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प्रासंगिकता
प्रासंगिकता
प्रासंगिकता
किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को भी सुरक्षित रखा है । भारतीय संस्कृति में संस्कार,
पुरुषार्थ एवं आश्रम व्यवस्था का विशिष्ट महत्व रहा है । भारतीय समाज इन्ही तीन
पर्व
ू से लेकर मत्ृ यु तक धर्म के माध्यम से इस प्रकार जोड़ दिया ताकि मनष्ु य
शारिरिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं बौद्धिक रुप से परिष्कृत एवं शुद्ध होकर समाज
का पूर्ण विकसित सदस्य बन सके। जबकि पुरुषार्थो का उद्देश्य व्यक्ति के भौतिक तथा
साथ जोड़कर उनकी व्यवस्था तथा संचालन में सहायता प्रदान करते है । इस प्रकार
पुरुषार्थ एवं आश्रम व्यवस्था मनुष्य एवं समाज के लिए कितना प्रासंगिक है इसको
संस्कार
वैयक्तित्व एवं सामाजिक विकास के लिए, असंस्कृत रुप को संस्कृत करने के लिए,
इहलौकिक जीवन की सर्वागीण उन्नति के साथ-साथ पारलौकिक जीवन में मोक्ष प्राप्ति
सामाजिक एकता के आधार बने रहे है । ;|fi आज के वैज्ञानिक युग में भले ही संस्कारो
विवाह तथा अऩ्त्येष्टि जैसे संस्कार अपने महत्व को अक्षुण्ण बनाये हुये है तथापि
(1) गर्भाधान
गर्भाधान संस्कार की व्यवस्था का उद्देश्य स्वस्थ्य एवं सुशील संन्तान की प्राप्ति
से है । जो यौन विज्ञान एवं प्रजनन शास्त्र से सम्बन्ध था। इसके अन्तर्गत किसी भी
विवाहित यग
ु ल को सन्तान प्राप्ति के लिए शारिरिक सम्बन्ध स्थापित करने की
अनम
ु ति धर्म के अनरु
ु प थी जिससे कि एक सामाजिक मर्यादा एंव लोकलज्जा बनी
अवसर पर गर्भवती स्त्री के नाक में बरगद की जड़ का रस डाला जाता था। इस विधि
से स्त्री के नाक के माध्यम से गर्भ में पल रहे बच्चे तक पहुचँता जिससे गर्भ को
मजबत
ू ी मिलती। इससे गर्भपात की आशंका कम रहती थी। आज भी कही-कही
गर्भवती स्त्री के नाक में कई प्रकार के जड़ी -बूटियो का रस इसी उद्देश्य से डाला जाता
केशो (सीमान्त) को ऊपर उठाया जाता था। इसे कुछ आचार्य गर्भ का संस्कार और कुछ
सभी गर्भो का संस्कार मानते है । ऐसा विश्वास था कि गर्भवती स्त्री के गर्भ को नष्ट
करने के लिए अनेक दष्ु ट आत्माये तत्पर रहती है । इन दष्ु ट आत्माओ के निवारण के
उद्देश्य से ही ये संस्कार सम्पन्न किये जाते थे। वर्तमान में वैज्ञानिक सोच के कारण
(4) जातकर्म
शिशु के जन्म के पश्चात एवं नाल काटने के पूर्व इस संस्कार को सम्पन किया
जाता था इसके अन्तर्गत को मन्त्रोच्चारण के साथ सोने के चम्मच में स्वर्णभस्म, शहद
उद्देश्य था कि गर्भवास काल में शिशु की आँतो में एक प्रकार का मैकोनियम नामक
नामक मल को बाहर निकालते है । परन्तु यह पीने में कष्टकर के साथ -साथ आँतो को
छीलकर घाव भी बना सकता है , जबकि मधु मिश्रित घी स्वादिष्ट के साथ-साथ शरीर
प्रतित होता है ।
