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कृ ण : अि तम िदन म

(उप यास)
डॉ. अशोक शमा

रे ड बै बु स
इलाहाबाद
रचनाकार प रचय - डॉ. अशोक शमा

से ल बक ऑफ इि डया से सेवािनव ृ डॉ. अशोक शमा ऐितहािसक और पौरािणक पा को


के म रखकर उप यास िलखने के िलये जाने जाते ह। आपके पवू कािशत दो उप यास ‘सीता
सोचती थ ’ और ‘सीता के जाने के बाद राम’ तुित म त यपरक ि तथा पा -गठन क
िवशेषता के कारण जाने जाते ह, िजसम लेखक डॉ. अशोक शमा सभी पा के साथ समुिचत
याय करने म सफल रहे ह।
‘कृ ण : अि तम िदन म’ के थम सं करण को पाठक से यापक सराहना िमली, तथा इस
पु तक के अं ेजी अनुवाद ‘Krishna – in his last days’ को भी पाठक ने हाथ -हाथ िलया
है। इन चार उप यास के अित र डॉ. अशोक शमा के दो का य सं ह ‘ ी कृ ण शरणम्’ तथा
‘मेरे पंख मेरा आकाश’ भी कािशत ह।
‘कृ ण : अि तम िदन म’ उप यास म भी पा गठन म कृ ण के साथ-साथ अ य सभी पा के
कद के साथ समझौता नह हआ है। साथ ही रोचकता तथा पठनीयता बनी भी बनी रहती है।
थम सं करण क भिू मका

ापर युग म ई र ने अपनी सम त शि य के साथ साधु पु ष के उ ार और आसुरी शि य


के दमन के िलए महाराजा शरू सेन के पु वसुदेव और उनक प नी, राजा देवक क पु ी देवक
के गभ से भगवान ीकृ ण के प म ज म िलया था।
उनके मानव जीवन के अि तम िदन पर िलखने का िवचार मन म आयाए तो लगा िक जब
भगवान कृ ण ने सोचा होगा िक इस मानव शरीर को छोड़ने का समय आ गया है, तब उनके
मन म कैसे भाव आने शु हए और कैसे उ ह ने इस देह से िवदा ली होगी, इसका िच ण आसान
नह होगा। िफर लगा, िलखते समय मन म उनका यान और ि उनक ओर बराबर बनी रहे
तो यह काय आसान हो सकता है।
ब शी का तालाब, लखनऊ म माँ चि का देवी क शि पीठ है, जहाँ भीम के पौ बबरीक ने
तप या क थी। वहाँ से भगवान ीकृ ण का एक छोटा सा िच लाया। उसे अपने िलखने क मेज
के सामने रख िलया। िलखते समय कई बार इतनी अ छी अनुभिू तयाँ मन म आई ं, लगा जैसे िक
म उस कालख ड का ा हो गया हँ। इसे आन द क अनुभिू त कह सकते ह।
लेखन थोड़ा सा आगे बढ़ा तो व ृ दावन म कृ ण का रासलीलाय करना, नान करती गोिपय के
व चुराना, सोलह हजार एक सौ आठ रािनयाँ होना जैसे करण भगव ीता के णेता योगे र
भगवान ीकृ ण के च र से मेल खाते नह लगे।
यह काय थोड़ा सा और आगे बढ़ने पर यह लगने लगा िक ौपदी के पाँच पित होने क बात तथा
धतृ रा , पा डु, िवदुर व कण और पाँच पा डव के ज म के स ब ध म चिलत मा यताएँ
ि य के च र का हनन जैसी ह।
ऐसा लगने लगा िक इन सभी संग का पुनरावलोकन होना चािहए। यह भी लगा िक इन संग
के स ब ध म वयं कृ ण क अपनी ि या रही होगी?
यह पुनरावलोकन इसिलए भी और आव यक लगा िक भारतीय इितहास से यिद राम और कृ ण
को िमथक मानकर िनकाल िदया जाए तो यहाँ भारतवष जैसा कुछ भी शेष नह बचेगा। उनके या
उस समय के महान च र के साथ अभ संग जोड़ना, ऐसे संग को मा यता देना, उ ह सच
िस करने के िलए िकसी भी पु तक का स दभ देना या इसके िलये भि पण ू अथवा दाशिनक
या याय तुत करना, यह सब उन च र क ग रमा पर आघात करता है।
िजस कालख ड के ये संग ह, उस समय का इितहास लेखन मुझे यवि थत और मब नह
लगता। इितहास कथाओं के प म जीिवत रखा जा रहा था, अतः उसम का पिनक और
अतािकक बात का जुड़ना वाभािवक था, और इन बात को जोड़ने वाल ारा इसम अपनी िच
के अनुसार मोड़ देना भी बहत सहज और सरल था।
मने इस पु तक के लेखन म गीता ेस, गोरखपुर क कािशत ‘संि महाभारत’, आधुिनक
कृ ण भ , महान िव ान व सारे िव म ‘हरे कृ ण हरे राम’ के ारा ई र के नाम को
गं◌ुजा रत करने वाले ीमद ए.सी. भि वेदा त वामी भुपाद िवरिचत ‘पण
ू पु षो म भगवान
ी कृ ण’ से स दभ िलये ह। ी कृ ण और उस काल के च र के बारे म पणू ामािणक सारे
त य को एक कर पाना िकसी के िलये भी स भव नह है, िक तु यास तो िकया ही जा
सकता है और वही मने िकया है।
कुछ िव ान कहते ह, महिष यास ने जो महाभारत िलखी उसक िवशालता अक पनीय थी,
िजसे उ ह ने बोला और गणेश जी ने िलखा था। यह भी कहते ह िक महिष यास ने उसम आठ
हजार आठ सौ इतने किठन ोक भी िलखे थे, िजनका अथ समझने म गणेश जी को भी समय
लगता था। उस िवशाल थ को एक जीवन म पढ़ना और समझना स भव नह लगता।
गीता ेस क संि महाभारत भी दो ख ड म और लगभग प ह सौ प ृ म है। महाभारत म
केवल कृ ण और महाभारत से जुड़े च र का वणन ही नह है, अिपतु नल-दमय ती सिहत पता
नह िकतने ही पौरािणक च र का िव ततृ आ यान भी है। इसम स पण ू गीता भी है।
इन पंि य का लेखक ही नह , अिपतु स पण ू िह दू समाज जो भगवान कृ ण म िव ास रखता
है, महिष यास के ित सदैव कृत रहे गा, िज ह ने इसे िलिपब िकया अ यथा शायद ये
स पण ू च र समय के पटल से िमट चुके होते।
महिष यास के बाद काला तर म यास ग ी पर बैठने वाले सभी स त को यास कहने क
पर परा चल पड़ी। वाभािवक है िक यिद उ ह ने इस कथा म अपनी क पना से कुछ भी जोड़ा
होगा तो वह भी महिष यास ारा िलिखत कहा जाने लगा होगा।
इनम से बहत सी कथाय मा ा तक िसमटकर तक से बहत परे चली जाती ह। बहधा धािमक
आ यान म इस कार क कथाय िमलती ह।
मने भगवान कृ ण और महाभारत के मुख ी च र से स बि धत उन कथाओं का तािकक
िव े षण करने का यास िकया है, जो मुझे इन च र पर ध बेनुमा, पण
ू तया कपोल-कि पत
और िकसी िवशेष उ े य को लेकर िलखी और चा रत क हई सी लग ।
कुछ िव ान को मेरा इन कथाओं के तािकक िव े षण का यास थम ि म अनुिचत और
ा पर आघात पहँचाने वाला लग सकता है, िक तु उ ह भी और दूसरे बहत से लोग को भी इस
पु तक को पढ़ने के बाद यह सवथा उिचत और इन च र का कद बढ़ाने वाला अव य लगेगा,
इसी िव ास और उ े य के साथ मने यह पु तक िलखी है।
आज क नई पीढ़ी के पास बड़े -बड़े ाचीन थ को पढ़ने क िच हो भी तो समय नह ह। यह
पु तक उन तक इन पौरािणक च र को तािकक या या के साथ पहँचाने को एक छोटा सा
यास भी है।
हमारे पौरािणक च र को िकतनी ही बार कई ढं ग से तुत िकया गया और समझा गया है,
इसका एक उदाहरण यह है िक बहधा कोई भी अपने प रवार म िकसी क या का नाम ौपदी नह
रखना चाहता; वे भी नह जो लोग उ ह ा से देखने क बात करते ह व उनके पाँच पित होने
को शा -स मत बताते ह।
ौपदी के संग इतनी अिधक बार और इतने अिधक प ृ म महाभारत म आये ह िक ऐसा लगने
लगता है जैसे महाभारत म कृ ण के बाद नायक-नाियका सब कुछ ौपदी ही थ ।
ये संग त य पर आधा रत नह , कपोलकि पत भी ह, यह स देह तब और ढ़ होता है जब
तथाकिथत पितय का ौपदी से संवाद यथा युिधि र- ौपदी संवाद, भीम- ौपदी संवाद, अजुन-
ौपदी संवाद बहत िव तार से और कई-कई प ृ म इस कार िदये जाते ह जैसे इनका वणन
करने वाला कथाकार इन पित-प नी के बीच बैठा सब कुछ सुन और िलख रहा था।
कोई यि अपने आस-पास घट रही घटनाओं का िववरण दे सकता है, िक तु पित प नी के
म य एकांत म होने वाले वातालाप का इतना िवषद वणन इंिगत करता है िक यह घटनाओं का
सटीक िववरण नह वरन् उवर क पनाशीलता का काय है।
यास जी को िद य ि ा थी, िक तु उनके ारा पित-प नी के म य हो रहे वातालाप को
सुनने और उसे िलखने क बात सोचना भी एक अशोभनीय क पना है।
महाभारत के प म जो थ आज उपल ध है वह महिष यास क असली महाभारत - महिष
यास ने ‘जय’ नामक थ िलखा था िजसने काला तर म महाभारत का प ले िलया- का
संि ीकरण, िव तार या िवकृतीकरण कुछ भी हो सकता है।
िकसी अस य बात को भी घुमािफरा कर और िविभ न कहािनय ारा यिद बार-बार कहा जाए तो
वह स य लगने लगती है। यहाँ ौपदी के पाँच पित होने क बात पर इतना अिधक जोर िदया जा
रहा है िक वह िकसी िनयोिजत, सो े य और अस य भावना का कटीकरण लगने लगती है।
मुझे लगता है िक ौपदी के च र को इतना अिधक िव तार देकर और तरह-तरह क कहािनय
का सज ृ न कर उनके पाँच पित िस करने का यास भी इसी का प रणाम है।
राधा, कृ ण, गोिपय या इसी तरह के अ य पौरािणक और धािमक च र के आ यान म मांसल
सौ दय का वणन, भले ही वह जयदेव का गीत-गोिव दम हो या मंच पर तुत देवी-देवताओं का
उपहास करती तरहीन रचनाय, ितभा के िवकृतीकरण का उदाहरण भी ह और रचनाकार के
सोच पर भी िच ह लगाती ह।
इस पु तक को िलखते समय मने बराबर भगवान ीकृ ण को अपने मन म और िच के प म
सामने रखने का यास िकया है और मेरा िव ास है िक उनक ेरणा से ही म यह पु तक िलख
पाया, अतः पु तक म यिद कुछ भी अ छा है तो वह उनका है, और जो कुछ बुरा है वह मेरा है, और
उ ह से मेरी ाथना है िक उनके इस िनमल च र को पढ़ते या पढ़ने के िलये े रत करने वाल
पर उनक अहे तुक कृपा सदैव बनी रहे ।
मने पु तक को उप यास का प देकर कुछ रोचक बनाने और वतमान पीढ़ी के िलए ा
बनाने का और घटनाओं के तािकक िव े षण का यास िकया है।
म समय-समय पर ेरणा के िलए अपने सािह यकार िम और बहत सु दर सुझाव देने के िलए
व र सािह यकार ी िशवनारायण िम , गोसाईगंज, लखनऊ का िवशेष आभारी हँ।
-अशोक शमा
ि तीय सं करण क भिू मका

पु तक का ि तीय सं करण तुत करते समय म अ य त हष का अनुभव कर रहा हँ। िजस


तरह सुधी पाठक ने इसे अपना समथन िदया उसके िलये म सभी का बहत आभारी हँ। यह
सं करण प रविधत तो है ही, साथ ही इसम भगवान कृ ण क ऐितहािसकता के माण तुत
करता हआ प रिश भी है। आपका सहयोग ा होगा, इस िव ास के साथ...
-अशोक शमा
अनु म
1. मिृ तय के उपवन
2. नेह के वर
3. मन छलके
4. पीड़ाएँ जाग तो
5. बात जब चलती ह
6. मिृ तयाँ चुभती ह
7. दुरिभसि धय के प ृ
8. गीत क पंि य के म य
9. राधा : एक योित
10. एक प यह भी
11. नारी िवमश
12. याण से पवू -1
13. याण से पवू -2
14. याण क ओर
प रिश
1 - मिृ तय के उपवन

ा रका के समु तट पर एक िशलाख ड पर कृ ण शा त, अकेले और िवचारम न बैठे थे। कंस के


वध से लेकर वतमान तक का अिधकांश समय यु क भट चढ़ चुका था। अब यु नह थे, तो
िफर बाँसुरी जो बरसाने से राधा जी को ख च लाती थी, िजसे िछपाकर राधा और उनक सिखयाँ
कृ ण से अपनी हर बात मनवा िलया करती थ , क याद हो आई।
कैसे होते थे वे ेम और संगीत से भरे हए पल, जब मान अमत
ृ क वषा होती थी। मा यारह वष
क आयु थी, जब अ ू र जी उ ह मथुरा िलवा ले गये थे। उनका जीवन म दुबारा गोकुल लौटना
नह हो सका। कृ ण ने ि उठाई। सामने देखा, दूर तक अगाध जल ही जल और उसे झुककर
छूता हआ आसमान।
पि म क िदशा लािलमा पण ू क रि मयाँ बहत ल बी दूरी तय कर के आई थ ,
ू हो रही थी। सय
और समु क लहर के साथ उछल-कूद म लगी थ । कुछ समु ी प ी और कुछ छोटी मछिलयाँ
भी इस खेल म शािमल थे। कभी-कभी कोई तेज लहर आती थी और उनके पैर को िभगो जाती
थी। जैसे-जैसे शाम िघर रही थी, लहर का शोर तेज होता जा रहा था।
उनक ि ि ितज के छोर पर थी, पर मन कह और था। गोकुल और व ृ दावन क सुिधय ने
कृ ण को घेर िलया था। सुिधय के उस आकाश म राधा क याद िबजली क तरह क ध गई ं। राधा,
बाँसुरी सुनना भी चाहती थ , िक तु उसे अपने हाथ से छोड़ना भी नह चाहती थ ; माँगने पर
कहती थ ।
‘‘नह , हर समय तु हारे अधर पर चढ़ी रहती है, मुझे बजाने दो, तुम सुनो।’’
वह तकरार, िजसम िमली हार म भी मन म मयरू नाच जाया करते थे। कृ ण ने कमर के व म
दबी बाँसुरी िनकाली, अधर पर रखी और पलक िगरा द । पता नह , िफर बाँसुरी अपने सौभा य
पर इठलाकर वतः बज उठी या उ ह ने बजाई। सुदशन-च जो थान नह पा सका वह बाँसुरी
को िमला। वह उनक तजनी उँ गली तक ही रह गया था, िक तु बाँसुरी अधर पर इठलाती थी।
सहसा एक तेज सी लहर उनके पैर को िभगोने आई और साथ म एक छोटी से मछली भी उनके
पैर को छूते हए िनकल गई। इस पश से उनक ि अपने पैर पर चली गई। उ ह याद आया,
व ृ दावन म वालबाल और गोिपय के म य बाँसुरी बजाते समय वे अपना एक चरण ितरछा रख
लेते थे।
एक बार राधा से उनक अ य सिखय िवशाखा, िच ा, सुदेवी आिद क उपि थित म उनक
अन य लिलता ने कहा था,
‘‘देखो, कृ ण को अपने दय म थान बहत सोच-समझकर ही देना, य िक ये एक बार दय म
वेश कर गये तो इसी तरह चरण ितरछे कर लगे और िपफर िनकलगे नह ।’’
सल ज भाव से राधा ने कहा था,
‘‘मुझे पता है।’’
इस संग के याद आते ही कृ ण के दय म पता नह या हआ, वे उठे और िच तनशील मु ा म
ही समु के िकनारे रे त पर टहलने लगे। समय के फलक पर छूटे उनके अिमट पदिच क भाँित
ही, रे त पर बनने वाले उनके पदिच भी प और गहरे थे।
टहलते-टहलते कृ ण एक बार पुनः उसी िशला पर आकर बैठ गये। शाम गहराने लगी थी। सय ू
क रि मयाँ सागर क गोद म िसमटती जा रही थ । पेड़ से िगरी कुछ पि याँ हवा के साथ उड़
रही थ । उ ह लगा िक कुछ इसी तरह हवा जीवन के पल को भी उड़ा ले जाती है।
िव कमा क योजनानुसार लगभग िछयानबे वगमील े को िलये एक सु ढ़ दीवार से िघरी हई
ा रका का िनमाण पणू हो चुका था। इसम सुिनयोिजत माग, व ृ और अनेक भ य ासाद थे।
सभी घर धन-धा य से प रपण ू थे। िजस इ वाकु वंश म भगवान ीराम का ज म हआ था, उसी
वंश के राजा मा धाता के पु राजा मुचकु द क ोधाि न म कालयवन जलकर भ म हो चुका
था, व जरास ध, महाबली भीम के हाथ म ृ यु को ा हो चुका था। मथुरावािसय के ा रका
थाना तरण एवं उनक सुर ा हे तु एक अभे दुग का िनमाण काय भी परू ा हो चुका था।
उनके मन म िवचार का म थन सा चल रहा था। अपने, धरती पर अवतरण से लेकर अब तक क
सभी घटनाओं पर िवहंगम ि डालते हए उनको लगा िक इस मानव देह को धारण करने के
उनके सारे उ े य पण
ू हो चुके थे, अब इस देह का और उपयोग शेष नह रह गया था। उ ह लगा
िक इसे छोड़कर याण करने का उिचत समय आ चुका है। सहसा मरण हो आया िक पवू ज म
म बािल को छुपकर तीर मारा था, और उसका ऋण चुकाना अभी शेष है।
बािल का ‘जरा’ नामक बहे िलये के प म पुनज म हो चुका था। कृ ण ने िन य िकया, यही
बहे िलया जानवर को धोखे से मारने क अपनी विृ के अनु प ही तीर चलाएगा, और उसी तीर
से घायल होकर वे यह शरीर छोड़ दगे। अपने याण का यह तरीका उ ह मानवोिचत भी लगा और
बािल के ऋण से मु कराने वाला भी।
अपने याण के िन कष पर पहँचने के बाद कृ ण को एक बार पुनः अपना बचपन याद आ गया।
जब वे सुबह उठकर माता यशोदा और बाबा न द के चरण पश करते थे तो आशीष देते हए उन
लोग क िज ा थकती नह थी। माँ उ ह नहला धुलाकर तैयार करत , िफर वे पास के िशव
ू न करके आते तो माँ उ ह म खन, दूध और फल का कलेवा करात ।
मि दर म जाकर पज
उ ह अपने बचपन क शरारत याद आने लग । माँ बहत मेहनत से उनके िलए दूध से दही और
म खन तैयार करती थ और वे चोरी से उसे अपने िम को बाँट देते थे। इस काय म उनसे बहधा
दही या म खन क मटक फूट जाया करती थी। माँ को उनक इस शरारत पर हँसी तो आती ही
थी, वे परे शान भी हो जाया करती थ ।
एक बार जब म खन से भरी मटक फोड़ने के द ड व प माँ ने उ ह ओखल से बाँध िदया तो
कृ ण ने पास-पास लगे अजुन के दो व ृ के बीच ओखल फँसाकर र सी तोड़ने क चे ा क ,
िक तु उनक इस चे ा से अजुन के वे दोन व ृ जड़ से उखड़कर िगर पड़े । माँ यशोदा जानती
थ िक उनका लाल कोई साधारण बालक नह है। कृ ण के इस कृ य पर उ ह हँसी भी आई और
उन पर गव भी हआ।
उस समय वहाँ िकतने तो मोर हआ करते थे। माँ ने पहले तो उ ह डाँटा, िफर एक मोरपंख
उठाकर उनके केश म सजाया, उनके िसर पर हाथ फेरा और माथा चम
ू कर कहा,
‘‘कृ ण, तुम मोर क भाँित ही सदैव स जन के िलए परम् आ ादकारी एवं िवषधारी सप जैसे
दुजन के िलए काल बनकर रहना।’’
तब से माँ का आशीवाद समझकर उ ह ने मोरपंख सदैव अपने म तक के केश म लगाकर
रखा; यह उ ह स जन के क याण और दु के दमन क ेरणा देता रहा। अचानक उनक
ि अपने व पर पड़ी तो माँ यशोदा को लेकर एक और घटना याद आ गई।
बस त-पंचमी का अवसर था और बस त के वागत के िलए न द बाबा ने एक वहृ द आयोजन
िकया था। लगभग सारा गोकुल और आस-पास के गाँव के बहत से प रवार आये हए थे।
सर वती पजू न के प ात सभी ने एक दूसरे को बस त के आगमन क बधाई दी िफर सब
िमलकर मोद मनाने लगे।
आन द और उ लास से भरा हआ, उ सव जैसा वातावरण था। अ ुत य था। गोप ि याँ न ृ य
कर रही थ और गोप पु ष वा -य बजा रहे थे। गोिपयाँ, माता यशोदा को भी इस न ृ य म
भागीदार बनाना चाहती थ , िक तु न द बाबा क उपि थित के कारण माँ ने लजा कर मना कर
िदया। एक गोपी जो माँ क बहत मँुहलगी थी बोली,
‘‘यशोदे, या तु ह बस त के आगमन का हष नह है?’’
छोटे से कृ ण माँ के पास म ही थे। उस समय माँ ने जो उ र िदया था वह उ ह कभी नह भल
ू ा। माँ
ने कहा था,
‘‘तु हारे िलए वष म एक बार ही बस त आता है, िक तु जब से कृ ण आया है, मेरे िलए तो हर
िदन बस त है; इसीिलए तो म उसे हमेशा पीत व पहनाती हँ।’’ िफर माँ ने उ ह गोद म उठाकर
कहा था,
‘‘मेरा बस त तो सदैव मेरी गोद म है।’’
कृ ण बड़े हो गये। गोकुल छूट गया, माँ और न द बाबा भी दूर हो गये, िक तु वे उस घटना को
भलू नह सके। उनक माँ के जीवन म सदैव बस त बना रहे , इसिलए उ ह ने अपने िलए िकसी
और रं ग के व क अपे ा पीले रं ग के व को इतनी अिधक मुखता दी िक उनका नाम ही
पीता बरधारी हो गया।
* * *
समु ी हवा कुछ तेज होने लगी थी और व ृ के प से गुजरती हई कुछ शोर सा कर रही थी।
लहर का शोर भी बढ़ रहा था। कृ ण ने देखा, दूर ि ितज पर सय
ू देवता समु से थोड़े सा ही
ऊपर थे।
कृ ण उठे , पास के व ृ के नीचे खड़े हो गये। अपने पीता बर पर ि डाली। एक पैर ितरछा
रखा, व से मुरली िनकाली, अधर पर रखी, बजानी शु क और ने ब द कर िलए।
आँख म व ृ दावन िसमट आया। कृ ण, मुरली क धुन म खो गये, कुछ समय इसी तरह यतीत
हआ िफर अचानक उ ह लगा िकसी ने उनका हाथ छुआ है।
पश प रिचत सा लगा। ‘राधा’ कहकर उ ह ने आँख खोल दी, देखा, िजस व ृ के नीचे वह खड़े
थे उसी का प ा आकर उनके हाथ पर ठहर गया था। कृ ण हँस पड़े ।

इस तरह से
छू गया कोई
िक जैसे वह नह था,
बस हवा थी और म था
* * *
शाम िघरने लगी थी, सय ू के डूबने
ू समु म लगभग डूब चुका था। कुछ र ाभ िकरण ने ही सय
के थान से ऊपर उठकर रोशनी करने का बीड़ा उठा रखा था।
कृ ण धीरे -धीरे महल क ओर चल पड़े । मन कुछ बोिझल और कह खोया हआ सा था, अधर थोड़े
ितरछे और मु कुराते से। महल म वेश िकया तो अनुचर आये और आदेश क बाट जोहने लगे,
िक तु कृ ण उनका सं ान िलये िबना ही अपने क क ओर बढ़ गये।
ि मणी जो उनक ती ा म थ , व रत गित से उनके पास आई ं, वे िचि तत और अधीर थ ।
कृ ण के चेहरे का गा भीय उ ह परे शान कर गया था। कृ ण बैठे तो ि मणी ने उनके पास
बैठकर उ ह िनहारा, बोल ,
‘‘ या हआ, िकसी सोच म ह या?’’
कृ ण हलके से हँसे। व से बाँसुरी िनकाली, एक ओर रखी, अपने हाथ से ि मणी को सहज
करने के िलए उनका िसर सहलाया, िफर अपने म तक पर आये केश को ठीक िकया और बोले,
‘‘नह ि मणी, ऐसा कुछ भी नह है।’’
‘‘ भु, म आपक सहधिमणी हँ, आपको अ छी तरह से जानती हँ, कुछ तो अव य है।’’
वे िफर हँसे, उनके दोन हाथ अपने हाथ म लेकर उनके चेहरे को िनहारते हए बोले,
‘‘कुछ भी नह है ि मणी, आप यथ ही िचि तत हो रही ह।’’
कृ ण अपना मन खोल नह सके। ि मणी उनके मुख क ओर देखते हए आशंका- त मन
लेकर चुप हो गई ं।

आसमां पर जब पड़ी
यह ि ठहरी
िटक गई
और िफर एहसास
उस सीमा रिहत का
और सीमाओं का अपनी
भर गया मन
* * *
राि के भोजन का समय हो चुका था। ितहारी भोजन के िलये बुलाने आया। कृ ण उठे , भोजन
क क ओर चल पड़े । वहाँ पहँचकर भोजन के िलये आसन हण िकया तो ि मणी ने वयं
उनका भोजन लगाया और बगल म बैठ गई ं। कृ ण ने उनसे अपने िलये भी भोजन लगाने को
कहा तो उ ह ने धीरे से कहा,
‘‘आप पहले भोजन कर ल, िफर म कर लँग
ू ी।’’
कृ ण ने चुपचाप थोड़ा सा भोजन िकया, िजतनी देर वे भोजन करते रहे ि मणी उनका मुख
िनहारती रह । उनक ि अपनेपन और स तोष से भरी हई थी। उनके भोजन समा करने पर
कुछ भोजन साम ी उनके पा म शेष भी रह गयी थी। ि मणी उ ह पा म अपने िलए भी
भोजन िनकालने लग तो कृ ण ने टोका,
‘‘अरे ! आप व छ पा म य नह भोजन लेत ? आपको मेरे साथ-साथ अपना यान भी तो
रखना चािहए।’’
‘‘ भु, मुझे अपना परू ा यान है और इन पा म भोजन करना मेरा अिधकार भी है, सौभा य भी।’’
कृ ण उठने का उप म कर रहे थे, िक तु ि मणी क बात सुनकर हँसते हए िफर उनके पास
बैठ गये, बोले,
‘‘तुम भी भोजन समा कर लो, हम साथ-साथ ही उठगे,’’ िफर कुछ ककर बोले,
‘‘तुम बहत अ छी हो ि मणी, तुम जैसी प नी पाना बहत बड़ा सौभा य है।’’
ि मणी कुछ बोल नह सक । वे कृ ण के गा भीय और िचि तत मु ा से परे शान थ । आज
उ ह ने भोजन भी नाम मा के िलए ही िकया था, इसने भी ि मणी क यथा को बढ़ा िदया था।
अब इस अनुरागपण ू यवहार ने उनक आँख म अ ु भर िदये। िकसी तरह दो चार कौर खाकर
उ ह ने अपने हाथ धो िलये।
कृ ण ने उनक यथा समझी। उनक आँख के आँसू प छे , हाथ पकड़कर उ ह उठाया और महल
से लगे हए उ ान म आ गये। चार ओर कई व ृ और पौधे, धीरे -धीरे बहती, बेला और रात क
रानी के फूल क ग ध से भरी हई हवा, ऊपर व छ आसमान म च मा और दूर तक िछटके हए
तारे ... कृ ण ने एक ऊँचे थान पर ि मणी को िबठाया और िफर वयं भी उनके पा म बैठ
गये।
उनका एक पैर भिू म पर और दूसरा पैर इसी के ऊपर िटका हआ था। ि मणी क ि उनके पैर
पर िटक गई। पीला अधोव , नीलाभ चरण, गुलाबी तलवे, यह हलका गुलाबीपन तलव के
िकनार से थोड़ा ऊपर तक था। पैर के नाखन ू भी गुलाबी थे। उन पर ि िटकाये ि मणी का
मन भावुक हो गया। वे मन ही मन ाथना करने लग ,
‘‘हे ई र, ये चरण सदैव मेरे साथ रह, कभी न छूट।’’
उ ह लगने लगा िक वे इन चरण के वामी से एकाकार हो रही ह। अपने अि त व का भान कह
खो चुका था।

आसमां पर जब पड़ी
यह ि ठहरी
खो गई ं साँस हवा म
और िफर सागर म िगरती बँदू जैसा,
िमट गया एहसास अपना
कृ ण कुछ देर तक ऊपर च मा को िनहारते रहे , िफर ि मणी क ओर देखा और उनके हाथ
पर अपना हाथ रख िदया। ि पुनः ऊ वमुखी हो गई, और मन िफर सुिधय म खो गया।

* * *
ा रका मे कृ ण का दरबार लगा हआ था। तभी एक अनुचर ने सच
ू ना दी िक िवदभ से आया हआ
एक ा ण उनसे भट करना चाहता है। िवदभ पर महाराज भी मक का शासन था। वह एक बड़ा
और सम ृ रा य था।
‘‘ या वह महाराज भी मक का दूत है, कृ ण ने पछ
ू ा।
‘‘नह महाराज, वह रा य का दूत नह है, वह तो िकसी यि गत कारण से आपके दशन क
इ छा रखता है।’’ अनुचर ने कहा।
‘‘उसे सादर ले आओ।’’
वह यि आया और कृ ण को णाम कर खड़ा हो गया।
‘‘अपने आने का योजन कह िव ।’’
‘‘म िकसी का प लाया हँ।’’ उसने अपने व से प िनकालते हए कहा।
‘‘यह एक गु प है; प देने वाले ने अपना नाम सावजिनक न करने का अनुरोध िकया है,
साथ ही यह भी अनुरोध िकया है िक इसे केवल आप ही पढ़।’’
कृ ण ने प ले िलया। यह िवदभ क राजकुमारी ि मणी का प था। भी मक के छह स तान
थी। मी, मरथ, मबाह, मेश और लमाली नाम के पाँच पु और छठी सबसे छोटी
स तान ि मणी।
ि मणी बहत ही सु दर, बुि मान और सबसे छोटी होने के कारण महाराज भी मक क बहत
लाडली पु ी थी। उसक सु दरता के कारण उसका एक नाम िचरनयना भी पड़ गया था।
ि मणी िववाह यो य हो चुक थी। महाराज भी मक के दरबार म अनेक साध,ू स त और
मेहमान आया करते थे, और बहधा कृ ण के बारे म भी चचाय हआ करती थ । उन चचाओं म
कृ ण के बारे म सुन-सुनकर ि मणी उनसे बहत अिधक भािवत हो चुक थी और उसके मन
म कृ ण से िववाह करने क इ छा भी जा त हो चुक थी, िक तु उनका बड़ा भाई मी दुबुि
था, और अपने िम और कुिटल बिृ के वामी िशशुपाल से उसका िववाह करना चाहता था।
िशशुपाल, राजा दमघोष का पु था। दमघोष अपने नाम के अनु प ही जा का दमन करने के
िलये जाना जाता था। वयं िशशुपाल, कृ ण क चार ओर फै ली क ित के कारण उनसे ई या और
श ुता का भाव रखता था।
वयं महाराज भी मक, ि मणी के िशशुपाल से िववाह के प म नह थे, कृ ण क याित से
भािवत वे ि मणी का िववाह उ ह से करना चाहते थे, िक तु मी उनका सबसे बड़ा पु
था, इस कारण रा य का उŸारािधकारी तो था ही, कृित से उद ड भी बहत था। भी मक,
व ृ ाव था क ओर अ सर थे। वे जवान और उद ड बेटे से अलगकर गहृ - लेश को िनमं ण नह
देना चाहते थे, अतः भी मक बहत बेमन से ि मणी के िशशुपाल से िववाह के िलये सहमत हो
गये थे।
जब तक महाराज भी मक इस िववाह के िलये सहमत नह थे, तब तक ि मणी को आशा थी
िक वह िशशुपाल से िववाह करने से बच जा पायेगी, िक तु उनके भी सहमित देने के बाद
ि मणी बहत िनराश हो गयी।
वह अपने क म बैठकर इस मुसीबत से िनकलने का उपाय सोचने लगी। बहत सोचने के बाद
उसे लगा िक िकसी तरह का कृ ण तक अपने स देश पहँचा सके तो संभवतः वह बच सकती है।
यह िवचार आने के बाद उसने अपनी एक चतुर और घिन सखी इड़ा को बुलवाया। दोन
सहे िलयाँ िसर जोड़कर बैठ और उ ह ने कृ ण को एक प भेजने का िन य िकया।
ि मणी ने कृ ण को स बोिधत करते हए एक प िलखा, िजसे उसक सहे ली इड़ा ने अपने
िपता के िव ान और िव सनीय िम को िदया ,साथ ही पया धनरािश भी दी, िजससे वह
ा रका तुक पहँचने के िलये एक ती गामी रथ का ब ध कर सके।
वही प कृ ण तक पहँचा था। कृ ण ने उसे एका त म ले जाकर पढ़ा। प म ि मणी ने उनसे
वयं को िशशुपाल से बचाने और शी ाितशी िवदभ पहँचकर अपना अपहरण करने क ाथना
क थी।
कृ ण ने प पढ़ने के बाद पहला िनणय तो यह िलया िक अपने शी आने का आ ासन देकर
उस संदेशवाहक को ती गित वाले रथ पर िबठाकर वापस िवदभ के िलये थान करा िदया।
इसके बाद वे अपने बड़े भाई बलराम के पास गये।
‘‘भइया! ’’ कृ ण ने बलराम को स बोिधत िकया।
‘हँ।’
‘‘िवदभ से प आया है।’’
‘‘भी मक का ?’’
‘‘नह , उनक पु ी ि मणी का।’’
‘‘ या िलखा है ?’’
‘‘वे लोग उसका िववाह िशशुपाल से करना चाहते ह, और ि मणी यह नह चाहती है।
‘िफर?’
‘‘ वह चाहती है िक म उसका अपहरण कर लँ।ू ’’
यह सुनकर बलराम जोर से हँसे, बोले,
‘‘तुम भी कृ ण...।’’
‘‘ या हआ?’’
वैसे तो म िकसी के भी अपहरण के िव हँ िक तु अपह रत होने वाला वयं ही इसक ाथना
कर रहा हो तो यह भी ठीक ही है।
‘‘म अितशी िवदभ के िलये िनकलना चाहता हँ, देर करने से बहत देर हो सकती है।’’
‘अकेले?’
‘‘हाँ, यह मेरा यि गत काय ही तो है।’’
‘‘सेना लेकर जाओ, वहाँ यु अव य होगा।’’
‘‘उसक मुझे िच ता नह है।’’
‘‘िक तु मुझे है।’’
‘‘सेना के साथ जाने म देर लगेगी, वह गित नह आयेगी।’’
‘‘हाँ...’’ बलराम ने कहा, ‘‘यह तो है।’’ कुछ सोचकर वे बोले,
‘‘ऐसा करो, तुम जाओ; म भी तुर त ही पीछे से सेना लेकर आता हँ।’’
‘‘ठीक है।’’
कृ ण के रथ के िलये ह रतवण अ शै य, धस
ू र वण के अ सु ीव, मेघवण के अ मेघपु प
और भ म के रं ग के अ बलाहक का चुनाव हआ, और इसे ग ड़ के िच वाली वजा से
सुसि जत िकया गया।
सारथी दा क के साथ कृ ण के थान के तुर त बाद ही बलराम भी सेना सिहत चल पड़े ।
उधर िवदभ म ि मणी बहत अिधक याकुल हो रही थी। उसके िववाह म मा एक िदन शेष रह
गया था, िक तु अभी तक न दूत बनकर गया हआ ा ण आया था, और न ही कृ ण क ओर से
िकसी कार का कोई समाचार िमला था। वे मन ही मन ई र क तुित करने लग , िक तु जैसे-
जैसे समय यतीत हो जा रहा था ि मणी क याकुलता बढ़ती जा रही थी।
तुितयाँ करते-करते वे रोने लग । तभी उनक सखी इड़ा आ गयी। उसने ि मणी को रोते देखा
तो शी ता से उनके हाथ पकड़कर उसे खड़ा िकया और वयं नाचते हए चंचलता से बोली,
‘‘रो य रही है? नाच।’’
ि मणी ने वाचक ि से उसक ओर देखकर पछ
ू ा,
‘‘ या हआ? ई र ने मेरी ाथना सुन ली या?’’
‘‘म कह रही हँ न, अपने आँसू प छ और नाच।’’
‘‘कुछ कहे गी भी, या नाच-नाच ही करती रहे गी।’’
‘‘जो यि तेरा प लेकर गये थे, वे ीकृ ण का स देश लेकर वापस आ गये ह।’’
‘‘वे या स देश लाये ह।’’
तू बहत करती है, मने कहा न नाच।’’
‘‘नाचने यो य हआ तो नाच भी लँग
ू ी, पर तू परू ी बात तो बता।’’
‘‘ ीकृ ण शी ही यहाँ पहँचते ह गे।
‘ओह!’ ि मणी ने सीने पर हाथ रखकर स तोष क साँस ली, और इड़ा ने उसे पकड़कर
जबरद ती नचा डाला।
* * *
भोर होते-होते कृ ण िवदभ पहँच गये। उ ह ने राि म भी अपनी या ा रोक नह थी। महाराज
भी मक उनके आगमन से बहत स न हए, उ ह ने वयं आगे बढ़कर कृ ण का वागत िकया।
‘‘आप आये, मेरा अहोभा य, िवदभ पिव हआ; बलराम नह आये, मुझे उनके दशन क भी बड़ी
लालसा थी। ’’ भी मक ने कहा।
‘‘इस शुभ अवसर पर आपका आशीवाद लेने आना तो था ही; भइया को कुछ काय था, उसे
िनपटाकर वे भी आ ही रहे ह गे।’’ कृ ण ने कहा।
भी मक चाहते थे कृ ण का स मान करने म मी भी उनका साथ दे, िक तु उसके वभाव से
प रिचत होने के कारण उ ह यह भी लग रहा था िक कह उद ड मी कुछ उलटा सीधा न बोल
दे, अतः उ ह ने उसको साथ न लेना ही उिचत समझा।
सच तो यह है िक मी को कृ ण का आगमन अ छा नह लगा था। वह भीतर ही भीतर बहत
कुढ़ भी गया था और आशंिकत था, अतः भी मक के वहाँ से हटते ही उसने कृ ण को सुनाकर
कहा,
‘‘समय िनकालकर, िबना बुलाये अितिथय का भी उिचत स कार िकया जायेगा।’’
कृ ण ने इसका कोई उ र नह िदया। वे केवल मु कुराकर रह गये।
िशशुपाल क बारात लेकर राजा दमघोष आने ही वाले थे, अतः मी उधर य त हो गया। बहत
से दूसरे रा य के राजाओं और गणमा य अितिथय का आगमन लगातार हो रहा था। थोड़ा सा
िदन चढ़ते-चढ़ते दमघोष बारात लेकर आ गये। मी ने िपता और भाइय सिहत आगे बढ़कर
उनका वागत िकया।
बारात के आने के समाचार के साथ ही महल के अ दर भी हलचल बढ़ गय । ि मणी को िववाह
के िनिम सजाया जाने लगा। महल क कुछ ि य ने िववाह से पवू ि मणी को महल से कुछ
दूरी पर ि थत देिवय के एक मि दर म ले जाकर उनका पज
ू न कराने क सलाह दी।
ि मणी को कृ ण के आने का समाचार िमल चुका था। अब ि य के इस ताव को सुनकर
उ ह बहत स नता हई। उ ह लगा िक ई र उनक सहायता कर रहा है।
इस तरह वे मि दर म कृ ण को पाने क अपनी मनोकामना परू ी करने क ाथना तो कर ही
सकगी, साथ ही महल के बाहर क भीड़ और उसके म य से कृ ण् के ारा अपने हरण क
स भावनाओं का आकलन भी कर सकगी। यह भी स भव है िक इसी बहाने माग म उ ह कुछ
पल के िलये ही सही, कृ ण िदखाई पड़ जाय।
ि मणी ने इड़ा से अपने मन क बात साझा क । उसने कहा।
‘‘एक स भावना और भी तो है ि मणी।’’
‘ या?’
‘‘हो सकता ह, कृ ण मि दर के माग म ही तु हारा अपहरण कर ल।’’
‘‘इड़ा, यिद ऐसा हो गया तो.....’’
‘तो?’
‘‘तो म तुझे मँुह माँगी व तु दँूगी....।’’
‘‘रहने दो, इसके बाद तुम कृ ण क रानी बनी हई ा रका म होगी और म यहाँ िवदभ म; िक तु
तुम स न रहो यही मेरा सबसे बड़ा पुर कार होगा।

* * *
सिखय ारा अ य त मू यवान आभषू ण और सु दर व से सजाई गयी ि मणी, उनके साथ
रथ म सवार होकर मि दर के िलये िनकली तो राजपु ष क भारी भीड़ म सारे रा ते उनक
ि कृ ण को ढूँढ़ती रही, पर वे कह नह िदखे।
राजपु ष के साथ-साथ सश सैिनक क सं या भी बहत अिधक थी। ि मणी का मन आशा
और िनराशा के बीच झल
ू ने लगा। ‘पता नह मेरे भा य म या िलखा है?’ सोचते हए उ ह ने
मि दर म वेश िकया।
ू ा करने के उपरा त वे उनके स मुख ने ब दकर और हाथ जोड़कर
दुगा जी क िविधवत् पज
खड़ी हो गय , और मन ही मन उनसे सहायता का ाथना करने लग ।
ाथना समा कर वे मि दर के ार पर आय । मि दर, भिू म से कुछ ऊँचाई पर बना था। सीिढ़य
तक पहँचकर उ ह ने एक बार पुनः चार ओर ि डाली, और अचानक उनक ि ग ड़ के
िच वाली वजा फहराते हए एक रथ पर पड़ी।
‘कह यह रथ कृ ण का तो नह ?’ उनके मन म आया और िफर वे धीरे -धीरे मि दर क सीिढ़याँ
उतरने लगी।
ि मणी, सीिढ़याँ उतरकर मि दर के ांगण से बाहर आयी ही थ िक अचानक वह रथ, िबजली
जैसी फुत के साथ उनके पा म आ पहँचा।
ि मणी ने च ककर देखा, और य िप उ ह ने कृ ण के बारे म केवल सुना ही था, उ ह देखा
कभी नह था, िफर भी पहचानने म कोई गलती नह क । कृ ण ही थे। वे खड़े हए थे और उनका
एक हाथ ि मणी क ओर बढ़ा हआ था।
वे थोड़ा झुके और ि मणी ने िबना देर िकये उनका हाथ थाम िलया। कृ ण ने उ ह रथ पर चढ़ा
िलया, और िफर जब तक लोग कुछ समझ पाते, रथ भीड़ को चीरता हआ बाहर िनकलकर
ा रका क ओर दौड़ पड़ा।
िशशुपाल और भाइय सिहत मी ने सेना के साथ रथ का पीछा िकया, तब तक बलराम भी
अपनी सेना लेकर वहाँ पहँच चुके थे। उ ह ने मोचा सँभाल िदया। दोन सेनाओं म यु होने लगा।
बलराम का यास था िक मी क सेना वह अटककर रह जाये, कृ ण के पीछे न जा सके।
मी ने इसे समझा और सेना वह लड़ता छोड़कर िशशुपाल को साथ लेकर कृ ण का पीछा
करने लगा। कृ ण जहाँ तक हो सके र -रं िजत यु से बचना चाहते थे, िक तु जब मी ने
उ ह ललकारते हए कहा,
‘‘कहाँ भागता है कायर? ठहर, तो कृ ण ने सारथी दा क से रथ रोकने को कहा। इसके बाद
एक ओर कृ ण और दूसरी ओर िशशुपाल और मी। दोन ओर से बाण क वषा हो रही थी।
कृ ण का िनशाना बहत सधा हआ था, और उनके बाण म बहत अिधक शि थी। िशशुपाल ने
कुछ देर के यु ़ के बाद ही जान िलया िक िवजय अस भव है। उसने अपनी जान बचाना ही
ेय कर समझकर अपना रथ वापस मोड़ िलया, िक तु मी कृ ण से जझ ू ता रहा।
कुछ देर के यु के बाद ही कृ ण ने उसके सारे श अपने तीर से काट डाले। तब मी
िनह था ही कृ ण क ओर दौड़ा । कृ ण उसके इस यास पर हँसे। रथ के नीचे उतरे और मी
के पास आते ही उसे ध का देकर भिू म पर िगरा िदया। उसके भिू म पर िगरते ही कृ ण ने उसके
सीने पर पैर रखकर दबा िदया।
मी पीड़ा से कराह उठा। कृ ण ने तलवार से उसका िसर काटने का िनणय िलय, तभी
ि मणी, जो इस सारे का ड को सहमी हई देख रही थी, रथ से उतरकर दौड़ती उनके पास
आयी और हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी।
‘ मा।’ ि मणी ने कृ ण क ओर देखकर रोते हए कहा। कृ ण ने तलवार वापस यान म रखी
और मी के सीने से पैर हटाकर उसे मु कर िदया।
घायल और अ यिधक लि जत मी उठा और चुपचाप रथ पर बैठकर वापस हो गयी। मी ने
इसको अपनी ित ा का बना िलया था। उसने िन य िकया था िक यिद वह ि मणी को
कृ ण से छुड़ा नह सकेगा तो अपने रा य िवदभ क राजधानी कुि डन नह लौटेगा, अतः वह
वापस कुि डन नह गया। भोजकट नामक एक ाम म ही छोटा सा घर बनाकर रहने लगा।
काला तर म अित अहंकार, दु विृ और एक समारोह म कृ ण को लगातार बहत अिधक
अपश द करने के कारण िशशुपाल, कृ ण के ारा मारा गया।
उधर मी और िशशुपाल के हटते ही उनक सेना का मनोबल भी टूट गया था, अतः उ ह ने
लड़ना ब द कर िदया, इस पर बलराम भी अपनी सेना सिहत वापस हो िलये, और इस कार एक
भयंकर र पात टल गया।

