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प्रश्न 1

विज्ञान की परिभाषा के अर्थ को समझिए और विज्ञान की प्रकृ ति के बारे में विस्तार से बताइए!
उत्तर - विज्ञान का अर्थ
विज्ञान शब्द का जन्म लैटिन शब्द Scientia से हुआ जिसका अर्थ हैं विशेष ज्ञान। वस्तुतः घटनाओं के कारणों की खोज ने विज्ञान
को जन्म दिया। विज्ञान किसी घटना विशेष के कारण तथा परिणाम के पारस्परिक संबंध के ज्ञान का व्यवस्थित या क्रमबद्ध
अध्ययन हैं।

विज्ञान सत्य की खोज को कहते हैं। सत्य वह हैं जो ज्ञानेन्द्रियों से जाना जा सके , जो प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया जा सके , वही सत्य
हैं।

विज्ञान की परिभाषा
विभिन्न वैज्ञानिक एवं विद्वानों द्वारा विज्ञान को परिभाषित करने के प्रयास किये गये। अलग-अलग विद्वानों ने विज्ञान शब्द को
परिभाषित करने के लिए अपने-अपने ढंस से अलग-अलग परिभाषा प्रस्तुत की और उसका अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया।
विज्ञान की कु छ मुख्य परिभाषाएं निम्नलिखित हैं--

महान वैज्ञानिक आईन्स्टीन के अनुसार," हमारी ज्ञान अनुभूतियों की अस्त-व्यस्त विभिन्नता को तर्क पूर्ण विचार प्रणाली बनाने
के प्रयास को विज्ञान कहते हैं।"

डब्यू. सी. डेम्पियर के अनुसार," विज्ञान प्राकृ तिक विषय का व्यवस्थित ज्ञान और धारणाओं के बीच संबंधों का विचारयुक्त
अध्ययन हैं, जिनमें ये विषय व्यक्त होते हैं।"

कोनाण्ट के शब्दों में," विज्ञान सामान्य विचारों का अर्न्त संबंधित क्रम हैं और भावनाओं संबंधी रूपरेखा हैं, जो अनुसंधान और
निरीक्षण के परिणामस्वरूप विकसित होती हैं।"

वुडबर्न एवं ओबोर्न के अनुसार," विज्ञान वह मानवीय व्यवहार हैं, जो हमारे प्राकृ तिक वातावरण में स्थित परिस्थितियों अथवा
घटित घटनाओं की अधिकतर शुद्धता से व्याख्या करने का प्रयास करती हैं।"

फिजपैट्रिक एवं फ्रे डरिक के अनुसार," विज्ञान ऐन्द्रिक प्रेक्षणों की संचित और अन्तहीन श्रृंखला हैं, इसकी परिणति
अवधारणाओं एवं सिद्धांतों के सूत्रीकरण में होती हैं। भावी ऐन्द्रिक प्रेक्षणों के प्रकाश में ये अवधारणाएँ एवं सिद्धांत आशोधन के
लिये प्रस्तुत होते हैं। विज्ञान ज्ञान समुदाय एवं ज्ञान को अर्जित करने और शोधन की प्रक्रिया दोनों ही हैं।"

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार," विज्ञान नैसर्गिक घटनाओं और उनके बीच संबंधों का सुव्यवस्थित ज्ञान हैं।"

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर विज्ञान की आधुनिक परिभाषा इस प्रकार हैं, वैज्ञानिक नैसर्गिक घटनाओं तथा उनके संबंधों के
विषय में परीक्षण एवं पर्यावरण से प्राप्त क्रमबद्ध ज्ञान का नाम विज्ञान है।
कार्ल पियर्सन ने विज्ञान में निम्नलिखित बातों का समावेश किया हैं--

1. घटना को अनुभव करना।


2. घटना का स्पष्टीकरण।

3. घटना से संबंधित तथ्यों का विश्लेषण तथा उपकल्पना बनाना।

4. निरीक्षण तथा यथार्थ तथ्यों का चित्रण।

6. कार्यकारण संबंध स्थापित करना।

7. सार्वभौमिक एवं प्रामाणिक निष्कर्ष निकालना।

8. भविष्यवाणी करना।

विज्ञान की विशेषताएं या लक्षण


विज्ञान में निम्नलिखित गुणों या विशेषताओं को होना चाहिए--

1. सामान्यीकरण

विज्ञान के द्वारा जो भी परिणाम अथवा निष्कर्ष नियमों तथा सिद्धांतों के रूप में निकाले जाते हैं, उनमें सामान्यीकरण की क्षमता
पाई जाती हैं अर्थात् उनके आधार पर उसी प्रकार की सभी घटनाओं की उचित रूप में व्याख्या की जा सकती हैं। ये नियम तथा
सिद्धांत सभी दृष्टि से पूर्ण सामान्यीकृ त और सार्वभौमिक होते हैं।

2. प्रमाणिकता

विज्ञान का एक अन्य प्रमुख लक्षण यह है कि विज्ञान को प्रमाणों की आवश्यकता पड़ती है और इन्हीं प्रमाणों के आधार पर विज्ञान
निष्कर्ष निकालता है। यूरोप में लम्बे समय तक यह माना जाता रहा है कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है जबकि 16वीं शताब्दी
के बाद प्रसिद्ध ज्योतिषी कोपरनिकस ने इसमें सन्देह किया और उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह घोषित किया कि पृथ्वी सूर्य के
चारों तरफ घूमती है। इस प्रकार विज्ञान प्रमाणों के आधार न के वल नवीन सिद्धान्तों की रचना करता है वरन् वह पुराने सिद्धान्तों
को संशोधित भी करता है एवं कई बार उन्हें अस्वीकृ त करता है।

3. वस्तुनिष्ठता

वस्तुनिष्ठता प्रणाम की निष्पक्षता से परीक्षण करने की इच्छा एवं योग्यता हैं। विज्ञान के द्वारा किया गया अध्ययन पूरी तरह निष्पक्ष,
पूर्वग्रह मुक्त एवं वस्तुनिष्ठ होना चाहिए अन्यथा लोग उस पर विश्वास नहीं करेंगे।

4. कारणता

विज्ञान विभिन्न कारकों के परस्पर कारण प्रभावों का अध्ययन करता है तथा परिणामों के कारणों की खोज करता है। विज्ञान घटना
में विद्यमान कारकों तथा तथ्यों के परस्पर कार्य-कारण सम्बन्धों का अध्ययन वर्णन और व्याख्या करता है। इस प्रकार से कारणता
की खोज करना विज्ञान की एक प्रमुख विशेषता है।

5. भविष्यवाणी की क्षमता
विज्ञान से प्राप्त परिणामों अथवा निष्कर्षों के आधार पर भविष्यवाणी की जा सकती हैं। वैज्ञानिक तथ्यों, नियमों एवं सिद्धांतों
आदि की मदद से किन्हीं दी हुई परिस्थितियों में घटित घटना का स्वरूप क्या होगा, कोई पदार्थ कै सी प्रतिक्रिया करेगा आदि बातों
से संबंधित भविष्यवाणी कर सकना संभव होता हैं।

6. आनुभाविकता

विज्ञान जो कु छ जानकारी, निष्कर्ष तथा ज्ञान प्रस्तुत करता है वह प्रत्यक्ष प्रमाणों और परीक्षणों पर आधारित होता है। विज्ञान
भौतिक जगत का व्यवस्थित और आनुभविक ज्ञान है जिसे अवलोकन और परीक्षण के द्वारा प्राप्त किया जाता हैं। यह अनुमान,
अटकल, कल्पना अथवा दर्शन पर आधारित नहीं होता। आनुभविकता विज्ञान की प्रमुख विशेषता है।

