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ु र धार्मिक यात्राएं
आयोजित होती रहती हैं। कइ तरह की यात्राएं इनमें शामिल हैं जिन्हें स्थानीय
पंचक्रोशी यात्रा
मधक
ु ु ल्या तीर्थ, 15 औखर तीर्थ, 16. कालभैरव तीर्थ, 17. द्वादशार्क तीर्थ, 18.
दशाश्वमेध तीर्थ, 19. अंगारक तीर्थ, 20. खर्गता संगम तीर्थ, 21. ऋणमोचन
तीर्थ, 22. शक्तिभेद तीर्थ, 23 पापमोचन तीर्थ, 24. व्यास तीर्थ, 25. प्रेत मोचन
तीर्थ, 26. नवनदा तीर्थ, 27. मंदाग्नि तीर्थ, 28. पैतामह तीर्थ।
महाकाल यात्रा
यात्रा के दे व
1. कोटे श्वर, 2. महाकाल, 3. कपाल मोचन तीर्थ, 4. कपिलेश्वर, 5.
हनम
ु त्केश्वर, 6. पैपलाध, 7. स्वप्नेश्वर, 8. विश्वतोमश
ु , 9. सोमेश्वर, 10.
वद्
ृ धकालेश्वर, 15. विघ्ननाशक, 16. प्राणीशवल, 17. तनयेश्वर, 18. दं डपाणि,
19. गह
ृ े श्वर, 20. महाकाल, 21. दर्वा
ु सेश्वर, 22. कालेश्वर, 23. वाधिरे श्वर, 24.
यात्रेश्वर।
क्षेत्र यात्रा
नगर प्रदक्षिणा
इस यात्रा के 5 मख्
ु य स्थल हैं-
1. पद्मावती, 2. स्वर्ण श्रंग
ृ ा, 3 अवन्तिका, 4. अमरावती, 5. उज्जयिनी।
नित्य यात्रा
1. शिप्रा स्नान, 2. नाग चन्द्रे श दर्शन, 3. कोटे श्वर दर्शन, 4. श्री महाकालेश्वर
द्वादश यात्रा
सप्तसागर यात्रा
अष्ट महाभैरव
महाभैरव, सिंहपरु ी में , 4. क्षेत्रपाल, सिंहपरु ी में , 5. बटुक भैरव, ब्रह्मपोल में , 6.
आनंद भैरव, मल्लिकार्जुन पर, 7. गौर भैरवगढ़ पर, 8. कालभैरव, भैरवगढ़ पर।
है । इनकी पंचोपचार पज
ू ा करना चाहिए। पज
ू ा या यात्रा के साथ दान का भी महत्व शास्त्रों में बताया
गया है । नौ नारायण भगवान विष्णु के दशावतारों के विभिन्न स्वरूप हैं। ये नौ स्वरूप उज्जैन में ही
विराजित है ।
- परु
ु षोत्तमनारायण : परु
ु षोत्तमनारायण मंदिर हरसिद्घि मंदिर के समीप स्थित है । करीब 200 वर्ष
- अनंतनारायण : अनंतपेठ स्थित अनंतनारायण मंदिर 300 वर्ष से अधिक परु ाना है । यहाँ अधिक
पज
ू ा करने से अनंत सख
ु मिलता है ।
- सत्यनारायण : सत्यनारायण मंदिर ढाबा रोड पर है । लगभग 200 साल परु ाने इस मंदिर में
प्रतिदिन ही श्रद्घालु दर्शनों के लिए पहुँचते हैं। सत्यनारायण के दर्शन करने या यहाँ कथा श्रवण करने
से सख
ु समद्
ृ घि की कामना पर्ण
ू होती है ।
- चतर्भु
ु जनारायण : चतर्भु
ु जनारायण मंदिर भी ढाबा रोड पर ही है । इस प्राचीन मंदिर में भी नौ
नारायण करने वाले यात्रियों की संख्या कम नहीं होगी। इनके दर्शन करने से चारों तरफ ख्याति
मिलती है ।
- शेषनारायण : क्षीरसागर परिक्षेत्र में है शेषनारायण मंदिर। लगभग पाँच सौ वर्ष परु ाने इस मंदिर में
भगवान विष्णु शेषनाग पर विश्राम कर रहे हैं। सामने बैठी माता लक्ष्मी उनके चरण दबा रही है । यहाँ
अद्भत
ु स्वरूप के दर्शन होते हैं।
- पद्मनारायण : पद्मनारायण मंदिर भी क्षीरसागर पर ही है । इस प्राचीन मंदिर में भगवान विष्णु का
- लक्ष्मीनारायण : गुदरी चौराहा पर है लक्ष्मीनारायण मंदिर। कहा जाता है कि यहाँ नियमित दर्शन
या आराधना करने वाले व्यक्ति को किसी बात की कमी नहीं रहती है । मर्ति
ू चमत्कारी है ।
- बद्रीनारायण : बक्षी बाजार में बद्रीनारायण मंदिर है । यह मंदिर भी काफी परु ाना है । नौ नारायण की
एकादश रुद्र
1. कपर्दी, तिलभांडश
े के पास, 2. कपाली, ब्रह्मपोल में , 3. कलानाथ, ओखरे श्वर
पर, 4. वष
ृ ासन, महाकाल में , 5. व्यंबक, ओखरे श्वर में , 6. चीरवासा, महाकाल
में , 7. दिगम्बर जाठ के कुएं पर, 8. गिरीश, कालिका के मंदिर में , 9. कामचारी,
वंद
ृ ावनपरु ा में , 10. शर्व, सर्वांग भष
ू ण तीर्थ पर।
दे वी के स्थान
1. एकानंशा, सिंगपरु ी में , 2. भद्रकाली, चौबीस खंभे पर, 3. अवन्तिका,
महाकालेश्वर में ।
नवदर्गा
ु (अब्दालपरु ा में ), चौंसठ योगिनी (नयापरु ा में )। विंध्यवासिनी (गढ़ पर
खेत में ) अथवा सिंगपरु ी में कालिका के नाम से प्रसिद्ध है । वैष्णवी (सिंगपरु ी में )
पंडित कालरू ामजी त्रिवेदी के मकान में । कपाली, जोगीपरु ा में । छिन्नमस्तिका
अब्दालपरु ा में । वाराही कार्तिक चौक में वाराही माता की गली में । महाकाली,
वाक्य है -
अगस्त्येश्वर महादे व मंदिर उज्जैन में हरसिद्धि मंदिर के पीछे स्थित संतोषी माता मंदिर
परिसर में है । अगस्त्येश्वर महादे व मंदिर की स्थापना ऋषि अगस्त्य, उनके क्षोभ और
दे वतागण पथ्
ृ वी पर भ्रमण करने लगे। एक दिन जब दे वतागण वन में भटक रहे थे तब उन्होंने वहां
सर्य
ू के सामान तेजस्वी अगस्त्य ऋषि को दे खा। ऋषि अगस्त्य को दे वताओं ने दै त्यों से अपनी
भीषण ज्वाला का रूप लिया जिसके फलस्वरूप स्वर्ग से दानव जल कर गिरने लगे। यह दे ख कर
ऋषि, मनि
ु आदि काफी भयभीत हुए और पाताल लोक चले गए। इस घटना ने अगस्त्य ऋषि को
से विनय करने लगे कि दानवों की हत्या से मेरा सब तप क्षीण हो गया है कृपया कोई ऐसा उपाय
बताएं जिससे मझ
ु े मोक्ष प्राप्त ह
ब्रह्मा जी ने कहा कि महाकाल वन के उत्तर में वट यक्षिणी के पास एक बहुत पवित्र शिवलिंग है , वहां
जाकर उनकी पज
ू ा अर्चना कर तम
ु समस्त पापों से मक्
ु त हो सकते हो। ब्रम्हाजी के कहे अनस
ु ार
लोकों में प्रसिद्ध होंगे। तभी से यह शिव स्थान अगस्त्येश्वर नाम से विख्यात हुआ।
अगस्त्येश्वर महादे व की आराधना साल भर में कभी भी की जा सकती है लेकिन श्रावण मास में
इसका अधिक महत्व होता है । साथ ही ऐसा माना जाता है कि अष्टमी और चतर्द
ु शी को जो इस लिंग
का पज
ू न करता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पर्ण
ू होती है और वह मोक्ष को प्राप्त करता है ।
84 महादे व : श्री गह
ु े श्वर महादे व(2)
तत्रास्ते सर्वदा पण्
ु या सप्तकालपोद्भवा गह
ु ा।
उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक गुहेश्वर महादे व का मंदिर रामघाट पर पिशाच मक्
ु तेश्वर
के पास सरु ं ग के भीतर स्थित है । गुहेश्वर महादे व का पौराणिक आधार ऋषि मंकणक, उनके
वेद-वेदांग में पारं गत थे। वे सिद्धि की कामना में हमेशा तपस्या में लीन रहते थे। एक बार वे दे वदारु
वन में तपस्या कर रहे थे उसी दौरान उनके हाथ में कुश का कांटा लग गया किन्तु रक्त के स्थान पर
शाक रस बहने लगा। यह दे ख ऋषि मंकणक अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अभिमान हुआ कि यह
उनकी सिद्धि का फल है । वे गर्व करके नत्ृ य करने लगे। इससे सारे जगत में हाहाकार मच गया
जिसके फलस्वरूप नदियां उल्टी बहने लगी तथा ग्रहों की गति उलट गई। यह दे ख सभी दे वी दे वता
दे वताओं को सन
ु ने के बाद शिवजी ऋषि के पास पहुंचे और उन्हें नत्ृ य करने से मना किया। ऋषि ने
अभिमान के साथ अपनी सिद्धि के बारे में भगवान शिवजी को बताया । इस पर शिवजी ने अपनी
महाकाल वन जाओ, वहां सप्तकुल में उत्पन्न लिंग मिलेगा, उसके दर्शन करो, उसके दर्शन मात्र से
तम्
ु हारा तप बढ़ जाएगा। ऋषि महाकाल वन गए जहां उन्हें वह लिंग एक गुफा के पास मिला। ऋषि ने
लिंग की पज
ू ा-अर्चना की जिसके बाद ऋषि को सर्य
ू के समान तेज प्राप्त हुआ साथ ही उन्होंने कई
दर्ल
ु भ सिद्धियों को भी प्राप्त कर लिया। बाद में वही लिंग गुहेश्वर महादे व के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ऐसा माना जाता है कि इनके दर्शन एवं अर्चन से अहं कार नष्ट होता है एवं सिद्धियों का सदप
ु योग
करने की समर्थता आती है । श्रावण मास के अलावा अष्टमी और चौदस के दिन दर्शन का विशेष
मान्यताओं के अनस
ु ार कैलाश पर्वत पर ढुंढ नामक गणनायक था जो कामी और
आसक्त हो गया। वहां उसने रं भा पर एक पष्ु प गुच्छ फैंक दिया। यह दे खकर इंद्र
जब उसे होश आया तब उसे अपने कृत्य पर क्षोभ हुआ और शाप से मक्ति
ु पाने हे तु उसने महें द्र पर्वत
करता हुआ वह गंगा तट पर पहुंचा। लेकिन तब भी उसे सिद्धि प्राप्त नही हुई जिससे हताश होकर
उसने धर्म कर्म छोड़ने का निर्णय लिया। तभी भविष्यवाणी हुई कि महाकाल वन जाओ और शिप्रा तट
पर पिशाच मक्
ु तेश्वर के पास स्थित शिवलिंग की पज
ू ा करो। इससे तम
ु शाप से मक्
ु त हो जाओगे और
तम्
ु हे पन
ु ः गण पद प्राप्त होगा।
दरू हों और यह लिंग मेरे नाम पर प्रसिद्ध हो। तभी से यह शिवलिंग “ढुंढेश्वर महादे व” के नाम से
विख्यात हुआ।
तब सभी दे वता-ऋषि आदि एकत्रित हुए और असरु वज्रासरु के वध का विचार किया। इसी उद्दे श्य के
साथ दे वताओं और ऋषियों ने मंत्र साधना की। तब तेज प्रकाश के साथ एक ‘कन्या’ उत्पन्न हुई। यह
जानने पर कि वज्रासरु का नाश करना है , उसने अट्टाहास किया जिससे बड़ी संख्या में कन्याएं
और यद्
ु ध स्थल से भागने लगे। यह दे ख वज्रसरु ने तामसी नामक माया का इस्तेमाल किया। माया
से घबराकर वह कन्या उन समस्त कन्याओं के साथ महाकाल वन में आ गईं। वज्रासरु भी अपनी
किया और वे महाकाल वन आए। वहां दानवों की सेना दे खकर उन्होंने अपना भयंकर डमरू बजाया।
डमरू के शब्द से उत्तम लिंग उत्पन्न हुआ, जिससे निकली ज्वाला में वज्रासरु भस्म हो गया। उसकी
सेना का भी नाश हो गया। डमरू से उत्पन्न होने के कारण वह लिंग डमरुकेश्वर कहलाया।
ऐसी मान्यता है कि उज्जैन स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री डमरुकेश्वर महादे व के दर्शन करने से
परु ाणानस
ु ार श्री रूद्र परमात्मा दे वाधिदे व महादे व अनादिकल्पेश्वर महादे व के बारे
में माता पार्वती को बताते हैं। वे कहते हैं यह लिंग कल्प से भी पहले प्रकट हुआ
असरु , गन्धर्व,पिशाच आदि भी नहीं थे। इसी लिंग से दे व, पित,ृ ऋषि आदि के
वंश उत्पन्न हुए हैं। इस लिंग से ही सारा चर-अचर संसार उत्पन्न हुआ है और
पौराणिक आधार:
पौराणिक उल्लेख के अनस
ु ार एक बार ब्रह्मा और विष्णु में यह विवाद हो गया कि उनमें बड़ा कौन है ।
तभी यह आकाशवाणी हुई कि महाकाल वन में कल्पेश्वर नामक लिंग है , उसका आदि या अंत जो
का आदि तथा अंत खोजने लगे। ब्रह्मा ऊपर की ओर तथा विष्णु नीचे की ओर गए। अथक प्रयासों के
बाद भी उन्हें उस लिंग का आदि तथा अंत नहीं दिखा इसलिए यह लिंग अनादिकल्पेश्वर के नाम से
प्रसिद्ध हुआ।
दर्शन लाभ:
कहां स्थित है :
श्री अनादिकल्पेश्वर महादे व मंदिर महाकाल मंदिर परिसर में स्थित है । महाकाल दर्शन को आने वाले
एक समय भगवान शिव और माता पार्वती को सांसारिक धर्म में सलंग्न रहते सौ
अंश का दाह सहन नहीं कर पाए और उन्होंने उस अंश को गंगा में डाल दिया।
फिर भी अंश के शेष रहने पर अग्नि दे व जलने लगे। और फिर अग्नि दे व को अंश
पत्र
ु को पाने के लिए असरु , सरु , गन्धर्व, यक्ष आदि लड़ने लगे। दे वताओं और
वत्त
ृ ांत उन्हें सन
ु ाया। ब्रह्मा उन सभी को लेकर भगवान शिव के पास पहुंचे। तब शिवजी को ज्ञात हुआ
यह पत्र
ु मिला है । तब शिवजी ने अग्निपत्र
ु को गोद में बैठा कर दल
ु ार किया और फिर उसे महाकाल
वन में स्थान दिया। वह स्थान कर्कोटक के दक्षिण में है । वह लिंग ज्वाला समान होने से स्वर्ण
श्री स्वर्णज्वालेश्वर महादे व राम सीढ़ी पर ढुंढेश्वर महादे व के पास स्थित है । मान्यतानस
ु ार श्री
मास और चतर्थी
ु को यहां पज
ू ा करने का विशेष महत्व है ।
है जो महाकाल वन की संद
ु रता और महत्ता दर्शाती है । पौराणिक कथाओं के
अनस
ु ार एक बार दे वऋषि नारद स्वर्गलोक में इंद्र दे व के दर्शन करने गए। वहां इंद्र
दे व ने महामनि
ु नारद से महाकाल वन का माहात्म्य पछ
ू ा। तब नारद मनि
ु ने
कहा महाकाल वन सब तीर्थों में उत्तम तीर्थ है । वहां साक्षात महे श्वर अपने गणों
सहित निवास करते हैं। वहां साठ करोड़ हजार तथा साठ करोड़शत लिंग निवास
यह सन
ु कर इंद्र तथा अन्य दे वता महाकाल वन पहुंचते हैं। वहां पहुंच कर दे वता महाकाल वन को
ब्रह्म लोक तथा विष्णु लोक से भी अधिक श्रेष्ठ पाते हैं। तब वहां आकाशवाणी हुई कि आप सभी
दे वता मिल कर एक लिंग की स्थापना कर्कोटक से परू ब में और महामाया के दक्षिण में करें । यह
सन
ु कर दे वताओं तथा इंद्र ने अपने नाम से त्रिविष्टपेश्वर महादे व की स्थापना की एवं उनका विधिवत
पज
ू न अर्चन किया।
दर्शन लाभ
त्रिविष्टपेश्वर महादे व महाकाल मंदिर में स्थित ओंकारे श्वर मंदिर के पीछे स्थित है । बारह मास
अष्टमी, चतर्द
ु शी तथा संक्रांति के दिन पज
ू न अर्चन करने से विशेष फल प्राप्त होता है ।
उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री कपालेश्वर महादे व की महिमा के साक्षी
