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प्रेमच

1
कथा-क्

मैकू : 2
समर-यात् : 7
शां�त : 20
बैक का �दवाला : 36

2
मैकू

का�दर और मैकू ताड़ीखाने के सामने पहूँचे ;तो वहॉ ँ कॉग्रेस क



वालं�टयर झंडा �लए खड़े नजर आये। दरवाजे के इधर-उधर हजार� दशर्क
खड़े थे। शाम का वक्त था। इस वक्त गल�म� �पयक्कड़� के �सवा और क
न आता था। भले आदमी इधर से �नकलते �झझकते। �पयक्कड़� क� छोट-
छोट� टो�लयॉ ँ आती-जाती रहती थीं। दो-चार वेश्या ऍं दूकान के सामने खड़ी
नजर आती थीं। आज यह भीड़-भाड़ दे ख कर मैकू ने कहा —बड़ी भीड़ है बे ,
कोई दो-तीन सौ आदमी ह�गे।
का�दर ने मस
ु ्करा कर कह —भीड़ दे ख कर डर गये क्य ? यह सब हुरर्
हो जायँगे , एक भी न �टकेगा। यह लोग तमाशा दे खने आये ह� , ला�ठयॉ ँ
खाने नह�ं आये ह�।
मैकू ने संदेह के स्वर म� कह —प�ु लस के �सपाह� भी बैठे ह�। ठ�केदार
ने तो कहा थ, प�ु लस न बोलेगी।
का�दर —हॉ ँ बे , प�ु लस न बोलेगी , तेर� नानी क्य� मर� जा रह� है ।
प�ु लस वहॉ ँ बोलती है , जहॉ ँ चार पैसे �मलते है या जहॉ ँ कोई औरत का
मामला होता है । ऐसी बेफजल
ू बात� म� प�ु लस नह�ं पड़ती। प�ु लस तो और
शह दे रह� है । ठ�केदार से साल म� सैकड़� रुपये �मलते ह�। पु�लस इस वक्
उसक� मदद न करे गी तो कब करे गी?
मैकू —चलो, आज दस हमारे भी सीधे हुए। मफ ु ्त म� �पय�गे वह अल ,
मगर हम सन ँ
ु ते ह� , कॉग्रेसवाल�म� ब-बड़े मालदार लोग शर�क है । वह कह�ं
हम लोग� से कसर �नकाल� तो बरु ा होगा।
का�दर —अबे, कोई कसर-वसर नह�ं �नकालेगा , तेर� जान क्य� �नकल

रह� है ? कॉग्रेसवाले �कसी पर हाथ नह�ं उठा , चाहे कोई उन्ह� मार ह� डाले।
नह�ं तो उस �दन जल
ु स
ू म� दस-बारह चौक�दार� क� मजाल थी �क दस हजार
आद�मय� को पीट कर रख दे ते। चार तो वह� ठं डे हो गये थे , मगर एक ने
हाथ नह�ं उठाया। इनके जो महात्मा ह , वह बड़े भार� फक�र है ! उनका
हुक्म है �क चुपके से मार खा ल, लड़ाई मत करो।

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य� बात� करते-करते दोन� ताड़ीखाने के द्वार पर पहुँच गये। एक
स्वयंसेवक हाथ जोड़कर सामने आ गया और बोला –भाई साहब , आपके
मजहब म� ताड़ी हराम है ।
मैकू ने बात का जवाब चॉटेँ से �दया । ऐसा तमाचा मारा �क
स्वयंसेवक क� ऑंख� म� खून आ गया। ऐसा मालूम होता थ , �गरा चाहता
है । दस
ू रे स्वयंसेवक ने दौड़कर उसे सँभाला। पॉँच� उँग�लयो का रक्तम
प्र�त�बम्ब झलक रहा
मगर वालं�टयर तमाचा खा कर भी अपने स्थान पर खड़ा रहा। मैकू
ने कहा—अब हटता है �क और लेगा?
स्वयंसेवक ने नम्रता से —अगर आपक� यह� इच्छा ह , तो �सर
सामने �कये हुए हूँ। िजतना चा�हए, मार ल�िजए। मगर अंदर न जाइए।
यह कहता हुआ वह मैकू के सामने बैठ गया ।
मैकू ने स्वयंसेवक के चेहरे पर �नगाह डाल�। उसक� पॉच� उँग�लय� के
�नशान झलक रहे थे। मैकू ने इसके पहले अपनी लाठ� से टूटे हुए �कतने ह�
�सर दे खे थे , पर आज क�-सी ग्लानी उसे कभी न हुई थी। वह पाँच�
उँ ग�लय� के �नशान �कसी पंचशल
ू क� भॉ�त उसके ह्रदयम� चुभ रहे थ
का�दर चौक�दार� के पास खड़ा �सगरे ट पीने लगा। वह�ं खड़े-खड़े
बोला—अब, खड़ा क्या देखता ह, लगा कसके एक हाथ।
मैकू ने स्वयंसेवक से कह —तुम उठ जाओ, मझ
ु े अन्दर जाने दो
‘आप मेर� छाती पर पॉवँ रख कर चले जा सकते ह�।’
‘म� कहता हूँ , उठ जाओ , मै अन्दर ताड़ी न पीउँगा , एक दस
ू रा ह�
काम है ।’
उसने यह बात कुछ इस दृढ़ता से कह� �क स्वयंसेवक उठकर रास्ते
हट गया। मैकू ने मस
ु ्करा कर उसक� ओर ताका । स्वयंसेवक ने �फर हा
जोड़कर कहा—अपना वादा भल
ू न जाना।
एक चौक�दार बोला —लात के आगे भत
ू भागता है , एक ह� तमाचे म�
ठ�क हो गया !
का�दर ने कहा —यह तमाचा बच्चा को जन-भर याद रहे गा। मैकू के
तमाचे सह लेना मामल
ू � काम नह�ं है ।
चौक�दार —आज ऐसा ठ�को इन सब� को �क �फर इधर आने को नाम
न ल� ।

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का�दर—खुदा ने चाहा, तो �फर इधर आय�गे भी नह�ं। मगर ह� सब बड़े
�हम्मती। जान को हथेल� पर �लए �फरते ह�
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मैकू भीतर पहुँचा , तो ठ�केदार ने स्वागत �कया –आओ मैकू �मयॉ ँ !
एक ह� तमाचा लगा कर क्यो रह गय ? एक तमाचे का भला इन पर क्या
असर होगा? बड़े लतखोर ह� सब। �कतना ह� पीटो , असर ह� नह�ं होता। बस
आज सब� के हाथ-पॉवँ तोड़ दो; �फर इधर न आय� ।
मैकू —तो क्या और न आय�ग?
ठ�केदार —�फर आते सब� क� नानी मरे गी।
मैकू —और जो कह�ं इन तमाशा दे खनेवाल� ने मेरे ऊपर डंडे चलाये
तो!
ठ�केदार —तो प�ु लस उनको मार भगायेगी। एक झड़प म� मैदान साफ
हो जाएगा। लो, जब तक एकाध बोतल पी लो। म� तो आज मफ
ु ्त क� �पला
रहा हूँ।
मैकू —क्या इन ग्राहक� को भी मु?
ठ�केदार –क्या करता , कोई आता ह� न था। सन
ु ा �क मफ
ु ्त �मलेगी
तो सब धँस पड़े।
मैकू —म� तो आज न पीऊँगा।
ठ�केदार —क्य? तुम्हारे �लए तो आज ताजी ताड़ी मँगवायी है।
मैकू —य� ह� , आज पीने क� इच्छा नह�ं है। ला , कोई लकड़ी
�नकालो, हाथ से मारते नह�ं बनता ।
ठ�केदार ने लपक कर एक मोटा स�टा मैकू के हाथ म� दे �दया , और
डंडब
े ाजी का तमाशा दे खने के �लए द्वार पर खड़ा हो गया
मैकू ने एक �ण डंडे को तौला , तब उछलकर ठ�केदार को ऐसा डंडा
रसीद �कया �क वह�ं दोहरा होकर द्वार म� �गर पड़ा। इसके बाद मैकू ने
�पयक्कड़� क� ओर रुख �कया और लगा डंड� क� वषार् करने। न आगे देख
था, न पीछे , बस डंडे चलाये जाता था।
ताड़ीबाज� के नशे �हरन हुए । घबड़ा-घबड़ा कर भागने लगे , पर
�कवाड़� के बीच म� ठ�केदार क� दे ह �बंधी पड़ी थी। उधर से �फर भीतर क�
ओर लपके। मैकू ने �फर डंड� से आवाहन �कया । आ�खर सब ठ�केदार क�
दे ह को रौद-रौद कर भागे। �कसी का हाथ टूटा , �कसी का �सर फूटा , �कसी

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क� कमर टूट�। ऐसी भगदड़ मची �क एक �मनट के अन्दर ताड़ीखाने म�
एक �च�ड़ये का पत
ू भी न रह गया।
एकाएक मटक� के टूटने क� आवाज आयी। स्वयंसेवक ने भीतर झाँक
कर दे खा, तो मैकू मटक� को �वध्वंस करने म� जुटा हुआ था। बोल —भाई
साहब, अजी भाई साहब , यह आप गजब कर रहे ह�। इससे तो कह�ं अच्छा
�क आपने हमारे ह� ऊपर अपना गस
ु ्सा उतारा होता।
म�कू ने दो-तीन हाथ चलाकर बाक� बची हुई बोतल� और मटक� का
सफाया कर �दया और तब चलते-चलते ठ�केदार को एक लात जमा कर
बाहर �नकल आया।
का�दर ने उसको रोक कर पछ
ू ा –तू पागल तो नह�ं हो गया है बे?
क्या करने आया थ, और क्या कर रहा है।
मैकू ने लाल-लाल ऑ ंख� से उसक� ओर दे ख कर कह —हॉ ँ अल्लाह का
शक
ु ्र है �क म� जो करने आया , वह न करके कुछ और ह� कर बैठा।
तम
ु म� कूवत हो, तो वालंटर� को मारो, मझ
ु म� कूवत नह�ं है । म�ने तो जो एक
थप्पड़ लगाया। उसका रंज अभी तक है और हमेशा रहेगा ! तमाचे के
�नशान मेरे कलेजे पर बन गये ह�। जो लोग दस
ू र� को गुनाह से बचाने के
�लए अपनी जान दे ने को खड़े ह� , उन पर वह� हाथ उठायेगा , जो पाजी है ,
कमीना है , नामदर ् है। मैकू �फसाद� ह , लठै त ,गंड
ु ा है , पर कमीना और नामदर ्
नह�ं ह�। कह दो प�ु लसवाल� से , चाह� तो मझ
ु े �गरफ्तार कर ल�
कई ताड़ीबाज खड़े �सर सहलाते हुए , उसक� ओर सहमी हुई ऑ ंखो से
ताक रहै थे। कुछ बोलने क� �हम्मत न पड़ती थी। मैकू ने उनक� ओर देख
ु म� से �कसी को यहॉ ँ दे खा तो खन
कर कहा –म� कल �फर आऊँगा। अगर तम ू
ँ से नह�ं डरता। तुम्हार� भलमनसी इसी म� है
ह� पी जाऊँगा ! जेल और फॉसी
�क अब भल ँ
ू कर भी इधर न आना । यह कॉग्रेसवाले तुम्हारे दुश्मन नह�ं
तुम्हारे और तुम्हारे ब-बच्च� क� भलाई के �लए ह� तुम्ह� पीने से रोकते ह�
इन पैस� से अपने बाल-बच्चो क� परव�रश कर , घी-दध
ू खाओ। घर म� तो
फाके हो रहै ह� , घरवाल� तुम्हारे नाम को रो रह� ह , और तुम यहॉ ँ बैठे पी
रहै हो? लानत है इस नशेबाजी पर ।
मैकू ने वह�ं डंडा फ�क �दया और कदम बढ़ाता हुआ घर चला। इस
वक्त तक हजार� आद�मय� का हुजूम हो गया था। सभी श् , प्रेम और गव
क� ऑ ंखो से मैकू को दे ख रहे थे।

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समर यात्

आज सबेरे ह� से गॉवँ म� हलचल मची हुई थी। कच्ची झोप�ड़यॉँ


हँ सती हुई जान पड़ती थी। आज सत्याग्र�हय� का जत्था गॉँव म� आये
कोदई चौधर� के द्वार पर चँदोवा तना हुआ है। आट , घी , तरकार� , दध

और दह� जमा �कया जा रहा है । सबके चेहर� पर उमंग है , हौसला है ,
आनन्द है। वह� �बंदा अह� , जो दौरे के हा�कमो के पड़ाव पर पाव-पाव भर
ू के �लए मँह
दध ु �छपाता �फरता था , आज दध
ू और दह� के दो मटके
अ�हराने से बटोर कर रख गया है । कुम्हा , जो घर छोड़ कर भाग जाया
करता था , �मट्टी के बतर्न� का अटम लगा गया है। गॉँव के -कहार सब
आप ह� आप दौड़े चले आ रहे ह�। अगर कोई प्राणी दुखी , तो वह नोहर�
ब�ु ढ़या है । वह अपनी झोपड़ी के द्वार पर बैठ� हुई अपनी पचहत्तर साल क
बढ़�
ू �सकुड़ी हुई ऑ ंख� से यह समारोह दे ख रह� है और पछता रह� है । उसके
पास क्या ह ,िजसे ले कर कोदई के ,द्वार पर जाय और कह —म� यह लायी
हूँ। वह तो दान� को मह
ु ताज है ।
मगर नोहर� ने अच्छे �दन भी देखे ह�। एक �दन उसके पास ध , जन
सब कुछ था। गॉवँ पर उसी का राज्य था। कोदई को उसने हमेशा नीचे
दबाये रखा। वह स्त्री होकर भी पुरुष थी। उसका प�त घर म� सोत , वह
खेत मे सोने जाती थी। मामले –मक
ु दम� क� पैरवी खद
ु ह� करती थी। लेना-
दे ना सब उसी के हाथ� म� था ले�कन वह सब कुछ �वधाता ने हर �लया ; न
धन रहा , न जन रहे —अब उनके नाम� को रोने के �लए वह� बाक� थी।
ऑ ंख� से सझ
ू ता न था , कान� से सन
ु ायी न दे ता था , जगह से �हलना
मिु श्कल था। �कसी तरह िजंदगी के �दन पूरे कर रह� थी और उधर कोदई
के भाग उदय हो गये थे। अब चार� ओर से कोदई क� पछ
ू थी —पहूँच थी।
आज जलसा भी कोदई के द्वार पर हो रहा ह�। नोहर� को अब कौन पूछेगा
। यह सोचकर उसका मनस्वी ह्रदय मानो �कसी प से कुचल उठा। हाय !
मगर भगवान उसे इतना अपंग न कर �दया होता , तो आज झोपड़े को
ल�पती, द्वार पर बाजे बजवात ; कढ़ाव चढ़ा दे ती , प�ु ड़यॉ ँ बनवायी और जब
वह लोग खा चक
ु ते; तो अँजुल� भर रुपये उनको भ�ट कर देती
ू े प�त को लेकर यहॉ ँ से बीस
उसे वह �दन याद आया जब वह बढ़
कोस महात्मा जी के दशर्न करने गयी थी। वह उत्स , वह साित्वक प् ,

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वह श्र, आज उसके ह्रदयम� आकाश के म�टयालेम�घ� क� भॉँ�त उमड़न
लगी।
कोदई ने आ कर पोपले मँह
ु से कहा —भाभी , आज महात्मा जी का
जत्था आ रहा है। तुम्ह� भी कुछ देना है
नोहर� ने चौधर� का कटार भर� हुई ऑ ंख� से दे खा । �नदर ्यी मुझे
जलाने आया है । नीचा �दखाना चाहता है । जैसे आकाश पर चढ़ कर बोल�
–मझ
ु े जो कुछ दे ना है, वह उन्ह�ं ल�गो को दूँगी । तुम्ह� क्य� �दखा!
कोदई ने मस
ु ्करा कर कह —हम �कसी से कहे ग� नह�ं , सच कहते ह�
ँ ! अब �कस �दन के �लए रखे हुए हो। �कसी
भाभी, �नकालो वह परु ानी हॉड़ी
ने कुछ नह�ं �दया। गॉवं क� लाज कैसे रहै गी ?
नोहर� ने कठोर द�नता के भाव से कहा —जले पर नमक न �छड़को ,
दे वर जी! भगवान ने �दया होता ,तो तम्ह� कहना न पड़ता । इसी द्वार प

एक �दन साध-ु संत , जोगी-जती ,हा�कम-सब
ू ा सभी आते थे ; मगर सब �दन
बराबर नह�ं जाते !
कोदई लिज्जत हो गया। उसके मुख क� झु�र र्यॉँ मान�र�गने लगीं
बोला –तुम तो हँ सी-हँ सी म� �बगड़ जाती हो भाभी ! म�ने तो इस�लए कहा
था �क पीछे से तुम यह न कहने लगो —मझ
ु से तो �कसी ने कुछ कहा ह�
नह�ं ।
यह कहता हुआ वह चला गया। नोहर� वह�ं बैठ� उसक� ओर ताकती
रह�। उसका वह व्यंग्य सपर् क� भॉँ�त उसके सामने बैठा हुआ मालूम हो
था।
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नोहर� अभी बैठ� हूई थी �क शोर मचा —जत्था आ गया। पिश्चमम
गदर ् उड़ती हुई नजर आ रह� थ , मान� पथ
ृ ्वी उन या�त्रय� के स्वागत
अपने राज-रत्न� क� वषार् कर रह� हो। गॉँव के सब स-पर
ु ुष सब काम छो-
छोड़ कर उनका अ�भवादन करने चले। एक �ण मे �तरं गी पताका हवा म�
फहराती �दखायी द� , मान� स्वराज्य ऊँचे आसन पर बैठा हुआ सबक
आशीवार्द दे रहा है
िस्त्रयां म-गान करने लगीं। जरा दे र म� या�त्रय� का दल साफ नज
आने लगा। दो-दो आद�मय� क� कतार� थीं। हर एक क� दे ह पर खद्दर क
ँ टोपी
कुतार् थ , �सर पर गॉधी , बगल म� थैला लटकता हुआ , दोन� हाथ

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खाल�, मान� स्वराज्य का आ�लंगन करने को तैयार ह�। �फर उनका क-
स्वर सुनायी देने लगा। उनके मरदाने गल� से एक कौमी तराना �नकल रहा
था, गमर,गहरा, �दल� म� स्फू�तर् डालनेवा—
एक �दन वह था �क हम सारे जहॉ ँ म� फदर ् थ ,
एक �दन यह है �क हम-सा बेहया कोई नह�ं।
एक �दन वह था �क अपनी शान पर दे ते थे जान ,
एक �दन यह है �क हम-सा बेहया कोई नह�ं।

गॉववाल� ने कई कदम आगे बढ़कर या�त्रय� का स्वागत �कया। बेचा
के �सर� पर धल
ु जमी हुई थी , ओठ सख
ू े हुए , चेहरे सँवालाये ; पर ऑख� म�
जैसे आजाद� क� ज्यो�त चमक रह� थी
िस्त्रयां गा रह� , बालक उछल रहै थे और पर
ु ुष अपने अँगोछ� से
या�त्रय� क� हवा कर रहे थे। इस समारोहम� नोहर� क� ओर �कसी का ध्या
न गया, वह अपनी ल�ठया पकड़े सब के पीछे सजीव आशीवार्द बनी खड़ी थी
उसक� ऑ ंख� डबडबायी हुई थीं , मख
ु से गौरव क� ऐसी झलक आ रह� थी
मानो वह कोई रानी है , मानो यह सारा गॉवँ उसका है , वे सभी यव
ु क उसके
बालक है । अपने मन म� उसने ऐसी शािक् , ऐसे �वकास , ऐसे उत्थान का
अनभ
ु व कभी न �कया था।
सहसा उसने लाठ� फ�क द� और भीड़ को चीरती हुई या�त्रय� के सामन
आ खड़ी हुई, जैसे लाठ� के साथ ह� उसने बढ़
ु ापे और द:ु ख के बोझ को फ�क
�दया हो ! वह एक पल अनरु क्त ऑंख� से आजाद� के सै�नको क� ओर
ताकती रह�, मान� उनक� शिक्त को अपने अंदर भर रह� ह , तब वह नाचने
लगी, इस तरह नाचने लगी , जैसे कोई सन
ु ्दर� नवयौवना प्रेम और उल्
के मद से �वह्वल होकर नाचे। लोग द-दो , चार-चार कदम पीछे हट गये ,
छोटा-सा ऑ ंगन बन गया और उस ऑ ंगन म� वह ब�ु ढ़या अपना अतीत
नतृ ्-कौशल �दखाने लगी । इस अलौ�कक आनन्द के रेले म� वह अपना
सारा द:ु ख और संताप भल
ू गयी। उसके जीणर् अंग� म� जहॉँ सदा वायु को
प्रकोप रहता , वहॉ ँ न जाने इतनी चपलता , इतनी लचक, इतनी फुरती
कहॉ ँ से आ गयी थी ! पहले कुछ दे र तो लोग मजाक से उसक� ओर ताकते
रहे ; जैसे बालक बंदर का नाच दे खते ह� , �फर अनरु ाग के इस पावन प्रवा
ने सभी को मतवाला कर �दया। उन्ह� ऐसा जान पड़ा �क सार� प्रकृ�त
�वराट व्यापक नृत्य क� गोदम� खेल रह� ह

