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रामायण – मनका 108

रामायण – मनका 108

इस पाठ की एक माला प्रतितिन करने से मनोकामना पू र्ण होिी है , ऎसा माना गया है . रामायर् मनका 108
का घर के सभी सिस्य तनत्यकमण से तनर्णि होकर घर में मंगलर्ार र् शतनर्ार को या प्रतितिन सस्वर र्ाचन
[ पाठ ] करने से सभी मनोकामनाये पूर्ण हो जािी हैं | पररर्ार में सुख शां ति , आपसी सामंजस्य , अपार प्रभु
श्री राम की कृपा बनी रहिी हैं |

रघुपति राघर् राजाराम । तर्श्वातमत्र मुनीश्वर आये ।


पतििपार्न सीिाराम ।। िशरथ भूप से र्चन सुनाये ।।
जय रघुनन्दन जय घनश्याम । संग में भेजे लक्ष्मर् राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।। पतििपार्न सीिाराम ।। 2 ।।

भीड़ पड़ी जब भक्त पुकारे । र्न में जाए िाड़का मारी ।


िू र करो प्रभु िु :ख हमारे ।। चरर् छु आए अतहल्या िारी ।।
िशरथ के घर जन्मे राम । ऋतियों के िु :ख हरिे राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।। 1 ।। पतििपार्न सीिाराम ।। 3 ।।

1
जनक पुरी रघुनन्दन आए । बारह र्िण तबिाये राम ।
नगर तनर्ासी िशणन पाए ।। पतििपार्न सीिाराम ।।11।।
सीिा के मन भाए राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।। 4।। गुरु र्तशष्ठ से आज्ञा लीनी ।
राज तिलक िैयारी कीनी ।।
रघुनन्दन ने धनुि चढाया । कल को होंगे राजा राम ।
सब राजो का मान घटाया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।12।।
सीिा ने र्र पाए राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।5।। कुतटल मंथरा ने बहकाई ।
कैकई ने यह बाि सुनाई ।।
परशुराम क्रोतधि हो आये । िे िो मेरे िो र्रिान ।
िु ष्ट भूप मन में हरिाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।13।।
जनक राय ने तकया प्रर्ाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।6।। मेरी तर्निी िुम सुन लीजो ।
भरि पुत्र को गद्दी िीजो ।।
बोले लखन सुनो मुतन ग्यानी । होि प्राि र्न भेजो राम ।
संि नहीं होिे अतभमानी ।। पतििपार्न सीिाराम ।।14।।
मीठी र्ार्ी बोले राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।7।। धरनी तगरे भूप ििकाला ।
लागा तिल में सूल तर्शाला ।।
लक्ष्मर् र्चन ध्यान मि िीजो । िब सुमन्त बुलर्ाये राम ।
जो कुछ िण्ड िास को िीजो ।। पतििपार्न सीिाराम ।।15।।
धनुि िोडय्या हूँ मै राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।8।। राम तपिा को शीश नर्ाये ।
मुख से र्चन कहा नहीं जाये ।।
लेकर के यह धनुि चढाओ । कैकई र्चन सुनयो राम ।
अपनी शक्तक्त मुझे तिखलाओ ।। पतििपार्न सीिाराम ।।16।।
छूर्ि चाप चढाये राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।9।। राजा के िुम प्रार् प्यारे ।
इनके िु :ख हरोगे सारे ।।
हुई उतमणला लखन की नारी । अब िुम र्न में जाओ राम ।
श्रुतिकीतिण ररपुसूिन प्यारी ।। पतििपार्न सीिाराम ।।17।।
हुई माण्डर् भरि के बाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।10।। र्न में चौिह र्िण तबिाओ ।
रघुकुल रीति-नीति अपनाओ ।।
अर्धपुरी रघुनन्दन आये । िपसी र्ेि बनाओ राम ।
घर-घर नारी मंगल गाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।18।।

2
सुनि र्चन राघर् हरिाये । बोले सं ग चलूंगा राम ।
मािा जी के मंतिर आये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।26।।
चरर् कमल मे तकया प्रर्ाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।19।। राम लखन तमतथलेश कुमारी ।
र्न जाने की करी िै यारी ।।
मािा जी मैं िो र्न जाऊं । रथ में बैठ गये सुख धाम ।
चौिह र्िण बाि तिर आऊं ।। पतििपार्न सीिाराम ।।27।।
चरर् कमल िे खूं सुख धाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।20।। अर्धपुरी के सब नर नारी ।
समाचार सुन व्याकुल भारी ।।
सुनी शूल सम जब यह बानी । मचा अर्ध में कोहराम ।
भू पर तगरी कौशल्या रानी ।। पतििपार्न सीिाराम ।।28।।
धीरज बंधा रहे श्रीराम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।21।। श्रृंगर्ेरपुर रघुर्र आये ।
रथ को अर्धपुरी लौटाये ।।
सीिाजी जब यह सुन पाई । गंगा िट पर आये राम ।
रं ग महल से नीचे आई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।29।।
कौशल्या को तकया प्रर्ाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।22।। केर्ट कहे चरर् धुलर्ाओ ।
पीछे नौका में चढ जाओ ।।
मेरी चूक क्षमा कर िीजो । पत्थर कर िी, नारी राम ।
र्न जाने की आज्ञा िीजो ।। पतििपार्न सीिाराम ।।30।।
सीिा को समझािे राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।23।। लाया एक कठौिा पानी ।
चरर् कमल धोये सुख मानी ।।
मेरी सीख तसया सुन लीजो । नार् चढाये लक्ष्मर् राम ।
सास ससुर की सेर्ा कीजो ।। पतििपार्न सीिाराम ।।31।।
मुझको भी होगा तर्श्राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।24।। उिराई में मुिरी िीनी ।
केर्ट ने यह तर्निी कीनी ।।
मेरा िोि बिा प्रभु िीजो । उिराई नहीं लूंगा राम ।
संग मुझे सेर्ा में लीजो ।। पतििपार्न सीिाराम ।।32।।
अर्द्ाां तगनी िुम्हारी राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।25।। िुम आये, हम घाट उिारे ।
हम आयें गे घाट िुम्हारे ।।
समाचार सुतन लक्ष्मर् आये । िब िुम पार लगायो राम ।
धनुि बार् संग परम सुहाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।33।।

3
भरद्वाज आश्रम पर आये । खरिू िन को मारे राम ।
राम लखन ने शीि नर्ाए ।। पतििपार्न सीिाराम ।।41।।
एक राि कीन्हा तर्श्राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।34।। पंचर्टी रघुनंिन आए ।
कनक मृग “मारीच“ संग धाये ।।
भाई भरि अयोध्या आये । लक्ष्मर् िु म्हें बुलािे राम ।
कैकई को कटु र्चन सुनाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।42।।
क्ों िुमने र्न भेजे राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।35।। रार्र् साधु र्ेि में आया ।
भूख ने मुझको बहुि सिाया ।।
तचत्रकूट रघुनंिन आये । तभक्षा िो यह धमण का काम ।
र्न को िे ख तसया सुख पाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।43।।
तमले भरि से भाई राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।36।। तभक्षा लेकर सीिा आई ।
हाथ पकड़ रथ में बैठाई ।।
अर्धपुरी को चतलए भाई । सूनी कुतटया िे खी भाई ।
यह सब कैकई की कुतटलाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।44।।
ितनक िोि नहीं मेरा राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।37।। धरनी तगरे राम रघुराई ।
सीिा के तबन व्याकुलिाई ।।
चरर् पािु का िु म ले जाओ । हे तप्रय सीिे, चीखे राम ।
पूजा कर िशणन िल पार्ो ।। पतििपार्न सीिाराम ।।45।।
भरि को कंठ लगाये राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।38।। लक्ष्मर्, सीिा छोड़ नहीं िु म आिे ।
जनक िु लारी नहीं गंर्ािे ।।
आगे चले राम रघुराया । बने बनाये तबगड़े काम ।
तनशाचरों का र्ंश तमटाया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।46 ।।
ऋतियों के हुए पूरन काम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।39।। कोमल बिन सुहातसतन सीिे ।
िुम तबन व्यथण रहें गे जीिे ।।
‘अनसूया’ की कुटीया आये । लगे चाूँ िनी-जैसे घाम ।
तिव्य र्स्त्र तसय मां ने पाय ।। पतििपार्न सीिाराम ।।47।।
था मुतन अत्री का र्ह धाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।40।। सुन री मैना, सुन रे िोिा ।
मैं भी पंखो र्ाला होिा ।।
मुतन-स्थान आए रघुराई । र्न र्न लेिा ढूंढ िमाम ।
शूपणनखा की नाक कटाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।48 ।।