स्वयं महादे व हैं। श्री कपालेश्वर महादे व की आराधना कर स्वयं महादे व का ब्रह्म हत्या
किया जा रहा था। वहां ब्राह्मण बैठे थे एवं आहुतियां दे रहे थे। तब शिवजी भस्म धारण कर कपाल
हाथ में लिए हुए विकृत रूप में वहां पहुंचे। उन्हें इस रूप में दे खकर ब्राह्मण अत्यंत क्रोधित हुए और
उनका अनादर किया। तब कापालिक वेष धारण किए शिवजी ने ब्राह्मणों से अनरु ोध किया कि ब्रह्म
हत्या पाप के नाश करने हे तु मैंने कपाल धारण करने का व्रत लिया है । यह व्रत पर्ण
ू होने पर में
अतःमझ
ु े कृपा करके आपके साथ बैठने दें । तब ब्राह्मणों ने उन्हें इंकार कर वहां से जाने के लिए
कहा। इस पर शिवजी ने कहा थोड़ी दे र मेरी प्रतीक्षा करो, मैं भोजन करके आता हूं। तब ब्राह्मणों ने
प्रकट हो गया। ब्राह्मणों ने क्रोधित होकर कपाल को ठोकर मार दी। जिस स्थान पर कपाल गिरा वहां
सैकड़ों कपाल प्रकट हो गए। ब्राह्मणों ने उन कपालों को फिर फेंका तो करोड़ों कपाल हो गए। तब
फिर ब्राह्मणों ने शतरुद्री आदि मन्त्रों से हवन किया। तब महादे व प्रसन्न हुए और ब्राह्मणों से वरदान
मांगने को कहा। तब ब्राह्मणों ने कहा कि अज्ञानतावश हमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है , हमसे ब्रह्म
हत्या हुई है , कृपया दोष का निवारण बताएं। प्रतिक्रिया में महादे व ने कहा कि जिस जगह कपाल को
फैंका है वहां अनादिलिंग महादे व का लिंग है जो समयाभाव से ढं क गया है । उस लिंग का दर्शन करने
शिवजी आगे ब्राह्मणों से कहते हैं कि एक बार ब्रह्मा का पांचवा सिर काट दे ने पर उन्हें ब्रह्म हत्या का
दोष लगा था और ब्रह्मा का मस्तक उनके हाथ में लग गया था। उस दोष ने उनके अन्तःकरण को
क्षोभ से भर दिया था और उस दोष को दरू करने के लिए उन्होंने कई तीर्थ स्थलों की यात्रा की किन्तु
ब्रह्म हत्या दरू नहीं हुई। तब आकाशवाणी ने बताया कि महाकाल वन में गजरूप के पास दिव्य लिंग
है उसकी पज
ू ा करो। तब वे वहां आए और उस दिव्य लिंग के दर्शन करने पर उनके हाथ से ब्रह्मा का
दर्शन लाभ:
चतर्द
ु शी के दिन इस लिंग के पज
ू न का विशेष महत्त्व माना गया है । श्री कपालेश्वर महादे व का मंदिर
अनस
ु ार श्री स्वर्गद्वारे श्वर के पज
ू न अर्चन से इंद्र समेत सभी दे वताओं को स्वर्ग की प्राप्ति
हुई थी।
उनके स्वामी भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी माता सती उस यज्ञ में उपस्थित हुईं।
वहां माता सती ने दे खा कि दक्षराज उनके स्वामी दे वाधिदे व महादे व का अपमान कर रहे थे। यह दे ख
वे अत्यंत क्रोधित हुईं और फलस्वरूप उन्होंने अग्निकुण्ड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। जब
अस्त्र-शस्त्र से यक्
ु त उन गणों का वहां दे वताओं से भीषण संघर्ष हुआ। गणों में से एक वीरभद्र ने इंद्र
को अपने त्रिशल
ू के प्रहार से मर्छि
ू त कर दिया। उसके बाद गणों के सामने दे वताओं की शक्ति क्षीण
होने लगी। गणों से परास्त हो सभी दे वता भगवान श्री विष्णु के पास पहुंचे और मदद के लिए अनरु ोध
किया। दे वताओं की व्यथित दशा दे खकर भगवान विष्णु क्रोधित हुए और और उन्होंने अपने दिव्य
सद
ु र्शन चक्र से गणों पर प्रहार कर दिया। सद
ु र्शन चक्र तीव्रता से गणों को नष्ट करने लगा। फिर
भगवान विष्णु वीरभद्र की तरफ बढ़े और गदा से प्रहार किया किन्तु गणों में उत्तम वीरभद्र शिवजी के
वरदान के कारण नहीं मरा।> > विष्णु भगवान के प्रहार से गण भागने लगे और भगवान शंकर के
भगवान विष्णु सद
ु र्शन चक्र सहित अंतर्ध्यान हो गए। इस प्रकार यज्ञ का विध्वंस हो गया और शिवजी
ने अपने गणों को स्वर्ग के द्वार पर बैठा दिया और आज्ञा दी कि किसी भी दे वता को स्वर्ग में प्रवेश न
दिया जाए। तब सभी दे वता एकत्रित हो ब्रह्माजी के पास गए और अपना शोक प्रकट किया।
दे वताओं ने ब्रह्मा जी से कहा कि कृपया हमें कोई उपाय बताएं ताकि हमें स्वर्ग की प्राप्ति हो सके।
सारी बातें जानकर ब्रह्मा जी ने कहा आप सभी शिवजी की शरण में जाएं और उनकी आराधना कर
आराधना करो। तब इंद्र इत्यादि दे वता महाकाल वन पहुंचे और उस लिंग के दर्शन किए। उस लिंग के
दर्शन मात्र से शिवजी ने स्वर्गद्वार स्थित अपने गणों को हटा लिया और दे वताओं को स्वर्ग की प्राप्ति
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री स्वर्गद्वारे श्वर के दर्शन करने से सम्पर्ण
ू पापों का नाश होता है और स्वर्ग की प्राप्ति
होती है । ऐसी भी मान्यता है कि श्री स्वर्गद्वारे श्वर के दर्शन करने से समस्त भय और चिंताएं दरू
स्वर्गद्वारे श्वर महादे व मंदिर उज्जैन में खण्डार मोहल्ले के पीछे नलियाबाखल के पास स्थित है ।
श्री कर्कोटे श्वर महादे व की स्थापना की कथा कर्कोटक नामक सर्प और उसकी शिव
आराधना से जड़
ु ी हुई है । श्री कर्कोटे श्वर महादे व की कथा में धर्म आचरण की महत्ता दर्शाई
गई है ।
दशा में श्राप दिया कि सारे सर्प जनमेजय के यज्ञ में जलकर भस्म हो जाएंगे। श्राप से भयभीत होकर
कुछ सर्प हिमालय पर्वत पर तपस्या करने चले गए, कंबल नामक एक सर्प ब्रह्माजी की शरण में गया
और सर्प शंखचड़
ू मणिपरु में गया। इसके साथ ही कालिया नामक सर्प यमन
ु ा में रहने चला गया, सर्प
धत
ृ राष्ट्र प्रयाग में , सर्प एलापत्रक ब्रह्मलोक में और अन्य सर्प कुरुक्षेत्र में जाकर तप करने लगे।
फिर सर्प एलापत्रक ने ब्रह्माजी से कहा कि ‘प्रभु कृपया कोई उपाय बताएं जिससे हमें माता के श्राप से
मक्ति
ु मिले और हमारा उद्धार हो। तब ब्रह्माजी ने कहा आप महाकाल वन में जाकर महामाया के
समीप स्थित दे वताओं के स्वामी महादे व के दिव्य लिंग की आराधना करो। तब कर्कोटक नामक सर्प
शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि जो नाग धर्म का आचरण करें गे उनका विनाश नहीं होगा। तभी से उस
लिंग को कर्कोटकेश्वर या फिर प्रचलन के हिसाब से कर्कोटे श्वर के नाम से जाना जाता है ।
दर्शन लाभ:
माना जाता है कि श्री कर्कोटे श्वर महादे व के दर्शन करने से कुल में सर्पों की पीड़ा नहीं होती
चतर्द
ु शी, रविवार और श्रावण मास में दर्शन का विशेष महत्व माना गया है । श्री कर्कोटे श्वर
महादे व उज्जयिनी के प्रसिद्ध श्री हरसिद्धि मंदिर प्रांगण में स्थित है । हरसिद्धि दर्शन
करने वाले लगभग सभी भक्तगण श्री कर्कोटे श्वर महादे व की आराधना कर दर्शन लाभ
लेते हैं।
श्री सिद्धेश्वर महादे व की स्थापना की कथा ब्राह्मणों द्वारा स्वार्थवश सिद्धि प्राप्त करने की दशा में
करने हे तु तप करने लगे। किसी ने शाकाहार से, किसी ने निराहार से, किसी ने पत्ते के आहार से, किसी
ने वीरासन से, आदि प्रकारों से ब्राह्मण तपस्या करने लगे। किन्तु सैकड़ों वर्षों के बाद भी उन्हें सिद्धि
से स्पर्धा करते हुए तप किया है इसलिए आपमें से किसी को भी सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। काम, वासना,
अहं कार, क्रोध, मोह,लोभ आदि तप की हानि करने वाले कारक हैं। इन सभी कारकों से वर्जित होकर
जो तपस्या व दे व पज
ू ा करते हैं उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है ।
सिद्धि के दाता सिर्फ महादे व ही है । उन्हीं की कृपा से सनकादिक दे वता को सिद्धि प्राप्त हुई थी।
इसी लिंग के पज
ू न से राजा वामम
ु न को खंड सिद्धि, राजा हाय को आकाशगमन की सिद्धि, कृतवीर्य
को हज़ार घोड़े, अरुण को अदृश्य होने की, इत्यादि सिद्धियां प्राप्त हुई हैं। उस लिंग की निस्वार्थ
जिससे उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। उसी दिन से वह लिंग सिद्धेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार जो भी मनष्ु य 6 महीने तक नियमपर्व
ू क श्री सिद्धेश्वर का दर्शन करते हैं उन्हें वांछित
उसे शिवलोक प्राप्त होता है । श्री सिद्धेश्वर महादे व उज्जैन में भेरूगढ़ क्षेत्र में स्थित सिद्धनाथ के
मख्
ु य द्वार पर स्थित है । सिद्धनाथ जाने वाले श्रद्धालु यहां आकर दर्शन लाभ लेते हैं।
श्री लोकपालेश्वर महादे व की कथा दे वताओं पर दै त्यों के बढ़ते प्रभत्ु व और फिर उनकी शिव आराधना
द्वारा अनेक दै त्यगण पैदा हुए थे। उन्होंने वन पर्वतों में जा आश्रम नष्ट कर सम्पर्ण
ू पथ्
ृ वी को
उथल-पथ
ु ल कर दिया। यज्ञ नष्ट हो गए। वेदों की ध्वनि बंद हो गई। पिंडदान दे ना बंद हो गए और
पथ्
ृ वी यज्ञ रहित हो गई। तब लोकपाल (दे वतागण) भयभीत होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और
मरु नामा, आदि दै त्यों से हमारी रक्षा की है । कृपा करके इन दै त्यों से भी हमारी रक्षा करें , हम आपकी
शरण में है ।
दस
ू री ओर दै त्य अपना आधिपत्य बढ़ाते जा रहे थे। फिर स्वर्गपरु ी में जाकर उन्होंने इंद्र को, दक्षिण
दिशा में धर्मराज को, पश्चिम दिशा में जाकर जलराज वरुण को और उत्तर दिशा में कुबेर को जीत
लिया। तब भगवान विष्णु ने दे वताओं को व्याकुल दे ख उन्हें महाकाल वन जाने का उपाय बताया।
लोकपाल महाकाल वन पहुंचे लेकिन वहां भी दै त्यों ने उनके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया।
लिंग की स्तति
ु करने लगे जिसके परिणामस्वरूप उस लिंग में से भयंकर ज्वालाएं निकली और
जहां-जहां दानव थे वहां पहुंच कर उन सब दै त्यों को जलाकर भस्म कर दिया। समस्त लोकपालों ने
इस लिंग की स्तति
ु की इसलिए इन्हें लोकपालेश्वर महादे व के नाम से जाना जाता है ।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार यहां दर्शन कर लेने से स्व प्राप्ति होती है । ऐसा भी माना जाता है कि यहां दर्शन करने
से शत्रओ
ु ं पर विजय प्राप्त होती है । यहां दर्शन बारह मास में कभी भी किए जा सकते हैं लेकिन
ब्रह्माजी के पछ
ू ने पर उसने कहा कि आपकी इच्छा से, आपके ही अंश से उत्पन्न हुआ हूं। मझ ु े आज्ञा
दो, मैं क्या करूं? ब्रह्माजी ने कहा कि तम
ु सष्टि
ृ की रचना करो। यह सन
ु कर कंदर्प नामक वह पत्रु
वहां से चला गया, लेकिन छिप गया। यह दे खकर ब्रह्माजी क्रोधित हुए और नेत्राग्नि से नाश का श्राप
दिया। कंदर्प के क्षमा मांगने पर उन्होंने कहा कि तम्
ु हें जीवित रहने हे तु 12 स्थान दे ता हूं, जो कि स्त्री
शरीर पर होंगे। इतना कहकर ब्रह्माजी ने कंदर्प को पष्ु प का धनष्ु य तथा पांच नाव दे कर बिदा किया।
कंदर्प ने इन शस्त्रों का उपयोग कर सभी को वशीभत ू कर लिया। जब उसने तपस्यारत महादे व को
वशीभत ू करने का विचार किया तब महादे व ने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। इससे कंदर्प (कामदे व)
भस्म हो गया। उसकी स्त्री रति के विलाप करने पर आकाशवाणी हुई कि रुदन मत कर, तेरा पति
बिना शरीर का (अनंग) रहे गा।
(अनंग) ने महाकाल वन में शिवलिंग के दर्शन किए और आराधना की। इस पर प्रसन्न होकर महादे व
शक्
ु ल की त्रयोदशी को जो व्यक्ति दर्शन करे गा, वह दे वलोक को प्राप्त होगा।
के लिए स्वयं उस विष को धारण कर लिया। क्षिप्रा मां ने शिव की आज्ञा के उपरांत बिना विष के
फलस्वरूप समद्र
ु में से कई बहुमल्
ू य वस्तओ
ु ं के अलावा विष भी उत्पन्न हुआ। विष की ज्वाला से
दे वताओं, असरु ों के अलावा यक्षगण भी भयभीत हो महादे व की शरण में पहुंचे। उन सभी ने मिलकर
महादे व के समक्ष यह प्रार्थना की कि महादे व हमने अमरत्व प्राप्त करने के लिए समद्र
ु मंथन किया था
लेकिन यहां तो विष उत्पन्न हो गया। कृपया हमारी रक्षा करें । दे वताओं की व्यथा सन
ु भगवान शंकर
ने मोर का रूप धारण कर उस विष को अपने गले में धारण कर लिया। लेकिन वह विष इतना प्रचंड था
में प्रवाहित कर दो। परन्तु गंगा ने असमर्थता जता दी। तब शिवजी ने यमन
ु ा, सरस्वती आदि नदियों
से भी उपर्युक्त प्रार्थना की लेकिन इन नदियों ने भी असमर्थता जता दी। अंततः शिवजी ने क्षिप्रा नदी
से विनय किया कि तम
ु इस विष को ले जाकर महाकाल वन में स्थित कामेश्वर के सामने वाले लिंग
स्थापित कर दिया। विष के प्रभाव से वह लिंग विषमयी हो गया जिसका परिणाम यह हुआ कि जो भी
प्राणी उसका दर्शन करता वह मत्ृ यु को प्राप्त हो जाता। एक बार वहां कुछ ब्राह्मण तीर्थ यात्रा करने
आए। उन्होंने उस लिंग के दर्शन किए और वे भी मत्ृ यु को प्राप्त हो गए। तब तीनो लोकों में हाहाकार
मच गया। महादे व को जब ये पता चला तो वे ब्राह्मणों के पास गए और अपनी दिव्य दृष्टि से उन्हें
