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आश्रम व्यवस्था की प्रासंगिता
आश्रम व्यवस्था की प्रासंगिता
समान था जिसके अन्तर्गत मनुष्य अपने दै निक जीवन में यथाक्रम निर्द्धिष्ट
नियमों का पालन करता हुआ अपने जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के
उल्लेख पाते है वे प्राचीन काल में अत्यन्त उपयुक्त थे, किन्तु आज के सन्दर्भ
में पर्ण
ू तः प्रासांगिक सिद्ध कर पाना सम्भव नही है क्योकि न तो आज मनष्ु य
उत्कृष्ट दिशा दे ने में समर्थ है । प्राचीन से लेकर वर्तमान तक चार आश्रम मानव
जीवन एवं समाज में कितना प्रासंगिक था उसकी चर्चा हम आगे करे गे।
प्रथम आश्रम ब्र ã चर्य के अन्तर्गत व्यक्ति गुरुकुल में गुरु के समीप
रहकर विधाध्यन करता। यहाँ छात्र श्रद्धा, सेवा, संयम, आज्ञाकारिक, कठोर भावो से
परिपरि
ू त अनुशासन एवं इन्द्रिय भावनाओ पर नियन्त्रण कर वेद, वेदागों तथा
समाप्त ही हो गये है , परन्तु ब्र ã चर्य के जो नियम, अनुशासन आदर्श एवं शिक्षा
से समझा जा सकता है ।
2. गरु
ु के प्रति शिष्य का सेवाभाव व श्रद्धाभाव से वि|k र्थी में मानवोचित
गण
ु ो का समावेश होता है । इन गण
ु ो की उपयक्
ु तता आज भी है । जिससे व
समाज के प्रति संवेदनाशील बनते है तथा अपने कर्तव्यो को पहचान में सक्षम
बन पाते है ।
प्रभावित हो रहा है । ऐसे में ब्र ã चर्य आश्रम के अन्तर्गत कंठस्थ विधि(विषय
गह
ृ स्थ आश्रम का आरम्भ विवाह संस्कार के सम्पन्न होने के बाद माना
उन्नति के प्राचीन काल में उपयोगी तो था ही वर्तमान में भी इसके नियम एवं
प्राचीन मनीषियो ने गह
ृ स्थ आश्रम के अन्तर्गत जो दस नियमो
(पवित्रता, यज्ञ, तपस्या, दान, स्वाध्याय, धर्मानुसार ब्र ã चर्य, व्रत, उपवादन, मौन,
स्नान) की व्यवस्था की जिसका पालन प्रत्येक गहृ स्थ का अनिवार्य कर्तव्य थे।
परु
ु षार्थ की पर्ण
ू ता कर आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति करता। आधनि
ु क यग
ु की
चकाचोंध जीवन में गहृ स्थ संस्कारो, पुरुषार्थो, नैतिक नियमो को ताक में रखकर
गह
ृ स्थाश्रम के कर्तव्यो को भलि-भाँति पूर्ण करने के उपरान्त मनुष्य
ग्राम को त्यागकर वनो में निवास करने का निर्देश दिया गया। यहाँ उसका
पत्नी यदि चाहती तो पति के साथ रहकर समाज सेवा करती अन्यथा अपने
पुत्रो के साथ रहकर ही इस कार्य को पूर्ण करती, इन समाज सेवीयों में योग्य
वर्तमान में जीवन प्रत्यासा में कमी एवं विकसित युग में अब वानप्रस्थ
उतना प्रासंगिक नही रहा, परन्तु वानप्रस्थ की समाज सेवा भाव की परम्परा की
सन्यासी के कुछ कर्तव्यो(ब्र ã चर्य का पालन, दया करना, क्षमाशील, सत्य बोलना,
करते थे। अतः प्राचीन समय में संन्यासी के कर्तव्य एवं समाज सेवा के
वस्त्रो एवं अनेक आरामदे ह वाहनो एवं उपकरणो का उपयोग, अनेक प्रकार की
तथाकथित संतो की कुटिलताये समाज में दे खने को मिल रही है । किसी कारण
वश जब उनके करतूत समाज में उजागिर होते है तो धर्म एवं संत दोनो से
विश्वास हिल जाते है । इसके कुछ उदाहरण वर्तमान में दे खने को मिली है जिन्हे
सकता है । इसके साथ ही वह मानव एवं जगत का कल्याण करता हुआ परम