4
श्यामा तहरनी, िू ही बिा िे । सहिे भूख प्यास और घाम ।
जनक नन्दनी मुझे तमला िे ।। पतििपार्न सीिाराम ।।56।।
िेरे जैसी आूँ खे श्याम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।49।। सम्पािी ने पिा बिाया ।
सीिा को रार्र् ले आया ।।
र्न र्न ढूंढ रहे रघुराई । सागर कूि गए हनुमान ।
जनक िु लारी कहीं न पाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।57।।
गृर्द्राज ने तकया प्रर्ाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।50।। कोने कोने पिा लगाया ।
भगि तर्भीिर् का घर पाया ।।
चख चख कर िल शबरी लाई । हनुमान को तकया प्रर्ाम ।
प्रेम सतहि खाये रघुराई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।58।।
ऎसे मीठे नहीं हैं आम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।51।। अशोक र्ातटका हनुमि आए ।
र्ृक्ष िले सीिा को पाये ।।
तर्प्र रुप धरर हनुमि आए । आूँ सू बरसे आठो याम ।
चरर् कमल में शीश नर्ाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।59।।
कन्धे पर बैठाये राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।52।। रार्र् संग तनतशचरी लाके ।
सीिा को बोला समझा के ।।
सुग्रीर् से करी तमिाई । मेरी ओर िुम िे खो बाम ।
अपनी सारी कथा सुनाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।60।।
बाली पहुं चाया तनज धाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।53।। मन्दोिरी बना िू ूँ िासी ।
सब सेर्ा में लंका र्ासी ।।
तसंहासन सुग्रीर् तबठाया । करो भर्न में चलकर तर्श्राम ।
मन में र्ह अति हिाण या ।। पतििपार्न सीिाराम ।।61।।
र्िाण ऋिु आई हे राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।54।। चाहे मस्तक कटे हमारा ।
मैं नहीं िे खूं बिन िुम्हारा ।।
हे भाई लक्ष्मर् िुम जाओ । मेरे िन मन धन है राम ।
र्ानरपति को यूं समझाओ ।। पतििपार्न सीिाराम ।।62।।
सीिा तबन व्याकुल हैं राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।55।। ऊपर से मुतिका तगराई ।
सीिा जी ने कंठ लगाई ।।
िे श िे श र्ानर तभजर्ाए । हनुमान ने तकया प्रर्ाम ।
सागर के सब िट पर आए ।। पतििपार्न सीिाराम ।।63।।

5
मुझको भेजा है रघुराया । पूंछ घुमाई है हनुमान ।।
सागर लां घ यहां मैं आया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।71।।
मैं हं राम िास हनुमान ।
पतििपार्न सीिाराम ।।64।। सब लंका में आग लगाई ।
सागर में जा पूंछ बुझाई ।।
भूख लगी िल खाना चाहूँ । ह्रिय कमल में राखे राम ।
जो मािा की आज्ञा पाऊूँ ।। पतििपार्न सीिाराम ।।72।।
सब के स्वामी हैं श्री राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।65।। सागर कूि लौट कर आये ।
समाचार रघुर्र ने पाये ।।
सार्धान हो कर िल खाना । तिव्य भक्तक्त का तिया इनाम ।
रखर्ालों को भूल ना जाना ।। पतििपार्न सीिाराम ।।73।।
तनशाचरों का है यह धाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।66।। र्ानर रीछ संग में लाए ।
लक्ष्मर् सतहि तसंधु िट आए ।।
हनुमान ने र्ृक्ष उखाड़े । लगे सुखाने सागर राम ।
िे ख िे ख माली ललकारे ।। पतििपार्न सीिाराम ।।74।।
मार-मार पहुं चाये धाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।67।। सेिू कतप नल नील बनार्ें ।
राम-राम तलख तसला तिरार्ें ।।
अक्षय कुमार को स्वगण पहुं चाया । लंका पहुूँ चे राजा राम ।
इन्द्रजीि को िां सी ले आया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।75।।
ब्रह्मिां स से बंधे हनुमान ।
पतििपार्न सीिाराम ।।68।। अंगि चल लंका में आया ।
सभा बीच में पां र् जमाया ।।
सीिा को िु म लौटा िीजो । बाली पु त्र महा बलधाम ।
उन से क्षमा याचना कीजो ।। पतििपार्न सीिाराम ।।76।।
िीन लोक के स्वामी राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।69।। रार्र् पाूँ र् हटाने आया ।
अंगि ने तिर पां र् उठाया ।।
भगि तबभीिर् ने समझाया । क्षमा करें िुझको श्री राम ।
रार्र् ने उसको धमकाया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।77।।
सनमुख िे ख रहे रघुराई ।
पतििपार्न सीिाराम ।।70।। तनशाचरों की सेना आई ।
गरज िरज कर हुई लड़ाई ।।
रूई, िेल घृि र्सन मंगाई । र्ानर बोले जय तसया राम ।
पूंछ बां ध कर आग लगाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।78।।

6
इन्द्रजीि ने शक्तक्त चलाई । हनुमि कंठ लगाये राम ।
धरनी तगरे लखन मुरझाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।86।।
तचन्ता करके रोये राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।79।। कुंभकरन उठकर िब आया ।
एक बार् से उसे तगराया ।।
जब मैं अर्धपुरी से आया । इन्द्रजीि पहुूँ चाया धाम ।
हाय तपिा ने प्रार् गंर्ाया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।87।।
र्न में गई चुराई बाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।80।। िु गाण पूजन रार्र् कीनो ।
नौ तिन िक आहार न लीनो ।।
भाई िुमने भी तछटकाया । आसन बैठ तकया है ध्यान ।
जीर्न में कुछ सुख नहीं पाया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।88।।
सेना में भारी कोहराम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।81। रार्र् का व्रि खंतडि कीना ।
परम धाम पहुूँ चा ही िीना ।।
जो संजीर्नी बूटी को लाए । र्ानर बोले जय श्री राम ।
िो भाई जीतर्ि हो जाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।89।।
बूटी लाये गा हनुमान ।
पतििपार्न सीिाराम ।।82।। सीिा ने हरर िशणन कीना ।
तचन्ता शोक सभी िज िीना ।।
जब बूटी का पिा न पाया । हूँ स कर बोले राजा राम ।
पर्णि ही लेकर के आया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।90।।
काल नेम पहुं चाया धाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।83।। पहले अति परीक्षा पाओ ।
पीछे तनकट हमारे आओ ।।
भक्त भरि ने बार् चलाया । िुम हो पतिव्रिा हे बाम ।
चोट लगी हनु मि लंगड़ाया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।91।।
मुख से बोले जय तसया राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।84।। करी परीक्षा कंठ लगाई ।
सब र्ानर सेना हरिाई ।।
बोले भरि बहुि पछिाकर । राज्य तबभीिन िीन्हा राम ।
पर्णि सतहि बार् बैठाकर ।। पतििपार्न सीिाराम ।।92।।
िुम्हें तमला िू ं राजा राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।85।। तिर पुष्पक तर्मान मंगाया ।
सीिा सतहि बैठे रघुराया ।।
बूटी लेकर हनुमि आया । िण्डकर्न में उिरे राम ।
लखन लाल उठ शीि नर्ाया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।93।।

7
ऋतिर्र सुन िशणन को आये । धीर र्ीर ज्ञानी बलर्ान ।
स्तुति कर मन में हिाण ये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।101।।
िब गंगा िट आये राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।94।। अश्वमेघ यज्ञ तकन्हा राम ।
सीिा तबन सब सूने काम ।।
नन्दी ग्राम पर्नसुि आये । लर् कुश र्हां िीयो पहचान ।
भाई भरि को र्चन सुनाए ।। पतििपार्न सीिाराम ।।102।।
लंका से आए हैं राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।95।। सीिा, राम तबना अकुलाई ।
भूतम से यह तर्नय सुनाई ।।
कहो तर्प्र िु म कहां से आए । मुझको अब िीजो तर्श्राम ।
ऎसे मीठे र्चन सुनाए ।। पतििपार्न सीिाराम ।।103।।
मुझे तमला िो भैया राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।96।। सीिा भूतम में समाई ।
िे खकर तचन्ता की रघुराई ।।
अर्धपुरी रघुनन्दन आये । बार बार पछिाये राम ।
मंतिर-मंतिर मंगल छाये ।। पतििपार्न सीिाराम ।।104।।
मािाओं ने तकया प्रर्ाम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।97।। राम राज्य में सब सुख पार्ें ।
प्रेम मि हो हरर गुन गार्ें ।।
भाई भरि को गले लगाया । िु ख कलेश का रहा न नाम ।
तसंहासन बैठे रघुराया ।। पतििपार्न सीिाराम ।।105।।
जग ने कहा, “हैं राजा राम” ।
पतििपार्न सीिाराम ।।98।। ग्यारह हजार र्िण परयन्ता ।
राज कीन्ह श्री लक्ष्मी कंिा ।।
सब भूतम तर्प्रो को िीनी । तिर बैकुण्ठ पधारे धाम ।
तर्प्रों ने र्ापस िे िीनी ।। पतििपार्न सीिाराम ।।106।।
हम िो भजन करें गे राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।99।। अर्धपुरी बैकुण्ठ तसधाई ।
नर नारी सबने गति पाई ।।
धोबी ने धोबन धमकाई । शरनागि प्रतिपालक राम ।
रामचन्द्र ने यह सुन पाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।107।।
र्न में सीिा भेजी राम ।
पतििपार्न सीिाराम ।।100।। “श्याम सुंिर” ने लीला गाई ।
मेरी तर्नय सुनो रघुराई ।।
बाल्मीतक आश्रम में आई । भूलूूँ नहीं िुम्हारा नाम ।
लर् र् कुश हुए िो भाई ।। पतििपार्न सीिाराम ।।108।।

8
एक श्लोकी रामायर् – तहं िी भार्ाथण सतहि

एक श्लोकी रामायर् – इन चार पक्तक्तयों में समाया हुआ हैं सम्पूर्ण रामायर् का सार | धमण शास्त्रों के
अनुसार रामायर् का पाठ करने से पूण्य तमलिा हैं और पापो का नाश होिा हैं | एकश्लोकी रामायर् का
तर्तध पूर्णक तनत्य पाठ करने से सम्पूर्ण रामायर् पाठ के समान िल प्राप्त होिा हैं | स्वयं का आत्मतर्श्वास
बढिा हैं | इस मन्त्र को एकश्लोतक रामायर् के नाम से जाना जािा हैं |आिौ रामिपोर्नातिगमनं हत्वा मृगं
कां चनम्

