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अध्याय-5

प्रासंगिकता

प्राचीन भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं परम्परागत संस्कृति है ।

इसकी उदारता तथा समन्वयवादी गुणो ने अन्य संस्कृतियो को समाहित तो किया है ,

किन्तु अपने अस्तित्व के मूल को भी सुरक्षित रखा है । भारतीय संस्कृति में संस्कार,

पुरुषार्थ एवं आश्रम व्यवस्था का विशिष्ट महत्व रहा है । भारतीय समाज इन्ही तीन

मूल तत्वो से संचालित रहा है । जहाँ संस्कारो के माध्यम से मानव-जीवन को जन्म के

पर्व
ू से लेकर मत्ृ यु तक धर्म के माध्यम से इस प्रकार जोड़ दिया ताकि मनष्ु य

शारिरिक, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं बौद्धिक रुप से परिष्कृत एवं शुद्ध होकर समाज

का पूर्ण विकसित सदस्य बन सके। जबकि पुरुषार्थो का उद्देश्य व्यक्ति के भौतिक तथा

आध्यात्मिक सुखो को बीच सामंजस्य स्थापित करना है । इसी तरह आश्रम-व्यवस्था के

मनोवैज्ञानिक नैतिक आधार पुरुषार्थ है जो आश्रम के माध्यम से मनुष्य को समाज के

साथ जोड़कर उनकी व्यवस्था तथा संचालन में सहायता प्रदान करते है । इस प्रकार

भारतीय संस्कृति के तीन मख्


ु य तत्व संस्कार, परु
ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्था प्राचीन

काल से ही मानव के सामाजिक आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, भौतिक, आध्यात्मिक का

मार्ग प्रशस्त करते आ रहे है । जिसकी उपयक्


ु त आज भी दे खी जा सकती है । संस्कार ,

पुरुषार्थ एवं आश्रम व्यवस्था मनुष्य एवं समाज के लिए कितना प्रासंगिक है इसको

उल्लेखित करने का प्रयास करे गे।


सोलह संस्कार की प्रासांगिता

संस्कार

प्राचीन काल से ही संस्कार हिन्द ू संस्कृति के महत्वपर्ण


ू अंग रहे है । व्यक्ति के

वैयक्तित्व एवं सामाजिक विकास के लिए, असंस्कृत रुप को संस्कृत करने के लिए,

इहलौकिक जीवन की सर्वागीण उन्नति के साथ-साथ पारलौकिक जीवन में मोक्ष प्राप्ति

के लिए संस्कारो का संयोजन किया गया। शताब्दियो से ही संस्कार धार्मिक तथा

सामाजिक एकता के आधार बने रहे है । ;|fi आज के वैज्ञानिक युग में भले ही संस्कारो

का प्रचलन कम हो गया है तथापि हिन्द ू सामाज में नामकरण, चड़


ू ाकरण, उपनयन,

विवाह तथा अऩ्त्येष्टि जैसे संस्कार अपने महत्व को अक्षुण्ण बनाये हुये है तथापि

कुछ संस्कार समय के साथ अपने स्वरुप को खो दिये है , हम यहाँ 16 संस्कारो की

सामाजिक, वैज्ञानिक एवं आधुनिक चिकित्सकीय रुप से कितना प्रासंगिक है उसको

उल्लिखित करने का प्रयास करगे।

(1) गर्भाधान
गर्भाधान संस्कार की व्यवस्था का उद्देश्य स्वस्थ्य एवं सुशील संन्तान की प्राप्ति

से है । जो यौन विज्ञान एवं प्रजनन शास्त्र से सम्बन्ध था। इसके अन्तर्गत किसी भी

विवाहित यग
ु ल को सन्तान प्राप्ति के लिए शारिरिक सम्बन्ध स्थापित करने की

अनम
ु ति धर्म के अनरु
ु प थी जिससे कि एक सामाजिक मर्यादा एंव लोकलज्जा बनी

रहे । एक आदर्श समाज के लिए इसका उपयक्


ु ता आज भी दे खी जा सकती है । जबकि

पाश्चात्य संस्कृति इन आदर्श सीमाओ को लांघकर भौतिक भोग में मस्त है ।

(2) पुंसवन संस्कार


सामान्यतः इस संस्कार को आयोजित करने का उद्देश्य पुत्र प्राप्ति से था। इस

अवसर पर गर्भवती स्त्री के नाक में बरगद की जड़ का रस डाला जाता था। इस विधि

से स्त्री के नाक के माध्यम से गर्भ में पल रहे बच्चे तक पहुचँता जिससे गर्भ को

मजबत
ू ी मिलती। इससे गर्भपात की आशंका कम रहती थी। आज भी कही-कही

गर्भवती स्त्री के नाक में कई प्रकार के जड़ी -बूटियो का रस इसी उद्देश्य से डाला जाता

है ताकि गर्भपात न हो। इस प्रकार इसकी प्रासंगिकता आज भी है ।

(3) सीमन्तोन्यन संस्कार

इस संस्कार मे अन्तर्गत शास्त्रो द्वारा प्रतिपादित विधि से गर्भिणी के सिर के

केशो (सीमान्त) को ऊपर उठाया जाता था। इसे कुछ आचार्य गर्भ का संस्कार और कुछ

सभी गर्भो का संस्कार मानते है । ऐसा विश्वास था कि गर्भवती स्त्री के गर्भ को नष्ट

करने के लिए अनेक दष्ु ट आत्माये तत्पर रहती है । इन दष्ु ट आत्माओ के निवारण के

उद्देश्य से ही ये संस्कार सम्पन्न किये जाते थे। वर्तमान में वैज्ञानिक सोच के कारण

