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कठोपनिषद् (1.1.

5)-----:बहूिामेनम प्रथमो बहूिामेनम मध्यम:।ककम ्


स्विद्यमवय कर्तव्य यन्मयाद्य करिष्ययनर्।।1.1.५।।अन्िय------:बहुिाम ्= मं
बहुर् से निष्यं मं र्ो;प्रथम:=प्रथम श्रेणी के आचिण पि;एनम=चलर्ा आया
हँू (औि);बहुिाम ् =बहुर्ं मं; मध्यम:=मध्यम श्रेणी आचिण पि ;एनम=चलर्ा
हूँ (कभी भी िीची श्रेणी के आचिण को िही अपिाया किि पपर्ाजी िे ऐसा
क्ययं कहा।);यमवय=यम का ;ककम ् स्विर् ् कर्तव्यं =ऐसा कोिसा कायत हो
सकर्ा है ;यर् ् अद्य=स्जसे आज;मया=मेिे द्वािा या मुझे दे कि ;करिष्यनर्=
पपर्ाजी पूिा किं गे।।1.1.5।।सिलव्याख्या ----:निष्यं औि पुत्रो की
उत्तमं,मध्यम औि अधम र्ीि श्रेस्णयां होर्ी है ।जो गुरु औि पपर्ा का मिोिथ
समझकि उिकी आज्ञा की प्रर्ीक्षा ककये पििा उिकी रुनच के अिुसाि कायत
कििे लगर्े है ,िे उत्तम है आज्ञा पािे के बाद किे िे मध्यम जो ि किे िे
अधम होर्े है ।मं प्रथम औि मध्यम श्रेणी का हँू ।किि पपर्ाजी िे ऐसा क्ययं
कहा।यम का भी ऐसा कोिसा प्रयोजि स्जसके नलए पपर्ाजी मुझे उिको
दे कि पूिा कििा चाहर्े है ।क्रोध मे ही सही उिकी आज्ञा का पालि कििा
चाकहए।िाल मि मे संवकाि प्रिल आज्ञा पालि की स्जद्द भी है ।पपर्ा दोषपूणत
दाि से दोषपूणत ही सही िाल मि िाि िाि स्जज्ञासु भाि पि क्रोध प्रनर्कक्रया
कक यम को दाि मं दे दंगे ।पि पुत्र का संकल्प भी कठोि है ।िह पपर्ा की
आज्ञा मं उसे सस्ममनलर् कि मि मे उसे पूिा करू यह निस्िर् कि नलया
है ।

कठोपनिषद् (1.1.28)--संदभत संबंध--:िनचकेर्ा िे भोगं की र्ुच्छर्ा औि


जीिि मे केिल जीिि नििातह र्क चाकहए।आत्मज्ञाि से अनधक श्रेष्ठ िायद
कुछ ि हो।िही िि पूणत किं ।श्लोक---:अजीयतर्ाममृर्ािामुपेत्य जीयति ् मत्यतः
क्यिधःवथ: प्रजािि ् ।अनभध्यायि ् िणत िनर् प्रमोदा िनर्दीर्घे जीपिर्े को
िमेर्।।1.1.28।।अन्िय---:जीयति ् मत्यत:=यह मिुष्य मिण धमात है जीणत होिे
िाला है ;प्रजािि ् =इस र्त्ि को भलीभांनर् समझिेिाला ;क्यिधः वथ:=मिुष्य
लोक का नििासी; क:=कोि ऐसा मिुष्य है जो कक;अजीयतर्ाम ् =बुढ़ापे से
िकहर्; अमृर्ािाम ् =ि मििे िाले आप सदृश्य महात्माओं का;उपेत्य=संग

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पाकि भी; िणतिनर् प्रमोदाि ् =स्ियं के संदयत, क्रीड़ा औि प्रमोद
का;अनभध्यायि ् =बाि बाि नचंर्ि किर्ा हुआ;अनर्दीर्घे =बहुर्काल
र्क;जीपिर्े =जीपिर् िहे गा; िमेर्=प्रेम किे गा।।28।।सिलव्याख्या----:हे
यमिाज ! आप वियं ही पिचाि किे आप जैसे गुरु का संग पाकि संसाि
पप्रयर्ा औि उसमे िहिा उनचर् है ।क्यया मत्यत लोक दीर्घत काल र्क िहिे के
नलए उनचर् है ।।

कठोपनिषद्(1.1.29) यस्वमस्न्िदं पिचककत्सस्न्र् मृत्यो यत्सामपिाये महनर्


ब्रूकह िवर्र् ् ।योsयम ् ििो गूढ़ मिुप्रपिष्टो िान्यम ् र्वमान्िनचकेर्ा
िृणीर्े।।1.1.29।।अन्िय-----:मृत्यो =हे यमिाज; यस्वमि ् =स्जस; महनर्
सामपिाये=महाि ् आश्यचयत मय पिलोक संबंधी आत्मज्ञाि के पिषय मं; इदं
पिनचककत्सस्न्र्=लोग यह िंका किर्े है कक यह आत्मा मििे के बाद िहर्ा
है या िही;र्त्र यर् ् =उसमे जो निणतय है ;र्र् ् िः ब्रूकह =िह आप हमं
बर्लाइए; यः अयं =जो यह;गूढम ् अिु प्रपिष्ट: ििः=अत्यन्र् गंभीिर्ा को प्राप्त
हुआ िि है ;र्वमार् ् =इससे;अन्यम ् =दस
ू िा िि; िनचकेर्ा:=िनचकेर्ा; ि िृणीर्े
=िही मांगर्ा।।29।।सिलव्याख्या-----:िनचकेर्ा कहर्ा है --'हे यमिाज !
स्जस आत्मर्त्ि संबध
ं ी महाि ज्ञाि के पिषय मे लोग यह िंका किर्े है कक
मििे के बाद आत्मा का अस्वर्त्ि िहर्ा है या िही,इसके संबंध मं
निणतयात्मक जो आपका अिुभर्
ू ज्ञाि हो ,मुझे कृ पापूिक
त उसी का उपदे ि
कीस्जये।यह आत्मर्त्िसमबन्धी िि अत्यन्र् गूढ है -यह सत्य है ; पि आपका
निष्य यह िनचकेर्ा इसके अनर्रिक्त दस
ू िा कोई िि िही चाहर्ा'।।29।।प्रथम
िल्ली समाप्त।।1।।

कठोपनिषद-कद्वर्ीय िल्ली(1.2.1)िनचकेर्ा दृढ़ निियी,पिम िैिाग्यिाि एिं


निभीक छात्र है ।अर्ः ब्रह्मपिद्याका उत्तम अनधकािी है ।पहले ब्रह्मपिद्या के महत्ि
की निक्षा आिश्यक है ।यमिाज िोले ---:अन्यर् ् श्रेयो s न्यदर्
ु ैि प्रेयवर्े उभे
िािाथे पुरुषं नसिीर्ः।र्योः श्रेय आददािवय साधु भिनर् हीयर्े s थातद्य उ
प्रेयो िृणीर्े।।1.2.1अन्िय ------:श्रेयः=कल्याण का साधि ;अन्यर् ्=अलग
है ;उर् ् =औि;प्रेयः =पप्रय लगिे िाले भोगो का साधि;अन्यर् एि=अलग ही
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है ।र्े=िे;िािाथे =नभन्ि नभन्ि िल दे िे िाले ;उभे=दोिो साधि;पुरुषं=मिुष्य
को;नसिीर्ः =बांधर्े है --अपिी अपिी ओि आकपषतर् किर्े है ;र्यो=उि दोिं
मे से;श्रेयः=कल्याण के साधि को;आददािवय=ग्रहण कििे िाले का;साधु
भिनर् =कल्याण होर्ा है ; उ यः=पिं र्ु जो;प्रेयः िृणीर्े =सांसारिक भोगो के
साधि को विीकाि किर्ा है ;[सः=िह;]अथातर्=यथाथत लाभ से;हीयर्े =भृष्ट हो
जार्ा है ।।1.2.1।।सिलव्याख्या------:कमतिल भोगी है यह ििीि पिं र्ु मिुष्य
सुख हे र्ु भपिष्य को ध्याि मं िख कि र्पवया कििी होगी।प्रेयः औि श्रेय
दो ही मागत है ।िी,पुत्र,धि,मकाि,सममाि,यि आकद इसलोक औि पिलोक के
स्जर्िे प्राकृ नर्क सुखभोग की सामनग्रयं की प्रानप्त को प्रेय कहर्े है ।पिन्र्ु
भगिाि की दया औि प्रेय से िैिाग्य उसे श्रेय कहर्े है ।पिमात्मा को प्राप्त
कि अिंर् सुख भी प्राप्त कि सकर्े है ।नित्य सुख पिमात्मा दे र्ा है ।अनित्य
भोग कभी सुखकािक िही होर्े है ।प्रेयः दख
ु औि श्रेय सुख का मागत है ।

कठोपनिषद् (1अ0.2ि0.2श्लो0)श्रेयि प्रेयि मिुष्यमेर्वर्ौ समप िीत्य


पिपिनिपक्त धीिः।श्रेयो कह धीिोsनभ प्रेयसो िृणीर्े प्रेयो मंदो योगक्षेमाद्
िृणीर्े।।1.2.2।।अन्िय----:श्रेयः च प्रेय: च=श्रेय औि प्रेय--ये दोिं
ही;मिुष्यम ् एर्ः=मिुष्य के सामिे आर्े है ;धीिः=बुपिमाि मिुष्य; र्ौ=उि
दोिं के विरूप पि ;समपिीत्य=भली भांनर् पिचािकि; पिपिनिपक्त =उिको
पृथक पृथक समझ लेर्ा है ;औि धीिः=िह श्रेष्ठ बुपि मिुष्य; श्रेयः कह=पिम
कल्याण के साधि को ही;प्रेयस:=भोग साधिं की अपेक्षा;अनभ िृणीर्े= श्रेष्ठ
समझकि ग्रहण किर्ा है ।पिं र्ु मन्दः=मंद बुपििाला मिुष्य; योगक्षेमार् ्
=लौककक योग क्षेमकी इच्छा से;प्रेयः िृणीर्े =भोगं के साधिरूप प्रेय को
अपिार्ा है ।।1.2.2।।सिलव्याख्या-----:िुभ कमं से िुभयोनि नमलर्ी है ।यह
पुिजतन्म माििेिाले पिलोक मं पिश्वास किर्े है ।जो िही किर्े िे प्रेयः मागत
र्ो मािर्े है औि पुिजतन्म को िही मािर्े।परिणामविरूप भोगिादी हो जार्े
है ।यम नियम िही मािर्े।पििेकी बुपिमाि लोग श्रेय को मािर्े है ।अपिार्े
है ।मंदबुपि भोग पिलासी दःु खरूप जीिि से मुक्त िही होर्े।।

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कठोपनिषद् (1.2.4)दिू मेर्े पिपिीर्े पिषूची अपिद्या या च पिद्येनर्
ज्ञार्ा।पिद्याभीस्ससिम ् िनचकेर्सम ् मन्ये ि त्िा कामा बहिोsलोलुपन्र्
।।1.2.4।।अन्िय-----:या अपिद्या=जो कक अपिद्या; च पिद्या इनर् ज्ञार्ा =औि
पिद्या िाम से पिख्यार् है ;एर्े=ये दोिं;दिू ं पिपिीर्े =पिवपि अत्यंर्
पिपिीर्;(औि) पिषूची=नभन्ि नभन्ि िल दे िे िाली है ;िनचकेर्सम ् =र्ुम
िनचकेर्ा को; पिद्याभीस्ससिम ् मन्ये=मं पिद्या का ही अनभलाषी मािर्ा
हूँ(क्ययोकक);त्िा बहिः कामा=र्ुमको बहुर् से भोग;ि अलोलुपन्र् =ककसीं
प्रकाि भी िही लुभा सके।।4।।सिलव्याख्या----:अपिद्या औि पिद्या दो पृथक
पृथक साधि है ।पिपिीर् िल दे िे िाले है ।पिवपि पिरुि है ।भोग से कल्याण
साधि आसपक्त के कािण आगे िही बढ़र्ा है ।कल्याण मागी भोग पिहीि
साधि से ही आगे बढ़र्ा है ।भोग दःु खरूप है ।अर्ः त्याज्य है ।िनचकेर्ा मं
मािर्ा हँू कक र्ुम पिद्या अनभलाषी हो।बड़े बड़े भोग र्ुमहािे मि को
ककंनचन्मात्र भी प्रलोनभर् िही कि सके।।

कठोपनिषद् (1.2.5)अपिद्यायामन्र्िे िर्तमािा: वियं धीिा:


पस्डिर्ममन्यमािा:।दन्रमयमाणा: परियस्न्र् मूढा अन्धेिि
ै िीयमािा
यथान्धा:।।1.2.5।।अन्िय---:अपिद्यायाम ् अन्र्िे िर्तमािा:=अपिद्या के भीर्ि
िहर्े हुए भी;वियं धीिा:=अपिे आप को बुपिमाि औि ;पस्डिर्म ्
मन्यमािा:=पिद्वाि माििे िाले;मूढा:=(भोग की इच्छा कििे िाले)िे मूखत
लोग; दन्रमयमाणा:=िािा योनियं मं चािो ओि भटकर्े हुए;(र्था)
परियस्न्र्=ठीक िैसे ही ठोकि खार्े िहर्े है ;यथा=जैस;े अन्धेि एि
िीयमािा=अन्धे मिुष्य के द्वािा चलाये जािे िाले;अंधा:=अन्धे(अपिे
लक्ष्यर्क ि पहुचकि इधि उधि भटकर्े औि कष्ट भोगर्े
है )।।5।।सिलव्याख्या----:अंधे को अंधा मागत िही कदखा सकर्ा है ।ि लक्ष्य
र्क पहुचा सकर्ा है ।कष्ट औि ठोकिे ही जीिि भि खार्ा है ।िैसे ही अपिद्या
से ककये कायत िािा योनियं मं दख
ु उठार्े हुए ,यंत्रणाएँ भोगर्े िहर्े है ।औि
अपिे को बुपिमाि समझर्े है ।मिुष्य िास्रो औि सज्जिं की अिहे लिा
किर्े हुए पाप कमत भी मािि होकि किर्ा है ।अमूल्य जीिि िष्ट किर्े है ।।

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कठोपनिषद् (1.2.6)ि सामप िायः प्रनर्भानर् बालम ् प्रमाद्यन्र्म ् पित्तमोहे ि
मूढम ् ।अयं लोको िास्वर् पि इनर् मािी पुिः पुिितिमापद्यर्े
मे।।1.2.6।।पित्तमोहे ि मूढम ् =इस प्रकाि समपनर् के मोह से मोकहर्; प्रमाद्यंर्म ्
बालम ् =नििं र्ि प्रमाद कििे िाले अज्ञािी को ;सामपिायः=पिलोक; ि
प्रनर्भानर्=िही सूझर्ा;अयं लोकः=िह समझर्ा है कक यह प्रत्यक्ष दीखिे
िाला लोक ही सत्य है ;पिः ि अस्वर्=इसके नसिा दस
ू िा विगत -ििक आकद
लोक कुछ भी िही है ;इनर् मािी=इस प्रकाि माििे िाला अनभमािी मिुष्य;
पुिः पुिः =बाि बाि;मे ििम ् = मेिे िि मं;आपद्यर्े =आर्ा
है ।।6।।सिलव्याख्या-----:मिुष्य सांसारिक भोग समपनर् से मोकहर् िहर्ा
है ।भोगं मं आसक्त मिुष्य प्रमादी,विच्छं द हो जार्ा है ।लोक पिलोक दोिं
संभाले यह समझ मे िही आर्ा।अिेक योनिया उसी कािण नमलर्ी
है ।भुगर्िी पड़र्ी है ।उसका पिश्वास पिलोक से उठ जार्ा है ।यमिाज के चंगुल
मं बाि बाि िसर्ा है ।गीर्ा मं "भोग ऐश्वयत प्रसक्तािाम ् र्योहृर्चेर्साम ्
।व्यिसायत्मका बुपि समाधौ ि पिधीयर्े "।।

