You are on page 1of 33

अनुक्रमाणिका

 परिचय

 परिभाषा

 इतिहास

 आधनि
ु क का आर्थिक इतिहास

 अर्थशास्त्र की प्रकृति तथा क्षेत्र

 अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री

 अर्थशास्त्र का स्वभाव

 अर्थशास्त्र की सीमाएँ

 अर्थशास्त्र का ध्येय

 आर्थिक क्रियाएँ

 अल्पविकसित दे शों का विकास

 अर्थशास्त्र की उपादे यता

 अर्थशास्त्र की सीमाएँ

 पाश्चात्य अर्थशास्त्र

 निष्कर्ष

 सन्दर्भ ग्रंथ

परिचय

~1~
अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है , जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और

सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है ।

'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र की संधि से बना है , जिसका

शाब्दिक अर्थ है - 'धन का अध्ययन'। किसी विषय के संबंध में मनष्ु यों के कार्यो के

क्रमबद्ध ज्ञान को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मनुष्यों के

अर्थसंबंधी कार्यों का क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है । अर्थशास्त्र का प्रयोग यह

समझने के लिये भी किया जाता है कि अर्थव्यवस्था किस तरह से कार्य करती है

और समाज में विभिन्न वर्गों का आर्थिक सम्बन्ध कैसा है । अर्थशास्त्रीय विवेचना

का प्रयोग समाज से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है , जैसे:- अपराध,

शिक्षा, परिवार, स्वास्थ्य, कानून, राजनीति, धर्म, सामाजिक संस्थान और युद्ध

इत्यदि।

~2~
ब्रिटिश अर्थशास्त्री अल्फ्रेड मार्शल ने इस विषय को परिभाषित करते हुए इसे

‘मनुष्य जाति के रोजमर्रा के जीवन का अध्ययन’ बताया है । मार्शल ने पाया था कि

समाज में जो कुछ भी घट रहा है , उसके पीछे आर्थिक शक्तियां हुआ करती हैं।

इसीलिए समाज को समझने और इसे बेहतर बनाने के लिए हमें इसके अर्थिक

आधार को समझने की जरूरत है ।

वह विज्ञान जो मानव स्वभाव का वैकल्पिक उपयोगों वाले सीमित साधनों और

उनके प्रयोग के मध्य अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करता है ।

अर्थशास्त्र में अर्थसंबंधी बातों की प्रधानता होना स्वाभाविक है । परं तु हमको यह न

ू जाना चाहिए कि ज्ञान का उद्देश्य अर्थ प्राप्त करना ही नहीं है , सत्य की खोज
भल

द्वारा विश्व के लिए कल्याण, सुख और शांति प्राप्त करना भी है । अर्थशास्त्र यह

भी बतलाता है कि मनुष्यों के आर्थिक प्रयत्नों द्वारा विश्व में सुख और शांति कैसे

प्राप्त हो सकती है । सब शास्त्रों के समान अर्थशास्त्र का उद्देश्य भी विश्वकल्याण

है । अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय है , यद्यपि उसमें व्यक्तिगत और राष्ट्रीय

हितों का भी विवेचन रहता है । यह संभव है कि इस शास्त्र का अध्ययन कर कुछ

व्यक्ति या राष्ट्र धनवान हो जाएँ और अधिक धनवान होने की चिंता में दस


ू रे

व्यक्ति या राष्ट्रों का शोषण करने लगें , जिससे विश्व की शांति भंग हो जाए। परं तु

उनके शोषण संबंधी ये सब कार्य अर्थशास्त्र के अनुरूप या उचित नहीं कहे जा

सकते, क्योंकि अर्थशास्त्र तो उन्हीं कार्यों का समर्थन कर सकता है , जिसके द्वारा

विश्वकल्याण की वद्धि
ृ हो। इस विवेचन से स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र की सरल
~3~
परिभाषा इस प्रकार होनी चाहिए-अर्थशास्त्र में मुनष्यों के अर्थसंबंधी सब कार्यो का

क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है । उसका ध्येय विश्वकल्याण है और उसका

दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय है ।

~4~
परिभाषा

अर्थशास्त्र एक विज्ञान है , जो मानव व्यवहार का अध्ययन उसकी

आवश्यकताओं(इच्छाओं) एवं उपलब्ध संसाधनों के वैकल्पिक प्रयोग के मध्य

संबंध का अध्ययन करता है । अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री का संकेत इसकी

परिभाषा से मिलता है । अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है , जिसके

अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का

अध्ययन किया जाता है । 'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र की

संधि से बना है , जिसका शाब्दिक अर्थ है - 'धन का अध्ययन'। अर्थशास्त्र का

शाब्दिक अर्थ है धन का शास्त्र अर्थात धन के अध्ययन के शास्त्र को अर्थशास्त्र

कहते हैं।

 प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने 1776 में प्रकाशित अपनी पुस्तक (An
enquiry into the Nature and the Causes of the Wealth of

Nations) में अर्थशास्त्र को धन का विज्ञान माना है ।

 डॉ॰ मार्शल ने 1890 में प्रकाशित अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त

(Principles of Economics) में अर्थशास्त्र की कल्याण सम्बन्धी

परिभाषा दे कर इसको लोकप्रिय बना दिया।

 ब्रिटे न के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लार्ड राबिन्स ने 1932 में प्रकाशित अपनी

पुस्तक, ‘‘An Essay on the Nature and Significance of

Economic Science’’ में अर्थशास्त्र को दर्ल


ु भता का सिद्धान्त माना है । इस

~5~
सम्बन्ध में उनका मत है कि मानवीय आवश्यकताएं असीमित है तथा

उनको पूरा करने के साधन सीमित है ।

 आधनि ू सन (Samuelson) ने अर्थशास्त्र को विकास


ु क अर्थशास्त्री सैम्यल्

का शास्त्र (Science of Growth ) कहा है ।

 आधनि
ु क अर्थशास्त्री कपिल आर्य (Kapil Arya) ने अपनी पुस्तक

"अर्थमेधा" में अर्थशास्त्र को सुख के साधनों का विज्ञान माना है |

~6~
इतिहास

अर्थशास्त्र बहुत प्राचीन विद्या है । चार उपवेद अति प्राचीन काल में बनाए गए थे।

इन चारों उपवेदों में अर्थवेद भी एक उपवेद माना जाता है , परन्तु अब यह उपलब्ध

ु रु ाण में भारत की प्राचीन तथा प्रधान 18 विद्याओं में अर्थशास्त्र भी


नहीं है । विष्णप

परिगणित है । इस समय बार्हस्पत्य तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र उपलब्ध हैं।