जीवित कर दिया। तब उन ब्राह्मणों ने महादे व से विनय की कि हे दे वाधिदे व महादे व, इस लिंग के
दर्शन से लोग मत्ृ यु को प्राप्त होते हैं, कृपया इस दोष का निवारण करें । तब भगवान शिवजी ने कहा
कि जल्दी ही ब्राह्मण लकुलीश वंश के लोग यहां आएंगे, उसके बाद यह लिंग स्पर्श योग्य एवं पज
ू नीय
नाम से जाना जाएगा। तत्पश्चात लकुलीश वंश के ब्राह्मण वहां आए और भगवान शिव का स्मरण
कर उन्होंने उस लिंग का पज
ू न अर्चन किया जिसके बाद वह लिंग विष के प्रभाव से मक्
ु त हो गया।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री कुटुम्बेश्वर महादे व के दर्शन करने से कुटुंब में वद्
ृ धि होती है । साथ ही मनष्ु य रोग
मक्
ु त हो लक्ष्मी को प्राप्त होता है । माना जाता है कि रविवार, सोमवार, अष्टमी एवं चतर्द
ु शी को क्षिप्रा
का फल प्राप्त होता है । चौरासी महादे व में से एक श्री कुटुम्बेश्वर महादे व का मंदिर सिंहपरु ी में स्थित
है ।
श्री इन्द्रद्यम्
ु नेश्वर महादे व की स्थापना की कथा शभ
ु एवं निष्काम कर्म करने एवं पण्
ु यार्जन का
है ।
है । पथ्
ृ वी लोक पर किए गए शभ
ु कर्म ही स्वर्गकारक होते हैं। अच्छे कर्मो से ही पण्
ु य का अर्जन होता है
राजा को महामनि
ु मार्क ण्डेय ऋषि मिले। राजा ने उन्हें प्रणाम किया और पछ
ू ा कि कौन सा तप करने
गन्धर्व आदि राजा की प्रशंसा करने लगे और राजा से कहने लगे कि इस महादे व के पज
ू न से तम्
ु हारी
जाएगा।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार जो भी व्यकि श्री इन्द्रद्यम्
ु नेश्वर महादे व के दर्शन करे गा उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
श्री ईशानेश्वर महादे व की स्थापना की कहानी बरु ाई पर अच्छाई की जीत का माहात्म्य दर्शाती है कि
किस प्रकार दानवों के शक्तिशाली आधिपत्य के बाद भी शिव शक्ति द्वारा उनका संहार किया गया।
प्राचीन कल में तह
ु ु ण्ड नाम का एक दानव था। उसने दे वताओं के साथ ऋषियों, गन्धर्वों, यक्षों को भी
अपने अधीन कर लिया। उसने इंद्र के ऐरावत हाथी और उच्चश्रवा घोड़े को भी अपने अधीन कर
लिया। उसने स्वर्ग का द्वार रोक दे वताओं के सभी अधिकार छीन लिए। तब सभी दे वता अत्यंत
नारद मनि
ु से आग्रह किया कि वे इस दानव तह
ु ु ण्ड के कहर से उन्हें बचाने का कोई उपाय बताएं। तब
नारद मनि
ु ने ध्यान किया तत्पश्चात कहा कि आप सभी महाकाल वन जाइए और वहां
इन्द्रद्यम्
ु नेश्वर के पास ईशानेश्वर नामक स्थान पर स्थित दिव्य लिंग का पज
ू न अर्चन करें ।
नारद मनि
ु के वचन सन
ु सभी दे वतागण महाकाल वन स्थित ईशानेश्वर में उस दिव्य लिंग के पास
स्थान एवं अपने अधिकार प्राप्त हुए। तब सभी दे वतागण बोले कि हमें ईशानेश्वर में ही अपना सर्वस्व
फिर प्राप्त हुआ है इसलिए हम इनका नाम ईशानेश्वर ही रखते हैं और त्रिलोक में इन्हे ईशानेश्वर
मान्यतानस
ु ार जो भी मनष्ु य श्री ईशानेश्वर महादे व के दर्शन करते हैं उन्हें शत्रओ
ु ं पर विजय प्राप्त
में से एक श्री ईशानेश्वर महादे व का मंदिर पटनी बाजार क्षेत्र में मोदी की गली के बड़े दरवाजे में स्थित
है ।
श्री अप्सरे श्वर महादे व की कथा महाकाल वन की महत्ता और अप्सराओं की शिव आराधना को चित्रित
पर विराजमान हो नत्ृ य दे ख रहे थे। इंद्र ने वहां अप्सरा रं भा को चित्त से विचलित हो लय ताल से
चक
ू ते दे खा। तब इंद्र दे व क्रोधित हुए एवं बोले कि भल
ू करना मनष्ु य की प्रवत्ति है लेकिन दे वलोक में
यह क्षमा करने योग्य नहीं है । फिर उन्होंने रं भा को कांतिहीन होने का शाप दे पथ्
ृ वी लोक पर भेज
लगी। रं भा को दख
ु ी दे ख उसकी सखियां भी आकाश से नीचे आकर उसके दःु ख में शामिल हो गईं।
तभी वहां नारदजी पहुंचे और अप्सराओं को विलाप करते दे ख आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने अप्सराओं
सम्पर्ण
ू वत्त
ृ ांत कह सन
ु ाया। अप्सराओं की बात सन
ु नारद मनि
ु ध्यानमग्न हुए और फिर बोले कि
आप सभी महाकाल वन जाएं। महाकाल वन में हरसिद्धि पीठ के सामने एक दिव्य लिंग है उसके
पज
ू न-अर्चन किया। अप्सराओं द्वारा श्रद्धापर्व
ू क पज
ू न अर्चन से भगवान शिव प्रसन्न हुए और
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री अप्सरे श्वर महादे व का दर्शन करने से किसी का स्थान भ्रष्ट नहीं होता है एवं एवं
लिए दस
ू रों को भेजेंगे तो भी आपको वही फल प्राप्त होगा और स्थान वियोग इत्यादि नहीं
होगा।उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री अप्सरे श्वर महादे व का मंदिर पटनी बाजार में
स्थित है ।
मान्यतानस
ु ार श्री कलकलेश्वर महादे व के दर्शन, पज
ू न, अभिषेक करने से पति-पत्नी का कलह व
मनमट
ु ाव समाप्त होता है ।
वह कृष्ण वर्ण की दिख रही थी। तब भगवान शंकर ने मजाक करते हुए कहा – हे महाकाली ! तम
ु मेरे
पास बैठोगी तो मझ
ु े नजर नहीं लगेगी। इस पर माँ पार्वती रुष्ट हो गई। उन्होंने कहा, आपने जब
इस प्रकार भगवान शिव और माँ पार्वती में सामान्य सी बात बढ़कर कलह हो गई जिसने उग्र रूप
धारण कर लिया। कलह बढ़ने से तीनों लोकों में प्राकृतिक विपत्तियां उत्पन्न होने लगी। पंचतत्व,
लगा। परिणामस्वरूप दे व, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस सभी भय को प्राप्त हुए। इसी कोलाहल से पथ्
ृ वी भेद
कर एक दिव्य लिंग प्रकट हुआ जिसमें से वाणी प्रसारित हुई, “इस लिंग का पज
ू न करें , इससे कलेश,
महादे व रखा।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री कलकलेश्वर महादे व के दर्शन करने से कलह, कलेश आदि नहीं होता है । गह
ृ शांति
बनी रहती है । ऐसा माना जाता है कि यहां दर्शन करने से व्याधि, सर्प, अग्नि जैसे भय दरू हो जाते हैं।
यहां दर्शन बारह मास में कभी भी किए जा सकते हैं लेकिन श्रावण मास एवं चतर्द
ु शी के दिन दर्शन का
विशेष महत्व माना गया है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री कलकलेश्वर महादे व का
मंदिर गोपाल मंदिर के पास मोदी की गली में अग्रवाल धर्मशाला के सामने स्थित है ।
श्री नागचण्डेश्वर की स्थापना की कथा अनजाने में हुए कई दोषों को चित्रित करती है । इनके दर्शन से
प्रसंग सन
ु ा रहे थे। तब दे वराज इंद्र ने उनसे कहा, हे दे वर्षि, आपने तो तीनों लोकों को दे खा
है , जाना है । कृपया मझ
ु े बताएं कि इस पथ्
ृ वी लोक पर ऐसा कौन सा स्थान है जो सर्वोत्तम
है , जो मक्ति
ु प्रदान करने वाला है ? प्रत्यत्त
ु र में नारदजी बोले, हे दे वराज, पथ्
ृ वी पर सबसे
उत्तम स्थल प्रयाग है । लेकिन उससे भी दस गुना अधिक पवित्र और उत्तम महाकाल वन में
सन
ु इंद्र दे व समेत सभी दे वगण विमानों में बैठ महाकाल वन स्थित अवंतिका पहुंचे।
इंच भर भी जगह खाली नहीं है । सभी जगह शिव निर्माल्य है और शिव निर्माल्य को लांघने के पाप के
डर से सभी दे वता स्वर्गलोक को लौट जाने लगे। तभी उन्होंने यह दे खा कि एक दिव्य परु
ु ष प्रसन्नता
हैं? आपने कौन सा उत्तम कार्य किया है ? उत्तर में दिव्य परु
ु ष ने जवाब दिया, मैं महाकाल का भक्त हूं।
में एक लिंग है । उस लिंग का दर्शन करने से शिव-निर्माल्य को लांघने का ही नहीं अपितु समस्त दोष
पहुंचे। वहां पहुंच दर्शन करने से दे वताओं के शिव निर्माल्य के साथ सभी पाप नष्ट हो गए। दे वताओं
रखा।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री नागचण्डेश्वर महादे व के दर्शन करने से दोषों का नाश होता है । ज्ञान से या अज्ञान
साथ-साथ यश की भी प्राप्ति होती है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री नागचण्डेश्वर
मंदिर है । इनके दर्शन मात्र से व्यक्ति धनवान बन जाता है । एक बार महादे व उमा से विवाह के बाद
सैकड़ों वर्षों तक रनिवास में रहे । दे वताओं को चिंता हुई कि यदि महादे व को पत्र
ु हुआ तो वह तेजस्वी
के पास जाकर गुहार करो। जब सभी मंदिराचल पर्वत पहुंचे तो द्वार पर नंदी मिले। इस पर इंद्र ने
अग्नि से कहा कि हं स बनकर नंदी की नजर चरु ाकर जाओ और महादे व से मिलो। हं स बने अग्नि ने
महादे व के कान में कहा कि दे वतागण द्वार पर खड़े इंतजार कर रहे हैं। इस पर महादे व द्वार पर आए
पज
ू न किया है अतः तम्
ु हें वरदान है कि तम्
ु हारे नाम प्रतिहार (नंदीगण) से यह लिंग जाना
(मर्गे
ु ) का रूप ले लेते थे। इस कारण उनकी रानी विशाला हमेशा दःु खी रहती थी। राजा के कुक्कुट रूप
इसका कारण पछ
ू ा। गालव ऋषि ने बताया कि तम्
ु हारा पति पर्व
ू जन्म में राजा विदरू त का पत्र
ु था। वह
विषयासक्त होकर मांसाहारी हो गया एवं अनेक कुक्कुटों का भक्षण किया। इस कारण क्रुद्ध होकर
मनि
ु ने ताम्रचड़
ू की बात बताई। >
>
और उन्हीं से श्रापमक्ति
ु का उपाय पछ
ू ा। कौषिक ताम्रचड़
ू के पास गया और निवेदन किया। ताम्रचड़
ु
ने कहा तम
ु निरोगी रहोगे और शासन करोगे परन्तु रात को अदृश्य हो जाओगे। रानी ने गालव ऋषि
से श्राप मक्ति
ु का उपाय पछ
ू ा तो उन्होनें बताया कि महाकाल वन में पक्षी योनि विमोचन लिंग
शिवलिंग का पज
ू न किया। रात्रि होने पर राजा कौषिक अदृश्य नहीं हुआ और रानी के साथ रति सख
ु
को प्राप्त किया। मान्यता है कि शिवलिंग के दर्शन से कोई भी पित ृ नरक को प्राप्त नहीं होता।
गया है ।
थी। पर्ण
ू वैभव, कीर्ति और सख
ु से सस
ु ज्जित राजा ने एक बार अपने महर्षि वशिष्ठ से पछ
ू ा कि मझ
ु े
प्रत्यत्त
ु र में वशिष्ठ मनि
ु बोले की पहले पर्व
ू जन्म में आप शद्र
ु राजा थे और कई दोषों से यक्
ु त थे।
आपकी यह स्त्री भी दष्ु ट स्वभाव वाली थी। जब आपने शरीर त्यागा तब आप नरक में गए जहां कई
यातनाएं आपको सहनी पड़ीं। वहां अनेक यातनाओं के बाद आपको यमराज ने केकड़े के रूप में जन्म
दिया और आप महाकाल वन के रुद्रसागर में रहने लगे। महाकाल वन स्थित रुद्रसागर में जो मनष्ु य
आप जब बाहर निकले तब एक कौआ आपको अपनी चोंच में भरकर आसमान में उड़ने लगा। तब
आपने अपने पैरों से कौवे से बचने के लिए प्रहार किए जिसके फलस्वरूप आप उसकी चोंच से छूट
गिरते ही उस दिव्य लिंग के प्रभाव से आपने केकड़े का दे ह त्याग दिव्य विद्याधर के समान दे ह प्राप्त
की। फिर जब आप अन्य शिवगणों के साथ शामिल हो स्वर्ग की ओर जा रहे थे तभी मार्ग में दे वताओं
हुआ। इसी लिंग के माहात्म्य के कारण ही आपको पहले स्वर्ग की और फिर राज की प्राप्ति हुई है ।
महर्षि की बातें सन
ु कर राजा तरु ं त महाकाल वन स्थित स्वर्गद्वारे श्वर के पर्व
ू में स्थित शिवालय पहुंचे
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार जो भी श्रद्धालु श्री कर्क टे श्वर महादे व के दर्शन करते हैं उनके योनि दोष दरू होते हैं एवं
वे शिवलोक को प्राप्त करते हैं। यहां दर्शन बारह मास किए जा सकते हैं लेकिन अष्टमी और चतर्द
ु शी
के दिन दर्शन का विशेष महत्व माना गया है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री
इंगित करती है । राजा के दोषों एवं दष्ु कर्मों के कारण ही वर्षा बाधित हुई।
राजा हुआ था। वह राजा दष्ु ट प्रवत्ति का था। राजा के दोषों व पापों के कारण बारह वर्षों तक वर्षा नहीं
हुई। वर्षावष्टि
ृ न होने की स्थिति में नदियां सख
ु गई, तालाब अदृश्य हो गए, यज्ञ वेदाध्ययन आदि
के उत्तर में श्वेतद्वीप स्थित भगवान जनार्दन के पास गए। वहां पहुंच उन्होंने भगवान को प्रणाम
कीजिए।
दे वताओं की बात सन
ु भगवान जनार्दन कुछ दे र के लिए ध्यानमग्न हो गए फिर बोले कि आप सभी
कृपया महाकाल वन जाएं। वहां प्रतिहारे श्वर के ईशान कोण में एक दिव्य लिंग है जिसमें वष्टि
ृ करने
वाले मेघ निवास करते हैं। आप सब वहां जाएं और भक्ति भाव से उस लिंग का पज
ू न-अर्चन करें ।
उनके पज
ू न-अर्चन से वष्टि
ृ जरूर होगी। श्री भगवान की बात सन
ु सभी दे वगण महाकाल वन स्थित
पथ्
ृ वी के सभी जीव-जंतओ
ु ,ं पक्षियों तथा मानवों का संताप दरू हुआ। दे वतागण इसे अमत
ृ वर्षा मान
बेहद प्रसन्न हुए एवं उन्होंने उस लिंग का नाम मेघनादे श्वर रखा।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री मेघनादे श्वर महादे व के पज
ू न अर्चन करने से वष्टि
ृ में वद्
ृ धि होती है । ऐसा माना
जाता है कि यहां दर्शन करने से पितरों को शांति मिलती है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से