7. सार्वभौमिकता

विभिन्न अनुसन्धानकर्ताओं का कहना है कि विज्ञान की उपर्युक्त विशेषताएँ-- कार्य-कारण सम्बन्ध और आनुभविकता-सार्वभौमिक


विशेषताएँ है। अर्थात् परीक्षण तथा अनुभव के द्वारा विज्ञान द्वारा प्रस्तुत घटना से सम्बन्धित कार्य-कारण सम्बन्ध की विश्व में कहीं
पर भी जाँच करने पर परिणाम बदलते नहीं हैं।

8. तार्किकता

सभी अध्ययनों की तरह विज्ञान भी तार्किक होता है। विज्ञान घटना का तर्क पूर्ण प्रस्तुतीकरण होता है। विभिन्न तथ्यों के परस्पर
सम्बन्ध को वह तार्किक रूप से सिद्ध करके वर्णन और व्याख्या करता है।

9. सत्यनिष्ठता

विज्ञान के अध्ययन द्वारा प्राप्त परिणामों को यदि अनेक बार भी परीक्षण किया जाएं तो प्रत्येक बार वहीं परिणाम आएगा जो
विज्ञान की सत्यनिष्ठता को दर्शाता हैं।

10. निश्चयात्मकता

विज्ञान में किए गए अध्ययन में निश्चितता का गुण पाया जाता हैं क्योंकि विश्वसनीयता तथा वैधता पूरी तरह असंद्गिध होती हैं।

11. संशोधन एवं परिवर्तनशीलता

विज्ञान से प्राप्त परिणाम जड़ और स्थाई नहीं होते हैं। विज्ञान ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनकी पुष्टि निरीक्षण, परीक्षण तथा प्रयोगों
से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर करनी होती हैं। यदि भविष्य में किए गए वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा पुराने परिणामों की सार्थकता
पर आँच आ जाएं तो उन्हें आवश्यकतानुसार संशोधित एवं परिर्तित किया जाता हैं और नए नियम का प्रतिपादन हो जाता हैं जो
विज्ञान की परिवर्तनशीलता एवं संशोधन का प्रमुख गुण हैं।

12. अवलोकन

एनसाइक्लोपिडिया ब्रिटानिका में विज्ञान की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि विज्ञान में व्यवस्थित और पक्षपातरहित
अवलोकन किया जाता है। प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा अवलोकित सामग्री की जाँच की जाती है जो आगे चलकर वर्गीकरण का रूप
गहण कर लेती है। वर्गीकरण की सहायता से सामान्यीकरण के नियम बनाये जाते हैं। इन नियमों को आगे अवलोकनों में लागू
किया जाता है, नवीन अवलोकनों एवं मान्य नियमों में तालमेल नहीं होने पर नियमों में संशोधन किए जाते हैं और ये नवीन संशोधन
आगे और अवलोकन करने की दिशा और प्रेरणा प्रदान करते हैं। इस प्रकार विज्ञान में यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है।
सामान्यतया यही विज्ञान की पद्धति का निर्माण करती है। विज्ञान की इसी विशेषता को गुडे एवं हॉट ने निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त
किया है," विज्ञान अवलोकन से प्रारम्भ होता है तथा उसे अन्तिम वैधता के लिए आवश्यक रूप से अवलोकन पर ही लौटकर आना
पड़ता है।"

प्रश्न 2
* उपचारात्मक शिक्षण को परिभाषित कीजिए!

उत्तर -उपचारात्मक शिक्षण

निदान की भाँति उपचार शब्द भी चिकित्सकीय क्षेत्र का शब्द है । जहाँ निदान के अन्तर्गत कमजोरियों एवं कठिनाइयों के कारणों का पता
लगाया जाता है वही उपचार के अन्तर्गत इन कमजोरियों एवं कठिनाइयों को दूर किया जाता है। जैसे - एक डॉक्टर अपने मरीज के रोगों
का उपचार कर उनको उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने का प्रयास करता है उसी प्रकार शिक्षक भी अपने विद्यार्थियों की अधिगम सम्बन्धी
समस्याओं एवं दोषों को दूर कर उनको ज्ञानार्जन के पथ पर अग्रसारित करने का प्रयास करता है। उपचारात्मक शिक्षण का मुख्य आधार
वे निदानात्मक परीक्षण ही हैं जिनके द्वारा यह पता लगाया जाता है कि अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों , कमजोरियों , दुर्बलताओं ,
अक्षमताओं एवं परेशानियों आदि के क्या कारण हैं। निदानात्मक परिणामों के उपरान्त उपचारात्मक शिक्षण की उचित रूप से व्यवस्था की
जा सकती है अर्थात् ‘जैसा निदान होता है , वैसा ही उपचार भी होता है। इस प्रकार उपचारात्मक शिक्षण समस्याग्रस्त विद्यार्थियों को
समस्या से मुक्त कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विद्यार्थी द्वारा अधिगम अनुभवों को अर्जित करने में जिन कठिनाइयों या
कमजोरियों का सामना करना पड़ता है , निदानात्मक परीक्षणों द्वारा उन दोषों के वास्तविक कारणों का पता लगाकर उनको दूर करने के
लिए उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था तथा उनका क्रियान्वयन करना ही उपचारात्मक शिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत आता है। उपचारात्मक
शिक्षण को अधिक स्पष्ट करने के लिए कु छ शिक्षाविदों की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं –
योकम एवं सिम्पसन के अनुसार, “उपचारात्मक शिक्षण उचित रूप से निदानात्मक शिक्षण के बाद आता है।”

ब्लेयर एवं जोन्स के अनुसार, “उपचारात्मक शिक्षण वास्तव में उत्तम शिक्षण है , जो विद्यार्थी को अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान प्रदान
करता है और जो सुप्रेरित क्रियाओं द्वारा उसको अपनी कमजोरियों के क्षेत्रों में अधिक योग्यता की दिशा में अग्रसर करता है।”

योकम व सिम्पसन के अनुसार, “उपचारात्मक शिक्षण उस विधि को खोजने का प्रयत्न है जो छात्र को अपनी कु शलता या विचार की
त्रुटियों को दूर करने में सफलता प्रदान करता है।”

गुलीन, मायर्स व ब्लेयर के अनुसार, “उपचारात्मक शिक्षण बुरी आदतें पड़ने तथा अच्छी आदतें नहीं होने पर दिया जाता है । ”

उपचारात्मकं शिक्षण वह शिक्षण कार्य है जो किसी विद्यार्थी या विद्यार्थियों के समूह की निदानात्मक परीक्षण से ज्ञात की जाए जिससे
किसी विषय के अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों का निवारण करने में प्रयोग किया जाए। उपचारात्मक शिक्षण द्वारा विद्यार्थी की कमजोरियों
को दूर करने का प्रयास किया जाता है व उनका उचित मार्गदर्शन किया जाता है ।

उपचारात्मक शिक्षण की विशेषताएँ –


1. यह विधि शिक्षण को रोचक एवं उद्देश्य पूर्ण बनाये रखने मे सहायक है
2. छात्रों की विषय संबंधित कठिनाई का पता लगाने में महत्वपूर्ण है।
3. छात्रों की सामान्य समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
4. इसके द्वारा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास किया जाता है।
5. इससे बालक स्वयं के वातावरण से उचित समायोजन कर • पाने समर्थ हो जाता है।

उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य


1. विद्यार्थियों की अधिगम सम्बन्धी दुर्बलताओं व को समाप्त करना ।
2. विद्यार्थियों की अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों एवं कमजोरियों को दूर करके उनको भविष्य में भी उन दोषों से दोषमुक्त करना ।
3. विद्यार्थियों की दोषपूर्ण आदतों , कु शलताओं एवं मनोवृत्तियों को समाप्त करके उनको आदर्श एवं उत्तम रूप प्रदान करना ।
4. विद्यार्थियों की अवांछनीय रुचियों , आदतों एवं दृष्टिकोणों को वांछनीय रुचियों , आदर्शों एवं दृष्टिकोणों में परिवर्तन करना।
5. विद्यार्थियों के शिक्षण से प्रति रुचि उत्पन्न करना ।
6. विद्यार्थियों में आत्मविश्वास को जन्म देना ।
7. शिक्षण में मनोविज्ञान के सिद्धांत का प्रयोग करना
8. छात्रों की व्यक्तिगत कठिनाइयों को दूर करना ।

उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करने की विधियाँ

1. विद्यार्थियों की त्रुटियों को यदा-कदा शुद्ध करना ।


2. प्रत्येक विद्यार्थी के अधिगम सम्बन्धी दोषों का व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करके उनको दूर करने के उपाय बताना |
3. विद्यार्थियों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार उनको विभिन्न समूहों में विभाजित करके उनके शिक्षण की व्यवस्था करना ।
4. विद्यार्थियों को छोटे -छोटे समूहों में विभाजित करके उनको उनकी आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा प्रदान करना।
5. कक्षा के विद्यार्थियों के अधिगम सम्बन्धी दोषों , कमजोरियों और बुरी आदतों का निदान करके उनको उनसे मुक्त करांना।

उपचारात्मक शिक्षण के विविध प्रकार

1. कक्षा-शिक्षण – इस प्रकार की औपचारिक शिक्षण व्यवस्था में कक्षा के


वर्तमान स्वरूप और संरचना में कोई परिवर्तन नहीं
किया जाता है। शिक्षक को जब इस बात की जानकारी हो जाती है कि विद्यार्थी विष विशेष के किसी प्रकरण, विषयवस्तु,
शिक्षण प्रक्रिया एवं अवधारणा आदि को समझने में कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं या अब तक जो कु छ भी उन्हें पढ़ाया
गया है या पढ़ाया जा रहा है उसके बारे में अपेक्षित पूर्व ज्ञान उनके पास नहीं है शिक्षक ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण कक्षा को ही
विषय विशेष, प्रकरण विशेष या विषय वस्तु या अवधारणा आदि के बारे में शिक्षण प्रदान करता है तथा पढ़ाए गए पाठ को
पुनः पढ़ाता है। पाठ के किसी भी अंश को अच्छी तरह स्पष्ट करता है, उसके बारे में विविध प्रकार के अधिगम अनुभवों को
बहुइन्द्रिय के माध्यम से प्रस्तुत करता है और इस प्रकार शिक्षक ऐसे सभी प्रयत्न अपने शिक्षण के द्वारा करता है जिनसे
कक्षा के विद्यार्थियों द्वारा विषय विशेष में अनुभव की जाने वाली अधिगम कठिनाइयों, कमजोरियों तथा परेशानियों को दूर
करने में पूरी – पूरी सहायता मिल सके । इस प्रकार के उपचारात्मक शिक्षण कक्षा के सभी विद्यार्थियों की एक समान
अधिगम कठिनाइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
i. समूहगत ट्यूटोरियल शिक्षण – इस प्रकार की शिक्षण व्यवस्था में कक्षा के विद्यार्थियों को कु छ ऐसे समूह विशेष में
विभक्त कर लिया जाता है जिनकी विषय विशेष सम्बन्धी अधिगम कठिनाइयाँ, कमजोरियाँ एवं समस्याएँ लगभग
समान होती हैं। अब प्रत्येक समूह को किसी एक शिक्षक या विभिन्न शिक्षकों द्वारा अलग-अलग रूप से उनकी
अपनी अधिगम कठिनाइयों, कमजोरियों या र समस्याओं के हिसाब से शिक्षण प्रदान किया जाता प्रत्येक
ट्यूटोरियल समूह का इन्चार्ज एक ट्यूटर होता या तो विद्यार्थियों में से ही किसी होशियार विद्यार्थी यह कार्य कराया
जाता है अथवा विषय शिक्षक ही प्रत्येक समूह के लिए अलग-अलग रूप से अपने समय का विभाजन कर लेता है।
इस तरह की शिक्षण व्यवस्था का मूल उद्देश्य के वल यही रहता है कि ट्यूटोरियल समूह में सम्मिलित सभी
विद्यार्थियों की एक समान अधिगम कठिनाइयों और कमजोरियों को सामूहिक रूप से हल किया जा सके । इस
शिक्षण अधिगम व्यवस्था में ऐसी कठिनाइयों या कमजोरियों को विषय विशेष से सम्बन्धित जिन प्रकरणों, विषय
वस्तु या अधिगम अनुभवों को ग्रहण करने में हो रही है उनका पुनः शिक्षण किया जा सकता है। किसी विशेष प्रकार
के ज्ञान और कौशल को जिस प्रकार से विद्यार्थी ग्रहण कर सके , उसे इसी प्रकार प्रदान करने का प्रयत्न किया जाता
है। साथ ही साथ विभिन्न प्रकार की शिक्षण और अनुदेशनात्मक सामग्री को उसी रूप में प्रयोग किया जाता है
जिससे विद्यार्थी पहले समझ में न आने वाली बातों को ठीक तरह से समझ सकें ।
ii. वैयक्तिक ट्यूटोरियल शिक्षण – इस शिक्षण व्यवस्था के अन्तर्गत विद्यार्थियों को उनकी अपनी अधिगम कठिनाइयों
और कमजोरियों के आधार पर वैयक्तिक शिक्षण दिया जाता है। विद्यार्थियों को उनकी अधिगम कठिनाइयों और
कमजोरियों के आधार पर शिक्षक द्वारा प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अलग-अलग वैयक्तिक मार्गदर्शन, वांछित सहायता,
कोचिंग आदि प्रदान करने की व्यवस्था की जाती है ताकि विद्यार्थी की लगभग सभी समस्याओं का निवारण किया
जा सके । इस शिक्षण व्यवस्था में प्रत्येक विद्यार्थी अपनी-अपनी अधिगम गति, योग्यता एवं क्षमता के अनुसार
सीखते हैं। उन्हें जैसी सहायता, व्यक्तिगत ध्यान, पुनर्बलन की जरूरत होती है वह उन्हें वैयक्तिक रूप से भली-भाँति
प्रदान की जाती हैं। इस प्रकार इस शिक्षण व्यवस्था के द्वारा विद्यार्थी की वैयक्तिक अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों एवं
कमजोरियों का व्यक्तिगत रूप से निवारण कर उसे अधिगम पथ पर भली-भाँति अग्रसरित करने में सहायता मिलती
है ।
iii. पर्यवेक्षित ट्यूटोरियल शिक्षण – इस प्रकार की शिक्षण व्यवस्था के
अन्तर्गत विद्यार्थी स्वयं के प्रयत्नों से अपने द्वारा
अनुभव की जाने वाली अधिगम कठिनाइयों एवं कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार हम
विद्यार्थी को जो बातें समझ नहीं आ रही हैं या समझ नहीं आयी हो, उन्हें अच्छी तरह से पढ़कर • उनको अच्छी
तरह सोच विचारकर तथा उन पर विशेष ध्यान देकर पुनरावृत्ति, स्वाध्याय आदि की सहायता लेते हैं। ऐसी बातों को
समझने के लिए वे अपने कौशलों का अच्छी तरह से उपयोग कर लेते हैं। ऐसे सभी प्रयत्न करते हैं जिनसे विषय
विशेष से सम्बन्धित अधिगम कठिनाइयों एवं कमजोरियों को दूर किया जा सके । ऐसा करने में विद्यार्थियों को अपने
शिक्षकों से पर्याप्त मार्गदर्शन एवं आवश्यक सहायता मिलती रहती है। शिक्षक द्वारा प्रदान किया जाने वाला
मार्गदर्शन या समस्या का पर्यवेक्षण सामूहिक या वैयक्तिक किसी भी प्रकार का हो सकता है।
2. ट्यूटोरियल शिक्षण —उपचारात्मक शिक्षण में ट्यूटोरियल शिक्षण विशेष लाभप्रद है ट्यूटोरियल में छात्रों की व्यक्तिगत
समस्याओं एवं शिक्षण की जटिलताओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसके मुख्य रूप हैं-
i. समूहगत ट्यूटोरियल शिक्षण
ii. वैयक्तिक ट्यूटोरियल शिक्षण
iii. पर्यवेक्षित ट्यूटोरियल शिक्षण
3. स्व – अनुदेशित शिक्षण पर्यवेक्षित शिक्षण व्यवस्था की भाँति स्व अनुदेशित शिक्षण व्यवस्था में विद्यार्थियों को किसी भी
प्रकार का मार्गदर्शन या पर्यवेक्षण प्राप्त नहीं होता है। विद्यार्थी स्व–अनुदेशन द्वारा ही अपनी अधिगम कठिनाइयों एवं,
कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करते हैं। यहाँ ज प्रकार की विषयगत अधिगम कठिनाइयाँ और कमजोरियाँ उनके
सामने आती हैं उनका निदान किया जाता है, उनको ध्यान में रखते हुए स्व अनुदेशन सामग्री, अभिक्रमित अधिगम पैके ज
के रूप में या कम्प्यूटर मृदु उपागम के रूप में विद्यार्थियों को उपलब्ध करा दी जाती है और फिर वह उस अनुदेशन सामग्री
का उपयोग करते हुए स्वयं ही उससे उचित अनुदेशन ग्रहण करते हुए अपनी अधिगम कठिनाइयों तथा कमजोरियों के
निवारण के प्रयत्न करता है। इस प्रकार के स्व शिक्षण या अधिगम के प्रयत्न उसकी अपनी गति, शक्ति और सामर्थ्य के
अनुसार वह स्वयं तय करता है तथा अपनी कमजोरियों और कठिनाइयों को दूर करने की सारी जिम्मेदारी विद्यार्थी की स्वयं
की होती है ।
4. अनौपचारिक शिक्षण –विषय विशेष सम्बन्धी अनौपचारिक शिक्षण गतिविधियों को अगर औपचारिक शिक्षा के साथ
भली-भाँति जोड़ दिया जाए तो जिन विद्यार्थियों को उपचारात्मक शिक्षण चाहिए उनकी बहुत कु छ अधिगम सम्बन्धी
कठिनाइयों और कमजोरियों क्रा निवारण किए जाने में सफलता प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार की औपचारिक
शिक्षण गतिविधियों और कार्यक्रम के रूप में विभिन्न क्रियाओं और मनोरंजक पहेलियों और खेलों को सम्मिलित कर सकते
हैं जैसेसमाज के सांस्कृ तिक र्कायक्रमों में भाग लेना, सामाजिक / सामाजिक विज्ञान क्लब का संगठन, हिन्दी संग्रहालय के
लिए वस्तुओं का संग्रह करना, सामूहिक चर्चा एवं वाद-विवाद में भाग लेना, इतिहास से सम्बन्धित वस्तुओं की प्रदर्शनी तथा
अन्य विभिन्न प्रकार की ऐसी पाठ्य सहगामी क्रियाओं में भाग लेना आदि । इस प्रकार विद्यार्थी जिन बातों को कक्षा
अध्ययन में नहीं समझ पाते, वे इन बातों को औपचारिक शिक्षण के माध्यम से वास्तविक एवं प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा आसानी
से समझ जाते हैं!

