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प्रेमचं

बेट� वाल� �वधवा : 3


बडे भाई साहब : 26
शां�त : 37
नशा : 54

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बेट�वाल� �वधवा

पं
�डत अयोध्यानाथ का देहान्तहुआ तो सबने क , ईश्वर आदमी क�
ऐसी ह� मौत दे । चार जवान बेटे थे , एक लड़क�। चार� लड़क� के �ववाह

हो चुके थे, केवल लड़क� क्वँर� थी। सम्पित्त भी काफ� छोड़ी थी। एक पक
मकान, दो बगीचे , कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। �वधवा
फूलमती को शोक तो हुआ और कई �दन तक बेहाल पड़ी रह� , ले�कन जवान
बेट� को सामने दे खकर उसे ढाढ़स हुआ। चार� लड़के एक-से-एक सश
ु ील , चार�
बहुऍ ं एक-से-एक बढ़कर आ�ाका�रणी। जब वह रात को लेटती , तो चार�
बार�-बार� से उसके पॉँव दबातीं ; वह स्नान करके उठत , तो उसक� साड़ी
छॉँटती। सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का कामता एक
दफ्तर म �50 र. पर नौकर था , छोटा उमानाथ डाक्टर� पास कर चुका था
और कह�ं औषधालय खोलने क� �फक्र म� , तीसरा दयानाथ बी. ए. म� फेल
हो गया था और प�त्रकाओं म� लेख �लखकरक-न-कुछ कमा लेता था, चौथा
सीतानाथ चार� म� सबसे कु शाग्रबु�द्ध और होनहार था और अबक� सा.
ए. प्रथम श्रेणी म� पास करक. ए. क� तैयार� म� लगा हुआ था। �कसी
लड़के म� वह दुव्यर् , वह छै लापन, वह लट
ु ाऊपन न था , जो माता-�पता को
जलाता और कु ल-मयार्दा को डुबाता है। फूलमती घर क� माल�कन थी। गो�क
कुं िजयॉँ बड़ी बहू के पास रहती थीं – ब�ु ढ़या म� वह अ�धकार-प्रेम न , जो
वद्धजन� को कटु और कलहशील बना
ृ �दया करता ; �कन्तु उसक� इच्छा क
�बना कोई बालक �मठाई तक न मँगा सकता था।
संध्या हो गई थी। पं�डत को मरे आज बारहवाँ �दन था। कल तेरह�ं
ह�। ब्रह्मभोज होगा। �बरादर� के लोग �नमं�त्रत ह�गे। उसी क� तैया�रयॉ
रह� थीं। फूलमती अपनी कोठर� म� बैठ� दे ख रह� थी , पल्लेदार बोरे म � आटा
लाकर रख रहे ह�। घी के �टन आ रह� ह�। शाक-भाजी के टोकरे , शक्कर क�
बो�रयॉँ, दह� के मटके चले आ रह� ह�। महापात्र के �लए दान क� चीज� ला

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ग�-बतर्, कपड़े, पलंग, �बछावन, छाते , जूत,े छ�ड़यॉँ, लालटे न� आ�द ; �कन्तु
फूलमती को कोई चीज नह�ं �दखाई गई। �नयमानस
ु ार ये सब सामान उसके
पास आने चा�हए थे। वह प्रत्येक वस्तु को देखती उसे पसंद , उसक�
मात्रा म� क-बेशी का फैसला करती; तब इन चीज� को भंडारे म� रखा जाता।
क्य� उसे �दखाने और उसक� राय लेने क� जरूरत नह�ं समझी ? अच्छा
वह आटा तीन ह� बोरा क्य� आय? उसने तो पॉँच बोर� के �लए कहा था। घी
भी पॉँच ह� कनस्तर है। उसने तो दस कनस्तर मंगवाए थे। इसी तरह श-
भाजी, शक्क, दह� आ�द म� भी कमी क� गई होगी। �कसने उसके हुक्म म �
हस्त�ेप �कय ? जब उसने एक बात तय कर द� , तब �कसे उसको घटाने-
बढ़ाने का अ�धकार है?
आज चाल�स वष� से घर के प्रत्येक मामले म� फूलमती क� ब
सवर्मान्य थी। उसने सौ कहा तो सौ खचर् �कए, एक कहा तो एक। �कसी
ने मीन-मेख न क�। यहॉँ तक �क पं. अयोध्यानाथ भी उसक� इच्छा क
�वरूद्ध कुछ न करते ; पर आज उसक� ऑ ंख� के सामने प्रत्य� रूप
उसके हुक्म क� उपे�ा क� जा रह� ह! इसे वह क्य�कर स्वीकार कर सक?
कुछ दे र तक तो वह जब्त �कए बैठ� रह ; पर अंत म� न रहा गया।
स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह क्रोध म� भर� हुई आय
कामतानाथ से बोल�-क्या आटा तीन ह� बोरे लाय ? म�ने तो पॉँच बोर� के
�लए कहा था। और घी भी पॉँच ह� �टन मँगवाया! तुम्ह� याद ह , म�ने दस
कनस्तर कहा थ ? �कफायत को म� बुरा नह�ं समझती ; ले�कन िजसने यह
कु ऑ ं खोदा, उसी क� आत्मा पानी को तरस, यह �कतनी लज्जा क� बात ह!
कामतानाथ ने �मा-याचना न क� , अपनी भल
ू भी स्वीकार न क ,
लिज्जत भी नह�ं हुआ। एक �मनट तो �वद्रोह� भाव से खड़ा , �फर बोला-
हम लोग� क� सलाह तीन ह� बोर� क� हुई और तीन बोरे के �लए पॉँच �टन
घी काफ� था। इसी �हसाब से और चीज� भी कम कर द� गई ह�।
फूलमती उग्र होकर बो-�कसक� राय से आटा कम �कया गया ?
‘हम लोग� क� राय से।‘

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‘तो मेर� राय कोई चीज नह�ं है?’
‘है क्य� नह�; ले�कन अपना हा�न-लाभ तो हम समझते ह�?’
फूलमती हक्क-बक्क� होकर उसका मुँह ताकने लगी। इस वाक्य क
आशय उसक� समझ म� न आया। अपना हा�न-लाभ! अपने घर म� हा�न-लाभ
क� िजम्मेदार वह आप है। दूसर� क, चाहे वे उसके पेट के जन्मे पुत्र ह� क
न ह�, उसके काम� म� हस्त�ेप करने का क्या अ�धक ? यह ल�डा तो इस
�ढठाई से जवाब दे रहा है , मानो घर उसी का है , उसी ने मर-मरकर गह
ृ स्थी
जोड़ी है, म� तो गैर हूँ! जरा इसक� हे कड़ी तो दे खो।
उसने तमतमाए हुए मुख से कहा मेरे हा�न-लाभ के िजम्मेदार तुम
नह�ं हो। मुझे अिख्तयार ह , जो उ�चत समझँ ू , वह करूँ। अभी जाकर दो बोरे
आटा और पॉँच �टन घी और लाओ और आगे के �लए खबरदार, जो �कसी ने
मेर� बात काट�।
अपने �वचार म� उसने काफ� तम्बीह कर द� थी। शायद इतनी कठोरता
अनावश्यक थी। उसे अपनी उग्रता पर खेद हुआ। लड़के ह� तो, समझे ह�गे
कुछ �कफायत करनी चा�हए। मुझसे इस�लए न पछ
ू ा होगा �क अम्मा तो
खुद हरे क काम म� �कफायत करती ह�। अगर इन्ह� मालूम होता �क इस काम
म� म� �कफायत पसंद न करूँग, तो कभी इन्ह� मेर� उपे�ा करने का साहस न
होता। यद्य�प कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और उसक� भावभंगी
से ऐसा �ात होता था �क इस आ�ा का पालन करने के �लए वह बहुत
उत्सुक नह�, पर फूलमती �निश्चंत होकर अपनी कोठर� म � चल� गयी। इतनी
तम्बीह पर भी �कसी को अव�ा करने क� सामथ्यर् हो सकती , इसक�
संभावना का ध्यान भी उसे न आया
पर ज्य-ज्य� समय बीतने लग , उस पर यह हक�कत खुलने लगी �क
इस घर म� अब उसक� वह है �सयत नह�ं रह� , जो दस-बारह �दन पहले थी।
सम्बं�धय� के यहँॉ के नेवते म � शक् , �मठाई, दह�, अचार आ�द आ रहे थे।
बड़ी बहू इन वस्तुओं को स्वा�म-भाव से सँभाल-सँभालकर रख रह� थी।
कोई भी उससे पछू ने नह�ं आता। �बरादर� के लोग जो कुछ पछ
ू ते ह� ,

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कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहॉँ का बड़ा इंतजामकार है ,
रात-�दन भंग �पये पड़ा रहता ह� �कसी तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता है।
उसम� भी मह�ने म� पंद्रह नाग� से कम नह�ं होते। वह तो क , साहब
पं�डतजी का �लहाज करता है, नह�ं अब तक कभी का �नकाल दे ता। और बड़ी
बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बात� को क्या समझेग! अपने कपड़े-
लत्ते तक तो जतन से रख नह�ं सकत , चल� है गह
ृ स्थी चलान! भद होगी
और क्या। सब �मलकर कुल क� नाक कटवाऍंगे। वक्त पर क-न-कोई चीज
कम हो जायेगी। इन काम� के �लए बड़ा अनभ
ु व चा�हए। कोई चीज तो
इतनी बन जाएगी �क मार�-मार� �फरे गा। कोई चीज इतनी कम बनेगी �क
�कसी पत्तल पर पहूँचेग, �कसी पर नह�ं। आ�खर इन सब� को हो क्या गया
है ! अच्छ , बहू �तजोर� क्य� खोल रह� ह ? वह मेर� आ�ा के �बना �तजोर�
खोलनेवाल� कौन होती है ? कुं जी उसके पास है अवश् ; ले�कन जब तक म�
रूपये न �नकलवाऊ , �तजोर� नह�ं खल
ु ती। आज तो इस तरह खोल रह� है ,
मानो म� कुछ हूँ ह� नह�ं। यह मुझसे न बदार्श्त हो!
वह झमककर उठ� और बहू के पास जाकर कठोर स्वर म � बोल-
�तजोर� क्य� खोलती हो बह, म�ने तो खोलने को नह�ं कहा?
बड़ी बहू ने �नस्संकोच भाव से उत्तर �द-बाजार से सामान आया है ,
तो दाम न �दया जाएगा।
‘कौन चीज �कस भाव म� आई है और �कतनी आई है , यह मुझे कुछ
नह�ं मालम
ू ! जब तक �हसाब-�कताब न हो जाए, रूपये कैसे �दये जाऍ?’
‘�हसाब-�कताब सब हो गया है ।‘
‘�कसने �कया?’
‘अब म� क्या जानूँ �कसने �कय ? जाकर मरद� से पछ
ू ो! मुझे हुक्म
�मला, रूपये लाकर दे द, रूपये �लये जाती हू!’
फूलमती खून का घट
ँू पीकर रह गई। इस वक्त �बगड़ने का अवसर न
था। घर म� मेहमान स्त-पुरूष भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़क� क
डॉँटा, तो लोग यह� कह� गे �क इनके घर म� पं�डतजी के मरते ह� फूट पड़

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गई। �दल पर पत्थर रखकर �फर अपनी कोठर� म � चल� गयी। जब मेहमान
�वदा हो जाय�गे , तब वह एक-एक क� खबर लेगी। तब दे खेगी , कौन उसके
सामने आता है और क्या कहता है। इनक� सार� चौकड़ी भुला देगी
�कन्तु कोठर� के एकांत म � भी वह �निश्चन्त न बैठ� थी। सा
प�रिस्थ�त को �गद्घ दृिष्ट से देख रह , कहॉँ सत्कार का कौ-सा �नयम
भंग होता है , कहॉँ मयार्दाओं क� उपे�ा क� जाती है। भोज आरम्भ हो गया
सार� �बरादर� एक साथ पंगत म� बैठा द� गई। ऑ ंगन म� मुिश्कल से दो सौ
आदमी बैठ सकते ह�। ये पॉँच सौ आदमी इतनी-सी जगह म� कैसे बैठ
जाय�ग?े क्या आदमी के ऊपर आदमी �बठाए जाय�ग ? दो पंगत� म� लोग
�बठाए जाते तो क्या बुराई हो जात ? यह� तो होता है �क बारह बजे क�
जगह भोज दो बजे समाप्त होत ; मगर यहॉँ तो सबको सोने क� जल्द� पड़ी
हुई है । �कसी तरह यह बला �सर से टले और चैन से सोएं! लोग �कतने
सटकर बैठे हुए ह� �क �कसी को �हलने क� भी जगह नह�ं। पत्तल ए-पर-
एक रखे हुए ह�। प�ू रयां ठं डी हो ग�। लोग गरम-गरम मॉँग रह� ह�। मैदे क�
प�ू रयाँ ठं डी होकर �चमड़ी हो जाती ह�। इन्ह� कौन खाएग ? रसोइए को कढ़ाव
पर से न जाने क्य� उठा �दया गय? यह� सब बात� नाक काटने क� ह�।
सहसा शोर मचा , तरका�रय� म� नमक नह�ं। बड़ी बहू जल्द-जल्द�
नमक पीसने लगी। फूलमती क्रोध के मारे ओ चबा रह� , पर इस अवसर
पर मुँह न खोल सकती थी। बोरे -भर नमक �पसा और पत्तल� पर डाला
गया। इतने म� �फर शोर मचा-पानी गरम है , ठं डा पानी लाओ! ठं डे पानी का
कोई प्रबन्ध न , बफर् भी न मँगाई गई। आदमी बाजार दौड़ाया गय , मगर
बाजार म� इतनी रात गए बफर् कह ?ॉ आदमी खाल� हाथ लौट आया। मेहमान�
को वह� नल का गरम पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता , तो लड़क�
का मुँह नोच लेती। ऐसी छ�छालेदर उसके घर म� कभी न हुई थी। उस पर
सब मा�लक बनने के �लए मरते ह�। बफर् जैसी जरूर� चीज मँगवाने क� भ
�कसी को स�ु ध न थी! स�ु ध कहॉँ से रहे -जब �कसी को गप लड़ाने से फु सर्त

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न �मले। मेहमान अपने �दल म� क्या कह�गे �क चले ह� �बरादर� को भोज
दे ने और घर म� बफर् तक नह�!
अच्छ , �फर यह हलचल क्य� मच ग ? अरे , लोग पंगत से उठे जा रहे
ह�। क्या मामला ह?
फूलमती उदासीन न रह सक�। कोठर� से �नकलकर बरामदे म� आयी
और कामतानाथ से पछ
ू ा-क्या बात हो गई लल् ? लोग उठे क्य� जा रहे ह ?
कामता ने कोई जवाब न �दया। वहॉँ से �खसक गया। फूलमती झुँझलाकर
रह गई। सहसा कहा�रन �मल गई। फूलमती ने उससे भी यह प्रश्न �कय
मालम
ू हुआ , �कसी के शोरबे म� मर� हुई च�ु हया �नकल आई। फूलमती
�चत्र�ल�-सी वह�ं खड़ी रह गई। भीतर ऐसा उबाल उठा �क द�वार से �सर
टकरा ले! अभागे भोज का प्रबन्ध करने चले थे। इस फूहड़पन क� कोई
है , �कतने आद�मय� का धमर् सत्यानाश हो ग! �फर पंगत क्य� न उठ
जाए? ऑ ंख� से दे खकर अपना धमर् कौन गॅवाएग ? हा! सारा �कया-धरा �मट्ट
म� �मल गया। सैकड़� रूपये पर पानी �फर गय! बदनामी हुई वह अलग।
मेहमान उठ चुके थे। पत्तल� पर खाना ज्-का-त्य� पड़ा हुआ था।
चार� लड़के ऑ ंगन म� लिज्जत खड़े थे। एक दूसरे को इलजाम दे रहा था।
बड़ी बहू अपनी दे वरा�नय� पर �बगड़ रह� थी। दे वरा�नयॉँ सारा दोष कुमुद के
�सर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रह� थी। उसी वक्त फूलमती झल्लाईहु
आकर बोल�-मुँह म� का�लख लगी �क नह�ं या अभी कुछ कसर बाक� ह� ? डूब
मरो, सब-के-सब जाकर �चल्ल-भर पानी म�! शहर म� कह�ं मुँह �दखाने लायक
भी नह�ं रहे ।
�कसी लड़के ने जवाब न �दया।
फूलमती और भी प्रचंड होकर बो-तुम लोग� को क्य ? �कसी को
शमर-हया तो है नह�ं। आत्मा तो उनक� रो रह� ह , िजन्ह�ने अपनी िजन्दग
घर क� मरजाद बनाने म� खराब कर द�। उनक� प�वत्र आत्मा को तुमने
कलं�कत �कया ? शहर म� थुड़ी-थुड़ी हो रह� है । अब कोई तुम्हारे द्वार प
पेशाब करने तो आएगा नह�ं!

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कामतानाथ कुछ दे र तक तो चुपचाप खड़ा सन
ु ता रहा। आ�खर झुंझला

कर बोला-अच्छ , अब चुप रहो अम्मँ। भूल हु , हम सब मानते ह� , बड़ी
भंयकर भलू हुई , ले�कन अब क्या उसके �लए घर के प्रा�णय� को ह-कर
डालोगी? सभी से भल ू � होती ह�। आदमी पछताकर रह जाता है । �कसी क�
जान तो नह�ं मार� जाती?
बड़ी बहू ने अपनी सफाई द�-हम क्या जानते थे �क बीबी(कुमुद) से
इतना-सा काम भी न होगा। इन्ह� चा�हए था �क देखकर तरकार� कढ़ाव म �
डालतीं। टोकर� उठाकर कढ़ाव मे डाल द�! हमारा क्या दो!

कामतानाथ ने पत्नी को डँट-इसम� न कुमुद का कसरू है , न तुम्हार ,
न मेरा। संयोग क� बात है । बदनामी भाग म� �लखी थी , वह हुई। इतने बड़े
भोज म� एक-एक मुट्ठी तरकार� कढ़ाव म� नह�ं डाल� जा! टोकरे -के-टोकरे
उड़ेल �दए जाते ह�। कभी-कभी ऐसी दुघर्टना होती है। पर इसम � कैसी ज-
हँ साई और कैसी नक-कटाई। तुम खामखाह जले पर नमक �छड़कती हो!
फूलमती ने दांत पीसकर कहा-शरमाते तो नह�ं , उलटे और बेहयाई क�
बात� करते हो।
कामतानाथ ने �न:संकोच होकर कहा-शरमाऊँ क्य , �कसी क� चोर� क�
ह�? चीनी म� चींटे और आटे म� घन
ु , यह नह�ं दे खे जाते। पहले हमार� �नगाह
न पड़ी, बस, यह�ं बात �बगड़ गई। नह�ं, चुपके से च�ु हया �नकालकर फ�क दे ते।
�कसी को खबर भी न होती।
फूलमती ने च�कत होकर कहा-क्या कहता ह , मर� च�ु हया �खलाकर
सबका धमर् �बगाड़ देत?
कामता हँ सकर बोला-क्या पुराने जमाने क� बात� करती हो अम्मॉँ। इ
बात� से धमर् नह�ं जात ? यह धमार्त्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गए ,
इनम� से कौन है , जो भेड़-बकर� का मांस न खाता हो ? तालाब के कछु ए और
घ�घे तक तो �कसी से बचते नह�ं। जरा-सी च�ु हया म� क्या रखा थ!

