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Parshuram Pratah: Shakha 󰟝


Mar 22, 2017󰞋󰙷 󱘆

💐विश्व जल दिवस पर💐

॥संस्कृ त वाङ्मय में जल संचेतना॥

🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂

"जलं हि प्राणिनः प्राणाः

जलं शस्यस्य जीवनम्।

न जलेन विना लोके

शस्यबीजं प्रजायते।।”

22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य है

विश्व के सभी विकसित और विकासशील देशों में स्वच्छ एवं

सुरक्षित जल की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना है साथ ही यह

जल संरक्षण के महत्व पर भी संचेतना जागृत करना।

🎁जल संसार के सभी प्राणियों का वैसे ही पालन-पोषण

करता है जैसे माता अपने बच्चों का दुग्धपान द्वारा पालन-

पोषण करती है। ऋग्वेद के ‘आपो देवता’ सूक्त में जल को

माता की संज्ञा दी गई है। अभिलेखों में जल को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा

देकर उसे चराचर जगत् का बीज कहा गया है। क्योंकि जल से

ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई है तथा इसी जल के प्राकृ तिक

संरक्षण, संवर्धन और नियंत्रण द्वारा इस पृथ्वी का पर्यावरण

संतुलित रहता है। किन्तु उपभोक्तावादी पश्चिमी मानसिकता से

ग्रस्त होकर हमने और हमारी विकासवादी सरकारों ने इस

मातृतुल्य जल की जो बेकद्री की है‚ अंधविकासवादी और

पर्यावरणविरोधी योजनाएं बनाकर उसके प्राकृ तिक मूलस्रोतों

को अवरुद्ध करने का जो अपराध किया है‚ विकास के नाम पर

जल‚ जंगल और जमीन जैसे मूलभूत प्राकृ तिक संसाधनों का

इतनी निर्ममता से संदोहन किया है‚ उसी का परिणाम है कि

आज समूचे भारत का प्राकृ तिक जलचक्र गड़बड़ा गया है और

हम सब जलसंकट की समस्या से जूझ रहे हैं। कहीं बाढ़ की

स्थिति आ रही है तो कहीं सूखे का प्रकोप छाया हुआ है। गांव-

गांव, नगर-नगर को हजारों वर्षों से जल की आपूर्ति करने वाले

कु एं तालाबों और नहरों को पाटकर बिल्डर माफिया ने

बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी हैं किन्तु जल आपूर्ति का कोई

वैकल्पिक उपाय इनके पास नहीं है।


🎁
सन् 2014 में मैंने ‘उत्तराखंड संस्कृ त अकादमी’ हरिद्वार द्वारा

‘आइ आइ टी’ रुडकी में आयोजित विज्ञान से जुड़े छात्रों और

जलविज्ञान के अनुसंधानकर्ता विद्वानों के समक्ष ‘प्राचीन भारत


में जलविज्ञान‚ जलसंरक्षण और जलप्रबंधन’ पर अपना

वक्तव्य दिया था। जल जागरूकता अभियान के उसी संदर्भ में

प्रस्तुत
󰘋 है Write
‘भारतीय a जलविज्ञान
comment… ’ पर मेरा लेख ‘संस्कृ त वाङ्मय में

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जल संचेतना’॥

💝
󰟙 संस्कृ
Parshuram
त वाङ्मय में Pratah: Shakha's
जल संचेतना
💝post

भारत मूलतः एक कृ षि प्रधान देश होने के कारण जलविज्ञान

का भी पुरस्कर्ता देश रहा है। पिछले आठ हजार वर्षों से भारत

पर्यावरण संरक्षण‚ जल संग्रहण तथा जल प्रबन्धन से

सम्बन्धित वैज्ञानिक तकनीकों के द्वारा अपनी जल संकट की

समस्याओं को सुलझाता आया है। आधुनिक विज्ञान और

प्रौद्योगिकी के पास जल संकट का कोई समाधान है ही नहीं।

के वल प्राकृ तिक जल संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन द्वारा

ही इस जल संकट का समाधान खोजा जा सकता है। इस

विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधुनिक युग में भी जल संकट की

ज्वलंत समस्या का निदान और समाधान खोजना है तो संस्कृ त

वाङ्मय की शरण में जाना होगा जहां सुरक्षित है आठ-दस

हजार साल पुराना भारतीय जलसंचेतना, जलसंरक्षण और

जलप्रबंधन का स्वर्णिम वैज्ञानिक इतिहास।

जब से मनुष्य का इस धरती पर पदार्पण हुआ है जल ही उसके

भरण-पोषण और आर्थिक प्रगति का अनिवार्य तत्त्व रहा है।

विश्व की तमाम प्राचीन सभ्यताएं चाहे वह नील घाटी की

सभ्यता हो या सिन्धु-सरस्वती या गंगा-यमुना की घाटी की

सभ्यता, सभी सभ्यताएं नदियों के तटों पर ही विकसित हुई हैं।

जहां तक भारतीय सभ्यता का सम्बन्ध है, वैदिक काल से ही

इसे नदीमातृक संस्कृ ति के रूप में जाना जाता है। ऋग्वेद के

मंत्रों में यह प्रार्थना की गई है कि ये मातृतुल्य नदियां लोगों को

मधु और घृत के समान पुष्टिवर्धक जल प्रदान करें -

“सरस्वती सरयुः सिन्धुरुर्मिभिर्महो

महीरवसाना यन्तु वक्षणीः।

देवीरापो मातरः सूदमित्न्वो

घृत्वत्पयो मधुमन्नो अर्चत।।"