प्रश्न 3
*नील पत्र पर टिपानी लिखिए!

उत्तर - ब्लू प्रिंट का अर्थ

ब्लूप्रिंट को हिंदी में हम नील परख पत्र या नील पत्र के नाम से जानते हैं नील पत्र अथवा ब्लूप्रिंट किसी प्रश्न पत्र के निर्माण से पूर्व
प्रश्नों के अंक निर्धारण कर तैयार किए जाने वाला खाका होता है!

किसी भी विषय वस्तु अथवा पाठ्यवस्तु का निर्माण करने से पूर्व उसका एक ऐसा नक्शा तैयार किया जाता है जिसमें प्रश्नों के
प्रकार को अंको में विभाजित कर एक सारणी के रूप में निर्माण किया जाता है जिसे हम ब्लूप्रिंट अथवा नील पत्र कहते हैं|

ब्लूप्रिंट का निर्माण कै से किया जाता है।

ब्लूप्रिंट निर्माण करते समय हमें निम्न बिंदुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि हम एक अच्छे ब्लूप्रिंट का निर्माण कर सकें

1- ब्लूप्रिंट बनाते समय यह ध्यान रखा जाता है कि पाठ्यवस्तु का संपूर्ण समावेश हो। ताकि विद्यार्थी किसी विशेष अध्याय पर
ध्यान न देकर संपूर्ण पाठ्यवस्तु पर ध्यान कें द्रित कर सकें ।

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2- सभी प्रकार के प्रश्नों जैसे वस्तुनिष्ठ प्रश्न, अति लघु उत्तरीय प्रश्न, लघु उत्तरीय प्रश्न, दीर्घ उत्तरीय प्रश्न, निबंधात्मक प्रश्न,
कौशलात्मक प्रश्न इत्यादि शामिल किए जाते हैं ताकि विद्यार्थियों की बुद्धि, ज्ञान एवं कौशल का उचित आकलन किया जा सके ।

3- प्रश्नों के
प्रकार के अनुसार अंक सहित शब्द सीमा का निर्धारण सुनिश्चित किया जाता है। ताकि सभी विद्यार्थी दिए गए समय में
सभी प्रश्नों को हल कर सके ।

जैसे-:

प्रश्नों के प्रकार अंक शब्द सीमा

अति लघुउत्तरीय प्रश्न 2अंक 30 शब्दों में

लघुउत्तरीय प्रश्न। 3अंक 50 शब्दों में

( यह के वल एक उदाहरण किंतु इसका निर्धारण शिक्षक विद्यार्थियों की कक्षा, आयु वर्ग के अनुरूप करता है)

4- वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को छोड़कर शेष प्रश्नों में आंतरिक विकल्प की योजना पर भी ध्यान दिया जाता है विकल्प प्रश्न ,मुख्य प्रश्न के
समान ही कठिनाई का रखा जाता है।

5- ब्लूप्रिंट का निर्माण छात्रों के स्तर और आयु के अनुरूप किया जाए इसका विशेष ध्यान रखा जाता है।

6- ब्लूप्रिंट बनाते समय परीक्षा के समय को निश्चित किया जाता है ताकि दिए गए समय में विद्यार्थी संपूर्ण प्रश्नपत्र को हल कर
सकें ।

ब्लूप्रिंट के उद्देश्य निम्न प्रकार है

1- ब्लू प्रिंट का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि प्रश्न पत्र का ऐसा खाका तैयार करना जिसमें पाठ्यवस्तु या विषय वस्तु का कोई भी
अंश छू ट न जाए जिससे कि विद्यार्थियों का समग्र आकलन किया जा सके ।

2- ब्लूप्रिंट के माध्यम से अध्यापक ,छात्रों को सरलता पूर्वक अंक वितरण कर सकता है!

3- ब्लूप्रिंट के माध्यम से हम इसके आधार पर एक से अधिक परीक्षाओं के प्रश्नपत्र को तैयार कर सकते हैं!

4- ब्लूप्रिंट के माध्यम से विद्यार्थियों के सभी पक्षों का आकलन सरलता से किया जा सकता है!