यह संस्कार प्रचलन में नही रहा।

(4) जातकर्म

शिशु के जन्म के पश्चात एवं नाल काटने के पूर्व इस संस्कार को सम्पन किया

जाता था इसके अन्तर्गत को मन्त्रोच्चारण के साथ सोने के चम्मच में स्वर्णभस्म, शहद

एवं घी मिश्रित कर चटाया जाता था। इस मिश्रित पदार्थ को खिलाने के पिछे यह

उद्देश्य था कि गर्भवास काल में शिशु की आँतो में एक प्रकार का मैकोनियम नामक

जो मल एकत्र रहता है वह बाहर आ जाए।


आधनि
ु क चिकित्सा विधि में एरण्ड तैल (रें डी का तेल) पिला कर मैकोनियम

नामक मल को बाहर निकालते है । परन्तु यह पीने में कष्टकर के साथ -साथ आँतो को

छीलकर घाव भी बना सकता है , जबकि मधु मिश्रित घी स्वादिष्ट के साथ-साथ शरीर

को हानि भी नही पहुँचता। इस प्रकार यह विधि आधनि


ु क विधि से अधिक प्रासंगिक

प्रतित होता है ।

(5) नामकरण संस्कार

यह संस्कार अत्यन्त प्राचीन काल से ही समाज में प्रचलित था। हिन्द ू समाज में

नाम को धारण करवाने के लिए नामकरण नामक संस्कार का विधान किया गया।

क्योकि नाम लोक-व्यवहार के लिए आवश्यक है । जो शभ


ु कर्मो तथा भाग्य का आधार

माना गया है । व्यक्तिगत नाम से ही मनुष्य की ख्याति होता है ।

शिशु का नाम रखते समय यह ध्यान रखा जाता है कि उसका नाम परिवार,

समद
ु ाय एवं वर्ण के बोधक के साथ अर्थपर्ण
ू , तेजस्वी एवं मधरु हो। क्योकि बार-बार

उच्चारित शब्दो का मनुष्य के मन एवं शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है , यह आधुनिक

मनोविज्ञान एवं ज्योतिष की भी मान्यता है नाम के आधार पर ही ज्योतिष fo|k एवं

भविष्यवाणी भी प्रचलन में आये। इस प्रकार यह वह संस्कार है , जो आज भी अपने

महत्व को अक्षुण्ण बनाये हुये है ।

(6) निष्क्रमण संस्कार

यह वह संस्कार है जिसके }kjk बच्चे को सर्वप्रथम घर से बाहर निकालकर सूर्य

का दर्शन कराया जाता है । इसी के साथ उसका घर के बाहरी वातावरण से भी सम्पर्क


होता है । बच्चे को स्वस्थ एवं दीर्घायु बनाने के उद्देश्य से इस संस्कार का विधान

किया गया है ।

आधनि
ु क चिकित्सा शास्त्र में भी विटमिन डी का महत्वपूर्ण श्रोत सूर्य को माना

है । विटामिन डी के माध्यम से शरीर में कैल्सियम एवं फास्फोरस की पूर्ति होती है ।

जो शरीर के विकास एवं आस्थियो के मजबूत होने का महत्वपूर्ण श्रोत है । दस


ू री तरफ

सर्य
ू की किरणो से ही आधनि
ु क फोटो चिकित्सा मानसिक विषाद, पथरी, टूयम
ू र के

उपचार की विधि विकसित कर ली है इस प्रकार प्राचीन काल में आधनि


ु क चिकिस्सा

सुविधाओ का सर्वथा आभाव होने पर यह संस्कार अत्याधिक प्रासंगिक था।

(7) अन्नप्राशन

इस संस्कार के आयोजन में शिशु को सामान्यतः छठे मास में सर्वप्रथम अन्न

खिलाया जाता है । जो शहद, घी, दही, पका चावल मिश्रित होता है । इस संस्कार का

उद्देश्य एवं उचित समय पर बच्चा माँ का दध


ू छोड़कर अन्नादि से अपना निर्वाह करने

योग्य बन सके।

चिकित्सकीय दृष्टिकोण से भी प्रथम छः महीने माँ दध


ू आवश्यक बताया गया है

दस
ू री तरफ मधु जो कार्बोहाइड्रेड का सर्वोत्तमश्रोत है शरीर के स्वास्थ के लिए

लाभकारी ही है परन्तु वर्तमान में अन्प्राशन के लिए न तो कोई समय सीमा और न

ही शहद, घी, चावल का मिश्रत अन्न ही खिलाने का प्रचलन है ।

(8) चूड़ाकर्म या मुण्डन संस्कार


ये संस्कार बालक के जन्म के पहले अथवा तीसरे वर्ष सम्पन्न किये जाते थे

इनके सर्वप्रथम बालक के सिखा को छोड़कर गर्भकाल से प्राप्त सिर के सारे बाल मुड़वा

दिये जाते थे। ऐसी मान्यता है कि इससे संस्कार के }kjk बल, आयु तथा तेज मे वद्धि

होती है ।

धार्मिक अनुष्ठान के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ के साथ भी इस संस्कार का

