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उज्जैन में होती है कई संद

ु र धार्मिक यात्राएं

धर्म और आध्यात्म की संद


ु र नगरी उज्जैन में साल भर पवित्र गतिविधियां

आयोजित होती रहती हैं। कइ तरह की यात्राएं इनमें शामिल हैं जिन्हें स्थानीय

निवासी जत्रा कहते हैं। आइए डालें एक नजर...

पंचक्रोशी यात्रा

यह यहां की प्रसिद्ध यात्रा है । इस यात्रा में आने वाले दे व- 1. पिंगलेश्वर, 2

कायावरोहणेश्वर, 3. विल्वेश्वर, 4. दर्ध


ु रे श्वर, 5. नीलकंठे श्वर हैं।
अष्ठाविंशाति तीर्थयात्रा

इसमें 28 तीर्थ हैं, सब तीर्थ प्राय: नदी के तट पर हैं-

1. रुद्र सरोवर, 2. कर्क राज, 3. नरसिंह तीर्थ, 4. नीलगंगा संगम, 5.

पिशाचमोचन, 6. गंधर्वती तीर्थ, 7. केदार तीर्थ, 8. चक्रतीर्थ, 9. सोमतीर्थ, 10.

दे वप्रयाग तीर्थ, 11. योगी तीर्थ, 12. कपिलाश्रम तीर्थ, 13. धत


ृ कुल्या तीर्थ, 14.

मधक
ु ु ल्या तीर्थ, 15 औखर तीर्थ, 16. कालभैरव तीर्थ, 17. द्वादशार्क तीर्थ, 18.

दशाश्वमेध तीर्थ, 19. अंगारक तीर्थ, 20. खर्गता संगम तीर्थ, 21. ऋणमोचन

तीर्थ, 22. शक्तिभेद तीर्थ, 23 पापमोचन तीर्थ, 24. व्यास तीर्थ, 25. प्रेत मोचन

तीर्थ, 26. नवनदा तीर्थ, 27. मंदाग्नि तीर्थ, 28. पैतामह तीर्थ।

महाकाल यात्रा

इस यात्रा का आरं भ रुद्रसागर से होता है । रुद्रसागर में स्नान पर यात्रा के दे वों के

दर्शन करते हैं।

यात्रा के दे व
1. कोटे श्वर, 2. महाकाल, 3. कपाल मोचन तीर्थ, 4. कपिलेश्वर, 5.

हनम
ु त्केश्वर, 6. पैपलाध, 7. स्वप्नेश्वर, 8. विश्वतोमश
ु , 9. सोमेश्वर, 10.

वैश्वानरे श्वर, 11. लकुलीश, 12. गधानेश्वर, 13. विघ्ननायक, 14.

वद्
ृ धकालेश्वर, 15. विघ्ननाशक, 16. प्राणीशवल, 17. तनयेश्वर, 18. दं डपाणि,

19. गह
ृ े श्वर, 20. महाकाल, 21. दर्वा
ु सेश्वर, 22. कालेश्वर, 23. वाधिरे श्वर, 24.

यात्रेश्वर।

क्षेत्र यात्रा

1. शंखोधार क्षेत्र- अंकपात में

2. विश्वरूप क्षेत्र- सिंहपरु ी में

3. माधव क्षेत्र- अंकपात में

नगर प्रदक्षिणा

इस यात्रा के 5 मख्
ु य स्थल हैं-
1. पद्मावती, 2. स्वर्ण श्रंग
ृ ा, 3 अवन्तिका, 4. अमरावती, 5. उज्जयिनी।

नित्य यात्रा

1. शिप्रा स्नान, 2. नाग चन्द्रे श दर्शन, 3. कोटे श्वर दर्शन, 4. श्री महाकालेश्वर

दर्शन, 5. अवन्ति दे वी के दर्शन, 6. हरसिद्धि दे वी तथा 7. अगस्तेश्वर के दर्शन।

द्वादश यात्रा

1. गुप्तेश्वर, 2. अगस्तेश्वर, 3. ढुण्ढे श्वर, 4. डमरूकेश्वर, 5. अनादि कल्पेश्वर,

6. सिद्धेश्वर, 7. वीरभद्रा दे वी, 8. स्वर्ण जानश्वर, 9. त्रिविष्टपेश्वर, 10.

कर्कोटे श्वर, 11. कपालेश्वर, 12. स्वर्गद्वारे श्वर।

सप्तसागर यात्रा

1. रुद्रसागर, हरसिद्धि के पास, 2. पष्ु कर सागर, नलिया बाखल में , 3.

क्षीरसागर, डाबरीपीठा में , 4. गोवर्धन सागर, बध


ु वारिया में , 5. रत्नाकर सागर,
भोपाल लाइन में उं डासा गांव में , 6. विष्णस
ु ागर, अंकपात में , 7. परु
ु षोत्तम सागर,

अंकपात दरवाजे में ।

(स्थानीय प्रशासन की कृपा से अब यह सभी नष्ट-भ्रष्ट हैं।)

अष्ट महाभैरव

1. दं डपाणि भैरव, दे वप्रयाग के पास, 2. विक्रांत भैरव, औखरे श्वर के पास, 3.

महाभैरव, सिंहपरु ी में , 4. क्षे‍त्रपाल, सिंहपरु ी में , 5. बटुक भैरव, ब्रह्मपोल में , 6.

आनंद भैरव, मल्लिकार्जुन पर, 7. गौर भैरवगढ़ पर, 8. कालभैरव, भैरवगढ़ पर।

नौ नारायण यात्रा > >

इन यात्राओं में नौ नारायण यात्रा प्रमख


ु है । नौ नारायणों के दर्शन करने से नौ ग्रहों की शांति हो जाती

है । इनकी पंचोपचार पज
ू ा करना चाहिए। पज
ू ा या यात्रा के साथ दान का भी महत्व शास्त्रों में बताया

गया है । नौ नारायण भगवान विष्णु के दशावतारों के विभिन्न स्वरूप हैं। ये नौ स्वरूप उज्जैन में ही

विराजित है ।
- परु
ु षोत्तमनारायण : परु
ु षोत्तमनारायण मंदिर हरसिद्घि मंदिर के समीप स्थित है । करीब 200 वर्ष

इस परु ाने मंदिर में परु


ु षोत्तममास के दौरान श्रद्घालओ
ु ं का ताँता लगा रहे गा। यहाँ के दर्शन व पज
ू ा

करने से हर प्रकार की मनोकामनाओं की प्राप्ति होती है ।

- अनंतनारायण : अनंतपेठ स्थित अनंतनारायण मंदिर 300 वर्ष से अधिक परु ाना है । यहाँ अधिक

मास के अलावा हरियाली अमावस्या तथा अनंत चतर्द


ु शी पर पज
ू ा-पाठ का विशेष महत्व है । इनकी

पज
ू ा करने से अनंत सख
ु मिलता है ।

- सत्यनारायण : सत्यनारायण मंदिर ढाबा रोड पर है । लगभग 200 साल परु ाने इस मंदिर में

प्रतिदिन ही श्रद्घालु दर्शनों के लिए पहुँचते हैं। सत्यनारायण के दर्शन करने या यहाँ कथा श्रवण करने

से सख
ु समद्
ृ घि की कामना पर्ण
ू होती है ।

- चतर्भु
ु जनारायण : चतर्भु
ु जनारायण मंदिर भी ढाबा रोड पर ही है । इस प्राचीन मंदिर में भी नौ

नारायण करने वाले यात्रियों की संख्या कम नहीं होगी। इनके दर्शन करने से चारों तरफ ख्याति

मिलती है ।

- आदिनारायण : सेंट्रल कोतवाली के समक्ष स्थित आदिनारायण मंदिर में दर्शन या पज


ू ा करने से

समस्त दःु खों का नाश होता है । मंदिर काफी परु ाना है ।

- शेषनारायण : क्षीरसागर परिक्षेत्र में है शेषनारायण मंदिर। लगभग पाँच सौ वर्ष परु ाने इस मंदिर में

भगवान विष्णु शेषनाग पर विश्राम कर रहे हैं। सामने बैठी माता लक्ष्मी उनके चरण दबा रही है । यहाँ

अद्भत
ु स्वरूप के दर्शन होते हैं।
- पद्मनारायण : पद्मनारायण मंदिर भी क्षीरसागर पर ही है । इस प्राचीन मंदिर में भगवान विष्णु का

स्वरूप निराला है । यहाँ की यात्रा करने से अक्षय फल की प्राप्ति होती है ।

- लक्ष्मीनारायण : गुदरी चौराहा पर है लक्ष्मीनारायण मंदिर। कहा जाता है कि यहाँ नियमित दर्शन

या आराधना करने वाले व्यक्ति को किसी बात की कमी नहीं रहती है । मर्ति
ू चमत्कारी है ।

- बद्रीनारायण : बक्षी बाजार में बद्रीनारायण मंदिर है । यह मंदिर भी काफी परु ाना है । नौ नारायण की

यात्रा करने वाले यात्री यहाँ पज


ू ा-अर्चना कर आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।

एकादश रुद्र

1. कपर्दी, तिलभांडश
े के पास, 2. कपाली, ब्रह्मपोल में , 3. कलानाथ, ओखरे श्वर

पर, 4. वष
ृ ासन, महाकाल में , 5. व्यंबक, ओखरे श्वर में , 6. चीरवासा, महाकाल

में , 7. दिगम्बर जाठ के कुएं पर, 8. गिरीश, कालिका के मंदिर में , 9. कामचारी,

वंद
ृ ावनपरु ा में , 10. शर्व, सर्वांग भष
ू ण तीर्थ पर।

दे वी के स्थान
1. एकानंशा, सिंगपरु ी में , 2. भद्रकाली, चौबीस खंभे पर, 3. अवन्तिका,

महाकालेश्वर में ।

नवदर्गा
ु (अब्दालपरु ा में ), चौंसठ योगिनी (नयापरु ा में )। विंध्यवासिनी (गढ़ पर

खेत में ) अथवा सिंगपरु ी में कालिका के नाम से प्रसिद्ध है । वैष्णवी (सिंगपरु ी में )

पंडित कालरू ामजी त्रिवेदी के मकान में । कपाली, जोगीपरु ा में । छिन्नमस्तिका

अब्दालपरु ा में । वाराही कार्तिक चौक में वाराही माता की गली में । महाकाली,

महालक्ष्मी, महासरस्वती कार्तिक चौक में एक ही मंदिर में ।

यद्यपि महाकाल वन में शिवलिंग की संख्या असंख्‍य है तथापि सनत कुमार का

वाक्य है -

षष्टि कोटि सहस्राणि, षष्टि कोटि शतनीच।

महाकाल वने दे वि लिंग संख्या न विध्यते।

किंतु उन असंख्य शिवलिंग में 84 मख्


ु य शिव के स्थान हैं।
महाकाल वने दिव्ये यक्ष गन्धर्व सेविते।

उत्तरे वट यक्षिण्या यत्तल्लिङ्गमनत्त


ु मम ्।।

अगस्त्येश्वर महादे व मंदिर उज्जैन में हरसिद्धि मंदिर के पीछे स्थित संतोषी माता मंदिर

परिसर में है । अगस्त्येश्वर महादे व मंदिर की स्थापना ऋषि अगस्त्य, उनके क्षोभ और

महाकाल वन में उनकी तपस्या से जड


ु ी हुई है ।

पौराणिक मान्यताओं के अनस


ु ार जब दै त्यों का आधिपत्य दे वताओं पर बढ़ने लगा तब निराश होकर

दे वतागण पथ्
ृ वी पर भ्रमण करने लगे। एक दिन जब दे वतागण वन में भटक रहे थे तब उन्होंने वहां

सर्य
ू के सामान तेजस्वी अगस्त्य ऋषि को दे खा। ऋषि अगस्त्य को दे वताओं ने दै त्यों से अपनी

पराजय के बारे में बताया जिसे सन


ु कर अगस्त्य ऋषि अत्यधिक क्रोधी हुए। उनके क्रोध ने एक

भीषण ज्वाला का रूप लिया जिसके फलस्वरूप स्वर्ग से दानव जल कर गिरने लगे। यह दे ख कर

ऋषि, मनि
ु आदि काफी भयभीत हुए और पाताल लोक चले गए। इस घटना ने अगस्त्य ऋषि को

काफी उद्वेलित किया। दख


ु ी होकर वे ब्रह्माजी के पास गए और ब्रह्म हत्या के निवारण हे तु ब्रह्माजी

से विनय करने लगे कि दानवों की हत्या से मेरा सब तप क्षीण हो गया है कृपया कोई ऐसा उपाय

बताएं जिससे मझ
ु े मोक्ष प्राप्त ह
ब्रह्मा जी ने कहा कि महाकाल वन के उत्तर में वट यक्षिणी के पास एक बहुत पवित्र शिवलिंग है , वहां

जाकर उनकी पज
ू ा अर्चना कर तम
ु समस्त पापों से मक्
ु त हो सकते हो। ब्रम्हाजी के कहे अनस
ु ार

अगस्त्य ऋषि ने उस लिंग की पज


ू ा की और वहां तपस्या की जिससे भगवान महाकाल प्रसन्न हुए।

भगवान ने उन्हें वरदान दिया कि जिस दे वता का लिंग पज


ू न तम
ु ने किया है , वे तम्
ु हारे नामों से तीनों

लोकों में प्रसिद्ध होंगे। तभी से यह शिव स्थान अगस्त्येश्वर नाम से विख्यात हुआ।

अगस्त्येश्वर महादे व की आराधना साल भर में कभी भी की जा सकती है लेकिन श्रावण मास में

इसका अधिक महत्व होता है । साथ ही ऐसा माना जाता है कि अष्टमी और चतर्द
ु शी को जो इस लिंग

का पज
ू न करता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पर्ण
ू होती है और वह मोक्ष को प्राप्त करता है ।

84 महादे व : श्री गह
ु े श्वर महादे व(2)
तत्रास्ते सर्वदा पण्
ु या सप्तकालपोद्भवा गह
ु ा।

पिशाचेश्वरदे वस्य उत्तरे ण व्यवस्थिता ।।

उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक गुहेश्वर महादे व का मंदिर रामघाट पर पिशाच मक्
ु तेश्वर

के पास सरु ं ग के भीतर स्थित है । गुहेश्वर महादे व का पौराणिक आधार ऋषि मंकणक, उनके

अभिमान और फिर उनकी तपस्या से जड़


ु ा हुआ है ।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार प्राचीन काल में एक महायोगी थे जिनका नाम मंकणक था। वे

वेद-वेदांग में पारं गत थे। वे सिद्धि की कामना में हमेशा तपस्या में लीन रहते थे। एक बार वे दे वदारु

वन में तपस्या कर रहे थे उसी दौरान उनके हाथ में कुश का कांटा लग गया किन्तु रक्त के स्थान पर

शाक रस बहने लगा। यह दे ख ऋषि मंकणक अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अभिमान हुआ कि यह

उनकी सिद्धि का फल है । वे गर्व करके नत्ृ य करने लगे। इससे सारे जगत में हाहाकार मच गया
जिसके फलस्वरूप नदियां उल्टी बहने लगी तथा ग्रहों की गति उलट गई। यह दे ख सभी दे वी दे वता

भगवान शंकर के पास पहुंचे और उनसे ऋषि को रोकने का आग्रह किया।

दे वताओं को सन
ु ने के बाद शिवजी ऋषि के पास पहुंचे और उन्हें नत्ृ य करने से मना किया। ऋषि ने

अभिमान के साथ अपनी सिद्धि के बारे में भगवान शिवजी को बताया । इस पर शिवजी ने अपनी

अंगुली के अग्र भाग से भस्म निकाली और कहा कि दे खो मझ


ु े इस सिद्धि पर अभिमान नहीं है और

मैं नाच भी नहीं रहा हूं। भगवान शिव की बात सन


ु ने के बाद ऋषि काफी लज्जित हुए और उन्होंने

क्षमा मांगी, साथ ही उन्होंने तप की वद्


ृ धि का उपाय पछ
ू ा। तब शिवजी ने आशीर्वाद दे कर कहा कि

महाकाल वन जाओ, वहां सप्तकुल में उत्पन्न लिंग मिलेगा, उसके दर्शन करो, उसके दर्शन मात्र से

तम्
ु हारा तप बढ़ जाएगा। ऋषि महाकाल वन गए जहां उन्हें वह लिंग एक गुफा के पास मिला। ऋषि ने

लिंग की पज
ू ा-अर्चना की जिसके बाद ऋषि को सर्य
ू के समान तेज प्राप्त हुआ साथ ही उन्होंने कई

दर्ल
ु भ सिद्धियों को भी प्राप्त कर लिया। बाद में वही लिंग गुहेश्वर महादे व के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

ऐसा माना जाता है कि इनके दर्शन एवं अर्चन से अहं कार नष्ट होता है एवं सिद्धियों का सदप
ु योग

करने की समर्थता आती है । श्रावण मास के अलावा अष्टमी और चौदस के दिन दर्शन का विशेष

महत्व माना गया है ।

84 महादे व : श्री ढुंढेश्वर महादे व(3)


तत्रास्ते सम
ु हापण्
ु यं लिंगं सर्वार्थ साधकम ्।
पिशाचेश्वर सांनिध्ये तमाराधय सत्वरम ्।।

ढुंढेश्वर महादे व मंदिर अवंतिका के प्रसिद्ध रामघाट के पास स्थित है । पौराणिक

मान्यताओं के अनस
ु ार कैलाश पर्वत पर ढुंढ नामक गणनायक था जो कामी और

दरु ाचारी था। एक बार वह इन्द्रलोक की अप्सरा रं भा को नत्ृ य करता दे ख उस पर

आसक्त हो गया। वहां उसने रं भा पर एक पष्ु प गुच्छ फैंक दिया। यह दे खकर इंद्र

अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने उसे शाप दिया, जिससे वह मत्ृ यल


ु ोक में बेहोश

होकर गिर गया।

जब उसे होश आया तब उसे अपने कृत्य पर क्षोभ हुआ और शाप से मक्ति
ु पाने हे तु उसने महें द्र पर्वत

पर तपस्या की लेकिन उसे सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। शाप से मक्ति


ु पाने हे तु अनेक स्थानों पर तपस्या

करता हुआ वह गंगा तट पर पहुंचा। लेकिन तब भी उसे सिद्धि प्राप्त नही हुई जिससे हताश होकर

उसने धर्म कर्म छोड़ने का निर्णय लिया। तभी भविष्यवाणी हुई कि महाकाल वन जाओ और शिप्रा तट

पर पिशाच मक्
ु तेश्वर के पास स्थित शिवलिंग की पज
ू ा करो। इससे तम
ु शाप से मक्
ु त हो जाओगे और

तम्
ु हे पन
ु ः गण पद प्राप्त होगा।

ढुंढ ने महाकाल वन में आकर परू े समर्पण के साथ उस लिंग की पज


ू ा-अर्चना की जिससे भगवान शिव

प्रसन्न हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। ढुंढ ने कहा कि इस लिंग के पज


ू न से मनष्ु यों के पाप

दरू हों और यह लिंग मेरे नाम पर प्रसिद्ध हो। तभी से यह शिवलिंग “ढुंढेश्वर महादे व” के नाम से

विख्यात हुआ।

84 महादे व : श्री डमरुकेश्वर महादे व (4)


अश्वमेघसहस्त्रं तु वाजपेयशतं भवेत ्।

गो सहस्त्रफलं चात्र द्रष्ट्वा प्राप्स्यन्ति मानवाः।।

चौरासी महादे व में से एक डमरुकेश्वर महादे व की पौराणिक गाथा रूद्र नाम के

एक महाअसरु और उसके पत्र


ु वज्रासरु से शरू
ु होती है । वज्रासरु महाबाहु तथा

बलिष्ठ था। शक्तियां अर्जित करने वाले इस महाअसरु के दांत तीक्ष्ण थे और

इसने अपनी शक्तियों के बल पर दे वताओं को उनके अधिकार से विमख


ु कर

दिया एवं उनके संसाधनों पर कब्जा कर उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया।


नकारात्मक शक्तियों के चलते पथ्
ृ वी पर वेद, पठन-यज्ञ आदि बंद हो गए और हाहाकार मच गया।

तब सभी दे वता-ऋषि आदि एकत्रित हुए और असरु वज्रासरु के वध का विचार किया। इसी उद्दे श्य के

साथ दे वताओं और ऋषियों ने मंत्र साधना की। तब तेज प्रकाश के साथ एक ‘कन्या’ उत्पन्न हुई। यह

जानने पर कि वज्रासरु का नाश करना है , उसने अट्टाहास किया जिससे बड़ी संख्या में कन्याएं

उत्पन्न हुईं। उन सभी ने मिलकर वज्रासरु से यद्


ु ध किया। कुछ समय पश्चात दै त्य कमजोर होने लगे

और यद्
ु ध स्थल से भागने लगे। यह दे ख वज्रसरु ने तामसी नामक माया का इस्तेमाल किया। माया

से घबराकर वह कन्या उन समस्त कन्याओं के साथ महाकाल वन में आ गईं। वज्रासरु भी अपनी

सेना लेकर वहीं आ गया।

इस बारे में नारद मनि


ु ने विस्तार से सब शिवजी को बताया। शिवजी ने उत्तम भैरव का रूप धारण

किया और वे महाकाल वन आए। वहां दानवों की सेना दे खकर उन्होंने अपना भयंकर डमरू बजाया।

डमरू के शब्द से उत्तम लिंग उत्पन्न हुआ, जिससे निकली ज्वाला में वज्रासरु भस्म हो गया। उसकी

सेना का भी नाश हो गया। डमरू से उत्पन्न होने के कारण वह लिंग डमरुकेश्वर कहलाया।

ऐसी मान्यता है कि उज्जैन स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री डमरुकेश्वर महादे व के दर्शन करने से

पाप नष्ट हो जाते हैं और यद्


ु ध में विजय प्राप्त होती है । श्री डमरुकेश्वर महादे व का मंदिर हरसिद्धि

मार्ग पर राम सीढ़ी के ऊपर स्थित है ।

84 महादे व : श्री अनादिकल्पेश्वर महादे व(5)


अनादिकल्पेश्वरं दे वं पंचमं विद्धि पार्वती।

सर्व पाप हरं नित्यं अनादिर्गीयतेसदा।।

परु ाणानस
ु ार श्री रूद्र परमात्मा दे वाधिदे व महादे व अनादिकल्पेश्वर महादे व के बारे

में माता पार्वती को बताते हैं। वे कहते हैं यह लिंग कल्प से भी पहले प्रकट हुआ

है । उस समय अग्नि, सर्य


ू , पथ्
ृ वी, दिशा, आकाश, वाय,ु जल,चंद्रग्रह, दे वता,

असरु , गन्धर्व,पिशाच आदि भी नहीं थे। इसी लिंग से दे व, पित,ृ ऋषि आदि के

वंश उत्पन्न हुए हैं। इस लिंग से ही सारा चर-अचर संसार उत्पन्न हुआ है और

इसी में लीन हो जाता है ।

पौराणिक आधार:
पौराणिक उल्लेख के अनस
ु ार एक बार ब्रह्मा और विष्णु में यह विवाद हो गया कि उनमें बड़ा कौन है ।

तभी यह आकाशवाणी हुई कि महाकाल वन में कल्पेश्वर नामक लिंग है , उसका आदि या अंत जो

जान लेगा वह बड़ा है । यह सन


ु कर दोनों दे व अपनी पर्ण
ू शक्ति के साथ महाकाल वन पहुंचे और लिंग

का आदि तथा अंत खोजने लगे। ब्रह्मा ऊपर की ओर तथा विष्णु नीचे की ओर गए। अथक प्रयासों के

बाद भी उन्हें उस लिंग का आदि तथा अंत नहीं दिखा इसलिए यह लिंग अनादिकल्पेश्वर के नाम से

प्रसिद्ध हुआ।

दर्शन लाभ:

ऐसा माना जाता है कि सब तीर्थों में अभिषेक करने से जो पण्


ु य लाभ होता है उससे भी अधिक पण्
ु य

लाभ अनादिकल्पेश्वर के दर्शन मात्र से होता है । पापों से यक्


ु त दष्ु ट मन वाला मनष्ु य भी

अनादिकल्पेश्वर के दर्शन से पवित्र हो जाता है ।

कहां स्थित है :

श्री अनादिकल्पेश्वर महादे व मंदिर महाकाल मंदिर परिसर में स्थित है । महाकाल दर्शन को आने वाले

लगभग समस्त श्रद्धालु यहां दर्शन कर दर्शन लाभ लेते हैं।

84 महादे व : श्री स्वर्णज्वालेश्वर महादे व(6)


स्वर्ण ज्वालेश्वरं षष्ठं विद्धि चात्र यशस्विनी।
यस्य दर्शन मात्रेण धवानिह जायते।।

एक समय भगवान शिव और माता पार्वती को सांसारिक धर्म में सलंग्न रहते सौ

वर्ष हो गए लेकिन तारकासरु वध हे तु उन्हें कोई पत्र


ु उत्पन्न नहीं हुआ। तब

दे वताओं ने अग्नि दे व को शिवजी के पास भेजा। शिवजी ने त्रैलोक्य हित के लिए

अपना अंश अग्नि दे व के मख


ु में स्थान्तरित कर दिया। अग्नि दे व भी शिवजी के

अंश का दाह सहन नहीं कर पाए और उन्होंने उस अंश को गंगा में डाल दिया।

फिर भी अंश के शेष रहने पर अग्नि दे व जलने लगे। और फिर अग्नि दे व को अंश

शेष से दिव्य, रमणीय, कांचन पत्र


ु उत्पन्न हुआ। ऐसे ज्वलंत और अतितेजस्वी

पत्र
ु को पाने के लिए असरु , सरु , गन्धर्व, यक्ष आदि लड़ने लगे। दे वताओं और

दै त्यों में भयावह यद्


ु ध हुआ जिसके फलस्वरूप कोलाहल मच गया।

तब बालखिल्य ऋषि समस्त दे वताओं के साथ इंद्र बह


ृ स्पति को आगे कर ब्रह्मा के पास गए और परू ा

वत्त
ृ ांत उन्हें सन
ु ाया। ब्रह्मा उन सभी को लेकर भगवान शिव के पास पहुंचे। तब शिवजी को ज्ञात हुआ

कि यह सारा सर्वनाश अग्नि पत्र


ु सवु र्ण के कारण हुआ है । फिर शिवजी ने उस सव
ु र्ण को बल
ु ाया और

उसे ब्रह्म हत्या का दोषी बता छे दन, दहन और घर्षण की पीड़ा भग


ु तने की बात कही। यह सब दे खकर

अग्नि दे व भयभीत हुए और सव


ु र्ण पत्र
ु के साथ शिवजी की स्तति
ु करने लगे। अग्निदे व ने भगवान

शिव से विनय कि कृपया आप मेरे पत्र


ु स्वर्ण को अपने भंडार में रखें, आपके प्रसन्न होने से ही मझ
ु े

यह पत्र
ु मिला है । तब शिवजी ने अग्निपत्र
ु को गोद में बैठा कर दल
ु ार किया और फिर उसे महाकाल

वन में स्थान दिया। वह स्थान कर्कोटक के दक्षिण में है । वह लिंग ज्वाला समान होने से स्वर्ण

ज्वालेश्वर कहलाया। प्रचलन में स्वर्णजालेश्वर नाम भी है ।


दर्शन लाभ

श्री स्वर्णज्वालेश्वर महादे व राम सीढ़ी पर ढुंढेश्वर महादे व के पास स्थित है । मान्यतानस
ु ार श्री

स्वर्णज्वालेश्वर महादे व के दर्शन से और सव


ु र्ण का दान करने से सब शभ
ु कार्य पर्ण
ू होते हैं। श्रावण

मास और चतर्थी
ु को यहां पज
ू ा करने का विशेष महत्व है ।

84 महादे व : श्री त्रिविष्टपेश्वर महादे व(7)


त्रिविष्टपेश्वरं दे वि सप्तमं पर्वतात्मजे।
यस्य दर्शन मात्रेण लभ्यते तत्रिविष्टपम ्।।

चौरासी महादे व में से एक त्रिविष्टपेश्वर महादे व की स्थापना स्वयं दे वताओं ने की

है जो महाकाल वन की संद
ु रता और महत्ता दर्शाती है । पौराणिक कथाओं के

अनस
ु ार एक बार दे वऋषि नारद स्वर्गलोक में इंद्र दे व के दर्शन करने गए। वहां इंद्र

दे व ने महामनि
ु नारद से महाकाल वन का माहात्म्य पछ
ू ा। तब नारद मनि
ु ने

कहा महाकाल वन सब तीर्थों में उत्तम तीर्थ है । वहां साक्षात महे श्वर अपने गणों

सहित निवास करते हैं। वहां साठ करोड़ हजार तथा साठ करोड़शत लिंग निवास

करते हैं जो भक्ति और मक्ति


ु प्रदान करने वाले हैं। साथ ही वहां नव करोड़ों

शक्तियां भी निवास करती हैं।

यह सन
ु कर इंद्र तथा अन्य दे वता महाकाल वन पहुंचते हैं। वहां पहुंच कर दे वता महाकाल वन को

ब्रह्म लोक तथा विष्णु लोक से भी अधिक श्रेष्ठ पाते हैं। तब वहां आकाशवाणी हुई कि आप सभी

दे वता मिल कर एक लिंग की स्थापना कर्कोटक से परू ब में और महामाया के दक्षिण में करें । यह

सन
ु कर दे वताओं तथा इंद्र ने अपने नाम से त्रिविष्टपेश्वर महादे व की स्थापना की एवं उनका विधिवत

पज
ू न अर्चन किया।

दर्शन लाभ
त्रिविष्टपेश्वर महादे व महाकाल मंदिर में स्थित ओंकारे श्वर मंदिर के पीछे स्थित है । बारह मास