कठोपनिषद् (1.2.7)श्रिणायापप बहुनभयो ि लभ्यः नश्रणिन्र्ो s पप बहिो यं ि


पिद्यु :।आियो िक्ता कुिलो s वय लब्धा ss ियो ज्ञार्ा
कुिलिुनिष्ट:।।1.2.7।।अन्िय-----:यः बहुनभ:=जो आत्म र्त्ि बहुर्ं को
र्ो;श्रिणाय अपप=सुििे के नलए भी ; ि लभ्यः=िही नमलर्ा; यम ्
=स्जसको;बहिः=बहुर् से लोग;श्रणिंर् अपप=सुिकि भी; ि पिद्यु :=िही समझ
सकर्े;अवय=ऐसे इस गूढ आत्मर्त्ि का; िक्ता आियत:=िणति कििे िाला
महापुरुष आियतमय है (बड़ा दल
ु भ
त है );लब्धा कुिलः= उसे प्राप्त कििे िाला भी
कुिल या सिल जीिि कोई एक ही होर्ा है ;कुिलािुनिष्टः=औि स्जसे
आत्मर्त्ि की उपलस्ब्ध हो गयी है ,ऐसे ज्ञािी महापुरुष के द्वािा निक्षा प्राप्त
ककया हुआ ;ज्ञार्ा=आत्म र्त्ि का ज्ञार्ा भी; आियत:=आश्यचयत है ।पिं दल
ु भ

है ।।7।।सिलव्याख्या------:संसाि मे आत्मकल्याण की चचात सुििे को िही
नमलर्ी।प्रार्ः काल से िापत्र सोिेर्क केिल पिषय चचात ही होर्ी है ।मि मे
आत्मर्त्ि पििपक्त ही कदखर्ी है ।पिषयानभभूर् मि मे आत्मर्त्ि की कल्पिा

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लािा ककठि है ।कोई दल
ु भ
त मिुष्य ही समझर्ा है औि यथाथत रूप मं िणति
किर्ा है ।अिुभिी आचायत द्वािा उपदे िं प्राप्त किके मिि नचंर्ि निकदध्यासि
कििे िाले साक्षात्कािी पुरुष कोई कोई लाखो मं एक होर्ा है ।सितत्र दल
ु भ
त है ।

कठोपनिषद् (1.2.9)िैषा र्केण मनर्िापिेया प्रोक्तान्येिि


ै सुज्ञािाय प्रेष्ठ।याम ्
त्िमाप: सत्यधृनर्बतर्ानस त्िादृम ् िो भुयान्िनचकेर् : प्रष्टा।।1.2.9।।अन्िय---
--:प्रेष्ठ=हे पप्रयर्म ! ;याम ् त्िं आपः=स्जसको र्ुमिे पाया है ; एषा मनर्:=यह
िुपि;र्केण ि आपिेया=र्कत से िही नमल सकर्ी (यह र्ो);अन्येि प्रोक्ता एि
=दस
ू िे के द्वािा कही हुई ही;सुज्ञािाय =आत्म ज्ञाि मं निनमत्त ;भिनर्=होर्ी
है ;बर्=सचमुच ही र्ुम; सत्य धृनर्=उत्तम धैयत िाले ;अनस=हो ;िनचकेर्ः=हे
िनचकेर्ा ! हम चाहर्े है कक ; त्िा दृक् =र्ुमहािे जैसे हो;पृष्ठा=पूछिे िाले; िः
भयार् ् = हमे नमला किे ।।9।।सिलव्याख्या -------:िनचकेर्ा की प्रिंसा किर्े
हुए यमिाज किि कहर्े है हे पप्रयर्म! र्ुमहािी पपित्र मनर्औि निमतल निष्ठा
मं अनर् प्रसन्ि हँू ।र्कत से पपित्रर्ा अहं यक्त
ु होजार्ी है ।स्जज्ञासा िून्य हो
जार्ी है ।आत्मज्ञाि प्रिृत्त निष्ठा है ।र्ुम प्रलोभि िून्य सत्य धािक हो।हमे
र्ुमहािे जैसे स्जज्ञासु ही नमले।

कठोपनिषद् (1.2.11)कामवयानप्तम ् जगर्: प्रनर्ष्ठाम ् क्रर्ोििन्त्यमभयवय पािम ्


।वर्ोममहदरु
ु गायम ् प्रनर्ष्ठाम ् दृष््िा धृत्या धीिो
िनचकेर्ोsत्यिाक्षी:।।1.2.11।।अन्ियः-----:िनचकेर्:=हे िनचकेर्ा! ;कामवय
आनप्तम ् =स्जसमे सब प्रकाि के भोग नमल सकर्े है ;जगर्ः प्रनर्ष्ठाम ् =जो
जगर् का आधाि; क्रर्ो: अिन्त्यम ् =यज्ञ का नचिवथायी िल ;अभयवय
पािम ्=निभतयर्ा की अिनध औि ; वर्ोममहर् ्=वर्ुनर् कििे योग्य औि महत्ि
पूणत है ;उरुगायम ् =िेदो मं स्जसके गुण िािा प्रकाि से गाये गए हो; प्रनर्ष्ठाम ्
=औि जो लंबे समय से विगतलोक भोग समपन्ि है वथापपर् सत्य है ;दृष््िा
धृत्या =दे खकि भी र्ुमिे धैयप
त ि
ू क
त ; अत्यिाक्षी=उसका त्याग कि
कदया;अर्ः=इसनलए मं समझर्ा हूँ कक धीिः अनस=र्ुम बहुर् िुपिमाि
हो।।11।।सिलव्याख्या ------:जो संकल्प का धिी होगा बुपिमाि होगा िही
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विगत लोक के सुखं को छोड़ सकर्ा है ।हे िनचकेर्ा र्ुम धैयि
त ाि बुपिमाि
औि त्यागी हो।र्ुमहे अनित्य से प्रेम िही।नित्य अनभलाषी हो।

कठोपनिषद् (1.2.12)र्ं दद
ु त ित गूढ़मिुप्रपिष्टम ् गुह्य कहर्ं गह्विे ष्ठम ्
पुिाणम ्।अध्यात्मयो गानधगमेि दे िं मत्िा धीिो हषतिोकौ
जहानर्।।1.2.12।।अन्िय:-----:गूढम ् = जो योग माया के पदे मं नछपा हुआ
;अिुप्रपिष्टम ् =सित व्यापी ;गुहा कहर्म ् =सबके हृदय रूप गुिा मं स्वथर्
(अर्एि);गह्विे ष्ठं= संसाि रूप गहि िि मं िहिे िाला;पुिाणं =सिार्ि है ,ऐसे;
र्ं दद
ु त िम
त ् दे िं =उस ककठिर्ा से दे खे जािे िाले पिमात्मदे ि को;धीिः=िुि
बुपियुक्त साधक ; अध्यात्म योगानधगमेि =अध्यात्म योग की प्रानप्त के
द्वािा;मत्िा=समझकि ;हषत िोकौ जहानर् =हषत औि िोक़ को त्याग दे र्ा
है ।।12।।सिलव्याख्या------:यह समपूणत जगर् अत्यन्र् दग
ु म
त गहि िि के
समाि है ।पिं र्ु यह पिब्रह्म पिमेश्वि से परिपूणत है ,िह सित व्यापी इसमं सितत्र
प्रपिष्ट है (गीर्ा 9।4)।िह सबके हृदय रूपी गुिा मं स्वथर् है (गीर्ा 13/17
,15/15,18/61)।इसप्रकाि नित्य साथ िहिे िाला किि भी सहज कदखर्ा िही
है ।क्ययंकक योगमाया मं नछपा िहर्ा है (गीर्ा 7/25),इसनलए अत्यन्र् गुप्त
है ।इसके दिति बहुर् ही ककठि औि दल
ु भ
त है ।जो िुि मि से औि बुपि से
नििं र्ि लंबे काल र्क ध्याि साधिा किर्ा है ।उसको पिमात्मा के दिति हो
जार्े है ।सुख दख
ु से मुक्त हो जार्ा है ।।

कठोपनिषद् (1.2.13)एर्र् ् श्रुत्िा समपरिगृह्य मत्यतः प्रिृह्य धमयतमणुमेर्मासय।


स मोदर्े मोदिीयं कह लब्ध्िा पििृर्ं सद्य िनचकेर्सम ्
मन्ये।।1.2.13।।अन्िय:-------:मत्यत:=मिुष्य जब ;एर्र् ्=इस;धमयतम ्
=धमतमय उपदे ि को श्रुत्िा=सुिकि;समपरिगृह्य =भलीभांनर् ग्रहण किके;प्रिृह्य
=औि उस पि पििेकपूिक
त पिचाि किके;एर्म ् =इस;अणुम ् =सूक्ष्म आत्म
र्त्ि को ;आसय=जािकि अिुभि कि लेर्ा है ; सः =िह ;मोदिीयं
=आिंदविरूप पिब्रह्म पुरुषोत्तम को; लब्ध्िा=पाकि ; मोदर्े कह =आिंद मं ही
मग्ि हो जार्ा है ; िनचकेर्सम ् = र्ुम िनचकेर्ा के नलए ;पििृर्ं सद्य मन्ये =
मं पिमात्मा का द्वाि खुला हुआ मािर्ा हँू ।।13।।सिलव्याख्या------:धमत मय
7
उपदे ि को अिुभिी महापुरुष से अनर् श्रिापूिक
त सुिो औि मिि किो।ध्याि
भी एकांर् मं किो।उसका साक्षात्काि भी होजार्ा है औि आिंदविरूप
पिमात्मा की प्रानप्त भी हो जार्ी है ।उसके उपिांर् िह आिंद सागि मं
निमग्ि हो जार्ा है ।हे िनचकेर्ा ! र्ुमहािे नलए पिमात्मा का द्वाि खुला
है ।कोई िोक िही है ।र्ुम उत्तम अनधकािी हो ऐसा मं मािर्ा हूँ।।

कठोपनिषद्(1.2.14)अन्यत्र धमातदन्यत्रा धमातदन्यत्रावमात्कृ र्ाकृ र्ार् ् ।अन्यत्र


भूर्ाच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यनस र्द्वद।।1.2.14।।अन्िय:-------:यर् ् सर् ् =
स्जस उस पिमेश्वि को ;धमातर् ् अन्यत्र =धमत से अर्ीर् ;अधमातर् ् अन्यत्र =
अधमत से अर्ीर् ;कृ र्ा कृ र्ार् ् =इस कायत औि कािण रूप समपूणत जगर् से
भी ;अन्यत्र =नभन्ि ; च=औि ; भुर्ार् ् भव्यार् ् =भूर् ,िर्तमाि एिं भपिष्यर् ्
---र्ीिो कालो र्था इिसे समबंनधर् पदाथो से भी; अन्यत्र =पृथक् ; पश्यनस
=आप जािर्े है ,दे खर्े है ;र्र् ् =उसे ;िद =बर्लाइए ।।14।।सिलव्याख्या----
:धमत -अधमत ,कायत-कािण औि कालार्ीर् इिसे भी पिमात्म र्त्ि नभन्ि है
,आप उसे मुझे िर्लाइये ,मेिा कल्याण किे ।

कठोपनिषद्(1.2.15)सिे िेदा यर् ् पदमामिंनर् र्पांनस सिातस्ण च यद्


िदस्न्र्।यकदच्छन्र्ो ब्रह्मचयतम ् चिस्न्र् र्त्ते पदं संग्रहे ण ब्रिीमयोनमत्येर्र् ्
।।1.2.15।।अन्िय:-----:सिे िेदा:=समपूणत िेद ; यर् ् पदं =स्जस पिं
पदका;आमिस्न्र्=प्रनर्पादि किर्े है ;च=औि ;सिातस्ण र्पांनस =समपूणत र्प;
यर् ् =स्जस पद का ;िदस्न्र् =लक्ष्य किार्े है अथातर् िे स्जसके साधि है ;यर् ्
इच्छन्र्ः=स्जसको चाहिे िाले साधक गण ;ब्रह्मचयतम ् =ब्रह्मचयत का;चिस्न्र्
=पालि किर्े है ;र्र् ् पदं =िह पद ;र्े=र्ुमहे मं; संग्रहे ण= संक्षेप से ; ब्रिीनम
= िर्लार्ा हूँ;िह है ॐ ;इनर् =ऐसा; एर्र् ्=यह एक अक्षि
।।15।।सिलव्याख्या------:यमिाज यहाँ पिब्रह्म पिमेश्वि पुरुषोत्तम की पिं
प्रासय ओनमत्येकाक्षिं ॐ एक अक्षि विरूप िर्लार्े है ।िेद के अिेक छं द भी
ॐ का प्रनर्पादि किर्े है ।र्प, साधिाये उसी को पािे के नलए है ।यही ॐ
सबका पिं लक्ष्य है ।ब्रह्मचयत भी एक अिुष्ठाि है ।ब्रह्मचयत भी र्प है ।ॐ एक
अक्षि जो पिब्रह्म विरुप है ,के बािे मं संक्षेप मं िर्लार्ा हँू ।।
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कठोपनिषद् (1.2.16)एर्द् ध्येिाक्षिं ब्रह्म एर्द् ध्येिाक्षिं पिं ।एर्द् ध्येिाक्षिं
ज्ञात्िा यो यकदस्च्छर् र्वय र्र् ् ।।1.2.16।।अन्िय:-----:एर्र् ् =यह; अक्षिं
एि कह =अक्षि ही र्ो ;ब्रह्म =ब्रह्म है औि ;एर्र् ्=यह ; अक्षिं एि कह =अक्षि
ही ;पिं =पिं ब्रह्म है ; कह=इसनलए ; एर्र् ् एि =इसी ; अक्षिं =अक्षि को;ज्ञात्िा
=जािकि ;यः=जो ; यर् ् =स्जसको ; इच्छनर् = चाहर्ा है ; र्वय =उसको ;
र्र् ् =िही ( नमल जार्ा है )।।16।।सिलव्याख्या -------;यह अपििािी प्रणि
----ओंकाि ही र्ो ब्रह्म (पिमात्मा विरूप )है औि यही पिब्रह्म पिमपुरुष
पुरुषोत्तम है अथातर् उस ब्रह्म औि पिब्रह्म दोिं का ही िाम ॐ काि है ;अर्ः
इस र्त्त्िको समझकि साधक इसके द्वािा दोिं मं से ककसीं भी अभीष्ट रुपको
प्राप्त कि सकर्ा है ।।16।।

कठोपनिषद(1.2.18)आत्मा के विरूप का िणति गीर्ा(2.20) मं भी हूबहू यही


पुििािृपत्त है ।श्लोक---ि जयर्े नियर्े िा पिपस्िन्िायम कुर्स्िन्ि बभूि
कस्िर् ् ।अजो नित्य: िाश्वर्ो s यं पुिाणो ि हन्यर्े हन्यमािे
ििीिे ।।1.2.18।।अन्िय :---------:पिपस्िर् ् =नित्य ज्ञािविरूप आत्मा ;ि
जायर्े=ि र्ो जन्मर्ा है ;िा ि नियर्े =औि ि मिर्ा ही है ;अयं ि =यह ि
र्ो वियं ;कुर्स्िर् ्=ककसी से हुआ है ;ि=ि इससे;कस्िर् ् = कोई
भी;बभूि=हुआ है अथातर् यह ि र्ो ककसी का कायत है औि ि कािण ही
है ;अयं =यह ;अज:=अजन्मा ;नित्य:=नित्य;िाश्वर्ः=सदा एकिस िहिे िाला
औि;पुिाण:=पुिार्ि है ,क्षय औि िृपि से िकहर् है ;ििीिे हन्यमािे =ििीि के
िाि ककये जािे पि भी ;ि हन्यर्े =िाि िही ककया जा सकर्ा
है ।।18।।सिलव्याख्या-----:गीर्ा अध्याय( 2.19,2.20) मं यह पूणत रूप से
समझाया गया है ।"जो इस आत्मा को माििे िाला समझर्ा है औि जो
इसको मािा गया मािर्ा है ,दोिो ही िही जािर्े,क्ययोकक यह आत्मा िावर्ि
मं ि ककसी को मािर्ा है ि ककसी के द्वािा मािा जार्ा है ।।गीर्ा 2.19।।"यह
आत्मा ि र्ो ककसी काल मे जिमर्ा है ि मिर्ा ही है र्था ि यह उत्पन्ि

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होकि किि होिे िाला ही है ;क्ययोकक यह अजन्मा,नित्य,सिार्ि औि पुिार्ि
है ,ििीि के मािे जािे पि भी यह िही मािा जार्ा।।गीर्ा 2.20।।

कठोपनिषद् (1.2.21)आसीिो दिू ं व्रजनर् ियािो यानर् सितर्ः।कवर्ं मदामदम ्


दे िं मदन्यो ज्ञार्ुमहत नर् ।।1.2.21।।अन्िय:-------:आसीि:=िह पिमेश्वि बैठा
हुआ ही;दिू ं व्रजनर्=दिू पहुच जार्ा है ;ियाि:=सोर्ा हुआ (भी);सितर्ः
यानर्=सब ओि चलर्ा िहर्ा है ;र्ं मदामदम ् दे िं =उस ऐश्वयत के मद से
उन्मत्त ि होिेिाले दे ि को ;मदन्य: क:=मुझसे नभन्ि दस
ू िा कौि; ज्ञार्ुं
=जाििे मं; अहत नर्=समथत है ।।21।।सिलव्याख्या-----:पिब्रह्म पिमात्मा
अनचन्त्य िपक्त है औि पिरुि धमत है ।एक ही समय मे उिमं पिरुि धमो की
लीला होर्ी है ।इसी मं से एक साथ सूक्ष्म से सूक्ष्म औि महाि से महाि
बर्ाये गए है ।पिमधाम मं िहर्े हुए भक्तो के नलए दिु ् दिु ् चले जार्े है ।ऐश्वयत
का अनभमाि िही है ।उिको जाििेिाले यमिाज मात्र ही आचायत हो सकर्े है ।

