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अष्टावक्र गीता अध्याय एक

जनक उवाच -
कथं ज्ञानम अवाप्नोतत = कै से ज्ञान प्राप्त होगा
कथं मुति र्भतवष्यतत = कै से मुति तमलेगी
कथं वैराग्य प्राप्तम = कै से वैराग्य तमलेगा
प्रर्ो एतद ब्रूतह मम = हे प्रर्ु ! यह मुझे बताएं

अष्टावक्र उवाच -
मुतिम् इच्छतस चेत्त् तात = मुति की इच्छा हे अगर तात तो
तवषयान तवषवत् त्त्यज = तवषयों को तवष समझ के त्याग दे
क्षमा आजभव दया संतोष सत्यं = क्षमा, सरलता, दया, संतोष और सत्य को
पीयूष वत् र्ज = अमृत समझ के सेवन कर

यदद देहं पृथक् कृ त्य = यदद शरीर को अलग करके


तचतत तवश्राम्य ततष्ठतस = तचत्त को तवश्राम की तथथतत में कर लोगे तो
अधुना एव सुखी शान्तो = अर्ी इसी समय सुखी और शांत हो कर
बन्धमुिो र्तवष्यतस = बन्धनों से मुि हो जाओगे

न पृथ्वी न जलं न अतिनभ = क्योदक न तो आप पृथ्वी हो, न जल हो


वायु र्द्यौ न वा र्वान्। = न वायु , न आकाश हैं आप, अत:
एषां सातक्षणम् आत्मानं = आप इन सबके साक्षी आत्मरूप
तचद् रूपं तवति मुिये = चैतन्य रूप मान कर मुि होवो

न त्वं तवप्र आददको वणभ: = तुम ब्राह्मण आदद वणभ नहीं हो


न आश्रमी न अक्षगोचर:। = नहीं तुम ब्रह्मचयभ आदद आश्रम में रहने वाले और न ही तुम दृष्टी आदद ज्ञानेतन्ियों के
तवषय हो.
असङगो ऽतस तनराकारो = सर्ी प्रकार की आसति से अलग तनराकार हो,
तवश्वसाक्षी सुखी र्व = समथत तवश्व के साक्षी (दृष्टा) हो कर सुखी होवो.

धमाभ अधमौ सुखं दुखं = धमभ अधमभ, सुख दुुःख


मानसातन न ते तवर्ो। = मन के तवषय हैं तेरे नहीं.
न कताभतस न र्ोिातस = न तू कताभ है और न ही तू र्ोत्ता है.
मुि एव अतस सवभदा = तू सदा ही मुि है.

एको िष्टातस सवभथय = तू समथत तवश्व का एक मात्र दृष्टा है.


मुिप्रायो ऽतस सवभदा। = सदैव ही तू मुि है.
अयम् एवं तह ते बन्धो = यही तेरा बंधन है दक
िष्टारं पश्यसी इतरम् = दकसी अन्य को तू दृष्टा समझता है.

अहं कताभ इतत अहंमान = मै कताभ हूँ ऐसे अहंकार रुपी


महाकृ ष्णा तहदंतशतुः। = महान काले सपभ से ढसा हुआ है तू

न अहं कताभ इतत तवश्वास अमृतं = मै कताभ नहीं हूँ इस तवश्वास अमृत को
पीत्वा सुखं र्व = पी कर तू सुखी हो जा.

एको तवशुि बोधो अहम = एक तवशुि ज्ञान रूप हूँ मै


इतत तनश्चयवतननना। = इस तनश्चय की अति से
प्रज्वाल्य अज्ञानगहनं = अज्ञान रुपी घने जंगल को जला कर
वीतशोकुः सुखी र्व = सर्ी प्रकार के शोक मुि हो कर सुखी हो जा.

यत्र तवश्व इतमदं र्ातत = जहां यह संसार


कतल्पतं रज्जु सपभ वत्। = कतल्पत रथसी को सांप समझता हुआ लगे,
आनंद परमानन्दुः स = वहां तू उस आनंद परमानन्द की
बोध: त्वम् सुखं चर = अनुर्तू त कर के सुख से रह.

