Professional Documents
Culture Documents
आई 221
पस्
ु तकालय, सच
ू ना एवं समाज
खण्ड 1
पुस्तकालय एवं सूचना: सामाजजक परिप्रेक्ष्य
आयोजक
डा. जयिीप शमास, प्रो. नीना तलवाि कानन
ू गो,
पुस्तकालय एवं सूचना ववज्ञान संकाय, सामाजजक पुस्तकालय एवं सूचना ववज्ञान संकाय, सामाजजक
ववज्ञान ववद्यापीठ, इग्नू, नई दिल्ली ववज्ञान ववद्यापीठ, इग्न,ू नई दिल्ली
काययक्रम तनमायता दल
इकाई सं. इकाई लेखक काययक्रम संपादक
5-6 डा. वी. वेंकटे श प्रो. जयिीप शमास
7 प्रो. बी. के.सेन
आंतरिक संकाय
प्रो. जयिीप शमास प्रो. नीना तलवाि कानन
ू गो
मुद्रण उत्पादन सचचवालयीय सहायता आविण अभिकल्प वेब अभिकल्पक
श्री मन्जीत ससंह श्रीमती सुनीता सोनी सुश्री रुधच सोनी श्री मनोज कुमाि शमास
संभागीय अधधकािी, इग्नू सामाजजक ववज्ञान इग्नू सामाजजक ववज्ञान ई-ज्ञानकोश, इग्नू नई
प्रकाशन ववद्यापीठ, इग्नू ववद्यापीठ, इग्नू दिल्ली।
सामाजजक ववज्ञान
ववद्यापीठ, इग्नू
2
खण्ड 1 पस्
ु तकालय एवं सच
ू ना: सामाजजक परिप्रेक्ष्य में
प्रस्तावना
मानवता के ववकास में सूचना की महत्वपूर्स भूसमका है । ववसभन्न प्रयोजनों के सलए इसकी आवश्यकता
होती है यथा-सशक्षा, मनोिं जन, ननर्सय लेना आदि। समाज की सूचना आवश्यकताओं की पूनतस हे तु
ववद्यमान असभकिर्ों में से पस्
ु तकालय एक है । सच
ू ना प्रिान किने में शासमल अन्य असभकिर्ों में
आॅकड़ा केन्र, सच
ू ना ववश्लेषर् केन्र, ववननदिस ष्ट केन्र एवं शोधनगह
ृ या प्रमख
ु कायासलय हैं। यह खण्ड
पुस्तकालय व सच
ू ना के सामाजजक परिदृश्यों की वववेचना किता है ।
इकाई 1 सूचना समाज का वाह्य दृजष्टकोर् िे ते हुए परिप्रेक्ष्य ननधासरित किती है। यह सूचना समाज
के ववसभन्न अवबोधों की व्यायया किती है । इसमें सूचना समाज के आगमन तथा ज्ञान आधारित समाज
में इसके ववकास के कािकों की व्यायया की गई है ।
सूचना का बढ़ता महत्व एवं ववद्यमान इलेक्ट्राननक स्वरूप ने परिर्ामतः अनेक अन्य सूचना संस्थानों
का संकल्पन ककया है । उनके उद्ववकास, लक्षर्ों, संिचना एवं प्रकायों की वववेचना इकाई 3 में की गई
है । इसी इकाई में सूचना के ववसंस्थानीकिर् एवं इसके ववमध्यस्थीकिर् को भी व्यवहृत ककया गया है ।
पुस्तकालय एवं सूचना ववज्ञान में एस. आि. िं गनाथन का अप्रनतम योगिान है । उनके द्वािा प्रित्तसूचना
ववज्ञान के पंच सूत्र उनके मौसलक योगिानों में से एक हैं जो कक आज भी मान्य है एवं भववष्य में भी
िहें गे। इन ननयमों की व्यायया, पस्
ु तकालय की प्रकियाओं एवं सेवाओं के ववसभन्न पहलओ
ु ं पि इनके
ननदहताथस सदहत, इकाई 4 में िी गई है । बिलते सच
ू ना परिदृश्य में इनके ननवचसन की ववस्तत
ृ वववेचना
इसी इकाई में की गई है ।
3
इकाई 1 पस्
ु तकालय, सच
ू ना एवं ज्ञान आधारित समाज
संिचना
4
1.1 प्रस्तावना
आधुननक समाज, संस्थानों का समाज है । पीटि ड्रकि के अनुसाि ’’प्रत्येक बड़ा कायस चाहे आधथसक
ननष्पािन हो या स्वास््य िे खभाल, सशक्षा या पयासविर् परििक्षर् हो, नवीन ज्ञान या िक्षा का िानयत्व
आज अपने प्रबंधन द्वािा प्रबंधधत एवं ननिं तिता हे तु असभकजल्पत बड़ें संगठनों को ही सौंपा जाता है ।
इन संस्थानों के ननष्पािन पि, प्रत्येक व्यजक्ट्त का ननवसहन भले न हो, पि आधनु नक समाज का ननष्पािन
वद्सधधत रूप से ननभसि किता है ’’। वह पुनः पुजष्ट किते हैं कक प्रत्येक संस्था में स्त्री व परु
ु ष होते हैं
जजनका ननष्पािन संस्था एवं इस प्रकाि समाज की सफलता या असफलता ननधासरित किता है ।
इस इकाई में औपचारिक व अनौपचारिक अध्ययन, शोध एवं ववकास आदि की सशक्षर् प्रकिया में
पुस्तकालय महत्वपूर्स भूसमका का ननवसहन किते हैं, का परिचय किाने का प्रयास ककया गया है । सच
ू ना
संप्रेषर् तकनीक एवं उपयोक्ट्ताओं के बढ़ते समूहएवं ववसभन्न जस्थनतयों में उनकी सूचना आवश्यकताओं
की उल्लेखनीय प्रगनत के साथ िे खा जा सकता है कक आधुननक समाज ऐसे समाज की ओि बढ़ िहा है
जजसमें परिवतसन के मुयय साधन-बल एवं परिवतसन की दिशा, ज्ञान एवं सूचना हैं। उभिते सूचना एवं
ज्ञान समाज में पस्
ु तकालयों की भसू मका को पर्
ू तस ः समझने हे तु इन ववचािों की उधचत समझ एवं
आत्मसातीकिर्(स्वांगीकिर्) आवश्यक है ।
5
संप्रेषर् किने की जस्थनत में हैं। संसाधनों के वह
ृ ि संिाहक से प्रनतभा, ववशेषज्ञता एवं ववषय-वस्तु को
प्राप्त किने में वे योग्य हैं। सशक्षा में , पहले के मानिण्ड से परिवतसन सजगता से योजनाबद्ध लगता
है । माल व सेवाओं के िाहकीकिर् तथा सामाजजक व सांस्कृनतक क्षेत्र में हुए इन ववकासों के अनतरिक्ट्त
आधुननक समाज, न्यूनतम सशक्षा नही, अवपतु ववसभन्न आवश्यकताएं िखता है । सशक्षा सुसशक्षक्षत, ज्ञानी
तथा उत्तििायी नागरिकों को ढालने का कायस किती है जो इन नागरिकों को िाष्र की प्रगनत व उन्ननत
में योगिान िे ने योग्य बनाती है । समाज की आधथसक समद्
ृ धध ही लक्ष्य है । ननश्चत रूप से, इस लक्ष्य
हे तु गनतववधधयााँ, हमें उपलब्ध किाई गई वह
ृ ि सच
ू ना तथा शोध जननत प्रौद्योधगकी ववकासों से ससद्ध
होनी चादहए। िस
ू िे शब्िों में, आधुननक समाज के उद्ववकास हे तु प्रयास जािी हैं जो हमें कनतपय मूल्यों
पि जोि िे ने वाली सुसंस्कृत, समद्
ृ ध व पर्
ू स जीवन को जाने योग्य बनाता है । इस आिशस को प्राप्त
किने हे तु उपयुक्ट्त व्यवस्था किना, समाज के सिस्यों का सामूदहक उत्तििानयत्व है।
’’पुस्तकालयों के बािे में ववचाि किते समय लोगों के समक्ष कई ववसभन्न छववयााँ होती हैं। व्यजक्ट्तगत
मामलों से पीछे हटते हुए एवं पस् ु तकालय सेवाएं प्रिान किने के संिभस की तथा भववष्य में प्रभाववत
किने वाली प्रववृ त्तयों की जााँच किते हुए ’’क्ट्या पस्
ु तकालय केन्रीय भसू मका िखते है या वे साधािर्तः
कालभ्रम हैं ? (ब्रोफी 2007)’’ जैसे केन्रीय प्रश्न का उत्ति िे ने में ककस प्रकाि पुस्तकालयों की भूसमका
ववकससत व शुरु की जा सकती है , जैसे ननष्कषों पि पहुाँचना संभव है ।
• पस्
ु तकालय, संकलन के रूप में
• पुस्तकालय, संसाधन साझाकिर् के संगठन के रूप में
• पुस्तकालय, असभगम आपूतक
स के रूप में
• अन्तःस्थावपत या सजन्नदहत पस्
ु तकालय
6
पुस्तकालय का वतसमान माडल अपेक्षाकृत सीधा-सािा है । प्रकासशत व अप्रकासशत वह
ृ ि सच
ू ना एवं
उपयोक्ट्ताओं के मध्य पुस्तकालय एक इंटिफेस (अंतःस्थापक) है । अधधकति पुस्तकालय, सहायक व
समथसक अध्ययन पि बहुत जोि िे ते हैं। सभी प्राववधधयों में में एक अथवा संभवतः व्यजक्ट्तगत समश्र में
अध्ययन को चुनने वाले जीवन पयांत पाठकों को संबल िे ने वाली सेवाओं की श्रेर्ी प्रिान किना,
पस्
ु तकालयों के समक्ष एक मद्
ु िा हैं। अतः अधधकति क्षेत्रों में अध्ययन प्रिायता में प्रत्यक्ष संगनत को
ववकससत किना, पुस्तकालयाध्यक्षों हे तु ध्यान िे ने योग्य चुनौती है । त्यतः पुस्तकालयाध्यक्षों को
सशक्षर्ववधध ससद्धान्तों की समझ, सेवाओं के असभकल्पन एवं प्रिायन में तथा पस्
ु तकालय के औधचत्य
व महत्व को प्रिसशसत किने में सहायता प्रिान किती है । पुस्तकालय मूलतः सेवा संगठन है , इस बात
को दृढ़ता से कहना चादहए। वे जो किते हैं, का आशय समस्त वय समूहों एवं पष्ृ ठभूसम के लोगों को
लाभ पहुाँचाना होना चादहए। वे अपने उपयोक्ट्ताओं में ज्ञान व समझ ववकससत किने के व्यवसाय में
बबल्कुल स्पष्ट होते हैं। सेवाएाँ औि ज्ञान िोनों, सामुिानयक ववकास-चाहे वैजश्वक हो या स्थानीय, के
केन्र में होते हैं। ज्ञान आधारित सेवा की प्रिे ष्टता एवं इसकी गर्
ु ता में सतत वद्
ृ धध ने व्यवसाय को
उसके प्रनतयोधगयों से ववलगन का द्वाि प्रिान ककया है । पिन्तु पस्
ु तकालय व्यवसाय नही किते। वे
अद्ववतीय है एवं समाज की बिलती आवश्यकताओं की पूनतस हे तु स्वयं को मजबूत किते हुए उनका
21वीं सिी में प्रगनत किना आवश्यक है । समाज की बिलती आवश्यकताओं की प्रभावी पूनतस हे तु
पुस्तकालयों में प्रनतरूप परिवतसन हो िहा है । इसका ववविर् सािर्ी 1.1 में दिया गया है ।
स्रोतः
पुस्तकालयों के भववष्य पि सलखे सादहत्य पि चचास होती िही है । कुछ ववशेषज्ञ, पुस्तकालयों का अजस्तत्व
खतिे में है , का दृजष्टकोर् असभव्यक्ट्त किते हैं। उनका मत है कक 21वीं सिी की चुनौनतयों का सामना
किते हुए पुस्तकालय उपयोक्ट्ता; ववसशष्ट प्रश्नों का उत्ति िे ने, ववसशष्ट समस्याओं व िर्नीनत को
संबोधधत किने में सहायक तत्समय सच ू ना की मांग किें गे। सही समय पि सच ू ना की आपनू तस ही
स्वीकायस अनुबध
ं नही िहे गी। उपयोक्ट्ता एक बटन के िबाने पि सही रूप व सही प्रारूप में सूचना की
उपलबधता चाहे गा। औधचत्यपूर्स बने िहने हे तु, पुस्तकालयों एवं पुस्तकालयाध्यक्षों को यह अनुभव किना
चादहए एवं नव समाज व ज्ञान आधारित अथसव्यवस्था की मांगों को परिपुष्ट किना चादहए।
पुस्तकालयाध्यक्षों को बिलती आवश्यकताओं के सेवाथस एवं अधधक व्यजक्ट्तकृत व िाहकीकृत सेवाओं को
प्रस्तत
ु किते हुए पस्
ु तकालय को पन
ु ः असभयंबत्रत किना चादहए। ’’आपको क्ट्या काम है ?’’ प्रश्न का
7
उत्ति नए मागस को तय किने एवं पुस्तकालयों के औधचत्य में बने िहने व िे श के सामाजजक-आधथसक
ववकास में केन्रीय भसू मका का ननवसहन किने में सहायक ससद्ध होगी।
समसामनयक समाज का सच
ू नाकिर् होता िहा है । सम्पूर्स सच
ू ना पयासविर् अथवा सूचना-मंडल का
महत्व बढ़ता जा िहा है । यहााँ तक कक अनुभव के अप्रसशक्षक्षत स्ति पि, एक ववस्तत
ृ प्रसारित जागरूकता
है कक सच
ू ना कुछ प्रकाि से सामाजजक ववश्व के अंतिर् को प्रभावी बना िहा है । समाज के तीनों क्षेत्र-
िाजनीनत, अथसव्यवस्था तथा संस्कृनत नवोन्मेषन के प्रमुख ससद्धान्त हैं।
स ्ॅाचना व ज्ञान को सामाजजक सम्पवत्त समझा जाता है । इस सामाजजक सम्पवत्त के लाभों को समाज
के सभी सिस्यों को उपलब्ध होना चादहए। यह सामाजजक सम्पवत्त ववववध भौनतक रूपों (यथा-पुस्तकें,
मैगजीन, सक्ष्
ू मकफल्म, कम्प्यट
ू िीकृत डाटाबेस) में उपलब्ध है । अपने िै ननक कतसव्यों के ननवसहन में
सामान्य नागरिक को ववववध सूचना की आवश्यकता होती है । सूचना का उपयोग, ननजश्चत रूप से,
उनकी मानससक संवद्
ृ धध को प्रभाववत किता है एवं उनके वाह्यावलोकन व जीवन शैली में परिवतसन
लाता है ।
1.3 सच
ू ना समाज
यह अक्ट्सि कहा जाता है कक हम परिवतसन के युग में िह िहे हैं। पिन्तु, कैसे कोई हमािे वतसमान
समाज में कृबत्रम बुद्धधमत्ता व नवीन सूचना संप्रेषर् प्रौद्योधगककयों के त्वरित संप्रवेश के साथ गहिे
अंतिर् को संलक्षक्षत कि सकता है ? क्ट्या यह औद्योधगक समाज में नवीन चिर् का प्रश्न है अथवा
हम एक नए यग
ु में प्रवेश कि िहे हैं ? वैजश्वक िाम, पश्च-औद्योधगक समाज, सच
ू ना समाज, सच
ू ना
काल एवं ज्ञान समाज कुछ पि हैं जो इन परिवतसनों की हि को समझने की पहचानने की प्रयास के
तहत िचे गए हैं। पिन्त,ु जैसे -जैसे परिचचास सैद्धाजन्तक मंडल में आगे बढ़ती है , वास्तववकता तेजी से
सामने आती है , एवं संप्रेषर् मीडडया उन पिों को चन
ु ती है जजसे हमें उपयोग किना होता हैं। यही हाल
सूचना समाज पि के साथ है । वतसमान िशक में , सूचना समाज व्यंजक ननःसंिेह प्रभुत्ववािी पि के रूप
में पुष्ट हुआ है , इस सलये नही कक यह सैद्धाजन्तक स्पष्टता को असभव्यक्ट्त किता है अवपतु यह
अनतववकससत िे शों की शासकीय नीनतयााँ से िीक्षा एवं यह त्य कक इसके सम्मान में ववश्व सशखि
सम्मेलन का आयोजन ककया (2003 जजनेवा, 2005 ट्यूननश)। कफि भी, इसकी संकल्पना एवं ववकास
को समझने का प्रयास किें गे।
8
स्व-जााँच अभ्यास
नोट: (क) नीचे दिए गए स्थान पि अपने उत्ति सलखखए।
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
सूचना समाज की संकल्पना का उद्भव 1970 के िशक में हुआ एवं 1980 के िशक में पूर्त स ा प्राप्त
कि शीघ्रता से लोकवप्रयता व किें सी या प्रचलन प्राप्त कि सलया। इसके प्रनतपािक ववद्वान, अकािसमक
सादहत्यकाि से लेकि लोकवप्रय लेखक तक हैं। प्रथम श्रेर्ी के प्रमख
ु सादहत्यकािों में मसि
ू थे, जजन्होंने
जापानी परिप्रेक्ष्य में समाज के आकजस्मक अंतिर् को उस बबन्ि ु तक अवबोधगम्य माना जहााँ सच
ू ना
मूल्यों का उत्पािन समाज के ववकास हे तु संचालक बल बना। इस वगस के िस
ू िे लेखक टॉम स्टोननयि
थे जजन्होने पाश्चात्य समाज हे तु नए युग का अभ्युिय माना। औद्योधगक व सच
ू ना समाजों के मध्य
वे सुस्पष्ट समानांति एवं तुलनात्मकता िशासते है । डेननयल बेल, यद्यवप सूचना समाज पि से बहुत
सहज नही हैं, ने पश्च औद्योधगक समाज पि कायस के माध्यम से इसे बनाए िखा है । पश्च औद्योधगक
समाज के शास्त्रीय व्याययाता डेननयलबेल से सूचना समाज को भी सैद्धाजन्तकता िी है (बेल 1979)।
’’ि कसमंग ऑफ पोस्ट इंडजस्रयल सोसायटी(1972)’’ में बेल ने तकस दिया है कक सामाजजक-आधथसक
प्रर्ाली के कोि में नामतः सैद्धाजन्तक ज्ञान की केन्रीयता में उत्पािक प्रकिया में ववज्ञान द्वािा ननवसदहत
वद्सधधत भसू मका, व्यावयानयक-वैज्ञाननक-तकनीकी समह
ू ों की प्रमख
ु ता में वद्
ृ धध एवं कंप्यट
ू ि प्रैद्योधगकी
का प्रवेश सभी नए अक्षीय ससद्धान्त के प्रमार् हैं। सूचना समाज का उभिता हुआ सामाजजक ढांचा
इसी आधाि पि बना है । सूचना, लगाताि वद्सधधत मूल्य का इस प्रकाि संपवत्त का स्रोत बन गया है।
सच
ू ना मंडल में श्रसमकों का वद्सधधत अंश परिननयक्ट्
ु त ककया गया है । पश्च-औद्योधगकवाि से सच
ू ना
समाज में अंतिर् को समथस बनाने वाली ववमशस का महत्वपूर्स कािक, सूचना प्रौद्योधगकी की आधथसक
महत्ता में भािी वद्
ृ धध है ।
यद्यवप अपने वतसमान रूप में यह कुछ नव्यता है , ककन्तु यह सोचना गलत होगा कक सूचना समाज
का ववचाि बबल्कुल हाल के उद्भव का है । सामाजजक परिवतसन के बािे में ववचाि के ववश्लेषर्ात्मक तंतु
के साथ-साथ, हम अन्य कथा, प्रौद्योधगक िामिाज्यवाि पाते हैं। वस्तुतः, मसि
ू , स्टोननयि व नैसबबट
के लेख एक नए प्रकाि के समाज का वर्सन किते हैं जो एक तिफ आनुपानतक ववश्लेषर् किता है
पिन्तु िस
ू िी तिफ अच्छी सामाजजक प्रनतबबंबता से परिपूर्स हैं। प्रौद्योधगकी िामिाज्यवाि, ववशेषतः,
संयुक्ट्त िाज्य अमेरिका में ताकतवि है । यह अनुभव ककया गया कक प्रकृनत व यंत्र के संगम से,
9
औद्योगीकिर् की समस्या का अभूतपूवस समाधान द्वािा हमें औद्योधगक समाज की प्रारूवपक बुिाइयों
के अंतिर् की अनुमनत को संयुक्ट्त िाज्य अमेरिका महसूस किे गा। ववकेन्रीकृत लोकतंत्र, सामि
ु ानयक
भागीिािी, सोपानिम व वगस का समापन एवं प्रौद्योधगक िामिाज्यवाि की पूवस संतनत को प्रेरित किने
वाली उन समस्त चीजों की बहुलता के आिशस, सूचना समाज के सादहत्य में पुनः प्रकट होते है ।
एलववन टाॅफलि एवं जाॅन नैसबबट ने सूचना समाज की अवधािर्ा को लोकवप्रय बनाने हे तु बहुत
कुछ ककया है । नैसबबट ने प्रनतवाि ककया है कक संयुक्ट्त िाज्य अमेरिका ने काफी पहले 1960 व 1970
के िशक में औद्योधगक से सूचनासमाज में अंतिर् ककया है एवं इस प्रकिया में कम्प्यूटि ने महत्वपूर्स
भूसमका का ननवसहन ककया है । िस
ू िी ओि, टाॅफलि ने हमािे मध्य सूचना बम के ववस्फोट एवं समाज
में शजक्ट्त स्थानांति (बिलाव) की बात की है , जो इसे ज्ञान आधारित बना िे गी।
सच
ू ना समाज एक अनत प्रयक्ट्
ु त पि है । यह पि ववववध आयामों से संलक्षक्षत है । अनेक लेखकों ने अपनी
िाह्यता के अनुसाि इस पि को परिभावषत एवं ननवसधचत(व्याययानयत) किने का प्रयास ककया है । सच
ू ना
समाज पि वह
ृ ि सादहत्य पढ़ने पि ककसी के अंिि जो टकिाता है वह इस प्रकाि है --’’अपने ववषय पि
कई लेखक अल्पववकससत परिभाषाओं से संचासलत होते हैं। सूचना समाज की ववशेष ववशेषताओं या
गुर्ों के बािे में वे ववपुलता से सलखते हैं पिन्तु अपनी संचालन कसौटी के बािे मे वे अस्पष्ट हैं। सच
ू ना
में परिवतसन के अथस को उत्सक
ु हैं, वे इनको आधथसक उत्पािन के ववसभन्न रूपों के पिों में , सामाजजक
सजम्मलन के नए रूप में , उत्पािन की नवोन्मेषी प्रकिया या कोई औि में ननवसधचत(व्याययानयत) किने
को िौड़ पड़ते हैं। जब वे ऐसा किते हैं, वे बहुधा यह स्थावपत किने में स्पष्टता असफल िहते हैं कक-
ककस प्रकाि व कैसे सच
ू ना आज अधधक केन्रीय हो गई है , वास्तव में इतनी ननर्ासयक कक यह एक नए
प्रकाि के समाज में प्रवेश कि िही है ’’(वेबस्टि. एफ)। कोई चककत हो जाता है , कक सूचना के बािे में
ऐसा क्ट्या है कक जो बहुत सािे ववद्वानों को यह सोचने को वववश कि िे ता है कक यह आधुननक काल
के केन्रीय अंश में है । चसलए सच ू ना समाज पि के बािे में सादहत्य में प्रित्त कुछ परिभाषाओं की
समीक्षा एवं उनके मुयय गर्
ु ों का ववश्लेषर् किें ।
मानफ्रेड (1987) सलखते हैं कक समाज का साधािर् मत जजसमें सामिी नही अवपतु सूचना का प्रवाह
होती है , अधधकांश ’’संप्रेषर् व ननयंत्रर्’’ िखती है , ववननमय ववस्तरित होकि ननम्न पि जोि िे ता है-
(ग) शजक्ट्त व त्वरितता नही बजल्क तकस व मानव मूल्य, अचि व िबाव को िाह्य परिवतसन तक संिक्षक्षत
किने हे तु िबावों के मध्य संघषो का प्रबंधन किते हैं।
10
यह सब कहने के बाि मानफ्रेड कोचेन जोड़ते हैं कक ’’सूचना समाज, समि
ु ाय मजस्तष्कों के उद्ववकास
की एक अवस्था है जो ववश्व मजस्तष्क की ओि जाती है । संभवतः यह महान अंतिर् का सवासधधक
संभव साि है जजस पि भववष्यवािी सहमत प्रतीत होते हैं। जब पयासप्त लोग इसके घटने की संभावना
पि ववश्वास किना शुरु कि िे ते हैं, यदि यह प्राकृनतक सांस्कृनतक उद्ववकास की अवस्था है , तब यह
ववश्वास इसके स्वयं की परिपनू तस में योगिान िे सकता है ’’। िोनफेल्ट(1992) का मत है कक सच
ू ना
समाज वह है जो सीमाओं की स्थाई अदृश्यता िे खता है , जो वतसमान में कम्प्यूटि हाडसवेयि, संचाि
प्रर्ासलयों, उपिह, वैजश्वक नेटवकों आदि को अलग किता है । उपिोक्ट्त परिभाषाओं में जबकक कोई
गलती नही हैं, वे वतसमान जस्थनत को प्रवाहपर्
ू तस ा पि ववशेष-बल िे ती हैं, क्ट्या उभिने वाला है का संकेत
किती हैं-ननजश्चत रूप से कुछ शब्िों में-समानांति सच
ू ना समाजों की एक श्रेर्ी है , उपयोक्ट्ता अपनी
आवश्यकता के अनुसाि जजनके मध्य चयन किते हैं। इन पथ
ृ क संिचनाओं का असभसिर्, अंनतम रूप
से उभिने वाले सच
ू ना समाज के प्रकाि के अनुसाि आ सकता है या नही भी आ सकता है ।
अन्य ववशेषज्ञ मादटस न जेम्स (1978 अनुिक्षक्षत किते हैं कक .’’सूचना समाज पि उन्नत पश्च-औद्योधगक
अवस्था के समाजों का प्रनतननधधत्व किता है जजनके प्रमुख लक्षर् हैं-उच्च श्रेर्ी कम्प्यूटिीकिर्, वह
ृ ि
इलेक्ट्रननक डेटा अंतिर्, सच
ू ना प्रौद्योधगकी की बाजाि व सेवायोजन संभावनाओं से अत्यधधक प्रभाववत
आधथसक ववविर्ी’’।
सूचना समाज संकल्पना, डेननयल बेल के प्श्च औद्योधगक समाज के ससद्धान्त से गहन बंधुता िखती
है । ’’ि कसमंग पोस्ट इंडजस्रयल सोसायटी(1973) में डेननयल बेल तकस िे ते हैं कक उत्पािन प्रकिया में
ववज्ञान की वद्सधधत भसू मका, व्यावसानयक-वैज्ञाननक-तकनीकी समह
ू ों की प्रमख
ु ता का उभाि एवं कम्प्यट
ू ि
प्रौद्योधगकी का प्रवेश सभी ; सामाजजक-आधथसक प्रर्ाली के केन्रीय अंश नामतः सैद्धाजन्तक ज्ञान की
केन्रीयता के नव अक्षीय ससद्धान्त के साक्ष्य हैं। सूचना समाज का उभिता हुआ ढााँचा, इसी आधाि पि
ननसमसत है । सच
ू ना ननिन्ति वद्सधधत मल्
ू य व इस प्रकाि सम्पवत्त का स्रोत बनती जा िही है । सच
ू ना मंडल
में कमसचारियों का बढ़ता हुआ अंश ननयुक्ट्त है ।
1.3.3 सच
ू ना समाज आगमन के तनधायिक कािक
जब हम सूचना समाज पि का प्रयोग किते हैं, हमािा सामान्य अथस सम्पूर्स समाज से होता है । समस्या
यह है कक सूचना समाज को कैसे ववभेि ककया जाए औि क्ट्या यह आ गया है या नही। इसके संकेतों
को िहर् किने हे तु हमें अपने आस पास के दटप्पर्ीकािों व नेताओं को सुनना होगा। सूचना समाज
ननम्न की प्रत्यक्ष परिर्नत है -
• आॅॅंकड़ों का ववस्फोट
• बढ़ती सूचना जागरूकता एवं समाज की सच
ू ना पि अधधकति ननभसिता
• संगर्न तथा संचाि प्रौद्योधगकी में त्वरित ववकास
तथावप काॅकेल (1987) का मत है कक ’’सूचना समाज हे तु पूवस आवश्यक , ििू संचाि आधत
ृ सूचना
सेवा संिचना है जो शनैः शनैः एक बबंि ु तक ननसमसत होता है जहाॅॅं टसमसनल प्रयोक्ट्ताओं का िांनतक
रव्यमान न्यूनाधधक सावसबत्रक नेटवकस से सम्पककसत नही हो जाता’’। बेल के अनस
ु ाि -यह पि मुययतः
पश्च-औद्योधगक समाज की सामाजजक संिचना से ववननसदिष्ट है । ऐसा समाज जजसका संचालक बल
सच
ू ना मल्
ु यों, न कक सामिी मल्
ू य, का उत्पािन होगा, की संिचना व लक्षर्ों का यह वर्सन किता है ।
11
इसका मूतरू
स प अनुभव किने हे तु प्रौद्योधगकीय ववकास के 4 चिर्ों, जजन्हें प्राप्त ककया जाना चादहए,
का अवलोकन किना आवश्यक होगा।
• ववज्ञान आधारित कम्प्यूटिीकिर् जहााँ िाष्रीय पैमानाप परियोजनाओं में कम्प्यूटि का व्यापक प्रयोग
होता है ।
• सिकाि व व्यवसाय िोनों में प्रबंधन आधारित कम्प्यट
ू िीकिर्
• समाज आधारित कम्प्यूटिीकिर् जजसमें सम्पर्
ू स समाज के लाभ हे तु कम्प्यूटिों का प्रयोग होगा
• व्यजक्ट्त आधारित कम्प्यट
ू िीकिर् जहााँ प्रत्येक व्यजक्ट्त को समस्याओं के समाधान हे तु टसमसनल व
कम्प्यूटि सूचना का असभगम होगा, इस उच्च जन ज्ञान सज
ृ न समाज में सज
ृ नात्मकता पल्लववत
होगी।
यद्यवप योजनाएं संभव हैं, अनुपम परिप्रेक्ष्य का प्रनतननधधत्व किने वाले 2 बड़े समह
ू ों में सूचना समाज
सादहत्य को श्रेर्ीबद्ध ककया जा सकता है ।
सच
ू ना समाज का सवससामान्य परिप्रेक्ष्य, शानिाि व प्रभावी प्रौद्योधगकीय नवोन्मेषन पि जोि िे ता है ।
महत्वपूर्स ववचाि यह है कक सूचना प्रिमर्, संिहर् व पािे षर् में सफलताओं ने आभासी रूप ् से समाज
के सभी क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योधगकी का अनुप्रयोग ककया है । सूचना समाज के समस्त सादहत्य में ,
सूचना प्रौद्योधगकी यद्यवप केन्रीय भूसमका िखता है । यह परिप्रेक्ष्य अन्य सामाजजक, आधथसक व
िाजनीनतक स्वगर्
ु ों के अपवजसन के प्रौद्योधगकीय आधािभूत ढााँचे पि जोि िे ता है । मादटस न ने सूचना
समाज में , ववशेषतः मय
ु य तत्व के रूप में डडजजटल नेटवकों के ववस्ताि में , जीवन का ववविर् िे ने वाले
अनेक परिदृश्यों को िशासया है ।
संगर्न व ििू संचाि के असभसिर् ने कम्प्यूटिों को जोड़ कि वैजश्वक नेटवको की स्थापना को समथस
बनाया है । समेककत सेवा डडजजटल नेटवकस (आई.एस.डी.एन)का ववकास, पश्च औद्योधगक समाज सूचना
के मय
ु य तत्व को संबल िे ने वाली आधािभत
ू संिचना प्रिान किे गा। इंटिनेट की तीव्रवद्
ृ धध ने ववशद्
ु ध
रूप से इस परिवतसन को प्रकट ककया है ।
12
यद्यवप, प्रौद्योधगकी पि ऐसे ववशेष बल के साथ, सामान्यतः सामाजजक-सांस्कृनतक-िाजनीनतक संिभस
से हटा कि, सच
ू ना समाज के गर्
ु ों को परिभावषत किने हे तु पयासप्त नींव प्रिान किना संभवनही है ।
मापन की समस्या तथा प्रौद्योधगकी पैमाने पि बबंि ु को ननजश्चत किने में सम्बद्ध कदठनाई, जजससे
समाज को सूचना काल में प्रवेश हुआ ननर्ीत माना जाता है , स्पष्टता नव प्रकाि के समाज की स्वीकायस
परिभाषा में ननजश्चत रूप से केन्रीय है । लोकवप्रय भववष्यवादियों द्वािा इसकी उपेक्षा कि िी जाती है।
इस ववचािधािा के लेखक, सामान्य पिों में , प्रौद्योधगकीय नवोन्मेषनों का वर्सन किने में , यह अनुमान
लगाते हुए कक नव समाज का अंति किने हे तु यह पयासप्त है , संतष्ु ट हैं। ’’कुछ ववद्वान है जो 2
समस्याओं का सामना किते हैं। प्रथम, प्रौद्योधगकी ववसिर् की िि को कोई कैसे मापे एवं द्ववतीय
कब कोई समाज औद्योधगक न िहे औि सूचना कोदट में प्रवेश किे ?’’(वेबस्टि 2003)।
कुछ लेखक जो सूचना समाज के बािे में सलखते हैं, औद्योधगक िाष्रों में सेवा क्षेत्र की वद्
ृ धध एवं
ववननमासर् क्षेत्र में सेवायोजन में कमी की ओि संकेत किते हैं। कुछ लेखकों हेतु, सूचना समाज का
प्रधान लक्षर्, इसकी अथसव्यवस्था की प्रकृनत है । मचलप
ु (1962) ने संयक्ट्
ु त िाज्य अमेरिका की
अथसव्यवस्था में ’’ज्ञान क्षेत्र’’ की वद्
ृ धध का ववश्लेषर् कि अनुसंधान परिप्रेक्ष्य का श्रीगर्ेश ककया है ।
मचलुप के ववश्लेषर् में प्रथमतः ज्ञान के उत्पािन व ववतिर् से संबधधत उद्योगों(ज्ञान उद्योग) की
समीक्षा समि सेवा क्षेत्र के अंश के रूप में नही अवपतु अलग से की गई है । ज्ञान उद्योगों में समाववष्ट
क्षेत्र हैं-शैक्षक्षक प्रर्ाली, मीडडया व अन्य संचािात्मक गनतववधधयााँ, पुस्तकालय व अन्य सूचना गनतववधधयााँ
एवं शोध/संस्थान। इस क्षेत्र का सकल िाष्रीय उत्पाि में योगिान महत्वपर्
ू (स आिं सभक 1960 िशक में
40 प्रनतशत अनुमाननत) है एवं औद्योधगक क्षेत्र से पयासप्त उच्च िि पि वद्
ृ धध कि िहा है । मचलुप ने
ननष्कषस दिया कक ज्ञान उद्योग शीघ्र ही औद्योधगक क्षेत्र को पीछे छोड़ िे गा एवं ज्ञान समाज के उिय
को प्रशस्त किे गा। लगभग इसी समय जापान भी ऐसे ही ननष्कषस पि पहुाँचा जब उमाससओ(1963) ने
अधधक ववकससत पिाथस व कृवष क्षेत्र के सापेक्ष अध्यात्म उद्योग में वद्
ृ धध होने की भववष्यवार्ी की।
इन आिं सभक अध्ययनों ने अन्य आधथसक क्षेत्रों से ज्ञान या सूचना क्षेत्र को अलग स्थान दिया।
इन पंजक्ट्तयों पि धारित सूचना अथसव्यवस्था के उद्भव पि भलीभााँनत ज्ञात व प्रायः उजल्लखखत अध्ययन,
माकस पोिाट(1977) का प्रनतवेिन है । पोिाट ने इस कायस के अधधकांश का आिं भ मचलुप द्वािा परिभावषत
सूचना या ज्ञान क्षेत्र के अंतगसत कायासॅॅ
े ं से अधधक पि लागू कि सूचना कायस की दृजष्ट को ववस्तत
ृ
कि ककया। पोिाट ने सच
ू ना गनतववधधयों का परिभाषीकिर्, सूचना माल व सेवाओं के उत्पािन, प्रिमर्
व ववतिर् में प्रयक्ट्
ु त या उपभोज्य सभी संसाधनों को समादहत किने के रूप में आिं भ ककया। उन्होने
बाजाि स्थल में सच
ू ना माल व सेवाओं के ववननमय में शासमल समस्त व्यापािों को समादहत किते हुए
प्राथनतक सच
ू ना क्षेत्र को परिभावषत ककया। इसके अनतरिक्ट्त, यद्यवप, पोिाट ने नोट ककया कक
अथसव्यवस्था के तमाम अन्य कायों को सूचना कायस समझा जा सकता है । लगभग प्रत्येक संगठन,
अपने स्वयं के आंतरिक उपभोग हे तु सूचना को उत्पन्न, प्रकियानयत व ववतरित किता है । अतः एक
द्ववतीयक सूचना क्षेत्र में से सूचना गनतववधधयााँ समादहत हैं। पोिाट ने अनुमान ककया कक समि सूचना
गनतववधधयााँ, 1967 में सकल िाष्रीय उत्पाि की 45 प्रनतशत थीं एवं आधी श्रम शजक्ट्त सूचना सम्बंधी
कायस में ननयुक्ट्त थी। यह अध्ययन, संयुक्ट्त िाज्य अमेरिका के संिभों को न्यायसंगत ठहिाने हे तु सूचना
समाज के रूप में प्रयक्ट्
ु त हुआ है । अनेक लेखकों (कोमास्तुजाकी 1986, स्कीमेन्ट, लीविो व डाडडसक
13
1983) ने पोिाट के ववश्लेषर् को को परिशुद्ध कि अन्य संिभों में अनुप्रयोग किने का प्रयास ककया
है । यह परिप्रेक्ष्य, सूचना समाज के प्राथसमक स्वगुर् के रूप में अथसव्यवस्था पि केजन्रत किता है ।
यह कहा जा सकता है आधथसक संिचना की समीक्षा अकेले सूचना सेवाओं से सम्बद्ध सामाजजक व
सांस्कृनतक ननदहताथों का सीसमत दृश्य प्रिान किता है । अनेक आलोचक भी प्रनतवाि किते हैं कक सूचना
कसमसयों का पोिाट वगीकिर् ववस्तत
ृ होने के कािर् अथसहीन है , सच
ू ना समाज पि स्थानांतिके सामाजजक
ननदहताथों पि सझ ु ाव िे ने हेतु बहुत कम काम ककया है (बेट्स 1985, ववजडस 1984)। उिाहिर्ाथस, बेट्स
ने नोट ककया है कक पोिाट के अनुसाि, सूचना पे ्िषर् उपस्कि को जोड़ने वाले फैक्ट्री कमी, ववश्वववद्यालय
शोधकतासओं की भााँनत, सूचना कमी समझे जाते हैं। यह ताककसक प्रतीक नही होता।
उन्होंने अनभ
ु व ककया कक ऐसा श्रेर्ीकिर्, सच
ू ना क्षेत्र की सामाजजक ववलक्षर्ता को कमजोि कि सकता
है । पोिाट के ववश्लेषर् पि अन्य प्रकाि की आपवत्तयााँ व आलोचनाएाँ हैं। यद्यवप, ऐसी आपवत्तयााँ पोिाट
की खोज को बबल्कुल अमान्य नही कि सकती एवं ऐसा किने की मंशा भी नही है ।
माकस पोिाट सूचना क्षेत्रों में 2 भागों में ववभेदित किने में समथस िहे हैं- प्राथसमक व द्ववतीयक।
तत्पश्चात उन्हें समेककत कि अथसव्यवस्था के गैि-सच
ू नात्मक तत्वों को अलग ककया। िाष्रीय आधथसक
सांजययकी को पुनः एकबत्रत कि पोिाट यह ननष्कषस ननकालने में समथस िहे कक संयुक्ट्त िाजय अमेरिका
का 46 प्रनतशत सकल िाष्रीय उत्पाि सच
ू ना क्षेत्र से आता है । ’’संयुक्ट्त िाज्य अमेरिका अब सूचना
आधत
ृ अथसव्यवस्था है ’’। यथाथसततः, यह एक सूचना समाज है जहााँ आधथसक सकियता के प्रमुख क्षेत्र,
सूचना माल एवं सेवा उत्पािक एवं सावसजननक व ननजी(द्ववतीयक सूचना क्षेत्र) नौकिशाही हैं’’।
स ्ॅूॅाचना समाज के उद्भव का अन्य लोकवप्रय मापन, व्यावयानयक परिवतसन पि केजन्रत है । वववाि
यह है कक हमने सूचना समाज तब प्राप्त ककया है जब सूचना में व्यवसाय का प्रभुत्व है । इसका अथस
है कक सच
ू ना समाज में ; सशक्षर्, शोध व ववकास एवं िचनात्मक उद्योगों(मीडडया, असभकल्प, कला) से
सम्बद्ध गनतववधधयों जैसे व्यवसाय में ननयुक्ट्त लोगों की संयया ने कािखानों में ननयुक्ट्त लोगों की
संयया को पीछे छोड़ दिया है । इन लोगों का मुयय लक्षर् सशक्षा का उच्च स्ति है । सूचना समाज की
व्यावसानयक परिभाषा प्रायः आधथसक मापन के साथ संयुक्ट्त की जाती है । पोिाट ने आगखर्त ककया कक
पिवती 1960 के िशक में संयुक्ट्त िाज्य अमेरिका की आधी से कुछ कम श्रम शजक्ट्त सूचना क्षेत्र में
थी। पोिाट सच
ू ना की आधथसक महत्ता की वद्
ृ धध को परिवतसनशील व्यावसानयक प्रनतरूप से जोड़ते हैं।
सूचना समाज के अधधकति पहचानकतास, नई प्रौद्योधगककयों के प्रवेश को प्रनतबबंबबत किने वाले नवयुग
के असभगम के संकेतकों के रूप में व्यावसानयक परिवतसनों को िे खांककत किते हैं। अन्य शब्िों में ,
व्यवसायों के ववतिर् में परिवतसन, सूचना समाज ससद्धान्त के हृिय में जस्थत है ।
स्थान पि ववसशष्ट बल, इस अवबोध....का केन्रीय अंश है । यहााँ प्रमुख जोि सूचना संजालों(नेटवकस) पि
है जो अवस्थानों को जोड़ता है एवं परिर्ामतः समय व स्थान के संगठन पि बहुत प्रभाव िखता है ।
हाल के वषों में इस पक्ष को सूचना समाज की अनिु मखर्का माना गया है । कस्बों, अंचलों, िाष्रों व
महाद्वीपों एवं वास्तव में समस्त संसाि के मध्य व अंतगसत अवस्थानों को साथ-साथ जोड़ने वाले सच
ू ना
नेटवकों या संजालों की केन्रीयता, स्थाननक परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्स ववचािबबन्ि ु है । कई लेखों में , सूचना
14
संजालों के प्रौद्योधगकी आधाि पि जोि दिया जाता है क्ट्योंकक ये नेटवकस, सूचना को प्रिसमत व ववतरित
किने वाली आधािभूत संिचना प्रिान किते हैं। ये ववकास, उभिते हुए संजासलत समाज को प्रशस्त किते
हैं। यहा प्रमुख ववचाि, इलेक्ट्राननक महामागों या हाईवेज के परितः चासलत सूचना है । ककन्तु, ककतनी
व ककस िि से इन मागों पि सूचना का प्रवाह होना चादहए ताकक एक सूचना समाज का ननमासर् हो
सके, को परिमाखर्त किने में कोई समथस नही हो सका है । यद्यवप, कोई भी यह इन्काि नही कि
सकता कक सूचना संजाल आधुननक समाजों की महत्वपूर्स ववशेषता हैं औि वे वैजश्वक संचाि को तत्काल
सुगम बनाते हैं, ककसी स्थान से व ककसी स्थान तक डाटाबेसों का असभगम हो सकता है , कफि भी कुछ
लोग कहें गे ’’संजालों की उपजस्थनत क्ट्यों ववश्लेषको को, समाजों को सूचना अथसव्यवस्थाओं में श्रेर्ीबद्ध
किने को प्रशस्त किती है ?’’। यह कहा जा सकता है कक संजाल का प्रश्न गंभीि है एवं नेटवककांग के
ववसभन्न स्तिों में कैसे ववभेि ककया जाए साथ ही कैसे उस बबंि ु को ननधासरित ककया जाए कक हम एक
नेटवकस/सूचना समाज में पहुॅच गए हैं, की समस्या को उत्पन्न किता है ।
15
स्व-जााँच अभ्यास
नोट: (क) नीचे दिए गए स्थान पि अपने उत्ति सलखखए।
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
(3) सच
ू ना समाज के स्वगर्
ु ों का असभकथन कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
(4) सच
ू ना समाज के आधथसक ननदहताथों क्ट्या हैं ?