अििीिम ् ििीिे ष्िििवथेष्ििस्वथर्ं ।महान्र्म ् पिभुमात्मािम ् मत्िा धीिो ि


िोचनर्।।1.2.22।।अििवर्ेष=
ु (जो)स्वथि ि िहिेिाले (पििाििील );ििीिे षु
=ििीिं मं, अििीिम ् =ििीि िकहर् (एिम ्);अिस्वथर्ं =अपिचलभाि से स्वथनर्
है ;महान्र्म ् =(उस)महाि ् ;पिभुम ् =सितव्यापी ;आत्मािम ् =पिमात्मा
को;मत्िा = जािकि ;धीिः=बुपिमाि महापुरुष ; ि िोचनर् =(कभी ककसी भी
कािण से )िोक िही किर्ा।।22।।सिलव्याख्या-----:ििीि अनित्य औि
पििाििील है औि परििर्तििील है ।पिमात्मा ििीि िही है ।ि पििाििील
है ।नित्य है ।अचल है ।यकद दे ि गुण काल से निपेक्ष उस सित व्यापी को जाि
िे के बाद सािे िोक विर्ः समाप्त हो जार्े है ।यही ज्ञार्ा की पहचाि भी है ।

कठोपनिषद् (1.2.23)िायमात्मा प्रिचिेि लभ्यो ि मेधया ि बहुिा श्रुर्ेि


यमेिष
ै िृणुर्े र्ेि लभ्यवर्वयेष आत्मा पििृणुर्े र्िुम ् विाम ् ।।1.2.23।।अयं
आत्मा =यह पिब्रह्म पिमात्मा ; ि=ि र्ो ;प्रिचिेि=प्रिचि से ; ि मेधया=ि
बुपि से औि;ि बहुिा श्रुर्ेि = ि बहुर् सुििे से ही ;लभ्यः=प्राप्त हो सकर्ा

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है ;यम ् =स्जसको ; एषः=यह;िृणर्े =विीकाि कि लेर्ा है ;र्ेि एि लभ्यः
=उसके द्वािा ही प्राप्त ककया जा सकर्ा है क्ययंकक ;एषः आत्मा = यह
पिमात्मा ;र्वय =उसके नलए ;विाम ् र्िूम ् =अपिे यथाथत विरूप को;िीिृणुर्े
=प्रगट कि दे र्ा है ।।23।।सिलव्याख्या------:िाि अध्यि, सुििे,र्कतिपक्त या
र्कत िािीय अध्ययि,िुपिमाि मिुष्य भी प्रभु को प्राप्त िही कि सकर्े
है ।प्रभु स्जसको विीकाि किर्े है िही प्रभु को प्राप्त किर्े है ।जो उत्कट इच्छा
से प्रभु को चाहर्े है ।जो प्रभु कृ पा के सहािे ही साधिा,िाि अध्ययि किर्ा
है ।प्रभु को ककर्िा समय लगर्ा है कक योगमाया का पदात हटािे मं र्था
पिमेश्वि को अपिा विरूप प्रगट कििे मं।।

कठोपनिषद् (1.2.24)िापििर्ो दि
ु रिर्ान्िािांर्ो िा समाकहर्ः।िािांर्मािसो
िापप प्रज्ञािेिि
ै मासिुयार्।।1.2.24।।अन्िय:-------:प्रज्ञािेि=सूक्ष्म बुपि के
द्वािा;अपप =भी; एिम ् =इस पिमात्मा को; ि दि
ु रिर्ार् ् अपििर्ः आसिुयार्
=ि र्ो िह मिुष्य प्राप्त कि सकर्ा है ,जो बुिे आचिणं से नििृर् िही हुआ
है ;ि अिान्र्ः=ि िह प्राप्त कि सकर्ा है ,जो अिांर् है ;ि असमाकहर्: =ि िह
स्जसके मि ,इस्न्रय संयर् िही है ;िा=औि ,अिांर् मािसः आसिुयार्=ि िही
प्राप्त किर्ा है ,स्जसका मि िांर् िही है ।।24।।सिलव्याख्या------:जो मिुष्य
बुिे आचिणं से पििक्त होकि उिका त्याग िही कि दे र्ा ,स्जसका मि
पिमात्मा को छोड़कि कदि िार् सांसारिक भोगं मं भटकर्ा िहर्ा
है ,प्रमात्मपि पिश्वास ि होिे के कािण जो सदा अिांर् िहर्ा है ,स्जसका मि
,बुपि,औि इं करया िि मं की हुई िही है ,ऐसा मिुष्य सूक्ष्म बुपि द्वािा
आत्मपिचाि किर्े िहिे पि भी पिमात्मा को िही पा सकर्ा,क्ययोकक िह
पिमात्मा की असीम कृ पा का आदि िही किर्ा,उसकी अिहे लिा किर्ा
िहर्ा है ,अर्ः उिकी कृ पा का अनधकािी िही होर्ा।।24।।

कठोपनिषद् (1.2.25)यवय ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भिर्


ओदिः।मृत्युयव
त योपसेचिम ् क इत्था िेद यत्र सः।।1.2.25।।अन्िय:-------
:यवय=(संहािकाल मे)स्जस पिमेश्वि के;ब्रह्म च क्षत्रं च उभे =ब्राह्मण औि
क्षपत्रय -ये दोिं ही अथातर् समपूणत प्रास्णमात्र ;ओदिः=भोजि ;भिर्ः=बि
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जार्े है र्था;मृत्यु: यवय=सबका संहाि कििे िाली मृत्यु भी स्जसका
;उपसेचि ् =भोज्य बवर्ु को विाकदष्ट बिािे के नलए खाई जािे िाली सब्जी
चटिी अचाि आकद;भिनर्=बि जार्ा है ;सः यत्र =िह पिमेश्वि जहा औि
;इत्था=जैसा है िह ठीक ठीक ;क: िेद =कौि जािर्ा है ।।25।।सिलव्याख्या--
----:धमतिील ििीि ही ब्राह्मण औि क्षपत्रय के पिमेश्वि की प्रानप्त के उत्तमं
साधि मािे गए है ।िे भी मिर्े है ।सबको माििे िाले मृत्युदेि है ,िे भी मािे
जार्े है ।अनित्य नित्य को कैसे जाि सकर्ा है ।लौककक ज्ञाि इि इं करयं बुपि
मि का पिषय िही है ।उिकी कृ पा से ही जािे जा सकर्े है ।।कद्वर्ीय िल्ली
समाप्त।।

कठोपनिषद(1.3.2)यः सेर्ुिीजािािामक्षिं ब्रह्म यर् ् पिं ।अभयं र्ीनर्षतर्ाम ् पािं


िानचकेर्म ् िकेमकह ।।1.3.2।।अन्ियः-------:ईजािािाम ् =यज्ञ कििे िालो
के नलए;यः सेर्ु:=जो दःु खसागि से पाि पहुचा दे िे योग्य सेर्ु है ;[र्ं]
िानचकेर्म ् =उस िानचकेर् -अस्ग्ि को (औि); पािं नर्र्ीषतर्ाम ् =संसाि समुर
से पाि होिे की इच्छािालो के नलए ; यर् ् अभयं =जो भय िकहर् पद है ;र्र् ्
अक्षिं =उस अपििािी ;पिं ब्रह्म =पिब्रह्म पुरुषोत्तम को;िकेमकह=जाििे औि
प्राप्त कििे मं है म समथत हो।।2।।सिलव्याख्या------:यमिाज कहर्े है कक हे
पिमात्मि ् ! आप हमं िह सामर्थयत दीस्जये,स्जससे ह्म निष्काम भाि से
यज्ञाकद िुभकमत कििे की पिनध को भलीभांनर् जाि सके औि आपके
आज्ञापालिाथत उिका अिुष्ठाि किके आपकी प्रसन्िर्ा प्राप्त कि सके र्था जो
संसाि- समुर पाि होिे की इच्छा िाले पििक्त पुरुषं के नलए निभतय पद है
उस पिम ् अपििािी आप पिब्रह्म पुरुषोत्तम ् भगिाि को जाििे औि प्राप्त
कििे के योग्य बि सके।यह यमिाज प्राथतिा को ही पिं साधि मािर्े है ।।

कठोपनिषद्(1.3.3)आत्मािम ् िनथिम ् पिपि ििीिम ् िथमेि र्ु।बुपिम ् र्ु


सािनथम ् पिपि मिः प्रग्रहमेि च।।1.3.3।।अन्िय:------:आत्मािम ् =(हे
िनचकेर्ा ! र्ुम) जीिात्मा को र्ो;िनथिम ् =िथ का विामी(इसमं बैठकि

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चलिे िाला);पिपि=समझो; र्ु=औि;ििीिम ् एि =ििीि को ही;िथं =िथ
(समझो);र्ु बुपिम ् =र्था बुपि को;सानथतम ् =सािथी अथातर् िथ को चलािे
िाला;पिपि =समझो;च मिः एि =औि मि को ही;प्रग्रहम ् =लगाम
(समझो)।।3।।सिलव्याख्या----पिमात्मा िे सितसाधि समपन्ि ििीि रूपी िथ
कदया।इस्न्रय रूपी र्घोड़े कदए।मि रूपी लगाम औि बुपि रूपी सािथी के हाथं
मं सौप कदया औि जीिात्मा इस िार् मं बैठकि उसका विामी बिकि बुपि
को प्रेिणा दे र्ा िहे ।गंर्व्य पिमात्मा है ।उसके िाम,रूप,लीला,धाम आकद के
श्रिण, कीर्ति,मिि आकद के द्वािा उिके धाम पहुचिे की चेष्टा किे ।

कठोपनिषद्(1.3.4)इस्न्रयास्ण हयािाहुिपिषयाम ् वर्ेषु


गोचिाि ्।आत्मेस्न्रययमिोयुक्तम ् भोक्तेत्याहुमि
त ीपषणः ।।1.3.4।।अन्ियः-------
:मिीपषणः=ज्ञािीजि; इं करयास्ण=इं करयं को;हयाि ्=र्घोड़े ;आहुः=िर्लार्े है औि
;पिषयाि ् =पिषयो को;र्ेषु गोचिाि ् =उि र्घोड़ो के पिचििे का
मागत;आत्मेस्न्रय मिोयुक्तं =ििीि,मि, इस्न्रय युक्त जीिात्मा ही;भोक्ता=भोक्ता
है ;इनर् आहु=यो कहर्े है ।।4।।सिलव्याख्या -----:ज्ञािीजि इं करयं को
अनियंपत्रर् र्घोड़े जो पिषयो के नलए दौड़र्े िहर्े है औि जीिात्मा इि के साथ
गुथे िहकि पिषय भोगी हो जार्ा है ।यही प्रचनलर् है ज्ञानियो के मध्य
बार्चीर् की भाषा मे।।

कठोपनिषद्(1.3.5) यवत्िपिज्ञाििाि ् भित्ययुक्तेि मिसा


सदा।र्वयेस्न्रयाणयिश्यानि दष्ट
ु ाश्वा इि सािथे:।।1.3.5।।अन्ियः-----:यः
सदा=जो सदा; अपिज्ञाििाि ् =पििेकहीि बुपि िाला;र्ु= औि; अयुक्तेि=चंचल;
मिसा=मिसे युक्त;भिनर्=िहर्ा
है ;र्वय=उसकी;इं करयास्ण=इं करया;सािथे:=असािधाि सािनथ के;दष्ट
ु ाश्वा इि=दष्ट

र्घोड़ो की भांनर् ;अिश्यानि=िि मं ि िहिे िाली ;भिस्न्र् =हो जार्ी
है ।।5।।सिलव्याख्या -------:िथ को र्घोड़े ही खींचर्े है ।मागत कोई भी
हो।बुपिमाि सािथी का काम है लगाम हाथ मे थामे हुए िथ चलाये।र्घोड़े हिे
भिे र्घास की ओि दौड़ं गे लेककि सािथी लगाम कसेगा र्ो सीधे िावर्े
चलेगे।मिुष्य की पांच इं करया र्घोड़े है जो पिषयो की ओि भागर्े है ।मि ही
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लगाम है ।बुपि सािथी है ।ज्ञाि बल समपन्ि है ।मि से ही िि मं ककये हुए
है ।सािथी की दक्षर्ा ,अभ्यास औि साधिा ही इि िलिाि र्घोड़ो को साधर्े
हुए साध्य र्क पहुचिा है ।

कठोपनिषद् (1.3.6)यवर्ु पिज्ञाििाि ् भिनर् युक्तेि मिसा सदा।र्वयेस्न्रयास्ण


िश्यानि सदश्वा इि सािथे:।।1.3.6।।अन्िय:-----:र्ु यः सदा=पिं र्ु जो सदा
;पिज्ञाििाि ्=पििेकयुक्त बुपििाला औि ;युक्तेि =िि मं ककये हुए;मिसा=मि
से समपन्ि ;भिनर्=िहर्ा है ;र्वय=उसको;इं करयास्ण=इं करया;सािथे :=सािधाि
सािथी के;सद श्वा: इि =अच्छे र्घोड़ो की भांनर्;िश्यानि =िि मे; भिस्न्र् =
िहर्ी है ।।6।।सिलव्याख्या------:जो जीिात्मा अपिी बुपि को पििेकसमपन्ि
बिा लेर्ी है ---स्जसकी बुपि अपिे लक्ष्य की ओि ध्याि िखर्ी है ।नित्य
नििं र्ि निपुणर्ा के साथ इं करयं को सन्मागत पि चलािे के नलए मि को
िाध्य ककये िहर्ी है ,उसका मि भी लक्ष्य की ओि लगा िहर्ा
है ।निियास्त्मका बुस्ध्द के अधीि िहकि इस्न्रय औि मि पपित्र कमो मं
लगे िहर्े है जैसे सािधाि सािथी के अश्व निकदत ष्ट मागत पि चलर्े िहर्े है ।।

कठोपनिषद् (1.3.7)यवत्िपिज्ञाििाि ् भित्यमिवकः सदािुनचः।ि स र्त्पद


मासिोनर् संसािं चानधगच्छनर्।।1.3.7।।अन्ियः-----:यः र्ु सदा=जो कोई सदा;
अपिज्ञाििाि ् =पििेकहीि बुपििाला;अमिवकः=असंयर् नचत्त
औि;अिुनचः=अपपित्र ;भिनर्=िहर्ा है ;सः र्त्पदं =िह उस पिं पद को;ि
आसिोनर्=िही पा सकर्ा;च= अपपर्ु ;संसािं अनधगच्छनर् =बाि बाि जन्म
मृत्यु संसाि चक्र मं ही भटकर्ा िहर्ा है ।सिलव्याख्या -------:स्जसकी बुपि
सदा ही पििेक से कर्तव्याकर्तव्य से िकहर् औि मि को िि मं कििे मं
असमथत िहर्ी है ,स्जसका मि असंयर् औि निग्रहिकहर् है औि स्जसका
पिचाि दपू षर् िहर्ा है र्था स्जसकी इं करया नििं र्ि दिु ाचाि मं प्रिृत्त िहर्ी है -
--ऐसे बुपििपक्त से िकहर् ,मि इं करयं के िि मं िहिे िाले मिुष्य का
जीिि कभी पपित्र िही िह पार्ा औि इसनलए िह मािि ििीि मे प्राप्त होिे
योग्य पिं पद को िही पा सकर्ा।पिं र्ु अपिे दष्ु कमो के परिणाम विरूप इस
संसाि चक्र मं र्घूमर्ा िहर्ा है ।।
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कठोपनिषद् (1.3.8)यवर्ु पिज्ञाििाि ् भिनर् सदा िुनच:।स र्ु र्त्पद मासिोनर्
यवमाद् भूयो ि जायर्े।।1.2.8।।र्ु सः सदा=पिं र्ु जो सदा; पिज्ञाििाि ्
=पििेकिील बुपि से युक्त ;समिवकः=संयर्नचत्त (औि);िुनचः=पपित्र
;भिनर्=िहर्ा है ;सः र्ु =िह र्ो;र्त्पदं =इस पिं पद को; आसिोनर्=प्राप्त कि
लेर्ा है ;यवमार् ् भूयः =जहा से लौटकि पुिः ;ि जायर्े=जन्म िही
लेर्ा।।8।।सिलव्याख्या-----:जो वियं सािधाि होकि अपिी बुपि को नििं र्ि
पििेकिील बिािे मं सिल है र्था पपित्र भाि मे स्वथर् िहर्ा है ।निष्काम
कायो मं संलग्ि िहर्ा है ।भगिाि की आज्ञा समझकि पपित्र कायत किर्े
है ।भोगं के िागद्वे ष से ऊपि िहर्े हुए जीिि नििातह निष्काम से किर्े
है ।पिमात्मा के पिमधाम को प्राप्त किर्ा है र्था पुिः संसाि मे जन्म मिण
से मुक्त हो जार्ा है ।।