* * *
मी जब कृ ण से परािजत होकर वापस हआ तो कृ ण कुछ पल तक उसे वापस जाते देखते
रहे , और जब उसका रथ दूर चला गया तब उ ह ने ि मणी क ओर देखा। वे रो रही थ । कृ ण ने
उनक पीठ पर हाथ रखकर उ ह धीरज देने का यास िकया।
‘‘सारे र पात का कारण म हँ।’’ ि मणी ने रोते हए कहा।
‘‘ऐसा मत सोचो ि मणी, थोड़ा बहत यह सब तो होना ही था, िक तु िवशेष बात यह है िक इस
यु म िकसी क म ृ यु नह हई है।
कृ ण के श द से ि मणी क यथा थोड़ी कम हई। मी से कृ ण के समय वे भी रथ से
उतरकर खड़ी हो गयी थ । कृ ण उ ह लेकर रथ तक आये, उ ह रथ म िबठाया, वयं बैठे और
सारथी दा क ने रथ, पुनः ा रका क ओर दौड़ा िदया।
ि मणी के मन म बहत से चल रहे थे। बहत शा त और खोई-खोई सी बैठी थ । ि मणी
क िहचिकयाँ अभी भी थमी नह थ । कृ ण से ि मणी क मनोदशा िछपी नह रह सक ।
‘‘बहत परे शान हो, या सोच रही हो ि मणी?’’ कृ ण ने पछ
ू ा?
‘‘ मी पता नह िकस ि थित म होगा? उसके घाव पता नह िकतने गहरे ह गे?
‘‘मने अपने बाण से उसके अ -श ही काटे थे, उसक देह को ल यकर कोई भी हार नह
िकया था, अतः कुछ साधारण चोट तो हो सकती ह, िक तु उसक देह पर कोई घाव नह होगा।’’
‘‘और मन पर?’’
‘‘ मी के मन पर?’’ कृ ण ने हँसकर बहत धीरे से वयं से कहा, िफर ि मणी के ओर
देखकर बोले,
‘‘तुम िकतनी सरल हो ि मणी, िजसने कभी तु हारे और यहाँ तक िक अपने िपता के मन क
कभी िच ता नह क , तुम उसके मन क िच ता म याकुल हो; िक तु िजतना मेरा अनुभव है,
उससे म कह सकता हँ, िक तुम सुखी और स तु रह तो उसके मन पर लगी चोट भी शी ही
भर जायगी।’’
कृ ण क बात से ि मणी को कुछ शाि त तो िमली, िक तु उनक उदासी गयी नह । वे आकाश
क ओर देखती चुपचाप ही बैठी थ । कृ ण ने िफर कहा,
‘‘तुम अभी भी िचि तत हो? या सोच रही हो?’’
‘ ‘‘मेरे प रजन मेरे इस तरह चले आने पर पता नह या अनुभव कर रहे ह गे?’’
‘‘हम ि य म इस तरह के िववाह होते ही रहते ह, इसम कुछ भी असामा य नह है, और जहाँ
तक म समझता हँ, तु हारे िपता व अ य प रजन इस िववाह से स न ही ह गे; िजतना समय
मने तु हारे यहाँ िबताया है, उतनी देर म मने जो अनुमान लगाया है, उसके अनुसार मी को
छोड़कर कोई भी तु हारे और िशशुपाल के िववाह के प म नह था।’’
‘‘और आपके माता-िपता या मुझे देखकर स न ह गे?’’
ि मणी के इस पर कृ ण खुलकर हँसे।
‘‘यह तुम वहाँ पहँचकर वयं देख लेना, और िफर मेरे बड़े भाई बलराम वयं सेना लेकर हमारी
र ा के िलये आये हए ह, यह उनक पणू सहमित का ही तीक तो है।’’ उ ह ने कहा।
कृ ण के इस उ र से ि मणी धीरे -धीरे कुछ देर बाद सामा य हो गय । उ ह ने कभी इतनी
ल बी या ा नह क थी, इस कारण कुछ देर बाद उ ह बहत थकान लगने लगी। मन पहले से ही
अशा त था।
कृ ण ने ि मणी का थकान से भरा और मुरझाया सा मुख देखकर माग म एक सरोवर के पास
रथ कवाया। दोन ने सरोवर के पानी से पैर, हाथ और मँुह धोये, कुछ फल िलये; तब तक
बलराम भी सेना सिहत वह आ गये। थोड़े िव ाम के बाद सभी ने या ा पुनः ार भ क ।
ि मणी बहत कुछ सामा य हो चुक थ । उ ह यह या ा बहत अ छी लग रही थी, और वे
लगातार कृ ण से माग म आने वाले नगर , महल और वन के बारे म पछ
ू ती जा रही थ ।
रथ ने जब ा रका म वेश िकया तो उ ह ने देखा िक उनके वागत म ा रका को बहत अिधक
सजाया गया था। महल तक जाने वाले माग के दोन ओर केले और सुपारी के व ृ क स जा थी
और थान- थान पर तरह-तरह से िचि त, जल से भरे हए कलश रखे हए थे। उ चकोिट क धपू
क सुग ध थी, और सारे माग पर जल का िछड़काव हो रहा था।
महल आया तो वयं देवक और वसुदेव, अ य सभी प रजन के साथ उनके वागत के िलये खड़े
थे। रथ के िदखाई पड़ते ही ि य ने मंगलगान गाने ार भ कर िदये। देवक , रथ के पास आय ।
ि मणी के पास आकर उ ह रथ से उतारा और सीने से लगा िलया। ि मणी के मन के सारे
िमट गये।
कृ ण और ि मणी के िववाह क ितिथ िनधा रत हई। धतृ रा , पाँच पा डव और व ृ दावन को
िनमं ण भेजे गये। ि मणी के िपता महाराज भी मक को मनाकर लाने का भार बलराम ने वयं
अपने ऊपर िलया और वे इसम सफल भी रहे । व ृ दावन से यशोदा, न द, और राधा के माता-िपता,
क ितदा और वषृ भानु को िवशेष प से िनमंि त िकया गया।
(प पुराण म उ लेख है िक न द व अ य गोप इस िववाह म सि मिलत हए थे)
ू धाम से हआ। ि मणी के अपहरण से लेकर िववाह तक क कथा को का य के प म
िववाह धम
िलखा गया और थान- थान पर उसका गायन िकया गया।
िववाह के उपरा त ि मणी ने देवक और वसुदेव क छोटी से छोटी आव यकताओं, उनके सुख-
दुःख का यान रखने म कोई कसर नह छोड़ी।

* * *
समय के साथ मी के मन म अपना ोध शा त हो गया। उसने ि मणी और कृ ण के िववाह
को वीकार कर िलया। महाभारत का यु जब ार भ होने वाला था, तब चँिू क कृ ण पा डव क
ओर थे, अतः वह पा डव क सहायता करने के उ े य से कृ ण के पास गया।
‘‘कृ ण, चँिू क तुम पा डव क ओर हो, अतः मै भी पा डव क सहायता करना चाहता हँ, ‘‘उसने
कहा।
‘‘म तु हारे इस िवचार क सराहना करता हँ, मी, िक तु यिद तुम पा डव क इस यु म
सहायता करना चाहते हो तो तु ह युिधि र से कहना पड़े गा, य िक कौन इस यु म पा डव
क ओर से यु करे गा, यह िनणय करने का अिधकार तो केवल युिधि र के पास ही है।’’
मी को कृ ण क यह बात अ छी नह लगी िक तु वह युिधि र से िमलने गया।
‘‘युिधि र, कौरव के िव इस यु म मेरा बहनोई कृ ण तो तु हारे साथ है ही, म भी तु हारी
सहायता करना चाहता हँ, म तु हारी ओर से यु क ँ गा; कौरव को उनके अ यायपण ू आचरण
क सजा िमलनी ही चािहये।’’
युिधि र को मी के बात करने के तरीके म घम ड क अनुभिू त हई। वे कृ ण को आदेश देने
क बात तो सोच भी नह सकते थे, िक तु इस यु म उनके अित र युिधि र िकसी भी ऐसे
यि को नह चाहते थे, िजसे उनसे आदेश लेने म आपि हो; इससे यु का नेत ृ व करने म
किठनाई होती, अतः उ ह ने बहत िवन ता से कहा,
‘‘म आपके इस ताव के िलये दय से आपका आभारी हँ, िक तु इतने छोटे से काय के िलये
आपको क देना मुझे उिचत नह लग रहा है।’’
युिधि र क इस बात से मी ने अपने को अपमािनत अनुभव िकया, और वह यही ताव
लेकर दुय धन के पास चला गया। दुय धन अ यिधक घम ड से भरा हआ था, मी क बात
सुनकर वह जोर से हँसा।
‘‘पा डव को मसलने के िलये मेरा कण अकेले ही बहत है, मुझे कृ ण के िकसी स ब धी क
सहायता नह चािहये।’’
मी उसक इस घम डपण
ू बात सुनकर बहत ही हताश होकर वापस लौट गया।

* * *
कृ ण के िवचार का वाह टूटा तो उ ह ने देखा ि मणी अभी भी उनके चरण पर अपनी ि
गड़ाये बैठी थ । कृ ण ने पुकारा,
‘ ि मणी!’
ि मणी ने ऊपर देखा। उनके अधर पर फ क मु कान थी। कृ ण ने िफर कहा,
‘‘ ि मणी, िकतना समय हो गया हम इस कार बैठे हए?’’
‘‘ भु, लगभग एक हर राि यतीत हो चुक है; देख रहे ह यह िन त धता... िक तु आप कह
खोये हए य ह? आपका मुख बता रहा है िक आप के मन म कुछ चल अव य रहा है; मुझे लग
रहा है िक म इतना जीवन आपके साथ िबताने के बाद भी आपके मन तक नह पहँच पाई हँ।’’
‘‘नह ि मणी, ऐसा नह है िक आप मेरे मन से कह दूर ह, िक तु मन आज कुछ पुरानी याद
म िघरा हआ अव य है; मुझे लग रहा है िक मुझ सा अभागा पु कौन होगा, िजसके ज म क
आशंका मा से उसके माता-िपता को िववाह के तुर त बाद कठोर कारावास म िन कर िदया
गया हो।
मेरे ज म के प ात भी वे तब तक ब दी ही रहे जब तक मं◌ै कंस को मारकर उ ह छुड़ाने यो य
नह हो गया। मा मेरे कारण उ ह अपनी परू ी युवाव था ब दीगहृ म ही गुजारनी पड़ी।’’
‘‘िक तु इसम आपका दोष कहाँ पर है? िविध का िवधान भी तो कुछ होता होगा, और िफर कंस
जैसे दुजन लोग, स जन को तािड़त करने का कुछ न कुछ बहाना ढूँढ़ ही लेते ह; आपने तो
िकशोर होते ही कंस को मारकर उ ह ब धन-मु कराया, आज वे एक भ य ासाद म अनुचर
समेत आन दपवू क रहते ह, यह भी तो आपने ही िकया है।’’ कहकर वे चुप हो गय । थोड़ी देर
बाद जैसे कुछ अचानक याद आ गया हो ऐसे भाव से बोल
‘‘कह आपको ऐसा तो नह लग रहा िक म उनक सुख सुिवधाओं का उिचत यान नह रखती
हँ?’’
‘‘नह ि मणी, उलटा वे तो तु हारी शंसा करते कभी नह थकते; जब से तुम इस महल म आई
हो, उ ह ने शायद कभी भी अकेलापन महसस ू नह िकया होगा, िक तु उ ह ने जो खोया है
उसके बारे म सोचकर मेरा मन कभी कभी अपराधबोध से भर उठता है।
िजन िदन क यि को ती ा रहती है, और बाद म भी िजन िदन क याद मन को गुदगुदा
जाती ह, वे सारे िदन उ ह ने कंस के ब दीगहृ म यातनाय सहते हए गुजारे ; और इसका एकमा
कारण म था। माता यशोदा और बाबा न द ने मुझे िकतने यार से पाल-पोसकर बड़ा िकया होगा;
मेरी शरारत भी उनके िलये परम आन द का कारक बनती थ , िक तु म उनके िलये भी कुछ
नह कर सका, मथुरा आने के बाद गोकुल लौटना ही नह हआ।’’
इतना कहकर कृ ण चुप हो गये और िफर ने ब द करके बैठ गये। ि मणी ने उनके ला त
मुख को देखा। उनका चौड़ा माथा, नीले कमल के समान ने , कुछ कहते से लगते अधर देखे
और लाल गुलाब क पंखुिड़य जैसी अपनी मदृ ु हथेली उनके माथे पर रखकर केश को सँवारते
हए बोल ,
‘‘ भु, आपके मनोभाव को म समझती हँ, पर कंस ने आपके माता-िपता को आपके कारण नह ,
आकाशवाणी सुनकर अपनी म ृ यु के भय से जेल म िन िकया था... जब आप संसार म आये
भी नह थे, उस समय क घटनाओं के िलए आपके मन म अपराध-बोध य ? और िफर आपके
जैसे पु को पाने से बड़ा सौभा य इस संसार म और या हो सकता है?
आपके पालक माता-िपता, माँ यशोदा और बाबा न द ने आपके जैसे बालक के माता-िपता होने
का जो सौभा य पाया, आपका बचपन देखा, वह सुख छोटा नह , संसार के सभी तरह के पु य
के सम फल से भी कह अिधक होगा; िफर भी यिद आपको लगता है िक आपके ारा उनक
उपे ा हई है, तो यह संसार के िलये दूसरे क याणकारी काया म िल रहने के कारण थी... इस
सारे घटना म म कह भी आपका वाथ नह था, िफर आप दुखी य ह?’’
ि मणी क बात से कृ ण भािवत ही नह हए, उनक बेचन ै ी भी कम हई। उ ह ने उनके मुख
क ओर देखा। अपवू ि योिचत सौ दय से इतर, एक महान िवदुषी के ओज और दैवीय आभा से
मि डत उनका मुख, राि म च मा के काश म दमक रहा था। ि मणी जैसी भाया पाने के
सौभा य क सुखद अनुभिू त उनके अ दर भर गई।

सौ य काश बरसाता
अमतृ कलश जैसा
एक िनद ष सुधाकर
मान हाथ म आ गया
अमत ृ क कुछ बँदू छलक
बेला और रजनीगंधा के फूल
महके और हँस पड़े
2 - ने ह के वर

हवा कुछ तेज हो रही थी और जहाँ तक ि जाती थी चाँदनी का ही सा ा य था। ि मणी


थककर कृ ण के क धे पर िसर िटकाकर सो रही थ । कृ ण, कभी आकाश और कभी ि मणी
क ओर देख रहे थे। ि मणी क बात से उ ह कुछ शाि त तो िमली थी, िक तु न द अभी भी
उनक आँख से बहत दूर थी। कृ ण ने उनके ित शंसा और आभार से भरी हई ि से देखा।
ि मणी का हाथ कृ ण के क धे पर िटका हआ था, िक तु मुख न द के कारण झुक गया था।
कृ ण ने अपने क धे पर ठीक से रखने के िलये उनके िसर को उठाया तो च क गये... यह या!
ये तो राधा थ । वे चिकत हए, उ ह ने िहलाया तो अलसाई हई मुखाकृित ने आँख खोल , कृ ण ने
देखा िचरप रिचत िक तु शरारत से भरे हए ने थे। सचमुच राधा ही थ । कृ ण ने पछ
ू ा
‘‘अरे राधे, तुम कब आय , कैसे आय ?’’
‘‘म तुमसे दूर गई ही कब थी कृ ण, अपना मन नह देखा तुमने?’’
‘‘पर यहाँ तो ि मणी थी राधे।’’
‘‘मुझम और ि मणी म अ तर ढूँढ़ रहे हो कृ ण? म भी तु हारी शि हँ और ि मणी भी।’’
‘‘िक तु ि मणी मेरी िववािहता भाया भी ह राधे।’’
‘‘हाँ, म तु हारी िववािहता भाया नह हँ, य िक िववाह दो अलग-अलग लोग को आपस म एक
करने का ब धन है; िक तु हम तुम दो कहाँ ह कृ ण; ब धन क आव यकता ही कहाँ है, एक म
या एक करना होता है, बोलो?’’
‘‘चलो ठीक है, पर यह ि मणी के मुख के थान पर तु हारा िदखना...’’
‘‘ ि मणी िन छल ह, उस िन छलता क चमक म तुम अपना ही ितिब ब देख रहे हो कृ ण।’’
‘‘पर मुझे तुम िदखाई दे रही हो राधे।’’
‘‘म पुनः कह रही हँ, अपने आपसे य नह पछ
ू ते, तुम और म, दो कब थे?’’
कृ ण मौन रह गये, कुछ देर बाद बोले,
‘‘राधे, म तो व ृ दावन छोड़ने के बाद न जाने िकतना भटकता रहा; कभी मथुरा, कभी
हि तनापुर कभी कु े , कभी इ थ कभी ा रका... और भी न जाने कहाँ कहाँ। िकतनी
य तताय, िकतने कत य, अनेक यु और पता नह िकतनी घटनाय। सांसा रक ि से मेरे
पास चलो कुछ तो बहाने थे तुम से दूर रहने के, िक तु राधे तुम मेरे िबना कैसे रह सक यह नह
बताओगी?’’
‘‘मै तु हारे िबना कभी नह रही कृ ण, मेरे िह से का कृ ण सदैव मेरे साथ था।’’
‘‘तुम या कह रही हो राधे या मनु य के भी िह से होते ह।’’
‘‘होते ह, कृ ण, मनु य के भी िह से होते ह; देखो, एक वह कृ ण जो माँ यशोदा और बाबा न द
के आँगन म ड़ाय करता था, वह उनके िह से का कृ ण, जो तमाम गोप और गोिपय के साथ
खेलता, गाय चराता और लीलाय करता था वह उनके िह से का कृ ण, जो मथुरा, हि तनापुर,
इ थ, कु े आिद म धम क जय के िलये लड़ता रहा, और ि मणी का पित बन कर रहा
वह ि मणी के िह से का कृ ण, लेिकन जो मेरे िलए बाँसुरी बजाते हए सदैव मेरे दय म रहा,
वह मेरे िह से का कृ ण है।’’
थोड़ी देर चुप रहने के बाद राधा बोल ,
‘‘उ व आये थे, उ ह तु ह ने भेजा था, ऐसा बता रहे थे, पर वे तो मुझे और अ य गोप बालाओं
को तुमको दय से िनकालने क िश ा देने आये थे; शायद वे नह जानते थे िक तुम हमारे
दय म पैर ितरछे करके अड़े हए हो, िनकल नह सकते; हमारे िलये तु ह भल ू ने क बात ऐसे ही
है जैसे हमारे िह से के कृ ण से भी हम वंिचत करने क बात हो, जैसे कोई िबना ाण के जीिवत
रहने क बात समझाये। वे कहना चाहते थे िक ई र म मन लगाओ और कृ ण को भल ू जाओ,
सय ू को देखो और उसके काश को भल ू जाओ; िक तु वे उन अ ू र जी से अ छे थे जो सखा होने
के नाम पर मा यारह वष क आयु म तु ह रथ म िबठाकर मथुरा िलये चले गये थे।’’
‘‘िक तु राधे, मेरा वहाँ जाना बहत ज री था; मेरे माता-िपता ब दीगहृ म यातनाय सह रहे थे,
कंस को मारकर उ ह मु कराना था, महाराजा उ सेन को उनका रा य िदलवाना था, तथा
और भी बहत से काय थे जो केवल मेरे ारा ही स प न होने थे।’’
‘‘म जानती हँ।’’
कहकर राधा ने कृ ण का बायाँ हाथ पकड़ा और उनक सबसे छोटी उँ गली किनि का, िजस पर
उ ह ने गोवधन पवत उठाया था, अपनी मु ी म ब द कर ली, िफर बोल -‘‘तु हारे हाथ तो िकतने
कोमल ह कृ ण, जरा सी किनि का पर तुमने इतना भारी पवत कैसे उठा िलया?’’
कृ ण ने उ र नह िदया, केवल हँस पड़े ।
‘‘मुझे मरण है उस समय तु हारी उँ गली िब कुल र सी लाल हो गई थी, और िफर कई िदन
तक लाल ही पड़ी रही थी; दद तो बहत हआ होगा; कैसे सहा तुमने इतना दद?’’ कहकर राधा
कृ ण क किनि का ह के-ह के सहलाने लग ।
कृ ण िफर हँस पड़े , बोले,
‘‘मेरे इतने छोटे-छोटे दद को भी इतने िदन तक तु ह याद रख सकती हो, पर सच तो यह है
िक मेरे पास आने पर सभी तरह के दद अपना अि त व खो देते ह।’’
‘‘िक तु तुमने मुझे जो दद िदया है वह तो आज भी जीिवत है कृ ण।’’
‘‘वह दद इसिलये जीिवत है राधे, य िक तुम उस दद को मरने नह देना चाहत , उसे जीिवत
रखना चाहती हो।’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो कृ ण; वह दद ही मेरे जीवन का आधार बना हआ है; िजस िदन राधा के
सीने म यह दद नह होगा वह भी नह होगी।’’
कृ ण ने राधा का हाथ पकड़ा, धीरे से दबाया और अपने म तक से लगा िलया। राधा को अ छा
लगा, कहने लग ,
‘‘का हा, मुझे आज भी वह समय ऐसे याद है जैसे कल क ही बात हो; इ देव कुिपत होकर ऐसे
वषा कर रहे थे जैसे सारे गोकुल को िमटा दगे; वह तो तुम थे कृ ण िजसने हम िफर भी सुरि त
रखा।’’
राधा थोड़ा क िफर बोल ,
‘‘और कृ ण, एक बार जब तुम नाग जाित के यि कािलय पर ोध करके कद ब के व ृ से
ही उसके ऊपर टूट पड़े थे, उस घटना को याद करके तो आज भी मेरा मन काँप जाता है। माता
यशोदा तो बेहोश सी हो गयी थ । तु हारी मताओं और शि पर अटूट िव ास होते हए भी म ही
नह , सारा गोकुल और व ृ दावन याकुल और दुखी हो गया था, केवल बलराम भैया ही खड़े
मु कुरा रहे थे।’’
‘‘उ ह पता था राधे, िक माँ ने मेरे माथे के ऊपर केश म जो मोर मुकुट लगाया था वह यथ नह
हो सकता; जैसे मोर साँप से डरता नह , उ ह लड़कर मार डालता है, वैसे ही तु हारे इस मोर
मुकुटधारी को भी िकसी से भी डरने क आव यकता नह थी, भले ही वह कािलय नाग ही य
न हो।’’
‘‘कृ ण, वह कािलय अपने प रवार के साथ यमुना के िकनारे रहता था, और वे सभी इतने ू र
और िहंसक विृ के थे िक यमुना के उस िकनारे पर जाते लोग डरते थे, िक तु तुमने उसे, वह
थान सप रवार छोड़ने पर िववश कर िदया था, िजसके कारण वह यमुना िजनके िकनारे जाते
भी लोग डरते थे, हमारी जीवन दायनी हो गई ं।
‘रािधके, मुझे व ृ दावन के वे पल कभी नह भल
ू े, जब म िकसी कुंज म बैठकर बाँसुरी बजाता था,
और तुम कह से भी बाँसुरी क धुन सुनकर दौड़ती हई चली आती थ । बाँसुरी क वह धुन
तु हारी पायल क छन-छन के साथ िमलकर अ ुत संगीत लह रयाँ पैदा करती थी। उन ण के
सौ दय को केवल महसस ू िकया जा सकता है; उसके वणन के िलए कैसे और िकतने भी श द
ह अपया ही ह गे। िकतनी बार तो तुम नंगे पैर ही दौड़ी चली आती थ , तुमने कभी माग के
काँट क परवाह नह क , और िफर तु हारे पैर म चुभे वे काँटे म ही तो िनकाला करता था। उन
काँट के कारण िनकला र तु हारे पैर के तलव क लािलमा म छुप जाया करता था।’’
‘‘केशव, तु हारे पास आने क इ छा रखने वाला कोई भी यि , पैर के काँट क परवाह ही
कहाँ करता है? उसे पता रहता है िक िकतने भी काँटे लग जाय तुम उ ह िनकाल ही दोगे; म
अपने पाँव पर तु हारे उस पश को याद कर रोमांिचत भी हो उठती हँ साथ ही तु हारे हाथ मेरे
पैर पर लगे यह बात मेरे िलये पीड़ा और ल जा का कारण भी बनती है।’’
‘‘यह तुम या कह रही हो राधा... तुम तो यह कहती हो िक तुम और म एक ही ह, हमम कोई
फक ही नह , िफर यिद मने अपने हाथ से तु हारे पाँव से काँटे िनकाल ही िदये तो तु ह पीड़ा और
ल जा क अनुभिू त य ?’’
‘‘ य िक ी के मन म िजस पु ष के ित आदर क भावना न हो, उससे उसका ेम करना
स भव ही नह । जब तुम मेरे पैर को हाथ लगाते थे, तब तु हारे ित अितशय स मान क भावना
ही मुझे ल जा और अपराधबोध क पीड़ा क अनुभिू त देती थी।’’
इतना कहकर राधा चुप हो गई ं िफर बोल ,
‘‘अ छा अब म जा रही हँ कृ ण।’’
कृ ण कृछ कह नह सके, केवल उनके मुख क ओर देखते रह गये। धीरे -धीरे राधा मुख कह
खो गया और उ ह ने देखा न द से बोिझल ि मणी उनके क धे पर िसर िटकाये बैठी थ । कृ ण
ने सहारा देकर उ ह उठाया और महल क ओर चल पड़े ।

एक खुशबू सी चली आयी हवा म


सोचता ही रह गया ये मन
कहाँ से और िकसक ग ध है यह
और लो िफर एक झ का और आया
तन व मन को ग ध से भर भी गया
और खुशबू को उड़ा भी ले गया।
3 – मन छलके

भोर हो चुक थी, िचिड़य के कलरव से कृ ण क न द खुली। ि मणी पहले ही उठकर अपनी
िदनचया म लग चुक थ । कृ ण को लगा उ ह उठने म देर हो गई। थोड़ी शी ता से वे नान
आिद से िनव ृ हए। उ ह मरण था िक आज सोमवार है, िबना िशव-मि दर गये ि मणी जल भी
हण नह करगी।
प रचारक ने उ ह व आिद लाकर िदये। कृ ण तैयार हए। ि मणी पहले ही तैयार थ । दोन
िशव मि दर गये। पजू न, अचन और तुित करते-करते ि मणी भावुक हो उठ । उनक आँख से
अ ु टपक पड़े । कृ ण ने उनके अ ु अपने उ रीय से प छकर पछ
ू ा,
‘‘ या हआ ि मणी?’’
‘‘मुझे कभी अपने से दूर मत करना।’’
कृ ण उनका हाथ थामकर मि दर से बाहर आते हए बोले,
‘‘तुम मेरी शि हो ि मणी, हम कोई अलग नह कर सकता,’’ िफर हँसते हए कहने लगे,
‘‘तु हारा भाई मी भी नह ।’’
‘‘म मी से िचि तत नह हँ; उसक तो इस ओर आँख उठाकर देखने क भी िह मत नह है, म
तो अपने मन से परे शान हँ, ये पता नह िकतनी आशंकाओं से त हो रहा है, और कल
सायंकाल से तो म वयं को बहत ही असहज महससू कर रही हँ।’’
‘‘ य ि मणी, या िकसी ने तु हारे मन को दुखाया है?’’
‘‘आपके होते हए मेरे मन को दुःखाने का दुःसाहस कौन कर सकता है, िक तु कल सायंकाल
से आप मुझे िचि तत ओर असहज लग रहे ह, यह छोटा दुःख नह है।’’
कृ ण ने जोर से हँसने का उप म िकया,
‘‘तुम भी ि मणी, िकतना यथ िचि तत हो; कल जब समु के तट पर बैठै-बैठे लगने लगा िक
देर हो गयी है मुझे घर चलना चािहए, तो उठकर चला आया, और हाँ िदन भर के काय के प ात
शायद कुछ थकान भी हो गयी थी।’’
कृ ण मन म सोच रहे थे िक सचमुच म झठ
ू कहाँ कह रहा हँ, मेरा घर जाने का समय तो हो ही
गया है... वे िफर बोले,
‘‘चलो माँ और िपता ी के पास चलते ह, और उनका आशीवाद लेते ह।’’
‘‘अरे , आपने तो मेरे मँुह क बात छीन ली, चिलये चलते ह।’’
ि मणी और कृ ण दोन , देवक और वसुदेव के पास पहँचे। ि मणी ने िसर ढक कर कृ ण के
साथ दोन के चरण पश िकये। वसुदेव ने कृ ण को हाथ पकड़कर पास िबठा िलया और देवक
ने तो ि मणी को आिलंगनब कर िलया। दोन ने उ ह बहत से आशीष िदये। ातःकालीन
अ पाहार का समय था। कलेवा आया, ताजे फल, दूध और म खन। ि मणी ने फल काटे, िफर
दूध, म खन और फल पा म रखकर पहले वसुदेव, िफर देवक और िफर कृ ण के स मुख
रखे। देवक बहत यार से बोल ,
‘‘तुम भी तो लो बह।’’ िफर वसुदेव क ओर देखकर बोली, -‘‘हमारा कृ ण हमारे िलये िकतनी
अ छी बह लेकर आया है।‘‘
ि मणी ने िसर झुकाये-झुकाये धीरे से कहा-‘‘म बाद म ले लँग
ू ी माते।‘‘
वसुदेव ने बात के म को आगे बढ़ाया,-‘‘हमारी बह सचमुच बहत अ छी है, इसके माता-िपता ने
इसे बहत अ छे सं कार िदये ह।’’
‘‘ठीक कह रहे ह आप, इसके िपता महाराजा भी मक िकतने सदाचारी और तापी शासक रहे ह
यह कोई कहने क बात नह है; अपने माता-िपता से गुण ही गुण लेकर आयी है मेरी बह।’’
देवक ने कहा।
सास और ससुर दोन से अपनी शंसा सुनकर ि मणी का चेहरा र ाभ हो गया, बोली,
‘‘माँ, भा यशाली तो म हँ, आप क बह बनकर मेरे आँचल म तो संसार के सारे सुख समा गये
ह।’’
देवक बोली,◌ं-‘‘बह, कृ ण का बचपन देखने का सुख तो हम नह िमला, पर सुनते ह यह बहत
नटखट था; य िप अब तो इसने बहत बड़े -बड़े काय कर डाले ह... यह ानी भी बहत हो गया है,
पर मुझे तो यह आज भी बालक ही लगता है।’’
कृ ण हँसने लगे,-‘‘आपके और िपता ी के िलये म बालक ही तो हँ माँ।’’
देवक कहने लगी,◌ं-‘‘कृ ण, एक बात बता; कहते ह कंस क भेजी हई पतू ना जब तेरे ाण लेने
के िलये आयी थी, तो तनू े उसका म त य जानकर उ टे उसको ही मार िदया; उस समय तो तू
िनरा अबोध िशशु था, िफर तन ू े यह कैसे िकया?’’
माता-िपता के साि न य म कृ ण बहत ही सहज महसस ू कर रहे थे। रात क असहजता कब क
जा चुक थी। वे आनि दत थे। हँसे, िसर झुकाया और बोले,
‘‘मने, पत
ू ना को नह मारा था माँ।’’
देवक हैरान हई ं,-‘‘तन ू े नह मारा था तो िफर कैसे गये उसके ाण? मने तो यह भी सुना है िक
उसे म ृ यु के बाद देवलोक भी िमला; एक दु तापण ू काय का यह उिचत पुर कार था या?’’
कृ ण को स न मु ा म देख ि मणी के दय से मानो बोझ सा उतर चुका था। वे बहत अ छा
अनुभव कर रही थ , बोल ,
‘‘माँ, मुझे इ ह ने इस बारे म जो बता रखा है वो म आपको बताऊँ या?’’
देवक ने सहज भाव से कहा,-‘‘हाँ, बताओ बेटी।’’
ू ना वे छा से नह , कंस के आदेश के कारण यह काय
‘‘माँ...’’ ि मणी कहने लग ,-‘‘पत
करने को बा य हई थी, अ यथा कंस उसे अ य त क पण ू म ृ यु देता; िक तु गोकुल आकर
उसने कृ ण के कारण उ साह, उमंग और ेम का जैसा वातावरण देखा, कंस के रा य म उसने
कभी नह देखा था।
जब माँ यशोदा ने अ य त िव ास और िन छलता से कृ ण को उसक गोद म दे िदया, तभी
उसके दय म अपने आने के उ े य को लेकर बहत ध का लगा था; िफर जब उसने इ ह गोद म
लेकर इनका मुख देखा तो उसे लगा अरे िकतना सु दर और अबोध बालक है, मेरी गोद म भी
िकतनी िन छलता से हँस रहा है, लगता है मुझे भी अपनी माँ समझ रहा है।
पतू ना इनके मोह म पड़ गयी। वह एक कुिटल उ े य को लेकर आयी थी, िक तु उसने वहाँ जो
देखा और पाया, उस सबने उसके दय म अ त का तफ
ू ान पैदा कर िदया। यह तफ
ू ान वह
झेल नह सक । उसने अपना िवष से सना तन इनके मुख से लगाया, िक तु इसके प रणाम क
क पना मा से उनका दय काँप गया, इस आघात ने उसक दयगित ब द कर दी। वह एक
भयानक पाप से बची, और उसने इसका मोल अपने जीवन को देकर चुकाया, अतः उसे देवलोक
तो िमलना ही था।’’
देवक वसुदेव और कृ ण अपना कलेवा समा कर चुके थे। रि मणी कुछ फल और दूध लेकर
और अपने सुर वसुदेव से ओट कर उसे हण करने लग । कृ ण अपन के बीच बैठे थे, िक तु
उ ह अचानक राधा का पुनः यान आ गया। उनके ित राधा का ेम, याग और समपण क
भावना सभी कुछ अतुलनीय थी।
कृ ण सोचने लगे, िकतनी सहजता से राधा ने कह िदया था िक वह और कृ ण एक ही तो ह,
अतः िववाह का ही कहाँ उठता है; िक तु यह कहने म उ ह अपने आप से िकतना संघष
करना पड़ा होगा। वे सोचने लगे कृ ण को प ृ भिू म म रखकर ही राधा के यि व को जाना जा
सकता है। याम प ृ भिू म म ही उजाले क िकरण का सही अनुमान लग पाता है... सहसा उ ह
एक संग याद आ गया।
एक बार जब वे राधा और उनक सिखय के साथ व ृ दावन म बैठे थे तभी एक मर राधा के
आसपास मँडराने लगा। राधा जी उसक उपि थित से कुछ च क तो सिखय ने कृ ण से उसे
भगाने के िलये कहा। कृ ण केवल धीरे से हँस िदये, उ ह ने उस मर को हटाने का कोई यास
नह िकया। मर कुछ देर तक आसपास मँडराकर दूर चला गया। राधा जी थोड़ी सामा य हई ं तो
उ ह ने कृ ण को उलाहना िदया
‘‘तुम उसे भगा नह सकते थे माधव?’’
कृ ण बोले-’’उसक आव यकता ही नह थी राधे।’’
‘‘ य ? वह मुझे हािन पहँचा सकता था।’’ राधा ने कहा।
‘‘नह राधे, वह ऐसा नह कर सकता था; तु हारे सौ दय के कारण वह िकसी पु प के म म
तु हारी ओर आकृ अव य हआ, िक तु वह तु हारे भाम डल म वेश नह कर सकता था,
तु हारे तेज को सहना उसके वश क बात नह थी।’’
‘‘रहने दो।’’ राधा ने पलक झुकाकर कहा। कृ ण के श द से उनके चेहरे पर लािलमा दौड़ गई
थी। तभी वसुदेव ने पुकारा,-‘कृ ण!’
कृ ण के िवचार का म उनक आवाज से टूटा, वे च क से गये, बोले,- ‘‘हाँ तात।’’
‘‘कहाँ खो गये हो तुम?’’
‘‘नह , बस यँ ू ही कुछ बात आ गई थी मन म।’’
‘‘कौन सी बात आ गई थी?’’
‘‘कभी-कभी लगता है, माता ी और आपने मेरे कारण िकतने अिधक क उठाये; अपना िववाह
होते ही आप लोग को कारागार म ही िन रहना पड़ा, जब भी यह बात मेरे यान म आती है म
वयं को अपराधी महसस
ू करता हँ।’’
‘‘ऐसा मत सोचो कृ ण; तु हारी माँ और म वयं तु हारे जैसा पु पाकर अित आनि दत ही नह ,
गौरवाि वत भी ह। अपने काय से तुमने काल पर अपने ह ता र िकये ह, समय तु हारी क ित
को भुला नह पायेगा; केवल यही नह , तुमने अपने साथ-साथ हमारे नाम को भी अमर कर िदया
है... जो सुख तुमने हम िदया है उसके आगे कंस के कारागार म िबताये गये िदन का क कुछ
भी नह है।’’
‘‘तात म अपने सभी भाइय क ज म लेते ही होने वाली म ृ यु का कारण भी तो बना, यह बात भी
मुझे सालती रहती है।’’
‘‘तुम या कर रहे हो कृ ण? महाभारत के समय अजुन से कहे गये अपने वचन को वयं ही
भलू रहे हो, और इन नाशवान शरीर के नाश का शोक मना रहे हो?’’
‘‘तात म अजुन से कहे गये अपने वचन को भल
ू ा नह हँ, िक तु उनका मल
ू त व यह था िक
अधम के िव धम को जय या पराजय क िच ता िकये िबना संघष करना ही चािहये।
धम क र ा हे तु अधिमय का नाश मने वयं भी बहत बार िकया है, िक तु मेरे भाई अधम नह
थे, वे बहत ही अबोध िशशु थे, जब उ ह कंस ारा म ृ यु दी गई। अबोध िशशुओ ं क ह या अ य त
िन दनीय भी है और दुःखद भी; िफर लगातार अपने अबोध िशशुओ ं क ह या का दंश सहने वाले
माता-िपता का दुख क पनातीत ही हो सकता है।’’
‘‘तु ह या हो गया है कृ ण? वे बालक इतनी ही आयु लेकर और एक िवशेष योजन से इस धरा
पर आये थे; न तुमने उ ह कोई क पहँचाया न तुम उनक म ृ यु का कारण थे; उ ह क भी
ृ ा इस बात के िलए शोक कर रहे हो।’’
कंस ने पहँचाया और मारा भी कंस ने, तुम वथ
देवक और ि मणी, िपता पु के इस वातालाप को बहत शा त होकर सुन रही थ । देवक से
रहा नह गया, वे बोल ,
‘‘कृ ण, तु हारी इस तरह क बात और यह िवचलन हम भी िवचिलत िकये दे रहा है और दुःख
पहँचा रहा है; तुम हम ाण से अिधक ि य हो और रहोगे... मुझे लगता है यह करण यह समा
हो जाना चािहए, अ यथा म तुमसे जीवन म शायद पहली बार ही सही िक तु नाराज हो
जाऊँगी।’’
‘‘अरे नह माँ, बस यँ ू ही यह बात मुझे बहत समय से परे शान कर रही थ , आज आपसे और
िपता ी से इस स ब ध म हई चचा से मेरे मन का बोझ हट गया है।’’
ि मणी, जो बहत देर से इस वातालाप को सुन रही थ ,
कृ ण क यह बात सुनकर कहने लग । ‘‘माँ, िपता ी, यह कल सायंकाल से ही इस तरह क
बात को लेकर अपना मन भारी िकये हए ह, अ छा हआ आपसे इ ह ने वयं ही इस िवषय पर
बात कर ली, इससे इनका मन तो ह का हआ ही होगा, मेरी याकुलता भी समा हो गयी है।’’
‘‘कृ ण यिद वयं अपना मन बोिझल िकये रहे गा तो वह आतताइय के बोझ से धरती को कैसे
उबारे गा, बताओ तो?’’ देवक ने कहा।
‘‘अब मेरे मन पर इस स ब ध म कोई बोझ नह रहा गया है माँ।’’ कृ ण ने कहा।
वसुदेव बोले- ‘‘चलो हम सब िमलकर समु तट तक घम
ू आय।’’
‘‘आइये िपता ी, िक तु रथ म ही चलाऊँगा।’’ कृ ण बोले िफर िवनोद म कहा,- ‘‘म बहत अ छा
सारथी हँ माँ।’’
‘‘हमारा रथ तो ार भ से तु ह चला रहे हो कृ ण, और इस समय तो हम चार के अित र
िकसी अ य का साथ हम चाहते भी नह है।’’
सभी लोग रथ म बैठ गये तो कृ ण रथ को समु तट क ओर लेकर चल िदये। रथ पर बैठकर
देवक ने कहा- ‘‘कृ ण, हम भी तुमसे एक बात कहनी है; तुमने पैदा होते ही हम बेिड़य से मु
कराया, िफर जब तुम अ ू र जी के साथ मथुरा आये तो कंस का वध करके हम कारागार के सभी
ब धन से मु कराया, ा रका लाकर वग जैसा सुख दे रहे हो।
अब मेरी और तु हारे िपता ी क इ छा है िक हम संसार के ब धन से मुि देना तो िफर अपना
धाम ही देना; हम पुनः िकसी ब धन म नह पड़ना चाहते।’’
माँ क इस बात को सुनकर ि मणी अवाक् रह गई ं, बोल पड़ ,
‘‘आप या कह रही ह माँ?’’
देवक बोल ,- ‘‘मेरा लाल समझता है िक म या कह रही हँ।’’
कृ ण कुछ कह नह सके। माँ कहकर उ ह ने देवक का हाथ थामा, हलके से दबाया, और इस
तरह शायद अपनी मौन सहमित दे दी।
‘‘समझ तो म गई हँ माँ।’’ कहकर ि मणी ने कृ ण क ओर देखा, िफर देखती ही रह गय । उस
ि म िकतना बड़ा उलाहना था, यह कृ ण समझ रहे थे। अपने सास ससुर क ि बचाकर
ि मणी ने कृ ण को णाम िकया और धीरे से बोल ,
‘‘मुझे भी मत भल
ू ना।’’
* * *

कृ ण, माता देवक , िपता वसुदेव और ि मणी को रथ म लेकर महल से समु तट तक गये।


सभी लोग रथ से उतरकर सागर के पास तक गये। देवक और वासुदेव आगे तथा ि मणी और
कृ ण उनके पीछे थे। देवक और वासुदेव समु के िकनारे रे त पर बैठ गये। ि मणी और कृ ण
उनसे अनुमित लेकर समु के िकनारे टहलने लगे।
हलक -हलक बहती हवा, समु के पानी म उछलती और खो जात मछिलयाँ, और बालू म पड़ी
हई सीिपयाँ देखते-देखते वे थोड़ा सा दूर िनकल गये तो कृ ण ने शू य क ओर देखते हए कहा,
‘ ि मणी!’
‘हाँ।,’’ कहकर ि मणी ने कृ ण क ओर देखा।
‘‘ या मने तु हारा हरण िकया था?’’
‘‘नह भु, वह तो मने मि दर से आते समय आप का वरण िकया था; यिद म देर करती तो
िनि त ही मी मुझे िशशुपाल जैसे यि के साथ बाँध देता।’’
‘‘और ि मणी, जब तुमने मेरे गले म माला डालकर मेरा वरण कर िलया तो िफर तु हारी
मी, िशशुपाल और अ य राजाओं से र ा करते हए, तु ह यहाँ तक लाना मेरा पु षोिचत
क य बनता था न।’’
‘‘हाँ, िक तु आप असमय ही यह य उठा रहे ह?’’
‘‘यँ ू ही ि मणी; जब मी और िशशुपाल यह चा रत करते ह िक मने तु हारा हरण िकया था,
तो या ऐसा नह लगता िक म अपनी इि य के वश म हँ?’’
‘‘जब भी कोई सय
ू पर थक
ू ने का यास करता है तो वह वयं उस पर िगरता है, िक तु सय
ू कभी
इस बात को लेकर िवचिलत होता है या?’’
‘‘नह होता ि मणी; तुम ठीक कहती हो, म ही यथ क बात म भटक गया था, चलो चलकर
माँ और िपता ी के पास बैठते ह।’’
‘‘हाँ चिलये, वे हमारी ती ा म ह गे, और मेरे िलए तो सबसे बड़ी बात यह है िक वहाँ उनके
सामने आप इस तरह ग भीर चेहरा बनाकर नह रह पायगे।’’
ि मणी और कृ ण जब देवक और वसुदेव के पास पहँचे, तब वे सचमुच उ ह क ती ा म बैठे
थे।
‘‘आओ कृ ण, कह दूर चले गये थे या? धपू चढ़ने लगी है, चलो वापस महल म चलते ह।’’
वसुदेव ने कहा।
‘‘आइये तात।’’ कहकर कृ ण ने रथ सँभाला; देवक और वसुदेव के रथ पर चढ़ने के प ात
ि मणी भी सकुचाते हए रथ म चढ तो देवक ने उ ह पकड़कर यार से अपने पास िबठा िलया।
4 - पीड़ाएँ जाग तो