महाकाल दर्शन को आने वाले श्रद्धालु यहां दर्शन कर मनोकामना की पर्ति


ू हे तु प्रार्थना करते हैं लेकिन

अष्टमी, चतर्द
ु शी तथा संक्रांति के दिन पज
ू न अर्चन करने से विशेष फल प्राप्त होता है ।

84 महादे व : श्री कपालेश्वर महादे व(8)


तस्मिनक्षेत्रे महलिङ्गम गजरूपस्य सन्निधौ।
विद्यते पश्य दे वेश ! ब्रह्महत्या प्रणश्यति।।

उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री कपालेश्वर महादे व की महिमा के साक्षी

स्वयं महादे व हैं। श्री कपालेश्वर महादे व की आराधना कर स्वयं महादे व का ब्रह्म हत्या

दोष निवारण हुआ।

पौराणिक आधार एवं महत्व:

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार त्रेता यग
ु में एक बार ब्रम्हाजी यज्ञ कर रहे थे। यह यज्ञ महाकाल वन में

किया जा रहा था। वहां ब्राह्मण बैठे थे एवं आहुतियां दे रहे थे। तब शिवजी भस्म धारण कर कपाल

हाथ में लिए हुए विकृत रूप में वहां पहुंचे। उन्हें इस रूप में दे खकर ब्राह्मण अत्यंत क्रोधित हुए और

उनका अनादर किया। तब कापालिक वेष धारण किए शिवजी ने ब्राह्मणों से अनरु ोध किया कि ब्रह्म

हत्या पाप के नाश करने हे तु मैंने कपाल धारण करने का व्रत लिया है । यह व्रत पर्ण
ू होने पर में

सद्गति को प्राप्त होऊंगा।

अतःमझ
ु े कृपा करके आपके साथ बैठने दें । तब ब्राह्मणों ने उन्हें इंकार कर वहां से जाने के लिए

कहा। इस पर शिवजी ने कहा थोड़ी दे र मेरी प्रतीक्षा करो, मैं भोजन करके आता हूं। तब ब्राह्मणों ने

उन्हें मारना शरू


ु कर दिया। इससे उनके हाथ में रखा कपाल गिर कर टूट गया। इतने में वह पन
ु ः

प्रकट हो गया। ब्राह्मणों ने क्रोधित होकर कपाल को ठोकर मार दी। जिस स्थान पर कपाल गिरा वहां

सैकड़ों कपाल प्रकट हो गए। ब्राह्मणों ने उन कपालों को फिर फेंका तो करोड़ों कपाल हो गए। तब

आश्चर्य को प्राप्त ब्राह्मण समझ गए कि यह कार्य महादे व का ही है ।

फिर ब्राह्मणों ने शतरुद्री आदि मन्त्रों से हवन किया। तब महादे व प्रसन्न हुए और ब्राह्मणों से वरदान

मांगने को कहा। तब ब्राह्मणों ने कहा कि अज्ञानतावश हमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है , हमसे ब्रह्म

हत्या हुई है , कृपया दोष का निवारण बताएं। प्रतिक्रिया में महादे व ने कहा कि जिस जगह कपाल को
फैंका है वहां अनादिलिंग महादे व का लिंग है जो समयाभाव से ढं क गया है । उस लिंग का दर्शन करने

से ब्रह्म हत्या का दोष दरू होगा।

शिवजी आगे ब्राह्मणों से कहते हैं कि एक बार ब्रह्मा का पांचवा सिर काट दे ने पर उन्हें ब्रह्म हत्या का

दोष लगा था और ब्रह्मा का मस्तक उनके हाथ में लग गया था। उस दोष ने उनके अन्तःकरण को

क्षोभ से भर दिया था और उस दोष को दरू करने के लिए उन्होंने कई तीर्थ स्थलों की यात्रा की किन्तु

ब्रह्म हत्या दरू नहीं हुई। तब आकाशवाणी ने बताया कि महाकाल वन में गजरूप के पास दिव्य लिंग

है उसकी पज
ू ा करो। तब वे वहां आए और उस दिव्य लिंग के दर्शन करने पर उनके हाथ से ब्रह्मा का

कपाल नीचे पथ्


ृ वी पर गिर गया। उस लिंग का नाम कपालेश्वर रखा गया। शिवजी के कहे अनस
ु ार

ब्राह्मणों ने उस लिंग के दर्शन कर पज


ू ा-अर्चना की और उनके समस्त पाप नष्ट हो गए।

दर्शन लाभ:

ऐसा माना जाता है कि श्री कपालेश्वर के दर्शन से कठिन मनोरथ पर्ण


ू होते हैं व पापों का नाश होता है ।

चतर्द
ु शी के दिन इस लिंग के पज
ू न का विशेष महत्त्व माना गया है । श्री कपालेश्वर महादे व का मंदिर

उज्जैन में बिलोटीपरु ा स्थित राजपत


ू धर्मशाला के पास स्थित है ।

84 महादे व : श्री स्वर्गद्वारे श्वर महादे व(9)


स्वर्गद्वारे श्वर लिङ्ग नवमं सिद्धि पार्वती।

सर्व पाप हरं दे वि स्वर्ग मोक्ष फल प्रदम।।


उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री स्वर्गद्वारे श्वर महादे व की महिमा गणों

और दे वताओं के संघर्ष व दे वताओं की स्वर्ग प्राप्ति से जड़


ु ी हुई है । पौराणिक कथाओं के

अनस
ु ार श्री स्वर्गद्वारे श्वर के पज
ू न अर्चन से इंद्र समेत सभी दे वताओं को स्वर्ग की प्राप्ति

हुई थी।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार माता सती के पिता दक्ष प्रजापति ने भव्य यज्ञ का आयोजन

किया था। उस यज्ञ में उन्होंने सभी दे वी-दे वताओं व गणमान्यों को बल


ु ाया पर अपनी पत्र
ु ी सती और

उनके स्वामी भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी माता सती उस यज्ञ में उपस्थित हुईं।

वहां माता सती ने दे खा कि दक्षराज उनके स्वामी दे वाधिदे व महादे व का अपमान कर रहे थे। यह दे ख

वे अत्यंत क्रोधित हुईं और फलस्वरूप उन्होंने अग्निकुण्ड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। जब

शिवजी ने माता सती को पथ्


ृ वी पर मर्छि
ू त दे खा तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने उस यज्ञ का नाश

करने के लिए अपने गणों को वहां भेजा।

अस्त्र-शस्त्र से यक्
ु त उन गणों का वहां दे वताओं से भीषण संघर्ष हुआ। गणों में से एक वीरभद्र ने इंद्र

को अपने त्रिशल
ू के प्रहार से मर्छि
ू त कर दिया। उसके बाद गणों के सामने दे वताओं की शक्ति क्षीण

होने लगी। गणों से परास्त हो सभी दे वता भगवान श्री विष्णु के पास पहुंचे और मदद के लिए अनरु ोध

किया। दे वताओं की व्यथित दशा दे खकर भगवान विष्णु क्रोधित हुए और और उन्होंने अपने दिव्य

सद
ु र्शन चक्र से गणों पर प्रहार कर दिया। सद
ु र्शन चक्र तीव्रता से गणों को नष्ट करने लगा। फिर

भगवान विष्णु वीरभद्र की तरफ बढ़े और गदा से प्रहार किया किन्तु गणों में उत्तम वीरभद्र शिवजी के

वरदान के कारण नहीं मरा।> > विष्णु भगवान के प्रहार से गण भागने लगे और भगवान शंकर के

पास पहुंचे। उनके पीछे -पीछे विष्णु और सद


ु र्शन भी वहां पहुंचे। वहां शिवजी को शल
ु लिए दे ख

भगवान विष्णु सद
ु र्शन चक्र सहित अंतर्ध्यान हो गए। इस प्रकार यज्ञ का विध्वंस हो गया और शिवजी

ने अपने गणों को स्वर्ग के द्वार पर बैठा दिया और आज्ञा दी कि किसी भी दे वता को स्वर्ग में प्रवेश न

दिया जाए। तब सभी दे वता एकत्रित हो ब्रह्माजी के पास गए और अपना शोक प्रकट किया।
दे वताओं ने ब्रह्मा जी से कहा कि कृपया हमें कोई उपाय बताएं ताकि हमें स्वर्ग की प्राप्ति हो सके।

सारी बातें जानकर ब्रह्मा जी ने कहा आप सभी शिवजी की शरण में जाएं और उनकी आराधना कर

उन्हें प्रसन्न करें । आप सभी महाकाल वन जाओ, वहां कपालेश्वर के पर्व


ू में एक दिव्य लिंग है उसकी

आराधना करो। तब इंद्र इत्यादि दे वता महाकाल वन पहुंचे और उस लिंग के दर्शन किए। उस लिंग के

दर्शन मात्र से शिवजी ने स्वर्गद्वार स्थित अपने गणों को हटा लिया और दे वताओं को स्वर्ग की प्राप्ति

हुई। इसलिए उस लिंग को स्वर्गद्वारे श्वर कहा जाता है ।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री स्वर्गद्वारे श्वर के दर्शन करने से सम्पर्ण
ू पापों का नाश होता है और स्वर्ग की प्राप्ति

होती है । ऐसी भी मान्यता है कि श्री स्वर्गद्वारे श्वर के दर्शन करने से समस्त भय और चिंताएं दरू

होती है । प्रत्येक अष्टमी, चतर्द


ु शी और सोमवार को यहां दर्शन का विशेष महत्त्व माना गया है । श्री

स्वर्गद्वारे श्वर महादे व मंदिर उज्जैन में खण्डार मोहल्ले के पीछे नलियाबाखल के पास स्थित है ।

84 महादे व : श्री कर्कोटे श्वर महादे व(10)



कर्कोटे श्वर- संज्ञं च दशमं विद्धि पार्वती।

यस्य दर्शन मात्रेण विषैर्नैवाभिभय


ू ते।।

श्री कर्कोटे श्वर महादे व की स्थापना की कथा कर्कोटक नामक सर्प और उसकी शिव

आराधना से जड़
ु ी हुई है । श्री कर्कोटे श्वर महादे व की कथा में धर्म आचरण की महत्ता दर्शाई

गई है ।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार सर्पों की माता ने सर्पों के द्वारा अपना वचन भंग करने की

दशा में श्राप दिया कि सारे सर्प जनमेजय के यज्ञ में जलकर भस्म हो जाएंगे। श्राप से भयभीत होकर

कुछ सर्प हिमालय पर्वत पर तपस्या करने चले गए, कंबल नामक एक सर्प ब्रह्माजी की शरण में गया

और सर्प शंखचड़
ू मणिपरु में गया। इसके साथ ही कालिया नामक सर्प यमन
ु ा में रहने चला गया, सर्प

धत
ृ राष्ट्र प्रयाग में , सर्प एलापत्रक ब्रह्मलोक में और अन्य सर्प कुरुक्षेत्र में जाकर तप करने लगे।

फिर सर्प एलापत्रक ने ब्रह्माजी से कहा कि ‘प्रभु कृपया कोई उपाय बताएं जिससे हमें माता के श्राप से

मक्ति
ु मिले और हमारा उद्धार हो। तब ब्रह्माजी ने कहा आप महाकाल वन में जाकर महामाया के

समीप स्थित दे वताओं के स्वामी महादे व के दिव्य लिंग की आराधना करो। तब कर्कोटक नामक सर्प

अपनी ही इच्छा से महामाया के पास स्थित दिव्य लिंग के सम्मख


ु बैठ शिव की स्तति
ु करने लगा।

शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि जो नाग धर्म का आचरण करें गे उनका विनाश नहीं होगा। तभी से उस

लिंग को कर्कोटकेश्वर या फिर प्रचलन के हिसाब से कर्कोटे श्वर के नाम से जाना जाता है ।
दर्शन लाभ:

माना जाता है कि श्री कर्कोटे श्वर महादे व के दर्शन करने से कुल में सर्पों की पीड़ा नहीं होती

है और वंश में वद्


ृ धि होती है । यहां बारह मास ही दर्शन का महत्व है लेकिन पंचमी,

चतर्द
ु शी, रविवार और श्रावण मास में दर्शन का विशेष महत्व माना गया है । श्री कर्कोटे श्वर

महादे व उज्जयिनी के प्रसिद्ध श्री हरसिद्धि मंदिर प्रांगण में स्थित है । हरसिद्धि दर्शन

करने वाले लगभग सभी भक्तगण श्री कर्कोटे श्वर महादे व की आराधना कर दर्शन लाभ

लेते हैं।

84 महादे व : श्री सिद्धेश्वर महादे व (11)

लिङ्गं एकादशं विद्धि दे वि सिद्धेश्वरम ् शभ


ु म।
वीरभद्र समीपे तु सर्व सिद्धि प्रदायकम ्।।

श्री सिद्धेश्वर महादे व की स्थापना की कथा ब्राह्मणों द्वारा स्वार्थवश सिद्धि प्राप्त करने की दशा में

नास्तिकता की ओर बढ़ने और फिर उनकी महादे व आराधना से जड


ु ी हुई है ।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार दे वदारु वन में समस्त ब्राह्मणगण एकत्रित हो सिद्धि प्राप्त

करने हे तु तप करने लगे। किसी ने शाकाहार से, किसी ने निराहार से, किसी ने पत्ते के आहार से, किसी

ने वीरासन से, आदि प्रकारों से ब्राह्मण तपस्या करने लगे। किन्तु सैकड़ों वर्षों के बाद भी उन्हें सिद्धि

प्राप्त नहीं हुई। इसके फलस्वरूप ब्राह्मण बेहद दख


ु ी हुए एवं उनका ग्रंथों, वचनों पर से विश्वास उठने

लगा। वे नास्तिकता की ओर बढ़ने लगे। तभी आकाशवाणी हुई कि आप सभी ने स्वार्थवश एक दस


ू रे

से स्पर्धा करते हुए तप किया है इसलिए आपमें से किसी को भी सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। काम, वासना,

अहं कार, क्रोध, मोह,लोभ आदि तप की हानि करने वाले कारक हैं। इन सभी कारकों से वर्जित होकर

जो तपस्या व दे व पज
ू ा करते हैं उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है ।

अब आप सभी महाकाल वन में जाएं और वहां वीरभद्र के पास स्थित लिंग की पज


ू ा-अर्चना करें ।

सिद्धि के दाता सिर्फ महादे व ही है । उन्हीं की कृपा से सनकादिक दे वता को सिद्धि प्राप्त हुई थी।

इसी लिंग के पज
ू न से राजा वामम
ु न को खंड सिद्धि, राजा हाय को आकाशगमन की सिद्धि, कृतवीर्य

को हज़ार घोड़े, अरुण को अदृश्य होने की, इत्यादि सिद्धियां प्राप्त हुई हैं। उस लिंग की निस्वार्थ

आराधना करने से आप सभी को भी सिद्धि प्राप्त होगी।


तब वे सभी ब्राह्मणगण महाकाल वन में आए और सर्वसिद्धि दे ने वाले इस शिव लिंग के दर्शन किये

जिससे उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। उसी दिन से वह लिंग सिद्धेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार जो भी मनष्ु य 6 महीने तक नियमपर्व
ू क श्री सिद्धेश्वर का दर्शन करते हैं उन्हें वांछित

सिद्धि प्राप्त होती है । कृष्णपक्ष की अष्टमी और चतर्द


ु शी को जो सिद्धेश्वर महादे व के दर्शन करता है

उसे शिवलोक प्राप्त होता है । श्री सिद्धेश्वर महादे व उज्जैन में भेरूगढ़ क्षेत्र में स्थित सिद्धनाथ के

मख्
ु य द्वार पर स्थित है । सिद्धनाथ जाने वाले श्रद्धालु यहां आकर दर्शन लाभ लेते हैं।

84 महादे व : श्री लोकपालेश्वर महादे व(12)


द्वादशं विद्धि दे वेशि, लोकपलेश्वरम ् शिवं।
यस्य दर्शन मात्रेण, सर्वपापैः प्रमच्
ु यते।।

श्री लोकपालेश्वर महादे व की कथा दे वताओं पर दै त्यों के बढ़ते प्रभत्ु व और फिर उनकी शिव आराधना

द्वारा दै त्यों के संहार से जड़


ु ी हुई है । पौराणिक कथाओं के अनस
ु ार प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप

द्वारा अनेक दै त्यगण पैदा हुए थे। उन्होंने वन पर्वतों में जा आश्रम नष्ट कर सम्पर्ण
ू पथ्
ृ वी को

उथल-पथ
ु ल कर दिया। यज्ञ नष्ट हो गए। वेदों की ध्वनि बंद हो गई। पिंडदान दे ना बंद हो गए और

पथ्
ृ वी यज्ञ रहित हो गई। तब लोकपाल (दे वतागण) भयभीत होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और

हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगे कि प्रभु आपने पहले भी नमचि


ु , वष
ृ भरवन, हिरण्यकशिप,ु नरकासरु ,

मरु नामा, आदि दै त्यों से हमारी रक्षा की है । कृपा करके इन दै त्यों से भी हमारी रक्षा करें , हम आपकी

शरण में है ।

दस
ू री ओर दै त्य अपना आधिपत्य बढ़ाते जा रहे थे। फिर स्वर्गपरु ी में जाकर उन्होंने इंद्र को, दक्षिण

दिशा में धर्मराज को, पश्चिम दिशा में जाकर जलराज वरुण को और उत्तर दिशा में कुबेर को जीत

लिया। तब भगवान विष्णु ने दे वताओं को व्याकुल दे ख उन्हें महाकाल वन जाने का उपाय बताया।

उन्होंने कहा कि महाकाल वन में जाओ और दे वाधिदे व महादे व की आराधना करो। यह सन


ु कर सभी

लोकपाल महाकाल वन पहुंचे लेकिन वहां भी दै त्यों ने उनके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया।

तब नारायण के कहने पर वे भस्म लगा कर, घंटा, नप


ु रू , कपाल आदि धारण कर कापालिक वेश में

महाकाल वन पहुंचे जहां उन्हें एक दिव्य लिंग के दर्शन हुए। पर्ण


ू श्रद्धा भाव से सभी लोकपाल उस

लिंग की स्तति
ु करने लगे जिसके परिणामस्वरूप उस लिंग में से भयंकर ज्वालाएं निकली और

जहां-जहां दानव थे वहां पहुंच कर उन सब दै त्यों को जलाकर भस्म कर दिया। समस्त लोकपालों ने

इस लिंग की स्तति
ु की इसलिए इन्हें लोकपालेश्वर महादे व के नाम से जाना जाता है ।
दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार यहां दर्शन कर लेने से स्व प्राप्ति होती है । ऐसा भी माना जाता है कि यहां दर्शन करने

से शत्रओ
ु ं पर विजय प्राप्त होती है । यहां दर्शन बारह मास में कभी भी किए जा सकते हैं लेकिन

संक्रांति, सोमवार, अष्टमी और चतर्द


ु शी के दिन दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है । उज्जैन स्थित

श्री लोकपालेश्वर महादे व हरसिद्धि दरवाजे पर स्थित है ।


84 महादे व : श्री मनकामनेश्वर महादे व(13)
मनकामनेश्वर महादे व : गंधर्ववती घाट स्थित श्री मनकामनेश्वर महादे व के
दर्शन मात्र से सौभाग्य प्राप्त होता है । ऐसा कहा जाता है कि एक समय ब्रह्माजी
प्रजा की कामना से ध्यान कर रहे थे। उसी समय एक संद ु र पत्र
ु उत्पन्न हुआ।

ब्रह्माजी के पछ
ू ने पर उसने कहा कि आपकी इच्छा से, आपके ही अंश से उत्पन्न हुआ हूं। मझ ु े आज्ञा
दो, मैं क्या करूं? ब्रह्माजी ने कहा कि तम
ु सष्टि
ृ की रचना करो। यह सन
ु कर कंदर्प नामक वह पत्रु
वहां से चला गया, लेकिन छिप गया। यह दे खकर ब्रह्माजी क्रोधित हुए और नेत्राग्नि से नाश का श्राप
दिया। कंदर्प के क्षमा मांगने पर उन्होंने कहा कि तम्
ु हें जीवित रहने हे तु 12 स्थान दे ता हूं, जो कि स्त्री
शरीर पर होंगे। इतना कहकर ब्रह्माजी ने कंदर्प को पष्ु प का धनष्ु य तथा पांच नाव दे कर बिदा किया।
कंदर्प ने इन शस्त्रों का उपयोग कर सभी को वशीभत ू कर लिया। जब उसने तपस्यारत महादे व को
वशीभत ू करने का विचार किया तब महादे व ने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। इससे कंदर्प (कामदे व)
भस्म हो गया। उसकी स्त्री रति के विलाप करने पर आकाशवाणी हुई कि रुदन मत कर, तेरा पति
बिना शरीर का (अनंग) रहे गा।

> > यदि वह महाकाल वन जाकर महादे व की पज


ू ा करे गा तो तेरा मनोरथ पर्ण
ू होगा। कामदे व

(अनंग) ने महाकाल वन में शिवलिंग के दर्शन किए और आराधना की। इस पर प्रसन्न होकर महादे व

ने वर दिया कि आज से मेरा नाम, तम्


ु हारे नाम से कंदर्पेश्वर महादे व नाम से प्रसिद्ध होगा। चैत्र

शक्
ु ल की त्रयोदशी को जो व्यक्ति दर्शन करे गा, वह दे वलोक को प्राप्त होगा।

84 महादे व : श्री कुटुम्बेश्वर महादे व (14)

कुटुम्बेश्वर संज्ञन्तु दे वं विद्धि चतर्द


ु शम ्।

यस्य दर्शन मात्रेण गौत्र विद्धिश्च जयते।।


श्री कुटुम्बेश्वर महादे व की स्थापना की कथा महादे व के करुणामय मन एवं क्षिप्रा मैया की

कर्तव्यपरायणता दर्शाती है । करुणामय भगवान शिव ने सष्टि


ृ को विष के भयानक दष्ु प्रभाव से बचाने

के लिए स्वयं उस विष को धारण कर लिया। क्षिप्रा मां ने शिव की आज्ञा के उपरांत बिना विष के

दष्ु प्रभाव का विचार किए कर्तव्यपरायणता का अद्भत


ु परिचय दिया।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार दे वों और दे वताओं ने मिलकर समद्र
ु मंथन किया, जिसके

फलस्वरूप समद्र
ु में से कई बहुमल्
ू य वस्तओ
ु ं के अलावा विष भी उत्पन्न हुआ। विष की ज्वाला से

दे वताओं, असरु ों के अलावा यक्षगण भी भयभीत हो महादे व की शरण में पहुंचे। उन सभी ने मिलकर

महादे व के समक्ष यह प्रार्थना की कि महादे व हमने अमरत्व प्राप्त करने के लिए समद्र
ु मंथन किया था

लेकिन यहां तो विष उत्पन्न हो गया। कृपया हमारी रक्षा करें । दे वताओं की व्यथा सन
ु भगवान शंकर

ने मोर का रूप धारण कर उस विष को अपने गले में धारण कर लिया। लेकिन वह विष इतना प्रचंड था

कि भगवान शंकर भी व्यथित हो गए। उन्होंने गंगा नदी से कहा कि तम


ु इस विष को ले जाकर समद्र

में प्रवाहित कर दो। परन्तु गंगा ने असमर्थता जता दी। तब शिवजी ने यमन
ु ा, सरस्वती आदि नदियों

से भी उपर्युक्त प्रार्थना की लेकिन इन नदियों ने भी असमर्थता जता दी। अंततः शिवजी ने क्षिप्रा नदी

से विनय किया कि तम
ु इस विष को ले जाकर महाकाल वन में स्थित कामेश्वर के सामने वाले लिंग

में स्थापित कर दो।

महादे व की आज्ञा पर क्षिप्रा नदी उस विष को ले गई और महाकाल वन स्थित उस लिंग पर विष को

स्थापित कर दिया। विष के प्रभाव से वह लिंग विषमयी हो गया जिसका परिणाम यह हुआ कि जो भी

प्राणी उसका दर्शन करता वह मत्ृ यु को प्राप्त हो जाता। एक बार वहां कुछ ब्राह्मण तीर्थ यात्रा करने

आए। उन्होंने उस लिंग के दर्शन किए और वे भी मत्ृ यु को प्राप्त हो गए। तब तीनो लोकों में हाहाकार

मच गया। महादे व को जब ये पता चला तो वे ब्राह्मणों के पास गए और अपनी दिव्य दृष्टि से उन्हें
जीवित कर दिया। तब उन ब्राह्मणों ने महादे व से विनय की कि हे दे वाधिदे व महादे व, इस लिंग के

दर्शन से लोग मत्ृ यु को प्राप्त होते हैं, कृपया इस दोष का निवारण करें । तब भगवान शिवजी ने कहा

कि जल्दी ही ब्राह्मण लकुलीश वंश के लोग यहां आएंगे, उसके बाद यह लिंग स्पर्श योग्य एवं पज
ू नीय

हो जाएगा और जो भी यहां दर्शन करने आएगा उसके कुटुंब की वद्


ृ धि होगी और यह कुटुम्बेश्वर के

नाम से जाना जाएगा। तत्पश्चात लकुलीश वंश के ब्राह्मण वहां आए और भगवान शिव का स्मरण

कर उन्होंने उस लिंग का पज
ू न अर्चन किया जिसके बाद वह लिंग विष के प्रभाव से मक्
ु त हो गया।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री कुटुम्बेश्वर महादे व के दर्शन करने से कुटुंब में वद्
ृ धि होती है । साथ ही मनष्ु य रोग

मक्
ु त हो लक्ष्मी को प्राप्त होता है । माना जाता है कि रविवार, सोमवार, अष्टमी एवं चतर्द
ु शी को क्षिप्रा

स्नान कर जो व्यक्ति श्री कुटुम्बेश्वर के दर्शन करता है उसे एक हज़ार राजसर्य


ू तथा सौ वाजपेय यज्ञ

का फल प्राप्त होता है । चौरासी महादे व में से एक श्री कुटुम्बेश्वर महादे व का मंदिर सिंहपरु ी में स्थित

है ।

84 महादे व : श्री इन्द्रद्यम्


ु नेश्वर महादे व(15)

कलकलेश्वर दे वस्य समीपे वामभागतः।


लिंगपापहरं तत्र समाराधय यत्नतः।।

श्री इन्द्रद्यम्
ु नेश्वर महादे व की स्थापना की कथा शभ
ु एवं निष्काम कर्म करने एवं पण्
ु यार्जन का

महत्व बताती है । प्रस्तत


ु कथा यह दर्शाती है कि पथ्
ृ वी पर शभ
ु कर्म करने से ही कीर्ति एवं स्वर्ग संभव

है ।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार प्राचीन काल में एक इन्द्रद्यम्
ु न नाम का राजा था। राजा ने पथ्
ृ वी लोक

में अपने जीवन कल में कई निष्काम सक


ु र्म किए जिसके फलस्वरूप राजा को स्वर्ग की प्राप्ति हुई।

लेकिन कुछ समय पश्चात जब राजा का पण्


ु य क्षीण हुआ तब राजा पन
ु ः पथ्
ृ वी पर आ गिरा। तब वह

शोकसंतप्त हुआ और उसे यह ज्ञात हुआ कि स्वर्ग का वास केवल पण्


ु य का संचय रहने तक ही मिलता

है । पथ्
ृ वी लोक पर किए गए शभ
ु कर्म ही स्वर्गकारक होते हैं। अच्छे कर्मो से ही पण्
ु य का अर्जन होता है

एवं मनष्ु य की कीर्ति पण्


ु य प्रभाव से पथ्
ृ वी पर रहती है । वहीं दस
ू री तरफ बरु े कर्म करने पर निंदा होती

है एवं दःु ख भोगना पड़ता है ।

यह ज्ञात होते ही राजा पन


ु ः तपस्या करने का निश्चय कर हिमालय पर्वत की ओर चल दिया। वहां

राजा को महामनि
ु मार्क ण्डेय ऋषि मिले। राजा ने उन्हें प्रणाम किया और पछ
ू ा कि कौन सा तप करने

से स्थिर कीर्ति प्राप्त होती है । मनि


ु ने राजा से कहा कि राजन! महाकाल वन जाओ। वहां कलकलेश्वर

लिंग के पास ही एक दिव्य लिंग है , उसके पज


ू न अर्चन करने से अक्षय कीर्ति प्राप्त होती है ।

तब राजा महाकाल वन पहुंचा और वहां स्थित उस दिव्य लिंग का पज


ू न अर्चन किया। तब दे वता,

गन्धर्व आदि राजा की प्रशंसा करने लगे और राजा से कहने लगे कि इस महादे व के पज
ू न से तम्
ु हारी

कीर्ति निर्मल हो गई है । आज से तम्


ु हारे नाम से ही यह लिंग इन्द्रद्यम्
ु नेश्वर के नाम से पहचाना

जाएगा।
दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार जो भी व्यकि श्री इन्द्रद्यम्
ु नेश्वर महादे व के दर्शन करे गा उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।

वह कीर्ति और यश को प्राप्त होगा एवं उसके पण्


ु य में वद्
ृ धि होगी। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व

में से एक श्री इन्द्रद्यम्


ु नेश्वर महादे व मोदी की गली में स्थित है ।

84 महादे व : श्री ईशानेश्वर महादे व(16)


ईशानेश्वर संज्ञन्तु षोडशम ् विद्धि पार्वती।
यस्य दर्शन मात्रेण ऐश्वर्य जायते नण
ृ ाम ्।।

श्री ईशानेश्वर महादे व की स्थापना की कहानी बरु ाई पर अच्छाई की जीत का माहात्म्य दर्शाती है कि

किस प्रकार दानवों के शक्तिशाली आधिपत्य के बाद भी शिव शक्ति द्वारा उनका संहार किया गया।