गहरा सम्बन्ध है । मनष्ु य के सिर पर जहाँ बालो का भव


ु र जैसा स्थान होता है , वहाँ

सम्पर्ण
ू नाड़ियो तथा संधियो का मेल हुआ है । यह शरीर का सर्वाधिक मर्म स्थान

माना गया है । इस मर्म को सुरक्षित रखने की दृष्टि से मनीषियो ने इस स्थान पर

चोटी रखने का निर्दश दिया है । इसके साथ ही त्वचा संबन्धी रोगो से बचने के लिए

भी यह अत्यन्त लाभकारी माना गाया है , क्योकी शिखा छोड़ सिर के सभी बाल मूंड

दे ने से शरीर का तापक्रम सामान्य हो जाता है जिससे उस समय होने वाले फोड़ो -

फुन्सियो, दस्तो से बालक की रक्षा होती है । चरक संहिता में भी मण्


ु डन को आयु

स्वच्छता एवं सौन्दर्य का वर्धक माना गया है ।

यह हिन्द ू समाज का प्रतीक चिन्ह है । वर्तमान में भी इसका प्रचलन भारतीय

हिन्द ू समाज में दे खने को मिलता है ।

(9) कर्णवेध संस्कार

इस संस्कार के अन्तर्गत बालको के कान एवं बालिकाओ के कान और नाक

छिदा जाता है । फिर उसमें कुण्डल अथवा बाली पहना दिया जाता। सुश्रुत ने इस

संस्कार के दो उद्देश्य बताये -आभष


ू ण धारण एवं बालक की रक्षा। बालको के स्वास्थ की
दृष्टि सुश्रुत ने कहा है कि कर्णभेद अण्डकोश वद्धि
ृ तथा आँतवद्धि
ृ (हार्निया) रोगो से रक्षा

करता है ।

आधनि
ु क युग में चीन जो एक्यूपक्
ं चर विधि से रोगो का इलाज करता है ।

जिससे शरीर के कतिपय बिन्दओ


ु पर सुई चुभोकर शल्यक्रिया के अनेक कार्य किये

जाते है , कर्णवेधन उसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है । इस प्रकार प्राचीन से लेकर वर्तमान

मे भी ये विधि प्रचलन मे है । वर्तमान भारत में कर्णवेध लड़को मे पर्ण


ू तः समाप्त ही

हो गया है जबकि लड़कियो मे इसकी प्रचलन आज भी दे खने को मिलता है वह भी

केवल आभूषण धारण करने की दृष्टि से।

(10) वि|k रम्भ

समान्यतः बालक के पॉचवे वर्ष अथवा उपनयन संस्कार के पूर्व जब उसका

मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था तब इस संस्कार को सम्पन्न करने का

विधान था। इस समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह

पैदा किया जाता है , वही परिजनो, गुरुजनो को भी इसकी उत्तरदायिकता के प्रति

जागरुक कराया जाता कि वे बालक को विषयो के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रो

का भी बोध एवं अभ्यास कराते रहे ।

वर्तमान में तो अभिभावक अपने बच्चो को ढाई से तीन वर्ष के मध्य वि|k लय

में उस समय प्रवेश कराते है जब उनका मस्तिष्क पूरी तरह शिक्षा ग्रहन करने के लिए

परिपक्क नही हुआ होता है । इस प्रकार वि|k रम्भ संस्कार की जो आयु सीमा 5 वर्ष है

काभी हद तक प्रासंगिक प्रतित होता है ।


(11) उपनयन

उपनयन संस्कार का मुख्यतः उद्देश्य शैक्षणिक था। जिसके अन्तर्गत बालक को

शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरू के समीप परिजनो द्वारा गुरुकुल में ले जाया था। इस

संस्कार के माध्यम से बालक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता था।

इस संस्कार का सामाजिक एवं आध्यात्मिक दोनो महत्व था। सामाजिक महत्व

के अन्तर्गत उसे अपने पूर्वजो की सास्कृतिक विरासत प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त

हो जाता जबकि आध्यात्मिक महत्व यह था कि वेद-वेदांगो के अध्ययन द्वारा आत्मा

एवं परमात्मा की पहचान कर अपने भौतिक एवं परलौकिक जीवन को सख


ु ी बनाता।

यह संस्कार प्राचीन से ही अपने महत्व को अक्षुण्ण बनाये हुये है । परन्तु

आधनि
ु क वैज्ञानिक युग में इसके स्वरुप एवं विचारों में परिवर्तन दे खने को मिलता है ।

क्योकि शहरीकरण के यग
ु में न तो आज वनों में शिक्षा ग्रहण होती है और न ही गरू

एवं शिष्य की वह आदर्श परम्परा दे खने को मिलती है । गरु


ु कुल की जगह अब मॉड्ल

नर्सरी स्कूलो एवं विश्ववि|k लयो की स्थापना हो गयी है जहाँ धर्म एवं आध्यात्म के

साथ विज्ञान, राजनितिक शास्त्र, भूगोल, गणित, कम्पूटर, वाणिज्य और ऐसे कई विषयो

की शिक्षा उच्च एवं आधुनिक तरीके से प्रदान की जा रही है जबकि प्राचीन समय में

उपनयन का अधिकार केवल द्धिजो को ही था जबकि आज चारो वर्ण के बालक -बालिका

एक समान एवं एक साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे है ।

(12) वेदारम्भ
वेदो के अध्ययन के प्रारम्भ करने से पूर्वजो धार्मिक कृत्य किये जाते थे उसे