अर्थशास्त्र के सर्वप्रथम आचार्य बह


ृ स्पति थे। उनका अर्थशास्त्र सूत्रों के रूप में प्राप्त

है , परन्तु उसमें अर्थशास्त्र सम्बन्धी सब बातों का समावेश नहीं है । कौटिल्य का

अर्थशास्त्र ही एक ऐसा ग्रंथ है जो अर्थशास्त्र के विषय पर उपलब्ध क्रमबद्ध ग्रंथ है ,

इसलिए इसका महत्व सबसे अधिक है । आचार्य कौटिल्य, चाणक्य के नाम से भी

प्रसिद्ध हैं। ये चंद्रगुप्त मौर्य (321-297 ई.पू.) के महामंत्री थे। इनका ग्रंथ

'अर्थशास्त्र' पंडितों की राय में प्राय: 2,300 वर्ष परु ाना है । आचार्य कौटिल्य के

मतानुसार अर्थशास्त्र का क्षेत्र पथ्ृ वी को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने के उपायों

का विचार करना है । उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में ब्रह्मचर्य की दीक्षा से लेकर दे शों की

विजय करने की अनेक बातों का समावेश किया है । प्रो.अशोक कुमार ने घटमपरु प्त

की रचना, न्यायालयों की स्थापना, विवाह संबंधी नियम, दायभाग, शत्रओ


ु ं पर

चढ़ाई के तरीके, किलाबंदी, संधियों के भेद, व्यह


ू रचना इत्यादि बातों का विस्ताररूप

से विचार आचार्य कौटिल्य अपने ग्रंथ में करते हैं। प्रमाणत: इस ग्रंथ की कितनी ही

बातें अर्थशास्त्र के आधुनिक काल में निर्दिष्ट क्षेत्र से बाहर की हैं। उसमें राजनीति,

दं डनीति, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र इत्यादि विषयों पर भी विचार हुआ है । भारतीय

~7~
संस्कृति में चार पुरुषार्थों में अर्थ (धन-सम्पदा) भी सम्मिलित है । जैन धर्म में

अपरिग्रह (बहुत अधिक धन संग्रह न करना) का उपदे श किया गया है । अनेक

प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में धन की प्रशंशा या निन्दा की गयी है । भर्तृहरि ने कहा है ,

'सर्वे गण
ु ा कांचनम ् आश्रयन्ते' (सभी गण
ु ों का आधार स्वर्ण ही है ।)। चाणक्यसत्र
ू में

कहा है -

सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलं अर्थः। अर्थस्य मूलं राज्यं। राज्यस्य मूलं इन्द्रिय

जयः। इन्द्रियजयस्य मूलं विनयः। विनयस्य मूलं वद्ध


ृ ोपसेवा॥

~8~
आधनि
ु क का आर्थिक इतिहास

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका और सोवियत संघ में शीत युद्ध छिड गया। यह

कोई यद्ध
ु नहीं था परन्तु इससे विश्व दो भागों में बँट गया।

ु के दौरान अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी (पश्चिम), आस्ट्रे लिया, फ्रांस, कनाडा,


शीत यद्ध

स्पेन एक तरफ थे। ये सभी दे श लोकतंत्रिक थे और यहाँ पर खुली अर्थव्यवस्था की

नीति को अपनाया गया। लोगों को व्यापार करने की खुली छूट थी। शेयर बाजार में

पैसा लगाने की छूट थी। इन दे शों में बहुत सारी बडी-बडी कम्पनियाँ बनीं। इन

कम्पनियों में नये-नये अनुसंधान हुए। विश्वविद्यालय, सूचना प्रौद्योगिकी,

इंजिनीयरी उद्योग, बैंक आदि सभी क्षेत्रोँ में जमकर तरक्की हुई। ये सभी दे श दस
ू रे

दे शोँ से व्यापार को बढावा दे ने की नीति को स्वीकारते थे। 1945 के बाद से इन सभी

दे शोँ ने खूब तरक्की की।

ू री तरफ रूस, चीन, म्यांमार, पूर्वी जर्मनी सहित कई और दे श थे जहाँ पर


दस

समाजवाद की अर्थ नीति अपनायी गयी। यहाँ पर अधिकांश उद्योगों पर कड़ा

सरकारी नियंत्रण होता था। उद्योगों से होने वाले लाभ पर सरकार का अधिकार

रहता था। सामान्यतः ये दे श दस


ू रे लोकतांत्रिक दे शों के साथ बहुत कम व्यापार

करते थे। इस तरह की अर्थ नीति के कारण यहां के उद्योगों में अधिक प्रतिस्पर्धा

नहीं होती थी। आम लोगों को भी लाभ कमाने के लिये कोई प्रोत्साहन नहीं था। इन

करणों से इन दे शों में आर्थिक विकास बहुत कम हुआ।

~9~
3 अक्टूबर-1990 को पूर्व जर्मनी और पश्चिम जर्मनी का विलय हुआ। संयुक्त

जर्मनी ने प्रगतिशीलत पश्चिमी जर्मनी की तरह खुली अर्थव्यवस्था और लोक्तंत्र

को अपनाया। इसके बाद 1991 में सोवियत रूस का विखंडन हुआ और रूस सहित

15 दे शों का जन्म हुआ। रूस ने भी समाजवाद को छोड़कर खल


ु ी अर्थ्व्यवस्था को

अपनाया। चीन ने समाजवाद को पूरी तरह तो नहीं छोड़ा पर 1970 के अंत से उदार

नीतियों को अपनाया और अगले 3 वर्षों में बहुत उन्नति की। चेकोस्लोवाकिआ भी

समाजवादी दे श था। 1-जनवरी-1993 को इसका चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया

