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आश्रम व्यवस्था की प्रासंगिता

आश्रम व्यवस्था के नियमों एवं सिद्धान्तो का गहन अध्ययन करने के

पश्चात यह ज्ञात होता है कि इसका विधान मानव के शारीरिक, मानसिक,

बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के साथ-साथ सामाजिक संरचना को

सुव्यस्थित एवं सुसंगठित ढं ग से चलाने के लिए प्राचीन हिन्द ू विचारको द्वारा

की गई। आश्रम मानव जीवन की आध्यात्मिक यात्रा में एक विराम स्थल के

समान था जिसके अन्तर्गत मनुष्य अपने दै निक जीवन में यथाक्रम निर्द्धिष्ट

नियमों का पालन करता हुआ अपने जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के

लिए अग्रसर होता है । परन्तु स्मति


ृ ग्रन्थो में हम जिस आश्रम व्यवस्था का

उल्लेख पाते है वे प्राचीन काल में अत्यन्त उपयुक्त थे, किन्तु आज के सन्दर्भ

में पर्ण
ू तः प्रासांगिक सिद्ध कर पाना सम्भव नही है क्योकि न तो आज मनष्ु य

इतना स्वस्थ है कि वह सौ बरस जी सके और न ही गरु


ु कुल प्रणाली ही रही

कि बच्चे वन में जा के शिक्षा ग्रहण कर सके। परन्तु आश्रम परम्परा जिन

सिद्धान्तो नियमों एवं विचारो को लेकर बनायी गई थी वे प्राचीन काल के साथ-

साथ वर्तमान में भी अत्यन्त उपयोगी एवं प्रासंगिक है जो आधुनिक समाज को

उत्कृष्ट दिशा दे ने में समर्थ है । प्राचीन से लेकर वर्तमान तक चार आश्रम मानव

जीवन एवं समाज में कितना प्रासंगिक था उसकी चर्चा हम आगे करे गे।

प्रथम आश्रम ब्र ã चर्य के अन्तर्गत व्यक्ति गुरुकुल में गुरु के समीप

रहकर विधाध्यन करता। यहाँ छात्र श्रद्धा, सेवा, संयम, आज्ञाकारिक, कठोर भावो से
परिपरि
ू त अनुशासन एवं इन्द्रिय भावनाओ पर नियन्त्रण कर वेद, वेदागों तथा

विभिन्न विषयो का अध्ययन करता था। जिससे छात्र का शारीरिक, मानसिक,

नैतिक, चारित्रिक, वैयक्तिक, एवं आध्यात्मिक का विकास होता जिससे वह जीवन

रुपी यात्रा को सफलता पर्व


ू क पर्ण
ू करता। वर्तमान में तो गरु
ु कुल लगभग

समाप्त ही हो गये है , परन्तु ब्र ã चर्य के जो नियम, अनुशासन आदर्श एवं शिक्षा

व्यवस्था है वे आज भी पूर्णतः प्रासांगिक है । इसको निम्न बिन्दओ


ु के माध्यम

से समझा जा सकता है ।

1. ब्र ã चर्य आश्रम के अन्तर्गत ‘अनुशासन’ एक प्रमुख गुण था जो किसी

भी युग में प्रासंगिक ही रहे गा क्योकी एक अनुशासित छात्र ही एक श्रेष्ठ

नागरिक बनकर दे श व समाज की उन्नति करने में सक्षम होगा।

2. गरु
ु के प्रति शिष्य का सेवाभाव व श्रद्धाभाव से वि|k र्थी में मानवोचित

गण
ु ो का समावेश होता है । इन गण
ु ो की उपयक्
ु तता आज भी है । जिससे व

समाज के प्रति संवेदनाशील बनते है तथा अपने कर्तव्यो को पहचान में सक्षम

बन पाते है ।

3. वर्तमान के तकनिकी एवं वैज्ञानिक यग


ु में मनुष्य अधिकाधिक मशीनो

पर निर्भर होता जा रहा है जिससे उसका शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य

प्रभावित हो रहा है । ऐसे में ब्र ã चर्य आश्रम के अन्तर्गत कंठस्थ विधि(विषय

भोग बढ़ाने वाली) एवं योग की प्रासंगिकता निश्चित रुप से बढ़ी है ।


4. ब्र ã चर्य आश्रम मे छात्र को ब्र ã चर्य (विषयोभोग से अलग रहना) का

कठोरता से पालन करने का आदे श था क्योकि दर्ब


ु ल शरीर द्वारा सार्थक

कामपभोग संभव नही। ब्र ã चर्य ही गहृ स्थाश्रम की सफलता का मल


ू मंत्र था।

इसकी प्रासंगिकता किसी भी दे श-काल की सीमा नही बाँधी जा सकती।

गह
ृ स्थ आश्रम का आरम्भ विवाह संस्कार के सम्पन्न होने के बाद माना

जाता है इस आश्रम के अन्तर्गत स्मति


ृ ग्रन्थो में उल्लिकित गह
ृ स्थ के कर्तव्यो

एवं उत्तरदायित्यो का जो उल्लेख किया गया है वे व्यक्ति एवं समाज की

उन्नति के प्राचीन काल में उपयोगी तो था ही वर्तमान में भी इसके नियम एवं

आचार पूर्णतः प्रासंगिक है ।

प्राचीन मनीषियो ने गह
ृ स्थ आश्रम के अन्तर्गत जो दस नियमो

(पवित्रता, यज्ञ, तपस्या, दान, स्वाध्याय, धर्मानुसार ब्र ã चर्य, व्रत, उपवादन, मौन,