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
संयुक्ट्त िाष्र व अन्तिासष्रीय ििू संचाि संघ ने जेनेवा में 10-12 दिसंबि 2013 की अवधध में सच
ू ना
समाज पि ववश्व सशखि सम्मेलन के प्रथम चिर् का आनतथेय या मेजबानी ककया। सशखि सम्मेलन
का द्ववतीय चिर् ट्यन
ू ीसशया में 16-18 नवंबि 2015 में सम्पन्न हुआ, इसके परिर्ामों का मल्
ू यांकन
इस आलोक में होना चादहए कक क्ट्या भववष्य में उभिने वाले सूचना समाज का सवससामान्य दृजष्टकोर्,
उन समाजों के नागरिकों को सशक्ट्त किता है जो इनतहासों के वास्तुसशल्पकाि हैं।
प्रथम चिर् के सच
ू ना समाज पि ववश्व सशखि सम्मेलन (वससस) के लक्ष्यों में से एक, सूचना समाज
की सवससामान्य दृजष्ट ववकससत किना था। यद्यवप, सिकािी प्रनतननधधमंडल व ननजी क्षेत्र के बड़े दहस्से
ने इस पक्ष को कम ही महत्व दिया, नागरिक समाजों के कई संगठनों हे तु इसके अथस को लेकि हुआ
वववाि जो समाज की परियोजनाओं के मध्य संघषस को प्रिसशसत कि िहा था, एक मुयय मुद्िा था।
16
प्रथम उपागम में , सच
ू ना समाज के बािे में बात किने से ववननदिस ष्ट है कक एक नया ववकास प्रारूप जो
प्रौद्योधगकी को कािर्ातमक भूसमका आवंदटत किता है , इसे आधथसक ववकास के असभयान का प्रनतननधत्व
िे ता है । ववकासशील िे शों हेतु, यह ववमशस इंधगत किता है कक सच
ू ना समाज की ओि अंतिर्, वास्तव
में , पयासप्त सशक्ट्तीकिर् िशा सजसक समय व िाजनैनतक ननर्सय का ववषय है । सावसभौसमक असभगम
कायसिम के माध्यम से शासमल ककये जाने योग्य डडजजटल गैप से प्रभाववत सामाजजक क्षेत्रों के सम्बंध
में समान घदटत हुआ है । इस माॅडल के केन्रीय भाग में इस प्रौद्योधगकी को िखकि ििू संचाि उद्योग
को इस ववकास का नेतत्ृ व किने का आह्वाहन ककया गया है , जबकक सेवाएाँ व अंकेक्षर् ववषयवस्तु
उत्पन्न किने वाला उद्योग यहााँ से अनसुना प्रभाव िखता है ।
द्ववतीय असभगम, सशखि-सम्मेलन प्रकिया में जजसने सवसप्रथम प्रनतद्वंदिता की, प्रवेश ककए गए नए
चिर् के मानव ववकास को बनाए िखता है जो कक अथसव्यवस्था एवं मानव गनतववधधयों में सच
ू ना,
संचाि व ज्ञान की पूवप्र
स धानता से संलक्षर्ीकृत हैं। इस आधाि-दृजष्टकोर् के अनस
ु ाि, प्रौद्योधगकी एक
संबल है जजसने प्रकिया को त्वरित ककया है ; पिन्तु यह एक तटस्थ कािर् नही है औि न ही यह
ननष्ठुि मागसिम है क्ट्यांॅे कक प्रौद्योधगकीय ववकास, दहत-लाभ के खेलों से पथप्रिसशसत होते हैं।
• सूचना व ज्ञान को कौन उत्पन्न व प्रकियाजन्वत किता है ? इसका मूल्य कैसे ककया जाता है ?
• ज्ञान कैसे फैलता व ववतरित होता है ? कौन इसके संिक्षक हैं ?
• अपने-अपने लक्ष्यो की प्राजप्त हे तु लोगों के ज्ञान के उपयोग को कौन प्रनतबंधधत व सुगसमत किता
है ? ज्ञान का लाभ प्राप्त किने हे तु कौन सबसे अच्छी व कौन सबसे बुिी जस्थनत में है ?
17
चादहए कक समाजों का कोई संिभस बहुवचन होना चादहए। यह प्रत्येक समाज के दहत के पुनः पुष्टीकिर्,
उनके ववसशष्ट ववकास प्राथसमकताओं हे तु प्रौद्योधगककयों को उपयक्ट्
ु त बनाना, एवं केवल कजल्पत पूव-स
परिभावषत सूचना समाज का अंग बनाने हे तु अनुकूसलत बनाना नही है , को भी इंधगत किता है । द्ववतीय
चिर् पुष्ट किता है कक ’’कोई परिभाषा जो समाज पि का प्रयोग किती है वल्र्ड वाइड वेब या सूचना
व संचाि प्रौद्योधगककयों से परिबद्ध वास्तववकता का वर्सन नही कि सकती, वेब नई सामाजजक
अंतःकिया परिदृश्य हो सकती है , पिन्तु यह अंतःकिया या सजम्मलन भौनतक संसाि से सयती या
अनतननयमननष्ठता से समेककत है एवं िोनों मंडल पिस्पि रूपान्तरित हैं। हमें उस समाज, जहााँ सूचना
एक सावसजननक माल है न कक वस्तु; संचाि, एक सहभागीिािी व सजम्मलन प्रकिया; ज्ञान, साझाकृत
सामाजजक ननमासर् न कक ननजी सम्पवत्त; एवं प्रौद्योधगककयााँ, स्वयं में समाप्त हुए बबना इस सभी हे तु
समथसन है ; की परियोजना का समथसन किना चादहए’’ (बचस 2005)।
वद्
ृ धधमान समाज का साितत्व परिवतसन है । सूचना एवं संचाि प्रौद्योधगककयों को परिवतसन को सुगमक
के रूप में िे खा जाता है । सच
ू ना एवं ज्ञान के चािों ओि वतसमान िांनत, गहन है । वास्तव में , सच
ू ना एवं
ज्ञान की सम्पवत्त के परितः नई वगस संिचना का सज
ृ न ककया जा िहा है । आजकल, ज्ञान हमािे जीवन
जीने के मागस का संगठक बन गया है ।
ऐनतहाससक रूप से, न्यूनाधधक रूप से यह कहना सही होगा कक ज्ञान ने सिै व मनुष्य व मानवता के
ववकास का अनस
ु िर् ककया है । इसे, समाज या मानवता की सफलता व उपलजब्धयों के मापन के प्रकाि
के रूप में िे खा गया है । कफि भी, वतसमान समाज को छोड़कि कभी भी ककसी भी समाज को ज्ञान
समाज ववननदिस ष्ट या कहा नही गया है । बीसवीं सिी के अंनतम िशकों में सच
ू ना समाज पि प्रथम बाि
प्रयोग में लाने के अपेक्षाकृत कुछ समय बाि इस पि को ववकससत ककया गया(स्टीपानोव 2005)।
इसका कािर् प्रौद्योधगकी सम्बंधी ववकास हैं। इन ववकासों ने ज्ञान को आधथसक सकियता में समेककत
की जाने वाली डडिी से उस सीमा तक मौसलकतः रूपान्तरित ककया है कक हम प्रनतस्पधासत्मक लाभ के
मूल आधाि में एक स्थानांति या बिलाव के साक्षी बन िहे हैं। ज्ञान समाज पि जजसे समय के संकेत
के रूप में नही अवपतु सामाजजक परियोजना के रूप मेॅे अधधक पहचाना जाता है , पिाथसववहीन नही है ।
1960 के िशक में औद्योधगक समाज पि वािवववाि ने यह प्रश्न उठा दिया कक क्ट्या ज्ञान आधारित
ु लेखकों ने पाँूजीवािी अथसव्यवस्था
समाज की ओि प्रनतरूप स्थानांति समझा जा सकता है । कुछ प्रमख
की मुयय संचालक बलों के रूप में श्रम व पाँज
ू ी को पिच्युत किने हे तु पहले से ही ज्ञान को मुयय
संकेतक के रूप में जान सलया था। यद्यवप, ज्ञान समाज की धािर्ा का अभ्युिय 1990 के िशक के
अंत में हुआ, एवं सूचना समाज के अकािसमक क्षेत्रों में कुछ लोगों द्वािा ववशेषतः एक ववकल्प के रूप
में प्रयोग की जा िही है । यन
ू ेस्को ने ववशेष रूप से ज्ञान समाज पि या अपनी संस्थात्मक नीनतयों के
अंतगसत इसके वैकजल्पक रूप सूचना ससमनतयों को अपनाया है । इस मुद्िे पि अत्यधधक पिावतसन िहा
है , जो कक अधधक समेककत अवधािर्ा जो केवल आधथसक आयाम सम्बंधी ही न हो, को समादहत किने
को प्रयत्नशील है । उिाहिर्ाथस-भत
ू पव
ू स सहायक ननिे शक जनिल, संचाि एवं सच
ू ना, यन
ू ेस्को डा0 ए.डब्ल्य.ू
खान सलखते हैं-’’सच
ू ना समाज, सूचना समाजों का ननमासर् खण्ड है , जब कक सच
ू ना समाज की संकल्पना
को मैं प्रौद्योधगकी नवोन्मेषन के ववचाि से सम्बद्ध िे खता हूाँ, ज्ञान ससमनतयों की संकल्पना सामाजजक,
18
सांस्कृनतक, आधथसक, िाजनीनतक व सांस्थाननक रूपान्तिर् के आयामों एवं अधधक बहुलतावािी व
ववकासात्मक परिप्रेक्ष्य को समाववष्ट किती है । ज्ञान ससमनतयों की संकल्पना, सच
ू ना समाज की अपेक्षा
विे ण्य(अधधक पसंिीिा) है क्ट्यों कक यह घदटत हो िहे परिवतसनों की गनतशीलता व जदटलता को बेहति
ढ़ं ग से ननरूवपत किती है । प्रश्नगत ज्ञान मात्र आधथसक वद्
ृ धध हे तु नही अवपतु समाज के समस्त क्षेत्रों
को सशक्ट्त बनाने व ववकससत किने हे तु महत्वपर्
ू स है ’’(सैल्ली 2005)।
’’आधथसक वजॅद्ध,
ृ ृ़ सेवायोजन हे तु एवं उत्पािन कािक के रूप में केन्रीयांश के रूप में ज्ञान द्वािा
ववद्यमान सामाजीय संिचना का रूपान्तिर्, ज्ञान समाज के रूप में उन्नत आधुननक समाज को ननदिसष्ट
किने के ननधासिक का ननमासर् किती है ’’।
’’ऐसा समाज जजसमें अपनी सम्पूर्स कियाववधध व संगठन के साथ ज्ञान एक अनत महत्वपूर्स व ननर्ासयक
भसू मका का ननवसहन किता है , नव ज्ञान हे तु प्रेिर्ा िे ता है , प्रािं भ व प्रयोग की शतों को सनु नजश्चत
किता है जो पुनः नव ज्ञान आदि को बढ़ाती हैं। अतः, समाज ज्ञान पि संिचनाबद्ध होता है , यह
साधािर्तः गहनभेिी होता है ताकक सम्पूर्स ववकास व प्रगनत सदहत समाज की पर्
ू स कायासत्मकता ज्ञान
पि ननभसि होती हैं’’(स्टीपानोव 2005)।
ज्ञान समाज में , प्रनतयोगात्मकता के पािं परिक उपायों जैसे श्रम लागत, संसाधन ववृ त्तिान एवं आधािभत
ू
संिचना को नए आयामों(संकेतक) यथा-स्वत्वाधधकाि, शोध व ववकास, ज्ञान श्रसमकों की उपलब्धता(या
वहन किने की सक्षमता), से स्थानापन्न ककया जा िहा है । ववशेष बल इस बात पि नही है कक कोई
क्ट्या ज्ञान िखता है अवपतु इस पि है कक वह क्ट्या ज्ञान उत्पन्न किता है । अपवजी रूप से ज्ञान लोगों
में ननवास किता है । अतः यह स्पष्ट है कक ककसी िाष्र या ककसी समाज की सवसश्रेष्ठ सम्पवत्त इसके
लोग हैं। यह वह
ृ ि अल्पप्रयक्ट्
ु त संसाधन है , जो ककसी िे श हे तु प्रमख
ु सफलता के अवसि प्रस्तत
ु किता
है एवं वतसमान में अनत ववकससत िे शों को पकड़ता है ।
यहााँ, ववद्यमान या उभिती वास्तववकता को संलक्षक्षत किने एवं संभाव्य समाज हेतु एक दृजष्ट, इच्छा
या कामना का पिमोद्िे श्य िखने वाली परिभाषाओं के मध्य ववभेि किना आवश्यक होगा। िोनो प्रासंधगक
हैं: पहला ववश्लेषर् योगिान हे तु एवं िस
ू िा नीनतयों का मागसिशसक होने के कािर्। प्रथम श्रेर्ी में हम
ववषय सूचना समाज पि अधधकाि िखने वाले मैन्युल केसेल्स को ववननदिसष्ट किते हैं। ज्ञान समाज के
बािे में वे संकेत किते हैंः ’’यह एक ऐसे समाज से किना है जजसमें ज्ञान उत्पन्न किने व सूचना
प्रिमर् किने हे तु शतें सच
ू ना प्रिमर्, ज्ञान सज
ृ न व सच
ू ना प्रौद्योधगककयों पि केजन्रत प्रौद्योधगकीय
िांनत द्वािा ववशाल मात्रा में परिवनतसत हुई हैं’’। केसेल्स का मत है कक सच
ू ना समाज कायस ववषय-
वस्तु(संिहर् प्रकिया, आवश्यक सूचना का प्रिमर् व संप्रेषर्) पि ववशेष बल िे ता है एवं ज्ञान समाज,
आधथसक असभकािकों जजन्हें अपना कायस ननष्पािन किने हे तु सबसे योग्य होना चादहए, पि ववशेष बल
िे ता है । दृजष्टयों के सम्बंध में , सूचना समाज पि ववश्व सशखि सम्मेलन के प्रलेख, दृष्टान्त उिाहिर्ों
की ननसमसनत इस प्रकाि किते हैं जैसे वे ववश्व प्रकिया से उभिे हों। उिािर्ाथस, नागरिक समाज उद्घोषर्ा
19
अपनी दृजष्ट को अनेक परिच्छे िों तक ववस्तत
ृ किती है पिन्तु अननवायसतः कहती है ः ’’हम उन सच
ू ना
व संचाि समाजों का ननमासर् किने को प्रनतबद्ध हैं जो जनोन्मुख, अंतव्स यापी या समावेशी व न्यायसंगत
समाज हों, जजनमें हि एक मुक्ट्त रूप से सूचना व ज्ञान को उत्पन्न, असभगम, उपयोग, साझा व ववसरित
कि सके ताकक व्यजक्ट्त, समुिाय व लोग को उनके जीवन को सुधािने एवं उनकी पूर्स ववभव या ऊजास
को प्राप्त किने हे तु सशक्ट्त ककया जा सके। तत्पश्चात, उिघोषर्ा सामाजजक, िाजनैनतक, आधथसक न्याय
के ससद्धान्तों तथा लोगों की क्षमता ननमासर् व पर्
ू स भागीिािी को भी जोड़ती हैः यह सतत ववकास,
लोकतंत्र व लैंधगक न्याय के उद्िे श्यों को प्रमख
ु ता से उद्धत
ृ किता हैः एवं उन समाजों को प्रकट किती
है जहााँ ववकास, मूल मानवाधधकाि के व्यवस्थापक के रूप में कायस किता है एवं संसाधनों के अधधक
न्यायपूर्स ववतिर् को प्राप्त किने को उन्मुख िहता है ।
ज्ञान समाज के कई घटक हैं। सवसप्रथम, सभी क्षेत्रों में नवोत्पन्न ज्ञान का वह
ृ ि परिमार् है जो ननिं ति
ववस्तत
ृ हो िहा है एवं चिघातांकी रूप से वद्
ृ धध कि िहा है । समस्त प्रकाि के प्रकाशनों को पूर्स प्रकिया
के प्रमार्ों में से एक के रूप में सजम्मसलत किते हुए सम्पूर्स गत ऐनतहाससक अवधध से लेकि ज्ञान की
चिघातांकी वद् ृ धध के बािे में सांजययकी ज्ञात हैं। ववश्व के शोधाधथसयों की कुल संयया की जस्थनत एवं
सम्पूर्स शोध क्षमता की ववगत समय से ववगत समय से तुलना की जा सकती है । न केवल साक्षि
बजल्क शैक्षक्षक लोगों की लोगों की संयया, सम्पूर्स ववश्व में अत्यधधक ववशालता से बढ़ी है । इसके सलए
हमें , पूवस में अतुलनीय व अधचंत्य सूचना, संचाि एव ॅंिलीय कायस की नई संभावनाओं को जोड़ने की
आवश्यकता है । आधुननक सूचना व संचाि प्रौद्योधगकी ने ववश्व को सभी स्तिों पि इतनी सूक्ष्मता से
सम्पककसत ककया है कक सम्पर्
ू स संसाि एक जाल बन गया है जहााँ से व्यावहारिक रूप से ककसी बबंि ु को
िस
ू िे बबंि ु से जोड़ सकते हैं। संचाि की संभावना व गनत, सूचना व ज्ञान का अंतिर्, नए ववचाि व
दृजष्टमत का अजसन, आदि के कािर् अनुभव का उल्लेख न किते हुए मैन्युल केसेल्स आज के समाज
को उधचततः संजाल समाज कहते हैं। यह सब नव ज्ञान व जागरूकता, अबाधधत प्रगनत एवं ववकास के
ववकास हे तु शतों का सज
ृ न किता है । प्रकिया इतनी गनत व आयाम से बढ़ िही है कक वे सभी जो
प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः शासमल नही हैं, अनंनतम रूप से ककनािों पि ठहि जाएाँगे। ज्ञान ककसी व्यजक्ट्त
से सम्बंधधत नही है : आज सम्पूर्त
स ा में समाज का संलक्षर् एक अंतससम्पककसत समाज है ।
परिपर्
ू स ज्ञान समाज में सभी लोग िखते हैं-
• सच
ू ना व ज्ञान का मक्ट्
ु त व समयबद्ध असभगम
• सूचना को अवशोवषत एवं ननवसधचत किने की क्षमता
• ज्ञान, ननर्सयन एवं उच्चति गुर्वत्ता जीवन रूपान्तिर् हे तु मागस एवं अवसि
ज्ञान समाज पि उपलब्ध सादहत्य का सावधानी से ववश्लेषर् किने पि यह प्रकट किता है कक ज्ञान
आधारित समाज की स्थापना स्पष्टतः वांछनीय है एवं आगामी भववष्य के परिप्रेक्ष्य से अवलोकन किने
पि यही केवल संभव समाज होगा। ’’ऐसे समाज की स्थापना एक िाजनीनतक प्रकिया है -इसमें िाजनीनतक
ननर्सयन व िाजनीनतक कृत्यों की आवश्यकता होती है । यदि कोई मानिं ड परिभावषत किे , परिमार्ात्मक
मापनों को प्रिान किने वाले संकेतक को यह संकेत किते हैं कक क्ट्या हम सही दिशा में जा िहे हैं एव
20
ॅंहमने कहााँ तक प्रगनत की है , तो ज्ञान आधारित समाज के स्थापना की प्रकिया सुगसमत होगी। वास्तव
में , प्रगनत का साि है कक परिवतसनों में व्यवस्था को सनु नजश्चत किना एवं व्यवस्था के मध्य परिवतसनों
को परििक्षक्षत किना’’(स्लाउस)।
ज्ञान आधारित समाज पि प्रथम बाि आधथसक सहयोग एवं ववकास संगठन (ओईसीडी) द्वािा प्रनतपादित
ककया गया। ओईसीडी की परिभाषा के अनस
ु ाि-’’अथसव्यवस्थाएाँ जो उत्पािन, ववतिर् एवं ज्ञान-सच
ू ना
प्रयोग पि प्रत्यक्षतः आधतृ हैं’’(ओईसीडी 1996)। एपेक ने इस ववचाि को ववस्ततृ किते हुए कहा कक
केबीई में ’’ज्ञान का उत्पािन, ववतिर् व उपयोग; समस्त उद्योगों में संवद्ृ धध, संपवत्त सज
ृ न एवं
सेवायोजन का प्रमख
ु संचालक है ’’(एपेक 2000)।
हालााँकक केबीई आिशसवत ् नवोन्मेषन, उच्चति सशक्षा, शोध व ववकास जैसी संकल्पनाओं को समादहत
किता है , यह इससे भी ववस्तत
ृ है एवं अथसव्यवस्था के सभी पक्षों में ज्ञान के महत्व को प्रमख
ु ता से
उद्धत
ृ किता है । केबीई, नव अथसव्यवस्था या आधनु नक अथसव्यवस्था के रूप में भी ववननदिस ष्ट है ।
यद्यवप, वास्तववक केबीई में केवल साधािर्तया उच्च प्रौद्योधगकी कहे जाने वाले ही नही बजल्क समस्त
क्षेत्र ज्ञान समावेशी बन गए हैं।
अंतिासष्रीय प्रांगर् में , हालााँकक केबीई के संलक्षर्ों पि बहुत चचास हो चुकी है , अभी तक केबीई के मापन
हे तु कोई अंतिासष्रीय स्वीकृत ढााँचा नही है । ववसभन्न िे शों एवं अंतिासष्रीय संगठनों द्वािा ववसभन्न ढ़ााँचे
ववकससत ककए गए हैं।
21
केबीई की कायसप्रर्ाली को पूर्त
स ः समझने हे तु पािं परिक बाजाि कािोबािी-अनुबध
ं ों से पिे घटनाओं को
अनुिेखखत किने वाली नवीन आधथसक संकल्पनाएाँ एवं उपाय आवश्यक हैं। सामायन्तः, ओईसीडी द्वािा
यह सुझाया गया है कक केबीई हे तु संशोधधत या उन्नत संकेतक ननम्नवत कायों हेतु आवश्यक हैं--
केबीई हे तु संशोधधत संकेतकों का ववकास किने हे तु ओईसीडी द्वािा संचासलत शोध का पूर्स ववविर्,
ओईसीडी प्रकाशन ’’ि नालेज बेस्ड इकोनामी 1996’’ में प्राप्त ककया जा सकता है ।
ववश्व बैंक ने हाल में ही ज्ञान मूल्यांकन कियाववधध व स्कोि काडस या अंकलेखा पत्र को ववकससत ककया
है । उन्होंने, चाि क्षेत्र जजन्हें वे ज्ञान आधत
ृ अथसव्यवस्था के ववकास हे तु अत्यावश्यक समझते हैं, हे तु
प्रनतननधध के रूप में 63 चिों के समुच्चय का सूत्रपात ककया है । वे हैं-
• उद्यसमता को पल्लववत किने हे तु एवं ववद्यमान व नवीन ज्ञान के िक्ष उपयोग हे तु प्रोत्साहन
प्रिान किने के सलए आधथसक व सांस्थननक शासनप्रर्ाली
• ज्ञान को भलीभााँनत सजृ जत, साझा व उपयोग किने हे तु सशक्षक्षत व कुशल जनसंयया
• प्रभावी संचाि एवं सच
ू ना प्रिमर् को सुगसमत किने हे तु गनतशील सच
ू ना अवसंिचना, एवं
• फमस, शोध के्िन्र, ववश्वववद्यालय व अन्य संगठनों की प्रभावी नवोन्मेषन प्रर्ाली
प्रत्येक िे श को सतत ज्ञान आधारित समाज हे तु स्वयं का मागस ववकससत किना चादहए। जब एक बाि
ऐसे समाज की स्थापना हो जाती है यह समद्
ृ धध, सामाजजक ससंजन एवं यहााँ तक कक प्रसन्नता को
भी सुननजश्चत किती है , पिन्तु इस लक्ष्य का मागस खतिों व धमककयों से मक्ट्
ु त नही है ।
ववकासशील दे श
आधथसक इनतहास के अंश के रूप में , ज्ञान यग ु उल्लेखनीय गनत से प्रकट हुआ है । परिर्नत के रूप में,
सम्पवत्त के सज
ृ न व प्रबंधन हे तु अधधकति मूल साधन, आवश्यकता से काफी पीछे िहे हैं। यह अधधकति
ृ न की आधाि सशला है । बौद्धधक पज
ववकासशील िे शों हे तु सत्य है । ज्ञान समाज में ज्ञान, सम्पवत्त सज ाँू ी
में तीन प्राथसमक प्रकाि की पाँज
ू ी हैं-मानव पाँज
ू ी, संिचनात्मक पाँज
ू ी एवं िाहक पाँज
ू ी। इनमें से मानव
पाँूजी सवासधधक महत्वपूर्स है । ववकासशील िे शों को अपनी मानव संसाधन पाँज
ू ी को मान्यता व उसे
सम्मान िे ने एवं इसे पाँूजी बना कि ज्ञान, जो कक ननधसनों हे तु कायस किता है व सामाजजक समानता को
प्रोन्नत किता है , की सम्पवत्त एकत्र किने का कायस किने की आवश्यकता है । बिले में ज्ञान की सम्पवत्त,
ववकासशील िे शों को मजबत
ू अथसव्यवस्थाओं के रूप में उभिने एवं कम कीमत श्रम, बढ़ती उत्पािकता
व आय से मक्ट्
ु त बनाने में समथस बनाएगी। अतः, क्षमता ननमासर् संबल से परू ित ज्ञान के ववकास हेतु
मागों को खोलने एवं नीनत ननयम-व्यवस्था को समथस बनाने की आवश्यकता है । ये नीनत ननयम-
व्यवस्थाएाँ, लोगों को ज्ञान की शजक्ट्त को उनकी उन्नत संवद्
ृ धध हे तु अवसि प्रिान किने के योग्य
बनाती है ।
22
स्व-जााँच अभ्यास
नोट: (क) नीचे दिए गए स्थान पि अपने उत्ति सलखखए।
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
(6) ज्ञान आधारित समाज में महत्वपूर्स ववसभन्न प्रकाि के ज्ञान की व्यायया कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
23
1.5 सािांष
यह इकाई, आधुननक समाज में पुस्तकालयों की भूसमका से शुरू होती है । इस सम्बन्ध में , आधुननक
पुस्तकालय की संकल्पना, एवं समाज व उपयोक्ट्ता समुिाय की परिवनतसत आवश्यकताओं के उपयुक्ट्त
इसकी प्रत्यासशत भूसमका की व्यायया की गई है । समाज एवं उपयोक्ट्ता समि
ु ाय पि सूचना के संप्रभाव
की व्यायया की गई है । समाज पि सूचना के संप्रभाव की संक्षेप में व्यायया की गई है । तत्पश्चात
इकाई सूचना समाज की संकल्पना, इसके उद्ववकास, ननवसचनों एवं सच
ू ना व्यवसाय पि इसके संप्रभाव
का वर्सन किती है । उिभ ्ॅ्ॅावशील ज्ञान समाज, इसके असभलक्षर्, इसका अधधष्ठान, इस प्रसंग में
समाज में घदटत परिवतसनों की सिल ढं ग से व्यायया की गई है ताकक इसे आसानी से समझा या
बोधगम्य ककया जा सके। ॅंइस बात पि ववशेष बल दिया गया है कक ज्ञानसमाज में यह अनत महत्वपूर्स
हो जाता है कक हम सच
ू ना के चयन व उपयोग से सम्बजन्धत कौशल व सक्षमताएाँ िखते हैं। कोडकृत
ज्ञान के साँभालन में आवश्यक कौशल के स्वरूप में अव्यक्ट्त ज्ञान, अननवायसतः ’’कैसे जानें’’ एवं ’’ककसे
जानें’’, अभूतपूवस रूप से अधधक महत्वपूर्स हो जाता है । मनुष्यों द्वािा आवश्यक कौशल, सूचना व संचाि
प्रौद्योधगकी के स्थानापन्न न होकि अनप
ु िू क होते हैं।
केबीई की संकल्पना, एवं इसके मूल्यांकन हे तु आवश्यक संकेतकों का, वर्सन एवं व्यायया की गई है ।
यह भी असभकधथत ककया गया है कक केबीई का कायस, मानव के अव्यक्ट्त गुर्ों, यथा-संकल्पनात्मक व
अंतवैयजक्ट्तक प्रबन्धन औि संचाि कौशल, की अद्ववतीयततः मांग किे गा। यह भी उल्लेख ककया गया
है कक प्रत्येक िे श को सतत ज्ञान-आधारित समाज हेतु स्वयं का पथ ववकससत किना चादहए। िाष्रीय
ज्ञान आयोग के संघटन में भाित सिकाि का प्रयत्न, एक सही किम है । यदि भाित सिकाि िाष्रीय
ज्ञान आयोग की संस्तुनतयों को कियाजन्वत किती है तो यह ज्ञान समाज की स्थापना, एवं भाित को
ज्ञान आधारित समाज में रूपान्तिर् को त्वरित किने हे तु सम्यक व सही परिवेश प्रिान किे गा।
(1) आाधुननक समाज ववववध आवश्यकताएाँ यथा-सशक्षा, शोध, सांस्कृनतक उन्ननत, सूचना एवं अन्य
वैचारिक लक्ष्यों, िखता है । ऐसी आवश्यकताओं की पूनतस इसने ववसभन्न संस्थानों की स्थापना की है ।
पुस्तकालय ऐसा ही एक प्रमुख संस्थान है जजससे इन आवश्यकताओं में से अधधकांश की पूनतस की आशा
की जाती है । ननश्चय ही, पुस्तकालय समाज के शैक्षक्षक (औपचारिक व अनौपचारिक िोनों) व शोध
गनतववधधयों को संबल िे ने में महत्वपूर्स भूसमका का ननवासह किती है ।
24
कि िे गी। यह दटप्पर्ी की गई है कक पुस्तकालय के वतसमान स्वरूप का िीघासवधध में कोई भववष्य नही
होगा; भौनतक कलाकृनतयों के संकलन के रूप में पुस्तकालय तेजी से अप्रचसलत होते जा िहे हैं। वास्तव
में , यह मूलभूत जस्थनत यद्यवप, अत्यंत साधािर् है । पस्
ु तकालयों के सामाजजक, सांस्कृनतक व शैक्षखर्क
कायस एवं सच
ू ना व्यवसाय को भी चुनौती िी जा िही है । अन्य शब्िों में , ज्ञान के भंडािगह
ृ एवं सांस्कृनतक
धिोहि के परििक्षक के रूप में पस्
ु तकालय, उन्नत प्रौद्योधगककयों से जननत परिवतसन के झंझावात में
फाँसे हुए हैं। अतः, एक अनुकूलन किया के रूप में , पुस्तकालय के लक्ष्यों को परिभावषत किने के प्रयास
वांनछत हैं। पुस्तकालय व्यवसाय को अपने सेवा प्रिाय िशसन एवं संचालन कियाववधधयों की पुनिीक्षा
किनी चादहए। ननजष्िय या प्रनतकियात्मक कायस-ढं ग से पूव-स सकिय कायस-ढं ग में खखसकाव हुआ है।
प्राकृनतक रूप से, यह पुस्तकालय मूल्यांकन अभ्यासों में नवीन प्रर्ासलयों व सुववधाओं का असभकल्प
व प्रोन्नयन, उपयोक्ट्ता सशक्षा कायसिम में समय का ननवेश एवं पहले से क्षेत्र में जस्थत लोगों हे तु साथसक
व्यावसानयक कौशल व सक्षमताओं का अजसन को जोड़ता है । अत्याधुननक सूचना प्रौद्योधगकी की
उपलब्धता के साथ, मूल्यवान व्यावसानयक प्रनतभाओं को गनतशील सूचना केन्र के रूप में पुस्तकालय
के उपयोक्ट्ताओं को व्यापक श्रेर्ी की सेवाओं को अवपसत किने के साथ इसकी छवव में वद्
ृ धध किने को
ननिे सशत होना चादहए। उपयोक्ट्ताओं को इस योग्य बनाने के प्रयत्न ककए जाने चादहए कक वे
पुस्तकायाध्यक्ष को ’’एक मूल्यवान व्यावसानयक संसाधन व्यजक्ट्त जो ववषय क्षेत्रों के समि ववषय-
ववन्यास में उनके बौद्धधक लक्ष्यों का समथसन किने वाले सूचना व सामिी को अनतशीघ्रता से अवजस्थत
कि सकता है ’’ के रूप में िे ख सके। िाहकों की परिवतसनशील आवश्यकताओं की पनू तस हे तु पुस्तकालयों
को अधधक िचनात्मक होना चादहए एवं अन्य पस्
ु तकालयों में उपलब्ध संसाधनों को, नेटवककांग,
इलेक्ट्राननक संसाधनों के माध्यम से उन लोगों तक पहुॅचाना या असभगसमत किाना चादहए जो गह ृ
कम्प्यूटि या टसमसनल नहीं वहन कि सकते। वास्तव में, पुस्तकालय उपयोक्ट्ताओं को मुक्ट्तशः उपलब्ध
सच
ू ना एवं मक्ट्
ु त सच
ू ना के मध्य अंति समझाया जाना चादहए।
यद्यवप, पस्
ु तकालय अननवायसतः सच ू ना व ज्ञान संभालते हैं; उभिते हुए ज्ञान समाज में उपयोक्ट्ताओं
की मांगों की परिपनू तस हे तु संस्थानात्मक कियाववधध को, कई आधनु नक सच ू ना प्रर्ासलयों एवं सेवाओं को
उधचत ढं ग से संगदठत व संचासलत कि, ववस्तत
ृ ककया जाना चादहए। आधुननक समाज की परिवतसनशील
आवश्यकताओं की परिपनू तस हे तु, उक्ट्त चधचसत पक्षों का कियान्वयन अत्यावश्यक है ।
’’सूचना समाज’’ एक अवधािर्ा है जो औद्योगीकृत समाजों का रूपान्तिर् उनमें िे खती है जजनमें अपने
सवासधधक ववस्तत
ृ व वैसभन्न रूप में ’सूचना’ मुयय संचालक बल है ।
सच
ू ना समाज के िावों को िो कािक िे खांककत किते हैं। प्रथमतः, समाज अधधकाधधक कम्प्यट
ू ि व
ििू संचाि नामतः सच
ू ना एवं संचाि प्रौद्योधगकी के असभसिर् द्वािा उपलब्ध सूक्ष्म इलेक्ट्राननक आधत
ृ
प्रौद्योधगककयों पि आधत
ृ सूचना संभालन, प्रिमर्, संिहर् एवं प्रसिर् पि केजन्रत हे ाता जा िहा है ।
25
द्ववतीयतः एक उद्भवशील व्यवसायात्मक संिचना जजसमें ’’सूचना कसमसयों’’ की श्रेर्ी प्रभुत्वपर्
ू स बन
गई है , में स्थानांति(बिलाव) प्रनतबबंबबत हो िहा है । अन्य शब्िों में , सच
ू ना समाज, प्रौद्योधगकीय व
आधथसक परिवतसनों का परिर्ाम प्रतीत होती है ।
क) औद्योधगक अथसव्यवस्था से सच
ू ना अथसव्यवस्था में स्थानांति या परिवतसन
सूचना समाज ववसभन्न आयामों से संलक्षक्षत की जा सकती है । इनमें से एक आधथसक संिचना से सम्बंध
िखती है । सूचना समाज के आधथसक ननदहताथों पि हम सादहत्य में अनेक संिभस समलते हैं।
अथसव्यवस्था में सच
ू ना की अवस्था, सामान्यतः, अथसव्यवस्था की कायसप्रर्ाली पि व्यापक प्रभाव िखती
है । यह उन क्षेत्रों पि प्रभाव िखती है जो प्रेस, टे लीववजन, िे डडयो, कफल्म, पस्
ु तकालय व अन्य सच
ू ना
आपूतक
स जैसे सूचना उत्पािक एवं सेवाएाँ प्रिान किते हैं।
माकस पोिाट, जजन्होंने इस दिशा में अनुसंधान जािी िखा, मचलुप द्वािा परिभावषत सूचना या ज्ञान क्षेत्र
के अंतगसत आने वाली सभी नौकरियों को समादहत किते हुए सचू ना कायस के ववस्ताि-क्षेत्र को ववस्तत
ृ
ककया। पोिाट के अनुसाि, सूचना गनतववधधयों में सच
ू ना माल एवं सेवाएाँ के उत्पािन, प्रिमर् एवं
ववतिर् में व्यय समस्त संसाधन समाववष्ट हैं। पोिाट ने 1967 में इन गनतववधधयों में सकल िाष्रीय
उत्पाि में 45 प्रनतशत के बिाबि अनुमान ककया।
26
5) ज्ञान समाज के असभलक्षर्
एक िशक से अधधक सामान्य सादहत्य में चधचसत सवासधधक लोकवप्रय प्रसंग यह िहा है कक प्रौद्योधगक
रूप से उन्नत अथसव्यवस्थाएाँ औद्योधगक पाँूजीवाि से आगे पिे सूचना आधत
ृ अथसव्यवस्थाएाँ, जो आधथसक
तंत्र की संिचना व रूप में गहन परिवतसन लाएगी, की ओि बढ़ िही हैं ।
ॅं आधथसक संवद्
ृ धध, सेवायोजन हे तु केन्रीय संसाधन, एवं उत्पािन के कािक के रूप में , सामाजजक
संिचनाओं के रूपान्तिर् में ज्ञान, आधुननक समाज को ’’ज्ञान समाज’’ के रूप में पिावरूढ़ या पिननदिस ष्ट
किने हे तु मुयय ननधासिक की ननसमसनत किता हैं। ककसी ज्ञान समाज में , प्रनतयोगात्मकता के पािं परिक
उपायों यथा-श्रम लागत, संसाधन ववृ त्तिान एवं अवसंिचना को हटाकि उनका स्थान नए आयामों यथा-
स्वत्वाधधकाि, शोध एवं ववकास, ज्ञान कसमसयों की उपलब्धता ने ले सलया है । ककसी परिपर्
ू स या पूर्आ
स िशस
ज्ञान समाज में सभी लोग िखेगे:
चािो प्रकाि के ज्ञान का अध्ययन एवं ससद्धध ववसभन्न मागों या माध्यमों से होती है । जबकक क्ट्या व
क्ट्यों जानें, को पस्
ु तक पाठन, व्याययानों को सुनने एवं डेटाबेस के असभगम से प्राप्त ककया जा सकता
है ; अन्य िो प्रकाि के ज्ञान प्राथसमक रूप से व्यवहारिक अनभ
ु व के मल
ू मे हैं। ’’कैसे जाने’’ को प्रारूपतः
उन परिजस्थतयों में सीखा जाएगा जहााँ एक प्रसशक्षु अपने मासलक को अनुसिर् किता है एवं उस पि
अधधकृत तौि पि ननभसि िहता है । ’’ककसे जानें’’ को सामाजजक अभ्यास एवं कभी-कभी ववशेषीकृत
शैक्षखर्क पयासविर्, में सीखा जाता है । यह िाहकों, उपसंवविाकािों एवं स्वतंत्र संस्थानों से िै ननक
व्यवहािों या बतासव से भी ववकससत होता है । यह उन कािर्ों में से एक है कक ननजी फमें क्ट्यों
मूलआधािीय अनुसंधानों में , अपनी नवोन्मेषी योग्यता हे तु ननर्ासयक, शैक्षखर्क ववशेषज्ञों के संजाल को
असभगसमत किने में व्यस्त िहती हैं। ’’ककसे जानें’’ सामाजजक रूप से समाया हुआ है जजसे सच
ू ना के
औपचारिक माध्यमों या प्रवाह-मागों से आसानी से रूपान्तरित नही ककया जा सकता।
7) हाल के वषों में , अधधकति उन्नत अथसव्यवस्थाएाँ महत्वपूर्स संिचनात्मक परिवतसनों से गुजिी हैं।
आधथसक गनतववधधयों के सभी क्षेत्रों में ज्ञान की बढ़ती महत्ता, परिवतसन के मुयय असभलक्षर्ों में से एक
27
है । ये अथसव्यवस्थाएाँ कृवष अथसव्यवस्था से ववकससत हुईं हैं जजनमें भसू म मुयय संसाधन है , तत्पश्चात
औद्योधगक अथसव्यवस्था जजसमें प्राकृनतक संसाधन व श्रम मय ु य संसाधन हैं एवं अब ज्ञान आधारित
अथसव्यवस्था जजसमें ज्ञान मुयय संसाधन है ।
8) ज्ञान लागों के मजष्तष्क में ववद्यमान होता है एवं जब इसमें पाँूजी, श्रम, ववद्यमान ज्ञान व अन्य
अंतननसवेशों को संयुक्ट्त ककया जाता है यह माल व संवाओं को उत्पन्न किता है एवं इस प्रकाि यह
उत्पािकता का कािक बन जाता है । यह त्य कई ववकससत िाष्रों द्वािा अनुभत
ू ककया गया है एवं
उन्होंने इसे ज्ञान आधत
ृ अथसव्यवस्थाओं में रूपान्तरित कि दिया है । इन ज्ञान आधारित अथसव्यवस्थाओं
में पािं परिक अपरिष्कृत सामिी एवं भौनतक श्रम(ब्रट
ू -बल अथसव्यवस्था) को मजस्तष्क-बल अथसव्यवस्था
से स्थानापन्न ककया गया है ।
ववकासशील िाष्रों को अपनी मानव संसाधन पाँूजी को मान्यता व उसे सम्मान िे ने एवं इसे पाँज
ू ी बना
कि ज्ञान, जो कक ननधसनों हे तु कायस किता है व सामाजजक समानता को प्रोन्नत किता है , की सम्पवत्त
एकत्र किने का कायस किने की आवश्यकता है । बिले में ज्ञान की सम्पवत्त, ववकासशील िे शों को मजबत
ू
अथसव्यवस्थाओं के रूप में उभिने एवं कम कीमत श्रम, बढ़ती उत्पािकता व आय से मुक्ट्त बनाने में
समथस बनाएगी। अतः, क्षमता ननमासर् संबल से पूरित ज्ञान के ववकास हे तु मागों को खोलने एवं नीनत
ननयम-व्यवस्था को समथस बनाने की आवश्यकता है । ये नीनत ननयम-व्यवस्थाएाँ, लोगों को ज्ञान की
शजक्ट्त को उनकी उन्नत संवद्
ृ धध हे तु अवसि प्रिान किने के योग्य बनाती है ।
28
1.7 मख्
ु य शब्द
सूचना अथसव्यवस्था : िशसन में , िाष्रीय अथसव्यवस्था के ननिशस का प्रयास जजसका आधाि
ज्ञान व सूचना गनतववधधयााँ औि जो महत्वपूर्स तिीके से िाष्र के
आधथसक, सामाजजक, िाजनैनतक व सांस्कृनतक जीवन को ननिे ति
प्रभाववत किता है ।
सूचना उद्योग : सूचना के ककसी भौनतक स्वरूप के उत्पािन में शासमल उद्योग
ज्ञान के प्रकाि:
(क) क्ट्या जानें ॅः इससे ववननदिस ष्ट है ’’त्यों के बािे में ज्ञान’’ यथा-दिल्ली में ककतने
लोग िहते हैं ? पैनकेक्ट्स के क्ट्या अवयव हैं ? पानीपत का युद्ध
29
कब लड़ा गया ?। यहााँ ज्ञान को सामान्यतः सूचना के समीप माना
जाता है ।
(घ) ककसे जानें ॅः इसमें ’’कौन क्ट्या जानता है ’’ एवं ’’कौन क्ट्या को कैसे किना है ,
जानता है ’’ के बािें में सूचना शासमल है । इसमें ववशेष सामाजजक
सम्बंधों, जो ववशेषज्ञ असभगम को संभव बनाते हैं एवं उनकी ज्ञान
िक्षता का उपयोग किते हैं, का ननमासर् शासमल है । इस प्रकाि का
ज्ञान ककसी अन्य प्रकाि के ज्ञान की तुलना में , ककसी संगठन हे तु
अधधक श्रेर्ी (डडिी) तक आंतरिक है । ककसी आधुननक प्रबंधक या
संगठन को इसे िखना, अनत महत्वपूर्स है ।
Bell, Daniel. The Coming of Post-Industrial Society. New York: Basic Books, 1973.