में विखंडन हुआ। इन दे शों ने भी समाजवाद छोड़ के लोकतंत्र और खुली

अर्थव्यवस्था को अपनाया।

~ 10 ~
अर्थशास्त्र की प्रकृति तथा क्षेत्र

अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री

अर्थशास्त्रियों की परिभाषाओं से इस विषय की सामग्री का पर्याप्त ज्ञान हो जाता है ।

परम्परावादी अर्थशास्त्रियों (एडम स्मिथ, जे० बी० से तथा प्रो० वाकर आदि) की

दृष्टि में अर्थशास्त्र धन को प्राप्त करने तथा उसे व्यय करने से सम्बन्धित क्रियाओं

का अध्ययन था। नव-परम्परावादी अर्थशास्त्रियों (प्रो० मार्शल, पीगू आदि) ने

अर्थशास्त्र को भौतिक कल्याण का शास्त्र माना जबकि आधनि


ु क विचारकों के मत

में अर्थशास्त्र सीमितता का विज्ञान है ।

ु क अर्थशास्त्रियों ‘प्रो० रोबिन्स’ की दृष्टि में , “अर्थशास्त्र मानव-व्यवहारों का


आधनि

अध्ययन करता है जिनका सम्बन्ध सीमितता उद्देश्य की पूर्ति के लिए वैकल्पिक

प्रयोग वाले सीमित साधनों से है ।” अर्थशास्त्र चुनाव सम्बन्धी विज्ञान है , जो

समस्त मानवीय क्रियाओं के आर्थिक पहलू का अध्ययन करता है ।

इस प्रकार, दृष्टिकोणों में व्यापक भिन्नता होते हुए भी सभी अर्थशास्त्री यह

स्वीकार करते हैं कि अर्थशास्त्र मानव-व्यवहार का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

है ।

परम्परागत दृष्टि से अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री को निम्नलिखित पाँच

उपविभागों में बाँटा जाता है -

~ 11 ~
1. उपयोग (Consumption) – इसके अन्तर्गत आवश्यकताएँ तथा इससे

सम्बन्धित नियम, उपभोक्ता की बचत, ह्रासमान व सम-सीमान्त

तष्टि
ु गण ु नियम, पारिवारिक बजट, आय-व्यय व बचत, उपयोगिता व

तटस्थता वक्र विश्लेषण आदि का अध्ययन किया जाता है ।

2. उत्पादन (Production ) – यह अर्थशास्त्र का वह भाग है जिसमें

धनोत्पादन के उपायों तथा इनसे सम्बन्धित उत्पत्ति के विभिन्न उपादानों

का अध्ययन किया जाता है ।

3. विनिमय (Exchange) – इस विभाग के अन्तर्गत वस्तु-विनिमय या

वस्तुओं के क्रय-विक्रय से सम्बन्धित उत्पत्ति के विभिन्न उपादानों का

अध्ययन किया जाता है ।

4. वितरण (Distribution ) – इस विभाग के अन्तर्गत संयक्


ु त उत्पादन

को इसके उत्पन्न करने वाले उपादानों में वितरित करने से सम्बन्धित

समस्याओं या सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है ।

5. राजस्व (Public Finance) – राजस्व सरकार की आय तथा व्यय

और उसमें परस्पर समस्याओं की विधिवत ् विवेचना करता है ।

ु क अर्थशास्त्री अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री को दो भागों में विभाजित करते


आधनि

हैं—

 कीमत सिद्धान्त

 आय तथा रोजगार सिद्धान्त

~ 12 ~
1- कीमत सिद्धान्त (Price Theory) –

आर्थिक विश्लेषण के इस अंग में छोटे -छोटे अंशों अथवा व्यक्तिगत आर्थिक

इकाइयों का अध्ययन किया जाता है । इसी खण्ड में यह भी ज्ञात किया जाता है कि

किसी वस्तु विशेष या सेवा की कीमत का किस प्रकार निर्धारण होता है ? इस प्रकार

उपभोग, उत्पादन, विनिमय एवं वितरण से सम्बद्ध विषय सामग्री का अध्ययन

कीमत सिद्धान्त अथवा सूक्ष्म अर्थशास्त्र के अन्तर्गत ही आता सुविधा की दृष्टि से

कीमत सिद्धान्त को भी दो भागों में बाँटा गया है —

(i) वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण (Product Pricing); एवं

(ii) उत्पादन के साधनों की कीमत का निर्धारण (Factor Pricing)

ु क कीमत सिद्धान्त के विकास में प्रो० मार्शल, प्रो० चैम्बरलिन, श्रीमती जोन
आधनि

रोबिन्सन तथा प्रो० जे० आर० हिक्स का योगदान विशेष उल्लेखनीय रहा है ।

2- आय तथा रोजगार सिद्धान्त अथवा व्यापक अर्थशास्त्र

आर्थिक विश्लेषण के इस क्षेत्र के अन्तर्गत हम सम्पूर्ण व्यवस्था या सामहि


ू क

इकाइयों का अध्ययन करते हैं। अन्य शब्दों में , “आय सिद्धान्त या व्यापक

अर्थशास्त्र कुल आय, कुल रोजगार, कुल व्यय, कुल बचत, कुल विनियोग तथा

सामान्य मूल्य स्तर आदि का अध्ययन है ।” आर्थिक विश्लेषण के इस अंग को आय

सिद्धान्त (Income Theory) या राष्ट्रीय रोजगार सिद्धान्त भी कहा जाता है

~ 13 ~
क्योंकि आय के निर्धारक तत्त्व ही अर्थव्यवस्था में रोजगार की मात्रा का निर्धारण

करते हैं। आय तथा रोजगार के आधुनिक सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रो० कीन्स ने

