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रीति ररवाज़ और परम्पराओं का वैज्ञातिक महत्त्व

January 4, 2013, 10:32 AM IST बी. एस. किौतिया in अतिज्ञाि |


भारतीय संस्कृतत मे रीतत-ररवाज़ और परम्पराओं का वै ज्ञातिक महत्त्व है .जैसे हमारे बुजुर्ग प्रातः उठकर अपिे
दोिों हाथों को दे खते हैं और उसमें ईश्वर का दर्गि करते हैं .धरती पर पैर रखिे से पहले धरती मााँ को प्रणाम
करते हैं क्ोंतक जो धरती मााँ धि-धान्य से पररपूणग करती है ,हमारा पालिपोषण करती है ,उसी पर हम पैर रखते
हैं .इसीतलए धरती पर पैर रखिे से पहले उसे प्रणाम कर उससे माफी मां र्तेहैं.अथवगवेद के पृथ्वी सूक्त में ऐसा
प्रसंर् है .
सूयग ग्रहण के समय घर से बाहर ि तिकलिे की परं परा के पीछे वैज्ञातिक तथ्य तछपा हुआ है .दरअसल सूयग
ग्रहण के समय सूयग से बहुत ही हातिकारक तकरणें तिकलती हैं जो हमें िुकसाि पहुं चाती हैं .इसी तरह कहा जाता
है तक हमें सू योदय से पहले उठिा चातहए क्ोंतक इस समय सूरज की तकरणों में भरपूर तवटातमि डी होता है
और ब्रह्म मुहूतग में उठिे से हम तदिोंतदि तरोताजा रहते हैं और आलस हमारे पास भी िहीं फटकता .
हमारे वेद पुराणों में प्रकृतत को माता और इसके हर रूप को दे वी -दे वताओं का रूप तदया र्या है -हमिे कुछ
पेडों को जैसे-बरर्द ,पीपल को दे वताओं और तु लसी ,ितदयों को दे वी का रूप तदया है .यह कोई अन्धतवश्वास िहीं
है बल्कि इसके पीछे बहुत बडा तथ्य छु पा हुआ है .हमारे पूवगजों िे इन्हें दे वी-दे वताओं का दजाग इसतलए तदया
क्ोंतक कोई व्यल्कक्त तकसी की पूजा करता है तो वह कभी भी उसको िुकसाि िहीं पहुं चा सकता .
घर में पूजा पाठ करते समय धूप, अर्रवत्ती ,ज्योतत जलाते हैं तथा र्ंख बजाते हैं इि सबके पीछे वैज्ञातिक तथ्य
छु पा हुआ है .ऐसा मािा जाता है तक र्ंख बजािे से र्ं ख-ध्वति जहााँ तक जाती है वहां तक की वायु से जीवाणु -
कीटाणु सभी िष्ट हो जाते हैं .
हमारे यहााँ चारो धाम घूमिे की परं परा है इस परं परा के पालि करिे से हमें दे र् के भूर्ोल का ज्ञाि होता है
,पयाग वरण के स द
ं यग का बोध होता है और साथ में ये यात्रायें हमारे स्वास्थ्य के तलए भी लाभकारी हैं क्ोंतक इससे
हमारा मि प्रसन्न रहता है .
हमारे सभी रीतत-ररवाज़ और त्य हार हमारे संबंधों को मजबूत करते हैं जैसे-रक्षाबंधि भाई-बहि के प्रे म को
बढाता है .करवाच थ दाम्पत्य जीवि में मधुरता लाता है .ऐसे ही छठ में मााँ अपिे बच्चे की लम्बी उम्र के तलए व्रत
करती है .
तवदे र्ी लोर् भारत आकर यहााँ की संस्कृतत,रीतत-ररवाजों और परम्पराओं को दे ख रहे हैं और अपिा रहे हैं
भारतीय संस्कृतत से प्रभातवत तवदे र्ी पयगटक मि की र्ां तत के तलए भारत आते हैं और यहााँ आिे पर उन्हें एक
अजीब से सुकूि का अिुभव होता है .
हमारी भारतीय संस्कृतत में माता-तपता और र्ुरु के पैर छूिे की परं परा है माता-तपताऔर बडों को अतभवादि
करिे से मिुष्य की चार चीजे बढती हैं -आयु, तवद्या ,यर् और बल.

अतभवादि र्ीलस्य तित्यं बृद्ध-उपसेतवि:।


चत्वारर तस्य वधगन्ते आयुतवगद्या यर्ोबलं ।।

सज्जि और श्रेष्ठ लोर्ों का अपिा एक प्रभा मंडल होता है और जब हम अपिे र्ुरु और अपिे से बडों के पै र
छूते हैं तो उसकी कुछ अच्छाईयां हमारे अं दर भी आ जाती हैं .

आज हम अपिी परम्पराएाँ और रीतत ररवाज भूलते जा रहे हैं और समाज तवघटि की और अग्रसर हो रहा है ऐसे
में आवश्यकता है की हम अपिे रीतत-ररवाजों और परं परा के पीछे वैज्ञातिक कारणों को जािे और उन्हें
अपिाकर अपिा जीवि सु खमय बिायें.
बी .एस . कि तजया
https://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/?p=15585

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