शाम का समय था। कृ ण धीरे -धीरे सीिढ़याँ चढ़ते हए महल क छत पर गये। एक कोने म मँुडेर
के सहारे खड़े होकर बाहर के य को देखने लगे। दूर-दूर तक व ृ , बीच-बीच म कह कुछ
छोटे भवन, उनके पार समु और शोर मचाते हए पेड़ पर आ आकर बसेरा लेते हए प ी। उ ह ने
आसमान क ओर देखा। व छ नीला आसमान, कह -कह पर सफेद बादल के छोटे-छोटे गु छे ,
सयू पि म क ओर ढलान पर, उसके आसपास का आकाश चमक ला और कुछ लाल सा, ऊपर
से लुढ़कता हआ समु म समा रहा था। यहाँ क शाि त कृ ण को बहत अ छी लगी।
ह क -ह क ठ डी हवा, पवू से आती हई लग रही थी। कृ ण को याद आया िक इसी ओर तो
व ृ दावन है। हवा पवू से आये और वहाँ क मिृ तयाँ न लाये, ऐसा कहाँ स भव था। सहसा उ ह
लगा, इस हवा म व ृ दावन क माटी क ग ध भी है। कृ ण को आ य लगा, यहाँ इतनी दूर उस
माटी क ग ध कैसे आ रही है? या मा यह भ ह? िफर उ ह लगा यह भ नह है, व ृ दावन
क माटी क ग ध पहचानने म उ ह कभी धोखा नह हो सकता, इस माटी क ग ध तो उनके
ाण म बसती है।
सहसा उ ह लगा, कोई इस हवा के साथ उड़ता हआ सा आकर, उनके पा म खड़ा हो गया है।
उ ह ने मुड़कर देखा, अरे यह तो राधे थ । उनके आने से इस बार उ ह उस तरह आ य नह हआ
जैसा िक राि म ि मणी के मुख के थान पर राधा का मुख देखकर हआ था। उ ह ने सहज
भाव से कहा,
‘‘आओ राधे, जब हवा म व ृ दावन क माटी क ग ध लगी, तभी मुझे लगा था, यह अव य तु हारे
पैर को छूकर आ रही होगी, और तुम कह आसपास ही होगी।’’
राधा उनके बगल म आकर खड़ी हो गई ं, बोल ,
‘‘कैसे नह आती कृ ण? कल रात भी तुम उदास थे इसिलये आना पड़ा, आज िफर तुम उदास
खड़े हो, ऐसे म तो मुझे आना ही था।
म तु ह बचपन से देख रही हँ आज तक कभी तु ह उदास नह देखा; यह उदास-उदास सा कृ ण
उस कृ ण से सवथा िभ न है िजसे म जानती हँ।’’
‘‘तुम से अिधक मुझे कौन जानता है राधे, िक तु म उदास नह हँ बस यँ ू ही कभी-कभी कुछ
मिृ तयाँ घेर लेती ह।’’
‘‘इस समय िकस मिृ तय से िघरे हो कृ ण?’’
‘‘राधे, मुझे सहसा याद आ गया िक मेरे सगे मामा होते हए भी कंस ने मेरे बचपन से मुझे मारने
के िकतने य न िकये, िकतने ही अनुचर भेजे; कुछ मायावी, कुछ बहत बलशाली; िक तु पत ू ना
स दय ी थी, अबोध बालक को मारने जैसे कुकृ य को करते समय उसक दय गित ही ब द
हो गई।’’
‘‘कृ ण, कंस के भेजे हए सभी म ृ यदूत को तुमने वयं ही तो संसार से िवदा कर िदया था, िफर
तु हारा मन िवकल सा य लग रहा है?’’
‘‘रािधके, तुम ठीक कहती हो; कंस के भेजे हए म ृ यदूत, मेरा कुछ नह िबगाड़ सके, िक तु कंस
ने अपने चारतं का उपयोग करते हए मेरे च र हनन के जो यास िकये, उनम वह सफल हो
ही गया।’’
‘‘हाँ कृ ण, थोड़ा सा बड़े होते ही मा यारह वष क अव था म तुम अ ू र जी के साथ मथुरा चले
गये थे, िफर एक बालक पर इस तरह के आरोप िक वह बहत सी ि य और बािलकाओं के साथ
रास रचाया करता था, िकतना आधारहीन और झठ ू ा हो सकता है यह वतः प लगता है।’’
राधा पुनः बोल ,-‘‘कृ ण हम सभी गोिपयाँ और गोप िमलकर तरह-तरह के खेल खेला करते थे;
तुम इतनी अ छी मुरली बजाते थे िक हम सभी म मु ध हो जाया करते थे... अ सर तो हम सब
िमलकर नाचने और गाने लगते थे; माधव, मेरे पाँव तो वतः ऐसे िथरकने लगते थे जैसे वे मेरे
बस म ही न ह ।’’
‘‘हाँ राधे, याद है जब हम वालबाल, वन से गाय चराने के बाद लौटते थे, तब हमारी माताय
अपने-अपने घर से िनकलकर इक ी हो जाती थ , हमारे िसर सहलाकर हम चम ू त और िकतना
यार करती थ । कभी-कभी चाँदनी रात म तो सारा गोकुल इक ा होकर मोद मनाता था। उस
समय होने वाले वे गीत और न ृ य एकदम उ सव जैसा वातावरण बना देते थे।’’
‘‘हाँ कृ ण, हमारे इस खेल और हास-प रहास को ही कंस ने तु हारी रासलीला कहकर इतना
अिधक चा रत करवाया िक समाज का बु और िच तनशील वग भी इसे सच मानने लगा।’’
‘‘राधे, कंस ने तो यह भी चा रत करवाया िक कृ ण जब मा आठ वष का बालक ही था, उसने
यमुना म व िवहीन होकर नान करती गोिपय के व चुरा िलये, पेड़ पर चढ़ गया, और
गोिपयाँ जब उसी अव था म बाहर आई ं, उनसे अनेकानेक िवनितयाँ क , तभी उसने उनके व
वापस िकये।
िजस समाज को तुम िव ान और िच तनशील समझ रही हो, उसने इतने झठ ू े और ामक चार
को वीकार कर िलया, यह भी नह सोचा िक हमारे शा म निदय , तालाब आिद म िनव
होकर नहाना पण ू तया विजत है। कैसे मान िलया िक अपनी सारी मयादाओं के िवपरीत हमारे
समाज क वे ि याँ िनल जतापवू क अपने सारे व उतारकर नदी के तट पर खड़ी हई होग ,
िफर नदी म नहाने के िलये घुसी ह गी, और िफर नहा-धोकर उसी ि थित म बाहर तट पर व
पहनने के िलये आई ह गी? इस बीच कोई एक बालक उन तमाम ि य के सारे व लेकर पेड़
पर चढ़ गया, और उन ि य म से िकसी ने भी उसे देखा ही नह ।
या नदी म नहाते समय उन सभी ि य ने ने ब द कर रखे थे, या वे अपने व के स ब ध
ू उदासीन थ , अथवा वे अपने व को नदी के तट से इतनी अिधक दूर उतार कर आई थ
म पण
िक उनके नहाने के थान से िकसी को वे व िदखाई ही नह दे रहे थे। उन सबने िनव ही
उस लड़के को ढूँढ़ा, िफर पेड़ के नीचे खडे ़ होकर उससे अपने व के िलये याचना करती रह ।
िकसी भी ी को उस लड़के पर ोध नह आया। सभी ि याँ उस आठ दस वष के बालक पर
इतनी आस थ िक यह उ डता उ ह ने खुशी-खुशी सहन क , और िफर यह ल बा चौड़ा
करण जब तक चलता रहा, इन लोग के अलावा कोई भी अ य यि उस े से उतनी देर
तक गुजरा ही नह । वह एक गाँव क नदी का िकनारा था या कोई िनजन े ?’’
‘‘मुझे बदनाम करने के च कर म कंस ने हमारे समाज को, िवशेष प से नारी समाज के
स मान को, जो अपार ित पहँचाई, वह अ य थी। यह भारतीय समाज पर ही नह सं कृित पर
भी ध बा है। मुझे स देह है िक कुछ लोग ने अपने कुकृ य पर परदा डालने के िलये भी मुझे
भगवान बनाकर इस का ड को वीकार करने और करवाने म पहल क होगी।’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो कृ ण,’’ राधा बोल ,-’’सचमुच यह घटना सारी नारी जाित का अपमान है;
कोई यह भी नह सोच पाया िक यिद ये कहािनयाँ कंस ारा चा रत नह थ तो तु हारे ारा
कंस के वध के प ात् इस तरह क कहािनय पर पण ू िवराम य लग गया? इस सुधी समाज ने
इस तरह क कहािनय पर िच ह नह लगाया, अिव ास के कोई वर नह उठे ।’’
‘‘रािधके, मेरे च र हनन के यास कंस के वध के प ात् कुछ समय के िलये अव य के,
िक तु नये श ुओ ं ारा कुछ समय के उपरा त पुनः चल पड़े । भौमासुर- कुछ लोग उसे नरकासुर
भी कहते ह- के वध के प ात् मने उसके महल म कैद हजार दुखी ि य को छुड़ाया, उ ह
स मानपवू क उनके प रजन के पास िभजवाया; इनम बािलकाय, युवितयाँ, ौढ़ाएँ आिद िविभ न
आयुवग क ि याँ थ ।
दुभा यवश उनम से अिधकांश के प रजन ने उ ह अपने घर म रखने से इ कार कर िदया, तब
मने उ ह स मानजनक ढं ग से रहने के िलए थान िदया, उनके भरण पोषण क यव था क ;
तो मेरे श ुओ ं ने अपना चार अिभयान पुनः चालू कर िदया िक मने उन सबसे िववाह करके उ ह
अपनी रानी बना िलया है। सोलह हजार से अिधक ि य से िविध-पवू क िववाह एक वहृ द्
आयोजन होता, और यह समाज क ि से छुपा नह रह सकता था।
यह मेरे च र हनन म जुटे लोग का चारतं ही तो है जो लोग को यह समझा रहा है िक मेरे
सोलह हजार एक सौ आठ रािनयाँ ह।’’
इतना कहकर कृ ण शा त हए तो राधा ने उनका हाथ थामा और उनके साथ महल क छत पर
टहलने लग , चलते-चलते उनके मुख क ओर देखा, हँस , िफर िवनोदपण
ू वर म बोली,
‘‘अरे , तु ह ने तो समझाया है िक मान अपमान, सुख-दुख को समान समझने वाला यि ही
योगी है; िफर यह कृ ण, योिगराज होकर भी छोटी-छोटी बात से मन मिलन य कर रहा है?’’
‘‘रािधके, म मन मिलन नह कर रहा, िक तु हाँ, सोच अव य रहा हँ िक लोग िकस तरह क
बुि रखते ह? यिद वे मुझे इ सान समझते ह तो सोलह हजार एक सौ आठ को एक वष म होने
वाले िदन क सं या तीन सौ पसठ से भाग देकर देख। एक आदमी यिद ितिदन एक नई रानी
के पास जाता हो तो उसे इतनी रािनय के पास जाने के िलये चवािलस वष से अिधक का समय
चािहये, वह उनके नाम तो दूर, चेहरे भी याद नह रख पायेगा।
अपने इस यवहार से इन ि य म होने वाले असंतोष को भी कैसे झेल पायेगा? िफर वह यि
जो बचपन से ही रासलीलाय रचाता रहा हो, उसम िकतनी शि और िकतना पु षाथ शेष रह
गया होगा; और यिद वे मुझे ई र का अवतार समझते ह, तो उनके िवचार से ई र को करने के
िलये या यही काय रह गये ह?
कैसे ई र क क पना है उनक , उनका ई र इसी तरह के काय म िल रहता है या?’’
राधा उनका यह गिणत और तक सुनकर अवाक् थ । उनका चेहरा िनहारती रह , कुछ कह नह
सक । कृ ण अपना मन खोल रहे थे। वे अपने मन क बात राधा से नह कहते तो िकस से कहते।
वे िफर बोले-‘‘और रािधके, कुछ लोग अपने को मेरा भ और ानी कहते हए िबना िवचारे कुछ
भोथरे तक दे देकर इन बात को मुझ ई र क लीला बताया करते ह; इनका औिच य िस
करने के िलये उनके पास तरह-तरह क क पनाय रहती ह।’’
राधा चुपचाप सुन रही थ , बोल - ‘‘कृ ण, तुमने अपने काय ारा इितहास रचा है, कभी न भल
ू ने
वाला पौ ष िदखाया है; योग, ान और वासनारिहत ेम के उ चतम मानद ड थािपत िकये ह;
जीवन के हर उजले प पर तु हारे ह ता र ह, िफर या तुम इन कहािनय के कारण भिव य म
होने वाली अपनी अपक ित को लेकर िचि तत हो?’’
‘‘राधे, या तु ह ऐसा लगता है िक म अपने मान-अपमान को लेकर िचि तत होऊँगा?’’
‘‘नह , म ऐसा िब कुल नह समझती कृ ण; तु ह योगे र यँ ू ही नह कहा जाता; तु हारी िच ता
का कारण अव य ही इससे िभ न और अित महŸवपण ू होगा।’’
‘‘राधे, अभी तुमने कहा िक मने इितहास रचा है... ातःकाल िपता ी भी कुछ ऐसा ही कह रहे थे;
तुम सोचो राधा, यिद यह सच है, यिद सचमुच मने इितहास रचा है, तो आने वाले कल म कुछ
लोग अनैितक होने क छूट लेने के िलये इन कहािनय का इ तेमाल करने लगगे, ये कहािनयाँ
िवधिमय ारा हमारे धम के उपहास का बहाना भी बनगी।
मुझे तो कोई फक नही पड़ता, िक तु यह ि थित हमारे धम और समाज को अपरू णीय ित
पहँचाने वाली होगी; मुझे यह भी डर है िक आने वाले समय म लोग कु े म अजुन से कही हई
मेरी बात को भल ू कर, और कहािनय म उलझकर अकम य जीवन न जीने लग। यिद ऐसा हआ
तो यह हमारे समाज क गित म भी बाधक होगा। म वयं जीवन भर अपने सुख-दुख, मान-
अपमान को भल ू कर कम करता रहा... अजुन को मने जो कुछ समझाया उसके मल ू म भी यही
भावना थी िक यि को िकसी भी प रि थित म अपने कम से िवरत नह होना चािहये।
अकम य लोग समाज म िवष क भाँित होते ह; वे अपनी अकम यता के प म तरह-तरह के
तक देकर समाज को खोखला करते रहते ह।’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो; म तु हारी सभी बात से सहमत हँ, पर इन सब बात से इतर आज मेरा
तुमसे एक बात कहने का मन कर रहा है, कहँ कृ ण? ’’
‘‘हाँ, कहो राधे।’’
‘‘मै देखती हँ , तुम नाच भी रहे हो, मुरली भी बजा रहे हो, ेम भी कर रहे हो, यु करने से
बचकर रणछोड़ भी बन रहे हो, जगह-जगह अ याय और अधम के िव यु भी कर रहे हो,
उपदेश भी दे रहे हो, सब कुछ जानते हो, महा ानी हो, योगे र हो और माखन चोर भी हो;
तु हारे और भी पता नह िकतने प ह, तुम कभी हारे नह , सदा जीते या जीत का कारण बने
हो।
कभी िकसी से रा ता नह पछ
ू ा, सबको रा ता िदखाते रहे । कभी दीनता, उदासीनता, दुख आिद
का दशन नह िकया, कभी िकसी एक छिव म कैद नह रहे , कभी िकसी छिव के टूटने क
िच ता नह क , के नह , तुम या हो कृ ण? तुमने माता-िपता को वा स य सुख िदया, मुझे
आि मक और ि मणी को पित का ेम, अजुन और सुदामा आिद को िम का िव ास... हर
भाव म उ कष के िशखर पर रहे हो तुम; तु हारे अगिणत प को म िगन नह सकती।
तुम हर प म चरमो कष पर रहे हो; मुझे िव ास है िक धरती, न आज तक ऐसा कोई यि व
पैदा कर सक है, न भिव य म कर सकेगी। तुम बस तु ह हो कृ ण, दूसरा कृ ण कभी नह हो
पायेगा।’’
कृ ण सकुचा गये बोले-‘‘राधे, बहत प रहास करने लगी हो तुम।’’
‘‘हाँ, यह मुझे अ छा लगता है, हँसना मेरा वभाव है, िक तु इस समय म प रहास नह कर रही
हँ, यह मेरा मन बोल रहा है। तुम सचमुच अि तीय हो कृ ण।’’
तभी अचानक अनुचर क आवाज आई-‘‘भगवन, माता ि मणी सायंकालीन पजू ा के िलये
आपक ती ा कर रही ह; पज
ू ा क सम त तैयारी परू ी हो चुक है।’’
कृ ण जैसे सोते से जाग पड़े , बोले,
‘‘ठीक है, चलो म आ रहा हँ।’’
उ ह ने देखा राधा कह नह थ , वे अकेले ही खड़े शू य को देख रहे थे।
5 - बात जब चलती ह

कृ ण, महल क छत से उतरकर नीचे आये। देखा, माँ, िपता ी और ि मणी, सभी सायंकालीन
ू ा के िलये तैयार थे, उनक ही ती ा थी। कृ ण बोले,
पज
‘‘मुझे खेद है माँ, मेरे कारण आप लोग को ती ा करनी पड़ी; म छत पर था, अभी हाथ पैर
धोकर आता हँ।’’
देवक बोल -‘‘देख रही हँ आजकल तू सोचने बहत लगा है कृ ण।’’
‘‘कुछ नह माँ, आप अ यथा िचि तत न ह , ऐसा कुछ भी नह है।’’ कृ ण ने कहा।
देवक ने पहले वसुदेव, िफर ि मणी क ओर देखा। उनक आँख म कृ ण के इस खोये-खोये
से यवहार पर जो िच था, उसका वसुदेव और ि मणी क आँख म भी मौन समथन
िमला, िक तु उ र िकसी के पास नह था। कृ ण आये; भगवान ल मी-नारायण क पज ू ा के बाद
िशव क तुित हई, िफर सभ्◌ाी लोग पज
ू ागहृ म ही बैठकर बात करने लगे। कुछ देर बाद देवक
बोल ,
‘‘चलो भगवान का क तन करते ह; मन से जुड़कर क तन करने से तनाव दूर होता है और मन
स न होता है; कोई और वा य नह , बस कृ ण बाँसुरी बजायेगा।’’ िफर वसुदेव क ओर
देखकर बोल ,-‘‘आप मँजीरा ले लीिजये, िक तु बोलना आपको भी होगा।’’
कृ ण ने मुरली उठाई, अधर पर रखी और लगभग मदहोश करने वाली विन हवा म गँज
ू ने लगी।
देवक ने शु िकया
‘‘ओम नमः िशवाय।’’
ि मणी ने दोहराया; और उन दो ी सुलभ वर के साथ वसुदेव जी ने मँजीरा बजाते हए
अपनी ग भीर आवाज म वर िमलाया तो लगा जैसे सात सुर के साथ सुर क देवी वहाँ िवराज
गई ह। सुर क इस गँजू ने, पिव ता क महक से िमलकर इतने अ ुत आन द के वातावरण क
सिृ क , िक माँ पावती को भगवान िशव से कहना पड़ा,
‘‘चिलये वह चलते ह, और जब तक इस क तन क विनयाँ रहगी, वह रहगे।’’

थामकर आन द के कर
सुर क देवी उतर आई धरा पर
और पावन ण महकने से लगे
गँज
ू ती विन, उमा को
िशव को बुला लाई
मन लगा िफर ाथना करने
यँ ू लगा जैसे िक ये ण
चल पड़े ह
रोशनी से ाण भरने
और िफर मन ाण उड़ने से लगे

पज
ू ा गहृ म दीपक का काश था, िक तु इस काश से इतर एक अ ुत आभा से क भरा हआ
था। यह आभा िद य थी, अवणनीय थी। वातावरण म सुग ध तैर रही थी; वह मा वहाँ मौजदू फूल
क और जल रही धपू क सुग ध नह थी, वह अित ती भी नह थी, अिपतु भीनी-भीनी वह
सुग ध पिव ता क अनुभिू त िलये हए मदहोश करने वाली थी।
देवक , वसुदेव और ि मणी सभी समझ रहे थे िक िजस पजू ागहृ म वयं कृ ण उपि थत ह उस
पजू ागहृ म इस तरह क अनुभिू तयाँ तो होनी ही थ ।

कोई आया
और िफर
मन ाण म आकर समाया
ग ध फूल क िलये
अनुभिू तयाँ शीतल हवा सी

केवल कृ ण जान रहे थे िक यह उनके दय म सदा रहने वाली राधा थ , िजनके कारण यह
आभा, पिव ता और सुग ध थी। क तन समा हआ तो कृ ण ने बाँसुरी अपने पास भिू म पर रख
दी। सबक ि बचाकर ि मणी ने वह बाँसुरी उठाई और ‘‘म आप सब के िलये जल लाती हँ।’’
कहकर क से बाहर चली गई ं।
बाहर जाकर उ ह ने वह बाँसुरी अपने अधर से लगाई, िफर धीरे से प छी और कमर म ख स ली।
तीन पा म जल भरकर क म ले आई ं। पहले वसुदेव को, िफर देवक को और िफर कृ ण को
जल देकर कृ ण के िनकट उनके पीछे बैठ गई ं, कमर से बाँसुरी िनकाली और चुपके से कृ ण के
बगल म यथा थान रख दी। कृ ण ने उनक यह चोरी पकड़ ली, हलक सी मु कराहट उनके
अधर पर तैर गई। जल हण करके सभी कृित थ हए तो कृ ण ने पछ ू ा,
‘‘माँ, िपता ी, आप व थ और स न तो ह? िकसी कार का क तो नह ?’’
‘‘कृ ण, िजनका तुम जैसा पु हो, उन माता-िपता क ओर दुःख, आँख उठाकर देख भी सकता
है या? तु हारी माता देवक और मं◌ै वयं यहाँ ा रका म बहत ही आन द म ह; तु हारी
उपि थित और ि मणी जैसी बह क सेवा हम हमेशा अहोभा य क ि थित क अनुभिू त कराती
रहती है; िक तु हाँ, एक बात को लेकर अ सर हम िवषाद होता ह।’’ वसुदेव ने कहा।
‘‘ या तात? कृपया बताइये िक ऐसा या िवषय है जो आपके िलये िवषाद का कारण बनता है।’’
‘‘हमारी पु ी सुभ ा का िववाह कु वंश के अजुन से हआ है, अतः कु वंशी हमारे िनकट
स ब धी ही तो हए; वह वंश धतृ रा और पा डव को छोड़कर महाभारत के यु म परू ी तरह
न हो गया। उस महाभारत म महान परा मी यो ा, महा ानी और योिगय म सव कृ
हमारा पु कृ ण भी था।
यु िकसी ने भी लड़ा हो, उस यु का एकमा नायक कृ ण और केवल कृ ण था। महाभारत से
वह महान वंश, िजसम भी म जैसे महा तापी ज मे थे, िजसम गा धारी जैसी महान सती
िव मान थ , लगभग न हो गया। हमारे मन म अ सर यह उठता है िक उस यु म हमारे
दामाद, अजुन के सारथी बने कृ ण ने इस महािवनाश को य नह रोका और यु म अपने िलये
सारथी जैसी महŸवहीन भिू मका ही य चुनी?’’
‘‘तात, अपने जो भी कहा वह स य है; आपक और माँ क शंकाय भी उिचत ह... आप मेरे जनक
ह; जब आपके मन म ये उठ रहे ह तो और के मन म भी ये अव य उठते ह गे।’’
‘‘कृ ण, कल तुम इितहास पु ष होगे और भिव य म आने वाला समय भी तु हारे यि व के
स मुख ये खड़ा करता रहे गा।’’
‘‘ठीक है तात, म आपके अि तम का उतर पहले दँूगा।’’
‘‘बोलो कृ ण।’’ वसुदेव ने कहा।
‘‘तात ी, जैसा आपने कहा, अजुन मेरे सखा ही नह , बहन सुभ ा के पित भी ह; आपने स ब ध
क बात उठाई है... म अजुन का सारथी, इन स ब ध के कारण नह बना; समय के िविभ न
अ तराल पर काल और समय के अनुसार स ब ध बनते िबगड़ते रहते ह, यह अ तराल कुछ
समय का हो सकता है, वष का हो सकता है और ज म का भी हो सकता है।
आपका यह कृ ण, स ब ध के साथ नह , स य और मानवोिचत धम के साथ रहता है, य िक ये
समय के साथ नह बदलते। अजुन का ही नह , कृ ण हर उस यि के रथ का सारथी है, जो
स य और मानवोिचत धम के माग पर अ सर है, अतः मेरी ि म सारथी होना महŸवहीन
भिू मका नह है।’’
कृ ण पुनः बोले-‘‘तात, यिद म छोटी बड़ी भिू मका देखता होता तो युिधि र के य के दौरान हए
भोज म प ल उठाने का काय नह करता।’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो कृ ण।’’
‘‘और तात, आपने अभी कहा था िक महाभारत के यु का एकमा नायक म था; म मा ाथ
होकर कहना चाहता हँ िक इस यु का एकमा नायक धम था, और उसी क िवजय हई।’’ कृ ण
ने कहा।
‘‘धम क िवजय हई यह म मानता हँ पु , िक तु धम क िवजय इसिलये हई, य िक तुम धम के
साथ थे, इसिलये इस यु के नायक तो तु ह हए, कृ ण।’’
‘‘तात, िवजय धम क हई, अतः वाभािवक तौर पर जो धम के साथ थे, यह िवजय भी उनक ही
कही जायेगी; और हम सब धम के वज के नीचे थे, अतः नायक हमम से कोई नह अिपतु धम ही
तो हआ। दुय धन, अधम का वज लेकर चल रहा था; उस वज के नीचे रहने के कारण ही माता
गा धारी का सती व, वयं िपतामह भी म, गु ोणाचाय और महारथी कण िमलकर भी उसक
र ा नह कर सके।’’
देवक बीच म बोल उठ ,- ‘‘तुम िपता पु का यह वातालाप बहत ग भीर होता जा रहा है; ई र
के क तन के बाद मन, मि त क जो थोड़ा ह का हआ है, वह इस वाता से बोिझल न हो जाये।’’
िफर हँसकर बोल ,- ‘‘ग भीर िवषय पर चचा होनी चािहए, िक तु भोजन के बाद, राि के
भोजन का समय हो रहा है, और मेरी बह ि मणी परे शान हो रही है।’’
कृ ण हँसे, बोले- ‘‘बहत ज दी परे शान होने लगती है आपक बह; इतनी नासमझ य है यह?
इसे आप ही समझा सकती ह।’’
‘‘म नासमझ नही हँ,’’ िसर झुकाकर ह के से हँसते हए ि मणी ने कहा- िवरोध व प चुपके
से कृ ण का उ रीय पकड़कर ह के से ख चा और बहत धीमे वर म कहा,
‘‘इस बार मुरली मेरे हाथ लग गई तो ऐसा छुपाऊँगी िक कभी ढँ ◌ूढ़ नह पाओगे; मुझे राधा जैसा
सरल मत समझना।’’
ू े ह।’’
कृ ण मु कराये, बोले-‘‘अ छा चलो, चलकर भोजन तो दो, हम सभी भख
वसुदेव आगे थे और देवक पीछे । वे भी पु और पु वधू क बात सुनकर मु करा रही थ ।
* * *
महल के चार ओर िवशाल उपवन म ातःकाल के िखले हए फूल से महक और चार ओर
िबखरी हई ओस से भीगी हवा, सय ू दय का ह का और शाि त देने वाला काश, बीच-बीच म
पि य के चहचहाने क आवाज; एक ओर एक अ य त सु दर मि दर, जहाँ िशविलंग और देवी
दुगा क मनोहारी ितमा, दूसरी ओर कुछ दूरी पर गोशाला म अनेक गाय। कुछ अनुचर उनक
सानी इ यािद करने के प ात् दूध दुहने का उप म कर रहे थे।
तभी ि मणी वहाँ आई ं। अनेक गाय को पुचकारा, कुछ को हाथ से सहलाया और एक अनुचर
से पा लेकर, एक काली गाय के पास बैठकर दूध दुहने का उप म करने लग । उसका बछड़ा
उ ह देखकर रं भाया। ि मणी ने पुचकारते हए उससे कहा,
‘‘हाँ-हाँ मुझे तेरा याल है, तेरे िलये पया दूध छोड़ँ गी म।’’
मि दर म देवक और वसुदेव, पजू ा अचना म लगे हए थे। देवक ने उपवन से कुछ फूल इक े िकये
थे, उ ह फूल से उ ह ने और वसुदेव ने माँ दुगा और िशविलंग का शंग
ृ ार िकया, और ने ब द
िकये उनक तुितय का पाठ करने लगे।
वातावरण म पिव ू रही थ । दोन को ने ब द करके ऐसा तीत हो रहा था, मानो
विनयाँ गँज
शि और िशव का भामंडल वहाँ मौजदू हो। तुितयाँ समा हई ं तो उ ह ने आँख खोल । हाथ
जोड़कर पुनः माँ दुगा और िशविलंग को शीश झुकाया, बाहर आये और उपवन म टहलने लगे

भा कर क रि मय ने
भोर का चेहरा िदखाया
िखल गई ं किलयाँ कई
ओस क बँदू चमकत
हँस पड़
और तुितयाँ हई ं मुख रत
देवता जागे।

टहलते-टहलते देवक बोल ,-‘‘कल हमारा कृ ण आपके से िकतना ग भीर हो गया था,
आपने उससे ऐसे य िकये? उसे शायद असहज लगा होगा।’’
‘‘लेिकन देवक , उसका यि व िजतना बड़ा हो चुका है, उससे आज का समाज ही नह , आने
वाला कल भी इस तरह के उठायेगा, उसे इन का उ र देने दो; म चाहता हँ िक उसका
जीवन एक खुली िकताब क भाँित रहे , िजसम हर स भािवत का उ र िमल सके।’’
कुछ देर चलने के बाद देवक बोल -‘‘देखो तो, िकतनी तरह के प ी ह यहाँ पर।’’
‘‘िकतनी भी तरह के प ी ह , पर या वे मोर क सु दरता क बराबरी कर सकते ह? वह सु दर
ही नह , जहरीले साँप को मारने वाला भी है।’’
देवक समझ गई ं, वसुदेव का इशारा मोर पंखधारी कृ ण क ओर है। उ ह ने समथन िकया।
‘‘हाँ, और म यह भी समझ गई िक आप कृ ण से इन के उ र य माँग रहे ह? इतना
सु दर प ी होते हए भी मोर को अपने असु दर पैर के साथ जीना पड़ता है, और आप चाहते ह
िक आपके मोर पंखधारी पु के जीवन म इन मोर के पैर जैसा असु दर कुछ भी न हो।’’
‘‘तुम मेरी बात को िब कुल ठीक समझ देवक ।’’
‘‘अ छा यह बताइये िक आप के के जो उ र कृ ण ने िदये, उनसे आप स तु हए या?’’
‘‘हाँ देवक , कृ ण ने जो उ र िदये उनसे म स तु हआ, िक तु मेरे मु य का उ र अभी
शेष है; उसने स म होते हए भी इस महािवनाश को रोका य नह ? उस िदन यह चचा पण
ू नह
हो पाई थी।’’
‘‘यह तो मेरे मन म भी ह,’’ देवक ने कहा, िफर बोल ,
‘‘अ छा सुनो, देखो कोयल बोल रही है; मुझे कोयल क आवाज बहत मीठी लगती है, लगता है
वह बोलती रहे और म सुनती रहँ।’’
‘‘वैसे तो सभी कोयल मीठा बोलती ह, पर इस उपवन क कोयल कुछ अिधक ही मीठा बोलती
ह।’’
‘ य ?’
‘‘ य िक इस उपवन क कोयल तु हारी आवाज क नकल करती रहती ह गी।’’
वसुदेव क यह बात सुनकर देवक हँस पड़ , बोल ,-‘‘आपका प रहास अ छा लगा मुझे।’’
टहलते-टहलते वे गोशाला क ओर आ गये। ि मणी ने उ ह देखा तो तुर त उठकर खड़ी हो
गय । िसर पर प ला ठीक िकया और शी ता से आकर उनके चरण पश िकये। वासुदेव ने
आशीवाद देते हए पछ
ू ा,
‘‘अरे बह, इन गाय को दुहने वाले पा रचारक कहाँ ह, जो तु ह गाय दुहनी पड़ रही है?’’
‘‘सभी यह ह िपता ी, पर एक तो यह काली गाय मुझे बहत चाहती है, मेरे आने से यह बहत
खुश होती है, ऐसा मुझे इसक आँख और यवहार से लगता है... यह मेरी कजरी है।’’
उनक इस बात पर देवक और वसुदेव दोन हँस पड़े ।
‘‘अ छा, और दूसरी बात?’’ वसुदेव ने पछ
ू ा।
‘‘िपता ी, अभी इसका बछड़ा कुछ ही िदन का है, उसके िलये पया दूध इसके पास रह जाये
इसिलये म ही दुहने आती हँ।’’
‘‘बहत अ छा करती हो बह,’’ वसुदेव बोले,-‘‘इससे तु हारे हाथ गो सेवा भी हो जाती है।’’
देवक ने थोड़ा गव से वसुदेव क ओर देखकर कहा,-‘‘हमारी बह है।’’ िफर बोल ,
‘‘आइये, आपका मन हो तो चिलये थोड़ा समु क ओर चलते ह; मुझे समु के िकनारे क सुबह
बहत अ छी लगती है।’’
‘चलो।’ कहकर देवक और वसुदेव चले गये। ि मणी भी अपना काय परू ा कर तेजी से महल क
ओर बढ़ उ ह सबके िलये ातःकालीन अ पाहार का ब ध देखना था।
6 - मिृ तयाँ चुभती ह

कृ ण के जाने के बादे से गोकुल म न द और यशोदा के िलये पेड़ म ह रयाली तो थी, शीतलता


नह थी। फूल म सौ दय नह िदखता था। महल था घर नह था, आसमान कुछ और दूर हो गया
था और धरती के सीने म ममता कम हो गयी थी। उनक सुबह उदास, िदन सन ू े और िन तेज,
रात ल बी हो गयी थ ।
ऐसी ही एक सुबह थी। यशोदा और न द, गोकुल म अपने महल के ांगण म बैठे थे। यशोदा,
न द के िलये कलेवा तैयार कर रही थ । जब कलेवा तैयार हो गया तो उ ह ने उसे पा म
सजाया और न द के स मुख आ ह सिहत रखा, बोल ,
‘लीिजये।’
‘‘और तुमने अपने िलये य नह िलया?’’ न द ने कहा।
‘‘म ले लँग
ू ी, आप तो शु कर।’’
‘‘नह तुम भी साथ ही शु करो; अ छा तुमने एक बात देखी यशोदा... हमारी गाय भी वही ह;
व ृ के फल भी वही है, सारे भो य पदाथ वही ह, बनाने वाले हाथ भी वही ह; िफर भी पता नह
या बात है, अब िकसी भी चीज म वह वाद नह , जो हमारे कृ ण के होने पर होता था।’’
यशोदा क आँख से छल से आँसुओ ं क कुछ बँदू िनकल और न द के पैर पर िगर पड़ । गम
आँसुओ ं के पश से वे च क उठे । उ ह नेे अपने हाथ से यशोदा का चेहरा उठाया। ि िमली और
आँख ने आँख क भाषा पढ़ ली। दोन ओर थक और िन तेज आँख थ । न द ने यशोदा के ही
आँचल को अपने दूसरे हाथ से उठाया और उनके आँसू प छ िदये... भारी और ँ धी हई आवाज म
बोले,
‘‘तुम रो रही हो यशोदे!’’
‘नह ,’ यशोदा ने कहा।
‘‘िफर ये आँस।ू ’’
‘‘कुछ नह बस यँ ू ही, उसक याद आ गई; अब सुबह पहले क तरह गाते हए नह आती है।’’
‘‘हाँ, ठीक कह रही हो यशोदे; परू ा-परू ा िदन उदास और ाणहीन सा लगता रहता है, और रात
िव ाम नह , पता नह कैसी बेचन ै ी लाती है; आती ह और पसर जाती ह।’’
‘‘वह परू े यारह साल मेरी गोद म रहा है; मुझसे िचपटे िबना उसे न द नह आती थी, हमारी भोर
उसक हँसी से ही होती थी।’’
‘‘कृ ण बड़ा हो गया है यशोदा, ब चा नह रहा; उसने बहत बड़े -बड़े काय िकये ह, बहत याित
अिजत कर चुका है और समु को भी पीछे ढकेलकर ा रका नामक परू ा एक नगर बसा चुका
है, वह।’’
‘‘आप ठीक कह रहे ह; हमारा न हा सा का हा आज महान और यश वी कृ ण बन चुका है, पर
उसने अपना परू ा बचपन हमारे नाम पर कर िदया; हमारा यह सौभा य िकसी भी बड़े से बड़े
सौभा य से भी बड़ा है, पर मुझे वह आज भी छोटे ब च जैसा ही याद आता है, बार-बार धोखा हो
जाता है िक वह माखनचोर म खन क मटक फोड़कर यह कह छुपा होगा।
म उसे भल
ू नह पा रही हँ; हमारे घर म उजाला तो उसी से था... सरू ज तो अब भी िनकलता है पर
उजाला नह होता, अँधेरा ही रहता है।’’
‘‘मुझे भी ऐसा ही लगता है यशोदे, पर धैय तो हम रखना ही पड़े गा; िचिड़या अपने ब च को
िकतने यार से पालती है, लेिकन एक बार उड़ना सीखने के बाद वे लौटकर उस घ सले म कभी
नह आते, अपना अलग नीड़ बनाते ह; यह संसार ऐसा ही है।’’
‘‘हम िचिड़या नह ह वामी; हम जानवर भी नह ह, उनके ब चे भी लौटकर नह आते। हम
इ सान ह, हमारी दुिनया म माता-िपता और स तान एक दूसरे से जीवन भर यार क अपे ा
रखते ह, हम पशु पि य जैसे कैसे हो सकते ह?’’
‘‘मुझे िव ास है यशोदे, उसके मन म भी हमारे िलये वही थान आज भी होगा, भले ही वह
प रि थितवश हमारे पास आ नह पा रहा हो।’’
‘‘यही िव ास ही तो मुझे जीिवत रखे हए है वामी।’’ यशोदा ने कहा।
‘‘और मुझे भी।’’ एक और वर आया।
वे अपनी बात म इतना खो गये थे, िक उ ह यान ही नह रहा िक इस बीच कोई तीसरा भी
उनके पास आकर बैठ गया था। आवाज सुनकर वे च के; अचकचाकर उ ह ने उस आवाज क
ओर देखा, राधा थ । यशोदा ने राधा का हाथ थाम िलया, बोल ,
‘‘आओ बेटी, तुम कब आई ं?’’
‘‘माँ णाम! बाबा णाम, बस अभी आई हँ म’’
राधा ने ह के से हँसकर उ र िदया। उनक आँख के आँसू यशोदा से िछपे नह रह सके। उ ह ने
राधा का िसर पकड़कर सीने से लगाया, िफर नेह से उनके िसर पर हाथ िफरा कर बोल ,
‘‘तु हारी माँ क ितदा और िपता वषृ भानु कैसे ह रािधके?’’
‘‘ठीक ह माँ।’’ राधा ने कहा।
‘‘आ तू भी कलेवा कर ले।’’
‘‘आप लोग ल माँ, म घर से कलेवा करके आई हँ; इस ओर से जा रही थी, आपका ार खुला
िदखा तो भीतर आ गई।’’
‘‘बहत अ छा िकया; तुझे देखकर हम बहत बल िमलता है, कृ ण न सही उसक छाया तो है।’’
‘‘उनक छाया तो परू ी बज
ृ भिू म पर है माँ।’’
‘‘बहत सयानी हो गई है त,ू पर कहती ठीक है; सचमुच इस बज
ृ भिू म से उसक छाया कभी नह
िमट सकती।’’ यशोदा बोल ।
राधा बोल ,-‘‘माँ, बाबा! मुझे आपके चरण म कृ ण िदखते ह; यिद आप लोग भी माँ देवक और
तात वासुदेव क भाँित ही ा रका चले गये होते तो म कैसे जी पाती।’’
‘‘और हम तु हारी आँख म कृ ण िदखता है बेटी, और ये हमारी कोई क पना या म नह है।’’
राधा ने पलक झुका ल । आँख म के हए आँसू चेहरे पर लक र ख चते हए यशोदा के आँचल पर
िगर पड़े ।
‘‘गोकुल और व ृ दावन म सबक आँख म कृ ण ही तो ह; और आँखे ही या, यहाँ के व ृ ,
गिलय , आसमान और िम ी के कण-कण म कृ ण ही तो िदखते ह माँ।’’ राधा ने अपने आँचल के
प लू से आँख प छते हए कहा,’ ¹ ¹
‘‘तुझे ऐसा लगता है तो इसम आ य या है बेटी; जो तेरी आँख म बसा है वही तो तुझे हर ओर
िदखेगा।’’
‘‘यशोदे!’’ न द बाबा ने उनक ओर देखते हए कहा,- ‘‘अभी तुम कह रही थ िक हम इ सान ह
पशु-प ी नह ।’’
‘‘हाँ कह तो रही थी।’’
‘‘तो मुझे लगता है कह हम इन पशु पि य से कुछ सीखने क आव यकता है; वे अपनी
स तान से अपे ाय नह रखते और िनरथक ेम म भी नह पड़ते।’’
‘‘ या ेम भी िनरथक होता है?’’
‘‘हाँ होता है... जब तक ब चे छोटे होते ह, हम उ ह यार करते ह, पालते ह, उस समय यिद यह
यार क भावना हमारे बीच म न हो तो हम उन ब च का उिचत लालन-पालन नह कर सकगे,
उ ह पालने का काय बहत किठन हो जायेगा; शायद इसीिलये कृित ने माँ-बाप के मन म ब च
के िलये यार क भावना पैदा क होगी; िक तु उनके समथ और बड़े होने पर भी, उनके यार म
यँ ू पड़े रहना यथ ही तो है।
िजससे हम यार करते ह उससे हम कुछ अपे ाय भी हो ही जाती ह, यही हमारे क का कारण
बनती ह यशोदे।’’
राधा शा त बैठी, गौर से इस वातालाप को सुन रही थ , बोल ,
‘‘बाबा, अगर आप इसे मेरी ध ृ ् ता न समझ तो एक बात पछ
ू ू ँ ?’’
‘‘पछ
ू ो बेटी।’’ न द ने कहा।
‘‘ नेिहल स ब ध, जो वतः हो जाते ह, उनम भी कोई हािन-लाभ का गिणत रखता है या?’’
‘‘रािधके, नेिहल स ब ध म, या य कह िक ेम म गिणत का यान नह रखना चािहए, पर
यह जो हमारा मन है, कह न कह िकसी न िकसी कोने म गिणत छुपाये ही रहता है... यही
अपे ाएँ पैदा करता है जो बाद म हमारे क का कारण बनती है।’’
‘‘माँ, या आपने और मने, कृ ण से िनः वाथ ेम नह िकया? कृ ण हमारे िलये कुछ कर ऐसी
तो कोई अपे ा हमने नह रखी, िफर हम यह क य ?’’
‘‘िजससे हम ेम करते ह, उसके िवरह म हम न जीना पड़े , यह भी अपे ा ही तो है; अपे ाय
बहत सेे प धारण कर लेती ह।’’
‘‘इतने ग भीर िवमश म उलझकर सुबह को और बोिझल मत बनाइये वामी; कलेवा भी अभी
तक वैसा ही पड़ा हआ है।’’ यशोदा ने कहा।
‘‘ओह, मा करना यशोदे; चलो हम कलेवा शु करते ह; राधा भी हमारा साथ िदये िबना नह
जायेगी, और राधा, तुम देरी के िलये िचि तत मत होना बेटी, म तु हारे साथ तु ह छोड़ने चलँग
ू ा,
इसी बहाने वषृ भानु जी से भट भी हो जायेगी।’’ न द ने कहा।’’
‘‘ठीक है बाबा, माँ! आप मुझे मा करना मने आपका मन दुःखा िदया,’’ राधा ने कहा।
‘‘अरे नह राधे; कृ ण के साथ साथ तू भी हमारे ाण म बसती है।’’

मन चलते-चलते थक गया है
मिृ तय के वन समा ही नह होते
और छुपी हई अपे ाय
काँट सी पैर म चुभ रही ह
मन इनसे िनकलना चाहता है
पर आँख को या सझ ू ी है
जो इ ह स चने
और हरा-भरा रखने म जुटी ह

* * *

देवक , वसुदेव, ि मणी और कृ ण एक साथ बैठे हए थे। कलेवा अभी समा हआ था। वासुदेव
उठे , बोले,
‘‘अ छा म अपने क म चलता हँ, भगवान िशव पर कुछ सािह य िमला है, उसे पढ़ने म लगा
हँ।’’
‘‘म भी चलती हँ आपके साथ।’’ कहकर देवक भी उठ गई ं। ि मणी, महल क अ य यव थाओं
को देखने के िलये उठ । कृ ण कुछ ण के िलये अकेले बैठे रह गये। सहसा उ ह महसस
ू हआ
िक उनके ने म अ ु आ गये ह। उ ह राधा का मरण हो आया। वे समझ गये, अव य राधा कह
रोई ह; मेरे ने म भर जाने वाले अ ु उ ह के ह।
महान योगे र ने ने ब द िकये, मन गहन यान क अव था म गया, और गोकुल का न द,
यशोदा और राधा का वह सारा य सामने आ गया। कृ ण याकुल हो उठे । राधा तो चलो मेरा
अंश है, हमारे सुख-दुख अलग हो भी नह सकते, िक तु माँ यशोदा और बाबा न द को कैसे
समझाय... उनके िलये तो कुछ भी नह कर सका म।
उ ह वह समय मरण हो आया, जब मा कुछ ही पवू उनक यारहव वषगाँठ मनाई गयी थी।
स या का समय था। गाय से दुध दुहा जा रहा था। वे वयं और उनके बड़े भाई बलराम, बाल
सुलभ कुतहू ल से पास ही खड़े गाय का दुहना भी देख रहे थे और थोड़ा बहत खेल भी चल रहा
था, तभी एक बड़ा और भ य रथ वहाँ आकर का। उससे मू यवान व से सजे एक
काि तमान पु ष उतरे । सभी लोग कुतहू ल से उनक ओर देखने लगे।
कृ ण ने सदैव क भाँित अपने बाल म मोर का पंख लगा रखा था और एक हाथ म बाँसुरी भी
पकड़ रखी थी। संभवतः वही उनक पहचान बनी, य िक िनता त अिप रचत उस यि ने रथ
से उतरने के बाद उनक ओर आकार उ ह णाम िकया था।
वयं से इतने बड़े यि ारा णाम िकये जाने से वे संकोच से भर उठे । उ ह ने भी उस यि
को णाम िकया।
‘‘म अ ू र, मथुरा म आपके मामा कंस के पास से आ रहा हँ; आप ीकृ ण ह न ?’’ उस यि ने
कहा।
‘हाँ।’
‘‘और अव य ही ये आपके भाई बलराम ह गे?’’ उ होन बलराम क ओर इंिगत कर पछ
ू ा।
‘‘हाँ, िक तु आपने हम कैसे पहचाना?’’ कृ ण ने आ य से पछ
ू ा।
‘‘बस पहचान िलया।’’ उ ह ने हँसकर कहा, िफर थोड़ा ककर बोले,
‘‘आपके बारे म बहत कुछ सुन रखा है सो अनुमान लगाया।’’
‘‘आप िकसी कायवश पधारे ह?’’
‘‘मुझे न द बाबा से िमलना है।
‘अ छा।’ कहकर कृ ण दौड़कर न दबाबा के पास पहँचे। उ ह अ ू र जी के बारे म बताया, तो
न द बाबा वयं उनके वागत के िलये आये। उ ह सादर, महल के अ दर ले गये। आसन िदया,
कुशल ेम पछू ी, िफर पछ
ू ा,
‘‘भगवन् कैसे कृपा क ?’’
न द बाबा के इस से अ ू र जी ग भीर हो गये।
‘‘बहत कुशल तो नह है, इसीिलये म यहाँ हँ।’’ उ ह ने कहा।
‘‘ या हआ?’’
‘‘कंस, बालक कृ ण से बहत भयभीत है; इ ह मरवाने के उसके अब तक के सारे यास असफल
हो चुके ह अतः िखिसयाहट म उसने इनके माता-िपता देवक और वसुदेव को ही जान से मारने
का िनणय कर िलया है। बहत किठनाई से समझा-बुझााकर उसे रोका गया है।
‘अ छा!’ न द बाबा ने आ य से कहा।
‘हाँ ।’
‘िफर?’
‘मुझे लगता है कृ ण और बलराम को मथुरा चलकर इस करण को सदैव के िलये समा कर
देना चािहये।’’
‘‘िक तु वे तो अभी िनरे बालक ह।’’
‘‘वे आयु म बालक अव य ह, िक तु उनक बुि म ा और परा म क िजतनी कहािनयाँ मने
सुनी ह, उससे वे साधारण बालक तो नह लगते; मुझे िव ास है िक मथुरा जाकर वे कंस के हर
यास का समुिचत उ र देने म पण
ू स म ह, और यही देवक और वसुदेव के जीवन को बचाने
का एक मा माग है।’’
‘‘ या कंस भी चाहता है िक कृ ण और बलराम वहाँ जाय?’’
‘‘हाँ, उसके आदेश से ही म इ ह लेने आया हँ।’’
न द बाबा, कृ ण और बलराम को न भेजने के स ब ध म और भी बहत कुछ कहना चाहते थे,
िक तु देवक और वसुदेव के ाण पर संकट क बात ने उ ह िन र कर िदया; वे मानो दय
पर प थर रखकर बोले,
ू लेते ह।’’
‘‘यशोदा से भी पछ
उसके बाद कृ ण को मरण है िक देवक और वसुदेव के ाण पर संकट जानकर वे भी मना तो
नह कर सक , िक तु बहत समझाने पर भी उनका रोना देखा नह जा रहा था। अंत म उनके
शी ही लौट आने क बात पर उ ह कुछ धीरज बँधा और उनका रोना कम हआ।
कुछ ही देर म सारे व ृ दावन म यह बात फै ल गयी। कृ ण के ार पर भीड़ एकि त हो गयी। कृ ण
ने देखा उस भीड़ म अपने माता-िपता क ितदा और वषृ भानु के साथ राधा भी आयी हई थ और
गोिपय के एक झु ड म आगे ही खड़ी थ । दोन ने एक दूसरे को देखा। राधा क आँख म आँसू
थे।
कृ ण के मन म भी पता नह या- या चल रहा था। उनको ज म देने वाले माता-िपता देवक
और वसुदेव ह, यशोदा और न द नह ; यह उ ह आज ही पता लगा था... इससे मन म बहत
आ य भी था और बहत अिधक पीड़ा भी। यशोदा और न द उनके सगे माता-िपता नह ह, यह
जानकर बालक कृ ण का मन रो उठा था।
उ ह लग रहा था, शायद अभी माता यशोदा आयगी, उ ह उदास देखकर, ख चकर उ ह अपनी
गोद म लेकर कहगी, ‘ये सारी बात हँसी क थ , म ही तेरी माँ हँ, पगले।’’ िक तु ऐसा कुछ भी
नह हआ। कृ ण का मन रोकर रह गया था।
िफर देवक और वसुदेव उनके असली माता-िपता ह और उनका जीवन कृ ण के कारण ही संकट
म है, इस बात ने भी उ ह बहत अिधक पीड़ा दी थी। उनके मन म देवक और वसुदेव के जीवन
को बचाने का कत य-बोध भी था और उ ह इस यो य समझा गया, इसका कुछ गव भी।
पीड़ाय कुछ और भी थ । माता यशोदा और बाबा न द, िजनक गोद म पलकर वे बड़े हए थे,
उनसे और व ृ दावन के अपने िम से िबछड़ने क पीड़ाय तो थ ही, िज ह सरलता से वे दूसर से
साझा कर सकते थे, िक तु एक और पीड़ा, िजसे कहने म भी कृ ण को कह बहत संकोच सा
था, वह थी राधा से दूर जाने क पीड़ा। अब राधा क आँख के आँसुओ ं ने उनक उस पीड़ा को भी
पीछे छोड़ िदया था।
‘‘हम शी लौट आयगे न भइया?’’ कृ ण ने राधा को सुनाकर बलराम से कहा, और बलराम ने
अपने वभाव के अनुकूल ही ग भीरता से कहा,
‘हाँ।’
बलराम, इस प रि थित म भी बहत सामा य लग रहे थे। कृ ण ने बलराम को सदैव बहत शा त
और सुलझी हई कृित का ही पाया था। उ ह कभी-कभी ही ोध आता था, िक तु जब आ जाता
था तो उसे शा त करना बहत किठन होता था।
राधा ने उनक बात सुनी और ह ठ को कुछ ितरछाकर िसर को झटका। कृ ण को लगा, जैसे वे
कह रही ह , ‘चलो, रहने भी दो ये बात।’’
उसी समय उस भीड़ म से िकसी ने अ ू र जी को देखकर साथ वाले से पछ
ू ा,
‘‘यही हमारे कृ ण और बलराम उको हमसे अलग करने आये ह?’’
‘‘ हाँ, यही ह अ ू र जी।’’ उ र िमला।
‘‘ काम इतनी ू रता का, और नाम िकतना शुभ है, अ ू र।’’ भ्◌ाीड़ म से एक वर आया।
िजसने भी सुना, उसी के ह ठ पर ह क सी हँसी आ गयी; यहाँ तक क राधा और कृ ण के ह ठ
पर भी; िक तु कृ ण के अधर पर हँसी देखकर राधा पुनः ग भीर हो गय और बगल वाली गोपी
से कृ ण को इंिगत करके बोल ,
‘‘हम रो रहे ह और इनको हँसी आ रही है।’’
इसके साथ ही कुछ पल के िलये राधा ने मुख घुमा िलया। कृ ण कहना चाहते थे िक ऐसा नह है,
मेरा िदल भी कम नह रो रहा है, िक तु कह नह सके। राधा का वह मुख घुमा लेना, बहत िदन
तक कृ ण के मन म बसा रहा।
मथुरा आने के बाद प रि थितयाँ एक के बाद एक कुछ ऐसे मोड़ लेती रह िक व ृ दावन लौटकर
जाना टलता ही रहा, और िफर भी कभी हो ही नह सका। यशोदा और न द के िलये कुछ न कर
पाने का दुःख जीवनभर पीड़ा देता ही रहा।