यह संस्कार अत्यन्त प्राचीन काल से ही समाज में प्रचलित था। हिन्द ू समाज में
नाम को धारण करवाने के लिए नामकरण नामक संस्कार का विधान किया गया।
शिशु का नाम रखते समय यह ध्यान रखा जाता है कि उसका नाम परिवार,
समद
ु ाय एवं वर्ण के बोधक के साथ अर्थपर्ण
ू , तेजस्वी एवं मधरु हो। क्योकि बार-बार
किया गया है ।
आधनि
ु क चिकित्सा शास्त्र में भी विटमिन डी का महत्वपूर्ण श्रोत सूर्य को माना
सर्य
ू की किरणो से ही आधनि
ु क फोटो चिकित्सा मानसिक विषाद, पथरी, टूयम
ू र के
(7) अन्नप्राशन
इस संस्कार के आयोजन में शिशु को सामान्यतः छठे मास में सर्वप्रथम अन्न
खिलाया जाता है । जो शहद, घी, दही, पका चावल मिश्रित होता है । इस संस्कार का
योग्य बन सके।
दस
ू री तरफ मधु जो कार्बोहाइड्रेड का सर्वोत्तमश्रोत है शरीर के स्वास्थ के लिए
इनके सर्वप्रथम बालक के सिखा को छोड़कर गर्भकाल से प्राप्त सिर के सारे बाल मुड़वा
दिये जाते थे। ऐसी मान्यता है कि इससे संस्कार के }kjk बल, आयु तथा तेज मे वद्धि
ृ
होती है ।
सम्पर्ण
ू नाड़ियो तथा संधियो का मेल हुआ है । यह शरीर का सर्वाधिक मर्म स्थान
चोटी रखने का निर्दश दिया है । इसके साथ ही त्वचा संबन्धी रोगो से बचने के लिए
भी यह अत्यन्त लाभकारी माना गाया है , क्योकी शिखा छोड़ सिर के सभी बाल मूंड
छिदा जाता है । फिर उसमें कुण्डल अथवा बाली पहना दिया जाता। सुश्रुत ने इस
करता है ।
आधनि
ु क युग में चीन जो एक्यूपक्
ं चर विधि से रोगो का इलाज करता है ।
जागरुक कराया जाता कि वे बालक को विषयो के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रो
वर्तमान में तो अभिभावक अपने बच्चो को ढाई से तीन वर्ष के मध्य वि|k लय
में उस समय प्रवेश कराते है जब उनका मस्तिष्क पूरी तरह शिक्षा ग्रहन करने के लिए
परिपक्क नही हुआ होता है । इस प्रकार वि|k रम्भ संस्कार की जो आयु सीमा 5 वर्ष है
शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरू के समीप परिजनो द्वारा गुरुकुल में ले जाया था। इस
संस्कार के माध्यम से बालक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता था।
के अन्तर्गत उसे अपने पूर्वजो की सास्कृतिक विरासत प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त
आधनि
ु क वैज्ञानिक युग में इसके स्वरुप एवं विचारों में परिवर्तन दे खने को मिलता है ।
क्योकि शहरीकरण के यग
ु में न तो आज वनों में शिक्षा ग्रहण होती है और न ही गरू
ु
नर्सरी स्कूलो एवं विश्ववि|k लयो की स्थापना हो गयी है जहाँ धर्म एवं आध्यात्म के
साथ विज्ञान, राजनितिक शास्त्र, भूगोल, गणित, कम्पूटर, वाणिज्य और ऐसे कई विषयो
की शिक्षा उच्च एवं आधुनिक तरीके से प्रदान की जा रही है जबकि प्राचीन समय में
(12) वेदारम्भ
वेदो के अध्ययन के प्रारम्भ करने से पूर्वजो धार्मिक कृत्य किये जाते थे उसे
