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संस्कृ त में वनस्पतिशास्त्र

सारांश

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वनस्पति मनुष्य के श्वसन से लेकर पोषण तक की आवश्यकताओं को पूरा करती है। इसी

परोपकारिता के कारण वनस्पति को संस्कृ त वांग्मय साहित्य में शिव रूप में देखा गया है। महर्षि

पराशर को भारतीय वनस्पतिशास्त्र का जनक माना जाता है। प्राच्य मनीषी प्रकृ ति और वनस्पति

के बीच माता - पुत्र का सम्बन्ध मानते थे। भारतीय वनस्पतिशास्त्र में वनस्पतियों के विविध

वैज्ञानिक पक्षों का भी चित्रण मिलता है। जैसे - बरगद, नीम, आंवला, पीपल, तुलसी आदि

वनस्पतियों के चिकिस्तकीय महत्त्व को इस आलेख में दर्शाया गया है। वेद, पुराण, आयुर्वेद,

रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र आदि ग्रन्थों में वनस्पतियों के महत्त्व और उनके प्रति राज्य के

कर्त्तव्यों का वर्णन मिलता है। वर्तमान समय में भी वनस्पतिविज्ञान की प्रासंगिकता बनी हुई है।

कोरोना महामारी के दौर में दुनिया ने इसको देखा। वर्तमान सरकार द्वारा आयुर्वेद चिकित्सा

पद्धति के संवर्धन का प्रयास इसकी प्रासंगिकता की पुष्टि करता है। यद्यपि इसकी राह में कु छ
चुनौतियां विद्यमान हैं परंतु इससे जुड़ाव में मानव की दीर्घजीविता का सूत्र समाहित है। अतः

सम्पूर्ण विश्व के कल्याण हेतु वनस्पतिशास्त्र परंपरा को सहर्ष स्वीकार करने की आवश्यकता है।

मुख्य शब्द –

वनस्पति विज्ञान, संस्कृ त वांग्मय साहित्य, वनस्पतिशास्त्र परम्परा, आयुर्वेद, मांगलिक व

प्राणवायु, देवत्व, समृद्ध चिकित्सा पद्धति, प्रासंगिकता, मानव की दीर्घजीविता, सम्पूर्ण विश्व

का कल्याण

दशकू प समावापी दशवापी समोहृद: ।

दशहृदः समः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः ।

मत्स्य पुराण में वर्णित उपरोक्त श्लोक के माध्यम से हमारे मनीषियों ने जीवनदायिनी वनस्पति जगत को अमूल्य

धरोहर माना है। मानव प्रकृ ति की संतान है। इस पृथ्वी पर जीवन को पोषित करने और अनादि काल से निरंतरता

प्रदान करके उसे सभ्यता की मूरत में गढ़ने में वनस्पतियों का ही तो योगदान है। इसलिए संस्कृ त वांग्मय साहित्य में

इसकी वंदना की गई है और साथ ही उनकी निरंतर कृ पा की कामना की गई है।


प्राचीन भारतीय विज्ञान की अन्य विधाओं की भांति वनस्पति विज्ञान का उद्भव भी अत्यंत प्राचीन है। महर्षि

पराशर को भारतीय वनस्पतिशास्त्र का जनक माना जाता है। उन्होंने वृक्षायुर्वेद में वनस्पतिशास्त्रीय महत्त्व, औषधीय

उपयोग और निवासस्थल की विस्तृत विवेचना की है। संस्कृ त वांग्मय में प्रतिपादित वनस्पति विज्ञान का अध्ययन

करने से ज्ञात होता है कि प्राच्य मनीषियों को वनस्पतिशास्त्र का अप्रतीम ज्ञान था। वे प्राकृ तिक सम्पदा को जीव से

भिन्न नहीं मानते थे। वे वनस्पति का प्रकृ ति से माता - पुत्र का सम्बन्ध मानते थे।

वनस्पति के महत्त्व को समझकर ही वैदिक वांग्मय के मनीषियों ने प्रकृ ति के नैसर्गिक सौंदर्य में मानव जीवन की

सुंदरता का दर्शन कराया। अपने अनंत गुणों के कारण ही वैदिक साहित्य में वनस्पतिशास्त्र को सर्वाधिक महत्त्व दिया

गया है क्योंकि यह विश्व को समृद्धि ही प्रदान नहीं करती, अपितु प्राणदायक वायु के माध्यम से पर्यावरण को

माधुरमय भी बनाती है। यथा - यजुर्वेद में वर्णित है "मधुमान्नो वनस्पतिः मधुमास्तु सूर्यः" 13/29

वायु सुरक्षा के लिए वनस्पति सुरक्षा अति आवश्यक सूत्र है। आकाशीय वायु और अग्नि तत्त्व

को शुद्ध करने के लिए पृथ्वी पर वनों और वृक्षों का महत्त्व सर्वाधिक इसलिए है क्योंकि वृक्ष ही कार्बन