र्ैिेहीहरर्ं जटायुमरर्ं सुग्रीर्सम्भािर्म् |

बालीतनग्रहर्म समुन्द्रिरर्ं लंकापूरीिाहनं

पश्रचािार्र्कुम्भकर्णहननमेिक्तर्द् रामायर्म् ||

|| एकश्लोकी रामायर्ं सम्पूर्णम् ||

भार्ाथण :

भगर्ान श्री राम र्नर्ास गये , र्हाूँ उन्होंने स्वर्ण मृग का पीछा तकया और उसका र्ध तकया , लंकापति
रार्र् ने सीिा [ र्ै िेही ] का हरर् कर तकया | सीिा जी तक रक्षा के तलए पतक्षराज जटायु ने अपने प्रार्
गर्ां ये , भगर्ान श्री राम की तमत्रिा [ बाि ] सु ग्रीर् से हुई बाली [ सुग्रीर् का भाई ] का र्ध तकया समुन्द्र पार
तकया , लंका पूरी का िहन हुआ इसके पश्चाि रार्र् र् कुंभकरर् का र्ध तकया यही पूरी रामायर् का
संतक्षप्त सार हैं |

इस एक श्लोकी रामायर् में मुख्य मुख्य घटनाये शातमल हैं | इस एक श्लोकी रामायर् का तनत्य पाठ
करना मंगलकारी हैं | इस एकश्लोकी रामायर् का पाठ भक्तगर् अपनी श्रर्द्ा के अनुसार 11 , 21 , 108
बार िक कर सकिे हैं | इस एकश्लोकी रामायर् के पाठ से सम्पूर्ण रामायर् पाठ के समान िल प्राप्त
होिा हैं |

|| जय श्री राम || || जय श्री राम || || जय श्री राम ||

रामायण कथा(कहानी)
रामायर् एक संस्कृि महाकाव्य है तजसकी रचना महतिण र्ाल्मीतक ने की थी। िोस्तों यह भारिीय सातहत्य
के िो तर्शाल महाकाव्यों में से एक है , तजसमें िू सरा महाकाव्य महाभारि है । तहं िू धमण में रामायर् का एक

9
महत्वपूर्ण स्थान है तजसमें हम सबको ररश्तो के किणव्यों को समझाया गया है । रामायर् महाकाव्य में एक
आिशण तपिा, आिशण पु त्र, आिशण पत्नी, आिशण भाई, आिशण तमत्र, आिशण सेर्क और आिशण राजा को
तिखाया गया है । इस महाकाव्य में भगर्ान तर्ष्णु के रामावतार को िशाण या गया है उनकी चचाण की गई है ।
रामायर् महाकाव्य में 24000 छं ि और 500 सगण हैं जो तक 7 भागों में तर्भातजि हैं ।

बालकाांड

बहुि समय पहले की बाि है सरयू निी के तकनारे कोशला नामक राज्य था तजसकी राजधानी अयोध्या थी।
अयोध्या के राजा का नाम िशरथ था, तजन की िीन पतत्नयां थी। उनके पतत्नयों का नाम था कौशल्या, कैकई
और सुतमत्रा। राजा िशरथ बहुि समय िक तनसंिान थे और र्ह अपने सूयणर्ंश की र्ृक्तर्द् के तलए अथाण ि
अपने उत्तरातधकारी के तलए बहुि तचंतिि थे। इसतलए राजा िशरथ ने अपने कुल गुरु ऋति र्तशष्ठ की
सलाह मानकर पुत्र कमेक्ति यज्ञ करर्ाया, उस यज्ञ के िलस्वरुप राजा िशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए।
उनकी पहली पत्नी कोशल्या से प्रभु श्री राम, कैकई से भारि और सुतमत्रा से लक्ष्मर् और शत्रुघ्न का जन्म
हुआ। उनके चारों पुत्र तिव्य शक्तक्तयों से पररपूर्ण और यशस्वी थे। उन चारों को राजकुमारों की िरह पाला
गया, और उनको शास्त्रों और युर्द् कला की कला तसखाई गई।

जब प्रभु श्री राम 16 र्िण के हुए िब एक बार ऋति तर्श्वातमत्र राजा िशरथ के पास आए और अपने यज्ञ में
तर्घ्न उत्पन्न करने र्ाले राछसों के आिं क के बारे में राजा िशरथ को बिाया और उनसे सहायिा मां गी।
ऋति तर्श्वातमत्र की बाि सुनकर राजा िशरथ उनकी सहायिा करने के तलए िैयार हो गए और अपने
सैतनक उनके साथ भेजने का आिे श तिया, पर ऋति तर्श्वातमत्र ने इस कायण के तलए राम और लक्ष्मर् का
चयन तकया। राम और लक्ष्मर् ऋति तर्श्वातमत्र के साथ उनके आश्रम जािे हैं , और उनके यज्ञ मैं तर्घ्न डालने
र्ाले राक्षसों का नाश कर िे िे हैं । इससे ऋति तर्श्वातमत्र प्रसन्न होकर राम और लक्ष्मर् को अनेक तिव्यास्त्र
प्रिान करिे हैं तजनसे आगे चलकर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मर् अनेक िानर्ों का नाश करिे हैं ।

िू सरी ओर जनक तमतथला प्रिे श के राजा थे और र्ह भी तनसंिान थे। और संिान प्राक्तप्त के तलए र्ह भी
बहुि तचंतिि थे, िब एक तिन उनको गहरे कुंड में एक बच्ची तमली, िब राजा जनक का खुशी का तठकाना
ना रहा, और राजा जनक उस बच्ची को भगर्ान का र्रिान मानकर उसे अपने महल ले आए। राजा जनक
ने उस बच्ची का नाम सीिा रखा। राजा जनक अपनी पु त्री सीिा को बहुि ही अतधक स्नेह करिे थे। सीिा
धीरे -धीरे बड़ी हुई, सीिा गुर् और अतद्विीय सुंिरिा से पररपूर्ण थी। जब सीिा तर्र्ाह योग्य हुई िब राजा
जनक अपने तप्रय पुत्री सीिा के तलए उनका स्वयंर्र रखने का तनश्चय तकया। राजा जनक ने सीिा के
स्वयंर्र में तशर् धनुि को उठाने र्ाले और उस पर प्रत्यंचा चाहने र्ाले से अपनी तप्रय पुत्री सीिा से तर्र्ाह
करने की शिण रखी। सीिा के गुर् और सुंिरिा की चचाण पहले से ही चारों िरि िैल चुकी थी िो सीिा के

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स्वयंर्र की खबर सुनकर बड़े बड़े राजा सीिा स्वयंर्र में भाग लेने के तलए आने लगे। ऋति तर्श्वातमत्र भी
राम और लक्ष्मर् के साथ सीिा स्वयंर्र को िे खने के तलए राजा जनक के नगर तमतथला पहुं चे।

जब सीिा से शािी करने की इच्छा तलए िू र िू र से राजा और महाराजा स्वयंर्र में एकतत्रि हुए िो स्वयंबर
आरं भ हुआ बहुि सारे राजाओं ने तशर् धनुि को उठाने की कोतशश की लेतकन कोई भी धनुि को तहला भी
नहीं पा रहा था उठाना िो बहुि िू र की बाि है , यह सब िे ख कर राजा जनक तचंतिि हो गए िब ऋति
तर्श्वातमत्र ने राजा जनक की तचंिा िू र करिे हुए अपने तशष्य राम को उठने का अनु मति तिया। प्रभु राम
अपने गुरु को प्रर्ाम कर उठे और उन्होंने उस धनुि को बड़ी सरलिा से उठा कर जब उस पर प्रत्यंचा
चलाने लगे िो धनुि टू ट गया। राजा िशरथ ने शिण के अनुसार प्रभु श्रीराम से सीिा का तर्र्ाह करने का
तनश्चय तकया और साथ ही अपनी अन्य पुतत्रयों का तर्र्ाह भी राजा िशरथ के पु त्रों से करर्ाने का उन्होंने
तर्चार तकया। इस प्रकार एक साथ ही राम का तर्र्ाह सीिा से, लक्ष्मर् का तर्र्ाह उतमणला से, भरि का
तर्र्ाह मां डर्ी से और शत्रुधन का तर्र्ाह श्रुिकीतिण से हो गया। तमतथला में तर्र्ाह का एक बहुि बड़ा
आयोजन हुआ और उनमें प्रभु राम और उनके भाइयों की तर्र्ाह संपन्न हुआ, तर्र्ाह के बाि बाराि
अयोध्या लौट आई।

अयोध्याकाांड :