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फूलमती को ऐसा प्रतीतहुआ �क अब प्रलय आने म� बहुत देर न
है । जब पढे -�लखे आद�मय� के मन मे ऐसे अधा�मर्क भाव आने लग , तो
�फर धमर् क� भगवान ह� र�ा कर�। अपन-सा मुंह लेकर चल� गयी।

दो मह�ने गज
ु र गए ह�। रात का समय है । चार� भाई �दन के काम से
छु ट्टी पाकर कमरे म� बैठे -शप कर रहे ह�। बड़ी बहू भी षड्यंत्र
शर�क है । कुमुद के �ववाह का प्रश्न �छड़ा हुआ
कामतानाथ ने मसनद पर टे क लगाते हुए कहा-दादा क� बात दादा के
साथ गई। पं�डत �वद्वा न् भी ह� और कुल�न भी ह�गे। ले�कन जो आदमी
अपनी �वद्या और कुल�नता को रूपय� पर बे , वह नीच है । ऐसे नीच
आदमी के लड़के से हम कुमुद का �ववाह स�त म� भी न कर�गे, पॉँच हजार तो
दरू क� बात है । उसे बताओ धता और �कसी दस
ू रे वर क� तलाश करो।

हमारे पास कु ल बीस हजार ह� तो ह�। एक-एक के �हस्से म � पँ-पॉँच हजार
आते ह�। पॉँच हजार दहे ज म� दे द� , और पॉँच हजार नेग-न्योछाव, बाजे-गाजे
म� उड़ा द�, तो �फर हमार� ब�धया ह� बैठ जाएगी।
उमानाथ बोले-मुझे अपना औषधालय खोलने के �लए कम-से-कम पाँच
हजार क� जरूरत है। म� अपने �हस्से म� से एक पाई भी नह�ं दे सकता। �फ
खुलते ह� आमदनी तो होगी नह�ं। कम-से-कम साल-भर घर से खाना पड़ेगा।
दयानाथ एक समाचार-पत्र देख रहे थे। ऑंख� से ऐनक उतारतेहु
बोले-मेरा �वचार भी एक पत्र �नकालने का है। प्रेस और पत्र-से-कम
दस हजार का कै�पटल चा�हए। पॉँच हजार मेरे रह�गे तो कोई-न-कोई
साझेदार भी �मल जाएगा। पत्र� म� लेख �लखकर मेरा �नवार्ह नह�ं हो सक
कामतानाथ ने �सर �हलाते हुए कहा —अजी, राम भजो , स�त म� कोई
लेख छपता नह�ं, रूपये कौन देता है
दयानाथ ने प्र�तवाद �क —नह�ं, यह बात तो नह�ं है । म� तो कह�ं भी
�बना पेशगी पुरस्कार �लये नह�ं �लखता

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कामता ने जैसे अपने शब्द वापस �लय —तुम्हार� बात म� नह�ं कहता
भाई। तुम तो थोड़ा-बहुत मार लेते हो, ले�कन सबको तो नह�ं �मलता।
बड़ी बहू ने श्रद्घा भाव ने —कन्या भग्यवान् हो तो द�रद्र घर
भी सख
ु ी रह सकती है । अभागी हो , तो राजा के घर म� भी रोएगी। यह सब
नसीब� का खेल है ।
कामतानाथ ने स्त्री क� ओर प्-भाव से दे खा-�फर इसी साल हम�
सीता का �ववाह भी तो करना है ।
सीतानाथ सबसे छोटा था। �सर झुकाए भाइय� क� स्वा-थ भर� बात�
सन
ु -सन
ु कर कुछ कहने के �लए उतावला हो रहा था। अपना नाम सन
ु ते ह�
बोला—मेरे �ववाह क� आप लोग �चन्ता न कर�। म� जब तक �कसी धंधे म �
न लग जाऊँगा , �ववाह का नाम भी न लँ ग
ू ा ; और सच प�ू छए तो म� �ववाह
करना ह� नह�ं चाहता। दे श को इस समय बालक� क� जरूरत नह� , काम
करने वाल� क� जरूरत है। मेरे �हस्से के रूपये आप कुमुद के �ववाह म� ख
कर द�। सार� बात� तय हो जाने के बाद यह उ�चत नह�ं है �क पं�डत
मुरार�लाल से सम्बंध तोड़ �लया जाए
उमा ने तीव्र स्वर म� —दस हजार कहॉँ से आऍगें ?
सीता ने डरते हुए कहा —म� तो अपने �हस्से के रूपये देने को कहत
हूँ।
‘और शेष?’
‘मुरार�लाल से कहा जाए �क दहे ज म� कुछ कमी कर द�। वे इतने
स्वाथार्न्ध नह�ं ह� �क इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न हो ज ,

अगर वह तीन हजार म� संतुष्ट हो जाएं तो पँच हजार म � �ववाह हो सकता
है ।
उमा ने कामतानाथ से कहा —सन
ु ते ह� भाई साहब, इसक� बात�।
दयानाथ बोल उठे -तो इसम� आप लोग� का क्या नुकसान ह ? मुझे तो
इस बात से खुशी हो रह� है �क भला , हममे कोई तो त्याग करने योग्य है
इन्ह� तत्काल रूपये क� जरूरत नह�ं है। सरकार से वजीफा पाते ह� ह�।

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होने पर कह�ं-न-कह�ं जगह �मल जाएगी। हम लोग� क� हालत तो ऐसी नह�ं
है ।
कामतानाथ ने दरद�
ू शर्ता का प�रचय �दय —नुकसान क� एक ह� कह�।
हमम� से एक को कष्ट हो तो क्या और लोग बैठे देख� ? यह अभी लड़के ह� ,
इन्ह� क्या माल , समय पर एक रूपया एक लाख का काम करता है। कौन
जानता है , कल इन्ह� �वलायत जाकर पढ़ने के �लए सरकार� वजीफा �मल
जाए या �स�वल स�वर्स म � आ जाऍं। उस वक्त सफर क� तैया�रय� म� च-
पॉँच हजार लग जाएँगे। तब �कसके सामने हाथ फैलाते �फर�गे ? म� यह नह�ं
चाहता �क दहे ज के पीछे इनक� िजन्दगी नष्ट हो जा
इस तकर् ने सीतानाथ को भी तोड़ �लया। सकुचाता हुआ बोल —हॉँ,
य�द ऐसा हुआ तो बेशक मुझे रूपये क� जरूरत होग
‘क्या ऐसा होना असंभव ह?’
‘असभंव तो म� नह�ं समझता ; ले�कन क�ठन अवश्य है। वजीफे उन्ह
�मलते ह�, िजनके पास �सफा�रश� होती ह�, मुझे कौन पछ
ू ता है ।‘
‘कभी-कभी �सफा�रश� धर� रह जाती ह� और �बना �सफा�रश वाले बाजी
मार ले जाते ह�।’
‘तो आप जैसा उ�चत समझ�। मुझे यहॉँ तक मंजूर है �क चाहे म�
�वलायत न जाऊँ; पर कुमुद अच्छे घर जाए‘
कामतानाथ ने �नष्ठ —भाव से कहा—अच्छा घर दहेज देने ह� से नह�ं
�मलता भैया! जैसा तुम्हार� भाभी ने कह , यह नसीब� का खेल है । म� तो
चाहता हूँ �क मुरार�लाल को जवाब दे �दया जाए और कोई ऐसा घर खोजा
जाए, जो थोड़े म� राजी हो जाए। इस �ववाह म� म� एक हजार से ज्यादा नह�ं
खचर् कर सकता। पं�डत द�नदयाल कैसे ह?
उमा ने प्रसन्न होकर —बहुत अच्छे। ए.ए. , बी.ए. न सह� ,
यजमान� से अच्छ� आमदनी है
दयानाथ ने आपित्त क ॉ
—अम्मँ से भी पूछ तो लेना चा�हए

12
कामतानाथ को इसक� कोई जरूरत न मालूम हुई। बोल-उनक� तो जैसे ब�ु द्
ह� भ्रष्ट हो गई। वह� पुराने युग क� ब! मुरार�लाल के नाम पर उधार खाए
बैठ� ह�। यह नह�ं समझतीं �क वह जमाना नह�ं रहा। उनको तो बस , कुमुद
मुरार� पं�डत के घर जाए, चाहे हम लोग तबाह हो जाऍ।ं
उमा ने एक शंका उपिस्थत क ॉ
—अम्मँ अपने सब गहने कुमुद को दे
द�गी, दे ख ल�िजएगा।
कामतानाथ का स्वाथर् नी�त से �वद्रोह न कर सका। -गहन� पर
उनका परू ा अ�धकार है । यह उनका स्त्रीधन है। िजसे च, दे सकती ह�।
उमा ने कहा —स्त्रीधन है तो क्या वह उसे लुटा द�गी। आ�खर वह
तो दादा ह� क� कमाई है ।
‘�कसी क� कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका पूरा अ�धकार!’
‘यह कानन
ू ी गोरखधंधे ह�। बीस हजार म� तो चार �हस्सेदार ह� और
दस हजार के गहने अम्मँॉ के पास रह जाऍं। देख लेन, इन्ह�ं के बल पर वह
कुमुद का �ववाह मुरार� पं�डत के घर कर�गी।‘
उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नह�ं छोड़ सकता। वह
कपट-नी�त म� कु शल है । कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा।
उस वक्त तक कुमुद के �ववाह क� चचार् करके फूलमती को भड़काना उ�च
नह�ं। कामतानाथ ने �सर �हलाकर कहा —भाई, म� इन चाल� को पसंद नह�ं
करता।
उमानाथ ने �ख�सयाकर कहा—गहने दस हजार से कम के न ह�गे।
कामता अ�वच�लत स्वर म � बोल —�कतने ह� के ह�; म� अनी�त म� हाथ
नह�ं डालना चाहता।
‘तो आप अलग बै�ठए। हां, बीच म� भांजी न मा�रएगा।‘
‘म� अलग रहूंगा।‘
‘और तुम सीता?’
‘अलग रहूंगा।‘

13
ले�कन जब दयानाथ से यह� प्रश्न �कया , तो वह उमानाथ से
सहयोग करने को तैयार हो गया। दस हजार म� ढ़ाई हजार तो उसके ह�गे
ह�। इतनी बड़ी रकम के �लए य�द कुछ कौशल भी करना पड़े तो �म्य है

फू लमती रात को भोजन करके लेट� थी �क उमा और दया उसके पास जा


कर बैठ गए। दोन� ऐसा मुँह बनाए हुए थे , मानो कोई भर� �वपित्त आ
पड़ी है । फूलमती ने सशंक होकर पछ
ू ा —तुम दोन� घबड़ाए हुए मालम ू होते
हो?
उमा ने �सर खुजलाते हुए कहा —समाचार-पत्र� म� लेख �लखना बड़
जो�खम का काम है अम्म! �कतना ह� बचकर �लखो , ले�कन कह�ं-न-कह�ं
पकड़ हो ह� जाती है । दयानाथ ने एक लेख �लखा था। उस पर पॉँच हजार
क� जमानत मॉँगी गई है । अगर कल तक जमा न कर द� गई , तो �गरफ्तार
हो जाऍगें और दस साल क� सजा ठुक जाएगी।
फूलमती ने �सर पीटकर कहा —ऐसी बात� क्य� �लखते हो बेट ? जानते
नह�ं हो , आजकल हमारे अ�दन आए हुए ह�। जमानत �कसी तरह टल नह�ं
सकती?
दयानाथ ने अपराधी —भाव से उत्तर �दय —म�ने तो अम्म , ऐसी कोई
बात नह�ं �लखी थी; ले�कन �कस्मत को क्या करूँ। हा�कम िजला इतना क
है �क जरा भी �रयायत नह�ं करता। म�ने िजतनी द�ड़-धप
ू हो सकती थी , वह
सब कर ल�।
‘तो तुमने कामता से रूपये का प्रबन्ध करने को नह�ं?’
उमा ने मुँह बनाया —उनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम् , उन्ह�
रूपये प्राण� से प्यारे ह�। इन्ह� चाहे कालापानी ह� ह , वह एक पाई न
द�गे।
दयानाथ ने समथर्न �कय —म�ने तो उनसे इसका िजक्र ह� नह�ं �कय

14
फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा —चलो, म� कहती हूँ , दे गा कैसे
नह�ं? रूपये इसी �दन के �लए होते ह� �क गाड़कर रखने के �ल?
उमानाथ ने माता को रोककर कहा-नह�ं अम्म , उनसे कुछ न कहो।
रूपये तो न द�ग , उल्टे और हा-हाय मचाऍगें । उनको अपनी नौकर� क�
खै�रयत मनानी है , इन्ह� घर म � रहने भी न द�गे। अफ़सर� म � जाकर खबर दे
द� तो आश्चयर् नह�
फूलमती ने लाचार होकर कहा —तो �फर जमानत का क्या प्रब
करोगे? मेरे पास तो कुछ नह�ं है । हॉँ , मेरे गहने ह� , इन्ह� ले जा, कह�ं �गर�
रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो �क �कसी पत्र म� एक शब
भी न �लखोगे।
दयानाथ कान� पर हाथ रखकर बोला —यह तो नह�ं हो सकता अम्म ,
�क तुम्हारे जेवर लेकर म� अपनी जान बचाऊँ। द-पॉँच साल क� कैद ह� तो
होगी, झेल लँ ग
ू ा। यह�ं बैठा-बैठा क्या कर रहा हू!
फूलमती छाती पीटते हुए बोल� —कैसी बात� मुँह से �नकालते हो बेटा ,
मेरे जीते-जी तम्ह� कौन �गरफ्तार कर सकता ! उसका मुँह झुलस दं ग
ू ी।
गहने इसी �दन के �लए ह� या और �कसी �दन के �लए! जब तुम्ह�ं न रहोग ,
तो गहने लेकर क्या आग म � झोकूँगी!
उसने �पटार� लाकर उसके सामने रख द�।
दया ने उमा क� ओर जैसे फ�रयाद क� ऑ ंख� से दे खा और बोला —
आपक� क्या राय है भाई साह? इसी मारे म� कहता था, अम्मा को बताने क�
जरूरत नह�ं। जेल ह� तो हो जाती या और कु?
उमा ने जैसे �सफा�रश करते हुए कहा —यह कैसे हो सकता था �क
इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्मा को खबर न होती। मुझसे यह नह�ं
हो सकता था �क सन
ु कर पेट म� डाल लेता; मगर अब करना क्या चा�ह, यह
म� खुद �नणर्य नह�ं कर सकता। न तो यह� अच्छा लगता है �कतुम जे
जाओ और न यह� अच्छा लगता है �क अम्मॉँ के गहने �गर� रखे जाऍ

15
फूलमती ने व्य�थत कंठ से पूछ —क्या तुम समझते ह , मुझे गहने
तुमसे ज्यादा प्यारे ? म� तो प्राण तकतुम्हारे ऊपर न्योछावर कर , गहन�
क� �बसात ह� क्या है
दया ने दृढ़ता से कह —अम्म, तुम्हारे गहने तो न लूँग , चाहे मुझ पर
कुछ ह� क्य� न आ पड़े। जब आज तक तुम्हार�कुछ सेवा न कर स , तो
�कस मुँह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊ ? मुझ जैसे कपत
ू को तो तुम्हार�
कोख से जन्म ह� न लेना चा�हए था। सदा तुम्ह� कष्ट ह� देता र
फूलमती ने भी उतनी ह� दृढ़ता से कह-अगर य� न लोगे , तो म� खुद
जाकर इन्ह� �गर� रख दूँगी और खुद हा�कम िजला के पास जाकर जमानत
जमा कर आऊँगी ; अगर इच्छा हो तो यह पर��ा भी ले लो। ऑंख� बंद हो
जाने के बाद क्या होग, भगवान ् जान�, ले�कन जब तक जीती हूँ तुम्हार� ओर
कोई �तरछ� आंख� से दे ख नह�ं सकता।
उमानाथ ने मानो माता पर एहसान रखकर कहा —अब तो तुम्हारे �लए
कोई रास्ता नह�ं रहा दयानाथ। क्या हरज , ले लो; मगर याद रखो, ज्य� ह�
हाथ म� रूपये आ जाऍ, गहने छु ड़ाने पड़�गे। सच कहते ह�, मातत्व
ृ द�घर् तपस्
है । माता के �सवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता ह ? हम बड़े अभागे ह�
�क माता के प्र�त िजतनी श्रद्घा रखनी , उसका शतांश भी नह�ं रखते।
दोन� ने जैसे बड़े धमर्संकट म � पड़कर गहन� क� �पटार� सँभाल� और
चलते बने। माता वात्सल-भर� ऑ ंख� से उनक� ओर दे ख रह� थी और
उसक� संपण
ू र् आत्मा का आशीवार्द जैसे उन्ह� अपनी गोद म� समेट लेने
�लए व्याकुल हो रहा था। आज कई मह�ने के बाद उसके भग्न मा-हृदय
को अपना सवर्स्व अपर्ण करके जैसे आनन्द क� �वभू�त �मल�। उ
स्वा�मनी कल्पना इसी त्याग के , इसी आत्मसमपर्ण के �लए जैसे को

मागर् ढूँढ़ती रहती थी। अ�धकार या लोभ या ममता क� वहँ गँध तक न थी।
त्याग ह� उसका आनन्द और त्याग ह� उसका अ�धकार है। आज अप
खोया हुआ अ�धकार पाकर अपनी �सरजी हुई प्र�तमा पर अप
प्राण� क� भ�ट करके वह �नहाल हो ग

16
4

ती न मह�ने और गुजर गये। मॉँ के गहन� पर हाथ साफ करके चार�


भाई उसक� �दलजोई करने लगे थे। अपनी िस्त्रय� को भी समझाते
�क उसका �दल न दुखाऍ।ं अगर थोड़े-से �शष्टाचार से उसक� आत्मा क
शां�त �मलती है , तो इसम� क्या हा�न है। चार� करते अपने मन क, पर माता
से सलाह ले लेते या ऐसा जाल फैलाते �क वह सरला उनक� बात� म� आ
जाती और हरे क काम म� सहमत हो जाती। बाग को बेचना उसे बहुत बुरा
लगता था; ले�कन चार� ने ऐसी माया रची �क वह उसे बेचते पर राजी हो
गई, �कन्तु कुमुद के �ववाह के �वषय म � मतैक्य न हो सका। मॉँ .
पुरार�लाल पर जमी हुई थी , लड़के द�नदयाल पर अड़े हुए थे। एक �दन
आपस म� कलह हो गई।
फूलमती ने कहा —मॉँ-बाप क� कमाई म� बेट� का �हस्सा भी है। तुम्ह
सोलह हजार का एक बाग �मला , पच्चीस हजार का एक मकान। बीस हजार

