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जनजातीय परं परा पर आधुनिकता का प्रभाव

(ललितपुर जिले के सहरिया जनजाति के विशेष संदर्भ में )


विषय प्रवेश

स्वतंत्रता के 70 वर्षों के उपरांत जहां राष्ट्र अपनी संपूर्ण उपलब्धियों का मूल्यांकन करने का प्रयास
कर रहा है एवं 21 वीं सदी में सक्षम, सशक्त और आत्मनिर्भर शक्तिपुंज के शक्तिपुंज में पटल पर
अपने को स्थापित करने का मानस बना रहा है वहीं राष्ट्रीय चिंतन की मख्
ु यधारा में आदिम समद
ु ाय
भी वह प्रमुख पड़ाव है जिसके बिना विकास यात्रा पूर्ण नहीं की जा सकती। जनजातीय विकास आज
भी इतिहासकारों समाज वैज्ञानिकों राजनीतिज्ञों समाज सुधारकों नियोजनकर्ताओं सामान्य जनमानस
और यहां तक कि स्वयं जनजातियों के लिए भी चुनौती भरा प्रश्न है । आधुनिक सांस्कृतिक संपर्क
तथा आत्मसात्करण की प्रक्रिया ने सहरिया जनजाति की स्थिति को प्रभावित किया है । इस बात का
वैज्ञानिक अध्ययन सहरिया जनजाति के संदर्भ में विवेचन और गहन विश्लेषण की महती
आवश्यकता को बताता है ।

जनजाति

गोत्र का एक विस्तत
ृ स्वरूप जनजाति है । यह खानाबदोशी जत्थे, झण्
ु ड, गोत्र, भ्रातद
ृ ल एवं मोइटी से
अधिक विस्तत
ृ एवं संगठित होती है ।जनजातियों को आदिम समाज, आदिवासी, वन्यजाति, गिरीजन
एवं अनस
ु चि
ू त जनजाति आदि नामों से पक
ु ारा जाता है । जनजाति को परिभाषित करते हुये गिलिन
एवं गिलिन लिखते हैं,''स्थानीय आदिम समह
ू ों के किसी भी संग्रह को जोकि एक सामान्य क्षेत्र में
रहता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और एक सामान्य संस्कृति का अनुसरण करता हो एक
जनजाति कहते हैं।

डॉ० रिवर्स के मतानुसार जनजाति एक ऐसा सरल प्रकार का सामाजिक समह


ू है जिसके सदस्य
समान भाषा का प्रयोग करते हैं तथा युद्ध आदि सामान्य उद्देश्यों के लिये समि ्मलित रूप से कार्य
करते हैं।

डॉ० मजूमदार लिखते हैं, '' एक जनजाति परिवारों के समूह का संकलन होता है जिसका एक सामान्य
नाम होता है , जिसके सदस्य एक निश्चित भभ
ू ाग में रहते हैं , समान भाषा बोलते हैं और विवाह,
व्यवसाय या उद्योग के विषय में निशि ्चत निषेधात्मक नियमो का पालन करते हैं और पारस्परिक
कर्तव्यों की एक सवि
ु कसित व्यवस्था को मानते हैं।"

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*ठक्कर बापा और भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य जयपाल सिंह ने उन्हें "आदिवासी" के
नाम से सम्बोधित किया।

* बेरियर एलि ्वन ने इन्हें "आदिम जाति" के नाम से सम्बोधित किया।

* डॉ० जी० एस० घूरिये ने "पिछड़े हिन्द"ू कहकर सम्बोधित किया।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि जनजाति एक ऐसा क्षेत्रीय मानव समूह है जिसकी एक सामान्य
संस्कृति, भाषा, राजनीतिक संगठन एवं व्यवसाय होता है तथा जो सामान्यत: अन्तर्विवाह के नियमो
का पालन करती है ।