* * *
मथुरा म कृ ण क भट उ व से हई। वे कृ ण के िपता वसुदेव के भाई देवभग के पु थे। उनका
जीवन मथुरा म ही बीता था। वे आ याि मक कृित के, िव ान, अ ययनशील और िज ासु यि
थे। उ ह कृ ण का यि व बहत भािवत था, और शी ही वे कृ ण के घिन िम हो गये।
कृ ण के मन म राधा के िलये जो भावनाय थ , उ ह बहत कुछ वे जान चुके थे और राधा के मन
म कृ ण को लेकर जो भावनाय हो सकती थ , उनका उ ह ने सहज ही अनुमान लगा िलया था।
कृ ण का यि व उनके सामने था, और राधा के यि व का अनुमान कृ ण क बात सुनकर
उ ह ने लगा िलया था। वे समझ गये थे िक राधा कोई साधारण ी नह ह। कृ ण के तो वे
लगभग भ ही हो चुके थे। उ ह राधा और कृ ण क एक दूसरे के ित भावनाएँ िनता त भौितक
आकषण लगती थ ।
कृ ण को तो वे बहत बार समझा भी चुके थे, िक तु राधा, कृ ण के िलये अ य त पीिड़त रहती
ह गी, यह जानकर उनके मन म राधा से कुछ आ याि मक चचा करने क , या य समझा जाय
िक उ ह इस भौितक ेम से िवरत होकर ई र म मन लगाने क बात समझाने क बहत ती
इ छा थी, और कृ ण उनके मन क यह बात समझ भी चुके थे।
एक बार कृ ण और वह कह जा रहे थे। माग म कृ ण को बहत यास लगी। उ व उनके िलये
पानी ढूँढ़ने लगे। कुछ दूर पर एक भवन िदखाई पड़ा। उ व वहाँ गये। िकसी वैभवशाली यि
का घर था। उ व ने पानी माँगा। सस मान उ ह और कृ ण को पानी िपलाया गया। वहाँ से चले,
तो दोन ने उस वैभवशाली यि क और अिधक समिृ क कामना क ।
कुछ दूर जाने के बाद कृ ण को िफर यास लगी। उ व ने आसपास देखा। एक झोपड़ी िदखी। वे
वहाँ गये। एक सं यासी िमला। उ व ने उससे पीने के िलये थोड़ा पानी माँगा।
‘‘पानी तो नह है मेरे पास, पर पास ही मेरी बहत ि य गाय है, तुम चाहो तो उसका दूध दुहकर
अपनी ओर अपने साथी क यास कुछ कम कर सकते हो।’’ स यासी ने कहा।
उ व ने ऐसी ही िकया। पानी माँगा था दूध िमला। उ व, सं यासी से बहत भािवत थे। उ ह ने
उसक गरीबी िमटने क कामना क , िक तु उ ह बहत आ य हआ, जब उ ह ने देखा िक कृ ण,
भाव-रिहत से चुप ह।’’
ू ा। कृ ण हँसे,
‘‘आपने उस स यासी क गरीबी िमटने क कामना नह क ?’’ उ ह ने कृ ण से पछ
बोले,
‘‘मने कामना क है िक उस यि क गाय भी कह चली जाये।’’
‘‘ य ? ऐसा य ?’’
‘‘वह सं यासी है; इस गाय से मोह ही उसका एक मा ब धन है; वह छूट जाये तो वह पण
ू मु
पु ष हो सकता है।’’
इससे उ व ने कृ ण को कुछ और समझा। उनक िम ता जब से कृ ण से घिन हई थी, और
उ ह राधा और कृ ण क एक दूसरे के ित भावनाओं का कुछ अनुमान हआ था, तब से उनके
मन म एक भी उठ रहा था, िक तु उसे कृ ण के स मुख रखने का साहस वे नह कर पा रहे
थे।
आज कृ ण क इस बात के बाद उ ह लगा िक कृ ण से वह पछ
ू ने का उिचत समय है।
उ ह ने साहस कर कहा,
‘एक है।’
‘‘ या?’’ कहकर कृ ण ने मु कराते हए उ व क ओर देखा। कृ ण क इस मु कुराहट ने उ व
को अित र बल दान िकया।
‘‘लोग कहते ह, राधा आपके िवरह म याकुल ह; आपने कभी उनको इस भौितक ेम से बचने
क सलाह य नह दी?
कृ ण हँसे। राधा को लेकर कोई भी कभी भी उनसे िकया जा सकता है, यह वे जानते थे
‘‘कभी समय ही नह िमला; लौटकर वहाँ जाना हो ही नह सका।’’
‘ओह।’
‘‘ आप मेरा एक काय करगे उ व जी?’’
‘‘आपके काम आना मेरा सौभा य होगा।’’
‘‘आप मेरे िम ह, िव ान ह, और आ याि मक सोच रखने वाले भी ह; म चाहता था िक जो काय
म नह कर सका वह आप स प न कर मेरी सहायता कर।’’
कृ ण के इस ताव पर उ व कुछ च के, ‘ऐसा कौन सा काय हो सकता है? उ ह ने सोचा।
‘अथात...?’ उ ह ने कहा।
‘‘छोटा सा काय था और आपक िच के अनुकूल भी।’’
‘ या?’
‘‘बस, म इतना चाहता था िक आप वयं व ृ दावन जाकर राधा को इस भौितक ेम से बचने और
अपनी ऊजा को ई र क ओर मोड़ने का परामश देते।’’
इस बात पर उ व अचि भत हए।
‘‘ या आपक ि म म इस यो य हँ?’’ उ ह ने कहा।
- ‘‘मेरी ि म इस काय के िलये आपसे यो य दूसरा कोई यि नह है।’’
‘‘कब जाना होगा?’’
‘‘जब आप जाना चाह, िक तु शी ता करगे तो अ छा रहे गा।’’
उ व सोच म पड़ गये। उनके मुख से िनकला,
- ‘‘ या अभी?’’
‘‘नह इतनी शी ता नह है; आज यव था कर लीिजये, कल चले जाइयेगा।
‘‘ठीक है; या आप कोई प दगे? इससे मेरा काय अव य ही आसान हो जायेगा।’’
‘‘इसक आव यकता है तो नह , िक तु यिद आपको लगता है िक इससे आपको सुिवधा होगी तो
ठीक है; प भी मुझसे कल ही ले लीिजयेगा। और हाँ, जब जा रही रहे ह तो माँ यशोदा और बाबा
न द को मेरा णाम भी िनवेिदत करते आइयेगा।’’
‘अव य।’
दूसरे िदन कृ ण ने उ व को राधा के िलये एक प िदया, और उनके िलये एक सभी सुिवधाओं से
यु एक ती गामी रथ का ब ध करवा िदया। उ व, व ृ दावन पहँचे। न द का घर ढूँढ़ने म उ ह
कोई किठनाई नह हई।
कृ ण का दूत जानकर यशोदा और न द ने उनका दय से वागत िकया। कुशल ेम के
उपरा त कृ ण क बात ार भ हो गय । उ व ने उ ह कृ ण के णाम िनवेिदत िकये तो दोन ही
भाव िव ल हो गये। उनके छोटे से कृ ण ने कंस जैसे महाबली राजा को बहत आसानी से हराकर
उसका वध कर िदया, जानकर वे कृ ण के ित गव से भर उठे ।
यशोदा, कृ ण क मिृ तय म खोकर आँसी सी हो उठ , उनका क ठ ँ घने लगा था।
इस बीच व ृ दावन म कृ ण के दूत के आने का समाचार बहत को िमल चुका था। न द के आँगन
म बहत से ी-पु ष आ चुके थे। सच तो यह है िक परू े व ृ दावन म िजसे भी उ व के आने का
समाचार िमलता था, वही ती ता से न द के घर क ओर चल देता था।
उ व उ ह कृ ण के बारे म बतलाने लगे। यशोदा, कृ ण का समाचार िमलने से स न तो थ ,
िक तु साथ ही उनके िलये याकुल भी बहत थ ।
‘‘मेरा ब चा कब आयेगा?’’ उ ह ने उ व से पछ
ू ा।
कृ ण ने आने के स ब ध म तो कुछ कहा ही नह था, अतः इस पर उ व कुछ सोच म पड़
गये... िफर वे तो सबको िनराकर ई र से ेम करने क बात समझाने आये थे, िक तु कुछ
सोचकर बोले,
‘‘संभवतः अपनी य तताय कम होते ही वे अव य आयगे।’’
कुछ देर बाद उ ह ने क ितदा और वषृ भानु के स ब ध म पछ
ू ा। कृ ण का दूत आया जानकर
वषृ भानु वयं ही आये हए थे।
‘‘हे कृ ण के दूत! मेरे घर को पिव नह करगे?’’ उ ह ने उ व से कहा। उ व, यशोदा और
न द बाबा से िवदा लेकर वषृ भानु के साथ उनके घर पहँचे।
क ितदा ने उनका वागत िकया, िक तु राधा अभी भी सामने नह आय , जब िक उ व का
अनुमान था िक कृ ण के दूत के आने क बात सुनते ही राधा ज दी से ज दी उनसे िमलना
चाहगी। उ ह ने वयं राधा के बारे म पछ
ू ा। क ितदा ने आवाज दी,
‘‘बेटी राधा।’’
‘माँ।’
‘‘कृ ण के दूत आये ह, तुमसे िमलना चाहते ह।’’
आई। कहकर िनिवकार सी धीरे -धीरे चलती हई राधा आय । उ व ने राधा को, और राधा ने उ ह
णाम िकया। उ व ने बड़े उ साह से कृ ण का प आगे करते हए कहा,
‘‘ ीकृ ण का प है।’’
राधा ने बहत शाि त से वह प िलया। उसे खोला। कुछ पल के िलये उसे िनहारा और िफर हँस
पड़ ।
उ व ने कृ ण को मरण कर यशोदा को रोते देखा था, इसी आधार पर उनका अनुमान था िक
राधा, कृ ण के प को देर तक पढ़गी; एक-एक पंि , एक-एक श द का अथ खोजगी, और
बहत स भव है वे भी कृ ण क मिृ तय म डूबकर ने म अ ु भर ल। वे उ ह समझाने के िलए
बहत कुछ सोचकर आये थे, िक तु राधा को यँ ू हँसते देखकर वे आ य से भर उठे , और अनायास
ही उनके मुख से िनकल पड़ा,
‘‘ या हआ? आप हँस य ?’’
‘‘कुछ नह , पर इसम बात ही ऐसी िलखी है।’’
‘‘कौन सी बात?’’
‘‘इसम िलखा है िक प लाने वाले क िश ा अभी अधरू ी है।’’
‘‘अ छा! या म देख सकता हँ, ऐसा कहाँ पर िलखा है?’’ उ व ने पछ
ू ा। उ ह ने बहत अिधक
अ ययन िकया था। सच तो यह है िक उनका अब तक का जीवन, अ ययन और अ यापन म ही
बीता था, और सच कहा जाय तो उ ह अपनी अ ययनशीलता और ान पर कुछ गव भी था।
राधा क इस बात से वे च क उठे थे, िक तु जब राधा ने हँसते हए प ही उनके आगे िकया, तब
और भी अिधक च के। उ ह ने आ य से देखा, कृ ण का राधा को प मा , एकदम कोरा काग़ज़
था, उसम कुछ भी िलखा हआ नह था।
‘‘पर इसम तो कुछ भी नह िलखा है।’’ उ ह ने राधा से कहा।
‘‘िक तु मने वह सब पढ़ िलया है जो वे िलखते। हम दो िदखाई देते अव य ह, पर हम दो नह ह;
हमारे बीच म एक दूसरे से कहकर बताने के िलये कुछ है ही नह ।
िव ास, ेम और याग, श द मा नह ह; हमने अपने अहं को िमटाकर िजया है, और कह भी
रह, हम एक दूसरे का मन पढ़ लेते ह।
उ व हत भ थे
‘‘और मेरी बात?’’ उ ह ने पछ
ू ा।
‘‘सच कहँ तो वह आपके मुख पर िलखी हई है।’’ कहकर राधा उ ह िनहारने लग । उ व कुछ
बोल नह सके।
‘‘आ य हो रहा है?’’ राधा ने पछ
ू ा।
‘हाँ।’
‘‘तो सच यह है िक उनके ित आपका समपण अभी अधरू ा है; अभी ‘म’ शेष है; जब ‘म’ नह
होगा, तब हर ओर वही होगा; तब िकसी स देश के भेजने या पाने क आव यकता नह रहे गी,
हर ओर वही शेष रह जायेगा, बस। तै को िमटाकर अ त ै हो जाना ही या हर थ का सार
नह है?’’
उ व मक
ू और अिभभत ू थे। कुछ समय और वह रहने क इ छा कब उनके अ दर जागी और कब
बलवती हो गयी, उ ह पता ही नह लगा। वे आन द के िकस भाव म डूब चुके थे, यह उ ह भी
पता नह था... और तभी उ ह सुखद आ य हआ, जब वषृ भानु ने उनसे राि वह िबताने का
आ ह िकया।
उ ह लगा जैसे उ ह िबना माँगे सब कुछ िमल गया हो। राधा के ित वे अगाध ा से भरे हए थे।
वे उ ह ई र का प लग रही थ । उनके रहने के थान म उ ह भी एक राि िबताने का अवसर
िमलेगा, इस बात से वे आन द से रोमांिचत हो उठे ।
राि म उनका िब तर एक आरामदायक त त पर िबछाया गया था। वे सबके सामने उस पर लेटे
अव य, िक तु एका त होते ही भिू म क ओर देखने लगे। इस भिू म पर राधारानी के चरण पता
नह िकतनी बार पड़ ह गे, इस पर उनके चरण क धल ू तो होगी ही... उनके चरण न सही, उन
चरण क धल ू ही सही; उ ह ने मन ही मन सोचा और िब तर छोड़कर उठे और भिू म पर लेट गये।
रातभर उनके मि त क म राधा क बात गँज ू ती रह । उनके मन के सारे खो चुके थे। करवट
बदलते और भिू म पर लोटते ही रात बीती। कोई उ ह इस हाल म देख न ले, इस कारण सय ू क
िकरण क आहट होते ही उठ गये।
कुछ देर म नान यान से िनव ृ हए तब तक और लोग भी उठ गये थे। उ व का वह भिू म
छोड़कर जाने का मन तो नह था िपफर भी जाना तो था ही। वे जाने के िलये तैयार हए। जाने से
पवू उ ह ने एक बार पुनः राधा से िमलने क इ छा कट क । राधा आई ं। उनके अधर पर
मु कान थी।
ू ा। उ व को लगा जैसे उनक रात का सारा
‘‘रात ठीक से न द आयी?’’ उ ह ने मु कराते हए पछ
य राधा क आँख म है, उनसे कुछ भी िछपा हआ नह है।
‘हाँ।’’ कहते हए राधा को णाम िकया और बहत संकोच से कहा,
‘‘मन म एक था।’’
‘‘िनःसंकोच कर।’’
‘‘इस गाँव जैसी जगह म रहकर आपने इतना ान कैसे ा कर िलया?’’
‘‘जीवन म लगभग येक ण आपको दो म से एक प चुनना रहता है; स य और ेम का प
चुनने से आपको अ त ि ा होती है, अ त ि से म टूटते ह, और म का टूटना आपको
उस सव च स ा क ओर ले जाता है; यह बहत सरल है।’’
‘‘आप ीकृ ण के साथ ेम म होते हए भी अपने ब धन को कैसे तोड़ पाय ?’’
‘‘भय के कारण ेम, और िव ास के कारण ेम म अ तर होता है; पहला ब धन देता है, दूसरा
ब धन से मुि । एक िवरह और मु यु का भय देता है, दूसरा सतत िमलन, और जीवन से भर
देता है।
...हमारा ेम इस दूसरी तरह का ेम ही तो है, जहाँ िनबाध िमलन ही िमलन है; और िफर राधा
और कृ ण तो पानी म उठती तरं ग ह; िमटने ही ह, िक तु ेम तो समु है, िवशाल और अथाह।’’
‘‘िबना संसार यागे वहाँ तक पहँचा जा सकता है या?’’
‘‘हाँ, य नह ? भौितक प से नह , िक तु मन से संसार को छोड़ने म भोग क लालसा के
अित र और या आड़े आता है?’’
‘‘कुछ नह ।’’
‘‘कृ ण का मन संसार म कभी भी नह था, और न होगा।’’
‘‘और आपका मन?’’
‘‘पु ष, जहाँ संसार को छोड़कर पहँचता है, ी वहाँ संसार को अपने म समेटकर पहँच जाती
है।’’
‘‘ या ान क खोज क सारी बात यथ ह? जीवन का अथ या है?’’
‘‘हम जीवन के जो अथ दे सक वही इसका अथ है; बस इसे िनरथक नह जाने देना चािहये और
हाँ, मा कुछ मु ाओं क खोज, वैभव क खोज नह है; िकसी सुख क खोज, आन द क खोज
नह है और उपािधय क खोज, ान क खोज नह है।’’
राधा के उ र ने उ व को ऊपर से नीचे तक िहला िदया था। वे वयं भी तो अपने िलये ‘महिष’
भी उपािध चाह रहे थे। उ व को अपने कम होते और अहं टूटता हआ सा लगा। संसार बहत
अिधक यापक और शाि त से भरा हआ लगने लगा।
उ ह ने राधा को णाम िकया। राधा उ ह बोल ,
‘‘म इतने स मान के यो य नह हँ।’’
‘‘सच है, आप का थान इस तरह के स मान से कह ऊपर है।’’
उ व ने क ितदा और वषृ भानु से िवदा माँगी।
‘‘न द के यहाँ तो जायगे?’’ वषृ भानु ने पछ
ू ा।
‘‘हाँ, व ृ दावन छोड़ने के पवू उ ह णाम तो िनवेिदत करने ही ह।’’
‘‘तो म भी आपको वहाँ तक छोड़ने चलता हँ।’’
‘आइये।’
उ व और वषृ भानु, रथ म बैठकर न द के यहाँ तक गये। उ व जब वहाँ से भी चलने लगे तो
सभी ने, और िवशेष प से यशोदा ने बार-बार उनसे कृ ण को साथ लेकर पुनः आने का अनुरोध
िकया।

* * *
वे जब लौटकर कृ ण के स मुख पहँचे तो उ ह लगा जैसे उनका काया-क प हो चुका है। वे वह
उ व नह रह गये ह जो इस या ा के पवू थे।
कृ ण ने मु कराकर उनका वागत िकया।
‘‘या ा पण
ू हई उ व?’’ उ ह ने कहा।
उ व को लगा जैसे कृ ण पछ
ू नह रहे ह, प रणाम सुना रहे ह।’’
‘‘हाँ, और म सौभा य क अनुभिू त से भर गया हँ।’’
कृ ण िफर मु कराये। उ व को कृ ण से व ृ दावन के स ब ध म क ती ा थी, िक तु उस
अ तरयामी ने उनसे कोई नह िकया। तब उ व ने वयं कहा,
-कोई राधा ी को समझ ले यह बड़ी बात है।’’
इस बार उ व ने राधा के नाम के साथ ी लगाया था, यह बात कृ ण के यान म आयी। उ ह ने
हँसकर पछू ा,
‘‘तो कुछ समझ सके या?’’
‘‘कुछ यि व इस संसार म पानी म हंस क भाँित रहते ह, जो पानी म खेलता तो रहता है,
िक तु अपने पंख को भीगने नह देता।’’

* * *

कृ ण िवचार म खोये हए थे। उ ह लग रहा था िक आज जब माँ यशोदा और बाबा न द को एक


सहारे क आव यकता है, तब कौन है वहाँ राधा को छोड़कर, िजससे वे आ मीयता महसस
ू करते
ह ? उ ह लगा, राधा का ऋण कभी नह चुक सकेगा, इस ज म म तो िब कुल भी नह । िकसी
काय से ि मणी पुनः वहाँ आई ं। कृ ण को चुपचाप अकेले बैठे देखा, बोल ,
‘‘ या सोचने लगे आप?’’
िवचार म खोये हए कृ ण, ि मणी के वर से च के।
‘‘कुछ नह , यँ ू ही माता यशोदा और बाबा न द क याद आ गयी थी।’’
‘उ ह भी यह य नह ले आते आप?’’
‘‘तुमने बहत वाभािवक उठाया है ि मणी; यह और के मन म भी उठता होगा, िक
जैसे म माँ देवक और िपता ी वसुदेव को यहाँ लाया, वैसे ही माँ यशोदा और बाबा न द को य
नह लाया?
शायद लोग यह भी सोचते ह िक कृ ण अपने ज म देने वाले माता-िपता और पालने वाले माता-
िपता म अ तर करता है, य िप ऐसा नह है; ि मणी, म उ ह यहाँ बुलाने का यास कर चुका
हँ।’’
‘‘िफर य नह आये वे?’’
‘‘ या कहँ ि मणी, उनका उ र था िक िजस घर आँगन म खेलकर उनका यह कृ ण बड़ा हआ
है, उसे वे शरीर म ाण रहते नह छोड़ सकते। उसका कोना-कोना उ ह मेरे बचपन का मरण
कराता है। वे कहते ह, वह घर ही उनका मि दर भी है तीथ भी, वे उसे जीते जी सन
ू ा नह कर
सकते।’’
कुछ ककर कृ ण पुनः बोले-‘‘िजस थान से उनक भावनाय इतनी ती ता से जुड़ी ह, उसे
छोड़ना उनके िलये िकतना क कारी होगा, यही सोचकर मने यह यास छोड़ िदया।’’
‘‘और राधा?’’ ि मणी ने िकया,
‘‘तु ह उनसे ई या तो नह होती ि मणी।’’
‘‘ भु, परम ानी होते हए भी आप अपनी प नी को समझ नह सके; मुझे उनसे ई या कभी नह
हई। मा यारह वष क अव था म आप मथुरा आ गये थे, तब से आज तक उ ह ने आपक
मिृ तय के िसवा पाया ही या है?
म उनके ेम और याग के स मुख अपने को कह भी नह पाती; उस देवी के आगे म सदैव
नतम तक हँ और रहँगी।’’
थोड़ी देर ककर ि मणी ने पुनः कहा,
‘‘आपने मेरे का उ र नह िदया मुरलीधर।’’
‘‘ या ि मणी? या है तु हारा?’’
‘‘मने पछ
ू ा था, राधा को य आपने वह छोड़ िदया?’’
‘‘मेरा उन पर अिधकार ही या था ि मणी? और िविध का िवधान देखो; आज माँ यशोदा, बाबा
न द और वषृ भानुसुता राधा ही पर पर एक-दूसरे का स बल बने हए ह; इनम से एक भी कड़ी
को तोड़ने का साहस, काल ही कर सकता है।’’
‘‘ या काल आपसे बड़ा है मुरलीधर?’’
‘‘ ि मणी, आज तुम मुझे िन र करने वाले य कर रही हो?’’
‘ मा।’ कहकर अपनी आँख प छते हए ि मणी हलके से हँस ।
‘‘यह या; तुम हँस भी रही हो और रो भी रही हो?’’
कृ ण ने उनके हाथ अपने हाथ म ले िलये। ि मणी ने धीरे से उन हाथ को दबाया और
बोल -‘‘आप नह समझ पायगे वंशीधर; मुझे अपने भा य पर गव भी हो रहा है और उस पर रोना
भी आ रहा है; इसिलये म हँस भी रही हँ और मेरी आँख म आँसू भी ह।’’
‘‘म अब भी नह समझा ि मणी।’’
‘‘मने आपको पाया, इस बात से मुझे अपने भा य पर गव है; और इतने वष आपके साथ िबताने
पर भी आपको पा नह सक , इस बात पर मुझे रोना तो आयेगा ही।’’
‘‘ या कह रही हो तुम? तुमने मुझे पाया भी और नह भी पाया; इस बात म िकतना िवरोधाभास
है।’’
‘‘नह भु, कोई िवरोधाभास नह है; एकदम सरल और सीधी बात है।’’
कृ ण चुप रह गये। ि मणी ने उनके दोन हाथ थामकर अपनी पलक से छुआये, िफर उनके
चरण को पश िकया। आँसू उनके ने से लुढ़ककर कृ ण के पैर पर िगर पड़े । वे उठ और चल
द । कृ ण, उ ह जाते हए देखते रहे , और जब वे ि से ओझल हो गई ं तब उठे और चुपचाप महल
से बाहर चले गये।
एक िखलते फूल पर
ठहरी हई कुछ ओस क बँदू
ढलक कर िगर पड़
मु कराहट म िछपी पीड़ा
छलक कर छू गई मन
7 - दुरिभसि धय के प ृ

ा रका म कृ ण का दरबार लगा हआ था। वे राज के काय को तो िनपटा रहे थे, िक तु मन म


और भी बहत कुछ चल रहा था। थोड़ी देर म मन कुछ उचाट सा हआ तो उ ह ने शी ता से
आव यक काय िनपटाये और वहाँ से उठकर महल क ओर चल िदये।
महल म जाकर रथ से उतरे , तो महल म ही बने एक िशव-मि दर म गये। झुककर णाम िकया
और िफर महल म वेश िकया।
ि मणी को उनके आने का पता लगा तो भागी हई आय ।
‘‘आज आप कुछ शी आ गये ह, सब कुशल तो है?’’
उ ह ने पछ
ू ा।
‘‘हाँ, बस यँ ू ही; काय शी समा हो गया तो तु हारा मरण हो आया; लगा, घर चलँ।ू
‘‘अ छा, प रहास कर रहे ह।’’
‘‘नह , प रहास नह सच।’’
‘‘मेरा सौभा य, म अभी आई, आपके िलये जल ले आऊँ।’’ कहकर ि मणी गय , और शी ही
जल और कुछ सू म जलपान ले आय ।
कृ ण ने जल िलया, िक तु जलपान के िलये बोले
‘‘अभी मन नह ह, चलो तात ी के पास चलते ह।’’
‘‘म भी?’’
‘‘हाँ, अकेले कहाँ बैठी रहोगी।’’
ि मणी और कृ ण, उठकर वसुदेव के क क ओर चले। माग म कृ ण सोच रहे थे िक समय
यतीत होता जा रहा है, और म अभी तक िपता ी के के उ र उ ह नह दे पाया हँ; उनके
पास अिधक िदन नह बचे ह। वसुदेव के क के ार पर पहँचकर वे के, उँ गली से ार
खटखटाया और आवाज दी।
‘तात ी!’
‘आओ कृ ण!’ अ दर से वसुदेव का वर आया। कृ ण अ दर गये। देवक बोल ,
‘‘कृ ण, अ छा हआ तुम आ गये, हम तु हारी ही चचा कर रहे थे।’’
‘‘ य , या हआ माँ? कुछ िवशेष बात तो नह ?’’
‘‘नह , बस तु हारी चचा करना हम अ छा लगता है, और सच कहँ कृ ण, तो तु हारी चचा हम
दोन के बात करने का सबसे ि य िवषय होता है; इसके िलये हम िकसी कारण क आव यकता
नह होती।’’
‘‘यह मेरा सौभा य है माते।’’
‘‘कहाँ से आ रहे हो?’’ वसुदेव ने पछ
ू ा।
‘‘बस, रा य स ब धी िन य के कुछ छोटे-छोटे काय थे, िनपट गये तो लगा चलँ,ू माँ क और
आपक चरण-रज ले लँ।ू ’’
‘‘बहत अ छा िकया, िक तु तु हारे चेहरे से ऐसा लग रहा है कृ ण, िक तुम कुछ कहना चाहते
हो।’’ वसुदेव ने कहा।
‘‘तात, आप ठीक कह रहे ह; उस िदन चचा म आपने कुछ िकये थे।’’
‘‘हाँ िकये थे कृ ण, और मु य का उ र अभी शेष है।’’
‘‘यिद आप समय द तो उस चचा को हम आगे बढ़ा सकते ह।’’
‘‘हाँ बोलो कृ ण।’’ वसुदेव ने कहा।
‘‘पहले एक बात मुझे कहने द आप दोन ,’’ देवक कहने लग , ‘‘कृ ण, आजकल बहत ग भीर
से य रहने लगे हो तुम? तु हारा ग भीर चेहरा देखकर मुझे अपने अ दर पता नह या लगने
लगता है यह म बता नह सकती।’’
कृ ण बहत जोर से हँसे,
‘‘नह माँ, ग भीर नह , म तो हमेशा आपका वही कृ ण हँ, आप यथ ही िचि तत होती ह।’’
‘‘म तु हारी माँ हँ कृ ण, यँ ू झठ ू हँसकर मुझे बहला नह पाओगे।’’
ू -झठ
‘‘और म आपका बेटा।’’ कृ ण उठे और देवक का िसर हाथ से पकड़कर अपने सीने से लगा
िलया। थोड़ी देर बाद जब देवक अलग हई ं तो कृ ण के म तक और बाल को सहलाने लग ,
बोल ,
‘‘मेरे लाल जैसा इस दुिनया म कोई नह ।’’
वसुदेव भी हँस पडे ,़ बोले, -‘‘हो भी नह सकता।’’ िफर कृ ण से बोले,
‘‘कृ ण, या कह रहे थे तुम?’’
‘‘उस िदन आप कह रहे थे िक मने महाभारत के यु को, उससे होने वाले महािवनाश को रोकने
का यास य नह िकया?’’
‘‘हाँ, म यह जानना चाहता था।’’
‘‘मने यह यास िकया था; वनवास से लौटने के बाद तू - ड़ा क शत के अनुसार पा डव
को उनका रा य वापस िमल जाना चािहए था। म पा डव क ओर से यह ताव लेकर, दुय धन
के पास गया था, िक तु उसने इस ताव का उपहास करते हए पा डव का रा य तो या सुई
क नोक के बराबर भिू म देने से भी मना कर िदया।
माता गा धारी, िपता धतृ रा , िपतामह भी म, गु ोणाचाय और महा मा िवदुर आिद ने उसे
समझाने का यास भी िकया, िक तु उसने िकसी क बात मानना तो दूर, उलटा मुझे ही ब दी
बनाने का षड्यं ार भ कर िदया, य िप वह इसम सफल नह हो सका।
यिद धतृ रा , भीम और ोणाचाय चाहते तो उसे पा डव का रा य वापस करने के िलये िववश
कर सकते थे, िक तु अलग-अलग कारण से साम यवान होते हए भी, उ ह ने ऐसा नह िकया,
और पवू क भाँित ही दुय धन के अ याय को चलने िदया।’’
देवक , जो िक इस वातालाप को यान से सुन रही थ , कृ ण को ब दी बनाने के यास क बात
सुनकर कुछ िवचिलत हई ं, बोल ,
‘‘कृ ण, मुझे आ य है िक वह तु ह ब दी बनाने क बात सोच भी कैसे सका; मुझे लग रहा है
दुय धन, दुबुि ही नह , मख
ू भी था और चँिू क धतृ रा , भी म और ोणाचाय वीर थे कायर नह ,
अतः म इसे उनका मौन समथन ही कहू गी।’’
कृ ण ने कहा-‘‘माँ, यह भी तब, जबिक सबको पता था िक शकुिन ारा तू - ड़ा म पा डव
को बेईमानी पवू क हराया गया था, और पा डव ने अपनी वचनब ता के कारण ही ौपदी का
अपमान भी सहा और वन भी गये, अ यथा उ ह बलपवू क इसके िलये मजबरू करने क साम य
िकसी म नह थी।
वयं धतृ रा ने दुय धन और शकुिन के षड्यं का िह सा बनकर कौरव व पा डव दोन के
बुजुग होने क अपनी ि थित का दु पयोग करते हए, युिधि र को जुआ खेलने के िलए
हि तनापुर बुलाया। युिधि र, धतृ रा क आ ा मानते हए हि तनापुर आ तो गये, िक तु जुआ
खेलने क उनक इ छा कदािप नह थी। उ ह ने इसक बुराई करते हए इसे पाप का मल ू बताया।
वे इससे बचना चाहते थे, िक तु कौरव ने उ ह भरी सभा म लगभग घेरकर, उनक बात को
कायरतापण ू बताते हए उनका उपहास िकया और भाँित-भाँित के कुतक का सहारा लेकर उ ह
जुआ खेलने के िलये, और परू ा रा य ही दाँव पर लगाने के िलये उकसाया।
उसके प रणाम- व प और िपता-तु य धतृ रा क इ छा का आदर करते हए युिधि र इस काय
के िलये सहमत हो गये। रा य हारने के बाद उ ह तरह-तरह के यं य बाण से आहत करते हए
ौपदी को दाँव पर लगाने के िलये पुनः उकसाया गया।
धतृ रा , अपने आपरािधक विृ के पु दुय धन और साले शकुिन का मोह और भय, दोन ही
कारण से खुलकर िवरोध नह कर सके। रा य और ौपदी को हारने के बाद, पा डव जब
हि तनापुर से वापस हो रहे थे, तब धतृ रा ने उ ह एक बार िफर बुलवाया और बारह वष के
वनवास और एक वष के अ ातवास का दाँव लगाने के िलये कहा।
इस अ ातवास म यिद दुय धन, पा डव को ढूँढ़ने म सफल हो जाता, तो उ ह पुनः बारह वष वन
म और एक वष अ ातवास म िबताना पड़ता, और अगर दूसरे अ ातवास म भी दुय धन उ ह ढूँढ़
लेता तो िफर से उ ह बारह वष वन म और एक वष अ ातवास म िबताना पड़ता, यह म चलता
ही रहता।
यह योजना इस कार बनाई गई थी िक पा डव कभी भी वन से लौटकर अपना रा य न ले सक।
यह कपटपवू क भले लोग को फँसाकर बरबाद करने का एक तरीका ही तो था।
सारा कुछ दुय धन, शकुिन और कण क पवू िनयोिजत योजनाओं के अनुसार ही हआ। धतृ रा
ने उनके सहायक क , तथा भी म आिद व र जन ने अपने िववेक और पु षाथ को भुलाकर
अ याय के मौन समथक क भिू मका िनभाई।’’
देवक ने पुनः कहा- ‘‘यिद दुय धन ने यह सब षड्यं िकये तो इसम आ य क या बात है?
या ऐसा नह लगता िक कुिटलता और षड्यं करना दुय धन को िपता धतृ रा और मामा
शकुिन से िवरासत म िमले िपतपृ और मातपृ के गुण थे?’’
‘‘आप िबलकुल ठीक कह रही ह माँ; िपता ी, दुय धन िजस रा य का मािलक बन बैठा था,
वा तव म वह रा य पा डव के िपता पा डु का था। िपतामह भी म के सौतेले भाई िविच वीय के
दो पु धतृ रा और पा डु म धतृ रा अ धे होने के कारण रा य के उ रािधकारी नह माने
गये, अतः पा डु राजा बनाये गये।
वे बहत ही तापी राजा थे, िक तु जब उनसे मवश ऋिष िक दम का वध हो गया, तो उ होने
संसार से िवर होकर रा य छोड़ िदया, और अपनी पि नय कु ती और मा ी के साथ
ग धमादन पवत पर जाकर रहने लगे।
उसके बाद राजा का भाई होने के कारण रा य का ब ध धतृ रा के हाथ म आ गया। इसके
बाद िजस कार उनके बाबा, महाराज शा तनु और उनके बड़े पु िच ांगद क म ृ यु के प ात्
बालक होते हए भी उनके िपता िविच वीय का रा यािभषेक हआ था, और भी म उनके बड़े होने
तक रा य का ब ध देखते थे, उसी कार पा डु के पु युिधि र का रा यािभषेक कर उनके
बड़े होने तक ही धतृ रा को रा य का ब ध सँभालना चािहए था, िक तु ऐसा नह हआ, और
मौके का फायदा उठाकर धतृ रा वयं राजा बन गये और काला तर म अपने बड़े पु दुय धन
को युवराज भी घोिषत कर िदया।
धतृ रा ने बहत ही कुिटलता-पवू क अपनी चाल चल । सं या बल से भी पा डव सिहत सभी को
भािवत करने के उ े य से धतृ रा ने यह चा रत करवाया िक उ ह गा धारी से सौ पु क
ाि हई है।
चँिू क एक ही ी ारा सौ पु को ज म देना अस भव है, अतः उ ह ने एक अक पनीय झठ
ू का
सहारा िलया िक गा धारी ारा गभधारण करने के दो वष बाद उनके गभ से एक मांस िप ड पैदा
हआ।
इस मांस-िप ड के सौ टुकड़े करके उन टुकड़ को अलग-अलग सौ घड़ म रखने से तथा महिष
यास के आशीवाद से दो वष के उपरा त हर घड़े से एक पु , और इस कार कुल सौ पु ा
हए। िक तु सौ पु यिद थे तो ज म से लेकर महाभारत के सं ाम के अ त म मरने तक दुय धन,
दुःशासन और िवकण को छोड़कर शेष पु के िकसी परा म या उनके प रवार का कोई िवशेष
िववरण य नह िमलता?
पा डव म भीम सवािधक बलशाली थे, अतः उनसे बराबरी करने के िलये यह भी चा रत हआ
िक दुय धन और भीम का ज म एक ही िदन हआ था।’’
‘‘कृ ण, महिष यास इस का ड म अपना नाम घसीटे जाने पर भी शा त रहे ; उ ह ने इस का
ितवाद य नह िकया?’’ वसुदेव ने कहा।
‘‘इसिलये तात ी, य िक बहधा ऋिष और संत स ा से संघष नह चाहते ह; हो सकता है महिष
भी इसी कारण शा त रहे ह ... िफर धतृ रा पा डु और िवदुर के ज म को लेकर वे वयं भी
िववाद के घेरे म आ सकते थे। महारानी स यवती, अि बका और अ बािलका, जो भु भोगी और
य दश थ , उ ह महाराज पा डु के िनधन के बाद वन म भेजने का िवचार भी महिष का ही
था।
इस कार इस स ब ध म िकसी स य के सामने आने क स भावनाय समा हो गय । इस िवचार
को धतृ रा क सहमित भी ा थी, य िप हि तनापुर क जा के िलये यह फै सला एक आघात
क भाँित था।
यास जी ने धतृ रा या दुय धन क उनके पीछे आलोचना तो बहत बार क , िक तु उनके िहत
क िकसी भी बात का सामने आकर िवरोध कभी नह िकया, उ टा ोपदी के पाँच पित होने क
बात को भी, पवू ज म म ोपदी को शंकर जी ारा िदया हआ वरदान बताकर, उ ह ने इ ह
लोग का िहत साधा और ोपदी के च र -हनन के िलये हो रहे दु चार को अनचाहे ही बल
दान िकया।
उ ह ने यह कहकर भगवान िशव का कद भी बहत छोटा कर िदया िक पवू ज म म ोपदी ने तो
एक सवगुण स प न वर क कामना से िशव जी क तप या क थी, िक तु िशव जी उनक इस
कामना को परू ी करने म असमथ थे, अतः उ ह ने ोपदी के न चाहने पर भी उ ह िविभ न गुण
से यु पाँच पितय का वरदान दे िदया।
यह भी अनु रत ही है िक महिष यास को वहाँ पहँचकर एक नव-वधू के स ब ध म ये बात
बताने क या आव यकता थी? शायद महान च र ारा भी कभी-कभी कुछ बड़ी गलितयाँ हो
जाती ह।’’
‘‘िक तु कृ ण, महिष यास ने अनेक थान पर और अनेक बार धतृ रा और दुय धन क
आलोचना भी क है।’’ वसुदेव ने कहा।
‘‘आप ठीक कह रहे ह िपता ी; महिष यास ने धतृ रा और दुय धन क बहत बार आलोचना क
है, िक तु यह आलोचना सदैव उनके पीठ पीछे क है, सामने कभी नह ; पीठ पीछे आलोचना
करना एक बात है और सामने िवरोध करना दूसरी।
एक स य और भी है... घर के बड़े अ सर, अपने घर के छोटे सद य क आलोचना करते ह,
कभी-कभी उ ह डाँट भी देते ह, िक तु जब भी उन लोग के िहत पर आँच आती हई िदखाई
पड़ती है, तो वे िकसी न िकसी कारण से उ ह का साथ भी देते ह, िवशेष प से यिद नयी पीढ़ी
के ये सद य भावशाली ि थित म ह ।’’
‘‘पु , भी म िपतामह क िनि यता भी बहत हैरान करने वाली है; म समझ नह पाता हँ िक वे
जीवन भर धतृ रा और दुय धन के अ याय का साथ देते ही य रहे ? उ ह ने थोड़े बहत
मौिखक िवरोध से ही अपने कत य क इित ी य समझ ली? उनके िववेक ने उ ह कभी नह
कचोटा, वे कभी भी अ याय के िव उठकर खड़े नह हए।’’
‘‘िपता ी, एक बार अव य िपतामह भी म ने ोणाचाय के साथ िमलकर और धतृ रा को समझा
बुझाकर इ थ का रा य िदलवाया था, िक तु चँिू क धतृ रा ने यह रा य िबना मन के िदया
था, और दुय धन इसे िकसी न िकसी कार पा डव से वापस ले लेना चाहता था, इसिलये इस
छलभरी त ू - ड़ा का आयोजन िकया गया, और इस रा य को पा डव के दुख का कारण बना
िदया गया।’’
‘‘कृ ण, धतृ रा क इन चाल का हि तनापुर क जा पर भी कुछ भाव अव य ही हआ
होगा।’’
‘‘हआ था िपता ी; हि तनापुर क जा ार भ से ही युिधि र के प म थी, इसी कारण
दुय धन, पा डव से श ुता का भाव रखने लग गया था, और धतृ रा भी जा क भावना को
जानकर घबड़ाये हए थे। अतः धतृ रा ने दुय धन के षड्यं का िह सा बनते हए, घम ू ने के
बहाने से पा डव को वाणा त भेजा था, जहाँ उ ह दुय धन के बनवाये ला ा ह (बहत अिधक
वलनशील पदाथ से बना घर) म ठहराया गया और उ ह माता कु ती सिहत जलाकर मारने का
यास िकया गया। दुय धन ने भीम को भोजन म िवष देकर मारने का यास भी िकया।
उसने अजुन के पराभव के िलये कण को अंग देश का राजा बनाकर अजुन से लड़वाने का यास
भी िकया। पा डव को नीचा िदखाने और माता कु ती सिहत जान से मरवाने के यास के
दुय धन के हर षड़्यं म धतृ रा क भागीदारी थी। िपतामह भी म भी इन घटनाओं से सवथा
अनजान नह रहे ह गे।’’
‘‘धतृ रा भौितक ि से ही नह , आि मक ि से भी ि हीन हो चुके थे। माता गा धारी ने
भी धतृ रा के अ धे होने के कारण अपनी आँख पर तो प ी बाँध ही रखी थी, उनके और
दुय धन के कुकृ य का िवरोध न कर अपनी आ मा क आवाज को सुनना भी ब द कर िदया
था।’’
और यह भी िकतना अ ुत है िक जो वयं अ याय करने म तिनक भी नह िहचकते, वे भी अपने
ऊपर संकट आते ही याय क गुहार करने लगते ह।
इस स ब ध म मुझे दुय धन के परम िम कण का एक संग मरण हो गया है। अजुन से यु
करते समय उसके रथ का पिहया अलग हो गया था। कण अपने रथ का पिहया ठीक करने के
िलया नीचे उतरा। अजुन ने उसे अपने िनशाने पर िलया हआ था। यह देखकर कण, धम यु क
दुहाई देने लगा। उसने अजुन से कहा,
‘‘ को अजुन! जब तक म अपने रथ का पिहया ठीक से न लगा लँ,ू तब तक मुझपर वार करना
घोर अधम होगा।’’
अजुन ने कण क यह बात सुनकर अपना हाथ रोक िलया। तब मने अजुन से कहा,
ू ो िक अकेले तु हारे पु अिभम यु को घेरकर मारने वाले
अजुन, हाथ मत रोको, अिपतु इससे पछ
महारिथय म यह भी तो था, तब इसका धम और अधम का ान कहाँ चला गया था?’’
‘‘तुम कहना या चाहते हो कृ ण?’’ वसुदेव ने कहा।
‘‘मने अपनी बात कह दी है िपता ी; अ याय का ितकार न करना, कायरता भी है और अपराध
भी। महाभारत के यु के ारा पा डव इन अ याय का ितकार ही तो कर रहे थे; या आपको
लगता है, आपके पु को इन अ याय के ित मक ू दशक क भिू मका िनभानी चािहये थी? या
यह मेरी कायरता और अपराध नह होता?’’
इतना कहकर कृ ण कुछ के, िफर बोले,
‘‘और एक बात और भी है िपता ी।’’
‘ या ?’
‘‘अ याय से लड़ते समय याय का बहत अिधक यान रखना मख
ू ता भी िस हो सकता है।
‘अथात?’
‘‘यही िक प रि थितयाँ, समय और सामने वाले के यवहार क अनदेखी महँगी पड़ सकती है;
इन तीन को देखकर उिचत िनणय लेना ही बुि म ा है।’’
‘‘तु हारा कथन उिचत ही है; अ याय का हर स भव तरीके से ितकार िकया जाना चािहये।’’
‘‘आपको स भवतः महाभारत के अि तम चरण म दुय धन और भीम का गदा यु मरण होगा।
दुय धन उन पर भारी पड़ने लगा था, िक तु िफर भी भीम उस यु म धम के यान म ही अटके
हए थे। वे यह भलू रहे थे िक इसी दुय धन ने ौपदी को भरे दरबार म िनव करवाने का ही
नह , उसे नंगी अपनी जाँघ पर बैठाने का भी अित कुि सत यास िकया था।
यिद मेरे संकेत पर भीम ने उसक जाँघ पर वार नह िकया होता, तो जीवनभर अ याय ही करने
वाले उस दुय धन का अ त िकस तरह होता?’’
‘‘हाँ, कम से कम उस समय तो नह ही होता, और महाभारत का यु कुछ और ल बा िखंचता;
िक तु तुमने वयं तो यु िकया ही नह था।
‘‘तु हारा कथन सवथा उिचत है कृ ण; अ याय का भरपरू ितकार करना चािहये; िक तु तुमने
यु तो नह िकया था, तुम तो अ न उठाने के िन य के साथ वहाँ गये थे, यह कैसा ितकार
था तु हारा?’’
‘‘म उस महासमर के म य, महारथी अजुन के सारथी के प म ित ण उपि थत था। िकसी के
सारथी होने का अथ है, उसको ल य तक पहँचाना। मने अजुन को उसके ल य तक पहँचाने के
िलये सही माग चुनने क ि दी, उसे कायरतापण ू वैरा य और पा डव को िबना लड़े ही यु
हारने से बचाया; म पा डव ारा िकये जा रहे अ याय के ितकार का, उस महायु का अित
मह वपण ू भाग था; वाभािवक ही है िक इस महाय म आहितयाँ भी पड़ ।’’
‘‘िक तु िजन आहितय क बात तुम कर रहे हो, वे य म पड़ने वाली साम ी नह , बहमू य
मानव जीवन थे कृ ण; लोग तु हारे ऊपर, अजुन को इस यु के िलये े रत करने का आरोप भी
लगाते ह।’’
‘‘जैसा य वैसी ही तो आहित होगी तात ी। जो अजुन को यु के िलये े रत करने क बात है
तो मने सारी बात िव तार से समझाने के बाद, यु करना है या नह , इसका फै सला अजुन पर
ही छोड़ िदया था।
(गीता- ोक 63 अ याय 18)
हाँ, यिद िकसी को धम और अधम क जानकारी देना अपराध है तो म अपराधी हँ, अ यथा म यही
कह सकता हँ िक इस तरह का आरोप लगाने वाले ने मुझे समझा ही नह ।’’
‘‘चलो, मने तु हारा यह तक वीकार िकया कृ ण, िक तु ी को जुए के िलए दाँव पर लगाना
या छोटा अपराध है? या युिधि र व अ य पा डव अपराधी नह थे?’’
‘‘वे अव य अपराधी थे, और उनका यह अपराध छोटा भी नह था; और तात म वहाँ उपि थत होता
तो िनि त ही यह कुकृ य नह हो पाता। ोपदी ने जब मुझे मरण िकया, तब म िबना िवल ब
िकये, उनक लाज बचाने के िलये वहाँ उपि थत हआ। दुःशासन ने ोपदी का आँचल पकड़ा
अव य था, िक तु मेरे उपि थत होने के बाद कौरव का साहस जवाब दे गया था। दुःशासन जहाँ
था वह क गया, और दुय धन जुए म जीतने के बाद भी ोपदी को रोकने का साहस नह कर
सका।’’
‘‘ठीक है कृ ण, िक तु युिधि र ारा िकसी ी के जुए को दाँव पर लगाने के अपराध के बाद
भी तुमने पा डव का साथ िदया, या यह उिचत था?’’ देवक , जो बहत देर से शाि त से यह
वातालाप सुन रही थ , इस पर य हो उठ , बोल ,
‘‘हाँ कृ ण, ोपदी का ही नह , यह तो ी जाित का अपमान हआ, और इस अपराध म कौरव
और पा डव दोन ही दोषी थे।’’
‘‘हाँ माते, आप और िपता ी िब कुल ठीक कह रहे ह; पा डव क इस भल
ू को इितहास कभी
माफ नह करे गा, िक तु महाभारत के यु म जब मने उनका साथ िदया, तब तक वे अपने
अपराध क पया सजा भुगत चुके थे... उ ह ने केवल अपना रा य और स मान ही नह गँवाया
था, वे बारह वष तक जंगल म ौपदी के साथ भटकते हए और तेरहव वष के अ ातवास म
िकसी क नौकरी करते हए िबता चुके थे।
एक ओर एक भल ू थी, िजसके िलये भल
ू करने वाला कठोर दंड भुगतने के साथ ही प ाताप भी
कर रहा था, दूसरी ओर बहत से सुिनयोिजत षड्यं थे, िज ह करने वाला उनको करके गिवत
था।’’
‘‘तुम ठीक कह रहे हो कृ ण; राि अिधक हो चुक है, चलो अब सोने का उप म कर।’’ वसुदेव
ने कहा।
‘‘ठीक है िपता ी; सचमुच राि अिधक हो चुक है, माँ और आपको िव ाम क आव यकता
होगी, पर मेरा एक िव म अनुरोध है।’’
‘‘हाँ कहो कृ ण।’’
‘‘तात, मुझे लग रहा है िक चचा आज भी अधरू ी ही छूट गई है; यिद िफर कभी अनुमित दगे तो म
इस चचा को आगे बढ़ाना चाहँगा।’’
‘‘हाँ-हाँ य नह , कल हम लोग पुनः इस चचा को आगे बढ़ायगे।’’ वातावरण थोड़ा सहज हो
चुका था।
‘‘ णाम तात! णाम माते!’’ कहते हए कृ ण उठे और अपने शयन क क ओर बढ़ गये।
8 - गीत क पंि य के म य

