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नै तक मूल्य
नाम: क्रिषा पटे ल
कक्षा : दसवी - बी (X - B)
अनुक्रिमांक : 11
अनुक्रिमा णका
क्रिमांक वषय
1. आभारोिक्त
2. बात अठन्नी की
3. काकी
4. महायज्ञ का पुरस्कार
5. नेताजी का चश्मा
6. बड़े घर की बेटी
8. भेड़े और भे ड़ये
9. दो कलाकार
DATE: DATE:
बात अठन्नी की
सार
प्रस्तुत कहानी में समाज में व्याप्त रश्वतखोरी
की ओर ध्यान आकृ ष्ट कया गया है । इस कहानी
द्वारा यह स्पष्ट कया गया है क अमीर वगर्भ चाहे
कतनी भी रश्वत क्यों न ले लें वह कभी पकड़ा
नहीं जाता। उसके वपरीत य द एक गरीब व्यिक्त
केवल अठन्नी की चोरी करता है तो उसे बड़ा
अपराधी करार कर दया जाता है ।
मूल्य
इस कहानी का मूल्य ईमानदारी है । हमे इस कहानी से पता चलता है
क रसीला जैसे ईमानदार लोग दन रात प रश्रम कर अपना वेतन
कमाते है और वह सदै व ईमानदार भी रहते है । परं तु केवल एक अठन्नी
की चोरी करने पर भी उन्हें कठोर दं ड दया जाता है । दूसरी ओर बाबू
जगत संह जैसे लोग प रश्रम के बना ही रश्वत लेकर पैसे कमाते है ।
वह कभी भी जीवन में ईमानदार नहीं होते और उसके बावजूद वह
रसीला जैसे ईमानदार और प रश्रमी व्यिक्त को कठोर दं ड दलवाते है ।
यह कहानी हमे समाज में होने वाले भ्रष्टाचार को भी दखाता है ।
काकी
सार
काकी सयाराम शरण गुप्त के द्वारा लखी गयी एक हृदय
स्पशर्गी कहानी है जो बाल मनो वज्ञान और बच्चों की मासू मयत
को उजागर करती है । जीवन और मरण के रहस्य से अन भज्ञ
श्यामू समझ नहीं पाता क उसकी मां उसको हमेशा के लए
छोड़ कर चली गयी है । उसका क्रिंदन उसकी पीड़ा को दशार्भता है
और घर वाले यह कहकर उसे समझाने की को शश करते हैं क
वह मामा के घर गयी है और जल्दी ही वा पस आ जाएगी ।
परन्तु उसे सच्चाई का पाता चलता है और वह अपने पजीता के
एक रूपये की चोरी करके एक पतंग लाता है , और उसपर मांजे
की जगह मोटी रिस्सयां बांधता है िजससे उसकी काकी आसानी
से नीचेे उतर सके ।
बाल मन की संवेदनशीलता का इससे बेहतर
उदाहरण नहीं हो सकता जब वह पतंग के ऊपर
काकी लखता है िजससे क उसकी मां अपना नाम
पढ़कर तुरंत उसके पास आकश से उतर कर आ जाए
। उसके पता पहले चोरी करने के कारण उसपर
बहु त गुस्सा होते हैं और पतंग फाड़ दे ते हैं परन्तु जब
वह कागज़ पर लखे काकी को पढ़ते है तो वह
हतबुधी होकर वहीं खड़े रह गए ।
मूल्य
इस कहानी का मूल्य बाल मनो वज्ञान है । बालमनो वज्ञान मनो वज्ञान की
वह शाखा है , िजसमें गभार्भवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक के मनुष्य के
मान सक वकास का अध्ययन कया जाता है । जहाँ सामान्य मनो वज्ञान
प्रौढ़ व्यिक्तयों की मान सक क्रियाओं का वणर्भन करता है तथा उनको
वैज्ञा नक ढं ग से समझने की चेष्टा करता है , वहीं बाल मनो वज्ञान बालकों
की मान सक क्रियाओं का वणर्भन करता और उन्हें समझाने का प्रयत्न करता
है ।