परम्परा

मानव को जीवनकाल में दो प्रकार की विरासत मिलती है एक प्राणिशास्त्रीय जो उसे शारीरिक रचना
व लक्षण प्रदान करती है और यह माता- पिता के वाहकाणुओं के द्वारा मिलती है जिसे हम
वंशानुक्रम कहते हैं। दस
ू री समाज द्वारा प्रदत्त सामाजिक विरासत है धर्म, विषय, दर्शन, प्रथायें, नियम,
रीति- रिवाज़ आदि अभौतिक सामाजिक विरासत है । सामाजिक विरासत का अभौतिक पक्ष ही परम्परा
कहलाता है ।

Tradition शब्द की उत्पत्ति Tradera शब्द से हुई है जिसका अर्थ है हस्तान्तरित करना। Tradition का
संस्कृत शब्द परम्परा है जिसका अर्थ ऐतिह अर्थात विरासत में मिलना। इस प्रकार परम्परा का
सम्बन्ध उन बातों से है जो अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही हैं और जो पीढी-दर- पीढी
हस्तान्तरित होती रही हों। इस सन्दर्भ में एक बात उल्लेखनीय है कि परम्परा लम्बे समय से
संरक्षित तो होती है , किन्तु यह पूर्णत: अपरिवर्तनशील या नितान्त रूढिवादी नहीं होती वरन ् सामहि
ू क
अनुभवों के अनुरूप इसमें आंशिक रूप में परिवर्तन होता रहता है ।

डी० एन० मजम


ू दार के अनस
ु ार परम्परायें अतीत को वर्तमान से जोड़ती है वर्तमान की कोई भी
व्याख्या अधूरी है जब तक वह परम्पराओं को अपना केन्द्र नहीं मानती। परम्परा को वर्तमान के
साथ समायोजन करना पड़ता है परम्परा में परिवर्तन निहित है परम्परा यदि जड़ हो जाती है तो
इसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है परम्परा वस्तुतः नज
ृ ातीयता यानी एथनिसिटी है परम्पराएँ हमारे
सांस्कृतिक इतिहास की कड़ियां हैं, अवयव हैं।

आधनि
ु कीकरण

परम्परात्मक समाजों में होने वाले परिवर्तनों या औद्योगीकरण के कारण पश्चमी समाजों में आये
परिवर्तनों को समझने के लिये तथा दोनों में भिन्नता प्रकट करने के लिये विद्वानों ने

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आधनि
ु कीकरण की अवधारणा को जन्म दिया। एक तरफ उन्होंने परम्परागत समाज को रखा और
दस
ू री तरफ आधुनिक समाज को। इस प्रकार उन्होंने परम्परा बनाम आधुनिकता को जन्म दिया।
इसके साथ ही जब पाश्चात्य विद्वान उपनिवेशों एवं विकासशील दे शों में होने वाले परिवर्तनों की
चर्चा करते हैं तो वे आधुनिकीकरण की अवधारणा का सहारा लेते हैं। कुछ लोगों ने आधुनिकीकरण
को एक प्रक्रिया के रुप में माना है तो कुछ ने एक प्रतिफल के रुप में ।

मैरियन जे०लेवी ने आधुनिकीकरण को प्रोद्योगिकी वद्धि


ृ के रुप से परिभाषित किया है ।

श्रीनिवास के अनुसार-आधुनिकीकरण की प्रक्रिया किसी एक ही दिशा या क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन
को प्रकट नहीं करती वरन ् यह बहु -दिशा वाली प्रक्रिया है साथ ही यह किसी भी प्रकार के मूल्यों से
बंधी हुई नहीं है परन्तु कभी-कभी इसका अर्थ अच्छाई या इचि ्छत परिवर्तन से लिया जाता है ।

डॉ० योगेन्द्र सिंह ने बताया है कि साधारणत: आधुनिक होने का अर्थ फैशनेबल से लिया जाता है वे
आधुनिकीकरण को एक सांस्कृतिक प्रत्यय मानते हैं जिसमें तार्कि क अभिवत्ति
ृ , सार्वभौम दृष्टिकोण,
परानुभूति, वैज्ञानिक विश्व दृष्टि, मानवता, प्राद्यौगिकी आदि समि ्मलित है । डॉ० सिंह आधुनिकीकरण
पर किसी एक ही नज
ृ ातीय समह
ू या सांस्कृतिक समह
ू का स्वामित्व नहींं मानते वरन ् सम्पर्ण
ू मानव
समाज का अधिकार मानते हैं। लर्नर ने आधुनिकता का अर्थ शहरीकरण,संचार व्यवस्था, उपभोग
तथा संचार से उत्पन्न होने वाली कलात्मक वस्तओ
ु ं जैसे कि फिल्म, अखबार, शिक्षा से लिया है
इनकी दृष्टि में ये सब कारक ही आधुनिकता के सूचकांक हैं।