5- ब्लू प्रिंट तैयार करने के पश्चात प्रश्न पत्र सरलता पूर्वक तैयार किया जा सकता है इससे शिक्षक के समय की बचत भी हो जाती
है !

प्रश्न 4
*पर्यावरण को परिभाषित कीजिए?

उत्तर - पर्यावरण
पर्यावरण का अर्थ
'पर्यावरण'शब्द का निर्माण दो शब्दों परि+आवरण से हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है—बाहरी आवरण, अर्थात हमारे चारों ओर
जो प्राकृ तिक, भौतिक व सामाजिक है वही वास्तविक अर्थों में 'पर्यावरण' कहलाता है।
अंग्रेजी भाषा में पर्यावरण को Environment कहते हैं। Environment शब्द दो अंग्रेजी शब्दों Environment +ment से
मिलकर बना है। यहॉ Environ का अर्थ to Encircle अर्थात गिरना है तथा ment का अर्थ form all sides अर्थात चारों ओर
से घेरना है। अतएव पर्यावरण अथवा Environment दोनों ही शब्दों का शाब्दिक अर्थ चारों ओर से घेरने से है, अतः पर्यावरण
बाह्य आवरण का घोतक है।

पर्यावरण की परिभाषाएं
पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा : पर्यावरण के अर्थ को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई
परिभाषाएं उल्लेखनीय है—
(1) विश्वकोश केअनुसार:"पर्यावरण के अंतर्गत उन सभी दिशाओं, संगठन एवं प्रभावों को सम्मिलित किया जाता है,जो किसी
जीव अथवा प्रजाति के उद्भव, विकास एवं मृत्यु को प्रभावित करती हैं।"
(2) एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका के अनुसार:"पर्यावरण उन सभी बाह्य प्रभावों का समूह है, जो जीवो को प्राकृ तिक
ओर, भौतिक एवं जैविक शक्ति से प्रभावित करते रहते हैं तथा प्रत्येक जीवों को आवितत्त किए रहते हैं।"
(3) वुडवर्थ के अनुसार:"पर्यावरण शब्द का अभिप्राय उन सब बाहरी शक्तियों एवं तत्वों से है, जो व्यक्ति को आजीवन प्रभावित
करते हैं।"
(4) शैक्षिक अनुसंधान विश्वकोश के अनुसार:"किसी के लिए यह निश्चय करना ठीक नहीं है कि पर्यावरणीय अध्ययन, भूगोल
तथा नागरिक शास्त्र का योग मात्र है। निश्चय ही यह इन विषयों से पर्याप्त सामग्री प्राप्त करता है किंतु यह khusi सामग्री को ग्रहण
करता है जो मानव के वर्तमान तथा दैनिक जीवन के संबंधों को स्पष्ट करती हैं।"
सभी परीभाषाओं से स्पष्ट है कि पर्यावरण का सामान्य अभिप्राय उस वातावरण से है जो हमारे चारों ओर फै ला हुआ है।
प्रकृ ति में जो कु छ भी हमें परिलक्षित होता है—जल, पहाड़, वायु, मृदा, पादप, प्राणी, भौतिक प्रभाव जैसे—नदी, तालाबों, वायुदाब,
वर्षा तथा जैवी प्रभाव आदि सम्मिलित रूप में पर्यावरण की रचना करने वाले अवयव है। यदि पर्यावरण ना होता तो पृथ्वी की
स्थिति भी बुध, शुक्र या अन्य ग्रहों जैसी होती। क्योंकि वायुमंडल ना होने के कारण jann निर्माण नहीं हो पाता तथा जल के
निर्माण के अभाव में जीत का निर्माण भी नहीं हो सकता।वायुमंडल पृथ्वी के ताप को नियंत्रित करके जी जगत के लिए उपयुक्त
वातावरण प्रदान करता है।

पर्यावरण का स्वरूप
पर्यावरण का स्वरूप : पर्यावरण में भौतिक तथा नैतिक तत्व होते हैं जिन्हें तथा जैविक घटक भी कहते हैं।इस प्रकार पर्यावरण
का विभाजन घटकों में किया जाता है वही उसका स्वरूप भी होता है‌—
(1) भौतिक अथवा अजैविक पर्यावरण

(2) जीव अथवा जैविक पर्यावरण।


भौतिक तत्वों की विशेषताओं के आधार पर इन्हें 3 वर्गों में विभाजित किया जाता है—(१) ठोस पदार्थ (२)तरल पदार्थ
तथा (३)गैस पदार्थ। ठोस पदार्थो में पृथ्वी तथा भूमि को सम्मिलित करते हैं, तरल पदार्थों मे जल को तथा गैस पदार्थों के लिए वायु
तथा वायुमंडल को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार भौतिक पर्यावरण को तीन वर्गों भूमंडल, वायु मंडल तथा जल मंडल में
विभाजित किया जाता है। इन्हें उपवर्गों मैं भी विभाजित किया गया।

पर्यावरण की विशेषताएं
पर्यावरण की विशेषताएं -
(1) व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु प्रयत्न प्रभावित करने वाली संपूर्ण परिस्थितियों पर्यावरण में सम्मिलित करते हैं।

(2) वंशानुक्रम के अतिरिक्त सभी घटकों, कारको तथा परिस्थितियों को जो प्रभावित करते हैं,उन्हें पर्यावरण कहते हैं।
(3) जीव धारियों के विकास एवं उत्थान को प्रभावित करने वाली बाह्य शक्तियों को पर्यावरण कहा जाता है।
(4) जीवन तथा व्यवहार की प्रकृ ति को प्रभावित करने वाली भौतिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृ तिक, भावात्मक, आर्थिक तथा
राजनीतिक शक्तियों को पर्यावरण का अंग माना जाता है।
(5) एक व्यक्ति विशिष्ट समय तथा स्थान पर जिन संपूर्ण परिस्थितियों से घिरा हुआ है, उसे पर्यावरण की संज्ञा दी जाती है।