प्राचीन कल में तह
ु ु ण्ड नाम का एक दानव था। उसने दे वताओं के साथ ऋषियों, गन्धर्वों, यक्षों को भी

अपने अधीन कर लिया। उसने इंद्र के ऐरावत हाथी और उच्चश्रवा घोड़े को भी अपने अधीन कर

लिया। उसने स्वर्ग का द्वार रोक दे वताओं के सभी अधिकार छीन लिए। तब सभी दे वता अत्यंत

चिंतित हो विचार करने लगे। इतने में महामनि


ु नारद वहां पहुंच गए। तब सभी दे वताओं ने उन्हें

प्रणाम किया एवं तह


ु ु ण्ड दानव द्वारा किए गए अत्याचारों एवं कुकर्मों के बारे में बताया। साथ ही

नारद मनि
ु से आग्रह किया कि वे इस दानव तह
ु ु ण्ड के कहर से उन्हें बचाने का कोई उपाय बताएं। तब

नारद मनि
ु ने ध्यान किया तत्पश्चात कहा कि आप सभी महाकाल वन जाइए और वहां

इन्द्रद्यम्
ु नेश्वर के पास ईशानेश्वर नामक स्थान पर स्थित दिव्य लिंग का पज
ू न अर्चन करें ।

नारद मनि
ु के वचन सन
ु सभी दे वतागण महाकाल वन स्थित ईशानेश्वर में उस दिव्य लिंग के पास

पहुंचे। सभी दे वतागण वहां परू े भक्ति भाव से शिव की स्तति


ु करने लगे। तब उस लिंग में से धआ
ु ं

निकलने लगा और फिर एक भीषण ज्वाला प्रकट हुई। उस ज्वाला ने मंड


ु ासरु के पत्र
ु तहु ु ण्ड को उसकी

सेना सहित भस्म कर दिया। इसी प्रकार तह


ु ु ण्ड के समाप्त होने के पश्चात सभी दे वताओं को अपना

स्थान एवं अपने अधिकार प्राप्त हुए। तब सभी दे वतागण बोले कि हमें ईशानेश्वर में ही अपना सर्वस्व

फिर प्राप्त हुआ है इसलिए हम इनका नाम ईशानेश्वर ही रखते हैं और त्रिलोक में इन्हे ईशानेश्वर

महादे व के नाम से जाना जाएगा।


दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार जो भी मनष्ु य श्री ईशानेश्वर महादे व के दर्शन करते हैं उन्हें शत्रओ
ु ं पर विजय प्राप्त

होती है । उनके सारे कार्य पर्ण


ू होते हैं साथ ही पापों का नाश होता है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व

में से एक श्री ईशानेश्वर महादे व का मंदिर पटनी बाजार क्षेत्र में मोदी की गली के बड़े दरवाजे में स्थित

है ।

84 महादे व : श्री अप्सरे श्वर महादे व(17)


दे वं सप्तदशं विद्धि विख्यातं अप्सरे श्वरं ।

यस्य दर्शन मात्रेण लोकोअभीष्टानवाप्नय


ु ात ्।।

श्री अप्सरे श्वर महादे व की कथा महाकाल वन की महत्ता और अप्सराओं की शिव आराधना को चित्रित

करती है । अप्सराओं द्वारा पज


ू े गए इस लिंग से अप्सरा रं भा का शाप दोष दरू हुआ था।
पौराणिक कथाओं के अनस
ु ार नंदन नामक वन में एक बार राजा इंद्र अपनी सभा में दिव्य सिंहासन

पर विराजमान हो नत्ृ य दे ख रहे थे। इंद्र ने वहां अप्सरा रं भा को चित्त से विचलित हो लय ताल से

चक
ू ते दे खा। तब इंद्र दे व क्रोधित हुए एवं बोले कि भल
ू करना मनष्ु य की प्रवत्ति है लेकिन दे वलोक में

यह क्षमा करने योग्य नहीं है । फिर उन्होंने रं भा को कांतिहीन होने का शाप दे पथ्
ृ वी लोक पर भेज

दिया। इंद्र दे व के शाप दे ते ही रं भा अपनी शोभा खो पथ्


ृ वी लोक पर गिर पड़ी और दख
ु ी हो रुदन करने

लगी। रं भा को दख
ु ी दे ख उसकी सखियां भी आकाश से नीचे आकर उसके दःु ख में शामिल हो गईं।

तभी वहां नारदजी पहुंचे और अप्सराओं को विलाप करते दे ख आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने अप्सराओं

से उनके विलाप का कारण पछ


ू ा। प्रत्यत्त
ु र में अप्सराओं ने इंद्र दे व के दरबार में हुए घटनाक्रम का

सम्पर्ण
ू वत्त
ृ ांत कह सन
ु ाया। अप्सराओं की बात सन
ु नारद मनि
ु ध्यानमग्न हुए और फिर बोले कि

आप सभी महाकाल वन जाएं। महाकाल वन में हरसिद्धि पीठ के सामने एक दिव्य लिंग है उसके

दर्शन करें । उस लिंग की आराधना से आप सभी के समस्त मनोरथ पर्ण


ू होंगे। मेरे आदे श पर इसके

पहले ऊर्वशी को भी उस लिंग के दर्शन करने से उसके पति की पन


ु ः प्राप्ति हुई थी। तब सभी अप्सराएं

महाकाल वन पहुंची और वहां उन्होंने नारद मनि


ु द्वारा बताए दिव्य लिंग का सच्ची श्रद्धा से

पज
ू न-अर्चन किया। अप्सराओं द्वारा श्रद्धापर्व
ू क पज
ू न अर्चन से भगवान शिव प्रसन्न हुए और

उन्होंने यह वरदान दिया कि आप सभी को पन


ु ः इंद्र लोक प्राप्त होगा। अप्सराओं द्वारा पज
ू े जाने के

कारण वह लिंग अप्सरे श्वर कहलाया।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री अप्सरे श्वर महादे व का दर्शन करने से किसी का स्थान भ्रष्ट नहीं होता है एवं एवं

खोई हुई पद व प्रतिष्ठा पन


ु ः प्राप्त हो जाती है । ऐसा भी माना जाता है कि अगर आप यहां दर्शन के

लिए दस
ू रों को भेजेंगे तो भी आपको वही फल प्राप्त होगा और स्थान वियोग इत्यादि नहीं
होगा।उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री अप्सरे श्वर महादे व का मंदिर पटनी बाजार में

स्थित है ।

84 महादे व : श्री कलकलेश्वर महादे व(18)


दे वमष्टादशं विद्धि ख्यातं कलकलेश्वरम ्।
यस्य दर्शन मात्रेण कल्हौनैव जायते।।

(स्कंदपरु ाण अष्टादशोअध्यायः, प्रथम श्लोक)

मान्यतानस
ु ार श्री कलकलेश्वर महादे व के दर्शन, पज
ू न, अभिषेक करने से पति-पत्नी का कलह व

मनमट
ु ाव समाप्त होता है ।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार मां पार्वती मंडप में मातक
ृ ाओं के साथ बैठी थी। उनके मध्य

वह कृष्ण वर्ण की दिख रही थी। तब भगवान शंकर ने मजाक करते हुए कहा – हे महाकाली ! तम
ु मेरे

पास आकर बैठो। मेरे गौर शरीर के पास बैठने से तम्


ु हारी शोभा बिजली की तरह होगी क्योंकि मैंने

सफ़ेद रं ग के सर्पों का वस्त्र पहना है और सफ़ेद चन्दन लगाया है । तम


ु रात्रि के समान काली अगर मेरे

पास बैठोगी तो मझ
ु े नजर नहीं लगेगी। इस पर माँ पार्वती रुष्ट हो गई। उन्होंने कहा, आपने जब

नारदजी को मेरे पिता के पास मझ


ु से विवाह करने भेजा था, तब क्या आपने मेरा रूप नहीं दे खा था?

इस प्रकार भगवान शिव और माँ पार्वती में सामान्य सी बात बढ़कर कलह हो गई जिसने उग्र रूप

धारण कर लिया। कलह बढ़ने से तीनों लोकों में प्राकृतिक विपत्तियां उत्पन्न होने लगी। पंचतत्व,

अग्नि, वाय,ु आकाश व सम्पर्ण


ू पथ्
ृ वी में असंतल
ु न होने लगा तथा चारों ओर भारी हाहाकार होने

लगा। परिणामस्वरूप दे व, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस सभी भय को प्राप्त हुए। इसी कोलाहल से पथ्
ृ वी भेद

कर एक दिव्य लिंग प्रकट हुआ जिसमें से वाणी प्रसारित हुई, “इस लिंग का पज
ू न करें , इससे कलेश,

कलह दरू होगा”। तब दे वताओं ने इस लिंग का पज


ू न किया जिसके फलस्वरूप माँ पार्वती का क्रोध

शांत हुआ एवं तीनों लोकों में पन


ु ः शांति स्थापित हुई। तब सभी दे वों ने उनका नाम कलकलेश्वर

महादे व रखा।
दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री कलकलेश्वर महादे व के दर्शन करने से कलह, कलेश आदि नहीं होता है । गह
ृ शांति

बनी रहती है । ऐसा माना जाता है कि यहां दर्शन करने से व्याधि, सर्प, अग्नि जैसे भय दरू हो जाते हैं।

यहां दर्शन बारह मास में कभी भी किए जा सकते हैं लेकिन श्रावण मास एवं चतर्द
ु शी के दिन दर्शन का

विशेष महत्व माना गया है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री कलकलेश्वर महादे व का

मंदिर गोपाल मंदिर के पास मोदी की गली में अग्रवाल धर्मशाला के सामने स्थित है ।

84 महादे व : श्री नागचण्डेश्वर महादे व(19)


ईशानेश्वर दे वस्य तिष्ठतिशनभागतः।
तस्य दर्शनमात्रेण न स गच्छति दष्ु कृतम ्।।

श्री नागचण्डेश्वर की स्थापना की कथा अनजाने में हुए कई दोषों को चित्रित करती है । इनके दर्शन से

दे वताओं के भी शिव निर्माल्य (शिव लिंगों का समह


ू ) दोष का निवारण हुआ था।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार राजा इंद्र की सध
ु र्मा सभा में दे वर्षि नारद मनि
ु कथा

प्रसंग सन
ु ा रहे थे। तब दे वराज इंद्र ने उनसे कहा, हे दे वर्षि, आपने तो तीनों लोकों को दे खा

है , जाना है । कृपया मझ
ु े बताएं कि इस पथ्
ृ वी लोक पर ऐसा कौन सा स्थान है जो सर्वोत्तम

है , जो मक्ति
ु प्रदान करने वाला है ? प्रत्यत्त
ु र में नारदजी बोले, हे दे वराज, पथ्
ृ वी पर सबसे

उत्तम स्थल प्रयाग है । लेकिन उससे भी दस गुना अधिक पवित्र और उत्तम महाकाल वन में

अवंतिका है । वहां के दर्शन मात्र से सख


ु और मोक्ष की प्राप्ति होती है । नारद मनि
ु के वचन

सन
ु इंद्र दे व समेत सभी दे वगण विमानों में बैठ महाकाल वन स्थित अवंतिका पहुंचे।

वहां पहुंच कर दे वताओं ने यह दे खा कि महाकाल वन में तो हर जगह करोड़ों शिवलिंग विराजमान है ,

इंच भर भी जगह खाली नहीं है । सभी जगह शिव निर्माल्य है और शिव निर्माल्य को लांघने के पाप के

डर से सभी दे वता स्वर्गलोक को लौट जाने लगे। तभी उन्होंने यह दे खा कि एक दिव्य परु
ु ष प्रसन्नता

से स्वर्ग की ओर जाता दिखाई दिया। तब दे वताओं ने उससे पछ


ू ा, आप बड़ी प्रसन्नता से कहां जा रहे

हैं? आपने कौन सा उत्तम कार्य किया है ? उत्तर में दिव्य परु
ु ष ने जवाब दिया, मैं महाकाल का भक्त हूं।

मेरा नाम नागचण्डेश्वर है । मझ


ु े उनका गण होने का आशीर्वाद मिला है । दे वताओं ने पछ
ू ा- वहां शिव

निर्माल्य को लांघने से क्या तम्


ु हें दोष नहीं लगा। तब उसने बताया कि यहां ईशानेश्वर के ईशानकोण

में एक लिंग है । उस लिंग का दर्शन करने से शिव-निर्माल्य को लांघने का ही नहीं अपितु समस्त दोष

मिट जातें हैं।


नागचण्डेश्वर की बात सन
ु सभी दे वतागण ईशानेश्वर के पास स्थित दिव्य लिंग का दर्शन करने

पहुंचे। वहां पहुंच दर्शन करने से दे वताओं के शिव निर्माल्य के साथ सभी पाप नष्ट हो गए। दे वताओं

को दिशा दी दिव्य परु


ु ष नागचण्डेश्वर ने, इसलिए दे वताओं ने उन महादे व का नाम नागचण्डेश्वर

रखा।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री नागचण्डेश्वर महादे व के दर्शन करने से दोषों का नाश होता है । ज्ञान से या अज्ञान

से किया हुआ पाप धमि


ू ल हो जाता है । ऐसा माना जाता है कि श्री नागचन्दे श्वर के दर्शन से आरोग्य के

साथ-साथ यश की भी प्राप्ति होती है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री नागचण्डेश्वर

महादे व का मंदिर पटनी बाज़ार में स्थित है ।

84 महादे व : श्री प्रतिहारे श्वर महादे व(20)


प्रतिहारे श्वर महादे व – पटनी बाजार स्थित नागचण्डेश्वर महादे व के पास प्रतिहारे श्वर महादे व का

मंदिर है । इनके दर्शन मात्र से व्यक्ति धनवान बन जाता है । एक बार महादे व उमा से विवाह के बाद

सैकड़ों वर्षों तक रनिवास में रहे । दे वताओं को चिंता हुई कि यदि महादे व को पत्र
ु हुआ तो वह तेजस्वी

बालक त्रिलोक का विनाश कर दे गा। ऐसे में गरु


ु महा तेजस्वी ने उपाय बताया कि आप सभी महादे व

के पास जाकर गुहार करो। जब सभी मंदिराचल पर्वत पहुंचे तो द्वार पर नंदी मिले। इस पर इंद्र ने

अग्नि से कहा कि हं स बनकर नंदी की नजर चरु ाकर जाओ और महादे व से मिलो। हं स बने अग्नि ने
महादे व के कान में कहा कि दे वतागण द्वार पर खड़े इंतजार कर रहे हैं। इस पर महादे व द्वार पर आए

तथा दे वताओं की बात सन


ु ी। उन्होंने दे वताओं को पत्र
ु न होने दे ने का वचन दिया। लापरवाही के

स्वरूप उन्होंने नंदी को दं ड दिया। नंदी पथ्


ृ वी पर गिरकर विलाप करने लगा। नंदी का विलाप सन
ु कर

दे वताओं ने नंदी से महाकाल वन जाकर शिवपज


ू ा का महात्म्य बताया। नंदी ने वैसा ही किया।>

> उसने लिंग पज


ू न कर वरदान प्राप्त किया। लिंग से ध्वनि आई कि तम
ु ने महाभक्ति से

पज
ू न किया है अतः तम्
ु हें वरदान है कि तम्
ु हारे नाम प्रतिहार (नंदीगण) से यह लिंग जाना

जाएगा। तब से उसे प्रतिहारे श्वर महादे व के नाम से प्रसिद्धि मिली।

84 महादे व : श्री कुक्कुटे श्वर महादे व(21)


प्राचीन समय में कौषिक नाम के राजा हुआ करते थे। वे अपनी प्रजा का ध्यान रखते थे और उनके

राज्य में सभी सख


ु सवि
ु धाएं थीं। राजा कौषिक दिनभर मनष्ु य रूप में रहते थे और रात को कुक्कुट

(मर्गे
ु ) का रूप ले लेते थे। इस कारण उनकी रानी विशाला हमेशा दःु खी रहती थी। राजा के कुक्कुट रूप

लेने के कारण वे रति सख


ु का आनंद नहीं ले पाती थीं। एक दिन रानी ने दःु ख के कारण मरने का

विचार किया और वह गालव ऋषि के पास पहुंची। विषाला ने अपना दख


ु गालव ऋषि को बताते हुए

इसका कारण पछ
ू ा। गालव ऋषि ने बताया कि तम्
ु हारा पति पर्व
ू जन्म में राजा विदरू त का पत्र
ु था। वह

विषयासक्त होकर मांसाहारी हो गया एवं अनेक कुक्कुटों का भक्षण किया। इस कारण क्रुद्ध होकर

कुक्कुटों के राजा ताम्रचड़


ू ने उसे श्राप दिया कि वह क्षय रोग से पीडित होगा। श्राप के कारण वह क्षीण

होने लगा। राजकुमार कौषिक वामदे व मनि


ु के पास गया और अपने रोग का कारण पछ
ू ा। वामदे व

मनि
ु ने ताम्रचड़
ू की बात बताई। >

>

और उन्हीं से श्रापमक्ति
ु का उपाय पछ
ू ा। कौषिक ताम्रचड़
ू के पास गया और निवेदन किया। ताम्रचड़

ने कहा तम
ु निरोगी रहोगे और शासन करोगे परन्तु रात को अदृश्य हो जाओगे। रानी ने गालव ऋषि

से श्राप मक्ति
ु का उपाय पछ
ू ा तो उन्होनें बताया कि महाकाल वन में पक्षी योनि विमोचन लिंग

जबलेश्वर के पास स्थित है वहां जाओ और उनका पज


ू न करो। राजा रानी महाकाल वन में आए और

शिवलिंग का पज
ू न किया। रात्रि होने पर राजा कौषिक अदृश्य नहीं हुआ और रानी के साथ रति सख

को प्राप्त किया। मान्यता है कि शिवलिंग के दर्शन से कोई भी पित ृ नरक को प्राप्त नहीं होता।

84 महादे व : श्री कर्क टे श्वर महादे व( 22)


कार्क टियोनि मक्
ु तस्य प्राप्तं स्वर्गं सख
ु ं यतः।
कर्क टे श्वर नामायमतो लोके भविष्यति।।

श्री कर्क टे श्वर महादे व की स्थापना की कहानी राजा धर्ममर्ति


ू और पिछले जन्म में उनकी केकड़ा योनि

व स्वर्ग प्राप्ति की महिमा से जड


ु ी हुई है । प्रस्तत
ु कथा में सक
ु र्म एवं शिवालय का माहात्म्य दर्शाया

गया है ।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार प्राचीन काल में धर्ममर्ति
ू नामक एक प्रतापी राजा थे। दे वराज इंद्र की

सहायता से उन्होंने सैकड़ों दै त्यों का संहार किया। वह तेजस्वी राजा इच्छानस


ु ार अपना शरीर बनाने

में सक्षम थे एवं सदा यद्


ु ध में विजयी होते थे जिससे उनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में फैली हुई थी।

उनकी पत्नी भानम


ु ति थी जो उनकी दस हज़ार रानियों में श्रेष्ठ थी और जो सदै व धर्म परायण रहती

थी। पर्ण
ू वैभव, कीर्ति और सख
ु से सस
ु ज्जित राजा ने एक बार अपने महर्षि वशिष्ठ से पछ
ू ा कि मझ
ु े

कीर्ति व उत्तम लक्ष्मी स्त्री किस कृपा से, किस पण्


ु य से प्राप्त हुई है ।

प्रत्यत्त
ु र में वशिष्ठ मनि
ु बोले की पहले पर्व
ू जन्म में आप शद्र
ु राजा थे और कई दोषों से यक्
ु त थे।

आपकी यह स्त्री भी दष्ु ट स्वभाव वाली थी। जब आपने शरीर त्यागा तब आप नरक में गए जहां कई

यातनाएं आपको सहनी पड़ीं। वहां अनेक यातनाओं के बाद आपको यमराज ने केकड़े के रूप में जन्म

दिया और आप महाकाल वन के रुद्रसागर में रहने लगे। महाकाल वन स्थित रुद्रसागर में जो मनष्ु य

दान, जप, तप आदि करता है वो अक्षय पण्


ु य को प्राप्त होता है । पांच वर्ष तक आप उसमें रहे फिर

आप जब बाहर निकले तब एक कौआ आपको अपनी चोंच में भरकर आसमान में उड़ने लगा। तब

आपने अपने पैरों से कौवे से बचने के लिए प्रहार किए जिसके फलस्वरूप आप उसकी चोंच से छूट

गए। कौवे की चोंच से छूट आप स्वर्गद्वारे श्वर के पर्व


ू में स्थित एक दिव्य लिंग के पास गिरे और

गिरते ही उस दिव्य लिंग के प्रभाव से आपने केकड़े का दे ह त्याग दिव्य विद्याधर के समान दे ह प्राप्त

की। फिर जब आप अन्य शिवगणों के साथ शामिल हो स्वर्ग की ओर जा रहे थे तभी मार्ग में दे वताओं

ने शिवगणों से आपके बारे में पछ


ू ा। तब उन शिवगणों ने शिव लिंग के प्रभाव से आपके केकड़ा योनि
से मक्
ु त होने के बारे में बताया तभी से इस दिव्य लिंग का नाम कर्क टे श्वर महादे व के नाम से प्रसिद्ध

हुआ। इसी लिंग के माहात्म्य के कारण ही आपको पहले स्वर्ग की और फिर राज की प्राप्ति हुई है ।

महर्षि की बातें सन
ु कर राजा तरु ं त महाकाल वन स्थित स्वर्गद्वारे श्वर के पर्व
ू में स्थित शिवालय पहुंचे

और वहां ध्यानमग्न हो गए।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार जो भी श्रद्धालु श्री कर्क टे श्वर महादे व के दर्शन करते हैं उनके योनि दोष दरू होते हैं एवं

वे शिवलोक को प्राप्त करते हैं। यहां दर्शन बारह मास किए जा सकते हैं लेकिन अष्टमी और चतर्द
ु शी

के दिन दर्शन का विशेष महत्व माना गया है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री

कर्क टे श्वर महादे व का मंदिर खटिकवाड़ा में स्थित है ।

84 महादे व : श्री मेघनादे श्वर महादे व(23)


भविष्यन्ति नरा भम
ू ौ कृतार्थास्तत्प्रभावतः।

दर्शनादस्य लिङ्गस्य कामवष्टि


ृ र्भविष्यति।।
स्कन्द परु ाण, त्रयोविंशोअध्यायः (श्लोक 39)

श्री मेघनादे श्वर महादे व की स्थापना की कथा पण्


ु य कर्मों की महत्ता और दोषों के दष्ु परिणाम की ओर

इंगित करती है । राजा के दोषों एवं दष्ु कर्मों के कारण ही वर्षा बाधित हुई।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक समय द्वापर और कलियग
ु की संधि पर मदांध नामक अहं कारी

राजा हुआ था। वह राजा दष्ु ट प्रवत्ति का था। राजा के दोषों व पापों के कारण बारह वर्षों तक वर्षा नहीं

हुई। वर्षावष्टि
ृ न होने की स्थिति में नदियां सख
ु गई, तालाब अदृश्य हो गए, यज्ञ वेदाध्ययन आदि

सब बंद हो गए। पथ्


ृ वी पर सभी दिशाओं में हाहाकार मच गया। यह दे खकर इंद्र आदि दे वता क्षीरसागर

के उत्तर में श्वेतद्वीप स्थित भगवान जनार्दन के पास गए। वहां पहुंच उन्होंने भगवान को प्रणाम

किया एवं उनकी स्तति


ु करने लगे। तब भगवान ने पछ
ू ा कि आप लोग क्यों क्यों पधारे हैं एवं आपकी

अभिलाषा क्या है ? तब दे वतागण बोले कि प्रभु कई वर्षों से वष्टि


ृ नहीं हुई है , कृपया कोई उपाय

कीजिए।

दे वताओं की बात सन
ु भगवान जनार्दन कुछ दे र के लिए ध्यानमग्न हो गए फिर बोले कि आप सभी

कृपया महाकाल वन जाएं। वहां प्रतिहारे श्वर के ईशान कोण में एक दिव्य लिंग है जिसमें वष्टि
ृ करने

वाले मेघ निवास करते हैं। आप सब वहां जाएं और भक्ति भाव से उस लिंग का पज
ू न-अर्चन करें ।

उनके पज
ू न-अर्चन से वष्टि
ृ जरूर होगी। श्री भगवान की बात सन
ु सभी दे वगण महाकाल वन स्थित

उस दिव्य लिंग के पास पहुंचे और भक्तिमय भाव से स्तति


ु करने लगे। स्तति
ु के फलस्वरूप उस लिंग

से कई मेघ प्रकट हुए और आकाश में छाकर वष्टि


ृ करने लगे। सम्पर्ण
ू सष्टि
ृ फिर से सस्थि
ु र हुई और

पथ्
ृ वी के सभी जीव-जंतओ
ु ,ं पक्षियों तथा मानवों का संताप दरू हुआ। दे वतागण इसे अमत
ृ वर्षा मान

बेहद प्रसन्न हुए एवं उन्होंने उस लिंग का नाम मेघनादे श्वर रखा।

दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री मेघनादे श्वर महादे व के पज
ू न अर्चन करने से वष्टि
ृ में वद्
ृ धि होती है । ऐसा माना

जाता है कि यहां दर्शन करने से पितरों को शांति मिलती है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से

एक श्री मेघनादे श्वर महादे व छोटा सराफा में नसि


ृ हं मंदिर के पीछे स्थित है

84 महादे व : श्री महालयेश्वर महादे व (24)


एक बार पार्वती जी ने शिव जी से पछ
ू ा कि सारे संसार में चर-अचर जो दिखाई

दे ता है ओर जो सन
ु ाई दे ता है सभी आप ने उत्पन्न किया है । इसके साथ ही संपर्ण

जगत आप में ही लीन होता है । इस पर शिव ने कहा दे वी पार्वती महाकाल वन में

प्रलय के समय मैने यह धारण किया हुआ है । इसका नाम महालयेश्वर है । इस

शिवलिंग से ब्रम्हा, विष्ण,ु दे वी-दे वता, भत


ू , बद्
ु धि, प्रज्ञा, धति
ृ , ख्याति, स्मति
ृ ,

लज्जा, सरस्वति सभी उत्पन्न हुए हैं और प्रलय के समय सभी इसी में लीन होते

हैं। मान्यता है कि जो भी इस शिवलिंग का पज


ू न करता है । वह त्रिलोक विजयी

होता है ।>

>

84 महादे व : श्री मक्


ु तेश्वर महादे व (25)
अनेक जन्म संशद्
ु धा योगिनाअनग
ु ह
ृ ान्मम।
प्रविशन्तु तनंु दे वी मदीयां मक्ति
ु दायिकाम।।

श्री मक्
ु तेश्वर महादे व की महिमा मक्ति
ु के मार्ग की ओर इंगित करती है । स्वयं तेजस्वी जितेन्द्रिय

ब्राह्मण भी तेरह वर्षों की तपस्या के बाद महाकाल वन में आकर मोक्ष का मार्ग पा सके।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार प्राचीन काल में मक्ति
ु नामक एक जितेन्द्रिय ब्राह्मण थे। मक्ति
ु की

कामना से वे नित तपस्या में लीन रहते थे। तपस्या में रत हुए उन्हें 13 साल हो गए। फिर एक दिन वे

स्नान करने के लिए महाकाल वन स्थित पवित्र क्षिप्रा नदी पर गए। क्षिप्रा में उन्होंने स्नान किया फिर

वे वहीँ नदी के तट पर जप करने लगे। तभी उन्होंने वहां एक भीषण दे ह वाले मनष्ु य को आते हुए दे खा

जिसके हाथ में धनष


ु बाण था। वहां पहुंच कर वह व्यक्ति ब्राह्मण से बोला कि वह उन्हें मारने आया

है । उसकी बात सन
ु ब्राह्मण भयभीत हुए एवं नारायण भगवान का ध्यान लगा कर बैठ गए। ब्राह्मण

के तप के भव्य प्रताप से उस व्यक्ति ने धनष


ु बाण फैक दिए और बोला कि – हे ब्राह्मण, आपके तप

के प्रभाव से मेरी बद्


ु धि निर्मल हो गई है । मैंने बहुत दष्ु कर्म किए हैं लेकिन अब मैं आपके साथ तप

कर मक्ति
ु प्राप्त करना चाहता हूं। ब्राह्मण के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर वह व्यक्ति वहीं बैठ कर

भगवान का ध्यान करने लगा। उसके तप के फलस्वरूप वह मक्ति


ु को प्राप्त हो गया। यह दे ख

ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गए और सोचने लगे कि उनको इतने वर्षों के तप बाद भी मक्ति


ु नहीं

मिली। ऐसे विचार कर ब्राह्मण नदी के मध्य जल में जाकर जप करने लगे।

कुछ दिनों तक वे ऐसे ही जप करने लगे फिर एक बाघ वहां पर आया जो जल में खड़े ब्राह्मण को

खाना चाहता था। तब ब्राह्मण ने ‘नमो नारायण’ का उच्चारण शरू


ु कर दिया। ब्राह्मण के मख
ु से

निकले नमो नारायण के उच्चारण सन


ु ते ही वह बाघ अपनी दे ह त्याग उत्तम परु
ु ष के रूप में परिवर्तित

हो गया। ब्राह्मण के पछ
ू ने पर उसने बताया कि पर्व
ू जन्म में वह दीर्घबाहु नाम का प्रतापी राजा था

और वह समस्त वेद वेदांत में पारं गत था। इस पर वह अभिमान करता था और ब्राह्मणों को कुछ नही

समझता था। ब्राह्मणों के अनादर करने पर उन्होंने क्रोधित हो उसे शाप दिया कि वह वह बाघ योनि
को प्राप्त हो कष्ट भोगेगा। तब उसने ब्राह्मणों की स्तति
ु की एवं कहा- हे ब्राह्मण श्रेष्ठजन, में आप