राम और सीिा के तर्र्ाह को 12 र्िण बीि गए थे और अब राजा िशरथ र्ृर्द् हो गए थे। र्ह अपने बड़े बेटे
राम को अयोध्या के तसहासन पर तबठाना चाहिे थे। िब एक शाम राजा िशरथ की िू सरी पत्नी का कैकई
अपनी एक चिुर िासी मंथरा के बहकार्े में आकर राजा िशरथ से िो र्चन मां गे.. “जो राजा िशरथ ने कई
र्िण पहले कई कई द्वारा जान बचाने के तलए कैकई को िो र्चन िे ने का र्ािा तकया था” कैकई ने राजा
िशरथ से अपने पहले र्चन के रूप में राम को 14 र्िण का र्नर्ास और िू सरे र्चन के रूप में अपने पुत्र
भरि को अयोध्या के राज तसहासन पर बैठाने की बाि कही। कैकई की इन िोनों र्चनों को सुनिे ही राजा
िशरथ का तिल टू ट गया और र्ह कैकई को अपने इन र्चनों पर िोबारा तर्चार करने के तलए बोले, और
बोले तक हो सके िो अपने यह र्चन र्ापस ले ले। पर कैकई अपनी बाि पर अटल रही, िब ना चाहिे हुए
भी राजा िशरथ मे अपने तप्रय पुत्र राम को बुलाकर उन्हें 14 र्िण के तलए र्नर्ास जाने को कहा।

राम ने अपने तपिा राजा िशरथ का तबना कोई तर्रोध तकए उनकी आिे श स्वीकार कर तलया। जब सीिा
और लक्ष्मर् को प्रभु राम के र्नर्ास जाने के बारे में पिा चला िो उन्होंने भी राम के साथ र्नर्ास जाने की
आग्रह तकया, जब राम ने अपनी पत्नी सीिा को अपने साथ र्न ले जाने से मना तकया िब सीिा ने प्रभु राम
से कहा तक तजस र्न में आप जाएं गे र्ही मेरा अयोध्या है , और आपके तबना अयोध्या मेरे तलए नरक सामान
है । लक्ष्मर् के भी बहुि आग्रह करने पर भगर्न राम ने उन्हें भी अपने साथ र्न चलने की अनुमति िे िी।
इस प्रकार राम सीिा और लक्ष्मर् अयोध्या से र्न जाने के तलए तनकल गए। अपने तप्रय पुत्र राम के र्न
जाने से िु खी होकर राजा िशरथ ने अपने प्रार् त्याग तिए।

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इस िौरान भरि जो अपने मामा के यहां (नतनहाल) गए हुए थे,र्ह अयोध्या की घटना सुनकर बहुि ही
ज्यािा िु खी हुए। भारि ने अपनी मािा कैकई को अयोध्या के राज तसंहासन पर बैठने से मना कर तिया
और र्ह अपने भाई राम को ढूंढिे हुए र्न में चले गए। र्न में जाकर भरि राम लक्ष्मर् और सीिा से तमले
और उनसे अयोध्या र्ापस लौटने का आग्रह तकया िब राम ने अपने तपिा के र्चन का पालन करिे हुए
अयोध्या र्ापस नहीं लौटने का प्रर् तकया। िब भारि ने भगर्ान राम की चरर् पािु का अपने साथ ले कर
अयोध्या र्ापस लौट आए, और राम की चरर् पािु का को अयोध्या के राजतसंहासन पर रख तिया, भरि
राज िरबाररयों से बोले तक जब िक भगर्ान राम र्नर्ास से र्ापस नहीं लौटिे िब िक उन की चरर्
पािु का अयोध्या के राज तसं हासन पर रखा रहे गा और मैं उनका एक िास बनकर यह राज चलाऊंगा।

अरण्यकाांड :

भगर्ान राम के र्नर्ास को 13 बरस बीि गए थे और र्नर्ास का अं तिम र्िण था। भगर्ान राम, सीिा और
लक्ष्मर् गोिार्री निी के तकनारे जा रहे थे, गोिार्री के तनकट एक जगह सीिा जी को बहुि पसं ि आई
उस जगह का नाम था पंचर्टी। िब भगर्ान राम अपनी पत्नी की भार्ना को समझिे हुए उन्होंने र्नबास
का शेि समय पंचर्टी में ही तबिाने का तनर्णय तलया और र्हीं पर र्ह िीनों कुतटया बनाकर रहने लगे।
पंचर्टी के जंगलों में ही एक तिन शूपणर्खा नाम की राक्षस औरि तमली और र्ह लक्ष्मर् को अपने रूप
रं ग से लुभाना चाहिी थी, तजसमें र्ह असिल रही िो उसने सीिा को मारने का प्रयास तकया, िब लक्ष्मर्
ने सूपणनखा को रोकिे हुए उसके नाक और कान काट तिए। जब इस बाि की खबर शूपणर्खा के राक्षस
भाई खर को पिा चली िो र्ह अपने राक्षस सातथयों के साथ राम, लक्ष्मर् सीिा तजस पंचर्टी में कुतटया
बनाकर रह रहे थे र्हां पर उसने हमला कर तिया, भगर्ान राम और लक्ष्मर् ने खर और उसके सभी
राक्षसों का बर्द् कर तिया।

जब इस घटना की खबर सू पणनखा के िू सरे भाई रार्र् िक पहुं ची िो उसने राक्षस मारीतच की मिि से
भगर्ान राम की पत्नी सीिा का अपहरर् करने की योजना बनाई। रार्र् के कहने पर राक्षस मरीतच ने
स्वर्ण मृग बनकर सीिा का ध्यान अपनी ओर आकतिणि तकया। स्वर्ण तमगण की सुंिरिा पर मोतहि होकर
सीिा ने राम को उसे पकड़ने को भेज तिया। भगर्ान राम रार्र् की इस योजना से अनतभज्ञ थे क्ोंतक
भगर्ान राम िो अंियाण मी थे , तिर भी अपनी पत्नी सीिा की इच्छा को पूरा करने के तलए र्ह उस स्वर्ण तमगण
के पीछे जं गल में चले गए और मािा सीिा की रक्षा के तलए अपने भाई लक्ष्मर् को बोल तिए। कुछ समय
बाि मािा सीिा ने भगर्ान राम की करुर्ा भरी मिि की आर्ाज सुनाई पड़ी िो मािा सीिा ने लक्ष्मर् को
भगर्ान राम की सहायिा के तलए जबरिस्ती भेजने लगी। लक्ष्मर् ने मािा सीिा को समझाने की बहुि
कोतशश की तक भगर्ान राम अजय हैं , और उनका कोई भी कुछ नहीं कर सकिा, इसतलए लक्ष्मर् अपने
भ्रािा राम की आज्ञा का पालन करिे हुए मािा सीिा की रक्षा करना चाहिे थे।

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लक्ष्मर् और मािा सीिा में बाि इिनी बढ गई तक सीिाजी ने लक्ष्मर् को र्चन िे कर भगर्ान राम की
सहायिा करने के तलए लक्ष्मर् को आिे श िे तिया। लक्ष्मर् मािा सीिा की आज्ञा मानना िो चाहिे थे
लेतकन र्ह सीिा को कुतटया में अकेला नहीं छोड़ना चाहिे थे इसतलए लक्ष्मर् कुतटया से जािे र्क्त कुतटया
के चारों ओर एक लक्ष्मर् रे खा बनाई, िातक कोई भी उस रे खा के अंिर नहीं प्रर्ेश कर सके और मािा
सीिा को इस रे खा से बाहर नहीं तनकलने का आग्रह तकया। और तिर लक्ष्मर् भगर्ान राम की खोज में
तनकल पड़े । इधर रार्र् जो घाि लगाए बैठा था जब उसने से रास्ता साि िे खा िब र्ह एक साधु का र्ेश
बनाकर मािा सीिा की कुतटया के आगे पहुं च गया और तभक्षा मां गने लगा। मािा सीिा रार्र् जो तक एक
साधु के र्ेश में था उसकी कुतटलिा को नहीं समझ पाई और उसके भ्रमजाल में आकर लक्ष्मर् की बनाई
गई लक्ष्मर् रे खा के बाहर किम रख तिया और रार्र् मािा सीिा को बलपूर्णक उठाकर ले गया।

जब रार्र् सीिा को बलपूर्णक अपने पुष्पक तर्मान में ले जा रहा था िो जटायु नाम का तगर्द् ने उसे रोकने
की कोतशश की, जटायु ने मािा सीिा की रक्षा करने का बहुि प्रयास तकया और तजसमें र्ह प्रार्घािक
रूप से घायल हो गया। रार्र् सीिा को अपने पु ष्पक तर्मान से उड़ा कर लंका ले गया और उन्हें राक्षसीयो
की कड़ी सुरक्षा में लंका के अशोक र्ातटका में डाल तिया। तिर रार्र् ने मािा सीिा के सामने उनसे
तर्र्ाह करने की इच्छा प्रकट की, लेतकन मािा सीिा अपने पति भगर्ान राम के प्रति समपणर् होने के
कारर् रार्र् से तर्र्ाह करने के तलए मना कर तिया। इधर भगर्ान राम और लक्ष्मर् मािा सीिा के
अपहरर् के बाि उनकी खोज करिे हुए जटायु से तमले, िब उन्हें पिा चला तक उनकी पत्नी सीिा को
लंकापति रार्र् उठाकर ले गया है । िब र्ह िोनों भाई सीिा को बचाने के तलए तनकल पड़े , भगर्ान राम
और लक्ष्मर् जब मािा सीिा की खोज कर रहे थे िब उनकी मुलाकाि राक्षस कबंध और परम िपस्वी
साध्वी शबरी से हुई। उन िोनों ने उन्हें सु ग्रीर् और हनुमान िक पहुं चाया और सुग्रीर् से तमत्रिा करने की
सुझार् तिया।