दे ता है ओर जो सन
ु ाई दे ता है सभी आप ने उत्पन्न किया है । इसके साथ ही संपर्ण
ू
लज्जा, सरस्वति सभी उत्पन्न हुए हैं और प्रलय के समय सभी इसी में लीन होते
होता है ।>
>
श्री मक्
ु तेश्वर महादे व की महिमा मक्ति
ु के मार्ग की ओर इंगित करती है । स्वयं तेजस्वी जितेन्द्रिय
ब्राह्मण भी तेरह वर्षों की तपस्या के बाद महाकाल वन में आकर मोक्ष का मार्ग पा सके।
कामना से वे नित तपस्या में लीन रहते थे। तपस्या में रत हुए उन्हें 13 साल हो गए। फिर एक दिन वे
स्नान करने के लिए महाकाल वन स्थित पवित्र क्षिप्रा नदी पर गए। क्षिप्रा में उन्होंने स्नान किया फिर
वे वहीँ नदी के तट पर जप करने लगे। तभी उन्होंने वहां एक भीषण दे ह वाले मनष्ु य को आते हुए दे खा
है । उसकी बात सन
ु ब्राह्मण भयभीत हुए एवं नारायण भगवान का ध्यान लगा कर बैठ गए। ब्राह्मण
कर मक्ति
ु प्राप्त करना चाहता हूं। ब्राह्मण के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर वह व्यक्ति वहीं बैठ कर
मिली। ऐसे विचार कर ब्राह्मण नदी के मध्य जल में जाकर जप करने लगे।
कुछ दिनों तक वे ऐसे ही जप करने लगे फिर एक बाघ वहां पर आया जो जल में खड़े ब्राह्मण को
हो गया। ब्राह्मण के पछ
ू ने पर उसने बताया कि पर्व
ू जन्म में वह दीर्घबाहु नाम का प्रतापी राजा था
और वह समस्त वेद वेदांत में पारं गत था। इस पर वह अभिमान करता था और ब्राह्मणों को कुछ नही
समझता था। ब्राह्मणों के अनादर करने पर उन्होंने क्रोधित हो उसे शाप दिया कि वह वह बाघ योनि
को प्राप्त हो कष्ट भोगेगा। तब उसने ब्राह्मणों की स्तति
ु की एवं कहा- हे ब्राह्मण श्रेष्ठजन, में आप
खारा कर दिया था। उसका जल पीने योग्य नहीं रहा। ब्राह्मणों के शाप से ही वातापि राक्षस नष्ट
हुआ। भग
ृ ु ऋषि के क्रोध से सर्व भक्षी अग्नि हुआ। गौतम मनि
ु के शाप से इंद्र सहस्त्रयोनि हुए।
अश्विनी कुमारों को सोमरस पीने को मिला। ब्राह्मणों के पराक्रम के ऐसे वचनों को कहता हुआ वह
किसी ब्राह्मण के मख
ु से नमो नारायण कहते हुए सन
ु ोगे तो तम
ु शाप से मक्
ु त हो बाघ योनि से भी
मक्
ु त हो जाओगे। इस प्रकार ब्राह्मण के मख
ु से भगवान नारायण का नाम सन
ु कर उसकी मक्ति
ु हुई।
तक मझ
ु े मक्ति
ु का मार्ग नहीं मिला। तब उस राजा ने कहा कि आप कृपया महाकाल वन में स्थित
मक्ति
ु लिंग के दर्शन करें । आगे वह बोला, मक्ति
ु लिंग की महिमा बताने वाले को भी मक्ति
ु प्राप्त होती
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री मक्
ु तेश्वर महादे व के दर्शन करने से मक्ति
ु प्राप्त होती है । इस लिंग की पज
ू ा
ऋषि-मनि
ु -दे वता आदि भी करते हैं। उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री मक्
ु तेश्वर
ब्रह्मा की आज्ञा से चंद्रमा धरती पर प्रजा का पालन करने लगा। श्राप ग्रस्त चंद्रमा ने
>
से गज
ु रना पड़ा है , दत
ू ने कहा कि आपने श्राद्ध के दिन दक्षिणा नहीं दी उसी कर्म के
कारण आपको यह फल मिल रहा है । इसके बाद राजा ने पछ
ू ा मझ
ु े किस कर्म के कारण
जैसे ही वे लोग आगे चलने लगे नरक के पापियों ने कहा कि हे राजन आप थोड़ी दे र ओर रूकें, आपके
शरीर को स्पर्श कर आने वाली वायु पीड़ा में राहत दे रही है । राजा निमि ने दत
ू से कहा कि वे अब स्वर्ग
मक्
ु त हो जाएंगे। राजा निमि ने अपना पण्
ु य फल सभी पापियों को दान कर दिया, जिससे सभी पापी
के सख
ु ों का भोग करता है ।
श्री जटे श्वर महादे व की कथा राजा वीरधन्वा और उनके द्वारा वन में किए गए दोषों के निवारण से
जड
ु ी हुई है । प्रस्तत
ु कथा ऋषि-मनि
ु यों की महत्ता दर्शाती है । मनि
ु द्वारा बताए गए मार्ग पर ही राजा
पर विख्यात थे। एक बार वे शिकार करने के लिए वन में गए। वहां उन्होंने मग
ृ रूपी आकृति दे ख बाण
चला दिए। जहां उन्होंने बाण चलाए वे वास्तविकता में संवर्त ब्राम्हण के पांच पत्र
ु थे जो मग
ृ रूप में
उन ब्राम्हण पत्र
ु ों द्वारा हिरन के पांच छोटे बच्चों का वध हो गया था। घर जाकर बालकों ने अपने
कर वन में रहो। इस प्रकार वे पांचों वन में भटक रहे थे और एक वर्ष के पश्चात राजा वीरधन्वा ने उन्हें
मग
ृ समझ मार डाला।
मनि
ु के पास पहुंचे एवं उन्हें सारी बातें कहीं। दे वरात मनि
ु ने उन्हें शांत रहने को कहा और कहा कि
भी वध कर दिया। जड़ीभत
ू बद्
ु धि से वे दिशाहीन होकर वन में भटकते रहे ।
गए। राजा उनसे कहने लगा कि उसने ब्राह्मण हत्या की है , गौ हत्या की है , वह इस दोष से अत्यधिक
दख
ु ी है । तब मनि
ु राजा से बोले कि आपकी बद्
ु धि पर्व
ू काल के कुछ कर्मों के कारण जड़ हुई है और
इसी वजह से आपको ब्रह्म हत्या का दोष लगा है । आप तरु ं त महाकाल वन जाइए। वहां अनरकेश्वर
के उत्तर में स्थित दिव्य लिंग का दर्शन कीजिए। उनके दर्शन करने से ही आपका उद्धार हो सकता है ।
मनि
ु के कहे अनस
ु ार राजा महाकाल वन पहुंचे और वहां पहुंच कर उन्होंने मनि
ु वामदे व द्वारा बताए
गए शिवलिंग का पज
ू न अर्चन किया। उनकी पज
ू ा के फलस्वरूप उस लिंग में से जटाधारी शिव प्रकट
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री जटे श्वर महादे व के दर्शन करने से पाप-दोष नष्ट होते हैं। भ्रष्ट बद्
ु धि वाले मनष्ु य
की स्थिति सध
ु र जाती है । ऐसा कहा जाता है कि श्राद्ध के समय जो जटे श्वर की इस कथा को पढ़ता
है उसका श्राद्ध पितरों को प्रसन्न करता है । उज्जयिनी स्थित चौरासी महादे व में से एक श्री जटे श्वर
श्री रामेश्वर महादे व की कथा महाकाल वन की महत्ता दर्शाती है । परशरु ामजी ने कई तीर्थों के दर्शन एवं
तप किए लेकिन उनका ब्रह्म हत्या दोष निवारण महाकाल वन में स्थित श्री रामेश्वर महादे व के
पज
ू न से ही हुआ।
रे णक
ु ा थी और पिता जमदग्नि थे। परशरु ाम के चार बड़े भाई थे लेकिन सभी में परशरु ाम सबसे
लिए भेजा। गंगा तट पर गंधर्वराज चित्ररथ अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे जिन्हें दे ख रे णक
ु ा
आसक्त हो गई और कुछ दे र तक वहीँ रुक गई। इस कारण हुए विलंब के फलस्वरूप हवन काल
दिया। परशरु ाम की कर्तव्यपरायणता दे ख जमदग्नि बेहद प्रसन्न हुए और परशरु ाम से वरदान मांगने
विचारशील करने की प्रार्थना की। वरदान में भी स्वयं के लिए कुछ ना मांग माता एवं भाइयों के लिए
की गई प्रार्थना से जमदग्नि और अत्यधिक प्रसन्न हुए एवं उन्होंने परशरु ाम द्वारा मांगे गए वरदानों
तम
ु अग्नि से उत्पन्न होने वाले इस दृढ़ परशु को ग्रहण करो। इसी तीक्ष्ण धार वाले परशु से तम
ु
विख्यात होंगे। वरदान के फलस्वरूप माता रे णक
ु ा पन
ु र्जीवित हो गई पर परशरु ाम पर ब्रह्म ह्त्या का
दोष चढ़ गया।
कुछ समय के बाद है हयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन राजा हुआ। वह सहस्त्रबाहु था। उसने कामधेनु के लिए
जमदग्नि ऋषि को मार डाला। पिता के वध से क्रुद्ध हो परशरु ाम ने परशु से अर्जुन की हजार भज
ु ाएं
काट डाली। फिर परशु ने उसकी सेना का भी नाश कर डाला। इसी अपराध को लेकर उन्होंने क्षत्रियों
का 21 बार पथ्
ृ वी से नामोंनिशान मिटा दिया। फिर ब्रह्म हत्या पाप के निवारण हे तु परशरु ाम ने
आदि नाना प्रकार के दान किए। लेकिन फिर भी ब्रह्म हत्या का पाप दरू नहीं हुआ। फिर वे रै वत पर्वत
पर तपस्या करने चले गए जहां उन्होंने घोर तपस्या की। फिर भी दोष दरू नहीं हुआ तो वे हिमालय
पर्वत तथा बद्रिकाश्रम गए। उसके बाद नर्मदा, चन्द्रभागा, गया, कुरुक्षेत्र, नैमीवर, पष्ु कर, प्रयाग,
केदारे श्वर आदि तीर्थों के दर्शन कर स्नान किया। फिर भी उनकी ब्रह्म हत्या के दोष का निवारण नहीं
हुआ। तब वे अत्यंत दख
ु ी हुए एवं उनका दृष्टिकोण नकारात्मक होने लगा। वे सोचने लगे कि शास्त्रों
में जो तीर्थ, दान इत्यादि का महात्मय बताया गया है वह सब मिथ्या है । तभी वहां नारद मनि
ु पहुंचे।
यज्ञ किया, पर्वतों पर तप किया, कई तीर्थों में स्नान किया लेकिन फिर भी मेरी ब्रह्म हत्या दरू नहीं
हो रही है । तब नारदजी बोले कि आप कृपया महाकाल वन में जाइए। वहां जटे श्वर के पास स्थित
दिव्य लिंग का पज
ू न अर्चन करें । उससे आपकी ब्रह्महत्या दरू हो जाएगी। नारदमनि
ु के कथनानस
ु ार
उनके श्रद्धापर्व
ू क किए गए पज
ू न अर्चन से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से
मक्
ु त कर दिया।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री रामेश्वर महादे व के दर्शन करने से दोषों का नाश होता है । ऐसा माना जाता है कि
यहां दर्शन करने पर विजयश्री प्राप्त होती है । श्री रामेश्वर महादे व का मंदिर सती दरवाजे के पास
पर कठोर तप किया। वितस्ता नाम की नदी के किनारे वर्षों वे तपस्या में बैठे रहे । तपस्या
लग गई। एक समय राजा शर्याति अपने परिवार के साथ वन विहार करते हुए वहां पहुंचे।
राजा की कन्या सक
ु न्या अपनी सखियों के साथ च्यवन ऋषि के तप स्थल पहुंची। वहां
धल
ू मिटटी से बनी बांबी के बीच में दो चमकते हुए नेत्र दिखाई दिए। कौतह
ु लवश सक
ु न्या
बेटी सक
ु न्या ने महर्षि च्यवन की आंखों में शल
ू चभ
ु ा दिए हैं। तब राजा शर्याति महर्षि
च्यवन के पास गए और अपनी कन्या के दष्ु कृत्य के लिए क्षमा याचना की। उन्होंने
सक
ु न्या को महर्षि च्यवन को पत्नी के रूप में सौंप दिया। महर्षि भी सक
ु न्या को पत्नी के
रूप में पाकर प्रसन्न हुए जिसके फलस्वरूप शर्याति के राज्य में होने वाली बीमारियां रुक
गईं।
गए। उन्होंने सक
ु न्या से पछ
ू ा कि तम
ु कौन हो? सक
ु न्या ने कहा कि वह राजा शर्याति की पत्र
ु ी एवं
जल में स्नान के लिए उतरिये। फिर दोनों अश्विनीकुमार के साथ महर्षि ने भी जल में प्रवेश किया।
यव
ु ावस्था पाकर महर्षि भी अत्यंत प्रसन्न हुए एवं अश्विनीकुमार से बोले कि तम
ु ने मझ
ु वद्
ृ ध को
यव
ु ा बना दिया, मैं तम
ु दोनों को इंद्र के दरबार में अमत
ृ पान कराऊंगा। यह बात सन
ु कर वे दोनों
भगवान को यह निंदनीय लगा। उन्होंने महर्षि से कहा कि में दारुण वज्र से तम्
ु हारा नाश कर दं ग
ू ा। इंद्र
के ऐसे वचनों से भयभीत हो महर्षि महाकाल वन पहुंचे और वहां जाकर एक दिव्य लिंग का उन्होंने
पज
ू न अर्चन किया। उनके पज
ू न से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने महर्षि च्यवन को इंद्र के
मान्यतानस
ु ार श्री च्यवनेश्वर महादे व के दर्शन से पापों का नाश होता है एवं भय आदि दरू होते हैं।
ऐसा माना जाता है कि इनके दर्शन करने से शिवलोक प्राप्त होता है । श्री च्यवनेश्वर महादे व का मंदिर
सम्पर्णं
ू जायते यस्य दर्शारयांव्रतादिकम ्।।
श्री खंडश्े वर महादे व का मंदिर शिव माहात्म्य के मल्
ू यों को दर्शाता है । माना जाता है कि श्री
खंडश्े वर महादे व के दर्शन से विष्ण,ु ब्रह्मा, इंद्र, कुबेर, अग्नि आदि दे वताओं ने भी सिद्धि
प्राप्त की थी।
बोले कि वे वहां सात दिन निवास करें गे। राजा ने उनका आदर सत्कार किया और उनके वास को
से पछ
ू ा कि ऋषिवर आपको कौन सी प्रसन्नता हो रही है जो आप नत्ृ य कर रहे हैं? इस पर मनि
ु बोले
कि तम
ु सब मर्ख
ू हो जो मेरा अभिप्राय नहीं समझ रहे । तब राजा भद्राश्व ने हाथ जोड़ कर मनि
ु से
तब मनि
ु ने कहा कि राजन, पर्व
ू जन्म में विदिशा नाम की जगह में वैश्य हरिदत्त के घर पर आपकी यह
सन्
ु दर पत्नी कान्तिमती दासी का कार्य करती थी और आप इसके पति थे एवं नौकर का कार्य करते
कुछ समय प्राप्त आप दोनों की मत्ृ यु हो गई लेकिन उस वैश्य की भक्ति के प्रभाव से आपको इस
पापों का नाश होता है । ऐसा माना जाता है कि श्रावण मास में यहां दर्शन करने का महत्व कई गुना बढ़
जाता है । श्री खंडश्े वर महादे व का मंदिर आगर रोड पर खिलचीपरु गांव में स्थित है ।
श्री पत्त्नेश्वर महादे व की महिमा का गान स्वयं भगवान शिव एवं महर्षि नारद द्वारा किया
गया है जो स्कन्द परु ाण में वर्णित है । एक समय भगवान शिव और माता पार्वती कैलाश
पर्वत की एक गुफा में विहार कर रहे थे। उस समय पार्वती जी ने कहा कि प्रभ,ु कैलाश
पर्वत जहां स्फटिक मणि लगी हुई है , जो अनेक प्रकार के पष्ु पों और केवे के वक्ष
ृ से
सश
ु ोभित है , जहां सिद्ध, गन्धर्व, चारण, किन्नर आदि उत्तम गायन करते हैं, जिसे पण्
ु य
लोक की उपमा प्राप्त है , ऐसा मनोरम कैलाश पर्वत आपने क्यों छोड़ दिया? और ऐसा
किया?