बालक जीवन के कटु सत्य से अन भज्ञ होते है । उन्हें जन्म और मरण का
पूरा ज्ञान नही होता और मातृ वयोग उनसे सह नहीं जाता। श्यामू एक ऐसा
मासूम औरअबोध बालक है िजसे अपनी काकी को अपने पास पुनः लाना है ।
महायज्ञ का पुरस्कार
सार
महायज्ञ का पुरस्कार
कहानी यशपाल द्वारा
लखा गया है । एक
धनी सेठ था | वह
स्वभाव से अत्यंत
वनम्र , उदार और
धमर्भपरायण व्यिक्त
था | कोई साधू संत
उसके द्वार से खाली
वापस नहीं लौटता था
|
वह अत्यंत दानी था .जो भी उसके सामने हाथ फैलता था , उसे दान
अवश्य मलता था। उसकी पत्नी भी अत्यंत दयालु व परोपकारी थी ,
परन्तु एक समय ऐसा आया क सेठ को गरीबी का मुख दे खना पड़ा ,
नौबत ऐसी आ गयी की भूखों मरने की हालत हो गयी। उन दनों एक
प्रथा प्रच लत थी।
यज्ञ के पुण्य का क्रिय – वक्रिय कया जाता था। सेठ – सेठानी ने नणर्भय लया
कया की यज्ञ के फल को बेचकर कुछ धन प्राप्त कया जाय ता क कुछ गरीबी
दूर हो । सेठ के यहाँ से दस – बारह कोस की दूरी पर कुन्दनपुर नाम का क़स्बा
था , वहाँ एक धन्ना सेठ रहते थे , ऐसी मान्यता थी क उनकी पत्नी को दै वी
शिक्त प्राप्त है और वह भूत – भ वष्य की बात भी जान लेती थी , मुसीबत से
घरे सेठ – सेठानी ने कुन्दनपुर जाकर उनके हाथ यज्ञ का पुण्य बेचने का
नणर्भय लया।
गमर्गी के दन थे , रास्ते में वृक्षों का झुरमुट तथा कुआँ दे खकर उन्होंने सोचा
की वश्राम कर थोडा भोजन भी कर लें। सेठ ने जैसे ही अपनी रो टयाँ
नकाली तो उसके सामने एक म रयल सा कुत्ता नज़र आया , सेठ को दया
आई और उन्होंने एक – एक करके अपनी सारी रो टयाँ कुत्ते को खला दी .
स्वयं पानी पीकर कुन्दनपुर पहु ँचे तो धन्ना सेठ की पत्नी ने कहा क अगर
आप आज का कया हु आ महायज्ञ को बेचने को तैयार हैं तो हम उसे खरीद
लेंगे अन्यथा नहीं। सेठ जी अपने महायज्ञ को बेचने को तैयार नहीं हु ए ,वह
खाली हाथ लौट आये , अगले दन ही सेठ जी अपने घर की दहलीज़ के नीचे
गडा हु आ खज़ाना मला , उसने जो म रयल कुत्ते को अपनी रोटी खलाई थी ,
यह खज़ाना उसी महायज्ञ का पुरस्कार था , ईश्वर भी उन्ही की सहायता
करता जो नःस्वाथर्भ भाव से गरीबो की सहायता करता है । हमारे अच्छे कमर्भ
कभी व्यथर्भ नहीं जाते है । हमें हमेशा अच्छे कमर्भ करते रहने चा हए तभी जीवन
सुफल होगा | नस्वाथर्भ भाव से कया गया छोटे से छोटा परोपकार का कायर्भ
भी एक महायज्ञ के समान होता है I
मूल्य
इस कहानी का मूल्य मानवता है । धन्ना सेठ ने भूके कुत्ते
को दे खकर उसकी मदद की और उसके जीवन की रक्षा
की। उसने अपने बारे में नहीं सोचा पर कुत्ते के प्र त दया
भावना दखाकर उसे सारी रो टयां दे दी। वह स्वयं भूखा
रहा और केवल पानी पीकर कंु दनपुर पंहुचा।
नेताजी का चश्मा
सार
हालदार साहब को हर पन्द्रहवें दन कम्पनी के काम से
एक छोटे कस्बे से गुजरना पड़ता था। उस कस्बे में एक
लड़कों का स्कूल, एक लड़ कयों का स्कूल, एक सीमें ट का
कारखाना, दो ओपन सनेमा घर तथा एक नगरपा लका