कठोपनिषद् (1.3.9)पिज्ञािसािनथयतवर्ु मिः प्रग्रहिाि ् ििः।सो s ध्ििः


पािमासिोर्ी र्कद्वष्णो पिमम ् पदं ।।1.3.9।।अन्ियः------:यः ििः =जो कोई
मिुष्य ;पिज्ञािसािनथ: र्ु =पििेकिील सािनथ से समपन्ि औि;मिः प्रग्रहिाि ्
=मिरूप लगाम को िि मं िखिे िाला है ;सः=िह ; अध्िि:=संसािमागत
के;पािं =पाि पहुचकि;पिष्णो= सित व्यापी पिब्रह्म पुरुषोत्तम भगिाि के;र्र् ्
पिमं पदं =उस प्रनसि पिं पद को ; आसिोनर् =प्राप्त हो जार्ा
है ।।9।।सिलव्याख्या----अनित्य अपििल क्षिण ििीि को भोग आकद से नििृर्
कि पिमात्मा पिायणः होकि प्रयास अभ्यास कििे से पिं पद को निस्िर्
प्राप्त होगा।जीिि की सिलर्ा इसी मं है ।।

कठोपनिषद्(1.3.10) इं करयेभ्य पि ह्यथात अथेभ्यि पिं मिः।मि सवर्ु पिा


बुपिबुि
त े िात्मा महाि ् पिः।।1.3.10।।कह इं रेभ्यः=क्ययोकक इं करयं से
;अथात:=िब्दाकद पिषय;पिाः=बलिाि है ; च=औि; अथेभ्य :=िब्दाकद पिषयो
से;मिः =मि; पिं =प्रबल है ;र्ु मिसः =औि मि से भी
;बुपिः=बुपि;पिाः=बलिर्ी है ;बुिे=र्था बुपि से; महाि ् आत्मा=महाि
आत्मा;पिः=श्रेष्ठ औि बलिाि है ।।10।।सिलव्याख्या-----:पि िब्द का उपयोग
बलिाि के रूप मं हुआ है ।पिषय ,इस्न्रय ,मि, बुपि,आत्मा इिमे यह प्रबल
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से प्रबलर्ि है ।आत्मा अलग है ।िेष प्रकृ नर् जन्य से प्रिलर्म ् है ।सबकी
नियंर्ा औि मोक्ष िपक्त से भिपूि है ।आत्मबल से बुपिबल,मिोबल भी कनिष्ठ
है ।बस्ल्क आत्म बल ही िेष का जिक है ।

कठोपनिषद(1.3.11)महर्ः पि मव्यक्तमव्यक्तार् पुरुषः पिः।पुरुषान्ि पिं


ककंनचत्सा काष्ठा सा पिा गनर्ः।।1.3.11।।अन्ियः ---:महर्ः=उस जीिात्मा
से;पिं =बलिर्ी है ;अव्यक्तं=भगिाि की अव्यक्त मायािपक्त; मव्यक्तार् =अव्यक्त
माया से भी;पिः =श्रेष्ठ है ;पुरुषः=पिमपुरुष(वियं पिमेश्वि); पुरुषार्=पिमपुरुष
भगिाि से;पिं =श्रेष्ठ औि बलिाि ;ककंनचर्=कुछ भी ;ि =िही है ;सा
काष्ठा=िही सबकी पिम अिनध औि ;सा पिं गनर्ः =िही पिम गनर्
है ।।11।।सिलव्याख्या-----:अव्यक्त अथातर् पिा िपक्त स्जससे मोकहर् जीि
भगिाि को िही जािर्े।यही पदात है जीि औि पिमात्मा के मध्य।समीप है
दे ख िही पार्े।जीि पिा िपक्त से कमजोि है ।इस पदे को हटा िही
सकर्ा।भगिाि की ििण मे जािे पि मुपक्त नमल जार्ी है ।कष्टभोग औि कष्ट
मुपक्त दोिो पिमात्मा के अधीि है ।प्रकृ नर् मुपक्त दार्ा िही है ।इस्न्रय मि
बुपि पि आत्मा का ही अनधकाि है ।बल,कक्रया औि ज्ञाि के साथ काल के
विामी पिमात्मा ही है ।सितत्र है ।पदात हटाले र्ो उिकी प्रानप्त होगयी।
Ashwini Kumar Mishra guru ji ye para shakti kya hoti hai?
दग
ु त नसंह चौहाि पिा औि अपिा भगिाि की दो प्रकृ नर् है ।प्रेय िवर्ुओं मं
सुख का मोह।श्रेय मागत मं भी मोह ।दै िीय प्रकृ नर् भाि पूणत है ।यकद भगिाि
की ििण मे चले गए र्ो पिा कदव्यर्ा है पदात हट जायेगा।र्घुर्घट है ।उसे हटािे
िाले पिमात्मा।र्घुर्घट के पट खोल िे र्ुझे पपया नमलंगे।पिाः का पदात खुलर्े
ही प्रभु दिति निस्िर् होर्ा है ।

कठोपनिषद्(1.3.12)एष सिेषु भूर्ेषु गूढोत्मा ि प्रकािर्े ।दृश्यर्े त्िग्र्यया


बुिया सूक्ष्मया सूक्ष्मदनितनभ:।।1.3.12।।अन्ियः-----:एषः आत्मा=यह सबका
आत्म रूप पिमपुरुष ;सिेषु भूर्ेषु =समवर् प्रास्णयं मं िहर्ा हुआ भी;
गूढ़:=माया के पदे मं नछपा िहिे के कािण ;ि प्रकािर्े=सबके प्रत्यक्ष िही

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होर्ा;र्ु सूक्ष्मदनितनभ:=केिल सूक्ष्म र्त्िो को समझिेिाले पुरुषं द्वािा
ही;सूक्ष्मया अग्रयया बुिया=अनर् सूक्ष्म र्ीक्ष्ण बुपि से;दृश्यर्े =दे खा जार्ा
है ।।12।।सिलव्याख्या-----:ये पिब्रह्म पिमात्मा अनर् सूक्ष्म से भी सूक्ष्म
है ।सभी प्रास्णयं मं परिव्याप्त है ।माया के पदे से ढका िहर्ा है ।उि पुरुषं द्वािा
जो सूक्ष्म र्त्िो को समझर्े है ,िे अनर् सूक्ष्म औि र्ीक्ष्ण बुपि से ही दे ख
सकर्े है ।

कठोपनिषद (1.3.13)यच्छे द्वांगमिसी प्राज्ञवर्द्यच्छे त्ज्ञाि


आत्मनि।ज्ञािमात्मनि महनर् नियेच्छे त्तद्यच्छे च्छान्र्
आत्मनि।।1.3.13।।अन्ियः-----:प्राज्ञ:=बुपिमाि साधक को चाकहए कक ;िाक्
=िाक आकद समवर् इस्न्रयं को;मिसी =मि मं; यच्छे र् ् =निरुि किे
;र्र् ्=उस मि को ;ज्ञािे आत्मनि =ज्ञाि विरूप बुपि मं ;यच्छे र् ् = पिलीि
किे ;ज्ञािं =ज्ञाि विरूप बुस्ध्द को ;महनर् आत्मनि =महाि आत्मा
मं;नियेच्छनर् =पिलीि किे ;र्र् ्=उसको;िान्र्े आत्मनि=िांनर्विरूप पिमपुरुष
पिमात्मा मं;यच्छे र् ्=पिलीि किे ।।13।।सिलव्याख्या------:इस्न्रयं को िाह्य
पिषयो से हटाकि मि मे पिलीि किे ।मि निवपृह हो जाय।साधिा भलीभांनर्
होिे लगे ।उसके उपिांर् बुपि मं ,मि को पिलीि किे ।नचत्त िृपत्त नििोध हो
र्ब बुपि नििय कििे मं सक्षम हो जायेगी।उसके उपिांर् बुपि को िुि
जीिात्मा मं पिलीि किदो।जब सािी सत्ताएं समाप्त हो जाये र्ो अपिे आपको
पिमात्मा मं पिलीि किदो ।।

कठोपनिषद् (1.3.14)उपत्तष्ठर् जाग्रर् प्रासय ििास्न्िबोधर्।क्षुिवय धािा निनिर्ा


दिु त्यया दग
ु म
त ् पथवर्र् ् कियो िदस्न्र्।।1.3.14।।अन्ियः----:उपत्तष्ठर् =(हे
मिुष्यो)उठो; जाग्रर् =जागो(सािधाि हो जाओ औि);ििाि ् प्रासय =श्रेष्ठ
महापुरुषं को पाकि---ऊिके पास जाकि (उिके द्वािा );निबोधर्=उस पिब्रह्म
पिमेश्वि को जाि लो(क्ययोकक);किय:=पत्रकालज्ञ ज्ञािीजि ;र्र् ् पथः =उस
र्त्िज्ञाि के मागत को ;क्षुिवय =छुिे की;निनिर्ा दिु त्यया =र्ीक्ष्ण की हुई
दव
ु र्ि ;धािा (इि)=धाि के सदृश्य ;दग
ु म
त ् =दग
ु म
त (अत्यंर्
ककठि);िदस्न्र्=िर्लार्े है ।।14।।सिलव्याख्या---–:बड़े भाग मािुष र्ि
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पािा।नमटे दोष दख
ु दारिद दािा।।सदै ि सािधाि िहो।यह मिुष्य जन्म
नििथतक ि चला जाये।श्रेष्ठ महापुरुषं से ज्ञाि उपदे ि लेकि कल्याण का मागत
अपिाओ।पिमात्मा का िहवय औि र्त्ि समझो।पिमात्मा का ज्ञाि दव
ु र्ि
है ।कृ पाण की धािा है ।महापुरुष औि पिमात्मा कृ पा किं र्भी प्राप्त कि सकर्े
है ।जो अिुभिी औि पाि कि चुका हो िही इसे सुगम बिा सकर्ा है ।।

कठोपनिषद् (1.3.15)अिब्द मवपितमरूपमव्ययं र्थािसम ् नित्य मगन्धिच्च


यर् ् ।अिाद्यिंर्म ् महर्ः पिं ध्रुिं निचाय्य र्न्मृत्युमख
ु ार् ्
प्रमुच्यर्े।।1.3.15।।अन्ियः------:यर् ् =जो; अिब्दम ् =िब्द िकहर्; अवपितम ्
=वपित िकहर्; अरूपम ् =रूप िकहर् ;अिसम ् =िासिकहर् ;च=औि;अगंधिर् ्
=पििा गंध िाला है ;र्था=जो;अव्ययं=अपििािी है ;नित्यं =नित्य
है ;अिाकद=अिाकद है ;अिंर्ं=अिंर् है -असीम है ;महर्ः पिं =महाि आत्मा से
श्रेष्ठ एिम ् ;ध्रुिं =सितदा सत्य र्त्ि है ;र्र् ् =उस
पिमात्मा;निचाय्य=जािकि(मिुष्य);मृत्यु मुखार् ् =मृत्यु के मुख
से;प्रमुच्यर्े=सदा के नलए छूट जार्ा है ।।15।।सिलव्याख्या------:पिमात्मा
पंच र्न्मात्राओं से मुक्त है ।पंच र्न्मात्राएँ िब्द,वपित,रूप,िस, गंध को
िभ,िायु,अस्ग्ि,जल,पृर्थिी आकद महा भूर्ं की र्न्मात्राएँ है (जैसे पुष्प दितिीय
है उसमं सुगंध अदृश्य है लेककि उसकी र्न्मात्रा है )।अर्ः ज्ञाि औि
कमेस्न्रयां पिब्रह्म के नलए साथतक उपकिण िही है ।िे पिमात्मा
नित्य,अपििािी,अिाकद औि असीम है ।जीिात्मा से श्रेष्ठ है ।उन्हं जािकि
जन्म मिण से मुपक्त नमल जार्ी है ।।

कठोपनिषद्(1.3.16)िनचकेर्मुपाख्यािं मृत्युप्रोक्तम ् सिार्िम ् ।उक्यत्िा श्रुत्िा


च मेधािी ब्रह्मलोके महीयर्े।।1.3.16।।अन्ियः-----:मेधािी=बुपिमाि मिुष्य
;मृत्युप्रोक्तं =यमिाज के द्वािा कहे हुए;िानचकेर्म ् =िनचकेर्ा के;सिार्िम ्
=(इस) सिार्ि;उपाख्यािं=उपाख्यािं का;उक्तिा=िणति किके;च=औि;श्रुत्िा
=श्रिण किके;ब्रह्मलोके =ब्रह्मलोक मं; महीयर्े=मकहमास्न्िर् होर्ा है (प्रनर्पष्ठर्
होर्ा है )।।16।।सिलव्याख्या-----:यह जो इस अध्याय मं िनचकेर्ा के प्रनर्

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यमिाज का उपदे ि है ,यह पिं पिागर् सिार्ि उपदे ि है ।बुपिमाि मिुष्य इसे
सुिकि ब्रह्मलोक औि इसलोक मं प्रनर्ष्ठािाला होर्ा है ।।

कठोपनिषद्(1.3.17)य इमं पिमम ् गुह्यं श्राियेद् ब्रह्मसंसकद।प्रयर्ः श्रािकाले िा


र्दािन्त्याय कल्पर्े।र्दािंत्याय कल्पर् इनर्।।1.3.17।।अन्ियः------:यः=जो
मिुष्य; प्रयर्ः=सितथा िुध्द होकि;इमं=इस;पिमं गुह्यं =पिम गुह्य --िहवयमय
प्रसंग को;ब्रह्मसंसकद=ब्राह्मणं की सभा मे;श्राियेर् ्=सुिार्ा
है ;िा=अथिा;श्रािकाले=श्राि काल मे;(श्राियेर् )=(भोजि कििे िालो को
)सुिार्ा है ;र्र् ् =उसका िह श्रिण किािारूप कमत; अिन्त्याय कल्पर्े=अिंर्
होिे से(अपििािी िल दे िे मं)समथत होर्ा है ;र्र् ् आिन्त्याय कल्पर्े
इनर्=िह अिंर् होिे मं समथत होर्ा है ।।17।।सिलव्याख्या-----:जो मिुष्य
पििुि होकि इस पिम िहवयमय प्रसंग को र्त्िपििेचिपूिक
त भगित्प्रेमी
िुिबुपि ब्राह्मणं की सभा मे सुिार्ा है अथिा श्रािकाल मं भोजि कििे िाले
ब्राह्मणो को सुिार्ा है ,उसका िह िणति रूप कमत अिंर् िल दे िे िाला है
होर्ा है ,अिंर् होिे मं समथत होर्ा है ।।।[र्ृर्ीयिल्ली समाप्त साथ ही प्रथम
अध्याय समाप्त]।।

नमत्रो सविेह "कठोपनिषद् "का प्रथम अध्याय पूणत हुआ।दस


ू िा कल से
प्रािमभ किे गे।यह कद्वध्यायी 6िस्ल्लयं िाला उपनिषद् है ।अििेष ,3िस्ल्लयां
48 (15,15,18)श्लोकी है ।यह उपनिषद् 48कदि बाद पूणत होगा।अथातर्
5अक्यटू बि,2017 को पूणत होगा।

कठोपनिषद्(2.1.1)पिांनच खानि व्यर्ृणर् ् वियमभू स ् र्वमार् ् पिान्गपश्यनर्


िान्र्िात्मि ् ।कस्ििीिः प्रत्यगात्मािमैक्ष दािृत्त
चक्षुिमृर्त्िनमच्छि ्।।2.1.1।।वियमभू :=वियं प्रकट होिे िाले पिमेश्वि
िे;खानि=समवर् इं करयं के द्वाि; पिांनच=बाहि की ओि जािे िाले ही;व्यर्ृणर् ्
=बिाये है ;र्वमार् ् =इसनलए(मिुष्य इं करयं के द्वािा प्रायः);पिांग=बाहि की
बवर्ुओं को ही;पश्यनर् =दे खर्ा है ;अन्र्िात्मि ् =अन्र्िात्मा को
;ि=िही;कस्िर् ् धीिः=ककसीं (भाग्यिाली)बुपिमाि मिुष्य िे