वेदारम्भ संस्कार कहते है । यह संस्कार उपनयन संस्कार के एक वर्ष के अन्दर ही

सम्पन्न होता था। इस संस्कार के }kjk बालक चारो वेदो के लिए जो नियम होता था

उसका धारण करता।

वेदो को औपरुषेय माना गया है । इसलिए इसकी अत्यन्त महत्ता के कारण प्राचीन

चिंतको ने इसके अध्ययन के प्रारम्भ से पहले एक अलग संस्कार की व्यवस्था की

थी।

आधनि
ु क यग
ु में शिक्षा क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति के कारण अब धार्मिक शिक्षा

कम तकनीकी प्रोधोगीकी शिक्षा, चिकित्सयी शिक्षा का प्रचलन होने से इस संस्कार की

प्रासांगिकता अब नही रही।

(13) केशान्त संस्कार

वि|k र्थी के सोलहवें वर्ष में यह संस्कार सम्पन्न होता था। इस संस्कार में

प्रथम बार उसके दाढ़ी-मँछ


ू बनवाये जाते थे। इस अवसर पर गुरु को एक गौ दक्षिणा

दी जाती थी। इस संस्कार के अवसर पर गरू


ु शिष्य ब्र ã चर्य जीवन, सदाचार एंव

अनश
ु ासन का उपदे श दे ता था।

इस संस्कार को सम्पन्न करने का उद्देश्य यह था कि वि|k र्थी को गुरु द्वारा

पन
ु ः यह याद दिलाना कि ब्र ã चर्य के कौन कौन से कर्तव्य है और इन कर्तव्यो को

वह पूरी निष्ठा के साथ कठोर अनुशासन में पूरा करे । दस


ू रा यह कि वि|k र्थी स्वच्छ,
स्वस्थ, अलंकृत एवं सुन्दर दिखा जो उचित भी था। इस तरह इस संस्कार का

प्रतिकात्मक महत्व ही अधिक था जिससे कि वर्तमान में इसका विशेष महत्व नही

दे खा जाता।

(14) समावर्तन संस्कार

शिक्षा समाप्त होने के पश्चात वि|k र्थी जब गुरुकुल से अपने घर को वापस

लौटता था तब इस संस्कार का आयोजन किया जाता था। इस अवसर पर वि|k र्थी का

विधिपूर्वक स्नान करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। इसके बाद वि|k र्थी को स्नातक की

संज्ञा दी जाती। अन्त में वि|k र्थी अपनी सामर्थ एवं शक्ति के अनुसार गुरु को दक्षिणा

भी दे ता, फिर गरू


ु वि|k र्थी को अनेक उपदे श दे कर गह
ृ स्थ जीवन में प्रवेश की अनम
ु ति

दे ता।

डा0 राजबली के अनस


ु ार समावर्तन संस्कार आधनि
ु क यग
ु के दीक्षान्त समारोह

के समान ही था। इस प्रचलन एवं महत्व आज भी है । ;|fi इस संस्कार का स्वरुप

बदल गया है क्योकि आज कल वि|k र्थी गुरुकुल में नही रहता। अतः विश्व fo|ky; में

शिक्षा समाप्ति के बाद स्नातको को दीक्षान्त समारोह के अवसर पर आज भी वही

उपदे श दिया जाता है जो समावर्तन संस्कार में गुरु द्वारा दिया जाता था।

(15) विवाह संस्कार

सोलह संस्कारो में विवाह ही एक ऐसा संस्कार है जो आज भी उतनी प्रमख


ु ता

से प्रचलित है जितनी की प्राचीन समय में इसी के माध्यम से ही व्यक्ति गहृ स्थ
आश्रम में प्रवेश करता है । स्मति
ृ यो में गहृ स्थ को श्रेष्ठतम आश्रम कहा गया है ।

इसको प्रवित्र संस्कार की संज्ञा दी गई है । विवाह का उद्देश्य पति और पत्नी के

सहयोग से परु
ु षार्थो की सिद्धि, त्रिऋणो से मक्ति
ु तथा वंश-वद्धि
ृ इत्यादि सामाजिक एवं

धार्मिक कर्तव्यो के पालन के योग्य बनाना।

इस तरह विवाह जितनी प्राचीन काल में प्रासंगिक थी उतनी आज भी है । परन्तु

समाज में अनाचर, दरु ाचार एवं व्याभिचार की घटनाये बढ़ जाने से वर्तमान में विवाह

का अत्यन्त विकृत स्वरुप दे खने को मिलता है । कुछ परम्पराये, नियम जो कभी

प्राचीन समाज की अनीवार्य अंग थी उसको अब सीमित करने के साथ कई विचार

धाराओ का जोड़ दिया गया है । जिसके परिणाम स्वरुप समाज मे अब लिव इन

रिलेशन बगैर गर्भधारण किये सरोगेट माँ बनना एवं बगैर विवाह किये सिंगल पैरेन्ट

बनना इत्यादि पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित प्रचलन दे खने को मिल रहे है । अतः

आज उन प्राचीन प्रशंसनीय विवाह की जरुरत है जो एक नियमित समय पर सम्पन्न

होता था। जिससे कि हमारा नैतिक, सास्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति हो सके।