प्रत्यत्त
ु र में भगवन शंकर बोले- मझ
ु े महाकाल वन और अवंतिकापरु ी स्वर्ग से भी अधिक सख
ु दायी
प्रतीत होती है । यहां पांचों गुण- श्मशान, शक्तिपीठ, तीर्थक्षेत्र, वन और उशर है । यहां गीत, वाद्य,
चातर्य
ु की इतनी स्पर्धा है कि स्वर्ग लोक वाले भी उस ज्ञान को सन
ु ने के लिए उत्सक
ु रहते हैं। ऐसा
आ रहे हैं? कौन सा स्थान आपको सबसे ज्यादा रमणीय लगा? उत्तर दे ते हुए नारद मनि
ु कहने लगे,
मैंने कई तीर्थों एवं मंदिरों की यात्रा की, उनमें अत्यधिक मनोहर, अत्याधिक विचित्र महाकाल वन है ।
सख
ु प्रदान करने वाली पवन बहती है । वहां मधरु संगीत गंज
ु ायमान है । उरध लोक, अधो लोक, सप्त
विराजमान है ।
दर्शन लाभ:
मान्यतानस
ु ार श्री पत्त्नेश्वर महादे व के दर्शन करने से मत्ृ य,ु बढ़
ु ापा, रोग आदि भय एवं व्याधियां
समाप्त हो जाती है । श्रवण मास में यहां दर्शन का विशेष महत्व है । श्री पत्त्नेश्वर महादे व खिलचीपरु में
पीलिया खाल के पल
ू पर स्थित है ।
के लिए मझ
ु े उठा कर ले जाना चाहती है । और आप भी मेरा पालन-पोषण कर मझ
ु से कुछ अपेक्षाएं
बाहर चली गई। तब वह राक्षसी ने उस बालक को उठाकर विक्रांत नामक राजा की रानी है मिनी के
शयन-गह
ृ में रख दिया। राजा विक्रांत उस बालक को अपना बालक जान कर अत्यंत प्रसन्न हुए और
उन्होंने उसका नाम आनंद रख दिया। इसके साथ ही राक्षसी ने राजा विक्रांत के असली पत्र
ु को ले
जाकर बोध नामक ब्राह्मण के घर पर रख दिया। ब्राह्मण ने उसका नाम चैत्र रथ रखा।
को कहा। प्रत्यत्तर में आनंद ने कहा कि, मैं कौन सी माता को नमस्कार करूं? जन्म दे ने वाली या
दनि
ु या में मोह ही सारी समस्याओं की जड़ है अतः मैं अब सारी मोह माया त्याग कर तपस्या करूंगा।
आया और उसे अपने उत्तराधिकार का स्वामी बना दिया। राजा ने आनंद को ससम्मान विदा किया
और आनंद तपस्या करने महाकाल वन आया। उसने इंद्रेश्वर के पश्चिम में स्थित लिंग की आराधना
की। उसकी तपस्या के फलस्वरूप भगवान शिवजी प्रसन्न हुए और उसे आशीर्वाद दिया कि तम
ु
मान्यतानस
ु ार श्री आनंदेश्वर महादे व के दर्शन करने से पत्र
ु लाभ होता है । श्री आनंदेश्वर महादे व का
उसका त्याग कर दिया था। ब्राह्मण के पास प्रेमधारिणी कथा रहती थी। पांडव ने एक गुफा में पत्र
ु
पिता को विलाप करते दे ख बालक हर्षवर्धन ने संकल्प किया कि वह महे श्वर भगवान रूद्र का पज
ू न
करे गा ओर उनसे चिरायु होने का वरदान लेकर यमराज पर विजय प्राप्त करे गा। हर्षवर्धन ने महाकाल
वरदान प्राप्त किया। कालांतर में कंथडेश्वर के नाम से शिवलिंग विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो
करता था। एक बार इंद्र ने उसे मार दिया। इस पर प्रजापति ने क्रोध में अपी जटा से एक बाल तोड़ा
वत्र
ृ ासरु ने दवताओं से यद्
ु ध किया ओर इंद्र को बंधक बना लिया ओर स्वर्ग में राज करने लगा। कुछ
मार्ग बह
ृ स्पति से पछ
ू ा। बह
ृ स्पति ने कहा कि इंद्र आप जल्द महाकाल वन में जाएं ओर खंडश्े वर
इंद्र ने शिवलिंग का पज
ू न किया। भगवान शिव ने प्रकट होकर इंद्र को वरदान दिया कि वह शिव के
प्रभाव से वत्र
ृ ासरु से यद्
ु ध करें ओर विजय प्राप्त करें । इंद्र ने वत्र
ृ ासरु का नाश किया ओर पन
ु ः स्वर्ग पर
पत्र
ु नहीं है । उन्होंने पत्र
ु की कामना से हिमालय पर जाकर कठोर तप प्रारं भ कर दिया। अनके तप के
कारण सष्टि
ृ में अकाल पड़ने ओर सर्य
ू ओर चंद्र के अस्त होने की स्थिति निर्मित होने लगी। इस पर
के प्रकट होने ओर पज
ू न से शिवलिंग मार्क ण्डेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। जो भी मनष्ु य इस
शिवलिंग का पर्ण
ू श्रद्धा से पज
ू न करता है वह सदा सख
ु ी ओर परमगति को प्राप्त होता है ।
था। हमेशा भगवान विष्णु के ध्यान में रहता था। उसके राज्य में प्रजा को कोई दख
ु ः नहीं
था। राजा का प्रताप इतना अधिक था कि उसके तेज से पथ्
ृ वी कायम थी ओर कोई शिव का
पज
ू न नहीं करता था।
उज्जैन में शिवलिंग स्थापित नहीं कर पाए थे। यह सोचकर उन्होंने अपने गणेश शिव गण
को आज्ञा दी कि वह उज्जैन में शिवलिंग की स्थापना करें ।> गण ब्राह्मण का रूप धारण
कर उज्जैन में आकर रहने लगा ओर प्रजा की विभिन्न व्यधियों को दरू करने लगा।
जिनको पत्र
ु नहीं थे उन्हें औषधियों से पत्र
ु प्रदान करने लगा। उसकी ख्याति फैलने लगी
प्रार्थना की।
ब्राह्मण ने कहा कि वह राजा की आज्ञा के बिना महल में नहीं आएगा। इस पर रानी ने
अस्वस्थ होने का बहाना किया और राजा के साथ ब्राह्मण के पास पहं च गई। राजा ओर
रानी ने जैसे ही ब्राह्मण के दर्शन किए ब्राह्मण शिवलिंग में परिवर्तित हो गया। राजा-रानी
ने वहां शिवलिंग का पज
ू न किया।
राजा होगा। गण के शिवलिंग होने के कारण शिवलिंग का नाम शिवेश्वर विख्यात हुआ।
एक बार शिव पार्वती दोनों महाकाल वन में भ्रमण कर रहे थे। वहां गणेश बालकों के समह
ू में खेल रहा
था। शिव ने पार्वती से कहा कि यह जो बालक फूलों से खेल रहा है और अन्य बालक उस पर पष्ु प वर्षा
कर रहे हैं वह उन्हें बहुत प्रिय है । शिव ने वह बालक पार्वती को दे दिया। पार्वती ने पत्र
ु को दे खने की
इच्छा से अपनी सखी विजया से कहा कि वह जाए और बालक गणेश को लेकर आए।
> विजया गणेश बालकों के समहू में गई ओर उसे मनाकर कैलाश ले आई। यहां गणेश को उन्होंने
विभिन्न आभष
ू णों ओर चंदन व पष्ु पों से सज्जित किया ओर फिर शिव गणों के समह
ू में खेलने के
लिए छोड़ दिया। बालक वहां भी पष्ु पों से खेलता रहा। पार्वती ने शिवजी से कहा कि यह मेरा पत्र
ु है इसे
के एक गण भंगि
ृ रिट ने पार्वती की स्तति
ु करने से मना कर दिया। पार्वती के कई बार
ही तम्
ु हें श्राप मक्
ु त करे गी तम
ु उनकी आराधना करो।
आपने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उससे कहा कि महाकाल वन में शिवलिंग का पज
ू न करें , उसके
उपासना की और शिवलिंग से पार्वती आधे शिव ओर आधे पार्वती के शरीर के साथ प्रकट हुई ओर उसे
श्राप से मक्
ु त किया। भंगि
ृ रिट ने वरदान मांगा की जिस शिवलिंग के दर्शन से उसकी सब
ु द्
ु धि हो गई।
वह शिवलिंग अक्रूरे श्वर के नाम से विख्यात होगा। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य शिवलिंग के दर्शन
कर पज
ू न करे गा वह स्वर्ग को प्राप्त होगा। उसके सभी पाप नष्ट हो जाएंगे
कि तम्
ु हारा पत्र
ु महाकाल वन में तपस्या कर रहा है । इस पर पार्वती ने शिव से कहा कि वह
उसे दे खना चाहती है , इसलिए वह भी उनके साथ चले। दोनों नंदी पर सवार होकर
महाकाल वन के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक पर्वत पर पार्वती के भयभीत होने से कुछ
पर्वत घम
ु ते हुए10 वर्ष बीत गए। शिव के न लौटने पर पार्वती विलाप करने लगी। उन्होंने
जब कुण्ड दर्शन नहीं करा सका तो पार्वती ने उसे मनष्ु य लोक में जाने का श्राप दिया। इसी बीच शिव
लेकर खड़े रहो। वहां उत्तर दिशा में सभी मनोकामनाओं को पर्ण
ू करने वाला शिवलिंग है । उसका पज
ू न
कहने पर यद्
ु ध करने के लिए सामग नामक ब्राह्मण के आश्रम गया। वहां राजा ने आश्रम
में कामधेनु गाय की मांग की ब्राह्मण ने मना किया तो राजा ने कामधेनु गाय के साथ परू े
अपने पिता को मत
ृ दे खकर वह रूदन करने लगा ओर फिर उसने अपने पिता की हत्या
करने वाले राजा को श्राप दिया कि वह कुष्ठ रोग से पीडित होगा। श्राप के प्रभाव से राजा
कुष्ठ रोग से पीडित होकर मत्ृ यु को प्राप्त करने के लिए निकल गया।
नारद मनि
ु के कहने पर राजा महाकाल वन में केशवार्क महादे व के पास स्थित शिवलिंग का पज
ू न
करने के लिए निकल गया। राजा ने अपनी रानी के साथ शिप्रा स्नान किया ओर शिवलिंग के दर्शन
किए। दर्शन मात्र से राजा का कुष्ठ रोग दरू हो गया। राजा ने आपनी रानी के साथ वहां उपस्थित
मनि
ु यों का सम्मान किया। राजा लम्
ु पाधिप के पज
ू न के कारण शिवलिंग लम्
ु पेश्वर महादे व के नाम से
विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य पर्ण
ू भक्ति से पज
ू न करे गा उसके सात जन्मों के पाप
धारण किया। शिवजी ने जटा में धारण करने के बाद उसे धरती पर नहीं आने दिया, इससे
गंगा को जटा में बांध लिया। कई कल्प वर्षो तक गंगा ने जटा में ही तपस्या की। भागीरथ
गए। वायु के वेग से गंगा का आंचल उड़ गया, इसे दे ख सभी दे वताओं ने अपने मख
ु नीचे
कर लिए परं तु महाभिष नामक राजऋषि गंगा को दे खते रहे । यह दे खते हुए ब्रह्मा जी ने
उसे पथ्
ृ वी लोक पर भेज दिया।
यह दे खकर समद्र
ु ने भी गंगा को मत्ृ यु लोक में रहने का श्राप दिया। श्राप के कारण विलाप करती गंगा
शिवलिंग का दर्शन व पज
ू न करो। गंगा महाकाल वन आई ओर गंगेश्वर महादे व का अपनी सखी शिप्रा
के साथ दर्शन-पज
ू न किया। गंगेश्वर के दर्शन से गंगा श्राप मक्
ु त हुई उसी समय समद्र
ु भी वहां
उपस्थित हुए ओर गंगा का सम्मान किया। मान्यता है कि गंगेश्वर के दर्शन से सभी तीर्थो की यात्रा
शरीर भयावह रहा। जब वह धरती पर चलने लगा तो धरती कांपने लगी, समद्र
ु ों में तफ
ू ान आने लगा।
कहा कि बालक भगवान शंकर के शरीर से उत्पन्न हुआ है ओर उत्पन्न होते ही उत्पात मचा दिया है ।
यह सब सन
ु कर दे वगरु
ु दे वताओं को लेकर कैलाश पर्वत गए ओर भगवान को त्रासदी के बारे में
बताया। यह सन
ु भगवान ने बालक को अपने पास बल
ु ाया। बालक ने आकर शिवजी से पछ
ू ा हे प्रभु
मेरे लिए क्या आज्ञा है । मैं क्या करूं। तब भगवान ने कहा बालक तम्
ु हारा नाम अंगारक रखा है । तम्
ु हें
पथ्
ृ वी पर लोगों के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए बजाए विनाश के। यह वचन सन
ु कर बालक
गिरी थी। आकाश से नीचे आने पर उसका नाम खगर्ता हुआ। इसलिए मैंने वहां अवतार लिया है । मैं
तम्
ु हें तीसरा स्थान दे ता हूं। तम
ु वहां जाकर रहो इससे तीनों लोकों में तम्
ु हें जाना जाएगा। तम्
ु हारी
तप्ति
ृ भी होगी। लोग तम्
ु हारी प्रसन्नता के लिए चतर्थी
ु का व्रत करें गे, पज
ू न करें गे ओर दक्षिणा दें गे।
इससे तम्
ु हें भोजन की तप्ति
ृ होगी। तब बालक यहां पर आया। इसके बाद से ही इनके दर्शन से भक्तों
दे वगुरु ने इंद्र को बल
ु ाया। इंद्र ने दे वगुरु से पछ
ू ा, महाप्रभु मेरे लिए क्या आदे श है । दे वगुरु
ने पथ्
ृ वी के जलमग्न होने की घटना दे वेन्द्र को बताई।
मच गया। यह दे खकर दे वेन्द्र भगवान शिव की शरण में गए। मेघो के इस व्यवहार की
आवश्यकता भी नहीं होगी। आराधना करने से शिव प्रसन्न होकर प्रकट हुए तथा मेघ को
जोडा रहता था। दोनों भगवान का दर्शन करते ओर अर्पित जल पीते भक्तों द्वारा
गया। कबत
ू री ने श्येन के पंजों में काटा जिससे कबत
ू र नीचे गिर गया ओर
जंबद्
ू धीप में गिरकर मर गया। अगले जन्म में वह कबत
ू र मंदारा नाम के गंर्धव
दस
ू री ओर कबत
ू री ने नागराज के यहां रत्नावली के रूप में जन्म लिया। परिमल किशोरावस्था से ही
महादे व के दर्शन व पज
ू न की कामना से यहां आना शरू
ु कर दिया। एक दिन रत्नावली सखियों के
आए। यहां दोनों परिवारों में शिप्रा द्वारा कन्याओं को दिए वरदान पर चर्चा कर विवाह परिमल के
कोई दख
ु ी नहीं था। परू े राज्य मे एकदशी का व्रत किया जाता था, जो व्रत नहीं करता था
कि माता विद्याधर की कन्या मलयगंधिनी को कंकाल केतु नामक दानव पाताल में