नकद म� क्या पँच हजार भी कुमुद का �हस्सा नह�ं ?
कामता ने नम्रता से क —अम्म,ॉ कुमुद आपक� लड़क� है , तो हमार�
बहन है । आप दो-चार साल म� प्रस्थान कर जाऍ ; पर हमार और उसका
बहुत �दन� तक सम्बन्ध रहेगा। तब हम यथाशिक्त कोई ऐसी बात न कर,
िजससे उसका अमंगल हो ; ले�कन �हस्से क� बात कहती ह , तो कुमुद का
�हस्सा कुछ नह�ं। दादा जी�वत थ , तब और बात थी। वह उसके �ववाह म�
िजतना चाहते, खचर् करते। कोई उनका हाथ न पकड़ सकता थ ; ले�कन अब
तो हम� एक-एक पैसे क� �कफायत करनी पड़ेगी। जो काम हजार म� हो जाए,
उसके �लए पॉँच हजार खचर् करना कहँॉ क� बु�द्धमानी?
उमानाथ से सध
ु ारा —पॉँच हजार क्य, दस हजार क�हए।
कामता ने भव� �सकोड़कर कहा —नह�ं, म� पाँच हजार ह� कहूँगा ; एक
�ववाह म� पॉँच हजार खचर् करने क� हमार� है�सयत नह�ं है

17
फूलमती ने िजद पकड़कर कहा —�ववाह तो मुरार�लाल के पुत्र से ह
होगा, पॉँच हजार खचर् ह, चाहे दस हजार। मेरे प�त क� कमाई है । म�ने मर-
मरकर जोड़ा है । अपनी इच्छा से खचर् करूँगी। तुम्ह�ं ने मेर� कोख से न
जन्म �लया है। कुमुद भी उसी कोख से आयी है। मेर� ऑंख� म � तुम सब
बराबर हो। म� �कसी से कुछ मॉँगती नह�ं। तुम बैठे तमाशा दे खो , म� सब—
कुछ कर लँ ग
ू ी। बीस हजार म� पॉँच हजार कुमुद का है ।
कामतानाथ को अब कड़वे सत्य क� शरण लेने के �सवा और मागर्
रहा। बोला-अम्म , तुम बरबस बात बढ़ाती हो। िजन रूपय� को तुम अपना
समझती हो, वह तुम्हारे नह�ं ह ; तुम हमार� अनुम�त के �बना उनम� से कुछ
नह�ं खचर् कर सकती
फूलमती को जैसे सपर् ने डस �लय —क्या कह! �फर तो कहना! म�
अपने ह� संचे रूपये अपनी इच्छा से नह�ं खचर् कर स?
‘वह रूपये तुम्हारे नह�ं र, हमारे हो गए।‘
‘तुम्हारे ह�ग; ले�कन मेरे मरने के पीछे ।‘
‘नह�ं, दादा के मरते ह� हमारे हो गए!’
उमानाथ ने बेहयाई से कहा —अम्म, कानन
ू —कायदा तो जानतीं नह�ं ,
नाहक उछलती ह�।
फूलमती क्र —�वहृल रोकर बोल —भाड़ म� जाए तुम्हारा कानून। म�
ऐसे कानन
ू को नह�ं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नह�ं थे। म�न
ह� पेट और तन काटकर यह गह
ृ स्थी जोड़ी ह , नह�ं आज बैठने क� छॉँह न
�मलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रूपये नह�ं छू सकते। म�ने तीन भाइय� के
�ववाह म� दस-दस हजार खचर् �कए ह�। वह� म� कुमुद के �ववाह म � भी खचर
करूँगी
कामतानाथ भी गमर् पड़ —आपको कुछ भी खचर् करने का अ�धकार
नह�ं है ।
उमानाथ ने बड़े भाई को डॉँटा —आप खामख्वाह अम्मॉँ केमुँह लगत
ह� भाई साहब! मुरार�लाल को पत्र �लख द�िजए �कतुम्हारे यहॉँ कुमुद

18
�ववाह न होगा। बस, छु ट्टीहुई। काय-कानन
ू तो जानतीं नह�ं, व्यथर् क� बह
करती ह�।
फूलमती ने संय�मत स्वर म � कह —अच्छ, क्या कानून ह , जरा म� भी
ु ँ।ू
सन
उमा ने �नर�ह भाव से कहा —कानन
ू यह� है �क बाप के मरने के बाद
जायदाद बेट� क� हो जाती है । मॉँ का हक केवल रोट�-कपड़े का है ।
फूलमती ने तड़पकर पछ
ू ा — �कसने यह कानन
ू बनाया है?
उमा शांत िस्थर स्वर म� बो —हमारे ऋ�षय� ने, महाराज मनु ने, और
�कसने?
फूलमती एक �ण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोल� —तो इस घर म�
म� तुम्हारे टुकड़� पर पड़ी हुई हू?
उमानाथ ने न्यायाधीश क� �नमर्मता से क —तुम जैसा समझो।
फूलमती क� संपण
ू र् आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने
उसके मुख से जलती हुई �चगां�रय� क� भॉँ�त यह शब्द �नकल पड़—म�ने घर
बनवाया, म�ने संपित्त जोड़ , म�ने तुम्ह� जन्म �द , पाला और आज म� इस
घर म� गैर हूँ ? मनु का यह� कानन
ू है ? और तुम उसी कानन
ू पर चलना
चाहते हो? अच्छ� बात है। अपना घ-द्वार लो। मुझे तुम्हार� आ�श्रता ब
रहता स्वीकार नह�ं। इससे कह�ं अच्छा है �क मर जाऊँ। वाह रे अंध! म�ने
पेड़ लगाया और म� ह� उसक� छॉँह म� खड़ी हो सकती ; अगर यह� कानन
ू है ,
तो इसम� आग लग जाए।
चार� यव
ु क पर माता के इस क्रोध और आंतक का कोई असर
हुआ। कानन
ू का फौलाद� कवच उनक� र�ा कर रहा था। इन कॉँट� का उन
पर क्या असर हो सकता थ?
जरा दे र म� फूलमती उठकर चल� गयी। आज जीवन म� पहल� बार
उसका वात्सल्य मग्न मातृत्व अ�भशाप बनकर उसे �धक्कारने लगा।
मातत्व
ृ को उसने जीवन क� �वभू�त समझा थ , िजसके चरण� पर वह सदै व
अपनी समस्त अ�भलाषाओं और कामनाओं को अ�पर्त करके अपने को धन

19
मानती थी , वह� मातत्व आज उसे अिग्नकु
ृ -सा जान पड़ा , िजसम� उसका
जीवन जलकर भस्म हो गया
संध्या हो गई थी। द्वार पर नीम का वृ� �सरझुक , �नस्तब्ध खड़
था, मानो संसार क� ग�त पर �ुब्ध हो रहा हो। अस्ताचल क� ओर प्र
और जीवन का दे वता फूलवती के मातत्व ह�
ृ ॉ
क� भँ�त अपनी �चता म � जल
रहा था।

फू लमती अपने कमरे म� जाकर लेट�, तो उसे मालम ू हुआ, उसक� कमर टूट
गई है । प�त के मरते ह� अपने पेट के लड़के उसके शत्रु हो जाय� ,
उसको स्वप्न म� भी अनुमान न था। िजन लड़क� को उसने अपना ह-
रक्त �पल-�पलाकर पाला , वह� आज उसके हृदय पर य� आघात कर रहे ह!
अब वह घर उसे कॉँट� क� सेज हो रहा था। जहॉँ उसक� कुछ कद्र नह , कुछ
�गनती नह�ं , वहॉँ अनाथ� क� भां�त पड़ी रो�टयॉँ खाए , यह उसक� अ�भमानी
प्रकृ�त के �लए असह्य
पर उपाय ह� क्या थ ? वह लड़क� से अलग होकर रहे भी तो नाक
�कसक� कटे गी! संसार उसे थक
ू े तो क्य , और लड़क� को थक
ू े तो क्य ;
बदमानी तो उसी क� है । दु�नया यह� तो कहे गी �क चार जवान बेट� के होते
ब�ु ढ़या अलग पड़ी हुई मजूर� करके पेट पाल रह� है ! िजन्ह� उसने हमेशा नीच
समझा, वह� उस पर हँ स�गे। नह�ं , वह अपमान इस अनादर से कह�ं ज्यादा
हृदय�वदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने म � ह� कुशल है।
हाँ, अब उसे अपने को नई प�रिस्थ�तय� के अनुकूल बनाना पड़ेगा। समय
बदल गया है । अब तक स्वा�मनी बनकर रह, अब ल�डी बनकर रहना पड़ेगा।
ईश्वर क� यह� इच्छा है। अपने बेट� क� बात� और लात� गैर� कक� बात� औ
लात� क� अपे�ा �फर भी गनीमत ह�।

20
वह बड़ी दे र तक मुँह ढॉँपे अपनी दशा पर रोती रह�। सार� रात इसी
आत्-वेदना म� कट गई। शरद् का प्रभाव ड-डरता उषा क� गोद से
�नकला, जैसे कोई कैद� �छपकर जेल से भाग आया हो। फूलमती अपने
�नयम के �वरूद्ध आज लड़के ह� , रात-भर मे उसका मान�सक प�रवतर्न
हो चुका था। सारा घर सो रहा था और वह आंगन म� झाडू लगा रह� थी।
रात-भर ओस म� भीगी हुई उसक� पक्क� जमीन उसके नंगे पैर� म � कँट� ॉ क�
तरह चभु रह� थी। पं�डतजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न दे ते थे। शीत
उसके �लए बहुत हा�नकारक था। पर अब वह �दन नह�ं रहे । प्रकृ�त उस क
भी समय के साथ बदल दे ने का प्रयत्न कर रह� थी। झाडू से फुरसत पा
उसने आग जलायी और चावल-दाल क� कंक�ड़यॉँ चन
ु ने लगी। कुछ दे र म�
लड़के जागे। बहुऍ ं उठ�ं। सभ� ने ब�ु ढ़या को सद� से �सकु ड़े हुए काम करते
दे खा; पर �कसी ने यह न कहा �क अम्म,ॉ क्य� हलकान होती ह? शायद सब-
के-सब ब�ु ढ़या के इस मान-मदर्न पर प्रसन्न
आज से फूलमती का यह� �नयम हो गया �क जी तोड़कर घर का
काम करना और अंतरं ग नी�त से अलग रहना। उसके मुख पर जो एक
आत्मगौरव झलकता रहता थ, उसक� जगह अब गहर� वेदना छायी हुई नजर
आती थी। जहां �बजल� जलती थी, वहां अब तेल का �दया �टम�टमा रहा था,
िजसे बुझा दे ने के �लए हवा का एक हलका-सा झ�का काफ� है ।
मुरार�लाल को इनकार�-पत्र �लखने क� बात पक्क� हो चुक� थी। दूस
�दन पत्र �लख �दया गया। द�नदयाल सेकुमुद का �ववाह �निश्चत हो गय
द�नदयाल क� उम्र चाल�स सेकुछ अ�धक , मयार्दा म � भी कुछ हेठे थ , पर
रोट�-दाल से खश
ु थे। �बना �कसी ठहराव के �ववाह करने पर राजी हो गए।
�त�थ �नयत हुई , बारात आयी , �ववाह हुआ और कुमुद �बदा कर द� गई
फूलमती के �दल पर क्या गुजर रह� थ , इसे कौन जान सकता है ; पर चार�

भाई बहुत प्रसन्न , मानो उनके हृदय का कँटा �नकल गया हो। ऊँचे कुल
क� कन्य, मुँह कैसे खोलती? भाग्य म � सुख भोगना �लखा होग , सख
ु भोगेगी;
दुख भोगना �लखा होगा , दुख झेलेगी। ह�र-इच्छा बेकस� का अं�तम अवलम्

21
है । घरवाल� ने िजससे �ववाह कर �दया , उसम� हजार ऐब ह� , तो भी वह
उसका उपास्, उसका स्वामी है। प्र�तरोध उसक� कल्पना से परे
फूलमती ने �कसी काम मे दखल न �दया। कुमुद को क्या �दया गय ,
मेहमान� का कैसा सत्कार �कया गय , �कसके यहॉँ से नेवते म� क्या आय ,
�कसी बात से भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सलाह भी ल� गई तो
यह�-बेटा, तुम लोग जो करते हो, अच्छा ह� करते हो। मुझसे क्या पूछते !
जब कुमुद के �लए द्वार पर डोल� आ गई और कुमुद मँॉ के गले
�लपटकर रोने लगी, तो वह बेट� को अपनी कोठर� म� ले गयी और जो कुछ
सौ पचास रूपये और द-चार मामल
ू � गहने उसके पास बच रहे थे , बेट� क�
अंचल म� डालकर बोल�—बेट�, मेर� तो मन क� मन म� रह गई , नह�ं तो क्या
आज तुम्हारा �ववाह इस तरह होता और तुम इस तरह �वदा क� जाती!
आज तक फूलमती ने अपने गहन� क� बात �कसी से न कह� थी।
लड़क� ने उसके साथ जो कपट-व्यवहार �कया थ , इसे चाहे अब तक न
समझी हो , ले�कन इतना जानती थी �क गहने �फर न �मल�गे और
मनोमा�लन्य बढ़ने के �सवा कुछ हाथ न लगेग ; ले�कन इस अवसर पर उसे
अपनी सफाई दे ने क� जरूरत मालूम हुई। कुमुद यह भाव मन मे लेकर जाए
�क अम्मां ने अपने गहने बहुओं के �लए रख छोड़ , इसे वह �कसी तरह न
सह सकती थी, इस�लए वह उसे अपनी कोठर� म� ले गयी थी। ले�कन कुमुद
को पहले ह� इस कौशल क� टोह �मल चुक� थी ; उसने गहने और रूपये
ऑ ंचल से �नकालकर माता के चरण� म� रख �दए और बोल�-अम्म, मेरे �लए
तुम्हारा आशीवार्द लाख� रूपय� के बराबर है। तुम इन चीज� को अपने प
रखो। न जाने अभी तुम्ह� �कन �वपित्तय� को सामना करना पड़
फूलमती कुछ कहना ह� चाहती थी �क उमानाथ ने आकर कहा —क्या
कर रह� है कुमुद ? चल, जल्द� कर। साइत टल� जाती है। वह लोग हा-हाय
कर रहे ह� , �फर तो दो-चार मह�ने म� आएगी ह� , जो कुछ लेना-दे ना हो , ले
लेना।

22
फूलमती के घाव पर जैसे मानो नमक पड़ गया। बोल�-मेरे पास अब
क्या है भैय , जो इसे म� दग
ू ी ? जाओ बेट� , भगवान ् तुम्हारा सोहाग अमर
कर�।
कुमुद �वदा हो गई। फूलमती पछाड़ �गर पड़ी। जीवन क� लालसा नष्ट
हो गई।

ए क साल बीत गया।


फूलमती का कमरा घर म� सब कमर� से बड़ा और हवादार था। कई
मह�न� से उसने बड़ी बहू के �लए खाल� कर �दया था और खुद एक छोट�-सी
कोठर� म� रहने लगी , जैसे कोई �भखा�रन हो। बेट� और बहुओं से अब उसे
जरा भी स्नेह न थ , वह अब घर क� ल�डी थी। घर के �कसी प्रा , �कसी
वस्त, �कसी प्रसंग से उसे प्रयोजन न था। वह केवल इस�लए जीती थी
मौत न आती थी। सख
ु या दु:ख का अब उसे लेशमात्र भी �ान न थ
उमानाथ का औषधालय खल ु ा , �मत्र� क� दावतह , नाच-तमाशा हुआ।
दयानाथ का प्रेसखु , �फर जलसा हुआ। सीतानाथ को वजीफा �मला और
�वलायत गया , �फर उत्सव हुआ। कामतानाथ के बड़े लड़के का य�ोपवीत
संस्कार हु , �फर धम
ू -धाम हुई ; ले�कन फूलमती के मुख पर आनंद क�
छाया तक न आई! कामताप्रसाद टाइफाइड म� मह�-भर बीमार रहा और
मरकर उठा। दयानाथ ने अबक� अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के �लए वा
म� एक आपित्तजनक लेख �लखा और : मह�ने क� सजा पायी। उमानाथ ने
एक फौजदार� के मामले म� �रश्वत लेकर गलत �रपोटर् �लखी और उसक
सनद छ�न ल� गई ; पर फूलमती के चेहरे पर रं ज क� परछा� तक न पड़ी।
उसके जीवन म� अब कोई आशा , कोई �दलचस्प , कोई �चन्ता न थी। ब ,
पशुओं क� तरह काम करना और खाना , यह� उसक� िजन्दगी के दो काम
थे। जानवर मारने से काम करता है ; पर खाता है मन से। फूलमती बेकहे

23
काम करती थी; पर खाती थी �वष के कौर क� तरह। मह�न� �सर म� तेल न
पड़ता, मह�न� कपड़े न धल
ु ते, कुछ परवाह नह�ं। चेतनाशन्य हो गई थी

सावन क� झड़ी लगी हुई थी। मले�रया फैल रहा था। आकाश म�
म�टयाले बादल थे , जमीन पर म�टयाला पानी। आद्रर् वायु -ज्वर और
श्वास का �वतरणा करती �फरती थी। घर क� महर� बीमार पड़ गई। फूलमती
ने घर के सारे बरतन मॉँजे , पानी म� भीग-भीगकर सारा काम �कया। �फर
आग जलायी और चल ॉ
ू ्हे पर पती�लयँ चढ़ा द�ं। लड़क� को समय पर भोजन
�मलना चा�हए। सहसा उसे याद आया , कामतानाथ नल का पानी नह�ं पीते।
उसी वषार् म � गंगाजल लाने चल�
कामतानाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा-रहने दो अम्म , म� पानी भर
लाऊँगा, आज महर� खूब बैठ रह�।
फूलमती ने म�टयाले आकाश क� ओर दे खकर कहा —तुम भीग जाओगे
बेटा, सद� हो जायगी।
कामतानाथ बोले —तुम भी तो भीग रह� हो। कह�ं बीमार न पड़ जाओ।
फूलमती �नमर्म भाव से बोल —म� बीमार न पडूँगी। मुझे भगवान ् ने
अमर कर �दया है ।
उमानाथ भी वह�ं बैठा हुआ था। उसके औषधालय म� कुछ आमदनी न
होती थी , इस�लए बहुत �चिन्तत था। भा-भवाज क� मुँहदे खी करता रहता
था। बोला—जाने भी दो भैया! बहुत �दन� बहुओं पर राज कर चुक� है , उसका
प्रायिश्चत्त तो करने
गंगा बढ़� हुई थी , जैसे समुद्र हो। ���तज के सामने के कूल से �मल
हुआ था। �कनार� के व�
ृ � क� केवल फु न�गयॉँ पानी के ऊपर रह गई थीं।
घाट ऊपर तक पानी म� डूब गए थे। फूलमती कलसा �लये नीचे उतर� , पानी
भरा और ऊपर जा रह� थी �क पॉँव �फसला। सँभल न सक�। पानी म� �गर
पड़ी। पल-भर हाथ-पाँव चलाये , �फर लहर� उसे नीचे खींच ले ग�। �कनारे पर
दो-चार पंडे �चल्ला-‘अरे दौड़ो, ब�ु ढ़या डूबी जाती है ।’ दो-चार आदमी दौड़े भी

24
ले�कन फूलमती लहर� म� समा गई थी , उन बल खाती हुई लहर� म� , िजन्ह�

दे खकर ह� हृदय कँप उठता था
एक ने पछ
ू ा —यह कौन ब�ु ढ़या थी?
‘अरे , वह� पं�डत अयोध्यानाथ क� �वधवा है‘
‘अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थ?’
‘हॉँ थे तो, पर इसके भाग्य म � ठोकर खाना �लखा था‘
‘उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े ह� और सब कमाते ह�?’
‘हॉँ, सब ह� भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु !’