9
कोदई ने कहा—बस करो भाभी, बस करो।
नोहर� ने �थरकते हुए कहा —खड़े क्य� ह , आओ न जरा दे खूँ कैसा
नाचते हो!
कोदई बोले- अब बढ़
ु ापे म� क्या नाचू?
नोहर� ने रुक कर कहा – क्या तुम आज भी बूढ़े ह ? मेरा बढ़
ु ापा तो
जैसे भाग गया। इन वीर� को दे खकर भी तम्हार�
ु छाती नह�ं फूलत ? हमारा
ह� द:ु ख-ददर ् हरने के �लए तो इन्ह�ने यह परन ठाना है। इन्ह�ं हाथ�
हा�कम� क� बेगार बजायी ह� , इन्ह� कान� से उनक� गा�लयॉँ और घुड़�कयॉँ
सन
ु ी है । अब तो उस जोर-जुलम
ु का नाश होगा –हम और तुम क्या अभी
ु े होने जोग थे? हम� पेट क� आग ने जलाया है । बोलो ईमान से यहॉ ँ इतने
बढ़
आदमी ह� , �कसी ने इधर छह मह�ने से पेट-भर रोट� खायी है ? घी�कसी को
सँघ
ू ने को �मला है ! कभी नींद-भर सोये हो ! िजस खेत का लगान तीन
रुपये देते थ , अब उसी के नौ-दस दे ते हो। क्या धरती सोना उगलेग ? काम
करते-करते छाती फट गयी। हमीं ह� �क इतना सह कर भी जीते ह�। दस
ू रा
होता, तो या तो मार डालता, या मर जाता धन्य है महात्मा और उनके चेल
�क द�न� का द:ु ख समझते ह� , उनके उद्धार का जतन करते ह�। और तो सभ
हम� पीसकर हमारा रक्त �नकालना जानते ह�
या�त्रय� के चेहरे चमक उ , ह्रदय �खल उठे। प्रेम क� डूबी हुई ध
�नकल�—
एक �दन था �क पारस थी यहॉ ँ क� सरजमीन,
एक �दन यह है �क य� बे-दस्तोपा कोई नह�ं

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कोदई के द्वार पर मशाल� जल रह� थीं। कई गॉंव� के आदमी जमा हो
गये थे। या�त्रय� के भोजन कर लेने के बाद सभा शुरू हुई। दल के नायक
खड़े होकर कहा—
भाइयो,आपने आज हम लोग� का जो आदर-सत्कार �कय , उससे हम�
यह आशा हो रह� है �क हमार� बे�ड़यॉ ँ जल्द ह� कट जायँगी। मैने पूरब और
पिश्चम के बहुत से देश� को देखा ह , और मै तजरबे से कहता हूँ �क आप
म� जो सरलता , जो ईमानदार� , जो श्रम और धमर्बु�द , वह संसार के और
�कसी दे श म� नह�ं । म� तो यह� कहूँगा �क आप मनषु ्य नह� , दे वता ह�।

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आपको भोग-�वलास से मतलब नह�ं, नशा-पानी से मतलब नह�ं , अपना काम
करना और अपनी दशा पर संतोष रखना। यह आपका आदशर् ह , ले�कन
आपका यह� दे वत् , आपका यह� सीधापन आपके हक म� घातक हो रहा है ।
बरु ा न मा�नएगा , आप लोग इस संसार म� रहने के योग्य नह�ं। आपको तो
स्वगर्म� कोई स्थान पाना चा�हए था। खेत� का लगान बरसाती नाले
तरह बढ़ता जाता है ,आप चँ ू नह�ं करते । अमले और अहलकार आपको
नोचते रहते ह� , आप जबान नह�ं �हलाते। इसका यह नतीजा हो रहा है �क
आपको लोग दोन� हाथ� लट
ू रहै हे ; पर आपको खबर नह�ं। आपके हाथ� से
सभी रोजगार �छनते जाते ह� , आपका सवर्नाश हो रहा ह , पर आप ऑ ंख�
खोलकर नह�ं दे खते। पहले लाख� भाई सत
ू कातकर , कपड़े बन
ु कर गुजर
करते थे। अब सब कपड़ा �वदे श से आता है । पहले लाख� आदमी यह�ं नमक
बनाते थे। अब नमक बाहर से आता है । यहॉ ँ नमक बनाना जम
ु ् है। आपके

दे श म� इतना नमक है �क सारे संसार का दो सौ साल तक उससे काम चल
सकता है । , पर आप सात करोड़ रुपये �सफर् नमक के �लए देते ह�। आपक
ऊसर� म�, झील� म� नमक भरा पड़ा है , आप उसे छू नह�ं सकते। शायद कुछ
�दन� म� आपके कुओं पर भी महसल
ू लग जाय। क्या आप अब भी यह
अन्याय सहते रह�ग?
एक आवाज आयी—हम �कस लायक ह�?
नायक—यह� तो आपका भ्रम ह�। आप ह� क� गदर्न पर इतना ब
राज्य थमा हुआ है। आप ह� इन बड़ी –बड़ी फौज�, इन बड़े-बड़े अफसर� के
मा�लक है ; मगर �फर भी आप भख
ू � मरते ह� , अन्याय सहते ह�। इस�लए �क
आपको अपनी शिक्त का �ान नह�ं। यह समझ ल�िजए �क संसार म� जो
आदमी अपनी र�ा नह�ं कर सकता , वह सदै व स्वाथ� और अन्याय
आद�मय� का �शकार बना रहे गा ! आज संसार का सबसे बड़ा आदमी अपने
प्राण� क� बाजी खेल रहा है। हजार� जवान अपनी जान� हथेल� पर �लय
आपके द:ु ख� का अंत करने के �लए तैयार ह�। जो लोग आपको असहाय
समझकर दोन� हाथ� से आपको लट
ू रहे ह�, वह कब चाह�गे �क उनका �शकार
उनके मँह
ु से �छन जाय। वे आपके इन �सपा�हय� के साथ िजतनी सिख्तयॉँ
कर सकते ह� , कर रहै ह� ; मगर हम लोग सब कुछ सहने को तैयार ह�। अब
सो�चए �क आप हमार� कुछ मदद कर�गे ? मरद� क� तरह �नकल कर अपने
को अन्याय से बचाय�गे या कायर� क� तरह बैठे हुए तकद�र को कोसते

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रह�गे? ऐसा अवसर �फर शायद कभी न आय�। अगर इस वक्त चूक , तो �फर
हमेशा हाथ मलते र�हएगा। हम न्याय और सत्य के �लए लड़ रहे ;
इस�लए न्याय और सत्य ह� के ह�थयार� से हम� लड़ना है। हम� ऐसे वीर� क
जरूरत ह , जो �हंसा और क्रोध को �दल से �नकाल डाल� और ईश्वर
अटल �वश्वास रख कर धमर् के �लए सब कुछ झेल सक ! बो�लए आप क्या
मदद कर सकते ह�?
कोई आगे नह�ं बढ़ता। सन्नाटा छाया रहता है

4
एकाएक शोर मचा —प�ु लस ! प�ु लस आ गयी !!
प�ु लस का दारोगा कांसटे �बल� के एक दल के साथ आ कर सामने
खड़ा हो गया। लोग� ने सहमी हुई ऑ ंख� और धड़कते हुऐ �दल� से उनक�
ओर दे खा और �छपने के �लए �बल खोजने लगे।
दारोगाजी ने हुक्म �दय —मार कर भगा दो इन बदमाश� को ?
कांसटे बल� ने अपने डंडे सँभाले ; मगर इसके पहले �क वे �कसी पर
हाथ चलाय� , सभी लोग हुरर् हो गये ! कोई इधर से भागा , कोई उधर से।
भगदड़ मच गयी। दस �मनट म� वहाँ गॉवँ का एक आदमी भी न रहा। हॉ ँ ,
नायक अपने स्थान पर अब भी खड़ा था और जत्था उसके पीछे बैठा हु
था; केवल कोदई चौधर� नायक के समीप बैठे हुए �थर ऑ ंख� से भ�ू म क�
ओर ताक रहे थे।
दारोगा ने कोदई क� ओर कठोर ऑ ंख� से दे खकर कहा —क्य� रे
कोदइया, तन
ू े इन बदमाश� को क्य� ठहराया यहॉ?
कोदई ने लाल-लाल ऑ ंख� से दारोगा क� ओर दे खा और जहर क�
तरह गुस्से को पी गये। आज अगर उनके �सर गृहस्थी का बखेड़ा न हो ,
लेना-दे ना न होता तो वह भी इसका मँह
ु तोड़ जवाब दे ते। िजस गह
ृ स्थी पर
उन्ह�ने अपने जीवन के पचास साल होम कर �दये थ ; वह इस समय एक
�वषैले सपर् क� भॉँ�त उनक� आत्माम� �लपट� हुई थ
कोदई ने अभी कोई जवाब न �दया था �क नोहर� पीछे से आकर
बोल�—क्या लाल पगड़ी बॉँधकर तुम्हार� जीभ ऐंठ गयी ? कोदई क्या
तम्हारे गुलाम ह� �क कोदइय
ु -कोदइया कर रहै हो ? हमारा ह� पैसा खाते हो
और हमीं को ऑ ंख� �दखाते हो? तम्ह� लाज नह�ं आती
ु ?

12
नोहर� इस वक्त दोपहर� क� धुप क� तरह कॉँप रह� थी। दारोगा एक
�ण के �लए सन्नाटे म� आ गया। �फर कुछ सोचकर औरत के मुँह लगना
अपनी शान के �खलाफ समझकर कोदई से बोला —यह कौन शैतान का
खाला है , कोदई ! खद
ु ा का खौफ न होता तो इसक� जबान तालू से खींच
लेता।
ब�ु ढ़या लाठ� टे ककर दारोगा क� ओर घमू ती हुई बोल� —क्य� खुदा क�
दहु ाई दे कर खुदा को बदनाम करते हो। तुम्हारे खुदा तो तुम्हारे अफसर ,
िजनक� तुम जू�तयॉ ँ चाटते हो। तुम्ह� तो चा�हए था �क डूब मरते �चल्लू भ
पानी म� ! जानते हो , यह लोग जो यहॉ ँ आये ह� , कौन ह� ? यह वह लोग है ,
जो हम गर�ब� के �लए अपनी जान तक होमने को तैयार ह�। तुम उन्ह�
ू के रुपये खाते ह , जुआ खेलाते हो, चो�रयॉ ँ
बदमाश कहते हो ! तुम जो घस
करवाते हो, डाके डलवाते हो; भले आद�मय� को फँसा कर म�ु ट्ठयॉँ गरम करत
हो और अपने दे वताओं क� ज�ू तय� पर नाक रगड़ते हो , तम
ु इन्ह� बदमाश
कहते हो !
नोहर� क� ती�ण बात� सनु कर बहुत-से लोग जो इधर-उधर दबक गये
थे, �फर जमा हो गये। दारोगा ने दे खा , भीड़ बढ़ती जाती है , तो अपना हं टर
लेकर उन पर �पल पड़े। लोग �फर �ततर-�बतर हो गये। एक हं टर नोहर� पर
भी पड़ा उसे ऐसा मालमू हुआ �क कोई �चनगार� सार� पीठ पर दौड़ गयी।
उसक� ऑ ंख� तले अँधेरा छा गया , पर अपनी बची हुई शिक्त को एकत
करके ऊँचे स्वर से बोल—लड़को क्य� भागते ह? क्या नेवता खाने आये थे।
या कोई नाच-तमाशा हो रहा था ? तम्हारे इसी ल�ड़ीपन ने इन सब� को शेर

बना रखा है । कब तक यह मार-धाड़, गाल�-गपु ्ता सहते रहोगे
एक �सपाह� ने ब�ु ढ़या क� गरदन पकड़कर जोर से धक्का �दया।बु�ढ़या
दो-तीन कदम पर औंधे मँह
ु �गरा चाहती थी �क कोदई ने लपककर उसे
सँभाल �लया और बोला —क्या एक दु�खया पर गुस्सा �दखाते हो या ? क्या
गुलामी ने तुम्ह� नामदर् भी बना �दया ? औरत� पर , बढ़
ू � पर, �नहत्थ� प,
वार करते हो,वह मरद� का काम नह�ं है ।
नोहर� ने जमीन पर पड़े-पड़े कहा—मदर ् होते तो गुलाम ह� क्य� होत !
भगवान ! आदमी इतना �नदर ्यी भी हो सकता ह ? भला अँगरे ज इस तरह
बेदरद� करे तो एक बात है । उसका राज है । तम
ु तो उसके चाकर हो , तम्ह�

13
राज तो न �मलेगा, मगर रॉडँ मॉडँ म� ह� खुश ! इन्ह� कोई तलब देता जा,
दस
ू र� क� गरदन भी काटने म� इन्ह� संकोच नह�ं!

अब दारोगा ने नायक को डॉटना शर
ु ु �कय—तुम �कसके हुक्म से इस
गॉवँ म� आये?
नायक ने शांत भाव से कहा —खदु ा के हुक्म से ।
दारोगा —तम
ु �रआया के अमन म� खलल डालते हो?
नायक —अगर तुम्ह� उनक� हालत बताना उनके अमन म� खलल
डालना है ता बेशक हम उसके अमन म� खलल डाल रहे है ।
भागनेवाल� के कदम एक बार �फर रुक गये। कोदई ने उनक� ओर

�नराश ऑ ंख� से दे ख कर कॉपते हुए स्वर म� कह —भाइयो इस बखत कई
ँ के आदमी यहॉ ँ जमा ह� ? दारोगा ने हमार� जैसी बेआबरुई क� ह , क्या
गॉव�
उसे सह कर तम
ु आराम क� नींद सो सकते हो ? इसक� फ�रयाद कौन
सन
ु ेगा? हा�कम लोग क्या हमार� फ�रयाद सुन�गे। कभी नह�ं। आज अगर
हम लोग मार डाले जायँ , तो भी कुछ न होगा। यह है हमार� इज्जत और
आबर? थड़
ु ी है इस िजंदगी पर!
समह
ू िस्थर भाव से खड़ा हो गय , जैसे बहता हुआ पानी म�ड़ से रुक
जाय। भय का धआ
ु ं जो लोग� के हृदय पर छा गया थ , एकाएक हट गया।
उनके चेहरे कठोर हो गये। दारोगा ने उनके तीवर दे खे , तो तुरन्त घोड़े पर
सवार हो गया और कोदई को �गरफ्तार करने का हुक्म �दया। दो �सपा�हय
ने बढ़ कर कोदई क� बॉहँ पकड़ ल�। कोदई ने कहा —घबड़ाते क्य� ह , म�
ू ा नह�ं। चलो, कहॉ ँ चलने हो?
कह�ं भागँग
ज्य�ह� कोदई दोन� �सपा�हय� के साथ चल , उसके दोन� जवान बेटे
कई आद�मय� के साथ �सपा�हय� क� ओर लपके �क कोदई को उनके हाथ�
से छ�न ल�। सभी आदमी �वकट आवेश म� आकर प�ु लसवाल� के चार� ओर
जमा हो गये।
दारोगा ने कहा —तुम लोग हट जाओ वरना म� फायर कर दँ ग
ू ा। समह

ने इस धमक� का जवाब ‘भारत माता क� जाय !’ से �दया और एका-एक
दो-दो कदम और आगे �खसक आये।
दारोगा ने दे खा , अब जान बचती नह�ं नजर आती है । नम्रता स
बोला—नायक साहब, यह लोग फसाद पर अमादा ह�। इसका नतीजा अच्छा
न होगा !

14
नायक ने कहा —नह�ं, जब तक हमम� एक आदमी भी यहॉ ँ रहे गा ,
आपके ऊपर कोई हाथ न उठा सकेगा। आपसे हमार� कोई दशु ्मनी नह�ं है।
हम और आप दोन� एक ह� पैर� के तले दबे हुए ह�। यह हमार� बद-नसीबी है
�क हम आप दो �वरोधी दल� म� खड़े ह�।

यह कहते हुए नायक ने गॉववाल� को समझाया —भाइयो, म� आपसे
कह चक
ु ा हूँ यह न्याय और धमर् क� लड़ाई है और हम� न्याय और धमर्
ह�थयार से ह� लड़ना है । हम� अपने भाइय� से नह�ं लड़ना है । हम� तो �कसी
से भी लड़ना नह�ं है । दारोगा क� जगह कोई अंगरे ज होता, तो भी हम उसक�
इतनी ह� र�ा करते। दारोगा ने कोदई चौधर� को �गरफ्तार �कया है। म� इसे
चौधर� का सौभाग्य समझता हूँ। धन्य ह� वे लोग जो आजाद� क� लड़ाईम
सजा पाय�। यह �बगड़ने या घबड़ाने क� बात नह�ं है । आप लोग हट जायँ
और प�ु लस को जाने द� ।
दारोगा और �सपाह� कोदई को लेकर चले। लोग� ने जयध्व�न क —
‘भारतमाता क� जय।’
कोदई ने जवाब �दया —राम-राम भाइयो , राम-राम। डटे रहना मैदान
म� । घबड़ाने क� कोई बात नह�ं है । भगवान सबका मा�लक है ।
दोन� लड़के ऑ ंख� म� ऑ ंसू भरे आये और कातर स्वर म� बोल —हम�
क्या कहे जाते हो दादा!
कोदई ने उन्ह� बढ़ावा देते हुए कह —भगवान ् का भरोसा मत छोड़ना
और वह करना जो मरद� को करना चा�हए। भय सार� बरु ाइय� क� जड़ है ।
इसे मन से �नकाल डालो, �फर तम्हारा कोई कुछ नह�ं कर सकता। सत्य क

कभी हार नह�ं होती।
आज प�ु लस �सपा�हय� के बीच म� कोदई को �नभर्यता का जैसा
अनभ ँ उसके �लए
ु व हो रहा था, वैसा पहले कभी न हुआ था। जेल और फॉसी
आज भय क� वस्तु नह� , गौरव क� वस्तु हो गयी थ ! सत्य का प्रत्य�
ँ उसक� र�ा कर रहा
आज उसने पहल� बार दे खा मान� वह कवच क� भॉ�त
हो।
5

गॉववाल� के �लए कोदई का पकड़ �लया जाना लज्जाजनक मालूम हो
रहा था। उनको ऑ ंख� के सामने उनके चौधर� इस तरह पकड़ �लये गये और

15
वे कुछ न कर सके। अब वे मँह
ु कैसे �दखाय� ! हर एक मख
ु पर गहर� वेदना
झलक रह� थी जैसे गॉवँ लट
ु गया !
सहसा नोहर� ने �चल्ला कर कह —अब सब जने खड़े क्या पछता रहै
हो? दे ख ल� अपनी दद
ु र ्श , या अभी कुछ बाक� है ! आज तम
ु ने दे ख �लया
न �क हमारे ऊपर कानन
ू से नह�ं लाठ� से राज हो रहा है ! आज हम इतने
बेशरम ह� �क इतनी दद
ु र ्शा होने पर भी कुछ नह�ं बोलते ! हम इतने स्वाथ,
इतने कायर न होते , तो उनक� मजाल थी �क हम� कोड़� से पीटते। जब तक
तुम गुलाम बने रहोगे , उनक� सेवा-टहल करते रहोगे , तुम्ह� भूस-कर �मलता
रहे गा, ले�कन िजस �दन तुमने कंधा टे ढ़ा �कया , उसी �दन मार पड़ने लगेगी।
कब तक इस तरह मार खाते रहोगे ? कब तक मद
ु � क� तरह पड़े �गद्ध� स
अपने आपको नोचवाते रहोग�? अब �दखा दो �क तुम भी जीते-जागते हो और
तम्ह� भी
ु अपनी इज्-आबरु का कुछ खयाल है। जब इज्जत ह� न रह� त
क्या करोगे खेत-बार� करके , धमर् कमा क ? जी कर ह� क्या करोग ? क्या
इसी�लए जी रहे हो �क तम्हारे बा
ु -बच्चे इसी तरह लात� खाते जाय , इसी
तरह कुचले जायँ ? छोड़ो यह कायरता ! आ�खर एक �दन खाट पर पड़े-पड़े
मर जाओगे। क्य� नह�ं इस धरम क� लड़ाई म� आकर वीर� क� तरह मरते।
ू औरत हूँ , ले�कन और कुछ न कर सकँू गी , तो जहॉ ँ यह लोग
म� तो बढ़�
सोय�गे वहॉ ँ झाडू तो लगा दँ ग
ू ी, इन्ह� पंखा तो झलूँगी।
कोदई का बड़ा लड़का मैकू बोला —हमारे जीते-जी तुम जाओगी काक� ,
हमारे जीवन को �धक्कार है! अभी तो हम तुम्हारे बालक जीते ह� ह�। म�
चलता हूँ उधर ! खेती-बार� गंगा दे खेगा।

गंगा उसका छोटा भाई था। बोला —भैया तुम यह अन्याय करते हो।
मेरे रहते तुम नह�ं जा सकते। तुम रहोगे , तो �गरस्ती सँभालोगे। मुझसे तो
कुछ न होगा। मझ
ु े जाने दो।
मैकू—इसे काक� पर छोड़ दो। इस तरह हमार�-तुम्हार� लड़ाई होगी।
िजसे काक� का हुक्म हो वह जाय।
नोहर� ने गवर् से मुस्करा कर क —जो मझ
ु े घस
ू दे गा , उसी को
िजताऊँगी।
मैकू—क्या तुम्हार� कचहर�म� भी वह� घूस चलेगा का ? हमने तो
समझा था, यहॉ ँ ईमान का फैसला होगा !