किया था, अतः इसे कीन्सियन अर्थशास्त्र (Keynesian Economics) कहकर

पक
ु ारा जाता है ।

अर्थशास्त्र का स्वभाव (Nature of Economics)—

अर्थशास्त्र के स्वभाव से आशय यह निश्चित करने से है कि अर्थशास्त्र विज्ञान है या

कला अथवा दोनों हैं –

अर्थशास्त्र की सीमाएँ (Limitations of Economics) –

किसी भी विषय के क्षेत्र से भली-भाँति परिचित होने के लिये उस विषय की सीमाओं

को जानना भी अत्यन्त आवश्यक है । सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि-

 अर्थशास्त्र में समस्त मानवीय क्रियाओं का अध्ययन नहीं किया जाता, वरन ्

मनष्ु य की केवल आर्थिक क्रियाओं का ही अध्ययन किया जाता है ।

 मार्शल के अनुसार, अर्थशास्त्र केवल समाज में रहने वाले सामान्य व्यक्तियों

की क्रियाओं का ही अध्ययन करता है , जबकि रोबिन्स के अनस


ु ार यह मानव

विज्ञान है । अतः समाज की सीमाओं से बाहर रहने वाले है व्यक्तियों की

क्रियाओं के आर्थिक पहलू का भी इसमें अध्ययन किया जाता है ।

 अर्थशास्त्र वास्तविक एवं आदर्श विज्ञान के साथ-साथ कला भी है ।

~ 14 ~
 अर्थशास्त्र के नियम ध्रुव सत्य नहीं होते हैं। वरन ् केवल आर्थिक प्रवत्ति
ृ यों के

द्योतक मात्र होते हैं।

~ 15 ~
अर्थशास्त्र का ध्येय

संसार में प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुखी होना और द:ु ख से बचना चाहता

है । वह जानता है कि अपनी इच्छा जब तप्ृ त होती है तब सख


ु प्राप्त होता है और जब

ू नहीं होती तब द:ु ख का अनभ


इच्छा की पर्ति ु व होता है । धन द्वारा इच्छित वस्तु

प्राप्त करने में सहायता मिलती है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति धन प्राप्त करने का

प्रयत्न करता है । वह समझता है कि संसार में धन द्वारा ही सुख की प्राप्ति होती है ।

अधिक से अधिक सुख प्राप्त करने के लिए वह अधिक से अधिक धन प्राप्त करने

का प्रयत्न करता है । इस धन को प्राप्त करने की चिंता में वह प्राय: यह विचार नहीं

करता कि धन किस प्रकार से प्राप्त हो रहा है । इसका परिणाम यह होता है कि धन

ू रों का शोषण होता है , दस


ऐसे साधनों द्वारा भी प्राप्त किया जाता है जिनसे दस ू रों

को दख
ु पहुँचता है । इस प्रकार धन प्राप्त करने के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।

पँज
ू ीपति अधिक धन प्राप्त करने की चिंता में अपने मजदरू ों को उचित मजदरू ी नहीं

दे ता। इससे मजदरू ों की दशा बिगड़ने लगती है । दक


ू ानदार खाद्य पदार्थो में

मिलावट करके अपने ग्राहकों के स्वास्थ्य को नष्ट करता है । चोरबाजारी द्वारा

अनेक सरल व्यक्ति ठगे जाते हैं, महाजन कर्जदारों से अत्यधिक सद


ू लेकर और

जमींदार किसानों से अत्यधिक लगान लेकर असंख्य व्यक्त्याेिं के परिवारों को

बरबाद कर दे ते हैं। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जो जैसा बोता है उसको वैसा

ू रों का शोषण कर या द:ु ख पहुँचाकर धन प्राप्त करनेवाले


ही काटना पड़ता है । दस

इस नियम को शायद भल
ू जाते हैं। जो धन दस
ू रों को दख
ु पहुँचाकर प्राप्त होता है

~ 16 ~
उससे अंत में द:ु ख ही मिलता है । उससे सुख की आशा करना व्यर्थ है । यह सत्य है

कि दस
ू रों को दख
ु पहुँचाकर जो धन प्राप्त किया जाता है उससे इच्छित वस्तुएँ प्राप्त

की जा सकती है और इन वस्तओ
ु ं को प्राप्त करने से सख
ु मिल सकता है । परं तु यह

सख
ु अस्थायी है और अंत में दख
ु का कारण हो जाता है । संसार में ऐसी कई वस्तए
ु ँ हैं

जिनका उपयोग करने से तत्काल तो सुख मिलता है , परं तु दीर्घकाल में उनसे दख

की प्राप्ति होती है । उदाहरणार्थ मादक वस्तुओं के सेवन से तत्काल तो सुख मिलता

है , परतु जब उनकी आदत पड़ जाती है तब उनका सेवन अत्यधिक मात्रा में होने

लगता है , जिसका स्वास्थ्य पर बरु ा प्रभाव पड़ता है । इससे अंत में द:ु खी होना पड़ता

है । दस
ू रों को हानि पहुँचाकर जो धन प्राप्त होता है वह निश्चित रूप से बरु ी आदतों

को बढ़ाता है और कुछ समय तक अस्थायी सुख दे कर वह द:ु ख बढ़ाने का साधन

बन जाता है । दस
ू रों को दख
ु दे कर प्राप्त किया हुआ धन कभी भी स्थायी सुख और

शांति का साधक नहीं हो सकता।

सुख दो प्रकार के हैं। कुछ सुख तो ऐसे हैं जो दस


ू रों को दख
ु पहुँचाकर प्राप्त होते हैं।

इनके उदाहरण ऊपर दिए जा चुके हैं। कुछ सुख ऐसे हैं जो दस
ू रों को सुखी बनाकर

प्रप्त होते हैं। वे मनुष्य के मन में शांति उत्पन्न करते हैं। अपना कर्तव्य पालन

करने से जो सुख प्राप्त होता है वह भी शांति प्रद होता है कर्तव्यपालन करते समय

ू होता है , परं तु कार्य परू ा होने


जो श्रम करना पड़ता है उससे कुछ कष्ट अवश्य मालम

पर वह द:ु ख सुख में परिणत हो जाता है और उससेन मन में शांति उत्पन्न होती है ।

इस प्रकार का सुख भविष्य में द:ु ख का साधन नहीं होता ओर इस प्रकार के सुख को

~ 17 ~
आनंद कहते हैं। जब आनंद ही आनंद प्राप्त होता है तब द:ु ख का लेश मात्र भी नहीं