पूर्ववर्ती अध्ययनों की समीक्षा

विष्ट (१९९२) ने अपने अध्ययन में भोटिया जनजाति की परम्परा और आधनि


ु कता के सातत्य का
अध्ययन किया है । इनका मानना है कि परम्परा की धारणा जहाँ एक ओर इस समुदाय के उस वर्ग
से जुड़ी है जो निवास एवं व्यवसाय की दृषि ्ट से अपनी परम्पराओं के काफी समीप है । वहीं द स
ू री
ओर आधुनिकता का विचार इस समुदाय के उस वर्ग से संबंधित है जो अपने परम्परागत निवास
स्थान एवं व्यवसाय से तल
ु नात्मक रूप से अधिक दरू और आधनि
ु क शिक्षा से अत्यधिक प्रभावित है
तथा स्थान मूलक व्यवसायिक व पदमूलक गतिशीलता में विश्वास रखता है । लेकिन इसका तात्पर्य
यह नहींं है कि ये दोनों ही वर्ग परम्परा और आधुनिकता की दृष्टि से निरपेक्ष हैं। वास्तविकता यह
है कि परम्परागत व्यवसाय व परम्परागत आवासीय क्षेत्रों में सीमित लोगों का बाह्य जीवन जहाँ
परम्परावादी है वहीं उनका व्यकि् तगत जीवन आधुनिकीकृत भी है । इस वर्ग में नि:सन्दे ह प ्…

बहुगुणा (१९९६) ने स्पष्ट किया है कि विकास की सभी अवधारणाएं प्रगति के लिये अपनायी जाने
वाली कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए वरना उन्हें बदल दे ना चाहिए। अगर हमारे बुद्धिजीवी और नीति
नियंता यह मानते हैं कि कथित आर्थिक विकास ही मख्
ु य उद्देश्य है और उसके लिए किसी भी समह

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के सभी प्रकार के अधिकारों को दबाया जा सकता है तो फिर मानवाधिकार के नाम पर चलने वाली
दनि
ु या भर की सैकड़ों दक
ु ानें बन्द होनी चाहिए। सहज विवेक का तो तकाजा है कि विकास के केन्द्र
में स्वयं मनुष्य होना चाहिए खासकर वह मनुष्य जिस पर इस तरह की विकास योजनाओं का सीधा
असर पड़ता है ।

हे रेडिया(२०००) ने जनजातीय इतिहास पर अध्ययन प्रस्तुत किया है । इनका मानना है कि अगर


भारतीय जनजाति अपनी वास्तविक पहचान बनाना चाहते हैं तो उनके लिए यह आवश्यक है कि वे
अपना मौखिक इतिहास बनायें जो परम्परागत श्रोत पर अवधारित हो, जिसे बाह्य समाज द्वारा दबा
दिया गया है ।आज जबकि जनजातीय समद
ु ाय विलप्ु त प्राय की स्थिति में है तो यह आवश्यक हो
जाता है कि उनके बचाव के उपाय किये जाये तथा इनके इतिहास को पुन: संरक्षित किया जाय।

अध्ययन का उद्देश्य एवं महत्व

वर्तमान अध्ययन इस बात को रे खाकिंत करता है कि जनजातीय परम्परा में आधुनिकता का प्रभाव
हुआ है , परन्तु यह जानना अभी शेष है कि प्रभाव का स्तर कितना है । वर्तमान अध्ययन में यह
जानना है कि जनजातीय परम्पराओं में आधनि
ु कता के प्रभाव से उनके एवं उनकी संस्कृति पर किस
तरह का प्रभाव पड़ रहा है । जिसको ज्ञात कर उन्हें विविध दष्ु प्रभावों से बचाया जा सके। अध्ययन
के उद्देश्य निम्नवत हैं-