यमुना शा त बह रही थ । पास ही व ृ के झुरमुट म प ी कलरव कर रहे थे। नीचे भिू म पर


कह -कह घास, व ृ के सख ू े हए प े और कुछ फूल इधर-उधर िबखरे हए थे। नीले और साफ
आसमान म कभी-कभी पि य के कुछ झु ड िदखाई पड़़ रहे थे। सदैव चहल पहल से भरा रहने
वाला यमुना का तट सन
ू ा सा था। न वालबाल थे न गोप बालाय।
धरती पर शाम उतरने लगी थी। एक व ृ के ितरछे से उभरे हए तने पर कृ ण बैठे थे। मन कुछ
उदास सा अनेक याद से िघरा हआ था। बहत से चेहरे उन याद म आ और जा रहे थे। तभी कृ ण
ने देखा, सामने दूर से एक मानवाकृित इसी ओर आ रही थी। जैसे-जैसे वह आकृित पास आती
गई प होती गई।
उ ह ने व और चाल से अनुमान लगाया यह कोई ी थी। थोड़ा पास आने पर चेहरा प रिचत
सा लगने लगा। कृ ण देखते रहे तो कुछ और पास आने पर चेहरा पहचान म आ गया। यह राधा
क बहत ि य सहे ली लिलता थ , जो मटक िलये यमुना से जल लेने आ रही थ । कृ ण को लगा,
लिलता एकदम अकेली य ह? वे उठकर उसी ओर चल पड़े । थोड़ा पास पहँचकर बोले,
‘लिलते!’
वह आकृित च क पड़ी,- ‘‘अरे कृ ण तुम!’’
‘‘हाँ म; पर तुम यहाँ अकेले ही जल लेने आई हो; िवशाखा, िच ा, सुदेवी आिद दूसरी सिखयाँ
साथ म नह आई ं, और यह थान जो सदा ही िकतना चहल-पहल यु रहता था इतना सन ू ा सा
य है?’’
‘‘तु हारे जाने के बाद से यह सन
ू ा ही रहता है कृ ण; पर तुम बताओ, तुम कब आये? माँ यशोदा
और न द बाबा से िमले? राधा को पता चला िक तुम आये हो?’’
‘‘नह लिलते, थोड़ी देर पहले ही आया हँ और सीधे यह आ गया; मुझे लगा था यहाँ तुमम से
अिधकतर लोग से एक साथ िमल सकँ ू गा; सीधे घर जाने का या राधा से िमलने का साहस नह
हआ; सुनता हँ िक ये सभी मेरे जाने के कारण बहत दुखी ह, और राधा तो शायद बहत नाराज भी
ह। सोचकर चला था िक अचानक जाकर उ ह च का दँूगा, िफर यहाँ तक आते-आते लगने लगा,
शायद यह ठीक नह रहे गा।’’
‘‘तुम ठीक सोच रहे हो कृ ण; तु हारे अचानक आने क खुशी शायद वे सहन न कर सक।’’
‘‘कैसे ह माँ और बाबा?’’
‘‘बस ठीक ही ह।’’
‘‘और...’’
‘‘और कौन?’’
कहकर लिलता मु कराय ।
‘‘वे, राधा। वे कैसी ह?’’ कहते हए कृ ण के मुख पर कुछ ल जा सी दौड़ गई।
‘‘तुम वयं ही चलकर देख लो।’’
‘‘ या यह स भव है? कहाँ ह वे ?’’
‘‘यह तो ह।’’
‘कहाँ?’
‘‘मेरे साथ आओ कृ ण; थोड़ी दूर पर यह यमुना के िकनारे ही बैठी ह वह।’’
लिलता, कृ ण को लेकर नदी के िकनारे -िकनारे चल पड़ । कुछ दूर चलने के बाद ही कृ ण ने
कहा,
‘‘लिलते, कहाँ ह राधा?’’
लिलता बोल -‘‘बहत अधीर मत बनो, बस थोड़ी दूर और।’’
कुछ दूर और चलने के बाद नदी के िकनारे रे त पर बैठी हई एक मानवाकृित िदखने लगी। कृ ण
य हो उठे । लिलता के पीछे -पीछे चलना बहत किठन लगने लगा। उनका मन हो रहा था वे
भागकर वहाँ पहँच। कुछ देर म जब वे राधा के समीप पहँचे, कृ ण ने देखा, राधा, चुपचाप नदी के
वाह को देख रही थ । लिलता ने पुकारा,
‘‘राधे! देखो तो।’’
‘ या?’ राधा ने अनमने भाव से उ र िदया।
‘‘देखो तो कौन आया है।’’ लिलता ने कहा।,
राधा ने ि उठाई तो कृ ण ने पुकारा,‘‘राधे, कैसी हो?’’
राधा क आँख म आ य का वार उमड़ पड़ा। मु ी म आँचल पकड़े -पकड़े हाथ सीने पर िटक
गया। एकदम अचानक सामने कृ ण को देखकर उनका परू ा शरीर रोमांिचत हो उठा था। उनके
अधर खुले, पर वे सहसा कुछ बोल नह सक ।
कृ ण ने िफर कहा-‘‘राधे, म कृ ण हँ।‘‘
‘‘कृ ण, या सचमुच यह तुम हो?‘‘ राधा बड़ी किठनाई से कह सक ।
‘‘हाँ, म कृ ण ही हँ राधे, तु हारा कृ ण।’’
भावनाओं का बाँध टूट गया, राधा रो पड़ ।
मेरे िह से के ई र!
तुम अब आये हो?
जाने िकतनी बँदू पवत से चलकर
सागर से िमलने जा पहँची ह अब तक
मेरी ि धरा से नभ तक
खोज चुक है
थका हआ मन
खाली पड़ी सीिपय के संग
बैठा बालू म
रोता है...
मेरे िह से के ई र!
तुम अब आये हो।

कृ ण अचकचाये से देखते रहे , िफर बोले,-‘‘यह या राधे? सँभालो अपने आपको।’’


राधा क िहचिकयाँ कने का नाम नह ले रही थ । वे उठ । कृ ण के हाथ थामकर म तक से
लगाये, िसर झुकाया और िफर रोने लग । कृ ण ने उ ह उठाते हए कहा,
‘‘ या कर रही हो राधे? तु हारा इस तरह रोना म सहन नह कर पाऊँगा।’’
लिलता, जो चुपचाप खड़ी देख रही थ , बोल ,
‘‘अ छा म चलती हँ, मुझे देर हो रही है; तु ह सँभालो इस बावरी को।’’
वे अपनी गागर भर कर चल द , िफर सहसा पलटकर प रहास िकया,
‘‘कृ ण, मेरी गागर तोड़ोगे तो नह ?‘‘
वे हँस पडे ,़ बोल,◌े-‘‘नह , म अब ब चा नह रहा।’’
‘‘काश, तुम ब चे ही रहते।’’
कहते हए लिलता चली गई ं। वे लिलता को जाते हए देखते रहे । उनके जाने के बाद कृ ण ने राधा
का हाथ पकड़ा, बोले,-‘‘आओ, नदी के और पास चलते ह।’’
वे उनके साथ नदी के एकदम पास जाकर बैठ गये। राधा ने उनके क धे पर िसर िटका िलया।
शाम ढल चुक थी। अँधेरा होने लगा था। एक च मा ऊपर आसमान पर था, एक नदी के पानी म
लहर के साथ िहलता-डुलता हआ, और एक िनद ष च मा, कृ ण के क धे पर िटका हआ
सुबक रहा था।
उ ह ने माथे पर हाथ लगाकर राधा का चेहरा उठाया। राधा ने उनक आँख म देखा, िफर पलक
झुका ल , दो आँसू उन कमलने से चलकर कृ ण के व पर िटक गये। कृ ण का धैय भी
चुकने लगा था सजल ने से उ ह ने कहा,
‘‘बात नह करोगी राधे, रोती ही रहोगी?’’
राधा क िहचिकयाँ क नह रही थ । उ ह ने िसर िहलाकर हामी भरी, धीरे से बोल -‘‘क ँ गी।’’
िफर अपने आँचल से अपना मुख ढक कर फफककर रो पड़ । कृ ण उनका रोना देखकर
िवचिलत हो उठे , बोले,
‘राधे!’
‘हाँ।’
‘‘कैसी हो?‘‘
‘‘ऐसी ही हँ, देख तो रहे हो।’’
‘‘बहत नाराज हो?‘‘
‘नह ।’
‘‘कुछ बोलत य नह ?’’
‘‘ या बोलँ?ू ’’
िफर पता नह या सोचकर, राधा हँस पड़ , आँसू प छते हए बोल ,
‘‘मुरली नह लाये?’’
‘‘लाया हँ; तु हारे पास आ रहा था तो मुरली कैसे भल
ू सकता था? िक तु इतने िदन बाद हम
िमल ह; अपना हाल तो तुमने अपने आँसुओ ं के मा यम से कह िदया, पर मेरा हाल पछ ू ने के
थान पर तु ह मुरली याद आ रही है।’’
राधा को हँसी आ गई। चाँदनी रात म नदी के िकनारे पर हँसती हई राधा यँ ू लग जैसे सा ात
सौ दय हँस रहा हो। उनक हँसी से शरमाया च मा, बादल क ओट म छुप गया।
‘‘वह मेरी मुरली है।’’ राधा ने कहा।
‘‘हमारा कुछ भी बँटा हआ नह है राधे।’’
‘‘िक तु इस समय तु ह मुरली से ई या हो रही है या कृ ण?’’
‘‘हाँ, शायद ऐसा ही है राधे; जब म यहाँ रहता था और कभी-कभी तु हारी सिखयाँ कहती थ िक
राधा मुरली से ई या करती है, तब म समझ नह पाता था िक कोई एक बेजान व तु से ई या य
करे गा, पर आज म तु हारी उन भावनाओं को समझ सकता हँ।’’
राधा ने कृ ण के अधर पर अपना हाथ रख िदया, बोल -‘‘मुरली को बेजान मत कहो कृ ण;
तु हारे अधर पर बैठकर वह बजती नह है, संसार का सबसे सु दर राग गाती है; इससे अ छा
संगीत भरा गायन मने नह सुना।’’
‘‘मने सुना है।’’ कृ ण ने हँसते हए कहा,
‘‘अ छा! कहाँ?’’राधा अचि भत हई ं।
‘‘तु हारी पायल से राधे।’’
राधा हँस पड़ , प रहास से बोल -‘‘तुमसे कौन जीत सकता है रणछोड़!’’
‘‘तुम भी मुझे रणछोड़ कहोगी राधे? उस यु से हटने का कारण नह समझोगी?’’
‘‘तुमने कभी आकर समझाया होता तब न समझती।’’
‘‘न आ पाने के पीछे बहत से कारण थे राधे; और तु हारे ये कटा मुझे अ छे लग रहे ह, कम से
कम तुम हँस तो रही हो, अ यथा तु हारा रोना देखकर तो म घबड़ा ही गया था।’’
‘‘म रो नह रही थी, वो तुमको स मुख पाने क अक पनीय खुशी के आँसू थे... पर आज तुम
अपना उस यु को छोड़ने का कारण मुझे अव य बता दो; लोग कृ ण को रणछोड़ कह, यह मुझे
बहत क देता है।’’
‘‘लोग पता नह या- या कहते रहते ह, इन बात से दुखी मत हआ करो; रणछोड़ तो स भवतः
इतना बुरा िवशेषण नह ... मुझ पर साधारण सी यम तक मिण क चोरी का आरोप लगाने म
लोग को कोई संकोच नह हआ।
यह आरोप मुझ पर िचपका ही रहता, यिद मने वयं यह मिण जा बवान से ा कर, उसे उसके
वामी स ािजत को स पा नह होता।’’
‘सच?’
‘‘िफर भी लोग मुझे रणछोड़ य कहते ह, म बताता हँ; देखो कंस के वध के प ात् भी मेरे
श ुओ ं क सं या म कमी नह हई थी। मथुरा के दि ण से कालयवन और मगध े का राजा
जरास ध िनर तर मुझ पर आ मण कर रहे थे।
कालयवन, भगवान राम के ही वंश के महान राजा मा धाता के महा तापी और स यिन पु
राजा मुचकु द क ोधाि न का िशकार हो कर मर चुका था, िक तु जरास ध मुझसे स ह बार
परािजत होकर भी शा त नह हआ था, और यदुवंश को न करने क उसक इ छा उ बनी हई
थी।
ा रका का िनमाण हो चुका था। यदुवंश को ा रका थाना त रत करने का काय चल ही रहा
था। ऐसे म उसने अगली बार जब मा श ुता के कारण एक िवशाल सेना लेकर मथुरा पर
आ मण िकया, तो मुझे लगा िक इस भयानक यु म सैिनक का र तो बहे गा ही, मथुरा का
नुकसान भी होगा, और उसके िनद ष नाग रक भी संकट म पड़गे, अतः मथुरा को यु े बनने
से बचाने के िलये उसके सं ान म ही भाई बलराम के साथ मने वहाँ से पलायन िकया।’’
‘िफर?’ राधा ने पछ
ू ा।
‘‘जरास ध अपनी सेना सिहत हमारा पीछा करने लगा। बहत दूर तक भागने के बाद हम वषण
नामक पवत क ओर चल िदये। इस पवत पर बहत अिधक वषा होती है, इस कारण यहाँ घने
जंगल पैदा हो गये ह; हम इन जंगल म जाकर िछप गये।’’
‘िफर?’
‘‘िफर जरास ध ने िवशाल सेना के साथ हम उन जंगल म ढूढ़ने का बहत यास िकया, िक तु
असफल रहा। तब उसने उन जंगल म आग लगवा दी।’’
‘ओह!’ कहकर राधा ने उस य क क पना से ही ने ब द कर िलये।
‘‘िफर आग से कैसे बचे आप?’’
‘‘राधे, हम इसक आशंका थी िक जरास ध हम ढँ ◌ूढ़ने म असफल रहने के बाद जंगल म आग
लगवा सकता है, अतः हम इसके पवू ही िछपते िछपाते ा रका क ओर थान कर चुके थे।’’
‘‘ओह’’ कहकर राधा ने स तोष क साँस ली, िफर पछ
ू ा,
- ‘‘और जरास ध? या िफर उसने आपका पीछा िकया?’’
‘‘राधे, जंगल म आग लगाना तो आसान है, िक तु िफर वह आसानी से बुझती नह है, अिपतु
िवकराल प धारण कर लेती है। हमारा पीछा करने के िलये उसे उस आग को पार करना पड़ता,
जो अस भव था, और यह भी स भव है िक उसने सोचा होगा िक हम इस आग म जलकर मर गये
ह गे, िजसक स भावना तो थी ही। पर हाँ, जरास ध वहाँ से वापस लौट गया और मथुरा को
रण े बनने से बचाने का हमारा उ े य सफल हो गया।’’ इतना कहकर कृ ण कुछ पल के
िलये के। राधा बहत गौर से उनक बात सुन रही थ । कृ ण के, तो वे ितरछे ने से उ ह देख
कर मु कराई ं, बोल ,
‘‘यह तो म समझ गई कृ ण, लेिकन जरास ध से न उलझने का केवल यही एक कारण था या
कुछ और भी?’’
कृ ण, राधा क इस भाव-भंिगमा और उनके कटा पण
ू से थोड़ा शरमा से गये, िफर धीरे से
हँसकर बोले,
‘‘हाँ, दूसरा कारण भी था राधे; ि मणी मुझसे िववाह करने का िन य कर चुक थ , िक तु
उनका भाई मी उ ह िशशुपाल के साथ बाँध देना चाहता था; यिद म जरास ध के साथ यु म
उलझ जाता तो मी अपने यास म अव य सफल हो जाता और ि मणी को जीवन भर अपार
क से गुजरना पड़ता।’’
‘‘राधे, या म तु ह अपनी बात समझा सका?’’ कृ ण ने पछ
ू ा।
‘‘हाँ, कुछ-कुछ।’’
‘‘कुछ-कुछ य ?’’
‘‘ य िक म तो तु ह रणछोड़ ही कहँगी।’’
‘‘ य ? या मेरी उस यु से हटने क रणनीित गलत थी?’’
ू उिचत थी, और उस कारण जो तु ह रणछोड़ कहते ह, वे तु ह समझ नह सके,
‘‘वह तो पण
िक तु म उस रण क बात नह कर रही हँ।’’
‘‘तुम िकस रण क बात कर रही हो राधे?’’
‘‘म जीवन क बात कर रही हँ; यह जीवन भी रण े ही तो है, तुम एक बार गोकुल छोड़कर
मथुरा गये तो िफर लौटकर नह आये, कंस के वध के बाद और महाराजा उ सेन को रा य
िसंहासन स पने के बाद या तुम माँ यशोदा, बाबा न द और हम लोग से िमलने के िलए एक
िदन के िलये भी गोकुल आने का समय नह िनकाल सकते थे, तु ह िकस चीज का भय था?
जो अपार ेम माँ यशोदा, बाबा न द और यहाँ के लोग ने तु ह िदया उसे भल
ू नह पाये होगे, भल

पाओगे भी नह ; कत य क आड़ म बच भी नह सकोगे। िफर वयं आने के थान पर उ व को
भेजना, हमको, तु ह भल
ू ने क िश ा िदलवाना या तु हारा पलायन नह था कृ ण?’’
कृ ण मौन और अवाक् थे। थोड़ा ककर राधा िफर कहने लग ,
‘‘और तुम तो मथुरा म भी नह क सके, तुमने उसे भी छोड़कर सैकड़ मील दूर, समु के
िकनारे अपना घर बना िलया। या तुम म वह रह कर प रि थितय से लड़ने का साहस नह रहा
होगा?
या तु ह अपने पु षाथ पर भरोसा नही रह गया होगा? या तुम अपने श ुओ ं से भयभीत हो
गये थे? यह मा शाि त क खोज थी या हमसे और दूर चले जाने क इ छा?’’
‘‘तु ह या लगता है राधे? तुम कहो म सुनँग
ू ा।’’
‘‘हाँ, म कह रही हँ कृ ण सुनो। जो न हा बालक बड़े -बड़े असुर का हनन करता रहा हो, िजसने
अपनी उँ गली पर पवत उठा िलया हो, वह बड़ा होकर िकसी श ु से भयभीत नह हो सकता और
िजसम प रि थितय के िनमाण क मता हो वह प रि थितय से भी भयभीत नह हो सकता।’’
इतना कहकर राधा क और कृ ण के मुख पर ि िटका द । वहाँ पर िकतने ही भाव आ जा
रहे थे। कृ ण वयं उनके मुख को अचि भत से देख रहे थे। राधा के चुप होने पर उ ह ने कहा,
‘‘चुप य हो गई ं?’’
‘‘तु ह बुरा तो नह लग रहा है कृ ण?’’
‘‘नह रािधके, मुझे बहत अ छा लग रहा है तुम कहो।’’
‘‘जब तुम यहाँ से अ ू र जी के साथ गये थे, तब हम सब को आशा थी िक कंस के वध, अपने
माता-िपता क कारागार से मुि और महाराजा उ सेन के रा यािभषेक के प ात् तुम हमसे
िमलने अव य आओगे।
तुम नह आये और िजतना अिधक समय यतीत होता गया, तुमसे हमारे उलाहने उतने ही बढ़ते
गये, यह बात तुम जानते रहे होगे; य िप ये उलाहने ेम भरे होते, िक तु इतने अिधक उलाहने
सुनने क तुमम साम य नह थी इसीिलये तुम लौटकर नह आये, यह पलायन ही तो हआ
कृ ण।’’ कह कर रािधका चुप हो गई। िक तु कुछ ण बाद ही ‘‘और िफर....’’ कहकर वे हँस
पड़ ।
कृ ण ने उनक ओर देखा। राधा के मुख पर यं य का भाव था।
‘‘िफर या राधे?’’
‘‘तुमने हम ान देने के िलये उ व को भेज िदया।’’
राधा क इस बात पर कृ ण हँस पड़े । राधा उनक इस हँसी पर चिकत सी उनक ओर देखने
लग ।
‘‘हँसे य ?’’
‘‘उ ह ान देने के िलये नह , कुछ समझने के िलये भेजा था।’’
‘‘ या समझने के िलये ?’’
‘‘वे मेरे चचेरे भाई और लगभग मेरी ही आयु के ह; वे िनराकार के उपासक ह और उनका
अ याि मक ान बहत उ चकोिट का है।’’
‘‘हाँ, सो तो लग रहा था।’’ राधा ने यं य से हँसते हए मँुह बनाया।
‘‘तुम हँस रही हो!’’
‘‘नह नह , म बहत ग भीर हँ, तुम आगे बताओ।’’ कहकर राधा ग भीर सा मँुह बनाकर बैठ
गय , िक तु उनके मुख पर नटखटपन छलक रहा था। उनक ओर देखकर कृ ण को भी हँसी
आ गयी। वे बोले,
‘‘वे सचमुच बहत ानी ह।’’
‘‘तो...’’ राधा ने कहा।
‘‘िक तु जीवन के अिनवाय अंग ेम से वंिचत उस ान म स पण
ू ता नह थी... ेम या है, यह
समझने के िलये ही मने उ ह यहाँ भेजा था।’’
‘‘चलो ठीक है, िफर कुछ समझे वे ?’’ राधा के वर म शरारत थी।
‘‘हाँ, यहाँ से जाने के बाद उनम बहत प रवतन आ गया था।
‘अ छा!’ नदी के वाह क ओर देखते हए राधा ने हँसकर कहा और उ व का संग समा हआ
तो वे पुनः ग भीर हो गय ।
‘राधे।’ कृ ण ने पुकारा।
‘‘कृ ण,‘‘राधा बोली, ‘‘तब से अब तक िकतना जल बह गया होगा हमारी इस यमुना म?’’
‘‘नह बता पाऊँगा।’’
‘‘अ छा सोच सकते हो, उसके साथ िमलकर िकतने आँसू बह गये ह गे इस जल म?’’
‘‘नह , पर वे अव य मेरी क पना से बहत अिधक ह गे। राधे, यह चचा क देती है; बाँसुरी
सुनोगी या? तु ह सुनाने के िलये ही लेकर आया था।’’
ू ी, तु हारी बाँसुरी सुनना मेरे िलये सौभा य क उ चतम सीमा है।’’
‘‘ य नह सुनँग
कृ ण ने अपने व से बाँसुरी िनकाली तो राधा ने उनके हाथ से ले ली। अपने हाथ म लेकर
उससे खेलने लग । कुछ देर बाद शरारत से बोल ,
‘‘आज म बजाऊँगी तुम सुनो।’’
कृ ण हँस पड़े बोले-‘‘ठीक है, मेरा सौभा य, िक तु तु हारी पायल के वर के िबना तो यह
अधरू ी ही रहे गी।’’
‘‘अधरू ी नह रहने दँूगी, िक तु इस बार मुरली, म दँूगी नह ।’’
‘‘मत देना।’’
िफर राधा, नदी क ओर पैर ल बे करके बैठ गई ं। बाँसुरी अधर पर रखी, फँ ू क मारी और उँ गिलयाँ
बाँसुरी के िछ पर िथरकने लग , बाँसुरी गा उठी। उ ह ने साथ ही पैर को भी ह के-ह के
िहलाना शु िकया और पायल बजने लगी।
नदी, बहत कोमलता से उन पैर को पश कर रही थी। कृ ण मं मु ध से सुन रहे थे। सौ दय,
संगीत और आन द अपनी सारी सीमाय लाँघ चुके थे।

नदी क लहर के संग-संग


न ृ य सा करती हई
संगीत क लहर
िकरन सौ दय क पंख म बाँधे
उड़ चली आकाश को छूने
हजार फूल बरसे
रात रानी के
हवा म भर गयी खुशबू
कुछ देर तक बाँसुरी बजाने के बाद राधा क और आसमान क ओर देखकर बोल
‘‘हे ई र, यह समय कभी न समा हो।’’

* * *
ि मणी देख रही थ , सय ू क बहत ही कोमल रि मयाँ यह बताने के िलये आ रह थ िक भोर
हो चुक है। उ ह ने कृ ण के मुख क ओर देखा, वे गहरी न द म सो रहे थे। कृ ण्, िन य भोर
होते ही उठ जाया करते थे, िक तु आज उ ह इस तरह सोते देखकर ि मणी को कुछ आ य सा
हआ।
उ ह ने कृ ण को आवाज देकर और छूकर जगाने के िलये हाथ बढ़ाया िफर िठठक कर चेहरे को
िनहारने लग , तभी कृ ण ने ने खोले,
‘‘अरे सुबह हो गई! म सपने देख रहा था।’’
‘‘म समझ गई थी।’’ ि मणी ने कहा,
कृ ण उठे । िजस थान पर मुरली रखते थे, वहाँ ि गई मुरली वहाँ नह थी।
9 - राधा : एक योित

ि मणी उठ और क से बाहर चली गई ं। कृ ण, उठने का उप म करते-करते िफर लेट गये।


रात का व न अभी मि त क म घम ू रहा था। या थ राधा? एक लड़क , जो वषृ भानु और
क ितदा क पु ी थी और बरसाने म रहती थी। िजसके साथ वे बचपन म खेले थे और िफर मा
यारह वष क आयु म गोकुल से िनकलने के बाद कभी नह िमले। दोन ओर बस याद ही शेष
रह गई ं। वे मा इतना थल
ू प ही थ या कुछ और भी।
कृ ण को लगा, राधा सदैव उनक ेरणा रह । वे उनक हर सफलता के पीछे का थाई भाव थ ।
उनके सतत संघष करने, िवजयी होने क शि और किठनतम पल म भी मन म शाि त और
स तुलन बनाये रखने क भावना थ राधा। वे उनका िववेक और बुि थ , िजसने गोकुल छोड़ने
के बाद भी उ ह नह छोड़ा।
यिद वे मा उ कट ेिमका होत तो कृ ण भले ही मथुरा से गोकुल कभी न जाते, िक तु राधा,
जैसे बरसाने से गोकुल आ जाती थ , उसी भाँित गोकुल से मथुरा भी जा सकती थ । सच तो यह है
िक भौितक ि से अलग रहते हए भी वे कभी अलग नह रहे । उनका पथ ृ क होना स भव ही
नह था।
किवय ने, भ ने, साधु कृित रखने वाल ने और मन म कलुष रखने वाल ने अपनी-अपनी
प रक पनाओं के अनुसार अपने-अपने िलए एक अलग राधा का िनमाण िकया है, िक तु स य
तो यह है िक राधा क पनाओं से परे ह।
जहाँ अहम् न हो जाये वहाँ राधा ह, जहाँ वासना रिहत ेम सीमा रिहत हो जाये वहाँ राधा ह,
जहाँ आरा य, आराधना और आराधक एक हो जाय वहाँ राधा ह। जहाँ ब धन और मुि , िमलन
और िवरह अथहीन हो जाय वहाँ राधा ह।
राधा आँख को सदैव सुख देने वाला काश ह। ि मणी उनका सौभा य, उनक ल मी, उनक
िवभिू त थ । ि मणी के साथ उनका वैवािहक गठब धन था, िक तु राधा ब धन से परे थ ,
उनके दय क शाि त थ । जब भी मन अशा त हो राधा को आना ही था। कृ ण को लगा शायद
इसीिलये वे आज-कल उनके मन पर बार-बार द तक दे रही थ । वे सोते-जागते कृ ण के मन क
शाि त बनाये रखने के िलए यनशील थ ।
कृ ण उठ। भोर हो चुक थी।
10 - एक प यह भी

जब से कृ ण ने सोचा था िक उनके आने के उ े य पण ू हए और उनके जाने का समय आ गया


है, उ ह ने रा य स ब धी अपने सारे काय दूसर को देना ार भ कर िदया था, और यह ि ् रया
लगभग पण ू हो चुक थी। ा रका तो सु यवि थत थी ही, उसके शासिनक और आिथक प
को भी वे पया सु ढ कर चुके थे। ा रका के सभी शासिनक अिधकारी अपने काय को
िन प और यायोिचत प से िन पािदत करने म स म ही नह थे, ईमानदार और इसके िलये
पणू समिपत भी थे।
महल क स पण ू यव था ि मणी बहत ही कुशलता पवू क सँभाल रही थ । देवक और वसुदेव
के ित उनका िवशेष समपण था, उनक सुख-सुिवधा पर वे बहत अिधक यान देती थ । कृ ण
िजन सोलह हजार एक सौ क याय को भौमासुर के महल से छुड़ाकर लाये थे, उनम से कुछ
ि मणी क इस सारे काय म बहत अिधक सहायता करती थ और उनक बहत िव ासपा हो
चुक थ ।
कृ ण को ि मणी क मता म बहत िव ास था। वे जानते थे िक उनक अनुपि थित म
ि मणी परू े ा रका देश क यव था कुशलता पवू क सँभाल सकती ह। उ ह ने अपने िपता
महाराज भी मक के यहाँ रहते हए बहत कुछ सीखा था। महल म चलते रहने वाले षड्यं से
िनपटने म वे द थ ।
ा रका म कृ ण क अनुपि थित म स पणू शासन सँभालने का उ ह अनुभव था; िक तु उनके
जाने के बाद ि मणी सती भी हो सकती थ , अतः उ ह ने िन य िकया िक वे ि मणी से अपने
रहते ा रका क यव था का सँभालने का अनुरोध करगे, इससे शायद वे इसे उनक इ छा
मानकर सती होने का िन य टाल द, और यिद ऐसा नह हआ तो िपता ी वसुदेव, यहाँ क
यव था सँभाल लगे, ऐसा उनका िव ास था।
माँ यशोदा और बाबा न द, प रि थितय के अनु प अपने को ढाल चुके थे, और राधा तो कृ ण
क छाया ही थ ; वे कह भी रह, राधा से उनका स पक नह टूटने वाला था। एक के मन क हर
हलचल दूसरे के मन पर द तक दे जाती थी। यह शारी रक नह आि मक स ब ध था, िक तु
ि मणी को लेकर मन म िच ता क ि थित बनी हई थी। वे उनके जाने के बाद वयं को कैसे
सँभालगी?
कृ ण सोचने लगे, कुछ करना होगा; उ ह मजबत
ू बनाना होगा। अतः उ ह ने ि मणी से चचा
करने का मन बना िलया और इसके साथ ही उ ह ने अपने मन म कुछ ह केपन का अनुभव
िकया।
िवचार का वाह टूटा तो उ ह ने देखा, रोज क तरह ही एक और सं या थी और वे अनायास ही
समु के तट पर चलते चले जा रहे थे। मुड़कर महल क ओर देखा तो लगा बहत दूर आ चुके ह।
पीछे -पीछे एक अनुचर आ रहा था। उ ह ने उसे वापस जाने को कहा, िफर उ ह लगा िक भगवान
िशव का नागे र महादेव मि दर यहाँ से बहत दूर नह रह गया था।
वे थोड़ा तेज-तेज चलने लगे। दशन करके वे समय से ा रका लौटना चाहते थे। देर होने से
ि मणी बहत परे शान होने लगती थ । कुछ ही पल म उ ह ने वयं को मि दर के दरवाजे पर
पाया। ा से मि दर क चौखट को माथे से लगाया और हाथ जोड़कर अ दर वेश िकया। िशव
को नमन िकया, पैर मोड़कर बैठे, हाथ जोड़े , आँख ब द क और उनके यान म डूब गये।
कुछ देर बाद िकसी क आहट से उनक आँख खुल , उ ह ने देखा मि दर के पुजारी ने वेश
िकया था। कृ ण ने पुजारी को णाम िकया तो उ ह ने हाथ उठाकर कहा,
‘‘ वागत है ा रकाधीश; भगवान िशव आप पर सदैव अपनी कृपा बनाये रख।’’
कृ ण बोले,-’’आप कैसे ह पुजारी जी, कुशल तो ह? िकसी व तु क आव यकता, कोई क तो
नह ?’’
‘‘नह ा रकाधीश, आपके रा य म िकसी को कोई क हो ही नह सकता।’’
एक बार पुनः िशव को णाम कर कृ ण लौटने लगे। मि दर के ांगण से बाहर आये और महल
क ओर चल पड़े । थोड़ा सा ही चले थे िक रथ िलये सारथी िमल गया। उसने कृ ण के पास रथ
रोका और उनसे बैठने का अनुरोध िकया। कृ ण को आ य हआ। रथ पर चढ़ते हए बोले,
‘‘तु ह कैसे पता लगा िक म यहाँ हँ?’’
सारथी बोला-‘‘मने अनुमान लगाया भु... पहले सागर तट पर आपके बैठने के थान पर गया,
िक तु वहाँ आप नह िमले तो म समझ गया िक आप अव य ही दशन के िलये मि दर गये
ह गे।’’
‘‘तुम वयं ही यहाँ आये हो? कृ ण ने पँछ
ू ा।
‘‘नह भु, अँधेरा होने लगा तो रानी माँ ि मणी िचि तत होने लगी; उ ह ने मुझे आदेश िदया
िक म रथ लेकर जाऊँ और आपको ढूँढ़कर ले आऊँ।’’
रथ, राजमाग पर दौड़ता चला जा रहा था, टप-टप-टप-टप, घोड़े क टाप गँज ू रही थ । कृ ण
सोचने लगे, आजकल ि मणी उ ह लेकर कुछ अिधक ही िचि तत रहने लगी ह, उ ह शी ही
समझाना होगा; ऐसा लगता है जैसे उ ह मेरे जाने क आहट िमल गई है। उ ह बराबर ऐसा लग
रहा था िक ि मणी उनका मन पढ़ने म लगी हई ह।
महल आ गया तो सारथी ने रथ रोका, दो अनुचर दौड़ते हए आये और आदेश क ती ा म हाथ
बाँधकर रथ के पास खड़े हो गये। कृ ण रथ से उतरे , अनुचर क ओर देखकर हलके से
मु कराये। एक अनुचर उ म उनसे बड़ा था, कृ ण ने उससे पछ
ू ा-‘‘ठीक ह?’’
‘‘ भु, आपक दया है।’’ वह बोला।
कृ ण ने दूसरे को नाम लेकर पुकारा, पछ
ू ा,
‘‘तुम ठीक हो?’’
‘‘ठीक हँ भु।’’ उसने कहा।
कृ ण, महल क ओर बढ़े । सामने से माली और मािलन फूल क एक माला िलये आ रहे थे। कृ ण
के पास आकर माला उनक ओर बढ़ा दी और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। कृ ण ने माला लेकर
उनसे पछ
ू ा, -‘‘ठीक हो तुम दोन ?’’
‘‘जी, ठीक नह भु, बहत ठीक ह; हम आपके बाग क देखभाल करते ह... ा रकाधीश के बाग
के माली ह, इससे बड़ा सौभा य और या हो सकता है?’’
कृ ण, माला िलये आगे बढ़ गये, िक तु इस उ र ने उनके अ दर कह एक चुभता हआ सा
खड़ा कर िदया। वे सोचने लगे, िज ह ने उनके जीवन क बिगया को सजाया, सँवारा, वे माली
खुशी ह गे या दुखी। उ ह माँ यशोदा ओर बाबा न द क याद क इतनी तीखी चुभन महसस ू हई
िक उनक आँख छलक उठ । उ ह ने अपने को सँभाला और महल के अ दर वेश िकया।
ि मणी उनक ती ा म थ । ज दी से आइंर् और उ ह लगभग पकड़कर आसन तक ले गई ं।
कृ ण आसन पर बैठ गये। अनुचर उनके पाँव पखारने के िलये थाल म जल लेकर आया तो
ि मणी ने उसे हटाकर, वयं उनके पैर धोये। वे उनके चरण को अपने आँचल से प छने का
उप म करने लग तो कृ ण ने उनके हाथ पकड़ िलये। ि मणी बोल ,
‘‘कहाँ चले गये थे, इतनी देर कर दी?’’ उनके वर म िच ता तो थी ही उलाहना भी था।
कृ ण हँसे। माली क दी हई फूल क माला आगे क और बोले,
‘‘तु हारे बाल म िकतनी अ छी लगेगी।’’
ि मणी ने माला ली और अपनी वेणी म लगाने लग । कृ ण मु कराते हए उ ह देखते रहे । माला
वेणी म लगाकर ि मणी ने कहा,
‘‘आपने मेरे का का उ र नह िदया मुरलीधर।’’
‘‘बस ऐसे ही टहलते हए मि दर क ओर िनकल गया था।’’
‘‘िकस मि दर तक?’’
‘‘भगवान िशव के मि दर तक गया था। ि मणी, जब म लौटकर महल म वेश कर रहा था तो
मुझे अपने बाग के माली और मािलन िमले थे।’’
‘‘यह माला उ ह ने ही दी होगी?’’
‘‘हाँ ि मणी, िक तु उनसे िमलकर मुझे िफर माँ यशोदा और बाबा न द क याद आ गई। वे मेरे
बचपन के माली थे; उ ह ने ही मेरा बचपन सँवारा; िक तु म एक बार वहाँ से आने के प ात्
दुबारा उनसे िमलने वहाँ जा नह पाया।’’
‘‘ या कहना चाहते ह आप? मुझे लगता है आपके मन म अव य कुछ चल रहा है।’’
‘‘हाँ ि मणी, मेरा जीवन कुछ ऐसा ही रहा है; गोकुल छूटा, िफर मथुरा भी छूट गया... मुड़कर
कभी देखने का समय ही नह िमला।’’
‘‘ या आपको इसका दुख है?’’
‘‘नह ि मणी, मने सारा जीवन केवल अपने काय पर यान िदया; िजस समय जो उिचत था
मने िकया, उसके फल पर यान देने क न इ छा थी न समय। सुख-दुख का तो तब उठता,
जब मेरे अ दर फल क इ छा रहती।’’
‘‘िफर भी मथुरा तो नह पर गोकुल क बात आते ही आप कुछ उदास हो ही जाते ह।’’
‘‘तुम ठीक कह रही हो; सच तो यह है ि मणी, िक हर यि समय और प रि थितय के
अनुसार अपने को ढाल लेता है; मेरे आने के प ात् गोकुल े के िनवािसय ने भी अपने को
इस कार ढाल िलया था।
उ ह मेरे संर ण क िवशेष आव यकता नह रह गई थी; िफर उनम से अिधकांश जो यहाँ आना
चाहते थे, उनको म ा रका ले ही आया हँ, िक तु माँ यशोदा और बाबा न द मेरे बचपन क याद
से इतना बँधे हए थे िक उ ह ने गोकुल छोड़ने से भी इनकार कर िदया। य िप मेरी अनुपि थित
को उ ह ने बहत कुछ वीकार कर िलया है; वे मेरे काय से संतु भी ह और शायद गव का
अनुभव भी करते ह, िक तु िफर भी मेरे बचपन के िदन क याद से अ सर उनके दय म टीस
सी उठती है।’’
‘‘म समझ गई भु, यह टीस उनके दय म रहने वाले मुरलीधर को भी चोिटल कर जाती होगी।’’
‘‘तुम ठीक कह रही हो, शायद यही कारण होगा, म उ ह भल
ू नह पाया।’’
कृ ण ने पुनः कहा,- ‘‘अ छा ि मणी, आज मुझे थोड़ी देर हो गई थी, तो तुमने रथ लेकर सारथी
को भेजा मुझे लाने, और वह ढँ ◌ूढ़कर मुझ तक पहँच भी गया; तु हारे माली इस उपवन को
िकतनी अ छी तरह सँभाल रहे ह। उस िदन माँ देवक और िपता वसुदेव भी तु हारी यव था क
बड़ी शंसा कर रहे थे; तुम उ ह कभी िकसी असुिवधा का अनुभव नह होने देती हो, देखता हँ,
महल क पण ू यव था तुमने बहत अ छी तरह सँभाल ली है।’’
‘‘ या क ँ , आप िदन भर रा य के काय म य त रहते ह।’’
‘‘बहत अ छा है ि मणी, तुमने मेरी िच ताय महल क ओर से लगभग िब कुल समा कर दी
ह।’’
कृ ण पुनः बोले,- ‘‘म सोचता हँ यह महाराज भी मक क पु ी, िवदभ क राजकुमारी और
ा रका क राजमिहषी, राजक य काय म भी मेरी सहायता य नह करती?’’
ि मणी इस पर हँसी और कहने लग ,
‘‘इतने िवशेषण क आव यकता नह है; आपके उ रदािय व म हाथ बँटाना मेरा धम है, िक तु
भु इस काय के िलये आप वयं ह, मुझे इन यव थाओं को देखने क या आव यकता है, और
यह मुझसे होगा भी नह ।’’
‘‘बहत आव यकता है ि मणी; कई अवसर पर मुझे लगता है िक तुम होत तो बहत उिचत
सलाह देत ; तुम रा य के काय म बहत अिधक योगदान दे सकती हो, तु हारे अ दर नेत ृ व
करने क ितभा नैसिगक प से है... यिद तुम कल से ही इन काय म मुझे सहयोग देना
ार भ करत तो िकतना अ छा होता।’’
‘‘म आपक िकसी भी इ छा क अवहे लना नह कर सकती मुरलीधर, आपको हर े म सहयोग
देना मेरा कत य है, और आपके साथ अिधक समय यतीत करके मुझे स नता भी होगी,
िक तु आप कह जाने क तो नही सोच रहे ह?
देख रही हँ, इधर कुछ िदन से आप ग भीर और खोये-खोये से रहने लगे ह, मुझे बहत िच ता सी
लगती है मुरलीधर।’’
‘‘अभी तो कह नह जा रहा, पर मुझे तो अ सर ही कह न कह जाना रहता ही है।’’
‘‘मुझसे सच-सच कहना वामी; म आपका िवयोग सहन नह कर पाऊँगी।’’
‘‘मन अधीर मत करो ि मणी, म अभी तो कह नह जा रहा, पर हाँ, कल से तुम रा य के
काय म मुझे सहयोग दोगी यह प का रहा।’’ कहते हए कृ ण ने ि मणी के दोन हाथ थाम
िलये, िफर बोले,
‘‘मुझे इन हाथ क बहत आव यकता है ि मणी।’’
‘‘ये हाथ आपके ही ह।’’
‘‘मुझे पता है।’’
कहते हए कृ ण ने उनके हाथ अपने ने से लगा िलये।
‘‘मुझे एक आ ासन दो ि मणी।’’
‘‘ या भु?’’
‘‘मेरी अनुपि थित म भी तुम ा रका क यव था देखोगी।’’
‘‘म आ ासन देती हँ िक देश, काल और प रि थितय के अनुसार सदैव उिचत िनणय ही
क ँ गी।’’
उनके इस उ र ने कृ ण को मौन कर िदया।
कृ ण और ि मणी दोन के मि त क म बहत से िवचार चल रहे थे। ि मणी के उ र से कृ ण
को लगा िक जैसे उ ह भिव य म होने वाली घटनाओं का कुछ आभास तो अव य हो गया है, और
यह सच भी था। ि मणी को सचमुच समझ म आ गया था िक कृ ण के मन म अव य ही भिव य
म होने वाली िकसी िवशेष घटना को लेकर कुछ चल रहा है।
वे कृ ण के साथ िबताये अब तक के जीवन के प र य पर ि डालने लग । उ ह ने कह भी
कृ ण को कमज़ोर नह पाया था, िक तु अचानक उ ह महाभारत के यु के बाद कृ ण को
गांधारी ारा िदया हआ ाप मरण हो आया।

