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मातृ मंदिर में

सुभद्रा कुमारी चौहान

सुभद्रा कुमारी चौहान ने प्रस्तुत कविता में दे श के प्रतत प्रेम को दशााया है । अंग्रेज़ो की दमन
नीतत के कारण अनेक दे शभ्स्कस्तों ने अपने प्राणों की आहुतत दी है । तभी कितयत्री भे सचेत
हुई । उनको युद्ध के िीणा की आिाज़ कानों तक पड़ी तभी उनके नेत्र खुले । सुभद्रा कुमारी
चौहान को दे श ध्यान आया । भारत मां की याद आयी । थोडी ही दे र में स्ितंत्रता की प्राति
होनेिाली थी। उनको लग रहा था मानो उत्सि का सारा सामान तमलनेिाला हो । इन पंवतयों
के द्वारा कितयत्री का राष्ट्र्प्प्रेम झलकता है । उनको सारी घटनाएँ एक के बाद एक याद आती
है । इतना ही नहीं, िह एक नारी के रूप में ही रहकर साधारण नाररयों की आकांक्षाओं और
भािों को व्यत करती हैं । बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची दे श सेविका के भाि उन्होंने
व्यत ककए हैं । उनकी शैली में िही सरलता है , िही अकृ वत्रमता और स्पष्टता है , जो उनके जीिन
में है ।
'राष्ट्रभाषा' के प्रतत भी उनका गहरा सरोकार है , जजसकी सजग अतभव्यवत 'मातृ मजन्दर में',
नामक कविता में हुई है , यह उनकी राष्ट्रभाषा के उत्कषा के तलए तचन्ता है । उनको लगता है कक
जब छोटा बच्चा तुतलाता है तो उसे माँ का प्यार प्राि होता है । कहन्दी भाषा जो संपूणा
कहन्दस्
ू तान की प्यारी भाषा है । लग रहा है मानो कृ ष्ट्र्पण कातलन्दी नदी के ककनारे बैठकर बांसुरी
बजा रहे है , जजसमें मीठी भाषा समाकहत है । िह दृश्य जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान अपनी आंखों
से दे ख रही है ।
िह स्ियं को गरीब लड़की के रुप में दे ख रही है । इतना ही नहीं, िह सोच रही है जजस प्रकार
एक कंगाल बातलका जजसके पास कुछ भी नहीं है और उसकी मां के पास भी कुछ नहीं है ।
िह टु कड़ो की मोहताज है और आज तक दख
ु ी है । िह दजु खयारी के पास सुन्दर िस्त्र और
आभूषण दे खकर आश्चयाचककत हो जाती है । एक क्षण के तलए सोचती है कक यह सपना है या
सच । जजसके पास कुछ भी नहीं था यकायक आज िह इतनी सुंदर लग रही थी । सोचते हुए
रुक सी जाती है । उसका मन करता है कक िह उसे प्यार करें इतना ही नहीं, िह माता के
पैरों की धूतल पर स्ियं समवपात हो जाए । उनको लगता है कक मन से, आदरपूिक
ा उनको
दे ख ले । कितयत्री की इच्छा इतनी प्रबल हुई की माता के पास िह दौडकर जाती है । उनके
िस्त्रों को ठीक करती है एिं आभूषण भी पहनाती है । िह प्रेम में पागल होकर मां को सजाने
में ही स्ियं को सुखी पाती है । कितयत्री मां को सजाने ि सिारने में ही आनंद प्राि करती

अनु, नोबल कॉलेज,बेंगलुरू 1


है । कहीं न कहीं मन में एक बात है कक िह मां की भव्यमूतता को नकली आभूषण पहना कर
सजा रही है । किर भी मां मैं भी तुम्हारी संतान हूं, मुझे इसी में संतोष ि आनन्द प्राि होता
है । तुम मुझ जैसी अनेक लोगों से बनी है । आज तुम्हारे पास असंख्य लोग है । कहने का
तात्पया है कक तुम्हारे पास आज तीस कोकट की जनता है । तुम सभी भाषाओं को अपने में
समाकहत कर उनका मुकुट बनी हो ।

मेरे तलए बड़े गौरि की और गिा की बात है कक तुम सभी भाषा को अपने तसर पर वबठाया
है । तुम्हारे द्वारा ही भारत दे श में स्ितंत्रता का सूरज दे खेंगे।

कितयत्री माता को संबोतधत करते हुए आगे कह रही है कक मानि के सहयोग न दे ने पर भी


तुम्हारा लोगों के तलए मर-तमट जाना ही तेरा जीिन होगा । हम स्िाधीन होंगे ि विश्व में तुम
िैभि और धन भी प्राि करोगी । दतु नया के िीर तुम्हारे चरण स्पशा करें गे। दे िता पुष्ट्र्पप के द्वारा
तुम्हारा अतभनन्दन करें ग।े दे श का पालाामेन्ट बनाने का आधार भी तुम्हीं रहोगी । तुम्हारे द्वारा
ही दे श के िह क्षेत्र जो उजड चुके है , िह बसाने में सुविधा होगी । दे श में वबछडे ह्रदय को
तमलाने में और स्िातंत्र्य कदलाने का अतधकार भी तुम्हारा ही है । कितयत्री माता के प्रतत प्रेम
को दशाा रही है । संपूणा दे श का सुख माता में ही समाया है , ऐसी बात कितयत्री कविता की
अंततम पंवत में बता रही है । दे श के प्रतत प्रेम, भवत और गौरि को इस कविता के माध्यम
से कितयत्री दशाा रही है ।

अनु, नोबल कॉलेज,बेंगलुरू 2

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