Print.
--- . “The Social Framework of Information Society”. Computer Age: A
TwentyYear View. Ed. M.L Detouzos and J Moses. Cambridge, MSS: MIT Press,
1979.163-211. Print. Brophy, Peter. The Libraries in the 21stCentury. 2nd ed.
London: Facet, 2007.Print.
30
Branscomb, A. “Law and Culture in the Information Society”. Information Society.
4.4 (1986): 279-311. Print.
. Who owns Information?: From Privacy to Public Access. New York: Basic Books,
1994. Print.
Burch, Sally. “The Information Society/ The Knowledge Society”. Word Matters:
Multicultural Perspectives on Information Societies. Ed by Alain Ambrosi. C and F
Editions, 2005. Web 26 September 2012. < http://vecam.org/ article517.html>
The Network Society: From Knowledge to Policy. Ed. Manuel Castells andGustavo
Cardos. Washington, DC: Johns Hopkins Center for Transatlantic Relations, 2005.
Print.
Cawkell, A.E. Evolution of an Information Society. London: ASLIB, 1987. Print.
Katz, R.L. Information Society: An International Perspective. New York: Praeger,
1988. Print.
Kochen, Manfred. A New Concept of Information Society. London: ASLIB, 1987.
141-154. Print.
Krings, Bettina. “The sociological perspective on the knowledge-based society:
assumptions, facts and visions”, Enterprise and Work Innovation Studies, 2, IET,
(2006): 9-19. Web 26 September 2012. <http://run.unl.pt/handle/10362/1706>
Lundvall, B and Johnson, B. “The Learning Economy”. Journal of IndustryStudies. 1.
2 (1994). Print.
Lyon, D. Information Society: Issues and Illusions. Cambridge: Polity Press, 1988.
Print.
Machlup, F. The Production and Distribution of Knowledge in the United States.
Princeton, NJ: Princeton University Press, 1962. Print.
Martin, James. The Wired Society. Englewood Cliffs, NJ: Prentice-Hall, 1978.Print.
Martin W.J. The Global Information Society. 2nd rev. ed. London: ASLIB Gower,
1995. 1-16. Print.
Masuda, Y. Information Society as a Post-industrial Society. Bethesda, Md: Future
Society, 1981. Print.
OECD. The Knowledge-Based Economy. Paris: OECD, 1996. Web 26th September
2012.
<http://www.oecd.org/science/scienceandtechnologypolicy/ 1913021.pdf>
Porat, M.U. The Information Economy: Definition and Measurement.
Washington: Department of Commerce, 1977. Print.
Ronfeldt, D. (1992). “Cyberocracy is Coming”. The Information Society.
8.4(1992): 243-296.
31
Sweeny, G.P., ed. Information and the Transformation of Society. North
Holland:Amsterdam, 1982. Print
Slaus, Ivo. “Building the Knowledge - based Society: The Case of South East
Europe”. Futures. 39.8 (2007): 986-996. Print.
Stipanov, J 2005. Knowledge Society and Public Libraries. Paper presented at the
Naple Conference, Supetar, October 6-7, 2005. Print.
Toffler, A. Powershift: Knowledge, Wealth and Violence at the Edge of 21st
Century. New York: Bantam, 1996. Print.
Umaseo, T. “Joho Sangyo Ron. [On Information Industries”.]. Chuokohron. 1963; 3-
4. Print.
Webster F. “The Information Society: Conceptions and Critique”. Encyclopaediaof
Library and Information Science. Vol.58 (21). New York: Marcell Dekker,1996. 74-
112. Print.
--- . “Knowledgeability and Democracy in an Information Age”. Library Review
48.8 (1999): 373-383. Print.
--- . Theories of the Information Society. 2nd ed. London: Routledge, 2002.
Print.
32
इकाई 2 पुस्तकालयों के प्रकाि
संिचना
2.1 प्रस्तावना
2.3 सािांश
2.5 मय
ु य शब्ि
• पस्
ु तकालयों की जदटल प्रकृनत, जजसे कई सीमाओं से संचासलत ककए जाने की आवश्यकता है , की
व्यायया किने में ;
• ववसभन्न प्रकाि के पुस्तकालय जजनका उद्ववकास एक समयावधध में हुआ है , के मूल प्रकायों की
वववेचना ;
• पुस्तकालयों को िाष्रीय, शैक्षक्षक, सावसजननक व ववशेष पुस्तकालयों में श्रेर्ीबद्ध किना ;
• इलेक्ट्राननक, डडजजदटल, आभासी एवं हाइबब्रड पुस्तकालयों की संकलपना, अथस एवं प्रकायों का
व्यायया किना ;
• समाज की एवं उपयोक्ट्ता समुिाय की परिवनतसत आवश्यकताओं की पूनतस हे तु उत्कृष्ट पुस्तकालय
स्वयं को कैसे नवीनीकृत किते हैं, की व्यायया किना ;
• समस्त पुस्तकालयाध्यक्षों के समक्ष, पािं परिक सेवा एवं साहससक नवोन्मेषन के न्यायपूर्स सजम्मश्रर्,
जो उनके पस्
ु तकालयों के भववष्य को सुिक्षक्षत किे , को प्राप्त किने की चुनौती की वववेचना किना।
33
2.1 प्रस्तावना
आधनु नक समाजों में लोगों की समस्त गनतववधधयााँ सव्ु यवजस्थत होती हैं एवं संस्थानों के माध्यम से
संचासलत होता हैं। सामाजजक संस्थान, सवससामान्य की असभलाषा से स्थावपत मानव सम्बन्ध का
समेककत प्रारूप है एवं कुछ महत्वपूर्स सामाजजक आवश्यकता की पूनतस किती है । आधुननक समाजों में
साक्षिता, वयस्क सशक्षा, औपचारिक सशक्षा, जीवन पयांत सशक्षा, स्वास््य िे खभाल एवं सच
ू ना व ज्ञान
का प्रसिर् के पक्षों में ववशेष बल दिया जा िहा है । शैक्षखर्क संस्थान ज्ञान, कौशल एवं समाज के
समााजीकिर् की प्रकिया को बढावा िे ते हैं। इनमें से कई संस्थान, औपचारिक ननयमों व परिननयमों के
ननकाय, जजनके द्वािा समाज की गनतववधधयों को संचासलत व परिननयसमत ककया जाता है , को समाववष्ट
किते हैं।
समाज, पुस्तकालय एवं इसके आधुननक सहोििों(समान-स्रोत संस्थानों) द्वािा ननसमसत संस्थानों में कई,
आधुननक समाज में उपयोक्ट्ताओं की बहु-आवश्यकताओं की पूनतस में सवासधधक प्रभावकािी िहे हैं।
19वीं सिी के मध्यावधध में , सामाजजक बल अपनी भूसमका में आए एवं पुस्तकालय के संलक्षर् में
आमल
ू चल
ू परिवतसन ककया तथा इसे अधधकाधधक सावसजननक संस्थान बनाया। औद्योधगक िांनत ने ननजी
व व्यजक्ट्तगत संस्थान को लोकतांबत्रक संस्थान में रूपान्तरित कि पुस्तकालय की संकल्पना पि
अत्यधधक संप्रभाव छोड़ा एवं लोगों को कुल समला कि लाभ पहुाँचाया। ’’पुस्तकालय ववशाल जदटल संगठन
हैं, जजन्हें कई सीमाओं के पाि संचासलत किने की आवश्यकता है , पिन्तु उनमें से कुछ ही अद्ववतीय
सेवाओं से युक्ट्त हैं। कफि भी नवीन परिजस्थतयों के अनुरूप परिवनतसत होकि एवं उनके उपयोक्ट्ताओं की
आवश्यकताओं के अनस
ु ाि ढ़लकि, वे शताजब्ियों से अजस्तत्व में बने िहे हैं। वे वहााँ, मात्र मानवता की
असभसलखखत स्मनृ त को परििक्षक्षत किने के कतसव्य हे तु नही अवपतु असभगम, उपयोग व वद्
ृ धधमान
सजृ जत सच
ू ना व ज्ञान के ववशेषज्ञता केन्र के रूप में िीघासवधध तक िहे हैं। प्रलय परिदृश्य आए औि
चले गए, कफि भी उत्कृष्ट पुस्तकालय स्वयं को नवीनीकृत कि सकते हैं। समस्त पुस्तकालयाध्यक्षों के
समक्ष, पािं परिक सेवा एवं साहससक नवोन्मेषन के न्यायपूर्स सजम्मश्रर्, जो उनके पस्
ु तकालयों के
भववष्य को सिु क्षक्षत किे , को प्राप्त किने की चन
ु ौती है ’’(ब्राफी 2007)।
फ्रांससस समक्ट्सा(2007), वतसमान में घदटत परिवतसनों को अनुमनत िे ने वाले वैचारिक आधाि की वववेचना
किने वाले पुस्तकालय का सवेक्षर् किते हैं। तिनुसाि, वे समाज में पुस्तकालय को युग ववसशष्ट
परिघटना के रूप में अवलोकन को प्रस्ताववत किते हैं एवं तत्पश्चात पुस्तकालय के ववचाि, जजसे
स्थानांतरित कि दिया गया है , सदहत आधनु नक पस्
ु तकालय के ववचाि के ववचाि को यग
ु -ववसशष्ट
परिघटना की भााँनत ही वववेचना किते हैं। बाि में , वे आधुननक पुस्तकालय के तीन प्रधान पक्षों की
समीक्षा किते हैं जजन्हें अब वतसमान परिजस्थनतयों द्वािा चुनौती िी जा िही है । समक्ट्सा अनुभव किते है
कक समसामनयक परिजस्थनत में वतसमान पस्
ु तकालय में समक्ष न्यूनतम तीन मल
ू भत
ू पक्षों की चन
ु ौती
हैं। ये पक्ष हैं-(1) सामाजजक संस्थान के रूप में पुस्तकालय के ववचाि को हम कैसे िे खते हैं ? (2)
पुस्तकालय द्वािा सेववत लक्षक्षत जनसंयया को हम कैसे िे खते है ? (3) पुस्तकालय के ववत-पोषर् के
ववचाि को हम कैसे िे खते हैं ? उपिोक्ट्त सभी पक्षों पि समक्ट्सा के ववचाि दृष्टव्य हैं एवं पुस्तकालय
व्यावसानययों द्वािा गंभीि ध्यान िे ने की योग्यता िखते हैं। वतसमान पस्
ु तकालय संकल्पना की
परिवतसनशील प्रकृनत पि गहन चचास के पश्चात समक्ट्सा ननष्कषसतः, कहते हैं कक उद्भवशील पस्
ु तकालय,
व्यजक्ट्तगत संचाि युजक्ट्तयांॅेॅं में वाससत इलेक्ट्राननक रूप में होगा एवं इस भााँनत वतसमान पुस्तकालय
34
से सभन्न होगा। इसे व्यजक्ट्तयों या व्यजक्ट्तयों के लघु-ससंजी या संसक्ट्त समूहों की आवश्यकताओं के
अनुरूप बनाया जाएगा। औि यह चयन, अजसन, संगठन एवं प्रकियाववधध व सेवाओं का असभगम जैसे
मूल प्रकायों की आवश्यकताओं की पूनतस इस भााँनत किे गा कक जैसे यह सिै व से किता िहा ह,ॅै यद्यवप
यह व्यजक्ट्तयों या व्यजक्ट्तयों के लघु समूह हे तु ही उपयुक्ट्त है जजनके हे तु ऐसे पस्
ु तकालय का सज
ृ न
ककया गया है ।
पुस्तकालय की संकल्पना जैसा कक आज हम जानते हैं परिवनतसत हो िही है इस प्रकाि इसकी समाज
में भूसमका िाहकों की परिवनतसत आवश्यकताओं द्वािा ननर्ीत की जानी चादहए, के बबन्ि ु पि ववशेष-
बल िे ने का सन्िभस, पीटि ब्राफी व फ्रांससस समक्ट्सा जैसे लेखकों को दिया जा चक
ु ा है । यद्यवप, वतसमान
में ववद्यमान पस्
ु तकालयों के ववसभन्न प्रकािों व प्रकायों का धचत्रर् आपके समक्ष किने का प्रयास ककया
गया है ।
2.2 पस्
ु तकालयों के प्रकाि
सभ्यता के व्यवसानयक, ववधधक, ऐनतहाससक एवं धासमसक असभलेखों को िखने की ऐनतहाससक शुरुआत
से लेकि, बीसवीं सिी के मध्य तक सच
ू ना संसाधनों एवं सेवाओं, यहााँ तक कक जजन्हें ननमासर् की
आवश्यकता नही होती, के ििू गामी ननकायों के रूप में उभिे हैं। कम्प्यूटि, ििू संचाि एवं अन्य
प्रौद्योधगककयों के रत
ु ववकासों ने, सूचना संिह व पुनःप्राजप्त को कई ववसभन्न रूपों में एवं कम्प्यट
ू ि व
टे लीफोन से सम्पककसत ककसी स्थान से, संभव बनाया है । डडजजटल पुस्तकालय व आभासी पुस्तकालय
पि, जो सूचना के वह
ृ ि संकलन जजसे लोग इंटिनेट-असभगम्यता से प्राप्त किते हैं से ववननदिसष्ट हैं, का
प्रयोग होना प्रािं भ हो गया है ।
यह अनभ
ु ाग में पस्
ु तकालयों का संक्षक्षप्त ववविर्, बीसवीं सिी के उत्तिाद्सध, जब िोनों प्रौद्योधगकी व
िाजनैनतक बलों ने ताककसक रूप से पुस्तकालय ववकास को पुनः आकाि दिया, पि केजन्रत किते हुए,
प्रिान ककया गया है ।
िाष्रीय पुस्तकालय की संकल्पना, कुछ शताजब्ियों पूवस से चला आ िहा, असभनव ववकास है । यह ववकास,
पाश्चात्य औद्योधगकीकृत उन्नत िाष्रों में सामाजजक-आधथसक, सांस्कृनतक व वैज्ञाननक उन्ननतयों की
ववशेषता िहा है । यद्यवप, भूतकाल में िाष्रीय पस्
ु तकालय कई िे शों में ककसी न ककसी रूप में ववद्यमान
िहे है ।ॅं िाष्रीय पुस्तकालय की संवद्
ृ धध, जैसा कक आज हम समझते हैं, यूिोप के पुनजासगिर् आंिोलन
की परिर्नत िही है । उनकी संवद्
ृ धध, ववज्ञान व प्रौद्योधगकी की उन्ननतयों एवं उद्योग, व्यापाि, यातायात
व संचाि में उनके अनुप्रयोगों द्वािा आगे त्वरित हुई है । उनके उद्िे श्य, प्रकायस व गनतववधधयााँ की चचास
कई िाष्रीय व अन्तिासष्रीय सम्मेलनों में की जा चुकी है ।
35
की संकल्पना की कोई सवसस्वीकृत परिभाषा नही है । वास्तव में , व्यापक परिभाषाएाँ भी हैं जो ननधान
संलक्षर् पि कम बलाघात िे ती हैं। यद्यवप, हम है िोल््स लाइब्रेरियन्स ग्लासिी, िे फिे न्स बुक, ए.एल.ए
ग्लासिी आॅफ लाइब्रेिी टम्र्स फाॅि ि टमस; जैसी कुछ शब्िावसलयों में जस्थत सैद्धाजन्तकयोजना की
समीक्षा किें गे।
िस
ू िी तिफ, ए.एल.ए ग्लासिी, िाष्रीय पुस्तकालय को सिल भाषा में ’’िाष्र द्वािा अनुिक्षक्षत पुस्तकालय’’
के रूप में परिभावषत किती है । यह परिभाषा, िाष्रीय बौद्धधक पैरीमोनी......के संिक्षर् व संकलन एवं
अन्य िे शों में प्रकासशत महत्वपूर्स पुस्तकों के िय का जुड़वा कायों को छोड़कि िाष्रीय पस्तकालयों
द्वािा अवपसत सेवाओं का ननजश्चत-उल्लेख या वववेचना नही किती।
36
वषस 1964 में मनीला में सम्पन्न सम्मेलन के प्रनतवेिन ’’फाइल रिपोटस आॅफ ि िीजनल सेमीनाि
आॅन दि डेवलेपमें ट आॅफ नेशनल लाइब्रेिी इन एसशया एंड पेससकफक एरिया’’ पि ध्यान िे ना िोचक
होगा, जजसके अनुसाि िाष्रीय पुस्तकालय के ननम्नवत प्रकायस हैं-
यह इंधगत ककया जा सकता है कक लाइन(1979) एवं इफ्ला(1992) के कायस का िे खाधचत्रर् किते हुए
लोि(1997) ने; धिोहि, अवसंिचना, व्यापक िाष्रीय पस्
ु तकालय सेवा की प्रिायता सम्बंधी प्रकायों की
पहचान किते हुए िाष्रीय पुस्तकालय के कायस को बत्रआयामी स्वरूप में स्थापनत ककया। इन तीनों
आयामोॅे में व्यापक िाष्रीय पस्
ु तकालय सेवा की प्रिायता, उल्लेखनीय है । इसी आयाम के अंतगसत वे
ननम्न पक्षों को ध्यान में िखते हैं:
यहााँ पि यह ववशेष बल दिया जाना चादहए कक िाष्रीय पुस्तकालय के परिप्रेक्ष्य से, माध्यम व ववषय-
वस्तु को छोड़कि ,इसके प्रकायस के पिों में िाष्रीय पस्
ु तकालय एक सांस्कृनतक केन्रीभूत बबंि ु प्रिान
किता है जो वतसमान सीमा से बाहि जाकि, सिु क्षक्षत कीगई सामिी के पिों में भत
ू काल में जबकक भावी
पीदढ़यों को मानवी ज्ञान संचरित किने हे तु भववष्यकाल में पहुाँच जाता है । यह इन भूसमकाओं को,
प्रनतननधधक असभलेखों, यद्यवप व्यापक कभी नही, के समुच्चय एकत्र किके एवं यह सुननजश्चत किके
कक वे भववष्योपयोग हे तु सव्ु यजस्थत व परििक्षक्षत हैं, परिपूरित किती है । कोई िाष्रीय पस्
ु तकालय जो
प्रनतननधधक संकलन ननमासर् में अथवा अपने स्थानयत्व को सुिक्षक्षत िखने में असफल िहता है , अपने
कतसव्य में असफल हैं’’।
वास्तव में , िाष्रीय पुस्तकालय स्वयं में यह समस्त उत्तििानयत्व नही ननवासह कि सकते औि वे प्रमुख
शैक्षक्षक व अन्य पस्
ु तकालयों से सहकािी यत्न, जो शताजब्ियों में ववकससत ववशेषज्ञताओं पि ननसमसत
होता है , द्वािा संयुक्ट्त िहते हैं।
37
भववष्य की जााँच किने पि, यह प्रतीत होता है कक प्रकासशत सच
ू ना, जजसे िाष्रीय पुस्तकालय प्रिान
किने हे तु ढ़ूंढ़ते हैं, के असभगम की व्यापकता के अधधक प्राप्त ककये जाने की प्रत्याशा, व्यजक्ट्तगत
िाष्रीय पस्
ु तकालयों की तल ु ना में सहयोगी नेटवकस से है । यह िाष्रीय प्रकासशत धिोहि के संकलन,
परििक्षर् एवं इसे नवोन्मेषी मागों से उपलब्ध किाने की ननर्ासयक भूसमका को कम नही किती।
उिाहिर्ाथस--बबंॅ्िदटश लाइब्रेिी ने प्रिसशसत ककया है कक ’’टननांग ि पेजेस’’ एवं ’’बबजजनेस एंड इंटेलेक्ट्चअ
ु ल
प्रापटी सेन्टि’’ जैसे नवोन्पेषी उत्पािों के साथ, िाष्रीय प्रकासशत स्मनृ त एवं ववस्तािर् व गहनता
असभगम के परििक्षर् के कायस को संयुक्ट्त ककया जा सकता है ।
नेशनल लाइब्रेिी सेक्ट्शन(इफ्ला) की छत्रच्छाया में , कई िाष्रीय पुस्तकालय अपने सवससामान्य कायों की
चचास किने, सवससामान्य मानकों को परिभावषत व प्रचाि-प्रसाि किने एवं अपने कतसव्यों को परिपरू ित
किने में सहायक परियोजनाओं को संचासलत किने में सहकायस किते हैं। सदृशतः, यूिोप के िाष्रीय
पुस्तकालय ’’ि यूिोवपयन लाइब्रेिी’’ में प्रनतभाग किते हैं। यह ’’ि काॅनफ्रेन्स आॅफ यूिोवपयन नेशनल
लाइब्रेरियन्स’’ की सेवा है ।
िाष्रीय पस्
ु तकालय एवं इसके प्रकायों का संक्षक्षप्त ववविर् आपको िे ने हे तु उपिोक्ट्त ववविर् इसी इकाई
में प्रिान ककया गया है ।
यह ध्यान िे ने योग्य है कक बहुत से िे शों में , िाष्रीय संसाधनों द्वािा अनुिक्षक्षत एक िाष्रीय या िाज्य
या पुस्तकालयों का समूह होता है जो सामान्य रूप से एक िाष्रीय िंथसच ू ी को प्रकासशत किने एवं
िाष्रीय िंथालयी सच
ू ना केन्र को अनिु क्षक्षत किने का उत्तििानयत्व धािर् किता है । िाष्रीय पस्
ु तकालय,
प्रमुखतः, िाष्रीय सादहत्य को संकसलत व परििक्षक्षत किने का संघषस किते हैं, यद्यवप, अपने संकलन
की ववस्ताि-सीमा को यथासंभव अंतिासष्रीय किने की कोसशश किते हैं।
पेरिस की ’’ि बबबसलयोथेक नेशनाले’’, लंिन की ’’ि बब्रदटश लाइब्रेिी’’ औि वासशंगटन.डी.सी की ’’ि
लाइब्रेिी आॅफ कांिेस’’ पाश्चात्य ववश्व के सवासधधक प्रससद्ध एवं सवासधधक महत्वपर्
ू स िाष्रीय पस्
ु तकालयों
में से हैं।
(क) संकलन
38
यहााँ इस बात पि ववशेष-बल दिया जा सकता है कक कोलकाता जस्थत भाित के िाष्रीय पुस्तकालय में
22 लाख से अधधक पस्
ु तकें व अन्य सामधियााँ हैं। यह संकलन ननम्न साधनों से ननसमसत है :
अधधकति संकलन अंिेजी व भाितीय भाषाओं में हैं, यद्यवप, कुछ पुस्तकें , कुछ वविे शी भाषाओं में हैं।
िय द्वािा अजजसत प्रकाशनों की ववस्तत
ृ श्रेखर्यााँ ननम्नवत हैं:
• ववश्व में कहीं भी प्रकासशत, ककसी भी भाषा में भाित पि सलखखत पुस्तके एवं शोध-पबत्रकाएाँ ;
• 1954 से पूवस प्रकासशत पिन्तु पुस्तकालय में अनुपलब्ध भाितीय प्रकाशन ;
• वविे शों में प्रकासशत भाितीय लेखकों की पुस्तकें ;
• मानक संिभस कृनतयााँ ; एवं
• बजट प्रावधान की सीमाओं के अंतगसत पस्
ु तकालय, प्रलेखन, सच
ू ना ववज्ञान, ववज्ञान व प्रौद्योधगकी,
सशक्षा, योजना एवं ववकास पि पुस्तकें, इनतहास व समाजशास्त्र पि मानक कृनतयााँ, प्रययात लोगों
की जीवनी, सूक्ष्म-कफल्म पि िल
ु भ
स व अमदु रत पस्
ु तकें एवं अन्य मानक कृनतयााँ।
िाष्रीय पुस्तकालय के पास कुछ उपहाि हैं जो इसके स्वासमत्व-क्ष्ॅेॅात्र को यथेष्टतः समद्
ृ ध कि िे ते
हैं। ऐसे संकलनों में सि आशत
ु ोष मख
ु ोपाध्याय का संकलन है जजसे उनके परिवाि ने उपहाि में दिया
है । यह, बीसवीं सिी के आिं सभक िशकोॅेॅं तक प्रकासशत मानववकी व ववज्ञान ववषयों की सम्पर्
ू स
श्रंख
ृ ला.......के ज्ञान को आच्छाादित किता है । वास्तव में , पुस्तकालय, सि जे.एन.सिकाि व एस.एन.सेन
जैसे इनतहासकािों के स्पह
ृ संकलनों को अपने स्वासमत्व में िखता है । सि तेज बहाििु सप्रू के पिु ालेख
एवं अन्य िल
ु भ
स पांडुसलवपयााँ, शोध ववद्वानों को अत्यंत आकवषसत किती हैं।
सम्पूर्स ववश्व में , िाष्रीय पुस्तकालय 56 िे शों के 170 संस्थानों से ववननमय सम्बंध िखता है । ऐसे
सम्बंधों के परिर्ामतः, पुस्तकालय, सामान्यतया व्यापारिक प्रवाह-मागस से अनुपलब्ध, मूल्यवान वविे शी
प्रलेखों को प्राप्त किने में समथस िहा है ।
संयक्ट्
ु त िाष्र संघ के प्रकाशनों के अनतरिक्ट्त अमेरिका, बब्रदटश, कनाडा सिकािों एवं ओ.ई.सी.डी के
प्रकाशन, भाित सिकाि से हुए किाि के अनुसाि िाष्रीय पुस्तकालय में ननक्षेवपत ककए जाते हैं। ये
प्रलेख, िाष्रीय पस्
ु तकालय की महत्ता में नया आयाम जोड़ते हैं। इन सभी प्रलेखों को, पस्
ु तकालय की
अन्य स्वासमत्व-वस्तुओं के साथ ही प्रकियाकृत, सुव्यवजस्थत कि संिक्षक-ननयसमत िाहकों को सेवापूनतस
की जाती है ।
(ख) सेवाएाँ
39
• िंथ सूची व संिभस सेवाएाँ ; एवं
• प्रनतसलवपकिर् सेवाएाँ ।
िाष्रीय पस्
ु तकालय हे तु उधाि प्रकायस काफी तक ववलक्षर् है । यद्यवप, ऐनतहाससक कािर्ों से, भाित के
िाष्रीय पुस्तकालय ने अपनी उधाि सुववधाओं को कोलकाता में एवं इसके परितः ही जािी िखा है ।
अंति-पुस्तकालयी ऋर् सवु वधाएाँ, िाष्रीय व अंतिासष्रीय िोनो स्तिों पि अन्य पस्
ु तकालयों के सहयोग
से सिस्यों एवं संस्थानों को अवपसत की जाती हैं। यह सेवा िसशयन स्टे ट लाइब्रेिी, मास्को; बब्रदटश
लाइब्रेिी, लंिन; आष्रे सलया, हं गिी, डेनमाकस व कुछ अन्य िे शों के पुस्तकालयों से पुस्तक-ऋर् प्राप्त
किता है ।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
(2) भाित के िाष्रीय पुस्तकालय द्वािा प्रस्ताववत सेवाओं की संक्षेप में वववेचना कीजजए।
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
40
हाल के वषों में , उच्च सशक्षा का बहुसंययीकिर् अधधक प्रमुखता की ओि प्रशस्त हुआ है , ज्ञानाजसन व
सशक्षर् को समथसन िे ने हे तु इसे शैक्षक्षक पुस्तकालय की भूसमका िी गई है । यूनाइटे ड ककं गडम में , िाबबन
के प्रनतवेिन(कसमटी आॅन हायि एजुकेशन, 1963) ने ससद्धान्त के प्रससद्ध वक्ट्तव्य से एक मंच की
स्थापना की कक ’’उच्च सशक्षा के अवसि उन सभी लोगों को उपलब्ध होने चादहए जजन्होंने योग्यता व
उपलजब्ध द्वािा प्रसशक्षर् पर्
ू स ककया हो एवं जो अध्ययन जािी िखने की रुधच िखते हों’’।
शैक्षक्षक पस्
ु तकालयों में परिवतसनों एवं ववकास पि सूचना व संचाि प्रौद्योधगकी पि पड़ने वाले प्रभावों को
अधधमूल्यांककत या कम किके आॅॅाँका नही ककया जा सकता। यद्यवप, इसे माना जाना चादहए कक
परिवतसन के अन्य संवाहक हैं। इनमें पुस्तकालय कसमसयों की, सशक्षर् की प्रत्यक्ष प्रिे यता में , ववशेषतः,
सूचना साक्षिताओं, उत्तििानयत्व एवं संसाधनों पि िबाव के सम्बंध में , परिर्ततः दृढ़ ननष्पािन एवं
इलेक्ट्राननक संचाि के युग में भौनतक पुस्तकालय के असभकल्प के सम्पर्
ू स प्रश्न की आवश्यकताओं के
साथ, भसू मका ननदहत है ।
शैक्षक्षक पस्
ु तकालयों के अंतगसत ववद्यालय पुस्तकालय, महाववद्यालय पुस्तकालय एवं ववश्वववद्यालय
पुस्तकालय आते हैं। इन प्रकाि के पस्
ु तकालयों में से प्रत्येक का ननष्पािन, उनके मात ृ संगठनों जजनके
वे सम्बद्ध-सिस्य हैं, के उद्िे श्यों के प्रोन्नयन हे तु महत्वपर्
ू स है ।
ववद्यालय पुस्तकालयाध्यक्ष का उत्तििानयत्व मात्र पुस्तकालय अनुिक्षर् नही है अवपतु कक्ष सशक्षर् को
पूिक व अनुपूिक बनाने वाली गनतववधधयों में शासमल होना है । उसके सलए सशक्षर् कौशल धािर् किना
आवश्यक है । ववद्यालय पस्
ु तकालयाध्यक्ष को कहानी-वाचन, पुस्तक वाचन, श्रव्य-दृश्य उपकिर्ों की
सहायता से पश-ु पक्षक्षयों के जीवन को प्रिसशसत किना आदि अन्य वांछनीय कौशलों को धािर् किना
चादहए। इनमें से अधधकति गनतववधधयों में , असभकल्प व प्रस्तुतीकिर् िोनों में , कल्पना की मांग होती
है । उसे सशक्षकों के साथ प्रनतभागात्मक उपागम ववकससत कि, सम्पर्
ू स ववद्यालय का ननष्पािन सध
ु ािने
हे तु समथसक भूसमका का ननवसहन किना चादहए।
41
• उधाि िे ना ;
• सूचना एवं संिभस सेवाएाँ ;
• मागसिशसन एवं पिामशसिायी सेवाएाँ ;
• पूवासनुमानी व अनुकियात्मक, िोनों आधाि पि पाठन सच
ू ी का ननमासर् ;
• अद्यतन घटनाओं, गनतववधधयााँ, व्यजक्ट्तत्व आदि पि सेवाएाँ ; एवं
• अन्य ननत्यचयास या नैजत्यक सेवाएाँ ।
यह इंधगत ककया जा सकता है कक भाित में ववद्यालयी पुस्तकालयों की जस्थनत, धूसमल धचत्र प्रस्तुत
किती है एवं इसमें पयासप्त सुधाि की आवश्यकता है । इस सम्बंध में , ववद्यालय पस्
ु तकालयों को जीवन
िे ने हे तु द्ववतीयक सशक्षा आयोग एवं एन.सी.ई.आि.टी के द्ववतीयक सशक्षा हे तु ववस्तरित कायसिम के
ननिे शक की अनुशंसाएाँ अनुसिर् योग्य हैं।
महाववद्यालयी सशक्षा, छात्रों को बबल्कुल सभन्न परिवेश प्रिान किता है । यहााँ सशक्ष कइस जस्थनत में
नही होते कक वे छात्रों को व्यजक्ट्तगत ध्यान िे सकें। छात्रों को स्वयं-ज्ञनाजसन पि अधधक ननभसि िहना
पड़ता है । अतः, महाववद्यालय पस्
ु तकालय, कक्ष-सशक्षर् को परू ित किने में महत्वपर्
ू स भसू मका का
ननवसहन किता है । इस अनुभाग में , उद्िे श्य प्रकायस, ननमासर् हे तु आवश्यक संकलन की प्रकृनत एवं
ववसभन्न श्रेर्ी के उपयोक्ट्ताओं को िे य सेवाओं की संक्षप
े में वववेचना किें गे।
ककसी महाववद्यालय पुस्तकालय के प्रमुख कायों को ननम्नानुसाि संक्षेप में व्यक्ट्त ककया जा सकता है :
• युवा मजस्तष्कों(लड़के व लड़ककयााँ) को, ववसभन्न अनुशासनों, की व्यापक व गहन समझ प्रिान किना
;
• ववववध अनुशासनों में छात्रों को उन्नत अध्ययनों हे तु तैयाि किना ;
• लड़के व लड़ककयों को जीवन में उच्चति उत्तििानयत्व लेने हे तु तैयाि किना ;
• पयासप्त अध्ययन सवु वधाओं को प्रिान किना ;
• अनुसंधान हे तु आवश्यक ववशेष सामिी से संकाय-अध्यापकों को परिधचत किाना ।
उपिोक्ट्त कायों को व्यवहाि में कायासन्तरित किने हे तु, महाववद्यालय पुस्तकालय को कनतपय मुयय
घटकों की आवश्यकता होती है । वे ननम्नवत हैं:
42
ननमासर् पि ववशेषज्ञों का ध्यानाकवषसत किना चादहए। इस प्रकाि अजजसत संकलन को, इसके अधधकतम
उपयोग को सुगसमत किने हे तु, प्रकियाकृत व उधचत रूप से सुव्यवजस्थत ककया जाना चादहए। ककसी
महाववद्यालय पुस्तकालय द्वािा प्रित्त महत्वपूर्स सेवाओं के अंग ननम्नानुसाि हैं:
• पाठ्यपुस्तक सेवाएाँ ;
• उधाि व अंतपस्
ुस तकालय ऋर् सेवा ;
• अध्ययन कक्ष सेवाएाँ ;
• सूचना व संिभस सेवाएाँ ;
• ववसशष्ट अनुिोध पि प्रलेखन सेवाएाँ ;
• पस्
ु तकालय की अद्यतन शोध-पबत्रकाएाँ एवं नत
ू न अजजसत सामिी का प्रिशसन ;
• पुस्तकालय प्रयोग में सहायता ;
• श्रव्य-दृश्य सेवाएाँ यथा-टे प स्लाइड प्रिशसन ; एवं
• प्रनतसलवपक सुववधाएाँ (उिािता के आधाि पि)।
ववश्वववद्यालय पस्
ु तकालय हे तु स्थायी रूपक है कक यह ’’ववश्वववद्यालय का हृिय’’ है । इस मह
ु ाविे का
बबल्कुल सही उद्गम, स्पष्ट नही है । यद्यवप, िाइम्स(1998) सझ
ु ाव िे ते हैं कक इसका प्रथम प्रयोग
ववसलयम इसलयट ने ककया था, जो 1869-1909 ई0 की अवधध में हावडस ववश्वववद्यालय, सशकागो के
अध्यक्ष िहे । बाि में , इस छवव को यूनाइटे ड ककं गडम ने ले सलया एवं ’’पैिी रिपोटस -1967’’ जैसे ववववध
प्रनतवेिनों में यह प्रकासशत हुई। इस रूपक से यह ध्वननत है कक शैक्षक्षक पस् ु तकालय की महत्ता अनुपम
है । ककसी ववश्वववद्यालय पस् ु तकालय के उद्िे श्यों एवं प्रकायस, ककसी ववश्वववद्यालय से व्यत्ु पन्न होते हैं
जो ननम्नवत हैं:
• अध्ययन व सशक्षर् ;
• शोध एवं नवीन ज्ञान का सज
ृ न ;
• शोध परिर्ामों का प्रकाशन व प्रसाि ;
• ज्ञान व ववचािों का संिक्षर् ;
• ववस्तािर् एवं सेवाएाँ।
(क) कायय
जैसा कक ऊपि कहा गया है कक ववश्वववद्यालय पुस्तकालय के प्रमुख कायस, ववश्वववद्यालय के उद्िे श्यों
से व्युत्पन्न हैं। जो ननम्नवत हैं:
43
• अध्ययन, सशक्षर्, शोध, प्रकाशन आदि व्यापक श्रेर्ी के ववषयों के संकलन का ववकास किना ;
• न सामिी के माल को सुव्यवजस्थत कि प्रयोग हे तु अनुिक्षक्षत किना ;
• ववववध पस्
ु तकालय, प्रलेखन व सूचना सेवाओं, अनुकियात्मक व पूवासनुमानी िोनों, को सुव्यवजस्थत
कि प्रिान किना।
ववश्वववद्यालय पस्
ु तकालय का उपयोक्ट्ता समुिाय, सामान्यतः, ननम्न श्रेखर्यों के अंतगसत आता है :
उक्ट्त से यह ननष्कषस ननकाला जा सकता है कक ववश्वववद्यालय पुस्तकालय महान उत्तििानयत्व िखते हैं
एवं उच्चति अध्ययन व शोध हे तु छात्रों को आकाि िे ने मात्र में ही नही अवपतु अन्य मांगों की पूनतस
हे तु ववववध सेवाओं को प्रिान किने में भी अत्यंत महत्वपर्
ू स भसू मका का ननवसहन किते हैं। इस बात पि
ववशेष-बल दिया जा सकता है कक ववश्वववद्यालय पुस्तकालय, ववश्वववद्यालय की सांववधधक ववधधयों से
शावषत होते हैं। इसी कािर्, पुस्तकालय प्रर्ाली, शैक्षक्षक व कायसकािी परिषिों की जााँच व मूल्यांकन के
अधीन िहती है । इसके प्रशासन हे तु सुननधासरित नीनत-प्रकियावसलयााँ होती हैं। मुयय पुस्तकालयाध्यक्ष,
पुस्तकालय को नीनत-ननिे शों से ही प्रबंधधत किता है । ककसी ववश्वववद्यालय पुस्तकालय के सफल
कायासन्वयन हे तु कुछ महत्वपर्
ू स ववशेषताओं पि ववचाि किते हैं जजन पि सततएवं ववशेष ध्यानाकषसर्
की आवश्यकता है ।
ववश्वववद्यालय पस्
ु तकालय से सम्बजन्धत प्रमुख क्षेत्र हैं:
• संकलन ववकास ;
• प्रकियाकिर् एवं संगठन ;
• सेवाएाँ ;
• व्यावसानयक कमी ;
• भौनतक सुववधाएाँ ;
• ववत एवं बजट।
44
ववश्वववद्यालय पुस्तकालय का प्रमख
ु उत्तििानयत्व; छात्रों, सशक्षको एवं शैक्षक्षक उद्यमों में ित अन्य
शोधाधथसयों व ववद्वानों की शैक्षक्षक आवश्यकताओं के अनुरूप, प्रलेखों के समद्
ृ ध संकलन का ननमासर्
किना है । यद्यवप, सवोत्तम संकलन की ननसमसनत का ननश्चतोल्लेख किना आसान नही है , उपयोक्ट्ताओं
की वास्तववक व संभाव्य आवश्यकताओं को समुपयुक्ट्त अंतिाल पि सनु नजश्चत किना होगा। उपयोक्ट्ता
एवं ववगत तीन िशको में ववकससत उपयोग अध्ययन तकनीककयााँ एवं ववधधयााँ, संकलन ननमासर् हे तु
कुछ वैध आधाि प्रिान किे गी। वतसमान शोध-पबत्रकाओं के अधधिहर् में उद्धिर् ववश्लेषर् के परिर्ाम
अपनाए जा िहे हैं। संकलन अवश्यमेव आवश्यकता आधारित एवं प्रनतननधधक होना चादहए। वास्तव में ,
अपने संकलन ननसमसनत की गुर्वत्ता के अनुसाि ही ववश्वववद्यालय की श्रेर्ी उच्च या ननम्न आाँकी जाती
है । व्यापक एवं संतसु लत संकलन के अधधिहर् में , बजट प्रावधान सीमाबद्धी कािक हैं। ववश्वववद्यालय
प्रबंधन के उधचत प्रबंधन मे अन्य महत्वपूर्स कािक, सामिी के वह
ृ ि स्टाॅक के सम्यक गह
ृ -िखाव से
सम्बंधधत है । सामिी उधचततः वगीकृत एवं सुव्यवजस्थत कि उपयोग की सही जगह पि अवजस्थत की
जानी चादहए ताकक कोई भी उपयोग हे तु उस तक आसानी से पहुाँच सके। मुदरत व अमुदरत िोनों प्रलेखों
की पर्
ू तस ा एवं भौनतक भंडािर्, उपयोग में सहायक होना चादहए। ववशेषतः, आधनु नक ववश्वववद्यालय
पुस्तकालयों में अबाध असभगम प्रर्ाली को व्यवहाि में लाया जाता है । प्रौद्योधगकी का अंगीकिर्,
पुस्तकायल प्रकियावसलयों की प्रभावोत्पािकता में असभवद्
ृ धध किता है ।
(ग) सेवाएाँ
ववश्वववद्यालय पुस्तकालय की प्रमुख सफलता, अपने उपयोक्ट्ताओं को इसके द्वािा अवपसत सेवाओं की
श्रेखर्यों पि ननभसि किती है। ऐसी सेवाओं की सामान्य मांग एवं ऐसी सेवाओं की पनू तस में पस्
ु तकालय
की अपसर् क्षमता के दृजष्टगत ही सेवाओं को ननयोजजत ककया जाना चादहए। प्रमुख धचंता, उपयोक्ट्ता
आवश्यकताओं एवं असभरुधचयों पि ककसी सेवा के आिं भ किने की, होनी चादहए। सेवाओं को ननम्नानुसाि