 सहरिया जनजाति में आधुनिकता के प्रभाव को ज्ञात करना।


 सहरिया जनजाति में परम्परा और आधुनिकता के सामंजस्य को दे खना।

अध्ययन का क्षेत्र

जनजातीय परं पराएं भारतीय संस्कृति की आधारभूत संरचना में हैं जो आज विलुप्त होने की स्थिति
में है । स्वतंत्रता से अभी तक तमाम प्रयास हुए हैं परं तु यह सभी प्रयास कुछ जनजातियों एवं क्षेत्रों
तक सीमित हो गई हैं। ऐसे में जहां विकास के प्रयास नहीं पहुंच पाते हैं उन्हें जानना अत्यंत
आवश्यक हो जाता है । साथ ही जनजातीय संस्कृति को जानने का दस
ू रा पहलू यह भी है कि यह
संस्कृति वर्तमान आधुनिकता के चरम से किस प्रकार सामंजस्य बना पा रही है । कहीं आधुनिकता ने
उनकी संस्कृति पर दष्ु प्रभाव डाल कर दष्ु प्रभाव डालकर उन्हें में अस्तित्व का संकट तो नहीं पैदा कर
रहा है । यह सभी प्रश्न वर्तमान शोध का महत्व है ।

वर्तमान अध्ययन, उत्तर प्रदे श के ललितपुर जनपद के दो विकास खंडो जखौरा और बिरधा के चार
चार गांव महर्रा, कालापहाड़,घटवाकर, बादरौन तथा सैपरु ा,महोली,बरखिरिया,बन्दरगढ़
ु ा पर अाधारित है ।

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दोनों विकास खंडों में बराबर बराबर 150+ 150= 300 सहरिया परिवारों का चयन दै व निदर्शन विधि से
किया गया है

अध्ययन से प्राप्त तथ्य

अध्ययन से इस बात की जानकारी हुई कि विवाह के समय वर द्वारा पहना जाने वाला परं परागत
वस्त्र "बागो" जोकि सिर से पैर तक लाल या पीले रं ग का जोगा होता है उसके बारे में अधिकतर
उत्तर दाताओं को कोई जानकारी नहीं थी केवल 45 वर्ष से अधिक आयु के उत्तर दाताओं को इसकी
जानकारी थी जिनका विवाह बागो पहनकर हुआ था।

विवाह के समय पहनी जाने वाली पगड़ी या मक


ु ु ट जिसे पहले खजरू के पत्तो से बनाया जाता था
अब प्रचलन में नहींं है इसके स्थान पर बाजार से लायी पगड़ी(मौर) का ही प्रचलन है ।

सहरिया अनाज रखने के लिए मिट्टी से निर्मित पात्र जिसे "कुटिया" कहा जाता है का प्रयोग करते थे
उसके स्थान पर लोहे और स्टील की टं कियां प्रयोग की जाती हैं। "कुटिया" को कहीं-कहीं घरों में दे खा
जा सकता है ।

परं परागत रूप से घरों में दरवाजों और खिड़कियों के दोनों ओर "घड़


ु लै " लगे होते थे , घड़
ु लै से आशय
है - घोड़े के मुख की आकृति वाली लकड़ी की खूंटी।सहरियाओं का विश्वास है कि घुड़ल
ै के दरवाजे के
अगल बगल दरवाजे के अगल-बगल लगे होने से बुरी शक्तियां घर में प्रवेश प्रवेश करती हैं परं तु अब
जो सीमें ट और ईट से निर्मित घर हैं उनमें घुड़ल
ै अनुपस्थित है , कच्चे घरों मे ही घुड़ल
ै दिखती है ।

सहरिया महिलाओं में अब परं परागत गोदना गुदवाने की प्रथा कम हो रही है । अध्ययन के दौरान
बरखिरिया गांव की एक वद्ध
ृ महिला ने बताया कि यह मान्यता है कि महिलाएं जो भी पशु - पक्षी,
जीव-जंत,ु पेड़ -पौधों का अपने शरीर पर गोदना गद
ु वाती हैं मत्ृ यु के बाद वह उसी योनि में जन्म
लेती हैं।