स्नान) की व्यवस्था की जिसका पालन प्रत्येक गहृ स्थ का अनिवार्य कर्तव्य थे।

इसका अनुपालन कर व्यक्ति अपना वैयक्तित्व, नैतिक, शारीरिक एवं भौतिक

क्षेत्र में समन्नि


ु त करता जबकि तीन ऋण, पंचमहायज्ञ, संस्कारो का सम्पादन एवं

परु
ु षार्थ की पर्ण
ू ता कर आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति करता। आधनि
ु क यग
ु की

चकाचोंध जीवन में गहृ स्थ संस्कारो, पुरुषार्थो, नैतिक नियमो को ताक में रखकर

पश्चिमी संस्कृति की ओर अग्रसित हो रहा है । जिसके परिणाम स्वरुप गहृ स्थ

जीवन शोकाकुल, विवाह-विच्छे द, मानसिक एवं शारीरिक तनावग्रस्त, पारिवारिक


खींचतान, छलपूर्ण हो गया है । इन सब के निदान पूर्णतः प्रासंगिक है और

भविष्य में भी इसकी उपयुक्तता बनी रहे गी।

गह
ृ स्थाश्रम के कर्तव्यो को भलि-भाँति पूर्ण करने के उपरान्त मनुष्य

वानप्रस्थ की ओर प्रवेश करता था। इसके अन्तर्गत वह अपने कुल, गह


ृ तथा

ग्राम को त्यागकर वनो में निवास करने का निर्देश दिया गया। यहाँ उसका

जीवन संयम, साधना एवं त्याग पर्ण


ू तपस्वी एवं समाज सेवीयों का जीवन था।

पत्नी यदि चाहती तो पति के साथ रहकर समाज सेवा करती अन्यथा अपने

पुत्रो के साथ रहकर ही इस कार्य को पूर्ण करती, इन समाज सेवीयों में योग्य

आचार्य, साहित्यकार एवं अनुभवी व्यक्ति होते थे। जो उत्कृष्ट समाज का

निर्माण करते थे।

वर्तमान में जीवन प्रत्यासा में कमी एवं विकसित युग में अब वानप्रस्थ

उतना प्रासंगिक नही रहा, परन्तु वानप्रस्थ की समाज सेवा भाव की परम्परा की

उपयुक्तता आज भी है । क्योकि समाज सेवा की अनिवार्य दायित्यो को विस्मति


करने के कारण ही हमारा समाज विश्रंख


ृ ालित होता जा रहा है । अनेको

सामाजिक समस्यायें निरन्तर जन्म लेती जा रही है ।

मानव जीवन का अन्तिम भाग सन्यास आश्रम के अन्तर्गत आता है ।

इसमें संन्यासी का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति था। जिसके अन्तर्गत

सन्यासी के कुछ कर्तव्यो(ब्र ã चर्य का पालन, दया करना, क्षमाशील, सत्य बोलना,

क्रोध न करना, भिक्षा से प्राप्त भोजन को ग्रहण करना भौतिक वस्तुओ का


त्याग, शिष्य को शिक्षा प्रदान करना) का पालन करने का आदे श दिया गया। इन

कर्तव्यो एवं गुणो से परिपूर्ण संन्यासी संसार का उपकार करते। ये निरीह

निर्विकार संन्यासी राजाओ एवं महाराजाओ को मन्त्रणा दे ते जिससे समाज एवं

मनष्ु य का कल्याण होता था। ये अपने समस्त अनभ


ु वों से जनता का मार्गदर्शन

करते थे। अतः प्राचीन समय में संन्यासी के कर्तव्य एवं समाज सेवा के

उत्तरदायित्व व्यक्ति एवं समाज के लिए पूर्णतः उपयुक्त थे।

वर्तमान में भी संन्यास परम्परा को दे खा जा सकता है । परन्तु प्राचीन

कालीन संन्यास आश्रम के नियमो एवं कर्तव्यो को बहुत कम ही पालन करते

हुये दिखाई पड़ते है । अधिकतर संन्यासी तो संन्यास को ही उदरपूर्ति का साधन

बनाया है । जहाँ संन्यासी को शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़ने का

निर्देश था वही आज संन्यासी बड़े-बड़े चाक चौंध वातानक


ु ू लित भवनो, कीमती

वस्त्रो एवं अनेक आरामदे ह वाहनो एवं उपकरणो का उपयोग, अनेक प्रकार की

कामनाओ की पूर्ति कर रहे है । जिनका न ब्र ã चर्य सफल हुआ, न गह


ृ स्थ और

वानप्रस्थ तो शुन्य ही रहा, वे संन्यासी बन गये। जिसके परिणामस्वरुप

तथाकथित संतो की कुटिलताये समाज में दे खने को मिल रही है । किसी कारण

वश जब उनके करतूत समाज में उजागिर होते है तो धर्म एवं संत दोनो से

विश्वास हिल जाते है । इसके कुछ उदाहरण वर्तमान में दे खने को मिली है जिन्हे

बताने की आवश्यकता नही है ।


अगर वर्तमान में भी संन्यासी उन प्राचीन नियमों एवं कर्तव्यो का

ईमानदारी से आत्मसाद करने का प्रयत्न करे जो संन्यासी के लिए अनिवार्य थे

तो निश्चित ही इस माया मोह से भरे संसार से संन्यासी का मोह भंग हो

सकता है । इसके साथ ही वह मानव एवं जगत का कल्याण करता हुआ परम

तत्व की ओर अग्रसर होकर मोक्ष की प्राप्ति के योग्य हो जायेगा। अतः संन्यास

आश्रम के अन्तर्गत उल्लिखित संन्यासी के स्वतः के कर्तव्य एवं मानव और

समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्व प्राचीन के साथ-साथ वर्तमान में अत्यन्त

प्रासंगिक प्रतीत होते है ।

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