थी। नगरपा लका थी तो कुछ ना कुछ करती रहती थी,
कभी सड़के पक्की करवाने का काम तो कभी शौचालय
तो कभी क व सम्मेलन करवा दया। एक बार
नगरपा लका के एक उत्साही अ धकारी ने मुख्य बाज़ार
के चैराहे पर सुभाषचन्द्र बोस की संगमरमर की प्र तमा
लगवा दी। चूँ क बजट ज्यादा नही था इस लए मू तर्भ
बनाने का काम कस्बे के इकलौते हाई स्कूल के शक्षक
को सौंपा गया। मू तर्भ सुन्दर बनी थी बस एक चीज़ की
कमी थी, नेताजी की आँख पर चश्मा नहीं था।
एक सचमुच के चश्मे का चौड़ा काला फ्रेम मू तर्भ को पहना दया गया। जब
हालदार साहब आये तो उन्होंने सोचा वाह भई! यह आई डया ठीक है । मू तर्भ
पत्थर की पर चश्मा रयल। दूसरी बार जब हालदार साहब आये तो उन्हें
मू तर्भ पर तार का फ्रेम वाले गोल चश्मा लगा था। तीसरी बार फर उन्होंने
नया चश्मा पाया। इस बार वे पानवाले से पूछ बैठे क नेताजी का चश्मा
हरदम बदल कैसे जाता है । पानवाले ने बताया की यह काम कैप्टन
चश्मेवाला करता है । हालदार साहब को समझते दे र न लगी की बना चश्मे
वाली मू तर्भ कैप्टे न को ख़राब लगती होगी इस लए अपने उपलब्ध फ्रेम में से
एक को वह नेताजी के मू तर्भ पर फट कर दे ता होगा। जब कोई ग्राहक वैसे ही
फ्रेम की मांग करता जैसा मू तर्भ पर लगा है तो वह उसे मू तर्भ से उतारकर
ग्राहक को दे दे ता और मू तर्भ पर नया फ्रेम लगा दे ता।
हालदार साहब ने पानवाले जानना चाहा क कैप्टे न चश्मेवाला नेताजी का साथी है या
आजाद हन्द फ़ौज का कोई भूतपूवर्भ सपाही? पानवाले बोला क वह लंगड़ा क्या फ़ौज में
जाएगा, वह पागल है इस लए ऐसा करता है । हालदार साहब को एक दे शभक्त का मजाक
बनते दे खना अच्छा नही लगा। कैप्टे न को दे खकर उन्हें आश्चयर्भ हु आ चूँ क वह एक बूढ़ा
म रयल-लंगड़ा सा आदमी था िजसके सर पर गांधी टोपी तथा चश्मा था, उसके एक हाथ
में एक छोटी-सी संदक ू ची और दूसरे में एक बांस में टं गे ढे रों चश्मे थे। वह उसका वास्त वक
नाम जानना चाहते थे परन्तु पानवाले ने इससे ज्यादा बताने से मना कर दया। दो साल
के भीतर हालदार साहब ने नेताजी की मू तर्भ पर कई चश्मे लगते हु ए दे खे। एक बार जब
हालदार साहब कस्बे से गुजरे तो मू तर्भ पर कोई चश्मा नही था। पूछने पर पता चला की
कैप्टे न मर गया, उन्हें बहु त दुःख हु आ। पंद्रह दन बाद कस्बे से गुजरे तो सोचा की वहाँ
नही रुकेंगे, पान भी नही खायेंगे, मू तर्भ की ओर दे खेंगे भी नहीं। परन्तु आदत से मजबूर
हालदार साहब की नजर चौराहे पर आते ही आँखे मू तर्भ की ओर उठ गयीं। वे जीप से उतरे
और मू तर्भ के सामने जाकर खड़े हो गए। मू तर्भ की आँखों पर सरकंडे से बना हु आ छोटा सा
चश्मा रखा था, जैसा बच्चे बना लेते हैं। यह दे खकर हालदार साहब की आँखे नम हो गयीं।
मूल्य
इस पाठ के लेखक के अनुसार दे शभिक्त की भावना दे श के सभी
नाग रकों में होनी चा हए। दे शभक्त कोई भी हो सकता है उसके
लए अमीर होना जरूरी नहीं। एक गरीब व्यिक्त भी अपनी