सम्पन्न होता था। इस संस्कार के }kjk बालक चारो वेदो के लिए जो नियम होता था
वेदो को औपरुषेय माना गया है । इसलिए इसकी अत्यन्त महत्ता के कारण प्राचीन
थी।
आधनि
ु क यग
ु में शिक्षा क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति के कारण अब धार्मिक शिक्षा
वि|k र्थी के सोलहवें वर्ष में यह संस्कार सम्पन्न होता था। इस संस्कार में
अनश
ु ासन का उपदे श दे ता था।
पन
ु ः यह याद दिलाना कि ब्र ã चर्य के कौन कौन से कर्तव्य है और इन कर्तव्यो को
प्रतिकात्मक महत्व ही अधिक था जिससे कि वर्तमान में इसका विशेष महत्व नही
दे खा जाता।
विधिपूर्वक स्नान करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। इसके बाद वि|k र्थी को स्नातक की
संज्ञा दी जाती। अन्त में वि|k र्थी अपनी सामर्थ एवं शक्ति के अनुसार गुरु को दक्षिणा
दे ता।
बदल गया है क्योकि आज कल वि|k र्थी गुरुकुल में नही रहता। अतः विश्व fo|ky; में
उपदे श दिया जाता है जो समावर्तन संस्कार में गुरु द्वारा दिया जाता था।
से प्रचलित है जितनी की प्राचीन समय में इसी के माध्यम से ही व्यक्ति गहृ स्थ
आश्रम में प्रवेश करता है । स्मति
ृ यो में गहृ स्थ को श्रेष्ठतम आश्रम कहा गया है ।
सहयोग से परु
ु षार्थो की सिद्धि, त्रिऋणो से मक्ति
ु तथा वंश-वद्धि
ृ इत्यादि सामाजिक एवं
समाज में अनाचर, दरु ाचार एवं व्याभिचार की घटनाये बढ़ जाने से वर्तमान में विवाह
रिलेशन बगैर गर्भधारण किये सरोगेट माँ बनना एवं बगैर विवाह किये सिंगल पैरेन्ट
बनना इत्यादि पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित प्रचलन दे खने को मिल रहे है । अतः
होता था। जिससे कि हमारा नैतिक, सास्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हो सके।
अन्त्येष्ठि संस्कार मनुष्य की मुत्यु के बाद किया जाने वाला अन्तिम संस्कार
है । इसको सम्पन्न करने का उद्देश्य मत्ृ यु व्यक्ति की परलोक में शान्ति प्राप्ति करने
बाद उसका कर्म ही उसके साथ जाता है । यही इस संस्कार की उपादे यता है ।
पुरुषार्थ की प्रासंगिकता
जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया उन्हे ‘पुरुषार्थ’ कहा गया। पुरुषार्थो के आधार
सांसारिक तथा आध्यात्मिक सुखो के बीच समन्वय स्थापित करना है ताकि मनुष्य
सांसारिक सुखो का संयमित उपभोग द्वारा आध्यात्मिक आनन्द लेता हुआ परम लक्ष्य
परु
ु षार्थ सिद्धान्त के अन्तर्गत ही मनष्ु य अपना बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक,
जीवन की सभी आवश्यकताओ, इच्छाओ एवं उद्देश्यो को केन्द्र में रखते हुये इसको
चार भागो में क्रमशः धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में विभाजित किया गया है । जिसमें
परु
ु षार्थ का अनस
ु रण कर मानव अपना जीवन प्रकाशमय कहता है , जहाँ मोक्ष मानव
जीवन के परम लक्ष्य एवं उसकी आन्तरिक आध्यात्मिक का प्रतीक है जबकि अर्थ