25
बड़े भाई साहब

मे रे भाई साहब मुझसे पॉँच साल बडे थे, ले�कन तीन दरजे आगे। उन्हो ने
भी उसी उम्र म� पढनाशुरू �कया था जब मैने शुरू ; ले�कन
ताल�म जैसे महत्वप के मामले म � वह जल्द�◌ीबाजी से काम लेना पसंद न करत
थे। इस भवन �क ब�ु नयाद खूब मजबत
ू डालना चाहते थे िजस पर आल�शान
महल बन सके। एक साल का काम दो साल म� करते थे। कभी-कभी तीन
साल भी लग जाते थे। ब�ु नयाद ह� पुख्ता न ह , तो मकान कैसे पाएदार
बने।
म� छोटा था, वह बडे थे। मेर� उम्र नौ साल ,वह चौदह साल के थे।
उन्ह�ट मेर� तम्बी ह और �नगरानी का पूरा जन्मल�सद्ध अ�धकार था। और
शाल�नता इसी म� थी �क उनके हुक्मब को कानून समझूँ
वह स्वाभाव से बडे अघ्युयनशील थे। हरदम �कताब खोले बैठे रहत
और शायद �दमाग को आराम दे ने के �लए कभी कापी पर , कभी �कताब के
हा�शय� पर �च�डय� , कुत्त�
, बिल्लयो क� तस्वी र� बनाया करते थ�। क-कभी
एक ह� नाम या शब्दं या वाक्यत -बीस बार �लख डालते। कभी एक शेर
को बार-बार सुन्द र अ�र से नकल करते। कभी ऐसी शब्-रचना करते ,
िजसम� न कोई अथर् होत , न कोई सामंजस्य! मसलन एक बार उनक� कापी
पर मैने यह इबारत दे खी-स्पेदश, अमीना, भाइय�-भाइय�, दर-असल, भाई-भाई,
राघेश्याय
, श्रीयुत राघेश,म, एक घंटे तक —इसके बाद एक आदमी का चेहरा
बना हुआ था। म�ने चेष्ट, क� �क इस पहे ल� का कोई अथर् �नकालू ; ले�कन
असफल रहा और उसने पछ ू ने का साहस न हुआ। वह नवी जमात म� थे , म�
पाँचवी म�। उन�क रचनाओ को समझना मेरे �लए छोटा मुंह बडी बात थी।
मेरा जी पढने म� �बलकु ल न लगता था। एक घंटा भी �कताब लेकर
बैठना पहाड़ था। मौका पाते ह� होस्ट ल से �नकलकर मैदान म � आ जाता
और कभी कंक�रयां उछालता , कभी कागज �क �तत�लयाँ उडाता , और कह�ं

26
कोई साथी �मल गया तो पछ
ू ना ह� क्याक कभी चारद�वार� पर चढकर नीचे
कूद रहे है , कभी फाटक पर वार , उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का
आनंद उठा रहे है । ले�कन कमरे म� आते ह� भाई साहब का रौद्र र
दे खकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल हो- ‘कहां थ� ?‘ हमेशा यह�
सवाल, इसी घ्वन�न म � पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन
था। न जाने मुंह से यह बात क्य�क न �नकलती �क जरा बाहर खेल रहा था।
मेरा मौन कह दे ता था �क मुझे अपना अपराध स्वीि◌कार है और भाई साहब
के �लए इसके �सवा और कोई इलाज न था �क रोष से �मले हुए शब्द�ई म �
मेरा सत्का◌ेर कर�
‘इस तरह अंग्रेजी पढो, तो िजन्दसग-भर पढते रहोगे और एक हफर् न
आएगा। अँगरे जी पढना कोई हं सी-खेल नह� है �क जो चाहे पढ ले , नह�,
ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंगरे जी �क �वद्धान हो जाते। यहां र-�दन आंखे
फोडनी पडती है और खन
ू जलाना पडता है , जब कह� यह �वधा आती है ।
और आती क्या◌े ह , हां, कहने को आ जाती है । बडे-बडे �वद्धान भीशुद
अंगरे जी नह� �लख सकते , बोलना तो दुर रहा। और म� कहता हूं , तुम �कतने
घ�घा हो �क मुझे दे खकर भी सबक नह� लेते। म� �कतनी मेहनत करता हूं ,
तुम अपनी आंखो दे खते हो , अगर नह� दे खते , जो यह तुम्हा◌ैर� आंखो का
कसरू है , तुम्हासर� बु�द्ध का कसूर है। इतने म-तमाशे होते है , मुझे तुमने
कभी दे खने जाते दे खा है , रोज ह� �क्रकेट और हाक� मैच होते ह�। म� पास
नह� फटकता। हमेशा पढता रहा हूं, उस पर भी एक-एक दरजे म� दो-दो, तीन-
तीन साल पडा रहता हूं �फर तुम कैसे आशा करते हो �क तुम य� खेल-कुद
म� वक्तप गंवाकर पास हो जाओग ? मुझे तो दो-ह�-तीन साल लगते ह� , तुम
उम-भर इसी दरजे म� पडे सडते रहोगे। अगर तुम्हेो इस तरह उम्र गंवानी ,
तो बंहतर है , घर चले जाओ और मजे से गुल्ल-डंडा खेलो। दादा क� गाढ�
कमाई के रूपये क्यो बरबाद करते
?’
म� यह लताड़ सन
ु कर आंसू बहाने लगता। जवाब ह� क्या◌ी था। अपराध
तो म�ने �कया , लताड कौन सहे ? भाई साहब उपदे श �क कला म� �नपुण थे।

27
ऐसी-ऐसी लगती बात� कहते , ऐसे-ऐसे सिू क्त-बाण चलाते �क मेरे िजगर के
टुकडे-टुकडे हो जाते और �हम्महत छूट जाती। इस तरह जान तोडकर मेहनत
करने �क शिक्तु म� अपने म � न पाता था और उस �नराशा मे जरा देर के
�लए म� सोचने लगता-क्य�◌े न घर चला जाऊँ। जो काम मेरे बूते के बाहर ह,
उसमे हाथ डालकर क्यो◌ो अपनी िजन्द गी खराब करूं। मुझे अपना मूखर् र
मंजरू था ; ले�कन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्क र आ जाता था। ले�कन
घंटे–दो घंटे बाद �नराशा के बादल फट जाते और म� इरादा करता �क आगे
से खूब जी लगाकर पढूंगा। चटपट एक टाइम-टे �बल बना डालता। �बना पहले
से नक्शा◌ी बना
, �बना कोई िस्क म तैयार �कए काम कैसे शुरूं क ? टाइम-
टे �बल म� , खेल-कूद �क मद �बलकु ल उड जाती। प्र:काल उठना , छ: बजे
मुंह-हाथ धो, नाश्ता कर पढने बैठ जाना। : से आठ तक अंग्रे , आठ से
नौ तक �हसाब , नौ से साढे नौ तक इ�तहास , �फर भोजन और स्कूतल। साढे
तीन बजे स्कूहल से वापस होकर आधा घंण्टाक आर , चार से पांच तक
भग
ू ोल, पांच से छ: तक ग्रा , आघा घंटा होस्टकल के सामने टहलन, साढे
छ: से सात तक अंग्रेजी कम्पोतज, �फर भोजन करके आठ से नौ तक
अनव
ु ाद, नौ से दस तक �हन्द� , दस से ग्याजरह तक �व�वध �वष , �फर
�वश्रा
मगर टाइम-टे �बल बना लेना एक बात है , उस पर अमल करना दस
ू र�
बात। पहले ह� �दन से उसक� अवहे लना शर
ु ू हो जाती। मैदान क� वह सुखद
ह�रयाल�, हवा के वह हलके-हलके झोके , फु टबाल क� उछल-कूद , कबड्डी के
वह दांव-घात, वाल�-बाल क� वह तेजी और फुरती मुझे अ�ात और अ�नवार्य
रूप से खीच ले जाती और वहां जाते ह� म� सब कुछ भूल जाता। वह जा-
लेवा टाइम-टे �बल, वह आंखफोड पुस्तूके �कसी �क याद न रहत , और �फर
भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर �मल जाता। म� उनके साये
से भागता, उनक� आंखो से दरू रहने �क चेष्टाक करता। कमरे मे इस तरह दबे
पांव आता �क उन्हे खबर न हो। उन�क नजर मेर� ओर उठ� और मेरे प्र
�नकले। हमेशा �सर पर नंगी तलवार-सी लटकती मालम
ू होती। �फर भी जैसे

28
मौत और �वपित्ति◌ के बीच मे भी आदमी मोह और माया के बंधन म � जकडा
रहता है , म� फटकार और घड
ु �कयां खाकर भी खेल-कूद का �तरस्कारर न कर
सकता।
2

सा लाना इम्तपहान हुआ। भाई साहब फेल हो ग, म� पास हो गया और


दरजे म� प्रथम आया। मे रे और उनके बीच केवल दो साल क
अन्त र रह गया। जी म � आय , भाई साहब को आड� हाथो लँ ू —आपक� वह
घोर तपस्या् कहाँ ग ? मुझे दे �खए , मजे से खेलता भी रहा और दरजे म�
अव्वतल भी हूं। ले�कन वह इतने :द खी और उदास थे �क मुझे उनसे �दल्ल�◌े
हमदद� हुई और उनके घाव पर नमक �छडकने का �वचार ह� लज्जादस्पम
जान पडा। हां , अब मुझे अपने ऊपर कुछ अ�भमान हुआ और आत्माप�भमान
भी बढा भाई साहब का वहरोब मुझ पर न रहा। आजाद� से खेल –कूद म�
शर�क होने लगा। �दल मजबत
ू था। अगर उन्हो ने �फर मेर� फजीहत क, तो
साफ कह दँ ग
ू ा—आपने अपना खन
ू जलाकर कौन-सा तीर मार �लया। म� तो
खेलते-कूदते दरजे म� अव्वूल आ गया। जबावसेयह हेकडी जताने कासाहस न
होने पर भी मेरे रं ग-ढं ग से साफ जा�हर होता था �क भाई साहब का वह
आतंक अब मुझ पर नह�ं है । भाई साहब ने इसे भाँप �लया-उनक� ससहसत
ब�ु द्ध बडी तीव्र थी और एक �दन जब मै भोर का सारा समय गु-डंडे �क
भ� ट करके ठ�क भोजन के समय लौटा , तो भाई साइब ने मानो तलवार खीच
ल� और मुझ पर टूट पडे-दे खता हूं , इस साल पास हो गए और दरजे म�
अव्वरल आ ग, तो तुम्हे �दमाग हो गया ह; मगर भाईजान, घमंड तो बडे-बडे
का नह� रहा , तुम्हा्र� क्याम हस्तीद
, इ�तहास म� रावण का हाल तो पढ़ा ह�
होगा। उसके च�रत्र सेतुमने क-सा उपदे श �लया? या यो ह� पढ गए? महज
इम्त।हान पास कर लेना कोई चीज नह, असल चीज है ब�ु द्ध का �वकास। ज
कुछ पढो, उसका अ�भप्राय समझो। रावण भूमंडल का स्वा मी था। ऐसे रा
को चक्रवत� कहते है। आजकल अंगरेजो के राज्यण का �वस्ताबर बहुत

29
हुआ है , पर इन्ह� चक्रवत� नह�ं कह सकते। संसार म� अनेको राष्�क अँगर
का आ�धपत्यत स्वी कार नह�ं करते। �बलकुल स्वा धीन ह�। रावण चक्रवत�
था। संसार के सभी मह�प उसे कर दे ते थे। बडे-बडे दे वता उसक� गुलामी
करते थे। आग और पानी के दे वता भी उसके दास थे
; मगर उसका अंत क्या
हुआ, घमंड ने उसका नाम-�नशान तक �मटा �दया, कोई उसे एक �चल्लू पानी
दे नेवाला भी न बचा। आदमी जो कुकमर् चाहे कर ; पर अ�भमान न करे ,
इतराए नह�। अ�भमान �कया और द�न-दु�नया से गया।
शैतान का हाल भी पढा ह� होगा। उसे यह अनुमान हुआ था �क ईश्वरर
का उससे बढकर सच्चा◌ा भक्ते कोई है ह� नह�ं। अन्तम म� यह हुआ �क स्व
से नरक म� ढकेल �दया गया। शाहे रूम ने भी एक बार अहंकार �कया था।
भीख मांग-मांगकर मर गया। तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास �कया है
और अभी से तुम्हामरा �सर �फर गय
, तब तो तुम आगे बढ चुके। यह समझ
लो �क तुम अपनी मेहनत से नह� पास हुए , अन्धेर के हाथ बटेर लग गई।
मगर बटे र केवल एक बार हाथ लग सकती है , बार-बार नह�ं। कभी-कभी
गुल्ल�◌-डंडे म� भी अंधा चोट �नशाना पड़ जाता है । उससे कोई सफल �खलाड़ी
नह�ं हो जाता। सफल �खलाड़ी वह है, िजसका कोई �नशान खाल� न जाए।
मेरे फेल होने पर न जाओ। मेरे दरजे म� आओगे , तो दाँतो पसीना
आयगा। जब अलजबरा और जाम�ट्र� के लोहे के चने चबाने पड़�गे औ
इंग�लस्ताअन का इ�तहास पढ़ना पड़�ग! बादशाह� के नाम याद रखना आसान
नह�ं। आठ-आठ हे नर� को गज
ु रे है कौन-सा कांड �कस हे नर� के समय हुआ ,
क्या। यह याद कर लेना आसान समझते ह ? हे नर� सातव� क� जगह हे नर�
आठवां �लखा और सब नम्ब र गाय! सफाचट। �सफर् भी न �मलग , �सफर
भी! हो �कस ख्यानल म ! दरजनो तो जेम्सम हुए ह
, दरजनो �व�लयम, को�डय�
चािल्सर् �दमाग चक्क र खाने लगता है। आंधी रोग हो जाता है। इन अभा
को नाम भी न जुडते थे। एक ह� नाम के पीछे दोयम , तेयम, चहारम, पंचम
नगाते चले गए। मुछसे पछ
ू ते, तो दस लाख नाम बता दे ता।

30
और जामेट्र� तो बसखुदा क� पन! अ ब ज क� जगह अ ज ब �लख
�दया और सारे नम्बीर कट गए। कोई इन �नदर्यीमुमत�हन� से नह�ं पूछत
�क आ�खर अ ब ज और अ ज ब म� क्याब फकर् है और व्यमथर्क� बात
�लए क्योअ छात्रो का खून करते हो -भात-रोट� खायी या भात-दाल-रोट�
खायी, इसम� क्याक रखा ह; मगर इन पर��को को क्या◌ा परवा! वह तो वह�
दे खते है , जो पुस्तखक म � �लखा है। चाहते ह� �क लडके अ�-अ�र रट डाले।
और इसी रटं त का नाम �श�ा रख छोडा है और आ�खर इन बे-�सर-पैर क�
बातो के पढ़ने से क्याक फायद
?
इस रे खा पर वह लम्ब् �गरा द , तो आधार लम्- से दुगना होगा।
प�ू छए, इससे प्रयो? दुगना नह�, चौगुना हो जाए, या आधा ह� रहे , मेर� बला
से, ले�कन पर��ा म� पास होना है , तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी।
कह �दया-‘समय क� पाबंद� ’ पर एक �नबन्धत �लख, जो चार पन्नोय से कम
न हो। अब आप कापी सामने खोले , कलम हाथ म� �लये , उसके नाम को
रोइए।
कौन नह�ं जानता �क समय क� पाबन्द�◌ा बहुत अच्छ�ि◌ बात है। इसस
आदमी के जीवन म� संयम आ जाता है , दस
ू रो का उस पर स्नेबह होने लगता
है और उसके करोबार म� उन्नत�त होती ह; जरा-सी बात पर चार पन्नेच कैसे
�लख�? जो बात एक वाक्यन म � कह� जा सक , उसे चार पन्ने म � �लखने क�
जरूर? म� तो इसे �हमाकत समझता हूं। यह तो समय क� �कफायत नह� ,
बिल्क उसका दुरूपयोग है �क व्यमथर् म� �कसी बात को ठूंस �दया। हम चा
है , आदमी को जो कुछ कहना हो , चटपट कह दे और अपनी राह ले। मगर
नह�, आपको चार पन्ने रंगने पड�ग , चाहे जैसे �ल�खए और पन्नेन भी पूरे
फु ल्स केप आकार के। यह छात्रो पर अत्यांचार नह�ं तो और क्या
? अनथर् तो
यह है �क कहा जाता है , सं�ेप म� �लखो। समय क� पाबन्द�◌ी पर सं�ेप म�
एक �नबन्धक �लख
, जो चार पन्नो। से कम न हो। ठ�! सं�ेप म� चार पन्नेय
हुए, नह� शायद सौ-दो सौ पन्नेो �लखवाते। तेज भी दौ�डए और धीर-धीरे भी।
है उल्ट, बात या नह�? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है , ले�कन इन

31
अध्या्पको को इतनी तमीज भी नह�ं। उस पर दावा है �क हम अध्यातपक है
मेरे दरजे म� आओगे लाला , तो ये सारे पापड बेलने पड़�गे और तब आटे -दाल
का भाव मालम
ू होगा। इस दरजे म� अव्वहल आ गए ह , वो जमीन पर पांव
नह�ं रखते इस�लए मेरा कहना मा�नए। लाख फेल हो गया हूँ , ले�कन तुमसे
बड़ा हूं , संसार का मुझे तुमसे ज्यागदा अनुभव है। जो कुछ कहता हू ,
उसे �गरह बां�धए नह� पछताएँगे।
स्कू ल का समय �नकट थ, नह�ं इश्वदर जान, यह उपदे श-माला कब
समाप्तू होती। भोजन आज मुझे �नस्वा इ-सा लग रहा था। जब पास होने
पर यह �तरस्का◌ूर हो रहा ह
, तो फेल हो जाने पर तो शायद प्राण ह� ले �ल
जाएं। भाई साहब ने अपने दरजे क� पढाई का जो भयंकर �चत्र खीचा ;
उसने मुझे भयभीत कर �दया। कैसे स्कूईल छोडकर घर नह� भाग , यह�
ताज्जु◌ुब ह
; ले�कन इतने �तरस्काहर पर भी पुस्त क� म� मेर� अरू�च ज-�क-
त्य�◌ु बनी रह�। खे-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने दे ता। पढ़ता भी
था, मगर बहुत कम। बस , इतना �क रोज का टास्के पूरा हो जाए और दरजे
म� जल�ल न होना पड�। अपने ऊपर जो �वश्वा◌ास पैदा हुआ थ , वह �फर
लपु ्तल हो गया और �फर चोरो क-सा जीवन कटने लगा।

�फ
र सालाना इम्त हान हु, और कुछ ऐसा संयोग हुआ �क मै ि◌फरर
पास हुआ और भाई साहब �फर फेल हो गए। म�ने बहुत मेहनत न
क� पर न जाने , कैसे दरजे म� अव्व ल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई
साहब ने प्राणांतक प�रश्रम �कया था। कोसर् -एक शब्दअ चाट गये थ;
दस बजे रात तक इधर , चार बजे भोर से उभर , छ: से साढे नौ तक स्कूरल
जाने के पहले। मुद्रा कां�तह�न हो गई , मगर बेचारे फेल हो गए। मुझे उन
पर दया आतील थी। नतीजा सन
ु ाया गया , तो वह रो पड़े और म� भी रोने
लगा। अपने पास होने वाल� खुशी आधी हो गई। म� भी फेल हो गया होता ,
तो भाई साहब को इतना दु:ख न होता, ले�कन �व�ध क� बात कौन टाले?