ककष्कांधा काांड :
िोस्तों रामायर् में र्तर्णि तकक्तकंधाकां ड र्ानरों के गढ पर आधाररि है । भगर्ान राम र्हां पर अपने सबसे
बड़े भक्त हनुमान से तमले। महाबली हनुमान र्ानरों में से सबसे महान नायक और सु ग्रीर् के पक्षपािी थे
तजनको की तकसतकंधा के तसहासन से भगा तिया गया था। हनुमान की मिि से भगर्ान राम और सु ग्रीर्
की तमत्रिा हो गई और तिर सुग्रीर् ने भगर्ान राम से अपने भाई बाली को मारने में उनसे मिि मां गी। िब
भगर्ान राम ने बाली का र्ध तकया और तिर से सुग्रीर् को तकसतकंधा का तसहासन तमल गया, और बिले
में सुग्रीर् ने भगर्ान राम को उनकी पत्नी मािा सीिा को खोजने में सहायिा करने का र्चन तिया।
हालां तक कुछ समय िक सु ग्रीर् अपने र्चन को भूल कर अपनी शक्तक्तयों और राजसुख का मजा लेने में
मि हो गया, िब बाली की पत्नी िारा ने इस बाि की खबर लक्ष्मर् को िी, और लक्ष्मर् ने सुग्रीर् को संिेशा
भेजर्ाया तक अगर र्ह अपना र्चन भूल गया है िो र्ह र्ानर गढ को िबाह कर िें गे। िब सुग्रीर् को अपना
र्चन याि आया और र्ह लक्ष्मर् की बाि मानिे हुए अपने र्ानर के िलों को संसार के चारों कोनों में मािा
सीिा की खोज में भेज तिया। उत्तर, पतश्चम और पूर्ण िल के र्ानर खोजकिाण खाली हाथ र्ापस लौट आए।

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ितक्षर् तिशा का खोज िल अंगि और हनुमान के नेिृत्व में था, और र्ह सभी सागर के तकनारे जाकर रुक
गए। िब अंगि और हनु मान को जटायु का बड़ा भाई संपािी से यह सूचना तमली तक मािा सीिा को
लंकापति नरे श रार्र् बलपू र्णक लंका ले गया है ।

सांदरकाांड

जटायु के भाई संपािी से मािा सीिा के बारे में खबर तमलिे ही हनुमान जी ने अपना तर्शाल रूप धारर्
तकया और तर्शाल समुि को पार कर लंका पहुं च गए। हनुमान जी लंका पहुं च कर र्हां मािा सीिा की
खोज शुरू कर िी लंका में बहुि खोजने के बाि हनुमान को सीिा अशोक र्ातटका में तमली। जहां पर
रार्र् के बहुि सारी राक्षसी िातसयां मािा सीिा को रार्र् से तर्र्ाह करने के तलए बाध्य कर रही थी। सभी
राक्षसी िातसयों के चले जाने के बाि हनुमान मािा सीिा िक पहुं चे और उनको भगर्ान राम की अं गूठी िे
कर अपने राम भक्त होने का पहचान कराया। हनुमान जी ने मािा सीिा को भगर्ान राम के पास ले जाने
को कहा, लेतकन मािा सीिा ने यह कहकर इं कार कर तिया तक भगर्ान राम के अलार्ा र्ह तकसी और
नर को स्पशण करने की अनु मति नहीं िे गी, मािा सीिा ने कहा तक प्रभु राम उन्हें खुि लेने आएं गे और अपने
अपमान का बिला लेंगे।

तिर हनुमान जी मािा सीिा से आज्ञा लेकर अशोक र्ातटका में पेड़ों को उखाड़ना और िबाह करना शुरू
कर िे िे हैं इसी बीच हनुमान जी रार्र् के 1 पुत्र अक्षय कुमार का भी बर्द् कर िे िे हैं । िब रार्र् का िू सरा
पुत्र मेघनाथ हनुमान जी को बंिी बनाकर रार्र् के समक्ष िरबार में हातजर करिा है । हनुमान जी रार्र् के
िरबार में रार्र् के समक्ष भगर्ान राम की पत्नी सीिा को छोड़ने के तलए रार्र् को बहुि समझािे हैं ।
रार्र् क्रोतधि होकर हनु मान जी की पूंछ में आग लगाने का आिे श िे िा है , हनुमान जी की पूंछ में आग
लगिे हैं र्ह उछलिे हुए एक महल से िू सरे महल, एक छि से िू सरी छि पर जाकर पूरी लंका नगरी में
आग लगा िे िे हैं । और र्ापस तर्शाल रूप धारर् कर तकक्तकंधा पहुं च जािे हैं , र्हां पहुं चकर हनुमान जी
भगर्ान राम और लक्ष्मर् को मािा सीिा की सारी सू चना िे िे हैं ।

लांका काांड :
लंका कां ड (युर्द् कां ड) में भगर्ान राम की सेना और रार्र् की सेना के बीच युर्द् को िशाण या गया है ।
भगर्ान राम को जब अपनी पत्नी मािा सीिा की सूचना हनुमान से प्राप्त होिी है िब भगर्ान राम और
लक्ष्मर् अपने सातथयों और र्ानर िल के साथ ितक्षर्ी समुंि के तकनारे पर पहुं चिे हैं । र्हीं पर भगर्ान राम
की मुलाकाि रार्र् के भेिी भाई तर्भीिर् से होिी है , जो रार्र् और लंका की पूरी जानकारी र्ह भगर्ान
राम को िे िे हैं । नल और नील नामक िो र्ानरों की सहायिा से पूरा र्ानर िल तमलकर समुि को पार
करने के तलए रामसेिु का तनमाण र् करिे हैं , िातक भगर्ान राम और उनकी र्ानर सेना लंका िक पहुं च

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सके। लंका पहुं चने के बाि भगर्ान राम और लंकापति रार्र् का भीिर् युर्द् हुआ, तजसमें भगर्ान राम ने
रार्र् का र्ध कर तिया। इसके बाि प्रभु राम ने तर्भीिर् को लंका का तसहासन पर तबठा तिया।

भगर्ान राम मािा सीिा से तमलने पर उन्हें अपनी पतर्त्रिा तसर्द् करने के तलए अतिपरीक्षा से गुजरने को
कहिे हैं , क्ोंतक प्रभु राम मािा सीिा की पतर्त्रिा के तलए िैली अिर्ाहों को गलि सातबि करना चाहिे
हैं । जब मािा सीिा ने अति में प्रर्ेश तकया िो उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ र्ह अति परीक्षा में सिल हो
गई। अब भगर्ान राम मािा सीिा और लक्ष्मर् र्नर्ास की अर्तध समाप्त कर अयोध्या लौट जािे हैं । और
अयोध्या में बड़े ही हिोल्लास के साथ भगर्ान राम का राज्यतभिेक होिा है । इस िरह से रामराज्य की
शुरुआि होिी है ।

उत्तरकाांड :
िोस्तों उत्तरकां ड महतिण बाल्मीतक की र्ास्ततर्क कहानी का र्ाि का अंश माना जािा है । इस कां ड में
भगर्ान राम के राजा बनने के बाि भगर्ान राम अपनी पत्नी मािा सीिा के साथ सु खि जीर्न व्यिीि करिे
हैं । कुछ समय बाि मािा सीिा गभणर्िी हो जािी हैं , लेतकन जब अयोध्या के र्ातसयों को मािा सीिा की
अति परीक्षा की खबर तमलिी है िो आम जनिा और प्रजा के िबार् में आकर भगर्ान राम अपनी पत्नी
सीिा को अतनच्छा से बन भेज िे िे हैं । र्न में महतिण बाल्मीतक मािा सीिा को अपनी आश्रम में आश्रय िे िे
हैं , और र्हीं पर मािा सीिा भगर्ान राम के िो जुड़र्ा पुत्रों लर् और कुश को जन्म िे िी है । लर् और कुश
महतिण र्ाल्मीतक के तशष्य बन जािे हैं और उनसे तशक्षा ग्रहर् करिे हैं ।

महतिण बाल्मीतक ने यही रामायर् की रचना की और लर् कुश को इस का ज्ञान तिया। बाि में भगर्ान राम
अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करिे हैं तजसमें महतिण बाल्मीतक लर् और कुश के साथ जािे हैं । भगर्ान राम
और उनकी जनिा के समक्ष लर् और कुश महतिण बाल्मीतक द्वारा रतचि रामायर् का गायन करिे हैं । जब
गायन करिे हुए लर् कुश को मािा सीिा को र्नर्ास तिए जाने की खबर सुनाई जािी है िो भगर्ान राम
बहुि िु खी होिे हैं । िब र्हां मािा सीिा आ जािी हैं । उसी समय भगर्ान राम को मािा सीिा लर् कुश के
बारे में बिािी हैं .. भगर्ान राम को ज्ञाि होिा है तक लर् कुश उनके ही पु त्र हैं । और तिर मािा सीिा धरिी
मां को अपनी गोि में लेने के तलए पुकारिी हैं , और धरिी के िटने पर मािा सीिा उसमें समा जािी हैं ।
कुछ र्िों के बाि िे र्िू ि आकर भगर्ान राम को यह सूचना िे िे हैं तक उनके रामअर्िार का प्रयोजन अब
पूरा हो चुका है , और उनका यह जीर्न काल भी खत्म हो चुका है । िब भगर्ान राम अपने सभी सगे -संबंधी
और गुरुजनों का आशीर्ाण ि लेकर सरयू निी में प्रर्ेश करिे हैं । और र्हीं से अपने र्ास्ततर्क तर्ष्णु रूप
धारर् कर अपने धाम चले जािे हैं ।

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रामचररतमानस अयोध्याकाण्ड अथथ सकहत
श्लोक :