सामथ्यर्भ के अनुसार अपनी दे शभिक्त प्रकट कर सकता है । िजस
तरह इस कहानी में चश्मा बेचने एक साधारण सा, गरीब व्यिक्त
था ले कन नेता जी की मू तर्भ के प्र त उसके मन में अगाध
सम्मान था। इस लए वह नेता जी के मू तर्भ के चश्मा वहीन चेहरे
को नहीं दे ख सकता था, क्यो क चश्मा नेताजी की पहचान थी।
इस लए वह अपनी रोजी-रोटी के साधन चश्मे को नेता जी की
मू तर्भ पर लगाए रखता है , जब तक वह जी वत रहता है तब तक
वह इस काम को करता रहता है । इस तरह उस साधारण से
व्यिक्त ने अपनी दे शभिक्त का प रचय दया।
बड़े घर की बेटी
सार
आनंदी एक अमीर घराने से मध्यवगर्गीय प रवार की बहू
बनकर आती है । वहाँ के हालतों के अनुकूल वह अपने को
ढाल लेती है । वह अपने दे वर से अपमा नत होकर भी घर
की इज्जत बचा लेती है । आनंदी के उच्च संस्कार उसे
सचमुच ‘बड़े घर की बेटी’ बनाते हैं। आनंदी ताल्लुकेदार
भूप संह की बेटी थी। वह सुंदर व सुशील थी। वह अपने
मायके में बड़े ही लाड़-प्यार से पली थी। आनंदी का ववाह
बेनीमाधव संह के बड़े बेटे श्रीकंठ से हु आ था। बेनी
माधव संह एक जमींदार था। उसकी जमीन-जायदाद सब
कुछ खत्म हो गई थी। अब वह एक साधारण कसान ही
रह गया था। आनंदी का प त श्रीकंठ पढ़ा- लखा नौजवान
था।
शहर में काम करता था। उसका प रवार गाँव में था। उसके घर में सुख-सु वधाएँ बहु त कम थीं।
फर भी आनंदी ने अपने-आप को घर के अनुकूल बनाये रखा। वह खुशी से जीवन-यापन करने
लगी। श्रीकंठ पढ़ाई के साथ-साथ, संस्का रत और भारतीय संस्कृ त का अनुयायी था। संयुक्त
प रवार का हमायती भी था। श्रीकंठ के छोटे भाई का नाम लाल बहारी संह था। वह अनपढ़ और
उजड्ड था। एक दन लाल बहारी संह ने खाना खाते समय घी माँगा। घी खत्म हो चुका था। अतः
आनंदी घी नहीं दे पाई। इस कारण लाल बहारी संह ने गुस्से में भाभी को तथा उसके मायके को
गा लयाँ सुना दीं। आनंदी ने भी वापस कुछ खरी-खोटी सुना दी।
तब लाल बहारी संह ने गुस्से में आकर आनंदी पर खड़ाऊ फेंक कर मार दया। इससे आनंदी को
बड़ा दुःख हु आ। अब श्रीकंठ शहर से गाँव आया, तो आनंदी ने सारी कहानी उसे सुनाई। श्रीकंठ ने
क्रिो धत होकर अपने बाप से कहा – इस घर में या तो वह रहे गा, या लाल बहारी। पता ने पुत्र को
समझाया क घर का बँटवारा न हो। उनका घर गाँव में एक आदशर्भ था। अगर भाई-भाई के बीच की
अनबन की बात गाँव में फैलेगी, तो उनकी बदनामी होगी। लाल बहारी संह को अपनी गलती पर
पछतावा हु आ। पर उसकी बातें श्रीकंठ को शांत नहीं कर पाईं। वह घर के अलगाव की बात पर अड़े
रहे । तब लाल बहारी संह ने भाभी के पास जाकर, वह खुद घर से नकल जाने की बात कही। यह
सुनकर आनंदी का दल पघल गया। आनंदी बड़े घर की बेटी थी। उसके संस्कार अच्छे थे। उसने
अपने प त श्रीकंठ को समझाया क आगे घर में इस प्रकार के झगड़े नहीं होने दें गे। श्रीकंठ ने अपने
भाई को गले लगाया। ठाकुर बेनीमाधव संह की आँखें भर आईं। गुणवती आनंदी के संस्कारों के