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ही;अमृर्त्िं=अमि पद को;इच्छि ् =पािे की इच्छा किके;आिृत्त चक्षु:=चक्षु
आकद इं करयं को बाह्य पिषयो की ओि से लौटाकि; प्रत्यगात्मािं=अंर्िात्मा
को;ऐक्षर् ्=दे खा है ।।2.1.1।।सिलव्याख्या-----:िब्द,वपित,रूप,िस, गंधः--इं करयं
के सभी वथूल पिषय बाहि है ।इसका यथाथत ज्ञाि किािे के नलए इं करयं की
िचिा हुई है ;क्ययोकक इसका ज्ञाि हुए पििा ि र्ो मिुष्य ककसीं पिषय के
विरूप औि गुण को ही जाि सकर्ा है औि ि यथा योग्य त्याग एिम ्
ग्रहण किके भगिाि ् के इस्न्रय निमातण के उद्दे श्य को नसि कििे के नलए
उिके द्वािा ििीि िुभकमत संपाकदर् हो सकर्े है ।िुि सुखमय ईश्वि पिायण
जीिि जी सकर्े है ।बकहमुख
त ी है इं करया।पििेकिील ही जाि सकर्ा
है ।दख
ु ,िािकीय,प्रभु पिमुख जीिि अज्ञाि के कािण है ।सत्संग,विाध्याय,
भगिर् कृ पा पििेक प्रदाि किर्ी है ।जो प्रत्याहिी है िही पिमात्मा का दिति
किर्ा है ।

कठोपनिषद् (2.1.2पिाच: कामाििुयस्न्र् बालावर्े मृत्योयतस्न्र् पिर्र्वय


पािम ् ।अथ धीिा अमृर्त्िं पिकदत्िा ध्रुिमध्िुिेस्ष्िह ि प्राथतयन्र्े
।।2.1.2।।अन्िय:---:[ये]बाला:=जो मूख;त पिाच: कामा ि ् =बाह्य भोगं का
;अिुयस्न्र्=अिुसिण किर्े है (उन्ही मं िचे-पचे िहर्े है );र्े=िे; पिर्र्वय
=सितत्र िैले हुए; मृत्यो:=मृत्यु के; पािम ् =बंधि मं ;यस्न्र्=पड़र्े है ;अथ
=ककन्र्ु ;धीिा:=बुपिमाि ् मिुष्य;ध्रुिं= नित्य ;अमृर्त्िं=अमिपद को ;
पिकदत्िा=पििेकद्वािा जािकि ; इह=इस जगर् मं ;अध्िुिेष=
ु अनित्य भोगं मं
से ककसीं को (भी);ि प्राथतयन्र्े=िही चाहर्े।।2.1.2।।सिलव्याख्या-----:जो
बाह्य पिषयो से आकपषतर् औि आसक्त होर्े है िे इस अमूल्य जीिि को खो
दे र्े है ।मौर् भी अिेक प्रकाि से िांसर्ी है ।िािा योनियो मं भटकर्े
है ।बुपिमाि मिुष्य ििीि को भोग योनि िही मािर्े।मुपक्त साध्य योनि
है ।सबतथा पििक्त होकि प्रभु को प्राप्त कििे की दीर्घत पिमाथत साधिा किर्े है ।।

कठोपनिषद् (2.1.3)येि रूपम ् िसम ् गंधम ् िब्दाि ् वपिाति ् ि मैथि


ु ाि ्।एर्े
िैि पिजािानर् ककमत्र परिनिष्यर्े।।एर्द्वै र्र् ् ।।2.1.3।।अन्ियः-------:येि
=स्जसके अिुग्रह से (मिुष्य);िब्दाि ् =िब्दो को;वपिाति ् =वपिो को;रूपम ्
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=रूप समुदाय को;िसम ् =िस समुदाय को;गंधम ् =गंध समुदाय
को;च=औि;मैथि
ु ाि ् =िी-प्रसंग आकद सुखं को;पिजािानर् =अिुभि किर्ा
है ;एर्ेि एि =इसी के अिुग्रह से (यह भी जािर्ा है कक);अत्र ककम ् =यहाँ
क्यया ;परिनिष्यर्े =िेष िह जार्ा है ;एर्र् ् िै =यह ही है ;र्र् ् =िह
पिमात्मा(स्जसके पिषय मे पूछा था)।।3।।सिलव्याख्या ------:िी पुरुष
सहभोग मेथि
ु सुख, रूप,िस,गन्ध,वपित,मधुि- िब्द सब क्षण भंगिु है ।यह
ज्ञाि अनित्य का स्जसिे कदया ,िही नित्य का भी दे र्ा है ।पििाििील यही
िहे गा।अपििािी नित्य है िही सदा साथ िहे गा।िनचकेर्ा र्ुमहािे प्रश्न का
अनभप्राय यह नित्य ब्रह्म ही है ।सबकी पिमगनर् इसी मं होर्ी है ।जीिा,
मििा,उसके आश्रय मं ही िहिा है ।

कठोपनिषद् (2.1.4)विसिान्र्म ् जगरिर्ान्र्म ् चोभी येिािुपश्यनर्।महान्र्म ्


पिभुमात्मािं मत्िा धीिो ि िोचनर् ।।2.1.4।।अन्िय-----:विसिान्र्म ्
च=विसि के दृश्यं को औि; जागरिर्ान्र्म ्=जागृनर् अिवथा के दृश्यं
को;ऊभौ=उि दोिं अिवथाओं को मिुष्य; येि=स्जससे;अिुपश्यनर्=बाि बाि
दे खर्ा है ;र्र् ् =उस;महान्र्म ् =सितश्रष्ठ
े ;पिभुम ् =सित व्यापी ;आत्मािम ् =सबके
आत्मा को;मत्िा=जािकि;धीिः=बुपिमाि मिुष्य ;ि िोचनर्=िोक िही किर्ा
है ।।4।।सिलव्याख्या------:विसि औि जाग्रर् अिवथाओं के दृश्य बाि बाि
प्रभु की सित व्यापी िपक्त को जािकि -अंि िपक्त से नभज्ञ होकि मिुष्य
दे खर्ा है ।यकद उस पिब्रह्म को ही जाि ले र्ो कभी भी यह बुपिमाि िोक
को प्राप्त िही होगा।।

कठोपनिषद् (2.1.5)य इमम ् मध्िदं िेद आत्मािम ् जीिमंनर्कार् ्।ईिािं


भूर्भव्यवय ि र्र्ो पिजुगसु सर्े।।एर्द्वै र्र् ् ।।2.1.5।।अन्ियः-----:य = जो
मिुष्य; मध्िदं =कमतिलदार्ा;जीिं=सबको जीिि प्रदाि कििे िाले;(र्था)
भूर्भव्यवय=भूर्,िर्तमाि, भपिष्य का;ईिािम ् =िासि कििे िाले;इमम ्
=इस;आत्मािम ् =पिमात्मा को;अस्न्र्कार् ् िेद=अपिे समीप जािर्ा है ;र्र्ः
सः =उसके बाद िै;ि पिजुगुससर्े =कभी ककसी की निंदा िही किर्ा;एर्र् ् िै
=िह ही है ;र्र् ् =िह पिमात्मा स्जसके पिषय मे र्ुमिे पूछा
21
था।।5।।सिलव्याख्या-----:जो साधक सबको जीिि प्रदार्ा र्था
कमतिलदार्ा,भूर्, िर्तमाि औि भपिष्य का एक मात्र िासक मेिे नििं र्ि
समीप है ,मेिे हृदय मं बैठा है ।विाभापिक है उसके मकहमामय विरूप को भी
जिलेर्ा है िह ककसीं की निंदा िही किर्ा र्था भला ही किर्ा है ।र्घृणा द्वे ष
समाप्त।िनचकेर्ा र्ुमिे पूछा था िह ब्रह्म यही है ।स्जसका मेिे गुणगाि ककया
है ।।

कठोपनिषद्(2.1.6)यः पूिं र्पसो जार् मद्भभ्यः पूित मजायर्।गुह्यं प्रपिश्य


नर्ष्ठस्न्र् यो भूर्ेनभव्यत पश्यर् ् ।।एर्द्वै र्र् ् ।।2.1.6।।अन्िय------:
यः=जो;अद्भभ्य:=जल से;पूि=
ं पहले;अजायर्=कहिडयगभतरूप से प्रगट हुआ
था।[र्ं]=उस;पूि=
ं सबसे पहले;र्पस: जार्ं =र्प से उत्पन्ि;गुह्यं प्रपिश्य
=हृदय-गुिा मं प्रिेि किके;भूर्ेनभ:[सह]=जीिात्माओं के साथ; नर्ष्ठन्र्म ्
=स्वथनर् िहिेिाले पिमेश्वि को;यः=जो पुरुष ;व्यपश्यर् ् =दे खर्ा है (िही ठीक
दे खर्ा है );एर्र् ् िै =यह ही है ;र्र् ् =िह (पिमात्मा,स्जसके पिषय मे र्ुमिे
पूछा था)।।6।।सिलव्याख्या-------:जो जल से उपलस्क्षर् पांचो महाभूर्ं से
पहले कहिडयगभत ब्रह्मा के रूप मं प्रगट हुए थे,उि अपिे ही संकल्परूप र्प से
प्रगट होिे िाले औि सब जीिो के हृदय रूप गुिा मं प्रपिष्ट होकि उिके
साथ िहिे िाले पिमेश्वि जो इस प्रकाि जािर्ा है कक'सबके हृदय मं नििास
कििे िाले सबके अन्र्यातमी पिमेश्वि एक ही है ,यह समपूणत जगर् उन्ही की
मकहमा का प्रकाि किर्ा है ।िही यथाथत जािर्ा है ।िे सदा सबके हृदय मं
िहिे िाले ही ये र्ुमहािे पूछे हुए पिब्रह्म पिमेश्वि है ।।6।।

कठोपनिषद् (2.1.7)या प्राणेि समभित्यकदनर्दे िर्ामयी ।गुह्यं प्रपिश्य


नर्ष्ठन्र्ीि ् या भूर्ेनभ व्यतजायर्।।एर्द्वै र्र् ् ।।2.1.7।।अन्िय-----:या =जो;
दे िर्ामयी=दे िर्ामयी ;अकदनर्:=अकदनर्;प्राणेि=प्राणो के सकहर्;संभिनर्
=उत्पन्ि होर्ी है ;या=जो;भूर्ेनभ:=प्रास्णयं के सकहर्;व्यजायर्=उत्पन्ि हुई
है ;(र्था जो) गुह्य=
ं हृदय रूपी गुिा मं;प्रपिश्य=प्रिेि किके;नर्ष्ठान्र्ीम ् = िही
िहिे िाली है उसे;(जो पुरुष दे खर्ा है िही यथाथत दे खर्ा है );एर्र् ् िै=िही
है ;र्र् ्=िह(पिमात्मा,स्जसके िािे मे र्ुमिे पूछा था।।7।।सिलव्याख्या-------
22
:अकदनर् ही सािे दे िर्ाओं की जििी है जो कहिडयगभत प्राणं के सकहर् प्रगट
होर्ी है ।समवर् भूर् प्रास्णयं की ह्र्दयगुफ़ा मे िहर्ी है ।महािपक्त पिमेश्विी है
जो ब्रह्म रूप है ।ये ही िह ब्रह्म है स्जसके बािे मं िनचकेर्ा र्ुमिे पूछा था।।

कठोपनिषद् (2.1.8)अिडयोनितकहर्ो जार्िेदा गभत इि सुभर्


ृ ो गनभतणीनभः।कदिे
कदि इड्यो जागृपिपिहत पिष्मपिमतिष्ु येनभिस्ग्ि:।।2.1.8।।एर्द्वै र्र् ्
।।8।।अन्ियः--------:(य:)=जो ;जार्िेदा :=सितज्ञ;अस्ग्ि:=अस्ग्ि
दे िर्ा;गनभतणीनभः=गनभतणी स्ियं द्वािा ;सुभर्
ृ ः=भली प्रकाि धािण ककये
हुए;गभत:=गभत की;इि=भांनर् ;अिडयो :=दो अिस्णयो मं; निकहर्:=सुिस्क्षर् है -
--नछपा है (र्था जो);जागृिपि:=सािधाि (औि);हपिष्मपि:=हिि कििेयोग्य
सामनग्रयं से युक्त ;मिुष्येनभ:=मिुष्यो द्वािा ;कदिे कदिे =प्रनर्कदि
;ईड्य:=वर्ुनर् कििे योग्य (है );एर्र् ् िै=यही है ;र्र् ्=िह (पिमात्मा,स्जसके
पिषय मे र्ुमिे पूछा)।।8।।सिलव्याख्या------:अनितयो मं अस्ग्ि गभत मं नछपे
जीि की र्िह है ।ऊपि िीचे की अनितयो को मथिे से अस्ग्ि उत्पन्ि होर्ी
है ।अस्ग्ि पिमेश्वि का ही रूप है ।िनचकेर्ा ! ये ही िे अस्ग्ि दे िर्ा र्ुमहािे
पूछे हुए ब्रह्म है ।

कठोपनिषद्(2.1.9)यर्ोिोदे नर् सुयोsवर्ं यत्र च गच्छनर्।र्ं दे िा: सिे


अपपतर्ावर्ुद ु िात्येनर् किि।।एर्द्वै र्र् ् ।।9।।अन्ियः------:यर्ः=जहाँ
से;सूय:त =सूयद
त े ि; उदे नर्=उदय होर्े है ;च=औि;यत्र=जहाँ; अवर्म ् च =अवर् भाि
को भी;गच्छनर् =प्राप्त होर्े है ;सिे =सभी;दे िा:=दे िर्ा;र्ं=उसी मं;
अपपतर्ा:=समपपतर् है ;र्र् ् उ =उस पिमेश्वि को;किि=कोई(कभी भी);ि
अत्येनर्=िही लांर्घ सकर्ा;एर्र् ् िै=यही है ;र्र् ्=िह(पिमात्मा,स्जसके पिषय मे
र्ुमिे पूछा था)।।9।।सिलव्याख्या------:स्जि पिमेश्वि से सूयद
त े ि प्रगट होर्े
है औि उन्ही मं पिलीि भी हंगे ऐसा िैज्ञानिक भी कहर्े है ।ब्रह्म मं दे ि
पिलीि होर्े है ।ब्रह्म का उलंर्घि मकहमा औि व्यिवथा का असंभि है ।सािी
सृपष्ट ब्रह्म के आश्रय है ।िह िही ब्रह्म है जो र्ुम पूछ िहे हो।

23
कठोपनिषद्(2.1.14)यथोदकं दग
ु े िृष्टम ् पितर्ेषु पिधािनर्।एिम ् धमाति ् पृथक्
पश्यमवर्ािेिािुपिधिानर्।।2.1.14।।अन्िय------:यथा=स्जस प्रकाि;दग
ु े=ऊंचे
निखिपि;िृष्टम ्=ििसा हुआ;उदकं =जल;पितर्ेषु =पहाड़ के िािा वथलं
मं;पिधािनर्=चािो ओि चला जार्ा है ;एिम ् =उसी प्रकाि;धमाति ् =नभन्ि नभन्ि
धमो से युक्त दे ि,असुि,मिुष्य आकद को;पृथक =पिमात्मा से पृथक,पश्यि ्
=दे खकि (उिका सेिि कििे िाला मिुष्य);र्ाि ् एि =उन्ही
के;अिुपिधािनर्=पीछे दौड़र्ा िहर्ा है (उन्ही के िुभािुभ लोको मं औि िािा
उच्च िीच योनियो मं भटकर्ा िहर्ा है )।।14।।सिलव्याख्या-----:ििसार् का
जल एक ही जल सितत्र समाि रूप से बिसर्ा है ।ऊंचे िीचे वथलं से बहकि
उन्ही का आकाि लेलर्
े ा है ।पितर्ं पि ठहिर्ा िही है ।अिेक जगहं के िणत
,गंध भी उसमे समा जार्े है ।उसी प्रकाि ये दे ि,असुि,मिुष्य एक ही
पिमात्मा िे पैदा ककये लेककि पृथक उपासिा,पूजा आकद किर्ा है ।औि
पृथक मािर्े हुए अिेक लोको मं औि योनियो मं भटकर्े है ।िह ब्रह्म को
प्राप्त िही हो सकर्ा है ।।