(16) अन्त्येष्ठि संस्कार

अन्त्येष्ठि संस्कार मनुष्य की मुत्यु के बाद किया जाने वाला अन्तिम संस्कार

है । इसको सम्पन्न करने का उद्देश्य मत्ृ यु व्यक्ति की परलोक में शान्ति प्राप्ति करने

की कामना है । मत्स्यपरु ाण में अन्त्येष्ठि के तीन प्रकार बताये गया है । (1) शव को

जलाना (2) शव को गाड़ना (3) शव को फेंकना।


यह संस्कार प्राचीन से लेकर आज भी हिन्द ू समाज में अपने मूल रुप में

सम्पन्न होता है । इस संस्कार को सम्पन्न करते समय उपस्थित कोई भी व्यक्ति

दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से चिन्तन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि

वह जीवन को नैतिक, धार्मिक, ईमानदारी पर्व


ू क सम्पन्न करना चाहिए क्योकि मत्ृ यु के

बाद उसका कर्म ही उसके साथ जाता है । यही इस संस्कार की उपादे यता है ।
पुरुषार्थ की प्रासंगिकता

प्राचीन भारतीय हिन्द ू धर्माशास्त्रकारो ने मानव तथा समाज की उन्नति हे तु

जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया उन्हे ‘पुरुषार्थ’ कहा गया। पुरुषार्थो के आधार

पर ही संसार की सो}s श्यता, ब्रह्माण्ड की व्यवस्था, मानव जीवन के लक्ष्य एवं

आदर्श आदि की व्याख्या एवं स्थापना की जाती है । परु


ु षार्थो का उद्देश्य मनष्ु य के

सांसारिक तथा आध्यात्मिक सुखो के बीच समन्वय स्थापित करना है ताकि मनुष्य

सांसारिक सुखो का संयमित उपभोग द्वारा आध्यात्मिक आनन्द लेता हुआ परम लक्ष्य

मोक्ष को प्राप्त कर ले। यही पुरुषार्थ की सार्थकता है ।

पुरुषार्थ की अवधारणा हिन्द ू नीति शास्त्र का मौलिक सिद्धान्त है । इसकी

उपयुक्ता प्राचीन से लेकर आज भी है । मनुष्य जीवन का सर्वागीण विकास उसके

पुरुषार्थ पर ही निर्भर रहता है । यह मानव का वह आधार स्तंम्भ है जिसके द्वारा वह

विभिन्न कर्तव्यो का आदर्शपर्व


ू क पालन करते हुये अपना जीवन व्यतीत करता है ।

परु
ु षार्थ सिद्धान्त के अन्तर्गत ही मनष्ु य अपना बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक,

नैतिक, सांसारिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष करता है । पुरुषार्थ के अन्तर्गत मानव

जीवन की सभी आवश्यकताओ, इच्छाओ एवं उद्देश्यो को केन्द्र में रखते हुये इसको

चार भागो में क्रमशः धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में विभाजित किया गया है । जिसमें

भौतिक (सांसारिक) धार्मिक(नैतिक) एवं आध्यात्मिक तत्वो का निवेशन है ।

परु
ु षार्थ का अनस
ु रण कर मानव अपना जीवन प्रकाशमय कहता है , जहाँ मोक्ष मानव

जीवन के परम लक्ष्य एवं उसकी आन्तरिक आध्यात्मिक का प्रतीक है जबकि अर्थ
मनुष्य में भौतिक वस्तुओ को प्राप्त करने व संग्रहित करने की जो सहज प्रवत्ति
ृ होती

है उस ओर संकेत करती है । इसी तरह काम मानव सहज स्वभाव एवं भावक
ु जीवन

को व्यक्त करने के साथ-साथ उसकी कामवासना और सौन्दर्यप्रियता की प्रवत्ति


ृ यो को

तष्टि
ु करता है । अर्थ एवं काम ही संसार में व्यक्ति के सांसारिक लगाव, क्रियाकलाप

एवं जीवन की सफलता का प्रतिनिधित्व करते है । धर्म मनुष्य के आचरण एवं व्यवहार

की एक संहिता है जो उसके कार्यो को व्यवास्थित, संयमित एवं नियन्त्रित करती है ।

इस तरह अर्थ नामक परु


ु षार्थ की प्रवत्ति
ृ में संचालित होकर व्यक्ति सांसारिक

वस्तुओ का उत्पादक एवं संग्रह करता है जिससे उसकी भौतिक आवश्यकतायो की पूर्ति

हो सके। इसी के साथ इन्द्रियजनित सुख प्राप्त करने हुते काम की सहज प्रवित्तिया

उसे प्रेरित करती है , जिसके परिणामस्वरुप विवाह, रीति-क्रिया, शारीरिक

सम्बन्ध एवं सन्तानोत्पन्ति संभव होती है । यही काम मनष्ु य मे सौन्दर्याप्रियता की

प्रवत्ति
ृ यो को जाग्रति करने का कार्य करती है जिससे वह शारीरिक सौन्दर्यता के

साथ-साथ प्राकृतिक एवं ईश्वरीय सौन्दर्य का भी उपभोग करता है , पर मनुष्य कही

अर्थ एवं काम के जाल में फँसकर कही भटक ना जाये इसके लिए उसे जीवन के उच्च

आदर्शो एवं नैतिक कर्तव्यो के प्रति सजग रहने की भी आवश्यकता प्रतित होती है ।

इन्ही उच्च आदर्शो एवं नैतिक कर्तव्यो समन्वित रुप को भारतीय शास्त्रकारो ने धर्म

कहा है । अतः धर्म वह कड़ी है जो मानव जीवन के भौतिक पक्ष को आध्यात्मिक पक्ष

के साथ जोड़ती है । जिससे मनुष्य एक स्तर पर समस्त कर्मो से तप्ति


ृ एवं इच्छाओ

को नष्ट करके जीवन मुक्त की अवस्था में पहुँच जाता है और अंन्ततः उसे परम ् ब्र ã
की प्राप्ति हो जाती है , यही स्थिति मोक्ष है । यही पुरुषार्थ की अवधारणा का आधार