सहरिया अपने परम्परागत जड़ी- बटि


ू यों को एकत्र करने करने कार्य करते हैं लेकिन जड़ी- बटि
ू यों का
आधा दाम ही इन्हें मिल पाता है दक
ु ानदार स्वयं इनसे आकर ले जाते हैं या यह ललितपुर बाजार में
बेच आते हैं, दक
ु ानदार इनसे औषधियों को लेकर महं गे दाम पर बेचते हैं सहरिया अशिक्षित होने के
कारण इन औषधियों के महत्व और मूल्य को नहीं जानते हैं।

फुर्सत के पलों को सुख पूर्वक व्यतीत करने के लिए नत्ृ य संगीत का आश्रय प्राप्त किया जाता है
सहरिया समाज के रसिया, फाग, लहं गी आदि सुस्थापित गीतों के साथ- साथ आधुनिक गीत, भजन
आदि ने भी स्थान बना लिया है । मनोरं जन के साधनों जैसे रे डियो, टे लीविजन, इंटरनेट आदि का

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प्रयोग बहुतायत से होने के कारण प्राचीन नत्ृ य गायन शैली का समागम नवीन के साथ हो गया है ।
स्वांग नत्ृ य तथा दादरा नत्ृ य का आयोजन विवाह के अवसरों पर नयी शैली के साथ अभी भी किया
जाता है ।

निष्कर्ष एवं सझ
ु ाव

प्रत्येक समाज स्थानीय परिवेश, सामायिक परिस्थितियों एवं विकासवादी विचारों से प्रभावित होता है
प्रत्येक पीढ़ी पर्व
ू में स्थापित मान्यताओं की समीक्षा कर उनका औचित्य समझने का प्रयास करती है
प्रत्येक समय परिवर्तन का पैरोकार होता है और इसके अप्रकट प्रभावों से कोई भी समाज अप्रभावित
नहीं रहा रह सकता है परिवर्तन की लहर जनत समुदायों को अपने आगोश में समा लेने को आतुर
रहती है कभी-कभी यह परिवर्तन वांछित होते हैं जो समाज का मार्गदर्शन कर उसे उन्नति के मार्ग
पथ पर अग्रसर करते हैं।

सहरिया जनजाति में परं पराओं की अक्षुण्य धरोहरों को हृदय मे संजोए हुए, समय के साथ- साथ
कदमताल कर शिक्षा का संबल प्राप्त करते हुए, अपनी वैचारिकता एवं मान्यताओं को समुन्नत कर
समाज के अन्य वर्गों के साथ तादात्म्य स्थापित करने की अद्भत
ु चाहत का साक्षात प्रकटीकरण हुआ
है यद्यपि समाज की अपनी विवशतायें होती हैं, जो प्रगति की रफ्तार में अवरोध उत्पन्न करती है
तथापि सुदृढ़ आत्मबल की पूंजी के आधार पर आशातीत सफलता प्राप्त करते हुए अनेक जन
समूहों को दे खा गया है और इसी कसौटी पर सहरिया जनजाति को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सापेक्ष
प्रगतिशील की श्रेणी में स्थान प्रदान किया जाना अनुचित नहीं होगा। प्रस्तत
ु अध्ययन में क्रमशः इस
जनजाति के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में निरं तरता एवं परिवर्तनों का तथ्यपरक अध्ययन
शोधकर्ता द्वारा व्यक्तिगत रूप से क्षेत्र भ्रमण के उपरांत प्राप्त जानकारी के आधार पर प्रस्तुत किया
गया है ।

