उपनयनम -- पदवत्र
उपवीत और ब्रह्म-गायत्री प्राप्त करने के दलए पात्र नही ां है।

दीक्षा के चरिोां के नामधेय में


पररवतशन का सुझाव
भ्रम को िू र करने और अदिक स्पष्टता लाने के दलए हमारा
सुझाव है दक जीबीसी िीक्षाओों के नामकरण में बिलाव पर
दवचार कर सकता है (या नही ों भी)। कुछ इस तरह:

• प्रथम पञ्चराटत्रक दीक्षा -- तीन पञ्च-सोंस्कार


दिए जाते है (ऊध्वथपुण्डर, ताप, और िास्य नाम)

• टद्वतीय पञ्चराटत्रक दीक्षा -- याग सोंस्कार के


साथ ( गुरु बीज, गुरु गायत्री , आदि ६) मोंत्र
सोंस्कार में प्रिान दकए जाते हैं

• वैटदक उपनयन -- पदवत्र उपवीत और ब्रह्म-


गायत्री मन्त्र प्रिान दकये जाते हैं

पुरुष और मदहलाएाँ पहली और िू सरी पञ्चरादत्रक िीक्षा


के दलए पात्र हैं ।

दकन्ु केवल योग्य पुरुष (अथाथ त ब्राह्मण प्रवृदि और कायथ


वाले पुरुष) ही वैदिक उपनयन के दलए पात्र हैं ।

इस बात पर जोर दिया जाना चादहए दक यह पञ्चरादत्रक िीक्षा


है जो अदिक महत्वपूणथ है क्योोंदक यह हमें पदवत्र नाम का जप
52
और कीतथन करने की, तथा अचाथ दवग्रह की पूजा करने की
अनुमदत िे ती है , और यही उपयुक् प्रकृदत के पुरुषोों को
उपनयन प्राप्त करने के दलए भी योग्य बनाती है ।

अांटतम टिप्पटियााँ
हमने दिखाया है दक SAC सोंशय दनवारण कर वास्तदवक अथथ
को समझने के दलए कृष्ण की मीमाों सा प्रणाली के बजाय
"हे मेनेयुदटक्स" की यवन प्रणाली को दनयोदजत करता है । और
दक उस SAC ने, अपने मनगढ़ों त "हे मेनेयुदटक्स" का उपयोग
करके श्रील भम्भक्दसद्धान् सरस्वती ठाकुर के मनोऽभीष्ट को
भी नजरअोंिाज कर दिया है । और यह दक जीबीसी ने यह िे खने
की प्रतीक्षा दकए दबना ही दक SAC पेपर पर कोई प्रदतदिया हुई
या नही,ों जल्दबाजी में एक गोंभीर त्रुदटपूणथ प्रस्ताव पाररत कर
दिया -- जो एक ऐसा तथ्य है दजसे उदचत स्पष्टीकरण की
आवश्यकता है ।

SAC में स्पष्ट अक्षमता और भ्रष्टाचार के बावजूि (नीचे िे खें) ,


और जीबीसी को इस गड़बड़ी के बारे में लोंबे समय से पता होने
के बावजूि भी हम उनसे SAC को खाररज़ करने या इसके नेता
उदमथला िासी को हटाने की उम्मीि नही ों करते हैं । क्योों? क्योोंदक
ऐसा प्रतीत होता है दक GBC की SAC के साथ दमलीभगत है
और SAC GBC को वह उत्पाि प्रिान करता है जो वे चाहते
हैं । जैसा दक मुकुोंि-िि प्रभु -- SAC के सोंिापक सिस्य (और
बाि में पिाथ िाश करने वाले), दजन्ोोंने अोंततः प्रमुख SAC
53
कायथकताथ ओों के लगातार अनैदतक व्यवहार के कारण इस्तीफा
िे दिया -- उन्ोोंने 2014 में दलखा था :