है इसकी उपयुक्तता आज भी है और भविष्य में भी एक सुव्यवस्थित, सुसंस्कृति

समाज की स्थापना के लिए इसके सिद्धान्तो की आवश्यकता है । मानव की जो प्रवत्ति


होती है वह दो प्रकार के सख
ु के लिए होती है -(1) विषयानन्द (2) ब्र ã नंद।

इन्द्रिय जनित शारीरिक सुख विषयानन्द सुख के अन्तर्गत आता है जबकि सांसारिक

विषय वासनाओ से रहित आत्मीय एवं स्व स्वरुप सुख ब्र ã नंद सुख के अन्तर्गत आते

है । इन दो प्रकार के सुखो का माध्यम पुरुषार्थ ही है । क्योकि काम एवं सुखो की पूर्ति

अर्थ के आभाव में अत्यन्त कठिन है । इसी तरह धर्म के आभाव में किसी भी सभ्य

व्यक्ति का धन स्थिर हो ही नही सकता। इस प्रकार परु


ु षार्थ के तीन अंग (धर्म,
अर्थ, काम) जिन्हे त्रिवर्ग कहा जाता है । जिसका प्राप्ति सभी गह
ृ स्थो एवं वर्णो के

लिए सरल है । इसमें सर्वाधिक बल धर्म पर उससे कम अर्थ पर और सबसे कम काम

पर जिसका पालन कर मानव अपने जीवन का पूर्ण रुप से विकास कर सकता है । यही

त्रिर्वग मोक्ष (निःश्रेयस) को जीवन का अन्तिम पुरुषार्थ बनाता है और त्रिवर्ग की

प्राप्ति होने से मोक्ष स्भावतः ही प्राप्त हो जाता है ।

पुरुषार्थ की मानव जीवन में प्राचीन से लेकर आज भी कितनी उपयुक्तता है

इसके लिए हम उसके चोरो अंगो को अलग-अलग वर्णन करे गे।

धर्म-

धर्म ही कर्तव्यो की वह श्रख


ृ ला है जिसमें व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन को

सामाजिक जीवन एवं इहलोक को परलोक से जोड़ता है । धर्म के द्वारा एक विकासित


एवं सुदृढ़ समाज की स्थापना होती है तो दस
ू री तरह यह विश्व ब्र ãk ण्ड की व्यवस्था

में भी सहायक होती है । पारलौकिक पुरुषार्थ के अन्तर्गत धर्म को इसलिए रखा गया है

क्योकि मनष्ु य को लौकिक से पारलौकिक जीवन की राह दिखाने वाला तत्व धर्म ही

है । धर्म का तात्पर्य उन सभी कर्तव्यो से है जो लोकहितकारी है तथा जिसके माध्यम

से मनुष्य को भौतिक जीवन एवं पारलौकिक जीवन में अभ्युदय की प्राप्ति होती है ।

पुरुषार्थ के अन्तर्गत धर्म का तात्पर्य भाग्य अथवा आस्था से नही है वरन यह एक

वैज्ञानिक तथ्य है जिसकी प्रासंगिकता किसी भी समय समझी जा सकती है ।

अर्थ एवं काम जो इहलोक में सुख के प्रमुख साधन है , का धार्मिक आधार पर

उपभोग एवं संचय ही सुख प्राप्ति का साधन है । इस तरह धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है ।

धर्म से ही अर्थ की सिद्धि होती है । अगर मनुष्य व्यापार में ईमानदारी , संयम,

त्याग, तपस्या, सत्य, अक्रोध, धति


ृ , क्षमा आदि धर्म के लक्षणो का पालन

करता है तो उन्नति के उच्च सिखर को प्राप्त करता है । इस प्रकार धर्म से ही अर्थ की

सिद्धि होती है । धर्म ही मनुष्य के कामरुपी इच्छाओ को भी नियन्त्रित करता है क्योकि

मनुष्य की इच्छाये उसे सही मार्ग पर भी ले जा सकती है और गलत मार्ग पर भी।

धर्म इहलोक में उपयोगी के साथ-साथ परलोक में भी उपयोगी है । धर्म के समस्त

क्रियाकलाप जैसे वि|k, यज्ञ, तप, दान, क्षमा इत्यादि इहलोक में सुख दे ने के

साथ-साथ परलोक में यही साथ रहते है । इसके अतिरिक्त मोक्ष प्राप्ति के जितने भी

साधन (ज्ञान, भक्ति, क्रिया, चर्चा) है सब धर्म पर ही आधारित है । धर्माचरण और


तपस्या से ही सत्वगुणो का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है । अतः मानव जीवन की