सभी का तेज जान गया हूं। आप ही में से अगस्त्य मनि


ु ने समद्र
ु को जब अभिमान हुआ तो उसे पीकर

खारा कर दिया था। उसका जल पीने योग्य नहीं रहा। ब्राह्मणों के शाप से ही वातापि राक्षस नष्ट

हुआ। भग
ृ ु ऋषि के क्रोध से सर्व भक्षी अग्नि हुआ। गौतम मनि
ु के शाप से इंद्र सहस्त्रयोनि हुए।

ब्राह्मणों के शाप से विष्णु को भी दस अवतार लेने पड़े। च्यवन मनि


ु की कृपा से दे वताओं के वैद्य

अश्विनी कुमारों को सोमरस पीने को मिला। ब्राह्मणों के पराक्रम के ऐसे वचनों को कहता हुआ वह

बारम्बार ब्राह्मणों से क्षमा याचना करने लगा।

उसकी प्रार्थना से ब्राह्मण प्रसन्न हुए और बोले कि जब तम


ु क्षिप्रा नदी जाओगे और वहां जल में खड़े

किसी ब्राह्मण के मख
ु से नमो नारायण कहते हुए सन
ु ोगे तो तम
ु शाप से मक्
ु त हो बाघ योनि से भी

मक्
ु त हो जाओगे। इस प्रकार ब्राह्मण के मख
ु से भगवान नारायण का नाम सन
ु कर उसकी मक्ति
ु हुई।

तब ब्राह्मण उस राजा से बोले कि मेरी मक्ति


ु कैसे होगी? मझ
ु े तप करते हुए वर्षों हो गए लेकिन अब

तक मझ
ु े मक्ति
ु का मार्ग नहीं मिला। तब उस राजा ने कहा कि आप कृपया महाकाल वन में स्थित

मक्ति
ु लिंग के दर्शन करें । आगे वह बोला, मक्ति
ु लिंग की महिमा बताने वाले को भी मक्ति
ु प्राप्त होती

है । तब राजा और ब्राह्मण दोनों महाकाल वन स्थित दिव्य मक्ति


ु लिंग के पास आए और उनके दर्शन

मात्र से वे दोनों उस लिंग में समा गए जिससे उन्हें मक्ति


ु प्राप्त हुई।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री मक्
ु तेश्वर महादे व के दर्शन करने से मक्ति
ु प्राप्त होती है । इस लिंग की पज
ू ा

ऋषि-मनि
ु -दे वता आदि भी करते हैं। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री मक्
ु तेश्वर

महादे व का मंदिर खत्रीवाड़ा में स्थित है ।

84 महादे व : श्री सोमेश्वर महादे व (26)


प्राचीन कथा के अनस
ु ार दक्ष प्रजापति के श्राप के कारण चंद्रमा विलप्ु त हो गये थे। चंद्रमा

के विलप्ु त होने से धरती पर औषधियां समाप्त होने लगी। इस पर दे वताओं ने ब्रह्मा से


प्रार्थना की। ब्रह्मा की आज्ञा पर समद्र
ु मंथन किया गया उसमें से एक चंद्रमा प्रकट हुआ।

ब्रह्मा की आज्ञा से चंद्रमा धरती पर प्रजा का पालन करने लगा। श्राप ग्रस्त चंद्रमा ने

भगवान विष्णु की आज्ञा से महाकाल वन में विराजित शिवलिंग की पज


ू ा की ओर भगवान

शिव से वरदान प्राप्त कर पन


ु ः अपना शरीर ओर राज प्राप्त किया। चंद्रमा के पज
ू न करने

के कारण शिवलिंग का नाम सोमेश्वर महादे व पड़ा। मान्यता है कि यहां पज


ू न करने से

मनष्ु य सभी कलंक से मक्


ु त होता है ओर अंत काल में मोक्ष को प्राप्त करता है ।>

>

84 महादे व : श्री अनरकेश्वर महादे व (27)


प्राचीन समय में एक राजा थे निमि। अपने पण्
ु य कर्मो के कारण यमराज के दत
ू उन्हे

विमान में लेकर स्वर्ग जा रहे थे। यमदत


ू उन्हें दक्षिण मार्ग से नरक के सामने से लेकर जा

रहा था। राजा निमि ने वहां करोड़ों लोगों को अपने पापों का फल भग


ु तते दे खा, जिससे

उन्हें पीड़ा हो रही थी। उन्होंने यमदत


ू से पछ
ू ा कि मझ
ु े किस कर्म के कारण नरक के सामने

से गज
ु रना पड़ा है , दत
ू ने कहा कि आपने श्राद्ध के दिन दक्षिणा नहीं दी उसी कर्म के
कारण आपको यह फल मिल रहा है । इसके बाद राजा ने पछ
ू ा मझ
ु े किस कर्म के कारण

स्वर्ग की प्राप्ति हो रही है । इस पर यमदत


ू ने कहा कि आपने महाकाल वन में अश्विन में

कृष्ण पक्ष की चतर्द


ु शी को भगवान मनकेश्वर का दर्शन-पज
ू न किया था, जिसके

फलस्वरूप आपको स्वर्ग की प्राप्ति हुई है ।

जैसे ही वे लोग आगे चलने लगे नरक के पापियों ने कहा कि हे राजन आप थोड़ी दे र ओर रूकें, आपके

शरीर को स्पर्श कर आने वाली वायु पीड़ा में राहत दे रही है । राजा निमि ने दत
ू से कहा कि वे अब स्वर्ग

नहीं जाएंगे ओर यही खड़े रहकर पापियों को सख


ु दे गे। इस पर इंद्र वहां उपस्थित हुए और राजा से

स्वर्ग चलने का विनय किया। राजा ने मना किया ओर पछ


ू ा कि ये पापी अपने कर्म फल से कैसे मक्
ु त

होंगे? तब इंद्र ने कहा कि यदि आप अपने भगवान के दर्शन का पण्


ु य फल इन्हें दान कर दें तो सभी

मक्
ु त हो जाएंगे। राजा निमि ने अपना पण्
ु य फल सभी पापियों को दान कर दिया, जिससे सभी पापी

अपने पाप से मक्


ु त हो गए। मान्यता है कि अनरकेश्वर के दर्शन मात्र से नरक से मक्ति
ु मिलती है ।

अश्विन कृष्ण पक्ष चतर्द


ु शी को पज
ू न करने से मनष्ु य के सौ जन्मों के पाप नष्ट होते हैं ओर वह स्वर्ग

के सख
ु ों का भोग करता है ।

84 महादे व : श्री जटे श्वर महादे व(28)


एषते कथितो दे वि प्रभावः पापनाशनः।
जटे श्वरस्य दे वस्य श्रण
ृ ु रामेश्वरम शिवम ्।।

श्री जटे श्वर महादे व की कथा राजा वीरधन्वा और उनके द्वारा वन में किए गए दोषों के निवारण से

जड
ु ी हुई है । प्रस्तत
ु कथा ऋषि-मनि
ु यों की महत्ता दर्शाती है । मनि
ु द्वारा बताए गए मार्ग पर ही राजा

को शांति प्राप्त हो सकी।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार वीरधन्वा नाम के एक राजा थे। वे धर्मस्वी, यशस्वी तथा पथ्
ृ वी

पर विख्यात थे। एक बार वे शिकार करने के लिए वन में गए। वहां उन्होंने मग
ृ रूपी आकृति दे ख बाण

चला दिए। जहां उन्होंने बाण चलाए वे वास्तविकता में संवर्त ब्राम्हण के पांच पत्र
ु थे जो मग
ृ रूप में

विचर रहे थे। उनका मग


ृ रूप उन्हें मिले एक शाप की कथा में निहित है । उस कथा के अनस
ु ार एक बार

उन ब्राम्हण पत्र
ु ों द्वारा हिरन के पांच छोटे बच्चों का वध हो गया था। घर जाकर बालकों ने अपने

पिता को सारा वत्त


ृ ांत सन
ु ाया और प्रायश्चित का मार्ग पछ
ू ा। तभी वहां भग
ृ ु ऋषि, अत्रि ऋषि और अभी

ऋषि आ गए। सारी बातें जानने पर वे बोले कि प्रायश्चित हे तु तम


ु पांचों पांच वर्ष तक मग
ृ चर्म ओढ़

कर वन में रहो। इस प्रकार वे पांचों वन में भटक रहे थे और एक वर्ष के पश्चात राजा वीरधन्वा ने उन्हें

मग
ृ समझ मार डाला।

जब राजा को यह ज्ञात हुआ कि वे ब्राह्मण पत्र


ु थे तो वे अत्यंत दख
ु ी हुए। भय से कांपते हुए वे दे वरात

मनि
ु के पास पहुंचे एवं उन्हें सारी बातें कहीं। दे वरात मनि
ु ने उन्हें शांत रहने को कहा और कहा कि

भगवान जनार्दन की कृपा से तम्


ु हारा पाप दरू हो जाएगा। मनि
ु की सामान्य सी प्रतिक्रिया सन
ु कर

राजा को क्रोध आ गया और उसने तलवार से मनि


ु की हत्या कर दी। इस हत्या के बाद वे और ज्यादा

क्रोधित हुए, संतल


ु न खोते हुए वन में भटकने लगे और वहीँ उन्होंने गालव ऋषि की कपिल गाय का

भी वध कर दिया। जड़ीभत
ू बद्
ु धि से वे दिशाहीन होकर वन में भटकते रहे ।

राजा को वन में भटकते हुए एक बार मनि


ु वामदे व ने दे खा। राजा को दे खते ही वे सारा अतीत जान

गए। राजा उनसे कहने लगा कि उसने ब्राह्मण हत्या की है , गौ हत्या की है , वह इस दोष से अत्यधिक
दख
ु ी है । तब मनि
ु राजा से बोले कि आपकी बद्
ु धि पर्व
ू काल के कुछ कर्मों के कारण जड़ हुई है और

इसी वजह से आपको ब्रह्म हत्या का दोष लगा है । आप तरु ं त महाकाल वन जाइए। वहां अनरकेश्वर

के उत्तर में स्थित दिव्य लिंग का दर्शन कीजिए। उनके दर्शन करने से ही आपका उद्धार हो सकता है ।

मनि
ु के कहे अनस
ु ार राजा महाकाल वन पहुंचे और वहां पहुंच कर उन्होंने मनि
ु वामदे व द्वारा बताए

गए शिवलिंग का पज
ू न अर्चन किया। उनकी पज
ू ा के फलस्वरूप उस लिंग में से जटाधारी शिव प्रकट

हुए और राजा को ब्रह्महत्या के दोष से मक्


ु त कर उनकी जड़ीभत
ू बद्
ु धि निर्मल करने का वरदान

दिया। तभी से वह लिंग जटे श्वर कहलाया।

दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री जटे श्वर महादे व के दर्शन करने से पाप-दोष नष्ट होते हैं। भ्रष्ट बद्
ु धि वाले मनष्ु य

की स्थिति सध
ु र जाती है । ऐसा कहा जाता है कि श्राद्ध के समय जो जटे श्वर की इस कथा को पढ़ता

है उसका श्राद्ध पितरों को प्रसन्न करता है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री जटे श्वर

महादे व गया कोठा में रावण दहन के स्थान पर स्थित है ।

84 महादे व : श्री रामेश्वर महादे व (29)


एकानेत्रिशतं विद्धि दे वं रामेश्वरम प्रिये।
यस्य दर्शन मात्रेण मच्
ु यते ब्रह्म हत्यया।।

श्री रामेश्वर महादे व की कथा महाकाल वन की महत्ता दर्शाती है । परशरु ामजी ने कई तीर्थों के दर्शन एवं

तप किए लेकिन उनका ब्रह्म हत्या दोष निवारण महाकाल वन में स्थित श्री रामेश्वर महादे व के

पज
ू न से ही हुआ।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार एक बार त्रेता यग
ु में शास्त्रों को धारण करने वाले सर्वगण
ु संपन्न

परशरु ाम हुए। वे विष्णु के अवतार थे जिनका जन्म भग


ृ ु ऋषि के शाप के कारण हुआ था। उनकी माता

रे णक
ु ा थी और पिता जमदग्नि थे। परशरु ाम के चार बड़े भाई थे लेकिन सभी में परशरु ाम सबसे

अधिक योग्य एवं तेजस्वी थे। एक बार जमदग्नि ने रे णक


ु ा को हवन हे तु गंगा तट पर जल लाने के

लिए भेजा। गंगा तट पर गंधर्वराज चित्ररथ अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे जिन्हें दे ख रे णक
ु ा

आसक्त हो गई और कुछ दे र तक वहीँ रुक गई। इस कारण हुए विलंब के फलस्वरूप हवन काल

व्यतीत हो गया। इससे जमदग्नि बेहद क्रोधित हुए और उन्होंने रे णक


ु ा के इस कृत्य को आर्य विरोधी

आचरण माना। क्रुद्ध हो उन्होंने अपने सभी पत्र


ु ों को रे णक
ु ा का वध करने का आदे श दे डाला। लेकिन

मातत्ृ व मोहवश कोई पत्र


ु ऐसा ना कर सका। पत्र
ु ों को आज्ञा पालन न करते दे ख जमदग्नि ने उन्हें

विचार शक्ति नष्ट होने का श्राप दे दिया।

तभी पिता के तपोबल से प्रभावित परशरु ाम ने उनकी आज्ञानस


ु ार माता रे णक
ु ा का शिरोच्छे द कर

दिया। परशरु ाम की कर्तव्यपरायणता दे ख जमदग्नि बेहद प्रसन्न हुए और परशरु ाम से वरदान मांगने

को कहा। वरदान स्वरुप पशरु ाम ने अपनी माता रे णक


ु ा को पन
ु र्जीवित करने एवं भाइयों को पन
ु ः

विचारशील करने की प्रार्थना की। वरदान में भी स्वयं के लिए कुछ ना मांग माता एवं भाइयों के लिए

की गई प्रार्थना से जमदग्नि और अत्यधिक प्रसन्न हुए एवं उन्होंने परशरु ाम द्वारा मांगे गए वरदानों

को प्रदान करने के साथ कहा- कि इस संसार में तम्


ु हें कोई परास्त नहीं कर पाएगा, तम
ु अजेय रहोगे।

तम
ु अग्नि से उत्पन्न होने वाले इस दृढ़ परशु को ग्रहण करो। इसी तीक्ष्ण धार वाले परशु से तम

विख्यात होंगे। वरदान के फलस्वरूप माता रे णक
ु ा पन
ु र्जीवित हो गई पर परशरु ाम पर ब्रह्म ह्त्या का

दोष चढ़ गया।

कुछ समय के बाद है हयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन राजा हुआ। वह सहस्त्रबाहु था। उसने कामधेनु के लिए

जमदग्नि ऋषि को मार डाला। पिता के वध से क्रुद्ध हो परशरु ाम ने परशु से अर्जुन की हजार भज
ु ाएं

काट डाली। फिर परशु ने उसकी सेना का भी नाश कर डाला। इसी अपराध को लेकर उन्होंने क्षत्रियों

का 21 बार पथ्
ृ वी से नामोंनिशान मिटा दिया। फिर ब्रह्म हत्या पाप के निवारण हे तु परशरु ाम ने

अश्वमेध यज्ञ किया और कश्यप मनि


ु को पथ्
ृ वी का दान कर दिया। इसके साथ ही अश्व, रथ, सव
ु र्ण

आदि नाना प्रकार के दान किए। लेकिन फिर भी ब्रह्म हत्या का पाप दरू नहीं हुआ। फिर वे रै वत पर्वत

पर तपस्या करने चले गए जहां उन्होंने घोर तपस्या की। फिर भी दोष दरू नहीं हुआ तो वे हिमालय

पर्वत तथा बद्रिकाश्रम गए। उसके बाद नर्मदा, चन्द्रभागा, गया, कुरुक्षेत्र, नैमीवर, पष्ु कर, प्रयाग,

केदारे श्वर आदि तीर्थों के दर्शन कर स्नान किया। फिर भी उनकी ब्रह्म हत्या के दोष का निवारण नहीं

हुआ। तब वे अत्यंत दख
ु ी हुए एवं उनका दृष्टिकोण नकारात्मक होने लगा। वे सोचने लगे कि शास्त्रों

में जो तीर्थ, दान इत्यादि का महात्मय बताया गया है वह सब मिथ्या है । तभी वहां नारद मनि
ु पहुंचे।

परशरु ाम नारद मनि


ु से बोले कि मैंने पिता की आज्ञा पर माता का वध किया, क्षत्रियों का विनाश

किया जिसके फलस्वरूप मझ


ु े ब्रह्म हत्या का दोष लगा। इस दोष के निवारण के लिए मैंने अश्वमेध

यज्ञ किया, पर्वतों पर तप किया, कई तीर्थों में स्नान किया लेकिन फिर भी मेरी ब्रह्म हत्या दरू नहीं

हो रही है । तब नारदजी बोले कि आप कृपया महाकाल वन में जाइए। वहां जटे श्वर के पास स्थित

दिव्य लिंग का पज
ू न अर्चन करें । उससे आपकी ब्रह्महत्या दरू हो जाएगी। नारदमनि
ु के कथनानस
ु ार

परशरु ाम महाकाल वन आए और नारदमनि


ु द्वारा बताए गए दिव्य लिंग का पज
ू न अर्चन किया।

उनके श्रद्धापर्व
ू क किए गए पज
ू न अर्चन से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से

मक्
ु त कर दिया।

दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री रामेश्वर महादे व के दर्शन करने से दोषों का नाश होता है । ऐसा माना जाता है कि

यहां दर्शन करने पर विजयश्री प्राप्त होती है । श्री रामेश्वर महादे व का मंदिर सती दरवाजे के पास

रामेश्वर गली में स्थित है ।

84 महादे व : श्री च्यवनेश्वर महादे व(30)

त्रिशत्तमं विजानीही तवं दे वि च्यवनेश्वरम ्।

यस्य दर्शन मात्रेण स्वर्गभ्रंशो न जायते।।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार प्राचीन कल में महर्षि भग
ृ ु के पत्र
ु च्यवन थे जिन्होंने पथ्
ृ वी

पर कठोर तप किया। वितस्ता नाम की नदी के किनारे वर्षों वे तपस्या में बैठे रहे । तपस्या

में लीन रहने के कारण उनके परू े शरीर को धल


ू मिट्टी ने ढं क लिया और आस-पास बैल

लग गई। एक समय राजा शर्याति अपने परिवार के साथ वन विहार करते हुए वहां पहुंचे।

राजा की कन्या सक
ु न्या अपनी सखियों के साथ च्यवन ऋषि के तप स्थल पहुंची। वहां
धल
ू मिटटी से बनी बांबी के बीच में दो चमकते हुए नेत्र दिखाई दिए। कौतह
ु लवश सक
ु न्या

ने उन चमकते नेत्रों में कांटे चभ


ु ा दिए जिससे नेत्रों में से रुधिर निकलता हुआ दिखाई

दिया। इस कृत्य से ऋषि च्यवन अत्यधिक दख


ु ी हुए जिससे राजा शर्याति की सेना में

बीमारियां फैलना शरू


ु हो गई। सारी बातें पता चलने पर शर्याति को ज्ञात हुआ कि उनकी

बेटी सक
ु न्या ने महर्षि च्यवन की आंखों में शल
ू चभ
ु ा दिए हैं। तब राजा शर्याति महर्षि

च्यवन के पास गए और अपनी कन्या के दष्ु कृत्य के लिए क्षमा याचना की। उन्होंने

सक
ु न्या को महर्षि च्यवन को पत्नी के रूप में सौंप दिया। महर्षि भी सक
ु न्या को पत्नी के

रूप में पाकर प्रसन्न हुए जिसके फलस्वरूप शर्याति के राज्य में होने वाली बीमारियां रुक

गईं।

कुछ समय बाद च्यवन के आश्रम में दो अश्विनीकुमार आए। वहां वे सक


ु न्या को दे ख मंत्रमग्ु ध हो

गए। उन्होंने सक
ु न्या से पछ
ू ा कि तम
ु कौन हो? सक
ु न्या ने कहा कि वह राजा शर्याति की पत्र
ु ी एवं

महर्षि च्यवन की पत्नी है । तब अश्विनीकुमार ने सक


ु न्या से कहा कि तम
ु वद्
ृ ध पति की सेवा क्यों

कर रही हो? हम दोनों में से किसी एक को अपना पति स्वीकार करो। सक


ु न्या मना करके वहां से जाने

लगी। तभी अश्विनीकुमार ने कहा कि हम दे वताओं के वैद्य है । हम तम्


ु हारे पति को यौवन संपन्न

कर सकते हैं अगर तम


ु उन्हें यहां ले आओ। सक
ु न्या ने जाकर यह बात महर्षि च्यवन से कही। महर्षि

इस बात को मान अश्विनीकुमार के पास पहुंचे। तब अश्विनीकुमार ने कहा कि आप हमारे साथ इस

जल में स्नान के लिए उतरिये। फिर दोनों अश्विनीकुमार के साथ महर्षि ने भी जल में प्रवेश किया।

कुछ समय बाद जल से बाहर आने पर वो तीनों यव


ु ावस्था से संपन्न एक रूप हो गए। उत्तम रूप एवं

यव
ु ावस्था पाकर महर्षि भी अत्यंत प्रसन्न हुए एवं अश्विनीकुमार से बोले कि तम
ु ने मझ
ु वद्
ृ ध को

यव
ु ा बना दिया, मैं तम
ु दोनों को इंद्र के दरबार में अमत
ृ पान कराऊंगा। यह बात सन
ु कर वे दोनों

अश्विनीकुमार स्वर्ग चले गए और महर्षि ने उनके अमत


ृ पान के लिए यज्ञ आरम्भ किया। इंद्र

भगवान को यह निंदनीय लगा। उन्होंने महर्षि से कहा कि में दारुण वज्र से तम्
ु हारा नाश कर दं ग
ू ा। इंद्र

के ऐसे वचनों से भयभीत हो महर्षि महाकाल वन पहुंचे और वहां जाकर एक दिव्य लिंग का उन्होंने

पज
ू न अर्चन किया। उनके पज
ू न से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने महर्षि च्यवन को इंद्र के

वज्र प्रहार से अभय दे ने का आशीर्वाद दिया। तभी से यह लिंग च्यवनेशर कहलाया।


दर्शन लाभ

मान्यतानस
ु ार श्री च्यवनेश्वर महादे व के दर्शन से पापों का नाश होता है एवं भय आदि दरू होते हैं।

ऐसा माना जाता है कि इनके दर्शन करने से शिवलोक प्राप्त होता है । श्री च्यवनेश्वर महादे व का मंदिर

इंदिरा नगर मार्ग में ईदगाह के पास स्थित है

84 महादे व : श्री खंडश्े वर महादे व (31)

एकत्रिशत्तमम ् विद्धि दे वं खण्डेश्वम ् प्रिये।

सम्पर्णं
ू जायते यस्य दर्शारयांव्रतादिकम ्।।
श्री खंडश्े वर महादे व का मंदिर शिव माहात्म्य के मल्
ू यों को दर्शाता है । माना जाता है कि श्री

खंडश्े वर महादे व के दर्शन से विष्ण,ु ब्रह्मा, इंद्र, कुबेर, अग्नि आदि दे वताओं ने भी सिद्धि

प्राप्त की थी।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार त्रेतायग
ु में भद्राश्व नाम के राजा थे। उनकी कई रानियां थी। उन रानियों

में सबसे अद्भत


ु सौंदर्य रानी कान्तिमती का था। एक बार उनके यहां महामनि
ु अगस्त्य आए और

बोले कि वे वहां सात दिन निवास करें गे। राजा ने उनका आदर सत्कार किया और उनके वास को

सौभाग्य माना। कान्तिमती को दे ख सिद्धियों से यक्


ु त अगस्त्य ऋषि कुछ परु ानी रहस्यमयी बातों

को जान कर बेहद प्रसन्न हुए और खश


ु ी से नत्ृ य करने लगे। तब राजा ने आश्चर्यचकित हो महामनि

से पछ
ू ा कि ऋषिवर आपको कौन सी प्रसन्नता हो रही है जो आप नत्ृ य कर रहे हैं? इस पर मनि
ु बोले

कि तम
ु सब मर्ख
ू हो जो मेरा अभिप्राय नहीं समझ रहे । तब राजा भद्राश्व ने हाथ जोड़ कर मनि
ु से

निवेदन किया कि कृपया इस रहस्य को उजागर करें ।

तब मनि
ु ने कहा कि राजन, पर्व
ू जन्म में विदिशा नाम की जगह में वैश्य हरिदत्त के घर पर आपकी यह

सन्
ु दर पत्नी कान्तिमती दासी का कार्य करती थी और आप इसके पति थे एवं नौकर का कार्य करते

थे। वह वैश्य जिनके यहां तम


ु दोनों काम करते थे वह महादे व का परम भक्त था। वह नित्य ही

महाकाल सेवा करता था। एक बार वह वैश्य महाकाल वन आया और महादे व का पज


ू न अर्चन किया।

कुछ समय प्राप्त आप दोनों की मत्ृ यु हो गई लेकिन उस वैश्य की भक्ति के प्रभाव से आपको इस

जन्म में राजस्व प्राप्त हुआ है । मनि


ु की बात सन
ु कर राजा महाकाल वन पहुंचा और वहां पहुँच कर

उसने एक दिव्य लिंग खंडश्े वर का पज


ू न अर्चन किया। उसके पज
ू न अर्चन से प्रसन्न हो महादे व ने

निष्कण्टक राज्य भोग का आशीर्वाद दिया।


मान्यतानस
ु ार श्री खंडश्े वर महादे व के दर्शन करने से अद्भत
ु सिद्धि प्राप्त होती है एवं पर्व
ू जन्म के

पापों का नाश होता है । ऐसा माना जाता है कि श्रावण मास में यहां दर्शन करने का महत्व कई गुना बढ़

जाता है । श्री खंडश्े वर महादे व का मंदिर आगर रोड पर खिलचीपरु गांव में स्थित है ।

84 महादे व : श्री पत्त्नेश्वर महादे व (32)


त्रिषु लोकेषु विख्यातं द्वात्रिंशत्तममत्त
ु मम ्।
विद्धि सिद्धि प्रदं पंस
ु ां पत्तनेश्वरमीश्वरम ्।।

श्री पत्त्नेश्वर महादे व की महिमा का गान स्वयं भगवान शिव एवं महर्षि नारद द्वारा किया

गया है जो स्कन्द परु ाण में वर्णित है । एक समय भगवान शिव और माता पार्वती कैलाश

पर्वत की एक गुफा में विहार कर रहे थे। उस समय पार्वती जी ने कहा कि प्रभ,ु कैलाश

पर्वत जहां स्फटिक मणि लगी हुई है , जो अनेक प्रकार के पष्ु पों और केवे के वक्ष
ृ से

सश
ु ोभित है , जहां सिद्ध, गन्धर्व, चारण, किन्नर आदि उत्तम गायन करते हैं, जिसे पण्
ु य

लोक की उपमा प्राप्त है , ऐसा मनोरम कैलाश पर्वत आपने क्यों छोड़ दिया? और ऐसा

रमणीय कैलाश पर्वत छोड़ कर आपने हिंसक पशओ


ु ं से यक्
ु त महाकाल वन में क्यों निवास

किया?