कठोपनिषद् (2.1.15)यथोदकं िुिे िुि मानसक्तम ् र्ादृगेि भिनर्।एिम ्


मुनिपितजािर् आत्मा भिनर् गौर्म ।।2.1.15।।अन्िय------:यथा=(पिं र्ु)स्जस
प्रकाि;िुिे(उदके)=निमतल जल मं;आनसक्तम ्=मेर्घो द्वािा सब ओि से ििसाया
हुआ;िुिम ् =निमतल;उदकं=जल; र्ादृक् एि=िैसा ही;भिनर्=हो जार्ा है ;एिम ्
=उसी प्रकाि;गौर्म=गौर्म िंिी िनचकेर्ा;पिजािर्ः =(एकमात्र पिमब्रह्म
पुरुषोत्तम ही सब कुछ है ,इस प्रकाि)जाििेिाले;मुि=
े मुनिका(संसाि से उपिर्
हुए महापुरुष);आत्मा=आत्मा;भिनर्=ब्रह्म को प्राप्त हो जार्ा
है ।।15।।सिलव्याख्या-----:िषात का जल िुि जल मं ििसर्ा है र्ो िुि ही
िहे गा।पिकाि औि पिखिाि भी िही होर्ा है ।हे गौर्म िंिी िनचकेर्ा ! जो
इस र्र्थय से अिगर् है कक जो कुछ है िह ब्रह्म ही है िह मिि किर्े हुए
उस ब्रह्म मं ही समाकहर् हो जार्ा है ।।प्रथम िल्ली अध्याय 2 समाप्त।।

24
कठोपनिषद् (2.2.2)हं सः िुनचषद् िसुिंर्रिक्षसिोर्ा िेकदषदनर्नथदत िू ोणसर् ्
।िृषद् ििसदृर् सद् व्योमसदब्जा गोजा ऋर्जा अकरजा ऋर्ं बृहर् ्
।।2.2.2।।अन्िय---:िुनचषर् ् =जो पििुि पिं धाम मं िहिे िाला;हं सः=वियं
प्रकाि (पुरुषोत्तम) है (िही);अंर्रिक्ष सर् ् =अंर्रिक्ष मे नििास कििे
िाला;दिू ोण सर् ् =र्घिं मं उपस्वथर् होिे िाला;अनर्नथ:=अनर्नथ है
,औि;िेकदषर् ् होर्ा =यज्ञ की िेदी पि सर्ापपर् अस्ग्िविरूप र्था उसमे
आहुनर् िालिे िाला 'होर्ा' है ,र्था;िृसर् ्=समवर् मिुष्यो मं िहिे
िाला;ििसर् ् =दे िर्ाओं मं िहिे िाला;ऋर्सर् ् =सत्य मं िहिे िाला
औि;व्योमसर् ् =आकाि मं िहिे िाला है ,र्था;अब्जा:=जलो मं िािा रूपो मं
प्रगट होिे िाला;गोजा=पृर्थिी मं िािा प्रकाि से पैदा होिे
िाला;ऋर्जा:=सत्कमो मं पैदा होिे िाला;अरीजा :=पितर्ं मं िािा रूप से
प्रगट होिे िाला है ;बृहर् ऋर्ं =िही सबसे बड़ा पिं सत्य
है ।।2।।सिलव्याख्या----:जो गुणार्ीर् कदव्य पििुि वियं प्रकानिर् पिमधाम
मं पििास्जर् है ।िे ही िसु ,अनर्नथ,यज्ञ अस्ग्ि होर्ा,मिुष्य रूप मं
स्वथर्,दे िर्ा, पपर्ृ रूप मं है ।सत्य मं, सत्कमो मं जल चि, िभचि,थलचि सभी
मे है । िदी पितर्रूप मं िे ही है ।िे सभी दृपष्टयं से सभी की अपेक्षा
श्रेष्ठ,महाि औि पिम सत्य र्त्ि है ।।

कठोपनिषद्(2.2.3)ऊध्िं प्राणमुन्न्यत्यपािं प्रत्यगवयनर्।मध्ये िामिमासीिम ्


पिश्वे दे िा उपासर्े।।2.2.3।।अन्िय------:प्राणं=जो प्राण को;ऊध्िं=ऊपि की
ओि;उन्ियनर्=उठार्ा है ,औि;अपािम ् =अपाि को;प्रत्यक् अवयनर् =िीचे
ढकेलर्ा है ;मध्ये=ििीि के मध्य(हृदय)मं;आसीिम ्=बैठे हुए उस; िामिम ्
=सित श्रेष्ठ भजिे योग्य पिमात्मा की;पिश्वे दे िा=सभी दे िर्ा;उपासर्े=उपासिा
किर्े है ।।3।।सिलव्याख्या-----------:ििीि मे प्राण-अपाि कक्रया अिििर्
नियनमर् नित्य हि पल हो िही है ।पिमात्मा की िपक्त से हो िही है ।मािि
हृदय िाजा की भांनर् दोिं प्राण औि अपाि ् को ऊपि िीचे चलार्े है ।जीिि
इसी कािण चल िहा है ।दे िर्ा भी इसनलए उपासिा किर्े है उस पिमात्मा
की।ििीि स्वथनर् प्राण, मि, इं करयं के अनधष्ठार्ृ दे िर्ा उि पिमेश्वि की

25
प्रसन्िर्ा के नलए सािधािी के साथ समवर् कायो को याथा पिनध संपादि
किर्े िहर्े है ।।

कठोपनिषद् (2.2.4)अवय पििं समािवय ििीिवथवय दे कहिः।दे हाकद्वमुच्य


मािवय ककमत्र परिनिष्यर्े ।।एर्द्वै र्र् ् ।।अन्िय----:अवय=इस ;ििीिवथवय
=एक ििीि से दस
ू िे ििीि मे जािे िाले;दे कहिः=जीिात्मा के;दे हार् ् =ििीि से
; पिमुच्य मािवय=निकल जािे पि;अत्र=यहाँ(इस ििीि मे);ककम ् परिनिष्यर्े
=क्यया िेष िहर्ा है ;एर्र् ् िै=यही है ;र्र् ् =िह (पिमात्मा,स्जसके पिषय मे
र्ुमिे पूछा था)।।2.2.4।।सिलव्याख्या-----:यह जीिात्मा गमिाचािी है ।अिेको
ििीिो मं जार्ा है ।इसके साथ प्राण, इस्न्रय चले जािे के उपिांर् क्यया बचा
िहर्ा है ।केिल ब्रह्म ही िह जार्ा है ।यह जीि िह जार्ा है ।सितत्र परिपूणत
है ,चेर्ि है ।जो र्ुमिे पूछा िही यह ब्रह्म है ।।

कठोपनिषद्(2.2.5-6)ि प्राणेि िापािेि मत्यो जीिनर् किि।इर्िे ण र्ु


जीिस्न्र् यस्वमन्िेर्ािुपा नश्रर्ौ।।2.2.5।।हन्र् र् इदं प्रिक्ष्यानम गुह्यं ब्रह्म
सिार्िम ् ।यथा च मिणम ् प्रासय आत्मा भिनर् गौर्म।।2.2.6।।अन्िय---
:किि=कोई भी;मत्यत=मिणधमात प्राणी ; ि प्राणेि =ि र्ो प्राण से(जीर्ा है
औि); ि अपािेि =ि अपाि से (ही);जीिनर्=जीर्ा है ;र्ु=ककन्र्ु;यस्वमि ्
=स्जसमे; एर्ौ उपानश्रर्ौ=(प्राण औि अपाि ) ये दोिं आश्रय पाये हुए
है ;इर्िे ण =(ऐसे ककसी)दस
ू िे से ही;जीिस्न्र् =(सब) जीर्े है ;गौर्म=हे
गौर्मिंिीय ;गुह्यं सिार्िम ् =(िह)िहवयमय सिार्ि ;ब्रह्म=ब्रह्म (जैसा
है );च=औि;जीिात्मा;मिणं प्रासय =मिकि; यथा=स्जस प्रकाि से;भिनर्=िहर्ा
है ;इदं र्े =यह बार् र्ुमहे ; हन्र् प्रिक्ष्यानम =मं अब किि से बर्लाऊंगा।।5-
6।।सिलव्याख्या--- ---:यमिाज कहर्े है --िनचकेर्ा! मौर् निस्िर् है औि
प्राण औि अपाि से प्राणी जीपिर् िही िहर्े है ।इन्हं जीपिर् -चेर्ि र्त्ि
जीिात्मा ही िखर्ा है ।प्राण अपाि जीिात्मा के आनश्रर् है ।इिके साथ सभी
चले जार्े है ।सूक्ष्म ििीि औि कािण ििीि जीिात्मा के मििे के बाद
अिुसिण किर्ी है ।आगे जीिात्मा कहा जार्ी है औि ब्रह्म का संबंध जीिात्मा
से क्यया है ।इसका ज्ञाि दं गे --यमिाज।यह उि यमिाज का आश्वासि है ।।
26
कठोपनिषद्(2.2.7)योनिमन्ये प्रपद्यन्र्े ििीित्िाय दे कहिः।वथाणुमन्येs
िुसयस्न्र् यथाकमत यथा श्रुर्ं।।2.2.7।।अन्िय-------:यथाकमत =स्जसका जैसा
कमत होर्ा है ;यथाश्रुर्ं =औि िािाकद के श्रिण से भाि जैसे प्राप्त हुए उसके
ही अिुसाि;ििीित्िाय=ििीि धािण कििे के नलए;अन्ये=ककर्िे
ही;दे कहिः=जीिात्मा र्ो;योनिम ् =योनियो को;प्रपद्यन्र्े =प्राप्त हो जार्े
है ;अन्ये=दस
ू िे ;वथाणुम ्=वथािि भाि का अिुसयस्न्र्=अिुसिण किर्े
है ।।7।।सिलव्याख्या------:यमिाज कहर्े है कक अपिे-अपिे िुभ -अिुभ
कमो के अिुसाि औि िाि,गुरु,संग, निक्षा ,व्यिसाय आकद के द्वािा िासिाये
धािण किलेर्े है ।मििे के पिार् दस
ू िा ििीि धािण कििे के नलए
पपर्ा/जिक के िीयत के साथ योनि मं प्रिेि कि जार्े है ।पुडय(सत्ि)=पाप िे
मिुष्य जन्म पार्े है , पाप ,पुडय से अनधक अथातर् िजो भािअनधक र्ो पिु
पक्षी के रूप मं पैदा हंगे,अनधक पाप (र्मस)से वथािि सृपष्ट होर्ी है ।िृक्ष
लर्ा आकद।।

कठोपनिषद् (2.2.8)य एष सुप्तेषु जाग्रनर् कामं कामं पुरुषो निनमतमाणः ।र्दे ि


िुक्रम ् र्द् ब्रह्म र्दे िामृर्मुच्यर्े।।र्स्वमि ् लोकाः नश्रर्ा: सिे र्द ु िात्येनर्
किि।।एर्द् िै र्र् ् ।।2.2.8।।अन्िय-----:यः एष:=जो यह;काम म ् कामम ्
=(जीिो के कमातिस
ु ाि)िािा प्रकाि के भोगं का;निनमतमाणः=निमातण कििे
िाला ;पुरुषः=पिमपुरुष पिमेश्वि ;सुप्तेषु =(प्रलय काल मे सबके)सबके सो
जािे पि भी;जाग्रनर्=जागर्ा िहर्ा है ;र्र् ् एि=िही;अमृर्म ् =अमृर्;
उच्यर्े=कहलार्ा है ;(र्था) र्स्वमि ् =उसी मं; सिे=समपूणत ;लोकाः
नश्रर्ाः=लोक आश्रय पाए हुए है ;र्र् ् किि उ =उसे कोई भी ;ि अत्येनर्
=अनर्क्रमण िही कि सकर्ा;एर्र् ् िै =यही है ;र्र् ् =(पिमात्मा,स्जसके िािे
मं र्ुमिे पूछा था)।।8।।सिलव्याख्या-----:जीिो के कमो के अिुसाि योनि
औि भोगं का निमातण वियं ही पिमात्मा किर्े है ।प्रलय काल मे भी जागर्े
है ।ज्ञाि भी एकरूप है ।िही ब्रह्म है ।समपूणत लोको के आश्रय दार्ा है ।उिका
कोई उलंर्घि िही कि सकर्ा है ।सितदा उिके िासि मं औि अिुिासि मं ही
िहर्े है ।उिकी मकहमा का पाि िही है ।जो र्ुमिे पूछा िह िही ब्रह्म है ।।

27
कठोपनिषद् (2.2.9)अस्ग्ि यतथक
ै ो भुििं प्रपिष्टो रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो बभूि।
एकवर्था सितभर्
ू ान्र्िात्मा रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो बकहि।।2.2.9।।अन्िय------
--:यथा=स्जस प्रकाि;भुििं =समवर् ब्रह्मांि मं;प्रपिष्ट: =प्रपिष्ट ;एकः
अस्ग्ि:=एक ही अस्ग्ि;रूपम ् रूपम ् =िािा रूपो मं; प्रनर्रूपः=उिके समाि
रुपिाला सा; बभूि=हो िहा है ;र्था =िैस;े सितभर्
ू ान्र्िात्मा =समवर् प्रास्णयं
की अंर्िात्मा पिब्रह्म;एकः=एक होर्े हुए भी;रूपम ् रूपम ् = िािा रूपो मं;
प्रनर्रूपः=उन्ही के जैसे रूप िाला;च बकह:=औि उिके बाहि भी
है ।।9।।सिलव्याख्या------:एक ही अस्ग्ि नििाकाि रूप मं सािे ब्रह्मांि मं
व्याप्त है ,उसमे कोई भेद िही है ।साकाि रूप मं प्रज्िनलर् िािा रूपो आकािं
मं कदखर्ी है ।िैसे ही पिमात्मा एक है ।समभाि से व्याप्त है ।उिमं कोई भेद
िही है ।पिं र्ु प्रास्णयं के विरूप मं नभन्ि कदखर्े है ।पिमेश्वि की महत्ता बहुर्
अनधक औि पिलक्षण है ।।

कठोपनिषद् (2.2.10)िायुयथ
त क
ै ो भुििं प्रपिष्टो रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो
बभूि।एकवर्था सितभर्
ू ान्र् िात्मा रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो
बकहि।।2.2.10।।अन्िय------:यथा=स्जस प्रकाि;भुििं =समवर् ब्रह्मांि मं
;प्रपिष्ट एकः िायु:=एक ही िायु व्याप्त है ;रूपम ् रूपम ् =िािा रूपो मं; प्रनर्रूपः
=समाि रुपिाला सा; बभूि=होिहा है ;र्था=िैसे ही;सितभर्
ू ान्र्िात्मा=सब
प्रास्णयं की अंर्िात्मा पिब्रह्म;एकः=एक होर्े हुए भी;रूपम ् रूपम ् = िािा
रूपो मं; प्रनर्रूपः=उिके समाि रुपिाला हो िहा है ;च बकह :=औि उिके बाहि
भी है ।।10।।सिलव्याख्या---:एक ही िायु समपूणत ब्रह्मांि मं परिव्याप्त है ।िािा
रूपो मं उिके आकािं मं भी कदखर्ा है ।उसी प्रकाि समवर् प्रास्णयं मं एक
ब्रह्म परिव्याप्त है ।िािा प्रास्णयं के रूपो मं भी औि बाहि भी व्याप्त है ।असीम
है ।पिलक्षण है ।।

Anjani Kumar Singh भािाथत : स्जस प्रकाि िायु समवर् भुििं मं अलग-
अलग रूपं मं व्याप्त होर्े हुए भी एक है , उसी प्रकाि हमािा अन्र्िात्मा
अलग-अलग रूपं मं परिव्याप्त होर्े हुए भी सबमं एक है अथातर् सबमँ
समाि रूप से व्याप्त है ।
28
*भाग्यक्षये चाश्रयो।*
*धेिःु कामदध
ु ा िनर्ि पििहे *
*िेत्रं र्ृर्ीयं च सा॥*
*सत्कािायर्िं कुलवय मकहमा**
*ित्नैपितिा भूषणम ्।*
*र्वमादन्यमुपेक्ष्य सितपिषयं*
*पिद्यानधकािं कुरु॥*

*भािाथत -* पिद्या मिुष्य की अिुपम कीनर्त है , भाग्य का िाि होिे पि िह


आश्रय दे र्ी है , पिद्या कामधेिु है , पििह मं िनर् समाि है , पिद्या ही र्ीसिा िेत्र
है , सत्काि का मंकदि है , कुल की मकहमा है , पबिा ित्न का आभूषण है ; इसनलये
अन्य सब पिषयं को छोिकि पिद्यािाि ् बििा चाकहये।