* यस्यां के च तर्भाति भूधरसु िा िे र्ापगा मस्तके


भाले बालतर्धुगणले च गरलं यस्योरतस व्यालराट् ।
सोऽयं भूतितर्भूिर्ः सुरर्रः सर्ाण तधपः सर्णिा
शर्णः सर्णगिः तशर्ः शतशतनभः श्री शंकरः पािु माम् ॥1॥

भार्ाथण:-तजनकी गोि में तहमाचलसुिा पार्णिीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर तद्विीया का चन्द्रमा, कंठ में
हलाहल तर्ि और र्क्षःस्थल पर सपणराज शेिजी सु शोतभि हैं , र्े भस्म से तर्भूतिि, िे र्िाओं में श्रेष्ठ, सर्ेश्वर,
संहारकिाण (या भक्तों के पापनाशक), सर्णव्यापक, कल्यार् रूप, चन्द्रमा के समान

शुभ्रर्र्ण श्री शंकरजी सिा मेरी रक्षा करें ॥1॥


* प्रसन्निां या न गिातभिेकिस्तथा न मम्ले र्नर्ासिु ःखिः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सिास्तु सा मंजुलमंगलप्रिा॥2॥

भार्ाथण:-रघुकुल को आनंि िे ने र्ाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारतर्ंि की जो शोभा राज्यातभिेक से


(राज्यातभिेक की बाि सुनकर) न िो प्रसन्निा को प्राप्त हुई और न र्नर्ास के िु ःख से मतलन ही हुई, र्ह
(मुखकमल की छतब) मेरे तलए सिा सुंिर मंगलों की िे ने र्ाली हो॥2॥

* नीलाम्बुजश्यामलकोमलां ग सीिासमारोतपिर्ामभागम्।
पार्ौ महासायकचारुचापं नमातम रामं रघुर्ंशनाथम् ॥3॥

भार्ाथण:-नीले कमल के समान श्याम और कोमल तजनके अंग हैं , श्री सीिाजी तजनके र्ाम भाग में
तर्राजमान हैं और तजनके हाथों में (क्रमशः) अमोघ बार् और सुंिर धनुि है , उन रघु र्ंश के स्वामी श्री
रामचन्द्रजी को मैं नमस्कार करिा हूँ ॥3॥

दोहा :
* श्री गुरु चरन सरोज रज तनज मनु मुकुरु सु धारर।
बरनउूँ रघुबर तबमल जसु जो िायकु िल चारर॥

भार्ाथण:-श्री गुरुजी के चरर् कमलों की रज से अपने मन रूपी िपणर् को साि करके मैं श्री रघुनाथजी के
उस तनमणल यश का र्र्णन करिा हूँ , जो चारों िलों को (धमण, अथण, काम, मोक्ष को) िे ने र्ाला है ।

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चौपाई :

* जब िें रामु ब्यातह घर आए। तनि नर् मंगल मोि बधाए॥


भुर्न चाररिस भूधर भारी। सुकृि मेघ बरितहं सुख बारी॥1॥

भार्ाथण:-जब से श्री रामचन्द्रजी तर्र्ाह करके घर आए, िब से (अयोध्या में) तनत्य नए मंगल हो रहे हैं और
आनंि के बधार्े बज रहे हैं । चौिहों लोक रूपी बड़े भारी पर्णिों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा
रहे हैं ॥1॥

* ररतध तसतध संपति निीं सु हाई। उमतग अर्ध अंबुतध कहुूँ आई॥
मतनगन पुर नर नारर सुजािी। सुतच अमोल सुंिर सब भाूँ िी॥2॥

भार्ाथण:-ऋक्तर्द्-तसक्तर्द् और सम्पतत्त रूपी सुहार्नी नतियाूँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुि में आ
तमलीं। नगर के स्त्री-पुरुि अच्छी जाति के मतर्यों के समूह हैं , जो सब प्रकार से पतर्त्र, अमूल्य और सुंिर
हैं ॥2॥

* कतह न जाइ कछु नगर तबभूिी। जनु एितनअ तबरं तच करिूिी॥


सब तबतध सब पुर लोग सुखारी। रामचंि मुख चंिु तनहारी॥3॥

भार्ाथण:-नगर का ऐश्वयण कुछ कहा नहीं जािा। ऐसा जान पड़िा है , मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इिनी ही
है । सब नगर तनर्ासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को िे खकर सब प्रकार से सुखी हैं ॥3॥

* मुतिि मािु सब सखीं सहे ली। ितलि तबलोतक मनोरथ बेली॥


राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुतिि होइ िे क्तख सुतन राऊ॥4॥

भार्ाथण:-सब मािाएूँ और सखी-सहे तलयाूँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को िली हुई िे खकर आनंतिि हैं । श्री
रामचन्द्रजी के रूप, गुर्, शील और स्वभार् को िे ख-सुनकर राजा िशरथजी बहुि ही आनंतिि होिे
हैं ॥4॥

दोहा :
* सब कें उर अतभलािु अस कहतहं मनाइ महे सु।
आप अछि जु बराज पि रामतह िे उ नरे सु॥1॥

भार्ाथण:-सबके हृिय में ऐसी अतभलािा है और सब महािे र्जी को मनाकर (प्राथणना करके) कहिे हैं तक
राजा अपने जीिे जी श्री रामचन्द्रजी को युर्राज पि िे िें ॥1॥

17
चौपाई :
* एक समय सब सतहि समाजा। राजसभाूँ रघुराजु तबराजा॥
सकल सु कृि मूरति नरनाह। राम सुजसु सुतन अतितह उछाह॥1॥

भार्ाथण:-एक समय रघुकुल के राजा िशरथजी अपने सारे समाज सतहि राजसभा में तर्राजमान थे।
महाराज समस्त पुण्यों की मूतिण हैं , उन्हें श्री रामचन्द्रजी का सुंिर यश सुनकर अत्यन्त आनंि हो रहा है ॥1॥

* नृप सब रहतहं कृपा अतभलािें। लोकप करतहं प्रीति रुख राखें॥

र्न िीतन काल जग माहीं। भूररभाग िसरथ सम नाहीं॥2॥

भार्ाथण:-सब राजा उनकी कृपा चाहिे हैं और लोकपालगर् उनके रुख को रखिे हुए (अनुकूल होकर)
प्रीति करिे हैं । (पृथ्वी, आकाश, पािाल) िीनों भुर्नों में और (भूि, भतर्ष्य, र्िणमान) िीनों कालों में
िशरथजी के समान बड़भागी (और) कोई नहीं है ॥2॥

* मंगलमूल रामु सुि जासू। जो कछु कतहअ थोर सबु िासू॥


रायूँ सुभायूँ मुकुरु कर लीन्हा। बिनु तबलोतक मुकुटु सम कीन्हा॥3॥

भार्ाथण:-मंगलों के मूल श्री रामचन्द्रजी तजनके पुत्र हैं , उनके तलए जो कुछ कहा जाए सब थोड़ा है । राजा ने
स्वाभातर्क ही हाथ में िपण र् ले तलया और उसमें अपना मुूँह िे खकर मुकुट को सीधा तकया॥3॥

* श्रर्न समीप भए तसि केसा। मनहुूँ जरठपनु अस उपिे सा॥


नृप जुबराजु राम कहुूँ िे ह। जीर्न जनम लाहु तकन लेह॥4॥

भार्ाथण:-(िे खा तक) कानों के पास बाल सिेि हो गए हैं , मानो बुढापा ऐसा उपिे श कर रहा है तक हे राजन् !
श्री रामचन्द्रजी को युर्राज पि िे कर अपने जीर्न और जन्म का लाभ क्ों नहीं लेिे॥4॥

दोहा :
* यह तबचारु उर आतन नृप सुतिनु सुअर्सरु पाइ।
प्रेम पु लतक िन मुतिि मन गुरतह सुनायउ जाइ॥2॥

भार्ाथण:-हृिय में यह तर्चार लाकर (युर्राज पि िे ने का तनश्चय कर) राजा िशरथजी ने शुभ तिन और सुंिर
समय पाकर, प्रेम से पुलतकि शरीर हो आनंिमि मन से उसे गुरु र्तशष्ठजी को जा सुनाया॥2॥

18
चौपाई :
* कहइ भुआलु सुतनअ मुतननायक। भए राम सब तबतध सब लायक॥
सेर्क सतचर् सकल पुरबासी। जे हमार अरर तमत्र उिासी॥1॥

भार्ाथण:-राजा ने कहा- हे मुतनराज! (कृपया यह तनर्ेिन) सुतनए। श्री रामचन्द्रजी अब सब प्रकार से सब


योग्य हो गए हैं । सेर्क, मंत्री, सब नगर तनर्ासी और जो हमारे शत्रु, तमत्र या उिासीन हैं -॥1॥

* सबतह रामु तप्रय जेतह तबतध मोही। प्रभु असीस जनु िनु धरर सोही॥
तबप्र सतहि पररर्ार गोसाईं। करतहं छोहु सब रौररतह नाईं॥2॥

भार्ाथण:-सभी को श्री रामचन्द्र र्ैसे ही तप्रय हैं , जैसे र्े मुझको हैं । (उनके रूप में) आपका आशीर्ाण ि ही मानो
शरीर धारर् करके शोतभि हो रहा है । हे स्वामी! सारे ब्राह्मर्, पररर्ार सतहि आपके ही समान उन पर स्नेह
करिे हैं ॥2॥