साथ परू े विश्व का कल्याण करो। नारद की आज्ञा मानकर राजा चंपावती गया। राजा को
कन्या ने दे खा ओर उसे शस्त्रागार में छिपने के लिए कहा। इस बीच वहां दै त्य पहुंच गया,
कि रानी यदि तम
ु राजा को चाहती हो तो इस पत्र
ु का त्याग कर दो। पत्र
ु अभक्
ु त मल
ू में पैदा हुआ है
मंदिर में रख आई। उसी समय वहां से योगिनियां आकाश मार्ग से गमन कर रही थी वे उसे अपने
साथ लेकर आ गई। 16 वर्ष की आयु में राजकुमार अंवतिका नगरी में आया और शिव की तपस्या
करने लगा। शिव प्रसन्न होकर शिवलिंग से ज्योतिरूप में प्रकट हुए ओर राजकुमार ने शिव से
होम,दान,जप सब अक्षय होगे ओर अंत काल में परम पद को प्राप्त करे गा।
84 महादे व : श्री नप
ु रू े श्वर महादे व(47)
एक बार भगवान शंकर का गण नप
ु रू इंद्र की सभा में पहुंचा। वहां अप्सराएं नत्ृ य
कर रही थी। नप
ु रू ने काम के वश में आकर उर्वशी को फूल मारा, जिससे उर्वशी
क्रोधित हो गई। कुबेर ने क्रोधित होकर नप
ु रू को मत्ृ यल
ु ोक में गिरने का श्राप
दिया। वह पथ्
ृ वी पर गिर पड़ा। तभी मनसा दे वी ने प्रकट होकर नप
ु रू से कहा कि
तम
ु महाकाल वन में जाओ और दक्षिण भाग में स्थित शिवलिंग का पज
ू न करो।
नप
ु रू तरु ं त महाकाल वन में गया और शिवलिंग का पज
ू न किया।
शिवलिंग श्री नप
ु रू े श्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य
शिवलिंग के दर्शन कर पज
ू न करता है वह सभी रोग व दख
ु ों से मक्
ु त होता है ।
दोनों दै त्य ब्रह्मा को मारने के लिए दौड़े। ब्रह्मा वहां से भागे। उन्होंने समद्र
ु के बीच प्रकाश
दे खा ओर परु
ु ष से उसका परिचय पछ
ू ा तो उन्होंने बताया कि सष्टि
ृ पालक विष्णु हूं। ब्रह्मा
ने उनसे दोनों दै त्यों से रक्षा करने के लिए कहा। दै त्य विष्णु को भी मारने के लिए दौड़े।
शिवलिंग का पज
ू न किया।
को पेट में छिपा लिया ओर कुछ दे र बाद जब दोनों बाहर निकले तो दोनों दै त्य भस्म हो चक
ु े थे। ब्रह्मा
ओर विष्णु ने शिव से वरदान मांगा कि जो भी मनष्ु य शिवलिंग के दर्शन करे गा उसे आप अभयदान
दें गे। तब से ही शिवलिंग अभयेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य
इस शिवलिंग का दर्शन कर पज
ू न करता है उसे धन, पत्र
ु ओर स्त्री का वियोग नहीं होता है । संसार के
समस्त सख
ु ों को भोग कर अंतकाल में परमगति को प्राप्त करता है ।
>
84 महादे व : श्री पथ
ृ क
ु े श्वर महादे व(49)
अंगराज के पत्र
ु वेन के अंगों के दोहन से पथ
ृ ु नामक एक बालक का जन्म हुआ।
पथ
ृ ु महापराक्रमी ओर जगत विख्यात हुआ। पथ
ृ ु के राज्य में हवन नहीं होते थे,
वेद मंत्रों का उच्चारण भी नहीं होता था। सारी प्रजा हाहाकार कर रही थी। राजा ने
क्रोध में आकर त्रिलोक को जलाने की इच्छा की। इसी समय नारद मनि
ु वहां
आप पथ्
ृ वी का वध करें । राजा ने अग्नि अस्त्र पथ्
ृ वी पर छोड़ा जिससे पथ्
ृ वी जलने
लगी। पथ्
ृ वी गाय रूप लेकर राजा के पास आई ओर उससे क्षमा मांगी।
पथ्
ृ वी ने राजा से कहा उसे जो चाहिए वह दोहन कर प्राप्त कर ले। राजा ने गाय रूपी पथ्
ृ वी का दोहन
मनि
ु ने राजा से कहा कि आप अंवतिका नगरी में अभयेश्वर महादे व के पश्चिम में स्थित शिवलिंग
नाम पथ
ृ क
ु े श्वर हुआ।
84 महादे व : श्री स्थावरे श्वर महादे व(50)
कारण उसने अपने समान एक अन्य स्त्री को उत्पन्न किया ओर उसे आज्ञा दी
की तम
ु सर्य
ू की सेवा करना ओर उन्हें मेरा पता कभी मत बताना। सर्य
ू ने उस
इंद्र ब्रह्मदे व के पास पहुंचे ओर शनैश्चर के प्रभाव से सभी रक्षा करने की बात कही। ब्रह्मदे व ने सर्य
ू
ब्रह्मदे व ने भगवान कृष्ण को यह समस्या बताई। कृष्ण ने दे वों व ब्रह्मा को महादे व के पास जाने के
पहुंचाते हो परं तु उनका कल्याण भी करना। बारह राशियों में अलग-अलग स्थानों पर रहने से तम्
ु हारा
अलग-अलग प्रभाव होगा। अब तम
ु महाकाल वन में जाओ ओर पथ
ृ क
ु े श्वर के पश्चिम में स्थित लिंग
का पज
ू न करों। वह लिंग तम्
ु हारे नाम स्थावर के नाम से स्थावरे श्वर के नाम से विख्यात होगा।
मनोकामनाएं पर्ण
ू होती है , ग्रह दोष नहीं लगता है ।
84 महादे व : श्री शल
ू ेश्वर महादे व(51)
काफी समय पहले दै त्यों और दे वताओं में यद्
ु ध हुआ। दै त्यों के स्वामी जंभ और इंद्र के बीच वर्षों तक
यद्
ु ध चला। जिसमें दै त्य विजयी हुए और अंधकासरु ने स्वर्ग पर शासन शरू
ु कर दिया। एक दिन
अंधकासरु का एक दत
ू कैलाश पर्वत पहुंचा और भगवान शिव से कहा कि अंधकासरु ने कहा है कि तम
ु
शिव ने शल
ू से प्रहार कर अंधकासरु को घायल कर दिया और पाताल तक घम
ु ाया। अंधकासरु के रक्त
से उसके जैसे कई दानव उत्पन्न होने लगे। तब शिव ने अपनी शक्ति से महादर्गा
ु को प्रकट किया और
दर्गा
ु ने अंधकासरु का वध किया। आखिरकार अंधकासरु ने भगवान शिव की उपासना की। भगवान
कहा।
शल
ू से मत्ृ यु प्राप्त होने के कारण शिवलिंग का नाम शल
ू ेश्वर विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी
मनष्ु य शल
ू ेश्वर के दर्शन कर पज
ू न करता है वह सभी प्रकार के भय और दख
ु ों से मक्
ु त होता है और
तो शिव ने कहा तम
ु अपनी आत्मा का विभाग करो। वह परु
ु ष शिव की बात को न समझने के कारण
सम्मख
ु खड़ा हो गया।
> शिव ने प्रसन्न होकर ॐकार से कहा कि तम
ु अब महाकाल वन में जाओ और वहां शल
ू ेश्वर महादे व
के पर्व
ू दिशा में स्थित शिवलिंग का पज
ू न करों ॐकार वहां पहुंचा और शिवलिंग के दर्शन कर उसमें
लीन हो गया।
ॐकार के शिवलिंग में लीन होने से शिवलिंग ओंकारे श्वर या ॐकारे श्वर के नाम से विख्यात हुआ।
प्राप्त होता है
रहा। 11 वीं योनि में वह चांडाल पैदा हुआ और धन चरु ाने के लिए एक ब्राह्मण के
घर में घस
ु ा और लोगों ने उसे पकड़ कर पेड़ पर टांग दिया। मरने के पर्व
ू तक
चांडाल शल
ू ेश्वर के उत्तर में स्थित एक शिवलिंग के दर्शन करता रहा। इस कारण
भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उससे वर मांगने के लिए कहा। राजा ने कहा कि इस संसार में किसी का
भी पतन न हो और आपका नाम विश्वेश्वर के नाम से विख्यात हो। विश्वेश राजा को वरदान दे ने के
कारण शिवलिंग विश्वेश्वर के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य विश्वेश्वर महादे व
वह वन में भ्रमण करने लगे। एक दिन उसने वन में भ्रमण करते हुए वशिष्ठ मनि
ु
का आश्रम दे खा। मनि
ु के पछ
ू ने पर राजा ने अपनी परू ी कहानी उनसे कह दी।
वशिष्ठ मनि
ु ने राजा सत्य विक्रम से कहा कि आप अवंतिका नगरी में महाकाल
राजा ने उनसे पछ
ू ा कि यह क्या था तो तपस्वी ने कहा कि अब तम
ु शत्रओ
ु ं के नाश के लिए महादे व का
पज
ू न करो। शिवलिंग के दर्शन मात्र से राजा के शत्रु मरण को प्राप्त हो गए और राजा ने निष्कंटक
पथ्
ृ वी पर राज्य किया और अंत काल में परमपद को प्राप्त किया। मान्यता है कि कण्टे श्वर के दर्शन
मात्र से मनष्ु यों के सभी कंटक नाश होते हैं और वह शंकर के सानिध्य को प्राप्त करता है । विविध
मतानस
ु ार यह नीलकंठे श्वर महादे व के नाम से भी जाने जाते हैं
भी चाहो वह मझ
ु से मांग लो। पार्वती ने कहा कि शिव मझ
ु े काली कहते हैं मझ
ु े गौर वर्ण
चाहिए।
पार्वती को क्रोध आ गया, उनके क्रोध के कारण एक सिंह उत्पन्न हुआ। सिंह भख
ू ा था और पार्वती को
खाने के लिए आगे बढ़ा परं तु पार्वती के तप और तेज के कारण वह उन्हें खा नहीं सका और जाने
सिंह फिर पार्वती के पास आया और उनसे कहा कि मैं माता को मारने का पापी हूं, मझ
ु े नर्क में जाना
पार्वती के वचन सन
ु कर सिंह महाकाल वन में आया और यहां आकर उसने शिवलिंग के दर्शन किए
ममता के कारण पार्वती भी वहां पहुंचीं और सिंह के दर्शन के कारण शिवलिंग का नाम सिंहेश्वर रख
करे गा। दर्शन मात्र से सभी पापों का नाश होगा और उसकी सात पीढ़ी पवित्र हो जाएंगी।
जीत लिए। सभी दे वता घबरा कर ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा ने सभी दे वताओं को शिवजी के पास
भेज दिया।
दे वताओं ने शिवजी से कहा कि अश्विनी कुमार के तेज के कारण सारी सष्टि
ृ जल रही है । आप उनकी
रक्षा करें । शिवजी ने अश्विनी कुमार का स्मरण किया और अश्विनी कुमार शिवजी के पास आ गया।
पज
ू न करें गे और तम
ु राजाओं के राजा होगे। अश्विनी कुमार शिवजी की आज्ञा से महाकाल वन में
रे वन्त के पज
ू न के कारण शिवलिंग रे वन्तेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो
शामिल होने के लिए चतरु गंधर्वों में श्रेष्ठ चित्रसेन से मिले और सभा में
परीक्षा ली और संगीत सन
ु ाने को कहा। गण से संगीत सन
ु ने के बाद
चित्रसेन प्रसन्न हुए और सभा में जाने की आज्ञा दे दी। थोड़ी दे र के बाद
मिलेगी। इतना सन
ु कर गण दरू जाकर बैठ गया।
इसी प्रकार सोच विचार करते हुए एक वर्ष बीत गया परन्तु ब्रह्मा की सभा में जाना नहीं हुआ। इतने
में ही उसने वीणा हाथ में लिए नारद जी को ब्रह्मा की सभा में जाते हुए दे खा। उन्हें दे खकर गण ने
ब्रह्मा ने मझ
ु े जरूरी कार्य के लिए दे वाचार्य बह
ृ स्पति के पास भेजा है , मैं उनसे मिल कर आता हूं और
प्रकार नर्क में जाएगा। दे वदारू वन में गण को तपस्या करते हुए कुछ ऋषि मनि
ु मिले। गण ने विलाप
ु ने मेरे साथ छल किया है । अब मैं दोनों स्थानों से गया।> > गण का
करते हुए बताया कि नारद मनि
और भविष्य में यह लिंग घण्टे श्वर के नाम से जाना जाएगा। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य
घंटेश्वर का दर्शन और पज
ू न करे गा उसे संगीत की सभी विधाओं का ज्ञान मिलेगा।
धार्मिक हुए। उन्होंने यज्ञ करके उत्तम दान दक्षिणा दे कर यज्ञों को समाप्त किया ओर अपने सात पत्र
ु ों
को सातों द्वीपों का राजा बनाया ओर बद्रीनारायण की विशाल नगरी में तप करने चले गए। वे वहां
तपस्या में लीन हो गए। नगरी में विचरण करते हुए एक दिन नारद मनि
ु वहां पहुंचे ओर राजा से कहा,
चल जाएगा। नारद ने आंखें बंद की तो कन्या के स्वरूप में तीन दिव्य परु
ु ष दिखाई दिए। नारद ने
अपनी शक्तियों को प्रयोग करके दे खा पर वह उस कन्या के बारे में पता लगाने में असफल रहें । इसके
प्रयागेश्वर के दर्शन ओर पज
ू न करे गा वह अक्षय स्वर्ग में वास करे गा। दर्शन मात्र से सभी पापों का
नाश होगा।
अनष्ु ठान कर राजा ने सिद्धि को प्राप्त किया था। एक बार उसके राज्य में कपिल मनि
ु ओर
जैगीशव्य ऋषि का आगमन हुआ। राजा ने उनका सम्मान किया तथा उनसे पछ
ू ा कि उसने सन
ु ा है
कि भगवान विष्णु सर्वश्रेष्ठ हैं। उनके दर्शन व उनकी कृपा से मनष्ु य मोक्ष को प्राप्त करता है । फिर
के वचन सन
ु कर दोनों मनि
ु यों ने कहा कि राजन आप महाकाल वन में सिद्धेश्वर महादे व का पज
ू न
ही मतंग क्रूर स्वभाव का हुआ। एक बार बालक मतंग माता की गोद में बैठकर लकड़ी से अपने पिता
को मार रहा था। पास खड़ी एक गर्दभी ने उससे कहा कि यह ब्राह्मण नहीं, यह चांडाल है ।
गर्दभी के वचन सन
ु कर बालक ने उससे कहा कि मझ
ु े बताओ कि मैं चांडाल कैसे हुआ। गर्दभी ने उससे
परू ी कथा कह सन
ु ाई। मतंग ने निश्चय किया कि वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त करे गा। ऐसा प्रण कर वह
तपस्या करने के लिए चला गया। कई वर्षों तक तपस्या करने के बाद इंद्र उसके सामने प्रकट हुए और