मनुष्य में भौतिक वस्तुओ को प्राप्त करने व संग्रहित करने की जो सहज प्रवत्ति
ृ होती
है उस ओर संकेत करती है । इसी तरह काम मानव सहज स्वभाव एवं भावक
ु जीवन
तष्टि
ु करता है । अर्थ एवं काम ही संसार में व्यक्ति के सांसारिक लगाव, क्रियाकलाप
एवं जीवन की सफलता का प्रतिनिधित्व करते है । धर्म मनुष्य के आचरण एवं व्यवहार
वस्तुओ का उत्पादक एवं संग्रह करता है जिससे उसकी भौतिक आवश्यकतायो की पूर्ति
हो सके। इसी के साथ इन्द्रियजनित सुख प्राप्त करने हुते काम की सहज प्रवित्तिया
प्रवत्ति
ृ यो को जाग्रति करने का कार्य करती है जिससे वह शारीरिक सौन्दर्यता के
अर्थ एवं काम के जाल में फँसकर कही भटक ना जाये इसके लिए उसे जीवन के उच्च
आदर्शो एवं नैतिक कर्तव्यो के प्रति सजग रहने की भी आवश्यकता प्रतित होती है ।
इन्ही उच्च आदर्शो एवं नैतिक कर्तव्यो समन्वित रुप को भारतीय शास्त्रकारो ने धर्म
कहा है । अतः धर्म वह कड़ी है जो मानव जीवन के भौतिक पक्ष को आध्यात्मिक पक्ष
को नष्ट करके जीवन मुक्त की अवस्था में पहुँच जाता है और अंन्ततः उसे परम ् ब्र ã
की प्राप्ति हो जाती है , यही स्थिति मोक्ष है । यही पुरुषार्थ की अवधारणा का आधार
होती है वह दो प्रकार के सख
ु के लिए होती है -(1) विषयानन्द (2) ब्र ã नंद।
इन्द्रिय जनित शारीरिक सुख विषयानन्द सुख के अन्तर्गत आता है जबकि सांसारिक
विषय वासनाओ से रहित आत्मीय एवं स्व स्वरुप सुख ब्र ã नंद सुख के अन्तर्गत आते
अर्थ के आभाव में अत्यन्त कठिन है । इसी तरह धर्म के आभाव में किसी भी सभ्य
पर जिसका पालन कर मानव अपने जीवन का पूर्ण रुप से विकास कर सकता है । यही
धर्म-
में भी सहायक होती है । पारलौकिक पुरुषार्थ के अन्तर्गत धर्म को इसलिए रखा गया है
क्योकि मनष्ु य को लौकिक से पारलौकिक जीवन की राह दिखाने वाला तत्व धर्म ही
से मनुष्य को भौतिक जीवन एवं पारलौकिक जीवन में अभ्युदय की प्राप्ति होती है ।
अर्थ एवं काम जो इहलोक में सुख के प्रमुख साधन है , का धार्मिक आधार पर
उपभोग एवं संचय ही सुख प्राप्ति का साधन है । इस तरह धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है ।
धर्म से ही अर्थ की सिद्धि होती है । अगर मनुष्य व्यापार में ईमानदारी , संयम,
धर्म इहलोक में उपयोगी के साथ-साथ परलोक में भी उपयोगी है । धर्म के समस्त
क्रियाकलाप जैसे वि|k, यज्ञ, तप, दान, क्षमा इत्यादि इहलोक में सुख दे ने के
साथ-साथ परलोक में यही साथ रहते है । इसके अतिरिक्त मोक्ष प्राप्ति के जितने भी
अर्थ
आवश्यक तत्व माना गया है । सामान्य रुप में अर्थ से अभिप्राय धन है परन्तु पुरुषार्थ
वाणिज्य) इत्यादि प्राप्त करता है । भौतिक जगत में अर्थ को सर्वाधिक महत्वपूर्ण
अनस
ु ार धर्म, काम और मोक्ष तीनो ही अर्थ के अधीन माने गये है । यहाँ अर्थ के
2
