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हिरण्यकश्यप परम शिव उपा सकहिरण्ययक्ष के भा ईम ह र्षिकश्यप की संतान थे। श्रीमद्भागवत के अ नु सा रयह पूर्व

जन्म में विष्णुजी के द्वा र पाजय


ल औ र विजय थे।
ये दोनों स्वर्ण वैज्ञानिक होने के कारण पृथ्वीलोक में स्वर्ण की खोज इन्होनें ही की थी।
हिरण्य का अर्थ स्वर्ण यानि सोना है और कश्यप का अर्थ अविष्कारक या खोजी होता है।

रसेन्द्र सार सहिंता ग्रन्थ के अनुसार स्वर्ण को पहनने से लेकर खाने तक के अनेक प्रयोग श्री हिरण्यकश्यप की
ही दुनिया को देन है। यह बहुत मुलायम धातु होने से यन्त्रो में इसका वि षशे ष प्रयोग किया जाता रहा है।

हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका तथा सिंहिका थीं सिंहिका राहु की माँ हैं। जिन्हें माँ धुमेवरीरी
श्वभी कहते
हैं। मप्र के दतिया में इनका मन्दिर है, जो के वल शनिवार को ही खुलता है।

सिरदर्द, पागलपन, मिर्गी, डिप्रेन एवं मनोरोगों की चिकित्सा करें होली की भस्म से—

होली जलने के दूसरे दिन स्नान कर होली जलने वाले स्थान पर एक दीपक अमृतम राहु की तेल का
पान के पत्ते पर रखकर जलाएं और मानसिक स्वास्थ्य की प्रार्थना करते ह होली की राख/,भस्म किसी चांदी या
मिट्टी के पात्र में भरकर घर लेकर आएं।

अघोरी की तिजोरी से—

इस भस्म को कपड़छन कर इसमें थोड़ी सी के शर, चांदी भस्म या चांदी का बर्क पीसकर मिलाएं।

इसमें से थोड़ी भस्म लेकर गंगाजल मिलाकर किसी शिवलिंग पर त्रिपुण्ड बनाएं और एक दीपक
दे घी का जलाकर अवसाद से मुक्ति की प्रार्थना कर अपने या पीड़ित के माथे पर लगाएं।

रात को नींद नहीं आती हो, तब भी होली की भस्म लगाकर लेटते ही नींद आ जाती है।

नाम पर मतभेद—

विष्णुपुराण, नारद स्मृति, श्रीमद्भागवत आदि शास्त्रों में हिरण्यकश्यप के कई किस्से मौजूद हैं। यह परम भक्त
थे। ये स्वर्ण का आविष्कारक थे। हिरण्य का अर्थ श्रीसूक्त में स्वर्ण बताया है और कश्यप का मतलब
अविष्कार करने वाला। इसी कारण इन्हें हिरण्यकश्यप कहा जाता है।

हिरण्यकश्यप के नाम के विषय में मतभेद है। कु छ स्थानों पर उसे हिरण्यकश्यप कहा गया है और कु छ
स्थानों पर हिरण्यकिशुप, शुद्ध हिरण्यकिशुप है जिसका अर्थ होता है अग्नि (हिरण्य) के रंग के के श वाला।

ऐसा माना जाता है कि संभवतः जन्म के समय उसका नाम हिरण्यकिशुप रखा गया किं तु सबको प्रताड़ित करने
के कारण संस्कृ त में कषि का अर्थ है हानिकारक, अनिष्टकर, पीड़ाकारक होता है।

यह सुदर्शन पुष्प है इसकी खोज हिरण्यकश्यप ने ही कि थी। इसके गुण-लाभ के बारे में निघन्टुकार ने
बहुत लिखा है-

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