32
मेरे और भाई साहब के बीच म� अब केवल एक दरजे का अन्त र और
रह गया। मेरे मन म� एक कु �टल भावना उदय हुई �क कह� भाई साहब एक
साल और फेल हो जाएँ, तो मै उनके बराबर हो जाऊं, ि◌फर वह �कस आधार
पर मेर� फजीहत कर सकेगे , ले�कन म�ने इस कमीने �वचार को �दल से
बलपव
ू र्क �नकाल डाला। आ�खर वह मुझे मेरे �हत के �वचार से ह� तो डांटते
ह�। मुझे उस वक्तल अ�प्रय लगता है अव
, मगर यह शायद उनके उपदे श�
का ह� असर हो �क म� दनानद पास होता जाता हूं और इतने अच्छ� नम्ब र
से।
अबक� भाई साहब बहुत-कुछ नमर् पड़ गए थे। कई बार मुझे डांटने का
अवसर पाकर भी उन्ह�कने धीरज से काम �लया। शायद अब वह खुद
समझने लगे थे �क मुझे डांटने का अ�धकार उन्हेि◌ नह� रह
; या रहा तो बहुत
कम। मेर� स्वझच्छं◌ादता भी बढ�। म� उन�क स�हष्णुझता काअनु�चत लाभ उठा
लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई �क म� तो पास ह� हो जाऊंगा , पढू या न
पढूं मेर� तकद�र बलवान ् है , इस�लए भाई साहब के डर से जो थोडा-बहुत
बढ �लया करता था , वह भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उडाने का नया शौक
पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी ह� क� भ�ट होता था , ि◌फर
भी म� भाई साहब का अदब करता था , और उनक� नजर बचाकर कनकौए
उड़ाता था। मांझा दे ना , कन्ने बांधन, पतंग टूनार्म �ट क� तैया�रयां आ�द
समस्या एँ अब गुप्त रूप से हल क� जाती थीं। भाई साहब को यह संदेह
करने दे ना चाहता था �क उनका सम्मातन और �लहाज मेर� नजरो से कम हो
गया है ।
एक �दन संध्यात समय होस्टतल से दूर मै एक कनकौआ लूटने बंतहाश
दौडा जा रहा था। आंखे आसमान क� ओर थीं और मन उस आकाशगामी
प�थक क� ओर , जो मंद ग�त से झम
ू ता पतन क� ओर चला जा रहा था ,
मानो कोई आत् मा स्व गर् से �नकलकर �वरक्त मन से नए संस्का र
करने जा रह� हो। बालक� क� एक परू � सेना लग्गेक और झड़दार बांस �लये
उनका स्वाहगत करने को दौड़ी आ रह� थी। �कसी को अपने आग-पीछे क�

33
खबर न थी। सभी मानो उस पतंग के साथ ह� आकाश म� उड़ रहे थे , जहॉ ं
सब कुछ समतल है, न मोटरकारे है, न ट्र, न गा�डयाँ।
सहसा भाई साहब से मेर� मुठभेड हो गई , जो शायद बाजार से लौट
रहे थे। उन्हो ने वह� मेरा हाथ पकड �लया और उग्रभाव से ब-इन बाजार�
ल�डो के साथ धेले के कनकौए के �लए दौड़ते तुम्ह � शमर् नह� आत
? तुम्ह�
इसका भी कुछ �लहाज नह�ं �क अब नीची जमात म� नह�ं हो , बिल्क आठवीं
जमात म� आ गये हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आ�खर आदमी
को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना चा�हए। एक जमाना था �क
�क लोग आठवां दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। म� �कतने
ह� �मडल�चय� को जानता हूं , जो आज अव्वतल दरजे के �डप्ट�ल मिजस�ट या
सुप�रट� ड�ट है । �कतने ह� आठवी जमाअत वाले हमारे ल�डर और समाचार-पत्र
के सम्पाडदक है। बड-बड� �वद्धान उनक� मातहती म� काम करते है औरतु
उसी आठव� दरजे म� आकर बाजार� ल�ड� के साथ कनकौए के �लए दौड़ रहे
हो। मुझे तुम्हारर� इस कमअकल� पर :द ख होता है । तुम जह�न हो , इसम�
शक नह�: ले�कन वह जेहन �कस काम का, जो हमारे आत्ममगौरव क� हत्या
कर डाले ? तुम अपने �दन म� समझते होगे , म� भाई साहब से महज एक
दजार् नीचे हूं और अब उन्हेनमुझकोकुछ कहने का हक नह� ; ले�कन यह
तुम्हानर� गलती है। म� तुमसे पांच साल बडा हूं और चाहे आज तुम मेर� ह�
जमाअत म� आ जाओ –और पर��क� का यह� हाल है , तो �नस्संहदेह अगले
साल तुम मेरे समक� हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे
आगे �नकल जाओ-ले�कन मुझम� और जो पांच साल का अन्तसर ह, उसे तुम
क्या , खुदा भी नह� �मटा सकता। म� तुमसे पांच साल बडा हूं और हमेशा
रहूंगा। मुझे दु�नया का और िजन्दागी का जो तजरबा ह , तुम उसक� बराबर�
नह�ं कर सकते , चाहे तुम एम. ए. , डी. �फल. और डी. �लट. ह� क्योि◌ न हो
जाओ। समझ �कताब� पढने से नह�ं आती है । हमार� अम्मात ने कोई दरजा
पास नह� �कया , और दादा भी शायद पांचवी जमाअत के आगे नह� गये ,
ले�कन हम दोनो चाहे सार� दु�नया क� �वधा पढ ले , अम्माह और दादा को

34
हम� समझाने और सध
ु ारने का अ�धकार हमेशा रहे गा। केवल इस�लए नह�
�क वे हमारे जन्मुदाता ह , बिल्� इस�लए �क उन्हेऔ दु�नया का हमसे ज्या द
जतरबा है और रहे गा। अमे�रका म� �कस जरह �क राज्य-व्यनवस्थाि◌ है औ
आठवे हे नर� ने �कतने �ववाह �कये और आकाश म� �कतने न�त्र , यह बाते
चाहे उन्हे न मालूम ह, ले�कन हजार� ऐसी आते है , िजनका �ान उन्हेऔ
हमसे और तुमसे ज्या दा है
दै व न कर� , आज म� बीमार हो आऊं , तो तुम्हा रे हा-पांव फूल जाएग�।
दादा को तार दे ने के �सवा तुम्हेब और कुछ न सूझ�ग; ले�कन तुम्हा र� जगह
पर दादा हो , तो �कसी को तार न द� , न घबराएं , न बदहवास ह�। पहले खुद
मरज पहचानकर इलाज कर�गे , उसम� सफल न हुए , तो �कसी डांक्टबर को
बल
ु ायेग�। बीमार� तो खैर बडी चीज है । हम-तुम तो इतना भी नह� जानते
�क मह�ने-भर का मह�ने-भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते है , उसे हम
बीस-बाईस तक खर्च कर डालते है और पैस-पैसे को मोहताज हो जाते है ।
नाश्तान बंद हो जाता ह
, धोबी और नाई से मुंह चुराने लगते है ; ले�कन िजतना
आज हम और तुम खर्च कर रहे ह , उसके आधे म� दादा ने अपनी उम्र क
बडा भाग इज्जऔत और नेकनामी के साथ �नभाया है और एक कुटुम्ब क
पालन �कया है , िजसमे सब �मलाकर नौ आदमी थे। अपने हे डमास्टअर साहब
ह� को दे खो। एम. ए. ह� �क नह�, और यहा के एम. ए. नह�, आक्यबफोडर् के
एक हजार रूपये पाते ह , ले�कन उनके घर इंतजाम कौन करता है ? उनक�
बढ
ू � मां। हे डमास्टेर साहब क� �डग्री यहां बेकार हो गई। पहले खुद घर
इंतजाम करते थे। खचर् पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनक�
माताजी ने प्रबंध अपने हाथ मे ले �लया , जैसे घर म� ल�मीर आ गई है ।
तो भाईजान, यह जरूर �दल से �नकाल डालो �क तुम मेरे समीप आ गये हो
और अब स्व तंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नह� चल पाओगे। अगर तुम
न मानोगे , तो म� (थप्पमड �दखाक) इसका प्रयोग भी कर सकता हूं। म
जानता हूं, तुम्ह�म मेर� बात� जहर लग रह� है।

35
म� उनक� इस नई युिक्त से नतमस्तहक हो गया।मुझे आज सचमु
अपनी लघत ु ा का अनभ
ु व हुआ और भाई साहब के प्र�त मे रे तम म� श्
उत्प न्नुहु�। म�ने सजल आंख� से क-हर�गज नह�। आप जो कुछ फरमा
रहे है, वह �बलकु ल सच है और आपको कहने का अ�धकार है ।
भाई साहब ने मुझे गले लगा �लया और बाल-कनकाए उड़ान को मना
नह�ं करता। मेरा जी भी ललचाता है , ले�कन क्या कर , खुद बेराह चलंू तो
तुम्हार� र�ा कैसे कर ? यह कत्तर्व्य भी तो मेरे �सर पर
संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुजरा।
उसक� डोर लटक रह� थी। लड़क� का एक गोल पीछे -पीछे दौड़ा चला आता
था। भाई साहब लंबे ह� ह� , उछलकर उसक� डोर पकड़ ल� और बेतहाशा
होटल क� तरफ दौड़े। म� पीछे -पीछे दौड़ रहा था।

36
शां�त

स्व ग�य दे वनाथ मेरे अ�भन्नी �मत्र� म� थे। आज भी जब उनक� य


आती है, तो वह रं गरे �लयां आंख� म� �फर जाती ह�, और कह�ं एकांत
म� जाकर जरा रो लेता हूं। हमारे दे र रो लेता हूं। हमारे बीच म� दो-ढाई सौ
मील का अंतर था। म� लखनऊ म� था , वह �दल्ल�◌े म; ले�कन ऐसा शायद ह�
कोई मह�ना जाता हो �क हम आपस म� न �मल पाते ह�। वह स्व च्छेन्
प्रक�त के �वनोद� , सहृद, उदार और �मत्र� पर प्राण देनेवाला आदम ,
िजन्ह�कने अपने और पराए म � कभी भेद नह�ं �कया। संसार क्या◌े है और यहा
लौ�कक व्य वहार का कैसा �नवार्ह होता , यह उस व्यंिक्त ने कभी न जानन
क� चेष्टा क�। उनक� जीवन म � ऐसे कई अवसर आ , जब उन्ह�क आगे के
�लए हो�शयार हो जाना चा�हए था।
�मत्र� ने उनक� �नष्कापटता सेअनु�चत लाभ उठ , और कई बार
उन्ह�◌ं लिज्जत भी होना प
; ले�कन उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक
लेने क� कसम खा ल� थी। उनके व्य वहार ज्य� के त� रहे — ‘जैसे
भोलानाथ िजए , वैसे ह� भोलानाथ मरे , िजस दु�नया म� वह रहते थे वह
�नराल� दु�नया थी, िजसम� संदेह, चालाक� और कपट के �लए स्था◌ेन न थ—
सब अपने थे , कोई गैर न था। म�ने बार-बार उन्ह�क सचेत करना चाह , पर
इसका प�रणाम आशा के �वरूद्ध हुआ। मुझे -कभी �चंता होती थी �क
उन्ह�रनेइसे बंद न �कया , तो नतीजा क्या◌े होग
? ले�कन �वडंबना यह थी �क
उनक� स्त्री गोपा भी कुछ उसी सांचे म� ढल� हुई थी। हमार� दे�वय� म�
एक चातुर� होती है , जो सदै व ऐसे उडाऊ पुरूष� क� असावधा�नय� पर ‘ब्रे
का काम करती है , उससे वह वं�चत थी। यहां तक �क वस्त�भष
ू ण म� भी उसे
�वशेष रू�च न थी। अतएव जब मुझे देवनाथ के स्वयगार्रोहण का समाच
�मला और म� भागा हुआ �दल्ल�झ गय
, तो घर म� बरतन भांडे और मकान के
�सवा और कोई संप�त न थी। और अभी उनक� उम्र ह� क्या , जो संचय

37
क� �चंता करते चाल�स भी तो परू े न हुए थे। य� तो लड़पन उनके स्वबभाव
म� ह� था ; ले�कन इस उम्र म� प: सभी लोग कुछ बे�फ्रक रहते ह�। पहल
एक लड़क� हुई थी , इसके बाद दो लड़के हुए। दोन� लड़के तो बचपन म� ह�
दगा दे गए थे। लड़क� बच रह� थी , और यह� इस नाटक का सबसे करूण
दश्यद था। िजस तरह का इनका जीवन था उसको देखते इस छोटे से प�रवार
के �लए दो सौ रूपये मह�ने क� जरूरत थी। -तीन साल म� लड़क� का
�ववाह भी करना होगा। कैसे क्यार होग
, मेर� ब�ु द्धकुछ काम न करती थ
इस अवसर पर मुझे यह बहुमल ू ्यय अनुभव हुआ �क जो लोग सेवा भाव
रखते ह� और जो स्वाबथ-�स�द्ध को जीवन का ल�यव नह�ं बना
, उनके प�रवार
को आड़ दे नेवाल� क� कमी नह�ं रहती। यह कोई �नयम नह�ं है , क्य�◌ा�क म�ने
ऐसे लोग� को भी दे खा है , िजन्ह�◌ोने जीवन म � बहुत� के साथ अच्छे सलू
�कए; पर उनके पीछे उनके बाल-बच्चेो क� �कसी ने बात तक न पूछ�। ले�कन
चाहे कुछ हो, दे वनाथ के �मत्र� ने प्रशंसनीय औदायर् से काम �लया और
के �नवार्ह के �लए स्थाकई धन जमा करने का प्रस्तासव �कय-एक सज्ज न
जो रं डुवे थे , उससे �ववाह करने को तैयार थे , �कंतु गोपा ने भी उसी
स्वां �भमान का प�रचय �दय, जो महार� दे �वय� का जौहर है और इस प्रस्त
को अस्वी कार कर �दया। मकान बहुत बडा था। उसका एक भाग �कराए पर
उठा �दया। इस तरह उसको 50 रू महावार �मलने लगे। वह इतने म � ह�
अपना �नवार्ह कर लेगी। जो कुछ खचर् , वह सुन्नीव क� जात से था। गोपा
के �लए तो जीवन म� अब कोई अनुराग ह� न था।

इ सके एक मह�ने बाद मुझे कारोबार के �सल�सले म� �वदे श जाना पड़ा


और वहां मेरे अनुमान से कह�ं अ�धक —दो साल-लग गए। गोपा के पत्
बराबर जाते रहते थे , िजससे मालम
ू होता था , वे आराम से ह� , कोई �चंता क�
बात नह�ं है । मुझे पीछे �ात हुआ �क गोपा ने मुझे भी गैर समझा और
वास्तह�वक िस्थ�त �छपाती रह

38
�वदे श से लौटकर म� सीधा �दल्ल� पहुँचा। द्वार पर पहुंचते ह�मुझे भ
रोना आ गया। मत्यु
ृ क� प्र�तध्-सी छायी हुई थी। िजस कमरे म� �मत्र
के जमघट रहते थे उनके द्वार बंद थ, मक�डय� ने चार� ओर जाले तान रखे
थे। दे वनाथ के साथ वह श्रीलुप्तथ हो गई थी। पहल� नजर म� मुझे तो ऐ
भ्रमहुआ �क देवनाथ द्वार पर खडे मेर� ओर देखकर मुस्कजरा रहे ह�।
�मथ्या◌ुवाद� नह�ं हूं और आत्माड क� दै�हकता म�मुझे संदेह , ले�कन उस
वक्तय एक बार म� च�क जरूर पडा हृदय म� एक कम-सा उठा
; ले�कन दस
ू र�
नजर म� प्र�तमा �मटचुक� थ
द्वार खुला। गोपा के �सवा खोलनेवाला ह� कौन था। म�ने उसे देखकर
�दल थाम �लया। उसे मेरे आने क� सच
ू ना थी और मेरे स्वा गत क� प्र�त
म� उसने नई साड़ी पहन ल� थी और शायद बाल भी गंथ
ु ा �लए थे ; पर इन
दो वष� के समय ने उस पर जो आघात �कए थे , उन्ह�◌ा क्यान कर
? ना�रय�
के जीवन म� यह वह अवस्थार ह, जब रूप लावण्यय अपने पूरे �वकास पर होत
है , जब उसम� अल्हआड़पन चंचलता और अ�भमान क� जगह आकषर, माधय
ु र्
और र�सकता आ जाती है ; ले�कन गोपा का यौवन बीत चुका था उसके मुख
पर झु�रर्यां और �वषाद क� रेखाएं अं�कत थी , िजन्ह� उसक� प्रयत्नन
प्रसन्नरता भी न �मटा सकती थी। केश� पर सफेद� दौड़ चल� थी और
एक अंग बढ
ू ा हो रहा था।
म�ने करूण स्व र म� पूछा क्या◌ी तुम बीमार थीं गोप
गोपा ने आंसू पीकर कहा नह�ं तो , मुझे कभी �सर ददर् भी नह�ं हुआ।
‘तो तुम्हापर� यह क्, दशा ?है�बल्कुहल बूढ� हो गई हो

‘तो जवानी लेकर करना ह� क्याय ह? मेर� उम्र तो प�तीस के ऊपर ह
गई!
‘प�तीस क� उम्र तो बहुत नह�ं होत’
‘हाँ उनके �लए जो बहुत �दन जीना चाहते है । म� तो चाहती हूं िजतनी
जल्दह हो सक, जीवन का अंत हो जाए। बस सुन्न के ब्यापह क� �चंता है
इससे छु टट� पाऊँ; मुझे िजन्दागी क� परवाह न रहेगी’

39
अब मालम ू हुआ �क जो सज्जतन इस मकान म � �कराएदार हुए थ, वह
थोडे �दन� के बाद तबद�ल होकर चले गए और तब से कोई दस
ू रा �करायदार
न आया। मेरे हृदय म � बरछ-सी चभ
ु गई। इतने �दन� इन बेचार� का �नवार्ह
कैसे हुआ, यह कल्परना ह� :द खद थी।
म�ने �वरक्, मन से कहा—ले�कन तुमने मुझे सच
ू ना क्य�ह न? दक्या
म� �बलकु ल गैर हू?ँ
गोपा ने लिज्जत होकर कहा नह�ं नह�ं यह बात नह�ं है। तुम्ह� गै
ू ी तो अपना �कसे समझँग
समझँग ू ी ? म�ने समझा परदे श म� तुम खुद अपने
झमेले म� पडे होगे, तुम्ह�त क्य�द सता
? �कसी न �कसी तरह �दन कट ह� गये।
घर म� और कुछ न था , तो थोडे—से गहने तो थे ह�। अब सन
ु ीता के �ववाह
क� �चंता है । पहले म�ने सोचा था , इस मकान को �नकाल दं ग
ू ी , बीस-बाइस
हजार �मल जाएँगे। �ववाह भी हो जाएगा और कुछ मेरे �लए बचा भी रहे गा ;
ले�कन बाद को मालम
ू हुआ �क मकान पहले ह� रे हन हो चुका है और सद