16
नोहर�—चलो रहने दो। मरती दाई राज �मला है तो कुछ तो कमा लँ ।ू
गंगा हँ सता हुआ बोला —म� तुम्ह� घूस दँगा काक�। अबक� बाजार
जाऊँगा,तो तुम्हारे �लए पूव� तमाखू का पत्ता लाऊँगा
नोहर�—तो बस तेर� ह� जीत है, तू ह� जाना।
मैकू—काक�, तम
ु न्याय नह�ं कर रह� हो।
नोहर�—अदालत का फैसला कभी दोन� फर�क ने पसन्द �कया है �क
तुम्ह�ं करोग?
गंगा ने नोहर� के चरण दए
ु , �फर भाई से गले �मला और बोला —कल
दादा को कहला भेजना �क मै जाता हूँ।
एक आदमी ने कहा —मेरा भी नाम �लख लो भाई—सेवाराम।
सबने जय-घोष �कया। सेवाराम आकर नायक के पास खड़ा हो गया।
दस
ू र� आवाज आयी—मेरा नाम �लख लो—भजन�संह।
सबने जय-घोष �कया। भजन�संह जाकर नायक के पास खड़ा हो गया।
भजन �संह दस-पांच गॉवोँ मे पहलवानी के �लए मशहुर था। यह
अपनी चौड़ी छाती ताने , �सर उठाये नायक के पास खड़ा हो हुआ , तो जैसे
मंडप के नीचे एक नये जीवन का उदय हो गया।
तुरंत ह� तीसर� आवाज आयी —मेरा नाम �लखो-घरू े ।
यह गॉवँ का चौक�दार थ। लोग� ने �सर उठा-उठा कर उसे दे ख।
सहसा �कसी को �वश्वास न आता था �क घूरे अपना नाम �लखायेगा
भजन�संह ने हँ सते हुए पंछ
ू ा —तम्ह� क्या हुआ है घू?
घरू े ने कहा —मझ ु े वह� हुआ है , जो तम्ह� हुआ है। बीस साल तक

गल
ु ामी करते-करते थक गया।
�फर आवाज आयी —मेरा नाम �लखो—काले खॉ।ँ
वह जमींदार का सहना था , बड़ा ह� जा�बर और दबंग। �फर ल�गो
आश्चयर् हु
मैकू बोला —मालम
ू होता है, हमको लट
ू -लट
ू कर घर भर �लया है, क्य�
काले खॉ ँ गम्भीर स्वरम� बो —क्या जो आदमी भटकता रह , उसे
कभी सीधे रास्ते पर न आने दोगे भाई। अब तक िजसका नमक खाता थ ,
उसका हुक्म बजाता था। तुमको लू-लट ू कर उसका घर भरता था। अब
मालम ू हुआ �क म� बड़े भार� मग ु ालते म� पड़ा हुआ था। तम
ु सब भाइय� को
मैने बहुत सताया है । अब मझ
ु े माफ� दो।

17
ँ रँ गरूट एक दूसरे से �लपटते थ
पॉचो , उछलते थे , चीखते थे , मानो
उन्ह�ने सचमुच स्वराज्य पा �लया , और वास्तव म� उन्हे स्वराज्य
गया था। स्वराज्य �चत्त क� वृित्तमात्र है। ज्य�ह� पराधीनता क
�दल से �नकल गया , आपको स्वराज्य �मल गया। भय ह� पराधीनता ह
�नभर्यता ह� स्वराज्य है। व्यवस्था और संगठन तो गौ
नायक ने उन सेवक� को सम्बो�धत करके कह--�मत् ! आप आज
आजाद� के �सपा�हय� म� आ �मले, इस पर मै आपको बधाई दे ता हूं। आपको
मालम
ू है , हम �कस तरह लड़ाई करने जा रहे है ? आपके ऊपर तरह-तरह क�
सिख्तयाँ क� जाय�ग , मगर याद र�खए , िजस तरह आज आपने मोह और
लोभ का त्याग कर �दया ह , उसी तरह �हंसा और क्रोध का भी त्याग
द�िजए। हम धमर् संग्राम म� जा रहे ह�।हम� धमर् के रास्ते पर जमा
होगा। आप इसके �लए तैयार है!
ँ ने एक स्वर म� कह—तैयार है!
पॉच�
नायक ने आशीवार्द �दय—ईश्वर आपक� मदद करे

उस सह
ु ावने-सन
ु हले प्रभातम� जैसे उमंग घुल� हुई थी। समीर क
हलके-हलके झोक� म� प्रकश क� हल-हल्क� �करण� म� उमंग सनी हुई थी।
लोग जैसे द�वाने हो गये थ�। मानो आजाद� क� दे वी उन्हे अपनी ओर बुला
रह� हो। वह� खेत-ख�लहान , बाग-बगीचे ह� , वह� स्त-पर
ु ुष ह� पर आज के
प्रभातम� जो आशीवार्द , जो वरदान है , जो �वभ�ू त है , वह और कभी न
थी। वह� खेत-ख�लहान, बाग-बगीचे, स्त-परूष आज एक नयी �वभू�त म� रंग

गये ह�।
सय
ू ् �नकलने के पहले ह� कई हजार आद�मय� का जमाव हो गय था।

जब सत्याग्र�हय� का दल �नकला तो लोग� क� मस्तानी आवाज� से आ
गँज
ू उठा। नये सै�नक� क� �वदाई , उनक� रम�णय� का कातर धैयर , माता-
�पता का आद्रर् , सै�नको के प�रत्याग का दृश्य ल�ग� को मस्त �कये द
था।
सहसा नोहर� लाठ� टे कती हुई आ कर खड़ी हो गयी।
मैकू ने कहा —काक�, हम� आ�शवार्द दो
नोहर� —मै तम्हारे साथ चलती हूँ बेट
ु ! �कतना आ�शवार्द लोग?

18
कई आद�मय� ने एक स्वर से कह —काक�, तुम चल� जाओगी , तो
यहॉ ँ कौन रहे गा?
नोहर� ने शभु -कामना से भरे हुए स्वर म� कह —भैया, जाने के तो अब
�दन ह� है , आज न जाऊँगी , दो-चार मह�ने बाद जाऊँगी। अभी आऊँगी , तो
जीवन सफल हो जायेगा। दो-चार मह�ने म� खाट पर पड़े-पड़े जाऊँगी, तो मन
क� आस मन म� ह� रह जायेगी। इतने बलक ह� , इनक� सेवा से मेर� मक
ु ुत
बन जायगी। भगवान करे , तुम लोग� के स�ु दन आय� और मै अपनी िजंदगी
म� तुम्हारा सुख देख लूँ
यह कहते हुए नोहर� ने सबको आशीवार्द �दया और नायक के पास
जाकर खड़ी हो गयी।
लोग खड़े दे ख रहे थे और जत्था गाता हुआ जाता था
एक �दन यह है �क हम-सा बेहया कोई नह�ं।
नोहर� के पाँव जमीन पर न पड़ते थे ; मान� �वमान पर बैठ� हुई स्वग
जा रह� हो।

19
शािन्

जब मै ससरु ाल आयी , तो �बलकुल फूहड थी। न पहनने-ओढ़ने को


सल�का , न बातचीत करने का ढं ग। �सर उठाकर �कसी से बात�चत न कर
सकती थीं। ऑ ंख� अपने आप झपक जाती थीं। �कसी के सामने जाते शमर्
आती, िस्त्रय� तक के सामने �बना घूँघट के �झझक होती थी। म� कुछ �हन
पढ़� हुई थी ; पर उपन्या , नाटक आ�द के पढ़ने म� आन्नद न आता था।
फुसर्त �मलने पर रामायण पढ़ती। उसम� मेरा मन बहुत लगता था। मै उसे
मनषु ्-कृत नह�ं समझती थी। मझ
ु े परू ा-परू ा �वश्वास था �क उसे �कसी
दे वता ने स्वयं रचा होगा। मै मनुष्य� को इतना बु�द्धमान और सहृदय
समझती थी। मै �दन भर घर का कोई न कोई काम करती रहती। और कोई
काम न रहता तो चख� पर सत
ू कातती। अपनी बढ़� ँ
ू सास से थर-थर कॉपती
थी। एक �दन दाल म� नमक अ�धक हो गया। ससरु जी ने भोजन के समय
�सफर् इतना ह� कह —‘नमक जरा अंदाज से डाला करो। ’ इतना सन
ु ते ह�
हृदय कॉँपने लगा। मानो मुझे इससे अ�धक कोई वेदना नह�ं पहुचाई जा
सकती थी।
ले�कन मेरा यह फूहड़पन मेरे बाबज
ू ी (प�तदे व) को पसन्द न आता
था। वह वक�ल थे। उन्ह�ने �श�ा क� ऊँची से ऊँची �डग�रयॉँ पायी थीं। वह
मझ
ु पर प्रेम अवश्य करते ; पर उस प्रेमम� दया क� मात्रा अ�धक ह
थी। िस्त्रय� के -सहन और �श�ा के सम्बन्धम� उनके �वचार बहुत ह
उदार थे ; वह मझ
ु े उन �वचार� से बहुत नीचे दे खकर कदा�चत ् मन ह� मन
�खन्न होते थ; परन्तु उसम� मेरा कोई अपराध न देखकर हमारे रस-�रवाज
पर झझ
ु लाते थे। उन्ह� मेरे साथ बैठकर बातचीत करने म� जरा आनन्द
आता। सोने आते , तो कोई न कोई अँग्रेजी पुस्तक साथ ल , और नींद न
आने तक पढ़ा करते। जो कभी मै पछ
ू बैठती �क क्या पढ़ते ह , तो मेर�
ओर करूण दृिष्ट से देखकर उत्तर —तुम्ह� क् बतलाऊँ यह आसकर
वाइल्ड क� सवर्श्रेष्ठ रचना है। मै अपनी अयोग्यता पर बहुत लिज्
अपने को �धक्कारत , मै ऐसे �वद्वान पुरूष के योग्य नह�ं हूँ। मुझे �क
उजड्ड के घर पड़ना था। बाबूजी मुझे �नरादर क� दृिष्ट से नह�ं देखते ,
यह� मेरे �लए सौभग्य क� बात थी

20
एक �दन संध्या समय म� रामायण पढ़ रह� थी। भरत जी रामचंद्र
क� खोज म� �नकाले थे। उनका करूण �वलाप पढ़कर मेरा हृदय गदगद्
रहा था। नेत्र� से अश्रुधारा बह रह� थी। हृदय उमड़ आता था। सहसा ब
जी कमरे म� आय�। मैने पस
ु ्तक तुरंत बन्द कर द�ं। उनके सामने मै अपन
फूहड़पन को भरसक प्रकट न होने देती थी। ले�कन उन्ह�ने पुस्तक दे ;
और पछ
ू ा—रामायण है न?
मैने अपरा�धय� क� भां�त �सर झक
ु ा कर कहा —हॉ,ँ जरा दे ख रह� थी।
बाबू जी —इसम� शक नह�ं �क पस
ु ्तक बहुत ह� अच् , भाव� से भर�
हुई है ; ले�कन जैसा अंग्रेज या फ्रांसीसी लेखक �लखत� ह�। तुम्हार� सम
तो न आवेगा , ले�कन कहने म� क्या हरज ह , योरोप म� अजकल
‘स्वाभा�वकत’ ( Realism) का जमाना है । वे लोग मनोभाव� के उत्थान और
पतन का ऐसा वास्त�वक वणर्न करते है �क पढ़कर आश्चयर् होता है। हम
यहॉ ँ क�वयो को पग-पग पर धमर् तथा नी�त का ध्यान रखना पड़ता ,
इस�लए कभी-कभी उनके भाव� म� अस्वभा�वकता आ जाती ह, और यह� त्रुट
तुलसीदास म� भी है ।
मेर� समझ म� उस समय कुछ भी न आया। बोल� –मेरे �लए तो यह�
बहुत है, अँग्रेजी पुस्तक� कैसे समझू
बाबू जी —कोई क�ठन बात नह�ं। एक घंटे भी रोज पढ़ो , तो थोड़े ह�
समय म� काफ� योग्यता प्रप्त कर सकत ; पर तुमने तो मानो मेर� बात�
न मानने क� सौगंध ह� खा ल� है । �कतना समझाया �क मझ
ु से शमर् करने
क� आवश्यकता नह� , पर तम्हारे ऊपर
ु असर न पड़ा। �कतना कहता हूं �क
जरा सफाई से रहा करो , परमात्मा सुन्दरता देता है तो चाहता है �क उसक
श्रृंगार भी होता र ; ले�कन जान पड़ता है , तुम्हार� दृिष्ट म� उसका कुछ
मल
ू ्य नह�ं! या शायद तुम समझती हो �क मेरे जैसे कुरूप मनुष्य के �ल
तुम चाहे जैसा भी रहो, आवश्यकता से अ�धक अच्छ� हो। यह अत्याचार मे
ऊपर है । तुम मझ
ु े ठ�क-पीट कर वैराग्य �सखाना चाहती हो। जब म� �द-
रात मेहनत करके कमाता हूँ तो स्-भावत:- मेर� यह इच्छा होती है �क उस
द्रव्य का सबसे उत्तम व्यय हो। परन्तु तुम् हारा फूहड़पन और पुराने
मेरे सारे प�रश्रम पर पानी फेर देते है। िस्त्रयाँ केवल भोजन , बच्चे
पालने, प�त सेवा करने और एकादशी व्रत रखने के �लए नह�ं , उनके
जीवन का ल�य इससे बहुत ऊँचा है । वे मनषु ्य� के समस्त सामािजक औ

21
मान�सक �वषय� म� समान रूप से भाग लेने क� अ�धका�रणी ह�। उन्हे भ
मनषु ्य� क� भां�त स्वतंत्र रहने का अ�धकार प्राप्त है। मुझे तुम्
बंद�-दशा दे खकर बड़ा कष्ट होता है। स्त्री पुरष क� अद्धार्�गनी मान ;
ले�कन तम
ु मेर� मान�सक और सामािजक , �कसी आवश्यकता को पूरा नह�ं
कर सकतीं। मेरा और तम्हारा धमर् अ
ु , आचार-�वचार अलग , आमोद-
प्रमोद के �वषय अलग। जीवन के �कसी कायर् म� मुझे तुमसे �कसी प्रका
सहायता नह�ं �मल सकती। तुम स्वयं �वचार सकती हो �क ऐसी दशा म�
मेर� िजंदगी कैसी बरु � तरह कट रह� है ।
बाबू जी का कहना �बलकुल यथाथर् था। म� उनके गले म� एक जंजीर
क� भां�त पड़ी हुई थी। उस �दन से मैने उन्ह�ं के कह� अनुसार चलने क� दृढ
प्र�त�ा कर, अपने दे वता को �कस भॉ�त ँ अप्रसन्न क?


यह तो कैसे कहूँ �क मझु े पहनने-ओढ़ने से प्रेम न , और उतना ह�
था, िजतना दसू र� िस्त्रय� को होता है। जब बालक और वृद्ध तक श्रृंगा
करते है , त� म� यव
ु ती ठहर�। मन भीतर ह� भीतर मचल कर रह जाता था।
मेरे मायके म� मोटा खाने और मोटा पहनने क� चाल थी। मेर� मॉ ँ और दाद�
हाथ� से सत
ू कातती थीं ; और जुलाहे से उसी सत
ू के कपड़े बन
ु वा �लए जाते
थे। बाहर से बहुत कम कपड़े आते थे। म� जरा मह�न कपड़ा पहनना चाहतीं
या श्रृगार क� रूची �दखाती तो अम्मॉँ फौरन टोकतीं और समझाती �क ब
बनाव-सवॉरँ भले घर क� लड़�कय� को शोभा नह�ं दे ता। ऐसी आदत अच्छ�
नह�ं। य�द कभी वह मझ
ु े दपर्ण के सामने देख लेत , तो �झड़कने लगती ;
परन्तु अब बाबूजी क� िजद से मेर� यह �झझक जाती रह�। सास और ननद�
मेरे बनाव-श्रृंगार पर न-भ� �सकोड़ती ; पर मझ
ु े अब उनक� परवाह न थी।
बाबज
ू ी क� प्र-प�रपण
ू ् दृिष्ट
र के �लए मै �झड़�कयां भी सह सकती थी।
उनके और मेरे �वचार� म� समानता आती जाती थी। वह अ�धक प्रसन्न�च
ु सा�ड़यॉ ँ , संद
जान पड़ते थे। वह मेरे �लए फैसनेबल ु र जाकट� , चमकते हुए
जूते और कामदार स्ल�पर� लाया करत ; पर म� इन वस्तुओं को धारण कर
�कसी के सामने न �नकलती , ये वस्त्र केवल बाबू जी के ह� सामने पहन
के �लए रखे थे। मझ
ु े इस प्रकार ब-ठनी दे ख कर उन्हे बड़ी प्रसन्नता ह
थी। स्त्री अपने प�त क� प्रसन्नता के �लए क्या नह�ं कर सकती। अब

22
काम-काज से मेरा अ�धक समय बनाव-श्रृंगार तथा पुस्तकावलोकन म�
बीतने लगा। पस
ु ्तक� से मुझे प्रेम हाने लगा
यद्य�प अभी तक मै अपने सा-ससरु का �लहाज करती थी , उनके
सामने बट
ू और गाउन पहन कर �नकलने का मझ
ु े साहस न होता था , पर
मझ
ु े उनक� �श�ा-पण
ू ् बाते न भां�त थी। म� सोचत
र , जब मेरा प�त सैकड़�
रूपये मह�ने कमाता है तो घर म� चेर� बनकर क्य� रह ? य� अपनी इच्छा से
चाहे िजतना काम करू , पर वे लोग मझ
ु े आ�ा दे ने वाले कौन होते ह� ?
मझ
ु म� आत्म�भमान क� मात्रा बढ़ने लगी। य�द अम्मॉँ मुझे कोई काम क
को कहतीं , तो त� अदबदा कर टाल जाती। एक �दन उन्होन� कह —सबेरे के
जलपान के �लए कुछ दालमोट बना लो। म� बात अनसन
ु ी कर गयी। अम्मॉँ
ने कुछ दे र तक मेर� राह दे खी ; पर जब मै अपने कमरे से न �नकल� त�
उन्हे गुस्सा हो आया। वह बड़ी ह� �चड़�चड़ी प्रकृ�त क� थी। -सी बात
पर तन
ु क जाती थीं। उन्हे अपनी प्र�तष्ठा का इतना अ�भमान था �क म
�बलकुल ल�डी समझती थीं। हॉ ,ँ अपनी प�ु त्रय� से सदैव नम्रता से पेश ;
बिल्क म� तो यह कहूँगी �क उन्ह� �सर चढ़ा रखा था। वह क्रोध म� भर�
मेरे कमरे के द्वार पर आकर बोल� —तुमसे म�ने दाल —मोट बनाने को कहा
था, बनाया?
मै कुछ रूष्ट होकर बो —अभी फुसर्त नह�ं �मल�
अम्मॉ —तो तुम्हार� जान म� �द-भर पड़े रहना ह� बड़ा काम है ! यह
आजकल तम्ह� हो क्या गया
ु ? �कस घमंड म� हो ? क्या यह सोचती हो �क
मेरा प�त कमाता है , तो मै काम क्य� कर ? इस घमंड म� न भल
ू ना! तम्हारा

प�त लाख कमाये ; ले�कन घर म� राज मेरा ह� रहे गा। आज वह चार पैसे
कमाने लगा है , तो तुम्ह� माल�कन बनने क� हवस हो रह� ह ; ले�कन उसे
पालने-पोसने तुम नह�ं आयी थी , म�ने ह� उसे पढ़ा-�लखा कर इस योग्य
बनाया है । वाह! कल को छोकर� और अभी से यह गुमान।
म� रोने लगी। मँह
ु से एक बात न �नकल�। बाबू जी उस समय ऊपर
कमरे म� बैठे कुछ पढ़ रहे थे। ये बात� उन्ह�ने सुनीं। उन्ह� कष्ट हुआ। र
को जब वह घर आये तो बोले —दे खा तुमने आज अम्मॉँ का क् ? यह�
अत्याचार ह , िजससे िस्त्रय� को अपनी िजंदगी पहाड़ मालूम होते है ।
इन बात� से हृदय म� �कतनी वेदना होती ह , इसका जानना असम्भव है।
जीवन भार हो जाता है, हृदय जरज ्र हो जाता है और मनुष्य क� आत्मोन