(6) इसके अन्तर्गत भौतिक में वायु,जल तथा भूमि और जैविक में पौधों, पशु-पक्षियों तथा मनुष्य को भी सम्मिलित करते हैं।
(7)मानव की व्यवस्था, प्रबन्ध तथा संस्थाओं के वातावरण तथा गतिविधियों एवं कार्यों को भी सम्मिलित करती है।
(8) पर्यावरण के अंतर्गत भौतिक ,रासायनिक, सामाजिक, आर्थिक,राजनीतिक, जैविक तथा सांस्कृ तिक क्रियाओं को सम्मिलित
किया जाता है।
पर्यावरण का महत्व
पर्यावरण के महत्व - पर्यावरण हमारे जीवन का आधार है। इसकी अनुपस्थिति मैं पृथ्वी पर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा
सकती। स्थानीय एवं विश्व स्तर पर तेजी से उभर रही अनेक पर्यावरणीय समस्याओं के कारण पर्यावरण अध्ययन का महत्व दिनों-
दिन बढ़ता जा रहा है। पर्यावरणीय समस्याएं किसी देश की सीमा तक सीमित नहीं है। किसी एक देश में उत्पन्न समस्या समस्त
विश्व के लिए चिंता का विषय होती है। पर्यावरण तो समस्त पृथ्वी वासियों की सांझी विरासत है। अतः इसके संरक्षण हेतु विश्व
समुदाय को सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम के अंग के रूप में पर्यावरण के अध्ययन से विद्यार्थियों में
पर्यावरण अवबोध व चेतना जागृत होती है।प्राकृ तिक संसाधनों के उपभोग के प्रति उनके दृष्टिकोण में अंतर आता है, पारिस्थितिक
मैत्री- भाव जागता है तथा पर्यावरण संरक्षण के प्रति कर्तव्य-बोध होता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पर्यावरण अनेक ऐसे तत्वों का युग्म है जो प्राकृ तिक संतुलन की स्थिति में रहते हुए एक ऐसे
वातावरण का सृजन करते हैं जिसमें सभी प्राकृ तिक जीवधारी तथा मानव, जीव-जंतु, वनस्पति आदि का अभ्युदय एवं विकास
क्रम निर्वाधित रूप से अनवरत चलता रहता है।
पर्यावरण का क्या अर्थ है?
पर्यावरण'शब्द का निर्माण दो शब्दों परि+आवरण से हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है—बाहरी आवरण, अर्थात हमारे चारों ओर जो
प्राकृ तिक, भौतिक व सामाजिक है वही वास्तविक अर्थों में 'पर्यावरण' कहलाता है।
पर्यावरण की परिभाषा क्या है?
विश्वकोश के अनुसार:"पर्यावरण के अंतर्गत उन सभी दिशाओं, संगठन एवं प्रभावों को सम्मिलित किया जाता है,जो किसी जीव
अथवा प्रजाति के उद्भव, विकास एवं मृत्यु को प्रभावित करती हैं।"
पर्यावरण का स्वरूप कै सा है?
पर्यावरण में भौतिक तथा नैतिक तत्व होते हैं जिन्हें तथा जैविक घटक भी कहते हैं।इस प्रकार पर्यावरण का विभाजन घटकों में
किया जाता है वही उसका स्वरूप भी होता है‌— (1) भौतिक अथवा अजैविक पर्यावरण (2) जीव अथवा जैविक पर्यावरण।
पर्यावरण का महत्व?
पर्यावरण की संरचना, विविध घटकों का ज्ञान तथा मानव द्वारा अपने विकास के लिए किए जा रहे कार्यों से हो रहे पर्यावरण
विनाश की जानकारी विद्यार्थी को पर्यावरण के अध्ययन से मिलती है। अतः पर्यावरण की समुचित जानकारी होने पर ही व्यक्ति
पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सकता है। इसीलिए पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा का समावेश विद्यार्थियों में पर्यावरणीय
जागरूकता उत्पन्न कर पर्यावरण संरक्षण में महती भूमिका निभाएगा।
पर्यावरण की विशेषताएं?
(1) व्यक्ति के
जन्म से लेकर मृत्यु प्रयत्न प्रभावित करने वाली संपूर्ण परिस्थितियों पर्यावरण में सम्मिलित करते हैं। (2) वंशानुक्रम
के अतिरिक्त सभी घटकों, कारको तथा परिस्थितियों को जो प्रभावित करते हैं,उन्हें पर्यावरण कहते हैं। (3) जीव धारियों के विकास
एवं उत्थान को प्रभावित करने वाली बाह्य शक्तियों को पर्यावरण कहा जाता है।
पर्यावरण के पांच तत्व कौन से हैं?
पर्यावरण के पांच तत्व वायु ,अग्नि ,आकाश ,जल और धरती!

प्रश्न 5
*इकाई योजना का उद्देशी बताइए!

उत्तर - इकाई योजना का अर्थ


इकाई योजना का अर्थ अपने सामान्य अर्थ में इकाई योजना वह योजना निर्माण है जिसमें पाठ्यक्रम सम्बन्धी सत्र में किए
जाने वाले कार्य को अध्यापक छोटी-छोटी परंतु सार्थक इकाईयों में विभक्त कर देता है।

इकाई योजना की परिभाषा


इन इकाईयों को विभिन्न विचारकों ने विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है-

(1)डॉ. विबासि के अनुसार – “इकाई किसी एक के न्द्रीभूत समस्या अथवा प्रयोजन के चतुर्दिक संगठित क्रियाकलापों व
अधिगत सामग्री का योग है । यह विद्यार्थी टीम द्वारा शिक्षक के नेतृत्व में विकसित की जाती है।”

(2) कार्टर वी. गुड के अनुसार – ” इकाई से तात्पर्य किसी एक के न्द्रीभूत समस्या या प्रयोजन के इर्द -गिर्द संगठित उन
विभिन्न क्रियाकलापों, अनुभवों तथा अधिगम सामग्री से है जिसे शिक्षक के नेतृत्व में विद्यार्थियों के एक टीम विशेष के
सहयोग द्वारा प्रकार में लाया जाता है।”
इकाई की प्रमुख विशेषताये
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इकाई में निम्न विशेषतायें होती हैं-

(1) के न्द्रभूत समस्या – इकाई की विषय-वस्तु का ताना-बाना किसी के न्द्रीभूत समस्या अथवा प्रयोजन के चतुर्दिक बना
होता है ।

(2) विषय वस्तु व अधिगम अनुभव — इकाई में ऐसी अर्थयुक्त तथा भली प्रकार परस्पर सम्बन्धित एवं समस्त प्रकार से
पूर्ण ऐसी विषय-वस्तु या अधिगम अनुभवों का समावेश होता है, जो वांछित शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति भली प्रकार
करा सके ।

(3) विद्यार्थी सहयोग — इकाई निर्माण कार्य में विद्यार्थियों द्वारा शिक्षक के साथ सहयोग अनिवार्य है।

(4) निरंतरता व विस्तृतता युक्त विषय वस्तु — इकाई विशेष में निहित विषय वस्तु में ऐसी निरंतरता तथा विस्तृतता होना,
जिसके माध्यम से पाठ्यक्रम सम्बन्धी किसी विशेष ज्ञान क्षेत्र, प्रकरण या समस्या विशेष को भली प्रकार जानने तथा समझने
में उचित सहायता प्राप्त हो।

(5) पाठ्यक्रम – एक इकाई निर्धारित पाठ्यक्रम की स्वयं में सभी तरह से पूर्ण उस भागांश का प्रतिनिधित्व करती है जिसके
माध्यम से उपयुक्त तथा सार्थक शैक्षिक अनुभव प्रदान किया जाना सम्भव है।

उपरोक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इकाई विषय विशेष के लिए निर्धारित पाठ्यचर्या का स्वयं में पूर्ण
ऐसा सार्थक भागांश है जो किसी एक समस्या या प्रयोजन से जुड़े रहकर विषय के शिक्षण अधिगम के लिए निर्धारित उद्देश्यों
की पूर्ति में उपयुक्त सहायता प्रदान करता है।

इकाई योजना
किसी कक्षा विशेष के लिए निर्धारित विषय विशेष के पाठ्यक्रम को एक सत्र में भली प्रकार पढ़ाने की दृष्टि से कु छ सार्थक
एवं स्वयं में पूर्णभागांशों में विभक्त कर लिया जाता है। ये भागांश इकाई कहलाते हैं । तदुपरांत इन इकाईयों में संग्रहित विषय-
वस्तु तथा अधिगम अनुभवों का सर्वाधिक उचित रूप में शिक्षण अधिगम करने हेतु नियोजन कार्य किया जाता है। इसका
उद्देश्य वांछित शिक्षण-अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति श्रेष्ठम ढंग से करना होता है। यह नियोजन कार्य ही इकाई योजना कहलाती
है।

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि जैविक विज्ञानों में इकाई योजना वह कार्य प्रणाली या योजना है, जो किसी एक विशेष
इकाई में निहित विषय-वस्तु तथा अधिगम अनुभवों के शिक्षण अधिगम हेतु निर्मित की जाती है तथा जिसमें ऐसे शिक्षण
अधिगम के आयोजन के लिए उन समस्त विधियों एवं तकनीकों का वर्णन होता है जिससे इकाई से सम्बन्धित शिक्षण
अधिगम उद्देश्यों की पूर्ति हो सके ।