- ऋ.10.64.9

ऋग्वेद के ‘आपो देवता’ सूक्त में जल को माता की संज्ञा दी गई

है। क्योंकि जल से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई है तथा इसी

जल के प्राकृ तिक संरक्षण, संवर्धन और नियंत्रण द्वारा इस

पृथ्वी का पर्यावरण संतुलित रहता है -

“ऋषे जनित्रीर्भुवनस्य पत्नीरपो वन्दस्व

सवृधः सयोनीः।” - ऋ., 10.30.9

जल संसार के सभी प्राणियों का वैसे ही पालन-पोषण करता है

जैसे माता अपने बच्चों का दुग्धपान द्वारा पालन-पोषण करती

है -

“यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः।

उशतीरिव मातरः।।” - ऋ., 10.9.2

वैदिक साहित्य
󰘋 Writeकी भांति लौकिक संस्कृ त साहित्य
a comment… 󰝖󰢉 में भी जीवन
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धारक तथा लोक संरक्षक तत्त्व के रूप में जल की प्रशंसा की

󰟙
गई है -
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“जलं हि प्राणिनः प्राणाः

जलं शस्यस्य जीवनम्।

न जलेन विना लोके

शस्यबीजं प्रजायते।।”

जल को मात्र एक प्राकृ तिक संसाधन मानना वस्तुतः एक

आधुनिक उपभोक्तावादी सोच है जिसके कारण जल अपव्यय,

जल प्रदूषण आदि की समस्याएं पैदा होती हैं। भारतीय चिन्तक

वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक जल को पवित्र एवं

दिव्य आस्थाभाव से देखते आए हैं। वैदिक साहित्य में जल

देवता सम्बन्धी मंत्र इसके प्रमाण हैं। जल के प्रति आस्था भाव

का परिणाम है कि संस्कृ त वाङ्मय के विभिन्न ग्रन्थों में वापी,

कू प, तडाग आदि जलाशयों को धार्मिक दृष्टि से पुण्यदायी माना

गया है -

“वापीकू पतडागानि देवतायतनानि च।

अन्नप्रदानमारामाः पूतधर्मश्च मुक्तिदम्।।”

- अग्निपुराण, 209.2

‘प्रासादमण्डन’ नामक वास्तुशास्त्र के


ग्रन्थ में कहा गया है कि

जो व्यक्ति जीव जन्तुओं और वृक्ष वनस्पतियों की जीवन रक्षा

के लिए जलाशय का निर्माण करता है या दान स्वरूप देता है

तो उसे इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है -

“जीवनं वृक्षजन्तूनां करोति य जलाश्रयम्।

दत्ते वा लेभेत्सौख्यमुर्व्यां स्वर्गे च मानवः।।”

- प्रासादमण्डन, 8.95

पुराणकारों ने भूमिगत जल के संरक्षण और संवर्धन को विशेष

रूप से प्रोत्साहित करने के लिए नए जलाशयों के निर्माण के

अतिरिक्त पुराने तथा जीर्ण-शीर्ण जलाशयों की मरम्मत और

जीर्णोद्धार को भी अत्यन्त पुण्यदायी कृ त्य माना है -

“यस्तडागं नवं कृ त्वा जीर्णं वा नवतां नयेत्।

सर्वं कु लं समुद्धृत्य स्वर्गलोके महीयते।।”

वाल्मीकि रामायण में राज्य की ओर से सिंचाई व्यवस्था को

सुचारु बनाने तथा जल प्रबन्धन को जन-जन तक पहुंचाने के

लिए नदियों के तटों पर बांध बनाना और जल के बिखरे हुए

स्रोतों को संचयित करने का उल्लेख आया है -

“बबन्धुर्बन्धनीयांश्च क्षोद्यान् संचुक्षुदुस्तथा।

अचिरेण तु कालेन परिवाहान् बहूदकान्।।”

- वा. रामायण, 2.80.10-11

रामायण में ही निर्जल प्रदेशों में नाना प्रकार के जलाशयों जैसे

कु ओं, बावड़ियों
󰘋 Write आदि के निर्माण द्वारा जलसंचयन
a comment… 󰝖󰢉 को विशेष
󰙏

रूप से प्रोत्साहित किया गया है-

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“निर्जलेषु च देशेषु

खानयामासुरुत्तमान्।

उदपानान् बहुविधान्

वेदिकापरिमण्डितान्।।"

- वा. रामायण, 2.80.12

चौदहवीं शताब्दी के दक्षिण भारत के पोरुममिल्ला नामक

तडाक अभिलेख में जल को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा देकर उसे चराचर

जगत् का बीज कहा गया है। जल का आश्रय लेकर ही ब्रह्मा,

विष्णु और महेश का आविर्भाव होता है -

“आपो वा इदं सर्वमित्याम्नायप्रमाणतः।

जलादेवान्नसंभूतिरन्नं ब्रह्मेति च श्रुतिः।।

चराचरजगद्बीजं जलमेव न संशयः।

किं पुनर्बहुनोक्ते न जलाधिक्यं वदाम्यहम्।।

गंगाधरो हरस्सोपि विष्णुरम्भोधिमन्दिरः।

ब्रह्माजलसंभूतस्तस्मात्सर्वाधिकं जलम्।।”

- पोरुममिल्ला अभिलेख, 23-25

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