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उसी प्रकार रूक जाती है जैसे, प्रकाश और वायु के �बना पौधे सूख जात
है । हमारे घर� म� यह बड़ा अंधेर है । अब म� उनका पत
ु ्र ह� ठहरा। उनक
ु नह�ं खोल सकँू गा। मेरे ऊपर उनका बहुत बड़ा अ�धकार है ।
सामने मँह
अतएव उनके �वरुद्ध एक शब्द भी कहना मेरे �लये लज्जा क� बात ,
और यह� बंधन तम्हारे �लए भी है। य�द तुमने उन
ु क� बात� चुपचाप न सुन
ल� होतीं, तो मझ
ु े बहुत ह� द:ु ख होता। कदा�चत ् म� �वष खा लेता। ऐसी दशा
म� दो ह� बात� सम्भव ह , या तो सदै व उनक� घड़ ु �कय�-�झड़�कय� को सहे
जाओ, या अपने �लए कोई दस
ू रा रास्ता ढूढ़ो। अब इस बात क� आशा करना
�क अम्मॉँ के सवभाव म� कोई प�रवतर्न हो , �बलकुल भ्रम है। बो , तुम्ह�
क्या स्वीकार ह
म�ने डरते डरते कहा —आपक� जो आ�ा हो , वह कर�। अब कभी न
पढूँ-�लखग
ूँ ी, और जो कुछ वह कह�गी वह� करूँगी। य�द वह इसी म� प्रस
ह� तो यह� सह�। मझ
ु े पढ़-�लख कर क्या करना ह?
बाबज
ू ी –पर यह म� नह�ं चाहती। अम्मॉँ ने आज आरम्भ �कया है
अब रोज बढ़ती ह� जायँगी। म� तुम्ह� िजतनी ह� सभ्य तथा �वच-शील
बनाने क� चेष्टा करूँ, उतना ह� उन्ह� बुरा लगेग, और उनका गुस्सा तुम्ह�
पर उतरे गा। उन्ह� पता नह�ं िजस अबहवा म� उन्ह�ने अपनी िजनदगी �बताय
है , वह अब नह�ं रह�। �वचार-स्वातं�य और समयानुकूलता उनक� दृिष्ट
अधमर् से कम नह�ं। म�ने यह उपाय सोचा है �क �कसी दूसरे शहर म� चल
कर अपना अड्डा जमाऊँ। मेर� वकालत भी यहॉँ नह�ं चलत; इस�लए �कसी
बहाने क� भी आवश्यकता न पड़ेगी
म� इस तजबीज के �वरुद्ध कुछ न बोल�। यद्य�प मुझे अकेले रहने
भय लगता था , तथा�प वहॉ ँ स्वतन्त्र रहने क� आशा ने मन को प्रफ
कर �दया।
3
उसी �दन से अम्मॉँ ने मुझसे बोलना छोड़ �दया। मह�रय , पड़ो�सन�
और ननद� के आगे मेरा प�रहास �कया करतीं। यह मझ ु े बहुत बरु ा मालम

होता था। इसके पहले य�द वह कुछ भल�-बरु � बात� कह लेतीं , तो मझु े
स्वीकार था। मेरे हृदय से उनक� म-मयार्दा घटने लगी। �कसी मनुष्य प
इस प्रकार कटा� करना उसके हृदय से अपने आदर को �मटने समान है ।
मेरे ऊपर सबसे गुरुतर दोषारोपण यह था �क म�ने बाबू जी पर कोई मोहन

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मंत्र फुकर् �दया , वह मेरे इशार� पर चलते है ; पर याथाथर् म� बात उल्ट� ह
थी।
भाद्र मास था। जन्मष्टामी का त्यौहार आया था।घर म� सब लोग
व्रत रखा। म�ने भी सदैव क� भां�त व्रत रखा। ठाकुर जी का जन्म रा
बारह बजे होने वाला था , हम सब बैठ� गांती बजाती थी। बाबू जी इन
असभ्य व्यवहार� के �बलकुल �वरुद्ध थे। वह होल� के �दन रंग भी ,
गाने बजाने क� तो बात ह� अलग । रात को एक बजे जब म� उनके कमरे
म� गयी , तो मझ
ु े समझाने लगे- इस प्रकार शर�र को कष्ट देने से क
लाभ? कृष्ण महापुरूष अवश्य , और उनक� पज
ू ा करना हमारा कतव्यर् :
पर इस गाने-बजाने से क्या फायद? इस ढ�ग का नाम धमर् नह�ं है। धमर् क
सम्बन्ध सचाई ओर ईमान से , �दखावे से नह�ं ।
बाबू जी स्वयं इसी मागर् का अनुकरण करते थे। वह भगवदगीता क
अत्यंत प्रशंसा करते पर उसका पाठ कभी न करते थे। उप�नषद� क� प्र
म� उनके मख
ु से मान� पषु ्- बिष्ट होने लगती थ ; पर म�ने उन्ह� कभी कोई
उप�नषद् पढ़ते नह�ं देखा। वह �हंदु धमर् के गूढ़ तत्व �ान पर लट् , पर
उसे समयानक
ु ू ल नह�ं समझते थे। �वशेषकर वेदांत को तो भारत क� अबन�त
का मल
ू कारण समझाते थे। वह कहा करते �क इसी वेदांत ने हमको चोपट
कर �दया; हम द�ु नया के पदाथ� को तुच्छ समझने लग, िजसका फल अब
तक भग
ु त रहे ह�। अब उन्न�त का समय है। चुपचाप बैठे रहने से �नवार्
नह�ं। संतोष ने ह� भारत को गारत कर �दया ।
उस समय उनको उत्तर देने क� शिक्त देने क� शिक्त मुझम� कहॉ
? हॉ, अब जान पड़ता है यह योरो�पयन सभ्यता के चक्करम� पड़े हुए थे
अब वह स्वयं ऐसी बाते नह�ं करत, वह जोश अब टं डा हो चला है ।
4
इसके कुछ �दन बाद हम इलाहाबाद चेले आये। बाबू जी ने पहले ह�
एक दो- मंिजला मकान ले रखा था –सब तरह से सजा-सजाया। हमो यहाँ
पॉच नौकर थे— दो िस्त्र, दो पर
ु ुष और एक महाराज। अब म� घर के कुल
काम-काज से छुट� पा गयी । कभी जी घबराता को कोई उपन्यास लेकर
पढ़ने लगती ।
यहॉ ं फूल और पीतल के बतर्न बहुत कम थे। चीनी क� रका�बयॉं और
प्याले आलमा�रय� म� सजे रखे थे । भोजन मेज पर आता था। बाबू जी बड़े

25
चाब से भोजन करते। मझ
ु े पहले कुछ शरम आती थी ; ले�कन धीरे -धीरे म�
भी मेज ह� पर भोजन करने लगी। हमारे पास एक सन
ु ्दर टमटम भी थी।
अब हम पैदल �बलकुल न चलते। बाबू जी कहते – यह� फैशन है !
बाबू जी क� आमदनी अभी बहुत कम थी। भल�-भां�त खचर् भी न
चलता था। कभी-कभी म� उन्ह� �चंताकुल देखती तो समझाती �क जब आया
इतनी कम है तो व्यय इतना क्य� बढ़ा रखा ? कोई छोटो –सा मकान ले
लो। दो नौकर� से भी काम चल सकता है । ले�कनं बाबू जी मेर� बात� पर
हॅ स दे ते और कहते –म� अपनी द�रद्रता का �ढढोरा अप-आप क्य� पीटू ?
द�रद्रता प्रकट करना द�रद्र होने से अ:खदायी होता है । भल
ू जाओं �क
हम लोग �नधर्न ह , �फर ल�मी हमारे पास आप दौड़ी आयेगी । खचर् बढ़न ,
आवश्यकताओं का अ�धक होना ह� द्रव्योपाजर्न क� पहल� सीढ़� ह�
हमार� गपु ्त शिक्त �वक�सत हो जाती ह�। और हम उन कष्ट� को झेलते ह
आगे पंग धरने के योग्य होते ह�। संतोष दर�द्रता का दूसरा नाम
अस्त, हम लोग� का खचर् �दन –�दन बढ़ता ह� जाता था। हम लोग
सप्ताह म� तीन बार �थयेटर जरूर देखने जाते। सप्ताह म� एक बार �मत्र
भोजन अवश्य ह� �दया जाता। अब मुझे सूझने लगा �क जीवन का ल�य
सख
ु –भोग ह� है । ईश्वर को हमार� उपासाना क� इच्छा नह�ं । उसने हमक
उत्त- उत्तम बस्तुऍ भोगने के �लए ह� द� ह� उसको भोगना ह� उसक
सव�तम आराधना है । एक इसाई लेडी मझ
ु े पढ़ाने तथा गाना �सखाने आने
लंगी। घर म� एक �पयानो भी आ गया। इन्ह�ं आनन्द�म� फँस कर म
रामायण और भक्तमाल को भूल गयी । ये पुस्तक� मुझे अ�प्रय लगने ल
। दे वताओं से �वश्वास उठ गया
धीरे -धीरे यहॉ के बड़े लोग� से स्नेह और सम्बन्ध बढ़ने लगा। यह
�बलकुल नयी सोसाट� थीं इसके रहन-सहन , आहार-व्यवहार और आचा-
�वचार मेरे �लए सवर्था अनोखे थे। मै इस सोसायट� म� उसे जान पड़त, जैसे
मोर� मे कौआ । इन ले�डय� क� बातचीत कभी �थयेटर और घड़
ु दौड़ के
�वषय म� होती , कभी टे �नस , समाचार –पत्र� और अच -अच्छे लेखक� के
लेख� पर । उनके चातुय्र ,ब�ु द्ध क� तीव्रता फुत� और चपलता पर म
अचंभा होता । ऐसा मालम
ू होता �क वे �ान और प्रकाश क� पुत�लयॉ ह�। व
�बना घंघ
ू ट बाहर �नकलतीं। म� उनके साहस पर च�कत रह जाती । मझ
ु े
भी कभी-कभी अपने साथ ले जाने क� चेष्टा करत , ले�कन म� लज्जावश न

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जा सकती । म� उन ले�डय� को भी उदास या �चं�तत न पाती। �मसस्टर
दास बहुत बीमार थे। परन्तु �मसेज दास के माथे पर �चन्ता का �चन्ह
न था। �मस्टर बागड़ी नैनीताल म� पते�दक का इलाज करा रहे थ , पर
�मसेज बागड़ी �नत्य टे�नस खेलने जाती थीं । इस अवस्थाम� मेर� क्
दशा होती मै ह� जानती हूं।
इन ले�डयो क� र��त नी�त म� एक आकर्ष- शािक्त थ , जो मझ
ु े
खींचे �लए जाती थी। मै उन्ह� सदैव आमो –प्रमोदक के �लए उत्सुक देख
और मेरा भी जी चाहता �क उन्ह�ं क� भां�त म� भी �नस्संकोच हो जाती
उनका अंग्रजी वातार्लाप सुन मुझे मालूम होता �क ये दे�वयॉ ह�। म� अप
इन त्रु�टय� क� पू�तर् के �लए प्रयत्न �कया करत
इसी बीच म� मझ
ु े एक खेदजनक अनभ
ु व होने लगा। यद्य�प बाबूजी
पहले से मेरा अ�धक आदर करते ,मझ
ु े सदै व ‘�डयर-डा�लर्ग कहकर पूकारते
थे, तथा�प मझ
ु े उनक� बातो म� एक प्रकार क� बनावट मालूम होती थीं। ऐस
प्रतीत हो, मान� ये बात� उनके हृदय से नह� , केवल मख
ु से �नकलती है ।
उनके स्नेह ओर प्यारम� हा�दर्क भाव� क� जगह अलंकार ज्यादा होत ;
�कन्तु और भी अचम्भे क� बात यह थी �क अब मुझे बाबू जी पर वह पहल
क� –सी श्राद्धा न रह�। अब उनक� �सर क� पीड़ा से मेरे हृदय म� पी
होती थी। मझ
ु म� आत्मगौरव का आ�वभार्व होने लगा था। अब म� अपन
बनाव-श्रृंगार इस�लए करती थी �क संसारम� सह भी मेरा कतर्व् ;
इस�लए नह�ं �क म� �कसी एक परूष
ु क� व्रतधा�रणी हूँ। अब मुझे
अपनी सन
ु ्दरता पर गवर् होने लगा था । म� अब �कसी दूसरे के �लए नह ,
अपने �लए जीती थीं। त्याग तथा सेवा का भाव मेरे हृदय से लुपत होन
लग था।
म� अब भी परदा करती थी ; परन्तु हृदय अपनी सुन्दरता क� सराह
सन
ु ने के �लए व्याकुल रहता था। एक �दन �मस्टर दास तथा और भी अने
सभ्–गण बाबू जी के साथ बैठे थे। मेरे और उसके बीच म� केवल एक परदे
क� आड़ थी। बाबू जी मेर� इस �झझक से बहुत ह� लिज्जत थे। इसे वह
अपनी सभ्यता म� कला धब्बा समझते थे । कदा�चत् यह �दखाना चाहते
�क मेर� स्त्री इस�लए परदे म� नह�ं है �क वह रूप तथा वस्त्राभूषण� म
से कम है बिल्क इस�लए �क अभी उसे लज्जा आती है। वह मुझे �कस
बहाने से बार-बार परदे के �नकट बल
ु ाते ; िजसम� अनके उनके �मत्र मेर

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सन
ु ्दरता और वस्त्राभूषण देख ल� । अन्त म� कुछ �दन बाद मेर�
गायब हो गयी। इलाहाबाद आने के परू े दो वषर् बाद म� बाबू जी के साथ
�बना परदे के सैर करने लगी। सैर के बाद टे �नस क� नोबत आयीं अन्त म�
म�ने क्लब म� जाकर दम �लया । पहले यह टे�नस और क्लब मुझे तमाश–
सा मालम
ू होत था मान� वे लोग व्यायाम के �लए नह�ं बिल्क फैशन क
�लए टे �नस खेलने आते थे। वे कभी न भल
ू ते थे �क हम टे �नस खेल रहे
है । उनके प्रत्येक काम , झक
ु ने म� , दौड़ने म� , उचकने म� एक कृ�त्रमत
होती थी, िजससे यह प्रतीत होता था �क इस खेल का प्रयोजन कसरत न
केवल �दखावा है ।
क्लब म� इससे �व�चत्र अवस्था थी। वह पूरा स्वा , भद्दा औ
बेजोड़ । लोग अंग्ररेजी के चुने हुए शब्द� का प्रयोग कर , िजसम� कोई
सार न होता था।िस्त्रय� क� वह फूहड़ �नलर्ज्जता और पुरूष� क� -
शन
ू ्य स्त –पज
ू ा मझ
ु े भी न भाती थी। चार� ओर अंग्ररेजी च-ढ़ाल क�
हास्यजनक नकल थीं। परन्तु क: म� भी वह रं ग पकड़ने और उन्ह�ं का
अनकु रण करने लगी । अब मझ ु े अनभ
ु व हुआ �क इस प्रदश-लोलप
ु ता म�
�कतनी शिक्त है। म� अब �नत्य नये श्रृंगार , �नत्य नया रूप भर ,
केवल इस �लए �क क्लब म� सबक� आँख� म� चुभ जाऊँ ! अब मझ
ु े बाबू जी
के सेवा सत्कार से अ�धक अपने बनाब श्रृंगार क� धुन रहती थी । य
तक �क यह शौक एक नशा –सा बन गया। इतना ह� नह�ं , लोग� से अपने
सौदन्यर् क� प्रशंसा सुन कर मुझे एक अ�भ –�म�श्रत आंनद का अनुभ
होने लगा। मेर� लज्जाशीलता क� सीमांऍ �वस्तृत हो गयी ।वह दृिष्टपात
कभी मेरे शर�र के प्रत्येक रोऍ को खड़ा कर देता और वह हास्य , जो
कभी मझ
ु े �वष खा लेने को प्रस्तुत कर द , उनसे अब मझ
ु े एक उनमाद
पण
ू ् हषर् होता था परन्तु
र जब कभी म� अपनी अवस्था पर आंत�रक द
डालती तो मझ
ु े बड़ी घबराहट होती थी। यह नाव �कस घट लगेगी ? कभी-
कभी इरादा करती �क क्लब न जाऊँग ; परन्तु समय आते ह� �फर तैयार
हो जाती । म� अपने वश म� न थी । मेर� सत्कल्पनाऍ �नबर्ल हो गयी थ
5
दो वषर् और बीत गये और अब बाबू जी के स्भावम� एक �व�च
प�रवतर्न होने लगा । वह उदास और �चं�तत रहने लगे। मुझसे बहुत कम
बोलते। ऐसा जान पड़ता �क इन्ह� क�ठन �चंता ने घेर रखा ह, या कोई

28
बीमार� हो गयी है । मँह
ु �बलकुल सख
ु ा रहता था। त�नक –त�नक –सी बात
पर नौकर� से झल्लाने लगत, और बाहर बहुत कम जाते ।
अभी एक ह� मास पहले वह सौ काम छोड़कर क्लब अवश्य जाते ,
वहॉ गये �बना उन्ह� कल न पड़ती थ; अब अ�धकतर अपने कमरे म� आराम
–कुस�पर लेटे हुए समाचार-पत्र और पुस्कत� देखा करते थे । मेर� समझ
न आता �क बात क्या है
एक �दन उन्ह� बड़े जोर का बुखार आय , �दन-भर बेहोश रहे , परनतु
मझ
ु े उनके पास बैठने म� अनकुस –सा लगता था। मेरा जी एक उपन्यास म�
लगा हुआ था । उनके पास जाती थी और पल भर म� �फर लौट आती।
टे �नस का समय आया , तो द�ु वधा म� पड़ गयी �क जाउँ या न जाऊँ । दे र
तक मन म� यह संग्राम होता रहा अन्त को म�ने यह �नणर्य �कया �क म
यहॉ रहने से वह कुछ अच्छे तो हो नह�ं जायँग , इससे मेरा यहॉ बैठा रहना
�बलकुल �नरर ्थक है। म�ने ब�ढ़या बस्त्र , और रै केट लेकर क्लब घर जा
पहूँची । वहॉ म�ने �मसेज दास और �मसेज बागची से बाबू जी क� दशा
बतलायी, और सजल नेत्र चुपचाप बैठ� रह� । जब सब लोग कोटर् म� जा
लगे और �मस्टर दास ने मुझसे चलने को कहा तो म� ठंडी आह भरकर कोटर
म� जा पहूँची और खेलने लगी।
आज से तीन वषर् बाबू जी को इसी प्रकार बुखार आ गया था। म� र
भर उन्ह� पंखा झेलती रह� थ ; हृदय व्याकुल था और यह� चाहता था �
इनके बदले मझ
ु े बख
ु ार आ जाय , परन्तु वह उठ बैठ� । पर अब हृदय त
स्नेह–शन
ू ्य हो गया थ, �दखावा अ�धक था। अकेले रोने क� मझ
ु म� �मता
न रह गयी थी । म� सदै व क� भाँ�त रात को नौ बजे लौट�। बाबू जी का जी
कुछ अच्छा जान पड़ा । उन्ह�ने मुझे केवल दबी दृिष्ट से देखा और क
बदल ल� ; परन्तु म� लेट , तो मेरा हृदय मुझे अपनी स्वाथर्परता
प्रमोदासिक्त पर �धक्कार
म� अब अंग्ररेजी उपन्यास� को समझने लगी । हमार� बातचीत अ�
उत्कृष्ट और आलोचनात्मक होती
हमारा सभ्यता का आदशर् अब बहुत ह� उच्च हो गया । हमको
अपनी �मत्र मण्डल� से बाहर दूसर� से �म–जल
ु ने म� संकोच होता था। हम
अपने से छोट� श्रेणी के ल�गो से बोलनेम� अपना अपमान समझते थे
नौकर� को अपना नौकर समझते थे , और बस । हम उनके �नजी मामल� से

29
कुछ मतलब न था। हम उनसे अलग रह कर उनके ऊपर अपना जोर जमाये
रखना चाहते थे। हमार� इच्छा यह थी �क वह हम लोग� क साहब समझ� ।
�हन्दुसतानी िस्त्रय� को देखकर मुझे उनसे घृणा होत , उनम� �शष्टता न
थी। खैर!
बाबू जी का जी दस
ू रे �दन भी न सॅभला । म� क्लब न गयी । परन्त
जब लगातार तीन �दन तक उन्ह� बुखार आता गया और �मसेज दास ने
बार-बार एक नसर् बुलाने का आदेश �कय, तो म� सहमत हो गयी । उस �दन
से रोगी क� सेवा-शश्रूषा से छुट्टी पा कर
ु बड़ा हषर् हुआ।यद्य�प दो �
क्लब न गयी थ , परं तु मेरा जी वह�ं लगा रहता था , बिल्क अपने
भीरूतापूणर् त्याग पर क्रोध भी आत
6
एक �दन तीसरे पहर म� कुस� पर लेट� हुई अंग्ररेजी पुस्तक पढ़ र
थी। अचानक मनम� यह �वचार उठा �क बाबू जी का बख ु ार असाध्य हो
जाय तो ? पर इस �वचार से लेश-मात्र भी :ख न हुआ । म� इस शोकमय
कल्पना का मन ह� मन आनंद उठाने लगी । �मसेज दा , �मसेज नायडू
�मसेज श्रीवास , �मस खरे , �मसेज शरगर अवश्य ह� मातमपूस� करने
आवेगीं। उन्ह� देखते ह� म� सजल नेत्र हो उठू , और कहूँगी- बहन� ! म�
लट
ू गयी । हाय मै लट ु गयी । अब मेरा जीवन अँधेर� रात के भयावह वन
या श्मशान के द�पक के समान ह, परं तु मेर� अवस्था पर द:ख न प्रकट कर
। मझ
ु पर जो पड़ेगी , उसे मै उस महान ् आत्म के मो� के �वचार से सह
लँ ग
ू ी ।
म�ने इस प्रकार मनम� एक शोकपूणर् व्याख्यान क� रचना कर
यहॉ ँ तक �क अपने उस वस्त्र के �वषय म� भी �नश्चय कर , जो मत
ृ क
के साथ श्मशान जाते समय पहनूँगी
इस घटना क� शहर भर म� चचार् हो जायेगी । सारे कैन्टोम�ट के लो
मझ
ु े समवेदना के पत्र भेजेग� । तबम� उनका उत्तर समाचार पत्र
प्रका�शत करा दूँगी �क म� प्रत्ये-पत्र का उत्तर देने म� असमथर् हू
हृदय के टुकड़-टुकड़े हो गऐ है , उसे रोने के �सवा और �कसी काम के
�लए समय नह�ं है । मै इस महदद� के �लए उन लोग� क� कृत� हूं , ओर
उनसे �वनय- पव
ू ्क �नवेदन करती हूं �क वे मृतक
र क� आत्मा क� सदग�त क
�न�मत्त ईश्वर से प्राथर्ना