सफलता, शोभा और सार्थकता धर्म के आचरण से ही होता है ।

अर्थ

मनष्ु य की भौतिक और आर्थिक इच्छाओ की पर्ति


ू लिए अर्थ मानव का एक

आवश्यक तत्व माना गया है । सामान्य रुप में अर्थ से अभिप्राय धन है परन्तु पुरुषार्थ

की दृष्टि अर्थ का तात्पर्य उन समस्त आवश्यकताओ और साधनो से है जिनके

माध्यम से व्यक्ति भौतिक सुखो(धन, शक्ति), वार्ता(कृषि, पशुपालन,

वाणिज्य) इत्यादि प्राप्त करता है । भौतिक जगत में अर्थ को सर्वाधिक महत्वपूर्ण

माना गया है । कौटिल्य ने तो धर्म को भी अर्थ पर आधारित माना है ।1 शक्र


ु के

अनस
ु ार धर्म, काम और मोक्ष तीनो ही अर्थ के अधीन माने गये है । यहाँ अर्थ के
2

अधीन मोक्ष को मानना उसकी महत्ता का धोतक है । महाभारत में युधिष्ठिर ने अर्थ

की महत्वा बताते हुये कहा है कि धन ही सभी धर्मो का मूल है । उसी से सारी क्रियाये

की जाती है । कौटिल्य भी अर्थ को धर्म के ही समान महत्वपूर्ण माना है । उनके

अनस
ु ार धर्म एवं काम का मल
ू अर्थ ही है । इस प्रकार अर्थ ही जगत का मल
1
ू है ।

परन्तु अर्थ मानव की आवश्यकताओ की पूर्ति का साधन मात्र होने से ही

पुरुषार्थ नही है बल्कि उसे पुरुषार्थ होने के लिए धर्म से नियन्त्रित होना पड़ता है ।

मनस्
ु मति
ृ में स्पष्टतः उल्लिखित है कि धर्म विरुद्ध अर्थ तथा काम का त्याग कर दे ना

चाहिए।2 इस तरह धर्मशास्त्रो ने जहाँ अर्थ के अर्जन एवं रक्षक की स्वतंत्रता के

साथ-साथ वत्ति
ृ यो पर नियंन्त्रण, धार्मिक एवं लोकहित कार्यो को करने का भी
निर्देश दिया है । वही दस
ू री तरफ स्वेच्छाचारी भोग, अत्यधिक संचय तथा अपव्यय

पर भी अंकुश लगाया है । इस तरह धर्म के अनुरुप अर्थ नामक पुरुषार्थ का महत्व

प्राचीन से लेकर आज भी प्रासंगिक है ।

काम

काम का अर्थ लौकिक जीवन में संक्षिप्त एवं व्यापक रुपों में उल्लिखित किया

जा सकता है । संक्षिप्त अर्थ में काम का तात्पर्य केवल इन्द्रिय सुख अथवा वासनाओ

की संन्तुष्टि से है । जबकि व्यापक अर्थ में काम का तात्पर्य उन समस्त इच्छाओ से है

जो इन्द्रियो की संन्तुष्टि से सम्बन्धित है और मनुष्य को भौतिक सुख की प्राप्ति की

ओर प्रेरित करती है ।

मनुष्य की समस्त इन्द्रियो का मूल उसका मन है और मन को संन्तुष्ट करना

ही काम का वास्ताविक आधार है । काम का क्षेत्र इतना व्यापक है कि इसके अन्तर्गत

धर्म एवं अर्थ दोनो को एक साथ समान्वित किया जा सकता है । भारतीय धर्म साधना

के ग्रन्थो में जहाँ सामाजिक चिंतको ने काम का विशेष स्थान प्रदान किया वही

पाश्चात्य विचारको के एक वर्ग ने काम को ही एक मात्र मानव में क्रिया प्रेरणा माना।

मनु ने काम को ही जीवन का मूल संकल्प स्वीकार किया है । वात्सयायन की काम

सूत्र का प्रमुख आधार काम ही है । फ्रायड ने काम को ही जीवन की सम्पूर्ण क्रियाओ

की मल
ू उत्तेजक शक्ति माना है ।

काम ही वह पुरुषार्थ है जो दो अनजाने प्राणियो को भौतिक जगत में एक साथ

चलने के लिए बाध्य करता है । इन्द्रिय सम्बन्धी सुख के अतिरिक्त सन्तानोत्पत्ति का


माध्यम काम ही है । यदि मानव के अन्दर से काम की प्रवत्ति
ृ पूर्णतः समाप्त हो जाए

तो इस भौतिकक जगत में मानव सर्वदा के लिए लुप्त हो जायेगा। इस प्रकार काम

इन्द्रिय सख
ु अथवा इच्छा की पर्ति
ू मात्र रहकर परु
ु षार्थ नही बनता बल्कि यह परिष्कृत

होकर दाम्पत्य जीवन, परिवार आदि संस्थाओ की व्यवस्था करने के साथ -साथ

सौन्दर्य, कला, विभूति आदि कोमल भावो को विकसित एवं दृढ़ कर पुरुषार्थ का

रुप ग्रहण करता है ।

मानव जीवन में काम के महत्व को स्वीकार करते हुये हिन्द ू चिंतको नें उस पर

धर्म का अंकूश भी लगाया तथा यह प्रतिपादित किया कि धर्मानुरुप काम का आचरण

ही व्यक्ति एवं समाज का उन्नत कर सकता है । इसके विपरीत होने पर यह मनुष्य के

पतन का मार्ग प्रशस्त करता है । क्योकि काम तप्ति


ृ में विघ्न होने पर क्रोध तथा क्रोध

से मोह अथवा अविवेक का जन्म होता है , मोह से स्मति


ृ विनाश, स्मति
ृ विनाश से

बद्धि
ु नाश एवम ् बद्धि
ु नाश से मनष्ु य का सर्वनाश हो जाता है । अतः धर्मयक्
ु त काम से