मुिातर्मानी मुिो तह = मुति का अतर्मानी मुि


बिो बिातर्मान्यतप। = बंधन का अतर्मानी बंधक
दकवदन्तीह सत्येयं = यही दकवदंती सत्य है
या मततुः सा गततर्भवत
े ् = जैसी मतत होती है वैसे ही गतत होती है.

आत्मा साक्षी तवर्ुुः = यह आत्मा साक्षी है, व्यापक है,


पूणभ एको मुि तचद अदक्रयुः। = पूणभ है, मुि है, चैतन्य है, अदक्रय है,
असंगो तनुःथपृहुः शान्तो = असंग है, इच्छा रतहत है, शांत है,
भ्रमात् संसारवान इव = भ्रम से संसार में तलप्त लगता है.

कू टथथं बोधम अद्वैत = यह अपररवतभनीय, ज्ञान रूप , अद्वैत,


अमात्मानं पररर्ावय। = आत्मा का चचंतन कर
आर्ासो अऽहं भ्रमं मुक्त्वा = “मै” के आर्ास से मुि हो कर
र्ावं बाह्यम अथ अन्तरम् = यह आत्मा बाहर है या अंदर इस भ्रम से मुि हो.

देहातर्मान पाशेन तचरं = देह के अतर्मान पाश में बहुत समय से,
बिोऽतस पुत्रक। = हे पुत्र आप बंधक हैं.
बोधोऽहं ज्ञान खंगने = “मै ज्ञानरूप हूँ” इस ज्ञान की तलवार से
तत तनष्कृ त्य सुखी र्व = उस बंधन को कट कर सुखी होवो

तनुःसंगो तनतष्क्रयो अतस = आसति से रतहत, तनतष्क्रय हो


त्वं थवप्रकाशो तनरं जनुः। = तुम थवयम प्रकाश हो, तनदोष हो,
अयम् एव तह ते बन्धुः = यह ही तेरा बंधन है
समातधम् अनुततष्ठतत = जो समाधी में थथातपत होने का प्रयत्न करता है.
त्वया व्याप्तम् इदं तवश्वं = तुम्हारे में यह सम्पूणभ तवश्व व्याप्त है,
त्वतय प्रोतं यथाथभतुः। = तुतम्हमे यह वाथतव में तपरोया हुआ है.
शुि बुि थवरुपथत्वं = तुम शुि बुि थवरुप हो
मा गमुः क्षुि तचत्तताम् = तुच्छ तचत्त वृतत को प्राप्त मत होवो

तनरपेक्षो तनर्वभकारो = तजस से कोई आपेक्षा न हो, जो तवकारों से रतहत हो,


तनर्भरुः शीतल् अशयुः। तजस पर सर्ी तनर्भर हैं, जो शांतत का थथान हो,
अगाध बुतिर अक्षुब्धो र्व = अतत तवथतृत बुति वाला, अतवर्द्या के क्षोम से रतहत
तचन्मात्र वासन:॥ = चैतन्य थवरुप में तनष्ठा वाला होवो.

साकारम अनृतं तवति = शरीर आदद साकार वथतुओं को तू झूठा जान


तनराकारं तु तनश्चलं। = तनराकार आत्म तत्व को तचर थथाई मान,
एतत त्तत्त्व उपदेशन
े = यह तत्व असल है – ऐसे कहे हुए वाक्यों का अनुर्व करने से
न पुनर्भव असंर्व:॥ पुनुः संसार में आना संर्व नहीं है.

यथा एव आदशभ मध्यथथे = तजस प्रकार दपभण में


रूपे अन्तुः पररत: तु सुः। = प्रतततबम्ब अन्दर और बाहर दोनों तरफ है, उसी प्रकार तु
तथा एव अतथमन् शरीरे ऽन्तुः = उसी प्रकार इस शरीर में
पररतुः परमेश्वरुः = परमात्मा र्ीतर और बाहर दोनों जगह है.

एकं सवभगतं व्योम = एकमात्र सवभत्र आकाश


बतहरन्तर: यथा घटे। = पात्र (मटका) के र्ीतर और बाहर दोनों तरफ है,
तनत्यं तनरन्तरं ब्रह्म = उसी प्रकार तनत्य तनरं तर परमात्मा
सवभर्तू गणे तथा = सर्ी चराचर (जीवात्मा) तथथत है.

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