रह जाता। ऐसी दशा को परमानंद कहते हैं। परमानंद प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति

का सर्वोत्तम ध्येय है । वही आत्मकल्याण की चरम सीमा है । प्रत्येक मनष्ु य का

कल्याण इसी में है कि वह परमानंद प्राप्त करने का हमेशा प्रयत्न करता रहे । वह

हमेशा ऐसा सुख प्राप्त करता रहे जो भाविष्य में द:ु ख का कारण या साधन न बन

जाए और वह शांति और संतोष का अनुभव करने लगे।

जब हम अपने प्रयत्नों द्वारा दस


ू रों को सख
ु पहुँचाते हैं और उनके कल्याण के

साधन बन जाते हैं तब प्रकृति के अटल नियम के अनुसार इन्हीं प्रयत्नों द्वारा

हमारे कल्याण में भी वद्धि


ृ होने लगती है । आत्मकल्याण प्राप्त करने का सरल

उपाय दस
ू रों के कल्याण का साधन बनना है । इसी प्रकार अपने कार्यों द्वारा किसी

को भी द:ु ख न पहुँचाना अपने दख


ु से बचने का सबसे सरल तरीका है । प्रत्येक

व्यक्ति को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उसका सच्चा हितसाधन दस


ू रों

के हितसाधन या परमार्थ द्वारा ही सिद्ध हो सकता है । इससे यह स्पष्ट है कि दस


ू रों

का सुख अर्थात ्‌ विश्वकल्याण ही अपने स्थायी सुख और शांति अर्थात ्‌

आत्मकल्याण का एकमात्र साधन है । जब प्रत्येक व्यक्ति अपना कल्याण करने के

लिए दस
ू रों के कल्याण का हमेशा प्रयत्न करने लगेगा तब किसी भी तरह से स्वार्थो

का विरोध न होगा, संसार में सब प्रकार का संघर्ष दरू हो जाएगा और सर्वत्र सख


ु और

शांति स्थायी रूप से स्थापित हो जाएगी।

~ 18 ~
आत्मकल्याण के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति दस
ू रों के स्वार्थों को

उतना ही महत्व दे जितना वह अपने स्वार्थ को दे ता है । जैसे वह अपने सुखों को

बढ़ाने का प्रयत्न करता है , वैसे ही उसे दस


ू रों के सख
ु ों को बढ़ाने का भी प्रयत्न करना

चाहिए। इसका पारिणाम यह होगा कि ऐसे कार्य बंद हो जाएँगे जिनके कारण दस
ू रों

के द:ु खों की वद्धि


ृ होती है । इससे विश्व के जीवों में सुख की निरं तर वद्धि
ृ होने लगेगी

और विश्व का कल्याण बढ़ते बढ़ते चरम सीमा तक पहुँच जाएगा। बिना

विश्वकल्याण के किसी भी व्यक्ति का आत्मकल्याण नहीं हो सकता। सच्चा

आत्मकल्याण विश्व कल्याण द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । आत्मकल्याण ही

प्रत्येक व्यक्ति का सर्वोत्तम ध्येय है और जब अर्थशास्त्र मनष्ु य के आर्थिक प्रयत्नों

का अध्ययन करता है तब उसका ध्येय भी आत्मकल्याण ही होना चाहिए। परं तु,

जैसा ऊपर बतलाया जा चुका है , सच्चा आत्मकल्याण विश्व कल्याण द्वारा ही

प्राप्त किया जा सकता है । इसलिए अर्थशास्त्र का ध्येय विश्वकल्याण ही होना

चाहिए।

~ 19 ~
अर्थशास्त्र का क्षेत्र में किन किन क्रियाओं को शामिल किया जाता है ।

प्रो॰ राबिंस के अनुसार अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो मनुष्य के उन कार्यों का

अध्ययन करता है जो इच्छित वस्तु और उसके परिमित साधनों के रूप में उपस्थित

होते हैं, जिनका उपयोग वैकल्पिक या कम से कम दो प्रकार से किया जाता है ।

अर्थशास्त्र की इस परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं-

(1) अर्थशास्त्र विज्ञान है ;

(2) अर्थशास्त्र में मनुष्य के कार्यों के संबंध में विचार होता है ;

(3) अर्थशास्त्र में उन्हीं कार्यों के संबंध में विचार होता है जिनमें -

(अ) इच्छित वस्तु प्राप्त करने के साधन परिमित रहते हैं और

(ब) इन साधनों का उपयोग वैकल्पिक रूप से कम से कम दो प्रकार से किया जाता

है ।

मनुष्य अपनी इच्छाओं की तप्ति


ृ से सुख का अनुभव करता है । इसलिए प्रत्येक

मनुष्य अपनी इच्छाओं को तप्ृ त करना चाहता है । इच्छाओं की तप्ति


ृ के लिए उसके

पास जो साधन, द्रव्य इत्यादि हैं वे परिमित हैं। व्यक्ति कितना भी धनवान क्यों न

हो, उसके धन की मात्रा अवश्य परिमित रहती है ; फिर वह इस परिमित साधन द्रव्य

का उपयोग कई तरह से कर सकता है । इसलिए उपयुक्त परिभाषा के अनुसार

अर्थशास्त्र में मनुष्यों के उन सब कार्यो के संबंध में विचार किया जाता है जो वह

~ 20 ~
परिमित साधनों द्वारा अपनी इच्छाओं को तप्ृ त करने के लिए करता है । इस प्रकार