�मलाकर उस पर बीस हजार हो गए ह�। महाजन ने इतनी ह� दया क्यास कम
क�, �क मुझे घर से �नकाल न �दया। इधर से तो अब कोई आशा नह�ं है ।
बहुत हाथ पांव जोड़ने पर संभव है , महाजन से दो ढाई हजार �मल जाए।
इतने म� क्या होग? इसी �फक्र म�घुल� जा रह� हूं। ले�कन म� भी इतन
मतलबी हूं, न तुम्ह�ह हाथ मुंह धोने को पानी �दय
, न कुछ जलपान लायी और
अपना दुखड़ा ले बैठ�। अब आप कपडे उता�रए और आराम से बै�ठए। कुछ
खाने को लाऊँ, खा ल�िजए, तब बात� ह�। घर पर तो सब कु शल है?
म�ने कहा—म� तो सीधे बम्बरई से यहां आ रहा हूं। घर कहां गया।
गोपा ने मुझे �तरस्कात—भर� आंख� से दे खा , पर उस �तरस्का।र क�
आड़ म� घ�निष्ठ आत्मीलयता बैठ� झांक रह� थी।मुझे ऐसा जान प, उसके
मुख क� झु�रर्या �मट गई ह�। पीछे मुख पर हल्क —सी लाल� दौड़ गई।
उसने कहा —इसका फल यह होगा �क तुम्हालर� देवीजी तुम्ह�ल कभी यहां
आने द�गी।
‘म� �कसी का गुलाम नह�ं हूं।’

40
‘�कसी को अपना गुलाम बनाने के �लए पहले खुद भी उसका गुलाम
बनना पडता है ।’
शीतकाल क� संध्य’ दे खते ह� दे खते द�पक जलाने लगी। सुन्नीह
लालटे न लेकर कमरे म� आयी। दो साल पहले क� अबोध और कृशतनु
बा�लका रूपवती युवती हो गई थ , िजसक� हर एक �चतवन , हर एक बात
उसक� गौरवशील प्रक�त का पता दे रह� थी। िजसे म� गोद म� उठाकर प्या◌
करता था , उसक� तरफ आज आंख� न उठा सका और वह जो मेरे गले से
�लपटकर प्रस न्न् होती , आज मेरे सामने खडी भी न रह सक�। जैसे
मुझसे वस्तुन �छपाना चाहती ह
, और जैसे म� उस वस्तुम को �छपाने का अवसर
दे रहा हूं।
म�ने पछ
ू ा—अब तुम �कस दरजे म� पहुँची सुन्नी
?
उसने �सर झुकाए हुए जवाब �दया—दसव� म� हूं।
‘घर का भ कुछ काम-काज करती हो।
‘अम्मा जब करने भी ’द�
गोपा बोल� —म� नह�ं करने दे ती या खुद �कसी काम के नगीच नह�ं
जाती?
सुन्नी◌ो मुंह फेरकर हंसती हुई चल� गई। मां क� दुलार� लडक� थी।
िजस �दन वह गहस्थीं का काम करत , उस �दन शायद गोपा रो रोकर आंख�
फोड लेती। वह खुद लड़क� को कोई काम न करने दे ती थी , मगर सबसे
�शकायत करती थी �क वह कोई काम नह�ं करती। यह �शकायत भी उसके
प्यायर का ह� एक क�रश्मा था। हमार� मयार्दा हमारे बाद भी जी�वत रहती ह
म� तो भोजन करके लेटा , तो गोपा ने �फर सुन्नी◌ा के �ववाह क�
तैया�रय� क� चचार् छेड द�। इसके �सवा उसके पास और बात ह� क्यान थी
लडके तो बहुत �मलते ह� , ले�कन कुछ है �सयत भी तो हो। लडक� को यह
सोचने का अवसर क्य�। �मले �क दादा होते हुए तो शायद मेरे �लए इससे
अच्छा घर वर ढूंढते। �फर गोपा ने डरते डरते लाला मदार�लाल के लड़के का
िजक्र �कय

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म�ने च�कत होकर उसक� तरफ दे खा। मदार�लाल पहले इंजी�नयर थे ,
अब प�शन पाते थे। लाख� रूपया जमा कर �लए थ , पर अब तक उनके लोभ
क� भख
ू न बुझी थी। गोपा ने घर भी वह छांटा , जहां उसक� रसाई क�ठन
थी।
म�ने आप�त क�—मदार�लाल तो बड़ा दुजर्न मनुिष्य ह
गोपा ने दांत� तले जीभ दबाकर कहा —अरे नह�ं भैया, तुमने उन्ह�
पहचाना न होगा। मेरे उपर बड़े दयालु ह�। कभी-कभी आकर कु शल —
समाचार पछ
ू जाते ह�। लड़का ऐसा होनहार है �क म� तुमसे क्या◌ु कहूं। �फर
उनके यहां कमी �कस बात क� है? यह ठ�क है �क पहले वह खूब �रश्व त लेते
थे; ले�कन यहां धमार्त्मान कौन
? कौन अवसर पाकर छोड़ दे ता है ? मदार�लाल
ने तो यहां तक कह �दया �क वह मुझसे दहे ज नह�ं चाहते , केवल कन्यास
चाहते ह�। सुन्नीि◌ उनके मन म� बैठ गई है।
मुझे गोपा क� सरलता पर दया आयी ; ले�कन म�ने सोचा क्य�व इसके
मन म� �कसी के प्र�त अ�वश्वा◌ीस उत्पनन्न करूं। संभव है मदार�लाल
रहे ह�, �चत का भावनाएं बदलती भी रहती ह�।
म�ने अधर् सहमत होकर कह —मगर यह तो सोचो , उनम� और तुममे
�कतना अंतर है । शायद अपना सवर्स्वम अपर्ण करके भी उनका मुंह नीचा
कर सको।
ले�कन गोपा के मन म� बात जम गई थी। सुन्नी को वह ऐसे घर म �
चाहती थी, जहां वह रानी बरकर रहे ।
दस
ू रे �दन प्र: काल म� मदार�लाल के पास गया और उनसे मेर� जो
बातचीत हुई, उसने मुझे मुग्ध कर �दया। �कसी समय वह लोभी रहे ह�ग
, इस
समय तो म�ने उन्ह�◌ं बहुत ह� सहृदय उदार और �वनयशील पाया। बोले भा
साहब, म� दे वनाथ जी से प�र�चत हूं। आद�मय� म� रत्ना थे। उनक� लड़क� मेरे
घर आये , यह मेरा सौभािग्य है। आप उनक� मां से कह द , मदार�लाल उनसे
�कसी चीज क� इच्छा◌ै नह�ं रखता। ईश्वंर का �दयाहुआ मे रे घर म� सबकु
है , म� उन्ह� जेरबार नह�ं करना चाहता

42
3

ये चार मह�ने गोपा ने �ववाह क� तैया�रय� म� काटे । म� मह�ने म� एक


बार अवश्यह उससे �मल आता थ ; पर हर बार �खन्ने होकर लौटता।
गोपा ने अपनी कु ल मयार्दा का न जाने �कतना महान आदशर् अपने सामन
रख �लया था। पगल� इस भ्रम म� पड़ीहुई थी �क उसका उत्साकह नगर
अपनी यादगार छोड़ता जाएगा। यह न जानती थी �क यहां ऐसे तमाशे रोज
होते ह� और आये �दन भल
ु ा �दए जाते ह�। शायद वह संसार से यह श्रेय लेन
चाहती थी �क इस गई —बीती दशा म� भी , लट
ु ा हुआ हाथी नौ लाख का है ।
पग-पग पर उसे दे वनाथ क� याद आती। वह होते तो यह काम य� न होता ,
य� होता, और तब रोती।
मदार�लाल सज्ज न ह, यह सत्ये ह , ले�कन गोपा का अपनी कन्या◌े के
प्र�त भीकुछ धमर् है। कौन उसके दस पांच लड़�कयां बैठ� हुई ह�। वह
�दल खोलकर अरमान �नकालेगी! सुन्नीक के �लए उसने िजतने गहने और
जोड़े बनवाए थे , उन्ह�प देखकर मुझे आश्चसयर् होता था। जब देखो -न-कुछ
सी रह� है , कभी सन
ु ार� क� दुकान पर बैठ� हुई है , कभी मेहमान� के आदर-
सत्का◌ीर का आयोजन कर रह� है। मुहल्ले म� ऐसा �बरला ह� कोई सम्प न
मनुष्य होग
, िजससे उसने कुछ कजर् न �लया हो। वह इसे कजर् समझती ,
पर दे ने वाले दान समझकर दे ते थे। सारा मुहल्ला◌ु उसका सहायक था। सुन्नी
अब मुहल्लेल क� लड़क� थी। गोपा क� इज्जुत सबक� इज्जकत है और गोपा
�लए तो नींद और आराम हराम था। ददर् से �सर फटा जा रहा ह , आधी रात
हो गई मगर वह बैठ� कुछ-न-कुछ सी रह� है , या इस कोठ� का धान उस
कोठ� कर रह� है । �कतनी वात्स।ल्यस से भर� अकां�ा, जो �क दे खने वाल�
म� श्रद्धा उत्पकन्नन कर देत

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अकेल� औरत और वह भी आधी जान क�। क्या◌े क्या◌ी करे। जो का
दस
ू र� पर छोड दे ती है , उसी म� कुछ न कुछ कसर रह जाती है , पर उसक�
�हम्मंत है �क �कसी तरह हार नह�ं मानती
�पछल� बार उसक� दशा दे खकर मुझसे रहा न गया। बोला—गोपा दे वी,
अगर मरना ह� चाहती हो , तो �ववाह हो जाने के बाद मरो। मुझे भय है �क
तुम उसके पहले ह� न चल दो।
गोपा का मुरझाया हुआ मुख प्रमु�दत हो उठा। बोल� उसक� �चंता
ु ा नह�ं , रॉडं मरे न
करो भैया �वधवा क� आयु बहुत लंबी होती है । तुमने सन
खंडहर ढहे । ले�कन मेर� कामना यह� है �क सुन्नीन का �ठकाना लगाकर म�
भी चल दं ।ू अब और जीकर क्या◌ा करूं
, सोचो। क्यान कर, अगर �कसी तरह
का �वघ्नअ पड़ गया तो �कसक� बदनामी होगी। इन चार मह�न� म � मुिश्क
से घंटा भर सोती हूंगी। नींद ह� नह�ं आती, पर मेरा �चत प्रसन्नु है। म� म
या जीऊँ मुझे यह संतोष तो होगा �क सुन्नीब के �लए उसका बाप जो कर
सकता था , वह म�ने कर �दया। मदार�लाल ने अपन सज्ज नता �दखा , तो
मुझे भी तो अपनी नाक रखनी है ।
एक दे वी ने आकर कहा बहन, जरा चलकर दे ख चाशनी ठ�क हो गई है
या नह�ं। गोपा उसके साथ चाशनी क� पर��ा करने गयीं और एक �ण के
बाद आकर बोल� जी चाहता है , �सर पीट लं।ू तुमसे जरा बात करने लगी ,
उधर चाशनी इतनी कडी हो गई �क लडडू द�त� से लड�गे। �कससे क्याग कहूं।
मैने �चढ़कर कहा तुम व्यईथर् का झंझट कर रह� हो। क्य�स नह�ं �क
हलवाई को बल
ु ाकर �मठाइयां का ठे का दे दे ती। �फर तुम्हाहरे यहां मेहमान ह�
�कतने आएंगे , िजनके �लए यह तम
ू ार बांध रह� हो। दस पांच क� �मठाई
उनके �लए बहुत होगी।
गोपा ने व्यक�थत नेत्र� से मेर ओर देखा। मेर यह आलोचना उसे ब
लग। इन �दन� उसे बात बात पर क्रोध आ जाता था। बोल� भै , तुम ये
बात� न समझोगे। तुम्ह�त न मां बनने का अवसर �मल , न पित्न बनने का।
सुन्नीन के �पता का �कतना नाम थ, �कतने आदमी उनके दम से जीते थे ,

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क्यान यह तुम नह�ं जानत, वह पगड़ी मेरे ह� �सर तो बंधी है । तुम्ह � �वश्वा◌ास
न आएगा नािस्तक जो ठहर, पर म� तो उन्ह� सदै व अपने अंदर बैठा पाती ह, ूं
जो कुछ कर रहे ह� वह कर रहे ह�। म� मंदब�ु द्ध स� भला अकेल� क्याब कर
दे ती। वह� मेरे सहायक ह� वह� मेरे प्रकाश है। यह समझ लो �क यह दे
मेर� है पर इसके अंदर जो आत्माम है वह उनक� है। जो कुछ हो रहा है उनके
पुण्यह आदेश से हो रहा है तुम उनके �मत्र हो। तुमने अपने सैकड़� रूपये
�कए और इतना है रान हो रहे हो। म� तो उनक� सहगा�मनी हूं , लोक म� भी ,
परलोक म� भी।
म� अपना सा मुह लेकर रह गया।

जबहनू ुतम� ज्या◌ादा �दय


�ववाह हो गया। गोपा ने बहुत कुछ �दया और अपनी है �सयत से
, ले�कन �फर भी, उसे संतोष न हुआ। आज सुन्नीद के
�पता होते तो न जाने क्या◌ा करते। बराबर रोती रह�
जाड़� म� म� �फर �दल्ल�न गया। म�ने समझा �क अब गोपा सुखी होगी।
लड़क� का घर और वर दोन� आदशर् ह�। गोपा को इसके �सवा और क्या◌
चा�हए। ले�कन सख
ु उसके भाग्य् म � ह� न था
अभी कपडे भी न उतारने पाया था �क उसने अपना दुखडा शर
ु —कर
�दया भैया , घर द्वार सब अच्छाअ , सास-ससुर भी अच्छेी ह , ले�कन जमाई
�नकम्माय �नकला। सुन्नीअ बेचार� -रोकर �दन काट रह� है । तुम उसे दे, ख
तोो
पहचान न सको। उसक� परछाई मात्र रह गई है। अभी कई �दनह , आयी
हुई थी, उसक� दशा दे खकर छाती फटती थी। जैसे जीवन म� अपना पथ खो
बैठ� हो। न तन बदन क� सध ु है न कपड़े-लते क�। मेर� सुन्नीख क� दुगर्
होगी, यह तो स्वहप्नन म� भी न सोचा था। �बल्कुील गुम सुम हो गई ह
�कतना पछ
ू ा बेट� तुमसे वह क्य�◌े नह�ं बोलता �कस बात पर नाराज ह ,
ले�कन कुछ जवाब ह� नह�ं दे ती। बस, आंख� से आंसू बहते ह� , मेर� सुन्नक कुएं
म� �गर गई।

45
म�ने कहा तुमने उसके घर वाल� से पता नह�ं लगाया।
‘लगाया क्य� नह�ं भैय,ा सब हाल मालम
ू हो गया। ल�डा चाहता है , म�
चाहे िजस राह जाऊँ , सुन्नी◌ै मेर� पूरा करती रहे। सुन्नील भला इसे क� सहने
लगी? उसे तो तुम जानते हो , �कतनी अ�भमानी है । वह उन िस्त्रय� म� नह
है , जो प�त को दे वता समझती है और उसका दुिव्यर्वहार सहती रहती है
उसने सदै व दुलार और प्याकर पाया है। बाप भी उस पर जान देता था। म�
आंख क� पुतल� समझती थी। प�त �मला छै ला , जो आधी आधी रात तक
मारा मारा �फरता है । दोन� म� क्याल बात हुई यह कौन जान सकता ह
, ले�कन
दोन� म� कोई गांठ पड़ गई है । न सुन्नी◌ै क� परवाह करता ह
, न सुन्नै उसक�
परवाह करती है , मगर वह तो अपने रं ग म� मस्त ह, सुन् न् प्राण �दये दे
है । उसके �लए सुन्नीप क� जगह मुन्नीन , सुन्ना के �लए उसक� अपे�ा है
और रूदन है’
म�ने कहा—ले�कन तुमने सुन्नीम को समझाया नह�ं। उस ल�डे का क्या
�बगडेगा? इसक� तो िजन्द�गी खराब हो जाएगी
गोपा क� आंख� म� आंसू भर आए, बोल�—भैया-�कस �दल से समझाऊँ?
सुन्नी◌ी को देखकर तो मेर छाती फटने लगती है। बस यह� जी चाहता है �क
इसे अपने कलेजे म� ऐसे रख लंू , �क इसे कोई कड़ी आंख से दे ख भी न
सके। सुन्नी◌े फूहड़ होत, कटु भा�षणी होती , आरामतलब होती , तो समझती
भी। क्या् यह समझाऊँ �क तेरा प�त गल� गल� मुँह काला करता �फर , �फर
भी तू उसक� पज
ू ा �कया कर? म� तो खुद यह अपमान न सह सकती। स्त�
पुरूष म � �ववाह क� पहल� शतर् यह है �क दोन� सोलह� आने -दस
ू रे के हो
जाएं। ऐसे पुरूष तो कम ह , जो स्त� को जौ-भर �वच�लत होते दे खकर शांत
रह सक� , पर ऐसी िस्त्रयांबहुत , जो प�त को स्व च्छं द समझती ह�।सु न्
उन िस्त्रय� म� नह�ं है। वह अगर आत्मबसमपर्ण करती है तो आत्म
चाहती भी है , और य�द प�त म� यह बात न हुई , तो वह उसम� कोई संपकर् न
रखेगी, चाहे उसका सारा जीवन रोते कट जाए।

46
यह कहकर गोपा भीतर गई और एक �संगारदान लाकर उसके अंदर
के आभष
ू ण �दखाती हुई बोल� सुन्नी◌ा इसे अब क� यह�ं छोड़ गई। इसी�लए
आयी थी। ये वे गहने ह� जो म�ने न जाने �कतना कष्टय सहकर बनवाए थे।
इसके पीछे मह�न� मार� मार� �फर� थी। य� कहो �क भीख मांगकर जमा
�कये थे। सुन्नीं अब इसक� ओर आंख उठाकर भी नह�ं देखत! पहने तो
�कसके �लए? �संगार करे तो �कस पर ? पांच संदक
ू कपड� के �दए थे। कपडे
सीते-सीते मेर� आंख� फूट गई। यह सब कपडे उठाती लायी। इन चीज� से
उसे घण
ृ ा हो गई है । बस , कलाई म� दो च�ू डयां और एक उजल� साड़ी ; यह�
उसका �संगार है ।
म�ने गोपा को सांत्व ना द—म� जाकर केदारनाथ से �मलंग
ू ा। दे खंू तो ,
वह �कस रं ग ढं ग का आदमी है ।
गोपा ने हाथ जोडकर कहा—नह�ं भरे या, भल
ू कर भी न जाना; सुन्नी◌ी
सन
ु ेगी तो प्राण ह� दे देगी। अ�भमान क�पुतल� ह� समझो उसे। रस्स
समझ लो, िजसके जल जाने पर भी बल नह�ं जाते। िजन पैर� से उसे ठुकरा
�दया है , उन्ह�ज वह कभी न सहलाएगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो ल�डी
बना ले, ले�कन शासन तो उसने मेरा न सहा, दस
ू र� का क्या◌ा सहेगी
म�ने गोपा से उस वक्ते कुछ न कह , ले�कन अवसर पाते ह� लाला
मदार�लाल से �मला। म� रहस्य का पता लगाना चाहता था। संयोग से �पता
और पुत , द�न� ह� एक जगह पर �मल गए। मुझे दे खते ह� केदार ने इस
तरह झुककर मेरे चरण छु ए �क म� उसक� शाल�नता पर मुग्धे हो गया।
तुरंत भीतर गया और चाय, मुरब्बान और �मठाइयां लाया। इतना सौम्
, इतना
सश
ु ील, इतना �वनम्रयुवक म�ने न देखा था। यह भावना ह� न हो सकती थ
�क इसके भीतर और बाहर म� कोई अंतर हो सकता है । जब तक रहा �सर
झुकाए बैठा रहा। उच्छृं◌ेखलता तो उसे छू भी नह�ं गई थी।
जब केदार टे �नस खेलने गया , तो म�ने मदार�लाल से कहा केदार बाबू
तो बहुत सिच्च�रत्र जान पडते, �फर स्त्री पुरूष म� इतना मनोमा�लन्य�
हो गया है ।