श्रेर्ीबद्ध ककया जा सकता है :
• पस्
ु तकालय सेवाएाँ:
• जागरूकता सेवाएाँ
• िंथात्मक सेवाएाँ
45
• संक्षेपर् सेवाएाँ
• अन्य सेवाएाँ
• ववशेष सेवाएाँ
पुस्तकालय सेवाओं के प्राववधाननक परिप्रेक्ष्य में रष्टव्य है कक उच्च गुर्वत्तायुक्ट्त सेवाओं के अपसर् से
सेवाएाँ समद्
ृ ध होंगी। शब्ि ’’गुर्वत्ता’’ से के बािे में मूलभूत ववचाि, जब उधचततः प्रयोग ककया जाता है
तो एक वक्ट्तव्य तक बन जाता है जब अत्यावश्यक उत्पाि-िाहक-प्रयोजन कड़ी स्थावपत हो जाती है ।
मूलभूततः, गुर्वत्ता िाहकों की इच्छाएवं आवश्यकताओं की पूनतस से सम्बंधधत है । अन्य शब्िों में ,
आवश्यकताओं, विीयताओं, कौशल व उपयोक्ट्ताओं की प्रनतकियाओं का ववविर्ात्मक ज्ञान एवं समझ;
पस्
ु तकालय के भववष्य में मल
ू भत
ू है । पस्
ु तकालय अपने उपयोक्ट्ताओं के जजतना समीप जा सकता है ,
उपयोग हे तु चयननत सेवाओं के पोटस फोसलयो में स्थान पाने की इसकी संभावना उतनी ही अधधक िहती
है । यदि पुस्तकालय यह अधधकाि प्राप्त कि सके तो वे अपने उपयोक्ट्ताओं हे तु पसंि की सेवाएाँ बन
सकती हैं। वतसमान प्रववृ त्त, व्यजक्ट्तकिर् की ओि है ।
ववश्वववद्यालय के पस्
ु तकालय कमी व्यावसानयक रूप से ससु शक्षक्षत होना चादहए। उन्हें शैक्षक्षक व
व्यावसानयक योग्यता, अनुभव एवं ववशेषज्ञता के पिों में सशक्षर् व शोध समुिाय का गुर्वत्ता का समलान
किाना चादहए। ववश्वववद्यालय के ववसभन्न स्ति के छात्रों, प्राध्यापक-वंि
ृ , शोध-ववद्वानों, कंप्यूटि व
संचाि ववशेषज्ञों, एवं प्रबंध ववशेषज्ञों से उनका सतत अंतससम्बंध या मेलजोल, उपयोक्ट्ता समि
ु ाय में
ववश्वसनीयता औि आिि सुननजश्चत किता है । यह केवल उन नवोन्मेषी उपागमों से होता है जजनके
माध्यम से उपयोक्ट्ता समुिाय पुस्तकालय व इसकी सेवाओं की ओि आकवषसत होते हैं। ववसभन्न उपयोक्ट्ता
वगस के साथ संप्रेषर् किने एवं पस्
ु तकालय द्वािा आयोजजत सेवाओं को व्यक्ट्त किने की पुस्तकालय
कसमसयों की योग्यता, अच्छे सम्बंध स्थावपत किने में पयासप्त समय तक बनी िहती हैं। पुस्तकालय
कसमसयों का आचिर्, ववश्वववद्यालय पस्
ु तकालय के संचालन में महान भसू मका का ननवसहन किता है ।
46
इस त्य से कोई इंकाि नही है कक पुस्तकालय सामिी को िखने हे तु ननयोजजत भवन के रूप उधचत
सुववधाओं एवं उन्हें कायासत्मक ढं ग से सेवा िे ना आवश्यक है जो पुस्तकालय की उपयोधगता में असभवद्
ृ धध
किता है । भावी पुस्तकालय भवन की योजना बनाने में कम्प्यट
ू ि व संचाि प्रौद्योधगकी के संप्रभाव पि
ववचाि ककया जाना चादहए। आज, अधधकति मुदरत सामिी वाखर्जज्यक रूप, सूक्ष्म व यंत्र-पठनीय रूप
में उपलब्ध हैं जो भंडािर् समस्याओं का सिलीकिर् किता है । स्थान आवश्यकताओं के सत्र
ू ीकिर् के
समय इस पक्ष को ध्यान में िखा जाना चादहए। स्थान आवंटन, परिवनतसत सच
ू ना परिवेश के अनुरूप
ही होना चादहए।
ववश्वववद्यालय पस्
ु तकालय, सामान्यतः, ववश्वववद्यालय द्वािा आवंदटत बजट को संचासलत किते हैं।
ववत्तीय आवंटन, ववसभन्न सशक्षा आयोगों के कनतपय मानिं डों एवं संस्तनु तयों पि आधत
ृ हैं। िाज ससमनत
के अनुसाि, ववश्वववद्यालय का 20 प्रनतशत बजट ववश्वववद्यालय पुस्तकालय को उपलब्ध होना चादहए।
पिन्तु यह प्रावधान, सभी ववश्वववद्यालयों द्वािा सावसभौसमक रूप से पालन नही ककया जाता। ववसभन्न
प्रकिर्ों में ववसभन्न तल
ु निं डों का अनप्र
ु योग ककया जाता है । यहााँ यह उल्लेख ककया जा सकता है कक
परिवतसनशील शैक्षखर्क प्रौद्योधगकी के परिप्रेक्ष्य मे ववश्वववद्यालय पुस्तकालय की कीमत को ध्यान में
िखना चादहए। यह ज्ञात है कक ववश्वववद्यालय अनि
ु ान आयोग ने ववषय पि कब्जा कि सलया है एवं
शीघ्र ही सच
ू ना संचाि प्रौद्योधगकी के अनुप्रयोग एवं परिवतसनशील सूचना परिवेश के परिप्रेक्ष्य में ककसी
नीनत का सत्र
ू पात ककया जा सकता है ।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाईके अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
2.2.3 सावयजतनक पस्
ु तकालय
सावसजननक पुस्तकालय गौिवशाली धिोहि िखते हैं। उन्हें अब साक्षिता के प्रोन्नायकों, सभी उम्र के लोगों
हे तु व्यापक पठनसामिी प्रिायक एवं सामुिानयक सच
ू ना सेवाओं हे तु केन्रों के रूप में सामुिानयक जीवन
के अववभाज्य अंग संस्वीकृत ककया जाता है । तथावप, यद्यवप जनता हे तु पुसतकालयों के खोलने की
प्रथा प्राचीन समय से ज्ञात है , बबना ककसी पयासप्त प्रनतवाि के यह ववचाि 19वीं सिी में स्वीकायस हुआ
कक पस्ु तकालय प्रावधान, लोकननधध पि वैध अधधभाि था। इस कायस हे तु स्थानीय अधधकारियों को ननधध
अवपसत किने में समथस बनाने हे तु ववधेयक की आवश्यकता पड़ी।
47
20वीं सिी के उत्तिाद्सध में , इस जस्थनत के ऊपि सामान्य स्वीकािोजक्ट्त थी कक सावसजननक पुस्तकालय
तीन अंतससम्पक्ट्
ृ त भसू मकाओं की परिपूनतस किता है : ये हैं-सशक्षा, सूचना एवं मनोिं जन। इसने अपने
उपयोक्ट्ताओं को अनौपचारिक अध्ययन एवं अध्ययन हे तु स्थान प्रिान किने का वचन दिया, इसने सभी
ववषयों पि सच
ू ना के सुव्यवजस्थत स्रोतों का असभगम प्रिान किना एवं इसने मनोिं जन, प्राथसमकतः
गल्प-कथा उधाि िे ने के माध्यम से, प्रिान ककया है । इन भसू मकाओं के अंतगसत, समस्त पस्
ु तकालयों
ने सभी ढं ग की सेवाओं का ववकास ककया। यद्यवप, जैसे ही यू.के. में बजटीय कटौती शरु
ु हुई, यह
प्रत्यक्षतः-प्रकट हुआ कक सावसजननक पुस्तकालय, जन औपचारिक सशक्षा एवं जनसंचाि के युग में
’’बत्रपक्षीय भसू मका’’ के वास्तववक तात्पयस को परिभावषत किने को संघषस कि िही थीं।
48
हमें यह स्पष्ट किने की आवश्यकता है कक ज्ञान समाज वह समाज नही है जजसमें ज्ञान ववशेषाधधकाि-
प्राप्त एवं चुने हुए व्यजक्ट्तयों या ववसशष्ट समूहों हे तु आिक्षक्षत िहता है , अवपतु इसका आशय है - आयु,
सशक्षा, व्यवसाय, धमस एवं समस्त समूहों की प्रनतष्ठा के भेि-भाव से िदहत सभी व्यजक्ट्तयों हे तु खुला
होना। चाँकू क ज्ञान स्वयं में सवससामान्य एवं जन-भलाई है , ऐसा ही सबके सलए आशनयत है , समान
िशाओं में इसे सभी के सलए असभगम्य होना चादहए।
अतः, प्रत्येक समाज को उन तिीकों एवं कियाववधधयों को सुननजश्चत किना चादहए ताकक प्रत्येक व्यजक्ट्त
एवं समूह को सच
ू ना, सूचना स्रोत व ज्ञान की असभगम्यता प्राप्त हो। कुछ सीमा तक, अपने िीघासवधध
ववकास कायसिम के सम्पूर्स एवं मूलभूत कायसिम के रूप में ज्ञान समाज का ननमासर् किना, प्रत्येक
िाज्य का िानयत्व है । अन्य शब्िों में , सावसजननक पस्
ु तकालयों की िक्ष कायसशीलता से सम्बंधधत प्रत्येक
वस्तु जो असभकािकों के रूप में ज्ञान व ज्ञान के स्रोतों के असभगम को सनु नजश्चत किती है , का समथसन
होना चादहए। यह असभकधथत ककया जा सकता है कक ये िानयत्व ’’वल्र्ड ससमट आॅन इन्फामेशन
सोसायटी’’ के प्रलेखों से व्युत्पन्न हैं। वस्तुतः, सूचना समाज ननमासर् पि पुस्तकालयों के एलेक्ट्जेंडड्रया
घोषर्ापत्र की संस्तुनतयों में ववशेषतः सावसजननक पुस्तकालयों के कायस व समशन पि ववशेष-बल दिया
गया है । लोकतांबत्रक प्रकिया एवं सच
ू ना व ज्ञान समाज में पस्
ु तकालयों की भसू मका को घोषर्ापत्र
ववशेष-महत्व िे ता है । यह सभी, बबना ककसी अविोध के ज्ञान, सशक्षर् एवं संचाि के मूलभूत मानवाधधकाि
पि आधत
ृ है । वस्तुतः, सावसजननक पस्
ु तकालय, अपनी सूचनात्मक आवश्यकताओं की पूनतस हे तु सशक्षा
व संस्कृनत, व्यवसाय या ज्ञान के स्ति के भेि-भाव के बबना समि
ु ाय में सबके सलए जीने व कायस किने
हे तु असभप्रेतएवं ननिे सशत हैं।
ज्ञान समाज में सावसजननक पुस्तकालयों की ववशेष भसू मकाएाँ ननम्नवत हैं:
• सशक्षा-ववशेष रूप से स्व-सशक्षा जहााँ सावसजननक पुस्तकालयों का सुिीघस एवं सफल इनतहास िहा है ,
साथ ही जीवन पयांत ज्ञानाजसन जो कक आज के संसाि में व्यजक्ट्तगत संवद्
ृ धध का अहस्तांतिर्ीय
तिीका है ।
• सूचना-सबके सलए सूचना की असभगम्यता सुननजश्चत किना; मानवाधधकािों की कायासनुभूनत हे तु एक
िानयत्व बन गया है ।
• सांस्कृनतक समद्
ृ धधकिर्-सभी के सलए सच
ू ना व ज्ञान के स्रोतों का असभगम। इसमें शासमल हैं-
साक्षिता उन्ननत जजसका तात्पयस आज सूचना साक्षिता से है , साथ ही ज्ञानाजसन की मुयय प्रकिया
के रूप में पठन की आवश्यकता की जागरूकता जजसका तात्पयस है केवल कुछ िे खना ही नही अवपतु
सूधचत होना व ज्ञानाजसन किना।
• आधथसक ववकास-सावसजननक पुस्तकालयों को पयसटन, कृवष, ववननमासर्, प्रौद्योधगकी आदि के क्षेत्रों के
मय
ु य आधथसक पक्षों के अनरू
ु प स्थानीय सच
ू ना सेवा स्वरूप के रूप में कायस किना चादहए। उपिोक्ट्त
सभी से सम्बंधधत समस्त आवश्यक सूचना एवं सांजययकी अजजसत किने हे तु सावसजननक पुस्तकालय,
सवासधधक उपयुक्ट्त स्थान भी हैं।
इस सम्बंध में , यह कहा जा सकता है कक कोई समाज, बबना उधचत संचाि प्रर्ाली के प्रभावी रूप से
कायस व प्रगनत नही कि सकता। यह ज्ञान समाजों के प्रकिर् में औि अधधक सत्य है जहााँ ज्ञान के
सूचना व स्रोतों का अंतिर् एवं असभगम्यता की प्रकिया ननिपेक्षतः अननवायस हैं। यदि हम यह त्य
स्वीकाि किें कक सावसजननक पुस्तकालय हमािे समाजों में महत्वपूर्स एवं आधािभूत भूसमका का ननवसहन
49
किते हैं, उन्हें अपने आपको इस अनुरूप बनाना एवं अपने कायासॅेॅं को इस दिशा में आगे बढ़ाना
चादहए। यह उनके ववकास के िर्नीनतक लक्ष्यों में से एक है जजसे वास्तव मे, ज्ञान समाज ननमासर् में
िाष्रीय उन्ननत की संकल्पना के अनुसाि ही होना चादहए।
भाित के िाष्रीय ज्ञान आयोग द्वािा हाल ही में भाित के सावसजननक पुस्तकालयों के ववकास को
प्राथसमकता िे ने का ननर्सय, भाितीय समाज को ज्ञान समाज में रूपान्तरित किने एवं भाितीय
अथसव्यवस्था को ज्ञान आधत
ृ समाज में परिवनतसत किने हे तु सलए गए चिर्ों में से एक है । इस प्रयत्न
की प्रशंसा आवश्यक है ।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाईके अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(5) ज्ञान समाज में सावसजननक पुस्तकालयों की ववशेष भूसमका की वववेचना कीजजए ?
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
2.2.4 ववषेष पुस्तकालय
ववशेष पुस्तकालय पि में शब्ि ’’ववशेष’’ की व्यायया ’’ववशेवषत’’ की शब्ि-संकल्पना के समीप जस्थत
है । वस्तुतः, ये वे पुस्तकालय हैं जो ववसशष्ट भूसमका का ननवसहन किने वाले ववशेषकि संस्थान की
50
सेवा किते हैं एवं इसी कािर् एक ववषयोन्मुख पस्
ु तकालय बन जाते हैं। उिाहर्तया-वे एक अस्पताल
या औद्योधगक संगठन या वैज्ञाननक संस्थान आदि की सेवा कि सकते हैं। इनकी आमाप, सेववत
संस्थान जजसकी सूचना आवश्यकताएाँ परिभावषत होती हैं, की आमाप पि अंशतः ननभसि होकि परिवनतसत
होती हैं। ववशेष पुस्तकालय जो कभी-कभी सच
ू ना केन्रों से ववननदिस ष्ट होते हैं, अंतिासष्रीय संगठनों सदहत
उपकिर्-सज्जा की बहुलता में अवजस्थत होते हैं।
• ववशेष पुस्तकालयों द्वािा, स्थानीय आवश्यकताओं में सवोपयुक्ट्त तिीकों से संिहीत संसाधनों का
संगठन ;
• सूचना एवं आाँकड़ों का ववश्लेषर्, संश्लेषर् व मूल्यांकन ;
• आलोचनात्मक पुनिीक्षा, प्रनतवेिन एवं संकलन प्रिान किना ;
• साि-संक्षेपर्, अनुिमखर्का एवं उद्धिर्-ननष्कषस प्रिान किना ;
• सादहत्यानुशीलन एवं िंथसच
ू ी संकलन ;
• अद्यतन सच
ू ना एवं एस.डी.आई (शोध संप्रेिक) का प्रसाि किना;
• ननष्पािन के मूल्यांकन हे तु अनुवीक्षर् प्रर्ाली स्थावपत किना।
ववशेष पस्
ु तकालयों के उपिोक्ट्त कायस उन्हें आवश्यकता आधत
ृ सेवाओं के प्रिान किने के संिभस में
अधधक उपयोक्ट्ता केजन्रत बनाते हैं।
(ग) सेवाएाँ
ववशेष पस्
ु तकालय अपने वपत ृ संगठन के वतसमान परिवेश में घदटत घटनाओं का पिीक्षर् कि भववष्य
का अनुमान लगाने में प्रवीर् या ससद्ध हो चक
ु े हैं। इसी कािर् वे अपने िाहकों की रुधच के अनुरूप
सामिी प्राप्त किने हे तु सच
ू ना स्रोतों का सूक्ष्मांकन किते हैं। उन्होंने सूचना प्रस्तनु तकिर् के तिीकों एवं
साधनों में ससद्धत्व प्राप्त कि सलया है । इससे उनके व्यस्त िाहकों के समय में बचत होगी। ववशेष
पस्
ु तकालय, सामान्यतः, अपने उपयोक्ट्ता समि
ु ाय को ननम्न सेवाएाँ प्रिान किते हैंः-
• सिभस सेवा;
• जागरूकता सेवाएाँ, यथा-वतसमान जागरूकता व मागस-संचिर् सेवा, न्यूजलेटि एव ॅंअन्य बुलेदटन
सेवाएाँ;
• वैयक्ट्तीकृत एवं आवश्यकतानस
ु ाि परिवनतसत सच
ू ना सेवाएाँ यथा-सच
ू ना का चयनात्मक प्रसाि सेवा;
• ववशेषीकृत सेवाएाँ यथा-सच
ू ना का समेकन व संवष्े टीकिर्; एवं
• सूचना व आाँकड़ों का ववश्लेषर्, संश्लेषर् व मल्
ू यांकन, एवं जैसे व जब आवश्यकता के अनुरूप
आलोचना प्रनतवेिनों को तैयाि किना।
51
पूवोक्ट्त पष्ृ ठों में हमने पािं परिक पुस्तकालयों की ववसभन्न श्रेखर्यों की प्रकृनत, कायस एवं प्रित्त सेवाओं
की संक्षेप में वववेचना की है । यह वववेचना आपको ववसभन्न प्रकाि के पुस्तकालयों की कायसशीलता की
उधचत समझ हे तु आवश्यक मूलभूत ज्ञान प्रिान किती है ।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(6) ववशेष पुस्तकालयों की आवश्यकता एवं अपने िाहकों को उनके द्वािा प्रस्ताववत सेवाओं की वववेचना
कीजजए।
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
2.2.5 डडजजटल पस्
ु तकालय
(क) परििाषा
डडजजटल पस्
ु तकालय पि में तीन कािको के कािर् काफी भ्रम है । प्रथम-पुस्तकालय समुिाय ने इस
संकल्पना के द्योतक के रूप में वषों से अनेक ववसभन्न पिों यथा-इलेक्ट्राननक पुरूतकालय, आभासी
पुस्तकालय, िीवाि िदहत पुस्तकालय आदि, का प्रयोग ककया है । पिन्तु यह कभी स्पष्ट नही हुआ कक
इन ववसभन्न पिों में से प्रत्येक का क्ट्या असभप्राय है । डडजजटल पस्
ु तकालय, साधािर्तः, सवासधधक व्यापी
एवं स्वीकायस पि है , एवं सम्मेलनों, आॅनलाइन सादहत्य में अब यह अनन्य रूप से प्रयुक्ट्त हो िहा है ।
52
द्ववतीय भा्िमक कािक है कक डडजजटल पस्
ु तकालय कई शोध क्षेत्रों के केन्र बबन्ि ु पि हैं, एवं डडजजटल
पुस्तकालयीय संघटन की सभन्नता इसके वर्सनकतास शोध समुिाय पि ननभसि हैं। जैसे-
अतः डडजजटल पुस्तकालयि की कायसकािी परिभाषा क्ट्या है जो पुस्तकालयाध्यक्षों हे तु अथसवान हैं ? यहााँ
यह उल्ल ्ॅेख ककया जा सकता है कक पस्
ु तकालय कायस-व्यवहाि समुिाय द्वािा प्रित्त सवासधधक वैज्ञाननक
परिभाषा ’’डडजजटल लाइब्रेिी फेडिे शन’’ द्वािा ननम्न प्रकाि िी गई है --’’ डडजजटल पस्
ु तकालय वे संगठन
हैं जो चयन किने, संिचना ननमासर्, बौद्धधक असभगम प्रस्तुत किने, ननवसचन, ववतिर्, अववभाज्यता
पिीक्षर् हे त,ु ववशेषीकृत कसमसयों सदहत, संसाधन प्रिान किते हैं, एवं डडजजटल कृनतयों के संकलनों की
समयबद्धता सनु नजश्चत किता है ताकक वे परिभावषत समि
ु ाय अथवा समि
ु ायों के समच्
ु चय को उपयोग
हे तु शीघ्रता से व आधथसक रूप से उपलब्ध हो’’। यद्यवप िोनों समुिायों, पुस्तकालयाध्यक्षों व कम्प्यट
ू ि
ववशेषज्ञ, के दहत व धचंताएाँ ववस्तत
ृ द्ववभागी परिभाषा में प्रनतबबंबबत है , जजनका उिय डडजजटल
पुस्तकालय के सामाजजक पक्षों पि शोध कायसशाला से हुआ है ः
53
में ववववध सूचना संसाधनों का ववस्ताि, असभवद्
ृ धध व समेकन है । इन सूचना संसाधनों में अन्य के
अनतरिक्ट्त पुस्तकालय, संिहालय, असभलेखागाि आदि समाववष्ट हैं। डडजजटल पुस्तकालय कक्षाओं,
कायासलय, प्रयोगशालाओं, गह
ृ व जनस्थानों सदहत अन्य सामुिानयक व्यवस्थाओं को भी ववस्तारित
कि सेवा िे ते हैं।
(ख) अभिलक्षण
(ग) सज
ृ न के मुद्दे व चुनौततयााँ
ककसी डडजजटल पुस्तकालय प्रर्ाली को िे खांककत किने वाला प्रथम मुद्िा तकनीकी वास्तुसशल्प है ।
वास्तुसशल्प में ननम्न घटक समाववष्ट हैं--
• उच्चगनतयक्ट्
ु त स्थानीय नेटवकस एवं इंटिनेट के रत
ु सम्पकसक ;
• ववववध डडजजटल प्रारूपों के समथसक तकनीकी डाटाभंडाि ;
54
• अनुिमखर्का हे तु पर्
ू पस ाठ खोजइंजन एवं संसाधन असभगम्यता प्रिान किना ;
• इलेक्ट्राननक प्रलेख प्रबंधकायस, जो डडजजटल संसाधनों के समि प्रबंधन की सहायता किें गे।
यद्यवप उपिोजल्लखखत संसाधन, ववसभन्न प्रर्ासलयों एवं ववसभन्न डाटाभंडाि में ननदहत हो सकते हैं पिन्तु
वे इस भााँनत प्रकट होते हैं मानों वे एक ववशेषकि समि
ु ाय के उपभोक्ट्ताओं की एक एकल प्रर्ाली हों।
डडजजटल पस्
ु तकालय के सज
ृ न में अत्यावश्यक मद्
ु िों में से एक डडजजटल संकलन ननमासर् है । स्पष्टतः
ककसी डडजजटल पुस्तकालय को कायसरूप ् बनाने एवं इस भााँनत वास्तववकतः उपयोगी बनाने हे तु डडजजटल
संकलन का एक न्यूनतम ननजश्चत भंडाि या िांनतक रव्यमान िखना होगा। डडजजटल पुस्तकालय ननमासर्
की ननम्नानुसाि तीन ववधधयााँ हैं--
• डडजजटलीकिर्--कागज व अन्य माध्यमों के वतसमान संकलन का डडजजटल रूप में परिववतसत किना
;
• प्रकाशकों व अन्य द्वािा िधचत मौसलक कृनतयों का अधधिहर् यथा-इलेक्ट्राननक पुस्तकें, शोध
पबत्रकाएाँ आदि;
• वेबसाइटों तक संकेतकों के माध्यम से पुस्तकालय द्वािा असंकसलत वाह्य सामिी का असभगम ।
(च) मेटाडाटा
अतएव मेटाडाटा सज
ृ न की अधधक सिल पद्धनतयााँ प्रस्ताववत की गईं हैं। ’’डजब्लन कोि’’ ऐसी ही एक
पद्धनत है जो पस्
ु तकालय सामिी के वर्सन हे तु आवश्यक केन्रीय तत्वों के ननधासिर् की एवं कोसशश
55
का एक प्रयत्न है । सूचना असभगम एवं डडजजटल पुस्तकालय प्रयोग के अन्यति अविोध, सवससामान्य
मेटाडेटा मानकों की कमी है ।
मेटाडाटा से सम्बंजन्धत अन्य महत्वपूर्स मुद्िा, डडजजटल पुस्तकालयों में नामकिर् की समस्या है ।
डडजजटल पस्
ु तकालयों को अद्ववतीय पहचान िे ने वाले नाम एवं जस्रं ग ककसी प्रलेख के मेटाडाटा के भाग
हैं। जैसे पिं पिागत पस्
ु तकालय में आई.एस.बी.एन संस्था महत्वपूर्स है , वैसे ही डडजजटल पस्
ु तकालय में
नाम महत्वपूर्स है । डडजजटल वस्तुओं को अद्ववतीय पहचान दिलाने हे तु ये आवश्यक होती है ।। ववकससत
नामकिर् प्रर्ाली, शाश्वत एवं असीसमत कालावधध तक चलने वाली होनी चादहए। इसका तात्पयस है कक
नाम को एक ववसशष्ट अवजस्थत के साथ आबद्ध नही ककया जा सकता। अद्ववतीय नाम एवं इसकी
अवजस्थनत पथ
ृ क होनी चादहए। जब कभी प्रलेखों को एक अवजस्थनत से िस
ू िी अवजस्थनत में स्थानापन्न
ककया जाए, नाम को वैध िहना चादहए। इस समस्या के समाधान हे तु 3 पद्धनतयााँ प्रस्ताववत की गई
हैं--पी.यू.आि.एल, यू.आि.एन, डी.ओ.आई (डडजजटल वस्तु पहचानकतास)।
पी.यू.आि.एल--पसससस्टे न्ट यन
ू ीफामस रिसोसस लोकेटसस, ओ.सी.एल द्वािा ववकससत पद्धनत है जो प्रलेख
नाम को इसकी अवजस्थनत से पथ
ृ क किता है , एवं इसप्रकाि इसके पाए जाने की प्रानयकता में असभवद्
ृ धध
किता है ।
(झ) प्रस्तुततकिण
डडजजटल पस्
ु तकालयों से सम्बद्ध अन्य महत्वपूर्स मुद्िा परििक्षर् है जजसका अथस है डडजजटल सच
ू ना
को उपलब्ध किाना। डडजजटल सामधियों के परििक्षर् में वास्तववक मद्
ृ िा तकनीकी अप्रचलन है । अन्य
56
शब्िों मेॅेॅं, डडजजटल सूचना परििक्षर् का तात्पयस ननिं ति आने वाले नवतकनीकी समाधानों से है ।
परििक्षर् के तीन प्रकािों को ननम्नप्रकाि से ववननदिस ष्ट ककया जा सकता है ः-
डडजजटल पुस्तकालयों स सम्बंजन्धत कई औि समस्याएाँ हैं, यद्यवप इकाई का ववस्तािक्षेत्र मुल तत्वों
तक ही सीसमत है , एवं उनकी यहााँ वववेचना नही की गई है ।
ध्यान िे ने योग्यहै कक वतसमान प्रौद्योधगककयााँ, कागज के डडजजटल प्रारूपों के अंतिर् पि केजन्रत हैं न
कक पस्
ु तकालय का डडजजटल प्रारूप में अंतिर् पि। इस प्रकाि डडजजटलीकिर् की तल
ु ना
सूक्ष्मरूप(माइिोफामस) प्रौद्योधगकी से की जा सकती है । सामान्यतः, डडजजटल अवताि सदहत पुस्तकालयों
के प्रनतस्थापन्न की तल
ु ना में डडजजटल तकससंगतता एवं पुस्तकालयों संकलनों में इसके अनुप्रयोग के
पिों में डडजजटल पुस्तकालयों की संकल्पना की वववेचना किना अधधक यथाथस है । डडजजटल तकससंगतता
एक साधन या उपकिर् बन सकता है जजसके द्वािा पुस्तकालय उपयोक्ट्ताओं को मूल्यवद्सधधत सच
ू ना
सेवाएाँ प्रिान कि सकता है । यद्यवप डडजजटल पस्
ु तकालयों पि पयासप्त सादहत्य (सेवा परिप्रेक्ष्य के व्यय
पि) संसाधनों एवं प्रौद्योधगकी पि ववशेष बल िे ता है । अनेक लेखक व शोधाधथसयों ने डडजजटल पस्
ु तकालय
परिवेश में मानव अंतससबन्धों को समझा है । यह कहा जा सकता है कक यदि डडजजटल पुस्तकालय को
वास्तव में लाभिायक बनाना हो तो डडजजटल पस्
ु तकालय प्रनतपािकों को, उपयोक्ट्ता व सेवाप्रिाताओं के
रूप में लोगों की भसू मका को समझना होगा। प्रौद्योधगकी व सूचना संसाधन स्वयं में प्रभावी डडजजटल
पुस्तकालय नही बना सकते।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
.............................................................................................................................................
21वीं शताब्िी के उभिते हुए पुस्तकालयों की अधधकति व्यायया नेटवककसत सूचना प्रौद्योधगकी के प्रयोग
के माध्यम से सूचना संसाधनों के असभवद्ृ धधत असभगम द्वािा प्रिान अवसिों पि आधारित पि आधारित
हैं। वतसमान पुस्तकालय जन, संसाधन एवं प्रकियावसलयों के अंतःच्छे िन व अंतससम्बंध का उत्पाि है ।
पस्
ु तकालय कसमसयों सदहत संिक्षक-िाहकों एवं अन्य उपभोक्ट्ताओं तक सेवाओं की प्रिे यता, पस्
ु तकालय
के संघटक सामूदहक व व्यजक्ट्तगत सूचना एवं प्रौद्योधगकी संसाधनों पि ननसमसत होते हैं। पुस्तकालय
व्यवसायी(ववशेषज्ञ) स्थानीय उपलब्ध सूचना की तुलना में ववस्तत
ृ सच
ू ना श्रेर्ी का असभगम प्रिान कि
57
एवं पुस्तकालयों में पािं परिक संसाधन सहभाधगता का समथसन कि अपने उपयोक्ट्ताओं की बेहति सेवा
किके आभासी पुस्तकालयों की व्यवहायसता एवं संभाव्यता को स्वीकाि कि िहे हैं।
’’आभासी पुस्तकालय ननम्न प्रलेखी संसाधनों की इकाइयों का चयननत सव्ु यवजस्थत संकलन है ः--
• सवसत्र ववस्तत
ृ (आकाश) ;
• सिै व असभगम्य (समय) ;
पिन्तु एलन पाॅवेल के अनुसाि ’’आभासी पुस्तकालय की कई परिभाषाएाँ हैं, जजनमें समाववष्ट हैं--एक
पस्
ु तकालय जजसमें पस्
ु तकें, समथसक, पठन-स्थल, समथसनकमी अत्यधधक कम या नगण्य हों पिन्तु जो
प्रकीखर्सत पुस्तकालयों को प्रत्यक्षतः चयननत सच
ू ना का सामान्यतः इलेक्ट्राननक प्रसाि किता है । यह
एक अधधक पािं परिक पस्
ु तकालय पुस्तकालय है जजसने अपने सूचना प्रिाय चैनलों(प्रवाह मागों) के कुछ
महत्वपूर्स अंशों को इलेक्ट्राननक संरूप में रूपान्तरित ककया है ताकक इसके कई या अधधकति िाहकों
को सवूचना प्राप्त किने हे तु पुस्तकालय भ्रमर् की आवश्यकता न पड़े। यह एक ऐसा पुस्तकालय है जो
ककसी संगठन के अंतगसत चयननत सच
ू ना प्रबंधक गनतववधधयों, जजनमें से कुछ केन्रीय हैं पिन्तु अधधकति
ववकेजन्रत कसमसयों, संसाधन, प्रर्ाली यहााँ तक कक वाह्य आपूतक
स जो संगठन में प्रकीखर्सत पिन्तु
असभगम्य हों, के अंतबांध के रूप में संचासलत होता है’’।
आभासी पस्
ु तकालय के मुयय असभलक्षर् हैं--
संचाि एवं संगर्न प्रौद्योधगककयों के असभसिर् की अनभ ु ूनत जो पािं परिक पुस्तकालय की पहुाँच व श्रेर्ी
के ववस्ताि हे तु अवसािों को प्रस्तुत किती है , आभासी पुस्तकालय की संकल्पना की स्वीकायसता, संचालन
58
को प्रेरित किती हैं। आभासी पुस्तकालय के ववचाि को वास्तववक बनाने हे तु इंटिनेट, वेब एवं डडजजटल
संकलन प्रसंग प्रिान किते हैं।
• उपयोक्ट्ता ;
• सेवाएाँ ;
• संसाधन ;
• प्रौद्योधगकी ;
• प्रबंधन ;
• नीनत ;
• ववत्तपोषर् या ननधायन।
प्रबंधन
• नीनत
• ववत्तपोषर्
संसाधन
• कमसचािीगर्
• सूचना
59
इस पि ववशेष बल दिया जा सकता है कक उपयोक्ट्ता आवश्यकताएाँ, कमसचािी व सूचना सदहत, उपलब्ध
संसाधनों पि आधारित समप
ु युक्ट्त सेवाओं को परिभावषत कि उन्हें आकाि िे ती हैं। कई ववसभन्न साधनों
के रूप में , प्रौद्योधगकी सेवाओं की प्रिे यता का समथसन किती है । वस्तुतः, प्रबंधन सेवाओं को पहचान
कि उन्हें प्राथसमकता प्रिान किता है , एवं समि नीनत ननधासिर् किता है । यह अवसंिचना, सेवाओं एवं
उनकी प्रिे यता हे तु आवश्यक अवसंिचना(संसाधन व प्रौद्योधगकी) के सलए आवश्यक ननधध का अधधिहर्
व आवंटन किता है । सेवा आधत
ृ वास्तुसशल्प न केवल आभासी पुस्तकालय के घटकों की पहचान किता
है व यह संकेत किता है कक ननधधक आवंटन कहााँ-कहााँ होना चादहए, अवपतु यह सेवा गुर्वत्ता मापधचन्हों
के ववकास की भी अनम
ु नत िे ती है । ककसी सेवा हे तु हमें सेवा के लक्ष्यों व उद्िे श्यों के संकेतोल्लेख, एवं
तत्पश्चात सेवा उपयोधगता के मूल्यांकन हे तु ननष्पािन आव्यूह को औि अंततः उपयोक्ट्ता सेवा के मूल्य
को प्रस्ताववत किने की आवश्यकता है ।
आभासी पुस्तकालय के उपयोक्ट्ताओं के ननर्सयन में , यद्यवप जनांकककीय असभलक्षर् महत्वपूर्स भूसमका
का ननवासह किते हैं, तथावप सीमाएाँ ववस्तत
ृ एवं अधधक समावेशी हो सकती हैं। सेवाओं पि संकेन्रर्
हमें ववववध उपयोक्ट्ता समूहों को प्रिान की जाने वाली सेवाओं के प्रकािों एवं स्तिों के बािे में सोचने
की अनुमनत िे ता है । ककसी समूह हे तु सेवाओं का परिभाषीकिर् हमें उपयुक्ट्त प्रौद्योधगककयों की ओि
ननिे सशत किता है । आभासी पस्
ु तकालय द्वािा प्रित्त सेवा प्रकाि ननम्न प्रकाि हैंः--
यह सेवा, उपयुक्ट्त संसाधनों के अजस्तत्व की खोज हेतु उपयोक्ट्ताओं के ववववध प्रकाि के साधन एवं
उपागम प्रिान किती है । प्रारूपतः, संसाधनों को पहचान कि चयन किने हे तु उपयोक्ट्ता मेटाडाटा पर्
ू पस ाठ
या छववयों के एक या अधधक संिहशालाओं या भंडािस्थल को ढ़ाँू ढ़ लेगा। आभासी पस्
ु तकालयों द्वािा
प्रित्त तीन प्रकाि खोज सेवाएाँ संभव हैंः--
अभिगम सेवा
जब एक बाि उपयोक्ट्ता संसाधनों का पता लगा लेता है तो यह असभगम सेवा, उपयोक्ट्ता की सूचना
का सम्बोधन किती है , अथासत उपयोक्ट्ता तक सूचना का असभगम प्रिान किती है । यह उपयोक्ट्ताओं
की भुगतान क्षमता पि ननभसि किती है ।
60
सन्दिय सेवा
सन्िभस सेवा की स्थापना हेतु सेवा की कीमत व गुर्वत्ता िोनों महत्वपूर्स शते हैं। इस सेवा हे तु उपलब्ध
सीसमत संसाधनों के साथ, पुस्तकालय को ववववध उपयोक्ट्ता समूहों की सेवा की प्राथसमकता का ध्यान
िखना चादहए।
अनद
ु े श सेवा
यह सेवा, उपयोक्ट्ताओं के सहायताथस, उपयुक्ट्त प्रसशक्षर् एवं अनुिेश गनतववधधयों पि ध्यानकेजन्रत किती
है । उपयोक्ट्ताओं को नव एवं उद्भवशील प्रौद्योधगककयों के प्रयोग को जानने की आवश्यकता होगी।
पिन्तु अधधक महत्वपूर्त
स ः उन्हें संसाधनों की उपलब्धता, कीमत एवं उनकी प्रामाखर्कता को समझने
में सहायता की आवश्यकता होती है ।
सेवाओं की उक्ट्त सच
ू ी व्यापक न होकि उद्धिर्ात्क या दृष्टांतकािी है । इन पााँच सेवाओं का असभप्राय
’’आभासी पुस्तकालय क्ट्या प्रिान कि सकते हैं’’ की वववेचना हे तु प्रस्थान बबंि ु प्रिान किता है ।
आभासी पुस्तकालय, सहयोग एवं सहयोगात्मक सेवाओं हे तु एक केन्र बबंि ु हैं। नेटवकस परिवेश में एक
धािर्ा है कक प्रर्ासलयााँ व संगठन अन्तचाससलत होते हैं। अंतचासलनीयता की परिभाषाएाँ आम ववषयसाि
या कथासाि प्रकट किती हैं-संग कायस किना, सच
ू ना ववननमय, उपयोक्ट्ता द्वािा ववशेष प्रयत्न ककए बबना
मेलसमलाप किना एवं एकसाथ प्रभावी संचालन किना। सामान्यतः, अंतचासलनीयता की ववषयवस्तु,
सूचना प्रर्ासलयों के मध्य तकनीकी अंतचासलनीयता पि केजन्रत है । अंतचासलनीयता की प्रर्ाली पि
केजन्रत परिभाषा है -’’िो या अधधक प्रर्ासलयों या घटकों की सच
ू ना ववननमय की योग्यता एवं ककसी एक
भी प्रर्ाली के बबना ववशेष प्रयत्न के ववननसमत सूचना का प्रयोग’’ द्वािा िी जा सकती है । सेवा आधारित
पुस्तकालय में उपयोक्ट्ताओे पि केजन्रत ध्यान, अंतचासलनीयता की संकल्पना को इस प्रकाि सूधचत किे
ताकक उपयोक्ट्तागर् िो या अधधक प्रर्ासलयों से अथसपर्
ू स तिीके एवं ववश्वास के साथ सूचना को सफलता
से खोज एवं पुनः प्राप्त कि सकें।
जेड 39.5 जैसे मानको का कियान्वयन प्रर्ासलयों के मध्य अंतचासलनीयता को संभव बनाता हैं। पिन्तु
अंतचासलनीय प्रर्ासलयों पि आधत
ृ ऐसी सेवाओं के कियान्वयन एवं सेवा प्रस्तुनतकिर् हे तु सूचना
असभगम व उपयोग के मद्
ु िों की समझ आवश्यक है ।
पुस्तकालयों के मध्य सहयोग, सिै व संसाधन की सहभाधगता में परिलक्षक्षत होता है । जैसे-जैसे
पुस्तकालयाध्यक्ष एवं उपयोक्ट्ताओं के शोध संसाधनों की ववस्तत
ृ एवं अधधक व्यापक श्रेर्ी का ववस्ताि
होता है , आभासी पुस्तकालयों के साथ संसाधन सहभाधगता के अवसिों में वद्
ृ धध होती है । इन पुस्तकालयों
से कई ववसभन्न समूह लाभाजन्वत हो सकते हैं। यह सुननजश्चत किने की चुनौती है कक ववववध समूह,
इन पुस्तकालयों के असभकल्प ववकास एवं शासन में सहभागी बनने का अवसि कि सकें। वस्तुतः,
पिं पिागत पस्
ु तकालय सहयोग को आगे बढ़ाने में से पस्
ु तकालय एक नवीन प्रसंग प्रस्तत
ु किते हैं।
61
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाईके अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
हाइबब्रड पुस्तकालय एक नवीन पि है जो हाल ही में पुस्तकालय एवं सूचना व्यवसाय की ववशेष वक्ट्तत्ृ व
शैली में प्रववष्ट हुआ है । कहा जाता है कक हाइबब्रड पस्
ु तकालय पि 1998 में किस रूस बब्रज द्वािा डी-
सलब मैगजीन में उनके प्रकासशत लेख में प्रथम बाि चलन में आया।
हाईबब्रड पुस्तकालय पुस्तकालयाध्यक्षों द्वािा प्रयुक्ट्त पि है जो पिं पिागत मुदरत संसाधन एवं इलेक्ट्राननक
संसाधनों की बढ़ती संयया के समश्रर् का वर्सन किती है । अन्य शब्िों में , हाईबब्रड पुस्तकालय पिं पिागत
मदु रत सामिी यथा-पस्
ु तकें, पबत्रकाएाँ एवं इलेक्ट्राननक आधत
ृ सामिी जैसे-डाउनलोड किने योग्य श्रव्ृ य
पुस्तकें, ई-पुस्तकें व इलेक्ट्राननक शोध पबत्रकाएाँ इत्यादि, का समश्रर् हैं। हाईबब्रड पुस्तकालय के प्रबंधन
से सम्बद्ध प्रमख
ु चुनौनतयााँ हैं--ववववध प्रकाि के संरूपों एवं अनेक स्थानीय व ििू स्थ स्रोतों से सीवनिदहत