* * *
महाभारत का यु समा हो चुका था। सभी कौरव अपनी सेना सिहत मारे जा चुके थे। पा डव के
प म भी कृ ण और पा डव को छोड़कर अ य सभी यु म मारे जा चुके थे। बहत ही अि य और
भयंकर स नाटा पसरा हआ था। लाश से सारा कु े पटा पड़ा था।
धतृ रा ने संजय से, जो िक बराबर उ ह यु का हाल बता रहे थे, यु े म चलने क इ छा
कट क । गा धारी को जब यह पता चला तो वे भी साथ हो ल । यु भिू म म पता नह िकतने शव
िबखरे पड़े थे। धतृ रा ने संजय से उ ह कौरव के शव के पास ले चलने को कहा। संजय उस
भिू म म कौरव के शव ढूँढ़ने लगे।
जहाँ भी उ ह िकसी कौरव का शव िमलता, वे धतृ रा को बताते। तब गा धारी और धतृ रा
दोन ही उस शव को पश करके रोते। सहसा जैसे धतृ रा को जैसे कुछ मरण हो आया।
उ ह ने संजय से पछ
ू ा,
‘‘संजय! दुय धन तो बहत अिधक बलशाली था; उसे िकसने मारा?’’
‘‘भीमसेन ने।’’ संजय ने उ र िदया।
दुय धन के मारने वाले का नाम सुनते ही धतृ रा के मुख पर कठोरता उभर आयी। उ ह ने
संजय से कहा,
‘‘बस, हम पा डव के िशिवर क ओर ले चलो।’’
संजय, धतृ रा के इस आदेश से च के। धतृ रा के कहने के ढं ग और उनके तने हए मुख से
संजय को उनके म त य म कुिटलता का आभास भी हो गया और िकसी अिन क आशंका भी;
िक तु आदेश का पालन करना उनक िववशता थी।
धतृ रा और गा धारी को लेकर संजय जब पा डव के िशिवर तक पहँचे, तो कृ ण सिहत
पा डव ने उनका वागत िकया, िक तु वे इस वागत से भािवत नह हए। उनका सोचना था
िक कृ ण ही इस महािवनाश का कारण ह। अतः धतृ रा ने आवाज दी,
‘ कृ ण!’
कृ ण पास ही खड़े थे, उ ह ने उ र िदया
‘जी।’
‘‘मने सुना है भीम ने इस यु म बहत परा म िदखाया है, म उसक वीरता से स न हँ, कहाँ है
वह ? उसे मेरे पास भेजो, म उसक पीठ थपथपाना चाहता हँ।’’
‘जी,’ कृ ण ने कहा, िक तु धतृ रा के वर के खेपन और मुख पर उभरी कठोरता ने कृ ण
को आशंिकत कर िदया। उ ह ने भीम क ओर देखा, और उसे सावधान रहने का संकेत िकया
और िफर बोले,
‘‘भीम आगे बढ़ो, वे तुमसे िमलना चाहते ह।’’
भीम, धतृ रा के पास आये तो धतृ रा उ ह आिलंगनब करने के िलये बढ़े । भीम ने अपने
हाथ को मोड़कर अपने सीने पर कर िलया, िफर भी धतृ रा ने उ ह आिलंगनब करके जोर से
दबाया।
भीम को लगा जैसे उनक हड्िडयाँ टूट जायगी, िक तु बीच म उनके दोन हाथ थे। उ ह ने हाथ
के जोर से धतृ रा क पकड़ ढीली क ।
कृ ण उ ह बहत गौर से देख रहे थे। उ ह ने देखा, धतृ रा के हाथ भीम क पीठ पर से होते हए
ऊपर क ओर बढ़ रहे ह। वे समझ गये िक धतृ रा के हाथ भीम क गरदन तक पहँचना चाहते
ह। यह आशंका होते ही कृ ण बोल पड़े ,
‘‘भीम! सँभलना।’’
इस आवाज के साथ ही धतृ रा भी समझ गये िक कृ ण उनक चाल समझ गये है, अतः उ ह ने
शी ता से अनुमान लगाते हए भीम क गरदन पकड़ने का यास िकया, िक तु तभी भीम ने
जोर लगाकर अपने को धतृ रा क पकड़ से छुड़ाते उ ह ध का िदया। धतृ रा , भीम का वह
ध का सह गये, िक तु भीम उनक पकड़ से छूट गये। एक अनथ होते-होते बच गया। भीम के
ध के से सँभलते हए धतृ रा के मुख से िनकला,
‘‘ओह, अरे ! बच गया।’’
वे िखिसयाये से खड़े हो गये। आँख मे प ी होते हए भी बात सुनकर और धतृ रा के वभाव से
प रिचत होने और भीम का वध करने क उनक योजना का अनुमान होने के कारण गा धारी
को भी इस घटना म का कुछ अनुमान हो गया था।
भीम के ारा ध का देने से धतृ रा के लड़खड़ाने पर उनक ‘ओह, अरे ! बच गया’ क विन भी
उ ह ने सुनी थी।
गा धारी समझ गय िक धतृ रा के भीम से बदला लेने म भी कृ ण आड़े आ गये ह। वे पहले ही
कृ ण को इस यु के िलये उ रदायी मानकर उनके ित ोध से भरी हई थ , और अब इस
घटना से उ ह खीझ और ल जा का अनुभव हआ। वे वयं पर िनयं ण न रख सक ,
‘‘कृ ण! तुम इस कु वंश के िवनाश के मुख कारण हो; तु हारे कारण ही हमारे इतने पु म,
एक भी आज इस व ृ ाव था म हमारा यान रखने और सेवा करने के िलये जीिवत नह है।’’
कृ ण ने इसका कोई उ र नह िदया, िक तु भीम जो अभी-अभी धतृ रा के चंगुल से म ृ यु के
मँुह म जाते-जाते बचे थे, भयंकर ोध से भरे हए थे।
‘‘अपने पु के कम को आपने बहत सहजता से भुला िदया लगता है, यहाँ तक िक भरी सभा म
एक ी को िनव करने का दुय धन और दुःशासन का यास भी।’’ भीम ने कहा।
वे शायद और भी बहत कहना चाहते थे, िक तु कृ ण ने संकेत कर उ ह चुप करा िदया। भीम चुप
तो हो गये, िक तु ोध उनके मुख पर फटा पड़ रहा था।
‘‘यह कौन बोला?’’ गा धारी ने भीम क आवाज सुनकर कहा।
‘‘कोई नह माँ, आप अपनी बात परू ी कर। ‘‘कृ ण ने उ र िदया।
‘‘तुम मुझे माँ मत कहो कृ ण; तु हारे मुख से अपने िलये माँ श द मुझे अ छा नह लगता, और
वैसे भी कु ती क िजठानी होने के कारण म तु हारी बुआ लगती हँ माँ नह ।’’ गा धारी ने
कहकर एक गहरी साँस ली, कुछ पल के िलये क और िफर बोल ,
‘‘मुझे यह भीम का वर लगा था।’’
‘हाँ।’ कृ ण ने कहा।
‘‘यह ठीक है कृ ण िक दुय धन ार भ से ही उ ड था, और अपने मामा शकुिन क संगत म
रहकर कुछ िबगड़ भी गया था; वह िकसी क भी नह सुनता था, मेरी भी नह । वह वे छाचारी
हो गया था, कहकर गा धारी कुछ क । संभवतः दुय धन क कुछ और मिृ तयाँ भी उनके
मि त क म आ रही थ ।
कुछ अ तराल के बाद वे िफर बोल ,
‘‘और दुःशासन भी उसका अंधभ हो गया था; िक तु मेरे सभी पु ऐसे नह थे, यिद तुम चाहते
तो मेरे इतने पु म से कम से कम एक तो जीिवत बच ही जाता, और वह तु हारे पा डव के
सा ा य के िलये कोई खतरा नह होता।’’ कहकर गा धारी पुनः क ।
‘‘नायक या खलनायक कहाँ से आते ह? आयु म बड़े होते हए भी मेरे पित को राज-िसंहासन से
वंिचत रखा गया। वे राजा बनते, और पा डु उनके सहायक, यह भी तो हो सकता था।
राजा बनने का मेरे पित का अिधकार छीना गया, िजसने उ ह भी खलनायक बना िदया और
हमारे पु को भी। िसंहासन के आकषण ने मेरे पित और पु को लोभी और अनुदार बना िदया।
वे भी उदार होते, यिद उनसे उनका अिधकार छीना नह गया होता।
िकसी के नायक या खलनायक बनने म या प रि थितय क भिू मका को नकारा जा सकता
है? मेरे पु जैेसे भी थे, उसके िलये मेरा दोष भी कम नह है। उनके िपता देख नह सकते थे, और
आदश प नी बनने का नशा मुझ पर इतना चढ़ा रहा िक आँख होते हए भी मने उन पर प ी बाँध
रखी थी। देखने क शि होते हए भी म अपने ब च को नह पहचानती थी। मेरे िलये उनक
आवाज और पश ही उनक पहचान रहे ।
हम उ ह िनयं ण म नह रख सके और हमारे ब चे राह भटक गये।हमारे पु के पालन-पोषण म
जो किमयाँ रह , उनका प रणाम हम भुगत रहे ह, िक तु कृ ण, या इससे तु ह स नता है?’’
गा धारी ने पछ
ू ा।
‘‘आपके दुःख से या िकसी के भी दुःख से स न होने क बात तो म व न म भी नह सोच
सकता; याय और धम का साथ देना और अ याय और अधम के िव खड़ा होना यिद गलत
है, तो म दोषी हँ, अ यथा नह ।
आपने ब च के ित अपने कत य म कमी रह जाने क बात क है, िक तु यह भी स य है िक
य िप सभी ब चे एक से होते ह िक तु िफर भी सभी एक ही कृित के नह होते; अ यथा एक ही
माता-िपता के और लगभग एक सी प रि थितय म पलने वाले सभी ब चे एक से यो य या एक
से अयो य हआ करते।
अतः दुय धन आिद के वभाव के िलये आप भी दोषी ह, कृपया इस मनोदशा से बाहर आइये।’’
कृ ण ने कहा।
‘‘पु क म ृ यु का दुःख माँ के िलये संसार का सबसे बड़ा दुःख होता है, इससे बड़ा कोई दुःख
नह हो सकता; तुम इसे नह समझ सकोगे, कृ ण।’’
‘‘स भवतः आप ठीक कहती ह; िक तु कोई भी दुख तब तक ही बड़ा रहता है, जब तक हमारे
सामने दूसरा दुख आकर खड़ा नह हो जाता।’’
‘‘तुम दयहीन हो कृ ण, तुम इसे नह समझोगे; तु हारे पास बहत से तक है और रहगे।’’
गा धारी क इस बात का कृ ण ने कोई उ र नह िदया। कुछ देर के िलये मौन पसर गया। सब
शा त खड़े थे, तभी गा धारी को लगा जैसे वे बहत भख
ू ी ह। भख
ू क ती ता अ ुत थी। गा धारी
को लगा, कुछ न कुछ खाने के िलये अभी ही िमलना चािहये, अ यथा वे खड़ी भी नह रह
सकगी, िगर पड़गी। तभी उ ह कह से अित उ म भोजन क महक आयी।
गा धारी वयं को रोक नह सक और उसी ओर चली पड़ । इस यास म उनके पैर एक शव से
टकरा गये। सँभलते-सँभलते भी वे उस पर िगर पड़ और उसके पश से पहचान गय िक यह
उनके पु का ही शव है।’’
गा धारी िवलख पड़ । उनक भख
ू भी आ यजनक ढं ग से गायब हो गयी। वे उठकर खड़ी हई ं
और पुकारा,
‘कृ ण!’
‘जी।’ कृ ण ने कहा।
‘‘तुम स य कह रहे थे; अव य ही एक दुःख तब तक ही बड़ा लगता है, जब तक दूसरा दुःख
सामने आकर खड़ा नह हो जाता। ाण पर संकट जैसी वह भख ू कुछ पल के िलये अव य ही
मुझे पु शोक से बड़ी लगने लगी थी, िक तु तुम मायावी हो कृ ण, और यह तु हारी माया नह
थी, यह मानने का मेरे पास कोई कारण नह है।’’
इसके बाद कुछ ण तक गा धारी कुछ सोचती हई सी लग , िफर बोल ,
‘‘तो कृ ण... ’’
‘‘म सुन रहा हँ।’’
‘‘हमारी आह तु हारा पीछा करगी; तु हारा यदुवंश भी कु वंश क भाँित ही आपस म लड़-
लड़कर न हो जायेगा और ...।’’
‘‘और या?’’
‘‘और तुम िकसी िनजन थान पर अचानक और बहत ही साधारण म ृ यु को ा होगे।’’
इतना कहने के बाद गा धारी ने एक ठ डी साँस भरी और िनढाल सी हो गय ।
गा धारी के ाप को सुनकर कृ ण को न आ य हआ न दुःख। यदुवंश मे जो वीर थे, उनम से
अिधकांश उनक सेना म थे, और वह सेना कौरव के प म पा डव से यु म लड़कर परू ी तरह
न हो चुक थी। शेष बचे हए यदुवंशी बहत अिधक धन-धा य व ऐ यपण ू जीवन के कारण
घम ड और कई कार के दु यसन म लीन हो रहे थे, ऐसे म भाई-भतीजावाद और मोह से मु
कृ ण ने पहले ही उ ह छोड़ने का मन बना िलया था।
शी ही उनका देह छोड़ने का समय भी आने वाला था, ऐसे म यिद उनक म ृ यु अचानक बहत ही
साधारण तरीके से और िकसी िनजन थान म न होती तो उनके कद को देखते हए वह अव य
ही िकसी बड़ी उथल-पुथल का कारण बनती, यह वे नह चाहते थे, अतः गा धारी के दोन ही
ाप से उ ह कोई क नह हआ। उ ह ने कहा,
‘‘आपके दोन ही ाप को म िसर झुकाकर वीकार करता हँ।’’
कृ ण क इस बात से वहाँ मौन पसर गया। स भवतः गा धारी को भी कृ ण से इस तरह क
िति या क आशा नह थी। कृ ण ने आगे कहा,
‘‘म जानता हँ आपने मुझे ोध म आकर ाप िदया है; संभवतः आपको इससे कुछ शाि त भी
िमली होगी। यि िकतना भी संयम रखे, िक तु कई बार वह अपनी मानवीय संवेदनाओं के
हाथ िववश हो जाता है, यह बात िजतनी और के िलये सच है उतनी ही मेरे िलये भी।
संभवतः आप नह जानती ह िक म वयं ही यह सब कुछ छोड़ने का िन य कर चुका हँ; एक दो
काय और शेष रह गये ह, उनके पण
ू होने और उपयु समय और अवसर क ती ा है बस...
णाम।’’

* * *
ि मणी को गा धारी से कही कृ ण क बात का अि तम वा य आज िफर मरण हो आया, और
इसके साथ ही उ ह ने सीने म बहत पीड़ा सी अनुभव क । वे उठ और आँख म आते आँसुओ ं को
रोकते हए वहाँ से हट गय ।
11 - नारी िवमश

दोपहर ढल रही थी। कृ ण अपने राजक य काय को िनपटाकर ज दी लौट आये थे। वे महल के
एक क म एक ओर िव ाम क मु ा म बैठे थे। देवक और वसुदेव, दोपहर के िव ाम के बाद
टहलते हए उसी ओर आ गये।
कृ ण उ ह णाम करने उठे , और उनको लाकर अपने िनकट ही िबठा िलया। तभी ि मणी आ
गय । उ ह ने भी देवक और वसुदेव को णाम िकया, बोल ,
‘‘म आप लोग के िलये कुछ फल लेकर आती हँ।’’
देवक ने टोका,- ‘‘तुम हमारे पास बैठो बेटी, और फल लाने के िलये िकसी अनुचर को बोल दो।’’
‘‘जी अ छा।’’ कहकर ि मणी बाहर गई ं; अनुचर को फल लाने के िलये बोलकर आय और
िनकट ही बैठ गइंर्।
वसुदेव ने बात शु क , बोले,- ‘‘आज ज दी आ गये कृ ण!’’
‘‘जी िपता ी, काय समा हो गया था तो घर आ गया।’’
‘‘अ छा िकया, इसी बहाने थोड़ा हमारे साथ भी बैठे लोगे, अ यथा आजकल तो तुम बहत य त
रहने लगे हो।’’
‘‘अ छा कृ ण’’ वसुदेव ने िफर कहा,
‘‘उस िदन तुम कह रहे थे िक हमारी कौरव और पा डव पर चचा अधरू ी रह गई है; या हम
आज उस चचा को शु कर?’’
‘‘ठीक है िपता ी, म शु करता हँ।’’
देवक बोल , ‘‘इस चचा म तुम दोन ग भीर हो जाते हो यह मुझे अ छा नह लगता।’’
‘‘देवक , जो सच है वह सामने आना ही चािहये; उस िदन क चचा से मुझे लगा िक कुछ लोग नेे
सच को िकतने आवरण से ढक रखा है... उसक आवाज दब गई है और झठ ू बड़े ही उ च वर से
गँज
ू ता िफर रहा है। यिद हमारा कृ ण उन आवरण को हटाकर स य को सामने ला रहा है तो
शंसनीय और िहतकारी काय है,’’ वसुदेव ने कहा, िफर कृ ण को ल य कर कहा,-
‘‘हाँ कृ ण, तुम अपनी बात कहो।’’
‘‘िपता ी, कौरव ने झठ
ू और छल से पा डव का रा य ही नह छीना, वे अपने वाथ को परू ा
करने के िलये लगातार ि य के च र -हनन म भी िल रहे । ि य के च र -हनन का यह
िसलिसला कौरव के शासन काल म एक ल बी दूरी तय करता हआ ौपदी तक चलता रहा।’’
‘‘कृ ण, तु हारी बात ने मेरी उ सुकता भी बढ़ा दी है; सचमुच िकसी ी के िलये यह कहना िक
उसके पाँच पित ह, उसका च र -हनन ही तो है।’’ देवक ने कहा
‘‘आप ठीक कह रही है माँ, इसीिलए म इस पर िव तार से चचा करना चाहता हँ।’’
‘‘ठीक है कृ ण।’’
‘‘माँ, राजा िविच वीय अपने िववाह के उपरा त कई वष तक जीिवत रहे , िफर भी यिद वे
िनःस तान ही वगवासी हो गये थे तो उनक पि नय अि बका और अ बािलका से िकसी अ य
पु ष ारा उ प न स तान, महाराजा िविच वीय के िलये स तान जैसी तो होती, स तान नह
होती।
रा य का उ रािधकारी ा करने के िलये िकसी राजपु या गुणी बालक को गोद भी िलया जा
सकता था, िफर भी महारानी स यवती ने स तान ाि के िलए भी म से अनुरोध करना उिचत
समझा। भी म, चारी होने क ित ा से बँधे हए थे, अतः उ ह ने यास जी का नाम सुझाया।
यास जी, महारानी स यवती और ऋिष पाराशर क , स यवती के िववाह से पवू क स तान थे।
उनका ज म स यवती के जीवन का एक रह य था, और इस रह य को उजागर करना उनके
ित अपराध भी था और अस मान भी।
भी म ने रा य के ित अपनी िन ा का यान रखा, अपनी ित ा का मान रखा, िक तु
पु ो पि के िलये यास जी का नाम सुझाते समय अपनी माँ स यवती के स मान को भल ू गये;
इसके पवू भी म-िपतामह ने महाराज िविच वीय के िववाह हे तु अि बका एवं अ बािलका का बल-
पवू क हरण भी िकया था।
ना रय के स मान को ठे स पहँचाने का काय यह से शु हो गया। रा य का उ रािधकारी पु ही
होता था, िक तु होने वाली स तान पु ही होगी, इसका आ ासन कोई नह दे सकता था, िफर
भी महिष यास इस काय म सहयोग देने के िलये राजी हो गये। अि बका और अ बािलका से
सहमित लेने क भी आव यकता नह समझी गयी, यह उनके साथ अ याय भी था और उनका
अपमान भी।
यह भी िवड बना ही है िक उनके िववाह क भाँित ही एक बार िफर अि बका और अ बािलका क
इ छा और अिन छा का कोई स मान नह िकया गया।
इस स तानो पि क घटना के समय अि बका ने ोभ से अपने ने ब द कर िलये, और
अ बािलका डर से पीली पड़ गई; या मा इतनी बात से कोई स तान अ धी या पा डु रोगी हो
सकती है?
अि बका क स तान ने हीन और अ बािलका क स तान पा डु रोगी होगी, ऐसा बताकर महिष
ने उन ि य क पीड़ा को िकस सीमा तक बढा िदया
़ होगा, इस का सहज ही अनुमान लगाया
जा सकता है।
इतना अि य और कठोर स य बोलने क कोई साथकता भी नह थी। इस कटु स य से कोई काय
िस हो गया हो ऐसा भी नह था... यह िकतना नैितक, िकतना अनैितक था, यह तो िव तजन
ही बतायगे, िक तु यह उन दोन ि य के जले पर नमक िछड़कने जैसा अव य था। महिष वहाँ
पर िनयोग- था ारा स तान उ प न कर रा य का उ रािधकारी देने के िलये गये थे।
दासी का पु राजिसंहासन का उ रािधकारी नह हो सकता, यह जानते हए भी मा िकसी क
अिभलाषा क पिू त के िलये उससे भी पु उ प न करना, और उस दासी ारा िकसी भी कार का
असहयोग न करने पर यह कहना िक उसका पु गुणी और िव ान होगा, महिष यास के
यवहार पर कुछ िच ह लगाता है। यथा- या यह घटना म उनक महिष होने क ित ा
के अनुकूल था? या ि याँ इ सान नह व तु मा ह, िजनक इ छा-अिन छा का कोई मू य
नह ?
महिष ने ौपदी के पाँच पितय क बात म भी ोपदी क इ छा-अिन छा को िब कुल भी मह व
देने क आव यकता नह समझी थी। इसके बाद अि तम यह िक या उनके नाम को आगे
कर कोई षड्यं हो रहा था, और वे उसका िवरोध नह कर रहे थे?’’
‘‘कृ ण, जो कुछ तुम कह रहे हो वह नया नह है, िक तु नई ि अव य है।’’
‘‘िपता ी, इस तरह क और भी घटनाय, िजनम ि य क मयादा का यान नह रखा गया,
बहत आगे तक चलती रह ।’’
धतृ रा के राजा बन जाने से जा खुश नह थी। जा युिधि र को राजा देखना चाहती थी।
धतृ रा के िलये यह ि थित क कारक तो भी ही, दूसरी ओर इस पु ष धान, िपतस ृ ा मक
समाज म पा डु और धतृ रा , महाराजा िविच वीय से उ प न स तान न होने के कारण रा य
िसंहासन के वाभािवक उ रािधकारी के प म वीकाय नह हो सकते थे।
जहाँ पा डु ने अपनी वीरता, कौशल और च र से वयं को थािपत कर िलया था, वह धतृ रा
अ धे तो थे ही, नीित और अनीित से भी उनका कुछ लेना देना नह था; इसीिलए महिष यास ने
पा डु क म ृ यु के प ात् जब स यवती, अि बका और अ बािलका को पाप, छल, कपट और दोष
बढ़ने व धम-कम और सदाचार लु होने क बात कहकर वन जाने क सलाह दी, तब भी म और
धतृ रा चुप रहे , जबिक अपनी माताओं क सुख-सुिवधा का यान रखना उनका भी कत य था।
धतृ रा का चुप रहना समझा जा सकता है; वे अ छी-अ छी बात करने, िक तु अनीित और
कपटपण ू यवहार करने के अ य त थे; उ ह स यवती, अि बका और अ बािलका के दूर हो जाने
से रा य के उ रािधकारी के प म अपने को थािपत करने म आसानी होने वाली थी... िक तु
भी म िपतामह क चु पी को समझना किठन है।
धतृ रा , पा डु और िवदुर के ज म से लेकर इस घटना म तक अित िव ान महिष यास ने
िकसी भी बड़ पन का प रचय नह िदया; स यवती, अि बका और अ बािलका क सुख-सुिवधा
का दािय व वे वयं भी लेे सकते थे।
िपता ी, ि य को मजबरू करने क , उनका उपयोग करने क , िफर उनसे पीछा छुड़ा लेने क
कु वंश क यह वाथ भरी कथा है।’’
देवक इस सारे वातालाप को बहत यान से सुन ही नह रही थ , बि क बीच-बीच म कृ ण क
बात का समथन भी करती जा रही थ । वे अपने पु क भावनाओं से वयं को गिवत भी महसस ू
कर रही थ । उ ह ने ऐसी ि से वसुदेव क ओर देखा मानो कह रही ह , ‘देखा मेरे बेटे को।’
कृ ण ने माँ क ि पहचानी। उ सािहत होकर आगे कहना शु िकया-‘‘िपता ी, इन कौरव ने
बुआ कु ती और मा ी का च र हनन भी बहत सुिनयोिजत तरीके से िकया।’’
‘‘तुम ऐसा कैसे कह रहे हो कृ ण?’’
‘‘िपता ी, महाराज पा डु वैरा य उ प न होने के बाद ग धमादन पवत, और वहाँ से तप या
करने शतशंग ृ पवत पर चले गये थे, िक तु उनक दोन पि नय कु ती और मा ी ने भी उनका
साथ िदया था। वे पा डु क म ृ यु होने तक उनके साथ ही रह । इसी बीच शतशंग
ृ पवत पर ही
पा डव का ज म हआ।
पा डु क म ृ यु के प ात् मा ी उ ह के साथ सती हो गई ं, िक तु कु ती पा डव समेत वापस आ
गई ं। धतृ रा , जो पहले से ही पा डु क अनुपि थित म रा य का ब ध देख रहे थे, उनक म ृ यु
के प ात् राजा बन बैठे थे। कु ती और पा डव, वापसी के बाद रा य िसंहासन पर अपना
अिधकार जता सकते थे, इस कारण धतृ रा के चारतं ारा यह चा रत िकया गया िक
पा डव अपने िपता पा डु क स तान ही नह ह, वे तो देवताओं क स तान ह।
यह रा य के िसंहासन पर युिधि र के अिधकार को समा करने का यास ही नह था, कु ती
और मा ी के च र हनन का अित िन दनीय यास भी था।
यश वी, वीर और गुणवान पु क ाि के िलये बुआ कु ती ने एक वष तक त िकया था।
महाराजा पा डु ने िपतर के तपण हे तु पु ाि क कामना से इतने ही समय तक सय
ू के
स मुख एक पैर पर खड़े होकर तप िकया था।
मा ी ने अ नी कुमार क तुित क थी, तब उ ह ये पु ा हए थे, िक तु धतृ रा ने चा रत
करवाया िक बुआ कु ती को कोई म आता था, उससे वे िजस देवता को चाह बुलाकर उससे
पु ाि कर सकती थ ।
कण को, उनका िववाह पवू इसी म ारा सय
ू से उ प न पु बतलाया गया। युिधि र को ा
करने के िलये उ ह ने धमराज, िज ह लोग यमराज भी कहते ह, मं ारा बुलाया। चार करने
वाले यह भी नह सोच सके िक यमराज तो िबना बुलाये ही िकसी न िकसी िदन आ ही जाते ह,
कोई भी अपने जीवन काल म उ ह बुलाना नह चाहता।
चार के अनुसार कु ती ने भीम के िलये वायु देवता और अजुन के िलये इ को बुलाया, और
मा ी को भी यह मं बताया, िजससे मा ी ने, अि नी कुमार को बुलाकर दो पु , नकुल और
सहदेव ा िकये।
यिद मं म इतनी अिधक शि थी िक उससे कण जैसा पु ा हो सकता था, तो पा डव क
ाि के िलये कु ती को एक वष का त, पा डु को एक वष तक एक पैर पर खड़े रहकर
तप या, और मा ी को एक वष तक अि नी कुमार क तुित करने क या आव कता थी?
देवताओं का पु ाि के िलये वरदान देना समझा जा सकता है, िक तु उनके ारा सशरीर
उपि थत होकर पु पैदा करने क बात उन देवताओं के कद को तो घटाती ही है, एक ी के
च र पर दोषारोपण का यास भी है।
देवताओं ारा सशरीर आकर ि य से पु उ प न करने का इतना कपोल-कि पत उदाहरण न
इसके पवू न इसके बाद ही कह पाया गया।
महाभारत के यु के दौरान जब कौरव क जीत क आशा धिू मल लगने लगी, तब कौरव का
मनोबल बढ़ाने के िलये चा रत िकया गया िक कु ती, कण के पास गइंर्, उसको अपना पु
बताया, और अपने पु पा डव क जीवन-र ा क याचना क ।
इस संग को चा रत कर एक बार पुनः कु ती का च र -हनन, पा डव क अपनी माँ के ित
ा को कम करने एवं पा डव प के यो ाओं के मनोबल को घटाने का यास िकया गया;
यह सब िकसी अित िवकृत मि त क क उपज सा लगता है।’’
ि मणी, जो अभी तक शाि त से सब कुछ सुन रही थ , धीरे से बोल ,
‘‘और ौपदी?’’
‘‘हाँ और ौपदी भी।’’ कृ ण ने कहा,-‘‘ ौपदी, महाराजा ु पद क क या थ , और िजस समय
महाराजा ु पद य कर रहे थे, वे उसी समय ज मी थ । वे िद य ल ण से यु थ , इसीिलये
लोग यह भी कहने लगे थे िक वे य क वेदी से उ प न हई थ । उनके वयंवर म अजुन के
अलावा दुय धन और कण भी गये थे।
इस वयंवर म ल यवेध बहत किठन था। दुय धन अ य राजाओं क भाँित ही असफल रहा, और
कण के ल यवेध के िलए उठने पर ौपदी ने कण से िववाह करने से इंकार कर िदया। अजुन ने
ल यवेध िकया और राजा द् ु रपद ने उनके साथ ौपदी का िववाह कर िदया। दुय धन और कण ने
इस िववाह से अपने को अपमािनत महसस ू िकया।
चँिू क धतृ रा भी अपने पु दुय धन के िलये ौपदी को चाहते थे अतः यह तीन लोग ौपदी और
पा डव के ित अ यिधक ई या से भर उठे , और यह चा रत िकया िक माता कु ती के कहने से
ौपदी, पाँच पा डव से िववाह कर सभी क प नी बन गई ह।
मेरी बुआ कु ती, पा डव क माँ होने के कारण वा तिवक राजमाता थ , और जा म बहत
अिधक स मािनत भी थ , अतः वे कौरव के िवशेष िनशाने पर रह । उ ह ने पा डव से ौपदी को
व तु क भाँित बाँट लेने को कहा, ऐसा चा रत कर एक बार पुनः उनका च र हनन िकया
गया, जबिक अजुन के अित र शेष पा डव भी सभी गुण से स प न थे और उनके िववाह म
कोई अड़चन नह थी
यह मातसृ ा मक प रवार भी नह था, और ि य का बहिववाह भी चिलत नह था; िफर एक
ही ी से सभी पु के िववाह क बात कु ती जैसी ी य कहे गी, इस तक को परू ी तरह भुला
िदया गया।
पा डव, जंगल म रहते हए िन य सायंकाल कुछ न कुछ भोजन साम ी लेकर आते थे। िजस िदन
वे ौपदी के साथ आये, उस िदन भी उ ह ने िन य क भाँित अपनी माँ कु ती से कहा िक वे कुछ
लाये ह। कु ती ने िबना देखे ही कह िदया िक सब भाई आपस म बाँट ला; ऐसा उ ह ने भोजन
साम ी समझकर कहा था।
ौपदी, भोजन साम ी नह , ी थ ; उनके ऊपर यह आदेश लागू नह होता था। श द को
पकड़ना और भावना को छोड़ देना अनथकारी होता है।
ौपदी, अजुन क वयंवरा प नी थ । यिद मवश कु ती के मुख से यह बात िनकल भी गई, तो
उसे सही करने म कोई दोष नह था। यिद कोई माँ अपने ब चे के, िबना यह जाने िक नीचे
दलदल है, कूदने के िलये कह बैठे, तो या सच जानने के बाद भी वह केवल अपनी बात रखने
के िलये उ ह कूद जाने देगी? या कु ती व पा डव सभी िववेक शू य थे?
दुय धन, पा डव म फूट डलवाने के िलये भी यासरत था। वह इस बात को चा रत कर अजुन
और शेष पा डव म फूट डलवाने म सफल हो सकता था। इसे चा रत करना इसीिलये भी आसान
था य िक उनके पास अलग-अलग महल नह थे; वे एक साथ, एक ही छत के नीचे रहते थे।
युिधि र क प नी देिवका और उनका पु यौधेय, भीम क प नी कािशराज क पु ी बल धरा
और उनका पु सवग, नकुल क प नी करे शुमती और उनका पु िनरिम , तथा सहदेव क
प नी िवजया और उनका पु सुहो था; इसके बाद भी वे अजुन क प नी ौपदी म साझा करते
थे, यह िवचार ही घोर िन दनीय है।
जैसे इतना ही काफ नह था, कौरव ने षड्यं करके युिधि र से ौपदी को जुएँ के दाँव पर
लगवाया, छल करके जीता, और िफर भरी सभा म ौपदी व पा डव को अपमािनत िकया।’’
इतना कहकर कृ ण चुप हो गये।
‘‘जो िजतना ऊँचा होता है उसे िगराने के िलये उतने ही अिधक यास करने पड़ते ह... मरे हए
को कौन मारता है? ौपदी अपने समय क े तम ना रय म थ , इसीिलये उनको िगराने के
िलये उनके ऊपर सवािधक ग दा क चड़ उछाला गया।’’ ि मणी ने कहा,।
‘‘तुम ठीक कह रही हो ि मणी।’’ देवक और वसुदेव ने लगभग एक साथ कहा।
‘‘िपता ी, पा डव के राजसय ू य म दुय धन के लड़खड़ा जाने पर ौपदी ने कहा था, ‘‘अ ध
के अ धे ही होते ह।’’ यह सुनने म थम ि म ज र अशोभनीय लगता है; िक तु िजस ी पर
कोई पाँच पितय क प नी होने का लांछन लगाये, उसको अ धा कहना िकसी ी क
वाभािवक और सौ य िति या है, और यह वा तिवकता से परे भी नह है।
धतृ रा क शारी रक अ धता को छोड़ भी द, तो भी वे पु मोह म पड़कर अपने कत य के ित
अ धे हो चुके थे, और दुय धन तो स ामद म अ धा था ही।
‘‘माँ, िवदुर तो चिलये दासीपु थे, उनक बात को कौरव य मह व देते, और ोणाचाय कौरव
के गु , बहत बड़े धनुधर और यो ा थे; पर कटु स य यह भी है िक वे रा य के आि त थे और
राजस ा का बहत अिधक िवरोध नह कर सकते थे; िक तु िपतामह भी म भी इस सारे अ याय
और मानिसक अ याचार के िव खुलकर खड़े नह हए।
हि तनापुर के राजिसंहासन के ित िन ा बनाये रखने क ित ा का पालन करने के िलये वे
चुपचाप अपने कुल क इन ि य का अपमान देखते रहे , या यह वाथ नह कहा जाएगा?
साम य होते हए भी अ याय को चुपचाप देखते रहने के िलये या इितहास उ ह मा करे गा?’’
‘‘इितहास जो करे गा, करता रहे गा, हम वतमान क बात कर; वे ि याँ जो कौरव के अ याय
और शोषण का िशकार हई ं, वे कभी भी कौरव के इस शीष पु ष को उसक अपनी भिू मका के
िलये कभी मा कर सकगी या ?’’ देवक ने कहा।
‘‘माँ, अ बा, अि बका और अ बािलका पुरानी पीढ़ी क थ , वे तो मौन रहकर सब कुछ सह गय ,
िक तु ौपदी आज क ह और मुखर भी; उ ह ने अपने ित अ याय पर अपने िवरोध को समय-
समय पर वाणी दी, छुपाया नह ।’’ ि मणी ने कहा।
* * *
महाभारत का यु चल रहा था। भी म िपतामह बाण क शै या पर थे। िदन का यु समा होने
के बाद कौरव और पा डव दोन उनके पास जाते थे, और भी म िपतामह उनको िनरपे भाव से
कुछ उपदेश, कुछ सलाह िदया करते थे।
राि िघर चुक थी। पा डव अभी-अभी िपतामह के पास लौटे थे। राि के िव ाम का समय था।
सुबह होते ही िफर से रण ार भ हो जाना था। अजुन थके हए से लेटे थे। मन म िपतामह के कहे
हए कुछ उपदेश थे।
ौपदी पास ही थ । अजुन ने ौपदी से िपतामह के उपदेश क चचा क । ौपदी, चुपचाप सुन रही
थ । अजुन क बात समा हई तो ौपदी ने कहा,
‘हँह।’
अजुन ने देखा ौपदी के मुख भर कुछ यं य भरी मु कान थी।
‘‘ या हआ? लगता है तु ह िपतामह के उपदेश ने भािवत नह िकया है ?
‘‘दूसर को उपदेश देना बहत सरल होता है।’’ ौपदी ने कहा।
‘‘ या मंत य है तु हारा ?’’
‘‘इन उपदेश का या क ँ म ?’’
‘अथात ?’
‘‘जो यि भरी सभा म एक ी को िनव करने के यास के समय, समथ होते हए भी
अपनी आँख ब द करके बैठा रहे , िकसी कार का िवरोध न करे ; उसके ान और उपदेश क
ौपदी को आव यकता नह है।’’ ौपदी के वर म कड़वाहट थी।
‘‘उसक पीड़ा उनके मन म रही होगी, और बहत अिधक रही होगी; िक तु उनक कुछ
िववशताय थ , और यह बात उ ह ने अ यिधक पीड़ा के साथ वीकारी भी है।’’
‘‘चलो, म मान लेती हँ िक उनक िववशताय रही ह गी, य िप वे साधारण िवरोध भी नह दिशत
कर सकते थे, यह समझना मेरे िलये बहत किठन है, िफर यह पु ष धान समाज है और मुझे
लगता है.... ’’
‘‘ या लगता है ?’’
‘‘आप तो नह ह गे ?’’
‘नह ।’
‘‘तो मुझे लगता है, जो पु ष जीवनभर अिववािहत रहते ह, या जो बहत सी ि य से िववाह
करते ह, वे ि य क भावनाओं को संभवतः कभी समझ ही नही पाते या समझना चाहते नह है,
वे अपने ित े ता क भावना से भरे रहते ह, य िप कुछ अपवाद भी होते ही ह गे।
और िफर िपतामह का तो वैवािहक जीवन और उनका राजिसंहासन पर अिधकार, एक ी के
कारण ही िसत हआ था। इसके बाद ौपदी ने कुछ क कर कहा,
‘‘आपको मेरी बात कह पीड़ा तो नह पहँचा रही ह ?’’
‘‘सच सुनने क साम य मुझम है ौपदी।’’
मेरे साथ वही एक अ याय नह हआ; मेरे पाँच पित ह यह दु चार मेरे च र हनन का एक और
यास ही तो है... िकसी ने भी इस दु चार का ख डन करने का भी यास िकया या? भले ही
इस वंश के शीष पु ष, िपतामह ही य न ह ?
महाराज िविच वीय के िववाह के िलये वे बलपवू क राजकुमा रय का अपहरण कर लाये, या यह
नैितक काय था? और िफर या एक पु ष के िलये एक ही ी पया नह थी? एक पु ष के
िलये तीन-तीन राजकुमा रय का अपहरण पता नह या- या कहता है और या- या नह
कहता है।
महाराज धतृ रा अ धे थे। एक अ धे यि के साथ िकसी भी लड़क को बाँध देना या
दमनकारी काय नह है? और िफर जब उस लड़क ने नैितकता और धम-परायणता के वार म
आकर सदा के िलये आँख पर प ी बाँध ली, तब उ ह ने या उसे या धतृ रा को इस कार एक
जीवन को िबना मतलब आधा-अधरू ा न बनाने के िलये समझाया ? नह न! ’’
अजुन, ौपदी क इन बात का कोई उ र न दे सके।
* * *
देवक , वसुदेव और ि मणी, सभी बहत शाि तपवू क और मनोयोग से कृ ण को सुन रहे थे।
कृ ण ने बात समा क तो ि मणी ने कहा,
‘‘म कुछ कहना चाहती थी।’’
‘‘हाँ, िनःसंकोच कहो।’’ देवक बोल ।
‘‘ ौपदी क बात सच तो थ िक तु बहत तीखी थ ; और िफर उ ह ने जीवन म िजतना जहर
िपया था, उसे देखते हए यिद उनक वाणी म कभी कड़वाहट आ भी जाये तो इसम आ य या है
?’’
‘सच।’ देवक ने कहा।
इसके बाद कुछ देर के िलये शाि त हई, और िफर कृ ण ने कहा,-‘‘िक तु िपता ी, इस सारे
घटना म का उजला प भी है, जो हम बताता है िक स य और धम पर चलना यथ नह होता।’’
‘‘वह प या है कृ ण?’’
‘‘इस सारे घटना म के बाद भी हि तनापुर और उसके बाहर भी लोग ने इन िछछोरी बात पर
िव ास नह िकया, और न ही लोग के मन से कु ती, मा ी, ौपदी व पा डव के ित आदर व
ेम क भावना कम हई, यह छोटी बात नह है।’’
‘‘हाँ, यह छोटी बात नह है, और यहाँ ये बात यह भी बताती
है िक पा डव सचमुच ही स य और धम के माग पर थे।’’
‘‘कृ ण, एक बात म भी कहना चाहती हँ।’’ देवक ने कहा।
‘‘हाँ माँ, कह।’’
‘‘कृ ण, मुझे तो लगता है, धतृ रा और दुय धन आिद उनके पु बहत अिधक िवकृत
मानिसकता से िसत थे। ी कोई भी हो, वे उसे व तु ही समझते थे इ सान नह ; यिद ऐसा
नह होता तो धतृ रा , गा धारी को जीवन भर आँख म प ी बाँधकर नह रहने देते; वे उनसे
कह सकते थे िक मेरी आँख नह ह तो या, म तु हारी आँख से दुिनया देखँग
ू ा, तुम मेरा सहारा,
मेरी लाठी बनना।
यिद आँख रहते हए आँख पर प ी बाँधकर रहने क पीड़ा का उ ह ने अनुमान लगाया होता, तो
वे गा धारी को कोई कसम वगैरह देकर भी प ी हटाने के िलये कह सकते थे।
वे उनक मनुहार कर सकते थे, और उ ह आँख होते हए अ धेपन का जीवन जीने से बचा सकते
थे; यह पित होने के कारण उनका कत य था, िक तु उ ह ने ऐसा कोई यास नह िकया। यिद
वे गा धारी से जुड़ाव महसस
ू करते होते, तो गा धारी को अ धेपन का जीवन नह जीने जीते।
दुय धन, गा धारी का बड़ा पु था; उसने भी अपनी माँ को जबरद ती ओढ़े अ ध व से छुटकारा
िदलाने के िलये, उ ह समझाने का कोई यास नह िकया।
दुय धन ने जीवन भर अपनी माँ क सलाह को भी कोई मह व नह िदया, यह कौरव ारा
ि य के जीवन को कोई मू य न देने का एक और उदाहरण है।’’ कहकर देवक ने अपनी बात
समा क ।
सभी लोग अपनी बात कह चुके थे, और वातावरण बहत ग भीर हो चुका था। ि मणी और
देवक के तो ने सजल हो आये थे। वसुदेव ने अपना हाथ कृ ण क पीठ पर रखते हए कहा,
‘‘पु , सचमुच तुमने महाभारत के यु को न रोककर अ छा ही िकया; पा डव को रा य
िमलता, यह आव यक था, िक तु उससे भी अिधक आव यक था, ी को व तु समझने क
मानिसकता क समाि ।’’
12 - याण से पवू -1

पण
ू सयू हण आने वाला था। ऐसे अवसर कम ही आते ह, और िचिलत मा यताओं के अनुसार
ऐसे अवसर पर िकये गये दान और य का बहत अिधक मह व होता है।
कु े म सम त-पंचक नामक एक पिव थान था, जहाँ परशुराम ने एक महाय स प न
िकया था। उ ह ने वहाँ पाँच बहत सु दर झील भी बनवायी थ । ाकृितक प से यह थान बहत
रमणीक और िविभ न सुिवधाओं से यु था।
व ृ दावन और ा रका म बहत अिधक दूरी थी, िक तु सम त-पंचक, ा रका क अपे ा
व ृ दावन के पास था। बलराम के मन म इस पणू सयू हण के अवसर पर एक िवशाल य
करवाने का िवचार आया, िजसम ा रका और व ृ दावन के लोग क सामिू हक भागीदारी हो।
इसी बहाने एक पिव य भी स प न होगा ओर वष बाद दोन े के लोग आपस म िमलजुल
भी लगे।
बलराम, कृ ण के बड़े भाई थे। वे वसुदेव क पहली प नी रोिहणी के पु थे। सुभ ा उनक सगी
छोटी बहन थी, िजसका िववाह अजुन से हआ था। बलराम के ज म से पवू ही उनक माँ रोिहणी,
मथुरा से गोकुल आ गयी थी और और बलराम का ज म गोकुल म ही एक पण ू मासी को हआ था।
वे ल बे और अ य त गौरवण के थे, और नीले व म रहना उ ह िचकर लगता था।
सौरा के शासक रै वत क पु ी रे वती उनक प नी थी, और िनशाथ तथा उ मुक उनके पु थे।
बलराम बहत वीर थे, और वैसे तो वे बहत शा त वभाव के थे, िक तु ोध आने पर बहत
भयंकर हो जाते थे।
एक बार ि मणी के भाई ि म के साथ पाँस के खेल म जब मी ने उनसे छल िकया, तो
ोिधत बलराम ने मी क जीवनलीला ही समा कर दी थी।
ा रका के रा य क थापना के बाद बड़े भाई होने के कारण कृ ण ने उनसे यहाँ का शासन
सँभालने का अनुरोध िकया तो बलराम ने बहत ेम से िक तु प श द म इससे इनकार कर
िदया था।
बलराम, यु कला के िश क भी थे, और दुय धन और भीम दोन को उ ह ने गदा यु
िसखलाया था। वे जीवनभर राजनीित से दूर रहे । कृ ण, यु टालने के िलये पा डव क ओर से
उनके िलये मा पाँच गाँव माँगने दुय धन के पास गये थे, तब तक बलराम को आशा थी िक
कौरव और पा डव के म य यु टल जायेगा, िक तु जब कृ ण अपने यास म असफल होकर
लौट आये तब उनक यह आशा टूट गयी।
ोध म आकर वे कब या कर बैठ, यह वे वयं भी नह जानते थे, अतः यु ार भ होने से पवू
ही वे तीथया ा पर िनकल गये। उ ह ने अपनी या ा पवू िदशा से ार भ क और सर वती नदी
के तट पर बने तीथ से होते हए नैिमषार य आये। यह थान उस समय महिषय और स त पु ष
क सभा के िलये यु होता था।
वहाँ पर इ वल नामक असुर के पु ब वल का बहत आतंक था। वह हर पिू णमा और अमाव या
को जब नैिमषार य म ऋिष लोग कुछ िवशेष आयोजन कर रहे होते थे, आकर उनको बहत
सताता था। बलराम ने ब वासुर का वध कर नैिमषार य को उसके आतंक से मु कराया।
उसके बाद से सरयू के िकनारे बने तीथ म गये, िफर याग और वहाँ आज के िबहार मे ि थत
शोण नदी के तट पर होते हए गया पहँचे, जहाँ उ ह ने िपतर का तपण िकया। वहाँ से वे
गंगासागर गये और इसके बाद उ ह ने दि ण क या ा ार भ क । यहाँ से वे मदुरै, सेतुब ध
रामे रम होते हए क याकुमारी गये।
वहाँ पर दुगा जी का एक ाचीन और भ य मि दर था, िजसके कारण इस े का नाम
क याकुमारी पड़ गया था। वहाँ से केरल होते हए वे वापस कु े आये।
महाभारत का यु उस समय समाि क ओर था। कौरव म केवल दुय धन ही शेष था। बलराम,
भीम और दुय धन के गदायु के समय वहाँ वहाँ पहँचे। वयं कृ ण और पा डव उनके आने पर
इस बात से सशंिकत हो गये िक कह वे दुय धन का प न ले ल।
सभी उनके ोध से प रिचत थे, िक तु इस स भावना के िवपरीत बलराम ने अपने िश य भीम
और दुय धन को यु न करने के िलये बहत समझाया, पर तु दोन ही बहत अिधक ोध म थे।
भीम तो ौपदी के चीरहरण के समय क हई दुय धन का वध करने क अपनी ित ा से बँधे हए
थे, और दुय धन भी पीछे हटने को तैयार नह था।
वह उ ह यह भी पता लगा िक उनक बहन सुभ ा के पु अिभम यु को कौरव ने अ यायपवू क
घेरकर मार डाला था, और गु ोणाचाय के पु अ थामा ने तो अिभम यु क प नी उ रा के
गभ को भी चोट पहँचाकर उसके गभ थ िशशु को न कर िदया था।
महाभारत के यु क िवभीिषकाओं से दुखी और िख न बलराम ा रका चले आये। इतनी
तीथया ा के बाद बलराम अपने ोधी वभाव से पण
ू मु हो चुके थे और धािमक ि याओं और
अनु ान म उनक बहत अिधक िच हो गयी थी। ेम और भाईचारे क बात उ ह बहत सुहाने
लगी थ ।
य का िवचार आने पर उ ह ने िपता वसुदेव से अनुमित लेने का मन बनाया। वसुदेव ने उनक
बात सुनी और ‘बहत ही शंसनीय िवचार है।’ कहकर सहष अपनी सहमित दी, िफर
‘‘कृ ण को पता है यह ?’’ उ ह ने पछ
ू ा।
‘‘मेरे मन म अभी यह िवचार आया है, िक तु मुझे लगता है िक वह भी इस िवचार का वागत ही
करे गा।’’ बलराम ने कहा।
‘‘मुझे भी यही लगता है, िक तु िफर भी उसक सहमित ले लेना अ छा है, और िफर सय
ू हण
पड़ने म अिधक िदन भी नह शेष है, अतः तुर त ही तैयारी ार भ करनी होगी।’’
‘‘म देखता हँ।’’ बलराम ने कहा, और अ य त ही सरल भाव से वे वयं ही चलकर कृ ण के पास
पहँच गये। कृ ण ने उ ह णाम िकया। बलराम, आशीवाद देकर बोले,
‘कृ ण।’
‘‘जी भैया।’’
‘‘म सोचता हँ इस बार के पण ू हण के अवसर पर सम त-पंचक म एक िवशाल य
ू सय का
आयोजन िकया जाए, िजसम ा रका और व ृ दावन दोन , लोग क सहभािगता हो।’’
‘आँ!’ कृ ण ने कहा। अचानक िमले इस ताव से कृ ण जैसे च क से गये। वे तुर त कोई उ र
नह दे सके। व ृ दावन से जुड़ी मिृ तयाँ उ ह अ सर घेर लेती थ , िक तु अपनी दूसरी
य तताओं के चलते वे वहाँ दुबारा कभी जा नह सके थे।
आज बड़े भाई के इस ताव ने उस महान योगे र के मन को बरबस ही पता नह िकतने भाव
से भर िदया था। ‘यह य होगा तो वे एक बार िफर माँ यशोदा और बाबा न द से िमल सकगे,
उनके चरण पश कर उनका आशीवाद ले सकगे। ‘िकतने आन ददायक ह गे वे ण’ कृ ण ने
सोचा।
‘वे बचपन के िम और गोिपयाँ, वे भी तो उनके जैसे ही बड़े हो गये ह गे। पता नह कौन कहाँ
होगा, कैसा होगा’ उनके मन म आया। ‘और राधा!’ जीवन म कभी उनसे दुबारा आमने-सामने
भट होगी, यह िवचार भी उ ह ने बलपवू क मन से िनकाल िदया था, िक तु मिृ तय म अभी भी
राधा अपने उसी िवशेष थान पर खड़ी थ ।
आज अचानक उनसे भट क इस स भावना ने कृ ण के दय क धड़कन ती कर द । ‘ओह,
यह भी... यह भी होगा। राधा से एक बार और िमलना स भव हो सकेगा।’ उ ह ने सोचा। ‘पता
नह िकतने उलाहने भरे ह गे उस मन म, और उनका या उ र दे सकगे वे; िफर भी एक बार
उ ह देख तो सकगे।’
इस संसार से िवदा लेने का िन य तो वे कर चुके
थे, िक तु इसके पवू वष बाद एक बार पुनः राधा से भट क क पना उस महान योगी के भी मन
को केवल गुदागुदा ही नह गयी, रोमांिचत भी कर गयी। वे अपने बड़े भाई के ित आभार से भर
उठे ।
उनके मन म आया िक वे कह, ‘मुझे परम सौभा य सी लगने वाली इस बात म पछ
ू ने क या
आव यकता है? िक तु श द उनक िज ा तक आकर क गये।
बलराम उनके उ र क ती ा कर रहे थे। कृ ण के मौन का अथ उ ह समझ म नह आया।
‘‘ या हआ कृ ण ? तुमने मेरी बात का उ र नह िदया,’’ उ ह ने कहा।
‘‘आँ... हाँ’’, कृ ण जैसे न द से जागे ह । ‘‘हाँ, ठीक तो है, बहत सु दर िवचार है यह तो।’’
‘‘ठीक है, िफर हम शी ही तैया रयाँ ार भ कर देनी चािहये।’’
‘‘ठीक है।’’ कृ ण ने कहा।
आयोजन को लेकर कृ ण बहत उ सािहत थे। व ृ दावन चँिू क बहत दूर था, अतः उ ह ने दो
स देशवाहक ती गित वाले घोड़ से यु रथ पर वहाँ के िलये भेज िदये। कुछ अनुभवी और
समझदार लोग का दल सम त-पंचक म तैया रयाँ करने के िलये भेज िदया गया।
सम त-पंचक चलने के िलये लगभग सभी मह वपण ू यि य क सच ू ी बनायी गयी। व र म
ी वसुदेव, देवक , अ ू र आिद के िलये जहाँ तक हो सके, आरामदायक रथ का ब ध िकया
गया। किन म बलराम और कृ ण के पु , उनक पि नयाँ और यदुवंश के अनेक सद य थे।
उ रदािय व क बात आयी तो कृ ण के पौ अिन , यदुवंश के सेनापित कृतवमा के
अित र वीर और बुि मान सुच द, शुक और सारण जैसे कुछ लोग को अिन के नेत ृ व म
ा रका क र ा का भार िदया गया।
कृ ण के पु ु न को सम त-पंचक म य के समय सतक रहते हए य और वहाँ उपि थत
लोग क देखभाल करने और उनक र ा म त पर रहने का काय िदया गया।
अिन , ु न के ही बेटे थे। वे ीकृ ण के समान ही आकषक और बहत वीर थे, और जैसा िक
ायः होता है, यि को अपना पौ कुछ अिधक ही ि य होता है; वैसा ही कृ ण के साथ भी
था। अिन , कृ ण को बहत अिधक ि य तो था ही, उसक मताओं पर भी कृ ण को बहत
अिधक भरोसा था।
अिन क प नी उषा महाराज बिल के पु बाणासुर क पु ी थ । वे भी इस समारोह म जाना
चाहती थ , िक तु पित के वहाँ न जाने के कारण कुछ िनराश थ । उ ह ने अपने पित अिन से
अपनी इ छा बतायी तो अिन ने कहा िक वे िपतामह कृ ण से बात करने के बाद ही कोई उ र
दे सकगे। समय पाकर अिन ने कृ ण से कहा,
‘‘एक िनवेदन करना था।’’
‘‘हाँ, कहो।’’
‘‘म तो ा रका क र ा के िलये यहाँ रहँगा, िक तु उषा क इस आयोजन म भाग लेने क ती
इ छा है।’’
कृ ण हँसे, बोले,
‘‘हाँ, य नह , इसम िकसी को या आपि हो सकती है।’’
‘जी।’ कहकर अिन तो उषा को यह बताने चले गये, िक तु उषा क बात आयी तो कृ ण को
उसके िपता बाणासुर और अपने म य हए सं ाम का मरण हो आया, और इस पर कृ ण एक बार
िफर मन ही मन हँसे।
वे देख रहे थे िक जबसे उ ह ने इस देह को छोड़ने क बात सोची थी, छोटी-छोटी बात से भी
उनका मन उनसे जुड़ी मिृ तय क ओर चला जाता था। ‘कुछ मिृ तयाँ और।’ उ ह ने मु कराते
हए सोचा।