47
मदार�लाल ने एक �ण �वचार करके कहा इसका कारण इसके �सवा
और क्याल बताऊँ �क दोन� अपने मा-बाप के लाड़ले ह�, और प्यामर लड़क� को
अपने मन का बना दे ता है । मेरा सारा जीवन संघषर् म � कटा। अब जाकर
जरा शां�त �मल� है । भोग-�वलास का कभी अवसर ह� न �मला। �दन भर
प�रश्रम करता , संध्या को पडकर सो जाता था। स्वा।स्य्� भी अच्छा न
था, इस�लए बार-बार यह �चंता सवार रहती थी �क संचय कर लं।ू ऐसा न हो
�क मेरे पीछे बाल बच्चेब भीख मांगते �फरे। नतीजा यह हुआ �क इन महाशय
को मुफ्त का धन �मला। सनक सवार हो गई। शराब उडने लगी। �फर ड्रा
खेलने का शौक हुआ। धन क� कमी थी ह� नह�ं , उस पर माँ-बाप अकेले
बेटे। उनक� प्रसन्नधता ह� हमारे जीवन को स्वगगर् था।-�लखना तो दरू
रहा, �वलास क� इच्छा बढ़ती गई। रंग और गहरा हु
, अपने जीवन का ड्राम
खेलने लगे। म�ने यह रं ग दे खा तो मुझे �चंता हुई। सोचा , ब्य,ह कर दं,ू ठ�क
हो जाएगा। गोपा दे वी का पैगाम आया , तो म�ने तुरंत स्वीआकार कर �लया। म�
सुन्नीग को देख चुका था। सोच, ऐसा रूपवती पत्नी पाकर इनका मन िस्
हो जाएगा , पर वह भी लाड़ल� लड़क� थी —हठ�ल�, अबोध, आदशर्वा�दनी।
स�हष्णुाता तो उसने सीखी ह� न थी। समझौते का जीवन म � क्यान मू, है,
इसक उसे खबर ह� नह�ं। लोहा लोहे से लड़ गया। वह अभ न से परािजत
करना चाहती है या उपे�ा से , यह� रहस्यज है। और साहब म� तो बहू को ह�
अ�धक दोषी समझता हूं। लड़के प्राय मनचले होते ह�। लड़�कयां स्वासभाव
ह� सश
ु ील होती ह� और अपनी िजम्मेरदार� समझती ह�। उसम � ये गुण ह� नह�ं।
ड�गा कैसे पार होगा ईश्वीर ह� जाने
सहसा सुन्नीप अंदर से आ गई। �बल्कुाल अपने �चत्र क� रेख
, मानो
मनोहर संगीत क� प्र�तध्व �न हो। कुंदन तपकर भस्मक हो गया था। �मट�
आशाओं का इससे अच्छाि◌ �चत्र नह�ं हो सकता। उलाहना देती हुई ब —
आप जान� कब से बैठे हुए ह� , मुझे खबर तक नह�ं और शायद आप बाहर ह�
बाहर चले भी जाते?

48
म�ने आंसुओं के वेग को रोकते हुए कहा नह�ं सुन्नी , यह कैसे हो
सकता था तुम्हा◌ेरे पास आ ह� रहा था �क तुम स्वनयं आ ग
मदार�लाल कमरे के बाहर अपनी कार क� सफाई करने लगे। शायद
मुझे सुन्नीर से बात करने का अवसर देना चाहते थे।
सुन्नी◌ु ने पूछ
—अम्मां तो अच्छ�झ तरह
?
‘हां अच्छ�◌ी ह�। तुमने अपनी यह क्यां गत बना रखी ह

‘म� अच्छ�◌ी तरह से हूं

‘यह बात क्यान ह? तुम लोग� म� यह क्या अनबन है। गोपा देवी प्र
�दये डालती ह�। तुम खुद मरने क� तैयार� कर रह� हो। कुछ तो �वचार से
काम लो।’
सुन्नी। के माथे पर बल पड़ ग —आपने नाहक यह �वषय छे ड़ �दया
चाचा जी! म�ने तो यह सोचकर अपने मन को समझा �लया �क म� अभा�गन
हूं। बस , उसका �नवारण मेरे बत
ू े से बाहर है । म� उस जीवन से मत्यु
ृ को
कह�ं अच्छा समझती हू, जहां अपनी कदर न हो। म� व्रत के बदले म� व
चाहती हूं। जीवन का कोई दस
ू रा रूप मेर� समझ म � नह�ं आता। इस �वषय
म� �कसी तरह का समझौता करना मेरे �लए असंभव है । नतीजे मी म�
परवाह नह�ं करती।
‘ले�कन...’
‘नह�ं चाचाजी , इस �वषय म� अब कुछ न क�हए , नह�ं तो म� चल�
जाऊँगी।’
‘आ�खर सोचो तो...’
‘म� सब सोच चुक� और तय कर चुक�। पशु को मनुष्य बनाना मेर�
शिक्त से बाहर है’
इसके बाद मेरे �लए अपना मुंह बंद करने के �सवा और क्या रह गया
था?
5

49
म ई का मह�ना था। म� मंसरू गया हुआ था �क गोपा का तार पहुचा
तुरंत आओ, जरूर� काम है। म� घबरा तो गया ले�कन इतना �निश्च
था �क कोई दुघर्टना नह�ं हुई है। दूसरे �दन �दल्ल�◌ा जा पहुचा। गोपा मे र
सामने आकर खड़ी हो गई, �नस्पंद
, मक
ू , �नष्प�ण
, जैसे तपे�दक क� रोगी हो।
‘म�ने पछ
ू ा कु शल तो है, म� तो घबरा उठा।‘
‘उसने बुझी हुई आंख� से दे खा और बोल सच।’
‘सुन्नी◌ु तो कुशल से है

‘हां अच्छ� तरह है

‘और केदारनाथ?’
‘वह भी अच्छ�◌ु तरह ह�

‘तो �फर माजरा क्या◌ी ह
?’
‘कुछ तो नह�ं।’
‘तुमने तार �दया और कहती हो कुछ तो नह�ं।’
‘�दल तो घबरा रहा था, इससे तुम्ह � बल
ु ा �लया। सुन्नी को �कसी तरह
समझाकर यहां लाना है । म� तो सब कुछ करके हार गई।’
‘क्याह इधर कोई नई बात हो गई

‘नयी तो नह�ं है , ले�कन एक तरह म� नयी ह� समझो , केदार एक
ऐक्ट्रे स के साथ कह�ं भाग गया। एक सप्तांह से उसका कह�ं पता नह�ं
सुन्नी◌े से कह गया ह—जब तक तुम रहोगी घर म� नह�ं आऊँगा। सारा घर
सुन्नी◌े का शत्रु हो रहा, ले�कन वह वहां से टलने का नाम नह�ं लेता। सन
ु ा
है केदार अपने बाप के दस्तोखत बनाकर कई हजार रूपये ब�क से ले गया है
‘तुम सुन्नीब से �मल� थी
?’
‘हां, तीन �दन से बराबर जा रह� हूं।’
‘वह नह�ं आना चाहती, तो रहने क्य�◌ू नह�ं देती

‘वहां घट
ु घट
ु कर मर जाएगी।’
‘म� उन्ह�ं◌ु पैर� लाला मदार�लाल के घर चला। हालां�क म� जानता था
�क सुन्नीन �कसी तरह न आएग , मगर वहां पहुचा तो दे खा कु हराम मचा

50
हुआ है । मेरा कलेजा धक से रह गया। वहां तो अथ� सज रह� थी। मुहल्ले के
सैकड़� आदमी जमा थे। घर म� से ‘हाय! हाय!’ क� क्रं-ध्वे�न आ रह� थी।
यह सुन्नीद का शव था
मदार�लाल मुझे दे खते ह� मुझसे उन्म त क� भां�त �लपट गए और
बोले:
‘भाई साहब, म� तो लट
ु गया। लड़का भी गया, बहू भी गयी, िजन्द्गी ह
गारत हो गई।’
मालमू हुआ �क जब से केदार गायब हो गया था , सुन्नीए और भी
ज्यामदा उदास रहने लगी थी। उसने उसी �दन अपनी चू�डयां तोड़ डाल� थीं
और मांग का �संदरू प�छ डाला था। सास ने जब आपित्त क , तो उनको
अपशब्दग कहे। मदार�लाल ने समझाना चाहा तो उन्� भी जल�-कट� सन
ु ायी।
ऐसा अनुमान होता था —उन्माझद हो गया है। लोग� ने उससे बोलना छोड़
�दया था। आज प्र:काल यमुना स्नाचन करने गयी। अंधेरा थ
, सारा घर सो
रहा था, �कसी को नह�ं जगाया। जब �दन चढ़ गया और बहू घर म� न �मल�,
तो उसक� तलाश होने लगी। दोपहर को पता लगा �क यमुना गयी है । लोग
उधर भागे। वहां उसक� लाश �मल�। पु�लस आयी , शव क� पर��ा हुई। अब
जाकर शव �मला है । म� कलेजा थामकर बैठ गया। हाय, अभी थोडे �दन पहले
जो सुन्दमर� पालक� पर सवार होकर आयी थ, आज वह चार के कंधे पर जा
रह� है !
म� अथ� के साथ हो �लया और वहां से लौटा , तो रात के दस बज गये
थे। मेरे पांव कांप रहे थे। मालम
ू नह�ं , यह खबर पाकर गोपा क� क्याथ दशा
होगी। प्राणांत न हो ज, मुझे यह� भय हो रहा था। सुन्नीक उसक� प्राण थ
उसक� जीवन का केन्� थी। उस दु�खया के उद्यान म � यह� पौधा बच रहा
था। उसे वह हृदय रक्त से सी-सींचकर पाल रह� थी। उसके वसंत का
सन
ु हरा स्व प्न ह� उसका जीवन था उसम� कोपल� �नकल�, फूल �खल�गे, फल
लग� गे, �च�ड़या उसक� डाल� पर बैठकर अपने सह
ु ाने राग गाएंगी , �कन्तु◌े आज
�नष्ठु र �नय�त ने उस जीवन सूत्र को उखाडकर फ�क �दया। और अब उस

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जीवन का कोई आधार न था। वह �बन्दुक ह� �मट गया थ, िजस पर जीवन
क� सार� रे खाएँ आकर एकत्र हो जाती थीं
�दल को दोन� हाथ� से थामे , म�ने जंजीर खटखटायी। गोपा एक
लालटे न �लए �नकल�। म�ने गोपा के मुख पर एक नए आनंद क� झलक
दे खी।
मेर� शोक मुद्रा देखकर उसने मातृवत् प्रेम से मेरा हाथ पकड त
और बोल� आज तो तुम्हाररा सारा �दन रोते ह� कट; अथ� के साथ बहुत से
आदमी रहे ह�गे। मेरे जी म� भी आया �क चलकर सुन्नी के अं�तम दशर्
कर लं।ू ले�कन म�ने सोचा, जब सुन्नु ह� न रह, तो उसक� लाश म� क्यात रखा
है ! न गयी।
म� �वस्म य से गोपा का मुहँ देखने लगा। तो इसे यह शो-समाचार
�मल चुका है । �फर भी वह शां�त और अ�वचल धैय!र बोला अच्छा-�कया , न
गयी रोना ह� तो था।
‘हां, और क्याि
? रोयी यहां भी , ले�कन तुमसे सचव कहती हूं , �दल से
नह�ं रोयी। न जाने कैसे आंसू �नकल आए। मुझे तो सुन्नी◌ी क� मौत से
प्रसन्नयता हुई। दु�खया अपनी मान मयार्दा �लए संसार से �वदा ह, नह�ं
तो न जाने क्या◌ा क्या देखना पड़ता। इस�लए और भी प्रसन्नव हूं �क
अपनी आन �नभा द�। स्त्रीक के जीवन म� प्यासर न �मले तो उसका अंत
जाना ह� अच्छाद। तुमने सुन्नीज क�मुद्रा देख
? लोग कहते ह� , ऐसा जान
पड़ता था —मुस्कारा रह� है। मेर� सुन्नी◌ु सचमुच देवी थी। भै , आदमी
इस�लए थोडे ह� जीना चाहता है �क रोता रहे । जब मालम
ू हो गया �क
जीवन म� दु:ख के �सवा कुछ नह�ं है , तो आदमी जीकर क्या करे। �कस�लए
िजए? खाने और सोने और मर जाने के �लए ? यह म� नह�ं चाहती �क मुझे
सुन्नी◌े क� याद न आएगी और म� उसे याद करके रोऊँगी नह�ं। ले�कन वह
शोक के आंसू न ह�गे। बहादुर बेटे क� मां उसक� वीरग�त पर प्रसन्नल हो
है । सुन्नी◌ू क� मौत मे क्याककुछ कम गौरव
? म� आंसू बहाकर उस गौरव
का अनादर कैसे करू ? वह जानतीय ,हैऔर चाहे सारा संसार उसक� �नंदा करे ,

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उसक� माता सराहना ह� करे गी। उसक� आत्मान से यह आनंद भी छ�न लू ?
ले�कन अब रात ज्याहदा हो गई है। ऊपर जाकर सो रहो। म�ने तुम्हा◌ार
चारपाई �बछा द� है , मगर दे खे , अकेले पडे-पडे रोना नह�ं। सुन्नी◌ा ने वह�
�कया, जो उसे करना चा�हए था। उसके �पता होते, तो आज सुन्नी◌ु क� प्र�त
बनाकर पज
ू ते।’
म� ऊपर जाकर लेटा , तो मेरे �दल का बोझ बहुत हल्का हो गया थ ,
�कन्तुर र-रहकर यह संदेह हो जाता था �क गोपा क� यह शां�त उसक� अपार
व्य्था का ह� रूप तो नह�ं ?

53
नशा

ई श्व्री एक बडे जमींदार का लड़का था और म� गर�ब क्ल�क


पास मेहनत-मजूर� के �सवा और कोई जायदाद न थी। हम दोन� म�
, िजसके

परस्पेर बहस� होती रहती थीं। म� जमींदार� क� बुराई करत , उन्ह�◌् �हंसक पशु
और खून चस
ू ने वाल� ज�क और व�
ृ � क� चोट� पर फूलने वाला बंझा कहता।
वह जमींदार� का प� लेता , पर स्वपभाव: उसका पहलू कुछ कमजोर होता
था, क्य�ल�क उसके पास जमींदार� के अनुकूल कोई दल�ल न थी। वह कहता
�क सभी मनुष्यक बराबर नह�ं हात, छोटे -बडे हमेशा होते रह�गे। लचर दल�ल
थी। �कसी मानष
ु ीय या नै�तक �नयम से इस व्,वस्था◌े का औ�चत्यत �स
करना क�ठन था। म� इस वाद-�ववाद क� गम�-गम� म� अक्सेर तेज हो जाता
और लगने वाल� बात कह जाता , ले�कन ईश्वंर� हारकर भी मुस्ककराता रहत
था म�ने उसे कभी गमर् होते नह�ं देखा। शायद इसका कारण यह था �क वह
अपने प� क� कमजोर� समझता था।
नौकर� से वह सीधे मुंह बात नह�ं करता था। अमीर� म� जो एक बेदद�
और उद्दण्ता होती , इसम� उसे भी प्रचुर भाग �मला था। नौकर ने �बस्त
लगाने म� जरा भी दे र क�, दध
ू जरूरत से ज्या◌ुदा गमर् या ठंडा
, साइ�कल
अच्छ� तरह साफ नह�ं हु , तो वह आपे से बाहर हो जाता। सस
ु ्ती या
बदतमीजी उसे जरा भी बरदाश्तं न थ , पर दोस्त�ह से और �वशेषकर मुझसे
उसका व्यउवहार सौहादर् और नम्रता से भरा हुआ होता था। शायद उ
जगह म� होता , तो मुझसे भी वह�ं कठोरताएं पैदा हो जातीं , जो उसम� थीं ,
क्य�◌ै�क मेरा लोकप्रेम �सद्धांत� पर , �नजी दशाओं पर �टका हुआ था ,
ले�कन वह मेर� जगह होकर भी शायद अमीर ह� रहता, क्य�◌ी�क वह प्रकृ�त
ह� �वलासी और ऐश्व य-�प्रय थ
अबक� दशहरे क� छु �ट्टय� म� म�ने �निश्चय �कया �क घर न जाऊंग
मेरे पास �कराए के �लए रूपये न थे और न घरवाल� को तकल�फ देना

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चाहता था। म� जानता हूं, वे मुझे जो कुछ दे ते ह�, वह उनक� है �सयत से बहुत
ज्या◌ादा ह
, उसके साथ ह� पर��ा का ख्या ल था। अभी बहुत कुछ पढना ह ,
बो�डर्ग हाउस म � भूत क� तरह अकेले पड़े रहने को भी जी न चाहता था।
इस�लए जब ईश्वमर� ने मुझे अपने घर का नेवता �दय, तो म� �बना आग्र
के राजी हो गया। ईश्ववर� के साथ पर��ा क� तैयार� खूब हो जाएगी। वह
अमीर होकर भी मेहनती और जह�न है ।
उसने उसके साथ ह� कहा-ले�कन भाई , एक बात का ख्या◌ोल रखना।
वहॉ ं अगर जमींदार� क� �नंदा क� , तो मुआ�मला �बगड. जाएगा और मेरे
घरवाल� को बुरा लगेगा। वह लोग तो आसा�मय� पर इसी दावे से शासन
करते ह� �क ईश्वलर ने असा�मय� को उनक� सेवा के �लए ह� पैदा �कया है।
असामी म� कोई मौ�लक भेद नह�ं है, तो जमींदार� का कह�ं पता न लगे।
म�ने कहा-तो क्या तुम समझते हो �क म� वहां जाकर कुछ और हो
जाऊंगा?
‘हॉ,ं म� तो यह� समझता हूं।
‘तुम गलत समझते हो।‘
ईश्वतर� ने इसका कोई जवाब न �दया। कदा�चत् उसने इस मुआमले
को मरे �ववेक पर छोड़ �दया। और बहुत अच्छा �कया। अगर वह अपनी
बात पर अड़ता, तो म� भी िजद पकड़ लेता।