30
मै इन्ह�ं �वचार� मे डूब हुई थी �क नसर् ने आकर कह – आपको
साहब याद करते ह�। यह मेरे क्लब जाने का समय था। मुझे उनका बुलाना
अखर गया , ले�कन एक मास हो गया था। वह अत्यन्त दुबर्ल हो रहे
उन्ह�ने मेर� और �वनयपूणर् दृिष्ट से देखा। उसमे ऑसू भरे हुए थे। म
उन पर दया आयी। बैठ गयी , और ढ़ाढस दे ते हुए बोल� –क्या करू? कोई
दस
ू रा डाक्टर बुला?
बाबू जी आँख� नीची करके अत्यंत करूण भाव से बोल – यहॉ कभी
नह�ं अच्छा हो सकत, मझ
ु े अम्मॉ के पास पहूँचा दो
म�ने कहा- क्या आप समझते है �क वहाँ आपक� �च�कत्सा यहाँ स
अच्छ� होगी?
बाबू जी बोले – क्या जाने क्य� मेरा जी अम्मॉ के दशर्न�
लाला�यत हो रहा है । मझ
ु े ऐसा मालम
ू होता है �क म� वहॉ बना दवा- दपर्ण
के भी अच्छा हो जाऊँगा
म�- यह आपका केवल �वचार मात्र ह
बाबजी – शायद ऐसा ह� हो । ले�कन मेर� �वनय स्वीकार करो। म� इस रोग
से नह�ं इस जीवन से ह� द:ु �खत हूँ।
म�ने अचरज से उनक� ओर दे खा !
बाबू जी �फर बोले – हॉ , इस िजंदगी से तंग आ गया हूँ ! म� अब
समझ रहा हूँ मै िजस स्वच , लहराते , हुए �नमर्ल जल क� ओर दौड़ा जा
रहा था, वह मरूभू�म ह�। म� इस प्रकार जीवन के बाहर� रूप पर लट्टू ह
था; परं तु अब मझ
ु े उसक� आंत�रक अवस्थाओं का बोध हो रहा ह ! इन चार
बष� मे मेने इस उपवन मे सब
ू भ्रमण �क , और उसे आ�द से अंत तक
कंटकमय पाया । यहॉ न तो हदय को शां�त है, न आित्मक आंनंद। यह एक
उन्म, अशां�तमय, स्वाथ-पण
ू र , �वलाप–यक
ु ्त जीवन है। यहॉ न नी�त ह ; न
धमर, न सहानभ
ु �ु त , न सहदयता। परामात्मा के �लए मुझे इस अिग्न स
बचाओं। य�द और कोई उपाय न हो तो अम्माँ को एक पत्र ह� �लख दो
वह आवश्य यहॉ आयेगीं। अपने अभागे पुत्र का:ख उनसे न दे खा जाएगा।
उन्ह� इस सोसाइट� क� हवा अभी नह�ं लग , वह आयेगी। उनक� वह
मामतापण
ू ् दृि
र , वह स्नेहपूणर् शुश्रृषा मेरे �लए सौ ओष�धय� का
करे गी। उनके मख
ु पर वह ज्यो�त प्रकाशमान ह , िजसके �लए मेरे नेत्

31
तरस रहे ह�। उनके हदय मे स्नेह ह , �वश्वास है। य�द उनक� गोद मे म� मर
भी जाऊँ तो मेर� आत्मा का शां�त �मलेगी
म� समझी �क यह बख
ु ार क� बक-झक ह�। नसर् से कहा – जरा इनमा
टे म्परेचर तो ल , म� अभी डाक्टर के पास जाती हूँ। मेरा हृदय एक अ�ा
भय से कॉपते लगा। नसर् ने थमार्मीटर �नका ; परन्तु ज्य� ह� वह बाबू ज
के समीप गयी , उन्होन� उसके हाथ से वह यंत्र छ�न कर पृथ्वी पर
�दया। उसके टुकड़े-टुकड़े हो गये। �फर मेर� ओर एक अवहे लनापण
ू ् दृिष्ट

दे खकर कहा – साफ- साफ क्य� नह�ं कहती हो �क मै क्ल –घर जाती हूँ
िजसके �लए तुमने ये वस्त्र धारण �कये है और गाउन पहनी है। , घम
ू ती
हुई य�द डाक्टर के पास जान , तो कह दे ना �क यहॉ टे म्परेचर उस �बंदु पर
पहुँच चक
ु ा है, जहॉ आग लग जाती है ।
म� और भी अ�धक भयभीत हो गयी। हदय म� एक करूण �चंता का
संचार होने लगा। गला भर आया। बाबज
ू ी ने नेत्र मूँद �लये थे और उनक
साँस वेग से चल रह� थी। म� द्वार क� ओर चल� �क �कसी को डाक्टर क
पास भेजँ ।ू यह फटकार सन
ु कर स्वंय कैसे जाती। इतने म� बाबू जी उठ बैठे
और �वनीत भाव से बोले –श्याम! म� तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। बात दो
सप्ताह से मन म� थ: पर साहस न हुआ। आज म�ने �नश्चय कर �लया है
�क ह� डालँ ।ू म� अब �फर अपने घर जाकर वह� पहले क�–सी िजंदगी �बताना
चाहता हूँ। मझ
ु े अब इस जीवन से घण
ृ ा हो गयी है , ओर यह� मेर� बीमार�
का मख
ु ्य कारण ह�। मुझे शार��रक नह�ं मान�सक कष्ट ह�। म� �फर तुम्
वह� पहले क� –सी सलज् , नीचा �सर करके चलनेवाल� , पज
ु ा करनेवाल� ,
रमायण पढ़नेवाल�, घर का काम-काज करनेवाल� , चरखा कातनेवाल�, ईश्वर
से डरनेवाल�, प�तश्रद्धा से प�रपूणर् स्त्री देखना चाहता हूँ। मै �वश्वास
तुम मझ
ु े �नराश न करे गी। तुमको सोलहो आना अपनी बनाना और सोलहो
आने तुम्हारा बनाना चाहता हूँ। म� अब समझ गया �क उसी सादे प�वत
जीवन मे वास्त�वक सुख है। बोलो , स्वीकार ह ? तुमने सदै व मेर� आ�ाओं
का पालन �कया है , इस समय �नराश न करना ; नह�ं तो इस कष्ट और
श�क का न जाने �कतना भयंकर प�रणाम हो।
मै सहसा कोई उतर न दे सक�। मन म� सोचने लगी – इस स्वतंत
ु था ? ये मजे वहॉ कहॉ ँ ? क्या इतने �दन स्वतंत्र व
जीवन मे �कतना सख
मे �वचरण करने के पश्चात �फर उसी �पंजड़े मे जाऊ ? वह� ल�डी बनकर

32
रहूँ? क्य� इन्ह�ने मुझे वष� स्वतंत्रता का पाठ , वष� दे वताओं क� ,
रामायण क� पज ू ा–पाठ क�, व्–उपवास क� बरु ाई क�, ह� सी उड़ायी? अब जब
म� उन बात� को भल
ू गयीं , उन्ह� �मथ्या समझने ल , तो �फर मझ
ु े उसी
अंधकूप मे ढकेलना चाहते ह�। म� तो इन्ह�ं क� इच्छा के अनुसार चलती ह ,
�फर मेरा अपराध क्या ह ? ले�कन बाबज
ू ी के मख
ु पर एक ऐसा द�नता-पण
ू ्र
�ववशता थी �क म� प्रत्य� अस्वीकार न कर सक�। - आ�खर यहॉ क्या
कष्ट है?
म� उनके �वचार� क� तह तक पहुँचना चाहती थीं।
बाबज
ू ी �फर उठ बैठे और मेर� ओर कठोर दृष्ट से देखकर ब-बहुत
ह� अच्छा होता �क तुम इस प्रश्न को मुझसे पूछने के बदले अपने ह�
से पछ
ू लेती। क्या अब म� तुम्हारे �लए वह� हूँ जो आज से तीन वषर् पह
था। जब म� तम
ु से अ�धक �श�ा प्रा , अ�धक बद
ु ्�वमा , अ�धक जानकार
होकर तम्हारे �लए वह नह�ं रहा जो पहले था
ु –तम
ु ने चाहे इसका अनभ
ु व न
�कया हो परन्तु म� स्वंय कर रहा ह —तो म� अनमान करूँ �क उन्ह�ं भाव� न
तुम्ह� रख�लत न �कया होग ? नह�ं , बिल्क प्रत्य� �चह्ल देख पड़ते ह
तुम्हारे हदय पर उन भाव� का और भी अ�धक प्रभाव पड़ा है। तुमने अप
को ऊपर� बनाव-चन
ु ाव ओर �वलास के भॅवर म� डाल �दया , और तुम्ह� उसक�
लेशमत्र भी सु�ध नह�ं ह�। अब मुझे पूणर् �वश्वास हो गया �क ,
स्वेछाचा�रत का भूत िस्त्रय� के कोमल हदय पर बड़ी सुगमता से कब्ज
सकता है । क्या अब से तीन वषर् पूवर् भी तुम्ह� यह साहस हो सकता था
मझ
ु े इस दशा म� छोड़ कर �कसी पड़ो�सन के यहॉ गोन –बजाने चल� जाती?
म� �बछोने पर रहता , और तम
ु �कसी के घर जाकर कलोल� करती। िस्त्र
का हदय आ�धक्-�प्रय होता ; परन्तु इस नवीन आ�धक्य के बदले मुझ
वह परु ाना आ�धक्य कह�ं ज्यादा पसन्द ह�। उस अ�धक्य का फल आि
एव शार��रक अभ्युदय ओर हृदय क� प�वत्रता और स्वेच्छाचार। उ
य�द तुम इस प्रकार �मस्टर दास के सम्मुख ह-बोलती , तो म� या तो
तुम्ह� मार डालत , या स्वयं �व-पान कर लेता । परन्तु बेहयाई ऐसे जीवन
का प्रधान तत्व है। मै सब कुछ स्वयं देखता ओर सहता हूँ। कदा�चत्
भी जाता य�द इस बीमार� ने मझ
ु े सचेत न कर �दया होता। अब य�द तम ु
यहॉ बैठ� भी रहो , तो मझ
ु े संतोष न होगा , क्य��क मुझे यह �वचार द:�खत
करता रहे गा �क तुम्हारा हदय यहॉ नह�ं ह�। म�ने अपने को उस इन्द्रजाल

33
�नकालने का �नश्चय कर �लया ह , जहॉ धन का नाम मान है , इिन्द्र
�लप्सा का सभ्यता और भ्रष्टता का �वचार स्वतन्� , मेरा प्रस्त
स्वीकार ह?
मेरे हदय पर वज्रप –सा हो गया। बाबज
ू ी का अ�भप्राय पूणर्त
हृदयंगम हो गया। अभी हदय म� कुछ पुरानी लज्जा बाक� थी। यह यंत्
असह्रा हो गयी। लिज्जत हो उठ�। अंतरात्मा ने – अवश्! म� अब वह
नह�ं हूँ, जो पहले थी। उस समय म� इनको अपना इष्टदेव मानती थ, इनक�
आ�ा �शरोधायर् थ ; पर अब वह मेर� दृिष्टम� एक साधारण मनुष्य ह
�मस्टर दास का �चत्र मेरे नेत्र� के सामने �खंच गया। कल मेरे हदय प
दरु ात्मा क� बात� का कैसा नशा छा गया थ , यह सोचते ह� नेत्र लज्जा
झक
ु गये। बाबज
ू ी क� आंत�रक अवस्था उनके मुखड़े ह� से प्रकाशमान
रह� थी। स्वाथर् और �वल-�लप्सा के �वचार मेरे हदय से दूर हो गये। उनके
बदले ये शब्द ज्वलंत अ�र� मे �लखे हुए नजर आ- तन
ू े फैशन और
वस्त्राभूषण� म� अवश्य उन्न�त , तझ
ु म� अपने स्वाथ� का �ान हो आया
है , तुझम� जीवन के सख
ु भागने क� योग्यता अ�धक हो गयी ह , तू अब
अ�धक ग�वर्ण , दृढ़हदय और �श�-सम्पन्न भी हो ग: ले�कन तेरे
आित्मक बल का �वनाश हो गय, क्य��क तू अपने कतर्व्य को भूल ग
मै द�न� हाथ जोड़कर बाबज
ू ी के चरण� पर �गर पड़ी। कंठ रूँध गय ,
एक शब्द भी मुंह से न �नकल, अश्रुधारा बह चल
अब म� �फर अपने घर पर आ गयी हूं। अम्माँ जी अब मेरा अ�धक
सम्मान करती ह , बाबज
ू ी संतषु ्ट द�ख पड़ते है। वह अब स्वयं प्र�त
संध्यावंदन करते है
�मसेज दास के पत्र कभी कभी आते , वह इलाहाबाद� सोसाइट� के
नवीन समाचार� से भरे होते ह�। �मस्टर दास और �मस भा�टया से संबंध म�
कल�ु षक बात� उड़ रह� है । म� इन पत्र� का उतर तो देती ह , परन्तु चाहती हूँ
�क वह अब आते तो अच्छा होता। वह मुझे उन �दन� क� याद �दलाते ह ,
िजन्ह� म� भूल जाना चाहती हूँ
ू ी ने बहुत-सी परु ानी पा�थयॉ ँ अिग्नदेव को अपर्ण क�ं। उनम
कल बाबज
आसकर वाइल्ड क� कई पुस्तक� थीं। वह अब अँग्रेजी पुस्तक� बहुत कम
ह�। उन्ह� कालार्, रिस्कन और एमरसन के �सवा और कोई पुस्तक पढ़ते म
नह�ं दे खती। मझ
ु े तो अपनी रामायण ओर महाभारत म� �फर वह� आनन्द

34
प्राप्त होने लगा है। चरखा अब पहले के अ�धक चलाती हूँ क्य��क इस
चरखे ने खूब प्रचार पा �लया ह

35
ब�क का �दवाला

लखनऊ नेशनल ब�क के दफ्तर म� लाला सा�दास आराम कुस� पर लेटे


हुए शेयरो का भाव दे ख रहे थे और सोच रहे थे �क इस बार �हस्सेदार� को
मनु ाफ़ा कहॉ ं से �दया जायग। चाय, कोयला या जुट के �हस्से खर�दन, चॉद�,
सोने या रूई का सट्टा करने का इरादा क ; ले�कन नक
ु सान के भय से
कुछ तय न कर पाते थे। नाज के व्यापार म� इस बार बड़ा घाटा रह ;
�हस्सेदार� के ढाढस के �लए हा�- लाभ का किल्पत ब्योरा �दखाना पड़
ओर नफा पँज
ू ी से दे ना पड़ा। इससे �फर नाज के व्यापार म� हाथ डालते जी
कॉपता था।
पर रूपये को बेकार डाल रखना असम्भव था। -एक �दन म� उसे कह�ं
न कह�ं लगाने का उ�चत उपाय करना जरूर� थ ; क्य��क डाइरेक्टर� क�
�तमाह� बैठक एक ह� सप्ताह म� होनेवाल� थ , और य�द उस समय कोई
�नश्चय न हु , तो आगे तीन मह�ने तक �फर कुछ न हो सकेगा , और
छमाह� मन
ु ाफे के बॅटवारे के समय �फर वह� फरजी कारर ्वाई करनी पड़ेग ,
िजसका बार-बार सहन करना ब�क के �लए क�ठन है । बहुत दे र तक इस
उलझन म� पड़े रहने के बाद सा�दास ने घंट� बजायी। इस पर बगल के दस
ू रे

कमरे से एक बंगाल� बाबू ने �सर �नकाल का झॉका।
सा�दास – ताजा-स्ट�ल कम्पनी को एक पत्र �लख द�िजए �क अ
नया बैल�स शीट भेज द� ।
बाब-ू उन लोग� को रुपया का गरज नह�ं। �चट्ठी का जवाब नह�ं दे
साईदास – अच्छ: नागपरु क� स्वदेशी �मल को �ल�खए।
बाब-ू उसका कारोबार अच्छा नह�ं है। अभी उसके मजदूर� ने हड़ताल
�कया था। दो मह�ना तक �मल बंद रहा।
सा�दास – अजी, तो कह�ं �लख� भी! तुम्हार� समझ म� सार� दु�नय
बेइमान� से भर� है ।
बाबू –बाबा, �लखने को तो हम सब जगह �लख द� ;: मगर खाल� �लख
दे ने से तो कुछ लाभ नह�ं होता।
लाला सा�दास अपनी कुल –प्र�तष्ठा ओर मयार्दा के कारण बैक
म�नेिजंग डाइरे क्टर हो गये थे पर व्यावह�रक बात� से अपर�चत थे । यह�
बंगाल� बाबू इनके सलाहाकर थे और बाबू साहब को �कसी कारखाने या

36
कम्पनी पर भरोसा न था। इन्ह�ं के अ�वश्वास के कारण �पछले साल ब
का रूपया सन्दूक से बाहर न �नकल सका , ओर अब वह� रं ग �फर
�दखायी दे ता था। सा�दास को इस क�ठनाई से बचने का कोई उपाय न
सझ
ु ता था। न इतनी �हम्मत थी �क अपने भरोसे �कसी व्यापारम� हा
डाल�। बैचन
े ी क� दशा म� उठकर कमरे म� टहलने लगे �क दरबान ने आकर
खबर द� – बरहल क� महारानी क� सवार� आयी है ।
2
लाल सा�दास च�क पड़े। बरहल क� महारानी को लखनउ आये तीन-
चार �दन हुए थे ओर हर एक मे मंह
ु से उन्ह�ं क� चचार् सुनायी देती थी
कोई उनके पहनावे पर मगु ्ध थ , कोई उनक� सन ु ्दरता प , काई उनक�
स्वच्छंद वृ�त पर। यहॉ तक �क उनक� दा�सयॉ और �सपाह� आ�द भी लोग
क� चचार् के पात्र बने हुए थे। रायल होटल के द्वार पर दशर्को क� भीड़
रहती है । �कतने ह� शौक�न , बे�फकरे लोग , इतर-फरोश , बज़ाज या
तम्बाकूगर का वेश धर का उनका दशर्न कर चुके थे। िजधर से महारानी क
सवार� �नकल जाती, दशर्को से ठट लग जाते थे। वाह–वाह, क्या शा! ऐसी
इराक� जोड़ी लाट साहब के �सवा �कसी राजा-रईस के यहॉ तो शायद ह�
�नकले, और सजावट भी क्या खूब ह ! भई , ऐसा गोरे आदमी तो यहॉ भी
नह�ं �दखायी दे ते। यहॉ ं के रईस तो मग
ृ ांक , चंद्रोदय और ईश्वर ज , क्य-
क्या खा-बला खाते है , पर �कसी के बदन पर तेज या प्रकाश का ना
नह�ं। ये लोग न जाने क्या भोजन करते और �कस कुऍं का पानी पीते ह� �क
िजसे दे �खए, ताजा सेब बना हुआ है! यह सब जलबायु का प्रभाब ह
बरहल उतर �दशा म� नैपाल के समीप , अँगरे जी–राज्य म� एक �रयासत
थी। यद्य�प जनता उसे बहुत मालदार समझती थ ; पर वास्तब म� उस
�रयासत क� आमदनी दो लाख से अ�धक न थी। हॉ ं , �ेत्रफल बहुत �वस्त
था। बहुत भ�ू म ऊसर और उजाड़ थी। बसा हुआ भाग भी पहाड़ी और बंजर
था। जमीन बहुत सस्ती उठती थी
लाला सा�दास न तुरनत अलगानी से रे शमी सट
ू उतार कर पहन
�लया ओर मेज पर आकर शान से बैठ गए। मान� राजा-रा�नय� का यहॉ
आना कोई सधारण बात है । दफ्तर के क्लकर् भी सॅभल गए। सारे ब�क
सन्नाटे क� हलचल पैदा हो गई। दरबान ने पगड़ी सॅभाल�। चौक�दार ने
तलवार �नकाल�, और अपने स्थान पर खड़ा हो गया। पंख –कुल� क� मीठ�

37
नींद भी टूट� और बंगाल� बाबू महारानी के स्वागत के �लए दफ्तर से बाह
�नकले।
सा�दास ने बाहर� ठाट तो बना �लया , �कंतु �चत आशा और भय से
चंचल हो रहा था। एक रानी से व्यवहार करने का यह पहला ह� अवसर थ ;
घबराते थे �क बात करते बने या न बने। रईस� का �मजाज असमान पर
होता है । मालम
ू नह�ं , मै बात करने मे कह� चक ं ं । उन्ह� इस समय
ू जॉऊ
अपने म� एक कमी मालम
ू हो रह� थी। वह राजसी �नयम� से अन�भ� थे।
उनका सम्मान �कस प्रकार करना चा, उनसे बात� करने म� �कन बात� का
ध्यान रखना चा�ह , उसक� मयार्द –र�ा के �लए �कतनी नम्रता उ�चत ,
इस प्रकार के प्रश्न से वह बड़े असमंजस म� पड़े ह , और जी चाहता था
�क �कसी तरह पर��ा से शीघ्र ह� छुटकारा हो जाय। व्यापा� , मामल
ू �
जमींदार� या रईस� से वह रूखाई ओर सफाई का बतार्ब �कया करते थे औ
पढ़े -�लखे सज्जन� से शील और �शष्टता का। उन अवसर� पर उन्ह� �क
�वशेष �वचार क� आवश्यकतान होती थ; पर इस समय बड़ी परे शानी हो रह�
थी। जैसे कोई लंका–वासी �तबबत म� आ गया हो, जहॉ के रस्–�रवाज और
बात-चीत का उसे �ान न हो।
एकाएक उनक� दृष्ट� घड़ी पर पड़ी। तीसरे पहर के चार बज चुके थे
परन्तु घड़ी अभी दोपहर क� नींद मे मग्न थी। तार�ख क� सुई ने दौड़ म
समय को भी मात कर �दया था। वह जल्द� से उठे �क घड़ी को ठ�क कर
द� , इतने म� महारानी के कमरे मे पदापर्ण हुआ। साईदास ने घड़ी को छोड़ा
और महारनी के �नकट जा बगल मे खड़े हो गये। �नश्चय न कर कर सके
�क हाथ �मलाय� या झक
ु कर सलाम कर�। रानी जी ने स्वंय हाथ बढ़ा कर
उन्ह� इस उलझन से छुड़ाया
जब कु�सर्य� पर बैठ ग , तो रानी के प्राइवेट सेक्रेटर� ने व्यवहा
बातचीत शरू
ु क�ं। बरहल क� पुरानी गाथा सुनाने के बाद उसने उन
उन्न�तय� का वणर्न �क, जो रानी साहब के प्रयत्न से हुई थीं। इस स
नहर� क� एक शाखा �नकालने के �लए दस लाख रूपय� क� आवश्यकता :
परन्तु उन्ह�ने एक �हन्दुस्तानी ब�क से ह� व्यवहार करना अच्छा
अब यह �नणर्य नेशनल ब�क के हाथ म� था �क वह इस अवसर से लाभ
उठाना चाहता है या नह�ं।

38
बंगाल� बाब-ू हम रुपया दे सकता ह , मगर कागज-पत्तर देखे �बना कुछ
नह�ं कर सकता।
सेक्रेट-आप कोई जमानत चाहते ह�?
सा�दास उदारता से बोले- महाशय , जमानत के �लए आपक� जबान ह�
काफ� है ।
बंगाल� बाब-ू आपके पास �रयासत का कोई �हसाब-�कताब है?
लाला सा�दास को अपने हे डक्लकर् का दु�नयादार� का बतार्व अच्छ
लगता था। वह इस समय उदारता के नशे म� चरू थे। महारानी क� सरू त ह�
पक्क� जमानत थी। उनके सामने कागज और �हसाब का वणर्न करन
ब�नयापन जान पड़ता था, िजससे अ�वश्वास क� गंध आती है
म�हलाओं के सामने हम शील और संकोच के पत
ु ले बन जाते ह�।
सा�दास बंगाल� बाबू क� ओर क्र-कठोर दृिष्ट से देख का बो-कागज� क�
ँ कोई आवश्यक बात नह�ं ह, केवल हमको �वश्वास होना चा�हए
जॉच
बंगाल� बाब- डाइरे क्टर लोग कभी न मानेगा
सा�दास-–हमको इसक� परवाह नह�ं , हम अपनी िजम्मेदार� पर रुपये द
सकते ह�।
रानी ने सा�दास क� ओर कृत�तापण
ू ् दृिष्ट
र से देखा। उनके होठ�
हल्क� मुस्कराहट �दखलायी पड़

परन्तु डाइरेक्टर� ने �हसाब �कताब आय व्यय देखना आवश्यक स
और यह काम लाला सा�दास के सप
ु द
ु र ् हु ; क्य��क और �कसी को अपने
काम से फुसर्त न थी �क वह एक पूरे दफ्तर का मुआयना करता। सा�दा

ने �नयमपालन �कया। तीन-चार तक �हसाब जॉचते रहे । तब अपने
इतमीनान के अनक
ु ू ल �रपोटर ् �लखी। मामला तय हो गया। दस्तावेज �लख
गया, रुपये दे �दए गये। नौ रुपये सैकड़े ब्याज ठह
तीन साल तक ब�क के कारोबार क� अच्छ� उन्न�त हु�। छठे मह�न
�बना कहे सन
ु े प�ता�लस हजार रुपय� क� थैल� दफ्तरम� आ जाती थी
व्यवहा�रय� को पॉँच रुपये सैकड़े ब्याज दे �दया जाता था। �हस्सेदार�
सात रुपये सैकड़े लाभ था
सा�दास से सब लोग प्रसन्न थे। सब लोग उनक� -बझ
ू क� प्रशंस
करते। यहॉ ँ तक �क बंगाल� बाबू भी धीरे धीरे उनके कायल होते जाते थे।

39
सा�दास उनसे कहा करते-बाबू जी �वश्वास संसार से न लुप्त हुआ है। औ
न होगा। सत्य पर �वश्वास रखना प्रत्येक मनुष्य का धमर् ह�। िजस
के �चत्त से �वश्वास जाता रहता है उसे मृतक समझना चा�हए। उसे जा
पड़ता है , म� चार� ओर शत्रुओं से �घरा हुआ हूँ। बड़े से बड़े �सद्ध महात्म
उसे रं गे-�सयार जान पड़ते ह�। सच्चे से सच्चे देशप्रेमी उसक� दृिष्ट म�
प्रशंसा के भूखे ह� ठहरते ह�। संसार उसे धोखे और छल से प�रपूणर् �दखल
दे ता है । यहॉ ँ तक �क उसके मन म� परमात्मा पर श्रद्धा और भिक्त लु
जाती ह�। एक प्र�सद्ध �फलासफर का कथन है �क प्रत्येक मनुष्
तक �क उसके �वरूद्ध कोई प्रत्य� प्रमाण न पाओ भलामान
वतर्मान शासन प्रथा इसी महत्वपूणर् �सद्धांत पर ग�ठत है। और घ
�कसी से करनी ह� न चा�हए। हमार� आत्मा ऍं प�वत्र ह�। उनसे घृणा कर
परमात्मा से घृणा करने के समान है। म� यह नह�ं कहता हूँ �क संसार म�
कपट छल है ह� नह�ं , है और बहुत अ�धकता से है परन्तु उसका �नवारण
अ�वश्वास से नह�ं मानव च�रत्र के �ान से होता है और यह ईश्वर दत्त
है । म� यह दावा तो नह�ं करता परन्तु मुझे �वश्वास है �क म� मनुष्य
दे खकर उसके आंत�रक भाव� तक पहुँच जाता हूँ। कोई �कतना ह� वेश बदले,
रं ग-रूप सँवारे परन्तु मेर� अंतदृर्िष्ट को धोखा नह�ं दे सकता। यह भी
रखना चा�हए �क �वश्वास से �वश्वास उत्पन्न होता है। और अ�वश्वा
अ�वश्वास। यह प्राकृ�तक �नयम है। िजस मनुष्य को आप शुरू से ह� ,
कपट�, दज
ु ्
र , समझ लेग� , वह कभी आपसे �नष्कपट व्यवहार न करेगा। व
एकाएक आपको नीचा �दखाने का यत्न करेगा। इसके �वपर�त आप एक चोर
पर भी भरोसा कर� तो वह आपका दास हो जायगा। सारे संसार को लट
ू े
परन्तु आपको धोखा न देगा वह �कतना ह� कुकम� अधम� क्य� न , पर
आप उसके गले म� �वश्वास क� जंजीर डालकर उसे िजस ओर चाह� ले जा
सकते है । यहॉ ँ तक �क वह आपके हाथ� पण्यात्मा भी बन सकता ह

बंगाल� बाबू के पास इन दाशर्�नक तक� का कोई उत्तर न थ


चौथे वषर् क� पहल� ता�रख थी। लाला सा�दास ब�क के दफ्तरम� बै
डा�कये क� राह दे ख रहे थे। आज बरहल से प�ताल�स हजार रुपये आव�गे।
अबक� इनका इरादा था �क कुछ सजावट के सामान और मोल ले ल�। अब

40
तक ब�क म� टे ल�फोन नह�ं था। उसका भी तखमीना मँगा �लया था। आशा
क� आभा चेहरे से झलक रह� थी। बंगाल� बाबू से हँ स कर कहते थे-इस
तार�ख को मेरे हाथ� म� अदबदा के खुजल� होने लगती है । आज भी हथेल�
ु ला रह� है । कभी दफ्तर� से कहत-अरे �मयॉ ँ शराफत
खज , जरा सगन
ु तो
�वचार�; �सफर् सूद ह� सूद आ रह� ह , या दफ्तर वाल� के �लए नजराना
शक
ु राना भी। आशा का प्रभाव कदा�चत स्थान पर भी होता है। ब�क भी
खुला हुआ �दखायी पड़ता था।
डा�कया ठ�क समय पर आया। सा�दास ने लापरवाह� से उसक� ओर
दे खा। उसने अपनी थैल� से कई रिजस्टर� �लफाफे �नकाले। सा�दास ने
�लफाफे को उड़ती �नगाह से दे खा। बहरल का कोई �लफाफा न था। न बीमा,
न महु र, न वह �लखावट। कुछ �नराशा-सी हुई। जी म� आया, डा�कए से पछ�
ू ,
कोई रिजस्टर� रह तो नह�ं गयी पर रुक ; दफ्तर के क्लक� के सामन
इतना अधैय्र अनु�चत था। �कंतु जब डा�कया चलने लगा तब उनसे न रह
गया? पछ
ू ह� बैठे-अरे भाई , कोई बीमा का �लफाफा रह तो नह�ं गया ? आज
उसे आना चा�हए था। डा�कये ने कहा—सरकार भला ऐसी बात हो सकती है !
और कह�ं भल
ू -चक
ू चाहे हो भी जाय पर आपके काम म� कह� भल
ू हो सकती
है ?
सा�दास का चेहरा उतर गया , जैसे कच्चे रंग पर पानी पड़ जाय।
डा�कया चला गया, तो बंगाल� बाबू से बोले-यह दे र क्य� हुई? और तो कभी
ऐसा न होता था।
बंगाल� बाबू ने �नष्ठुर भाव से उत्तर �द-�कसी कारण से दे र हो
गया होगा। घबराने क� कोई बात नह�ं।
�नराशा असम्भव को सम्भव बना देती है। सा�दास को इस समय य
ख्याल हुआ �क कदा�चत् पासर्ल से रुपये आते ह�। हो सकता है तीन हज
अश�फर ्य� का पासर्ल करा �दया हो। यद्य�प इस �वचार को और� पर प
करने का उन्ह� साहस न हु , पर उन्ह� यह आशा उस समय तक बनी रह�
जब तक पासर्लवाला डा�कया वापस नह�ं गया। अंत म� संध्या को वह बेचैन
क� दशा म� उठ कर चले गये। अब खत या तार का इंतजार था। दो-तीन
ु ला कर उठे , डॉटँ कर पत्र �लखूँ और साफ साफ कह दूँ �क लेन दे
बार झंझ
के मामले मे वादा परू ा न करना �वश्वासघात है। एक �दन क� देर भी ब�क

41
के �लए घातक हो सकती है । इससे यह होगा �क �फर कभी ऐसी �शकायत
करने का अवसर न �मलेगा; परं तु �फर कुछ सोचकर न �लखा।
शाम हो गयी थी , कई �मत्र आ गये। गपशप होने लगी। इतनेम
पोस्टमैन ने शाम क� डाक द�। य� वह पहले अखबार� को खोला करते पर
आज �च�टठ्यॉँ खोल�ं �कन्तु बरहल का कोई खत न था। तब बेदम हो ए
अँगरे जी अखबार खोला। पहले ह� तार का शीषर्क देखकर उनका खून सदर
हो गया। �लखा था-
‘कल शाम को बरहल क� महारानी जी का तीन �दन क� बीमार� के
बाद दे हांत हो गया।’
इसके आगे एक सं��प्त नोट म� यह �लखा हुआ थ —‘बरहल क�
महारानी क� अकाल मतृ ्यु केवल इस �रयासत के �लए ह� नह�ं �कन्त
समस्त प्रांत के �लए शोक जनक घटना है। -बड़े �भषगाचायर्(वैद्यरा)
अभी रोग क� परख भी न कर पाये थे �क मतृ ्यु ने काम तमाम कर �दया।
रानी जी को सदै व अपनी �रयासत क� उन्न�त का ध्यान रहता था। उनक
थोड़े से राज्यकाल म� ह� उनसे �रयासत को जो लाभ हुए ह, वे �चरकाल तक
स्मरण रह�गे। यद्य�प यह मानी हुई बात थी �क राज्य उनके बाद दूसरे
हाथ जायेगा , तथा�प यह �वचार कभी रानी साहब के कत्तर्व्य पालन
बाधक नह�ं बना। शास्त्रानुसार उन्ह� �रयासत क� जमानत पर ऋण लेने
अ�धकार न था, परं तु प्रजा क� भलाई के �वचार से उन्ह� कई बार इस �न
का उल्लंघन करना पड़ा। हम� �वश्वास है �क य�द वह कुछ �दन और जी�व
रहतीं तो �रयासत को ऋण से मक
ु ्त कर देती। उन्ह� र-�दन इसका ध्यान
रहता था। परं तु इस असाम�यक मतृ ्यु ने अब यह फैसला दूसर� के अधीन
कर �दया। दे खना चा�हए, इन ऋण� का क्या प�रणाम होता है। हम� �वश्वस
र��त से यह मालम
ू हुआ है �क नये महाराज ने , जो आजकल लखनऊ म�
�वराजमान ह�, अपने वक�ल� क� सम्म�त के अनुसार मृतक महारानी के ऋण
संबंधी �हसाब� को चक
ु ाने से इन्कार कर �दया है। हम� भय है �क इस
�नश्चय से महाजनी टोले म� बड़ी हलचल पैदा होगी और लखनऊ के �कतने
ह� धन सम्प�त के स्वा�मय� को यह �श�ा �मल जायगी �क ब्याज का ल
�कतना अ�नष्टकार� होता है
लाला सा�दास ने अखबार मेज पर रख �दया और आकाश क� ओर
दे खा, जो �नराशा का अं�तम आश्रय है। अन्य �मत्र� ने भी यह सम

42
पढ़ा। इस प्रश्न पर -�ववाद होने लगा। सा�दास पर चार� ओर से बौछार
पड़ने लगी। सारा दोष उन्ह�ं के �सर पर मढ़ा गया और उनक� �चरकाल क�
कायर्कुशलता और प�रणा-द�शर्ता �मट्टी मे �मल गयी। ब�क इतना बड़ा घा
सहने म� असमथर् था। अब यह �वचार उपिस्थत हुआ �क कैसे उसके प्र
क� र�ा क� जाय।

शहर म� यह खबर फैलते ह� लोग अपने रुपये वापस लेने के �लए
आतुर हो गये। सब
ु ह शाम तक लेनदार� का तांता लगा रहता था। िजन
लोग� का धन चालू �हसाब म� जमा था , उन्ह�ने तुरंत �नकाल �लय , कोई
उज्र न सुना। यह उसी पत्र के लेख का फल था �क नेशनल ब�क क�
उठ गयी। धीरज से काम लेते तो ब�क सँभल जाता। परं तु ऑ ंधी और तूफान
म� कौन नौका िस्थर रह सकती ह ? अन्त म� खजांची ने टाट उलट �दया।
ब�क क� नस� से इतनी रक्तधारा ऍं �नकल�ं �क वह प्-र�हत हो गया।
तीन �दन बीत चक
ु े थे। ब�क घर के सामने सहस्त्र� आदमी एकत्र
ब�क के द्वार पर सशस्त्र �सपा�हय� का पहरा था। नाना प्रकार क�अ
उड़ रह�ं थीं। कभी खबर उड़ती , लाला सा�दास ने �वष-पान कर �लया। कोई
उनके पकड़े जाने क� सच
ू ना लाता था। कोई कहता था-डाइरे क्टर हवालात के
भीतर हो गये।
एकाएक सड़क पर से एक मोटर �नकल� और ब�क के सामने आ कर
रुक गयी। �कसी ने कह-बरहल के महाराज क� मोटर है । इतना सन
ु ते ह�
सैकड़� मनषु ्य मोटर क� ओर घबराये हुए दौड़े और उन लोग� ने मोटर को
घेर �लया।
कँु वर जगद�श�संह महारानी क� मतृ ्यु के बाद वक�ल� से सलाह लेने
लखनऊ आये थे। बहुत कुछ सामान भी खर�दना था। वे इच्छा ऍं जो
�चरकाल से ऐसे सअ ँ राह पा
ु वसर क� प्रती�ाम� बँधी , पानी क� भॉ�त
कर उबल� पड़ती थीं। यह मोटर आज ह� ल� गयी थी। नगर म� एक कोठ�
लेने क� बातचीत हो रह� थी। बहुमल ू ्य �वला-वस्तुओं से लद� एक गाड़ी
बरहल के �लए चल चक ु � थी। यहॉ ँ भीड़ दे खी , तो सोचा कोई नवीन नाटक
होने वाला है, मोटर रोक द�। इतने म� सैकड़� क� भीड़ लग गयी।
ू ा-यहॉ ँ आप लोग क्य� जमा ह ? कोई तमाशा होने
कँु वर साहब ने पछ
वाला है क्य?

43
एक महाशय, जो दे खने म� कोई �बगड़े रईस मालम
ू होते थे , बोले-जी
हॉ,ँ बड़ा मजेदार तमाशा है ।
कँु वर-�कसका तमाशा है?
वह तकद�र का।
कँु वर महाशय को यह उत्तर पाकर आश्चयर् तो , परं तु सन
ु ते आये
थे �क लखनऊ वाले बात-बात म� बात �नकाला करते ह� ; अत: उसी ढं ग से
उत्तर देना आवश्यक हुआ। बो-तकद�र का खेल दे खने के �लए यहाँ आना
तो आवश्यक नह�ं
लखनवी महाशय ने कहा-आपका कहना सच है ले�कन दस
ू र� जगह
यह मजा कहॉ ?ँ यहाँ सब
ु ह शाम तक के बीच भाग्य ने �कतन� को धनी से
�नधर्न और �नधर्न से �भखार� बना �दया। सबेरे जो लोग महलम� बैठे थ
उन्ह� इस समय रो�टय� के लाले पड� ह�। अभी एक सप्ताह पहले जो लो
काल-ग�त भाग्य के खेल और समय के फेर को क�वय� क� उपमा समझते
थे इस समय उनक� आह और करुण क्रंदन �वयो�गय� को भी लिज्जत क
है । ऐसे तमाशे और कहॉ ँ दे खने म� आव�ग�?
कँु वर-जनाब आपने तो पहे ल� को और गाढ़ा कर �दया। दे हाती हूँ
मझ
ु से साधारण तौर से बात क�िजए।
इस पर सज्जन ने कह-साहब यह नेशनल ब�क ह�। इसका �दवाला
�नकल गया है । आदाब अजर, मझ
ु े पहचाना?
कँु वर साहब ने उसक� ओर दे खा, तो मोटर से कूद पड़े और उनसे हाथ
�मलाते हुए बोले अरे �मस्टर नसी ? तम ु यहॉ ँ कहॉ ँ ? भाई तम
ु से �मलकर
बड़ा आनंद हुआ।
�मस्टर नसीम कुँवर साहब के साथ देहरादूर कालेज म� पढ़ते थे। दोन�
साथ-साथ दे हरादन
ू क� पहा�ड़य� पर सैर करते थे , परं तु जब से कँु वर
महाशय ने घर के झंझट� से �ववश होकर कालेज छोड़ा , तब से द�न� �मत्र
म� भ� ट न हुई थी। नसीम भी उनके आने के कुछ समय पीछे अपने घर
लखनऊ चले आये थे।
नसीम ने उत्तर �दय-शक
ु ्र , आपने पहचाना तो। क�हए अब तो पौ-
बारह है । कुछ दोस्त� क� भी सुध है