प्रत्यत्त
ु र में भगवन शंकर बोले- मझ
ु े महाकाल वन और अवंतिकापरु ी स्वर्ग से भी अधिक सख
ु दायी

प्रतीत होती है । यहां पांचों गुण- श्मशान, शक्तिपीठ, तीर्थक्षेत्र, वन और उशर है । यहां गीत, वाद्य,

चातर्य
ु की इतनी स्पर्धा है कि स्वर्ग लोक वाले भी उस ज्ञान को सन
ु ने के लिए उत्सक
ु रहते हैं। ऐसा

स्थान तीनों लोकों में नहीं है ।

तभी वहां नारद मनि


ु आए। उन्हें दे ख कर महादे व बोले कि दे वर्षि, कौन-कौन से तीर्थों का भ्रमण करके

आ रहे हैं? कौन सा स्थान आपको सबसे ज्यादा रमणीय लगा? उत्तर दे ते हुए नारद मनि
ु कहने लगे,

मैंने कई तीर्थों एवं मंदिरों की यात्रा की, उनमें अत्यधिक मनोहर, अत्याधिक विचित्र महाकाल वन है ।

वहां कामना पर्ण


ू होने के साथ उत्तम सख
ु की प्राप्ति होती है । वहां सदै व पष्ु पों की बहार रहती है एवं

सख
ु प्रदान करने वाली पवन बहती है । वहां मधरु संगीत गंज
ु ायमान है । उरध लोक, अधो लोक, सप्त

लोक के लोग वहां पण्


ु य प्राप्ति के लिए निवास करते हैं। वहां स्वयं भगवान शिव पत्त्नेश्वर के रूप में

विराजमान है ।
दर्शन लाभ:

मान्यतानस
ु ार श्री पत्त्नेश्वर महादे व के दर्शन करने से मत्ृ य,ु बढ़
ु ापा, रोग आदि भय एवं व्याधियां

समाप्त हो जाती है । श्रवण मास में यहां दर्शन का विशेष महत्व है । श्री पत्त्नेश्वर महादे व खिलचीपरु में

पीलिया खाल के पल
ू पर स्थित है ।

84 महादे व : श्री आनंदेश्वर महादे व (33)


आनंदनयतः प्राप्तसिद्धिर्देवी सद
ु ल
ु र्भा।
अतोनामसवि
ु ख्यात मानन्दे श्वरमीक्ष्यताम ्।।

पौराणिक कथाओं के अनस


ु ार प्राचीन काल में अनमित्र नाम के राजा थे। वे धर्मात्मा, पराक्रमी एवं सर्य

के समान तेजस्वी थे। उनकी रानी का नाम गिरिभद्रा था जो कि अति सन्


ु दर एवं राजा की प्रिय थी।

राजा को आनंद नाम का एक पत्र


ु हुआ। पैदा होते ही वह अपनी माता की गोद में हं सने लगा। माता ने

आश्चर्यचकित हो उससे हं सने का कारण पछ


ू ा। उसने कहा उसे पर्व
ू जन्म का स्मरण है , आगे उसने

कहा कि यह सारी सष्टि


ृ स्वार्थ की है । आगे बालक कहता है कि एक बिल्ली रूपी राक्षसी अपने स्वार्थ

के लिए मझ
ु े उठा कर ले जाना चाहती है । और आप भी मेरा पालन-पोषण कर मझ
ु से कुछ अपेक्षाएं

रखती हैं। आप स्वयं भी स्वार्थी हैं। बालक के ऐसे वचन सन


ु माता गिरिभद्रा नाराज हो सति
ू का गह
ृ से

बाहर चली गई। तब वह राक्षसी ने उस बालक को उठाकर विक्रांत नामक राजा की रानी है मिनी के

शयन-गह
ृ में रख दिया। राजा विक्रांत उस बालक को अपना बालक जान कर अत्यंत प्रसन्न हुए और

उन्होंने उसका नाम आनंद रख दिया। इसके साथ ही राक्षसी ने राजा विक्रांत के असली पत्र
ु को ले

जाकर बोध नामक ब्राह्मण के घर पर रख दिया। ब्राह्मण ने उसका नाम चैत्र रथ रखा।

इधर विक्रांत ने पत्र


ु आनंद का यज्ञोपवीत संस्कार किया। तब गुरु ने उससे माता को नमस्कार करने

को कहा। प्रत्यत्तर में आनंद ने कहा कि, मैं कौन सी माता को नमस्कार करूं? जन्म दे ने वाली या

पालन करने वाली? गरु


ु ने कहा राजा विक्रांत की पत्नी है मिनी तम्
ु हें जन्म दे ने वाली माता है , उसे

नमस्कार करो। तब आनंद ने कहा, मझ


ु े जन्म दे ने वाली मां गिरिभद्रा है । माता है मिनी तो चैत्र की मां

है जो कि बोध ब्राह्मण के घर पर है । आश्चर्यचकित हो सभी ने उससे वत्त


ृ ांत सन
ु ाने को कहा। तब

आनंद ने बताया कि दष्ु ट राक्षसी ने पत्र


ु ों को बदल दिया था। अतः मेरी दो माताएं हो गई है । इस

दनि
ु या में मोह ही सारी समस्याओं की जड़ है अतः मैं अब सारी मोह माया त्याग कर तपस्या करूंगा।

अतः आप अपने पत्र


ु चैत्र को ले आइए। आनंद की बात सन
ु राजा ब्राह्मण बोध से अपने पत्र
ु चैत्र को ले

आया और उसे अपने उत्तराधिकार का स्वामी बना दिया। राजा ने आनंद को ससम्मान विदा किया

और आनंद तपस्या करने महाकाल वन आया। उसने इंद्रेश्वर के पश्चिम में स्थित लिंग की आराधना

की। उसकी तपस्या के फलस्वरूप भगवान शिवजी प्रसन्न हुए और उसे आशीर्वाद दिया कि तम

यशस्वी छटे मनु बनोगे। आनंद के द्वारा पजि


ू त होने से वह लिंग आनंदेश्वर कहलाया।
दर्शन लाभ

मान्यतानस
ु ार श्री आनंदेश्वर महादे व के दर्शन करने से पत्र
ु लाभ होता है । श्री आनंदेश्वर महादे व का

मंदिर चक्रतीर्थ में विद्यत


ु शवदाहगह
ृ के पास स्थित है

84 महादे व : श्री कंथडेश्वर महादे व(34)


वतस्ता नदी के तट पर पांडव नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। जातिवालों व उसकी पत्नी ने

उसका त्याग कर दिया था। ब्राह्मण के पास प्रेमधारिणी कथा रहती थी। पांडव ने एक गुफा में पत्र

कामना से शिव की तपस्या की। शिव ने प्रसन्न होकर उसे पत्र


ु प्रदान किया। ब्राह्मण ने ऋषियों की

उपस्थिति में पत्र


ु का यज्ञोपवित संस्कार कराया ओर ऋषियों को उसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दे ने के
लिए कहा। ऋषि वहां से बिना आशीर्वाद दिए चले गए। इस पर ब्राह्मण विलाप करने लगा ओर कहने

लगा कि शिव ने उसे पत्र


ु प्रदान किया है वह अल्पायु कैसे हो सकता है ।

पिता को विलाप करते दे ख बालक हर्षवर्धन ने संकल्प किया कि वह महे श्वर भगवान रूद्र का पज
ू न

करे गा ओर उनसे चिरायु होने का वरदान लेकर यमराज पर विजय प्राप्त करे गा। हर्षवर्धन ने महाकाल

वन में भगवान रूद्र का पज


ू न कर उन्हें प्रसन्न किया ओर चिरायु होने व अंतकाल में शिवगण होने का

वरदान प्राप्त किया। कालांतर में कंथडेश्वर के नाम से शिवलिंग विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो

मनष्ु य इस शिवलिंग का दर्शन कर पज


ू न करता है वह चिरायु होता है ।

84 महादे व : श्री इंद्रेश्वर महादे व(35)


काफी समय पहले त्वष्टा नाम के प्रजापति हुआ करते थे, उनका एक पत्र
ु था कुषध्वज। वह दान-धर्म

करता था। एक बार इंद्र ने उसे मार दिया। इस पर प्रजापति ने क्रोध में अपी जटा से एक बाल तोड़ा

और उसे अग्नि में डाल दिया। अग्नि से वत्र


ृ ासरु नामक दै त्य उत्पन्न हुआ। प्रजापति की आज्ञा से

वत्र
ृ ासरु ने दवताओं से यद्
ु ध किया ओर इंद्र को बंधक बना लिया ओर स्वर्ग में राज करने लगा। कुछ

समय बाद दे वगुरू बह


ृ स्पति वहं पहुंचे और इंद्र को बंधनों से मक्
ु त कराया। इंद्र ने पन
ु ः स्वर्ग प्राप्ति का

मार्ग बह
ृ स्पति से पछ
ू ा। बह
ृ स्पति ने कहा कि इंद्र आप जल्द महाकाल वन में जाएं ओर खंडश्े वर

महादे व के दक्षिण में विराजित शिवलिंग का पज


ू न कीजिए।

इंद्र ने शिवलिंग का पज
ू न किया। भगवान शिव ने प्रकट होकर इंद्र को वरदान दिया कि वह शिव के

प्रभाव से वत्र
ृ ासरु से यद्
ु ध करें ओर विजय प्राप्त करें । इंद्र ने वत्र
ृ ासरु का नाश किया ओर पन
ु ः स्वर्ग पर

अपना अधिकार प्राप्त किया। इंद्र के पज


ू न किए जाने के कारण शिवलिंग इंद्रेश्वर के नाम से विख्यात

हुआ। जो भी मनष्ु य इस शिवलिंग का पज


ू न करता है , वह सभी पापों से मक्
ु त होता है । इंद्र के समान

स्वर्ग को प्राप्त करता है ।

84 महादे व : श्री मार्क ण्डेश्वर महादे व(36)


कई वर्षो पर्व
ू मार्क ण्ड नाम के एक ब्राह्मण थे। वे वेद अध्ययन करते थे। उन्हे चिंता थी कि उनके यहां

पत्र
ु नहीं है । उन्होंने पत्र
ु की कामना से हिमालय पर जाकर कठोर तप प्रारं भ कर दिया। अनके तप के
कारण सष्टि
ृ में अकाल पड़ने ओर सर्य
ू ओर चंद्र के अस्त होने की स्थिति निर्मित होने लगी। इस पर

पार्वती ने शिव को कहा कि यह आपका भक्त है जो तप कर रहा है । आप इसकी कामना पर्ण


ू करें ।

शिव ने कहा पार्वती आपके कहने पर मैं इसकी तपस्या पर्ण


ू करूंगा। आप ब्राह्मण से कहें कि वह

महाकाल वन में पत्तनेश्वर के पर्व


ू में स्थित पत्र
ु दे ने वाले शिवलिंग का पज
ू न करें । आकाशवाणी के बाद

ब्राह्मण महाकाल वन में गया और शिवलिंग का पज


ू न किया। शिव पार्वती ने शिवलिंग से प्रकट

होकर ब्राह्मण को पत्र


ु प्राप्ति का वरदान दिया।

शिव के वरदान से वहां महामनि


ु मार्क ण्डेय प्रकट हुए। वे तरु ं त ही शिव की आराधना करने बैठ गए।

मार्क ण्डेय को तप करते दे ख शिव ने कहा कि अब शिवलिंग तम्


ु हारे नाम से विख्यात होगा। मार्क ण्डेय

के प्रकट होने ओर पज
ू न से शिवलिंग मार्क ण्डेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। जो भी मनष्ु य इस

शिवलिंग का पर्ण
ू श्रद्धा से पज
ू न करता है वह सदा सख
ु ी ओर परमगति को प्राप्त होता है ।

84 महादे व : श्री शिवेश्वर महादे व(37)

काफी समय पहले महाकाल वन में रिपंज


ु य नामक राजा राज्य करता था। वह प्रजा पालक

था। हमेशा भगवान विष्णु के ध्यान में रहता था। उसके राज्य में प्रजा को कोई दख
ु ः नहीं
था। राजा का प्रताप इतना अधिक था कि उसके तेज से पथ्
ृ वी कायम थी ओर कोई शिव का

पज
ू न नहीं करता था।

> राजा रिपंज


ु य के काल में ही शिव ने महाकाल वन में शिवलिंग की स्थापना की थी परं तु

उज्जैन में शिवलिंग स्थापित नहीं कर पाए थे। यह सोचकर उन्होंने अपने गणेश शिव गण

को आज्ञा दी कि वह उज्जैन में शिवलिंग की स्थापना करें ।> गण ब्राह्मण का रूप धारण

कर उज्जैन में आकर रहने लगा ओर प्रजा की विभिन्न व्यधियों को दरू करने लगा।

जिनको पत्र
ु नहीं थे उन्हें औषधियों से पत्र
ु प्रदान करने लगा। उसकी ख्याति फैलने लगी

पंरतु राजा उसके पास नहीं पहुंचा। एक दिन राजा रिपंज


ु य की प्रिय रानी बहुला दे वी के पत्र

नहीं होने पर उसकी एक सखी ब्राह्मण के पास गई ओर उससे रानी को पत्र


ु प्रदान करने की

प्रार्थना की।

ब्राह्मण ने कहा कि वह राजा की आज्ञा के बिना महल में नहीं आएगा। इस पर रानी ने

अस्वस्थ होने का बहाना किया और राजा के साथ ब्राह्मण के पास पहं च गई। राजा ओर

रानी ने जैसे ही ब्राह्मण के दर्शन किए ब्राह्मण शिवलिंग में परिवर्तित हो गया। राजा-रानी

ने वहां शिवलिंग का पज
ू न किया।

तब महादे व ने कहां कि राजन तम्


ु हारे यहां पत्र
ु होगा जो धर्मात्मा, यशस्वी होकर सर्वभौम

राजा होगा। गण के शिवलिंग होने के कारण शिवलिंग का नाम शिवेश्वर विख्यात हुआ।

मान्यता है कि जो मनष्ु य शिवलिंग की पज


ू न करे गा वह सभी पापों से मक्
ु त होकर

अंतकाल में शिव के गणों में शामिल होगा।


84 महादे व : श्री कुसम
ु ेश्वर महादे व(38)

एक बार शिव पार्वती दोनों महाकाल वन में भ्रमण कर रहे थे। वहां गणेश बालकों के समह
ू में खेल रहा

था। शिव ने पार्वती से कहा कि यह जो बालक फूलों से खेल रहा है और अन्य बालक उस पर पष्ु प वर्षा

कर रहे हैं वह उन्हें बहुत प्रिय है । शिव ने वह बालक पार्वती को दे दिया। पार्वती ने पत्र
ु को दे खने की

इच्छा से अपनी सखी विजया से कहा कि वह जाए और बालक गणेश को लेकर आए।

> विजया गणेश बालकों के समहू में गई ओर उसे मनाकर कैलाश ले आई। यहां गणेश को उन्होंने

विभिन्न आभष
ू णों ओर चंदन व पष्ु पों से सज्जित किया ओर फिर शिव गणों के समह
ू में खेलने के

लिए छोड़ दिया। बालक वहां भी पष्ु पों से खेलता रहा। पार्वती ने शिवजी से कहा कि यह मेरा पत्र
ु है इसे

आप वरदान दे कि यह सभी गणों में सबसे पहले पज्


ू य होगा ओर कुसम
ु ों में मंडित होने के कारण

इसका नाम कुसम


ु ेश्वर होगा। शिवजी ने कहा कि कुसम
ु ेश्वर का जो भी मनष्ु य दर्शन कर पज
ू न करे गा

उसे कभी कोई पाप नहीं लगेगा। कुसम


ु ेश्वर की जो भी पष्ु पों से पज
ू न करे गा वह अंतकाल में शिवलोक

को प्राप्त होगा। शिव के वरदान से कुसम


ु ेश्वर शिवलिंग के रूप में महाकाल वन में स्थापित हुआ।

84 महादे व : श्री अक्रूरे श्वर महादे व(39)


एक बार सभी दे वी दे वता, इंद्र, किन्नर, मनि
ु सभी पार्वती की स्तति
ु की कर रहे थे तब शिव

के एक गण भंगि
ृ रिट ने पार्वती की स्तति
ु करने से मना कर दिया। पार्वती के कई बार

समझाने पर कि वह उनका पत्र


ु है ओर केवल शिव स्तति
ु से उसका कल्याण नहीं हो सकता

है , परं तु वह पार्वती की बात नहीं माना ओर योग विद्या के बल पर उसने संपर्ण


ू मांस
पार्वती को अर्पित कर दिया ओर शिवजी के पास पहुंच गया। माता पार्वती ने उसे श्राप

दिया कि क्रूर बद्


ु धि के कारण भंगि
ृ रिट ने उसका अपमान किया है इस कारण वह मनष्ु य

लोक को प्राप्त होगा। श्राप के प्रभाव से भंगि


ृ रिट तत्काल पथ्
ृ वी लोक पर गिर पड़ा। वहां

उसने श्राप मक्ति


ु के लिए तपस्या प्रारं भ कर दी। तब शिव ने भंगि
ृ रिट से कहा कि पार्वती

ही तम्
ु हें श्राप मक्
ु त करे गी तम
ु उनकी आराधना करो।

आपने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उससे कहा कि महाकाल वन में शिवलिंग का पज
ू न करें , उसके

दर्शन प्राप्त से तम्


ु हारी बद्
ु धि सब
ु द्
ु धि में बदल जाएगी। भंगि
ृ रिट ने महाकाल वन में जाकर शिव की

उपासना की और शिवलिंग से पार्वती आधे शिव ओर आधे पार्वती के शरीर के साथ प्रकट हुई ओर उसे

श्राप से मक्
ु त किया। भंगि
ृ रिट ने वरदान मांगा की जिस शिवलिंग के दर्शन से उसकी सब
ु द्
ु धि हो गई।

वह शिवलिंग अक्रूरे श्वर के नाम से विख्यात होगा। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य शिवलिंग के दर्शन

कर पज
ू न करे गा वह स्वर्ग को प्राप्त होगा। उसके सभी पाप नष्ट हो जाएंगे

84 महादे व : श्री कुण्डेश्वर महादे व(40)


एक बार माता पार्वती ने शिवजी से कहा कि उनका पत्र


ु वीरक कहां है तो शिवजी ने कहा

कि तम्
ु हारा पत्र
ु महाकाल वन में तपस्या कर रहा है । इस पर पार्वती ने शिव से कहा कि वह
उसे दे खना चाहती है , इसलिए वह भी उनके साथ चले। दोनों नंदी पर सवार होकर

महाकाल वन के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक पर्वत पर पार्वती के भयभीत होने से कुछ

दे र के लिए रूक गए। शिवजी ने पार्वती से कहा कि तम


ु कुछ दे र यहां रूको मै पर्वत दे खकर

आता हूं। कुण्ड नामक गण तम्


ु हारी सेवा में रहे गा ओर तम्
ु हारी आज्ञा मानेगा। शिवजी को

पर्वत घम
ु ते हुए10 वर्ष बीत गए। शिव के न लौटने पर पार्वती विलाप करने लगी। उन्होंने

कुण्ड गण को आज्ञा दी कि वह उन्हें शिव के दर्शन कराए।

जब कुण्ड दर्शन नहीं करा सका तो पार्वती ने उसे मनष्ु य लोक में जाने का श्राप दिया। इसी बीच शिव

वहां उपस्थित हो गए। पार्वती ने कुण्ड से कहा कि तम


ु महाकाल वन में जाओ ओर वहां भैरव का रूप

लेकर खड़े रहो। वहां उत्तर दिशा में सभी मनोकामनाओं को पर्ण
ू करने वाला शिवलिंग है । उसका पज
ू न

करो। शिवलिंग का नाम तम्


ु हारे नाम पर कुण्डेश्वर विख्यात होगा। कुण्ड ने पार्वती की आज्ञा से

महाकाल वन में शिवलिंग का दर्शन कर पज


ू न किया ओर अक्षय पद को प्राप्त किया। मान्यता है कि

शिवलिंग के दर्शन मात्र से सभी तीर्थो की यात्रा का फल प्राप्त होता है ।

84 महादे व : श्री लम्


ु पेश्वर महादे व(41)
म्लेच्छ गणों का राजा था लम्
ु पाधिप। उसकी रानी थी विशाला। एक बार राजा ब्राह्मणों के

कहने पर यद्
ु ध करने के लिए सामग नामक ब्राह्मण के आश्रम गया। वहां राजा ने आश्रम

में कामधेनु गाय की मांग की ब्राह्मण ने मना किया तो राजा ने कामधेनु गाय के साथ परू े

आश्रम का नाश कर दिया। राजा ने अपने बाणों से सागम मनि


ु का भी वध कर दिया ओर

वहां से चला गया। कुछ दे र बाद ही वहां सागम मनि


ु का पत्र
ु समिधा आश्रम पहुंचा और

अपने पिता को मत
ृ दे खकर वह रूदन करने लगा ओर फिर उसने अपने पिता की हत्या

करने वाले राजा को श्राप दिया कि वह कुष्ठ रोग से पीडित होगा। श्राप के प्रभाव से राजा

कुष्ठ रोग से पीडित होकर मत्ृ यु को प्राप्त करने के लिए निकल गया।

राजा के चिता पर होने पर वहां नारद मनि


ु प्रकट हुए और उसे समिधा के श्राप से अवगत कराया।

नारद मनि
ु के कहने पर राजा महाकाल वन में केशवार्क महादे व के पास स्थित शिवलिंग का पज
ू न

करने के लिए निकल गया। राजा ने अपनी रानी के साथ शिप्रा स्नान किया ओर शिवलिंग के दर्शन

किए। दर्शन मात्र से राजा का कुष्ठ रोग दरू हो गया। राजा ने आपनी रानी के साथ वहां उपस्थित

मनि
ु यों का सम्मान किया। राजा लम्
ु पाधिप के पज
ू न के कारण शिवलिंग लम्
ु पेश्वर महादे व के नाम से
विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य पर्ण
ू भक्ति से पज
ू न करे गा उसके सात जन्मों के पाप

नष्ट होंगे ओर अंतकाल में परम पद को प्राप्त करे गा।

84 महादे व : श्री गंगेश्वर महादे व(42)


आकाश मार्ग से गंगा जब पथ्
ृ वी पर प्रकट हुई तो भगवान शंकर ने उसे अपनी जटा में

धारण किया। शिवजी ने जटा में धारण करने के बाद उसे धरती पर नहीं आने दिया, इससे

गंगा क्रोधित हो गई ओर शिवजी के शरीर को शीतल कर दिया। शिवजी ने भी क्रोध में

गंगा को जटा में बांध लिया। कई कल्प वर्षो तक गंगा ने जटा में ही तपस्या की। भागीरथ

की उपासना से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ और समद्र


ु की पत्नी हुई। एक बार सभी

दे वी-दे वता ब्रह्म लोक में ब्रह्मा की स्तति


ु करने के लिए वहां पहुंचे वहां गंगा और समद्र
ु भी

गए। वायु के वेग से गंगा का आंचल उड़ गया, इसे दे ख सभी दे वताओं ने अपने मख
ु नीचे

कर लिए परं तु महाभिष नामक राजऋषि गंगा को दे खते रहे । यह दे खते हुए ब्रह्मा जी ने

उसे पथ्
ृ वी लोक पर भेज दिया।

यह दे खकर समद्र
ु ने भी गंगा को मत्ृ यु लोक में रहने का श्राप दिया। श्राप के कारण विलाप करती गंगा

ने ब्रह्मा से विनय किया। ब्रह्मा ने कहा कि गंगा तम


ु महाकाल वन में शिप्रा के दक्षिण में स्थित

शिवलिंग का दर्शन व पज
ू न करो। गंगा महाकाल वन आई ओर गंगेश्वर महादे व का अपनी सखी शिप्रा

के साथ दर्शन-पज
ू न किया। गंगेश्वर के दर्शन से गंगा श्राप मक्
ु त हुई उसी समय समद्र
ु भी वहां

उपस्थित हुए ओर गंगा का सम्मान किया। मान्यता है कि गंगेश्वर के दर्शन से सभी तीर्थो की यात्रा

का फल प्राप्त होता है ओर मनष्ु य अंतकाल में परमगति को प्राप्त करता है ।

84 महादे व : श्री अंगारे श्वर महादे व(43)


पहले कल्प में लाल शरीर की शोभावाला टे ढ़ा शरीर वाला क्रोध से यक्
ु त एक बालक शिव जी के शरीर

से उत्पन्न हुआ। इसे शिवजी ने धरती पर रख दिया। उसका नाम भमि


ू पत्र
ु हुआ। जन्म से ही उसका

शरीर भयावह रहा। जब वह धरती पर चलने लगा तो धरती कांपने लगी, समद्र
ु ों में तफ
ू ान आने लगा।

यह सब दे खकर दे वताओं-मनष्ु यों में चिंता होने लगी ओर वे दे वगुरु बह


ृ स्पति के पास गए। उन्होंने

कहा कि बालक भगवान शंकर के शरीर से उत्पन्न हुआ है ओर उत्पन्न होते ही उत्पात मचा दिया है ।

यह सब सन
ु कर दे वगरु
ु दे वताओं को लेकर कैलाश पर्वत गए ओर भगवान को त्रासदी के बारे में

बताया। यह सन
ु भगवान ने बालक को अपने पास बल
ु ाया। बालक ने आकर शिवजी से पछ
ू ा हे प्रभु

मेरे लिए क्या आज्ञा है । मैं क्या करूं। तब भगवान ने कहा बालक तम्
ु हारा नाम अंगारक रखा है । तम्
ु हें

पथ्
ृ वी पर लोगों के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए बजाए विनाश के। यह वचन सन
ु कर बालक

उदास हो गया। तब भगवान ने अपनी गोद में बैठाकर समझाया। हे पत्र


ु , मैं तम्
ु हें उज्जैन नगरी में

उत्तम स्थान दे ता हूं। महाकाल वन में खगर्ता व शिप्रा का संगम है ।


शिव ने कहा मैंने जब गंगा को मस्तक पर धारण किया था। उस समय वह गस्
ु से से चंद्र मंडल से नीचे

गिरी थी। आकाश से नीचे आने पर उसका नाम खगर्ता हुआ। इसलिए मैंने वहां अवतार लिया है । मैं

तम्
ु हें तीसरा स्थान दे ता हूं। तम
ु वहां जाकर रहो इससे तीनों लोकों में तम्
ु हें जाना जाएगा। तम्
ु हारी

तप्ति
ृ भी होगी। लोग तम्
ु हारी प्रसन्नता के लिए चतर्थी
ु का व्रत करें गे, पज
ू न करें गे ओर दक्षिणा दें गे।

इससे तम्
ु हें भोजन की तप्ति
ृ होगी। तब बालक यहां पर आया। इसके बाद से ही इनके दर्शन से भक्तों

को सर्वसंपदा प्राप्त होती है ।

84 महादे व : श्री उत्तरे श्वर महादे व(44)


पहले इंद्र राजा के मेघों को वष्टि
ृ करने के आदे श से नियमानस
ु ार वर्षा होती थी। कुछ

समय तक मेघों ने अपनी इच्छानस


ु ार वर्षा करना शरू
ु कर दिया जिससे पथ्
ृ वी जलमग्न

होने लगी। यज्ञ और हवन तक बंद हो गए जिसको दे खकर ऋषि मनि


ु भयभीत होने लगे।
इसकी शिकायत ऋषि मनि
ु यों एवं दे वगुरु ने ब्रह्मा से की। ऋषियों की परे शानी को सन
ु कर

दे वगुरु ने इंद्र को बल
ु ाया। इंद्र ने दे वगुरु से पछ
ू ा, महाप्रभु मेरे लिए क्या आदे श है । दे वगुरु

ने पथ्
ृ वी के जलमग्न होने की घटना दे वेन्द्र को बताई।

> इस पर दे वेन्द्र ने मेघों के राजा को बल


ु ाया-समझाया। कुछ दिनों तक मेघ नियमानस
ु ार

बरसने लगे फिर बीच में अचानक प्रलयनम


ु ा वर्षा करने लगे। जिससे पथ्
ृ वी पर हाहाकार

मच गया। यह दे खकर दे वेन्द्र भगवान शिव की शरण में गए। मेघो के इस व्यवहार की

बात बताई। भगवान शिव ने उत्तर के मेघों को बल


ु ाया जिसके पास एक करोड़ मेघ थे। मेघ

ने शिव से आज्ञा मांगी। भगवान ने कहा तम


ु महाकाल वन में भगवान गंगेश्वर की

आराधना करो जिससे तम्


ु हारा क्रोध कम होगा ओर तम्
ु हें अधिक वर्षा करने की

आवश्यकता भी नहीं होगी। आराधना करने से शिव प्रसन्न होकर प्रकट हुए तथा मेघ को

वरदान दिया कि पथ्


ृ वी पर उत्तरे श्वर नाम से प्रसिद्धि होगी और महाकाल वन में स्थित

लिंग उत्तरे श्वर के नाम से विख्यात होगा।

84 महादे व : श्री त्रिलोचनेश्वर महादे व(45)


बिरजनामा मंदिर पीठ पर स्थित त्रिलोचनेश्वर महादे व में सालों पर्व
ू कबत
ू र का

जोडा रहता था। दोनों भगवान का दर्शन करते ओर अर्पित जल पीते भक्तों द्वारा

की जाने वाली भगवान जयकार, भजन-कीर्तन को सन


ु ते रहते थे। एक दिन एक
श्येन वहां आया ओर सोचने लगा कि कैसे वह इनका भक्षण करें । कबत
ू री ने श्येन

को दे ख लिया ओर वह चिंता करते हुए कबत


ू र से कहने लगी कि वह श्येन हमें

भक्षण करने आया है । श्येन एक दिन कबत


ू र को आपने साथ आकाश मार्ग ले

गया। कबत
ू री ने श्येन के पंजों में काटा जिससे कबत
ू र नीचे गिर गया ओर

जंबद्
ू धीप में गिरकर मर गया। अगले जन्म में वह कबत
ू र मंदारा नाम के गंर्धव

के यहां परिमल के नाम से जन्मा।

दस
ू री ओर कबत
ू री ने नागराज के यहां रत्नावली के रूप में जन्म लिया। परिमल किशोरावस्था से ही

त्रिलोचनेश्वर महादे व के दर्शन ओर पज


ू न के लिए अंवतिका आने लगा। इधर रत्नावली ने भी भगवान

महादे व के दर्शन व पज
ू न की कामना से यहां आना शरू
ु कर दिया। एक दिन रत्नावली सखियों के

साथ मंदिर में ही सो गई। तब भगवान शिव ने दर्शन दे कर पर्व


ू जन्म की कथा सन
ु ाई ओर अवगत

कराया कि परिमल पर्व


ू जन्म में तम
ु तीनों का पति था। तीनों कन्याओं ने बात माता-पिता को बताई।

एक बार परिमल और नागराज परू े परिवार के साथ त्रिलोचनेश्वर महादे व का पज


ू न करने के लिए

आए। यहां दोनों परिवारों में शिप्रा द्वारा कन्याओं को दिए वरदान पर चर्चा कर विवाह परिमल के

साथ कर दिया। इसके बाद परिमल वहीं रहकर पज


ू न करने लगा। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य

त्रिलोचनेश्वर महादे व के दर्शन कर पज


ू न करे गा वह समस्त सख
ु ों का भोग कर अंत काल में परमपद

को प्राप्त करे गा।

84 महादे व : श्री वीरे श्वर महादे व(46)


प्राचीन समय में अमित्रजित नाम का एक राजा था। वह प्रजा पालक था। उसके राज्य में

कोई दख
ु ी नहीं था। परू े राज्य मे एकदशी का व्रत किया जाता था, जो व्रत नहीं करता था

उसे दं ड दिया जाता था। एक बार नारद मनि


ु राजा से मिलने आए। उन्होंने राजा से कहा

कि माता विद्याधर की कन्या मलयगंधिनी को कंकाल केतु नामक दानव पाताल में

चंपावती नगर में ले गया है । नारद ने कहा कि राजन तम


ु जाओ ओर कन्या को बचाओ।

कंकाल केतु का नाश उसके त्रिशल


ु से होगा। तम
ु उससे यद्
ु ध करो ओर वध कर कन्या के

साथ परू े विश्व का कल्याण करो। नारद की आज्ञा मानकर राजा चंपावती गया। राजा को

कन्या ने दे खा ओर उसे शस्त्रागार में छिपने के लिए कहा। इस बीच वहां दै त्य पहुंच गया,