उससे कहा कि तम
ु चांडाल योनि में उत्पन्न हुए हो, तम्
ु हें ब्राह्मणत्व नहीं मिल सकता। इसके बाद भी
मतंग ने कई हजार वर्षों तक तपस्या की ओर इंद्र ने कई बार उसे समझाने का प्रयास किया, परं तु
मतंग ने अपना प्रण नहीं त्यागा, उसने गया में जाकर तप करना प्रारं भ कर दिया। एक बार फिर इंद्र
है तम
ु उसका पज
ू न-दर्शन करो। मतंग इंद्र की बात सन
ु कर आवंतिका नगरी में आया और यहां
शिवलिंग का पज
ू न व दर्शन किया। मतंग के पज
ू न से महादे व ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए। इस
मतंग के पज
ू न के कारण शिवलिंग मतंगेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि कोई
ओर गह
ृ कार्य में निपण
ु थी। पति का हित चाहने वाली व धर्मात्मा थी। पर्व
ू कर्म के कारण वह दर्भ
ु गा
थी। राजा अश्वाहन को वह प्रिय नहीं थी। रानी के स्पर्श मात्र से राजा का शरीर जलने लगता था।
> एक बार राजा ने क्रोध में आकर आदे श दिया कि रानी को वन में छोड़कर आ जाए। रानी वन में
अपने भाग्य को कोसने लगी। इसी समय एक तपस्वी उसे नजर आया। रानी ने उनसे अपनी परू ी
व्यथा कही और पछ
ू ा कि उसे सौभाग्य कैसे प्राप्त होगा। तपस्वी ने ध्यान कर रानी को बताया कि
तम्
ु हारे विवाह के समय तम्
ु हारे पति को पाप ग्रहों ने दे खा है इस कारण वह तम्
ु हें प्रेम नहीं करता है ।
तम
ु अंवतिका नगरी में स्थित महाकाल वन में जाओ और वहां सौभाग्येश्वर महादे व का पज
ू न करों।
तम्
ु हारे पर्व
ू इंद्राणी ने भी उनका पज
ू न कर इंद्र को प्राप्त किया था। रानी ने अंवतिका नगरी में
महाकाल वन पहुंच कर भगवान का दर्शन किया। रानी के दर्शन मात्र से राजा को रानी का स्मरण
सौभाग्येश्वर महादे व का पज
ू न कर रही हैं। राजा वहां पहुंचा व रानी को पाकर प्रसन्न हुआ। राजा-रानी
है ।
क्रोधित होकर दोनों को श्राप दिया कि वे दोनों कुरूप हो जाए। दोनों ने मनि
ु से क्षमा मांगी ओर पन
ु ः
महादे व के पर्व
ू में स्थित शिवलिंग के दर्शन करो, तम
ु दोनों रूप को प्राप्त करोगे। राजा और कन्या
तरु ं त महाकाल वन में आए और शिवलिंग के दर्शन किए। शिवलिंग के दर्शन मात्र से दोनों पहले से भी
अधिक रूपवान हो गए और फिर राज्य में लौट गए ओर अंतकाल में स्वर्ग को प्राप्त किया।
करने के लिए वन में गए। वहां उन्होंने एक बडा गढ्ढा दे खा, उसे आश्चर्य हुआ। तभी वहां एक तपस्वी
आए और उन्होंने बताया कि यहां से रसातल में रहने वाला कंु जभ नाम का दानव आता-जाता है । आप
उसका वध करो। राजा अपने महल लौटा और वहां उसने अपने पत्र
ु ों ओर मंत्रियों से विचार विमर्श
किया।
पत्र
ु ों ने कंु जभ से यद्
ु ध शरू
ु कर दिया। अमोध मस
ू ल के कारण कंु जभ ने सेना का नाश कर दिया तथा
कर सकोगे। राजा तरु ं त अवंतिकानगरी में महाकाल वन में पंहुचा। यहां उसने शिवलिंग का पज
ू न
किया। भगवान शिव ने उसे एक धनष
ु प्रदान किया । राजा धनष
ु तथा सेना के साथ यद्
ु ध करने के
परु
ु षों तथा एक स्त्री को दे खा। राजा उन्हें दे ख मर्छि
ू त हो गया। वे पांचों परु
ु ष तथा
स्त्री उसे घर ले आए। राजा जब होश में आया तो उसने उनसे यद्
ु ध किया। इस
दसों परु
ु ष और स्त्री राजा के शरीर में लीन हो गए। राजा दख
ु ी हो गए। इस बीच
परिचय पछ
ू ा।
थी वह मन रूप बद्
ु धि थी। वे क्रोधवश तम्
ु हारे पास आए थे। तम्
ु हारे पितामह ने यज्ञ में महादे व का
पशु योनि को प्राप्त हुए। सभी दे वताओं ने ब्रह्मा से निवेदन किया और फिर भगवान शिव के पास
पहुंचे। यहां शिव ने प्रसन्न होकर उनसे कहा कि आप सभी महाकाल वन में जाओ और वहां लिंग रूपी
पशप
ु तेश्वर महादे व के दर्शन करो।
सभी दे वता महाकाल वन में आए और यहां शिवजी के दर्शन किए तथा पशु योनि से मक्
ु त हुए।
हो जाते हैं।
खटीकवाड़ा (ढाबारोड के पास) में स्थित है । भगवान विष्णु का संकट नष्ट करने
नामक दै त्य अपने पराक्रम से इन्द्र सहित अनेक दे वताओं को हराकर विष्णल
ु ोक
पल
ु ोमा के आने का कारण भी बतला दिया। पल
ु ोमा के आतंक से भयभीत विष्णज
ु ी ने ब्रह्माजी से
कहा कि तम
ु अभी महाकाल वन स्थित सातकल्प से पर्व
ू उत्पन्न शिवलिंग की आराधना कर उनसे
अस्त्र-शस्त्र यक्
ु त दिव्य जल यहां तरु न्त लाओ। इससे उस जल को पल
ु ोमा और उसकी सेना पर
शत्रम
ु हि, जय, विजय और विक्रांत थे। राजा ने पर्व
ू दिशा का राज्य सब
ु ाहू, दक्षिण
का शत्रम
ु हि, पश्चिम दिशा का जय और उत्तर दिशा का विजय ओर मध्य का
विक्रांत को दिया ओर खद
ु तपस्या करने चला गया। इधर विक्रांत ने मंत्री के
दिया। यह बात राजा को पता चली तो वह शोक जताने लगा। राजा ने वन में ही
वशिष्ठ मनि
ु से बात कही कि यद्
ु ध में ब्राह्मणों की हत्या हुई है ।
पत्र
ु ों की हत्या हुई इसका पाप उसे मिलेगा। उसने मनि
ु से पाप कर्मो से मक्
ु त होने का उपाय पछ
ू ा।
मनि
ु ने कहा कि राजन आप महाकाल वन में कुक्कुटे श्वर महोदव के पश्चिम में स्थित शिवलिंग का
पज
ू न करें । उसका पज
ू न कर परशरु ाम भी पाप मक्
ु त हुए थे। राजा मनि
ु की आज्ञा से महाकाल वन में
आया और शिवलिंग का पज
ू न किया। भगवान शंकर प्रसन्न हुए और आकाशवाणी हुई कि राजा तम
ु
बंधन से मक्ति
ु मिलें और मेरी ख्याति रहे । वरदान के कारण शिवलिंग जल्पेश्वर महोदव के नाम से
पत्र
ु का वियोग नहीं होता है ।
शीत पीड़ा से परे शान होकर वे ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा के सामने दे वताओं
ने स्तति
ु करते हुए कहा हम हिमाद्रि पर्वत से पीडित होकर आपकी शरण में आए
हैं। यह सन
ु कर ब्रह्मा ने कहा कि हिमालय पर्वत पर तो भगवान शंकर के असरु
रहते हैं। इस परे शानी का हल तो भगवान शंकर ही करें गे। इसके बाद दे वता
भगवान शंकर की शरण में चले गए और अपनी परे शानी बताई। इस पर भगवान
शंकर ने हिमालय को बल
ु ाया और कहा, हे हिमालय तम्
ु हें मर्यादा में रहना चाहिए
तम्
ु हारे कारण दे वताओं तथा गंर्धव को परे शान होना पड़ रहा है । इतना कह कर
> साथ ही पर्वत से मंत्रों के उच्चारण से जल की धारा निकली। यहां पर निवास करने के कारण
भगवान शंकर केदारे श्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह सब दे खकर सभी दे वता केदारे श्वर के स्थान पर
प्रस्तत
ु हुए और भगवान को धन्यवाद दिया। कुछ समय बाद वहां धल
ू तथा हिम के कारण अंधकार हो
गया। यात्री केदारे श्वर को इधर-उधर ढूंढने लगे। सभी महादे व की निंदा करने लगे। निंदा सन
ु कर
महादे व ने आकाशवाणी करते हुए कहा कि जो भी मनष्ु य परु ाणों व शास्त्रों की निंदा करते हैं वे नर्क को
प्राप्त होते है । यहां पर सदा केदारे श्वर है परं तु वह आठ माह दिखाई नहीं दें गे। इसलिए मेरे दर्शन अभी
अवंतिकापरु ी है । वहां क्षिप्रा के किनारे सोमेश्वर से पश्चिम में स्थान है केदारे श्वर। जितने माह में
केदारे श्वर में मेरे दर्शन नहीं होगें , उतने समय में यही अवंतिका नगरी में विश्राम करूगां। मान्यता है
नास्तिक था। वह हमेशा वेदों की निंदा करता था। उसको संतान नहीं थी। सोमा
हमेशा हिंसावत्ति
ृ में रहकर अपना जीवन व्यतीत करता था। इसी स्वभाव के
कारण सोमा कष्ट के साथ मरण को प्राप्त हुआ। इसके बाद सोमा पिशाच्य योनि
को प्राप्त हुआ। नग्न शरीर और भयावह आकृति वाला पिशाच मार्गो पर खड़े
होकर लोगों को मारने लगा। एक समय वेद विद्या जानने वाले सदा सत्य बोलने
वाले कहीं जा रहे थे, पिशाच उनको खाने के लिए दौड़ा। तभी ब्राह्मण को दे खकर
पिशाच रूक गया और संज्ञाहीन हो गया। पिशाच को कुछ समझ नहीं आ रहा था
ब्राह्मण ने पिशाच से पछ
ू ा तम
ु मझ
ु से घबरा क्यों रहे हो। पिशाच ने कहा तम
ु ब्रह्म राक्षस हो इसलिए
मझ
ु े तम
ु से भय लग रहा है । यह सब सन
ु कर ब्राह्मण हं सने लगे और पिशाच को पिशाच्य योनि से
मक्
ु त होने का मार्ग बताया। उन्होंने कहा द्रव्य हरण करने और दे वता के द्रव्य को चरु ाने वाला
ब्राह्मण ने बताया कि सब तीर्थो में उत्तम तीर्थ है अवंतिका तीर्थ जो प्रलय में अक्षय रहती है । वहां
पिशाच्य का नाश करने वाले महादे व है । ढूंढेश्वर के दक्षिण में दे वताओं से पजि
ू त पिशाचत्व को नाश
दर्शन-पज
ू न करता है उसे धन और पत्र
ु का वियोग नहीं होता तथा संसार में सभी सख
ु ों को भोगकर
पत्नी कांचीपरु ी के राजा दृढधन्वा की कन्या विशालाक्षी थी। दोनों परस्पर प्रेम से
रहते थे। राजा को माथे में दोपहर में रोज पीड़ा हुआ करती थी। निपण
ु वैद्यों ने
औषधियां दी किन्तु पीड़ा दरू नहीं हुई। रानी ने राजा से पीड़ा का कारण पछ
ू ा।
राजा ने रानी को दख
ु ी दे खकर कहा, पर्व
ू जन्म के कर्म से शरीर को सख
ु -दख
ु हुआ
करता है । इतना सन
ु ने के बाद भी रानी संतष्ु ट नहीं हुई। तब राजा ने कहा मैं
इसका कारण यहां नही कहूंगा। महाकाल वन में चलो वहां परू ी बात समझा
सकंू गा। सब
ु ह होते ही राजा सेना ओर रानी के साथ महाकाल वन अंवतिका नगरी
की ओर चल दिए।
पाताल में गमन करने वाली गंगा तथा नीलगंगा और क्षिप्रा का जहां संगम हुआ है वहां ठहरा। इनके
पास जो महादे व है उनका नाम संगमेश्वर है । राजा ने क्षिप्रा तथा पाताल गंगा का जल लेकर महादे व
का पज
ू न किया। इतना सब दे खकर रानी ने फिर पछ
ू ा राजन अपने दख
ु का कारण बताइए। राजा ने
लगा। उस समय मझ
ु े वियोग हो गया। मैं अकेला रहने लगा। तब मझ
ु े वैराग्य प्राप्त हुआ और अंत में
मैने अंत समय में धर्म की प्रशंसा की थी इसलिए क्षिप्रा जी में मत्स्य बना और तम
ु उसी वन में श्येनी
(कबत
ू री) बन गई। एक दिन दोपहर को अश्लेषा के सर्य
ू (श्रावण) में त्रिवेणी से बाहर निकला और तम्
ु हें
लेकर संगमेश्वर के पास ले गया। पारधि ने हम दोनों का शिकार कर लिया। हमने अंत समय में
जाओ। रानी ने कहा राजन जैसे शिव बिना पार्वती, कृष्ण बिना राधा ठीक उसी प्रकार मैं आपके बिना
अधरू ी हूं। मान्यता है कि पर्व
ू जन्मों में वियोग से मरे हुए पति पत्नी संगमेश्वर महादे व के दर्शन से
आप मनि
ु के पास जाकर मेरा हाथ मांगो। राजा ने वैसा ही किया। कल्प मनि
ु ने कन्या का
राजा तरु ं त अवंतिका नगरी आया और उसने वैसा ही किया जैसा मनि
ु ने कहा था। शिवलिंग की पज
ू ा
करते ही उसे मंदिर में उसकी स्त्री प्राप्त हो गई। तब राजा उसे लेकर नेपाल चला गया। दर्ध
ु र्ष राजा के
पज
ू न करने से इस शिवलिंग का नाम दर्ध
ु रे श्वर के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि जो मनष्ु य
एक दिन सेना के साथ शिकार करने लिए वन में गए। वहा एक स्त्री को दे खा। राजा ने
उससे परिचय पछ
ू ा तो स्त्री ने कहा कि राजन आप मेरा परिचय न पछ
ू ें , आप जो चाहते हैं
उसके लिए मैं तैयार हूं। इसके लिए उसने एक शर्त रखी की वह रानी बनने के बाद जो भी
नदी में प्रावाहित करने जा रही थी, तभी राजा ने रानी को रोका और कहा कि तम
ु इस पत्र
ु
और वचन को तोड़ने के कारण मैं आपका त्याग करती हूं। मै जन्हू की कन्या गंगा हूं और
दे वताओं के कार्य सिद्ध करने के लिए मैंने आपसे विवाह किया था। यह आठ वसु है जो
वशिष्ठ ऋषि के श्राप के कारण मनष्ु य योनि में आए थे। गंगा वहां से आगे जाकर पत्र
ु
रूदन का कारण पछ
ू ा। गंगा ने कहा महर्षि मैंने पत्र
ु ों की हत्या की है । मझ
ु े इस पापकर्म से
मक्ति
ु कैसे मिलेगी। नारद मनि
ु ने कहा गंगा तम