� �सुप्रभार्म ् � �व्याप्त होर्े हुए भी एक र्घूंट है अथातर् सब मं


समाि रूप से व्याप्त है ।

दग
ु त नसंह चौहाि समयक रूप से।समाि रूप से िही।

कठोपनिषद्(2.2.11)सुयो यथा सितलोकवय चक्षुित नलसयर्े


चाक्षुषब
ै ातह्यदोषै:।एकवर्था सितभर्
ू ान्र् िात्मा ि नलसयर्े लोक दःु खेि ्
बाह्यः।।2.2.11।।अन्िय----:यथा=स्जस प्रकाि ;सितलोकवय =समवर् ब्रह्मांि
का;चाक्षु: सूय:त =प्रकािक सूयत दे िर्ा; चाक्षुष:ै =आँखं से होिे
िाले;बह्यदोषै:=बाहि के दोषं से; ि नलसयर्े=नलप्त िही होर्ा;र्था=उसी
प्रकाि;सितभर्
ू ान्र् िात्मा =सब प्रास्णयं की अंर्िात्मा;एकः=एक पिब्रह्म
पिमात्मा;लोकदख
ु ेि ् =लोगो के दख
ु ं मं; ि नलसयर्े=नलप्त िही
होर्ा;बाह्य:=सबमे िहर्ा हुआ भी अलग है ।।11।।सिलव्याख्या-----:एक ही
सूयत समपूणत ब्रह्मांि को प्रकानिर् किर्ा है ।प्राणी दे ख पार्े है औि भले बुिे
कमत किर्े है ।सूयत उि प्रास्णयं के कमो से नलप्त िही होर्ा है ।उसी प्रकाि
पिब्रह्म पुरुषोत्तम एक है ।उिकी िपक्त से जीिात्मा ज्ञािेकरयं कमेस्न्रयं से

29
अच्छे बुिे कमत किर्े है ।पिमात्मा कमो से नलप्त िही होर्े है ।ि उिके सुख
दख
ु से जो कमो के िल है ।िे पृथकत्िेि असंग है ।।

कठोपनिषद्(2.2.12)एको ििी सितभर्


ू ान्र् िात्मा एकम ् रूपम ् बहुधा यः
किोनर्।र्मात्मवथम ् ये s िुपश्यस्न्र् धीिावर्ेषाम ् सुखम ् िाश्वर्ं िेर्िे षाम ्
।।2.2.12।।अन्िय----:यः=जो;सितभर्
ू ान्र्िात्मा=सबप्रास्णयो का अन्र्यातमी;
एकः ििी =अकद्वनर्य सबको िि मं िखिे िाला;एकम ् रूपम ् =एक ही रूप
को;बहुधा किोनर्=बहुर् प्रकाि से बिा लेर्ा है ;र्ं आत्मवथम ् =उस अपिे
अंदि िहिे िाले पिमात्मा को;ये धीिाः=ये ज्ञािी पुरुष; अिुपश्यनर्=नििं र्ि
दे खर्े िहर्े है ;र्ेषाम ् =उन्ही को;िाश्वर् सुखम ् =िाश्वर् सुख नमलर्ा है ;इर्
िे षाम ् ि=अन्य को िही।।12।।सिलव्याख्या-----:जो पिमात्मा सदा सबके
अंर्िात्मा म ् िसे है ।सभी के नियंर्ा है ।लीलविरूप है ।बहु रूप धािण किर्े
हुए सृपष्ट को िासि किर्े है ।उन्हं नित्य अपिे मे दे खो औि िाश्वर् आिंद
मं िहो।अन्य मं कुछ िही है ।।

कठोपनिषद्(2.2.13)नित्यो नित्यािां चेर्ििेर्िािामेको बहूिाम ् यो पिदधानर्


कामाि ्।र्मात्मवथम ् ये s िुपश्यस्न्र् धीिा वर्ेषाम ् िास्न्र्: िाश्वर्ी िेर्िे षाम ्
।।2.2.13।।अन्िय----:यः=जो;नित्यािां =नित्यो क् भी; नित्य:=नित्य
है ;चेर्िािाम ् =चेर्िाओं क् भी; चेर्ि:=चेर्ि है औि;एकः बहूिाम ्=अकेला ही
इि अिेक जीिो के;कामाि ् =कमतिलं का; पिदधानर् =पिधाि किर्ा है ;र्ं
आत्मवथम ् =उस अंदि िहिे िाले पिमेश्वि को;ये धीिा:=जो ज्ञािी
;अिुपश्यनर् =नििं र्ि दे खर्े िहर्े है ; र्ेषाम ् =उन्ही को;िाश्वर्ी िांनर्ः=सदा
अटल िहिे िाली िांनर् प्राप्त होर्ी है ;इर्िे षाम ् ि=दस
ु िो को
िही।।13।।सिलव्याख्या-----:जो नित्य चेर्ि आत्मा ओके भी नित्य चेर्ि
आत्मा है र्था अिंर् जीिो को पालर्े है पोषण किर्े है ।कमतिल का पिधाि
किर्े है ।उन्हं नििं र्ि अपिे अंदि दे खो औि सिार्ि िांनर् प्राप्त किो।अन्यथा
िही।।

30
कठोपनिषद् (2.2.15)ि र्त्र सुयो भानर् ि चंरर्ािकं ,िेमा पिद्युर्ो भांनर्
कुर्ोsयमस्ग्ि :।र्मेि भांर् मिुभानर् सित र्वय भासा सितनमदं
पिभानर्।।2.2.15।।अन्िय-----:र्त्र=िहाँ ; ि सूय:त भानर् =ि र्ो सूयत
प्रकानिर् होर्ा है ;ि चंरर्ािकं =ि चंरमा औि र्ािो का समुदाय (ही
प्रकानिर् होर्ा है );ि इमाः पिद्युर् : भांनर् =ि यह पबस्जली प्रकानिर् होर्ी
है ;अयं अस्ग्ि: कुर्ः=अस्ग्ि कैसे प्रकानिर् होगी;र्ं=उसके ;भांर्म एि
=प्रकानिर् होिे पि ,उसी के प्रकाि से;सिं =सब;अिुभानर् =प्रकानिर् होर्े
है ;र्वय भासा=उसी के प्रकाि से;इदं सिं =यह समपूणत जगर्
;पिभानर्=प्रकानिर् होर्ा है ।।15।।सिलव्याख्या------:सूय,त चंर,र्ािे ,अस्ग्ि,पिद्युर्
सभी पिमेश्वि के समीप प्रकाि हीि हो जार्े है ।क्ययंकक इिके प्रकाि उसी के
प्रकाि के अंि है ।यह सत्य है कक समपूणत जगर् ब्रह्मप्रकाि से प्रकानिर् हो
िहा है ।।कद्वर्ीय िल्ली समाप्त।।2।।

कठोपनिषद् की र्ीसिी िल्ली स्जसमे 18श्लोक है ।22 नसर्मबि से 9अक्यटू बि


को कठोपनिषद् समपूणत होगा।आप सभी के धैयत औि प्रेम से ही यह प्रयास
नििं र्ि चलर्ा चला आिहा है ।

कठोपनिषद्(2.3.1)कद्वर्ीय अध्याय र्ृर्ीयिल्ली प्रथम


श्लोक:ऊध्ितमल
ू ोsिाक्यिाख एषोs श्वत्थ सिार्ि:।र्दे ि िुक्रं र्द् ब्रह्म र्दे िामृर्
मुच्यर्े।र्स्वमि ् लोका: नश्रर्ाः सिे र्द ु िात्येनर् किि।।एर्द्वै र्र् ्
।।2.3.1।।अन्िय-----:उध्ितमल
ू :=ऊपि की ओि मूल िाला;अिाक्यिाख:=िीचे
की ओि िाखािाला; एषः=यह(प्रत्यक्ष जगर्);सिार्ि: अश्वत्थ:=सिार्ि
पीपल का िृक्ष है ;[र्न्मूलम ्]=इसका मूलभूर्;र्र् ् एि िुक्रम ् =िह(पिमेश्वि)ही
पििुि र्त्ि है ;र्र् ् ब्रह्म=िही ब्रह्म है (औि);र्र् ् एि=िही;अमृर्म ् उच्यर्े=अमृर्
कहलार्ा है ;सिे लोकाः=सब लोक;र्स्वमि ् =उसी के ;नश्रर्ाः=आनश्रर् है ;किि
उ= कोई भी;र्र् ् =उसको ;ि अत्येनर्=लांर्घ िही सकर्ा;एर्र् ् िै=यही है ;र्र् ्
=िह (पिमात्मा स्जसके पिषय मे र्ुमिे पूछा था)।।1।।सिलव्याख्या-------
:स्जसका मूलभूर् पिब्रह्म पिमेश्वि ऊपि है ,सितश्रष्ठ
े ,सबसे सूक्ष्म औि
सितिपक्तमाि ् है औि स्जसकी प्रधाि िाखये ब्रह्मा,दे ि,पपर्ि,मिुष्य, पिु,पक्षी
31
आकद क्रम से िीचे है ,ऐसा यह ब्रह्मन्रप
ू पपपलिृक्ष आकदकालीि --सदा से
है ।इसका मूलकािण स्जससे उत्पन्ि होर्ा है ,सुिस्क्षर् िहर्ा है औि उसी मं
पिलीि हो जार्ा है ।ब्रह्म,कदव्य,अमृर् िाम उसी के है ।उसे कोई अनर्क्रमण िही
कि सकर्ा है ।िनचकेर्ा ! यही है िह र्त्ि जो र्ुमिे पूछा था।।1।।

कठोपनिषद्(2.3.2)यकददं ककम ् च जगत्सिं प्राण एजनर् निसृर्ं।महियं


िज्रमुद्यर्म ् य एर्कद्वदिु मृर्ावर्े भिस्न्र्।।2.3.2।।अन्िय------:नि:सृर्ं=(पिब्रह्म
पिमेश्वि से)निकला हुआ;इदं यर् ् ककम ् च=यह जो कुछ भी;सिं जगर् ्
=समपूणत जगर् है ;प्राणे एजनर्=उस प्राण विरूप पिमेश्वि मं चेष्टा किर्ा
है ;एर्र् ्=इस;उद्यर्म ् िज्रम ् =उठे हुए िज्र के समाि;महर् ् भयं=महाि भय
विरूप(सितिपक्तमाि ्)पिमेश्वि को;ये पिद:ु =जो जािर्े है ;र्े=िे;अमृर्ा भिस्न्र्
=अमि हो जार्े है अथातर् जन्म मिण से छूट जार्े है ।।2।।सिलव्याख्या-----
-:सित दृश्य अिुभिगमय जगर् पिमेश्वि से प्रगट हुआ है ।हमािी चेष्टाएँ उिके
अधीि है ।िे दयालु है औि भय रूप है ।उिके हाथ मे आज्ञापालि किािे की
िज्रिपक्त भी है ।इसी नलए दे ि भी आज्ञा मािर्े है ।जो पिमेश्वि को जािर्ा
है ।िह र्त्िज्ञ ही अमि है ।औि मोक्ष प्राप्त है ।।

कठोपनिषद्(2.3.3)भयादवयागनिवर्पनर् भयार् ् र्पनर् सूय:त ।भयाकदन्रि


िायुि मृत्युधातिनर् पञ्चम:।।2.3.3।।अन्िय----:अवय भयार् ् =इसी के भय
से;अस्ग्िः र्पनर्=अस्ग्ि र्पर्ा है ;भयार् ् =(इसी के)भय से ;सूय:त र्पनर्=सूयत
र्पर्ा है ;च=र्था;[अवय] भयार् ् =इसी के भय से;इन्रः
िायुः=इन्र,िायु;च=औि;पञ्चम:मृत्यु:=पांचिे मृत्यु दे िर्ा;धािनर् =(अपिे
अपिे काम मे)प्रिृत्त हो िहे है ।।2.3.3।।सिलव्याख्या------:सब पि िासि
कििे िाले औि सबको नियंत्रण मं िखकि नियमािुसाि चलिेिाले इि
पिमेश्वि के भय सेअस्ग्ि र्पर्ा है ,सूयत र्प िहा है ,इन्र जल,िायु प्रास्णयं को
जीिि िपक्त प्रदाि कि िहे है ।पांचिे मृत्यु दे िर्ा जीिो का अंर् कि िहे
है ।अपिा अपिा कायत सािधािी पूिक
त कि िहे है ।।

32
कठोपनिषद् (2.3.4)इह चेदिकद् बोिम ् प्राक् ििीिवय पििस:।र्र्ः सगेषु
लोकेषु ििीित्िाय कल्पर्े।।2.3.4।।अन्िय-----:चेर् ् =यकद;ििीिवय =ििीि
का;पििस:=पर्ि होिे से;प्राक् =पहले-पहले;इह=इस मिुष्य ििीि मे ही
(साधक);बोिम ् =पिमात्मा को साक्षार्;अिकर् ् =कि सका (र्ब र्ो ठीक
है );र्र्ः=िही र्ो किि;सगेषु =अिेक कल्पो र्क;लोकेषु=िािा लोक औि
योनियो मं; ििीित्िाय कल्पर्े=ििीि धािण कििे को पििि होर्ा
है ।।4।।सिलव्याख्या-----:मििे से पूित साक्षात्काि उस जगर् िासक नियंर्ा
का किले अन्यथा कल्पो र्क अिेक लोको औि योनियो मं ििीि धािण
कििे के नलए पििि हंगे।।4।।

कठोपनिषद्(2.3.5)यथाss दिे र्था ss त्मनि यथा विसिे र्था पपर्ृ


लोके।यथाससु पिीि ददृिे र्था गंधित लोके छायार्पयोरिि
ब्रह्मलोके।।2.3.5।।अन्िय-----:यथा आदिे=जैसे दपतण मं(सामिे आयी िवर्ु
कदखर्ी है );र्था आत्मनि =िैसे ही िुि अंर्ःकिण मं (ब्रह्म के दिति होर्े
है );यथा विसिे=जैसे विसि मं (िवर्ु वपष्ट कदखलाई दे र्ी है );र्था पपर्ृ
लोके=िैसे ही पपर्ृलोक मं (ईश्वि कदखर्े है );यथा अससु=जैसे जल मं (िवर्ु
के रूप की झलक पड़र्ी है );र्था गंधितलोके=उसी प्रकाि गंधित लोक मं;परि
ददृिे इि=पिमात्मा की झलक सी पड़र्ी है (औि);ब्रह्मलोके=ब्रह्मलोक मं
(र्ो);छाया र्पयो:इि=छाया औि धूप की भांनर्(आत्मा औि पिमात्मा दोिं
पृथक पृथक वपष्ट कदखाई दे र्े है )।।5।।सिलव्याख्या----:महापुरुषो के पििुि
अंर्ःकिण मं पिमेश्वि दपतण के समाि वपष्ट कदखर्े है ।पपर्ृलोक विसििर्
वमृनर् दितिहै ।र्थाजलदिति के समाि प्रनर्पिमबरूप है ।गंधित लोक नचत्त दिति
है ।ब्रह्मलोक मं आत्मा पिमात्मा की छाया है साि साि कदखर्ी है ।।

कठोपनिषद्(2.3.6)इं करयाणं पृथग्भािमुदयावर्मयौ च यर् ् ।पृथक्


उत्पद्यमािािाम ् मत्िा धीिो ि िोचनर्।।2.3.6।।अन्िय------:पृथक् =(अपिे
अपिे कािण से )नभन्ि नभन्ि रूपो मे;उत्पद्यमािािाम ् =उर्पन्ि
हुई;इं करयाणाम ् =इं करयं की;यर् ् =जो ;पृथक् भािं =पृथक् पृथक् सत्ता है
;च=औि ;यर् ् =जो;उदयावर्मयौ=उदय औि लय हो जािा विभाि है ;र्र् ्
33
=उसे ;मत्िा =जािकि ; धीिः=(आत्मा का विरूप उिसे पिलक्षण
समझिेिाला)धीि पुरूष; ि िोचनर्=िौक िही किर्ा।।6।।सिलव्याख्या-----
:पिषय औि इं करयं के अिुिाग भाि उत्पन्ि औि पिलीि होर्े है ।अिेक
प्रकाि औि रूपो के होर्े है ।यह बुपिमाि समझकि दख
ु ी िही होर्ा।चेर्न्य
नित्य एकिस आत्मा है ।यह सन्र्घार् है ।चेर्ि से अलग है ।बंधियुक्त इच्छाओं
का पुज
ं है ।जगो जगर् भोजि ककयो सोये िार्ोिार्।का गुजिी जािो िही मूखत
मि भिमार्।।