कन्या से कहा कि कल तम्


ु हारा विवाह होगा। यह कहकर वह सो गया।
> राजा ने दै त्य को जगाकर उससे यद्
ु ध किया ओर वध कर दिया। राजा और रानी दोनों अंवतिका

नगरी में आकर शिव का पज


ू न करने लगे। रानी ने अभीष्ट तत
ृ ीया का व्रत कर पार्वती को प्रसन्न

किया ओर शिव के अंश वाले पत्र


ु का वरदान प्राप्त किया। रानी ने पत्र
ु को जन्म दिया तो मंत्री ने कहा

कि रानी यदि तम
ु राजा को चाहती हो तो इस पत्र
ु का त्याग कर दो। पत्र
ु अभक्
ु त मल
ू में पैदा हुआ है

जो सर्वत्र नाश करे गा। रानी ने मंत्री के कहने पर पत्र


ु का त्याग कर दिया ओर पत्र
ु को विकटा दे वी के

मंदिर में रख आई। उसी समय वहां से योगिनियां आकाश मार्ग से गमन कर रही थी वे उसे अपने

साथ लेकर आ गई। 16 वर्ष की आयु में राजकुमार अंवतिका नगरी में आया और शिव की तपस्या

करने लगा। शिव प्रसन्न होकर शिवलिंग से ज्योतिरूप में प्रकट हुए ओर राजकुमार ने शिव से

भवरूपी संसार से दरू करने का वरदान मांगा।> वीर बालक के पज


ू न के कारण शिवलिंग वीरे श्वर के

नाम से विख्यात हुआ। इसके पश्चात राजकुमार ने संपर्ण


ू पथ्
ृ वी पर साम्राज्य किया ओर अंतकाल में

परमगति को प्राप्त हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य शिवलिंग के दर्शन कर पज


ू न करे गा उसके

होम,दान,जप सब अक्षय होगे ओर अंत काल में परम पद को प्राप्त करे गा।

84 महादे व : श्री नप
ु रू े श्वर महादे व(47)
एक बार भगवान शंकर का गण नप
ु रू इंद्र की सभा में पहुंचा। वहां अप्सराएं नत्ृ य

कर रही थी। नप
ु रू ने काम के वश में आकर उर्वशी को फूल मारा, जिससे उर्वशी
क्रोधित हो गई। कुबेर ने क्रोधित होकर नप
ु रू को मत्ृ यल
ु ोक में गिरने का श्राप

दिया। वह पथ्
ृ वी पर गिर पड़ा। तभी मनसा दे वी ने प्रकट होकर नप
ु रू से कहा कि

तम
ु महाकाल वन में जाओ और दक्षिण भाग में स्थित शिवलिंग का पज
ू न करो।

नप
ु रू तरु ं त महाकाल वन में गया और शिवलिंग का पज
ू न किया।

शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि नप


ु रू तम्
ु हारा कल्याण होगा। नप
ु रू के पज
ू न करने से यह

शिवलिंग श्री नप
ु रू े श्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य

शिवलिंग के दर्शन कर पज
ू न करता है वह सभी रोग व दख
ु ों से मक्
ु त होता है ।

84 महादे व : श्री अभयेश्वर महादे व(48)


एक बार इस पर ब्रह्मा को चिंता हुई कि कल्प समाप्त होने पर चंद्र ओर सर्य
ू भी नष्ट

होंगे। उन्होंने सोचा अब सष्टि


ृ की स्थापना कैसे होगी। इस दख
ु के कारण आंसू गिरे
जिससे हारव ओर कालकेलि नामक दो दै त्य प्रकट हुए। सष्टि
ृ पर कुछ न होने के कारण

दोनों दै त्य ब्रह्मा को मारने के लिए दौड़े। ब्रह्मा वहां से भागे। उन्होंने समद्र
ु के बीच प्रकाश

दे खा ओर परु
ु ष से उसका परिचय पछ
ू ा तो उन्होंने बताया कि सष्टि
ृ पालक विष्णु हूं। ब्रह्मा

ने उनसे दोनों दै त्यों से रक्षा करने के लिए कहा। दै त्य विष्णु को भी मारने के लिए दौड़े।

ब्रह्मा-विष्णु दोनों समद्र


ु में छिप गए। यहां ब्रह्मा ने महाकाल वन में नप
ू रु े श्वर के दक्षिण

में स्थापित शिवलिंग का पज


ू न करने के लिए कहा। ब्रह्मा-विष्णु दोनों महाकाल वन पहुंचे,

शिवलिंग का पज
ू न किया।

शिव ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए। शिव ने भय का कारण पछ


ू ा तो ब्रह्मा ने बता दिया। शिव ने दोनों

को पेट में छिपा लिया ओर कुछ दे र बाद जब दोनों बाहर निकले तो दोनों दै त्य भस्म हो चक
ु े थे। ब्रह्मा

ओर विष्णु ने शिव से वरदान मांगा कि जो भी मनष्ु य शिवलिंग के दर्शन करे गा उसे आप अभयदान

दें गे। तब से ही शिवलिंग अभयेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य

इस शिवलिंग का दर्शन कर पज
ू न करता है उसे धन, पत्र
ु ओर स्त्री का वियोग नहीं होता है । संसार के

समस्त सख
ु ों को भोग कर अंतकाल में परमगति को प्राप्त करता है ।

>

84 महादे व : श्री पथ
ृ क
ु े श्वर महादे व(49)
अंगराज के पत्र
ु वेन के अंगों के दोहन से पथ
ृ ु नामक एक बालक का जन्म हुआ।

पथ
ृ ु महापराक्रमी ओर जगत विख्यात हुआ। पथ
ृ ु के राज्य में हवन नहीं होते थे,

वेद मंत्रों का उच्चारण भी नहीं होता था। सारी प्रजा हाहाकार कर रही थी। राजा ने

क्रोध में आकर त्रिलोक को जलाने की इच्छा की। इसी समय नारद मनि
ु वहां

प्रकट हुए ओर राजा से कहा कि पथ्


ृ वी ने अन्न का भक्षण किया है । इस कारण

आप पथ्
ृ वी का वध करें । राजा ने अग्नि अस्त्र पथ्
ृ वी पर छोड़ा जिससे पथ्
ृ वी जलने

लगी। पथ्
ृ वी गाय रूप लेकर राजा के पास आई ओर उससे क्षमा मांगी।

पथ्
ृ वी ने राजा से कहा उसे जो चाहिए वह दोहन कर प्राप्त कर ले। राजा ने गाय रूपी पथ्
ृ वी का दोहन

कर हिमालय को कड़ा बनाकर अन्न व रत्न प्राप्त किए। प्रजा खश


ु हाल हो गई। इधर राजा का ध्यान

गोवध की ओर गया। राजा पाप से दख


ु ी होकर अपने प्राणों को त्यागने के लिए निकल पड़ा। नारद

मनि
ु ने राजा से कहा कि आप अंवतिका नगरी में अभयेश्वर महादे व के पश्चिम में स्थित शिवलिंग

का दर्शन करो, आप निष्पाप हो जाएंगे ओर ऐसा ही हुआ। राजा पथ


ृ ु के दोष मक्
ु त होने से लिंग का

नाम पथ
ृ क
ु े श्वर हुआ।
84 महादे व : श्री स्थावरे श्वर महादे व(50)

विश्वकर्मा की संज्ञा नामक पत्र


ु ी सर्य
ू की पत्नी थी। सर्य
ू का तेज न सह पाने के

कारण उसने अपने समान एक अन्य स्त्री को उत्पन्न किया ओर उसे आज्ञा दी

की तम
ु सर्य
ू की सेवा करना ओर उन्हें मेरा पता कभी मत बताना। सर्य
ू ने उस

स्त्री को अपनी पत्नी संज्ञा माना ओर उससे एक पत्र


ु हुआ, जिसका नाम शनैश्चर

हुआ। शनैश्चर के प्रभाव से सभी भयभीत हो गए।

इंद्र ब्रह्मदे व के पास पहुंचे ओर शनैश्चर के प्रभाव से सभी रक्षा करने की बात कही। ब्रह्मदे व ने सर्य

को समस्या बताई। सर्य


ू ने कहा कि आप ही शनिदे व को समझाएं, वह मेरी बात नहीं सन
ु ता है ।

ब्रह्मदे व ने भगवान कृष्ण को यह समस्या बताई। कृष्ण ने दे वों व ब्रह्मा को महादे व के पास जाने के

लिए कहा। भगवान शंकर ने शनैश्चर को बल


ु ाया ओर कहां कि तम
ु पथ्
ृ वी लोक के प्राणियों को पीड़ा

पहुंचाते हो परं तु उनका कल्याण भी करना। बारह राशियों में अलग-अलग स्थानों पर रहने से तम्
ु हारा
अलग-अलग प्रभाव होगा। अब तम
ु महाकाल वन में जाओ ओर पथ
ृ क
ु े श्वर के पश्चिम में स्थित लिंग

का पज
ू न करों। वह लिंग तम्
ु हारे नाम स्थावर के नाम से स्थावरे श्वर के नाम से विख्यात होगा।

शनैश्चर महाकाल वन में आए ओर शिवलिंग के दर्शन कर पज


ू न किया।> > मान्यता है कि जो भी

मनष्ु य स्थावरे श्वर का पज


ू न करता है वह सदा स्वर्ग में निवास करता है ओर उसकी सभी

मनोकामनाएं पर्ण
ू होती है , ग्रह दोष नहीं लगता है ।

84 महादे व : श्री शल
ू ेश्वर महादे व(51)
काफी समय पहले दै त्यों और दे वताओं में यद्
ु ध हुआ। दै त्यों के स्वामी जंभ और इंद्र के बीच वर्षों तक

यद्
ु ध चला। जिसमें दै त्य विजयी हुए और अंधकासरु ने स्वर्ग पर शासन शरू
ु कर दिया। एक दिन

अंधकासरु का एक दत
ू कैलाश पर्वत पहुंचा और भगवान शिव से कहा कि अंधकासरु ने कहा है कि तम

कैलाश छोड़ दो और पार्वती को उसके पास भेज दो। इस पर शिव ने दत


ू से कहा कि वह अंधकासरु से
कहे कि वह यहां आकर यद्
ु ध करे और शिव को हराकर पार्वती को ले जाए। यह सन
ु कर अंधकासरु

अपनी सेना के साथ कैलाश पहुंच गया।

शिव ने शल
ू से प्रहार कर अंधकासरु को घायल कर दिया और पाताल तक घम
ु ाया। अंधकासरु के रक्त

से उसके जैसे कई दानव उत्पन्न होने लगे। तब शिव ने अपनी शक्ति से महादर्गा
ु को प्रकट किया और

दर्गा
ु ने अंधकासरु का वध किया। आखिरकार अंधकासरु ने भगवान शिव की उपासना की। भगवान

शिव ने उसे महाकाल वन में पथ


ृ क
ु े श्वर महादे व के पर्व
ू में स्थित शिवलिंग की उपासना करने के लिए

कहा।

शल
ू से मत्ृ यु प्राप्त होने के कारण शिवलिंग का नाम शल
ू ेश्वर विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी

मनष्ु य शल
ू ेश्वर के दर्शन कर पज
ू न करता है वह सभी प्रकार के भय और दख
ु ों से मक्
ु त होता है और

अंतकाल में परमपद को प्राप्त होता है ।

84 महादे व : श्री ओंकारे श्वर महादे व(52)


प्राचीन समय में शिव ने एक दिव्य परु
ु ष को प्रकट किया। परु
ु ष ने शिव से पछ
ू ा कि वह क्या कार्य करें

तो शिव ने कहा तम
ु अपनी आत्मा का विभाग करो। वह परु
ु ष शिव की बात को न समझने के कारण

चिंता में पड़ गया और उसके शरीर से एक अन्य परु


ु ष उत्पन्न हुआ, जिसे शिव ने ॐकार का नाम

दिया। शिव की आज्ञा से ॐकार ने वेद, दे वता, सष्टि


ृ , मनष्ु य , ऋषि उत्पन्न किए और शिव के

सम्मख
ु खड़ा हो गया।
> शिव ने प्रसन्न होकर ॐकार से कहा कि तम
ु अब महाकाल वन में जाओ और वहां शल
ू ेश्वर महादे व

के पर्व
ू दिशा में स्थित शिवलिंग का पज
ू न करों ॐकार वहां पहुंचा और शिवलिंग के दर्शन कर उसमें

लीन हो गया।

ॐकार के शिवलिंग में लीन होने से शिवलिंग ओंकारे श्वर या ॐकारे श्वर के नाम से विख्यात हुआ।

मान्यता है कि जो भी इस शिवलिंग का दर्शन कर पज


ू न करता है उसे सभी तीर्थ यात्रा के समान फल

प्राप्त होता है

84 महादे व : श्री विश्वेश्वर महादे व(53)


काफी समय पहले विदर्भ नगर में राजा विदरु थ थे। एक बार वे शिकार के लिए

वन में गए। वहां उन्होंनें मग


ृ छाल पहनकर भगवान के ध्यान मग्न एक ब्राह्मण
की हत्या कर दी। इस पाप के कारण वह 11 अलग-अलग योनियों में जन्म लेता

रहा। 11 वीं योनि में वह चांडाल पैदा हुआ और धन चरु ाने के लिए एक ब्राह्मण के

घर में घस
ु ा और लोगों ने उसे पकड़ कर पेड़ पर टांग दिया। मरने के पर्व
ू तक

चांडाल शल
ू ेश्वर के उत्तर में स्थित एक शिवलिंग के दर्शन करता रहा। इस कारण

वह मरने के बाद स्वर्ग में सख


ु भोगता रहा। इसके बाद पथ्
ृ वी पर वह विदर्भ नगरी

में ही राजा विश्वेश बन कर जन्मा। उसे अपने पर्व


ू जन्म की कथा याद रही।

वह अवंतिका नगरी में स्थित शिवलिंग पर पहुंचा और विधि विधान से भगवान का पज


ू न किया।

भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उससे वर मांगने के लिए कहा। राजा ने कहा कि इस संसार में किसी का

भी पतन न हो और आपका नाम विश्वेश्वर के नाम से विख्यात हो। विश्वेश राजा को वरदान दे ने के

कारण शिवलिंग विश्वेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य विश्वेश्वर महादे व

के दर्शन करता है उसके सात जन्मों के पापों का नाश होता है ।

84 महादे व : श्री कंटे श्वर महादे व(54)


प्राचीन समय में राजा सत्य विक्रम थे। शत्रओ
ु ं ने उनका राज्य छीन लिया, जिससे

वह वन में भ्रमण करने लगे। एक दिन उसने वन में भ्रमण करते हुए वशिष्ठ मनि

का आश्रम दे खा। मनि
ु के पछ
ू ने पर राजा ने अपनी परू ी कहानी उनसे कह दी।

वशिष्ठ मनि
ु ने राजा सत्य विक्रम से कहा कि आप अवंतिका नगरी में महाकाल

वन के समीप जाएं और वहां आपको एक तपस्वी मिलेंगे। राजा वशिष्ठ मनि


ु की

आज्ञा से महाकाल वन में आए और उस तपस्वी के दर्शन किए। तपस्वी ने अपनी

हुंकार से उसे स्वर्ग की अप्सराएं और जल परियों के दर्शन करा दिए।

राजा ने उनसे पछ
ू ा कि यह क्या था तो तपस्वी ने कहा कि अब तम
ु शत्रओ
ु ं के नाश के लिए महादे व का

पज
ू न करो। शिवलिंग के दर्शन मात्र से राजा के शत्रु मरण को प्राप्त हो गए और राजा ने निष्कंटक

पथ्
ृ वी पर राज्य किया और अंत काल में परमपद को प्राप्त किया। मान्यता है कि कण्टे श्वर के दर्शन

मात्र से मनष्ु यों के सभी कंटक नाश होते हैं और वह शंकर के सानिध्य को प्राप्त करता है । ‍विविध

मतानस
ु ार यह नीलकंठे श्वर महादे व के नाम से भी जाने जाते हैं

84 महादे व : श्री सिंहेश्वर महादे व(55)


एक समय पार्वती ने महान तप किया। उनके तप से तीनों लोक जलने लगे। इसे दे खते हुए

ब्रह्मा पार्वती के पास आए और उनसे कहा कि तम


ु किस कारण से तप कर रही हो, तम
ु जो

भी चाहो वह मझ
ु से मांग लो। पार्वती ने कहा कि शिव मझ
ु े काली कहते हैं मझ
ु े गौर वर्ण

चाहिए।

> इस पर ब्रह्मा ने कहा कि कुछ समय के बाद तम्


ु हारा मनोरथ परू ा होगा। ब्रह्मा के वचन सन
ु कर

पार्वती को क्रोध आ गया, उनके क्रोध के कारण एक सिंह उत्पन्न हुआ। सिंह भख
ू ा था और पार्वती को

खाने के लिए आगे बढ़ा परं तु पार्वती के तप और तेज के कारण वह उन्हें खा नहीं सका और जाने

लगा। उसे जाता दे ख पार्वती को उस पर दया आ गई और उन्होंने दध


ू की अमत
ृ वर्षा की। इसके बाद

सिंह फिर पार्वती के पास आया और उनसे कहा कि मैं माता को मारने का पापी हूं, मझ
ु े नर्क में जाना

पड़ेगा। सिंह की बात सन


ु कर माता पार्वती ने उससे कहा कि तम
ु महाकाल वन में आओ और कंटे श्वर

महादे व के पास एक उत्त्म लिंग है । उसका पज


ू न और दर्शन करो, तम्
ु हें पाप से मक्ति
ु मिलेगी। माता

पार्वती के वचन सन
ु कर सिंह महाकाल वन में आया और यहां आकर उसने शिवलिंग के दर्शन किए

और दिव्य दे ह को प्राप्त किया।

ममता के कारण पार्वती भी वहां पहुंचीं और सिंह के दर्शन के कारण शिवलिंग का नाम सिंहेश्वर रख

दिया। उसी दौरान ब्रह्मा भी वहां पहुंचे और पार्वती से कहा कि तम्


ु हारे क्रोध के कारण यह सिंह

उत्पन्न हुआ है यह तम्


ु हारा वाहन होगा। इसके बाद पार्वती का गौर वर्ण हो गया।

मान्यता है कि जो भी मनष्ु य सिंहेश्वर के दर्शन और पज


ू न करे गा वह अक्षय स्वर्ग में वास

करे गा। दर्शन मात्र से सभी पापों का नाश होगा और उसकी सात पीढ़ी पवित्र हो जाएंगी।

84 महादे व : श्री रे वन्तेश्वर महादे व(56)


सर्य
ू के तेज को न सहन कर पाने के कारण उनकी पत्नी संज्ञा उन्हें छोड़ कर चली गईं और तप करने

लगीं। यह बात सर्य


ू को पता चली तो वे कुरूक्षेत्र पहुंच गए। यहां संज्ञा को सर्य
ू ने घोड़ी के रूप में दे खा।

तब वह भगवान के सामने गईं और नासिका से अश्विनी कुमार नामक घोड़े के मख


ु वाले पत्र
ु को जन्म

दिया। रे त से रे वन्त पत्र


ु खड्ग और तलवार लेकर उत्पन्न हुआ। बाल्य काल में ही उसने तीनों लोक

जीत लिए। सभी दे वता घबरा कर ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा ने सभी दे वताओं को शिवजी के पास

भेज दिया।
दे वताओं ने शिवजी से कहा कि अश्विनी कुमार के तेज के कारण सारी सष्टि
ृ जल रही है । आप उनकी

रक्षा करें । शिवजी ने अश्विनी कुमार का स्मरण किया और अश्विनी कुमार शिवजी के पास आ गया।

शिवजी ने प्यार से उसे गोद में बैठाया और उससे कहा कि तम


ु महाकाल वन में कंटे श्वर के पर्व
ू में

स्थित एक उत्तम लिंग है और तम


ु उसका पज
ू न और दर्शन करो और वहीं निवास करो। दे वता तम्
ु हारा

पज
ू न करें गे और तम
ु राजाओं के राजा होगे। अश्विनी कुमार शिवजी की आज्ञा से महाकाल वन में

आया और वहां आकर शिवलिंग का पज


ू न किया।

रे वन्त के पज
ू न के कारण शिवलिंग रे वन्तेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो

मनष्ु य इस शिवलिंग के दर्शन कर पज


ू न करता है उसकी 7 पीढियों को सख
ु मिलता है तथा अन्त

काल में स्वर्ग में वास करता है ।

84 महादे व : श्री घंटेश्वर महादे व(57)


भगवान शंकर ने पार्वती को कथा सन
ु ाते हुए बताया कि गणों में सबसे

प्रिय गण घंटा नाम का गण है । दे वताओं के संगीत सभागह


ृ में इच्छा से

शामिल होने के लिए चतरु गंधर्वों में श्रेष्ठ चित्रसेन से मिले और सभा में

शामिल होने का उपाय पछ


ू ा। उपाय बताने से पर्व
ू चित्रसेन ने गण की

परीक्षा ली और संगीत सन
ु ाने को कहा। गण से संगीत सन
ु ने के बाद

चित्रसेन प्रसन्न हुए और सभा में जाने की आज्ञा दे दी। थोड़ी दे र के बाद

वहां भगवान शंकर का द्वारपाल आया और गण से कहा कि तम


ु महादे व

को छोड़कर यहां बैठे हो। तम्


ु हें ब्रह्मा की सभा में जाने की अनम
ु ति नहीं

मिलेगी। इतना सन
ु कर गण दरू जाकर बैठ गया।

इसी प्रकार सोच विचार करते हुए एक वर्ष बीत गया परन्तु ब्रह्मा की सभा में जाना नहीं हुआ। इतने

में ही उसने वीणा हाथ में लिए नारद जी को ब्रह्मा की सभा में जाते हुए दे खा। उन्हें दे खकर गण ने

कहा हे नारद मनि


ु आप ब्रह्मा जी को मेरे आने की सच
ू ना करो। यह सन
ु कर नारद जी ने कहा हे गण

ब्रह्मा ने मझ
ु े जरूरी कार्य के लिए दे वाचार्य बह
ृ स्पति के पास भेजा है , मैं उनसे मिल कर आता हूं और

उन्होंने भगवान शंकर को सारी बातें बताईं। यह बात सन


ु कर शिव जी को गुस्सा आ गया। उन्होंनें

श्राप दे ते हुए गण से कहा कि तू पथ्


ृ वी पर गिर पड़ेगा। श्राप यक्
ु त होकर गण पथ्
ृ वी पर दे वदारू वन में

गिर पड़ा। भगवान शिव ने कहा जो व्यक्ति अपने स्वामी को छोड़कर दस


ू रे की सेवा करे गा वह इसी

प्रकार नर्क में जाएगा। दे वदारू वन में गण को तपस्या करते हुए कुछ ऋषि मनि
ु मिले। गण ने विलाप
ु ने मेरे साथ छल किया है । अब मैं दोनों स्थानों से गया।> > गण का
करते हुए बताया कि नारद मनि

पश्चाताप दे खकर भगवान शिव ने कहा तम


ु महाकाल वन में चले जाओ वहां रे वन्तेश्वर के

पश्चिम में उत्तम लिंग है । तम


ु इस लिंग की पज
ू ा करो यह लिंग तम्
ु हें सख
ु -समद्
ृ धि दे गा

और भविष्य में यह लिंग घण्टे श्वर के नाम से जाना जाएगा। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य

घंटेश्वर का दर्शन और पज
ू न करे गा उसे संगीत की सभी विधाओं का ज्ञान मिलेगा।

84 महादे व : श्री प्रयागेश्वर महादे व(58)


प्रथम कल्प में स्वंयभू मनु राजा नाम के राजा हुआ करते थे। उनके पत्र
ु प्रियवत नाम के राजा परम

धार्मिक हुए। उन्होंने यज्ञ करके उत्तम दान दक्षिणा दे कर यज्ञों को समाप्त किया ओर अपने सात पत्र
ु ों

को सातों द्वीपों का राजा बनाया ओर बद्रीनारायण की विशाल नगरी में तप करने चले गए। वे वहां
तपस्या में लीन हो गए। नगरी में विचरण करते हुए एक दिन नारद मनि
ु वहां पहुंचे ओर राजा से कहा,

राजन मैंने श्वेत द्वीप के सरोवर में कन्या दे खी है । उस कन्या से पछ


ू ा तम
ु इस विशाल द्वीप पर

अकेले क्यंू रहती हो।

> उस कन्या से उसका नाम पछ


ू ा तब कन्या ने कहा नारद तम
ु अपनी आंखें बंद करो तम्
ु हें सब पता

चल जाएगा। नारद ने आंखें बंद की तो कन्या के स्वरूप में तीन दिव्य परु
ु ष दिखाई दिए। नारद ने

अपनी शक्तियों को प्रयोग करके दे खा पर वह उस कन्या के बारे में पता लगाने में असफल रहें । इसके

बाद कन्या से नारद ने पछ


ू ा हे दे वी आप कौन है , आपके सामने मेरी सारी शक्तियां विफल हो गई।

इस पर कन्या ने कहा में सभी वेदों में निपण


ु सावित्री माता हूं।> सारी बातें बताते हुए नारद ने कहा

राजन मैं अपनी सारी शक्तियों को भल


ू गया था। सावित्री माता ने मझ
ु े कहा कि तम
ु प्रयाग राज्य में

चले जाओ तब जाकर तम्


ु हें अपनी शक्तियों का अभ्यास दोबारा होगा। इतना कह कर प्रयाग के राजा

से नारद ने कहा, हे राजन मझ


ु े वेदों ओर शक्तियों के पन
ु ः ज्ञान के लिए कोई मार्ग बताएं। राजन ने

उपाय बताते हुए कहा मनि


ु वर आप महाकाल वन में चले जाइए। वहां पर प्रयाग के राजा विराजमान

है । यहीं पर सनातन ज्योतिष रूप में लिंग स्थित है , जिसकी तम


ु प्रयाग राजा के नाम से पज
ू ा करो।

भविष्य में इस शिवलिंग को प्रयागेश्वर महादे व के नाम से पज


ू ा जाएगा। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य

प्रयागेश्वर के दर्शन ओर पज
ू न करे गा वह अक्षय स्वर्ग में वास करे गा। दर्शन मात्र से सभी पापों का

नाश होगा।

84 महादे व : श्री सिद्धेश्वर महादे व(59)


काफी समय पर्व
ू अश्वशिरा नाम का एक राजा था। वह बड़ा ही धार्मिक ओर प्रजा पालक था। राजयज्ञ

अनष्ु ठान कर राजा ने सिद्धि को प्राप्त किया था। एक बार उसके राज्य में कपिल मनि
ु ओर

जैगीशव्य ऋषि का आगमन हुआ। राजा ने उनका सम्मान किया तथा उनसे पछ
ू ा कि उसने सन
ु ा है
कि भगवान विष्णु सर्वश्रेष्ठ हैं। उनके दर्शन व उनकी कृपा से मनष्ु य मोक्ष को प्राप्त करता है । फिर

ऐसे भगवान विष्णु को कोई प्रणाम क्यों नहीं करता है ।

> दोनों ऋषियों ने राजा से पछ


ू ा कि यह बात तम
ु से किसने कही है । उन्होंने अपनी सिद्धि से राजा को

उसकी राज्यसभा में भगवान के साथ संपर्ण


ू सष्टि
ृ के दर्शन कराए। राजा ने कहा कि मैं आपकी

सिद्धि को दे खकर आश्चर्यचकित हूं। इस प्रकार की सिद्धि कैसे प्राप्त होगी। आप मझ


ु े बताएं। राजा

के वचन सन
ु कर दोनों मनि
ु यों ने कहा कि राजन आप महाकाल वन में सिद्धेश्वर महादे व का पज
ू न

करें तो आपको आलौकिक सिद्धि प्राप्त होगी। मनि


ु यों की बात सन
ु कर राजा तरु ं त आवंतिका नगरी

आया और यहां दोनों मनि


ु यों को दे खा। राजा ने लिंग के मध्य भाग में भगवान विष्णु को बैठे दे खा।

इसके बाद राजा ने शिवलिंग का पज


ू न किया। सिद्धेश्वर महादे व ने उससे प्रसन्न होकर वरदान

मांगने के लिए कहा। राजा ने कहा कि आपके दर्शन की इच्छा थी वह पर्ण


ू हुई। इस प्रकार राजा ने

सिद्धि प्राप्त की और विष्णु रूप में शिवलिंग में लीन हो गया।

मान्यता है कि जो भी मनष्ु य सिद्धेश्वर के दर्शन करता है वह विभिन्न

सिद्धियों को प्राप्त करता है और अंतकाल में मोक्ष को प्राप्त करता है ।

84 महादे व : श्री मतंगेश्वर महादे व(60)


द्वापर यग
ु में एक ब्राह्मण थे सग
ु ती। उनके यहां मतंग नामक पत्र
ु का जन्म हुआ। बालक अवस्था में

ही मतंग क्रूर स्वभाव का हुआ। एक बार बालक मतंग माता की गोद में बैठकर लकड़ी से अपने पिता

को मार रहा था। पास खड़ी एक गर्दभी ने उससे कहा कि यह ब्राह्मण नहीं, यह चांडाल है ।

गर्दभी के वचन सन
ु कर बालक ने उससे कहा कि मझ
ु े बताओ कि मैं चांडाल कैसे हुआ। गर्दभी ने उससे

परू ी कथा कह सन
ु ाई। मतंग ने निश्चय किया कि वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त करे गा। ऐसा प्रण कर वह

