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Janak Uvacha
Janak Uvacha
जनक उवाच -
कथं ज्ञानम अवाप्नोतत = कै से ज्ञान प्राप्त होगा
कथं मुति र्भतवष्यतत = कै से मुति तमलेगी
कथं वैराग्य प्राप्तम = कै से वैराग्य तमलेगा
प्रर्ो एतद ब्रूतह मम = हे प्रर्ु ! यह मुझे बताएं
अष्टावक्र उवाच -
मुतिम् इच्छतस चेत्त् तात = मुति की इच्छा हे अगर तात तो
तवषयान तवषवत् त्त्यज = तवषयों को तवष समझ के त्याग दे
क्षमा आजभव दया संतोष सत्यं = क्षमा, सरलता, दया, संतोष और सत्य को
पीयूष वत् र्ज = अमृत समझ के सेवन कर
न अहं कताभ इतत तवश्वास अमृतं = मै कताभ नहीं हूँ इस तवश्वास अमृत को
पीत्वा सुखं र्व = पी कर तू सुखी हो जा.
देहातर्मान पाशेन तचरं = देह के अतर्मान पाश में बहुत समय से,
बिोऽतस पुत्रक। = हे पुत्र आप बंधक हैं.
बोधोऽहं ज्ञान खंगने = “मै ज्ञानरूप हूँ” इस ज्ञान की तलवार से
तत तनष्कृ त्य सुखी र्व = उस बंधन को कट कर सुखी होवो