जैविक विज्ञानों में इकाईयों की निर्माण प्रक्रिया


जैविक विज्ञानों में इकाई योजना के निर्माण से पूर्ण आवश्यक कदम उठा लिया जाता है। यह कदम है पूरे सत्र में प्रदान किए
जाने वाले अधिगम अनुभवों तथा विषय-वस्तु को सार्थक एवं समस्त प्रकार से पूर्ण उचित इकाईयों में विभक्त करना। इन
इकाईयों के निर्माण हेतु निम्न पग उठाये जाते हैं-

(i) निर्धारित पाठ्यचर्या में एक विशिष्ट प्रकार का प्रकरण युक्त विभक्तिकरण किया जाता है। अध्यापक उसी विभक्तिकरण के
अनुरूप विभिन्न प्रकरणों को विभिन्न इकाई मानकर चल सकता है।
(ii)अध्यापक पाठ्यचर्या में सम्मिलित एक समान प्रकृ ति तथा शिक्षण अधिगम उद्देश्यों वाले प्रकरणों को एकत्र करके इकाई
का निर्माण कर सकता है।

अध्यापक कतिपय विशेष प्रयोजन के संपादन के संदर्भ में पाठ्यचर्या की विषय सामग्री प्रकरणों का विभाजन कर
(iii)
इकाईयों को निर्मित कर सकता है, उदाहरणार्थ-

(क) जीवन के न्द्रित इकाईयाँ,

(ख) पर्यावरण के न्द्रित इकाईयाँ,

(ग) पशुपक्षी तथा पेड़ पौधे के न्द्रित इकाईयाँ आदि।

विचारकों ने उपरोक्त प्रक्रियाओं का अनुसरण करते हुए जीव विज्ञान शिक्षण हेतु कतिपय इकाईयों का उल्लेख किया, जिसमें
प्रमुख निम्न प्रकार हैं-

(i) निकटवर्ती पक्षी गण,

(ii) निकटवर्ती पेड़-पौधे,

(iii) निकटवर्ती कीड़े-मकौड़े,

(iv) हमारे शरीर की प्रणाली,

(v) हमारा शरीर एवं उसकी कार्य-प्रक्रिया,

(vi) वन संपदा और उसका हमारे जीवन में महत्त्व,

(vii) पशु जगत तथा उसके हमारे जीवन में महत्त्व,

(viii) सूक्ष्म जीव और उसका हमारे जीवन में महत्त्व,

(ix) हमारा स्वास्थ्य एवं प्रमुख रोग,

(x) हमारा भोजन,

(xi) प्रदूषण तथा उससे उत्पन्न पारिस्थितिक संकट,

(xii) खाद्य का उत्पादन एवं प्रबंधीकरण,

(xiii) पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति चरण व स्वरूप ।

प्रत्येक अध्यापक के लिए यह आवश्यक है कि वह इकाईयों के निर्माण सम्बन्धी उपरोक्त वृहत क्षेत्र विभाजन की ओर समुचित
ध्यान दे। इनके अतिरिक्त जव जैविक विज्ञान अध्यापक किसी कक्षा विशेष की पाठ्यचर्या को उपयुक्त इकाईयों में विभाजित
करे तब वह अग्रलिखित बातों को दृष्टिगत रखे-

(i) किसी कक्षा विशेष में जैविक विज्ञानों के अध्यापक को उपलब्ध या प्राप्त होने वाले कु ल कार्य दिवस घंटे।

(ii) विशिष्ट प्रयोजन एवं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु निर्मित की जाने वाली इकाईयों का पूर्ण एवं सार्थक होना।
शिक्षण के लिए उपलब्ध कु ल समय तथा संसाधनों को दृष्टिगत रख निर्धारित पाठ्यचर्या की विषय-वस्तु तथा अधिगम
(iii)
अनुभवों का उचित विभाजन करना।

(iv) शिक्षण अधिगम के लिए उपलब्ध शिक्षण अधिगम परिस्थितियों तथा संसाधनों के सन्दर्भ में इकाईयों का उपयुक्त होना।

(v) विद्यार्थियों की आयु, रुचि, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं के संदर्भ में इकाईयों का उपयोगी होना।

(vi) कक्षा विशेष के जैविक विज्ञानों के शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की पूर्ति के सम्बन्ध में इकाईयों का सार्थक होना।

(vii) इकाईयों में निहित विषय-वस्तु तथा अधिगम अनुभवों का परस्पर उपयुक्त सहसम्बन्ध तथा समन्वय होना।

(viii)निर्धारित पाठ्यक्रम पर निर्मित विभिन्न इकाईयों की विषय-वस्तु तथा अधिगम अनुभवों में आवश्यक तारतम्यता तथा
निरन्तरता के लिए उपयुक्त सहसम्बन्ध तथा समन्वय की स्थापना करना।

इकाई योजना हेतु अग्रसर होना


निर्धारित पाठ्यक्रम की विषय-वस्तु तथा अधिगम अनुभवों को स्वयं में पूर्ण तथा सार्थक खण्डों में विभाजित करने के बाद
योजना के निर्माण के संदर्भ में किए जाने वाले आगामी कार्य की रूप रेखा निम्न प्रकार हो सकती है-

(1) विभाजन — इकाई विशेष को कु छ उचित उप इकाईयों तथा भागों में विभक्त करते हैं। यह ध्यान रहे कि इन विभक्त उप
इकाईयों तथा भागों में विषय-वस्तु तथा अधिगम अनुभवों की उतनी ही मात्रा हो, जिसे 35 या 40 मिनट के पीरियड में
सुगमतापूर्वक पढ़ाया जा सके ।

(2) उद्देश्य — इकाई तथा उप इकाईयों में विभक्त विषय सामग्री के शिक्षण अधिगम द्वारा किन शिक्षण अधिगम उद्देश्यों को
प्राप्त किया जा सके गा इसे भी सरल व बोधगम्य शब्दावली में व्यक्त किया जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित हो सके गा कि
इकाई या उप इकाई विशेष के शिक्षण अधिगम के फलस्वरूप विद्यार्थियों के व्यवहार में किन परिवर्तनों की अपेक्षा की जाती
है।

(3)विधि तथा तकनीक सम्बन्धी निर्णय — इस बात का निर्णय लेना कि निर्धारित शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु
इकाई तथा उप इकाई विशेष अधिगम के लिए कौन सी विधियाँ तथा तकनीकें अपनायी जाएँ तथा किस प्रकार की शिक्षण
अधिगम सामग्री और साधनों की सहायता ली जाए।

(4) अन्तःक्रिया – इसमें दो प्रकार के निर्णय लिए जाने चाहिए-

(i) प्रथम, इस बात का निर्णय लेना कि इकाई तथा उप इकाई विशेष की शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अध्यापक तथा
विद्यार्थियों के मध्य किस प्रकार की अंतःक्रिया होगी।

(ii) द्वितीय, अध्यापक व विद्यार्थी अपनी-अपनी भूमिकाएँ किस रूप में निभाएँगे ।

(5) मूल्यांकन – यह निर्णय लेना कि इकाई तथा उप इकाई विशेष के शिक्षण का अधिगम मूल्यांकन किस प्रकार होगा।
इसके लिए एक इकाई परीक्षण का निर्माण पहले से ही करना उपयुक्त है इसके साथ ही निम्न निर्णय भी लिए जाएँ—

(i) यह इकाई परीक्षण कितनी अवधि का होगा,

(ii) यह इकाई परीक्षण कै से लिया जाएगा।

उदाहरण – उपरोक्त बातों को दृष्टिगत रख जैविक विज्ञानों में इकाई योजना के निर्माण कार्य का एक उदाहरण निम्न प्रकार है