या ननबासध समेककत रूप में अंनतम उपयोक्ट्ता हे तु संसाधन खोज व सच
ू ना उपयोग को प्रोत्यादहत किने
की है ।
हाईबब्रड पुस्तकालय का उद्ववकास 1990 के िशक में हुआ जब जनता के उपयोगाथस इलेक्ट्राननक
संसाधनों का अधधिहर् आसानी से उपलब्ध हुआ।
प्रािं भ में , प्रारूपतः, सीडीिोम जैसी मीडडया पि ववतरित सामिी अथवा ववशेष डाटाबेस के खोजकतासओं
का असभगम हुआ। सहभागी पस् ु तकालयों हे तु केन्रीकृत प्रौद्योधगकी संस्थान प्रिान कि ओ.सी.एल.सी
ने पुस्तकालयों को डडजजटल संसाधन अधधिहर् की ओि धकेला है । अब अडजजटल ववषयवस्तु की
62
व्यापक उपलब्धता के साथ यह इंटिनेट संसाधनों एवं आनलाइन प्रलेखों यथा-ई वप्रंट, इसको समाववष्ट
किता है ।
हाईबब्रड पुस्तकालय को कायसशील पुस्तकालय के प्रसंग में ववसभन्न स्रोतों से प्रौद्योधगककयों की श्रेर्ी को
एक साथ लाकि एवं इलेक्ट्राननक व मुदरत परिवेशों िोनों में समेककत प्रर्ासलयों व सेवाओं की गवेषर्ा
के साथ असभकजल्पत की जानी चादहए, (किस रूस बब्रज 1998)। हाईबब्रड पुस्तकालय को तब पिं पिागत
पुस्तकालय एवं डडजजटल पस्
ु तकालय के मध्य बेचैन रूपान्तिर् अवस्था के रूप ् से अधधक नही अवपतु
स्वयं के अधधकाि के साथसक माॅडल के रूप ् में िे खा जाना चादहए। ध्यानाकषसर् ककया जा सकता है
कक इस प्रकाि के पस्
ु तकालय हे तु अन्य पिबंध दिए गए हैं। यथा-’’प्रवेशद्वाि पुस्तकालय’’ की संकल्पना
समान ववचाि का वर्सन किती प्रतीत होती है । वो ’’वास्तववक ववश्व’’ की परिस्थनत को का वर्सन किते
हैं जहााँ पुस्तकालय न केवल ववसभन्न माध्यमों की श्रेर्ी तक असभगम प्रिान किते हैं अवपतु महानपत
समेकन के आिशस को भी असभव्यक्ट्त किते हैं। हाईबब्रड पुस्तकालयों को, उपयोक्ट्ताओं द्वािा डडजजटल
युग में उपलब्ध सच
ू ना की ववशाल िासश के ननपुर्तापव
ू क
स संचालन में सहायक, प्रसशक्षक्षत कसमसयों की
आवश्यकता होती है । कमसचारियों को इलेक्ट्राननक मीडडया संभालन एवं पिं पिागत मदु रत रूपों में ववशेषज्ञ
व प्रसशक्षक्षत होना चादहए।
हाईबब्रड पुस्तकालय के समक्ष कुछ मुद्िे हैं। डडजजटल ववभाजन, अंतचासलनीयता, संकलन ववकास,
इलेक्ट्राननक संसाधनों का स्वासमत्व एवं डडजजटल माध्यमों का परििक्षर्।
डडजजटल ववभाजन पि सच
ू ना प्रौद्योधगकी ज्ञानधािकों व सच
ू ना प्रौद्योधगकीज्ञान अधािकों के मध्य
रिजक्ट्त का वर्सन किने में प्रयुक्ट्त होता है । सामान्यतः, अंतचासलनीयता की संकल्पना सूचना प्रर्ासलयों
की तकनीकी अंतचासलनीयता पि केजन्रत है । यथा- अंतचासलनीयता की प्रर्ाली पि केजन्रत परिभाषा है -
’’िो या अधधक प्रर्ासलयों या घटकों की सच
ू ना ववननमय की योग्यता एवं ककसी एक भी प्रर्ाली के
बबना ववशेष प्रयत्न के ववननसमत सूचना का प्रयोग’’ द्वािा िी जा सकती है । हाईबब्रड पुस्तकालय ववसभन्न
संसाधनों को ववसभन्न संरूपों में िय-आवेदित एवं स्वासमत्व िहर् किते हैं। कुछ आम संरूप हैं--ई
शोधपबत्रका, िसमक, मुदरत मोनोिाफ, सीडी व डीवीडी। डडजजटल पुस्तकालय कायसढ़ााँचा के प्रमुख घटक
हैं-उपयोक्ट्ता अंतमख
ुस , संिहशाला या भडािगह
ृ , हस्तचालन प्रर्ाली व खोज प्रर्ाली प्रमुख घटक हैं जजन्हें
ववसभन्न वविेताओं के स्वासमत्व वाले ववसभन्न संिहशालाओं में अनश
ु ीलक अंतचासलनीय ववशेषताओं के
साथ असभकजल्पत ककया जाना चादहए कक यह पुस्तकालय उपयोक्ट्ताओं को समस्त संिहशालाओं में
खोज किने हे त,ु सवससामान्य ज्ञान ववकससत किने में सहायक हों।
यह हाईबब्रड पस्
ु तकालय के समस्यात्मक पक्षों में से एक है । इलेक्ट्राननक सामिी का स्वासमत्व भौनतक
नही अवपतु आभासी है ।यदि एक बाि िाहक चंिा ननिस्त या समाप्त हो जाता है तो इलेक्ट्राननक
63
सामधियों के बािे में काई स्पष्ट नीनत नही है । हाईबब्रड पुस्तकालयों को डाटाबेस वविेताओं के ववधधक
अनुबंधों पि ध्यान िे ना होगा। हाईबब्रड पुस्तकालय द्वािा इलेक्ट्राननक संसाधनों के असभलेखागाि बनाने
की योजना में सम्बद्ध ववधधक मुद्िें भी हैं। सावसधधक महत्पूर्स मद्
ु िे बौद्धधक संपिा एवं डडजजटल
सूचना की प्रामााखर्कता है ।
डडजजटल पस्
ु तकालय को लागत प्रभावी बनाने हे तु ववसभन्न मीडडया संरूपों का मानकीकिर् आवश्यक
है । समस्या के तीन संभाववत उपागम हैं।
• प्रौद्योधगकी परििक्षर्
• प्रनतस्पधीकिर्
• आव्रजन
प्रौद्योधगकी परििक्षर् ववधध में , डडजजटल सूचना से सम्बद्ध साफ्टवेयि व हाडसवेयि िोनों का परििक्षर्
ककया जाता है । यह भले ही लागत प्रभावी न हो क्ट्योंकक हाडसवेयि परिवतसनों एवं साफ् अवेयि के ववसभन्न
संस्किर्ों को या तो अनिु क्षर् किने अथवा ननिं ति उच्चस्तिीकिर् की आवश्यकता है । प्रनतस्पधीकिर्
में कुछ प्रनतस्पधी साफ्टवेयि प्रोिाम मौसलक डाटा के हाडसवेयि व साफ्टवेयि की नकल कि मौसलक
संरूप में प्रिसशसत किते हैं।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
2.3 सािांष
ज्ञान के परििक्षर् में असभरुधच िखने वाले व्यजक्ट्तयों एवं समुिायों हे तु पुस्तकालय महत्वपूर्स संसाधन
हैं। उनका महत्व, ववसभनन प्रकाि के मीडडया का प्रयोग कि, ववसभन्न प्रसंगों की श्रेर्ी के अंतगसत मानव
उद्यम व असभलेखों के अनुिक्षर् की उनकी योग्यता से उद्भूत है । अतः पुस्तकालय भववष्य में महत्वपूर्स
सामाजजक, सांस्कृनतक, तकनीकी एवं सशक्षर् शैली की भसू मका का सतत ननवसहन किें गे।स्पष्टतः, नव
सूचना भंडाि की आवश्यकताओं, प्रिे यता प्रौद्योधगककयों एवं इनके द्वािा सुलभ बनाए गए जनकायों को
समंजजत किने हे तु पस्
ु तकालय संकल्पना में कुछ परिवतसन आवश्यक होंगे।
यह इकाई ववसभन्न प्रकाि के पुस्तकालय, उनके असभलक्षर् कायस एवं सेवाओं की वववेचना किती है ।
यह इकाई पािं परिक पस्
ु तकालयों से प्रािं भ होती है । इस सम्बंध में िाष्रीय पस्
ु तकालय, शैक्षखर्क
64
पुस्तकालय, सावसजननक एव ववशेष पुस्तकालयों का वर्सन कि उनके कायों व सेवाओं की व्यायया की
गई है । समि वववेचना, नेटवकस सूचना प्रौद्योधगकी के प्रयोग द्वािा सूचना संसाधनों के असभवद्
ृ धधत
असभगम द्वािा प्रवनतसत अवसिों पि आधारित उद्भवशील 21वीं सिी के पुस्तकालयों की भूसमका पि
केजन्रत हैं। वस्तुतः ववद्यमान पुस्तकालय जनसंसाधन व प्रकियावली के अंतच्र्छे ि एवं अंतसम्बंन्ध का
उत्पाि है । संचाि एवं संगर्न प्रौद्योधगककयों के असभसिर् की अनभ
ु नू त जो पािं परिक पस्
ु तकालय की
पहुाँच व श्रेर्ी के ववस्ताि हे तु अवसिों को प्रस्तुत किती है , डडजजटल, आभासी व हाइबब्रड पुस्तकालय
की संकल्पना की स्वीकायसता, संचालन को प्रेरित किती हैं। अतः इस इकाई का पश्चातवती भाग
डडजजटल, आभासी व हाइबब्रड पुस्तकालय की चचास पि समवपसत है । डडजजटल, आभासी व हाइबब्रड
पुस्तकालय का यथाथस उपागम प्रौद्योधगकी के स्थान पि सेवाओं पि केजन्रत है । उद्भवशील पुस्तकालय
की िचना हे तु सेवा आधारित वास्तुसशल्प, ताककसकतः एक प्रािं भ बबंि ु है , क्ट्योकक पुस्तकालय स्वयं की
प्रकृनत में प्राथसमकतः एक सेवा संस्थान है । ध्यातव्य है कक अधधक सच
ू ना के रत
ु गामी असभगम पि
साधािण्र केन्रर्, सामान्यतः, केवल सूचना के अंनतम उपयोक्ट्ता को ध्यान में िखता है , जबकक सेवा
आधत
ृ वास्तसु शल्प पस्
ु तकालय कसमसयों एवं उपयोक्ट्तागर् की भसू मका व उत्तििानयत्वों को सम्बोधधत कि
सकता है । अतः डडजजटल, आभासी व हाइबब्रड पुस्तकालयों के असभकल्प, ववकास व प्रबंधन की वववेचना
में इसी उपागम पि ववशेष-बल दिया गया है ।
(1) 1964 में मनीला में सम्पन्न ’’ि फाइनल रिपोटस आॅफ ि िीजनल सेसमनाि आॅन ि डेवलपमेंट
आॅफ नेशनल लाइब्रेिी इन एसशया एंड पैससकफक’’ के अंनतम प्रनतवेिन के अनुसाि िाष्रीय पुस्तकालय
के ननम्न कायस हैं--
ववश्व के कुछ महत्वपूर्स पुस्तकालयों में अपनाई जाने वाली प्रथाओं को ध्यान में िखते हुए अधोजल्लखखत
सवु वधाजनक समह ू ों के अंतगसत हम उद्िे श्यों एवं कायों का अध्ययन कि सकते हैं।
उल्लेखनीय है कक भाित में िाष्रीय िंथसूची का प्रकाशन, िाष्रीय पूस्तकालय परिसि में अवजस्थत
केन्रीय संिभस पुस्तकालय, वेल्वेडेयि, कोलकाता द्वािा ककया जाता है ।
65
• अंति-पुस्तकालयी ऋर् सदहत उधाि सेवा ;
• पठन-पाठन सुववधाएाँ ;
• िंथ सूची व संिभस सेवाएाँ ; एवं
• प्रनतसलवपकिर् सेवाएाँ ।
• अध्ययन, सशक्षर्, शोध, प्रकाशन आदि व्यापक श्रेर्ी के ववषयों के संकलन का ववकास किना ;
• ज्ञान सामिी के माल को सुव्यवजस्थत कि प्रयोग हे तु अनुिक्षक्षत किना ;
• ववववध पस्
ु तकालय, प्रलेखन व सूचना सेवाओं, अनुकियात्मक व पूवासनुमानी िोनों, को सुव्यवजस्थत
कि प्रिान किना।
ववश्वववद्यालय पस्
ु तकालय, महाववद्यालय पस्
ु तकालयों से शोध, ज्ञान, ववचाि, संिक्षर् एवं शोध परिर्ामों
का प्रकाशन जैसे कायों में ववसशष्टतः पथ
ृ क हैं। इसी कािर् ववश्वववद्यालय पुस्तकालय के संकलन,
ववसभन्न गह
ृ सज्जा संचालन सेवाएाँ महाववद्याालय पुस्तकालयों से सभन्न होगे। इन कायों के ननष्पािन
हे तु आवश्यक कसमसयों की सक्षमता उच्च होनी चादहए एवं इस हे तु छात्रववृ त्त, प्रभावी संप्रेषर् कौशल व
नवोन्मेषर् योग्यता आवश्यक है ।
(5) सावसजननक पुस्तकालय कनतपय समुिाय में िहने वाले एवं कायसित सभी आयु(बालक से वरिष्ठजन),
सभी समूहों(सामाजजक, िाष्रीय व धासमसक) के लोगों से ननदिस ष्ट हैं, जो उनके सशक्षा, संस्कृनत, व्यवसाय
या ज्ञानस्ति की पिवाह न किते हुए उनकी सांस्कृनतक व सूचना आवश्यकताओं की पूनतस का आशय
िखते हैं।
66
• आधथसक ववकास-सावसजननक पुस्तकालयों को क्षेत्र के मुयय आधथसक पक्षों के अनुसाि, स्थानीय आधथसक
सूचना सेवा के रूप की भााँनत कायस किना चादहए।
ववशेष पस्
ु तकालय अपने वपत ृ संगठन के वतसमान परिवेश में घदटत घटनाओं का पिीक्षर् कि भववष्य
का अनम
ु ान लगाने में प्रवीर् या ससद्ध हो चक
ु े हैं। इसी कािर् वे अपने िाहकों की रुधच के अनरू
ु प
सामिी प्राप्त किने हे तु सच
ू ना स्रोतों का सूक्ष्मांकन किते हैं। उन्होंने सूचना प्रस्तनु तकिर् के तिीकों एवं
साधनों में ससद्धत्व प्राप्त कि सलया है । इससे उनके व्यस्त िाहकों के समय में बचत होगी। ववशेष
पुस्तकालय, सामान्यतः, अपने उपयोक्ट्ता समि
ु ाय को ननम्न सेवाएाँ प्रिान किते हैंः-
सन्िभस सेवा
67
सूचना ववज्ञान पि अधधकांशतः आधारित व्यवहाि-अभ्यास या व्यवहायस-प्रयोग समुिाय अंनतम उपयोक्ट्ता
वर्सिम के अनुप्रयोगों पि केजन्रत वास्तववक जीवन के आधथसक-सांस्थाननक प्रसंगों, प्रनतबबंबों व
संभावनाओं के उपयोगी ववकासात्मक व संचालनात्मक प्रश्न पूछता है ।
तथावप, इस बात पि ववशेष बल दिया जा सकता है कक डडजजटल पुस्तकालय सूचना प्रबंधन साधनों
सदहत डडजजटलीकृत संकलन मात्र नही हैं। यह उन गनतववधधयों की एक िम श्रंख
ृ ला है जो सज
ृ न,
प्रसािर्, उपयोग के जीवन चि एवं डाटा, सूचना व ज्ञान के परििक्षर् के समथसन में संकलन, सेवाएाँ
व लोगों को साथ लाती हैं।
(8) आभासी पुस्तकालय पि को ववसभन्न प्रकाि से परिभावषत ककया गया है -’’ यह प्रलेख संसाधनों की
इकाइयों का चयननत, सव्ु यजस्थत संकलन है जो सवसत्र ववस्तत
ृ (आकाश के आि पाि), सिै व असभगम्य
(सवसकासलक) है , जहााँ व्यजक्ट्त व समूह वैजश्वक इलेक्ट्राननक नेटवकस से जुड़े िहते हैं। ये बहुसांस्कृनतक
आवश्यकताओं(सूचना, ज्ञानाजसन, मनोिं जन आदि) को संतुष्ट किने हे तु उन प्रलेखो से ववसभन्न प्रकाि
से सम्बद्ध है जो रत
ु , शीघ्रतः अजजसत एवं अपन ॅेपव
ू स संस्किर् में उपलब्ध हैं। अन्य शब्िों में , यह
एक पुस्तकालय है जजनमें पुस्तकालय सामिी, इलेक्ट्राननक स्टै क(भंडाि) में पाए जाते हैं। यह ऐसा
पुस्तकालय है जजसके अजस्तत्व हे तु भौनतक स्थान या अवजस्थनत का कोई ध्यान नही िखा जाता। यह
ववववध पुस्तकालयों एवं सच
ू ना सेवाओं, आंतरिक व वाह्य, िोनों, के संसाधनों को एक साथ व एक
जगह लाने का प्रौद्योधगकीय तिीका है ताकक उपयोक्ट्तागर् अपनी आवश्यकताओं को शीघ्रता व आसानी
से प्राप्त कि सकें।
68
• कोई संगत भौनतक संकलन नहीं ;
• इलेक्ट्राननक संरूप में उपलब्ध प्रलेख ;
• प्रलेख भंडािर् का एक अवजस्थनत में न होना ;
• प्रलेखों का ककसी भी कायसस्थल से असभगम ;
• जब व जैसी आवश्यकता के अनरू
ु प प्रलेखों की पन
ु ःप्राजप्त व प्रिे यता ;
• प्रभावी अनुशीलन एवं खंगालन(ब्राउजजंग) सवु वधाओं की उपलब्धता(शेिवेल, 1977)।
(9) ककसी नेटवककसत परिवेश में एक मौसलक मान्यता है कक प्रर्ासलयााँ एवं संगठन अंतचाससलत होते हैं।
अंतचासलनीयता की संकल्पना, तकनीकी अंतचासलनीयता एवं सच
ू ना प्रर्ासलयों के मध्य केजन्रत हैं। यह
िो या अधधक प्रर्ासलयों या घटकों के सच
ू ना ननमासर् एवं ककसी भी एक प्रर्ाली के ववशेष प्रयत्न के
बबना ववननसमत सच
ू ना के प्रयोग की योग्यता है । जेड 39.50 का कियान्वयन, प्रर्ासलयों के मध्य
अंतचासलनीयता को संभव बनाता है ।
1990 के िशक में जब इलेक्ट्राननक संसाधन, पुस्तकालयों को आसानी से उपलब्ध हुए तब हाईबब्रड
पस्
ु तकालयों का उद्ववकास हुआ।
69
एकत्रीकिर् : ववसभन्न स्रोतों के पथ
ृ क प्रनतवेिन जजन्हें उपयोग हे तु ववसशष्ट ववषय पि एक
साथ लाया गया ववविर्ात्मक या आलोचनात्मक व्यापक ववविर्।
सूचनासाि या डाइजेस्ट : ककसी एक ववषय या प्रकिर् या उससे सम्बंधधत ववववध प्रकिर्ों पि सूचनाओं
का सािांश प्रस्तुत किने वाला।
डडजजटल पस्
ु तकालय प्रर्ाली : यह एक वास्तसु शल्प पि आधारित एक साफ्टवेयि प्रर्ाली है जो एक
डडजजटल पुस्तकालय ववशेष द्वािा आवश्यक सभी कायासत्मकता प्रिान किती है । उपयोक्ट्ता डडजजटल
पुस्तकालय के साथ, संगत डडजजटल पस्
ु तकालय प्रर्ाली के माध्यम से इंटिफेस या अंतमख
ुस किती हैं।
सच
ू ना-व्यवहाि: वे तिीके जजनके द्वािा उप्योक्ट्ता सच
ू ना खोज, अधधिहर् व उपयोग किते हैं।
सूचना साक्षिता : ववववध संरूपों में िक्षक्षत सूचना के अवस्थापना एवं उपयोग हेतु आवश्यक ज्ञान व
कौशल। ननवसचन किने, प्रसंग प्रिान किने हे तु महत्वपर्
ू स सम्पकस ननमासर् की योग्यता।
मेटाडाटा: यह डाटा के बािे में डाटा है । इसमें सूचना वस्तुओं, जैस-े पुस्तक, वेबपष्ृ ठ, आडडयो टे प आदि,
का वर्सन होता है । यह पि सामान्यतः संिचनात्मक डाटा पि प्रयुक्ट्त होता है चाँकू क संिचना के बबना
मेटाडाटा असभलेख में जस्थत सच
ू ना का प्रिमर् या प्रकियाकिर् असंभव है ।
70
Arms, W.Y. Digital Libraries. Cambridge MA: MIT Press, 2000. Print.
Borgman, C.L. et al. “Social Aspects of Digital Libraries: Final Report to the
NSF”. 1996.
Brophy, Peter. The Academic Library. 2nd ed. London: Facet Publishing, 2005.Print.
--- . The Library in the Twenty-First Century. London: Facet Publishing, 2007.
Print.
Candela, L. “Setting the Foundations of Digital Libraries: The DELOS Manifesto”.
D-Lib Magazine, 13.3/4 (2007). Print.
Dolan, J. A Blue Print for Excellence: Public Libraries 2008 – 2011: Connecting
IFLA. UNESCO Public Library Manifesto. The Hague: IFLA, 1995. Print.
Joint Funding Council’s Libraries Review Group: Report (The Follett Report).
Line, M.B. and J. Line. “The Nature and Aims of National Libraries: Introductory
Notes”. National Libraries. Ed. Maurice B. Line and Joyce Line. London: Aslib:1979.
Print.
71
Lor, P.J. Guidelines for Legislation for National Libraries. UNISIST, Paris:Unesco,
1997. Print.
Miksa, Francis. “The Cultural Legacy of the Modern Library for the Future” (old
version). Journal of Education for Library and Information Science 37.2 (2007): 100-
119. Print.
National Libraries. Ed. M.B. Line and J. Line. London: ASLIB, 1979. Print.
Oppenheim, Charles and Smithson, D (1997). What is the hybrid library? Web.
25 September 2012.<http://jis.sagepub.com/cgi/content/abstract/25/2/97>.
Rusbridge, Chris (1998). “Towards the Hybrid Library”. D-Lib Magazine. 4. 7/ 8 (1998).
Web. 25 September 2012. <http://www.dlib.org/dlib/july98/rusbridge/ 07rusbridge.html>
72
--- . Regional Seminar on the Development of National Library in Asia andPacific
Area, Manila, 3-15 Februaury 1964. Final Report. Paris: UNESCO, 1964.
Waters, D. T (1998). What are digital libraries? Web. 25 September 2012. <http:/
/www.clir.org/pubs/issues/issues04.html/issues04.html#dlf>
< http://old.diglib.org/about/dldefinition.htm>.
73
इकाई 3 सूचना संस्थान
संिचना
3.1 प्रस्तावना
3.2 सच
ू ना संस्थानों का उद्ववकास
3.2.1 संवद्
ृ धध प्रनतरूप
3.3.1 पुस्तकालय
3.3.6 ववसंस्थानीकृत सच
ू ना सेवाएाँ
3.4.1 संवद्
ृ धध प्रनतकृनत
3.4.2 संवद्
ृ धध की भावी दिशाएाँ
3.5 सािांश
• सच
ू ना संस्थानों की प्रकृनत एवं उनके संवद्
ृ धध प्रनतरूप की व्यायया किने में ;
• ववसभन्न प्रकाि के सच
ू ना संस्थानों व उनकी प्रकृनत, एवं व्यजक्ट्तयों, समूहों तथा ववसभन्न रूपों व
संरूपों में सूचना को चाहने वाले संगठनों में सूचना प्रसाि की ववसशष्ट भूसमका की पहचान किने में
;
74
• ’’योजनाबद्ध सांस्थाननक ननमासर्’’ की महत्ता, ववकासशील िे शों के ववशेषकि सन्िभस के साथ, की
व्यायया किने में ;
• ककस प्रकाि प्रौद्योधगकी, संगठनात्मक ढााँचे पि संप्रभाव डाल िही है , की वववेचना किने में ;
• नवसहस्राजब्ि संगठनों के असभलक्षर्ों की वववेचना किने में ;
• ज्ञान आधत
ृ अथसव्यवस्था में सच
ू ना संस्थान की वैधाननक भसू मका हे तु इसकी प्रकृनत को समझने
एवं तैयािी या प्रननमासर् की व्यायया किने में ; एवं
• ज्ञान आधत
ृ समाज हे तु तैयािी के संकेतकों का वर्सन किने में ।
3.1 प्रस्तावना
आधनु नक समाज में संस्थानों की महत्ता को कम नही आाँका जा सकता। इस प्रसंग में , पीटि ड्रकि के
मत पि सावधानीपूवक
स ध्यान िे ने की आवश्यकता है । वे ववशेष बल िे ते हैंॅै कक ’’प्रत्येक प्रमुख कायस
चाहे आधथसक ननष्पािन हो या स्वास््य िे खभाल, सशक्षा, पयासविर् संिक्षर्, नवीन ज्ञान या िक्षा की
लक्ष्यखोज हो आज बड़े संगठनों जजन्हें उनके प्रबंधन द्वािा प्रबंधधत एवं ननिं तिता हे तु असभकजल्पत
ककया गया है , को सौंपा जा िहा है । इन संस्थानों के ननष्पािन पि-यदि प्रत्येक व्यजक्ट्त का ननवसहन नही
तो भीआधनु नक समाज का ननष्पािन वद्सधधत रूप से ननभसि किता है ’’। पन
ु श्च, पीटि ड्रकि पष्ु ट किते
हैं कक प्रत्येक कायस में मानव, मनुष्य व स्त्री, होते हैं, जजनका ननष्पािन संस्थान को, एवं इस भााँनत
समाज को सफल या असफल बनाता है ।
प्रायः यह कहा जाता है कक आधुननक समाज, ज्ञान सामज में रूपान्तरित हो िहा है । ज्ञान अब उत्पािकता
व आधथसक संवद्
ृ धध का चालक माना जाता है जो आधथसक ननष्पािन में सच
ू ना, प्रौद्योधगकी व ज्ञानाजसन
की भूसमका पि नव-केन्रीय ध्यान को प्रशस्त या आकृष्ट किता है । वस्तुतः, ज्ञान आधारित अथसव्यवस्था
पि, ज्ञान व सच
ू ना के उत्पािन, ववतिर् व उपयोग की पूर्त
स ि मान्यता से उद्भत
ू है । ज्ञान आधारित
अथसव्यवस्था की संकल्पना में हाल के वषों में अत्यधधक रुधच जागत
ृ हुई है । परिर्ामतः, सच
ू ना संगठनों
के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवतसन घदटत हो िहा है । त्यतः, संगठनों, कम्पननयों व श्रसमकों से ज्ञान
आधारित अथसव्यवस्था हे तु तैयाि िहने के सलए ननिं ति आिह ककया जा िहा है । संगठनों में सच
ू ना का
ु प्रतीत होता है । चाँकू क सच
प्रभावी िोहन, इस नव सामाजजक आधथसक आिशस का ववभेिकािी गर् ू ना व
ज्ञान का औपचारिक प्रबंधन, सूचना संस्थानों का मय
ु य उत्तििानयत्व िहा है । यह आिे शात्मक या
आज्ञाथसक है कक ज्ञान आधारित अथसव्यवस्था के समक्ष उजत्थत(बढ़ी) चन
ु ौनतयों पि शीघ्रता एवं उपयक्ट्
ु तता
से अनुकिया िें ,एवं नवीन परिवेश में साथसक बने िहें । कई लेखकों ने जोि दिया है कक सूचना संस्थानों
को, नवीन ववधधयााँ व साधन अपना कि स्वयं की पुनिस चना व पुनःजस्थनतकिर्, अपने िाहक आवश्यकता
सम्बंधी ज्ञान को बढ़ाकि एवं कायसित संगठनों में स्वयं को लीन कि ज्ञान आधारित अथसव्यवस्था में
एक भूसमका प्राप्त किना चादहए। पुस्तकालय व सूचना केन्रों को वाह्य िधचत ववषयवस्तु के मल्
ू यांकन,
ववश्लेषर्, संश्लेषर्, सय
ु ोग्यीकिर् व प्रिे यता पि अधधक ध्यान केजन्रत किने की सलाह िी गई है ।
ज्ञान आधारित अथसव्यवस्था के सूचना व्यावसानययों से यह भी अपेक्षा की जाती है कक स्वयं को नवीन
संगठन का आवश्यक अंग बनाने हे तु वे संगठनात्मक ढााँचे में परिवतसनों से जागरूक िहें । उन्हें सूचना
प्रबंधक, शोध ववश्लेषक व ज्ञान सग
ु मक के रूप में कायस किने की उनकी भसू मका को परिष्कृत किने
का इच्छुक होना चादहए। इस प्रसंग में यह ध्यान िे ना िोचक है कक ज्ञान अभ्यास के उद्भवशील समाज
75
पि ववसभन्न व्यवसाय असभसरित हो िहे हैं जो कक ववववध प्रकाि के ववशेषज्ञ ज्ञान व्यावसानययों की
संयया में वद्
ृ धध कि िहे हैं।
पुस्तकालय व सूचना ववज्ञान के सादहत्य में हम अनन्य या अपवजी रूप से उद्ववकास, ववकास,
संगठनात्मक संिचना अथवा सच
ू ना संस्थानों के कायों का अध्ययन नही किते। यद्यवप, यदि हम 20वीं
सिी, ववशेषतः उत्तिाद्सध में प्रकट हुए संस्थानों का पिीक्षर् किें तो हम उनकी संवद्
ृ धध के प्रारूवपक
प्रनतरूप को जान सकेंगे। तथावप, यह प्रनतरूप पाश्चात्य औद्योधगक उन्नत िे शों में ही दृजष्टगोचि हो
सकेंगे। जैसा कक होता आया है , उनका प्रभाव तत ृ ीय ववश्व के िे शों तक ववस्तारित हुआ है ; परिर्ामतः
कई तत ृ ीय ववश्व िे शों में अपने संस्थानों के असभकथन एवं ववकास में पाश्चात्य आिशस को स्वीकाि
ककया गया है । आथसि.डी.समटल द्वािा तैयाि ’’इन्टू ि इन्फामेशन एज, ए पससपेजक्ट्टव फाि फेडिल एक्ट्शन
आॅन इन्फामेशन’’ शीषसकीकृत प्रनतवेिन संयक्ट्
ु त िाज्य अमेरिका में सच
ू ना संस्थानो के ववकास का
वर्सन किता है । यह प्रनतवेिन वर्सन किते समय, सच
ू ना अंतिर् के 3 मूलभूत तत्वों की पहचान किता
है । यह प्रनतवेिन यह भी िावा किता है कक सच
ू ना व ज्ञान के अंतिर् की प्रकिया, गनतववधधयों की एक
श्रंख
ृ ला िखती हैं, इसकी मुयय कड़ी हैं-िचनयता, संपािक, प्राथसमक प्रकाशनों का प्रकाशक, अनुिमर् व
सािसंक्षेपर्, शोधपबत्रका उत्पािक, पुस्तकालय, प्रलेखन व सूचना केन्र, आॅनलाइन सेवाएाँ, सूचना
कम्पननयााँ एवं अंनतम उपयोक्ट्ता। सामान्यतः, इन गनतववधधयों के ननष्पािक संस्थान को ननम्नानुसाि
3 श्रेखर्यों के समदू हत समूह में ववभाजजत ककया जा सकता है ।
(1) ज्ञान सज
ृ क संस्थान
इस कोदट के अंतगसत शोध प्रयोगशालाएाँ, शोध व ववकास संस्थान, उच्च सशक्षा संस्थान,
ववश्वववद्यालयों से सम्बद्ध शोध केन्र इत्यादि आते हैं।
(2) ज्ञान/सूचना प्रिमर् एवं प्रसाि संस्थान जैसे-पुस्तक, शोधपबत्रका प्रकाशक, सांययकीय डाटा संगठन,
ववज्ञान व प्रौद्योधगकी डाटा केन्र इत्यादि।
(3) संस्थान जैस-े पुस्तकालय, जो ववववध रूपों में असभसलखखत ज्ञान/सूचना का संिहर्, भंडािर्, प्रिमर्,
प्रसाि व सेवा किते हैं।
इस पक्ष का सावधानीपव
ू क
स ववश्लेषर् किने पि यह प्रकट होता है कक सच
ू ना संस्थानो की इन सभी
श्रेखर्यों के मध्य अन्तससम्बन्ध व सहयोग बढ़ िहा है । यह भी ध्यान िे ने योग्य है कक सूचना जनन,
प्रिमर्, प्रसाि, ववतिर् व उपयोग में आधुननक प्रौद्योधगकी के अनुप्रयोग के साथ इनमें से कई कायस
अपसमधश्रत होकि सूचना श्रख
ं ृ ला के ववसभन्न सम्पकस तत्वों में अंति या भेि प्रकट कि िहे हैं। इस
समयबबंि ु पि उपिोजल्लखखत ववसभन्न प्रकाि के संस्थान अपनी ववसशष्ट पहचान के साथ संचासलत होते
हैं। अतः हमें उनके वतसमान स्वरूप में वववेचना किने की आवश्यकता है ।
76
संवद्
ृ चध प्रततरूप
(1) शुद्ध ववज्ञान, शैक्षक्षक व मूलशोध की मूल्य प्रर्ाली के संगत महाववषय उन्मुख सूचना अंतिर्,
जजसे युग प्रथम कहा गया।
(2) सिकाि प्रायोजजत लक्ष्यासभयान या समशन, (यथा-ए.ई.सी, नासा 1960 में ) की मल्
ू य प्रर्ाली के
संगत समशन उन्मुख सच
ू ना अंतिर्, जजसे युग द्ववतीय कहा गया।
महाववषय उन्मख
ु सूचना अंतिण (युग प्रथम):
लक्ष्याभियान(भमशन) उन्मख
ु सूचना अंतिण(युग द्ववतीय)
युग द्ववतीय सच
ू ना प्रर्ासलयों के आिं भ का उत्तििायी ससद्धान्त यह है कक वे एक ववसशष्ट कायस को
सफलतापूवक
स सम्पन्न किने हे तु अजस्तत्व में आई हैं।उिाहिर्ाथस-1950 व 1960 के िशक में ववकससत
सूचना प्रर्ासलयों का सज
ृ न, समशन उन्मख
ु असभकिर्ों यथा-ए.ई.सी, नासा व सदृश प्रयोजन उन्मुख
परियोजनाओं को सूचना समथसन प्रिान किता है । इस प्रसंग में सूचना अंतिर् प्रकिया, सूचना व ज्ञान
का समवती रूप से ववसभन्न प्रकाि के महाववषयों में समन्वयन व उपयोग किने हे तु परिभावषत
77
आवश्यकता द्वािा संलक्षक्षत या वखर्सत है । उिाहिर्ाथस-नासा के प्रकिर् में सभन्न-सभन्न गर्
ु स्वभावी
ववषयों जैसे इलेक्ट्राननक्ट्स, प्राखर्शास्त्र, धचककत्सा ववज्ञान, वैमाननकी, िसायनशास्त्र, भौनतकशास्त्र आदि,
से सूचना का अंतननसवेश आवश्यक है । इस प्रसंग में , शोधपबत्रकाओं जैसे रूदढ़गत प्रकाशनों के अनतरिक्ट्त
सूचना का प्रसाि तकनीकी प्रनतवेिनों के माध्यम से होता है । मुयय असभकिर्ों से सम्बद्ध तकनीकी
सच
ू ना केन्र, असभकिर् के उपयोक्ट्ता समि
ु ाय यथा-वैज्ञाननक, असभयंता, प्रौद्योधगकीववि, प्रबंधक के
सलए बनी ननवसधचत सच
ू ना सेवाओं के ववकास का उत्तििानयत्व उठाते हैं। इस प्रर्ाली की एक पुनःभिर्
प्रकियाववधध है जो इसे प्रर्ाली की ननष्पािन प्रभाववता व क्षमता के ननधासिर् में समथस बनाती है ।
पुनभसिर् ववश्लेषर् के परिर्ाम, प्रर्ाली के सध
ु ाि एवं िाहकों की समिश्रेर्ी की परिवतसनशील सूचना
आवश्यकताओं के ननधासिर् हे तु प्रर्ाली में सतत पुनभसरित ककए जाएंगे।
युग द्ववतीय संस्थानों की संचालनावधध के िौिान प्रसाि उत्पाि के प्रकािों, जैस-े समाचाि धचट्ठी या
न्यूजलेटि, व्यापाि शोधपबत्रकाओं आदि को महत्व दिया गया है जो यह संकेत किता है कक कुछ ववज्ञान
तकनीकी सूचना प्रर्ासलयााँ प्रमुख आधथसक मूल्य िखती हैं, एवं बाजाि उन्मख
ु सूचना अंतिर् प्रकियाववधध
पि ववशेष बल दिया जाना चादहए।
समस्या उन्मख
ु सूचना अंतिण(युग तत
ृ ीय)
उपयुक्ट्त सच
ू ना के िोहन द्वािा समाज सम्बंधी समस्याओं का समाधान ही वह ननयोजी ससद्धान्त है
जजसने इस युग में सूचना संस्थानों के सज
ृ न का मागस प्रशस्त ककया। सूचना प्रर्ासलयााँ जजनका िसमक
ववकास इस अवधध में हुआ, एक प्रसंग प्रनतबबंबबत किती हैं जजसमें आधथसक ववकास, औद्योधगक
आयोजना, कृवष उत्पािकता व पयासविर् िक्षर् जैसी समस्याओं के समाधान में सच
ू ना का उपयोग हुआ।
इस कालावधध में अजस्तत्व में आए संस्थान, ववसशष्ट प्रकाि की सच
ू ना को साँभालने की क्षमता िखते
थे, एवं नवीन उत्पाि व सेवाएाँ प्रिान कि सकते थे। यद्यवप वे उपयुक्ट्त ढााँचों का उद्ववकास नही कि
सके। इस युग में ववकससत कुछ सूचना प्रर्ासलयााँ, तथावप, समय की सूचनात्मक आवश्यकताओं की
पनू तस हे तु आवश्यक असभलक्षर् प्रिसशसत किती हैं, उनमें अिेति ववकास व वैधकिर् या यजु क्ट्तसंगतता
की आवश्यकता होती है । उपयोक्ट्ता समि
ु ाय की वे आवश्यकताएाँ जजनकी परिपनू तस की अपेक्षा सूचना
प्रर्ासलयााँ से की जाती है , कुछ-कुछ अव्यवजस्थत व कुपरिभावषत हैं। जजनमें ववववध प्रकाि के समह
ू
समाववष्ट हैं यथा-ननवासधचत जनप्रनतननधध, न्यायपासलका, प्रौद्योधगकीववि, मीडडयाकमी व सामान्य
जनता। उपयोक्ट्ताओं की अननजश्चत प्रकृनत के अनतरिक्ट्त, सूचना प्रर्ासलयों को ववसभन्न प्रकाि की
सूचना, अधधकांशतः, गैि-एस.टी.आई, जजनकी कुछ श्रेखर्यााँ हैं स्थानीय कुव्यवजस्थत, स्वासमत्वाधधकारिक,
मूल्यवद्सधक व पिावती मल्
ू य न्यायननर्सयों का समाधान ढूाँढना पड़ता था।
78
उपयुक्ट्ततः गैि-तकनीकी उपयोक्ट्ताओं में ननवसचन को सजम्मसलत कि नया आयाम जोड़ता है । इस प्रकाि
की सूचना कीमत पि ही उपलब्ध होती है ।
व्यजक्ट्त उन्मख
ु अथवा इच्छानुसाि परिवनतसत सच
ू ना सेवा:
इस अवधध को युग चतुथस समझा जा सकता है । इस युग ने सूचना व्यावसानययों के समक्ष, व्यजक्ट्तगत
उपयोक्ट्ताओं की पहचान व उनकी आवश्यकताएाँ, नवीन उत्पाि व ववपण्य सेवाओं के ववकास के रूपमें
नई चन
ु ानतयााँ प्रस्तत
ु की हैं। गह
ृ बद्ध नागरिकों हे तु सच
ू ना प्रिे यता, उद्योगों में वैज्ञाननकों व असभयंताओं
हे तु सूचना का एकत्रीकिर्, संक्षेपर् व पुनसांवेष्ठन इस अवधध के सूचना संस्थानों के ववकास एवं संवद्
ृ धध
का प्रधान ननयोजी ससद्धान्त बना।
शुल्क आधारित सच
ू ना सेवाएाँ, मांग आधारित कम्पननयााँ, सूचना पिामशी, सूचना मध्यस्थ, सूचना िलाल
इत्यादि संयक्ट्
ु त िाज्य अमेरिका, फ्रांस, य.ू के, जमसनी, आजष्रया व बेजल्जयम जैसे िे शों में शीघ्रता से
उत्पन्न हुए।
उल्लेखनीय है कक प्रमख
ु संगठन यथा-प्रडडकास्ट्स आथसि.डी.सलदटल.क.इंक, लाॅकहीड इन्फामेशन
सववसेज, एस.डी.सी, बी.आि.एस, न्यूयाकस टाइम्स इन्फामेशन बैंक इत्यादि िीघासवधध से ववद्यमान हैं
जबकक अन्य 1970 के िशक में प्रकट हुए एवं 1984 के िशक में ववकससत हुए। पन
ु ः इस उद्योग का
ववकास 1990 के िशक व 21वीं सिी में हुआ।
नव सहस्राजब्द संगठन
नवीन प्रकाि के संगठनों के वर्सन हे तु कई पि प्रयोग में लाए जाते हैं। इन वर्सनों में से प्रत्येक
नवसहस्राजब्ि संगठनों की जीवंत छाप प्रेवषत किते हैं। यथा-इन वर्सनों में से एक ज्ञान आधारित संगठन
की धािर्ा में वेतनभोगी कमी का ज्ञान, संगठन की प्राथसमक सम्पवत्त है । नव सहस्राजब्ि संगठन का
अन्य दृजष्टकोर् है कक यह एक ज्ञानाजसन संगठन होगा जजसमें व्यजक्ट्त, िल, संगठन स्वयं ननिं ति
अपनी गनतववधधयों एवं परिवेश से सीखेगा, औि जो उन्होंने सीखा है उसी के अनुसाि कायस किे गा।
तीसिा दृजष्टकोर् है कक यह एक ज्ञान आधारित संगठन होगा जजसमें उत्पािों व सेवाओं को उपयोक्ट्ता