अध्ययन की विवेचना उपरांत यह परिलक्षित होता है कि सहरिया पूर्व समय की तल


ु ना में लगभग
समस्त क्षेत्रों में परिवर्तन के दौर से गुजरते हुए अपने अतीत को भी संरक्षित किए हुए हैं।
मान्यताओं में संशोधन एक ओर जहां समय के साथ-साथ सामंजस्य बनाने का आधार प्रदान करते
हैं वही पुरातन संस्कृति के यथासंभव आधुनिकीकरण द्वारा उस समद्ध
ृ विरासत का साक्षात्कार
साक्षात्कार है जो कभी प्रेरणा प्रेरणा स्रोत रही थी। प्राचीनता के साथ नत
ू नता का समावेश वास्तव में
एक ऐसा यथार्थ है जिसे स्वीकार करना हमारी विवशता हो जाती है । भविष्य के सुदृढ़ समाज की
स्थापना को लक्ष्यांकित करते हुए उन समीकरणों स्थापना करने की महती आवश्यकता होती है
जिसके मार्गदर्शन से वर्तमान की मजबत
ू जड़ें भविष्य में भी पुष्ट रह सकें और उस उद्देश्य की
प्राप्ति के लिए विद्ववत समाज को भत
ू कालीन स्वस्थ परं पराओं और मान्यताओं को को अक्षुण्य

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रखते हुए आवश्यकतानस
ु ार ऐसे परिवर्तनों को स्वीकार करना चाहिए जो सकारात्मक होकर जीवन
आदर्शों की प्राप्ति में सहयोग प्रदान कर सकने की क्षमता रखते हो।

सहरिया जनजाति की परं पराओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए निम्न सझ


ु ाव प्रस्तत
ु है -

 सहरिया जनजाति के गौरवमयी अतीत को संरक्षित रखने के उद्देश्य से उनके समाज में
तत्समय प्रचलित मान्यताओं, परं पराओं एवं किंवदं तियों का संग्रह किया जाना चाहिए जिससे
कि नई पीढ़ी अपने अतीत को विस्मत
ृ न कर सके।
 तर्क पूर्ण स्वस्थ परं परा हमेशा समाज की इकाइयों के हित में कार्य करती हैं तथा उन्हें भुलाने
से समाज का कोई हित नहीं होगा, ऐसी शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।
शिक्षा एवं संस्कृति विभाग द्वारा यह कार्य समुचित रूप से कराया जाना चाहिए।
 सहरिया जनजाति के व्यक्ति जो जड़ी-बटि
ू यों की पहचान रखते हैं उन्हें इनके उत्पादन से
जोड़कर जंगल विभाग द्वारा इनकी सहायता से "Forest Medicines Nursery" स्थापित की
जानी चाहिए।
 समग्र स्वच्छता अभियान के अंतर्गत सहरिया जनजाति के सदस्यों को साफ सफाई से रहने
तथा शौचालयों का निर्माण करवा कर उनके प्रयोग हे तु पंचायत विभाग के माध्यम से
प्रोत्साहित किया जा सकता है ।
 सामुदायिक रे डियो (Community Radio) के माध्यम से उनके गीतों प्रसारण के अलावा स्थानीय
स्तर पर नत्ृ य-संगीत के उत्सव आयोजित कराया जाना चाहिए।
 शहरों की तरफ पलायन रोकने के लिए जनजाति के सदस्यों को स्थानीय स्तर पर ही कुटीर
धंधों के साथ-साथ उनके पारं परिक कौशल के उन्नयन हे तु योजनाएं पंचायत एवं ग्रामीण
रोजगार विभाग द्वारा तैयार की की जानी चाहिए।

संदर्भ ग्रंथ सूची

* विष्ट, बी० एस० (१९९२) उत्तराखंड की भोटिया जनजाति विवेक प्रकाशन नई दिल्ली।

* बहुगुणा, सुंदरलाल (१९९६) धरती के पुकार राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली।

* Heredis, C. Rudolf (2000) Tribal History : Living word or Dead letter, Economic and political Weekly.

* Sharma S.B.,"A plan for the development of saharia primitive tribe", Tribal research centre Bhopal.

* Sharma, Hariom and Sikaratar, R.L.S.(2001),"The socio-economic status of saharia tribe of Madhya Pradesh
", Swarup and sons publication, New Delhi.

* Singh Yogendra,(1978),"Essays on modernization in India ", Manohar book service, New Delhi

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