तपस्या करने के लिए चला गया। कई वर्षों तक तपस्या करने के बाद इंद्र उसके सामने प्रकट हुए और

उससे कहा कि तम्


ु हें जो चाहिए मांग लो। मतंग ने इंद्र से कहा कि उसे ब्राह्मणत्व चाहिए। इंद्र ने

उससे कहा कि तम
ु चांडाल योनि में उत्पन्न हुए हो, तम्
ु हें ब्राह्मणत्व नहीं मिल सकता। इसके बाद भी

मतंग ने कई हजार वर्षों तक तपस्या की ओर इंद्र ने कई बार उसे समझाने का प्रयास किया, परं तु

मतंग ने अपना प्रण नहीं त्यागा, उसने गया में जाकर तप करना प्रारं भ कर दिया। एक बार फिर इंद्र

उसे समझाने के लिए आए तो उसने इंद्र से कहा कि मझ


ु े ब्राह्मणत्व कैसे प्राप्त होगा, मझ
ु े उपाय

बताएं। इंद्र ने कहा कि अवंतिकानगरी के महाकाल वन में सिद्धेश्वर महादे व के पर्व


ू में एक शिवलिंग

है तम
ु उसका पज
ू न-दर्शन करो। मतंग इंद्र की बात सन
ु कर आवंतिका नगरी में आया और यहां

शिवलिंग का पज
ू न व दर्शन किया। मतंग के पज
ू न से महादे व ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए। इस

प्रकार मतंग ब्रह्मलोक को प्राप्त हुआ।

मतंग के पज
ू न के कारण शिवलिंग मतंगेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि कोई

भी क्रूर मनष्ु य भगवान का पज


ू न करे गा वह शद्
ु ध होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करे गा।

84 महादे व : श्री सौभाग्येश्वर महादे व(61)


काफी समय पहले अश्वाहन नामक एक राजा हुआ करते थे। राजा धर्मात्मा और कीर्तिवान थे। उनके

राज्य में प्रजा सख


ु ी रहती थी। काशी राजा की पत्र
ु ी मदनमंजरी उनकी पत्नी थी। वह भी अत्यंत संद
ु र

ओर गह
ृ कार्य में निपण
ु थी। पति का हित चाहने वाली व धर्मात्मा थी। पर्व
ू कर्म के कारण वह दर्भ
ु गा
थी। राजा अश्वाहन को वह प्रिय नहीं थी। रानी के स्पर्श मात्र से राजा का शरीर जलने लगता था।

> एक बार राजा ने क्रोध में आकर आदे श दिया कि रानी को वन में छोड़कर आ जाए। रानी वन में

अपने भाग्य को कोसने लगी। इसी समय एक तपस्वी उसे नजर आया। रानी ने उनसे अपनी परू ी

व्यथा कही और पछ
ू ा कि उसे सौभाग्य कैसे प्राप्त होगा। तपस्वी ने ध्यान कर रानी को बताया कि

तम्
ु हारे विवाह के समय तम्
ु हारे पति को पाप ग्रहों ने दे खा है इस कारण वह तम्
ु हें प्रेम नहीं करता है ।

तम
ु अंवतिका नगरी में स्थित महाकाल वन में जाओ और वहां सौभाग्येश्वर महादे व का पज
ू न करों।

तम्
ु हारे पर्व
ू इंद्राणी ने भी उनका पज
ू न कर इंद्र को प्राप्त किया था। रानी ने अंवतिका नगरी में

महाकाल वन पहुंच कर भगवान का दर्शन किया। रानी के दर्शन मात्र से राजा को रानी का स्मरण

आया और राजा ने जमदग्नि मनि


ु से रानी का पता पछ
ू ा । मनि
ु ने कहा कि रानी महाकाल वन में में

सौभाग्येश्वर महादे व का पज
ू न कर रही हैं। राजा वहां पहुंचा व रानी को पाकर प्रसन्न हुआ। राजा-रानी

के मिलन से उनके एक पत्र


ु हुआ। जिसका नाम व्रत रखा गया।

मान्यता है कि जो भी सौभाग्येश्वर महादे व के दर्शन कर पज


ू न करता है उस पर ग्रह दोष नहीं लगता

है ।

84 महादे व : श्री रुपेश्वर महादे व(62)


प्राचीन काल में राजा थे पद्य। वे महापराक्रमी ओर धर्मनिष्ठ थे। एक बार राजा अपनी सेना के साथ

शिकार करने के लिए वन में गए। वहां एक मग


ृ का पीछा करते हुए दस
ू रे वन में चला गए। प्यास से

व्याकुल राजा एक आश्रम में पहुंच गए। यहां राजा को दे ख मनि


ु कन्या सामने आई और राजा का

आदर सत्कार किया। राजा ने उससे पछ


ू ा यह किसका आश्रम है और तम
ु कौन हो।

> कन्या ने कहा कि यह मनि


ु कण्व का आश्रम है और मैं उनकी कन्या हूं। मैं मनि
ु को अपना पिता

मानती हूं मेरे पिता कौन है मझ


ु े नहीं पता। कन्या के रूप पर मोहित होकर राजा ने उससे विवाह का

प्रस्ताव दिया। कन्या ने कहा कि मनि


ु कण्व आते ही होंगे वे ही मेरा दान करें गे। राजा ने कन्या से कहा

कि मैं इतनी दे र प्रतीक्षा नहीं कर सकता। मैं तम


ु से अभी गंधर्व विवाह करता हूं। कन्या ने इस पर

स्वीकृति दे दी। इसी बीच मनि


ु कण्व भी वहां आ गए और राजा और कन्या को विवाह बंधन में दे ख

क्रोधित होकर दोनों को श्राप दिया कि वे दोनों कुरूप हो जाए। दोनों ने मनि
ु से क्षमा मांगी ओर पन
ु ः

रूपवान होने का उपाय पछ


ू ा। मनि
ु ने उनसे कहा कि तम
ु दोनों जल्द ही महाकाल वन में पशप
ु तेश्वर

महादे व के पर्व
ू में स्थित शिवलिंग के दर्शन करो, तम
ु दोनों रूप को प्राप्त करोगे। राजा और कन्या

तरु ं त महाकाल वन में आए और शिवलिंग के दर्शन किए। शिवलिंग के दर्शन मात्र से दोनों पहले से भी

अधिक रूपवान हो गए और फिर राज्य में लौट गए ओर अंतकाल में स्वर्ग को प्राप्त किया।

मान्यता है कि जो भी रूपेश्वर महादे व के दर्शन ओर पज


ू न करता है वह रूपवान होगा। अंतकाल में

शिवलोक को प्राप्त करे गा।

84 महादे व : श्री धनस


ु हस्त्रेश्वर महादे व(63)
काफी समय पहले एक राजा थे विदरू थ। उनके दो पत्र
ु थे सन
ु ीति ओर सम
ु ति। एक बार राजा शिकार

करने के लिए वन में गए। वहां उन्होंने एक बडा गढ्ढा दे खा, उसे आश्चर्य हुआ। तभी वहां एक तपस्वी

आए और उन्होंने बताया कि यहां से रसातल में रहने वाला कंु जभ नाम का दानव आता-जाता है । आप

उसका वध करो। राजा अपने महल लौटा और वहां उसने अपने पत्र
ु ों ओर मंत्रियों से विचार विमर्श

किया।

कुछ दिन बाद कंु जभ ने वहां आश्रम से एक मनि


ु कन्या मद
ु ावति का हरण कर लिया। राजा ने क्रोध में

आकर अपने दोनों पत्र


ु ों व सेना को आदे श दिया कि वह कंु जभ का वध कर दें । राजा की सेना व उसके

पत्र
ु ों ने कंु जभ से यद्
ु ध शरू
ु कर दिया। अमोध मस
ू ल के कारण कंु जभ ने सेना का नाश कर दिया तथा

राजा के दोनों पत्र


ु ों को बंदी बना लिया। राजा को पता चला तो वह दख
ु ी हो गया। इसी दौरान वहां

मार्क ण्डेय मनि


ु आए और राजा से कहा कि आप महाकाल वन में जाओ और वहां रूपेश्वर महादे व के

दक्षिण में स्थित शिवलिंग का पज


ू न करों। उनसे तम्
ु हें धनष
ु प्राप्त होगा, जिससे तम
ु कंु जभ का नाश

कर सकोगे। राजा तरु ं त अवंतिकानगरी में महाकाल वन में पंहुचा। यहां उसने शिवलिंग का पज
ू न
किया। भगवान शिव ने उसे एक धनष
ु प्रदान किया । राजा धनष
ु तथा सेना के साथ यद्
ु ध करने के

लिए पहुंच गया। तीन दिन तक यद्


ु ध चलता रहा। राजा ने धनष
ु के बल पर कंु जभ का वध कर दिया

और कन्या तथा पत्र


ु ों के साथ अपने राज्य लौट आया।

राजा ने शिवलिंग से धनष


ु प्राप्त किया था इस कारण शिवलिंग धनस
ु हस्त्रेश्वर के नाम से विख्यात

हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य इस शिवलिंग के दर्शन कर पज


ू न करता है उसके शत्रओ
ु ं का नाश

होता है और उसे नरक में वास नहीं करना पड़ता है ।

84 महादे व : श्री पशप


ु तेश्वर महादे व(64)
प्राचीन समय में एक राजा थे पशप
ु ाल। वे परम धर्मात्मा और पशु के पालन में

विशेष ध्यान रखते थे। एक बार राजा समद्र


ु के किनारे गए और उन्होंने वहां पांच

परु
ु षों तथा एक स्त्री को दे खा। राजा उन्हें दे ख मर्छि
ू त हो गया। वे पांचों परु
ु ष तथा

स्त्री उसे घर ले आए। राजा जब होश में आया तो उसने उनसे यद्
ु ध किया। इस

बीच पांच परु


ु ष और आ गए। राजा उनमें से किसी को भी मार नहीं पाया और वे

दसों परु
ु ष और स्त्री राजा के शरीर में लीन हो गए। राजा दख
ु ी हो गए। इस बीच

वहां नारद मनि


ु आए और राजा ने उन्हें परू ी बात बताई व उनसे परु
ु षों व स्त्री का

परिचय पछ
ू ा।

> नारद मनि


ु ने कहा कि जो दस परु
ु ष थे उनमें पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कामेन्द्रिय थी और जो स्त्री

थी वह मन रूप बद्
ु धि थी। वे क्रोधवश तम्
ु हारे पास आए थे। तम्
ु हारे पितामह ने यज्ञ में महादे व का

भाग और स्थान नहीं रखा था। जिस पर महादे व ने अपने धनष


ु से दे वताओं को दं ड दिया, जिससे सभी

पशु योनि को प्राप्त हुए। सभी दे वताओं ने ब्रह्मा से निवेदन किया और फिर भगवान शिव के पास

पहुंचे। यहां शिव ने प्रसन्न होकर उनसे कहा कि आप सभी महाकाल वन में जाओ और वहां लिंग रूपी

पशप
ु तेश्वर महादे व के दर्शन करो।

सभी दे वता महाकाल वन में आए और यहां शिवजी के दर्शन किए तथा पशु योनि से मक्
ु त हुए।

मान्यता है कि जो भी मनष्ु य पशप


ु तेश्वर के दर्शन-पज
ू न करता है उसके पर्व
ू ज भी पशु योनि से मक्
ु त

हो जाते हैं।

84 महादे व : श्री ब्रह्मेश्वर महादे व (65)


उज्जयिनी के चौरासी महादे व मन्दिरों में श्री ब्रह्मेश्वर महादे व का मन्दिर

खटीकवाड़ा (ढाबारोड के पास) में स्थित है । भगवान विष्णु का संकट नष्ट करने

तथा ब्रह्माजी द्वारा पज


ू े जाने के कारण श्री ब्रह्मेश्वर की प्रसिद्धि है । एक समय

जब आसरु ी शक्तियां प्रबल हो रही थी तब उनका नेतत्ृ व करने वाला पल


ु ोमा

नामक दै त्य अपने पराक्रम से इन्द्र सहित अनेक दे वताओं को हराकर विष्णल
ु ोक

पहुंचा। विष्णु को सोया हुआ दे खकर वह प्रतीक्षा करने लगा।

इस बीच ब्रह्मकमल पर स्थित ब्रह्मा ने पल


ु ोमा को दे ख लिया। साथ ही विष्णज
ु ी के जागने पर उन्हें

पल
ु ोमा के आने का कारण भी बतला दिया। पल
ु ोमा के आतंक से भयभीत विष्णज
ु ी ने ब्रह्माजी से

कहा कि तम
ु अभी महाकाल वन स्थित सातकल्प से पर्व
ू उत्पन्न शिवलिंग की आराधना कर उनसे

अस्त्र-शस्त्र यक्
ु त दिव्य जल यहां तरु न्त लाओ। इससे उस जल को पल
ु ोमा और उसकी सेना पर

छिड़ककर पराजित किया जा सके। ब्रह्माजी ने विष्णज


ु ी के आग्रह पर अवंतिकापरु ी में आकर इस

तेजोमय शिवलिंग की उपासना की तथा वह जल प्राप्त कर विष्णज


ु ी के संकट को दरू किया। ब्रह्माजी

द्वारा आराध्य इस शिवलिंग को तभी से ब्रह्मेश्वर कहा जाने लगा।

84 महादे व : श्री जल्पेश्वर महादे व(66)


सालों पहले जल्प नाम का राजा हुआ। वह तेजस्वी था। उसके पांच पत्र
ु सबु ाहु,

शत्रम
ु हि, जय, विजय और विक्रांत थे। राजा ने पर्व
ू दिशा का राज्य सब
ु ाहू, दक्षिण

का शत्रम
ु हि, पश्चिम दिशा का जय और उत्तर दिशा का विजय ओर मध्य का
विक्रांत को दिया ओर खद
ु तपस्या करने चला गया। इधर विक्रांत ने मंत्री के

कहने पर चारों भाइयों के राज्य पर अधिकार कर लिया और सभी का वध कर

दिया। यह बात राजा को पता चली तो वह शोक जताने लगा। राजा ने वन में ही

वशिष्ठ मनि
ु से बात कही कि यद्
ु ध में ब्राह्मणों की हत्या हुई है ।

पत्र
ु ों की हत्या हुई इसका पाप उसे मिलेगा। उसने मनि
ु से पाप कर्मो से मक्
ु त होने का उपाय पछ
ू ा।

मनि
ु ने कहा कि राजन आप महाकाल वन में कुक्कुटे श्वर महोदव के पश्चिम में स्थित शिवलिंग का

पज
ू न करें । उसका पज
ू न कर परशरु ाम भी पाप मक्
ु त हुए थे। राजा मनि
ु की आज्ञा से महाकाल वन में

आया और शिवलिंग का पज
ू न किया। भगवान शंकर प्रसन्न हुए और आकाशवाणी हुई कि राजा तम

निष्पाप हो। जो हुआ वह भाग्य के कारण हुआ। तम


ु वरदान मांगो। राजा ने कहा कि मझ
ु े जन्मों के

बंधन से मक्ति
ु मिलें और मेरी ख्याति रहे । वरदान के कारण शिवलिंग जल्पेश्वर महोदव के नाम से

प्रसिद्ध हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य जल्पेश्वर महादे व का दर्शन पज


ू न करता है उसे धन व

पत्र
ु का वियोग नहीं होता है ।

84 महादे व : श्री केदारे श्वर महादे व(67)


सष्टि
ृ की स्थापना के समय हिम यग
ु से सभी दे वी-दे वता परे शान हो गए और

शीत पीड़ा से परे शान होकर वे ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा के सामने दे वताओं

ने स्तति
ु करते हुए कहा हम हिमाद्रि पर्वत से पीडित होकर आपकी शरण में आए
हैं। यह सन
ु कर ब्रह्मा ने कहा कि हिमालय पर्वत पर तो भगवान शंकर के असरु

रहते हैं। इस परे शानी का हल तो भगवान शंकर ही करें गे। इसके बाद दे वता

भगवान शंकर की शरण में चले गए और अपनी परे शानी बताई। इस पर भगवान

शंकर ने हिमालय को बल
ु ाया और कहा, हे हिमालय तम्
ु हें मर्यादा में रहना चाहिए

तम्
ु हारे कारण दे वताओं तथा गंर्धव को परे शान होना पड़ रहा है । इतना कह कर

भगवान शंकर हिमालय पर क्रोधित होकर लिंग मर्ति


ू रूप में निवास करने लगे।

> साथ ही पर्वत से मंत्रों के उच्चारण से जल की धारा निकली। यहां पर निवास करने के कारण

भगवान शंकर केदारे श्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह सब दे खकर सभी दे वता केदारे श्वर के स्थान पर

प्रस्तत
ु हुए और भगवान को धन्यवाद दिया। कुछ समय बाद वहां धल
ू तथा हिम के कारण अंधकार हो

गया। यात्री केदारे श्वर को इधर-उधर ढूंढने लगे। सभी महादे व की निंदा करने लगे। निंदा सन
ु कर

महादे व ने आकाशवाणी करते हुए कहा कि जो भी मनष्ु य परु ाणों व शास्त्रों की निंदा करते हैं वे नर्क को

प्राप्त होते है । यहां पर सदा केदारे श्वर है परं तु वह आठ माह दिखाई नहीं दें गे। इसलिए मेरे दर्शन अभी

नहीं होगें । अगर तम्


ु हारी इच्छा सदा पज
ू न की है तो मेरे वचनों को ध्यान से सन
ु ो।> क्षेत्रों में उत्तम क्षेत्र

अवंतिकापरु ी है । वहां क्षिप्रा के किनारे सोमेश्वर से पश्चिम में स्थान है केदारे श्वर। जितने माह में

केदारे श्वर में मेरे दर्शन नहीं होगें , उतने समय में यही अवंतिका नगरी में विश्राम करूगां। मान्यता है

कि जो भी मनष्ु य केदारे श्वर महादे व के दर्शन करता है वह सभी पापों से मक्


ु त हो जाता है ।

84 महादे व : श्री पिशाचमक्


ु तेश्वर महादे व(68)
कलियग
ु में सोमा नाम का शद्र
ू हुआ करता था। धनवान होने के साथ ही सोमा

नास्तिक था। वह हमेशा वेदों की निंदा करता था। उसको संतान नहीं थी। सोमा

हमेशा हिंसावत्ति
ृ में रहकर अपना जीवन व्यतीत करता था। इसी स्वभाव के

कारण सोमा कष्ट के साथ मरण को प्राप्त हुआ। इसके बाद सोमा पिशाच्य योनि

को प्राप्त हुआ। नग्न शरीर और भयावह आकृति वाला पिशाच मार्गो पर खड़े

होकर लोगों को मारने लगा। एक समय वेद विद्या जानने वाले सदा सत्य बोलने

वाले कहीं जा रहे थे, पिशाच उनको खाने के लिए दौड़ा। तभी ब्राह्मण को दे खकर
पिशाच रूक गया और संज्ञाहीन हो गया। पिशाच को कुछ समझ नहीं आ रहा था

कि उसके साथ हो क्या रहा है ।

ब्राह्मण ने पिशाच से पछ
ू ा तम
ु मझ
ु से घबरा क्यों रहे हो। पिशाच ने कहा तम
ु ब्रह्म राक्षस हो इसलिए

मझ
ु े तम
ु से भय लग रहा है । यह सब सन
ु कर ब्राह्मण हं सने लगे और पिशाच को पिशाच्य योनि से

मक्
ु त होने का मार्ग बताया। उन्होंने कहा द्रव्य हरण करने और दे वता के द्रव्य को चरु ाने वाला

पिशाच्य योनी को प्राप्त होता है । ब्राह्मण के कटु वचनों को सन


ु कर पिशाच ने मक्ति
ु का मार्ग पछ
ू ा।

ब्राह्मण ने बताया कि सब तीर्थो में उत्तम तीर्थ है अवंतिका तीर्थ जो प्रलय में अक्षय रहती है । वहां

पिशाच्य का नाश करने वाले महादे व है । ढूंढेश्वर के दक्षिण में दे वताओं से पजि
ू त पिशाचत्व को नाश

करने वाले महादे व है । ब्राह्मण के वचनों को सन


ु कर वह जल्दी से वहां से महाकाल वन की ओर चल

दिया। वहां क्षिप्रा के जल से स्नान कर उसने पिशाच मक्


ु तेश्वर के दर्शन किए।> > दर्शन मात्र से

पिशाच दिव्य दे व को प्राप्त हो गया। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य पिशाच मक्


ु तेश्वर महादे व का

दर्शन-पज
ू न करता है उसे धन और पत्र
ु का वियोग नहीं होता तथा संसार में सभी सख
ु ों को भोगकर

अंतकाल में परमगति को प्राप्त करता है ।

84 महादे व : श्री संगमेश्वर महादे व(69)


बहुत परु ानी बात है । कलिंग दे श में सब
ु ाहू नाम के राजा हुआ करते थे। उनकी

पत्नी कांचीपरु ी के राजा दृढधन्वा की कन्या विशालाक्षी थी। दोनों परस्पर प्रेम से
रहते थे। राजा को माथे में दोपहर में रोज पीड़ा हुआ करती थी। निपण
ु वैद्यों ने

औषधियां दी किन्तु पीड़ा दरू नहीं हुई। रानी ने राजा से पीड़ा का कारण पछ
ू ा।

राजा ने रानी को दख
ु ी दे खकर कहा, पर्व
ू जन्म के कर्म से शरीर को सख
ु -दख
ु हुआ

करता है । इतना सन
ु ने के बाद भी रानी संतष्ु ट नहीं हुई। तब राजा ने कहा मैं

इसका कारण यहां नही कहूंगा। महाकाल वन में चलो वहां परू ी बात समझा

सकंू गा। सब
ु ह होते ही राजा सेना ओर रानी के साथ महाकाल वन अंवतिका नगरी

की ओर चल दिए।

पाताल में गमन करने वाली गंगा तथा नीलगंगा और क्षिप्रा का जहां संगम हुआ है वहां ठहरा। इनके

पास जो महादे व है उनका नाम संगमेश्वर है । राजा ने क्षिप्रा तथा पाताल गंगा का जल लेकर महादे व

का पज
ू न किया। इतना सब दे खकर रानी ने फिर पछ
ू ा राजन अपने दख
ु का कारण बताइए। राजा ने

हं सते हुए कहा रानी आज तो थक गए है कल बताएंगे। सब


ु ह रानी ने फिर पछ
ू ा कि अब तो बता

दीजिए। तब राजा ने कहा पर्व


ू जन्म में मैं नीच शद्र
ु था। वेदों की निंदा करने के साथ लोगों के साथ

विश्वासघात करता था। तम


ु भी मेरे साथ इस कार्य में भागीदारी निभाती थी। हमसे जो पत्र
ु उत्पन्न

हुआ वह भी पापी हुआ तथा बारह वर्ष तक अनावष्टि


ृ के कारण प्राणी मात्र दख
ु ी हो गए भयभीत रहने

लगा। उस समय मझ
ु े वियोग हो गया। मैं अकेला रहने लगा। तब मझ
ु े वैराग्य प्राप्त हुआ और अंत में

मैंने कहा धर्म ही श्रेष्ठ है । पाप करना बरु ा है ।

मैने अंत समय में धर्म की प्रशंसा की थी इसलिए क्षिप्रा जी में मत्स्य बना और तम
ु उसी वन में श्येनी

(कबत
ू री) बन गई। एक दिन दोपहर को अश्लेषा के सर्य
ू (श्रावण) में त्रिवेणी से बाहर निकला और तम्
ु हें

लेकर संगमेश्वर के पास ले गया। पारधि ने हम दोनों का शिकार कर लिया। हमने अंत समय में

संगमेश्वर के दर्शन किए थे, इसलिए पथ्


ृ वी पर जन्म मिला है । सारी बातें बताकर राजा ने कहा रानी

अब मैं हमेशा संगमेश्वर महादे व के पास रहुंगा। रानी यदि तम्


ु हे जाना हो तो पन
ु ः राजमहल लौट

जाओ। रानी ने कहा राजन जैसे शिव बिना पार्वती, कृष्ण बिना राधा ठीक उसी प्रकार मैं आपके बिना
अधरू ी हूं। मान्यता है कि पर्व
ू जन्मों में वियोग से मरे हुए पति पत्नी संगमेश्वर महादे व के दर्शन से

मिल जाते हैं

84 महादे व : श्री दर्ध


ु रे श्वर महादे व(70)

नेपाल में एक राजा दर्ध


ु र्ष था। उसकी तीन रानियां थी। एक समय मग
ृ या करते हुए वह एक

तालाब पर पहुंचा। वहां उसे एक संद


ु र कन्या दिखाई दी। वे दोनों एक-दस
ू रे पर मोहित हो

गए। उसने कन्या से उसका परिचय पछ


ू ा। कन्या ने कहा वह कल्प मनि
ु की कन्या है ।

आप मनि
ु के पास जाकर मेरा हाथ मांगो। राजा ने वैसा ही किया। कल्प मनि
ु ने कन्या का

राजा से विवाह करा दिया। राजा वहीं मनि


ु के आश्रम में रहने लगे। कुछ दिन बाद एक

राक्षस उस कन्या को हरकर ले गया। राजा बहुत दःु खी हुआ। मनि


ु ने उसे समझाया और

अवंतिकापरु ी में ब्रह्मेश्वर के पश्चिम में स्थित लिंग के पज


ू न की सलाह दी।

राजा तरु ं त अवंतिका नगरी आया और उसने वैसा ही किया जैसा मनि
ु ने कहा था। शिवलिंग की पज
ू ा

करते ही उसे मंदिर में उसकी स्त्री प्राप्त हो गई। तब राजा उसे लेकर नेपाल चला गया। दर्ध
ु र्ष राजा के
पज
ू न करने से इस शिवलिंग का नाम दर्ध
ु रे श्वर के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो मनष्ु य

रविवार की संक्रांति पर इस शिवलिंग का पज


ू न करता है उसे शिवलोक प्राप्त होता है

84 महादे व : श्री प्रयागेश्वर महादे व(71)


काफी समय पहले एक राजा थे शांतन।ु धर्मात्मा और वेदों को जानने वाले राजा शांतनु

एक दिन सेना के साथ शिकार करने लिए वन में गए। वहा एक स्त्री को दे खा। राजा ने

उससे परिचय पछ
ू ा तो स्त्री ने कहा कि राजन आप मेरा परिचय न पछ
ू ें , आप जो चाहते हैं

उसके लिए मैं तैयार हूं। इसके लिए उसने एक शर्त रखी की वह रानी बनने के बाद जो भी

करें राजा कभी उससे उस बारे में कुछ नहीं पछ


ू े गा। राजा ने स्वीकृति दी ओर स्त्री से

विवाह कर लिया। विवाह के बाद रानी ने एक पत्र


ु को जन्म दिया और तरु ं त नदी में

प्रवाहित कर दिया। वचन के कारण राजा रानी से प्रश्न न पछ


ू सका। आठवें पत्र
ु को रानी

नदी में प्रावाहित करने जा रही थी, तभी राजा ने रानी को रोका और कहा कि तम
ु इस पत्र

को नदी में प्रवाहित मत करो। रानी ने कहा कि आपको पत्र


ु चाहिए मैं आपको पत्र
ु सौपती हूं

और वचन को तोड़ने के कारण मैं आपका त्याग करती हूं। मै जन्हू की कन्या गंगा हूं और

दे वताओं के कार्य सिद्ध करने के लिए मैंने आपसे विवाह किया था। यह आठ वसु है जो

वशिष्ठ ऋषि के श्राप के कारण मनष्ु य योनि में आए थे। गंगा वहां से आगे जाकर पत्र

हत्या के पाप के कारण रूदन करने लगी। गंगा के रूदन को सन


ु कर नारद मनि
ु आए और

रूदन का कारण पछ
ू ा। गंगा ने कहा महर्षि मैंने पत्र
ु ों की हत्या की है । मझ
ु े इस पापकर्म से

मक्ति
ु कैसे मिलेगी। नारद मनि
ु ने कहा गंगा तम
ु अवंतिका नगरी में जाओं जहां तम्
ु हारी

सखी क्षिप्रा रहती है ।

वहां दर्धे
ु श्वर महादे व के दक्षिण में स्थित महादे व का पज
ू न करो, जिससे तम्
ु हारे सभी पाप नष्ट हो

जाएंगे। गंगा अवंतिका नगरी आई ओर सखी क्षिप्रा के साथ मिलकर भगवान शिव का पज
ू न किया।

फिर वहां सर्य


ू की पत्र
ु ी यमन
ु ा ओर फिर सरस्वती भी आ मिली। इस बीच इंद्र ने नारद मनि
ु से पछ
ू ा कि

मनि
ु वर प्रयाग नजर नहीं आ रहा तो नारद ने कहा कि वह महाकाल वन में गया होगा, जहां चार

नदियों का मिलन हो रहा है । प्रयाग के बाद इन चार नदियों के मिलन के कारण शिवलिंग प्रयागेश्वर

महादे व के नाम से विख्यात हुए। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य प्रयागेश्वर महोदव के दर्शन-पज


ू न

करता है उसके सभी पापों का नाश होता है और मोक्ष को प्राप्त करता है ।


84 महादे व : श्री चन्द्रादित्येश्वर महादे व(72)
सालों पहले एक दै त्य था शंबरासरु । उसने यद्
ु ध में दे वताओं को जीत लिया और स्वर्ग पर

राज्य शरू
ु कर दिया। यद्
ु ध में हारे दे वता छिप गए, वही चंद्र ओर सर्य
ू भी भय के कारण

भागने लगे। चंद्र के पत्र


ु अरूण, पिता चंद्र को राहु से यद्
ु ध के दौरान दस
ू रे स्थान पर ले

गया। सर्य
ू और चंद्र वहां से भगवान विष्णु के पास गए और स्तति
ु कर रक्षा की प्रार्थना की,