की इच्छानुसाि परिवनतसत एवं सतततः असभवद्
ृ धधत या िाहकों से प्राप्त सशक्षर् को प्रनतबबंबबत किने
हे तु परिवनतसत ककया जाता है । अन्य शब्िों में , यह एक ववस्तारित उद्यम होगा, जजसमें िाहकों,
व्यवसायी-िाहकों, आपूतक
स ों, सिकािों व िावाधािकों को संगठन की परिभाषा में सुस्पष्टतः समाववष्ट
ककया जाएगा। तथावप, अन्य दृजष्टकोर् है कक यह एक नेटवककसत(संजासलत) संगठन होगा जजसमें
कम्प्यूटि आधारित संचाि नेटवकस, ववस्तरित उद्यम के सभी समूहों में संप्रेषर् को व्यापक, ववस्तत
ृ एवं
रत
ु बनाएगा। इंटिनेट जैसी नेटवकस प्रौद्योधगककयााँ, सवसकासलक व सवसगनतक संप्रेषर् व सच
ू ना असभगम
को संभव बनाएाँगी। इंटिनेट का वर्सन प्रायः, लोकतांबत्रक वाताविर् के अंतगसत अंतसांभावनाओं को
79
गह
ृ िक्षक्षत किने वाले नव सीमांतप्रिे श के रूपमें ककया जाता है । इंटिनेट का असभव्ंयजनात्मक पि ’’सूचना
ननःशुल्क होना पसंि किती है ’’ उन आलोचना मुक्ट्त मनुष्यों की मानससकता को परिलक्षक्षत किता है
जो नेट की उत्पवत्त के अंश थे। उल्लेखनीय है कक आाधनु नक संगठनों को िो प्रमख
ु धािर्ाओं ने आकाि
दिया। प्रथम--ज्ञान व ज्ञानाजसन पि ध्यानकेन्रर्। द्ववतीय-सूचना प्रौद्योधगकी, ििू संचाि, सूचना संसाधन
व नेटवकस परिवेश का असभसिर्। संगठनात्मक सध
ु ाि प्रयत्नों के केन्र के रूप में ज्ञान प्रबंधन का उिय,
ज्ञान प्रबंधको की मांग किता है । यह पक्ष, सूचना व्यवसाय का ननदहताथस है । अन्य शब्िों में , सूचना
व्यावसानययों को उन ज्ञान प्रबंध प्रकियाओं की पहचान कि लेनी चादहए जजनमें वे योगिान कि सकते
हैं। ज्ञानप्रबंधन, संगठनों में ज्ञान के अधधिहर्, अंतिर् व उपयोग से सम्बजन्धत है । प्रबंधन की प्राथसमक
भूसमका, संगठन की बौद्धधक पाँज
ू ी ववकससत किने में है । इस प्रसंग में , यह ध्यान िे ना चादहए कक
ककसी संगठन हे तु इसके कासमसकों का ज्ञान, संगठनों की बौद्धधक पाँूजी की नींव है । ज्ञानप्रबंधन संगठन
की बौद्धधक पज
ाँू ी में वद्
ृ धध किके संगठन सध
ु ाि एवं अथसव्यवस्था में इसके योगिान हे तु प्रयत्नशील है ।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(1) सच
ू ना संस्थानों के संवद्
ृ धध प्रनतरूप का संक्षेप में वर्सन कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
पस्
ु तकालय व सच
ू ना ववज्ञान के सादहत्य मे हम ववसभन्न प्रकाि के संस्थानों से अवगत होते हैं। इन
सभी संगठनों का प्राथसमक उद्िे श्य व्यजक्ट्तयों, समूहों व संगठनों हे तु सच
ू ना का कब व ककस रूप की
आवश्यकता के आधाि पि संिहर्, प्रिमर्, संघटन एवं प्रसाि है । इनमे सवासधधक महत्वपूर्स प्रकाि के
संस्थान हैं--पुस्तकालय, प्रलेखन केन्र, सच
ू ना ववश्लेषी केन्र आदि। िीघासवधध से ववद्यमान इन पािं परिक
संस्थानों के अनतरिक्ट्त, कई ववसंस्थानीकृत सूचना सेवाएाँ हाल ही में तेजी से प्रकट हुई हैं। इस इकाई
के ननम्न अनभ ु ागों में उनमें से कुछ की वववेचना की गई है ।
3.3.1 पुस्तकालय
80
पुस्तकालय, ज्ञान के परििक्षर् में रुधच िखने वाले व्यजक्ट्तयों व जनसमुिाय, िोनों के सलए, महत्वपूर्स
संसाधन हैं। इनकी महत्ता ववसभन्न प्रसंगों की श्रेर्ी के अंतगसत मानव सुप्रयत्नों से ननसमसत असभलेखों के
अनुिक्षर्, ववसभन्न मीडडया का प्रयोग कि, की योग्यता में है । अतः पुस्तकालय भववष्य में महत्वपर्
ू स
सामाजजक, सांस्कृनतक, तकनीकी व सशक्षर् शैली की भसू मकाओं का ननवसहन ननिं ति किते िहें गे। वस्तुतः
बहुसंयय पस् ु तकालय, वाह्य ववश्व हे तु शजक्ट्तशाली मीडडया खखड़की के रूपमें , ववशेषकि कम्प्यट ू ि नेटवकस
प्रर्ासलयों का प्रयोग कि, कायस किते िहें गे। सस्ु पष्टतः, नव सूचना भंडािर् व प्रिे यता प्रौद्योधगककयााँ
तथा इन्हें किने में लोगों को समथस बनाने वाले अन्य उपायों की आवश्यकताओं को समायोजजत किने
हे तु पुस्तकालय संकल्पना में कुछ परिवतसनों की आवश्यकता है । ध्यातव्य है कक सामान्यतः सूचना एवं
ववशेषकि नए प्रकाि की सच
ू ना की वद्सधधत उपलब्धता, ववसभन्न श्रेखर्यों के पुनपासरिभाषीकिर् व समेकन
का मागस प्रशस्त किे गी। पिं पिागत रूप से इनका सज
ृ न ववसभन्न प्रकाि के प्रारूपों एवं मीडडया यथा-
मुरर् व उसके सहस्थानी (पुस्तकालय), वस्तए
ु ाँ(संिहालय) एवं संगठनात्मक गनतववधध के पत्र असभलेख
(असभलेखागाि व असभलेख संिहशाला) के प्रबंधन हे तु ककया गया है । संगठनात्मक िशसन, प्रकायस व
तकनीक में अंति इन ववसभन्न प्रारूपों व मीडडया द्वािा प्रस्तत
ु आवश्यकताओं के फलस्वरूप उत्पन्न
होते हैं। भववष्यवार्ी की वतसमान लहि, कक इलेक्ट्राननक प्रौद्योधगकी अववलंब ही पुस्तकों व पुस्तकालयों
का स्थान िहर् कि लेगी, इस पि ननभसि है कक यह प्रौद्योधगकी अपनी शजक्ट्त कैसे बहुगुखर्त किती है
साथ ही अपनी लागत को तेजी से कैसे कम किती है औि यह नई घटनाओं की त्वरित श्रेखर्यों को
कैसे प्रेरित किती है । इन ववकासक घटनाओं में संचाि उपिह, केबबल टीवी, आॅजप्टकल व डडजजटल
वीडडयो डडस्क के रूप में सस्ता माॅस स्टोिे ज, धचप में जस्थत शजक्ट्तशाली माइिोकम्प्यट
ू ि हैं। इनके
साथ हमने एक प्रौद्योधगकी का अधधिहर् ककया है जो ’’कल्पना को प्रज्जवसलत किती है ’’ एवं यहााँ
तक कक सवासधधक ’’कल्पनानुमानों’’ को ववश्वसनीयता प्रिान किती है ।
इस प्रकाि के परिवेश में खतिा यह है कक पुस्तकालयों के ववत्तीय समथसन में उत्तििायी लोग, अपरिसमत
सप
ु रिर्ामकािी एवं अधधक आकषसक प्रौद्योधगकी ववकल्पों के पक्ष में पािं परिक पस्
ु तकालयों की उपेक्षा
या समयपूवस परित्याग कि िें गे। ववशेषज्ञ गहन प्रभावी प्रत्ययपत्रों(गोपनीय प्रलेखों) के आधाि पि ही
पुस्तकों व पुस्तकालयों के शीघ्र समापन की भववष्यवार्ी कि िहे हैं। इन ववशेषज्ञों में प्रबंध ववशेषज्ञ,
सूचना उद्यमी, सिकािी अधधकािी, ववश्वववद्यालय आचायस एवं लोकवप्रय भववष्यवेत्ता समाववष्ट हैं।
आगामी घटनाओं पि उनके पूवासनुमान, उनके गहन ज्ञान व वषों के उनके अनुभव से प्राप्त अंतदृजष्ट
पि आधारित हैं। उन्हें आलोचना के बबना उपेक्षक्षत या ननिस्त नही ककया जा सकता, औि न ही स्वीकाि
ककया जा सकता है ।
81
’’कागजिदहत समाज’’ तकसससद्धान्त के प्रनतपािक हैं, एवं अपने ववचािों को ननम्न शब्िों में व्यक्ट्त किते
हैं-’’हम कागज िदहत समाज की ओि काफी सीमा तक तेजी से एवं बबल्कुल अपरिहायसतः बढ़ िहे हैं।
कम्प्यूटि ववज्ञान एवं संचाि प्रौद्योधगकी की उन्ननतयााँ एक वैजश्वक प्रर्ाली, जजसमें शोध व ववकास
पूर्त
स ः इलेक्ट्राननक ढ़ं ग से िधचत, प्रकासशत, प्रसारित एवं प्रयुक्ट्त ककए जाते हैं, के ववचाि की अनुमनत
िे ती है । इस संचाि परिवेश में कागज की आवश्यकता कभी नही होगी। अब हम मदु रत कागज से
इलेक्ट्राजक्ट्स के नैसधगसक उद्ववकास के अंनतम चिर् में हैं। यदि लंकास्टि द्वािा भववष्यदृजष्टत, कागज
िदहत समाज का आगमन हो जाता है तो हमािे समाज व जीवनशैली का रूपान्तिर् हो जाएगा।
सुस्पष्टतः, उस समाज में केवल पुस्तकालय ही नही अवपतु उनके द्वािा सेववत संस्थान व ववद्वान भी
अप्रचसलत हो जाएाँगे। ऐसे परिवतसनों से ननपटने के सलए सवोत्तम सफल उपाय, भववष्य की योजना हे तु
प्रयास किना है ।
धगयुसलयानो ने पिं पिागत पुस्तकालयों को परित्यक्ट्त किने के असभप्राय से कई तकस प्रस्तुत ककए हैं।
इनमें से सवासधधक महत्वपर्
ू स तकस, जजस पि सावधानीपूवक
स ध्यानापेक्षक्षत है , ननम्नवत है --’’जैसे जैसे
हमािे समाज में सच
ू ना संस्थान वद्
ृ धध कि िहे हैं, पुस्तकालयों का महत्त्व न्यन
ू होता जा िहा है।
प्रौद्योधगकी का उद्ववकास पहले से ही उस बबंि ु तक पहुाँच चक
ु ा है जहााँ पि ववश्व सादहत्य में अधधकांश
का असभगम, आॅनलाइन िंथसूची खोज, जनोपयोगी सेवाएाँ एवं पुस्तक प्रलेख व सामनयक अनच् ु छे िों
हे तु वविेता आपूनतसत कम्प्यूटिीकृत आिे श परिपनू तस प्रर्ाली का संयोजन कुछ ही दिनों में प्रस्ताववत
ककया जा सकता है । यदि धगयसु लयानो इस बबंि ु पि सही हैं तो पस्
ु तकालयों ने वास्तव में अपना प्रयोजन
ससद्ध कि सलया है , एवं क्षरित हो सकती है । पिन्तु सत्य यह है कक नव प्रौद्योधगकी आधारित सूचना
व्यवसाय में अधधकति अभी भी अपनी आजीववका हे तु पुस्तकालय ववज्ञान पि अधधकांशतः ननभसि है ।
एवं सूचना िलाल अंनतम रूप से अपने व्यावसानयक-िाहकों को आपूनतस ककए जाने वाले अधधकांश प्रलेखों
के स्रोत के रूपमें पस्
ु तकालयों पि आधश्रत हैं। अपने प्रकाशन के कुछ वषों बाि अधधकति पुस्तकें व
शोध पबत्रकाएाँ मर
ु र् से बाहि हो जाएाँगे, एवं पस्
ु तकालयों के ससवाय कहीं उपलब्ध नही िहें गे। इस
सम्बंध में अन्य ध्यान िे ने योग्य बबंि ु है कक अधधकति वविे शी पुस्तकें, शोध पबत्रकाएाँ, एवं कुछ
ववशेषीकृत प्रलेख सामान्य व्यापाि चैनल(प्रवाह मागस) के माध्यम से उपलब्ध नही हैं। केवल कुछ शोध
पुस्तकालय उनके अधधिहर् व परििक्षर् का प्रबंध किते हैं। ऐसी सामधियााँ, ववश्व की प्रत्येक िे श के
अनेको पुस्तकालयों में प्रकीखर्सत या नछतिी हुई हैं। पुिानी व मुरर् से बाहि पुस्तकें, मात्र पुस्तकालयों
से प्राप्त की जा सकती हैं।
भववष्यवविों के पस्
ु तकालयों की मत्ृ यु सम्बन्धी तकों में ननदहत यह ववचाि कक सच
ू ना उद्यसमयों के हाथ
में इलेक्ट्राननक प्रौद्योधगकी पुस्तकालयों को समाप्त कि िही है , के बावजूि पुस्तकालय-मत्ृ यु के ववचाि
को वविाम दिया जा सकता है । पुस्तकालय यहााँ ठहिाव की जस्थनत में हैं पिन्तु ककसी भी दिशा में इस
भााँनत ठहिने वाले नही हैं। उनके कायस बने िहें गे पिन्तु इन कायों के ननष्पािन में प्रयुक्ट्त उपाय व
साधन ववसभन्न िे शों के पुस्तकालयों हे तु सभन्न गनतयों से परिवनतसत होते िहें गे। यह ध्यान िे ने योग्य
है कक ववश्वव्यापी वेब पुस्तकालयों का स्वरूप एवं उनके मूल्यांकन व प्रयोग का तिीका परिवनतसत कि
िही है । चाहे पस्
ु तकालय चाहें या न चाहें ववश्वव्यापी वेब पस्
ु तकालयों को अत्यंत प्रभाववत किे गी। िीघस
सीमा तक यह संप्रभाव प्रौद्योधगकी व समाज आधारित बलों द्वािा आयोजजत होता िहे गा। इंटिनेट पि
ववश्वव्यापी वेब प्रौद्योधगकी के परिर्ामस्वरूप पस्
ु तकालय अब सामान्य उपयोक्ट्ता मेनफ्रेम परिवेश एवं
पथ
ृ क यंत्र या यंत्रों पि जस्थत पस्
ु तकालय संसाधन को सम्पककसत ककए बबना ही प्रस्तुत हो िहे हैं।
82
ववश्वव्यापी वेब सूचना अन्वेषर् हे तु सामान्य उपयोक्ट्ता मेनफ्रेम परिवेश में ववशेषताओं की कमी से पाि
पा सकती है , साथ ही वचअ
ुस ल साइट, जहााँ वे इलेक्ट्राननक उपजस्थनत को उत्पन्न कि सकें ताकक संिक्षक-
िाहक पुस्तकालय सेवाओं हे तु प्रािं भ बबंि ु का आसानी से अवजस्थनत ननधासिर् कि सकते हों, का सज
ृ न
किने की योग्यता प्रिान कि सकते हैं। वस्तुतः, ववश्वव्यापी वेब, पुस्तकालय की अन्य प्रर्ासलयों यथा-
आनलाइन प्रलेखसच
ू ी, खोजनीय पाठ डाटा भंडाि, एवं नए संसाधनों व सेवाओं की अनम
ु नत व उनके
समेकन हे तु साधन प्रिान किती है । कहा जा सकता है कक ववश्वव्यापी वेब, जैसा कक आज हम जानते
हैं अपने सहज ज्ञान से पुस्तकालयों की समाजप्त, अथवा एक महान रूपान्तिर् की शुरुआत का पता
लगा सकती है । पस्
ु तकालयों की सहभाधगता के साथ अथवा इसके बबना, यह, ननजश्चत रूपसे प्रभाव
छोड़ेगी। पुस्कालयों का क्ट्या होगा, अभी तक यह स्पष्ट नही है क्ट्योंकक ककसी प्रौद्योधगकी को अपना
पूर्स लम्बा डग भिने में , प्रायः कई वषस लग जाते हैं। परिवतसन की
रत ु गनत को िे खते हुए, जैसा कक
आज हम अनुभव कि िहे हैं, यह ननष्कषस ननकाला जा सकता है कक प्रौद्योधगकीय परिवतसन समाज व
इसके संस्थानों पि सामाजजक परिवतसन डाल सकते हैं। इस दृजष्टकोर् से, अगले कुछ िशको तक
पस्
ु तकालय--वे सम्बद्ध स्थल होगे जहााँ लोग सच
ू ना स्रोतों की भौनतक अवजस्थनत के स्थान के कािर्
नही होंगे; अवपतु असभगम सुगमक बन जाएाँगें; स्थानीय ननसमसत डडजजटल संसाधनों के असभगम में
सहयोग किें गे। अन्य शब्िों में , इस पि ववशेष बल दिया जाना चादहए कक पुस्तकालयों की जस्थि व
अपरिवतसनशील संस्थान की आम धािर्ा अब मान्य नही है , उन्हें वद्
ृ धध किने की योग्यता, नई मांगो
की पूनतस हे तु परिवतसनशील परिजस्थनतयों, एवं नव प्रौद्योधगककयों का अंगीकिर् प्रिसशसत किना होगा।
यदि इन पक्षों का ध्यान दिया जाय तो ककसी को भी भववष्य में उनके अजस्तत्व के बािे में ककए गए
पूवासनुमान पि अधधक महत्व िे ने की आवश्यकता नही हैं।
द्ववतीय ववश्वयद्
ु ध से पव
ू ,स शोध गनतववधधयााँ अधधकांशतः एक व्यजक्ट्तगत ववषय होती थीं। पिन्तु
परिस्थनतयााँ तेजी से बिलीं, एवं ये एक िल कायस बन गईं। सिकािी व ननजी, िोनों प्रकाि के संगठन
शोध व ववकास गनतववधधयों के ववत्तपोषर् या ननधायन हे तु वह
ृ ि तौि पि सामने आए। ववशेषीकिर्
आिे श बन गया। ववज्ञान व प्रौद्योधगकी में सूचना प्रस्फोट हुआ। ककसी एक महाववषय में नव ववकासों
के ववचािों से ही परिधचत िहना वैज्ञाननक, असभयंताओं व प्रौद्योधगकीवविों हे तु समस्या बन गया।
पस्
ु तकालय आधारित सच
ू ना सेवाएाँ, कई शोधकसमसयों की ववशेषीकृत सच
ू ना आवश्यकताओं की पनू तस में
अपयासप्त ससद्ध हुईं। इस नई मांग से सफलतापूवक स ननपटने हे तु प्रलेखन केन्र अजस्तत्व में आए। ककसी
प्रलेखन केन्र से सम्बद्ध मूल कायों में से एक यह है कक यह अद्यतन व असभनव मूल्यवान सादहत्य
को ववशेष रूप से उपयोक्ट्ताओं के ध्यान में लाता है । यद्यवप, प्रलेखन केन्रों को आवंदटत कायस एक
प्रलेखन केन्र से अन्य प्रलेखन केन्र तक परिवनतसत होते हैं। उिाहिर्ाथस-एक स्थानीय प्रलेखन केन्र का
अनन्य या एकमात्र कायस अपने वपत ृ संगठन, जजसका वह स्वयं अंश है , की गनतववधधयों व कायसिमों
को सहायक सूचना सेवाएाँ प्रिान किना है । यह केन्र, अपने वपत ृ संस्थान की प्रगनत में वास्तववक कायस
से सम्बजन्धत सूचना को संिहीत एवं सेववत किता है । इस उद्िे श्य की परिपूनतस हे तु, स्थानीय प्रलेखन
केन्र सय
ु ोग्य या साथसक सामिी के चयन, अधधिहर्, एवं सिप
ु योग हे तु इसके सव्ु यवजस्थत िहते हैं।
इनकी सेवाओं को उपयोक्ट्ताओं की वतसमान व प्रत्यासशत िोनों आवश्यकताओं की संतुजष्ट हे तु असभकजल्पत
ककया जा सकता है । िस
ू िे शब्िों में , स्थानीय प्रलेखन केन्र प्रत्याशी सेवा एवं उपयोक्ट्ताओं की संतुजष्ट
हे तु असभकजल्पत सेवाओं, िोनों को प्रिान कि सकता है । िस
ू िी ओि, एक िाष्रीय प्रलेखन केन्र, कनतपय
83
अवशेष कायासॅेॅं को ननष्पादित किने के साथ स्थानीय प्रलेखन केन्र या सूचना केन्र के साधनों के
वश से बाहि की गनतववधधयों को संचासलत कि सकता है। सामान्यतः, स्थानीय प्रलेखन केन्र व्यजक्ट्तगत
शोध व ववकास संस्थान, व्यापाि गह
ृ , औद्योधगक उद्यम एवं सिकािी ववभाग से सम्बद्ध होते हैं, औि
अपने वपत ृ संस्थानों से प्रशाससत होते हैं।
िाष्रीय स्ति पि ऐसे केन्र की स्थापना एवं प्रशासन उपयुक्ट्त शासकीय असभकिर्ों का उत्तििानयत्व हो
सकता है । शोध एवं ववकास पि व्यय बजट के 5 प्रनतशत का ववत्तीय समथसन िाष्रीय केन्र के व्यय
की पूनतस हे त,ु सामान्य मानिं ड द्वािा संस्तुत है । भाित में , प्रलेखन केन्र अधधकांशतः सिकाि द्वािा
स्थावपत ककए जाते हैं। इस प्रसंग में यह उल्लेख ककया जा सकता है कक ववसभन्न िे शों में , प्रलेखन
केन्र संगठन के सभन्न-सभन्न प्रनतरूप में ववद्यमान हैं। केन्रीकृत व ववकेन्रीकृत संिचनाएाँ अजस्तत्व में
आ चुकी हैं। यूनाइटे ड ककं गडम जैसे िे शों ने केन्रीकृत व ववकेन्रीकृत आिशों के समश्रर् को अंगीकाि
ककया है । पिन्तु आधुननक समय में नेटवकस संकल्पना ने महत्ता अजजसत की है , एवं अधधक आधथसक लाभ
व उत्पािकता को प्राप्त किने हे तु संसाधनों के एकत्रीकिर् व साझेिािी की प्रववृ त्त अब औि बढ़ िही है ।
3.3.4 सच
ू ना ववश्लेषण केन्द्र
सच
ू ना ववश्लेषर् सम्बन्धी गनतववधधयों के धचन्ह 19वीं शताब्िी में िे खे या अनिु े खखत ककए जा सकते
हैं। पिन्तु सूचना ववश्लेषर् गनतववधधयों हे तु सुव्यवजस्थत संगदठत केन्र का ववचाि अपेक्षाकृॅृत नवीन
है ।
84
पुनसांवेष्ठन है जो परिर्ामतः आलोचनात्मक पुनिीक्षा, अत्याधुननक मानोिाफ या डाटा संकलन के रूप
में नवीन, मूल्यांककत सच
ू ना की उत्पवत्त है । साथ ही ववत संस्थानों या प्रयोगशालाओं के कसमसयों की
तुलना में उपयोक्ट्ता समि
ु ाय, अधधक व्यापकतः प्रनतननधधयों की सहायता के प्रयोजन से प्रश्नों की
सािताजत्वक व मूजल्यत अनकु िया िे ता है ।
गततववधयााँ उत्पाद
मल्
ू यांकन क्षेत्र की आलोचनात्मक पन
ु िीक्षा
डाटा का सहसम्बन्ध
गुर्धमों की भववष्यवार्ी
डाटा केन्द्र
डाटा, शोध का महत्वपूर्स अवयव या संघटक है । इसके समाज सम्बन्धी महत्व को न्यूनानुमाननत नही
ककया जा सकता। समसामनयक समाज की ववववध गनतववधधयााँ, यथा-योजना, ववकास, ननर्सयन इत्यादि
एवं मानव प्रगनत के प्रत्येक कायसक्षेत्र में डाटा की आवश्यकता होती है । डाटा का उपयोग प्रभावी ढं ग से
सुगसमत किने के सलए इसका संकलन, प्रिमर् व संगठन भली भााँनत होना चादहए। वैज्ञाननक डाटा का
प्रबंधन, संिहीत डाटा के सम्पूर्स आयतन व बढ़ती जदटलता के कािर् वैज्ञाननक समुिाय की सवासधधक
महत्वपूर्स उद्भवशील आवश्यकताओं में से एक है । डाटा का प्रभावी सज
ृ न, प्रबंधन व ववश्लेषर् में
प्रािं सभक डाटा अधधिहर् से लेकि डेटा के अंनतम ववश्लेषर् तक समादहत किने वाले सभी चिर्यक्ट्
ु त
व्यापक उपागम की आवश्यकता होती है । इस प्रयोजनाथस सांस्थाननक प्रकियाववधध यंत्रत्व आवश्यक है ।
ऐसी सांस्थाननक प्रकियाववधधयों को डेटा केन्र कहा जाता है ।
यूनेस्को के अनुसाि ’’डेटा केन्र गठन के अंतगसत परिमार्ात्मक संययात्मक सामिी डेटा को हस्तचासलत
किने वाला संगठन आता है’’। ऐसे केन्रों का प्राथसमक कायस डेटा का संिहर्, संगठन व प्रसाि है । ये
मापन सेवा प्रिान किते हैं एवं साथ ही ये साथसक मापन तकनीकों को उन्नत किने की जस्थनत में हैं।
डेटाकेन्र पि अंतःपरिवतसनीय रूप से, सूचना केन्रों, यद्यवप ये केन्र सभी डेटा का आलोचनात्मक
मूल्यांकन नही किते, की एक श्रेर्ी को परिभावषत किने हे तु प्रयक्ट्
ु त होता है । डेटा केन्र, ववस्ताि क्षेत्र
85
व आमाप िोनों में सभन्न होते हैं। डेटाकेन्र स्थानीय, िाष्रीय, क्षेत्रीय व अंतिासष्रीय स्ति पि हो सकते
हैं। ककसी डेटा केन्र के अंतगसत सामान्यतः 3 प्रमुख घटक समाववष्ट होते हैंः
आधनु नक डेटा केन्र इंटिनेट सम्पकसता, इंरानेट, लैन, वैन, एक्ट्सरानेट सदहत सच
ू ना सेवाओं के केन्रीय
संचालनों को हस्तचासलत किने हे तु संगठनों द्वािा सामान्यतः अनुिक्षक्षत ककए जाते हैं। सवासधधक मूलभूत
डेटाकेन्र में , कम्प्यूटि नेटवकस व सुिक्षा अनुप्रयोग होते हैं जो अनेक कम्प्यूटिों में वह
ृ ि डेटा िासश
भंडािर् के सदृश हैं। सामान्यतः, वह
ृ ि कम्पननयााँ, डेटाकेन्र की गनतववधधयों को साँभालने हे तु सच
ू ना
प्रौद्योगकी अवसंिचना िखती हैं।
• डेटा संिह ;
• डेटा ननयंत्रर् ;
• डेटा कोडीकिर् ;
• डेटा ननयोजन व डेटाभंडाि में संिधचत किना ; एवं
• डेटा पुनप्र ्िाजप्त।
86
वैज्ञाननक समुिाय के ननसमत्त या की ओि से इसका ववत्तपोषर् व अनुिक्षर्, आनतथेय िे शों द्वािा ककया
जाता है ।
सूचना प्रसाि की गनतववधध में ववसभन्न प्रकाि के संगठन समाववष्ट हैं। इन ववसभन्न संगठनों को उनकी
कायसशीलता हे तु ककसी असभकिर् द्वािा उधचत सामंजस्य की आवश्यकता है । ववसभन्न सच
ू ना प्रसाि
संस्थानों में जस्वधचंग कियाववधध के रूपमें कायस किने के ववसशष्ट शासनािे श के साथ नवीन प्रकाि की
प्रस्थापना की आवश्यकता है । ऐसे संगठन को ववननिे शक केन्र के रूपमें ववननदिस ष्ट ककया जाता है ।
ववननिे शक केन्र पि हे तु, है िो्स लाइब्रेरियन्स ग्लाॅसिी, ननम्न व्याययात्मक अन्याथस या अनतरिक्ट्त
अथस व्यक्ट्त किती है :-
• ’’सूचना व डेटा हे तु शोधाधथसयों को उपयुक्ट्त स्रोतों की ओि ननिे सशत किने वाला संगठन, यथा-
पुस्तकालय, सूचना मल्
ू यांकन केन्र, प्रलेखन केन्र, प्रलेख, व्यजक्ट्त ;
• ववननिे शक केन्र, वैज्ञाननक व तकनीकी समुिाय हे तु एक प्रकाि का सच
ू ना पटल है जो आवश्यक
सूचना की प्रत्यक्षतः पूछताछ नही किता अवपतु उपयोक्ट्ताओं/व्यावसायी-िाहकों को संतुष्ट किने
वाले सझ
ु ाव िे ता है ।
• ववननिे शक केन्र व्यजक्ट्त, संस्थान व प्रकाशनों के स्रोत के स्रोतों का सूचक है जजसके द्वािा ककसी
प्रित्त ववषय पि वैज्ञाननक सूचना अजजसत की जा सकती है ।
अन्य शब्िों में , ववननिे शक केन्र एक मध्यस्थ की भााँनत सेवा प्रिान किता है ; एवं वैज्ञाननक व तकनीकी
ववषयों पि सच
ू ना आवश्यकता से सम्बजन्धत पच्
ृ छा िखने वाले लोगों को यह उन क्षेत्रों में ववशेषीकृत
ज्ञान िखने वाले लोग जो अन्य लोगों तक वह ज्ञान साझा किने को इच्छुक हैं, को एवं संगठनों की
ओि ननदिस ष्ट या ननिे सशत किता है ।
सच
ू ना ववश्लेषर् केन्रों के प्रकिर् की भााँनत ववननिे शक केन्र, ववसभन्न स्तिों जैसे-स्थानीय, क्षेत्रीय,
अंतिासष्रीय आदि पि ववद्यमान िहते हैं।
शोधन गह
ृ :ःःःः
87
हैं, एवं पूछताछ हे त,ु ववशेषतः शोध व ववकास प्रनतवेिनों से सम्बजन्धत, केन्रीय खोज स्थान की भााँनत
कायस किते हैं।
इस इकाई के पूवव
स ती अनुभागों में हमने ववसभन्न प्रकाि के सूचना संस्थानों एवं लोगों में सूचना प्रसािर्
की भसू मका की सामान्यतः वववेचना की है । अब हम सच
ू ना एवं संप्रेषर् प्रौद्योधगकी उन्ननतयों द्वािा
कारित सूचना सेवाओं के ववसंस्थानीकिर् की वववेचना किें गे। िीघासवधध तक सूचना संभालन,
पुस्तकालयाध्यक्षों या सच
ू ना व्यावसानययों के नाम से प्रसशक्षक्षत वगस या समूह के परििक्षर् तक ही
सीसमत िही है । व्यवसाय की शजक्ट्त इस त्य से उद्भूत है कक यह समाज की ववसंस्थानीकृत सूचना
के खुििा व्यापािी के रूपमें संचासलत हुई है । सूचना की सावसभौसमक उपलब्धता ने व्यवसाय की समाज
सम्बन्धी, संगठनात्मक व व्यजक्ट्तगत स्तिीय उपयोगी भूसमका को परिपर् ू स किने की अनुज्ञा िी है । कई
प्रकिर्ों में सूचना असभगम असभकजल्पत संस्थानों, यथा-पुस्तकालय, सूचना केन्र आदि के माध्यम से
था औि अभी भी हैं। तथावप सूचना के ववसंस्थानीकिर् एवं व्यजक्ट्तगत स्ति तक सूचना असभगम एवं
इस प्रकाि पस्
ु तकालय के सााँचे को तोड़ने में प्रौद्योधगकी समथस प्रतीत होती है । इस सच
ू ना ववसंस्थानीकिर्
ने व्यवसाय के अंिि अत्यधधक असामंजस्य उत्पन्न कि सूचना व्यवसाय में तेजी से वद्
ृ धध िजस की है ।
यद्यवप, सूचना सेवा अभी तक पािं परिक पुस्तकालय एवं सूचना केन्र में संचासलत गनतववधधयों के पिों
में अनन्यतः परिभावषत नही हैं। यह प्रेक्षक्षत ककया जा सकता है कक गत िो या तीन िशकों के िौिान
’’सूचना िलाल की परिघटना’’ ने ववशेषतः संयुक्ट्त िाज्य अमेरिका व अन्य उन्नत िे शों ने तेजी से
ववकास ककया है । संिाअ में स्वयं में बहुत सािी िलाल फमें संचालन में हैं। इनमें ’’इन्फामेशन स्टोि’’
व ’’इन्फामेशन अनसलसमटे ड’’ महत्वपूर्स फमें हैं।
सूचना दलाल
सच
ू ना िलाल एक व्यजक्ट्त या फमस है जो मांग होने पि समस्त उपलब्ध स्रोतों का उपयोग कि प्रश्नों
का उत्ति िे ता है , औि लाभ हे तु व्यवसाय किता है । िलाली ’’भुगतान हे तु सूचना’’ के अक्षीय ससद्धान्त
पि आधश्रत हैं। पुस्तकालयों के प्रकिर् में उपयोक्ट्ता को प्रिान की गई सच
ू ना के प्रनतलाभ में उससे
कोई शुल्क नही सलया जाता है । ककसी को भी ’’सूचना जो ननःशुल्क उपलब्ध है ,एवं सूचना जो ननःशल्
ु क
है , के मध्य महत्वपूर्स ववभेि समझना चादहए। िलालों द्वािा प्रस्ताववत सेवाओं के अंतगसत हैं--
• ववस्तत
ृ बैठक, सूचना अनुिेश या तत्काल सशक्षा;
• सूचना पुनसांवेष्ठन ;
• बाजाि शोध/ववश्लेषर् ;
• वैयजक्ट्तक भती ;
• प्रेस कतसन सेवा ; एवं
• संगोजष्ठयााँ/कायसशालाएाँ।
सूचना िलाल रत
ु व िक्ष सेवा प्रिान किने में महाित िखते हैं। इन फमोॅेॅं में अधधकांश कमी
पुस्तकालय पष्ृ ठभूसम के होते हैं जो सादहत्य खोज, प्रलेख आपूनतस व पुनःप्राजप्त सेवाएाँ प्रिान किते हैं।
ये फमें पस्
ु तकालयों हे तु कोई खतिा नही खड़ा कि सकतीं। त्यतः, वे उन मांगों व आवश्यकताओं को
पूिकतः पर्
ू स किती हैं जजन्हें जन समधथसत पुस्तकालय, पूनतस किने का प्रयास नही कि सकते, जबकक
88
इन्हें वहन किने में समथस व्यवसाय, व्यवसायी व अन्य उपयोक्ट्ता ववशेष व महाँगी सेवाओं द्वािा प्राप्त
कि सकते हैं।
मानव नेटवकस:ॅःॅःपािं परिक रूप से सूचना प्रबंध व सूचना ववज्ञान का प्रमुख ध्यान केन्र, सूचना
प्रिमर् के मि
ृ ,ु अधधक गर्
ु वत्तापिक मानव आयामों के स्थान पि, सच
ू ना संसाधन व इसको समथस
बनाने वाली प्रौद्योधगकी की भौनतक प्रकृनत पि िहा है । सूचना अंतिर् एवं अंतवैयजक्ट्तक प्रमख
ु ता सदहत
संगठनों में अनौपचारिक संचाि नेटवकों की प्रकृनत व भूसमका के पीछे मानव कािकों की समझ
संगठनात्मक सूचना संसाधन के प्रभावी प्रबंध अत्यंत महत्वपूर्स या ननर्ासयक हैं। संगठनों में सूचना
प्रसिर् मानव नेटवको में केन्रीय भूसमका में हैं। मुदरत या कम्प्यूटि आधारित सूचना संसाधन नही
अवपतु हममें से अधधकांश लोग ही हैं जो हमािे प्राथसमक स्रोत का गठन किते हैं।
प्रबंध संगठनों में , सामान्यतः संचाि के िो चैनल या प्रवाहमाध्यम संचासलत होते हैं। ये औपचारिक व
अनौपचारिक चैनल हैं। औपचारिक संिचनाएाँ, एक व्यवजस्थत प्रर्ाली का प्रनतननधधत्व किती हैं जो
ववसभन्न स्तिों पि प्राधधकाि व संचाि प्रवाहों को परिननयसमत किता है , ननर्ासयकों को जोड़ती हैं, एवं
सच
ू ना व ननर्सय प्रकियाओं के सव्ु यवजस्थत प्रवाह को उत्पन्न किता है । सामान्य प्रवाह ऊपि के स्तिों
से नीचे के स्तिों की ओि, पुनभसिर् व्यवस्था के साथ, होता है जो प्राधधकारियों को ननम्न स्तिीय
ननष्पािन एवं समस्याओं को आाँकने में समथस बनाता है ।
िस
ू िी ओि अनौपचारिक चैनल, संगठनों के अंिि घदटत होने वाले सामाजजक अंतससम्बन्धों का प्रनतननधधत्व
किते हैं। यद्यवप उक्ट्त िोनों संकल्पनाएाँ, आवश्यकतः पिस्पि अपवजी नही हैं, प्रत्यत
ु उनके मध्य
ववभेि ककया गया है । अन्य शब्िों में औपचारिक प्रवाहों के वैषम्य/सहज अंति में अनौपचारिक संचाि
प्रनतरूप अधधक परिननयमन के बबना, स्वतः स्फूनतसता की ओि प्रवत्त
ृ होता है । तथावप, ककसी समूह के
अंतगसत कनतपय व्यजक्ट्त ववसभन्न पिसोपानिम स्तिों या प्रभागों को जोड़कि अथवा वाह्य संगठनात्मक
सीमा िे खाओं से ननःसत
ृ िर्नीनतक महत्वपूर्स डेटा के द्वािपालों के रूपमें कायस किते हुए संगठनात्मक
संचाि में मुयय भूसमका का ननवसहन किते हैं। अनौपचारिक नेटवकस, संगठनों में शजक्ट्तशाली व जस्थि
प्रभाव डालता है । अनौपचारिक नेटवकों के ववश्लेषर् में संगठन को उन समूहों के घटको व सम्पकों से
ननसमसत पिस्पि स्वतंत्र सामाजजक प्रर्ाली माना जाता है। 1960 के िशक में जे.जे.एलन व अन्य द्वािा
संचाि नेटवकों में शोध को शासमल ककया गया। उन्होंने संगठनात्मक व्यवस्थाओं के अंतगसत ववशेषकि
अनौपचारिक संचािात्मक, एवं अनौपचारिक भूसमकाओं की पहचान की। उनके द्वािा प्रस्तुत व वववेधचत
कुछ नवीन संकल्पनाएाँ हैं--प्रौद्योधगकीय द्वािपाल, आंतरिक संचाि स्टाि, वाह्य संचाि स्टाि। संगठन
के अन्य लोगों न,ॅे इन तािों की ओि उनके दृजष्टगोचि ज्ञान व अनुभव के कािर् सलाह या तकनीकी
मामलों हे तु उपागम ककया है ।
सूचना तछन्नक
सूचना नछन्नक एक नवीन संकल्पना है जो वैयक्ट्तीकृत सूचना प्रिे यता से सम्बंजन्धत है । इसमें वांनछत
लोगों तक सच
ू ना प्रिे यता सदहत ववववध प्रकाि की प्रकियाएाँ समाववष्ट हैं। सच
ू ना नछन्नक सूचना स्रोतों
व सच
ू ना उपयोक्ट्ताओं के मध्य अननवायस मध्यस्थ होते हैं। अधधकति प्रकिर्ों में सच
ू ना स्रोत व सच
ू ना
उपयोक्ट्ता, िोनों, कोई पिस्पि ज्ञान नही िखते जो उन्हें उपयोक्ट्ताओं की आसन्न या िीघासवधध
89
आवश्यकताओं हे तु सवासधधक साथसक सूचना प्राप्त किने में मागसिशसन कि सकता हो। नछन्नकों, जजन्हें
उपयोक्ट्ताओं व स्रोतों के मध्य तत
ृ ीय पक्ष के रूप ् में ताककसक रूप से प्रनतस्थावपत ककया गया है , के
स्रोतों में सूचना की आलोचनात्मक समीक्षा एवं उपयोक्ट्ताओं हे तु उनके द्वािा साथसक आाँकी गई सूचना
का ज्ञान व कायासत्मकता, िोनों, धारित किना चादहए।
सूचना नछन्नकों का ववशेष गुर् है कक वे उपयोक्ट्ताओं एवं स्रोतों की ओि से कायस कि सकते हैं। प्रथम
प्रकिर् जो आजकल सवासधधक आम हैं, में नछन्नक साथसक सच
ू ना प्राप्त किने, एवं सूचना बाढ़ से पाि
पाने में उपयोक्ट्ताओं की सहायता किते हैं। द्ववतीय प्रकिर् में स्रोतों द्वािा नछन्नकों का प्रयोग सच
ू ना
में संभाव्य रुधच िखने वाले उपयोक्ट्ताओं की ओि लक्षक्षत किने में ककया जाता है ।
ववमाध्यीकिण
ज्ञान मध्यस्थ
व्ह प्रकिया जजसमें पुस्तकालय उपयोक्ट्ताओं को ज्ञान के ववद्यमान ननकाय में अंतदृजष्ट प्रिान किते हैं,
एवं ऐसे ज्ञान के ववननिे शक अथवा धािक संसाधनों के अधधिहर् में उपयोक्ट्ताओं की सहायता किती
है , ज्ञान माध्यस्थीकिर् कहलाती है । ऐसी प्रकिया में शासमल संस्थान या व्यजक्ट्त ज्ञान मध्यस्थ कहलाते
हैं। वे सूचना अंतिर् श्रख
ं ृ ला में ननजश्चत रूपसे एक कड़ी का गठन किते है ।
90
पूवव
स ती परिच्छे िों में गैि-पािं परिक सूचना संगठनों अथवा ववसंस्थानीकृत सूचना सेवाओं से सम्बजन्धत
कुछ महत्वपूर्स संकल्पनाओं की व्यायया किने का प्रयास ककया गया है । यह दृष्टांत मात्र है व्यापक
नही।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(3) सच
ू ना संस्थानों की ववसभन्न श्रेखर्यों का संक्षेप में वर्सन कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
(4) सच
ू ना ववश्लेषर् केन्र की गनतववधधयों एवं उत्पािों का उल्लेख कीजजए?
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
(5) ववमाध्यस्थीकिर् एवं अंनतम उपयोक्ट्ता सशक्ट्तीकिर् की संकल्पनाओं से आप क्ट्या समझते हैं ?