44
कँु वर-सच कहता हूँ , तुम्हार� याद हमेशा आया करती थी । कहो
आराम से तो हो? म� रायल होटल म� �टका हूँ , आज आओं तो इतमीनान से
बातचीत हो।
नसीम—जनाब, इतमीनान तो नेशनल ब�क के साथ चला गया। अब
तो रोजी क� �फक्र सवार है। जो कुछ जमा पूँजी थी सब आपकोभ�ट हुई
इस �दवाले ने फक�र बना �दया। अब आपके दरवाजे पर आ कर धरना
दं ग
ू ा।
कँु वर-तुम्हारा घर ह , बेखटके आओ । मेरे साथ ह� क्य� न चल�। क्य
बतलाऊँ, मझ
ु े कुछ भी घ्यान न था �क मेरे इन्कार करने का यह फ
होगा। जान पड़ता ह�, ब�क ने बहुतेर� को तबाह कर �दया।
नसीम-घर-घर मातम छाया हुआ है । मेरे पास तो इन कपड़� के �सवा
और कुछ नह�ं रहा।
इतने म� एक ‘�तलकधार� पं�डत’ जी आ गये और बोले-साहब , आपके
शर�र पर वस्त्र तो है। यहॉँ तो धरती आकाश कह�ं �ठकाना नह�ं। राघो
पाठशाला का अध्यापक हूं। पाठशाला का सब धन इसी ब�क म� जमा था।
पचास �वद्याथ� इसी के आसरे संस्कृत पढ़ते और भोजन पाते थे। कल स
पाठशाला बंद हो जायगी। दरू -दरू के �वद्याथ� ह�। वह अपने घर �कस तरह
पहुँच�गे, ईश्वर ह� जान�।
एक महाशय , िजनके �सर पर पंजाबी ढं ग क� पगड़ी थी, गाढ़े का कोट
और चमरौधा जत ू ा पहने हुए थे , आगे बढ़ आये और नेत़ृत्व के भाव स
बोले-महायाय, इस ब�क के फे�लयर ने �कतने ह� इंस्ट�ट्यूशन� को समाप
कर �दया। लाला द�नानाथ का अनथालय अब एक �दन भी नह�ं चल
सकता। उसके एक लाख रुपये डूब गये। अभी पन्द्रह �दन , म� डेपट
ु े शन
से लौटा तो पन्द्रह हजार रुपये अनाथालय कोष म� जमा �कय , मगर अब
कह�ं कौड़ी का �ठकाना नह�ं।
एक बढ़
ू े ने कहा-साहब , मेर� तो िजदं गी भी क� कमाई �मट्टीम� �म
गयी। अब कफन का भी भरोसा नह�ं।
धीरे -धीरे और लोग भी एकत्र हो गये और साधारण बातचीत होन
ु ाने लगा। कँु वर
लगी। प्रत्येक मनुष्य अपने पासवाले को अपन:खकथा सन
साहब आधे घंटे तक नसीम के साथ खड़े ये �वपत ् कथाएँ सन
ु ते रहे । ज्य�
ह� मोटर पर बैठे और होटल क� ओर चलने क� आ�ा द� , त्य� ह� उनक�

45
दृिष्ट एक मनुष्य पर , जो पथ
ृ ्वी पर �सर झुकाये बैठा था। यह एक
अपीर था जो लड़कपन म� कँु वर साहब के साथ खेला था। उस समय उनम�
ऊँच-नीच का �वचार न था , कबड्डी खेल, साथ पेड़� पर चढ़े और �च�ड़य� के
बच्चे चुराये थे। जब कुँवर जी देहरादून पढ़ने गये तब यह अह�र का लड़का
�शवदास अपने बाप के साथ लखनऊ चला आया। उसने यहॉ ँ एक दध
ू क�
ू ान खोल ल� थी। कँु वर साहब ने उसे पहचाना और उच्च स्वर से पुक-
दक
अरे �शवदास इधर दे खो।
�शवदास ने बोल� सन
ु ी , परन्तु �सर ऊपर न उठाया। वह अपने स्था
पर बैठा ह� कँु वर साहब को दे ख रहा था। बचपन के वे �दन-याद आ रहे थे ,
जब वह जगद�श के साथ गुल्ल-डंडा खेलता था, जब दोन� बड
ु ्ढे गफूर �मयॉँ
को मँह
ु �चढ़ा कर घर म� �छप जाते थे जब वह इशार� से जगद�श को गुरु
जी के पास से बल
ु ा लेता था , और दोन� रामल�ला दे खने चले जाते थे। उसे
�वश्वास था �क कुँधर जी मुझे भूल गये ह�ग , वे लड़कपन क� बात� अब
कहॉ?ँ कहॉ ँ म� और कहॉ ँ यह। ले�कन कँु वर साहब ने उसका नाम लेकर
बल
ु ाया, तो उसने प्रसन्न होकर �मलने के बदले और भी �सर नीचा
�लया और वहॉ ँ से टल जाना चाहा। कँु वर साहब क� सहृदयता म� वह
साम्यभाव न था। मगर कुँवर साहब उसे हटते देखकर मोटर से उतरे और
उसका हाथ पकड़ कर बोले-अरे �शवदास, क्या मुझे भूल गय?
अब �शवदास अपने मनोवेग को रोक न सका। उसके नेत्र डबडब
आये। कँु वर के गले से �लपट गया और बोला-भल
ू ा तो नह�ं , पर आपके
सामने आते लज्जा आती है।
कुवर-यहॉ ँ दध
ू क� दक
ू ान करते हो क्य ? मझ
ु े मालम
ू ह� न था , नह�ं
अठवार� से पानी पीते-पीते जुकाम क्य� होत ? आओ , इसी मोटर पर बैठ
जाओ। मेरे साथ होटल तक चलो। तुमसे बात� करने को जी चाहता है । तुम्ह�
बरहल ले चलँ ग
ू ा और एक बार �फर गुल्ल-ड़डे का खेल खेल�गे।
�शवदास-ऐसा न क�िजए , नह�ं तो दे खनेवाले हँ स�गे। म� होटल म� आ
जाऊँगा। वह� हजरतगंजवाले होटल म� ठहरे ह� न?
कँु वर––हॉ,ँ अवश्य आओगे ?
�शवदास––आप बल
ु ाय�गे, और म� न आऊँगा?
कँु वर––यहॉ ँ कैसे बैठे हो? दक
ू ान तो चल रह� है न?
�शवदास––आज सबेरे तक तो चलती थी। आगे का हाल नह�ं मालम
ू ।

46
कँु वर––तुम्हारे रुपये भी ब�कम� जमा थे क?
�शवदास––जब आऊँगा तो बताऊँगा।
कँु वर साहब मोटर पर आ बैठे और ड्राइवर से बो-होटल क� ओर
चलो।
ड्राइ––हुजरू ने ह्वाइटवे कम्पनी क� दूकान पर चलने क� आ�ा ज
द� थी।
कँु वर––अब उधर न जाऊँगा।
ड्राइ––जेकब साहब बा�रस्टर के यहॉँ भी न चल�ग?
कँु वर––(झँझलाकर) नह�ं, कह�ं मत चलो। मझ
ु े सीधे होटल पहुँचाओ।
�नराशा और �वपित्त के इन दृश्य� ने जगद�श�संह के �चत्त म�
प्रश्न उपिस्थत कर �दया था �क अब मेरा क्या कतर?

आज से सात वषर् पूवर् जब बरहल के महाराज ठ�क युवावस्था म� घो
से �गर कर मर गये थे और �वरासत का प्रश्न उठा तो महाराज के क
सन्तान न होने के कार, वंश-क्रम �मलाने से उनके सगे चचे रे भाई ठाकु
राम�संह को �वरासत का हक पहुँचता था। उन्ह�ने दावा �कय , ले�कन
न्यायालय� ने रानी को ह� हकदार ठहराया। ठाकुर साहब ने अपील� क� , �प्रव
क��सल तक गये , परन्तु सफलता न हुई। मुकदमेबाजी म� लाख� रुपये नष
हुए, अपने पास क� �मल�कयत भी हाथ से जाती रह� , �कन्तु हार कर भी
वह चैन से न बैठे। सदै व �वधवा रानी को छे ड़ते रहे । कभी असा�मय� को
भड़काते, कभी असा�मय� से रानी क� बरु ाई करते , कभी उन्ह� जाल� मुकदम�
म� फँसाने का उपाय करते , परन्तु रानी बड़े जीवट क� स्त्री थीं। वह
ठाकुर साहब के प्रत्येक आघात का मुँहतोड़ उत्तर देतीं।, इस खींचतान म�
उन्ह� बड़-बड़ी रकम� अवश्य खचर् करनी पड़ती थीं। असा�मय� से रुपये
वसल
ू होते इस�लए उन्ह� बा-बार ऋण लेना पड़ता था , परन्तु कानून के
अनस
ु ार उन्ह� ऋण लेने का अ�धकार न था। इस�लए उन्ह� या तो इ
व्यवस्था को �छपाना पड़ता , या सद
ू क� गहर� दर स्वीकार करनी पड़ती
थी।
कँु वर जगद�श�संह का लड़कपन तो लाड़-प्यार से बीता थ , परन्तु जब
ठाकुर राम�संह मक
ु दमेबाजी से बहुत तंग आ गये और यह सन्देह होने लगा
�क कह�ं रानी क� चाल� से कँु वर साहब का जीवन संकट म� पड़ जाय , तो

47
उन्ह�ने �ववश होकर कुँवर साहब को देहरादून भेज �दया। कुँवर साहब वहॉँ
दो वषर् तक तो आनन्द से र , �कन्तु ज्य�ह� कॉलेज क� प्रथम श्रे
पहुँचे �क �पता परलोकवासी ह� गये। कँु वर साहब को पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
बरहल चले आये , �सर पर कुटुम्-पालन और रानी से परु ानी शत्रुता क
�नभाने का बोझ आ पड़ा। उस समय से महारानी के मतृ ्य-काल तक उनक�
दशा बहुत �गर� रह�। ऋण या िस्त्रय� के गहन� के �सवा और कोई आधार
था। उस पर कुल-मयार्दा क� र�ा क� �चन्ता भी थी। ये तीन वषर् तक उन
�लए क�ठन पर��ा के समय थे। आये �दन साहूकार� से काम पड़ता था।
उनके �नदर ्य बाण� से कलेजा �छद गया था हा�कम� के कठोर व्यवहार और
अत्याचार भी सहने पड़त, परन्तु सबसे हृ-�वदारक अपने आत्मीयजन� का
बतार्व थ , जो सामने बात न करके बगल� चोट� करते थे , �मत्रता और ऐक
क� आड़ म� कपट हाथ चलाते थे। इन कठोर यातनाओं ने कँु वर साहब को
अ�धकार, स्वेच्छाचार और -सम्पित्त का जानी दुश्मनी बना �दया थ
वह बड़े भावक
ु पर
ु ुष थे। सम्बिन्धय� क� अकृपा और -बंधओ
ु क� दन
ु ��त
उनके हृदय पर काला �चन्ह बनाती जाती , सा�हत्-प्रेम ने उन्ह� मा
प्रकृ–का तत्त्वान्वेषी बना �दया था और जहां यह �ान उन्ह� प्र
सभ्यता से दूर �लये जाता थ , वहॉ ँ उनके �चत्त म� ज-सत्ता और
साम्यवाद के �वचार पुष्ट करता जाता था। उनपर प्रकट हो गया था
सद्व्यवहार जी�वत , तो वह झोपड़� और गर�ब� म� ह� है । उस क�ठन
समय म� , जब चार� और अँधेरा छाया हुआ था , उन्ह� कभ-कभी सच्ची
सहानभ
ु �ू त का प्रकाश यह�ं दृिष्टगोचर हो जाता था-सम्पित्त को व
श्रेष्ठ प्रसाद , ईश्वर का प्रकोप समझते थे जो मनुष्य के हृदय से
और प्रेम के भाव� को �मटा देता , यह वह मेघ ह� , जो �चत्त के प्रका�
तार� पर छा जाता है ।
परन्तु महारानी क� मृत्यु के बाद ज्य� ह�-सम्पित्त ने उन प
वार �कया, बस दाशर्�नक तक� क� यह ढाल चू-चरू हो गयी। आत्म�नदशर्
क� शिक्त नष्ट हो गयी। वे �मत्र बन गये जो शत्रु सर�खे थे और जा
�हतैषी थे , वे �वस्मृत हो गये। साम्यवाद के मनोगत �वचार�म� घो
प�रवतर्न आरम्भ हो गया। हृदय म� अस�हष्णुता का उद्भव हुआ। त्
भोग क� ओर �सर झक
ु ा �दया , मयार्दा क� बेड़ी गले म� पड़ी। वे अ�धकार ,
िजन्ह� देखकर उनके तेवर बदल जाते थ , अब उनके सलाहकार बन गये।

48
द�नता और द�रद्रता , िजनसे उन्हे सच्ची सहानुभू�त , दे खकर अब वह
ऑ ंखे मँद
ू लेते थे।
इसम� संदेह नह�ं �क कँु वर साहब अब भी साम्यवाद के भक्त ,
�कन्तु उन �वचार� के प्रकट करने म� वह पहले-सी स्वतंत्रता न थ
�वचार अब व्यवहार से डरता था। उन्ह� कथन को का-रुप म� प�रणत
करने का अवसर प्राप्त ; पर अब कायर-�ेत्र क�ठनाइय� से �घरा हु
जान पड़ता था। बेगार के वह जानी दशु ्मन थ ; परन्तु अब बेगार को
बंद करना दषु ्कर प्रतीत होता था। स्वच्छता और स्वास्थ्यर�
भक्त थ, �कन्तु अब ध-व्यय न करके भी उन्ह� ग-वा�सय� क� ह�
ओर से �वरोध क� शंका होती थी। असा�मय� से पोत उगाहने म� कठोर
बतार्व को वह पाप समझते थ; मगर अब कठोरता के �बना काम चलता
न जान पड़ता था। सारांश यह �क �कतने ह� �सद्धा , िजन पर पहले
उनक� श्रद्धा थी अब असंगत मालूम होते
परन्तु आज जो द:खजनक दृश्य ब�क के होतेम� नजर आये उन्ह�
उनके दया-भाव को जाग्रत कर �दया। उस मनुष्य-सी दशा हो गयी , जो
नौका म� बैठा सरु म्य तट क� शोभा का आनन्द उठाता हुआ �कसी श्मश
के सामने आ जाय, �चता पर लाश� जलती दे खे, शोक-संतप्त� के कर-क्रंद
को सन
ु े ओर नाव से उतर कर उनके द:ु ख म� सिम्म�लत हो जाय
रात के दस बज गये थे। कँु वर साहब पलँ ग पर लेटे थे। ब�क के होत
का दृश्य ऑंख� के सामने नाच रहा था। वह� �वल-ध्व�न कान� म� आ रह�
थी। �चत्त म� प्रश्न हो रह, क्या इस �वडम्बना का कारण म� ह� हूं। म�न
तो वह� �कया, िजसका मझ
ु े कानन
ू न अ�धकार था। यह ब�क के संचालक� क�
भल
ू है , जो उन्ह�ने �बना जमानत के इतनी रकम कजर् दे , लेनदार� को
उन्ह�ं क� गरदन नापनी चा�हए। म� कोई खुदाई फौजदार नह�ं हू , �क दस
ू र�
क� नादानी का फल भोगँ।ू �फर �वचार पलटा, म� नाहक इस होटल म� ठहरा।
चाल�स रुपये प्र�त�दन देने पड़ेगे। कोई चार सौ रुपये के मत्थे जाय
इतना सामान भी व्यथर् ह� �लया। क्या आवश्यकत ? मखमल� गद्दे क
कु�सर्य� या शीशे क� सजावट से मेरा गौरव नह�ं बढ़ सकता। कोई साधारण
मकान पॉच ँ रुपये पर ले लेत , तो क्या काम न चलत ? म� और साथ के
सब आदमी आराम से रहते यह� न होता �क लोग �नंदा करते। इसक� क्या
�चंता। िजन लोग� के मत्थे यह ठाट कर रहा हू , वे गर�ब तो रो�टय� को

49
तरसते ह�। ये ह� दस-बारह हजार रुपये लगा कर कुऍं बनवा देत, तो सहस्र
द�न� का भला होता। अब �फर लोग� के चकम� म� न जाऊँगा। यह मोटरकार
व्यथर् ह�। मेरा समय इतना महँगा नह� ह� �क घं-आध-घंटे क� �कफायत के
�लए दो सौ रुपये का खचर् बढ़ा लूँ। फाका करनेवाले असा�मय� के सामन
दौड़ना उनक� छा�तय� पर मँग
ू दलना है । माना �क वे रोब म� आ जाय�गे ,
िजधर से �नकल जाऊँगा , सैकड़� िस्त्रय� और बच्चे देखने के �लए खड़े
जाय�गे, मगर केवल इतने ह� �दखावे के �लए इनता खचर् बढ़ाना मूखर्ता है
य�द दस
ू रे रईस ऐसा करते ह� तो कर� , म� उनक� बराबर� क्य� करुँ। अब त
दो हजार रुपये सालाने म� मेरा �नवार्ह हो जाता था। अब दो के बदले चा
हजार बहुत ह�। �फर मझु े दस
ू र� क� कमाई इस प्रकार उड़ाने का अ�धक ह�
क्या ह ? म� कोई उद्यो-धंधा , कोई कारोबार नह�ं करता िजसका यह नफा
हो। य�द मेरे पर
ु ुष� ने हठधम , जबरदस्ती से इलाका अपने हाथ� म� रख
�लया, तो मझ
ु े उनके लट
ू के धन म� शर�क होने का क्या अ�धकार ह ? जो
लोग प�रश्रम करते , उन्ह� अपने प�रश्रम का पूरा फल �मलना चा�ह
राज्य उन्ह� केवल दूसर� के कठोर हाथ� से बचाता है। उसे इस सेवा क
उ�चत मआ
ु वजा �मलता चा�हए। बस, म� तो राज्य क� ओर से यह मुआवजा
वसल
ू करने के �लए �नयत हूं। इसके �सवा इन गर�ब� क� कमाई म� मेरा
और कोई भाग नह�ं। बेचारे द�न ह� , मख
ू ् ह
र , बेजबान ह� , इस समय हम इन्ह�
चाहे िजतना सता ल�। इन्ह� अपने स्वत्व का �ान नह�ं। म� अपने महत्व
नह�ं समझता पर एक समय ऐसा अवश्य आयेग , जब इनके मँह
ु म� भी
जबान होगी, इन्ह� भी अपने अ�धकार� का �ान होगा। तब हमार� दशा बुर�
होगी। ये भोग-�वलास मझ
ु े अपने आद�मय� से दरू �कये दे ते ह�। मेर� भलाई
इसी म� है �क इन्ह�ं म� रहू , इन्ह�ं क� भॉँ�त जीव-�नवार्ह और इनक�
सहायता करुँ। कोई छोट-माट� रकम होती , तो कहता लाओ , िजस �सर पर
बहुत भार है ; उसी तरह यह भी सह�। मल
ू के अलावा कई हजार रुपये सूद
के अलग हुए। �फर महाजन� के भी तीन लाख रुपये ह�। �रयासत क�
आमदनी डेढ़-दो लाख रुपये सालाना ह , अ�धक नह�ं। म� इतना बड़ा साहस
करुँ भ , तो �कस �बरते पर ? हॉ ँ, य�द बैरागी हो जाऊँ तो सम्भव ह , मेरे
जीवन म� --य�द कह�ं अचानक मतृ ्यु न हो जाय तो यह झगड़ा पाक हो जाय।
इस अिग्न म� कूदना अपने सम्पूणर् ज , अपनी उमंग� और अपनी
आशाओं को भस्म करना है। आह ! इन �दन� क� प्रती�ाम� म�ने क-क्या

50
कष्ट नह�ं भोगे। �पता जी ने इस �चंता म� प्-त्याग �कया। यह शुभ मुहूतर
हमार� अँधेर� रात के �लए दरू का द�पक था। हम इसी के आसरे जी�वत थे।
सोते-जागते सदै व इसी क� चचार् रहती थी। इससे �चत्त को �कतना संतो
और �कतना अ�भमान था। भख
ू े रहने के �दन भी हमारे तेवर मैले ने होते
थे। जब इतने धैय् और संतोष के बाद
र अच्छे �दन आये तो उससे कैस
�वमख
ु हुआ जाय। �फर अपनी ह� �चंता तो नह�ं , �रयासत क� उन्न�त क�
�कतनी ह� स्क�म� सोच चुका हूँ। क्या अपनी इच्छाओं के साथ उन �वचा
को भी त्याग दूँ। इस अभागी रानी ने मुझे बुर� तरह फँसाय, जब तक जीती
रह�, कभी चैन से न बैठने �दया। मर� तो मेरे �सर पर यह बला डाल द�।
परन्तु म� द�रद्रता से इतना डरता क्य�? कोई पाप नह�ं है । य�द मेरा त्याग
हजारो घरान� को कष्ट और दुरावस्था से बचाये तो मुझे उससे मुँह
मोड़ना चा�हए। केवल सख
ु से जीवन व्यतीत करना ह� हमारा ध्येय नह�ं है
हमार� मान-प्र�तष्ठा और क��तर्-भोग ह� से तो नह�ं हुआ करती।
राजमं�दर� म� रहने वाल� और �वलास म� रत राणाप्रताप को कौन जानता ?
यह उनका आत्म-समपर्ण और क�ठन व्रतपालन ह� , �लसने उन्ह� हमार�
जा�त का सय
ू ् बना �दया है।
र श्रीरामचंद्र ने य�द अपना जीव-भोग म�
�बताया होता तो, आज हम उनका नाम भी न जानते। उनके आत्म ब�लदान
ने ह� उन्ह� अमर बना �दया। हमार� प्र�तष्ठा धन और �वलास
अवलिम्बत नह�ं है। म� मोटर पर सवार हुआ तो क् , और टट्टू पर चढ़ा त
क्य, होटल म� ठहरा तो क्या और �कसी मामूल� घर ठहरा तो क्या। बहु
होगा, ताल्लुकदार लोग मेर� हँसी उड़ाव�गे। इसक� परवा नह�ं। म� तो हृदय स
चाहता हूँ �क उन लोग� से अलग-अलग रहूँ। य�द इतनी �नंदा से सैकड़�
प�रवार का भला हो जाय , तो म� मनषु ्य नह� , य�द प्रसन्नता से उसे स
न करुँ। य�द अपने घोड़े और �फट , सैर और �शकार , नौकर , चाकर और
स्वाथ-साधक �हत-�मत्र� से र�हत होकर म� सहस्र� -गर�ब कुटुम्ब� क ,
�वधवाओं, अनाथ� का भला कर सकँू , तो मझ
ु े इसम� कदा�प �वलम्ब न
करना चा�हए। सहस्र� प�रवार� के भाग्य इस समय मेर� मुट्टी म� ह�।
सख
ु भोग उनके �लए �वष और मेरा आत्-संयम उनके �लए अमत
ृ है । म�
अमत ृ बन सकता हूँ , �वष क्य� बनूँ। और �फर इसे आत्म त्याग समझ
मेर� भल
ू है । यह एक संयोग है �क म� आज इस जायदाद का अ�धकार� हूँ ,
म�ने उसे कमाया नह�ं। उसके �लए रक्त नह�ं बहाया। न पसीना बहाया। य�द