उसके उपभोग संबंधी सब कार्यो का विवेचन अर्थशास्त्र में किया जाना आवश्यक हो

जाता है । इसी प्रकार मनष्ु य को बाज़ार में अनेक वस्तए


ु ँ किस प्रकार खरीदने का

साधन द्रव्य परिमित रहता है । इस परिमित साधन द्वारा वह अपनी आवश्यक

वस्तुएँ किस प्रकार खरीदता है , वह कौन सी वस्तु किस दर से, किस परिमाण में ,

खरीदता या बेचता है , अर्थात ्‌ वह विनियम किस प्रकार करता है , इन सब बातों का

विचार अर्थशास्त्र में किया जाता है । मनुष्य जब कोई वस्तु तैयार करता है , इसके

तैयार करने के साधन परिमित रहते हैं और उन साधनों का उपयोग वह कई तरह से

कर सकता है । इसलिए उत्पति संबंधी सब कार्यो का विवेचन अर्थशास्त्र में होना

स्वाभाविक है ।

मनुष्य को अपने समय का उपयोग करने की अनेक इच्छाएँ होती हैं। परं तु समय

हमेशा परिमित रहता है और उसका उपयोग कई तरह से किया जा सकता है । मान

लीजिए, कोई मनुष्य सो रहा है , पूजा कर रहा है या कोई खेल खेल रहा है । प्रोफ़ेसर

ु ार इन कार्यों का विवेचन अर्थशास्त्र में होना चाहिए,


राबिंस की परिभाषा के अनस

ू ा में या खेल में लगाया गया है , वह अन्य किसी कार्य


क्योंकि जो समय सोने में पज

में लगाया जा सकता था। मनुष्य कोई भी काम करे , उसमें समय की आवश्यकता

अवश्य पड़ती है और इस परिमित साधन समय के उपयोग का विवेचन अर्थशास्त्र में

अवश्य होना चाहिए। प्रोफ़ेसर राबिंस की अर्थशास्त्र की परिभाषा इतनी व्यापक है

ु ार मनष्ु य के प्रत्येक कार्य का विवेचन, चाहे वह धार्मिक,


कि इसके अनस

~ 21 ~
राजनीतिक या सामाजिक ही क्यों न हो, अर्थशास्त्र के अंदर आ जाता है । इस

परिभाषा को मान लेने से अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र और समाजशास्त्र की

सीमाओं का स्पष्टीकरण बराबर नहीं हो पाता है ।

प्रोफेसर राबिंस के अनय


ु ायियों का मत है कि परिमित साधनों के अनस
ु ार मनष्ु य के

प्रत्येक कार्य का आर्थिक पहलू रहता है और इसी पहलू पर अर्थशास्त्र में विचार

किया जाता है । वे कहते हैं, यदि किसी कार्य का संबंध राज्य से हो तो उसका उस

पहलू से विचार राजनीतिशास्त्र में किया जाए और यदि उस कार्य का संबंध धर्म से

भी हो तो उस पहलू से उनका विचार धर्मशास्त्र में किया जाए।

मान लें, एक मनष्ु य चोरबाज़ार में एक वस्तु को बहुत अधिक मल्


ू य में बेच रहा है ।

साधन परिमित होने के कारण वह जो कार्य कर रहा है और उसका प्रभाव वस्तु की

उत्पति या पूर्ति पर क्या पड़ रहा है , इसका विचार तो अर्थशास्त्र में होगा; चोरबाजारी

करनेवाले के संबंध में राज्य का क्या कर्तव्य है , इसका विचार राजनीतिशास्त्र या

दं डनीति में होगा। यह कार्य अच्छा है या बुरा, इसका विचार समाजशास्त्र,

आचारशास्त्र या धर्मशास्त्र में होगा। और, यह कैसे रोका जा सकता है , इसका विचार

शायद किसी भी शास्त्र में न हो। किसी भी कार्य का केवल एक ही पहलू से विचार

करना उसके उचित अध्ययन के लिए कहाँ तक उचित है , यह विचारणीय है ।

प्रोफ़ेसर राबिंस की अर्थशास्त्र की परिभाषा की दस


ू री ध्यान दे ने योग्य बात यह है कि

वह अर्थशास्त्र को केवल विज्ञान ही मानता है । उसमें केवल ऐसे नियमों का विवेचन

रहता है जो किसी समय में कार्य कारण का संबंध बतलाते हैं। परिस्थितियों में किस

~ 22 ~
प्रकार के परिवर्तन होने चाहिए और परिस्थितियों के बदलने के क्या तरीके हैं, इन

गंभीर प्रश्नों पर उसमें विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सब कार्य विज्ञान के

बाहर हैं। माने लें, किसी समय किसी दे श में शराब पीनेवाले व्यक्तियों की सँख्या

बढ़ रही है । प्रोफेसर राबिंस की परिभाषा के अनस


ु ार अर्थशास्त्र में केवल यही विचार

किया जाएगा कि शराब पीनेवालों की संख्या बढ़ने से शराब की कीमत, शराब पैदा

करनेवालों और स्वयं शराबियों पर क्या असर पड़ेगा। परं तु उनके अर्थशास्त्र में इस

प्रश्न पर विचार करने के लिए गज


ुं ाइश नहीं है कि शराब पीना अच्छा है या बुरा और

शराब पीने की आदत सरकार द्वारा कैसे बंद की जा सकती है । उनके अर्थशास्त्र में

मार्गदर्शन का अभाव है । प्रत्येक शास्त्र में मार्गदर्शन उसका एक महत्वपर्ण


ू भाग

माना जाता है और इसी भाग का प्रोफेसर राबिंस के अर्थशास्त्र की परिभाषा में

अभाव है । इस कमी के कारण अर्थशास्त्र का अध्ययन जनता के लिए लाभकारी नहीं

हो सकता।

ू ीपतियों और जमींदारों का अस्तित्व न रहने पाए,


समाजवादी चाहते हैं कि पँज

सरकार मजदरू ों की हो और दे श की आर्थिक दशा पर सरकार का पर्ण


ू नियंत्रण हो। वे

अपनी अर्थशास्त्र संबंधी पस्


ु तकों में इन प्रश्नों पर भी विचार करते हैं कि मजदरू

सरकार किस प्रकार स्थापित होनी चाहिए। जमींदारों और पँज


ू ीपतियों का अस्तित्व

कैसे मिटाया जाए। मजदरू सरकार का सगठन किस प्रकार का हो और उनका

संगठन संसारव्यापी किस प्रकार किया जा सकता है । इस प्रकार समाजवादी लेखक

अर्थशास्त्र का क्षेत्र इतना व्यापक बना दे ते हैं कि उसमें राजनीतिशास्त्र की बहुत सी