सच कहाँ तो, मुझे लगता है दक वतथमान SAC और इसका


हादलया [2013] का पेपर िोनोों ही पक्षपातपूणथ स्वाथों से
िू दषत हैं। मेरे इस दवचार के दपछे आों दशक रूप से
दनम्नदलम्भखत कारण है:

4. एक ही प्रकार के टनष्कर्श को बल दे ने हेतु पहले से


मौजूि SAC की सिस्योों की सोंख्या को िू सरोों से भर दिया
गया था; मैंने िे खा दक एक लक्ष्य-उन्मुख कायथप्रणाली
दडिॉल्ट रूप से काम कर रही है -- जैसे टक पररिाम तो
एक पूवश टनधाश ररत टनष्कर्श है ऐसा मान टलया गया हो,
जो SAC अनुसोंिान को मूल्हीन औपचाररकता बना कर
रख िे ता है।

सौजन्य -- "शास्त्रीय सलाहकार सदमदत के राजनीदतक


रूप से प्रेररत गलत कायथ"

SAC जीबीसी को उनके कायों के समथथन दलए कुछ सोंभदवत


लगते प्रमाण िे ता है और इससे अदिक कुछ नही।ों इसदलये हम
दकसी भी बिलाव की उम्मीि नही ों करते हैं क्योोंदक SAC
दबल्कुल वही कर रही है जो जीबीसी चाहती है -- एक सहायता
अपने चल रहे अदभयान में , इस्कॉन को नारीवाि जैसे आिुदनक
रुझानोों के अनुरूप लाने के और वणाथ श्रम-िमथ के बारे में श्रील
प्रभुपाि की इच्छाओों को इस्कोन से िू र करने के ।

सामादजक मुद्दोों पर अपने िारा प्रकादशत हर नए पेपर के साथ ,


SAC यह सादबत करती है दक अपनी िापना के बाि से दपछले
कुछ वषों में यह दकतनी गलत प्रे रणा वाली हो गयी है । दपछली
54
सिी के अन् में , पूणथचोंद् महाराज ने मू ल रूप से एक ब्राह्मण
समूह की कल्पना की थी जो जीबीसी को सलाह िे सके --
इस्कॉन के भीतर वणाथ श्रम-िमथ को लागू करने के श्रील प्रभुपाि
के आिे श को पूरा करने की दिशा में एक महत्वपूणथ किम।
इसके दवपरीत, SAC िीरे -िीरे सामादजक-राजनीदतक
िाम्भन्कारी के एक प्रमुख समूह के रूप में कायथ करने के दलए
अपहृत हो गया है , दजसका मुख्य उद्दे श्य श्रील प्रभु पाि के
आिे शोों में रुकावट डालना प्रतीत होता है । कम से कम उदमथला
िासी के इसकी अध्यक्ष बनने के बाि से तो यह स्पष्ट पथ है ।

जैसा दक पहले कहा गया है दक यह तो केवल बाढ़ की शुरुआत


है , श्रील प्रभुपाि के गोंभीर अनुयादययोों के दलए उदचत दसद्धान्
और मागथिशथन िे ने हे तु दवस्तृत दबोंिु-िर-दबोंिु खोंडन तैयार दकये
जा रहे हैं ।

55
अटग्रम पठन के टलये सामग्री
का सुझाव

वैदिक वाङ्मय में आपस्तोंब िमथ सूत्र की म्भिदत

मनु-सोंदहता की रक्षा में


पञ्चरात्र का पररचय (इस प्रणाली का एक
सोंदक्षप्त अवलोकन)

पञ्चरात्र ग्रोंथ और मध्वाचायथ -- मान्यता प्राप्त


माध्व दविान वीरनारायण पाों डुरों गी िारा यह
पेपर पञ्चरात्रोों के बारे में मध्वाचायथ के दवचारोों
का पयाथ प्त प्रमाण िे ता है ।

इसी दवषय पर एक वीदडयो चचाथ श्रीपाि


भम्भक्दवकास स्वामी िारा: “ब्राह्मण-िीक्षा के
सोंबोंि में मेरी नीदत”

(https://www.youtube.com/watch?v=u
LFBxCk2l9Q )
56

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