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
1947 में उपननवेशी शासन से स्वतंत्र होने के पश्चात भाित सिकाि ने योजना असभकल्पन कि समाज
सम्बन्धी ववकास प्रािं भ किने के प्रयत्न ककए। िाष्र की आधथसक संवद्
ृ धध हे तु ववज्ञान व प्रौद्योधगकी
उपयोग में लाने हे तु सुववचारित नीनतगत ननर्सय सलए गए। इस प्रकिया में िे श की गनतववधधयों के
प्रत्येक मंडल-क्षेत्र में ववववध प्रकाि के संस्थान तेजी से स्थावपत हुए। वैज्ञाननक शोध ने सिकाि से
वांनछत संिक्षर् व वपतिृ क्षर् अधधप्राप्त ककया। उपयक्ट् ु त व प्रभावी सूचना प्रर्ासलयों व सेवाओं को
ननयोजजत किने हे तु आवश्यक अवसंिचनात्मक सुववधाओं के ववकास को सिकािी समथसन समला। इस
परिस्थनत ने िे श भि में फैले पुस्तकालय व सूचना संस्थानों के ववकास का मागस प्रशरूत ककया। एक
प्रकाि से संवद्
ृ धध प्रनतरूप में हम बत्रयुग कायसढ़ााँचे, तथावप इसके समस्त असभलक्षर्ों सदहत नहीं, के
प्रभाव का अवलोकन कि सकते हैं।
91
3.4.1 संवद्
ृ चध प्रततरूप
शैक्षक्षक व व्यावसानयक स्तिों पि पुस्तकालय, सूचना व प्रलेखन केन्र, शोध व ववकास संस्थान व
प्रयोगशालाएाँ, शासकीय असभकिर् एवं कई सावसजननक व ननजी क्षेत्रक उपिम जैसे संस्थानों का उद्भव
वहृ ि संयया में हुआ है । प्रािं सभक चिर्ों में इन सभी संगठनों ने, बबना ककसी आपसी जुड़ाव या सम्पकस
के एकलता में कायस ककया। पिन्तु समय व्यतीत होने के साथ प्रथम युग के िौिान उभिे संस्थानों की
कुछ श्रेखर्यों के मध्य हम स्थावपत जुड़ाव िे ख सकते हैं।
िस
ू िी ओि , द्ववतीय युग के संस्थान जो 1950 व 1960 के िशको में स्थावपत हुए थे, वे पिमार्ु
ऊजास आयोग, भाितीय अंतरिक्ष अनुसध ं ान संस्थान, इलेक्ट्राननक आयोग जैसे समशन उन्मुख संस्थानों
की आवश्यकताओं की परिपूनतस किते हैं। वैज्ञाननक व औद्योधगक अनुसंधान परिषि, भाितीय कृवष
अनुसंधान परिषि, भाितीय धचककत्सा अनुसंधान परिषि, िक्षा अनुसंधान एवं ववकास संस्थान, एवं अन्य
अनुसंधान संकुलों को भी इस समूह में समाववष्ट ककया जा सकता है । यद्यवप, इन िोनों युगों के
संस्थानों की अनौपचारिक गनतववधधयों के समन्वयन का कोई प्रयत्न नही ककया गया है ।
यद्यवप 1980 की िशकावधध, िे श की सूचना अवसंिचना में परिवतसन की साक्षी िही है । परिर्ामतः
कई परिवतसन हुए है । उिाहिर्ाथस-सिकाि द्वािा सव्ु यवजस्थत ढ़ं ग से सूचना प्रर्ासलयों के आधुननकीकिर्
का प्रोत्साहन। इसके परिर्ामतः ननस्साट(अब अप्रचसलत), इनववस, बी.टी.आई.एस जैसी िाष्रीय सच ू ना
प्रर्ासलयों का ववकास हुआ। आधुननक संचाि प्रौद्योधगकी का प्रयोग कि इन िाष्रीय सूचना प्रर्ासलयों
का समन्वयन व िाष्रीय सूचना संस्थानों की सहभाधगता, िे श के सूचना संस्थानों के पुनननसयोजन में
महत्वपूर्स चिर् बनें। संसाधन सहभाधगता नेटवकों की स्थापना के प्रयत्न हुए। इन्डोनेट व ननकनेट
92
प्रित्त सुववधाओं का उपयोग कि इनजफ्लबनेट, डेलनेट एवं कैसलबनेट जैसी परियोजनाएाँ असभकजल्पत एवं
संचालनशील हुईं। ववसभन्न स्तिों पि सूचना सेवाओं व उत्पािों के ववकास में नेटवककांग व संसाधन
सहभाधगता संकल्पना का गंभीिता से अनच ु ालन ककया गया। समाजगत ववकास हेतु उपलब्ध संसाधनों
का सवोत्तम संभाव्य व प्रभावी उपयोग, इस संवद्
ृ धध का ननयोजी ससद्धान्त प्रतीत होता है । इस प्रसंग
में , डेलनेट व इनजफ्लबनेट द्वािा अजजसत प्रगनत ववशेष अथसपर्
ू स समझी जाती है ।
3.4.2 संवद्
ृ चध की िावी टदशाएाँ
संस्थानों को संचासलत किने वाला मानव संसाधन ही संस्थान की सफलता या असफलता हे तु प्राथसमकतः
उत्तििायी है । मानव संसाधन ही नेतत्ृ व, तकनीकी कौशल, प्रबंधकीय ननयंत्रर्, एवं ककसी संस्थान के
ननष्पािन के मूल्यांकन को प्रिान किता है । ऐसी जनशजक्ट्त का सव्ु यवजस्थत ननमासर् ककए जाने की
आवश्यकता है । जनशजक्ट्त ननमासर् में कई कािकों को ध्यान में िखने की आवश्यकता है । ववववध
ववशेषज्ञता व कौशलयक्ट्
ु त सूचना वैज्ञाननकों व प्रौद्योधगकीवविों जो उच्च गर्
ु वत्तायुक्ट्त सूचना सेवाओं
को ननयोजजत व अवपसत किने हे तु संसजक्ट्त में संचासलत हो, के सन्िभस का ननमासर् मुयय उद्िे श्य होना
चादहए। सच
ू ना व्यावसानययों हे तु िाष्रीय जनशजक्ट्त कंशोससयम या सहसम्मेलन का गठन, ऐसे कायस
को सुयोग्य बनाएगा। सहसम्मेलन को एकीकृत सावसबत्रक उपागम का सूत्रपात किना चादहए जो जनशजक्ट्त
ववकास अध्ययनों पि शोध परियोजनाओं के ननमासर् व प्रस्तुनत को सुयोग्य बनाए। यदि ऐसे उपाय
समय से ककए जााँए, नवीन स्थावपत संस्थानों की जनशजक्ट्त की िे खभाल की जा सकती है । सहसम्मेलन
सूचना संस्थानों, अनुप्रयुक्ट्त जनशजक्ट्त शोध संस्थानों व व्यावसानयक परिसंघों के सिस्यों से ननसमसत
एक प्रनतननधधक ननकाय होना चादहए। इस ववषय पि सलाह हे तु िाष्रीय ज्ञान आयोग तक उपागमन
ककया जा सकता है । ऊपि सझ
ु ाए गए चिर्ों का कियान्वयन, िे श में प्रभावी सूचना संस्थानों की स्थापना
का मागस प्रशस्त किे गा।
93
पूवव
स ती पष्ृ ठों में हमने, भाित में ववद्यमान सच
ू ना संस्थानों की श्रेर्ी व प्रकािों के बािे में सीखा है ,
तथावप ज्ञान आधत
ृ अथसव्यवस्था नामक नवप्रनतस्पधी युग में अपनी भसू मका हे तु ये संगठन ककतना
तैयाि है , को हमने जानने का प्रयास नही ककया है । सादहत्य में प्रनतवेदित भाितीय सूचना संस्थानों की
तैयािी का आाँकलन किने वाले प्रकिर् अध्ययन हमें नही समलते। तथावप अन्यत्र ककए गए अध्ययनों
पि कुछ ननष्पािन संकेतक, जो ऐसे अध्ययनों हे तु प्राचलों के रूपमें सहायक ससद्ध हो सकते हैं, ननम्न
परिच्छे िों में प्रस्तुत हैं। ये प्राचल हैंः--
(1) सच
ू ना प्रौद्योधगकी ववशेषज्ञ ;
(3) वातासकाि ;
(4) नछन्नक ;
94
• प्रभावी उपयोक्ट्ता जनसम्पकस कियाववधधयााँ
(1) सच
ू ना सामिी की परिलजब्ध ;
(4) पोटस ल।
भाितीय सूचना संस्थानों को आधाि मानते हुए ज्ञान आधारित अथसव्यवस्था हे तु उनकी तैयािी को आाँकने
हे तु उक्ट्त सच
ू ीबद्ध प्राचलों का प्रयोग प्रकिर् अध्ययन अवश्य संचासलत होनें चादहए। इन अध्ययनों से
प्रकट नवीन त्य इन संगठनों के कायाकल्प हे तु परिसि का ननमासर् किें गे, एवं नत
ू न यग
ु इन्हें साथसक
बनाएगा।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
3.5 सािांश
यह इकाई आधुननक समाज, ववशेषतः, सूचना समाजों में संस्थानों की महत्ता पि ववशेष बल िे ती है ।
ववषयगत असभनव अध्ययनों की अनुपजस्थनत में ’’इन्टो ि इन्फामेशन एज’’ से शीषसकीकृत प्रनतवेिन ने
इस इकाई की अंतवसस्तु के ववस्तत
ृ वर्सन में महत्वपूर्स सहायता प्रिान की है । तीन युगों से सम्बद्ध
महत्पूर्स ववशेषताओं सदहत सूचना अंतिर् के तीन ढं गों की संक्षेप में वववेचना की गई है । ववसभन्न
प्रकाि के सूचना संस्थानों से सम्बद्ध मूल असभलक्षर्ों, जो सूचना प्रसाि प्रकिया में उनकी ववसशष्ट
भूसमका पि ववशेष बल िे ते हैं, की व्यायया की गई है । सूचना िलाल जैसे अपिं पिागत संस्थानों एवं
नवोद्सभि संकल्पनाएाँ, यथा-सूचना नछन्नक, मानव नेटवकस, ज्ञान मध्यस्थ, शोधाधथसयों में सच
ू ना प्रवाह
पि प्रौद्योधगकीय द्वािपाल उपयोक्ट्ता समि
ु ाय में प्रसाि की सिल भाषा में व्यायया की गई है । यह
95
इकाई नई प्रववृ त्तयों के रूपमें ववमध्यीकिर् व अंनतम उपयोक्ट्ता सशक्ट्तीकिर् परिघटनाओं, जजन्होंने
परिवतसनशील परिवेश में सूचना ववशेषज्ञों की सेवाओं की आवश्यकता व औधचत्य से सम्बद्ध व्यावसानयक
चचास की शरु
ु आत की है , की संक्षॅ
् ेपतः वववेचना किती है । इकाई के ननष्कषस में ज्ञानाधत
ृ अथसव्यवस्था
द्वािा खड़ी की गई चुनौनतयों से ननपटने हे तु सच
ू ना संस्थानों, एवं उनके आमूलचूल परिवतसनों की
भसू मका पि ववशेष बल िे ती है । भाित में सच
ू ना संस्थानों की संवद्
ृ धध की भावी दिशा से सम्बद्ध कुछ
सुझावों को इस इकाई में समाववष्ट ककया गया है । आशा की जाती है कक इस इकाई में प्रित्त सूचना
बी.एल.आई.एस कायसिम के अध्ययन में रुधच िखने वाले अभ्यधथसयों को सहायक ससद्ध होगी।
(1) सच
ू ना संस्थानों की संवद्
ृ धध प्रनतरूप को सच
ू ना पािे षर् की तीन मल
ू भत
ू िीनतयों के अंतगसत वर्सन
ककया गया है । प्रत्येक िीनत, एक ववसभन्न मूल्य प्रर्ाली का अनुसिर् किती है । इन्हें ननम्नवत
श्रेर्ीबद्ध ककया गया है ः--
(1) शद्
ु ध ववज्ञान, शैक्षक्षक व मूलशोध की मल्
ू य प्रर्ाली के संगत महाववषय उन्मख
ु सूचना अंतिर्,
जजसे यग
ु प्रथम कहा गया।
(2) सिकाि प्रायोजजत लक्ष्यासभयान या समशन, (यथा-ए.ई.सी, नासा 1960 में ) की मल्
ू य प्रर्ाली
के संगत समशन उन्मख
ु सच
ू ना अंतिर्, जजसे युग द्ववतीय कहा गया।
(3) समाज सम्बन्धी समस्याओं के समाधान की मूल्यप्रर्ाली के संगत समस्या उन्मुख सूचना
अंतिर्, जजसे युग तत
ृ ीय कहा गया।
वतसमान प्रसंग में , ववसभन्न स्तिों पि, ववववध मध्यस्थों द्वािा सूचना सेवाओं एवं उत्पाि के ववकास
में नेटवककांग व संसाधन सहभाधगता संकल्पना को महत्व दिया गया है । ववकास सम्बंन्धी जदटल
समाजगत समस्याओं के समाधान हे तु उपलब्ध सूचना संसाधनों का सवससंभाव्य व प्रभावी उपयोग
इस नवीन प्रनतरूप के पीछे मुयय ननयोजी ससद्धान्त है । सुयोग्य प्रौद्योधगककयों का प्रयोग कि
संस्थानों के असभकल्पन के प्रयत्न, उद्भवशील ज्ञान समाज को सच
ू ना समथसन की प्रिे यता एवं
ज्ञान आधत
ृ अथसव्यवस्था को प्राप्त किने में सफल होंगे।
(2) 1990 का अंनतम िशक कई परिवतसनों का साक्षी िहा है । मानव संसाधन प्रबंध, लेखांकन, शोध व
ववकास, एवं ववपर्न सेवा जैसे कायों में ववभाजजत ये संगठन उत्पाि उन्मुख इकाईयों से अधधक
नही समझी जाती। प्रबंध ववशेषज्ञों के अनस
ु ाि-भौगोसलक रूपसे फैले कायसबल से असभलक्षक्षत या
संिक्षक्षत आधनु नक संगठन नम्य संिचनाएाँ है ।, जजनमें संगठनात्मक प्रकिया पि आधारित िाहक
उन्मुख पि, संगठन के उद्िे श्यों व लक्ष्यों को परिपूर्स किने हे तु स्वतंत्र रूप से कायस किते हैं।
96
(3) सूचना संस्थानों की ववसभन्न श्रेखर्यााँ हैं। इनमें से लोकवप्रय प्रकाि की श्रेखर्यााँ हैं-पुस्तकालय, प्रलेखन
केन्र, सूचना ववश्लेषर् केन्र, डेटा केन्र आदि। इन पिं पिागत संस्थानों, ववननिे शक केन्रों व
शोधनगह
ृ ों के अनतरिक्ट्त कई ववसंस्थानात्मक सूचना सेवाएाँ हाल ही में आई हैं। हमािे समाज में
पुस्तकालय (सावसजननक, शैक्षखर्क, शासकीय, ववशेष) मर
ु र् से बाहि या कुछ वषस पुिानी ककसी
पस्
ु तक, शोधपबत्रका या प्रलेख के असभगम हे तु केवल साधन प्रिान किता है । अधधकति वविे शी
पुस्तकें, शोधपबत्रकाएाँ या ववशेषीकृत प्रलेख जो सामान्य व्यापाि प्रवाहमागस से कतई प्राप्त नही हो
सकते, पुस्तकालयों द्वािा अधधिहीत व परििक्षक्षत ककए जाते हैं। प्रलेखन केन्र, मल
ू तः, क्षेत्र ववशेषज्ञ
के उपयोक्ट्ताओं के सलए होते हैं। िे श में इन्हें स्थानीय, क्षेत्रीय/आंचसलक व िाष्रीय स्तिों पि
ननयोजजत ककया जाता है । सूचना ववश्लेषर् केन्र न केवल सूचना प्रसाि व पुनप्र ्िाजप्त किते हैं
अवपतु वे नई सूचना सज
ृ न भी किते हैं। डेटाकेन्र उपयोक्ट्ताओं हे तु डेटा का संिहर्, ननयंत्रर्,
कोडडंग या कूटकिर्, ननयोजन एवं पुनप्र ्िाजप्त किते हैं।
(4) सूचना ववश्लेषर् केन्र की मुयय गनतववधधयों एवं उत्पािों को ननम्नांककत सािर्ी के माध्यम से
प्रिसशसत ककया जाता है —
गततववधयााँ उत्पाद
मल्
ू यांकन क्षेत्र की आलोचनात्मक पन
ु िीक्षा
डाटा का सहसम्बन्ध
गुर्धमों की भववष्यवार्ी
(5) पस्
ु तकालयों एवं अन्य सूचना संस्थानों द्वािा प्रित्त सेवाओं को प्रौद्योधगकीय ववकासों ने प्रभाववत
ककया है । अंनतम उपयोक्ट्ताओं पि लक्षक्षत कई वाखर्जज्यक सेवाएाँ अजस्तत्व में आ चुकी हैं। अधधक
उपयोक्ट्तानुकूल सेवाओं एवं सीडीिोम, डेटाआधािों के सजम्मलन ने अंनतम उपयोक्ट्ताओं को सूचना
हे तु अपनी स्वयं की आॅनलाइन खोज किने योग्य बनाया। यह वद्
ृ धध काफी सीमा तक धीमी िही
एवं इसने सूचना व्यावसानययों के समक्ष कोई समस्या खड़ी नही की। अचानक सूचना ववशेषज्ञों
को परिवनतसत सामाजजक व कायसकािी परिवेश से सामना किना पड़ा। इंटिनेट के अभ्युिय के
पश्चात यह परिस्थनत औि तीव्र हुई। कंप्यूटि असभगम व इंटिनेट सम्पकस िखने वाले अधधकाधधक
97
लोग सूचना असभगम की जस्थनत में हैं। इस परिस्थनत ने अंनतम उपयोक्ट्ताओं को स्वयं सूचना
खोज के ननष्पािन में समथस बनाया है । इस प्रकाि, ववमध्यस्थीकिर् एवं अंनतम उपयोक्ट्ता
सशक्ट्तीकिर् प्रचसलत शब्ि बन गए हैं।
ववमध्यस्थीकिर् तत
ृ ीय पक्ष की आवश्यकता के बबना, अंनतम उपयोक्ट्ता द्वािा सच
ू ना की खोज से
सम्बजन्धत है । पुस्तकालयों के सम्बन्ध में ववमध्यस्थीकिर् का तात्पयस है --सूचना का ववक्षेपर्,
केन्रीकृत भौनतक संिहशालाओं से, कम्प्यूटि नेटवकों के माध्यम से प्रत्यक्षतः उपलब्ध एकांति
स्रोतों, की ओि किना है ।
(6) बत्रयग
ु कायसढ़ााँचे के अनरू
ु प सच
ू ना संस्थानों की संवद्
ृ धध की वववेचना की जा सकती है । यह प्रेक्षर्ीय
है कक भाित में पुस्तकालय, प्रलेखन व सूचना केन्र, शोध व ववकास संस्थान, शासकीय व
सावसजननक क्षेत्रक संगठन जैसे प्रथम युगीन संस्थान वह
ृ ि संस्था के रूप में प्रकट हुए हैं।
आिं भ में इन संस्थानों ने बबना ककसी समन्वयन के, एकलता में ही कायस ककया। िस
ू िी तिफ
1950 व 1960 की िशकावधध में स्थावपत संस्थानों ने भाअंअसं(इसिो), वैऔअंप(ब ्ॅैप्त ्),
भाकृअप(प ्।त्प ्), पऊआ(।म्ब ्) जैसे समशन उन्मुख संगठनों की अनन्य सूचना आवश्यकताओं को
परिपूर्स केन्र ककया। ये प्रयत्न द्ववतीय युग के संगठनों में भी इसी भााँनत सलए जा सकते हैं।
1970 के िशक से लघु उद्यम प्रलेखन केन्र जैसे संस्थान; वैऔअप प्रयोगशालाओं से सम्बद्ध
प्रलेखन केन्रों ने ववशेषीकृत सच
ू नाकेन्रों को प्रोद्भत
ू ककया, जजन्होंने समस्या समाधान प्रकाि की
गनतववधधयों को सूचना समथसन प्रिान ककया। भेल या भाभाइसल, सी.एम.टी.आि.आई, सेल जैसे
सावसजननक क्षेत्रक उद्यमों एवं भाित इलेक्ट्राननक्ट्स, टाटा अनुसध
ं ान संस्थान, िै नबाॅक्ट्सी आदि
ननजी क्षेत्रक उद्योगों ने अपने स्वयं के ववशेषीकृत सच
ू ना प्रकोष्ठ ववकससत ककए।
1980 के िशक में सिकाि ने, आधनु नक प्रौद्योधगकी का प्रयोग कि सव्ु यवजस्थत व अधधक संगदठत
ढ़ं ग से सूचना प्रर्ासलयों के आधुननकीकिर् को प्रोत्सादहत ककया है । परिर्ामतः, ननस्साट(वतसमान
में असंचालनीय), इनववस, बी.टी.आई.एस जैसी िाष्रीय सूचना प्रर्ासलयााँ ववकससत हुईं। आधुननक
सूचना एवं संचाि प्रौद्योधगकी का प्रयोग कि नेटवककांग व संसाधन सहभाधगता की संकल्पना का
गंभीिता से अनुसिर् जािी है । इन ववकासात्मक परिवतसनों ने भाित को ज्ञान आधारित आधथसक
युग में अिवती छलााँग लगाने में समथस बनाया है ।
98
ववमध्यस्थीकिर् : सूचना(एवं उत्पािों) औि इसके अंनतम उपयोक्ट्ताओं के मध्य कायसित मध्यस्थ
की भूसमका से ववननदिस ष्ट है । अन्य शब्िों में , यह अंनतम उपयोक्ट्ता द्वािा, तत
ृ ीय पक्ष की आवश्यकता
के बबना, सच
ू ना की खोज है । पुस्तकालयों के सम्बन्ध में ववमध्यस्थीकिर् का तात्पयस है --सूचना का
ववक्षेपर्, केन्रीकृत भौनतक संिहशालाओं से, कम्प्यूटि नेटवकों के माध्यम से प्रत्यक्षतः उपलब्ध एकांति
स्रोतों, की ओि किना है ।
संवद्
ृ धध प्रनतरूप : आमाप व संयया में , कुछ ननिं तिता के साथ वद्
ृ धध की प्रकिया।
सूचना िलाल : एक व्यजक्ट्त अथवा फमस जो मांगे जाने पि उपलब्ध सभी स्रोतों का प्रयोग कि सभी
प्रश्नों का उत्ति खोजता है , एवं लाभ हे तु कायस किता है ।
सच
ू ना संस्थान : एक संस्थान जो सामान्यतः ज्ञान या सच
ू ना अंतिर् से सम्बद्ध
गनतववधध/गनतववधधयों को ननष्पादित किता है ।
99
प्रौद्योधगकी द्वािपाल : आंतरिक व वाह्य संप्रेषर्, िोनों संप्रेषर्ों में ववशेषज्ञ, जो व्यावसानयक
सादहत्य में अधधक उच्च प्रभावन िखते हैं, अधधक सम्मेलनों में उपजस्थत िहते हैं, एवं अधधक व्यवस्थावपत
सम्बद्धता िखते हैं।
Guiliano, V. E. [et al]. Into The Information Age: A Perspective for Federal Action
on Information. Chicago: ALA. 1978. Print.
100
27.3(1979): 367-388. Print.
101
इकाई4 पुस्तकालय ववज्ञान के सूत्र
स ्ःािचना
4.1 प्रस्तावना
4.2.3 तत
ृ ीय सूत्र : ’’प्रत्येक पुस्तक को उसका पाठक’’
4.4 सािांश
4.6 मय
ु य शब्ि
102
• पुस्तकालय व सूचना संचाि ववश्व में घदटत हे ाने वाले िांनतकािी परिवतसनों के प्रसंग में पंचसूत्रों के
औधचत्य की समीक्षा किने में ; एवं
• ववसभन्न लेखकों द्वािा पंचसूत्रों में प्रयाससत पुनिीक्षक्षत परिवद्सधनों की समुपयक्ट्
ु तता की वववेचना
किने में ।
पस्
ु तकालय व सच
ू ना ववज्ञान के क्षेत्र में डा0 एस.आि.िं गनाथन महोिय द्वािा दिए गए सवासधधक
महत्वपूर्स योगिानों में से एक उनके पंचसूत्रों का प्रनतवेिन है । इन सूत्रों को पहले असभकजल्पत ककया
गया। इनकी औपचारिक सैद्धाजन्तक व्यायया लेखक द्वािा दिसम्बि 1928 में औपबंधधक सशक्षर्ात्मक
सम्मेलन, धचिम्बिम, तसमलनाडु में की गई। पंचसत्र
ू ों की सम्यक समझ हे तु उस प्रसंग का जानना
आवश्यक है जजनमें इनका सूत्रपात हुआ। ध्यातव्य है कक डा0 एस.आि.िं गनाथन महोिय ने अपनी
पुस्तकालयाध्यक्षता की सशक्षा, वषस 1924 में स्कूल आॅफ लाइब्रेरियनसशप, लंिन ववश्वववद्यालय से
प्राप्त की थी। ववश्वववद्यालय में औपचारिक प्रसशक्षर् प्राप्त किने के पश्चात उन्होने इंग्लैंड का व्यापक
भ्रमर् ककया। इस भ्रमर् ने उन्हें इंग्लैंड में पुस्तकालयों की कायसशीलता के अवलोकन का अवसि दिया।
डा0 एस.आि.िं गनाथन महोिय ने उन पस्
ु तकालयों द्वािा अनस
ु रित ससद्धान्तों व प्रथाओं एवं
व्यावसानयक िाहकों को प्रित्त सेवाओं को समझने में गहन रुधच ली। वे पुस्तकालयों की प्रचसलत प्रथाओं
एवं पुस्तकालय संचालनों के ननयोजन हे तु स्मिर्ीय पाठ्य ननयमों से संतष्ु ट नही थे। वे उनके पीछे
दिए गए तकस में ननजश्चत नही थे। डा0 एस.आि.िं गनाथन महोिय को से ननयम, अाँगूठे के ननयम (इसे
ऐसा ही स्वीकाि कीजजए या छोड़ िीजजए) के प्रकाि की भााँनत ही लगे। उनका ववश्लेषी मजस्तष्क स्वयं
को ऐसी यंत्रवत प्रथाओं के अधीन न हो सका। अतः वे पस्
ु तकालयों हे तु एक वैज्ञाननक आधाि की खोज
के प्रयत्नों में लग गए जजसका प्रयोग कि पस्
ु तकालयों में उनके द्वािा अवलोककत प्रथाओं को सामान्यीकृत
एवं कुछ ननजश्चत न्यूनतम संयया के मूलबोध ससद्धान्तों की तलाश में थे जो पुस्तकालय संगठन,
प्रबंध व संचालन को िक्ष एवं इसकी सेवाओं को सावसभौसमक बनाने हे तु पस्
ु तकालय के क्षेत्र में क्ट्या
किने की आवश्ययकता है , को जानने के सलए युजक्ट्तत उपायों को समझने में हमें समथस बनाते हैं। साथ
ही उनकी यह भी असभलाषा थी कक ये मूल ननयम गप्ु त रूप में हों, उस समय तक अज्ञात कई प्रथाएाँ
बाि में सतह पि आ सकती हैं। डा0 एस.आि.िं गनाथन महोिय की इस धचंतनधािा का प्रनतफल
पुस्तकालय ववज्ञान के पंचसूत्रों के प्रनतपािन की परिर्नत में हुआ। तिप
ु िांत ये सूत्र पर्
ू तस ः ववकससत
हुए, एवं 1931 में पस्
ु तक के रूप में प्रकासशत हुए।
103
इस इकाई में हम पंचसूत्रों के ननदहताथस पािं परिक पस्
ु तकालयाध्यक्षता के प्रसंग में इनके औधचत्य के
अध्ययन की कोसशश किें गे।
ननयम या सूत्र वैज्ञाननक ससद्धान्त, प्रकियावली या व्यवहाि होते हैं। ये सूत्र आवती त्य या घटना पि
आधत
ृ सामान्यीकिर् हैं। एबबंसटन ककसी असभकधथत ननयम के ननम्नवत भाषायी असभलक्षर्ों को मानते
हैंः--
अब हम हि एक पंचसत्र
ू के ननवसचन एवं ननदहताथों की वववेचना किें गे।
104
4.2.1 प्रथम तनयम: पुस्तकें उपयोग के भलए हैं
प्रथम ननयम ’’पुस्तकें उपयोग के सलए हैं’’ का प्रयोग किते समय हम यह सोचने को प्रवत्त
ृ होते हैं कक
यह एक स्वयं स्पष्ट सत्य है या एक सिल वक्ट्तव्य है जो गंभीि ध्यान या ववचािर् की योग्यता नही
िखता। पिन्तु गहनता से धचंतन किने पि अपना मत बिलना होगा। यह तभी स्पष्ट होगा जब हम
पुस्तकालयों में पुस्तकों के इनतहास की समीक्षा किें गे। वस्तुतः आिं सभक जोि, पस्
ु तकों के उपयोग पि
नही अवपतु उनके परििक्षर् पि है । मध्यकालीन पुस्तकालय, श्रंख
ृ ला पुस्तकालय के उिाहिर् हैं। पुस्तकें
अक्षिशः ननधाननयों से पीतल की जंजीिों से बद्ध िहती थीं, एवं उन्हें केवल एक अवजस्थनत में प्रयक्ट्
ु त
ककया जा सकता था। सुस्पष्टतः यह पस्
ु तकों का उपयोग सुगम बनाने को नही अवपतु पुस्तक परििक्षर्
हे तु ककया जाता था। यह उस समय स्वाभाववक प्रववृ त्त थी क्ट्योंकक पस्
ु तकों की िचना का कायस कदठन
था। यह आित कुछ कुछ मर
ु र् के आववष्काि पश्चात भी जािी िही, मुरर् ने प्रत्येक पुस्तक की अनेक
प्रनतयों के उत्पािन को सिल व सुगम बनाया। यद्यवप, पुस्तकों के अबाधधत प्रयोग की अनुमनत की
अननच्छा के एकल उिाहिर्ों को आज भी यिाकिा िे खा जा सकता है , सामान्य जस्थनत यह है कक
पुस्तकें बबना ककसी अनुमनत या बाधा या उपयोग हे तु उपलब्ध हैं। वस्तुतः पुस्तकालय सम्बन्धी नीनतयााँ,
पस्
ु तकों के अधधकतम उपयोग को प्रोन्नत किने के उद्िे श्य में सहायक होनी चादहए। अब हम पस्
ु तकालय
की कायसशीलता में प्रथम सत्र
ू के ननदहताथों की समीक्षा किें गे।
(1) तनटहताथय
पस्
ु तकालय ववज्ञान का प्रथम सत्र
ू , पस्
ु तकालय कायस हेतु कुछ महत्वपर्
ू स संिेश िे ता है । इनमें से कुछ
पुस्तकालय की अवजस्थनत, इसके कायस समय, भवन, फनीचि व कमसचारियों से सम्बजन्धत हैं।
(क) पस्
ु तकालय अवजस्थतत
(ख) काययसमय
प्रथम सत्र
ू में ननदहत अन्य महत्वपर्
ू स त्य है कक पस्
ु तकालय का कायस समय अधधकति उपयोक्ट्ताओं
की सुववधानुसाि होना चादहए। भाित के कई पुस्तकालयों को इस पक्ष में ववशेष ध्यान िे ने की
आवश्यकता है , एवं उन्हें उस समय खुला िखना चादहए जब उनके व्यावसायी िाहक अन्य गनतववधधयों
में न लगे हों ताकक वे पुस्तकालय का भ्रमर् कि सकें। पुस्तकालय के कायस समय में ननर्ासयक इस
प्रकाि का पूवस सकिय उपागम, ननजश्चत रूप से अच्छे परिर्ाम िे गा।
105
प्रथम सूत्र मांग किता है कक पुस्तकालय भवन एवं पस्
ु तकालय में सजज्जत फनीचि की ववसभन्न मि-
वस्तुओं की आयोजना व असभकल्पन पि उधचत ध्यान दिया जाना चादहए। पुस्तकालय भवन कायासत्मक
व तत्समय सौंियस आिही होना चादहए। फनीचि वस्तए
ु ाँ कायासत्मक व िे खने में आकषसक होनी चादहए।
िै क या अलमािी इस प्रकाि असभकजल्पत होनी चादहए कक पुस्तकों को सवु वधाजनक ऊाँचाई पि िखा जाय
ताकक िाहकों द्वािा उनका ववस्थापन व उपयोग सग
ु मतापव
ू क
स हो सके। ववशेषकि, बच्चों के पस्
ु तकालय
में , बच्चों को आकवषसत किने वाला ववशेषीकृत असभकजल्पत फनीचि होना चादहए। आिामिे ह फनीचि
सिै व उपयोक्ट्ताओं को पुस्तकालयों में बािं बाि आने को लालानयत किता है । यह सूत्र मुक्ट्त ननधानी
पुस्तकालय, जो उपकिर्ों व फननससशंग(फनीचि, कफदटंग, पिे आदि) से सजज्जत िहने के कािर् धारित
पुस्तकों को उपयोगी बनाता है , की संकल्पना को भी इंधगत किता है । अन्य शब्िों में , अपने संसाधनों
के उपयोग के आमंत्रर् व प्रोन्नयन हे तु प्रथम सूत्र हमें सामान्यतः असभकजल्पत कायासत्मक भवन, एवं
आिामिे ह फनीचि की आवश्यकताओं के बािे में संकेत किता है ।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(1) पस्
ु तकालय कसमसयों के सन्िभस में प्रथम सूत्र के ननदहताथों को संक्षेप में व्यक्ट्त कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
106
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
द्ववतीय सत्र
ू : प्रत्येक पाठक अपनी पुस्तक िखता है (सभन्न रूप’’पुस्तकें सबके सलए’’) शायि सवासधधक
अधधकधथत है , यहााँ तक कक डा0 िं गनाथन ने संस्वीकृत ककया है कक मात्र इस एक ससद्धान्त में इतना
है जो समाज हे तु पुस्तकालयों के अथस को व्यक्ट्त किता है । ’’यह सूत्र इस त्य से सम्बजन्धत है कक
हम सब सभन्न-सभन्न असभरुधचयााँ िखते हैं, एवं हम सभी को संतुष्ट किने हे तु एक पुस्तक अवश्य होती
है ’’। अन्य शब्िों में , यह सूत्र प्रत्येक व्यजक्ट्त को उसकी आवश्यकता के अनुसाि पुस्तकालय सेवा के
कानन
ू ी प्रावधान का संक्षक्षप्त रूप है । ववसभन्न िीनत से कधथत यह सत्र
ू पस्
ु तकालय सेवा के सावसभौमीकिर्
व लोकतंत्रीकिर् का अधधसमथसन किता है । यद्यवप, आिं सभक दिनों में समाज के उच्चवगस व असभजात्य
वगस से सम्बजन्धत केवल ववशेषाधधकाि प्राप्त लोगों तक ही पुस्तकों व पुस्तकालयों की असभगम्यता थी।
ककन्तु जनतंत्र, जजसने शासन में प्रत्येक नागरिक की भागीिािी को सनु नजश्चत ककया, के शुभागमन के
पश्चात की जस्थनत नाटकीयतः परिवनतसत हुई। अपनी आजीववका एवं ननवसहन हे तु लोकतंत्र को सशक्षक्षत
ज्ञानवान नागरिक वगस की आवश्यकता होती है । अतः बबना ककसी भेिभाव के चाहे ककसी भी संस्थान
से सशक्षा व ज्ञान का अजसन, सभी नागरिकों का मूल अधधकाि बन गया। अतः यह सूत्र कक ’’प्रत्येक
पाठक को उसकी पुस्तक’’ ससद्ध होता है ।
(1) तनटहताथय
107
है जो समि समुिाय को उपलब्ध है । ककन्तु सावसजननक पुस्तकालय प्रर्ाली स्वयं में प्रत्येक पाठक को
आवश्यक पुस्तकें प्रिान किने में समथस नही होगी। वस्तुतः सावसजननक पस्
ु तकालय प्रर्ाली, ववद्याधथसयों,
सशक्षकों एवं अन्य शोधाधथसयों की पस्
ु तक आवश्यकताओं की परिपूनतस में मात्र न्यूनतम भूसमका का
ननवसहन किती है ।
अतः सिकाि ववश्वववद्यालय व ववशेष पुस्तकालयों के अनतरिक्ट्त छात्रों, सशक्षकों व शोधाधथसयों की मांग
की पूनतस हे तु ववद्यालय व महाववद्यालय पुस्तकालयों की स्थापना का उत्तििानयत्व िखती है । यदि िाज्य
की पुस्तकालय प्रर्ाली व्यापक है एवं सभी श्रेखर्यों के लोगों को पुस्तकालय सेवा प्रिान किती है तभी
द्ववतीय सूत्र की मांगे पूर्स कही जा सकती हैं।
द्ववतीय सत्र
ू इस त्य पि ववशेष बल िे ता है कक यह पुस्तकालय प्राधधकिर् का िानयत्व है कक वह
पुस्तक चयन व उपयुक्ट्त कमसचािीवगस के प्रावधान के सम्बन्ध में उत्तििानयत्व स्वीकाि किे । ककसी
पुस्तकालय के पास आवश्यक समस्त पुस्तकों के िय हे तु पयासप्त ननधध नही होती। यही कािर् है कक
पुस्तकालयों को मुजश्कल समय में पस्
ु तक चयन प्रकिया का अवलंबन या आश्रय लेना पड़ता है । अन्य
शब्िों में , उपलब्ध ववत का न्यायसंगत प्रयोग सवासधधक साथसक व वांनछत पस्
ु तकों के िय में ककया
जाना चादहए। यह पुस्तकालयों को उनके िाहकों की आवश्यकताओं का अधधननश्चयन या सुननजश्चतीकिर्
एवं उधचत पुस्तक अधधिहर् नीनत के सूत्रपात को अननवायस बनाती है । उपयोक्ट्ता आवश्यकताओं को
पहचानने में सव्ु यवजस्थत उपयोक्ट्ता सवेक्षर् सहायता किते हैं। ववशेष बल िे ने योग्य है कक उस पस्
ु तक
का अधधिहर् जजसकी कोई उपयुक्ट्त या संभाव्य मांग नही है , द्ववतीय सूत्र की भावना का ननषेध है ।
द्ववतीय सूत्र इंधगत किता है कक कसमसयों का पयासप्त व सक्षम िल, प्रत्येक पाठक को उसकी पुस्तक
प्रिान किने हे तु आवश्यक है। अन्य शब्िों में , ककसी पाठक को उन संसाधनों जो पस्
ु तकालय में उपलब्ध
उसकी आवश्यकताओं में प्रासंधगक हों, के िोहन में समथस होना चादहए। इस अभ्यास में कसमसयों को
पूवस
स किय भसू मका का ननवसहन किना पड़ेगा। पाठक की सहायता को आतुि , इच्छुक एवं सक्षम कसमसयों
की अनुपजस्थनत में अपने सलए उपयोगी पस्
ु तकों की पयासप्त संयया की अवजस्थनत-ननधासिर् की जस्थनत
में वह नही होगा। अक्ट्सि पुस्तकालय स्वयं को ऐसी जस्थनत में पाता है जहााँ पयासप्त योग्य व सशक्षक्षत
कसमसयों के अभाव में उपयोक्ट्ताओं की उधचत रूप से सेवा नही हो पाती। ऐसी परिजस्थनत से बचा जाना
चादहए।
सन्िभस सेवा अपनी वैधता व प्रयोजन, द्ववतीय सूत्र से ही प्राप्त किती है । द्ववतीय सूत्र के अपने वर्सन
में , डा0 िं गनाथन व्यायया किते हैं कक सन्िभस कायस आलोचनात्मक हैं। वे पयसवेक्षर् किते हैं कक ’’पाठक
को जानना, पुस्तकों को जानना एवं प्रत्येक व्यजक्ट्त को उसकी पुस्तक खोज में सकियतापूवक
स सहायता
किना पस्
ु तकालय कसमसयों का ही व्यवसाय या कायस है । सन्िभस पस्
ु तकालयाध्यक्ष पाठकों को उनकी
पुस्तकों तक, या तो अनौपचारिकतः एकैक सन्िभस साक्षात्काि, औपचारिकतः शोध अनुिेश के माध्यम
से अथवा िंथसधू चयों, शोध मागसिसशसकाओं, प्रश्नपत्रों के संकलन द्वािा लाने में प्रसशक्षक्षत होते हैं। इस
अथस में , संिक्षक-िाहक आवश्यक पुस्तकालय सामिी की खोज में संिभस पुस्तकालयाध्यक्षों के कौशल
का उपयोग किते हैं।
108
द्ववतीय सत्र
ू में पाठक पि भी कनतपय उत्तििानयत्व डाले गए हैं। यह ववशेषकि पुस्तकों के ऋर् व
उपयोग के संिभस में पाठक को पुस्तकालय के सूत्रों को दृढ़ता से अनुपासलत किने की मांग किता है ।
यदि ऋर् की अवधध के पश्चात भी पाठक पुस्तक को अपने पास िखता है तो वह उस पस्
ु तक के
उपयोग की चाह िखने वाले अन्य पाठकों को पुस्तक से वंधचत िखेगा। कुछ पाठक एकाधधकाि की दृजष्ट
से पस्
ु तक को गलत स्थान पि िखते हैं अथवा पस्
ु तकों के पन्ने फाड़ लेते हैं अथवा यहााँ तक कक चिु ा
लेते हैं, यह ननःसंिेह रूप से द्ववतीय सूत्र का घोि उल्लंघन है । उपयोक्ट्ता सशक्षा के लघु कायसिमों के
माध्यम से पुस्तकालय कसमसयों द्वािा, पाठकों को ऐसे उल्लंघनों एवं उनके महत्वपूर्स परिर्ामों से
सावधान किना चादहए।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(2) पस्
ु तकालय में पस्
ु तक चयन हे तु द्ववतीय सत्र
ू कैसे दिशा ननिे श प्रिान किता है ?