~ 23 ~
बातें आ जाती हैं। हमको अर्थशास्त्र का क्षेत्र इस प्रकार निर्धारित करना चाहिए

जिससे उसमें राजनीतिशास्त्र या अन्य किसी शास्त्र की बातों का समावेश न होने

पाए।

अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में प्रोफेसर मार्शल की अर्थशास्त्र की परिभाषा पर भी

विचार कर लेना आवश्यक है । प्रोफेसर मार्शल के मतानुसार अर्थशास्त्र मनुष्य के

जीवन संबंधी साधारण कार्यों का अध्ययन करता है । वह मनुष्यों के ऐसे व्यक्तिगत

और सामजिक कार्यों की जाँच करता है जिनका घनिष्ठ संबंध उनके कल्याण के

निमित भौतिक साधन प्राप्त करने और उनका उपयोग करने से रहता है ।

~ 24 ~
आर्थिक क्रियाएँ

अर्थशास्त्र की विषय सामग्री के सम्बन्ध में आर्थिक क्रियाओं का वर्णन भी जरूरी है ।

पूर्व में उत्पादन, उपभोग, विनिमय तथा वितरण - अर्थशास्त्र के ये चार प्रधान अंग

(या, आर्थिक क्रियायें) माने जाते थे। आधनि


ु क अर्थशास्त्र में इन क्रियाओं को पांच

भागों में बांटा जा सकता है ।

 उत्पादन (Production) : उत्पादन वह आर्थिक क्रिया है जिसका संबंध

वस्तुओं और सेवाओं की उपयोगिता अथवा मूल्य में वद्धि


ृ करने से है ।

 उपभोग (Consumption ) : व्यक्तिगत या सामहि


ू क आवश्यकता की

संतुष्टि के लिए वस्तुओं और सेवाओ की उपयोगिता का उपभोग किया

जाना।

 विनिमय (Exchange) : किसी वस्तु या उत्पादन के साधन का क्रय-

विक्रय किया जाता है और यह क्रय-विक्रय अधिकांशतः मुद्रा द्वारा किया

जाता है ।

 वितरण (Distribution) : वितरण से तात्पर्य उत्पादन के साधनों के

वितरण से है , उत्पति के विभिन्न साधनों के सामहि


ू क सहयोग से जो

उत्पादन होता है उसका विभिन्न साधनों में बाँटना।

~ 25 ~
 राजस्व (Public Finance) : राजस्व के अन्तर्गत लोक व्यय, लोक आय,

लोक ऋण, वित्तीय प्रशासन आदि से सबंधित समस्याओं का अध्ययन

किया जाता है ।

~ 26 ~
अल्पविकसित दे शों का विकास

व्यावहारिक अर्थशास्त्र गरीब एवं साधनरहित दे शों की व्यावहारिक समस्याओं को

सल ु ार म्रिडल कृत एशियन ड्रामा संभवत: मार्क्स के दास कैपिटल के


ु झा रहा है । गन

बाद सबसे बड़ा अर्थशास्त्रीय ग्रंथ प्रकाशित हुआ है जिसमें अल्पविकसित दे शों की

समस्याएँ सुलझाई गई हैं। अर्थशास्त्र की यह विचारधारा भी द्वितीय महायुद्ध के

बाद उभरी है और इसका भी नित नवीन विस्तार हो रहा है । इसी के अंतर्गत

योजनाकरण (प्लानिंग), पज
ूं ी निर्माण तथा विदे शी सहायता जैसी वर्तमान

अंतराष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन किया जाता है । अर्थशास्त्र की मुख्य शाखा के

अनस
ु ार ऐसे स्थिति हुई

~ 27 ~
अर्थशास्त्र की उपादे यता

अर्थशास्त्र का महत्व बड़ी तीव्र गति से बढता जा रहा है । संयुक्त राष्ट्र संघ एफाके

की रिपोर्ट , (1970) ई. के अनुसार अर्थशास्त्र पर लगभग 1,000 ग्रंथ या लेख प्रति

घंटे विश्व में प्रकाशित हो रहे हैं। राजनीति के बाद लोकप्रियता में अर्थशास्त्र का ही