(1) विषय- जैविक विज्ञान

(2) कक्षा- VII

(3) इकाई का नाम- मानव शरीर के विभिन्न संस्थान

(4) उप इकाईयाँ (i) शरीर के संस्थानों का अर्थ,

(ii) पाचन संस्थान,

(iii) रक्त परिभ्रमण संस्थान,

(iv) श्वसन संस्थान,

(v) स्नायु संस्थान,

(vi) उत्सर्जन संस्थान ।

इकाई योजना के सोपान


‘मानव शरीर के विभिन्न संस्थान’ नामक इकाई की विषय-वस्तु का उपरोक्त 6 उप इकाईयों में विभाजन करने के उपरांत
इकाई योजना निर्माण हेतु आगे के सोपानों पर निम्न प्रकार अग्रसर होते हैं-

(1) उद्देश्य — सर्वप्रथम शिक्षण अधिगम उद्देश्यों का निर्माण करना।

(2) विधि, प्रविधि – तत्पश्चात् उपइकाईयों के शिक्षण अधिगम हेतु उपयुक्त विधियों, प्रविधियों, शिक्षण सहायक सामग्री तथा
शिक्षण अधिगम गतिविधियों के सम्बन्ध में निर्णय लेना।

(3) मूल्यांकन – तत्पश्चात् शिक्षण अधिगम परिणामों के मूल्यांकन तकनीकों तथा प्रविधियों के बारे में निर्णय लेना ।

पुनरावृत्ति – पुनरावृत्ति अभ्यास तथा ड्रिल कार्यों द्वारा जो कु छ पढ़ा- पढ़ाया गया है उसे ठीक तरह मस्तिष्क में बिठाने
(4)
और उसका उपयोग करने के सम्बन्ध में विचार करना।

इकाई योजना की सावधानियाँ


योजना निर्माण में निम्न सावधानियाँ बरतनी चाहए-

(i) पाठ्यक्रम की एक इकाई को उसकी ऐसी विभिन्न उप इकाईयों में विभाजित करना, जिनमें से प्रत्येक को 350-40 मिनट
के पीरियड में पढ़ाया जा सके ।

(ii) पूरी इकाई के शिक्षण को 6-7 पीरियड में सीमित करना।

(iii) तत्पश्चात् एक पीरियड को इकाई परीक्षण हेतु रिजर्व रखना।

(iv) तदुपरांत आवश्यकतानुसार अभ्यास कार्य या उपचारात्मक शिक्षण हेतु 1-2 पीरियड अतिरिक्त पीरियड या समय लेने की
गुंजाइश रखना।

(v) यह ध्यान रखना कि निम्न कार्यों के लिए शिक्षक को अतिरिक्त समय का उपयोग करना होगा—
(क) इकाई परीक्षण का निर्माण करना,

(ख) इकाई योजना को तैयार करना,

(ग) विद्यार्थियों की विभिन्न प्रकार की कमजोरी तथा कठिनाईयों को निदान करना,

(घ) उनका विश्लेषण करके उचित उपचारात्मक शिक्षण का प्रबंध करना।

जैविक विज्ञान अध्यापक उपरोक्त प्रक्रिया का अनुसरण कर अन्य कक्षाओं के पाठ्यक्रम से सम्बन्धित पाठ्यवस्तु तथा
अधिगम अनुभवों के उचित शिक्षण अधिगम के लिए उनको उपयुक्त तथा सार्थक इकाईयों में विभाजित कर आवश्यक इकाई
योजनाओं का निर्माण कर सकता है।

इकाई योजना : महत्त्व एवं उपयोगिता


विज्ञान शिक्षण में इकाई योजना का महत्त्व निम्न प्रकार है-

(1) उत्तरदायित्व पूर्ति — इकाई योजना में विज्ञान शिक्षण के लिए सम्पूर्ण सत्र में उपलब्ध समय को दृष्टिगत रख निर्धारित
पाठ्यक्रम की विषय सामग्री को इस तरह से उचित इकाईयों में विभक्त करते हैं जिससे कि पाठ्यक्रम के शिक्षण अधिगम को
उपलब्ध समय में ही उपयुक्त प्रकार से पूरा किया जा सके । इस तरह शिक्षकों का अपना उत्तरदायित्व निभाने में इकाई योजना
बड़ी सीमा तक सहायक है।

(2) लाभकारी– इकाई योजना में निर्मित समस्त पाठ्य इकाईयाँ स्वयं में पूर्ण तथा सार्थक होती हैं। पाठ्यक्रम सम्बन्धी
समस्त प्रकार की पाठ्य वस्तु तथा अधिगम अनुभवों को इस तरह की पाठ्य इकाईयों में विभाजित कर शिक्षण प्रदान करना
विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही दृष्टि से लाभकारी पाया गया है।

(3) सफलता की अपेक्षाएँ अधिक — इकाई योजना में सर्वप्रथम इकाई शिक्षण के उद्देश्यों को भली-भाँति निश्चित किया
जाता है। तदुपरांत, उनके व्यवहार अन्य शब्दावली में अभिव्यक्त किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप विद्यार्थियों और
अध्यापक दोनों को अपने-अपने उत्तरदायित्वों एवं लक्ष्यों का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। परिणामतः इकाई के शिक्षण एवं अधिगम
में अभीष्ट सफलता की अधिक अपेक्षाएँ होती हैं।

(4)उद्देश्य प्राप्ति में सहायता इकाई योजना में विभिन्न उप इकाईयों के शिक्षण अधिगम हेतु निम्न पर भली-भाँति विचार
कर लिया जाता है— (i) विधियाँ, (ii) तकनीक, (iii) व्यूह रचना, (iv) शिक्षण सहायक सामग्री।

परिणामतः अध्यापक को इन सभी का पूर्व ज्ञान हो जाता है। इस पूर्व ज्ञान से इनका समुचित उपयोग करना सम्भव होता है।
यह शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है।

(5) मानसिक व व्यावसायिक रूप से तैयार इकाई योजना द्वारा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को उपयुक्त प्रकार से व्यवस्थित
एवं संगठित करने में सहायता प्राप्त होती है। अध्यापक को यह विदित रहता है कि उसे एक इकाई तथा उसकी उप इकाईयों
में निहित विषय सामग्री के शिक्षण अधिगम हेतु कै से कार्य तथा क्रियाकलाप करने चाहिए। यही ज्ञान उसे एक अध्यापक के
नाते अपने सभी उत्तरदायित्वों की निर्वाह हेतु मानसिक तथा व्यावसायिक रूप से तैयार रखने में सहायता प्रदान करता है।

(6) प्रक्रिया को रोचक व प्रभावपूर्ण बनाना — इकाई योजना में निम्न कार्य होता है—

(i) पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु का उचित एवं सार्थक इकाईयों एवं उप-इकाईयों में विभाजन,

(ii) उनके शिक्षण अधिगम हेतु सभी आवश्यक क्रियाओं एवं संसाधनों का पूरा नियोजन ।

इसके परिणामस्वरूप शिक्षण अधिगम प्रक्रिया रोचक, प्रभावपूर्ण और सारयुक्त बन जाती है तथा कक्षा में अनुशासनहीनता
की समस्या उत्पन्न नहीं होती है।
(7) सतत् मूल्यांकन

(i)इकाई योजना में निर्धारित शिक्षण अधिगम उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में एक उपयुक्त इकाई परीक्षण के निर्माण का प्रावधान
रहता है।

(ii) उपरोक्त परीक्षण इकाई के शिक्षण अधिगम परिणामों का मूल्यांकन करने में सहायक होते हैं।

उपरोक्त प्रकार से होने वाले शिक्षण अधिगम का सतत मूल्यांकन करते रहने में इकाई योजना सहायक है।

(8) कठिनाइयों का ज्ञान व उपचार — इकाई योजना में निम्न कार्य सम्पन्न होता है—

(i) विद्यार्थियों की अधिगम कठिनाइयों, कमजोरियों तथा अक्षमताओं का निदान।

(ii) उनके निवारण हेतु उपचारात्मक शिक्षण के नियोजन का प्रावधान।

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