ु अवंतिका नगरी में जाओं जहां तम्
ु हारी
वहां दर्धे
ु श्वर महादे व के दक्षिण में स्थित महादे व का पज
ू न करो, जिससे तम्
ु हारे सभी पाप नष्ट हो
जाएंगे। गंगा अवंतिका नगरी आई ओर सखी क्षिप्रा के साथ मिलकर भगवान शिव का पज
ू न किया।
मनि
ु वर प्रयाग नजर नहीं आ रहा तो नारद ने कहा कि वह महाकाल वन में गया होगा, जहां चार
नदियों का मिलन हो रहा है । प्रयाग के बाद इन चार नदियों के मिलन के कारण शिवलिंग प्रयागेश्वर
राज्य शरू
ु कर दिया। यद्
ु ध में हारे दे वता छिप गए, वही चंद्र ओर सर्य
ू भी भय के कारण
गया। सर्य
ू और चंद्र वहां से भगवान विष्णु के पास गए और स्तति
ु कर रक्षा की प्रार्थना की,
शिवलिंग का पज
ू न किया।
> शिवलिंग से निकली ज्वाला से शंबरासरु सेना सहित नष्ट हो गया और स्वर्ग पर फिर दे वता
कमरे में है ।
उन्होंने कई जंगली जानवरों का शिकार किया। फिर उन्हें कोई पशु नजर नहीं आया। अचानक उन्हें
एक करभ (ऊंट) नजर आया ओर उन्होंने उसे तीर मार दिया। वह ऊंट तीर लगने के बाद वहां से
भागा। राजा वीरकेतु उसके पीछे भागे। कुछ दे र बाद ही वह ऊंट गायब हो गया। राजा भटकते हुए
मनि
ु यों के आश्रम में पहुंच गए। ऋषियों ने राजा वीरकेतु से कहा राजन काफी वर्ष पर्व
ू राजा हुआ करते
थे, जिनका नाम धर्मध्वज था। एक बार वे शिकार करने के लिए वन में गए वहां उन्होंने मग
ृ चर्म पहने
> इस पर ब्राह्मण ने राजा को श्राप दिया कि वह करभ योनि में चले जाएं। राजा ने दख
ु ी होकर
ब्राह्मण से विनती की तो ब्राह्मण ने कहा कि अयोध्या के राजा वीरकेतु के बाण से घायल होकर तम
ु
के दर्शन कर चक्रवर्ती सम्राट हो जाओगे। राजा तरु ं त महाकाल वन आया। यहां उसने धर्मध्वज को एक
मक्ति
ु मिलती है । अंतकाल में मनष्ु य शिवलोक को प्राप्त करता है । यह मंदिर
कौन करे गा। यज्ञ, हवन, धर्म की रक्षा कौन करे गा। इस दौरान उन्होंने राजा रिपंज
ु य को तपस्या करते
दे खा और उससे कहा कि राजा अब तपस्या त्याग कर प्रजा का पालन करो। सभी दे वता तम्
ु हारे वश में
रहें गे और तम
ु पथ्
ृ वी पर राज करोगे। राजा ने ब्रह्मा की आज्ञा मानकर सभी दे वतओं को स्वर्ग में राज
रूप लेकर यज्ञ, हवन प्रारं भ कर दिए। एक बार भगवान शंकर माता पार्वती के साथ भ्रमण करते हुए
राजा की भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उसे वरदान दे दिया। तभी से भगवान शंकर राजस्थलेश्वर
मनोरथ पर्ण
ू होते हैं और उसके शत्रु का नाश होता है । उसके वंश में वद्
ृ धि होती है तथा
मनष्ु य पथ्
ृ वी पर सभी सख
ु ों का भोग कर अंतकाल में परमगति को प्राप्त करता है । इनका
अत्यंत रूपवान व बलिष्ठ था। एक बार वह कुबेर के बगीचे में नलिनी नामक
संद
ु री के पास गया। वहां पहुंचने पर बड़ल को नलिनी की रक्षा करने वाले रक्षकों
ने रोका तो बड़ल ने अपने बल से सभी को मारकर भगा दिया। सभी कुबेर पास
पहुंचे जहां मणिभद्र भी बैठा था। उन्होंने बड़ल की परू ी बात बता दी। मणिभद्र ने
नलिनी से दव्ु यवहार करने के कारण बड़ल को श्राप दिया कि उसका पत्र
ु नेत्रहीन
पश्चात मणिभद्र बड़ल के पास आए और उससे कहा कि मेरा श्राप खाली नहीं
जाएगा।
अब तम
ु अंवतिका नगरी में स्वर्गद्वारे श्वर के दक्षिण में स्थित शिवलिंग के दर्शन करो। दर्शन मात्र से
तम्
ु हारा उद्धार होगा। मणिभद्र पत्र
ु बड़ल को लेकर अवंतिका नगरी में आए और यहां बड़ल ने
शिवलिंग के दर्शन किए तथा उनके स्पर्श करने से उसका क्षय रोग दरू हो गया और वह पर्व
ू की तरह
रूपवान ओर नेत्रों वाला हो गया। बड़ल के यहां दर्शन-पज
ू न के कारण शिवलिंग बड़लेश्वर महादे व के
पथ्
ृ वी पर सभी सख
ु ों को भोग कर मोक्ष को प्राप्त करता है । इनका मंदिर भैरवगढ़ में सिद्धवट के
सामने है ।
प्राप्त किया। एक समय दोनों कन्याएं गर्भवती हुई। इस बीच कश्यप मनि
ु वन में
दिया।
दे खा कि उसमें एक बालक है जिसका धड़ व सिर है परं तु पैर नहीं है । क्रोध में आकर बालक अरुण ने
कराएगा। श्राप दे ने के बाद बालक अरूण रूदन करने लगा कि उसने अपनी माता को श्राप दिया।
उसका रूदन सन
ु कर नारद मनि
ु वहां आए और अरुण से कहा कि अरूण जो कुछ हुआ है वह परमात्मा
की इच्छा से हुआ है । तम
ु महाकाल वन में जाओ। वहां उत्तर दिशा में स्थित शिवलिंग के दर्शन-पज
ू न
है
भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की। शिव के प्रसन्न न होने पर उसने और
भी अधिक कठोर तप प्रांरभ कर दिया, इस प्रकार 12 वर्ष बीत गए। एक दिन माता पार्वती
कहा कि तम
ु ने मेरी आज्ञा नहीं मानी अब तम
ु ही पथ्
ृ वी जाओ।
दस
ू री ओर पष्ु पदं त रूदन करने लगा कि उसने शिव की आज्ञा नहीं मानी। तब पार्वती ने उससे कहा
कि पष्ु पदं त तम
ु महाकाल वन के उत्तर में महादे व है उनका पज
ू न करो। शिव ने भी पप्ु पदं त को
शिवलिंग की उपासना करने की आज्ञा दी। पष्ु पदं त महाकाल वन गया। वहां शिवलिंग के दर्शन कर
पज
ू न किया। उसके पज
ू न से शिव प्रसन्न हुए। अपनी गोद में बैठाया। उसे उत्तम स्थान दिया।
पष्ु पदं त के पज
ू न करने के कारण शिवलिंग पष्ु पदं तश्े वर के नाम से विख्यात हुआ।
मान्यता है कि जो भी मनष्ु य पष्ु पदं तश्े वर के दर्शन करे गा उसके कुल में सात कुलों का
उद्धार होगा। अंतकाल में शिवलोक को प्राप्त करे गा। यह मंदिर तेली की धर्मशाला के
तो राजा ने उसे बल
ु ाया व कहा कि बताओ बेटी में तम्
ु हारा विवाह किससे करूं? राजा की
बात सन
ु कर लावण्यावती कभी रोती तो कभी हं सने लगती। राजा ने उसका कारण पछ
ू ा तो
बाद भी उसके पति ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उससे क्रोधित रहते थे। एक बार वह
अपने पिता के घर गई, उन्हें परू ी बात बताई। उसके पिता ने उसे अभिमंत्रित वस्तए
ु ं तथा
मंत्र दिए, जिससे उसका पति उसके वश में हो गया। पति के साथ सख
ु ी जीवन जीने के बाद
उसकी मत्ृ यु हो गई पर वह नरक को प्राप्त हुई। यहां तरह-तरह की यातनाएं भोगने के बाद
यहां संद
ु र रूप पाने के बाद उसके शरीर पर फोड़े हो गए ओर जानवर उसे काटने लगे। उनसे बचने के
लिए वह भागी ओर महाकाल वन पहुंच गई। यहां उसने भगवान शिव व पिप्लादे श्वर के दर्शन किए।
दर्शन के कारण उसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई। स्वर्ग में दे वताओं के साथ रहने के कारण मेरा आपके यहां
जन्म हुआ है । कन्या ने राजा से कहा कि इस जन्म में भी मैं अवंतिका नगरी में शिव के दर्शन करूंगी।
राजा अपनी सेना के साथ महाकाल वन आया और कन्या व रानी के साथ शिवजी के दर्शन किए।
अभिमक्
ु तेश्वर महोदव के दर्शन-पज
ू न करता है उसकी मक्ति
ु अवश्य होती है । उसे मत्ृ यु
मनि
ु यों ने कहा कि आपने रावण के कुल का नाश किया, इसमें आपका हुनमान ने सहयोग
हनम
ु ान के पराक्रम का वर्णन किया परं तु लक्ष्मण ने भी यद्
ु ध किया तथा मेघनाथ का वध
किया। इस पर मनि
ु यों ने कहा कि हनम
ु ान का पराक्रम सभी के पराक्रम से विशाल है ।
राम ने कारण पछ
ू ा तो मनि
ु यों ने कहा कि हनम
ु ान जब बाल रूप में थे तब एक बार में सर्य
ू को फल
समझकर खाने के लिए निकल गए थे। इंद्र ने अपने वज्र से उन पर प्रहार किया, जिससे उनके होंठ पर
चोट आई और वे एक पर्वत पर गिर पड़े। वायु दे व उन्हें लेकर महाकाल वन आए और यहां शिवलिंग
के सामने भगवान शंकर की आराधना करने लगे। शिवलिंग के स्पर्श करने से हनम
ु ान जीवित हो उठे ।
अपना बल भल
ू गए थे। समद्र
ु लांघने के समय जामवंत ने हनम
ु ान को उनका बल याद दिलाया था।
हनम
ु ान के शिवलिंग के स्पर्श व रावण वध के बाद पज
ू न के कारण शिवलिंग हनम
ु ंत्केश्वर महादे व के
मनोकामनाएं पर्ण
ू होती है । इन का मंदिर ओखलेश्वर जाने वाले मार्ग पर स्थित है ।
के पत्र
ु व बहू को दे खा। उस समय उनका पत्र
ु ध्यान में बैठा हुआ था। राजा ने मनि
ु से कहा कि रास्ते से
का भक्षण करे गा। राजा ने अपनी गलती की क्षमा मांगी परं तु उसे माफी नहीं मिली। राजा वशिष्ठ
मनि
ु के पत्र
ु ों व बहू को खा गया। रात को राजा को कई बरु े स्वप्न आए। उसने सब
ु ह मंत्री को बताया।
दर्शन-पज
ू न किया राजा के बरु े सपनों का नाश होने के कारण शिवलिंग स्वप्नेश्वर महादे व
के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है स्वप्नेश्वर महादे व के दर्शन से बरु े सपनों का नाश
सर्वोत्तम है । पार्वती के कहने पर भगवान शंकर ने चार दिशाओं में चार द्वार
कायवरोहणेश्वर, उत्तर में विश्वेश्वर, ओर पश्चिम में दर्देु श्वर की स्थापना की।
उसकी रक्षा करें । इसके बाद भगवन शिव ने पार्वती को पिंगलेश्वर की कथा
बताई।
धर्म व वेद के ज्ञाता थे। जब उनकी पत्नी मत्ृ यु को प्राप्त हो गई विपेन्द्र घर छोड़कर बेटी का भी रक्षण
ब्राह्मण तम्
ु हारे रूप के वशीभत
ू होकर साथ रहता था। तम्
ु हारे साथ रहने के लिए अपनी पत्नी का
माता-पिता ने तम्
ु हें श्राप दिया की तम
ु पिता वियोग सहोगी ओर पति को प्राप्त नहीं करोगी। पिंगला
ने उनसे पछ
ू ा कि वह ब्राह्मण जन्म मे कैसे हुई धर्मराज ने बाताया कि एक बार वासना से पीडित एक
मक्ति
ु कैसे प्राप्त होगी। धर्मराज ने बताया कि अवंतिका में महाकाल वन में पर्व
ू दिशा मे शिवलिंग का
पिंगला के मक्ति
ु से शिवलिंग का नाम पिंगलेश्वर हुआ। मान्यता है कि जो भी मनष्ु य
पिंगलेश्वर महादे व के दर्शन करे गा उसके घर में सदा धर्म और धन निवास करें गे और
अंतकाल में स्वर्ग को प्राप्त करे गा। यह मंदिर पिंगलेश्वर गांव में स्थित है । यह मंदिर
यज्ञ में भस्म हो जाने से क्रोधित होकर वीरभद्र को यज्ञ का नाश करने के लिए
भेज दिया भद्रकाली और वीरभद्र ने मिलकर यज्ञ स्थल पर हाहाकर मचा दिया
स्तति
ु कर दे वताओं को पन
ु ः काया कैसे प्राप्त होगी उसका उपाय पछ
ू ा तब
उत्तम राज सख
ु भोग कर अंतकाल में स्वर्ग में गमन करता है । यह मंदिर करोहन गांव में
स्थित है ।
कर रहा था। ब्रह्मा आए और उसे बिल्व दिया। ब्रह्मा के जाने के बाद इंद्र वहां आए और
उसे पथ्
ृ वी पर राज करने के लिए कहा। बिल्व प्राप्त परु
ु ष ने कहा, इंद्र का वज्र मिले तो वह
पथ्
ृ वी पर राज करे गा। इंद्र ने उससे कहा कि जब भी तम
ु वज्र का स्मरण करोगे वज्र तम्
ु हारे
दोनों झगड़ने लगे। बिल्व ने भगवान विष्णु की उपासना कर वरदान मांगा कि कपिल
बिल्व के दर्शन-पज
ू न के कारण शिवलिंग बिल्वेश्वर महादे व के नाम से विख्यात हुआ। मान्यता है कि
ले आए। उसके मोह में राजा का ध्यान राजकाज से हट गया। राजा के मंत्री ने
संद
ु र वाटिका निर्माण कराकर राजा को वहां उसे रानी के साथ छोड़ दिया। एक
बार रानी वहां बने एक तालाब में स्नान करने गई और फिर वापस नहीं आई। उस
तालाब में दर्दुु र (में ढक) अधिक थे। राजा ने सभी मेढकों को नष्ट करने का आदे श
दे दिया। इस बीच में ढकों का राजा निकलकर आया और कहा मेरा नाम आयु है
नागचड़
ू ले गया है । आप उसे याद करें ओर उससे रानी को मांगें। नागचड़
ू ने राजा
उन्होंने कहा जब तम
ु अपनी कन्या इक्श्वाकु कुल के राजा को दान करोगे और महाकाल वन के उत्तर
दर्दुु र से मक्ति
ु के कारण शिवलिंग दर्दुु रे श्वर महादे व के नाम से विख्यात हुए। मान्यता है कि जो भी
दर्दुु रे श्वर महादे व के दर्शन करे गा उसके पाप नष्ट होंगे। यह मंदिर आगर रोड़ पर जैथल गांव में है ।