कठोपनिषद् (2.3.7)इं करयेभ्य: पिं मिो मिसः सत्त्िमुत्तमं।सत्त्िादनध


महािात्मा महर्ो s व्यक्तमुत्तमं।।2.3.7।।अन्िय-----:इं करयेभ्य:=इं करयं से
(र्ो);मिः=मि; पिं =श्रेष्ठ है ;मिसः=मिसे; सत्त्िं=बुस्ध्द;उत्तमं=उत्तमम ् =उत्तम
है ;सत्त्िार् ्=बुपि से;महाि ् आत्मा=उसकी विामी जीिात्मा;अनध=ऊंचा
है (औि);महर्ः=जीिात्मा से;अव्यक्तं=अव्यक्त िपक्त;उत्तमं=उत्तम
है ।।7।।सिलव्याख्या-----:इं करयं से मि श्रेष्ठ है ,मि से बुपि श्रेष्ठ है ,बुपि से
महत्तत्त्ि बढ़कि है ,आत्मा इि सभी श्रेष्ठ है ।

कठोपनिषद्(2.3.8)अव्यक्तत्तु पिः पुरुषं व्यापको s नलंग एि च।यम ् ज्ञात्िा


मुच्यर्े जंर्ुि मृर्त्िम ् च गच्छनर्।।2.3.8।।अथत---:अव्यक्त से भी पुरुष श्रेष्ठ
है िह व्यापक र्था अनलंग है ;स्जसे जािकि मिुष्य मुक्त होर्ा है औि अमृत्ि
को प्राप्त हो जार्ा है ।।8।।सिलाथत----:अव्यक्त प्रकृ नर् केनलए है र्था व्यापक
आकािाकद के नलए है ।पुरुष पिमात्मा के नलए है ।मि बुपि को नलंग कहा
है ।पुरुष(पिमात्मा) मं मि बुस्ध्द का अभाि है अर्ः इसनलए अनलंग
है ।संसािधमत से अर्ीर् है ।इसे जाििा पिद्या है ।संसाि को जाििा अपिद्या
है ।हृदय ग्रंनथ(अंर्ःकिण है इसनलए) अपिद्या रूप है ।इस अपिद्या से मुक्त होिा
औि पिद्या मय होिा ही पिमात्मा को जाििा है ।पिद्या युक्त मिुष्य ििीि का
पर्ि होिे पि भी अमित्ि को प्राप्त होर्ा है ।िह पुरुष अनलंग है औि अव्यक्त
प्रकृ नर् से पिे है ।श्रेष्ठ है ।।

34
कठोपनिषद्(2.3.9)ि सन्दृिे नर्ष्ठनर् रूपमवय ि चक्षुषा पश्यनर् कि िैिम ्
।हृदा मिीषा मिसानभ क्यलृप्तो य एर्कद्वदिु मृर्ावर्े भिस्न्र्।।2.3.9।।अथत-----
:इस आत्मा का रूप दृपष्ट मं िही ठहिर्ा।इसे िेत्र से कोई भी आत्मा को
िही दे ख सकर्ा है ।यह आत्मा र्ो मिका नियमि कििेिाली हृदय स्वथर्ा
बुपि द्वािा मििरूप समयग्दिति से प्रकानिर्(हुआ ही जािा जा सकर्ा)है ।जो
इसे(ब्रह्मरूप से)जािर्े है िे अमि हो जार्े है ।।9।।सिलव्याख्या-----:प्राकृ र्
िेत्रो से आत्मा को िही दे ख सकर्े।प्रकानिर् मि औि प्रज्िनलर् बुपि द्वािा
आत्मा को जािा जा सकर्ा है ।आत्मा ब्रह्म है इर्िा जाििा ही ब्रह्म को
जाििा है ।औि जाििे िाला जाििे के बाद अमि हो जार्ा है ।संसाि से मुक्त
हो जार्ा है ।।

कठोपनिषद् (2.3.10)यदा पंचािनर्ष्ठन्र्े ज्ञािानि मिसा सह।बुपिि ि


पिचेष्टनर् र्ामाहु: पिमाम ् गनर्म ् ।।2.3.10।।अथत---:स्जस समय पांचो
ज्ञािेकरयं मि के सकहर् [आत्मा मं] स्वथनर् हो जार्ी है औि बुपि भी चेष्टा
िही किर्ी उस अिवथा को पिम गनर् कहर्े है ।।10।।सिलव्याख्या-----:सभी
पिषयो से नििृर्पांचो इस्न्रया,िांर् मि औि संकल्प पिकल्प भी मि के
िांर् हो गए ,बुपि की नििय कििे मं कोई चेष्टा िही िही।उस अिवथा को
पिमगनर् कहर्े है ।योग स्वथनर् कहर्े है ।इस स्वथनर् मं ध्यािजनिर् धािणा
से समानधवथ हो सकर्े है ।।

कठोपनिषद्(2.3.11)र्ाम ् योगनमनर् मन्यर्े स्वथिनमस्न्रय धािणाम ्


।अप्रमत्तवर्दा भिनर् योगो कह प्रभािसययौ ।।2.3.11।।अथत-----:उस स्वथि
इन्रीयधािण को ही योग कहर्े है ।उस समय पुरुष प्रमाद िकहर् होजार्ा
है ,क्ययोकक योग ही उत्पपत्त औि िािरूप है ।।11।।सिलव्याख्या----:पियोग
अिवथा है ।स्जसे योग कहर्े है ।अिथत संयोग से पियोग।आत्मा अपिद्याकद से
भी िकहर्ं होर्ी है ।यह अिवथा स्वथि इस्न्रय धािणा कहलार्ी है ।अंर्ः बाह्य
किणं को धािण कििा।साधक प्रमाद मुक्त हो जार्ा है ।नचत्त समाधाि चाहर्ा
है ।यह योग प्रिृत्त स्वथनर् है ।बुपि मि चेष्टाएँ समाप्त र्ो प्रमाद समाप्त।योग
धमत धमातचिण का जिक है ।धमत योग मं लय हो जार्ा है ।नििृनर् ही प्रमाद
35
िसाकह।संसाि ब्रह्मपिश्वास को कटकिे िही दे र्ा।ब्रह्म संसाि को कटकिे िही
दे र्ा है ।।

कठोपनिषद्(2.3.12)िैि िाचा ि मिसा प्राप्तुम ् िक्ययो ि चक्षुषा।अवर्ीनर्


ब्रुिर्ो s न्यत्र कथं र्दप
ु लभ्यर्े ।।2.3.12।।अथत----:िह आत्मा ि र्ो िाणी
से,ि मि से औि ि िेत्र से ही प्राप्त ककया जा सकर्ा है ;िह 'है ' ऐसा कहिे
िालं से अन्यत्र(नभन्ि पुरुषं को)ककस प्रकाि उपलब्ध हो सकर्ा
है ।।12।।सिलव्याख्या----:यहाँ आत्मा ही ब्रह्म है ।मि, िाणी,िेत्र से मिि,
श्रिण, दिति िही ककया जा सकर्ा है ।ब्रह्म जगर् का आकद कािण है ।बुपि
सदिृनर् गनभतर्ा ही यथाथत जाििे मं सक्षम है ।आस्वर्क ब्रह्म को उपलब्ध
होर्ा है ।िास्वर्क िही।क्ययोकक बुपि की लय सदिृपत्त से बिर्ी है ।पििेक बुपि
की ग्रहण िपक्त से निनमतर् होर्ा है ।सर् ् औि असर् ् पििेक जो बुपि की
सदिृपत्त से ही प्राप्त होर्ा है ,िही ब्रह्म को प्राप्त कि सकर्ा है ।।

कठोपनिषद्(2.3.13)अवर्ीत्ये िोपलब्धव्यवर्त्त्ि भािेि


चोभयो:।अवर्ीत्येिोसलब्धवय र्त्त्िभािः प्रसीदनर् ।।2.3.13।।अन्िय----
:अस्वर्=(अर्ः उस पिमात्मा को पहले र्ो)'िह अिश्य है ' ;इनर् एि =इस
प्रकाि नििय पूिक
त ; उसलब्धव्य:=ग्रहण कििा चाकहए अथातर् पहले उसके
अस्वर्त्ि का दृढ़ नििय कििा चाकहये ;[र्दिु]=र्दन्र्ि;र्त्िभािेि=र्त्िभाि
से भी;[उसलब्धव्य:]=उसे प्राप्त कििा चाकहए;उभयो:=इि दोिं प्रकािं मं
से;अस्वर् इनर् एि ='िह अिश्य है ' इस प्रकाि निियपूिक

;उसलब्धवय=पिमात्मा की सत्ता को विीकाि कििे िाले साधक के
नलए;र्त्िभाि:=पिमात्मा र्ास्त्िक विरूप(अपिे आप);प्रसीदनर्=प्रसन्ि हो
जार्े है ।।13।।सिलव्याख्या-----:ब्रह्म है ।उन्हं प्राप्त ककया जा सकर्ा है ।साधक
को यह पिश्वास हो।उसके उपिांर् ध्याि किे ।र्ास्त्िक पििेचिा किे ।ब्रह्म उिके
ह्रदय मं प्रसन्िर्ा पूिक
त प्रगट होर्ा है ।

कठोपनिषद्(2.3.14)यदा सिे प्रमुच्यन्र्े कामा येsवय हृकद नश्रर्ाः।अथ मत्योs


मृर्ो भित्यत्र ब्रह्म समश्नुर्े।।2.3.14।।अन्िय-----:अवय (साधक) के;हृकद

36
नश्रर्ाः=हृदय मं स्वथर् ;ये कामा:=जो कामिाये है ;सिे यदा =िे सब की सब
जब ; प्रमुच्यन्र्े=समूल िष्ट हो जार्ी है ;अथ=र्ब; मत्यतः=मिणधमात मिुष्य
;अमृर्ः =अमि;भिनर्=हो जार्ा है ,औि;अत्र=िह यही;ब्रह्म समश्नुर्े=ब्रह्म का
भलीभांनर् अिुभि कि लेर्ा है ।।14।।सिलव्याख्या-----:मिुष्य का हृदय विगत
औि मृत्यु लोक की कामिाओ से भिा िहर्ा है ।ब्रह्म की कामिा िही किर्ा
है कक उन्हं प्राप्त करू।आसपक्त संसाि की ब्रह्म से दिु ् िखर्ी है ।साधक की
कामिाये ब्रह्म को पािे की होर्ी है ।र्ब अिश्य प्राप्त कि लेर्ा है ।।

कठोपनिषद्(2.3.15)यदा सिे प्रनभद्यन्र्े हृदयवयेह ग्रन्थ यः।अथ मत्योs मृर्ो


भित्येर्ािद्भध्यिुिासिम ् ।।2.3.15।।अन्िय------:यदा =जब(इसको);हृदयवय
=हृदय की;सिे =समपूणत ;ग्रंथय:=ग्रंनथयां;प्रनभद्यन्र्े=भलीभांनर् खुल जार्ी
है ;अथ=र्ब; मत्यत:=िह मिण धमात मिुष्य ;इह=इस ििीि
मे;अमृर्ः=अमि;भिनर्=हो जार्ा है ; कह एर्ािर् ् =बस इर्िा
ही;अिुिासिम ्=सिार्ि उपदे ि है ।।15।।सिलव्याख्या-----:अहं काि,
ममंकाि,अज्ञाि अन्धकाि की ग्रंनथयां कट जार्ी है ।संिय िून्य,दृढ़ निियी
आस्वर्क को पिमात्मा का साक्षात्काि अिश्य होर्ा है ।ििीि सकहर् मुपक्त
िेदान्र् साि है ।।

कठोपनिषद्(2.3.16)िर्ं चैका च हृदयवय िाड्यवर्सा म ् मूधातिम नभनिः


सृर्ैका।र्योध्ित मायन्ि मृर् त्िमेनर् पिष्िंsन्या उत्क्रमर्े
भिस्न्र्।।2.3.16।।अन्िय----:हृदयवय =हृदय की;िर्ं च एका च =एक सौ
एक ; िाद्यः=िाकिया है ;र्ासां=उिमे से ;एका =एक ;मूधातिम ् =मूधात(कपाल)की
ओि ;अनभ नि:सृर्ा=निकली हुई है (इसे ही सुषमिा कहर्े है );र्या=उसके
द्वािा; ऊध्िं=ऊपि के लोको मं; आयि ् =जाकि(मिुष्य);अमृर्त्िम ् =अमृर्भाि
को;एनर्=प्राप्त हो जार्ा है ;अन्याः=दस
ू िी एक सौ िाकिया; उत्क्रमणे =मिण
काल मे (जीि को); पिष्िम ् =िािा प्रकाि की योनियो मं ले जािे की
हे र्ु;भिस्न्र्=होर्ी है ।।16।।सिलव्याख्या-----:हृदय मं 101 प्रधाि िाकिया है
जो िहाँ से सब ओि िैली हुई है ।सुषमिा मस्वर्ष्क की ओि जार्ी है ।इस

37
सुषमिा से निकलकि जीि पिमधाम जा सकर्ा है अन्यथा अन्य योनियो मं
ही जायेगा।।

कठोपनिषद् (2.3.17)अंगुष्ठ मात्र: पुरूषोsन्र्िात्मा सदा जिािाम ् हृदये


सस्न्िपिष्टः।र्ं विाच्छिीिार् ् प्रिृहेन्मुज
ं ाकदिेषीकाम ् धैयण
े र्ं पिद्या च्छुक्र ममृर्
नमनर् ।।2.3.17।।अन्िय-----:अंर्िात्मा =सबका अंर्यातमी ;
अंगुष्ठमात्रः=अंगुष्ठमात्र परिमाण िाला ;पुरुषः=पिमपुरुष ;सदा=सदै ि ; जिािाम ्
=मिुष्यो के;हृदये=हृदय मं; सस्न्िपिष्ट:=भलीभाँनर् प्रपिष्ट है ;र्म ्=उसको;मुंजार् ्
=मूँज से;इषीकाम ् इि =सींक की भाँनर्; विार् ् =अपिे से (औि);िािीिार् ्
=ििीि से;धैयण
े =धीिर्ा पूिक
त ; प्रिृहेर् ् =पृथक् किके दे खे;र्म ् =उसी को
;िुक्रम ् अमृर्ं पिद्यार् ् =पििुि अमृर्विरूप समझे;र्म ् िुक्रम ् अमृर्म ् पिद्यार् ्
=(औि) उसीको पििुि अमृर् विरूप समझे।।17।।सिलव्याख्या-----:प्रभु
सबके हृदय मं अंगुष्ठमात्र रूप मं िहर्े है ।कोई उिको दे खर्ार्क िही।जो
साधक है िे दे खे कक जैसे मूज
ँ मं िे िे(नर्िके) पृथक है ,िैसे ही ईश्वि भी
ििीि औि आत्मा से नभन्ि है ।साधक इर्िा ही समझे कक िही अमृर् है , िही
अमृर् है ।।

कठोपनिषद्(2.3.18)मृत्यु प्रोक्ताम ् िनचकेर्ोsथ लब्ध्िा पिद्यामेर्ां योगपिनधम ्


च कृ र्विम ्।ब्रह्मप्राप्तो पििजो s भूकद्वमृत्यु िन्योsसयेिं यो पिदध्यात्ममेि
।।2.3.18।।अन्िय-----:अथ=इस प्रकाि उपदे ि सुििे के
अिन्र्ि;िनचकेर्ः=िनचकेर्ा;मृत्युप्रोक्ताम ् =यमिाज द्वािा िर्लायी हुई;एर्ां=इस
;पिद्याम ् =पिद्या को :च=औि;कृ त्विम ् =समपूण;त योगपिनधम ् =योग की पिनध
को;लब्ध्िा=प्राप्त किके;पिमृत्युः=मृत्यु से िकहर् औि;पििजः =सब प्रकाि के
पिकािं से िून्य होकि पििुि होकि;ब्रह्म प्राप्त: अभूर् ् =ब्रह्म को प्राप्त होगया;
अन्य अपप यः=दस
ू िा भी जो कोई ;अध्यात्मम ् एिम ् पिर् ् =इस अध्यात्म
पिद्या को इसी प्रकाि जाििे िाला है ;एि=िह भी ऐसा ही हो जार्ा है अथातर्
मृत्यु औि निपितकािी होकि ब्रह्म मय हो जार्ा है ।।18।।सिलव्याख्या-------
:यमिाज से िनचकेर्ा िे समपूणत पिद्या औि योग पिनध प्राप्त कि ब्रह्ममय हो
गए।सभी इस मागत से ब्रह्ममय हो सकर्े है ।।र्ृर्ीय िल्ली पूणत-कद्वर्ीय
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अध्यायपूणत ।।कृ ष्णयजुिद
े कठोपनिषद् पूण।त ।िांनर् पाठ।।ॐ सह िाििर्ु।सह
िौ भुिक्तु।सह िीयतम ् कििािहै ।र्ेजस्वििािधीर्मवर्ु ।मा पिकद्वषािहै ।।ॐ
िांनर्: !िांनर्ः! िांनर्ः!!!

दग
ु त नसंह चौहाि
21 hrs ·
आज आपके प्रेम से कठोपनिषद् पूणत हुआ।।

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