कारण टू टता हु आ घर बच गया। सचमुच बड़े घर की बे टयाँ ऐसी ही होती हैं।
मूल्य
रं गे सयारों के रूप नेताओं के चाटु कार होते हैं जो नेताओं के पक्ष में
प्रचार करते है । पहले रं गे सयार के रूप में तथाक थत बुद् धजीवी
लेखक आ द है , दूसरे रं गे सयार के रूप तथाक थत सच्चे पत्रकार हैं,
तीसरे रं गे सयार के रूप में वो ढोंगी धमार्भचायर्भ हैं।
वह बस चौबीसों घंटे अपने रं ग और तू लकाओं में डू बी रहती थी। दु नया में कतनी भी बड़ी घटना घट
जाए, पर य द उसमें चत्रा के चत्र के लए कोई आइ डया नहीं तो वह उसके लए कोई महत्त्व नहीं
रखती थी। वह हर जगह, हर चीज में अपने चत्रों के लए मॉडल ढू ँ ढा करती थी। इस लए अरुणा ने
आवेश में आकर चत्रा को यह तक कह दया कस काम की ऐसी कला जो आदमी को आदमी न रहने दें
।
अरुणा के अनुसार चत्रा अमीर पता की बेटी है उसके पास साधनों और पैसे की कोई कमी नहीं है अत: वह
उन साधनों से कसी की िजंदगी सँवार सकती है । चत्रा को चत्रकला के संबंध में वदे श जाना था इस लए वह
अपने गुरु से मल कर घर लौट रही थी। घर लौटते समय उसने दे खा क पेड़ के नीचे एक भखा रन मरी पड़ी
थी और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे हु ए शरीर से चपक कर बुरी तरह रो रहे थे। उस दृश्य को चत्रा अपने
केनवास पर उतारने लग गई इस लए उसे घर लौटने में दे र हो गई।
इस तरह चत्रा वदे श पहु ँच जाती है और तन-मन से अपने काम में जुट जाती है ।
चत्रा ने भखा रन और उसके शरीर से चपके उसके बच्चों का चत्र बनाया था िजसे उसने ‘अनाथ’ शीषर्भक
दया था। वदे श में उसका यही ‘अनाथ’ शीषर्भक वाला चत्र अनेक प्र तयो गताओं में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर
चुका था।
तीन साल के बाद चत्रा भारत लौटती है । उसके पता उसकी सफलता पर प्रसन्न थे। दल्ली में उसके चत्रों
की प्रदशर्भनी का आयोजन कया गया था और उसे ही उद्घाटन के लए बुलाया गया था। उसी प्रदशर्भनी में
चत्रा की भें ट अपनी अ भन्न मत्र अरुणा से एक बार फर भें ट होती है । एक-दूसरे से मलने के बाद चत्रा
अरुणा के साथ में आये बच्चों के वषय में पूछती है तो अरुणा उसी भखा रन वाले चत्र पर ऊँगली रखकर
बताती है क वे उसी भखा रन के बच्चे हैं िजसके बारे में स्वयं उस दन चत्रा ने उसे बताया था। अरुणा दोनों
बच्चों को अपने घर ले आईं थीं और उन्हें गोद लेकर उनका पालन-पोषण करने लगी है । यह सुनकर चत्रा की
आँखें वस्मय से फ़ैल जाती है ।
मूल्य
इस कहानी का नै तक मूल्य मानवता है ।
िजन बच्चो का चत्र बनाने के वजह से चत्रा
वदे श जाती है और उसके चत्र दे श वदे श में
मशहू र हो जाते है उन्ही बच्चो को अरुणा
पाल पोसकर बड़ा कर रही थी और उन्हें
अपना रही थी। यह हमें दखाता है की
अरुणा में मानवता की भावना थी जो अपने
आप में ही एक कला है और सबसे ऊंच
स्थान की कला है ।
सन्दभर्भ पुस्तके व स्त्रोत
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