* * *
महाराज बिल बहत तापी और दानवीर थे। उनका पु बाणासुर बहत अिधक बलशाली था; कहते
ह उसम इतनी अिधक शि थी िक वह अपने हाथ से हार करके प थर को तोड़ देता था। उषा
उसी क पु ी थ । वह बहत अिधक सौ दय-शािलनी थी। िपता के एक म ी क पु ी िच लेखा,
उसक बहत ही ि य सखी थी।
एक बार अिन िकसी िशकार का पीछा करते हए, माग भटककर बाणासुर के रा य शोिणतपुर
के पास तक जा पहँचा। थकान क अिधकता से वह अपने रथ को एक पेड़ क छाया म लगाकर
वयं उसम लेटकर िव ाम करने लगा और कुछ देर म ही सो गया।
िच लेखा बहत बुि मान और चंचल थी। वह उषा को साथ लेकर कभी-कभी महल से दूर घम
ू ने
िनकल जाती थी। उस िदन वे दोन ऐसे ही िनकली हई थ और कुतहू लवश चलते-चलते काफ
दूर और जंगल जैसे थान पर जा पहँच ।
सौभा यवश अिन का रथ वह खड़ा हआ था। उषा, सोते हए अिन को देखकर मु ध हो
गय और खड़े होकर उसे िनहारने लग । िच लेखा ने उषा को एकटक अिन क ओर देखते
हए पाया तो वह मु करायी। दोन ने ी कृ ण के बारे म सुन रखा था।
अिन , रं ग और देहयि से अपने दादा ीकृ ण पर ही गया था, इससे िच लेखा को लगा िक
संभवतः वह ीकृ ण के प रवार से ही कोई है।
तभी अिन जाग उठा। उसे उठकर बैठते देख वे दोन कुछ घबराय और वापस जाने के िलये
मुड़ । अिन ने उ ह देख िलया था। उसने आवाज देकर पछ
ू ा,
‘‘कौन ह आप ?’’
वे क । उ र िच लेखा ने िदया। उसने उषा क ओर इंिगत कर कहा,
‘‘ये महाराज बाणासुर क पु ी ह।
‘‘और म ा रकाधीश ीकृ ण का पौ हँ, अिन ।’’
‘म ठीक ही थी। िच लेखा ने वयं से कहा। उषा पहली बार महल से इतनी दूर आयी थी, और
आते ही इस िविच ि थित म फँस गयी थी, अतः वह कुछ िवशेष ही घबरायी हई थी। उसने
िच लेखा का हाथ थामा और बोली,
‘‘चल, हम और िवल ब नह करना चािहये।’’
‘‘हाँ, चलो,’’ कहकर िच लेखा उसके साथ वापस हो ली। थोड़ा चलकर उ ह ने पीछे मुड़कर
देखा। अिन उनक ओर ही देख रहा था। उ ह ने अपना िसर वापस घुमा िलया। चाल कुछ तेज
हो गयी।
‘वे अभी भी इस ओर ही देख रहे ह। उषा ने सोचा। उषा को अपने ऊपर अिन क ि क
अनुभिू त होने लगी। उसक गित और ती हो गयी और साँस भी। िच लेखा को उषा क
मनःि थित का अनुमान हो गया।
‘‘घबरा मत, वे ीकृ ण के पौ ह।
‘तो ?’ उषा ने कहा।
‘‘हम उनसे िकसी अिन क आशंका नह है।’’
वापस आने के बाद भी उषा के मन से अिन गये नह । वह उनके व न देखने लगी थी।
िच लेखा से उसक यह ि थित िछपी नह रह सक । उसने एक िदन उषा से पछ
ू ही िलया,
‘‘िफर िमलना चाहती है उससे ?’’
उषा, अचानक िच लेखा क इस बात पर अचकचा गयी।
‘िकससे?’ उसने पछ
ू ा।
‘‘अरे उसी से।’’ िच लेखा ने ने ितरछे कर कहा।
‘‘उसी कौन ?’’
‘‘बन मत उषा; ीकृ ण के पौ अिन को छोड़कर कौन हो सकता है वह।’’
उषा शम से भर उठी। कुछ अटककर उसने कहा।
‘‘कैसे स भव होगा यह?’’
‘‘वह तू मुझ पर छोड़ दे।’’
इसके उ र म उषा कुछ बोली नह , बस ने नीचे करके हाथ क उँ गली पर अपना व लपेटने
लगी। िच लेखा ने यह देखा तो वह बोली,
‘‘ठीक है, म समझ गयी।’’
उसने अपने िपता के अनुचर को कुछ धनरािश देकर चुपके से अिन के पास भेजा। बोली,
उनसे कहना, ‘महल म कोई उनसे िमलना चाहता है, गु प से आय।’
ा रका पहँचकर जब उस दूत ने अिन को यह स देश िदया तो अिन सब समझ गये। सच
तो यह है िक वे भी उषा को भलू े नह थे। वे गु प से शोिणतपुर गये। िच लेखा का दूत उ ह पवू
िनधा रत थान पर ही िमल गया। उसने चुपके से अिन को िच लेखा तक, और िच लेखा ने
उसी तरह अिन को उषा के क तक पहँचा िदया।
अिन एक बार शोिणतपुर गये तो िफर बार-बार जाने लगे। कोई युवक उनक पु ी से िछपकर
िमलने आता है, यह बात बाणासुर से अिधक िदन तक िछपी न रही सक ।
इस समाचार ने बाणासुर को बहत अिधक आहत िकया। अगली बार जब उसे अिन के आने
क भनक िमली, तो वह कुछ सैिनक को साथ लेकर उषा के क क ओर उसे ब दी बनाने के
उ े य से गया।
क के ार तक पहँचकर बाणासुर क गया। कान लगाकर अ दर क हलचल का अनुमान
लगाने का यास करने लगा। कुछ फुसफुसाने जैसी विनयाँ जब उसे सुनाई पड़ तो उसने क
के ार को लात से जोर से ठोकर मारी। ार अ दर से ब द था, खुला नह । बाणासुर ने लगभग
चीखकर कहा,
‘‘कौन है अ दर, बाहर िनकल।’’
उसक इस आवाज से फुसफुसाहट क विनयाँ एकदम ब द हो गय । कुछ देर बाद सहमी सी
उषा ने ार खोला। ार खुलते ही बाणासुर अपने सािथय के साथ भीतर घुसा और ललकार कर
बोला,
‘‘कहाँ िछपा है कायर, सामने आ।’’
अिन ने देखा हिथयार िलये, बाणासुर और उसके साथी उसे मारने के िलये त पर हो रहे ह।
वह िनह था था, अतः उसने क म ि घुमायी तो कुछ भी ऐसा नह िदखा, िजससे वह उनका
मुकाबला कर सके, िक तु अचानक उसक ि पास ही म क क एक िखड़क पर पड़ी।
उसम लोहे क छड़ लगी हई थ । अिन ने दोन हाथ से एक छड़ पकड़ी, और झटके से उखाड़
ली, िफर उसी को हाथ म लेकर वह उनसे जझ ू गया।
बहत देर तक वह अकेले ही उसी छड़ से उन पर वार भी करता रहा और वयं को बचाता भी रहा,
िक तु अचानक वह क म रखे िकसी सामान से टकराकर िगर पड़ा। उसके िगरते ही बाणासुर
अपने सािथय पर िच लाया,
‘‘मारना मत, इसे कैद कर लो; म इसे आसान म ृ यु नह दँूगा।’’
अिन कैद हो गया, तो यह समाचार ा रका तक भी पहँच गया। ीकृ ण और बलराम ने
अिन को छुड़ाने के िलये एक बड़ी सेना लेकर शोिणतपुर पर आ मण कर िदया।
बाणासुर क सेना का नेत ृ व उसका सेनापित कु भा ड कर रहा था, और ा रका क सेना का
नेत ृ व वयं बलराम कर रहे थे। बाणासुर वयं श लेकर ीकृ ण से यु करने लगा। भीषण
यु हआ। बाणासुर क सेना हताहत हई और हारकर भागने लगी। वयं बाणासुर भी कृ ण के
स मुख िटक नह पा रहा था।
कृ ण इस यु म स भवतः उसका वध ही कर देते, िक तु तभी कोटरा नामक एक ी, जो
बाणासुर को बहत मानती थी, दौड़ती हई आयी और कृ ण और बाणासुर के म य म खड़ी हो गयी।
ी को सामने देखकर कृ ण कुछ अचि भत हए, और उ ह ने बाणासुर पर हार करना रोक
िदया। बाणासुर, िजसे अपनी म ृ यु िनकट ही लग रही थी, कृ ण के ारा हार करना रोकते ही
उनके चरण पर िगर पड़ा।
इतने से ही कृ ण ने उसे अपनी शरण म ले िलया। यु रोक िदया गया। इसके बाद धम
ू धाम से
उषा और अिन का िववाह हआ और कृ ण और बलराम, दू हा, दु हन और सेना लेकर वापस
ा रका आ गये जहाँ इस अवसर पर एक िवशाल उ सव का आयोजन िकया गया।
चिू क कृ ण वयं उषा को अिन के साथ याह कर लाये थे स भवतः इसी कारण उषा को
उनका िवशेष नेह ा था, और उ ह ने उषा को सहज ही इस महान य म सि मिलत होने क
अनुमित दे दी थी।

* * *
य क इन तैया रय के म य ही कृ ण को अपने पु सा ब का यान आया। सा ब, ी कृ ण का
जा बव ती से उ प न पु था। जा बव ती, नगर से दूर जंगल और गुफाओं म रहले वाले
जा बव त क पु ी थी। सा ब का बचपन वह बीता था, इस कारण वह कुछ उ ड वभाव का हो
गया था।
दुय धन क पु ी ल मणा का वयंवर था। सा ब ने ल मणा के बारे म सुन रखा था, और वह
उससे िववाह करने का इ छुक था। इस कारण वह भी इस वयंवर म पहँच गया। ल मणा जब
वरमाला लेकर वयंवर म आयी तो सा ब ने उसे भािवत नह िकया और वह उसके सामने से
वरमाला लेकर आगे बढ़ने लगी। सा ब ने बलपवू क उसे रोका और उसे उठा ले जाने का यास
िकया।
उसके इस काय से वहाँ कोलाहल मच गया, और दुय धन के िनदश पर वयं दुय धन सिहत
कण, शल, भू र वा, य केतु और वयं िपतामह भी म ने उसे घेर िलया। सा ब बहत वीरता से
उन सभी से मोचा लेता रहा िक तु, जब उसके रथ के घोड़ को मार िदया गया और उसके धनुष
क डोरी टूट गयी, तब वह िववश हो गया और ब दी बना िलया गया।
यह समाचार ा रका पहँचा तो कृ ण, सा ब के इस काय से बहत ही िख न हए। उ ह सा ब ारा
ल मणा को उसके वयंवर से उसक इ छा के िव बलपवू क उठाने का यास बहत ही
अनुिचत लगा, अतः वे वयं उसे कौरव क कैद से छुड़ाने नह गये, और िख न मन से बलराम
से इसके िलये अनुरोध िकया।
बलराम ने दुय धन को गदा यु िसखलाया था, इस कारण सभी को आशा थी िक दुय धन
उनका कुछ िलहाज करे गा; िक तु वहाँ पहँचने पर सभी कौरव ने उनका िवरोध िकया और बहत
तीखी बात भी सुनाय ।
उ ह समझाने के सारे यास यथ होने के बाद बलराम ने कौरव को यु क चुनौती दी, और
अकेले ही यु करते हए उ ह इतना पीिड़त िकया िक कौरव को म ृ यु सामने िदखाई पड़ने लगी।
उसके बाद समझौता हआ, और दुय धन ने िविध-िवधानपवू क ल मणा का िववाह सा ब से कर
उसे िवदा िकया।
न ही सा ब और न ही ल मणा को पजू ा पाठ या धािमक अनु ान म कोई िच थी, अतः दोन म
से िकसी ने भी सम त-पंचक जाने म कोई िच नह िदखाई, िक तु उनके वभाव के कारण
कृ ण उ ह अपने पीछे ा रका म नह छोड़ना चाहते थे। उनके पीछे सा ब िकसी िववाद का
कारण बन सकता था, अतः उ ह ने सा ब को बुलाकर कहा,
‘‘सा ब, माग म याि य क सुख-सुिवधाओं का यान रखने के िलये तुम और ल मणा हमारे
साथ ही चलोगे।
‘‘जी िपता ी।’’ सा ब ने कहा।
कृ ण, मिृ तय से बारह आ चुके थे। वे य क तैया रय म पुनः य त हो गये।
13 - याण से पवू -2

सम त-पंचक म य के आयोजन को िविधवत स प न कराने एवं वहाँ आये हए लोग क सुर ा


यव था के िनवहन हे तु ु न अपने कुछ िव ासपा सैिनक क एक टुकड़ी के साथ सय ू -
हण क ितिथ के बहत पवू ही रवाना हो गये।
उनके पहँचने के दो एक िदन के बाद ही बलराम भी यव था म ु न का सहयोग करने हे तु
कुछ सािथय के साथ सम त-पंचक पहँच गये।
प रवार, गु जन एवं अ य यदुवंिशय के साथ कृ ण जब वहाँ पहँचे, तब सय
ू - हण म एक ही
िदन शेष था, और अितिथय का आगमन ार भ हो चुका था।
पाँच पा डव अपनी-अपनी पि नय और पु के साथ आने वाल म थम थे। उनके साथ सुभ ा
भी थ । वे बहत िदन के बाद अपने मायके वाल से िमल रही थ । सुभ ा बड़ी ललक के साथ
अपने माता-िपता रोिहणी और वसुदेव से िमल । जब वे कृ ण से िमल तो कृ ण ने हँसकर उनके
िसर पर हाथ िफराते हए पछ
ू ा,
‘‘कैसी है ?’’
‘‘िजसके िसर पर आपका हाथ हो भइया, वह सुखी ही होगा, बहत सुखी हँ म।’’
कृ ण को मरण हो आया। सुभ ा, बलराम और कृ ण दोन क बहत लाडली छोटी बहन थी।
बलराम तो यु कला के िश क ही थे। सुभ ा उनसे सीखकर अ -श चलाने और रथ-
संचालन म भी िनपुण हो गयी थ ।
सुभ ा के िववाह यो य होने पर सरल िच बलराम, उनका िववाह दुय धन से करना चाहते थे,
य िक दुय धन वीर भी था और हि तनापुर क ग ी का उ रािधकारी भी; िक तु कृ ण, दुय धन
के दुगुण से भली-भाँित प रिचत थे, और सुभ ा जैसी लड़क , जो उनक बहन भी थी, उसके िलये
दुय धन उ ह बहत कुपा लगा... इसके अित र कृ ण क दूर ि उ ह बता रही थी िक
दुय धन का भिव य अ छा नह है, और हि तनापुर का िसंहासन भी पा डव के हाथ ही आने
वाला है।
राजपु ष म बहिववाह चिलत था, और अजुन, कृ ण को सुभ ा के िलये उपयु वर लगे, अतः
उ ह ने बहाने से अजुन को ा रका बुलाया। अजुन आये। सुभ ा ने अजुन के बारे म पहले से ही
सुन रखा था।
अब अजुन के गौरवशाली यि व को देखकर सुभ ा उन पर मु ध हो गय । कृ ण ने ि मणी
के मा यम से अजुन के बारे म सुभ ा का िवचार जानना चाहा। ि मणी ने जब सुभ ा से अजुन
के स ब ध म पछू ा, तो उसने िसर झुकाकर सल ज भाव से कहा,
‘‘म या बताऊँ, आप लोग जो करगे वह उिचत ही होगा।’’
कृ ण ने अजुन का िवचार जाना। उ ह पता था िक बलराम इस िववाह को वीकार नह करगे,
अतः उस समय ि य म चिलत था के अनुसार उ ह ने अजुन को सुभ ा के अपहरण क
सलाह दी।
एक िदन ातःकाल, जब सुभ ा मि दर के माग म थ , अजुन रथ लेकर वहाँ पहँच गये। सुभ ा
को ख चकर रथ म िबठाया और तेजी से हि तनापुर क ओर रथ को दौड़ा िदया। सुभ ा के
अपहरण क बात ात होते ही यदुवंिशय क सेना ने उ ह घेर िलया।
अजुन पर तीर क वषा होने लगी। अजुन मानो इसक ती ा ही कर रहे थे। घोड़ क रास
उ ह ने पैर म दबा ली, और अपना धनुष-बाण लेकर यदुवंिशय क सेना का यु र देने लगे।
िक तु पैर से रथ संचालन म उ ह बहत किठनाई हो रही थी, यह देखकर सुभ ा ने वयं रथ क
कमान सँभाल ली।
वयं सुभ ा को रथ-संचालन करते देख यदुवंशी चिकत हए। उनके तीर सुभ ा को भी लग
सकते थे, अतः इस असमंजस म वे कुछ पल के िलये के, और इसी बीच सुभ ा अ य त ती
गित से रथ को उनके बीच से िनकाल ले गयी।
बलराम बहत ोिधत थे। वे अजुन का पीछा करना चाहते थे। कृ ण ने उ ह रोका।
‘‘भैया, या करने जा रहे ह? अजुन सुभ ा के िलये बहत उपयु वर है।’’
‘‘उसने हम चुनौती दी ह। हमारी बहन का अपहरण िकया है कृ ण।’’
‘‘इसे चुनौती मत समझ भैया। ि य म इस तरह के िववाह चिलत है।
‘‘ह गे, िक तु म इस तरह के िववाह को उिचत नह समझता।’’
कृ ण या कहते? वे वयं भी ि मणी का हरण करके ही लाये थे। दोन ही िववाह म बहत
अिधक सा य था। अब उ ह ने इस अपहरण के दूसरे प क ओर बलराम का यान ख चा।
‘‘रथ, सुभ ा वयं चला रही थी।’’
‘तो?’
‘‘यिद वह अजुन के ित आकिषत नह होती तो ऐसा कदािचत नह करती, अपने अपहरण पर
मौन नह रहती; वह रथ को वापस ा रका क ओर भी मोड़ सकती थी।’’
‘हँ...।’ बलराम ने बहत ग भीर वर म कहा।
‘‘अब अजुन का अिहत, सुभ ा का अिहत होगा।’’ कृ ण ने कहा।
बलराम ने अपने बाय हाथ क हथेली पर दाय हाथ का मु का मारा और िफर एक ल बी सी ‘हँ’
क । उनका चेहरा स त हो गया था, और ोध उनके चेहरे पर झलक आया था।
कृ ण ने िकसी तरह समझा बुझाकर बलराम का ोध शा त िकया। आज सुभ ा को सुखी
देखकर उ ह बहत स तोष हआ।

* * *
व ृ दावन से यशोदा, न द, राधा, व उनके माता-िपता, क ितदा और वषृ भानु के साथ ही आने का
समाचार आ चुका था, और वे िकसी भी समय वहाँ पहँचने वाले थे। कृ ण, य ता से उनक
ती ा करने लगे। एक बहत ल बे अ तराल के बाद उनसे भट होने जा रही थी। ‘पता नह
िकतना प रवतन आ चुका होगा उन लोग म’ यह बात बार-बार उनके मन म आ रही थी।
िफर सहसा उनके मन म आया िक वयं उनम भी तो अब तक िकतना प रवतन आ चुका है। वे
व ृ दावन से चले थे, तब मा यारह वष के बालक थे। गु कुल जाना, छु ी िमलने पर गाय के
साथ वन को जाना, बाँसुरी बजाना और खेलकूद, शैतािनयाँ... बस यही तो जीवन था।
अब उ ह उस बालक के थान पर पु , पौ वाले एक ौढ़ यि के प म देखकर उन लोग
को भी पता नह कैसा लगेगा, और राधा ? िकतनी मािननी थ वह। वे अब भी वैसी ही ह गी या
बदल गयी ह गी?
कृ ण के मन म इस तरह के पता नह िकतने उठ िगर रहे थे। तभी उ ह यशोदा, न द,
क ितदा, वषृ भानु और राधा के पहँचने क सच ू ना िमली। कृ ण, नंगे पैर ही उनके वागत के
िलये ती ता से आगे बढ़े । ि मणी पास ही थ , वे भी त परता से साथ हो ल ।
दो रथ आये हए थे। एक म यशोदा, न द और राधा थे, और दूसरे म क ितदा और वषृ भानु। कृ ण
का अनुमान था िक राधा अपने माता-िपता के रथ म ही ह गी, िक तु उ ह न द और यशोदा के
रथ म देखकर उ ह और ि मणी को कुछ आ य हआ।
‘यह बस यँ ू ही सुिवधा हे तु है, या राधा इस तरह से यशोदा और न द के साथ बैठकर कोई स देश
दे रही ह?’ कृ ण ने सोचा और िफर कुछ संकोच के साथ ि मणी क ओर देखा। उनके अधर
ितरछे थे, और उन पर थोड़ी सी मु कान थी। कृ ण को यह मु कान कुछ अथपण ू लगी। ‘पता नह
या अथ है, इस ितरछी मु कान का?’ कृ ण ने सोचा।
तब तक न द और यशोदा रथ से उतर चुके थे। कृ ण को उनके मुख पर उ क रे खाय िदखाई
द । कृ ण से पहले ि मणी ने ‘म ि मणी।’ कहते हए यशोदा और न द के चरण पश कर
उ ह णाम िकया। कृ ण, जब यशोदा और न द के चरण पश कर सीधे हए तो यशोदा ने ‘मेरा
लाल’ कहते हए उ ह सीने से लगा िलया। कृ ण ने देखा उनके ने म अ ु थे।
‘‘आपक आँख म अ ु ? या हआ माँ ?’’ कृ ण ने पछ
ू ा।
‘‘कुछ नह , खुशी के अ ु ह ये,’’ उ ह ने कृ ण क पीठ पर हाथ िफराते हए कहा।
‘मेरे बचपन को इसी गोद म आ य िमला था।’ कृ ण ने सोचा और कुछ पल के िलये यशोदा के
क धे पर िसर िटका िदया।
इसके बाद ि मणी और कृ ण ने क ितदा और वषृ भानु के भी चरण पश कर उ ह णाम
िकया, िफर ि मणी ने राधा क ओर देखकर कहा,
‘‘म ि मणी।’’
‘‘म समझ गयी थी।’’ राधा ने कहा, और ि मणी को गले से लगा िलया। कृ ण चुपचाप उ ह
देखते रहे । इस बीच राधा से ने िमले तो राधा ने कुछ पल उ ह देखा िफर अपनी पलक झुकाकर
ऐसे ने ब द िकये, मान कृ ण क छिव को अपने ने म कैद कर लेना चाहती ह । कृ ण ने
देखा राधा क अलक और पलक के म य आँसू क बँदू फँसी हई थ ।
ि मणी और कृ ण, सभी को सादर अ दर ले गयेे।

* * *
राि बीती और पण ू सयू हण का िदन आ गया। बहत सी य शालाय सजी हई थ । परू े सम त-
पंचक म हलचल बहत बढ़ गयी थ । लोग का उ साह अपने चरम पर था। सभी को य म अपनी
भागीदारी क ती ा थी। य स प न कराने वाले ऋिष और स त, य क वेिदकाओं के पास
आकर अपना थान हण कर रहे थे। थम चरण म व र को वरीयता दी गयी। माता देवक ,
वसुदेव, रोिहणी, यशोदा, न द, क ितदा, वषृ भानु और अ ू र जी अपना थान हण कर चुके थे।
शी ही य ार भ हो गया। वातावरण, म क विनय और य म डाली जाने वाली पिव
साम ी के हवन क सुग ध से भर उठा। पिव ता क अनुभिू तय से भरा हआ अ ुत और
नयनािभराम य था। उस य के वणन क साम य िकसी क भी वाणी या कलम म न थी, न
है।
अिधकतर लोग का त था, िफर भी जलपान और भोजन क समुिचत यव था थी। लोग क
भीड़ लगातार बढ़ती जा रही थी। व र लोग के य -स पादन के बाद ि मणी, कृ ण, बलराम,
उनक प नी रे वती आिद ि तीय पंि के लोग ने य स प न िकया, और इसके बाद कृ ण और
बलराम पुनः उठे और लोग से िमलने-जुलने व यव था देखने लगे।
इस सारे काय म के म य, कृ ण क ि बराबर िकसी को ढूँढ़ रही थी। ि मणी ने यह ि
और कृ ण के मन क बेचन ै ी पढ़ ली। वे उ ह अपने साथ व ृ दावन से आई ि य के एक झु ड
क ओर ले गइंर्। लिलता, िवशाखा, िच ा, च पकलता, सुदेवी, तुंगिव ा, इ दुलेखा और रं गदेवी
आिद अपनी सिखय से िघरी हई राधा िकसी चचा म लीन थ । ि मणी से उनका यान रखने
क बात कहकर कृ ण, अ य लोग से िमलने लगे। ि मणी, उन लोग के म य गई ं तो सभी
सिखयाँ उनके स मान म खड़ी हो गइंर्।
ि मणी, राधा का हाथ पकड़कर उ ह के साथ बैठ गइंर्, और थोड़ी ही देर म उनके म य ऐसे
रम गई ं मान वष से प रिचत ह । उ सव जैसा वातावरण था, िक तु कृ ण का मन कह और था।
वे भीड़ से थोड़ा सा अलग हए, और राधा क याद ने पुनः घेर िलया। उ ह राधा के ज म का संग
मरण हो आया।

* * *
वषृ भानु िकसी कायवश गोकुल गये हए थे। लौटते समय उ ह कुछ थकान लगी, और भा यवश
पास ही एक सु दर तालाब िदखाई दे गया। उसम बहत से कमल भी िदखाई दे रहे थे। वषृ भानु
उसके पास पहँचे। शीतल जल से अपने हाथ, पैर, मँुह इ यािद धोये, तो कुछ ताजगी सी लगी। म
क थकान कुछ और कम करने के िलये वे वह उसके िकनारे बैठ गये।
वहाँ बैठकर वे तालाब म िखले कमल के फूल को िनहारने लगे। कुछ देर म उ ह कमल के उन
पौध म कुछ अ वाभािवक सी हलचल लगी। आ य म भरे हए वषृ भानु, उ सुकतावश उठकर उन
पौध के पास गये।
उनके आ य का िठकाना नह रहा, जब उ ह ने उन पौध के पास एक नवजात बािलका को पड़े
देखा। वषृ भानु ने लपककर उसे गोद म उठाया, और आसपास इस आशय से देखने लगे िक
स भव है इसका कोई अपना यहाँ हो; िक तु बहत ढूँढ़ने, आवाज लगाने और काफ ती ा के
बाद भी जब कोई नह िमला, तो इतनी छोटी ब ची को छोड़कर जाना उ ह उिचत नह लगा।
वे उसे व ृ दावन अपने घर ले आये और अपनी प नी क ितदा क गोद म उसे डालकर बोले-
‘‘लो, सा ात् भगवती हमारे घर आई ह।’’
क ितदा ने यार से ब ची को गोद म िलया, िफर उसका मुख िनहार कर बोल ,
‘‘ प तो ऐसा ही है, कहाँ िमली?’’
वषृ भानु ने सारा व ृ ा त बताया, तो उ ह ने ब ची को सीने से िचपटा िलया, बोल ,
‘‘यह सा ात् देवी भगवती ही ह; हमारी आरा या भी आराधना भी; हम ध य हए।’’
‘‘तुम ठीक कह रही हो क ितदा; यह हमारी आरा या का ही मिू तमान व प ह... हम इ ह राधा
कह?’’
‘‘राधा? नाम तो अ छा है, पर इसका अथ या हआ ?’’
हम इसे आरा य कहते, िक तु वह कुछ बड़ा है; मने इसे छोटा और कुछ सुमधुर कर िदया है।’’
‘सच।’
‘‘और एक बात और भी है इस नाम म।’’
‘ या ?’
‘‘चाँदनी को राका भी कहते ह; तो राका से ‘रा- िलया और ‘धारा’ से ‘धारा’; राधा अथात चाँदनी
क धारा। अब सोचो जरा, चाँदनी क धारा’ िकतनी उजली, शा त, शीतल, सु दर और सुखकर
होगी। हमारे िलये यह बािलका वैसी ही तो है।’’
‘‘सच, अपने बहत सु दर नाम चुना है।’’ क ितदा ने कहा।
और िफर राधा जैसे-जैसे बड़ी होती गय , वैसे-वैसे वे समच
ू े व ृ दावन के िलये अपने माता-िपता
क क पनाओं का मत ू प होती गय ।
* * *
कृ ण को याद आया, यह संग उ ह ने व ृ दावन के लोग से कई बार सुना था। उनक ि पुनः
उस ओर गई, िजधर राधा अपनी सिखय के साथ थ । उ ह ने देखा, सहे िलय का वह झु ड वहाँ
नह था। वे य शाला क ओर गये। अनुमान सही िनकला, राधा वह थ । सहसा ि टकरा गई।
वे सकुचाये और एक ओर खड़े हो गये। राधा धीरे से उठ और आयोजन थल से अकेली ही बाहर
िनकल गई ं।
कृ ण बँधे हए से उनके पीछे -पीछे चल पड़े । ि मणी ने देखा। आशंिकत हई, ओठ को आपस म
दबाया, ह के से मु कराइंर्, िक तु कुछ बोल नह । राधा के आयोजन थल से दूर व ृ के कुंज
क ओर बढ़ने लग । पास पहँचकर उ ह ने देखा, उनके म य एक सरोवर भी है, और उसम िखले
कुछ लाल कमल भी। राधा वहाँ पहँचकर क गई। कृ ण पास आ चुके थे। राधा ने उ ह देखा और
कहा, ‘‘अरे ! तुम?’’
‘‘हाँ म। ‘‘ कृ ण ने उ र िदया।
‘‘सारे काय हो गये?’’ राधा ने पछ
ू ा
‘‘हाँ, हो गये।’’
‘िफर?’
‘‘िफर या?’’
‘‘िफर या सोचा?’’
‘‘चलना है।’’
राधा और कृ ण आमने-सामने थे। राधा, कृ ण का हाथ थामकर कहने लग ,
‘‘कृ ण, एक िदन म भावनाओं म बहकर तु ह रणछोड़, पलायन करने वाला आिद पता नह
या- या कह गई थी, तु ह बुरा लगा होगा।’’
‘‘ये कैसी बात है राधे? म तु हारी बात का बुरा मान सकता हँ, ऐसा तुमने सोच भी कैसे िलया?’’
‘‘सच तो यह है कृ ण, िक तु हारे काय म यवधान न उ प न हो, इस कारण मने वयं ही तु ह
सारे काय समा हए िबना व ृ दावन न लौटने के िलए कहा था, और म वयं ही तुमसे न लौटने
के उलाहने कर रही थी।
व ृ दावन, तु हारे िबना ाणहीन लगने क सीमा तक सन ू ा हो गया था। यह ि थित िकतनी
पीड़ादायक थी, मं◌ै बता नह सकती, मन बार-बार िवचिलत हो जाता था।’’
‘‘म तु हारी पीड़ा को समझ सकता हँ राधे, िक तु यह केवल एक प ीय नह थी।’’
‘‘म जानती हँ।’’, राधा ने कहा, िफर जोड़ा,
‘‘कृ ण, मुरली तु हारी िचरसंिगनी थी; इसने व ृ दावन म संगीत भर िदया था, इसक गँजू ब द
होने से वहाँ के वातावरण म िकतनी िन त धता भर गई थी। मुरली तु हारी पयाय बन चुक थी
माधव। इस संसार म जो कुछ भी सु दर है, संगीतमय है, वह तु हारी मुरली क धुन से ही उपजा
है; तु हारी मुरली जीवन को जीने लायक बनाती है। उस िदन मने तु हारी मुरली भी ले ली थी।
दय, मि त क पर हावी था; भावनाओं के वार म म सँभल नह सक ।’’
‘‘इसक आव यकता भी नह थी राधे; जो यि कभी भी भावनाओं म न बहे , उसम और यं म
या अ तर हआ? िफर मुरली के वर म तु हारी ही आवाज तो है... तुम, वयं म और मुझम
अ तर य कर रही हो?’’
‘‘नह कृ ण, अ तर हो ही नह सकता।’’ कहकर राधा ने कृ ण क उँ गिलयाँ अपनी हथेिलय म
दबा ल , कहने लग ,
‘‘ये उँ गिलयाँ िकतनी अ छी मुरली बजाती रही ह; कृ ण, म तु हारी मुरली अपने साथ ले जाऊँ?
मुझे अ छा लगेगा।’’
‘‘वह तु हारी ही है राधे।’’ कह कर कृ ण ने उनके ने म देखा, िफर बोले,-‘‘म भी शी ही आ
रहा हँ।’’
‘‘कृ ण, आओ, इस सरोवर के िकनारे हम कुछ देर बैठ।’’ राधा ने कहा िफर बोल , -‘‘पहली बार
जब मने तु हारी मुरली सुनी थी, तब मुझे िव ास ही नह हआ था िक कोई इतनी अ छी मुरली
भी बजा सकता है; इसके वर म म पता नह कहाँ खो जाती हँ।’’
‘राधे!’ कृ ण ने कहा
राधा ह के से हँसी, पर उस हँसी म दद था, कहने लगी-‘‘कृ ण, जाते-जाते म तु हारी मुरली एक
बार और सुनना चाहती हँ।’’
‘‘ठीक है राधे, आओ।’’ कहकर कृ ण, राधा के साथ जाकर सरोवर के िकनारे बैठ गये। राधा ने
उ ह मुरली दी। कृ ण ने मुरली होठ पर रखी और वह बज उठी। संगीत गँज
ू ा, िक तु उस वर म
खुशी नह थी, दद था।
उ ह याद आया, अभी कुछ देर पहले ही उ ह ने कहा था िक मुरली के वर म राधा क आवाज
होती है। अव य यह उ ह के दद को वर दे रही है। कृ ण, मुरली बजाते रहे , राधा चुपचाप सुनती
रह । कुछ देर बाद राधा ने टोका,
‘कृ ण!’
कृ ण ने मुरली बजाना छोड़कर उनक ओर देखा। आवाज म ह का सा क पन और ने म
गीलापन था। राधा ने िफर कहा,
‘‘कृ ण, म चलती हँ; जब तक हो ि मणी का यान रखना; वह बहत अ छी और बुि मान है;
तु हारा सौभा य है, तु ह ऐसी भाया िमली।’’
‘‘म जानता हँ राधे।’’
कुछ देर बाद राधा बोल -‘‘अ छा, अब तुम जाओ कृ ण; समारोह थल पर लोग तु हारी राह देख
रहे ह गे।’’
‘‘मुझे िवदा करना चाहती हो?’’
‘‘नह , िक तु सारा जीवन कत य के आगे हम आपसी मोह से लड़ते रहे ह, अब अि तम ण म
उसम उलझना ठीक नह है। शरीर के िलए हम कभी िमले नह , आ माय कभी अलग हई ं नह ...
तुम जाओ और मुझे भी चलने दो अब।’’
कहकर राधा ने कृ ण के िजस हाथ म मुरली थी, उसे पकड़ा और धीरे से उनक उँ गिलय से
मुरली अपने हाथ म लेकर बैठ गई ं।
‘‘हाँ राधे, अि तम ण म यह मोह हम यिथत कर रहा है।’’ कृ ण ने कहा।
‘‘िफर म चलँ?ू ’’
‘राधे...’’
कहकर कृ ण चुप हो गये, कुछ और नह बोल सके; क ठ ँ ध रहा था।
‘‘कृ ण, मेरी एक बात मानोगे? राधा ने कहा।
‘ या?’
‘‘अभी मने कहा था िक म तु हारी मुरली अपने साथ ले जाना चाहती हँ।’’
‘हाँ।’
‘‘पर म उसे अपने साथ कैसे ले जा सकती हँ?’’
‘िफर?’
‘‘िक तु म तु हारी मुरली सुनते-सुनते जा तो सकती ही हँ।’’ कहते हए राधा ने मुरली, कृ ण को
वापस क और बोल ,
‘‘कृ ण, इसे तब तक बजाते रहना, जब तक म चली न जाऊँ।’’
‘‘राधे, बहत किठन परी ा ले रही हो।’’
‘‘जानती हँ यह बहत मुि कल है; पर कृ ण, मेरे िलये’’ कहते-कहते राधा का गला ं ध गया।
कृ ण ने उ र नह िदया, केवल भरे हए ने और काँपते अधर से राधा क ओर देखा।
‘‘कृ ण, तुम दुखी लग रहे हो; िक तु तुम य नह ा हो कृ ण।’’
‘‘हाँ, जानता हँ।’’ कहते हए कृ ण ने िसर िहलाया, िफर कुछ पल मौन रहकर कहा,
‘‘िक तु इन मानवीय संवेदनाओं का या क ँ ? जब तक मानव का तन है, तब तक ये भी तो
साथ ही रहगी न।’’ और इतना कहकर उ ह ने राधा क ओर से ि हटा ली।
राधा बहत धीरे से हँस । बहत बुझी हई सी हँसी थी यह। उ ह ने िसर झुकाकर धीरे से कृ ण का
हाथ पकड़ा, बोल ,
‘‘कृ ण! मेरी ओर देखो।’’
कृ ण ने राधा क ओर देखा।
‘‘तुम वयं अपने उपदेश का मरण करो कृ ण; आ मा अमर है, और जीवन एक या ा भर है; म
इस या ा को एक सुखद अनुभिू त के साथ समा करना चाहती हँ, मेरी सहायता नह करोगे?’’
‘क ँ गा।’ कहकर कृ ण ने अ ु भरे ने के साथ बाँसुरी उठा ली, अधर पर रखी और बजानी
शु कर दी।
‘‘अ छा कृ ण, चलती हँ।’’ कहते हए राधा आगे बढ़ और व ृ के कुंज क ओट म हो गई ं। थोड़ी
देर बाद वहाँ से एक काश-पंुज उठा और आकाश म समा गया। कृ ण समझ गये, राधा जैसे आई
थ , वैसे ही चली गयी ह। उ ह ने बाँसुरी बजाना ब द िकया, अपने ने प छे और िवचार-म न
मु ा म बहत धीरे -धीरे चलते हए आयोजन- थल पर लौट आये।

एक उजली िकरण
भीनी ग ध
पिव िवचार जैसा...
शा त और चुपचाप।
लो, आया भी कोई
चल िदया भी
ि मणी, कृ ण क ती ा म थ । उ ह ने आते हए कृ ण के, सोच म डूबे हए मन के साथ धीरे -
धीरे उठते हए कदम देखे, उनका मुख देखा; मुख पर तैरते भाव पढ़े ... राधा का न लौटना देखा;
बहत कुछ समझा, िक तु कृ ण क पीड़ा और न बढ़ जाये, यह सोचकर कोई नह िकया।
14 - याण क ओर

‘जरा’ नामक बहे िलया, रोज जंगल म जाकर पशु-पि य का िशकार करता, और उनके मांस को
बेचकर अपने प रवार का जीवन यापन करता था। िक तु िपछले दो तीन िदन से उसका मन
बहत अशा त था। वह समझ नह पा रहा था िक ऐसा उसे य लग रहा था? य िप इसका एक
कारण तो प था। िपछले कुछ िदन से उसक प नी उससे यह ध धा छोड़कर कुछ और करने
के िलये कह रही थी।
िनद ष पशु-पि य को मारकर अपना पेट भरना उसे बहत बुरा लगने लगा था। वह नह समझ पा
रहा था िक इधर कुछ िदन से उसक प नी को ऐसा या हो गया था, जो वह उससे यह
खानदानी पेशा छोड़ने के िलये वह रही थी। अब तो कभी-कभी उसका भी िदल करने लगा था िक
यह काय अ छा नह है; िक तु उसे कोई दूसरा काय आता भी तो नह था।
आज जब वह पि य को फँसाने का जाल और तीर कमान लेकर घर से िनकल रहा था, प नी ने
पुनः टोका,
‘‘तुम िफर िनद ष पशु पि य को मारने जा रहे हो? मुझे अपनी रोिटयाँ भी उनके र से सनी सी
लगती ह; तुम कोई और काय य नह शु कर देते?’’
‘‘तुम कहती तो ठीक हो। जब से तुमने कहना शु िकया है, मुझे भी यह काय बुरा महसस
ू होने
लगा है... िनद ष, उछलते, कूदते पशु पि य को मारना सचमुच ू रतापण ू काय है; िक तु हम
अपना और अपने ब च का पेट पालने के िलये आिखर या कर? मुझे और कोई काय आता भी
तो नह है।’’
‘‘तु हारे मन म यह बात उठी है, तो हम अव य कुछ न कुछ और काय ढूँढ़ ही लगे। तुम जंगल से
लकिड़याँ काटकर लाया करो, म उ ह बाजार म बेच आऊँगी; मुझे व ठीक करने भी आते ह,
पडोिसय
़ के व ठीक कर भी घर क कुछ मदद कर सकती हँ, नह तो हम कह मेहनत
मजदूरी भी कर सकते ह।’’
‘‘तुम ठीक कह रही हो; हम इस काय के अलावा भी जीवनयापन के िलये कुछ न कुछ रा ता
िनकाल ही सकते ह।’’
‘‘िफर रख दो न यह जाल और तीर-कमान; हम आज से ही शु करते ह।’’
‘‘म यह जाल रख देता हँ; इससे बहत से प ी फँसते ह, और अिधक जान जाती ह; ऐसा करते ह,
आज म केवल तीर कमान लेकर जाता हँ... िफर िकसी एक ही जानवर का िशकार क ँ गा, और
उसी से अपना काम चलाऊँगा।’’
‘‘नह , यह तीर कमान भी रख दो, आज ही से चलो कह मजदूरी ढूँढ़ते ह।’’
‘‘नह , आज और जाने दो मुझे; एकदम अचानक मजदूरी भी हो सकता है न िमले।’’
‘‘तो चलो हम अपने राजा ा रकाधीश के यहाँ चलते ह, वे हमारी कुछ न कुछ सहायता अव य
करगे; हो सकता है वे हम कुछ काय ही दे द।’’
‘‘तुम ठीक कहती हो; हम आव यकता पड़ने पर वहाँ भी अव य चलगे, िक तु आज अि तम बार
मुझे जाने दो । मने सोचा है, आज म अव य ही िकसी िहरन का िशकार क ँ गा। उसका मांस भी
मँहगा िबकता है और खाल भी। हम उससे अपने आज के भोजन का ब ध भी कर लगे और एक
अ छी सी कु हाड़ी भी खरीद लगे। कल से हमारी िदनचया बदल जायेगी। जैसा तुम चाहती हो, म
जंगल से लकिड़याँ काटकर बाजार म बेच भी आऊँगा और तु ह िमल जाय तो तुम पास-पड़ोस के
लोग के व ठीक करने का काय शु कर देना।’’
‘‘िक तु मेरा मन कह रहा है िक तुम आज भी िशकार के िलये वन मत जाओ, पता नही िकस
िनद ष पर तु हारा तीर चल जाये... हम बाजार क ओर चल तो कुछ न कुछ काम ढूँढ़ ही लगे।’’
‘‘नह , केवल आज मुझे जाने दो; कल से तुम जैसा चाहती हो वैसा ही क ँ गा, आज पता नह
या चीज मुझे जंगल क ओर ख च रही है? ऐसा लगता है जैसे कोई अधरू ा काय पड़ा है, जो मुझे
परू ा करना है, या जैसे मुझे िकसी से कोई पुराना िहसाब चुकाना है; बस केवल आज मुझे मत
रोको। ऐसा लगता है जैसे कोई जबरन ले जा रहा है, म क नह पाऊँगा।’’
‘‘ठीक है, म कोई जबरद ती भी तो नह कर सकती; िक तु मुझे तु हारा आज का जाना बहत
अमंगलकारी लग रहा है।’’
‘‘म बहे िलया हँ, मेरे िलये या मंगल या अमंगल? तुम िच ता मत करो, म शी ही एक बड़े
िहरन को मारकर लाता हँ।’’
‘‘भगवान िव णु हमारी र ा कर।’’ कहते हए बहे िलये क प नी, खड़े -खड़़े उसको जाते हए
देखती रही।