51
जायदाद मझ
ु े न �मल� होती तो म� सहस्र� द�न भाइय� क� भॉँ�त आ
जी�वकोपाजर्न म� लगा रहता। म� क्य� न भूल जाऊँ �कम� इस राज्य
स्वामी हूँ। ऐसे ह� अवसर� पर मनुष्य क� परख होती है। म�ने वष
पस
ु ्तकावलोकन �कय , वष� परोपकार के �सद्धान्त� का अनुनायी रहा। य
इस समय उन �सद्धांतो को भूल जा , स्वाथर् को मनुष्यता और सदाचार
बढ़ने दं ू तो, वस्तु: यह मेर� अत्यन्त कायरता और स्वाथर्परता होगी।
स्वाथर्साधन क� �श�ा के �लए गी , �मल एमसर्न और अरस्तू का �शष
बनने क� क्या आवश्यकता ? यह पाठ तो मझ
ु े अपने दस
ू रे भाइय� से य�
ह� �मल जाता। प्रच�लत प्रथा से बढ़ कर और कौन गु ? साधारण लोग�
ँ क्या म� भी स्वाथर् के सामने �सर झुका दूँ। तो �फर �वशेषता क
क� भॉ�त
रह�? नह�ं , म� नानशंस (�ववेक-ब�ु द) का ख्रून न करुँगा। जहां पुण्य
सकता हूँ , पाप न करूँगा। परमात्म , तम
ु मेर� सहायता करो तम
ु ने मझ
ु े
राजपत
ू -घर म� जन्म �दया है। मेरे कमर् से इस महान् जा�त को लिज्जत
करो। नह�ं , कदा�प नह�ं। यह गदर ्न स्वाथर् के सम्मुख न झुकेगी। म� ,
भीष्म और प्रताप का वंशज हूँ। श-सेवक न बनँग
ू ा।
कँु वर जगद�श �संह को इस समय ऐसा �ात हुआ , मानो वह �कसी
ऊँचे मीनार पर चड़ गये ह�। �चत्त अ�भमान से पू�रत हो गया। ऑंखे
प्रकाशमान हो गयीं। परन्तु एक ह� �ण म� इस उमंग का उतार होने ,
ऊँचे मानार के नीचे क� ओर ऑ ंखे गयीं। सारा शर�र कॉपँ उठा। उस मनषु ्य
क�-सी दशा हो गयी, जो �कसी नद� के तट पर बैठा उसम� कूदने का �वचार
कर रहा हो।
उन्ह�ने सोच , क्या मेरे घर के लोग मुझसे सहमत ह�ग ? य�द मेरे
कारण वे सहमत भी हो जायँ , तो क्या मुझे अ�धकार ह� �क अपने साथ
उनक� इच्छाओं का भी ब�लदान कर ? और-तो-और, माताजी कभी न मान�गी,
और कदा�चत भाई लोग भी अस्वीकार कर�। �रयासत क� है�सयत को देखते
हुए वे कम हजार सालाना के �हस्सेदार ह�। और उनके भाग म� �कसी प्रक
का हस्त�ेप नह�ं कर सकता। म� केवल अपना मा�लक हू , परन्तु म� भी तो
अकेला नह�ं हूँ। सा�वत्री स्वयं चाहे मेरे साथ आग म� कूदने को तैयार ,
�कंतु पने प्यारे पुत्र को इस ऑच के समीप कदा�प न आने देग
कँु वर महाशय और अ�धक न सोच सके । वह एक �वकल दशा म�
पलंग पर से उठ बैठे और कमरे म� टहलने लगे। थोड़ी दे र बाद उन्ह�ने

52
ँ और �कवाड़ खोलकर बाहर चले गये। चार�
जँ गले के बाहर क� ओर झॉका
ँ सामने अपार और भंयकर गोमी
ओर अँधेरा था। उनक� �चंताओं क� भॉ�त
नद� बह रह� थी। वह धीरे -धीरे नद� के तट पर चले गये और दे र तक वहॉ ँ
टहलते रहे । आकुल हृदय को ज-तरं ग� से प्रेम होता है। शायद इस�लए �
लहर� व्याकुल ह�। उन्ह�ने उपने चंचल को �फर एकाग्र �कया। य�द �रय
क� आमदनी से ये सब विृ त्तयॉँ द� जायँग , तो ऋण का सद
ू �नकलना भी
क�ठन होगा। मल
ू का तो कहना ह� क्या ! क्या आय म� वृ�द्ध नह�ं
सकती? अभी अस्तबल म� बीस घोड़े ह�। मेरे �लए एक काफ� ह�। नौकर� क�
संख्या सौ से कम न होगी। मेरे �लए दो भी अ�धक ह�। यह अनु�चत ह� �क
अपने ह� भाइय� से नीचे सेवाएँ करायी जायँ। उन मनषु ्य� को म� अपने सीर
क� जमीन दे दँ ग
ू ा। सख
ु से खेती कर�गे और मझ
ु े आशीवार्द द�गे। बगीच� के
फल अब तक डा�लय� क� भ� ट हो जाते थे। अब उन्ह� बेचूँग, और सबसे बड़ी
आमदनी तो बयाई क� है । केवल महे शगंज के बाजार के दस हजार रुपये
आते है । यह सब आमदनी महं त जी उड़ा जाते ह�। उनके �लए एक हजार
रुपये साल होना चा�हए। अबक� इस बाजार का ठेका दूँगा। आठ हजार से
कम न �मल�गे। इन भद� से पचीस हजार रुपये क� वा�षर्क आय होगी
सा�वत्री और लल्(लड़के) के �लए एक हजार रुपये काफ� ह�। म� सा�वत्री
स्पष्ट कह दूँगा �क या तो एक हजार रुपये मा�सक लो और मेरे साथ र
या �रयासत क� आधी आमदनी ले लो , ओर मझ
ु े छोड़ दो। रानी बनने क�
ु ी से बनो, परं तु म� राजा न बनँग
इच्छा ह, तो खश ू ा।
अचानक कँु वर साहब के कान� म� आवाज आयी--राम नाम सत्य है।
उन्ह�ने पीछे मुड़कर देखा। कई मनुष्य एक लाश �लए आते थे। उन लोग� न
नद� �कनारे �चता बनायी और उसम� आग लगा द�। दो िस्त्रयॉँ �चंग्धार
रो रह� थीं। इस �वलाप का कँु वर साहब के �चत्त पर कुछ प्रभाव न पड़
वह �चत्त म� लिज्जत हो रहे थे �क म� �कतना पा-हृदय हूँ ! एक द�न
मनषु ्य क� लाश जल रह� ह , िस्त्रयाँ रो रह� ह� और मेरा हृदय त�नक
नह�ं पसीजता ! पत्थर क� मू�तर् क� भॉँ�त खड़ा हूँ । एकबारगी स्त्री ने
हुए कहा- ‘हाय मेरे राजा ! तुम्ह� �वष कैसे मीठा लग ? यह हृद-�वदारक
�वलाप सनु ते ह� कँु वर साहब के �चत्त म� एक घा-सा लग गया। करुण
सजग हो गयी और नेत्र अश्रुपूणर् हो गये। कदा�चत इसन-पान करके
प्राण �दये ह�। हा ! उसे �वष कैसे मीठा लगा ! इसम� �कतनी करुणा ह ,

53
�कतना द:ु ख, �कतना आश्चयर ! �वष तो कड़वा पदाथर् है। क्य�कर मीठा ह
गया। कटु, �वष के बदले िजसने अपने मधरु प्राण दे �दये उस पर कोई कड़
ु ीबत पड़ी होगी। ऐसी ह� दशा म� �वष मधरु हो सकता है । कँु वर साहब
मस
तड़प गये। कारु�णक शब्द ब-बार उनके हृदय म� गूंजते थे। अब उनसे वहॉँ
न खड़ा रहा गया। वह उन आद�मय� के पास आये , एक मनषु ्य से पूछ--
क्या बहुत �दन� से बीमार थ ? इस मनषु ्य ने कुँवर साहब क� और आँस-भरे
नेत्र� से देखकर क--नह�ं साहब , कहॉ ँ क� बीमार� ! अभी आज संध्या तक
भल�-भां�त बात� कर रहे थे। मालम
ू नह�ं , संध्या को क्या खा �लया क� खू
क� कै होने लगी। जब तक वैद्-राज के यहॉ ँ जायॅ , तब तक ऑ ंखे उलट
गयीं। नाड़ी छूट गयी। वैद्यराज ने आकर देख , तो कहा--अब क्या हो
सकता ह�. ? अभी कुल बाईस-तेईस वषर् क� अवस्था थी। ऐसा पट्ठा स
लखनऊ म� नह�ं था।
कँु वर--कुछ मालम
ू हुआ, �वष क्य� खाय?
उस मनषु ्य ने संदे-दृिष्ट से देखकर क--महाशय, और तो कोई
बात नह�ं हुई । जब से यह बड़ा ब�क टूटा है , बहुत उदास रहते थे। कोई
हजार रुपये ब�क म� जमा �कये थे। घ-दधू -मलाई क� बड़ी दक
ू ान थी।
�बरादर� म� मान था। वह सार� पँज
ू ी डूब गयी। हम लोग राकते रहे �क ब�क
म� रुपये मत जमा करो; �कन्तु होनहार यह थी। �कसी क� नह�ं सुनी। आज
सबेरे स्त्री से गहने मॉँगते थे �क �गरवी रखकर अह�र� के दूध के दाम दे द
उससे बात�-बात� म� झगड़ा हो गया। बस न जाने क्या खा �लया।
कँु वर साहब हृदय कांप उठा। तुरन्त ध्यान --�शवदास तो नह�ं है ।
पछ
ू ा इनका नाम �शवदास तो नह�ं था। उस मनषु ्य ने �वस्मय से देख क
कहा-- हॉ,ँ यह� नाम था। क्या आपसे जा-पहचान थी?
कँु वर--हॉ ँ
, हम और यह बहुत �दन� तक बरहल म� साथ-साथ खेले थे।
आज शाम को वह हमसे ब�क म� �मले थे। य�द उन्ह�ने मुझसे त�नक भी
चचार् क� होत, तो म� यथाशिक्त उनक� सहायता करता। शो?
उस मनषु ्य ने तब ध्यानपूवर्क कुँवर साहब को द , और जाकर
िस्त्रय� से --चप
ु हो जाओ , बरहल के महाराज आये है । इतना सन
ु ते ह�
�शवदास क� माता जोर-जोर से �सर पटकती और रोती हुई आकर कँु वर
साहब के पैर� पर �गर पड़ी। उसके मख
ु से केवल ये शब्द �नकल-- ‘बेटा,
बचपन से िजसे तुम भैया कहा करते थे--और गला रुँध गया

54
कँु वर महाशय क� ऑ ंख� से भी अश्रुपात हो रहा था। �शवदास क� मू�त
उनके सामने खड़ी यह कहती दे ख पड़ती थी �क तुमने �मत्र होकर मे रे प्
�लए।

भोर हो गया ; परन्तु कुँवर साहब को नींद न आयी। जब से वह तीर
से लौटे थे , उनके �चत्त पर एक वैराग-सा छाया हुआ था। वह कारु�णक
दृश्य उपने स्वाथर् के तक� को -�भन्न �कये देता था। सा�वत्री
�वरोध, लल्ला के �नराश-यक
ु ्त हठ और माता के कुशब्द� का अब उन्
लेशमात्र भी भय न था। सा�वत्री कुढ़ेगी , लल्ला को भी संग्राम के �ेत्
कूदना पड़ेगा, कोई �चंता नह�ं ! माता प्राण देने पर तत्पर ह , क्या हजर
है । म� अपनर स्त-पत
ु ्र तथा �-�मत्रा�द के �लए सहस्र� प�रवारो क� हत्
करुँगा। हाय ! �शवदास को जी�वत रखने के �लए म� ऐसी �कतनी �रयासत�
छोड़ सकता हूँ। सा�वत्री को भूख� रहना प , लल्ला को मजदूर� करनी पड़ ,
मझ
ु े द्वा-द्वार भीख मॉँगनी पड़े तब भी दूसर� का गला न दबाऊँगा। अब
�वलम्ब का अवसर नह�ं। न जाने आगे यह �दवाला और क्-क्या
आपित्तयॉँ खड़ी करे। मुझे इतना आग-पीछा क्य� हा रहा ह ? यह केवल
आत्-�नबर्लता ह� वरना यह कोई ऐसा बड़ा काम नह�, जो �कसी ने न �कया
हो। आये �दन लोग रुपये दा-पण्य करते है। मुझे
ु अपने कतर्व्य का �
है । उससे क्य� मुँह मोडूँ। जो कुछ ह, जो चाहे �सर पड़े, इसक� क्या �चन्ता
कँु वर ने घंट� बजायी। एक �ण म� अरदल� ऑ ंखे मलता हुआ आया।
कँु वर साहब बोले--अभी जेकब बा�रस्टर के पास जाकर मेरा सलाम
दो। जाग गये ह�गे। कहना , जरुर� काम है। नह� , यह पत्र लेते जाओ। मोट
तैयार करा लो।

�मस्टर जेकब ने कुँवर साहब को बहुत समझाया �क आप इस दलदल
म� न फँस� , नह�ं तो �नकलना क�ठन होगा। मालम
ू नह�ं , अभी �कतनी ऐसी
रकम� ह� िजनका आपको पता नह�ं है , परन्तु �चत्तम� दृढ़ हो जानेवा
�नश्चय चूने का फशर् , िजसको आप�त के थपेड़े और भी पषु ्ट कर देते ह ,
कँु वर साहब अपने �नश्चय पर दृढ़ रहे। दूसरे �दन समाच-पत्र�म� छपव
�दया �क मत
ृ महारानी पर िजतना कजर् ह� वह सकारते ह� और �नयत समय
के भीतर चक
ु ा दे गे।

55
इस �व�ापन के छपते ह� लखनऊ म� खलबल� पड़ गयी। ब�ु द्धमान
क� सम्म�त म� यह कुँवर महाशय क� �नतांत भूल थ , और जो लोग कानन

से अन�भ� थे , उन्ह�ने सोचा �क इसम� अवश्य कोई भेद है। ऐसे बहुत क
मनषु ्य थ , िजन्ह� कुँवर साहब क� नीयत क� सचाई पर �वश्वास आया ह
परन्तु कुँवर साहब का बखान चाहे न हुआ ह , आशीवार्द क� कमी न थी।
ब�क के हजार� गर�ब लेनदार सच्चे हृदय से उन्हे आशीवार्द दे रहे
एक सप्ताह तक कुँवर साहब को �सर उठाने का अवकाश न �मला।
�मस्टर जेकब का �वचार सत्य �सद्ध हुआ। देना प्र�त�दन बढ़ता जात
�कतने ह� प्रोनोट ऐसे �म , िजनका उन्ह� कुछ भी पता न था। जौह�रय�
और अन्य बड़-बड़े दक
ू ानदार� का लेना भी कम न था। अन्दाजन तेर-
चौदह लाख का था। मीजान बीस लाख तक पहुँचा। कँु वर साहब घबराये।
शंका हुई--ऐसा न हो �क उन्ह� भाइय� का गुजारा भी बन्द करना प ,
िजसका उन्ह� कोई अ�धकर नह�ं था। यहॉँ तक �क सातव� �दन उन्ह�ने क
साहूकार� को बरु ा-भला कहकर सामने से दरू �कया। जहॉ ँ ब्याज का दर
अ�धक थी , उस कम कराया और िजन रकम� क� मीयाद� बीत चक ु � थी ,
उनसे इनकार कर �दया।
उन्ह� साहूकार� क� कठोराता पर क्रोध आता था। उनके �वचार
महाजन� को डूबते धन का एक भाग पा कर ह� सन्तोष कर लेना चा�हए
था। इतनी खींचतान करने पर भी कुल उन्नीस लाख से कम न हुआ।
कँु वर साहब इन काम� से अवकाश पाकर एक �दन नेशनल ब�क क�
ओर जा �नकले। ब�क खल
ु ा था। मत
ृ क शर�र म� प्राण आ गये थे। लेनदार
क� भीड़ लगी हुई थी। लोग प्रसन्न�चत्त लौटे जा रहे थे। कुँवर साहब
दे खते ह� सैकड़ो मनषु ्य बड़े प्रेम से उनक� ओर दौड़े। �कसी ने र , �कसी
ने पैर� पर �गर कर और �कसी ने सभ्यतापूवर्क अपनी कृत�ता प्रकट
वह ब�क के कायर्कतार्ओं से भी �मले। लोग� ने क--इस �व�ापन ने ब�क को
जी�वत कर �दया। बंगाल� बाबू ने लाला सा�दास क� आलोचना क�--वह
समझता था संसार म� सब मनषु ्य भलामानस है। हमको उपदेश करता था।
अब उसक� ऑ ंख खुल गई है । अकेला घर म� बैठा रहता है ! �कसी को मँह

ु ता है , वह यहॉ ँ से भाग जाना चाहता था। परन्तु बड़ा
नह�ं �दखाता हम सन
साहब बोला, भागेगा तो तम्हारा ऊपर वारंट जार� कर देगा।
ु अब सा�दास क�
जगह बंगाल� बाबू म�नेजर हो गये थे।

56
इसके बाद कँु वर साहब बरहल आये। भाइय� ने यह वतृ ्तांत सुन , तो
�बगड़े, अदालत क� धमक� द�। माताजी को ऐसा धक्का पहुँचा �क वह उसी
�दन बीमार होकर एक ह� सप्ताह म� इस संसार से �वदा हो गयीं। सा�वत्
को भी चोट लगी ; पर उसने केवल सन्तोष ह� नह�ं �कय , प�त क� उदारता
और त्याग क� प्रंशसा भी ! रह गये लाल साहब। उन्ह�ने जब देखा �क
अस्तवल से घोड़े �नकले जाते ह , हाथी मकनपरु के मेले म� �बकने के �लए
भेज �दये गये ह� और कहार �वदा �कये जा रहे ह� , तो व्याकुल हो �पता से
ू ी, यह सब नौकर, घोड़े, हाथी कहॉ ँ जा रहे ह�?
बोले--बाबज
कँु वर--एक राजा साहब के उत्सव म�
लालजी--कौन से राजा?
कँु वर—उनका नाम राजा द�न�संह है ।
लालजी—कहॉ ँ रहते ह�?
कँु वर—द�रद्रपु
लालजी—तो हम भी जाय�गे।
कँु वर—तुम्ह� भी ले चल�ग ; परं तु इस बारात म� पैदल चलने वाल� का
सम्मान सवार� से अ�धक होगा
लालजी—तो हम भी पैदल चल�गे।
कँु वर--वहॉ ँ प�रश्रमी मनुष्य क� प्रशंसा होत
लालजी—तो हम सबसे ज्यादा प�रश्रमकर�ग

कँु वर साहब के दोन� भाई पॉच-पॉच हजार रुपये गुजारा लेकर अलग
हो गये। कँु वर साहब अपने और प�रवार के �लए क�ठनाई से एक हजार
सालाना का प्रबन्ध कर , पर यह आमदनी एक रईस के �लए �कसी तरह
पयार्प्त नह�ं थी। अ�त-अभ्यागत प्र�त�दन �टके ह� रहते थे। उन सब
भी सत्कार करना पड़ता था। बड़ी क�ठनाई से �नवार्ह होता था। इधर ए
वषर् से �शवदास के कुटुम्ब का भार भी �सर पर प , परन्तु कुँवार साहब
कभी अपने �नश्चय पर शोक नह�ं करते। उन्ह� कभी �कसी ने �चं�तत नह�
दे खा। उनका मख
ु -मंडल धैय् और स
र च्चे अ�भयान से सदैव प्रका�शत र
है । सा�हत्-प्रेम पहले से था। अब बागवानी से प्रेम हो गया है। अपने
म� प्र:काल से शाम तक पौद� क� दे ख-रे ख �कया करते ह� और लाल साहब
तो पक्के कृषक होते �दखाई देते है। अभी न-दास वषर् से अ�धक अवस्थ

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नह�ं है , ले�कन अँधेरे मँह
ु खेत पहुँच जाते ह�। खाने-पीने क� भी सध
ु नह�ं
रहती।
उनका घोड़ा मौजूद ह� ; परन्तु मह�न� उस पर नह�ं चढ़ते। उनक� यह
ु दे खकर कँु वर साहब प्रसन्न होते ह� और कहा करते
धन —�रयासत के
भ�वष्य क� ओर से �निश्चत हूँ। लाल साहब कभी इस पाठ को न भूल�गे
घर म� सम्पित्त हो , तो सख
ु -भोग , �शकार , दरु ाचार से �सवा और क्या
सझ
ू ता ! सम्पित्त बेचकर हमने प�रश्रम और संतोष ख , और यह सौदा
बरु ा नह�ं। सा�वत्री इतनी संतोषी नह�ं। वह कुँवर साहब के रोकने पर भ
असा�मयां से छोट�-माट� भ� ट ले �लया करती है और कुल-प्रथा नह�ं तोड़न
चाहती।

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