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
4.2.3 तत
ृ ीय सूत्र: प्रत्येक पुस्तक को उसका पाठक
पुस्तकालय ववज्ञान का तत
ृ ीय सूत्र: ’’प्रत्येक पुस्तक को उसका पाठक’’ है । इस सत्र
ू का उपागम पुस्तक
की ओि उन्मख
ु है । इस सत्र
ू के अनस
ु ाि पस्
ु तकालय की प्रत्येक पस्
ु तक को अपना उपयक्ट्
ु त पाठक एवं
उसके उपयोगी बनने का अवसि समलना चादहए। अन्य शब्िों में , अप्रयक्ट्
ु त पस्
ु तकों में ननवेश, ननधध का
अपव्यय है , इससे हि परिजस्थनत में बचना चादहए। पुस्तकालयाध्यक्ष का समशन(लक्ष्यासभयान),
उपयोक्ट्ताओं की आवश्यकता पनू तस के अवसिों को अधधकतम सीमा तक बढ़ाने हे तु संसाधनों के
सुव्यवजस्थत संिह का ननमासर् होता है । तत
ृ ीय सूत्र का अव्यक्ट्त अथस है -’’संसाधन उपयोक्ट्ताओं को ढूाँढ़ते
है ’’। वस्तुतः पुस्तकालयाध्यक्ष का कतसव्य, पस्
ु तकालय संसाधनों को उनकी सवासधधक आवश्यकता िखने
वाले लोगों की खोज में सहायता किना है ।
109
है । अबाध असभगम प्रर्ाली में , पुस्तकें ननधाननयों में वगीकृत िम में सुव्यवजस्थत की जाती है एवं
पाठकों को उनके असभगम की स्वतंत्रता होती हैं। ननधाननयों के वीक्षर्(ब्राउजजंग) के िौिान, वे अचानक
अपनी असभरुधच की पस्
ु तकों, जजनके अजस्तत्व से वे अनजान हो सकते हैं, से समल सकते हैं। उपयोक्ट्ताओं
के पुस्तकों को ध्यान से िे खने व पढ़ने के अवसि अबाध असभगम प्रर्ाली से बढ़ जाते हैं। अतः तत
ृ ीय
सत्र
ू ननजश्चततः अबाध असभगम का अधधसमथसन किता है । पस्
ु तकालय हे तु अबाध असभगम प्रर्ाली का
अंगीकिर्, पुस्तकालय कसमसयों के साथ ही साथ पाठकों पि कनतपय उत्तििानयत्व व िानयत्व आिोवपत
किता है । उिाहिर्ाथस- पुस्तकों का वगीकृत व्यवस्थापन यानन ववशेष ववषय सदहत उनके सम्बन्ध के
िम में पुस्तकों का व्यवस्थापन, ननिं ति अनुिक्षक्षत होना चादहए। इसका तात्पयस है कक ननधानी परिशोधन
(गलत स्थान पि िखीं पुस्तकों को पुनः ठीक स्थान पि िखना) पुस्तकालय कसमसयों द्वािा ननयसमत
आधाि पि ककया जाना चादहए। उन्हें ननधानी व गाइडों को भी प्रिान किना चादहए, जो पाठकों को
स्टै क कक्ष में उनके उपयुक्ट्त क्षेत्र एवं ननधाननयों की ओि मागसिसशसत किती है । पाठकों को उत्तििानयत्व
भी चेतना के साथ स्वयं को संचासलत किना चादहए। उन्हें ली गई पुस्तकों को प्रनतस्थावपत किने की
कोसशश नही किनी चादहए, क्ट्योंकक इस प्रकिया में वे पस्
ु तकों को गलत स्थान पि िख सकते हैं। उन्हें
यह भी सलाह िी जाती है कक जानबूझकि पुस्तकों को गलत स्थान पि िखने, ववकृत किने, चुिाने या
अन्य असामाजजक गनतववधधयों में सलप्त होने के लोभ से बचें । पाठकों को यह ध्यान िे ना चादहए कक
गलत जगह पि िखी पस्
ु तक सिै व के सलए खो जाती है । अबाध असभगम प्रर्ाली को व्यवहाि में लाने
के लाभ व हाननयााँ िोनों हैं। यदि, अबाध असभगम प्रर्ाली व्यवहाि में लाई जाती है तो इसे संतुसलत व
सव्ु यवजस्थत िीनत से ककया जाना चादहए ताकक इसके लाभ इसकी कसमयों को महत्वहीन कि सकें। यह
प्रर्ाली ननजश्चततः पुस्तकालय ववज्ञान के तत
ृ ीय सूत्र की संतोषजनक परिपूनतस हे तु योगिान किती है ।
अबाध असभगम प्रर्ाली के अनतरिक्ट्त पस्
ु तकालय संसाधनों को अपने उपयोक्ट्ताओं के समीप लाने हे तु
पस्
ु तकालयों को आिामक प्रोन्नयनकािी एवं नवोन्मेषी सेवाओं को अपनाना चादहए। यह किने के कई
तिीके हैं। पुस्तकालय में जोड़ी गई पुस्तकों की सूची का पाठकों को ननयसमत आधाि पि ववतिर् इनमें
से एक तिीका है । यह ऐसी पुस्तकों को उनके संभाव्य उपयोक्ट्ताओं के ध्यान में लाने में सहायक होगा।
नई जोड़ी गई पस्
ु तकों को स्टै क में भेजे जाने से कुछ समय पूवस पुस्तकालय में प्रमुखता से प्रिसशसत
ककया जाना चादहए ताकक वे पाठकों का ध्यान आकवषसत कि सकें एवं असभरुधच की पुस्तकें पढ़ सकें।
स्व.जााँच अभ्यास
110
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(3) ककस प्रकाि अबाध असभगम पुस्तकालय के बेहति प्रयोग को सुगसमत किता है , संक्षेपतः व्यायया
कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
4.2.4 चतथ
ु य सत्र
ू : पाठक का समय बचाएाँ
चतुथस सूत्र, पुस्तकालय प्रशासक के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती प्रस्तुत किता है । सिै व पाठकों की
आवश्यकताओं को ध्यान में िखकि ही नीनतयों का सत्र
ू पात किना चादहए। उिाहिर्तया संचालन समय
जैसे पक्ष, इस प्रकाि प्रािं भ ककए जाने चादहए ताकक अपनी अध्ययन व शोध आवश्यकताओं हे तु
पस्
ु तकालय पि ननभसि संिक्षक-िाहकों का सवोपयक्ट्
ु त व सवु वधाजनक असभगम सनु नजश्चत हो। संकल्प
मोहक, स्पष्ट व अप्रच्छन्न व्यवजस्थत होना चादहए ताकक उपयोक्ट्ता को आवश्यक पुस्तकों की खोज में
समय नष्ट न हो। पुस्तकालय उपयोक्ट्ता व्यस्त लोग हो सकते हैं, उन्हें उनकी आवश्यकताओं की पूनतस
हे तु आवश्यकता से अधधक समय तक प्रतीक्षा किाने नही िे ना चादहए। उन्हें पुस्तकालय से सटीक एवं
रत
ु सेवा समलनी चादहए। ध्यातव्य है कक कई लोगों में बौद्धधक असभरुधच क्षखर्क होती है , यदि इसे
अजस्तत्व के क्षर् पि संतष्ु ट नही ककया जाता, यह लप्ु त हो सकती है । अतः ’’पाठक का समय बचाएाँ’’
सूत्र अत्यंत महत्वपूर्स है । इसका असभप्राय संतुष्ट पुस्तकालय उपयोक्ट्ताओं से है । अन्य शब्िो में
पुस्तकालय की सफलता, इसका ही मुयय मापन है । यह ध्यान िे ना महत्वपर्
ू स है कक खखन्न या असंतष्ु ट
उपयोॅेक्ट्ता का असभप्राय है कक पस्
ु तकालय, अपने उत्तििानयत्व एवं चतथ
ु स सत्र
ू के आिे शों का घोि
उल्लंघन कि इसकी परिपूनतस में असफल िहा है । अब हम इस सूत्र के सम्पर्
ू स ननदहताथों एवं पाठकों का
समय बचाने हे तु पुस्तकालय द्वािा प्रयुक्ट्त ववववध संचालनात्मक ववधधयों का ववश्लेषर् किते हैं।
(1) तनटहताथय
तत
ृ ीय सूत्र की भााँनत, चतथ
ु स सूत्र भी अबाध असभगम प्रर्ाली के समथसन में तकस िे ता है । औधचत्य यह
है कक बंि असभगम प्रर्ाली में पाठकों को पस्
ु तकों की ननधाननयों के स्टै क तक जाने की अनम
ु नत नही
होती एवं आवश्यक पुस्तकों हे तु आधधकारिक मांग किनी पड़ती है । प्रकियावली यह है कक प्रलेखसूची
का अवलोकन किने के पश्चात वांनछत पस्
ु तकों की वे सूची तैयाि कि पुस्तकालय कमी को वह सच
ू ी
सौंप िे ते हैं। मांगी गई पुस्तकों में वह कुछ पुस्तकोॅेॅं को ढं ॅूॅाँढता है तथा शेष की अनुपलब्धता
प्रनतवेदित कि िे ता है । पुस्तकों को िे खने के पश्चात पाठक यह पाता है कक उन पुस्तकों में उसकी
आवश्यकताओं में प्रासंधगक कोई पुस्तक नही है । उसे िस
ू िी सूची बनानी पड़ती है , संचालन की पुनिाववृ त्त
किनी पड़ती है एवं परिर्ाम हे तु पुनः प्रतीक्षा किनी पड़ती है । उसकी आवश्यकता की पनू तस में ’’प्रयास
व त्रुदट ववधध‘‘ अत्यधधक समय का अपव्यय कि सकती है । इन प्रकियाओं में प्रनत उत्पािकतः अत्यधधक
समय अपव्यय होता है । सस्
ु पष्टतः यह पस्
ु तकालय कमी को खखन्न कि िे ता है । यदि पस्
ु तकालय अबाध
111
असभगम प्रर्ाली का अनुसिर् कि पस्
ु तकों का सुव्यजस्थत संकलन अनुिक्षक्षत किे तो उपयोक्ट्ता का
अत्यधधक समय बच सकता है ।
इस सूत्र की संतुजष्ट के अन्य तिीके भी हैं। उनमें से एक है -उधचत संकलन प्रर्ाली का पालन किना
जो ववसशष्ट व सम्बजन्धत सूत्रों पि पुस्तकों को एक साथ लाएगा। अन्य तिीका है -उपयोक्ट्ताओं के
ववसभन्न उपागमों की पूतक
स सुअसभकजल्पत प्रलेखसूची का ननमासर्। यह ध्यान िे ना महत्वपूर्स है -यद्यवप
प्रलेख सूधचयााँ वस्तुओं को ठीक तिह से प्राप्त किने की साधन हैं, पिन्तु वे पाठक का समय नष्ट
किने वाली वस्तुएाँ बन जाती हैं यदि वस्तुओं को अव्यवजस्थत रूप से प्रलेखखत ककया जाय अथवा
प्रलेखन को तकनीक की जदटलताओं पि अत्यधधक ध्यान केजन्रत कि दिया जाय।
अन्य महत्वपूर्स पक्ष(चतुथस सूत्र में अत्यंत प्रासंधगक) पुस्तकालयों में अनुसरित या पासलत अधधकाि
प्रर्ाली (पुस्तकों को ऋर् पि या उधाि िे ना) है । आिं सभक प्रर्ासलयााँ समय अपव्ययक व कुछ कुछ
अकुशलतः धीमी थीं। अतः संचालन में लगे समय को कम किने की दृजष्ट सदहत प्रकिया सिलीकिर्
के प्रयत्न ककए गए हैं। परिर्ामतः फोटो चाजजांग प्रर्ाली, दटकट प्रर्ाली, कम्प्यूटिीकृत अधधभाि प्रर्ाली,
बाि कोड प्रर्ाली एवं िे डडयो आववृ त्त पहचान प्रर्ाली(आि.एफ.आई.डी), जैसी आाधनु नक प्रर्ासलयों का
िसमक ववकास या उद्ववकास हुआ है । इनमें से ककसी भी एक प्रर्ाली का अंगीकिर्, पुस्तक के जािी
व वापस किने के समय में वह
ृ ि कमी किने का मागसप्रशस्त किे गा जजसका चतथ
ृ स सूत्र दृढ़ता से समथसन
किता है ।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
पंचम सत्र
ू है कक’’पस्
ु तकालय एक वद्सधनशील जैववकतंत्र है ’’। डा0 िं गनाथन पस्
ु तकालय की तल
ु ना
वद्सधनशील प्रार्ी से किते हैं। ककसी जीववत प्रार्ी में वद्
ृ धध िो प्रकाि की होती है -बाल वद्
ृ धध एवं वयस्क
वद्
ृ धध। हम िे ख सकते हैं कक बाल वद्
ृ धध, भौनतक ववमाओं में वद्
ृ धध से असभलक्षक्षत होती है , एवं यह
रत
ु व दृश्य होती है । िस
ू िी ओि वयस्कों में वद्
ृ धध मय
ु यतः कोसशकाओं के प्रनतस्थापन की प्रकृनत में
होती है । यह एक प्रकाि का आंतरिक गुर्ात्मक परिवतसन है जो इजन्रयगोचि नही हो सकता, यथाथसतः
दृश्य नही होता। जब हम कहते हैं कक पुस्तकालय एक वद्सधनशील संस्था है , हमािा असभप्राय यह है
कक पुस्तकालय एक स्थैनतक वस्तु नही है अवपतु एक गनतवान वस्तु है । अन्य शब्िों में , पस्
ु तकालय
112
की गनतमान प्रकृनत को सम्यकतः आत्मसात कि लेना चादहए एवं पस्
ु तकालय के प्रािं भ के समय से
ही प्रिान ककया जाना चादहए ताकक ििू दृजष्ट व आयोजना की कमी से इसकी वद्
ृ धध अवरुद्ध न हो।
अिेति ववश्लेषर् में हमें ज्ञात होता है कक पस्
ु तकालय के मूल घटकों के अंतगसत पस्
ु तक भंडाि(संसाधन),
कमसचािीगर्, पाठकगर्, भवन, फनीचि व उपस्कि जैसी भौनतक अवसंिचना आता हैं। जब हम यह
कहते हैं कक पस्
ु तकालय में वद्
ृ धध होती है , इसके समस्त घटकों में वद्
ृ धध को असभदृजष्टत किते हैं।
स्वाभाववकतः पंचम सूत्र अपने प्रत्येक घटक में ननदहताथस िखता है ।
(1) तनटहताथय
(क) पस्
ु तक िंडाि
पुस्तक भंडाि ववकास के आिं सभक चिर्ों में , पबत्रकाओं सदहत पुस्तकों की वद्
ृ धध काफी सीमा तक तीव्र
िहती है । स्वाभाववकतः पस्
ु तकों को समायोजजत किने हे तु यह स्टै क कक्षों की आमाप, प्रलेख सच
ू ी कक्ष
की आमाप, प्रलेख पत्र अलमािी की आमाप, पबत्रका प्रिशस अलमारियों की संयया एवं पुस्तक िै कों की
संयया को संप्रभाववत किती है । साथ ही, जैसे ही पुस्तक संकलन में वद्
ृ धध होती है , एवं जोड़ी गई नई
पुस्तकें वगीकिर् व्यवस्था में अंतःस्थावपत होती है , ननधाननयों में पुस्तकों का सतत संचिर् होता है ।
यह ननयसमत अवधध में ननधाननयों की पुनः लेबसलंग को अननवायस किता है । यह आसान पुनप्र ्िाजप्त हे तु
पस्
ु तक व्यवस्था की सही जस्थनत के पिावतसन हे तु आवश्यक है ।
(ख) पाठक गण
पुस्तकालय ववज्ञान के प्रथम सूत्र की भावना का ध्यान िखते हुए यदि पुस्तकालय उधचत प्रकाि से कायस
किता है तो पस्ु तकालय के पाठकों की संयया में वद् ृ धध होना ननजश्चत है । इसका असभप्राय है कक
पाठनस्थल आदि के माध्यम से पाठकों को उधचत सुववधाओं एवं नई प्रकाि की सेवाओं के ननयोजन की
आवश्यकता होती है ।
(ग) कमयचािीगण
113
(घ) वगीकिण एवं प्रलेखसच
ू ी
(ङ) पस्
ु तकों की छाँ टाई
पुस्तकालय ववकास योजनाओं को अप्रचसलत पुस्तकों की छाँ टाई एवं प्रासंधगक व उपयोगी नवीन पुस्तकों
को जोड़ने का प्रावधान समाववष्ट किना चादहए। छाँ टाई का असभप्राय, अननवायसतः पस्
ु तक फेंक िे ना नही
है । इसका तात्पयस वतसमान व प्रासंधगक पस्
ु तकों हे तु स्थान बनाने के सलए पस्
ु तकालय जहााँ पस्
ु तकों की
प्रासंधगकता समाप्त हो चुकी है , से मात्र पुस्तकों को हटाना है । ऐसी पुस्तकों को ऐसी जगह संिहीत
ककया जा सकता है जहााँ वे यिाकिा उपयोग हे तु उपलब्ध हों। केन्रीय स्थल में छााँटी गई पुस्तकों की
अवजस्थनत ननधासिर् हे तु ककसी क्षेत्र के ववसभन्न पस्
ु तकालय, संिहर् सवु वधा की आयोजना में सहयोग
कि सकते हैं ताकक वे पाठक जजन्हें ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता है , वहााँ जाकि अवलोकन कि सकें।
पूवव
स ती पष्ृ ठों में हमने पस्
ु तकालय ववज्ञान के पंचसत्र
ू ों के ननदहताथस व ननवसचनों की वववेचना पािं परिक
ढ़ं ग से की है । परिवतसनशील सूचना परिवेश की मांगों की पूनतस हे तु उनकी पयासप्तता व प्रासंधगकता की
वववेचना अगले अनभ
ु ाग में की गई है ।
मानव समाज के समस्त पक्षों में सामदु रक(अत्यंत गहन) परिवतसन घदटत हो िहे हैं। यद्यवप ज्ञान व
सूचना, समाजगत ववकास के प्रत्येक चिर् की भौनतक प्रगनत के प्रोन्नयन में सिै व सहायक कािक िहे
हैं, कफि भी ववगत 50 वषस ज्ञान व सूचना की वद्
ृ धध, असभगम व उपलब्धता के शानिाि ववकास के
साक्षी िहे हैं। सामान्यतः यह परिवतसन, सूचना संप्रेषर् प्रौद्योधगककयों की उन्ननतयों हे तु उत्तििायी है ।
परिर्ामतः ज्ञान व सच
ू ना आज, इसकी अवजस्थनत का ववचाि ककए बबना, तिु ं त असभगसमत एवं भावी
उपयोग हे तु डाउनलोड, भंडारित व कम्प्यूटि स्िीन या पिे पि उपलब्ध हो सकती है । यद्यवप, प्रसरित
ज्ञान व सच
ू ना का वह
ृ ि आयतन व ककस्म, असभगम व उपलब्धता की समस्या खड़ी नही किता कफि
भी उपयोक्ट्ता हे तु उपयोग व सेवा की मल ू भतू समस्या आज तक कुछ कुछ असमाधाननत बनी हुई है ।
िं गनाथन के सूत्रों का यद्यवप पािं परिक पुस्तकालयों के उपयोग एवं उपयोक्ट्ता समि
ु ाय को सेवाएाँ अवपसत
114
किने के प्रसंग में सूत्रपात हुआ था ; कई व्यावसानयक ववशेषज्ञों का यह ववचाि है कक इन सत्र ू ों ने,
इंटिनेट प्रर्ाली, ववश्वव्यापी वेब व आभासी पुस्तकालयों जैसे नवीन ववकासों के प्रसंग में भी अपना
औधचत्य नही खोया है । ये सूत्र ’’हमािे व्यावसानयक मूल्यों हे तु सतत रूप से रूपिे खा प्रिान किते हैं
अथासत ये उतने ही प्रासंधगक हैं जजतने कक ये 1931 में थे। भाषा प्रनतबंधात्मक परिलक्षक्षत हो सकती है
पिन्तु उनमें अंतननसदहत मल्
ू यों का असभप्राय है कक उन्हें भववष्य हे तु ननिं ति ननवसधचत ककया जा सकता
है । वस्तुतः कई ववद्वानों ने ऐसा किने का प्रयास ककया है । उिाहिर्- चप्पल(1976), िे दटसन(1992),
नौन(1994), गोिमन (1998), कुिोनेन व पेिकरिनेन(1999), िाफ्ट(2001), लीटि(2003),
नोरुजी(2004) व चैधिी आदि(2006) ने िं गनाथन के पंचसूत्रों की पयासप्तता, औधचत्य, वतसमान प्रसंग
व उनके भावी मल्
ू य के सम्बन्ध में नवीन अंतदृजष्टयााँ प्रिान की हैं।
अब हम उनके लेखों में वववेधचत महत्वपूर्स पक्षों में को समझने का प्रयास किें गे।
• डा0 िं गनाथन की जन्मसिी के अवसि पि श्रद्धान्जसल अवपसत किते हुए जेम्स.ए.िे दटंग(1992) ने
पंचसूत्रों की वववेचना की, एवं यह मत दिया कक इन सूत्रों को वाह्यतः ननवसधचत ककए जाने की
आवश्यकता है । उन्होंने छठवें सत्र
ू की धािर्ा िी ’’प्रत्येक पाठक उसकी स्वतंत्रता’’। यह सच
ू ना के
प्रावधान या अनुिेश जैसी सेवा प्रकािों मात्र पि लागू हैं।
(1) पस्
ु तकालय मानवता की सेवा किते हैं ;
गोिमान के सत्र
ू , डा0 िं गनाथन के सूत्रों के पुनिीक्षर् नही हैं। प्रौद्योधगकी समाज में अभ्यासित
पुस्तकालयाध्यक्ष के दृजष्टकोर् से ये अन्य पूर्स पथ
ृ क समुच्चय हैं(समडडलटन 1999)।
कुिोमेन व पेक्ट्कारिनेन पैवी ने ’’िं गनाथन रिवाइल्ड’’ शीषसक से अपने कायस जो कक एक पुनः पिीक्षक्षत
लेख है , में पंचसत्र
ू ों का आलोचनात्मक अध्ययन व ववश्लेषर् ककया है , एवं ननष्कषस दिया कक पंचसत्र
ू ों
का अंतमल
ूस िशसन आधािभत
ू है एवं पािं परिक परिवेश में के प्रसंग में भलीभााँनत कायस किता है । पिन्तु
पुस्तकालय की संकल्पना में घदटत परिवतसन जजनमें सच
ू ना संसाि मे प्रनतरूप बिलाव के रूप में परिर्त
हुए है , एवं आधुननक प्रौद्योधगकी ववकासों ने प्रसंगतः उस परिस्थनत को उत्पन्न ककया है जजसमें सूचना
तात्कासलक शजक्ट्त है जो वैजश्वकतः प्रवादहत होती है , एवं प्रकाश के वेग से प्रेवषत, प्रिानयत या असभव्यक्ट्त
की जाती है । िं गनाथन सत्र
ू यद्यवप वैध हैं पिन्तु ये अपयासप्त हो सकते हैं। मानने योग्य कािर्ों एवं
तकों के साथ, उन्होंने परिस्थनत से सफलतापूवक
स ननपटने हे तु अनतरिक्ट्त सत्र
ू ों की आवश्यकता को
स्थावपत ककया है । उन्होंने अपने लोगों में िो नए सूत्र प्रस्ताववत ककए। ये सूत्र हैं---
छठवााँ सत्र
ू : ’’प्रत्येक पाठक को उसका पुस्तकालय’’ॅं
115
सातवााँ सूत्र: ’’प्रत्येक िचनाकाि का उसके पुस्तकालय में योगिान’’
इन लेखकों के मत में , पाठक का असभप्राय खोजकतास से है एवं पुस्तकालय संभवतः आभासी प्रकाि का
अन्याथसक है । ये िो नए ननयम आभासी पुस्तकालय के प्रलेखों एवं उपयोक्ट्ताओं के मध्य नए सहकािी
व मेलजोल सम्बन्धों पि आधश्रत हैं। यद्यवप िं गनाथन के पंचसूत्रों के समनुनाि में उनके ननवसचन की
वैधता स्थावपत किने के पूवस अिति अध्ययन की आवश्यकता है । यहााँ तक कक फ्रांससस समक्ट्सा का मत
है कक ’’एस.आि.िं गनाथन के पुस्तकालय ववज्ञान के द्ववतीय व तत
ृ ीय सूत्रों का पिान्वय(अन्य प्रकाि
कथन) किना उपयुक्ट्त है ’’। ’’प्रत्येक पाठक को उसकी पुस्तक’’ एवं ’’प्रत्येक पुस्तक को उसका पाठक’’
के स्थान पि नई प्रौद्योधगकी ’’प्रत्येक पाठक उसका पुस्तकालय’’ एवं ’’प्रत्येक पस्
ु तकालय को उसका
पाठक’’ को संभव बनाती प्रतीत होती है । सामाजजक परिवतसन हे तु शजक्ट्तशाली प्रेिर्ाओं के रूप में डा0
िं गनाथन के पुस्तकालय ववज्ञान सम्बन्धी पंचसत्र
ू ों एवं उनकी अंतमल ूस संकल्पनाओं को मानते हुए मेनटि
काॅना(2003) ने मुक्ट्त स्रोत पहल व इसकी पंचसत्र ू ों के साथ उपयुक्ट्तता द्वािा परिभावषत ’’मुक्ट्त स्रोत
साफ्टवेयि’’ का ववश्लेषर् ककया है । उन्होने अनुभव ककया कक वे अंतमल
ूस संकल्पनाएाँ जजन पि पंचसूत्र
ननसमसत हैं, हमािे समाज पि गहिा संप्रभाव डालते हैं, एवं मक्ट्
ु त स्रोत आंिोलन के प्रनतपािक अपनी
उद्िे श्य प्राजप्त हे तु उस उिाहिर् से एक या िो पाठ सीख सकते हैं। काॅना व्यायया किते हैं--िं गनाथन
सूत्रों का मूलतत्व पुस्तक है; यह उद्िे श्यपिक ज्ञान िखती है । यह साफ्टवेयि ववकास हे तु तुलनात्मक
मूलतत्वों को परिभावषत किने की मांग किती है । अतः वह साफ्टवेयि पि को मूलतत्व या अवयव के
रूप में लेता है ; यह उद्िे श्यपिक ज्ञान िखता है । वे साफ्टवेयि पि को साफ्टवेयि उत्पाि या साफ्टवेयि
मा्यूल्स(पूर्स इकाई) का अन्याथसक है जजसे साफ्टवेयि उत्पािों को ननसमसत किने में प्रयुक्ट्त होता है । वे
ववश्वास किते हैं कक ’’साफ्टवेयि पुस्तकालय’’ के पंचसूत्र ननम्नवत हो सकते हैं--
116
है , को अलीिे जा नोरुजी(2004) ने ’’एप्लीकेशन आॅफ िं गनाथनंस फस्र्ट लाॅस टु ि वेब’’ नामक शीषसक
से सलखा है । यह पत्र एक प्रश्न खड़ा किता है ; ’’क्ट्या वेब उपयोक्ट्ताओं का समय बचाता है ?’’ एवं वेब
के प्रसंग में िं गनाथन के पंचसूत्रों के अनुप्रयोग का ववश्लेषर् व पुनननसवचन कि प्रश्न का उत्ति जानने
का प्रयास किता है । उनके द्वािा सूबत्रत या प्रनतपादित ’’वेब के पंचसत्र
ू ’’ ननम्नवत हैं-
इससे पूवस कक हम वेब पि संप्रभाव की वस्तुतः वववेचना किें हमें वेब क्ट्या है एवं यह वस्तुतः क्ट्या
िखता है , को संक्षेपतः जानने की आवश्यकता है । ववश्वव्यापी वेब एक इंटिनेट प्रर्ाली है जो हाइपिटे क्ट्स्ट
रांसफि प्रोटोकाल पि आधारित िाफीय, हाइपिसलंक्ट्ड सूचना को ववतरित किती है । वेब एक वैजश्वक
हाइपिटे क्ट्स्ट प्रर्ाली है , जो इसकी ववषयवस्तु को स्थानीय व सि
ु िू तः आंतरिक रूपसे जोड़ने वाली सलवप
हाइपिटे क्ट्स्ट माकस अप लैंग्वेज में सलखे प्रलेखों का असभगम प्रिान किती है । वेब को 1989 में जेनेवा
जस्थत ’’यूिोवपयन आगसनाइजेशन फाॅि न्यूजक्ट्लयि रिसचस(सनस)’’ के दटम बनससस ली द्वािा असभकजल्पत
ककया गया था(नाउजी 2004)। यह सामिी प्रिान किता है एवं उसे आॅन लाइन असभगम बनाता है
ताकक उसका उपयोग ककया जा सके। कोई व्यजक्ट्त जो योगिान िे ने की इच्छा की िखता है , वेब में
योगिान कि सकता है , पिन्तु सच
ू ना की गर्
ु वत्ता अथवा ज्ञान का मल्
ू य ककसी प्रकाि की गहनदृजष्ट
पुनिीक्षा के अभाव के कािर् काफी सीमा तक अपाििशी होता है ।
यह भी उल्लेखनीय है कक वेब, ववसभन्न प्रकाि के लोगों द्वािा उत्पन्न एवं ववववध प्रकाि के उपयोक्ट्ताओं
द्वािा खोजे गए समस्त प्रकाि के सूचना संवाहकों का एक असंिधचत व उच्च जदटल समश्रर् है । सच
ू ना
संसाधनों, ज्ञान व अनभ
ु व को साझा किने की मानवीय आवश्यकता की पनू तस हे तु इसे असभकजल्पत
ककया गया था। वेब मास्टि लोगों से उनकी वेब साइट व पष्ृ ठों से अंतससम्बन्ध बनाना चाहते है , उन
पि जक्ट्लक किना चाहते हैं, उन्हें पढ़ना चाहते हैं, एवं आवश्यकतानुसाि उन्हें मुदरत किना चाहते हैं।
अन्य शब्िों में , वेबसाइटें उपयोग हे तु हैं प्रशंसा या स्तनु त हे तु नही। वेब का मय
ु य उद्िे श्य समस्त ववश्व
उपयोक्ट्ताओं की, उनकी सच
ू ना आवश्यकताओं का प्रबंध व पूनतस कि सहायता किना है । इसी प्रसंग में
वेब के पंचसूत्र अजस्तत्व में आए हैं। वस्तुतः वे ककसी वेब उपयोक्ट्ता अनुकूल प्रर्ाली के मूल आधाि हैं।
सूचना युग में वे साइबि नागरिकता के सावसभौसमक असभगम अधधकाि का अधधसमथसन किते हैं।
प्रथम सूत्र
117
बंि कि िहे हैं। जबकक अन्य शुल्क आिोवपत कि िहे हैं प्रथम सूत्र ऐसे लोगों को खझड़की या हल्की
चेतावनी िे ता है । अन्य बबंि ु जजस पि प्रथम सूत्र ववशेष बल िे ता है , सेवा के बािे में है । सेवाओं के
पुिस्कािों को प्रिे य एवं फल प्राप्त किने हे तु वेब को उन लाभों की पहचान किनी चादहए जजनके बािें
में समाज ताककसकता की अपेक्षा िखता है , एवं तत्पश्चात इन लाभों की प्रिे यता हे तु साधन तलाशने
चादहए। अन्य शब्िों में , यह सत्र
ू वेब संसाधनों के उपयोग को समंजजत या समायोजजत किने वाली
प्रर्ासलयों के ववकास को आिे सशत किता है । उिाहिर्-वेब संसाधनों का अद्यतन एवं ननयसमत अनुिमर्
साइट संसाधनों एवं सामान्यतः वेब के उपयोग को सग
ु समत किता है ।
द्ववतीय सूत्र
’’प्रत्येक उपयोक्ट्ता को उसका वेब संसाधन’’ कई ननदहताथस िखता है । यह ववश्व मेॅेॅं कहीं भी मूलभूत
आवश्यकता को प्रकट किता है । यह ववसिर् व प्रसिर् या प्रसाि को अत्यंत महत्वपूर्स बना िे ता है ।
अन्य शब्िों में , वेबसाइट सज
ृ न के पूवस प्रत्येक वेब संसाधन को सभाववत उपयोक्ट्ता का ववचाि किना
चादहए। इसका असभप्राय है कक यदि उपयोक्ट्ताओं को उनके अध्ययन व शोध हे तु आवश्यक सामिी को
प्रिान ककया जाना है तो वेब मास्टिों को अपने उपयोक्ट्ताओं को भलीभााँनत जानना चादहए। द्ववतीय सत्र
ू
यह भी आिे सशत किता है कक सामाजजक वगस, सलंग, उम्र, नज
ृ ातीय समूह, धमस या अन्य ककसी कािर्
से असम्बद्ध वेब समस्त उपयोक्ट्ताओं की सेवा किता है । यह सूत्र ववशेष बल िे ता है कक प्रत्येक साइबि
नागरिक सूचना का अधधकाि िखता है । वेब मास्टि व सचस इंजन असभकल्पकों को साइबि नागरिकों
की आवश्यकताओं की पनू तस हे तु अपना सवोत्तम प्रयास किना चादहए।
तत
ृ ीय सूत्र
’’प्रत्येक वेब संसाधन को उसका उपयोक्ट्ता’’ अथासत वेब मास्टि कैसे प्रत्येक संसाधन हे तु उपयोक्ट्ता ढूाँढ
सकता है ? ककसी वेब के पास सकियता से कायस कि अपने उपयोक्ट्ताओं से सम्पकस किने हे तु कई
तिीके हैं। पिन्तु इस प्रसंग में ध्यान में िखने योग्य सवासधधक महत्वपर्
ू स पक्ष यह है कक वेब मास्टि
को, ववसशष्ट उपयोक्ट्ता आवश्यकताओं को मजस्तष्क में िखकि ही ववषयवस्तु को जोड़ना चादहए, एवं
यह सुननजश्चत किना चादहए कक उपयोक्ट्ता आवश्यक ववषयवस्तु सिलता से प्राप्त कि सके। वेब मास्टिों
को यह ननजश्चय किना चादहए कक उनके द्वािा जोड़ी गई ववषयवस्तु उपयोक्ट्ता आवश्यकता के रूप में
पहचाननत हो, एवं ’’ऐसी ववषयवस्तु जजसकी पिवाह किता कोई न प्रतीत हो’’ से अपनी वेबसाइट को
अस्त व्यस्त किने के तिीके से बचना चादहए।
चतुथय सत्र
ू
118
िे ता है । इससे वेबसाइट, सअ
ु सभकजल्पत व समझने में आसान मागसिशी मानधचत्र अनुिमखर्का, के रूप
में ध्वननत(अव्यक्ट्त कधथत) होती है ।
पंचम सूत्र
’’वेब एक वद्सधनशील जैववकतंत्र है ’’। जैसे-जैसे समाज अिगामी होता है , ववश्व में घदटत परिवतसनों को
वेब प्रनतबबंबबत व प्रनतननधधत्व किती है । इस प्रकिया में , इसमें सच
ू ना की वह
ृ ि मात्रा जोड़ी जाती है ।
अतः वेब एक वद्सधनशील संस्था है । हमें इस अपेक्षा के साथ कक वेब व इसके उपयोक्ट्ता वद्
ृ धध किें गे
एवं समय के साथ बिलेंगे, योजना बनाने व ननसमसत किने की आवश्यकता है । इस गत्यात्मक परिजस्थनत
से ननपटने हे तु हमें अपने कौशल स्तिों को अधिम चासलत िखने की आवश्यकता है । पंचम सूत्र ’’परिवतसन
व संवद्
ृ धध सहगामी हैं’‘ के महत्वपूर्स बबंि ु पि ववशेष बल िे कि हमें सचेत किता है एवं वेब संकलन के
प्रबंध, साइबि स्पेस के उपयोग, उपयोक्ट्ताओ की तैनाती का धारिता व वेब प्रोिाम्स की प्रकृनत में
सुनम्यता की मांग किता है । यह सूत्र परिवतसन व संवद्
ृ धध की आवश्यकताओं की पूनतस हे तु उधचत व
सुव्यवजस्थत आयोजना का अधधसमथसन किता है । ननष्कषसतः ये सूत्र न केवल वेब पि सामान्यतः
अनप्र
ु यक्ट्
ु त होते हैं अवपतु डडजजटल सेवाओं व आॅनलाइन डेटाबेसों की स्थापना, परिवद्
ृ धध व मल्
ू यांकन
को भी साथ ही साथ असभलक्षक्षत किते हैं। ये पंचसूत्र वेब के वैचारिक व संगठनात्मक िशसन का
संक्षक्षप्ततः प्रनतननधधत्व किते हैं। ननःसंिेह वेब के पंचसत्र
ू वेबसाइटों के मूल्यांकन में उपयोगी ससद्ध हुए
हैं।
स्व.जााँच अभ्यास
(ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तिों से अपने उत्ति की जााँच कीजजए।
(5) पुस्तकालय व सूचना संसाि में घदटत परिवतसनों के व्यापक प्रसंग में पंचसत्र
ू ों के ननदहताथों की
संक्षेपतः व्यायया कीजजए।
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
..............................................................................................................................................
4.4 सािांश
119
के पंचसत्र
ू हमािे व्यावसानयक मूल्यों हे तु सतततः रूपिे खा प्रिान किते हैं, अथासत ये आज भी उतने ही
प्रासंधगक हैं जजतने 1931 में थे। भाषा प्रनतबंधात्मक रूप में िे खी जा सकती है पिन्तु उनमें ननदहत
अंतःआधािीय मूल्यों का असभप्राय यह है कक वे भववष्य हे तु ननिं ति पुनननसवधचत ककए जा सकते हैं।
नवीन सूचना व संचाि प्रौद्योधगककयााँ सझ
ु ाव िे ती हैं कक िं गनाथन के सूत्रों का ववस्ताि-क्षेत्र, उपयक्ट्
ु ततः
वेब तक ववस्तारित ककया जा सकता है । नोरुजी के ववचाि में ’’ये सत्र
ू वेब के वतसमान अभ्यास में उसी
भााँनत लागू हैं जैसे कक आने वाले कल में । ये सूत्र न केवल वेब पि सामान्यतः अनप्र
ु युक्ट्त होते हैं अवपतु
आॅनलाइन डेटाबेसों व डडजजटल पुस्तकालय सेवाओं की स्थापना, परिवद्
ृ धध व मूल्यांकन को भी साथ-
साथ असभलक्षक्षत किते हैं। ये पंचसूत्र, संक्षक्षप्ततः वेब की आिशस सेवा व संगठनात्मक िशसन का
प्रनतननधधत्व किते हैं..........वेब के पंचसत्र
ू ों का अनुप्रयोग कि हम वेबसाइट का मूल्यांकन कि सकते
हैं’’। डा0 िं गनाथन की जन्मसिी अथासत 1992 से पुस्तकालय ववज्ञान के अनेक आधुननक ववद्वानों ने
उनके पंचसत्र
ू ों को अद्यतन किने का प्रयास ककया है अथवा अन्य प्रयोजनों हे तु उन्हें पुनशसजब्ित या
पुनकसधथत ककया गया है । उनमें से कुछ को इस इकाई में ववननदिस ष्ट ककया गया है।
(2) द्ववतीय सूत्र, पुस्तकालय हे तु महत्वपूर्स ननदहताथस िखता है । पाठकों के प्रकाि से अप्रभाववत ’’पुस्तकें
सभी के सलए’’ ही पस्
ु तकालय ववज्ञान के द्ववतीय सत्र
ू का मय
ु य संिेश है । यह, आवश्यक सामिी तक
सभी लोगों के असभगम के मूलभूत अधधकाि, एवं सामिी की लागत के मध्य संघषस को प्रकट कि
सकता है । पुस्तकों के उपयोग हे तु पुस्तकालय प्रिान किते समय, यह त्य कक कोई व्यजक्ट्त सभी
उपलब्ध पस्
ु तकों का स्वामी नही हो सकता, से सब को अवगत होना चादहए। सादहत्य या शोध सामिी
के ननकाय का अधधिहर्, पुस्तकालय के प्राथसमक िानयत्वों में से एक है । जो प्रत्येक पाठक व शोधाथी
को लाभाजन्वत किे गा। यह समस्त प्रकाि के लेखों के असभगम एवं अन्य द्वािा छुपाए जा सकने वाले
120
शीषसववषयों से स्वयं को सधू चत किने का अधधकाि भी यह सूत्र िे ता है । द्ववताय सत्र
ू , अपने उपयोक्ट्ताओं
के साथ हमािे ननष्पक्ष व्यवहाि का स्मिर् दिलाता है। वे जजसका हमसे अनुिोध किते हैं, हमें पसंि
नही हो सकते हैं, हम ककसी पुस्तक या संसाधन को असंस्कृत सोच सकते हैं पिन्तु असभगम के मागस
में हमें अपने पूवासिह कभी नही िखने चादहए। उपयोक्ट्ता सच
ू ना आवश्यकताएाँ, पुस्तकालय संकलन
ननमासर् में सवासधधक महत्वपर्
ू स ध्यातव्य कािक है । अन्य शब्िों में , पस्
ु तकालय द्वािा ननसमसत व
अनुिक्षक्षत संकलन प्रनतननधधक एवं इसके उपयोक्ट्ता समि
ु ाय के बहुमत की प्रत्याशाओं को परिपूर्स किने
में पयासप्त होना चादहए। अतः पुस्तक चयन नीनत का ननधासिर् उपयोक्ट्ता सवेक्षर् की जााँच-परिर्ाम या
ननष्कषस के आधाि पि होना चादहए। पुस्तकालय को, इसके व्यावसानयक िाहक वगस की अवांनछत सामिी
से नही भिना चादहए।
(4) समय बहुमूल्य वस्तु है। उपयोक्ट्ताओं के समय की बचत, सिै व से ही पुस्तकालयाध्यक्षों की धचंता
िही है । वस्तुतः चतुथस सूत्र पुस्तकालय प्रशासक के समक्ष सबसे बड़ी चन
ु ौती प्रस्तुत किता है । यही
कािर् है कक पुस्तकालय प्रलेखसूची, िंथसूधचयााँ, अनुिमखर्काएाँ व सािसंक्षेपर् की िचना किते हैं।
पाठक का समय बचाना, हम वास्तव में पस्
ु तकालय को कैसे ननयोजजत किते हैं, से भी सम्बजन्धत हैं।
इस सम्बन्ध में , सवासधधक महत्वपूर्स पक्ष जजसे पुस्तकालय कसमसयों को स्मिर् किना चादहए यह है कक
प्रसूची व अन्य युजक्ट्तयााँ, मिों-वस्तुओं की परिशद्
ु धता से पुनप्र ्िाजप्त के साधन हैं यदि मिों को
अव्यवजस्थततः प्रसूचीकृत ककया जाए। अथवा यदि प्रसच
ू ीकिर् को कला की अंतजसदटलताओं पि अत्यधधक
केजन्रत कि दिया जाए तो वे पाठकों का समय नष्ट किने वाली मिें बन जाती हैं। तथावप जब कभी
उपयोक्ट्ता समय को एक अत्यंत महत्वपूर्स धािर्ा के रूप में समझना हो तो एक सिल व प्रभावी
प्रर्ाली की मांग होती है । सन्िभस, सूचना, परिचालन डेस्क व टे लीफोन सन्िभस में पयासप्त कमी, संिक्षक
िाहकों को शीघ्रता से आवश्यक सामिी ढूाँढ़ने में सहायता किते हैं। ’’पाठक का समय बचाना’’ से
असभप्राय है -सामिी का िक्ष व सम्पर्
ू स असभगम प्रिान किना। इसका असभप्राय है -संतष्ु ट पस्
ु तकालय
उपयोक्ट्ता। यह ककसी पुस्तकालय की सफलता की सवसमहत्वपूर्स माप है । खखन्न अथवा असंतष्ु ट
उपयोक्ट्ता का अथस है कक पस्
ु तकालय अपने कतसव्य एवं उत्तििानयत्व में असफल िहा है । अतः पुस्तकालय
कसमसयों को पस्
ु तकालय की सेवा को अधधक िक्ष बनाने हे तु प्रत्येक प्रयत्न अवश्य किना चादहए।
121
(5) िं गनाथन के पुस्तकालय ववज्ञान सम्बन्धी पंचसूत्र, पुस्तकालयी कायस को वैज्ञाननक आधाि िे ने की
ओि प्रथम चिर् थे जजनसे प्रित्त सामान्य ससद्धान्तों से समस्त पुस्तकालय प्रथाओं का ताककसक ववश्लेषर्
कि ककसी ननष्कषस पि पहुाँचा जा सकता है । अपने जीवन काल में ही डा0 िं गनाथन ने अपने पंचसूत्रों
को प्रलेखन केन्रों एवं प्रलेख सेवा के कायस के अनुरूपतः संशोधधत व पन
ु कसधथत ककया। सूचना ववज्ञान
के ववकास की अवधध के िौिान ही िं गनाथन के पंचसत्र
ू , सच
ू ना संस्थानों से सम्बद्ध सच
ू ना कायस(सेवा)
व प्रकायों के उपयुक्ट्ततः ननवसधचत ककए गए। यद्यवप, डा0 िं गनाथन के जन्मसिी वषस 1992 से
पुस्तकालय व सूचना ववज्ञान के बहुसंयय आधुननक ववद्वानों ने डा0 िं गनाथन के पंचसत्र ू ों को
अद्यतनीकृत, पुनशसजब्ित अथवा पुनननसवधचत किने का प्रयास ककया गया है । इस दिशा में कुछ प्रमुख
प्रयत्नों का ननम्न परिच्छे िों में संक्षेपतः ववचाि ककया गया है ।
वषस 1992 में जेम्स.आि.िे दटंग ने िं गनाथन के पंचसूत्रों के ववस्ताि के रूप में छठवााँ सूत्र स्पष्टतः व्यक्ट्त
ककया। इसका पाठ है -’’प्रत्येक पाठक को उसकी स्वतंत्रता’’। इसके सेवा के प्रकाि(अनुिेश अथवा सच
ू ना
का प्रावधान) पि लागू होने की आशा की जाती है ।
ध्यातव्य है कक पस्
ु तक, पाठकगर् व पस्
ु तकालय डा0 िं गनाथन के सत्र
ू ों के मल
ू तत्व हैं। यहााँ तक कक
यदि हम इन मुयय शब्िों को अन्य तत्वों से प्रनतस्थावपत किें , िं गनाथन सत्र
ू तब भी भली-भााँनत कायस
किते हैं। कई शोधाधथसयों ने डा0 िं गनाथन के सत्र
ू ों पि आधारित ववसभन्न ससद्धान्त प्रस्तुत ककए हैं।
उिाहिर्तया-माइकेल गोिमन के ’’पुस्तकालयाध्यक्षता के जााँच के नए सूत्र’’ प्रससद्ध हुए। ये सूत्र हैं--
(1) पस्
ु तकालय मानवता की सेवा किते हैं ;
122
पुस्तक : सच
ू ना व ज्ञान का एक संवजे ष्ठत संवाहक।
सूचना : भौनतक स्वरूप अथवा ववषयवस्तु का ववचाि ककए बबना असभसलखखत संिेश।
सूचना समाज : सामाजजक अजस्तत्व का नवीन रूप जजसमें नेटवककसत सूचना का भंडािर्, उत्पािन,
प्रवाह आदि केन्रीय भूसमका का ननवासह किते हैं।
पाठक/उपयोक्ट्ता : पुस्तकालय के संसाधनों का उपयोग किने वाला व्यजक्ट्त; सूचना संसाधनो ॅंका
एक िाहक।
Cana, M (2003). Open Source and Ranganathan’s Five Laws of Library Science.
Web. 21 September 2012 <http://www.kmentor.com/socio-tech-info/archives/
000079.html>
Cloonan, M.V. and J.G Dove. “Ranganathan Online: Do Digital Libraries Violate the
Third Law?” Library Journal (1 April 2005). Web <http://
www.libraryjournal.com/index.asp?>
Dasgupta, Arjun (2007). “Library Staff and Ranganathan’s Five Laws”. IASLICBulletin
57.4(2007): 195-204. Print.
--- . “The Five Laws of Library Science: Then and Now”. School Library Journal
123
Kuronen, T. and P. Pekkarinen. “Ranganathan Revisited: A Review Article”.Journal
of Librarianship and Information Science 31.1(1999): 45-48. Print.
Rajan, T.N. (1999). “Laws of Library Science”. Library and Information Society.Unit -
2. BLIS 01. New Delhi: IGNOU, 1999. Print.
Satija, M.P. “The Five laws of Information Society and Virtual Libraries Era”.
124