से कंड क्लाडस तो क्य


, म�न� कभी इंटर क्ला स म � भी सफर न �कया था।
अब क� सेकंड क्लालस म � सफर का सौभाग्या प्राइज़ हुआ। गाडी तो
बजे रात को आती थी , पर यात्रा के हषर् म� हम शाम को स्टे शन जा पहुं
कुछ दे र इधर-उधर सैर करने के बाद �रफ्रेशम-रूम म � जाकर हम लोग� ने
भेजन �कया। मेर� वेश-भष
ू ा और रं ग-ढं ग से पारखी खानसाम� को यह
पहचानने म� दे र न लगी �क मा�लक कौन है और �पछलग्गूं कौ ; ले�कन न
जाने क्य� मुझे उनक� गुस्तालखीबुर� लग रह� थी। पैसे ईश्वनर� क� जेब

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गए। शायद मेरे �पता को जो वेतन �मलता है , उससे ज्या दा इन खानसाम�
को इनाम-इकराम म� �मल जाता हो। एक अठन्नी तो चलते समय ईश्व र� ह
ने द�। �फर भी म� उन सभ� से उसी तत्पनरता और �वनय क� अपे�ा करता
था, िजससे वे ईश्व र� क� सेवा कर रहे थे। क्� ईश्वषर� के हुक्मे पर -के-
सब दौडते ह� , ले�कन म� कोई चीज मांगता हूं , तो उतना उत्सा◌ाह नह�ं �दखात!
मुझे भोजन म� कुछ स्वावद न �मला। यह भेद मेरे ध्,न को सम्पूाणर् रूप
अपनी ओर खींचे हुए था।
गाडी आयी , हम दोनो सवार हुए। खानसाम� ने ईश्वनर� को सलाम
�कया। मेर� ओर दे खा भी नह�ं।
ईश्व।र� ने कह —�कतने तमीजदार ह� ये सब ? एक हमारे नौकर ह� �क
कोई काम करने का ढं ग नह�ं।
म�ने खट्टे मन से क —इसी तरह अगर तुम अपने नौकर� को भी
आठ आने रोज इनाम �दया करो, तो शायद इनसे ज्या दा तमीजदार हो जाएं
‘तो क्याइ तुम समझते ह, यह सब केवल इनाम के लालच से इतना
अदब करते ह�।
‘जी नह�ं , कदा�पत नह�ं! तमीज और अदब तो इनके रक्तत म � �मल
गया है ।’
गाड़ी चल�। डाक थी। प्रयास से चल� तो प्रतापगढ जाकर रूक�
आदमी ने हमारा कमरा खोला। म� तुरंत �चल्लाग उठ , दस
ू रा दरजा है -सेकंड
क्ला स है।
उस मुसा�फर ने �डब्बेो के अन्दरर आकर मेर� ओर एक �व�चत्र उप
क� दृिष्ट से देखकर क —जी हां , सेवक इतना समझता है , और बीच वाले
बथर्डे पर बैठ गया। मुझे �कतनी लज्जाह, कह नह�ं सकता।
भोर होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुंच।े स्टेवशन पर कई आदमी
हमारा स्वाबगत करने के �लए खड़े थे। पांच बेगार। बेगार� ने हमारा लगेज
उठाया। दोन� भद्रपुरूष प -पीछे चले। एक मुसलमान था �रयासत अल� ,

56
दस
ू रा ब्राह्मण था रामहरख। दोन� ने मेर� ओर प�र�चत नेत्र� से , मानो
कह रहे ह�, तुम कौवे होकर हं स के साथ कैसे?
�रयासत अल� ने ईश्वरर� से पूछ —यह बाबू साहब क्याद आपके साथ
पढ़ते ह�?
ईश्वेर� ने जवाब �दय—हॉँ, साथ पढ़ते भी ह� और साथ रहते भी ह�। य�
क�हए �क आप ह� क� बदौलत म� इलाहाबाद पड़ा हुआ हूं , नह�ं कब का
लखनऊ चला आया होता। अब क� म� इन्ह�◌ु घसीट लाया। इनके घर से कई
तार आ चुके थे , मगर म�ने इनकार�-जवाब �दलवा �दए। आ�खर� तार तो
अज�ट था, िजसक� फ�स चार आने प्र�त शब्द , पर यहां से उनका भी जवाब
इनकार� ह� था।
दोन� सज्जथन� ने मेर� ओर च�कत नेत्र� से देखा। आतं�कत हो जा
क� चेष्टाज करते जान पड़े।
�रयासत अल� ने अद्धर्शंका के स्व र म� —ले�कन आप बड़े सादे
�लबास म� रहते ह�।
ईश्वसर� ने शंका �नवारण क —महात्माक गांधी के भक्त ह� साहब। खद
के �सवा कुछ पहने ह� नह�ं। पुराने सारे कपड़े जला डाले। य� कहा �क राजा
ह�। ढाई लाख सालाना क� �रयासत है, पर आपक� सरू त दे खो तो मालम
ू होता
है , अभी अनाथालय से पकड़कर आये ह�।
रामहरख बोले—अमीर� का ऐसा स्व भाव बहुत कम देखने म � आता है।
कोई भॉपं ह� नह�ं सकता।
�रयासत अल� ने समथर्न �कय —आपने महाराजा चॉँगल� को दे खा
ं तले उं गल� दबाते। एक गाढ़े क� �मजर्ई और चमर�धे जूते
होता तो दॉत�
पहने बाजार� म� घम
ू ा करते थे। सन
ु ते ह� , एक बार बेगार म� पकड़े गए थे
और उन्ह�ंर ने दस लाख से कालेज खोल �दया
म� मन म� कटा जा रहा था ; पर न जाने क्या् बात थी �क यह सफेद
झठ
ू उस वक्तक मुझे हास्याकस्प द न जान पड़ा। उसके प्रत्येठक वाक्या
मान� म� उस किल्पत वैभव के समीपतर आता जाता था

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म� शहसवार नह�ं हूं। हॉँ , लड़कपन म� कई बार लद्दू घोड़� पर सवा

हुआ हूं। यहां दे खा तो दो कलॉ-रास घोड़े हमारे �लए तैयार खड़े थे। मेर� तो
जान ह� �नकल गई। सवार तो हुआ , पर बो�टयॉ ं कॉपं रह�ं थीं। म�ने चेहरे पर
�शकन न पड़ने �दया। घोड़े को ईश्,र� के पीछे डाल �दया। खै�रयत यह हुई
�क ईश्वपर� ने घोड़े को तेज न �कय , वरना शायद म� हाथ-पॉँर तड़ ु वाकर
लौटता। संभव है, ईश्वतर� ने समझ �लया हो �क यह �कतने पानी म � है

ई श्वतर� का घर क्ा़ ,
य �कला था। इमामबाड़े का —सा फाटक , द्वार पर
पहरे दार टहलता हुआ , नौकर� का कोई �ससाब नह�ं , एक हाथी ब�धा हुआ।
ईश्वदर� ने अपने �पत, चाचा, ताऊ आ�द सबसे मेरा प�रचय कराया और उसी
अ�तश्यो िक्त के साथ। ऐसी हवा बॉंधी ि◌ ककुछ न पू�छए। नौ-चाकर ह�
नह�ं, घर के लोग भी मेरा सम्मा◌ीन करने लगे। देहात के जमींदा, लाख� का
मुनाफा, मगर पु�लस कान्समटे�बल को अफसर समझने वाले। कई महाशय तो
मुझे हुजूर-हुजूर कहने लगे!
जब जरा एकान्त हु , तौ म�ने ईश्वलर� से कह—तुम बड़े शैतान हो
यार, मेर� �मट्टी क्य�◌े पल�द कर रहे
?
ईश्वरर� ने दृढ़मुस्कायन के साथ —इन गध� के सामने यह� चाल
जरूर� थ, वरना सीधे मुँह बोलते भी नह�ं।
जरा दे र के बाद नाई हमारे पांव दबाने आया। कुं वर लोग स्टे शन से
आये ह� , थक गए ह�गे। ईश्वयर� ने मेर� ओर इशारा करके कह —पहले कुं वर
साहब के पांव दबा।
म� चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे जीवन म� ऐसा शायद ह� कभी हुआ
हो �क �कसी ने मेरे पांव दबाए ह�। म� इसे अमीर� के चोचले , रईस� का
गधापन और बड़े आद�मय� क� मुटमरद� और जाने क्या-क्य, कहकर ईश्वपर�

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का प�रहास �कया करता और आज म� पोतड़� का रईस बनने का स्वांचग भर
रहा था।
इतने म� दस बज गए। पुरानी सभ्यंता के लोग थे। नयी रोशनी अभी
केवल पहाड़ क� चोट� तक पहुंच पायी थी। अंदर से भोजन का बलु ावा आया।
हम स्ना◌ान करने चले। म� हम �शा अपनी धोती खुद छांट �लया करता हू
; मगर
यहॉँ म�ने ईश्व र� क� ह� भां�त अपनी धोती भी छोड़ द�। अपने हाथ� अपनी
धोती छांटते शमर् आ रह� थी। अंदर भोजन करने चले। होस्ट ल म� जूते पहल
मेज पर जा डटते थे। यहॉ ं पॉवं धोना आवश्यनक था। कहार पानी �लये खड़ा
था। ईश्वार� ने पॉंव बढ़ा �दए। कहार ने उसके पॉंव धोए। म�ने भी पॉंव बढ़ा
�दए। कहार ने मेरे पॉवं भी धोए। मेरा वह �वचार न जाने कहॉ ं चला गया
था।
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सो चा था , वहॉँ दे हात म� एकाग्र होकर खूब पढ़� , पर यहॉ ं सारा �दन


सैर-सपाटे म� कट जाता था। कह�ं नद� म� बजरे पर सैर कर रहे ह� ,
कह�ं मछ�ल य� या �च�डय� का �शकार खेल रहे ,ह�कह�ं पहलवान� क� कु श्तीर
दे ख रहे ह� , कह�ं शतरं ज पर जम� ह�। ईश्वंर� खूब अंडे मँगवाता और कमरे म �
’ पर आमलेट बनते। नौकर� का एक जत्था◌ू हमेशा घेरे रहता। अपने
‘स्टोह
हॉँथ-पॉँव �हलाने क� कोई जरूरत नह�ं। केवल जबान �हला देना काफ� है।
नहाने बैठो तो आदमी नहलाने को हािजर , लेटो तो आदमी पंखा झलने को
खड़े।
महात्मा◌ै गांधी का कुंवर चेला मशहूर था। भीतर से बाहर तक मेर�
धाक थी। नाश्ते म � जरा भी देर न होने पा, कह�ं कुं वर साहब नाराज न हो
जाऍ;ं �बछावन ठ�क समय पर लग जाए , कुं वर साहब के सोने का समय आ
गया। म� ईश्वेर� से भी ज्यालदा नाजुक �दमाग बन गया था या बनने प
मजबरू �कया गया था। ईश्व र� अपने हाथ से �बस्तगर �बछाले ले�कनकुंव

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मेहमान अपने हाथ� कैसेट अपना �बछावन �बछा सकते ह�! उनक� महानता
म� बट्टा लग जाएग
एक �दन सचमुच यह� बात हो गई। ईश्वार� घर म � था। शायद अपनी
माता से कुछ बातचीत करने म� दे र हो गई। यहॉ ं दस बज गए। मेर� ऑ ंख�
नींद से झपक रह� थीं, मगर �बस्तॉर कैसेट लगाऊ? कुं वर जो ठहरा। कोई साढ़े
ग्या रह बजे महरा आया। बड़ा मुंह लगा नौकर था। घर के धंध� म � मेरा
�बस्तसर लगाने क� उसे सु�ध ह� न रह�। अब जो याद आ , तो भागा हुआ
आया। म�ने ऐसी डॉँट बताई �क उसने भी याद �कया होगा।

ईश्व र� मेर� डँट सुनकर बाहर �नकल आया और बोल —तुमने बहुत
अच्छाम �कया। यह सब हरामखोर इसी व्य वहार के योग्यो
इसी तरह ईश्वछर� एक �दन एक जगह दावत म � गया हुआ था। शाम
हो गई, मगर लैम्पक मेज पर रखा हुआ था। �दयासलाई भी थ
, ले�कन ईश्व र�
खुद कभी लैम्पा नह�ं जलाता था। �फर कुंवर साहब कैसे जलाऍ ? म� झुंझला
रहा था। समाचार-पत्र आया रखाहुआ था। जी उधर लगाहुआ , पर लैम्?
नदारद। दै वयोग से उसी वक्तत मुंशी �रयासत अल� आ �नकले। म� उन्ह�ंस प
उबल पड़ा , ऐसी फटकार बताई �क बेचारा उल्लू हो गय — तुम लोग� को
इतनी �फक्र भी नह�ं �क लैम्पा तो जलवा! मालम
ू नह�ं , ऐसे कामचोर
आद�मय� का यहॉ ं कैसे गुजर होता है । मेरे यहॉ ं घंटे-भर �नवार्ह न हो।
�रयासत अल� ने कॉँपते हुए हाथ� से लैम्प जला �दया
वहाँ एक ठाकुर अक्सहर आया करता था। कुछ मनचला आदमी थ ,
महात्माअ गांधी का परम भक्तस।मुझे महात्मालजी का चेला समझकर मेरा ब
�लहाज करता था ; पर मुझसे कुछ पछ
ू ते संकोच करता था। एक �दन मुझे
अकेला दे खकर आया और हाथ बांधकर बोला —सरकार तो गांधी बाबा के
चेले ह� न? लोग कहते ह� �क यह सुराज हो जाएगा तो जमींदार न रह�गे।
म�ने शान जमाई —जमींदार� के रहने क� जरूरत ह� क्यात ? यह लोग
गर�ब� का खून चस
ू ने के �सवा और क्या◌े करते ह
?

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ठाकुर ने �पर पछ
ू ा —तो क्य�, सरकार, सब जमींदार� क� जमीन छ�न
ल� जाएगी। म�न� कहा-बहुत-से लोग तो खुशी से दे द�गे। जो लोग खुशी से न
द�गे, उनक� जमीन छ�ननी ह� पड़ेगी। हम लोग तो तैयार बैठे हुए ह�। ज्य�◌ी ह�
स्वगराज्यक, ह
अपने इलाके असा�मय� के नाम �हबा कर द�गे।
म� कुरसी पर पॉँव लटकाए बैठा था। ठाकुर मेरे पॉँव दबाने लगा। �फर
बोला—आजकल जमींदार लोग बड़ा जल ु ुम करते ह� सरकार! हम� भी हुजरू ,
अपने इलाके म� थोड़ी-सी जमीन दे द�, तो चलकर वह�ं आपक� सेवा म� रह�।
म�ने कहा —अभी तो मेरा कोई अिख्तयार नह�ं है भा ; ले�कन ज्य�◌े ह�
अिख्तयार �मल , म� सबसे पहले तुम्ह� बुलाऊंगा। तुम्ह�◌ो मो-ड़्राइवर� �सख
कर अपना ड्राइवर बना लूंगा
सन
ु ा , उस �दन ठाकुर ने खूब भंग पी और अपनी स्त� को खूब पीटा
और गॉवं महाजन से लड़ने पर तैयार हो गया।

छु ट्टी इस तरह तमाम हुई और हम �फर प्रयाग चले। गॉँव के -से


लोग हम लोग� को पहुंचाने आये। ठाकुर तो हमारे साथ स्टेुशन तक
आया। मैन� भी अपना पाटर् खूब सफाई से खेला और अपनी कुबेरो�चत �वनय
और दे वत्वं क� मुहर हरेक हृदय पर लगा द�। जी तो चाहता , हरे क नौकर
को अच्छा इनाम दू, ले�कन वह सामथ्यर् कहॉँ ? वापसी �टकट था ह�, केवल
गाड़ी म� बैठना था; पर गाड़ी गायी तो ठसाठस भर� हुई। दुगार्पूजा क� छु�ट्टय
भोगकर सभी लोग लौट रहे थे। सेकंड क्ला◌ास म � �तल रखने क� जगह नह�ं।
इंटरव्यू क्ला स क� हालत उससे भी बदतर। यह आ�खर� गाड़ी थी। �कस
तरह रूक न सकते थे। बड़ी मुिश्कल से तीसरे दरजे म� जगह �मल�। हमार
ऐश्वरयर् ने व हॉं अपना रंग जमा �ल, मगर मुझे उसम� बैठना बुरा लग रहा
था। आये थे आराम से लेटे-लेटे , जा रहे थे �सकु ड़े हुए। पहलू बदलने क� भी
जगह न थी।

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कई आदमी पढ़े -�लखे भी थे! वे आपस म� अंगरे जी राज्यब क� तार�फ
करते जा रहे थे। एक महाश्यअ बोल —ऐसा न्यापय तो �कसी राज्य म� नह�
दे खा। छोटे -बड़े सब बराबर। राजा भी �कसी पर अन्यापय कर , तो अदालत
उसक� गदर्न दबा देती है
दस
ू रे सज्ज न ने समथर्न �क —अरे साहब , आप खुद बादशाह पर
दावा कर सकते ह�। अदालत म� बादशाह पर �डग्री हो जाती ह
एक आदमी , िजसक� पीठ पर बड़ा गट्ठर बँधा , कलकत्तेक जा रहा
था। कह�ं गठर� रखने क� जगह न �मलती थी। पीठ पर बॉँधे हुए था। इससे
बेचन
ै होकर बार-बार द्वार पर खड़ा हो जाता। म� द्वार के पास ह� बैठाहु
था। उसका बार-बार आकर मेरे मुंह को अपनी गठर� से रगड़ना मुझे बहुत
बुरा लग रहा था। एक तो हवा य� ह� कम थी , दस
ू रे उस गँवार का आकर
मेरे मुंह पर खड़ा हो जाना , मानो मेरा गला दबाना था। म� कुछ दे र तक
जब्त �कए बैठा रहा। एकाएक मुझे क्रोध आ गया। म�ने उसे पकड़कर पी
ठे ल �दया और दो तमाचे जोर-जोर से लगाए।
उसन� ऑ ंख� �नकालकर कहा —क्य�◌े मारते हो बाबूज, हमने भी �कराया
�दया है !
म�ने उठकर दो-तीन तमाचे और जड़ �दए।
गाड़ी म� तूफान आ गया। चार� ओर से मुझ पर बौछार पड़ने लगी।
‘अगर इतने नाजुक �मजाज हो, तो अव्व ल दज� म� क्य�म नह�ं बैठ

‘कोई बड़ा आदमी होगा, तो अपने घर का होगा। मुझे इस तरह मारते
तो �दखा दे ता।’
‘क्याद कसूर �कया था बेचारे ने। गाड़ी म � साँस लेने क� जगह नह� ,
�खड़क� पर जरा सॉँस लेने खड़ा हो गया , तो उस पर इतना क्र! अमीर
होकर क्या आदमी अपनी इन्सा◌ा�नयत �बल्कुतल खो देता
’यह भी अंगरे जी राज है, िजसका आप बखान कर रहे थे।‘
एक ग्रामीण बो—दफ्तर मॉं घुस पावत नह�, उस पै इत्ताद �मजाज
ईश्व्री ने अंगरेजी मे - What an idiot you are, Bir!

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और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मालम
ू होता था।

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