* जे गुर चरन रे नु तसर धरहीं। िे जनु सकल तबभर् बस करहीं॥


मोतह सम यहु अनुभयउ न िू जें। सबु पायउूँ रज पार्तन पूजें॥3॥

भार्ाथण:-जो लोग गुरु के चरर्ों की रज को मस्तक पर धारर् करिे हैं , र्े मानो समस्त ऐश्वयण को अपने र्श
में कर लेिे हैं । इसका अनुभर् मेरे समान िू सरे तकसी ने नहीं तकया। आपकी पतर्त्र चरर् रज की पूजा
करके मैंने सब कुछ पा तलया॥3॥

* अब अतभलािु एकु मन मोरें । पूतजतह नाथ अनुग्रह िोरें ॥


मुतन प्रसन्न लक्तख सहज सने ह। कहे उ नरे स रजायसु िे ह॥4॥

भार्ाथण:-अब मेरे मन में एक ही अतभलािा है । हे नाथ! र्ह भी आप ही के अनुग्रह से पूरी होगी। राजा का
सहज प्रेम िे खकर मुतन ने प्रसन्न होकर कहा- नरे श! आज्ञा िीतजए (कतहए, क्ा अतभलािा है ?)॥4॥

दोहा :
* राजन राउर नामु जसु सब अतभमि िािार।
िल अनुगामी मतहप मतन मन अतभलािु िुम्हार॥3॥

भार्ाथण:-हे राजन! आपका नाम और यश ही सम्पूर्ण मनचाही र्स्तुओं को िे ने र्ाला है । हे राजाओं के


मुकुटमतर्! आपके मन की अतभलािा िल का अनुगमन करिी है (अथाण ि आपके इच्छा करने के पहले ही
िल उत्पन्न हो जािा है )॥3॥

19
चौपाई :
* सब तबतध गुरु प्रसन्न तजयूँ जानी। बोलेउ राउ रहूँ तस मृिु बानी॥
नाथ रामु कररअतहं जुबराजू । कतहअ कृपा करर कररअ समाजू॥1॥

भार्ाथण:-अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकर, हतिणि होकर राजा कोमल र्ार्ी से बोले - हे
नाथ! श्री रामचन्द्र को युर्राज कीतजए। कृपा करके कतहए (आज्ञा िीतजए) िो िैयारी की जाए॥1॥

* मोतह अछि यहु होइ उछाह। लहतहं लोग सब लोचन लाह॥


प्रभु प्रसाि तसर् सबइ तनबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं॥2॥

भार्ाथण:-मेरे जीिे जी यह आनंि उत्सर् हो जाए, (तजससे) सब लोग अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करें । प्रभु
(आप) के प्रसाि से तशर्जी ने सब कुछ तनबाह तिया (सब इच्छाएूँ पूर्ण कर िीं), केर्ल यही एक लालसा मन
में रह गई है ॥2॥

* पुतन न सोच िनु रहउ तक जाऊ। जेतहं न होइ पाछें पतछिाऊ॥


सुतन मुतन िसरथ बचन सुहाए। मंगल मोि मूल मन भाए॥3॥

भार्ाथण:-(इस लालसा के पू र्ण हो जाने पर) तिर सोच नहीं, शरीर रहे या चला जाए, तजससे मुझे पीछे
पछिार्ा न हो। िशरथजी के मंगल और आनंि के मूल सुंिर र्चन सुनकर मुतन मन में बहुि प्रसन्न
हुए॥3॥

* सुनु नृप जासु तबमुख पतछिाहीं। जासु भजन तबनु जरतन न जाहीं॥
भयउ िुम्हार िनय सोइ स्वामी। रामु पुनीि प्रे म अनु गामी॥4॥

भार्ाथण:-(र्तशष्ठजी ने कहा-) हे राजन् ! सुतनए, तजनसे तर्मुख होकर लोग पछिािे हैं और तजनके भजन
तबना जी की जलन नहीं जािी, र्ही स्वामी (सर्णलोक महे श्वर) श्री रामजी आपके पुत्र हुए हैं , जो पतर्त्र प्रेम के
अनुगामी हैं । (श्री रामजी पतर्त्र प्रेम के पीछे -पीछे चलने र्ाले हैं , इसी से िो प्रेमर्श आपके पु त्र हुए हैं ।)॥4॥

दोहा :
* बेतग तबलंबु न कररअ नृप सातजअ सबुइ समाजु।
सुतिन सुमंगलु िबतहं जब रामु होतहं जु बराजु॥4॥

भार्ाथण:-हे राजन् ! अब िे र न कीतजए, शीघ्र सब सामान सजाइए। शुभ तिन और सुं िर मंगल िभी है , जब
श्री रामचन्द्रजी युर्राज हो जाएूँ (अथाण ि उनके अतभिेक के तलए सभी तिन शुभ और मंगलमय हैं )॥4॥

20
चौपाई :
* मुतिि महीपति मंतिर आए। सेर्क सतचर् सुमंत्रु बोलाए॥
कतह जयजीर् सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए॥1॥

भार्ाथण:-राजा आनंतिि होकर महल में आए और उन्होंने सेर्कों को िथा मंत्री सुमंत्र को बुलर्ाया। उन
लोगों ने ‘जय-जीर्’ कहकर तसर नर्ाए। िब राजा ने सुं िर मंगलमय र्चन (श्री रामजी को युर्राज पि िे ने
का प्रस्तार्) सुनाए॥1॥
* जौं पाूँ चतह मि लागै नीका। करहु हरति तहयूँ रामतह टीका॥2॥

भार्ाथण:-(और कहा-) यति पंचों को (आप सबको) यह मि अच्छा लगे, िो हृिय में हतिणि होकर आप लोग
श्री रामचन्द्र का राजतिलक कीतजए॥2॥

* मंत्री मुतिि सुनि तप्रय बानी। अतभमि तबरर्ूँ परे उ जनु पानी॥
तबनिी सतचर् करतहं कर जोरी। तजअहु जगिपति बररस करोरी॥3॥

भार्ाथण:-इस तप्रय र्ार्ी को सुनिे ही मंत्री ऐसे आनंतिि हुए मानो उनके मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़
गया हो। मंत्री हाथ जोड़कर तर्निी करिे हैं तक हे जगत्पति! आप करोड़ों र्िण तजएूँ ॥3॥

* जग मंगल भल काजु तबचारा। बेतगअ नाथ न लाइअ बारा॥


नृपतह मोिु सुतन सतचर् सुभािा। बढि बौंड़ जनु लही सु साखा॥4॥

भार्ाथण:-आपने जगिभर का मंगल करने र्ाला भला काम सोचा है । हे नाथ! शीघ्रिा कीतजए, िे र न
लगाइए। मंतत्रयों की सुंिर र्ार्ी सुनकर राजा को ऐसा आनंि हुआ मानो बढिी हुई बेल सुंिर डाली का
सहारा पा गई हो॥4॥

दोहा :
* कहे उ भूप मुतनराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अतभिेक तहि बेतग करहु सोइ सोइ॥5॥

भार्ाथण:-राजा ने कहा- श्री रामचन्द्र के राज्यातभिेक के तलए मुतनराज र्तशष्ठजी की जो-जो आज्ञा हो, आप
लोग र्ही सब िुरंि करें ॥5॥

चौपाई :
* हरति मुनीस कहे उ मृिु बानी। आनहु सकल सुिीरथ पानी॥
औिध मूल िूल िल पाना। कहे नाम गतन मंगल नाना॥1॥

21
भार्ाथण:-मुतनराज ने हतिणि होकर कोमल र्ार्ी से कहा तक सम्पूर्ण श्रे ष्ठ िीथों का जल ले आओ। तिर
उन्होंने औितध, मूल, िूल, िल और पत्र आति अनेकों मां गतलक र्स्तुओं के नाम तगनकर बिाए॥1॥

* चामर चरम बसन बहु भाूँ िी। रोम पाट पट अगतनि जािी॥
मतनगन मंगल बस्तु अनेका। जो जग जोगु भूप अतभिे का॥2॥

भार्ाथण:-चूँर्र, मृगचमण, बहुि प्रकार के र्स्त्र, असंख्यों जातियों के ऊनी और रे शमी कपड़े , (नाना प्रकार
की) मतर्याूँ (रत्न) िथा और भी बहुि सी मंगल र्स्तुएूँ, जो जगि में राज्यातभिेक के योग्य होिी हैं , (सबको
मूँगाने की उन्होंने आज्ञा िी)॥2॥

* बेि तबतिि कतह सकल तबधाना। कहे उ रचहु पुर तबतबध तबिाना॥
सिल रसाल पू गिल केरा। रोपहु बीतथन्ह पुर चहुूँ िेरा॥3॥

भार्ाथण:-मुतन ने र्ेिों में कहा हुआ सब तर्धान बिाकर कहा- नगर में बहुि से मंडप (चूँिोर्े) सजाओ। िलों
समेि आम, सु पारी और केले के र्ृक्ष नगर की गतलयों में चारों ओर रोप िो॥3॥
* रचहु मंजु मतन चौकें चारू। कहहु बनार्न बेतग बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलिे र्ा। सब तबतध करहु भूतमसुर से र्ा॥4॥

भार्ाथण:-सुंिर मतर्यों के मनोहर चौक पुरर्ाओ और बाजार को िुरंि सजाने के तलए कह िो। श्री गर्ेशजी,
गुरु और कुलिे र्िा की पूजा करो और भूिेर् ब्राह्मर्ों की सब प्रकार से सेर्ा करो॥4॥

दोहा :
* ध्वज पिाक िोरन कलस सजहु िुरग रथ नाग।
तसर धरर मुतनबर बचन सबु तनज तनज काजतहं लाग॥6॥