ही मनुष्य एवं समाज का कल्याण संभव है ।

महाभारत के अनस
ु ार जो व्यक्ति धर्मविहिन काम का अनस
ु रण करता है वह

अपनी बद्धि
ु को समाप्त कर दे ता है तथा कठिनाइयो में शत्रु द्वारा हँसी का पात्र

बनाया जाता है ।1

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जो व्यक्ति काम को इन्द्रिय सख


ु की दृष्टि से

दे खते है वे वास्तव में पुरुषार्थ के रुप में काम को समझे ही नही। काम के वास्तविक

रुप मुख्यतः तीन है । (1) दाम्पत्य बंधन के रुप में (2) आध्यात्मिक (3)
कलात्मक एवं सौन्दर्य। इस प्रकार पुरुषार्थ के रुप मे काम का स्थान सामाजिक,

धार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक तीनो दृष्टिकोणो से महत्वपूर्ण है । जिसकी उपयुक्तता प्राचीन

से वर्तमान तक बनी हुयी है ।

मोक्ष

मोक्ष मानव-जीवन का अन्तिम एवं चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है । मोक्ष से

तात्पर्य पुनर्जन्म अथवा सांसारिक आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा

के विलीन हो जाना है । इसे परम ् पुरुषार्थ भी कहा जाता है क्योकि मोक्ष समस्त

पुरुषार्थो का साध्य है । धर्म, अर्थ और काम इसके साधन स्वरुप है । मोक्ष प्राप्त

व्यक्ति इहलोक से परलोक को प्रस्थान कर लेता है जहाँ उसे तीन प्रकार के द ख


ु ः

क्रमशः अधिदै हिक, अधिदै विक, अधिभौतिक से छुटकारा प्राप्त हो जाता है और वह

परम ् आनन्द को प्राप्त करता है ।

मोक्ष को कैवल्य, मक्ति


ु एवं निर्वाण इत्यादि नामो से भी जाना जाता है । मोक्ष

प्राप्ति के तीन मार्ग (कर्म, ज्ञान, भक्ति) बतलाये गये है । इन मार्गो का

अनुसरण कर व्यक्ति अपने आत्मा का सर्वोच्च विकास कर उसके सच्चे स्वरुप को

प्राप्त करता है । मोक्ष हिन्द ू विचारधारा की अपनी व्यवस्था है जो विश्व की अन्य

संस्कृतियो में सर्वथा अप्राय है । यहाँ भौतिकता को महत्वपुर्ण मानते हुये भी

आध्यात्मिकता को प्राथमिकता दी गई है । इसलिए हिन्द ू संस्कृति को आध्यात्मिक

संस्कृति भी कहा जाता है । मोक्ष ही मनष्ु य के जीवन में एहलौकिकता को

पारलौकिकता के साथ तथा भौतिकता को आध्यात्मिकता के साथ समान्वित कर


मानव को उच्चतम मानव के रुप में विकसित होने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन एवं

अवसर प्रदान करता है । मोक्ष ही मनुष्य का सर्वोत्कृष्ट अभिष्ट स्वार्थ है । उसी को

पाकर मनष्ु य कृतार्थ होता है । इसलिए कहा गया है -

“एतावानेन मनुजर्यो
ै ग नैपुणबद्धि
ु भिः।

स्वार्थ सर्वात्मान ज्ञेयो यत ् परात्मैक दर्शनम ्।।”

अर्थात ऐसा व्यक्ति जिसने सर्वाभिष्ट फल मोक्ष को प्राप्त कर लिया है उसे

योग्य, निपुणता, बद्धि


ु और स्वार्थ सब कुछ अपने में ही जान लेना चाहिए जोकि

आत्मदर्शन के रुप मे कहा गया है । मानव जीवन के प्रति ये विचार जिसमें नैतिक ,

सामाजिक एवं आध्यात्मिक मल्


ु यो की स्थापना होती है , मनष्ु य के व्यक्तित्व का

विकास एवं समाज के उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त्र करती है ।

इस प्रकार मानव जीवन के सभी विषय इन्ही चार पुरुषार्थ के अन्तर्गत है ।

मानव जीवन के विभिन्न भागो में परु


ु षार्थ की प्राप्ति कर व्यक्ति भौतिक एवं

आध्यात्मिक क्षेत्र मे अपने जीवन को ऊँचा और आदर्श बनाता है । हिन्द ू चिन्तको का

यह जीवन-दर्शन विश्व का अकेला जीवन दर्शन है जिसमें जीवन के प्रति मोह है तो

योग भी है , बन्धन है तो मुक्ति भी है , आशक्ति है तो त्याग भी है । पुरुषार्थ के

आधार पर यदि समस्त मानव जगत अपने विकास कार्य की तरफ ध्यान दे तो

वसध
ु ैव कुटुम्बकम ् एवं सर्वे भवन्तु सखि
ु नः की अवधारणा साकार होने में दे र नही

लगेगी।

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