स्थान हैं। वस्तुत: अर्थशास्त्र का प्रयोग कल्याण के हे तु करना ही पड़ेगा अन्यथा

केवल भौतिक साधन जट


ु ाने का लक्ष्य रखकर एक दिन यह सबको ले डूबेगा। संतोष

की बात है कि अब अर्थशास्त्री इस बात को समझने लगे हैं। भारत का प्राचीन दर्शन

इस तथ्य को प्रारं भ से जानता है कि केवल भौतिक साधनों का बाहुल्य ही मनुष्य को

सुखी नहीं कर सकता। प्रो॰ शुंपीटर ने अपने नवीनतम लेख अर्थशास्त्र का भविष्य में

स्वीकार किया है कि सिद्धांत रूप से आर्थिक विश्लेषण चाहे जितनी प्रगति कर ले,

व्यवहार में उसे हमेशा शांति, सख


ु एवं कल्याण के हे तु ही कार्य करना होगा। यदि

अर्थशास्त्र समस्त मानव के समान कल्याण के हे तु कार्य कर सके तो इसका भविष्य

बहुत उज्वल होगा। इसी कारण अब अर्थशास्त्र पर नोबेल परु स्कार भी दिया जाने

लगा है ।

~ 28 ~
अर्थशास्त्र की सीमाएँ

 आर्थिक नियम कम निश्चित होते है ।

 अर्थशास्त्र विज्ञान तथा कला दोनों है ।

 अर्थशास्त्र केवल मानवीय क्रियाओं का अध्ययन करता है ।

 सामाजिक मनुष्य का अध्ययन

 वास्तविक मनुष्य का अध्ययन

 आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन

 सामान्य मुनष्य का अध्ययन

 कानूनी सीमा के अन्तर्गत आने वाले व्यक्तियों का अध्ययन

 दर्ल
ु भ पदार्थो का अध्ययन

~ 29 ~
पाश्चात्य अर्थशास्त्र

अर्थशास्त्र का वर्तमान रूप में विकास पाश्चात्य दे शों में (विशेषकर इंग्लैंड में ) हुआ।

ऐडम स्मिथ वर्तमान अर्थशास्त्र के जन्मदाता माने जाते हैं।[2] आपने 'राष्ट्रों की

संपत्ति' (वेल्थ ऑफ नेशन्स) नामक ग्रंथ लिखा। यह सन ्‌ 1776 ई. में प्रकाशित

हुआ। इसमें उन्होंने यह बतलाया है कि प्रत्येक दे श के अर्थशास्त्र का उद्देश्य उस दे श

की संपत्ति और शक्ति बढ़ाना है । उनके बाद माल्थस, रिकार्डो, मिल, जेवंस, काल

मार्क्स, सिज़विक, मार्शल, वाकर, टासिग ओर राबिंस ने अर्थशास्त्र संबंधी विषयों

पर संद
ु र रचनाएँ कीं। परं तु अर्थशास्त्र को एक निश्चित रूप दे ने का श्रेय प्रोफ़ेसर

मार्शल को प्राप्त है , यद्यपि प्रोफ़ेसर राबिंस का प्रोफ़ेसर मार्शल से अर्थशास्त्र के क्षेत्र

के संबंध में मतभेद है । पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों में अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में तीन

दल निश्चित रूप से दिखाई पड़ते हैं। पहला दल प्रोफेसर राबिंस का है जो अर्थशास्त्र

को केवल विज्ञान मानकर यह स्वीकार नहीं करता कि अर्थशास्त्र में ऐसी बातों पर

विचार किया जाए जिनके द्वारा आर्थिक सुधारों के लिए मार्गदर्शन हो। दस
ू रा दल

प्रोफ़ेसर मार्शल, प्रोफ़ेसर पीगू इत्यादि का है , जो अर्थशास्त्र को विज्ञान मानते हुए

भी यह स्वीकार करता है कि अर्थशास्त्र के अध्ययन का मुख्य विषय मनुष्य है और

उसकी आर्थिक उन्नति के लिए जिन जिन बातों की आवश्यकता है , उन सबका

विचार अर्थशास्त्र में किया जाना आवश्यक है । परं तु इस दल के अर्थशास्त्री

राजीनीति से अर्थशास्त्र को अलग रखना चाहते हैं। तीसरा दल कार्ल मार्क्स के

समान समाजवादियों का है , जो मनष्ु य के श्रम को ही उत्पति का साधन मानता है

और पज
ंू ीपतियों तथा जमींदारों का नाश करके मजदरू ों की उन्नति चाहता है । वह
~ 30 ~
मजदरू ों का राज भी चाहता है । तीनों दलों में अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में बहुत

मतभेद है । इसलिए इस प्रश्न पर विचार कर लेना आवश्यक है :

~ 31 ~
निष्कर्ष

अर्थशास्त्र में अर्थसंबंधी बातों की प्रधानता होना स्वाभाविक है । परं तु हमको

यह न भूल जाना चाहिए कि ज्ञान का उद्देश्य अर्थ प्राप्त करना ही नहीं है ,

सत्य की खोज द्वारा विश्व के लिए कल्याण, सख


ु और शांति प्राप्त करना

भी है । अर्थशास्त्र यह भी बतलाता है कि मनष्ु यों के आर्थिक प्रयत्नों द्वारा

विश्व में सुख और शांति कैसे प्राप्त हो सकती है । सब शास्त्रों के समान

अर्थशास्त्र का उद्देश्य भी विश्वकल्याण है । अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण

अंतर्राष्ट्रीय है , यद्यपि उसमें व्यक्तिगत और राष्ट्रीय हितों का भी विवेचन

रहता है । यह संभव है कि इस शास्त्र का अध्ययन कर कुछ व्यक्ति या

राष्ट्र धनवान हो जाएँ और अधिक धनवान होने की चिंता में दस


ू रे व्यक्ति

या राष्ट्रों का शोषण करने लगें , जिससे विश्व की शांति भंग हो जाए। परं तु

उनके शोषण संबध


ं ी ये सब कार्य अर्थशास्त्र के अनुरूप या उचित नहीं कहे

जा सकते, क्योंकि अर्थशास्त्र तो उन्हीं कार्यों का समर्थन कर सकता है ,

जिसके द्वारा विश्वकल्याण की वद्धि


ृ हो।

~ 32 ~
सन्दर्भ ग्रंथ

 वाचस्पति गैरोला: कौटिलय अर्थशास्त्र;

 तिलकनाराण हजेला: आर्थिक विचारों का इतिहास;

 निओनेल रार्बिस: अर्थशास्त्र का स्वरूप और महत्व;

 अल्फेड मार्शल: अर्थशास्त्र के सिद्धांत;

 सुदर्शन कुमार कपूर (२००८). अर्थशास्त्र परिभाषा

कोश. राजकमल

प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788126714285.

 प्रबंधकीय अर्थशास्त्र. वीके

पब्लिकेशन्स. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788187344735.[मत
ृ कड़ियाँ

 अर्थशास्त्र शब्दकोश (भारत का आंकिक पुस्तकालय ;

रचयिता :

~ 33 ~

You might also like