* * *
भोर ने बहत ह के से ार खटखटाया और कृ ण उठ गये, मान इसी ती ा म थे। पास म लेटी
ि मणी के मुख पर ि डाली। बहत ही शा त भाव से गाढ़ िन ा म लीन ि मणी के
मुखम डल क आभा उगते हए सय ू क िकरण से होड़ कर रही थी। क म िखड़क से आती हई
काश क िकरण उनके मुख पर पड़कर चमक िबखेरने लगी थ ।
कृ ण धीरे से उठे । उ ह ने इस बात का यान रखा िक ि मणी क न द म कोई यवधान न पड़े ।
शयनक से बाहर आये और नानािद से िनव ृ होने चले गये। कृ ण, जब तक नानािद से
िनव ृ होकर आये, ि मणी उठ चुक थ । कृ ण को उठा हआ पाकर उ ह आ य हआ। उ ह ने
पछ
ू ा,
‘‘आज बहत ज दी उठ गये, कह जाना है या?’’
कृ ण, अचानक हए इस का उ र देने म अचकचा गये। जाने का िन य तो वे कर चुके थे,
िक तु यिद वे हाँ कहते तो अगला होता ‘कहाँ?’ और िफर वे कैसे कहते िक आज उ ह इस
संसार से ही िवदा लेनी है; और यिद वे ‘न’ कहते, तो यह िम या-भाषण होता। वे चुप रह गये।
ि मणी का मन शा त नह हआ था। कुछ िदन से कृ ण के चेहरे पर रहने वाला गा भीय उ ह
पहले ही परे शान कर रहा था। उ ह ने िफर पछ
ू ा।
‘‘कह ज दी जाना है या?’’
अब कृ ण को उ र देना पड़ा। िक तु ि मणी के म ही उ ह उ र देने का रा ता भी िमल
गया; बोले,
‘‘हाँ जाना तो है, िक तु ज दी तो इस कारण उठा हँ िक आज तु हारे साथ म भी सुबह-सुबह
उपवन म घम ू ने चलँग
ू ा; हम साथ-साथ मि दर जायगे, वहाँ माँ और िपता ी से भी भट हो जायेगी,
िफर म तु हारे साथ-साथ गोशाला भी चलँग ू ा; तु हारी कजरी गाय मुझे भी पहचानने लगी है... म
उसको और उसके बछडे ़ को भी देखँग ू ा, अ छा लगेगा।’’
‘‘मुझे भी बहत अ छा लगेगा। बस कुछ पल ती ा कर, म तैयार होकर अभी आई; आप साथ म
ह गे, इससे अ छा और या हो सकता है?’’ कहते हए ि मणी वहाँ से चलने लग तो कृ ण ने
कहा,
‘‘ठीक है, म महल के ठीक बाहर अशोक के व ृ के नीचे तु हारी ती ा करता हँ।’’
‘‘ठीक है।’’ कहकर ि मणी चली गई ं। कृ ण धीरे -धीरे बाहर आये और अशोक के व ृ के नीचे
चहलकदमी करते हए उनक ती ा करने लगे। सुबह हो रही थी। पैर के नीचे क घास, ओस
क बँदू से गीली थी। टहलते हए कृ ण के पैर भीग गये, पर बहत अ छा लग रहा था। शीतल हवा
उनके व को उड़ा रही थी, और चँिू क आस-पास बहत अिधक फूल िखले हए थे, इसीिलये यह
हवा उनक महक से भरी हई थी।
शरीर से उस हवा का पश, ताजगी का संचार सा कर रहा था। चलते-चलते कृ ण, रजनीग धा
के व ृ के पास आ गये, भिू म पर बहत से सफेद फूल िबखरे हए थे। कृ ण उन फूल को बचाकर
चलने लगे। िफर यान आया िक ि मणी आयगी तो अशोक के व ृ के पास उनक ती ा
करगी। अतः वे उन व ृ क ओर लौट चले।
आसमान क ओर ि डाली। सय ू तो नह िदख रहा था, िक तु उसके उगने क सच
ू ना देता
हआ काश क िकरण का पंुज िदखाई देने लगा था। अशोक के व ृ के िनकट पहँचे तो सहसा
मरण हो आया िक पवू ज म म इ ही व ृ क वािटका म सीता के प म ि मणी ने िकतना
अिधक मानिसक स ताप झेलते हए उनक ती ा क थी... और िफर सहसा राधा का मरण हो
आया। राधा... उनका तो सारा जीवन ती ा करते ही बीत गया।
आज उनका इस देह को छोड़ने का समय भी आ गया। अब उस पार ही भट होगी। तभी ि मणी
आती िदखाई द । उ ह ने लाल साड़ी धारण कर रखी थी, और उनके हाथ म पज ू न-साम ी से
सजी पज ू ा क थाली थी। जब वे पास आ गइंर्, तो कृ ण उनके साथ-साथ मि दर क ओर चल
पड़े । चलते-चलते दोन ने कुछ फूल चुने और पज
ू ा क थाली म सजा िलये।
मि दर के ार पर दोन के। हाथ उठाकर ऊपर टँगे घ टे को बजाया, िफर कृ ण अ दर बढ़ने
लगे तो ि मणी ने उनके उ रीय- (क धे पर डाला जाने वाला व ) का कोना पकड़ा, और
पज
ू ा क थाली कृ ण को पकड़ा दी। कृ ण ने वाचक ि से उनक ओर देखा, तो पाया िक
उ रीय के उस कोने से वे अपनी साड़ी का प लू बाँध रही थ ।
हरे -भरे व ृ से िघरा मि दर, लाल और पीले व का वह जोड, आकाश से नीले कृ ण, च मा
क िकरण सी धवल ि मणी, सामने िशविलंग और उसके पीछे माँ दुगा क भ य मिू त। इस परम
मनोहर य को देखने के िलये सय ू देव, जो पेड़ के पीछे से धीरे -धीरे िनकल रहे थे, अचानक
उठकर ऊपर आ गये। ि मणी को इस कार गाँठ बाँधते देख कृ ण हँसे, पछ ू ा-‘‘यह या?’’
ि मणी ने सल ज मु कान से कहा-‘‘मेरा मन।’’
िफर कृ ण ने कुछ नह कहा। ि मणी ने गाँठ बाँधकर उनके हाथ से पज ू ा क थाली ले ली, और
इस तरह उनके आगे हो गई ं, मान उ ह भरोसा हो गया हो िक अब कृ ण कह नह जा सकते।
ू ा करके दोन बाहर िनकले तो माली क ब ची बाहर खड़ी थी। ि मणी ने उसे बुलाया और
पज
गाँठ खोलने का संकेत िकया। उसने गाँठ खोली तो कृ ण ने उसे यार िकया और उसक मु ी म
कुछ मु ाय रख द ।
तब तक देवक और वसुदेव भी वहाँ आ गये। ि मणी और कृ ण ने उनके चरण पश कर
ू न करने के िलये मि दर के अ दर गये तो ि मणी और कृ ण वह
उनको णाम िकया। वे पज
खड़े होकर उनक ती ा करने लगे। वे बाहर आये तो सभी टहलते हए गोशाला क ओर बढ़ने
लगे। गोशाला पहँचकर ि मणी और कृ ण िठठके, तो देवक ने कहा,
‘‘ ि मणी! तुम लोग यहाँ कना चाहो तो को; हम चलगे और हा, आज सबके कलेवे का
इ तजाम म कर रही हँ, तुम िच ता मत करना, आराम से आना।’’
‘‘अ छा माँ।’’ ि मणी ने कहा। कृ ण और ि मणी वह क गये। ि मणी, कजरी गाय के
पास पहँच उसे और उसके बछड़े को सहलाया, तो कजरी मँुह उठाकर उनसे लाड़ िदखाने लगी।
तब तक एक अनुचर दूध दुहने का पा ले आया, तो ि मणी, वह पा घुटन के बीच दबाकर
बैठ गई ं और दूध दुहने लग ।
कृ ण, खड़े हए उ ह िनहार भी रहे थे, और कजरी का माथा भी सहला रहे थे। ि मणी ने ि
उठाई तो कृ ण क आँख उ ह ही देख रही थ । ि मणी सकुचा गय , बोल ,
‘‘ या देख रहे हो?’’
कृ ण शरारत से हँसते हए बोले, ‘तु ह।’
‘‘ य ? बहत अ छी लग रही हँ या?’’
‘‘तुम हमेशा बहत अ छी ही तो लगती हो।‘‘
ि मणी ह के से हँसी, बोल - ‘‘अ छा चलो, आज कम से कम हँस तो रहे हो।’’
इस बीच यान बँटने से दूध क धार बतन म जाने के थान पर उनके कपड़ पर चली गई, और
कुछ दूध जमीन पर भी िगर पड़ा। ि मणी ने दूध दुहना ब द कर िदया और उठकर कृ ण के
पास आ गई ं। उलाहना भरे वर म बोल ,
‘‘आपके कारण दूध भी िगर गया, और मेरे व भी खराब हो गये।’’
कृ ण हँस पड़े , बोले,-‘‘अरे ! अ छा चलो, माँ और िपता ी कलेवा के िलये ती ा कर रहे ह गे।’’
ि मणी ने नयन ितरछे करके उ ह देखा, अधर को भी थोड़ा सा ितरछा िकया, बोल ,
‘चिलये।’
िक तु थोड़ा ककर उ ह ने िफर कहा,-‘‘ या हम यहाँ थोड़ी देर और नह क सकते? आपका
हँसता हआ चेहरा मुझे बहत अ छा लग रहा है; म इसे कुछ देर और िनहारना चाहती हँ।’’
कृ ण कुछ शरमा से गये, िफर बोले,
‘‘मुझे भी बहत अ छा लग रहा है; आओ हम मि दर क ओर चल, वहाँ उसके सामने, घास पर
कुछ देर बैठग।’’ यह कहकर कृ ण ने ि मणी का हाथ पकड़ा और मि दर क ओर चल पड़े ।
वहाँ पर बैठने के बाद वे बोले,
‘‘यहाँ पर िकतना अ छा लग रहा है।’’
‘हाँ’ ि मणी ने उ र िदया। कृ ण ने एक ि मि दर क ओर डाली, िफर आस-पास के व ृ
को तथा व छ और नीले, दूर-दूर तक पसरे हए आसमान क ओर देखा, और एक गहरी साँस
भीतर ख ची। ऐसा लगा जैसे उनके अ दर कुछ चल रहा है। तभी उ ह अपने हाथ पर एक
मखमली सा पश महसस ू हआ।
उ ह ने देखा, ि मणी ने उनके हाथ पर अपना हाथ रखा है। कृ ण ने ि मणी क ओर देखा
तो पाया वे थोड़ी ितरछी ि से उ ह क ओर िनहार रही ह। कृ ण ने उस ि को अपने चेहरे
पर महसस ू िकया और पुकारा,
‘ ि मणी!’
‘हँ...।’’, कहकर ि मणी ने उनक ओर देखा। ने िमले तो ि मणी क आँख क चमक उ ह
भीतर तक िहला गई। वहाँ ेम तो था ही, कुछ पढ़ने क कोिशश, और शायद बहत सी िशकायत
भी थ । कृ ण ने उनक आँख से अपनी आँख हटा ल । धीरे से ि मणी के दोन हाथ अपने हाथ
म िलया और बोले,
‘‘ ि मणी तुम बहत अ छा गाती हो; या इस समय मेरे िलये कुछ गाओगी?’’
‘‘हाँ, य नह ?’’
ि मणी ने कहा, और धीमे वर से गाना शु िकया। थोड़ी देर बाद उनक आवाज कुछ तेज हई
और धीरे -धीरे िफर धीमी हो गई। ऐसा लगा जैसे वे गा तो रही ह, साथ ही कुछ कह भी रही ह। उन
पंि य का अथ था,
‘‘तुम मेरे दय म, अपना एक पैर ितरछा करके अड़े हए हो, कभी भी बाहर नह जा सकोगे, और
मुझसे दूर जाने का तु हारा कोई भी य न मुझे िबना ाण के शरीर म बदल देगा।’’
बहत अिधक दद छलक गया था। कृ ण ने पंि य का अथ समझा और जीवन म पहली बार अपने
को कुछ भी करने म असमथ पाया। जब गीत समा हआ, शाि त छा गई, और हवा म खालीपन
सा तैर गया। दोन कुछ देर तक उसी कार बैठे रह गये। अचानक एक प ी तेज वर म बोला तो
वे जैसे च क से गये; उठे , और चुपचाप महल क ओर चल पड़े ।
ि मणी और कृ ण, महल के अ दर पहँचे। देवक ओर वसुदेव उन क ती ा ही कर रहे थे।
कलेवा तैयार था। दूध क कुछ िमठाइयाँ, जो देवक ने वयं तैयार क थ , कुछ फल और
म खन। ि मणी ने सबके िलये इसे पा म सजाकर िदया। देवक , ि मणी से कहने लग ,
‘‘बेटी, तुम अपने िलये भी लो, ती ा करने क आव यकता नह है, हम सब साथ ही साथ
लगे।’’
ि मणी, ‘‘जी, माँ जी।’’ कहकर अपने िलये भी एक पा म कलेवा िनकालकर, ओट करके बैठ
गय । कृ ण आज कुछ अिधक ही मुखर थे। एक-एक यंजन क शंसा कर रहे थे।
देवक उनके इस भाव से पुलिकत थ । कलेवा समा हआ तो ि मणी के संकेत से अनुचर
आकर वे पा ले गया। कलेवा समा होने के बाद भी िकसी का उठने का मन नह हआ।
बात शु हई ं तो गोकुल और व ृ दावन क कृ ण क लीलाओं, कंस के वध और महाभारत से होते
हए ा रका पर आ गई ं। ा रका क िवशेषताओं क चचा होने लगी तो कृ ण ने महल के भीतर,
और ा रका नगरी पर ि मणी के कुशल ब धन क बहत शंसा क ।
कृ ण वयं योिगराज थे। उ ह िकसी भी तरह क आसि छू भी नह सकती थी, िक तु वे चाहते
थे िक उनके याण के प ात् भी ा रका और उनके आि तजन, शाि त और सुखपवू क रह।
ि मणी ने ा रका के शासिनक दािय व को सँभालना भी शु कर िदया था, इससे कृ ण
बहत स तु थे। ा रका और उसके िनवािसय को अजुन का संर ण भी ा था।
कृ ण को कोई मोह नह था। अपना काय परू ा करने का स तोष था, िफर भी मन हलचल से भरा
था। याद बराबर आ जा रही थ , िकतने ही य मानस पटल पर क ध रहे थे। उ ह रह-रहकर यह
भी लग रहा था िक उनके जाने के बाद ि मणी को बहत अिधक यथा होगी।
थोड़ी देर बाद देवक और वसुदेव उठे और अपने क क ओर चले गये। कृ ण ने जाते हए देवक
और वसुदेव को देखा। कुछ सोचा और िफर उनके सामने आ गये।
‘‘कुछ कहना है?’’ चिकत से वसुदेव ने पछ
ू ा।
‘‘नह , कुछ नह ।’’
‘िफर।’
कृ ण ने इसका उ र नह िदया, बस हँसकर झुके और देवक और वसुदेव के चरण- पश कर
कुछ मु कराते हए से उनके सामने खड़े हो गये। दोन ने उ ह आशीवाद िदया।
‘‘हमारे चरण- पश तो तुम ातःकाल ही कर चुके हो; अब कुछ िवशेष है या कह जा रहे हो?’’
देवक ने पछू ा।
‘‘नह , िवशेष कुछ भी नह ; माता-िपता का आशीवाद तो िजतना भी िमले, कम ही रहता है।’’
कृ ण ने कहा। वे अभी भी मु करा रहे थे। देवक , आगे बढ़कर कृ ण को अपनी ओर ख चकर
उनक पीठ पर हाथ िफराते हए कहा,
‘‘हमारे आशीवाद तो सदैव तु हारे साथ है।’’ िफर कृ ण के मुख क ओर देखते हए बोल ,
‘‘तु हारे मन म कुछ तो है कृ ण; कुछ तो सोच रहे हो तुम।’’
‘‘नह माँ, कुछ भी नह ।’’ कृ ण ने वैसे ही मु कराते हए कहा।
‘‘कुछ तो है इसके मन म, भले यह अभी बता नह रहा हो।’’ देवक ने वसुदवे से कहा।
‘‘मुझे तो इसका मु कराना भी वाभािवक नह लगा; स भवतः बाद म पता चले,’’ कहकर
वसुदेव कुछ िठठके, िफर चल पड़। मुख पर कुछ समझ न पाने जैसा भाव िलये देवक , कृ ण क
ओर देखती हई उनके पीछे चल पड़ी।

* * *
क म ि मणी और कृ ण अकेले रह गये थे। दोन ही चुप थे, िक तु ि मणी गौर से कृ ण के
मुख क ओर देख रही थ । ‘कुछ तो चल रहा है इनके मन म।’ सोचती हई वे उनके मुख पर आ
रहे भाव को पढ़ने का यास करने लग ।
कृ ण ने ि मणी क ि क ती ता अपने मुख पर अनुभव क । ‘ ि मणी मुझे इस तरह य
देख रही है?◌ं’ उनके मन म आया। यह ि उ ह असहज कर रही थी। यह बड़ी ममभेदी ि
थी।
े े य देख रही हो ?’’ कृ ण ने सहज होने क चे ा करते हए धीरे से हँसकर पछ
‘‘ऐेस ू ा।
‘‘ या चल रहा है आपके मन म ?’’
‘‘नह , कुछ भी तो नह ।’’
‘‘िक तु यह असयम माँ और िपता ी का चरण- पश कुछ तो कहता है।’’
कृ ण िफर ह के से हँसे, - ‘‘माता-िपता के चरण- पश के िलए कोई समय, असयम भी होता है
या ?’’
‘‘नह , इसके िलये कोई समय, असमय नह होता, िक तु आपका यह बार-बार हँसना
वाभािवक तो नह है; आप िकसी ग भीर िच तन म ह, यह प है।’’
कृ ण पुनः हँसे, बोले, ‘‘नह , ग भीर कुछ भी नह ि मणी, कुछ भी नह , तुम यथ ही िचि तत
हो रही हो।’’
ू ी हँस-हँसकर मुझे बहलाने का यास न कर। कुछ तो है।’’
‘‘आप यँ ू झठ
अब कृ ण चुप हो गये। कुछ देर तक उनके मुख पर देखने के बाद ि मणी बोल ,
‘‘चिलये, आप नह बताते तो म ही बता देती हँ िक आप या सोच रहे ह।’’
‘बताओ।’ कहकर कृ ण पुनः हलके से हँसे।
‘‘आपको लग रहा है, इस ज म के सब काय परू े हए; और इसीिलये आपने इस मानव देह को
छोड़ने का मन बना िलया है।’’
कृ ण, ि मणी के ये श द सुनकर आ य से भर उठे , बोले,
‘‘ या कह रही हो ि मणी?’’
‘‘ य ? मेरा अनुमान गलत है या? और यिद म गलत हँ तो इससे बड़ा सौभा य मेरे िलये हो भी
नह सकता; म सही होना भी नह चाहती।’’
‘‘नह , तुम गलत नही हो ि मणी, और म झठ
ू बोल भी तो नह सकता। तुमने आज सुबह गाँठ
बाँधकर पजू ा इसीिलये क थी या?’’
‘‘हाँ, आपके साथ एक बार और गाँठ बाँधकर चलने का मोह म छोड़ नह सक ।’’
‘‘पर तुमने यह जाना कैसे?’’
‘‘िपछले कुछ िदन से आपका यवहार बहत बदला हआ सा है; आप मेरा बहत अिधक याल
रखने लगे ह, रा य के काय से समय िनकालकर आप माँ और िपता ी के साथ अिधक समय
िबताने लगे ह... और िफर िजस िदन आपने मुझसे ा रका के शासन को सँभालने क बात
कही, उस िदन म च क अव य थी, िक तु आपका म त य बाद म मेरी समझ म आ गया था, म
समझ गई थी िक आपने जाने का मन बना िलया है।’’
‘‘और वह गीत जो अभी-अभी तुमने सुनाया था ? ’’
‘‘वह गीत नह था।’’
‘िफर।’
‘‘कोई मन था, जो रो रहा था।’’
‘‘ओह!’’ कृ ण ने कहा, ‘‘संभवतः इसीिलये मुझे उस समय सब कुछ उदासी म डूबा हआ सा लग
रहा था।’’ उनके वर म पीड़ा थी। ि मणी का हाथ अपने हाथ म लेकर वे उसे अपने दय के
पास लाये और बोले,
‘‘और ि मणी, तुम िफर भी इतना सामा य यवहार करती रह । भीतर ही भीतर िकतनी पीड़ा
भुगती होगी तुमने, मुझे िकंिचत भी आभास नह होने िदया िक तुम सब कुछ जान चुक हो।’’
‘‘हाँ, य िक यिद मेरा यवहार बदलता, तो अ य लोग भी तरह-तरह के अनुमान लगाने लगते,
और इससे आपक परे शािनयाँ और िच ताय बढ़त ।’’
कृ ण ने ि मणी क हथेली को धीरे से अपने हाथ म दबाया और बोले,
‘‘ ि मणी, तुमने मेरा बहत साथ िदया है, बहत यान रखा है; मेरे जीवन के संघष म तुम सदैव
मेरे साथ खड़ी रही हो।’’
‘‘यह मेरा क य था; आपके ित मेरी ा थी और...’’
‘‘और... या ?’’
‘‘ ेम यिद यवहार से प रलि त न हो, मँुह से कहना पड़ जाय तो वह यथ ही तो हआ।’’
‘‘सच कह रही हो ि मणी, मने तु हारे इस ेम को जीवन के हर मोड़ पर अनुभव िकया है।ै ’’
‘‘मेरा सौभा य।’’
इसके बाद कुछ देर तक कृ ण और ि मणी मौन एक दूसरे को िनहारते रहे । िफर ि मणी,
कृ ण के हाथ को अपने हाथ म लेकर देखने लग ।
‘‘ या देख रही हो ?’’
‘‘जो हाथ सदैव ही मेरे िलये सौभा य के वाहक रहे ह, उ ह ही देख रही हँ; यही हाथ थे िज ह ने
मुझे उस दु िशशुपाल से बचाया था।’’ ि मणी ने कहा, और इसके साथ ही अपने तथाकिथत
अपहरण के समय कृ ण के ारा उ ह उठाकर रथ म िबठा लेना मरण हो आया।
कृ ण का वह थम पश ि मणी को जब भी मरण होता था, वे आन द क अनुभिू त से
रोमांिचत हो उठती थ ; िक तु आज वह मरण उनके ने म अ ु ले आया।
कृ ण ने ि मणी क ओर देखा,
‘‘ ि मणी, तु हारे अ ु मुझे िवचिलत कर रहे ह।’’ उ ह ने ि मणी के अ ु अपने व म समेटते
हए कहा।
‘‘मुझे आपका वह थम पश मरण हो आया है और ....’’
‘‘और... या ?’’
‘‘और, यह स भवतः अि तम पश है।’’ कहते हए ि मणी ने अपनी हथेिलय से मुख ढक
िलया।
कृ ण ने उनके मुख पर से उनक हथेिलयाँ हटाय ओर उनक ओर देखते हए बोले,
‘‘तुम तो बहत समझदार हो ि मणी, और बहत अ छी थी।’’
‘‘पता नह , समझदार या नासमझ, अ छी या बुरी, जैसी भी हँ, आपक हँ।’’
‘ ि मणी!’
‘हँ’
‘‘हमारे अलग होने का समय आ गया है; शायद हमारा
इतना ही साथ िलखा था, मुझे िवदा दो।’’
‘‘िवदा देने का ही नह है; केवल हमारे शरीर अलग हो रहे ह... ल मी को नारायण से कौन
अलग कर सकता है?’’ कहते हए ि मणी क आँख से आँसू झरने लगे।
‘‘ ि मणी, मुझे चलना है।’’
‘‘एक मन म आ रहा है।’’
‘‘म जानता हँ वह या होगा।’’
‘कैसे?’
‘‘ य िक म तु ह जानता हँ ि मणी।’’
‘‘ िफर उ र भी दे दीिजये।’’
‘‘ या उ र दँू म इसका ? सब जानते है िक वहाँ हर यि अकेले ही जाता है।
‘हँ।’ ि मणी ने कहा, िफर थोड़ा ककर बोल ,
‘‘ठीक है जाय, िक तु आपके पीछे म यहाँ अिधक नह क पाऊँगी, म भी आपके पीछे -पीछे ही
आ रही हँ।’’
‘‘कह तुम सती होने क बात तो नह कर रही हो?’’
ि मणी इस बात पर बुरी तरह रो पड़ । उ ह ने कृ ण के क धे पर िसर िटका िलया। कृ ण ने
उनका िसर सहलाया, िफर उनका चेहरा देखने क कोिशश म, उनका िसर अपने क धे से उठाने
का यास िकया। िक तु ि मणी ने उनके क धे से िसर नह हटाया, बोल ,
‘‘आज के बाद मुझे िसर िटकाने के िलए ये क धा कहाँ िमलेगा?’’
कृ ण बोले,- ‘‘अपने को सँभालो ि मणी; हम सचमुच कोई अलग नह कर सकता, शरीर क
म ृ यु भी नह ; िक तु िफर भी सती होने क बात सोचना भी अनुिचत है।’’ कुछ ककर कृ ण
पुनः बोले,- ‘‘आ मह या पाप है ि मणी।’’
‘‘म पाप-पु य कुछ नह जानती, केवल आप को जानती हँ।’’ कहकर रोती हई ि मणी कृ ण से
िलपट गइंर्।
कृ ण को इस बात का कोई उ र नह सझ ू ा। राधा जा चुक थ , वे जा रहे थे; ि मणी इसके बाद
क नह पायगी, यह वे जानते थे, िक तु उनके सती होने क क पना से वे बहत िवचिलत थे।
वे उ ह समझाना चाहते थे िक यह घोर अनुिचत है, िक तु यह भी जानते थे िक ि मणी ऐसा
कुछ भी समझने के िलए तैयार नह होग । िफर उ ह ने अपनी म ृ यु के बाद होने वाली घटनाओं
को िविध के िवधान पर ही छोड़ना उिचत समझा।
वे कुछ देर वैसे ही ि मणी को अपनी बाँह मे िलये खड़े रहे , िफर मन कड़ा िकया। धीरे से
ि मणी को अलग िकया, उनके मुख को अपने हाथ म थामा और उनक आँख म देखकर
बोले,
‘‘ ि मणी, तुम जीवन भर मेरी शि भी रही हो और कमजोरी भी; मुझे िवदा दो।’’
‘नाथ!’ कहते हए ि मणी झुक और उनक पैर पर िसर रखकर िससकने लग । कृ ण ने उ ह
उठाया, और जब वे उठ कर खड़ी हई ं तो शू य क ओर देखते हए महल से बाहर िनकल गये।
ि मणी कुछ देर तक उनके पीछे -पीछे चल , िफर खड़ी हो गय , और जब तक वे िदखाई देते
रहे , देखती रह ।
कृ ण, कुछ दूर तक उनक िससिकय और साँस क आवाज सुनते रहे , एक बार मुड़कर पीछे
देखा, िफर दद क अनुभिू तय के साथ आगे बढ़ गये।

* * *
बहे िलये, ‘जरा’ के घर म आज भोजन नह पका था। शाम ढल चुक थी, िक तु उसक प नी ने
दीपक भी नह जलाया था। ब चे भख ू े ही सो गये थे। दोन पित-प नी अँधेरे म बैठे िससक रहे थे।
आज उसने िजस पर िहरण का मुख समझकर तीर चलाया था, वह ा रकाधीश के पाँव का
तलवा था। उस िवष बुझे तीर ने उनको यह मानव देह छोड़ने का बहाना दे िदया था।
उससे कृ ण के अि तम श द थे,
‘‘न दुखी हो न भयभीत, यही ार ध था।’’

इस तरह से चल िदया कोई


िक जैसे वह अगर आया तो या
जाना तो था ही
पर कभी न िमट सक ऐसे
चमकते और गहरे िनशां पैर के
उकर आये थे उसके
समय के िव ततृ फलक पर
और मन पर भी।

प रिश

भगवान ीकृ ण, भारतीय इितहास और पर पराओं म अपना िविश थान रखते ह। िह दू


जनमानस उ ह ई र का अवतार मानता है, िक तु आज के वै ािनक युग म एक सहज यह
उठने लगा है िक वे सचमुच थे या नह ।
अिधकतर िवदेशी िव ान ने उनके होने पर उठाये, और उनका पवू िनधा रत उ र भी तुत
कर ,िदया िक वे मा अंधिव ास ह। इनम भी कई िवदेशी िव ान ने अपने ित े ता के भाव
से िसत होकर एक िवचार बना िलया था, िक हमारी वैिदक पर पराय और भगवान कृ ण से
स बि धत आ यान, बाइिबल और ईसा मसीह के संग के आधार पर िनिमत ह; िक तु
हे िलयोडोरस त भ एक पुराताि वक अ वेषण है, जो यह बताता है िक कृ ण के संग और
वै णिवक वैिदक पर पराएँ , ईसाई धम के अ युदय से बहत पहले, कम से कम 200 वष पवू क
तो ह ही। यह उन िवदेशी िव ान को िनराश करने वाली खोज थी, जो यह बताती है िक भारतीय
ने ईसा मसीह से संदभ लेकर उ ह अपने पुराण म नह जोड़ा था।
बौ - थल साँची से िविदशा को जाने वाले माग पर 45 िमनट क दूरी पर यह हे िलयोडोरस
त भ ि थत है, िजसे थानीय लोग ख ब-बाबा के नाम से पुकारते ह। यह 113 ई.प.ू भारत म
ीक राजदूत हे िलयोडोरस ारा िनिमत करवाया गया था। हे िलयोडोरस, राजा भागभ के रा य
म भारत के उ र पि म म ि थत त िशला के ीक राजा एि टयलिकडस ारा भेजा गया था।
िसक दर ने यह भाग 325 ई.प.ू म जीता था। इस रा य म आज का अफगािन तान, पािक तान
और पंजाब रा य थे। हे िलयोडोरस ने इस पर इसका िनमाण काल िदया है, और यह िलखा है िक
उसने वै णव धम वीकार कर िलया था, और वह भगवान िव णु क पज ू ा करता था। इस त भ
पर िलखी जानकारी ‘रायल एिशयािटक सोसाइटी जरनल’ म छपी िजसम िलखा है,
‘‘यह देवताओं के देवता वासुदेव िव णु का ग ड़ त भ त िशला के िनवासी, िडयोन के पु ,
भगवान िव णु के भ हे िलयोडोरस, जो िक काशीपु जाव सल राजा भागभ -िजनका अपने
सम ृ रा य म रा य करते हए यह चौदहवाँ वष था-के पास ीक राजदूत के प म महान राजा
एि टयलिकडस ारा भेजा गया था, के ारा थािपत िकया गया। इस अिभलेख के अनुसार तीन
मह वपणू िस ा त, िजनका पालन करने से वग क ाि होती है, वे ह- आ म-संयम,
परोपकार और िववेक।’’
यह िदखाता है िक हे िलयोडोरस, भगवान िव णु का भ और वै णव धम के िस ा त से पण

प रिचत था। यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है िक जब एक उ लेखनीय ीक राजदूत ने
वै णव धम अपना िलया था, तो िकतने ही अ य ीक यि य ारा भी यह धम अपनाया गया
होगा। सारांश म यह भारत और भारतीय दशन के ित ीक यि य के शंसा भाव को दशाता
है।
सन 1877 म पुराताि वक सव ण करते समय पुरात विवद अ जे डर किनंघम ने इसके मह व
को रे खािकंत िकया; िक तु चँिू क इस पर बहत अिधक िस दूर लगा हआ था, अतः वह इस पर
िलखे लेख को नह पढ़ सका।
पुनः जनवरी 1901 म पुरात विवद िम.लेक ने इसके ऊपर लगे हए रं ग को साफ िकया और इस
पर िलखी हई ा ी िलिप िदखाई पड़ने लगी। इस का अनुवाद िकया गया, और तब इसका
ऐितहािसक मह व प हो गया।
इस हे िलओडोरस त भ से यह प होता है िक ाचीन समय म दूसरे धम से वैिदक धम म
आने वाल का वागत िकया जाता था। बाद म िह दुओ ं और मुसलमान के म य उठने वाली
सम याओं के कारण िह दुओ ं के अ दर इस बारे म िहचक पैदा हो गई।
िसक दर के भारत पर आ मण के बाद जो ीक या ी भारत आये, उनके ारा िदये गये िववरण
म भी कृ ण का उ लेख िमलता है। ि लनी जैसे लेखक ने कृ ण को हीराकुलस जो िक ह र-
कृ ण का अप ंश है, कह कर उनक चचा क है। वे कहते ह िक शरू सेनी जनजाित (कृ ण के
िपतामह का नाम शरू सेन था) के लोग और मेथोरा (मथुरा का अप ंश) जैसे बड़े नगर म
हीराकुलस िवशेष स मान के पा थे।
ीक अिभलेख यहाँ तक कहते ह िक कृ ण, िसक दर के समय से 138 पीढ़ी पवू हए थे।
िसक दर का समय लगभग 330 ई.प.ू है। यिद एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के अ तर को 20 वष
का समय माना जाय, तो यह लगभग 3090 ई.प.ू का समय था। इस कार से भी किलयुग का
ार भ 3102 ई.प.ू और भगवान कृ ण का काल लगभग 3200 ई.प.ू से 3100 ई.प.ू ठीक ही
लगता है।
पुरातन भारतीय इितहास के अ ययन म सबसे बड़ा अवरोध, उ नीसव शता दी क आय- िवड़
संघष क औपिनवेिशक और झठ ू पर आधा रत प रक पना बनी, िजसे आज िव ान ने परू ी तरह
से नकार िदया है। हड़ पा और इससे पवू के अवशेष पर आधा रत िव े षण, वेद को 3500
ई.प.ू से पवू का ठहराता है। याकरणाचाय पािणिन ने भी अपने थ म महाभारत के कई च र
का उ लेख िकया है।
बौ के कुणाल-जातक म कृ ण, ौपदी, भीमसेन, अजुन, नकुल, सहदेव एवं युिध ला
(युिधि र के िलये पाली श द) का, व धम
ू कारी-जातक म धनंजय (अजुन) व ौपदी के वयंवर
का उ लेख िमलता है।
वयं कृ ण का उ लेख, सरू -िपटाका एवं लिलता-िव तार म है। य िप इनम उनका घोर िवरोध
िकया गया है, िक तु यह उ लेख यह िस करने के िलये पया ह िक वे क पना नह , एक
ऐितहािसक च र ह। वे उनके अि त व को नकारते नह ह।
हड़ पा-कालीन एक मुहर दो सार-त व क बात करती है, और वे ह उपिनषद व सां य-दशन।
ीम वत- गीता इन दोन क समावेिषत करते हए कहती है, ‘‘ई र अिवनाशी, िन य एवं
जीवन का वाह है और वह कृ ण है।’’
एक बहत आ यजनक त य है िक पि मी गढ़वाल म दुय धन को प ृ भिू म म रखकर ितवष
एक उ सव मनाया जाता है, और लोग का िव ास है िक वाना त, जहाँ दुय धन ने पा डव को
जीिवत जलाने का यास िकया था, वह इसी े म है। यह भी अ ुत ही है िक बहत से थान पर
लोग ा के िदन म अपने िपतर के साथ-साथ भी म-िपतामह को भी जल अपण करते ह।
एक आ यजनक त य यह भी है िक आ देश, तिमलनाडु और कनाटक म विनभर जाित के
लोग ौपदी क ामदेवी के प म पज ू ा करते ह। ये उ ह काली का अवतार समझते ह, और वष
म एक िवशेष अवसर पर उनका जुलस ू िनकालते व उ सव मनाते ह। िच ौर, िजले ित पित के
गा्रम दुगा समु म का यह उ सव बहत िस है। ौपदी क उपासना करने वाले लोग ीलंका,
िसंगापुर, मलेिशया, मॉ रशस और दि ण अ का म भी पाये जाते ह।
इन संग का उ लेख करने का उ े य यही है, िक जैसा िक कुछ लोग कहते ह िक सब कुछ
का पिनक है; यिद सचमुच वैसा ही होता तो ये पर पराय इतने ल बे समय तक जीिवत नह रह
सकती थ ।
पि मी िवचारक एम.िवटिनज ने ‘भारतीय सािह य का इितहास’ नामक अपनी पु तक म िलखा
है िक ‘भारतीय सािह य म इितहास एक कमजोर कड़ी है, वा तव म यह है ही नह ।’
िस जमन िव ान मै समल ू र ‘सं कृत सािह य का इितहास’ नामक अपनी पु तक म िलखते
है िक ‘भारत जैसे रा ने अपने इितहास के िलये परवाह नह क , यह आ यजनक है।’
इन पंि य का लेखक महसस ू करता है िक भारत का और िह दुओ ं का इितहास हजार साल
पुराना है, और उस समय इितहास को िलखने और उसे थािय व देने के तरीके िवकिसत नह हो
पाये थे। साथ ही यह भी यान देने यो य है िक हमारे भारत का बहत सा सािह य िवदेशी
आ मणका रय ारा न कर िदया गया था।
अतः उस समय का जो कुछ भी इितहास मौजदू है, वह का य और कथाओं के प म ही है।
िक तु केवल इस आधार पर उस वैिदक-स यता और उसके च र को झुठलाना, अ य त
दुभा यपण
ू एवं प पातपण
ू मानिसकता का दशन है।
उस समय के दाशिनक और िव ान ने जो हमारी िवरासत, इितहास और कृ ण के स दभ को
भिव य क पीिढ़य के िलये बचाना चाहते थे, नैिमषार य लखनऊ, भारत के वन देश म
एकि त हए। उ ह ने भिव य म होने वाले जीवन-मू य के ास का और िवदेशी आ मण के
कारण होने वाली सं◌ा कृितक ितय का पवू ानुमान लगाया। उ ह ने कृ ण और हमारे िविभ न
इितहास पु ष के संग पर चचा क , और उनम से एक, वेद यास ने इन सभी को कलमब
कर डाला।
यह सचमुच आ यजनक ही है िक उन मनीिषय क आशंकाओं के अनुसार ही बहत बड़ी सं या
म ाचीन िवरासत के प म मौजदू सािह य, िविभ न आ मणका रय ारा जला िदया गया।
भारत म नाल दा और त िशला के िव िव ालय के अित वहृ द पु तकालय को भी राख के ढे र
म बदल िदया गया।
बहत से पुराताि वक अवशेष म कृ ण के होने के माण िमलते ह। इनम से एक अवशेष मथुरा से
लगभग 15 िकलोमीटर पर ि थत एक छोटे और शा त गाँव ‘मोरा’ म पाया जाता है।
यहाँ सन 1882 म जनरल किनंघम ने एक अित ाचीन कुएँ क मँुडेर पर लगे एक बड़े प थर
पर कुछ अिभलेख िलखे पाये। इसका दािहना भाग लगभग न हो चुका था; िक तु जो शेष था,
उसका अनुवाद ‘आकलॉिजकल सव आफ इि डया’ क वािषक रपोट म कािशत हआ।
इसके अ ययन से ात हआ िक कृ ण ही नह , उनके बड़े भाई बलराम, पु ु न, पौ
अिन और सा ब को ईसा से सैकड़ वष पवू भी पज ू ा जाता था। अिभलेख, कृ ण को
ऐितहािसक िस करता एक मह वपणू पुराताि वक मारा है।
इसके अित र िच ौड़, राज थान के घोसंुड़ी नामक गाँव म ा घोसंुडी-अिभलेख, ‘मोरा वेल’
से ा अिभलेख क पुि करते ह। यह त य किवराज यामलदास ारा ‘द जरनल ऑफ द
बंगाल एिशयािटक सोसाइटी’ म कािशत लेख के मा यम से सामने आया। यह घोसुंड़ी-अिभलेख,
के नाम से उदयपुर के िव टो रया-हाल यिू जयम म सुरि त है।
यह अिभलेख, सं कृत िलिप, िजसे िक उ री ा ी िलिप कहा गया है, म है, और 200 ई0प0ू के
मौय-वंश के अंितम काल या शुंग-वंश के ारि भक काल का है। लगभग इसी आशय के
अिभलेख पास ही हाथी-वाडा अिभलेख के नाम से भी ा हए ह।
महारा क नाना-घाट गुफाओं म ा अिभलेख भी कृ ण और बलराम के होने क पुि करते
ह। यह अिभलेख यह भी दशाते ह िक वै णव धम, केवल उ र भारत तक क सीिमत नह था,
वरन यह दि ण तक फै ला हआ था, और मराठ के दय को जीतने के बाद यह तिमल े तक,
और िफर नई ऊजा के साथ वैिदक िह दू धम, िव के सुदूर कोन तक पहँचा।
पी.बनाड और ांस का पुराताि वक अिभयान, जो सोिवयत-संघ और अफगािन तान क सीमा
पर िकया गया था, उसम कुछ आयताकार िस के ा हए थे, जो िक भारत म ीक शासक
ारा जारी िकये गये थे; उन पर िव णु या वासुदेव क च िलये हए आकृितयाँ थ ।
उनके होने के कुछ और माण म, मोहन-जोदड़ से ा एक मु ा भी है, जो िक 2600 ई0प0ू से
पवू क बताई गयी है। उस पर कृ ण के बचपन क आकृित अंिकत है। यह दिशत करता है िक वे
इस तारीख के पहले से ही लोकि य थे, िक तु यहाँ म उनक ामािणकता के इस िवषय को
शोधािथय के िलये छोड़ता हँ।
जनवरी, 5 और 6, 2003 म थम बार बगलोर म िमिथक-सोसाइटी ारा आयोिजत एक
काय म म िव के िविश िव ान, खगोलीय आँकड़ के आधार पर कु े म हए महाभारत
क तारीख के िनधारण के िलये एकि त हए। यहाँ पर आ यचिकत कर देने वाली बहत अिधक
जानका रयाँ तुत क गई ं।
अितिविश एवं व र परमाणु वै ािनक एवं रा य-सभा सद य डा. राजा राम ना ने इसम
उ ाटन भाषण िदया। िस इितहासकार डा. सय ू नाथ कामािथन ने अपने अ य ीय भाषण म
लेनेटरी-सा टवेयर से ा और पु तक य वणन म िदये गये, 150 स दभ का योग करते हए
महाभारत-काल क तारीख क िव सनीयता को उजागर करने क आव यकता पर काश
डाला।
उ ह ने इितहास के इस काल के काल-िनणय क आव यकता पर भी बल िदया। समारोह म
िव भर से अनेक गणमा य िव ान भी उपि थत थे।
महाभारत के भी मपव म महिष यास के इस कथन िक ‘कु े के यु म तेरहव िदन
अमाव या थी, और एक ही माह म दो हण पड़े थे।’ का भी लोड टार- ो-सॉ टवेयर ारा
िव े षण िकया गया।
अमे रका के मेि फस िव िव ालय के भौितक िव ान िवभाग के डॉ. बी.एन. नरह र आचार ने
उपल ध िविभ न लेनेटरी सॉ टवेयर का वणन िकया। उ ह ने खगोलीय भौितक शा के
िव ान ी कोचर और ी िस ाथ के िविभ न काय , खगोलीय वै ािनक सेन-गु ा एवं ीिनवास
राघवन के काय और महाभारत के बहत से खगोलीय संदभ पर भी काश डाला।
उ ह ने इन िवधाओं क सीमाओं और उनक िव सनीयता का सू म िव े षण िकया, और यह
िन कष तुत िकया िक महाभारत काल 3000 ई.प.ू से 3067 ई.प.ू के लगभग था, जो िक
वै ािनक ी राघवन के बताये अनुमान म मेल खाता हआ था। बहत से दूसरे िव ान व ाओं ने
वैिदक काल क नदी सर वती को भी महाभारत क ऐितहािसकता से मल ू भत ू प से स ब
िकया।
यहाँ डा. नरह र आचार, ो. राघवन व कुछ अ य िव ान ारा महाभारत म विणत खगोलीय
ि थाितय को सं ान म लेते हए उस काल क िनधा रत क हई कुछ ितिथय का िववरण तुत
है।
भगवान कृ ण का ज म : जुलाई-अग त 3156-3157
दैिनक इंिडयन ए स ेस के अनुसार 26 अग त 2013 को उनका 5125 वाँ ज म िदन था।
इससे उनके ज म का वष 3112 ई.प.ू आता है जो िक उपयु तारीख के पास ही है।
उ लव नगर से दुय धन के पास शाि त- ताव लेकर कृ ण का जानाः 26 िसत बर 3061 ई.प.ू
उनका हि तनापुर पहँचनाः 28 िसत बर 3067 ई.प.ू च - हण (महाभारत क ितिथ के
अनुसार)◌ः 29 िसत बर 3067 ई.प.ू
वापसी म कण का, कृ ण को कुछ दूर तक छोड़ने आनाः 8 अ टूबर 3067 ई.प.ू
(माग म कण ने कृ ण को आकाश म ह क ि थित के बारे म बताया था, और ह क इस
संरचना को बहत बुरा शकुन बताते हए यापक पैमाने पर र पात व जनहािन क आशंका
य क थी। महिष यास ने इस हि थित का 16 छ द म वणन िकया है।)
ू - हण (महाभारत क ितिथ के अनुसार)◌ः 14 अ टूबर 3067 ई.प.ू
सय
कृ ण के बड़े भाई बलराम का सर वती नदी के तट पर तीथ-या ा के िलये थानः 1 नव बर
3067 ई.प.ू
महाभारत यु का ार भः 22 नव बर 3067 ई.प.ू
(डॉ.के.एस.राघवन और उनके सहकम डा. जी. एस. आयंगर ने भी लेनेटरी सॉ टवेयर का
योग करके इसी ितिथ क पुि क है।)
अठारहव िदन ातःकाल भोर म यु क समाि ः 8 िदस बर 3067 ई.प.ू
तीथ-या ा से बलराम क वापसी : 12 िदस बर 3067 ई.प.ू
जाड़े का ार भः 13 जनवरी 3066 ई.प.ू
भी म-िपतामह का िनधनः 17 जनवरी 3066 ई.प.ू
भगवान कृ ण 126 वष 5 माह जीिवत रहे । उनका याण, और पण
ू किलयुग का ार भः शु वार
18 फरवरी 3031 ई.प.ू दोपहर 2 बजकर 27 िम. 30 से.0
महाभारत के यु के प ात् कृ ण 36 वष जीिवत रहे , इस िव ास को भी यह ितिथयाँ मािणत
करती ह।
किलयुग का ार भः 17-18 फरवरी 3102 ई.प.ू
खगोल-शा क िस पु तक ‘सय ू िस ा त’ के अनुसार भी किलयुग का ार भ बस त ऋतु
क पिू णमा को, जब िदन और रात बराबर होते ह, 17-18 फरवरी 3102 क म य राि से शु
हआ था।
कृ ण के पैर पर तीर छोड़ने के बाद जरा बहे िलया जब उनके पास पहँचा, तब उनके अि तम श द
थे,
‘न भयभीत हो न दुखी, यही ार ध है।’
महिष यास ारा मु य- थ क रचनाः 3000 ई.प.ू
उनके थ म 8800 छ द थे, और उ ह ने इसे ‘जय’ नाम िदया था। बाद म उनके िश य
वैश पायन ने इसको 24000 छ द का वहृ द प देकर ‘भारत’ नाम िदया। काला तर म इसम
और भी बहत से छ द जोड़े गये और इसे ‘महाभारत’ नाम िदया गया।
सर वती नदी का सख
ू कर िवलु होनाः 1900 ई.प.ू
8 िदस बर 3067 ई.प.ू को भी म-िपतामह, शरश या (बाण का िब तर) पर हो गये थे, और 17
जनवरी 3066 बी.सी. को उनका िनधन हआ। यह 48 िदन का अ तराल हआ। इसम यिद वे दस
िदन, िजसम उ ह ने कौरव सेना का नेत ृ व िकया भी जोड़ िलये जाय तो यह 58 िदन होते ह। यह
उस मा यता के पण
ू तः अनुकूल है िक उ ह ने 58 रात जागकर काटी थ ।
कृ ण के थान का वष 3031 ई.प.ू भी महाभारत म विणत न के सा य के पण
ू तः अनुकूल
है, य िक भगवान कृ ण के कथनानुसार महाभारत काल के अनु प ही न -ि थित और
अपशकुन, यदुवंश के िवनाश का कारण बनने वाले थे।
खगोलीय ि थितय के अनुसार 36 वष बाद 3031 ई.प.ू लगातार 3 हण का एक हण काल
रहा, िजसम एक च हण 20 अ टूबर को, िफर एक सय ू हण 5 नव बर को, और िफर मा
14 िदन के अ तराल पर एक खि डत सय ू - हण 19 नव बर को पड़ा। महाभारत के बाद कृ ण
मा 36 वष ही और जीिवत रहे थे, इस िव ास का भी यह समथन करता है।
ा रका, िजसका ाचीन नाम ीतीथ था, जो उनके याण के 7 िदन बाद ही भयंकर समु ी
तफ
ू ान म लगभग न हो गई थी।
ा रका के समु तट पर सन 1985 म समु के गभ म डूबी हई, आपस म कुछ मीटर क दूरी पर
दो दीवार िमल । ‘िद िह दू’ अखबार ने अपने 21 फरवरी 1985 के अंक म िलखा िक ा रका,
जो कभी भारत आने का मुख माग था, चार से पाँच हजार वष पवू समु म डूब गया था।
इस समाचार पर म ास के ी सी.एस. महादेवन ने बताया िक ी कृ ण के थान के बाद
ा रका 3031 ई.प.ू मे अं◌ािशक प से समु म डूब गई थी, और ी कृ ण 26 जुलाई 3112
ई.प.ू म पैदा हए थे।
यिद हम यह यान रख िक कृ ण के याण के कुछ ही िदन के बाद ा रका, समु म डूब गई
थी, तो ी महादेवन का उपरो कथन कृ ण के याण ओर उनके ज म के समय क बहत कुछ
पुि करता हआ िदखाई देता है।
एक और खगोल-शा ी, ी अ ण कुमार बंसल के अनुसार कृ ण का ज म 21 जुलाई 3228
ई.प.ू और याण 18 फरवरी 3102 ई.प.ू को दोपहर 2◌ः00 बजे हआ था, और इसी िदन ापर
का अ त और पणू किलयुग का ार भ हआ था। उनके इस िन कष से, इस त य, िक कृ ण के
ज म का माह जुलाई और याण का माह फरवरी था, तीन अलग-अलग गणनाओं म पुि होती
है।
पाँचव सदी के भारत के महान गिणत और खगोलिवद् आयभ ने भी महाभारत म दी गई
खगोलीय ि थितय का अ ययन कर महाभारत यु के काल को 3100 ई.प.ू बताया था।
सयू -िस ा त, ीक याि य और आधुिनक युग के डॉ. नरह र आचार क गणनाओं के ारा
िनधा रत महाभारत काल 3102 ई.प.ू आ यजनक प से आयभ के ारा िकये काल िनधारण
3100 ई.प.ू क पुि करता है।
महाभारत काल क घटनाओं के माण म बहत से अ य लोग ारा क गई गणनाय भी उ त
ृ क
जा सकती ह, िक तु थानाभाव के कारण उन सबको यहाँ देना स भव नह है।
मै समलू र जैसे कुछ लोग, महाभारत के काल क घटनाओं को सही नह मानते, य िक उनको
महाभारत म विणत आकाश म स -ऋिषय क ि थित का वणन वा तिवक नह लगता है। िक तु
भागवत-पुराण के दूसरे अ याय के बारहव ख ड म भी उस काल म स -ताराम डल क ऐसी ही
ि थितय का वणन ह।
वा तव म मै समलू र क यह बात, अिधकतर पि मी िव ान के भारतीय सं कृित और िवरासत
पर कुछ -िच ह खड़े करते रहने के अनु प ही है।
आज वै ािनक ने इस तरह क गणनाओं के िलए 1. लेनेटो रयम, 2. एि लि टक, 3. लोड-
टार जैसे कई सॉ टवेयर बना िलये ह, जो ाचीन घटनाओं का काल िनधारण बहत शु ता से
कर सकते ह।
ी कृ ण, और महाभारत काल क घटनाओं के िनधारण म िविभ न िव ान लगभग एक से
प रणाम पर पहँचे ह। य िप उनम थोड़ा बहत अ तर है, िक तु ऐसा होना अ य त वाभािवक है।
अ त म हम कह सकते ह िक, भारत के सवािधक ि य और िति त यि व, भगवान
ीकृ ण, एक वा तिवक और ऐितहािसक यि थे, जो आज से 5000 वष पवू लगभग 3200-
3100 ई.प.ू म इस प ृ वी ह पर लगभग 125 वष तक रहे ।

(िविभ न ोत से िमली जानकारी के आधार पर)

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