भगवान विष्णु ने उनकी स्तति


ु से प्रसन्न होकर उनसे कहा कि तम
ु महाकाल वन में जाओ

और महाकालेश्वर के उत्तर में स्थित शिवलिंग का पज


ू न करो, उनकी ज्वाला से शंबरासरु

अपनी सेना के साथ जलकर भस्म हो जाएगा। सर्य


ू -चंद्र दोनों महाकाल वन में आए और

शिवलिंग का पज
ू न किया।

> शिवलिंग से निकली ज्वाला से शंबरासरु सेना सहित नष्ट हो गया और स्वर्ग पर फिर दे वता

आसीन हो गए। तभी आकाशवाणी हुई कि चंद्र व सर्य


ू के साहस तथा यहां स्तति
ु करने के कारण

शिवलिंग चंद्रादित्येश्वर के नाम से विख्यात होगा।

मान्यता है कि जो भी मनष्ु य शिवलिंग के दर्शन कर पज


ू न करता है उसके

माता-पिता के कुल में सभी पवित्र हो जाते हैं व चंद्र व सर्य


ू लोक में निवास

करते हैं। इनका मंदिर महाकाल मंदिर के सभागह


ृ में शंकराचार्य जी के

कमरे में है ।

84 महादे व : श्री करभेश्वर महादे व(73)


कई वर्ष पर्व
ू अयोध्या में एक राजा थे वीरकेत।ु एक बार वे वन में शिकार करने के लिए गए। वहां

उन्होंने कई जंगली जानवरों का शिकार किया। फिर उन्हें कोई पशु नजर नहीं आया। अचानक उन्हें

एक करभ (ऊंट) नजर आया ओर उन्होंने उसे तीर मार दिया। वह ऊंट तीर लगने के बाद वहां से
भागा। राजा वीरकेतु उसके पीछे भागे। कुछ दे र बाद ही वह ऊंट गायब हो गया। राजा भटकते हुए

मनि
ु यों के आश्रम में पहुंच गए। ऋषियों ने राजा वीरकेतु से कहा राजन काफी वर्ष पर्व
ू राजा हुआ करते

थे, जिनका नाम धर्मध्वज था। एक बार वे शिकार करने के लिए वन में गए वहां उन्होंने मग
ृ चर्म पहने

ब्राह्मण का उपहास उड़ाया।

> इस पर ब्राह्मण ने राजा को श्राप दिया कि वह करभ योनि में चले जाएं। राजा ने दख
ु ी होकर

ब्राह्मण से विनती की तो ब्राह्मण ने कहा कि अयोध्या के राजा वीरकेतु के बाण से घायल होकर तम

महाकाल वन में स्थित शिवलिंग का दर्शन करना उससे तम्


ु हें उं ट की योनि से मक्ति
ु मिलेगी और तम

शिवलोक को प्राप्त करोगे। राजन वह ऊंट महाकाल वन में गया है तम


ु भी वहां जाओ। उस शिवलिंग

के दर्शन कर चक्रवर्ती सम्राट हो जाओगे। राजा तरु ं त महाकाल वन आया। यहां उसने धर्मध्वज को एक

विमान से शिवलोक जाते दे खा। फिर शिवलिंग का पज


ू न कर चक्रवर्ती सम्राट हुआ। ऊंट के मक्ति

प्राप्त करने के कारण शिवलिंग करभेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ।

मान्यता है कि जो भी मनष्ु य करभेश्वर महादे व के दर्शन करता है वह धनवान

होता है , उसे कोई व्याधि नहीं होती है उसके कोई पित ृ पश


ु योनी में हैं तो उन्हें

मक्ति
ु मिलती है । अंतकाल में मनष्ु य शिवलोक को प्राप्त करता है । यह मंदिर

भैरवगढ़ में काल भैरव मंदिर के सामने है ।

84 महादे व : श्री राजस्थलेश्वर महादे व(74)


काफी वर्ष पर्व
ू पथ्
ृ वी पर कोई राजा नहीं बचा था। ब्रह्मा को चिंता हुई राजा नहीं हुआ तो प्रजापालन

कौन करे गा। यज्ञ, हवन, धर्म की रक्षा कौन करे गा। इस दौरान उन्होंने राजा रिपंज
ु य को तपस्या करते

दे खा और उससे कहा कि राजा अब तपस्या त्याग कर प्रजा का पालन करो। सभी दे वता तम्
ु हारे वश में
रहें गे और तम
ु पथ्
ृ वी पर राज करोगे। राजा ने ब्रह्मा की आज्ञा मानकर सभी दे वतओं को स्वर्ग में राज

करने के लिए भेज दिया और स्वयं पथ्


ृ वी पर शासन करने लगा। राजा के प्रताप को दे ख इंद्र को ईर्ष्या

हुई और उसने वष्टि


ृ बंद कर दी, तब राजा ने वायु का रूप धर इसका निवारण किया। इंद्र ने अग्नि का

रूप लेकर यज्ञ, हवन प्रारं भ कर दिए। एक बार भगवान शंकर माता पार्वती के साथ भ्रमण करते हुए

अंवतिका नगरी पहुंचे। राजा रिपंज


ु य ने उनकी आराधना कर उनसे वरदान में राजस्थलेश्वर के रूप में

वहीं निवास करने की इच्छा प्रकट की।

राजा की भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उसे वरदान दे दिया। तभी से भगवान शंकर राजस्थलेश्वर

महादे व के रूप में अंवतिका नगरी में विराजित हैं ।

मान्यता है कि जो भी मनष्ु य राजस्थलेश्वर महादे व का पज


ू न करता है उसके सभी

मनोरथ पर्ण
ू होते हैं और उसके शत्रु का नाश होता है । उसके वंश में वद्
ृ धि होती है तथा

मनष्ु य पथ्
ृ वी पर सभी सख
ु ों का भोग कर अंतकाल में परमगति को प्राप्त करता है । इनका

मंदिर भागसीपरु ा में आनंद भैरव के समीप गली में स्थित है ।

84 महादे व : श्री बड़लेश्वर महादे व(75)


कुबेर के एक मित्र थे, जिनका नाम था मणिभद्र। उनका एक पत्र
ु था बड़ल, जो

अत्यंत रूपवान व बलिष्ठ था। एक बार वह कुबेर के बगीचे में नलिनी नामक

संद
ु री के पास गया। वहां पहुंचने पर बड़ल को नलिनी की रक्षा करने वाले रक्षकों

ने रोका तो बड़ल ने अपने बल से सभी को मारकर भगा दिया। सभी कुबेर पास

पहुंचे जहां मणिभद्र भी बैठा था। उन्होंने बड़ल की परू ी बात बता दी। मणिभद्र ने

नलिनी से दव्ु यवहार करने के कारण बड़ल को श्राप दिया कि उसका पत्र
ु नेत्रहीन

होकर क्षयरोग से पीडित होगा। श्राप के कारण बड़ल पथ्


ृ वी पर गिर पड़ा। इसके

पश्चात मणिभद्र बड़ल के पास आए और उससे कहा कि मेरा श्राप खाली नहीं

जाएगा।

अब तम
ु अंवतिका नगरी में स्वर्गद्वारे श्वर के दक्षिण में स्थित शिवलिंग के दर्शन करो। दर्शन मात्र से

तम्
ु हारा उद्धार होगा। मणिभद्र पत्र
ु बड़ल को लेकर अवंतिका नगरी में आए और यहां बड़ल ने

शिवलिंग के दर्शन किए तथा उनके स्पर्श करने से उसका क्षय रोग दरू हो गया और वह पर्व
ू की तरह
रूपवान ओर नेत्रों वाला हो गया। बड़ल के यहां दर्शन-पज
ू न के कारण शिवलिंग बड़लेश्वर महादे व के

नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य बड़लेश्वर महादे व के दर्शन-पज


ू न करता है वह

पथ्
ृ वी पर सभी सख
ु ों को भोग कर मोक्ष को प्राप्त करता है । इनका मंदिर भैरवगढ़ में सिद्धवट के

सामने है ।

84 महादे व : श्री अरुणेश्वर महादे व(76)

प्रजापिता ब्रह्मा की दो कन्या थी एक का नाम था कद्र ु ओर दस


ू री विनता। दोनों

का विवाह कश्यप मनि


ु से किया गया। कश्यप मनि
ु भी दो पत्नी पाकर प्रसन्न

थे। एक दिन दोनों ने कश्यप मनि


ु से वरदान प्राप्त किया। कद्र ु ने सौ नाग पत्र
ु ों की

माता होने ओर विनता ने दो पत्र


ु जो नाग पत्र
ु ों से भी अधिक बलवान हो, ऐसा वर

प्राप्त किया। एक समय दोनों कन्याएं गर्भवती हुई। इस बीच कश्यप मनि
ु वन में

तपस्या करने के लिए चले गए। कद्र ु ने 100 नाग पत्र


ु ों को जन्म दिया। दस
ू री
ओर विनता को दो अण्डे हुए, जिसे उसने एक पात्र में रख दिया। 500 वर्ष बीत

जाने के बाद भी विनता को पत्र


ु की प्राप्ति नहीं हुई तो उसने एक अंडे को फोड़

दिया।

दे खा कि उसमें एक बालक है जिसका धड़ व सिर है परं तु पैर नहीं है । क्रोध में आकर बालक अरुण ने

अपनी माता को श्राप दिया कि लोभवश परू ा निर्मित होने के पर्व


ू ही आपने मझ
ु े बाहर निकाला है

इसलिए मैं श्राप दे ता हुं कि आप दासी होगी ओर दस


ू रा बालक 500 वर्ष बाद उसे दासी जीवन से मक्
ु त

कराएगा। श्राप दे ने के बाद बालक अरूण रूदन करने लगा कि उसने अपनी माता को श्राप दिया।

उसका रूदन सन
ु कर नारद मनि
ु वहां आए और अरुण से कहा कि अरूण जो कुछ हुआ है वह परमात्मा

की इच्छा से हुआ है । तम
ु महाकाल वन में जाओ। वहां उत्तर दिशा में स्थित शिवलिंग के दर्शन-पज
ू न

करों। अरुण महाकाल वन में आया। शिवलिंग का पज


ू न किया। शिव ने उसकी आराधना से प्रसन्न

ू का सारथी बनने का वरदान दिया।> > कश्यप


होकर उसे सर्य मनि
ु के पत्र
ु अरुण के पज
ू न

करने के कारण शिवलिंग अरुणेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता

है कि जो भी मनष्ु य अरुणेश्वर के दर्शन करता है उसके पित ृ को मोक्ष की प्राप्ति

होती है । इनका मंदिर रामघाट में पिशाच मक्


ु तेश्वर के पास राम सीढ़ी के सामने

है

84 महादे व : श्री पष्ु पदन्तेश्वर महादे व(77)


काफी समय पहले एक ब्राह्मण था तिमि। उसके कोई पत्र
ु नहीं था। उसने कई प्रकार से

भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की। शिव के प्रसन्न न होने पर उसने और

भी अधिक कठोर तप प्रांरभ कर दिया, इस प्रकार 12 वर्ष बीत गए। एक दिन माता पार्वती

ने भगवान शंकर को कहा कि यह तिमि नामक ब्राह्मण कई वर्षों से आपकी आराधना कर

रहा है । उसके तेज से पर्वत प्रकाशमान है । समद्र


ु सखू रहा है । आप उसकी कामना की पर्ति

करें । पार्वती की बात मानकर शिव ने अपने गणो को बल


ु ाया और कहा कि तम
ु में से कोई

एक ब्राह्मण के यहां पत्र


ु रूप में जन्म लो। इस पर शिव के एक गण पष्ु पदं त ने कहा कि

प्रभु कहां पथ्


ृ वी पर जन्म लेकर दख
ु भोगें गे हम आपके पास कुशल से हैं। शिव ने क्रोध में

कहा कि तम
ु ने मेरी आज्ञा नहीं मानी अब तम
ु ही पथ्
ृ वी जाओ।

शिव के श्राप के कारण पष्ु पदं त पथ्


ृ वी पर गिर पड़ा। शिव ने दस
ू रे गण वीरक से कहा वीरक तम

ब्राह्मण के घर जन्म लो, मैं तम्


ु हारी सभी मनोकामनाएं पर्ण
ू करूंगा। पत्र
ु पाकर ब्राह्मण प्रसन्न हुआ।

दस
ू री ओर पष्ु पदं त रूदन करने लगा कि उसने शिव की आज्ञा नहीं मानी। तब पार्वती ने उससे कहा

कि पष्ु पदं त तम
ु महाकाल वन के उत्तर में महादे व है उनका पज
ू न करो। शिव ने भी पप्ु पदं त को
शिवलिंग की उपासना करने की आज्ञा दी। पष्ु पदं त महाकाल वन गया। वहां शिवलिंग के दर्शन कर

पज
ू न किया। उसके पज
ू न से शिव प्रसन्न हुए। अपनी गोद में बैठाया। उसे उत्तम स्थान दिया।

पष्ु पदं त के पज
ू न करने के कारण शिवलिंग पष्ु पदं तश्े वर के नाम से विख्यात हुआ।

मान्यता है कि जो भी मनष्ु य पष्ु पदं तश्े वर के दर्शन करे गा उसके कुल में सात कुलों का

उद्धार होगा। अंतकाल में शिवलोक को प्राप्त करे गा। यह मंदिर तेली की धर्मशाला के

पास एक गली में है

84 महादे व : श्री अभिमक्


ु तेश्वर महादे व(78)
शाकल नाम के नगर में राजा थे, चित्रसेन। उनकी रानी का नाम था चन्द्रप्रभा। राजा-रानी

दोनों रूपवान थे। उनकी एक पत्र


ु ी हुई वह भी अत्यंत संद
ु र थी, इस कारण राजा ने उसका

नाम रखा लावण्यावती। लावण्यावती को पर्व


ू जन्म की बातें याद थी। लावण्यावती यव
ु ा हुई

तो राजा ने उसे बल
ु ाया व कहा कि बताओ बेटी में तम्
ु हारा विवाह किससे करूं? राजा की

बात सन
ु कर लावण्यावती कभी रोती तो कभी हं सने लगती। राजा ने उसका कारण पछ
ू ा तो

उसने कहा कि पर्व


ू जन्म में वह प्राग्ज्योतिषपरु में हरस्वामी की स्त्री थी। रूपवान होने के

बाद भी उसके पति ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उससे क्रोधित रहते थे। एक बार वह

अपने पिता के घर गई, उन्हें परू ी बात बताई। उसके पिता ने उसे अभिमंत्रित वस्तए
ु ं तथा

मंत्र दिए, जिससे उसका पति उसके वश में हो गया। पति के साथ सख
ु ी जीवन जीने के बाद

उसकी मत्ृ यु हो गई पर वह नरक को प्राप्त हुई। यहां तरह-तरह की यातनाएं भोगने के बाद

पापों का कुछ नाश करने के लिए वह एक चांडाल के घर उसका जन्म हुआ।

यहां संद
ु र रूप पाने के बाद उसके शरीर पर फोड़े हो गए ओर जानवर उसे काटने लगे। उनसे बचने के

लिए वह भागी ओर महाकाल वन पहुंच गई। यहां उसने भगवान शिव व पिप्लादे श्वर के दर्शन किए।

दर्शन के कारण उसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई। स्वर्ग में दे वताओं के साथ रहने के कारण मेरा आपके यहां

जन्म हुआ है । कन्या ने राजा से कहा कि इस जन्म में भी मैं अवंतिका नगरी में शिव के दर्शन करूंगी।

राजा अपनी सेना के साथ महाकाल वन आया और कन्या व रानी के साथ शिवजी के दर्शन किए।

लावण्यावती यहां शिवलिंग के दर्शन-पज


ू न कर दे ह त्याग कर शिव में समाहित हो गई।

पार्वती जी ने शिवलिंग को अभिमक्


ु तेश्वर नाम दिया। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य

अभिमक्
ु तेश्वर महोदव के दर्शन-पज
ू न करता है उसकी मक्ति
ु अवश्य होती है । उसे मत्ृ यु

का भय नहीं होता है । यह मंदिर सिंहपरु ी के मंगलनाथ मंदिर के पास स्थित है ।

84 महादे व : श्री हनम


ु ंत्केश्वर महादे व(79)
भगवान राम ने धरती से रावण व अन्य राक्षसों का वध कर दिया और वे अयोध्या में राज्य

करने लगे। तब कुछ ऋषि-मनि


ु उनके दर्शन के लिए उनके राज्य में उपस्थित हुए। मनि
ु यों

ने भगवान राम के सामने प्रस्तत


ु होकर उनकी आराधना की। उनका गण
ु गान किया।

मनि
ु यों ने कहा कि आपने रावण के कुल का नाश किया, इसमें आपका हुनमान ने सहयोग

किया। वानरों ने उस यद्


ु ध को साक्षात दे खा। तब भगवान राम ने कहा कि मनि
ु यों आपने

हनम
ु ान के पराक्रम का वर्णन किया परं तु लक्ष्मण ने भी यद्
ु ध किया तथा मेघनाथ का वध

किया। इस पर मनि
ु यों ने कहा कि हनम
ु ान का पराक्रम सभी के पराक्रम से विशाल है ।

राम ने कारण पछ
ू ा तो मनि
ु यों ने कहा कि हनम
ु ान जब बाल रूप में थे तब एक बार में सर्य
ू को फल

समझकर खाने के लिए निकल गए थे। इंद्र ने अपने वज्र से उन पर प्रहार किया, जिससे उनके होंठ पर

चोट आई और वे एक पर्वत पर गिर पड़े। वायु दे व उन्हें लेकर महाकाल वन आए और यहां शिवलिंग

के सामने भगवान शंकर की आराधना करने लगे। शिवलिंग के स्पर्श करने से हनम
ु ान जीवित हो उठे ।

इस दौरान यहां सभी दे वता आए और हनम


ु ान को वरदान दिया। ऋषियों के श्राप के कारण हनम
ु ान

अपना बल भल
ू गए थे। समद्र
ु लांघने के समय जामवंत ने हनम
ु ान को उनका बल याद दिलाया था।

हनम
ु ान के शिवलिंग के स्पर्श व रावण वध के बाद पज
ू न के कारण शिवलिंग हनम
ु ंत्केश्वर महादे व के

नाम से विख्यात हुए।> > मान्यता है कि जो भी मनष्ु य इस शिवलिंग का पज


ू न करता है उसकी

मनोकामनाएं पर्ण
ू होती है । इन का मंदिर ओखलेश्वर जाने वाले मार्ग पर स्थित है ।

84 महादे व : श्री स्वप्नेश्वर महादे व(80)


काफी समय पहले कल्माशपाद नाम के एक राजा हुआ करते थे। एक बार उन्होंने वन में वशिष्ठ मनि

के पत्र
ु व बहू को दे खा। उस समय उनका पत्र
ु ध्यान में बैठा हुआ था। राजा ने मनि
ु से कहा कि रास्ते से

हट जाओ परं तु मनि


ु ने नहीं सन
ु ा, तो राजा ने क्रोध में आकर मनि
ु पर चाबक
ु से प्रहार करना शरू
ु कर

दिया। यह दे ख वशिष्ठ मनि


ु के दस
ू रे पत्र
ु ने राजा को श्राप दिया कि राजा तू राक्षस होगा और परु
ु षों

का भक्षण करे गा। राजा ने अपनी गलती की क्षमा मांगी परं तु उसे माफी नहीं मिली। राजा वशिष्ठ

मनि
ु के पत्र
ु ों व बहू को खा गया। रात को राजा को कई बरु े स्वप्न आए। उसने सब
ु ह मंत्री को बताया।

मंत्री राजा को लेकर वशिष्ठ मनि


ु के पास आया।

> वशिष्ठ मनि


ु ने राजा से कहा कि राजन आप अंवतिका नगरी में महाकालेश्वर के पास स्थित

शिवलिंग के दर्शन करें , इससे आप के सभी दःु स्वप्न का नाश होगा।

राजा वशिष्ठ मनि


ु के कहे अनस
ु ार अवंतिका नगरी में आया और यहां शिवलिंग का

दर्शन-पज
ू न किया राजा के बरु े सपनों का नाश होने के कारण शिवलिंग स्वप्नेश्वर महादे व

के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है स्वप्नेश्वर महादे व के दर्शन से बरु े सपनों का नाश

होता है । यह मंदिर महाकालेश्वर मंदिर के परिसर में स्थित है ।

84 महादे व : श्री पिंगलेश्वर महादे व(81)


एक बार मां पार्वती ने शिवजी से पथ्
ृ वी पर उत्तम स्थान को दे खने की बात कही।

शिवजी उन्हें महाकाल वन लाए और बताया कि यह स्थान तीनों लोको में

सर्वोत्तम है । पार्वती के कहने पर भगवान शंकर ने चार दिशाओं में चार द्वार

बनाए। द्वारपालों की स्थापना की शिवजी ने पर्व


ू दिशा में पिंगलेश्वर, दक्षिण में

कायवरोहणेश्वर, उत्तर में विश्वेश्वर, ओर पश्चिम में दर्देु श्वर की स्थापना की।

शिव ने गणों को आज्ञा दी की जो भी मनष्ु य इस क्षेत्र में मत्ृ यु को प्राप्त हो वे

उसकी रक्षा करें । इसके बाद भगवन शिव ने पार्वती को पिंगलेश्वर की कथा

बताई।

कान्यकुब्ज नगर में एक कन्या थी जिसका नाम था पिंगला वह अत्यंत संद


ु र थी पिता विपेन्द्र पिंगल

धर्म व वेद के ज्ञाता थे। जब उनकी पत्नी मत्ृ यु को प्राप्त हो गई विपेन्द्र घर छोड़कर बेटी का भी रक्षण

करने लगा एक दिन विपेन्द्र की भी मत्ृ यु हो गई पिता की मत्ृ यु से पिंगला दख


ु ी हो गई ओर रूदन
करने लगी धर्मराज ब्राह्मण का रूप लेकर आए और उसे बताया कि यह दख
ु तम्
ु हें पिछले जन्म के

कर्म के कारण मिल रहा है । पिछले जन्म में भी तम


ु अंत्यत सद
ु ं र थी ओर वैश्यावत्ति
ृ करती थी एक

ब्राह्मण तम्
ु हारे रूप के वशीभत
ू होकर साथ रहता था। तम्
ु हारे साथ रहने के लिए अपनी पत्नी का

त्याग कर दिया था। एक दिन एक शद्र


ू ने घर में उस ब्राह्मण की हत्या कर दी उस ब्राह्मण के

माता-पिता ने तम्
ु हें श्राप दिया की तम
ु पिता वियोग सहोगी ओर पति को प्राप्त नहीं करोगी। पिंगला

ने उनसे पछ
ू ा कि वह ब्राह्मण जन्म मे कैसे हुई धर्मराज ने बाताया कि एक बार वासना से पीडित एक

ब्राह्मण को राजा ने बंधक बना लिया उस ब्राह्मण को तम


ु ने बंधन से छुडाया और घर ले आई उस

ब्राह्मण के साथ रहने के कारण तम्


ु हें इस जन्म में ब्राह्मण का जन्म मिला। पिंगला ने पछ
ू ा अब उसे

मक्ति
ु कैसे प्राप्त होगी। धर्मराज ने बताया कि अवंतिका में महाकाल वन में पर्व
ू दिशा मे शिवलिंग का

दर्शन करो उससे तम्


ु हारी मनोकामना पर्ण
ू होगी। पिंगला महाकाल वन आई और यहां शिवलिंग के

दर्शन कर दे ह को त्याग कर शिवलिंग में लीन हो गई।

पिंगला के मक्ति
ु से शिवलिंग का नाम पिंगलेश्वर हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य

पिंगलेश्वर महादे व के दर्शन करे गा उसके घर में सदा धर्म और धन निवास करें गे और

अंतकाल में स्वर्ग को प्राप्त करे गा। यह मंदिर पिंगलेश्वर गांव में स्थित है । यह मंदिर

द्वारपालेश्वर के नाम से भी जाना जाता है ।

84 महादे व : श्री कायावरोहणेश्वर महादे व(82)


प्रजापति दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव को आंमत्रित न करने पर उमा क्रोधित हो

गई और उन्होंने शक्ति से भद्रकाली माया को उत्पन्न किया दस


ू री और उमा के

यज्ञ में भस्म हो जाने से क्रोधित होकर वीरभद्र को यज्ञ का नाश करने के लिए

भेज दिया भद्रकाली और वीरभद्र ने मिलकर यज्ञ स्थल पर हाहाकर मचा दिया

उन्होंने दे वताओं को प्रताड़ित किया कई दे वता प्रकोप से कायाविहिन हो गए कुछ

दे वता भय के कारण ब्रह्मा की शरण में गए ब्रह्मा कैलाश पर आए और शिव की

स्तति
ु कर दे वताओं को पन
ु ः काया कैसे प्राप्त होगी उसका उपाय पछ
ू ा तब

भगवान शंकर ने कहा, महाकाल वन के दक्षिण द्वार पर स्थित कायावरोहणेश्वर

शिवलिंग के दर्शन करें । यह बात सन


ु कर सभी दे वता महाकाल वन में आए और

शिवलिंग के दर्शन कर आराधना की और काया को प्राप्त किया दे वताओं की

काया प्राप्त करने के कारण शिवलिंग कायावरोहणेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।


मान्यता है कि जो भी मनष्ु य शिवलिंग के दर्शन कर आराधना करता है वह पथ्
ृ वी पर

उत्तम राज सख
ु भोग कर अंतकाल में स्वर्ग में गमन करता है । यह मंदिर करोहन गांव में

स्थित है ।

84 महादे व : श्री बिल्वेश्वर महादे व(83)

एक बार ब्रह्मा ने ध्यान किया उससे कल्पवक्ष


ृ उत्पन्न हुआ। उसके नीचे एक परु
ु ष आराम

कर रहा था। ब्रह्मा आए और उसे बिल्व दिया। ब्रह्मा के जाने के बाद इंद्र वहां आए और

उसे पथ्
ृ वी पर राज करने के लिए कहा। बिल्व प्राप्त परु
ु ष ने कहा, इंद्र का वज्र मिले तो वह

पथ्
ृ वी पर राज करे गा। इंद्र ने उससे कहा कि जब भी तम
ु वज्र का स्मरण करोगे वज्र तम्
ु हारे

पास आ जाएगा । इसके बाद उस परु


ु ष का नाम ही बिल्व हो गया। बिल्व पथ्
ृ वी पर राज

करने लगा। कपिल मनि


ु व राजा बिल्व में मित्रता हो गई। एक बार धर्मवार्ता के दौरान

दोनों झगड़ने लगे। बिल्व ने भगवान विष्णु की उपासना कर वरदान मांगा कि कपिल

उससे डरे । वरदान दे कर विष्णु कपिल मनि


ु के पास गए।
उनसे कहा कि वह बिल्व से कहें वह उससे डरते हैं। कपिल मनि
ु ने मना कर दिया। बिल्व प्रलाप करने

लगा, कपिल उससे डरते नहीं है यह दे ख इंद्र ने कहा, बिल्व तम


ु महाकाल वन में पश्चिम दिशा में

स्थित शिवलिंग के दर्शन करो इससे तम्


ु हें विजय प्राप्त होगी। बिल्व महाकाल वन में आया ओर यहां

आकर उसने शिव के दर्शन कर पज


ू न किया इस बीच कपिल मनि
ु वहां पहुंचे उन्होंने दे खा बिल्व के

शरीर में शिव है तो उन्होंने बिल्व से कहा, तम


ु ने मझ
ु े जीत लिया। मैं अपनी हार मानता हूं। राजा

बिल्व के दर्शन-पज
ू न के कारण शिवलिंग बिल्वेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि

जो मनष्ु य बिल्वेश्वर शिवलिंग के दर्शन करे गा। वह सभी पापों से मक्


ु त होगा। अंतकाल में शिवलोक

को प्राप्त करे गा। यह मंदिर अंबोदिया गांव में है ।

84 महादे व : श्री दर्दुु रे श्वर महादे व(84)


अयोध्या के राजा को वन में एक कन्या मिली। वे उससे विवाह कर उसे राज्य मे

ले आए। उसके मोह में राजा का ध्यान राजकाज से हट गया। राजा के मंत्री ने

संद
ु र वाटिका निर्माण कराकर राजा को वहां उसे रानी के साथ छोड़ दिया। एक

बार रानी वहां बने एक तालाब में स्नान करने गई और फिर वापस नहीं आई। उस

तालाब में दर्दुु र (में ढक) अधिक थे। राजा ने सभी मेढकों को नष्ट करने का आदे श

दे दिया। इस बीच में ढकों का राजा निकलकर आया और कहा मेरा नाम आयु है

ओर जो कन्या है वह उसकी पत्र


ु ी है । उसकी कन्या को नाग लोक का राजा

नागचड़
ू ले गया है । आप उसे याद करें ओर उससे रानी को मांगें। नागचड़
ू ने राजा

को उसकी रानी सौंप दी। नागचड़


ू ने कहा कि उसने गालव ऋषि का उपहास

उड़ाया था इस कारण उसे दर्दुु र होने का श्राप दिया।

उन्होंने कहा जब तम
ु अपनी कन्या इक्श्वाकु कुल के राजा को दान करोगे और महाकाल वन के उत्तर

में स्थित शिवलिंग के दर्शन करोगे तो तम्


ु हें मक्ति
ु मिलेगी। ऐसा करने के बाद वे स्वर्ग को प्राप्त हुए।

दर्दुु र से मक्ति
ु के कारण शिवलिंग दर्दुु रे श्वर महादे व के नाम से विख्यात हुए। मान्यता है कि जो भी

दर्दुु रे श्वर महादे व के दर्शन करे गा उसके पाप नष्ट होंगे। यह मंदिर आगर रोड़ पर जैथल गांव में है ।

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