अधीन मोक्ष को मानना उसकी महत्ता का धोतक है । महाभारत में युधिष्ठिर ने अर्थ
की महत्वा बताते हुये कहा है कि धन ही सभी धर्मो का मूल है । उसी से सारी क्रियाये
अनस
ु ार धर्म एवं काम का मल
ू अर्थ ही है । इस प्रकार अर्थ ही जगत का मल
1
ू है ।
पुरुषार्थ नही है बल्कि उसे पुरुषार्थ होने के लिए धर्म से नियन्त्रित होना पड़ता है ।
मनस्
ु मति
ृ में स्पष्टतः उल्लिखित है कि धर्म विरुद्ध अर्थ तथा काम का त्याग कर दे ना
साथ-साथ वत्ति
ृ यो पर नियंन्त्रण, धार्मिक एवं लोकहित कार्यो को करने का भी
निर्देश दिया है । वही दस
ू री तरफ स्वेच्छाचारी भोग, अत्यधिक संचय तथा अपव्यय
काम
काम का अर्थ लौकिक जीवन में संक्षिप्त एवं व्यापक रुपों में उल्लिखित किया
जा सकता है । संक्षिप्त अर्थ में काम का तात्पर्य केवल इन्द्रिय सुख अथवा वासनाओ
ओर प्रेरित करती है ।
धर्म एवं अर्थ दोनो को एक साथ समान्वित किया जा सकता है । भारतीय धर्म साधना
के ग्रन्थो में जहाँ सामाजिक चिंतको ने काम का विशेष स्थान प्रदान किया वही
पाश्चात्य विचारको के एक वर्ग ने काम को ही एक मात्र मानव में क्रिया प्रेरणा माना।
की मल
ू उत्तेजक शक्ति माना है ।
तो इस भौतिकक जगत में मानव सर्वदा के लिए लुप्त हो जायेगा। इस प्रकार काम
इन्द्रिय सख
ु अथवा इच्छा की पर्ति
ू मात्र रहकर परु
ु षार्थ नही बनता बल्कि यह परिष्कृत
होकर दाम्पत्य जीवन, परिवार आदि संस्थाओ की व्यवस्था करने के साथ -साथ
सौन्दर्य, कला, विभूति आदि कोमल भावो को विकसित एवं दृढ़ कर पुरुषार्थ का
मानव जीवन में काम के महत्व को स्वीकार करते हुये हिन्द ू चिंतको नें उस पर
बद्धि
ु नाश एवम ् बद्धि
ु नाश से मनष्ु य का सर्वनाश हो जाता है । अतः धर्मयक्
ु त काम से
महाभारत के अनस
ु ार जो व्यक्ति धर्मविहिन काम का अनस
ु रण करता है वह
अपनी बद्धि
ु को समाप्त कर दे ता है तथा कठिनाइयो में शत्रु द्वारा हँसी का पात्र
बनाया जाता है ।1
दे खते है वे वास्तव में पुरुषार्थ के रुप में काम को समझे ही नही। काम के वास्तविक
रुप मुख्यतः तीन है । (1) दाम्पत्य बंधन के रुप में (2) आध्यात्मिक (3)
कलात्मक एवं सौन्दर्य। इस प्रकार पुरुषार्थ के रुप मे काम का स्थान सामाजिक,
मोक्ष
मोक्ष मानव-जीवन का अन्तिम एवं चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है । मोक्ष से
के विलीन हो जाना है । इसे परम ् पुरुषार्थ भी कहा जाता है क्योकि मोक्ष समस्त
पुरुषार्थो का साध्य है । धर्म, अर्थ और काम इसके साधन स्वरुप है । मोक्ष प्राप्त
“एतावानेन मनुजर्यो
ै ग नैपुणबद्धि
ु भिः।
आत्मदर्शन के रुप मे कहा गया है । मानव जीवन के प्रति ये विचार जिसमें नैतिक ,
आधार पर यदि समस्त मानव जगत अपने विकास कार्य की तरफ ध्यान दे तो
वसध
ु ैव कुटुम्बकम ् एवं सर्वे भवन्तु सखि
ु नः की अवधारणा साकार होने में दे र नही
लगेगी।