भार्ाथण:-ध्वजा, पिाका, िोरर्, कलश, घोड़े , रथ और हाथी सबको सजाओ! मुतन श्रे ष्ठ र्तशष्ठजी के र्चनों
को तशरोधायण करके सब लोग अपने -अपने काम में लग गए॥6॥

चौपाई :
* जो मुनीस जेतह आयसु िीन्हा। सो िेतहं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
तबप्र साधु सुर पूजि राजा। करि राम तहि मंगल काजा॥1॥

भार्ाथण:-मुनीश्वर ने तजसको तजस काम के तलए आज्ञा िी, उसने र्ह काम (इिनी शीघ्रिा से कर डाला तक)
मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ब्राह्मर्, साधु और िे र्िाओं को पूज रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी के तलए
सब मंगल कायण कर रहे हैं ॥1॥

22
* सुनि राम अतभिेक सुहार्ा। बाज गहागह अर्ध बधार्ा॥
राम सीय िन सगुन जनाए। िरकतहं मंगल अंग सुहाए॥2॥

भार्ाथण:-श्री रामचन्द्रजी के राज्यातभिेक की सुहार्नी खबर सुनिे ही अर्धभर में बड़ी धूम से बधार्े बजने
लगे। श्री रामचन्द्रजी और सीिाजी के शरीर में भी शुभ शकुन सूतचि हुए। उनके सुं िर मंगल अंग िड़कने
लगे॥2॥

* पुलतक सप्रेम परसपर कहहीं। भरि आगमनु सूचक अहहीं॥


भए बहुि तिन अति अर्सेरी। सगुन प्रिीति भेंट तप्रय केरी॥3॥

भार्ाथण:-पुलतकि होकर र्े िोनों प्रेम सतहि एक-िू सरे से कहिे हैं तक ये सब शकुन भरि के आने की
सूचना िे ने र्ाले हैं । (उनको मामा के घर गए) बहुि तिन हो गए, बहुि ही अर्सेर आ रही है (बार-बार
उनसे तमलने की मन में आिी है ) शकुनों से तप्रय (भरि) के तमलने का तर्श्वास होिा है ॥3॥

* भरि सररस तप्रय को जग माहीं। इहइ सगुन िलु िू सर नाहीं॥


रामतह बंधु सोच तिन रािी। अंडक्तन्ह कमठ हृिय जेतह भाूँ िी॥4॥

भार्ाथण:-और भरि के समान जगि में (हमें) कौन प्यारा है ! शकुन का बस, यही िल है , िू सरा नहीं। श्री
रामचन्द्रजी को (अपने) भाई भरि का तिन-राि ऐसा सोच रहिा है जैसा कछु ए का हृिय अंडों में रहिा
है ॥4॥

दोहा :
* एतह अर्सर मंगलु परम सुतन रहूँ सेउ रतनर्ासु।
सोभि लक्तख तबधु बढि जनु बाररतध बीतच तबलासु ॥7॥

भार्ाथण:-इसी समय यह परम मंगल समाचार सुनकर सारा रतनर्ास हतिणि हो उठा। जैसे चन्द्रमा को बढिे
िे खकर समुि में लहरों का तर्लास (आनंि) सु शोतभि होिा है ॥7॥

चौपाई :
* प्रथम जाइ तजन्ह बचन सु नाए। भूिन बसन भूरर तिन्ह पाए॥
प्रेम पु लतक िन मन अनुरागीं। मंगल कलस सजन सब लागीं॥1॥

भार्ाथण:-सबसे पहले (रतनर्ास में) जाकर तजन्होंने ये र्चन (समाचार) सुनाए, उन्होंने बहुि से आभूिर् और
र्स्त्र पाए। रातनयों का शरीर प्रेम से पुलतकि हो उठा और मन प्रेम में मि हो गया। र्े सब मंगल कलश
सजाने लगीं॥1॥

23
* चौकें चारु सुतमत्राूँ पूरी। मतनमय तबतबध भाूँ ति अति रूरी॥
आनूँि मगन राम महिारी। तिए िान बहु तबप्र हूँ कारी॥2॥

भार्ाथण:-सुतमत्राजी ने मतर्यों (रत्नों) के बहुि प्रकार के अत्यन्त सुंिर और मनोहर चौक पूरे। आनंि में मि
हुई श्री रामचन्द्रजी की मािा कौसल्याजी ने ब्राह्मर्ों को बुलाकर बहुि िान तिए॥2॥

* पूजीं ग्रामिे तब सुर नागा। कहे उ बहोरर िे न बतलभागा॥


जेतह तबतध होइ राम कल्यानू। िे हु िया करर सो बरिानू॥3॥

भार्ाथण:-उन्होंने ग्रामिे तर्यों, िे र्िाओं और नागों की पूजा की और तिर बतल भेंट िे ने को कहा (अथाण ि कायण
तसर्द् होने पर तिर पूजा करने की मनौिी मानी) और प्राथणना की तक तजस प्रकार से श्री रामचन्द्रजी का
कल्यार् हो, िया करके र्ही र्रिान िीतजए॥3॥

*गार्तहं मंगल कोतकलबयनीं। तबधुबिनीं मृगसार्कनयनीं॥4॥

भार्ाथण:-कोयल की सी मीठी र्ार्ी र्ाली, चन्द्रमा के समान मु ख र्ाली और तहरन के बच्चे के से नेत्रों र्ाली
क्तस्त्रयाूँ मंगलगान करने लगीं॥4॥

दोहा :
* राम राज अतभिेकु सुतन तहयूँ हरिे नर नारर।
लगे सु मंगल सजन सब तबतध अनुकूल तबचारर॥8॥

भार्ाथण:-श्री रामचन्द्रजी का राज्यातभिेक सुनकर सभी स्त्री-पुरुि हृिय में हतिणि हो उठे और तर्धािा को
अपने अनुकूल समझकर सब सुंिर मंगल साज सजाने लगे॥8॥

चौपाई :
* िब नरनाहूँ बतसष्ठु बोलाए। रामधाम तसख िे न पठाए॥
गुर आगमनु सुनि रघुनाथा। द्वार आइ पि नायउ माथा॥1॥

भार्ाथण:-िब राजा ने र्तशष्ठजी को बुलाया और तशक्षा (समयोतचि उपिे श) िे ने के तलए श्री रामचन्द्रजी के
महल में भेजा। गुरु का आगमन सुनिे ही श्री रघुनाथजी ने िरर्ाजे पर आकर उनके चरर्ों में मस्तक
नर्ाया।1॥

* सािर अरघ िे इ घर आने । सोरह भाूँ ति पूतज सनमाने ॥


गहे चरन तसय सतहि बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥2॥

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भार्ाथण:-आिरपूर्णक अर्घ्ण िे कर उन्हें घर में लाए और िोडशोपचार से पूजा करके उनका सम्मान तकया।
तिर सीिाजी सतहि उनके चरर् स्पशण तकए और कमल के समान िोनों हाथों को जोड़कर श्री रामजी बोले -
॥2॥

* सेर्क सिन स्वातम आगमनू। मंगल मूल अमंगल िमनू॥


िितप उतचि जनु बोतल सप्रीिी। पठइअ काज नाथ अतस नीिी॥3॥

भार्ाथण:-यद्यतप सेर्क के घर स्वामी का पधारना मंगलों का मूल और अमंगलों का नाश करने र्ाला होिा है ,
िथातप हे नाथ! उतचि िो यही था तक प्रेमपूर्णक िास को ही कायण के तलए बुला भेजिे, ऐसी ही नीति है ॥3॥

* प्रभुिा ितज प्रभु कीन्ह सनेह। भयउ पुनीि आजु यहु गेह॥
आयसु होइ सो करौं गोसाईं। से र्कु लइह स्वातम सेर्काईं॥4॥

भार्ाथण:-परन्तु प्रभु (आप) ने प्रभुिा छोड़कर (स्वयं यहाूँ पधारकर) जो स्नेह तकया, इससे आज यह घर पतर्त्र
हो गया! हे गोसाईं! (अब) जो आज्ञा हो, मैं र्ही करू ूँ । स्वामी की से र्ा में ही से र्क का लाभ है ॥4॥

दोहा :
* सुतन सनेह साने बचन मुतन रघुबरतह प्रसं स।
राम कस न िुम्ह कहहु अस हं स बंस अर्िंस॥9॥

भार्ाथण:-(श्री रामचन्द्रजी के) प्रेम में सने हुए र्चनों को सुनकर मुतन र्तशष्ठजी ने श्री रघुनाथजी की प्रशंसा
करिे हुए कहा तक हे राम! भला आप ऐसा क्ों न कहें । आप सूयणर्ंश के भूिर् जो हैं ॥9॥

चौपाई :
* बरतन राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रे म पु लतक मुतनराऊ॥
भूप सजेउ अतभिेक समाजू । चाहि िे न िुम्हतह जु बराजू॥1॥

भार्ाथण:-श्री रामचन्द्रजी के गुर्, शील और स्वभार् का बखान कर, मुतनराज प्रेम से पुलतकि होकर बोले - (हे
रामचन्द्रजी!) राजा (िशरथजी) ने राज्यातभिेक की िैयारी की है । र्े आपको युर्राज पि िे ना चाहिे हैं ॥1॥

* राम करहु सब संजम आजू। जौं तबतध कुसल तनबाहै काजू॥


गुरु तसख िे इ राय पतहं गयऊ। राम हृियूँ अस तबसमउ भयऊ॥2॥

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