डाइऑक्साइड को ग्रहण कर ऑक्सीजन उत्सर्जित करते हैं तथा पृथ्वी के ताप को कम करके ब्लैक होल को बढ़ने

से रोकते हैं। इन्हीं वैज्ञानिक पक्षों को स्वीकार कर वैदिक साहित्य में अन्य प्राकृ तिक संपदाओं के साथ वृक्ष -

वनस्पतियों का नमन - वंदन किया गया है। यथा - यजुर्वेद में कहा गया है –

" नमो वृक्षेभ्यो हरि के शोभ्यों नमः ।" 16/17


आइए अब हम संस्कृ त साहित्य के विविध खंडों में वनस्पतिशास्त्र के महत्त्व पर दृष्टिपात करते हैं।

वेदों में यह बताया गया है कि वायु प्रदूषण से बचने के लिए वनों में वनस्पतियों का अधिकाधिक संवर्धन करना

चाहिए। जैसा कि ऋग्वेद में इसकी आराधना वायु देवता के रूप में की गई है -

" ॐ वाते आवातु भेषजम

शुभम् भयो यूनो हृदे

प्रण आयुंशि तारिषत "। 10.186.1

इतना ही नहीं बल्कि यजुर्वेद रुद्राष्टाधायी के एक मंत्र में "औषधिहिंसी" कहकर वृक्षों की हिंसा अर्थात् कटाई

निषेध किया गया है।

इसके आलावा अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में वनस्पतियों के द्वारा ही चिकित्सा पद्धति का वर्णन है।

आयुर्वेद में कु छ वनस्पतियों को अत्यंत चमत्कारी और उपयोगी माना गया है। उनमें से कु छ का वर्णन इस प्रकार है

पीपल, नीम, बरगद,आंवला पीपल को अश्वत्थ नाम से भी जानते हैं। यह कफ-पित्त शामक माना जाता है। इसके

फल का चूर्ण सांस संबंधी रोग में लाभप्रद है।

2.. नीम

नीम का रस आयुर्वेदानुसार पाचन संबंधी विकारों, बुखार और कफ की बीमारी में भी यह लाभदायक है। यह रक्त

को शुद्ध करता है
3. आंवला

आंवला आयुर्वेद में रसायन औषधि माना जाता है। यह त्रिदोष हर है विशेषतः पित्त शामक है। विटामिन-सी का यह

सर्वोत्तम स्त्रोत है।

संस्कृ त साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण खण्ड "पुराण "भी वनस्पतिशास्त्र का महिमामंडन करते हैं । मत्स्य पुराण में

कहा गया है कि "दस पुत्र एक वृक्ष के समान है।" पुराणों में वृक्ष को प्रकृ ति का शृंगार माना गया है।

अग्नि पुराण में वृक्षारोपण को मुक्ति प्रदान करने वाला कहा गया है। वृक्षों के लगाने हेतु उपयुक्त नक्षत्र क्या हैं ?

इसका स्पष्ट उल्लेख अग्निपुराण के यह श्लोकांश द्वारा दृष्टव्य है-

सप्तम्यां वा त्रयोदश्यां दमनं संहिताणुभिः संपूज्यधाक्येन मन्त्रवित्

अर्थात् सप्तमी अथवा त्रयोदशी के दिन संहिता मन्त्रों द्वारा दमन की पूजा करके मन्त्रज्ञ व्यक्ति द्वारा शिव की आज्ञा से

वृक्ष को लगाना चाहिए।

वाल्मीकि रामायण में भी महर्षि वाल्मीकि ने शाल्मवृक्षों में देवत्व को स्वीकार किया है l

इसके अलावे उत्तरोत्तर कालखंडो में भी वनस्पतिशास्त्र की एक समृद्ध परम्परा देखी जा सकती है। कौटिल्य

के अर्थशास्त्र में वनों के विविध प्रकारों की स्थापना राजा के महत्त्वपूर्ण कर्तव्य बताए गए हैं। यथा -
"अकृ ढ़यायं भ्रमौ पशुभ्यो: विवीतानी प्रयचछेत

प्रदिष्टाभया स्थावर जंगमानी च ब्राह्मणेभ्यो

ब्रह्म सोमारण्यनि तपोवनानि च तपस्विभ्यो गोरूतपाशावि प्रयचछेनत्, सर्वातिथि मृगवनम् विहारर्थ राज्ञः काश्येत "

2.78 अर्थात राजा को चार प्रकार के वनों का निर्माण करना चाहिए -

1. सोमारण्य - वेदों के अध्ययन हेतु

2. तपोवन - तपस्वियों की साधना हेतु

3. विहारवन - यहां दो द्वार होंगे, सरोवर होंगे जहां दंतविहीन पशुओं को संरक्षण दिया जाएगा

4.. मृगवन - वे वन जहां देश - देशांतर से लाकर पशु रखे जाएंगे।

इसके साथ ही कौटिल्य ने वृक्षों को नुकसान पहुंचाने पर दण्ड देने की बात भी की है,

यथा

पुरोपवनवनस्पतिनाम् पुष्पफलच्छायावताम् प्ररोहच्छेदने षटपण:

शुक्रनीति के 44 वें एवं 45 वें श्लोक में वृक्षों के रोपण की विभिन्न विधियों का उल्लेख है।

ग्रामे ग्रामयान् वने वन्यान् वृक्षान् संरक्षयेन्नृप:


जैसे - गांवों में रोपे जाने वाले पौधे, जंगली पौधे इत्यादि, छोटे एवम् बड़े वृक्षों के बीच की दूरी, उसके संवर्धन हेतु

उपाय आदि। 46 वें श्लोक में गांवों में लगाए जाने वाले वृक्षों के रूप में गुलर, पीपल, बरगद, चंदन, अशोक,

आम, नीम, सहजन, शीशम, आदि का उल्लेख है।

वारहमिहिर की "वृहदसंहिता " में जल संरक्षण और भौम जल संवर्धन हेतु जलाशयों के किनारे विभिन्न प्रकार के

वृक्षों के आरोपण की अनुशंसा की है। जैसे - जामुन, अर्जुन, बड़, आम, कदंब, अशोक , महुआ आदि वृक्षों को

वापी के तट पर लगाना चाहिए। इससे वर्षाजल का सदुपयोग होगा और भौम जल संवर्धन होगा। ..

वनस्पतिशास्त्र के उपरोक्त व्याख्याओं की प्रासंगिकता के वल प्राचीन काल में ही नहीं, बल्कि इसका प्रसार

आधुनिक काल में भी देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए आज भी घरों में छोटी वेदिका बना कर तुलसी के

पौधे को रखा जाता है और उसकी पूजा की जाती है। आज भी पीपल, बरगद, नीम जैसे वृक्षों को काटना वर्जित है।

इन वृक्षों की पूजा की जाती है। वट सावित्री पूजा इसका नवीनतम उदाहरण है। सिर्फ विकास की मुख्यधारा में

शामिल जन समुदाय ही नहीं, बल्कि जनजातीय समुदाय भी वृक्षों का महत्त्व समझता है और उसका संरक्षण करता

है। उदाहरण के लिए, राजस्थान का विश्नोई समुदाय आज भी वन को देवी मानता है, उसके वृक्षों को काटता नहीं

है, वनों से उन्हीं प्राकृ तिक तौर पर गिरी हुई लकड़ियों उपयोग करता है।

संस्कृ त की महान वनस्पति शास्त्र परंपरा की उपयोगिता का ज्ञान तब और समझ में आया जब कु छ वर्ष पूर्व कोरोना

महामारी फै ली। । उस दौर में जब टीके के आविष्कार नहीं हुआ था तो गिलोय और अन्य आयुर्वेदिक विधियों से
निर्मित औषधियों ने करोड़ों जीवन की रक्षा की। कोरोना महामारी के बाद आयुर्वेद पर एक बार पुनः लोगों का

विश्वास जागा है और नए- नए शोध अनुसंधान हो रहे हैं। इसमें भारत सरकार का भी सहयोग प्राप्त हो रहा है जो

प्रशंसनीय है।आयुष प्रणालियों के संवर्द्धन और विकास के लिये भारत सरकार ‘राष्ट्रीय आयुष मिशन को

क्रियान्वित कर रही है।

हालांकि, संस्कृ त वनस्पतिशास्त्र की राह में कु छ बाधाएं भी हैं जिन पर सरकार और नागरिक समाज

दोनों को काम करने की जरूरत है। पहली बाधा है, संस्कृ त में वर्णित वनस्पतिशास्त्र एवं विधियों का हिंदी या अन्य

स्थानीय भाषाओं में प्रसार ना हो पाना। दूसरी बाधा, संस्कृ त विषय के प्रति आधुनिक नागरिक समाज की सिकु ड़ती

रुचि और अनुराग भी है। इसके अलावा, सरकार से मिलने वाले वित्त या अनुदान का अभाव भी एक प्रमुख बाधा

है जिसके कारण शिक्षण एवं शोध कार्य प्रभावित हो रहे हैं। संस्कृ त वनस्पतिशास्त्र आज भी अनेक नवीन

संभावनाओं से युक्त है। नित नए शोध इसकी पुष्टि भी कर रहे हैं।

प्रकृ ति से जुड़ाव में ही मानवता की दीर्घजीविता समाहित है। संस्कृ त वांग्मय साहित्य हमेशा से ये आह्वान करता

आया है। अब समय की मांग है कि भारतीय जनमानस पाश्चात्य चश्मे को उतारे और वास्तविकता की परिधि में

अपनी समृद्ध चिकिस्ता पद्धति और वनस्पति शास्त्र परंपरा को सहर्ष स्वीकार करे। इसमें समस्त विश्व का कल्याण

निहित है।

संदर्भ_
1. वैदिक वांग्मय में विज्ञान का इतिहास

2. ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद

3. मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, वराह पुराण

4. शुक्रनीति

5. कौटिल्य अर्थशास्त्र

6. विषय की अभिव्यक्ति अपने शब्दों में.

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