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Hindi ? Notes by Padhai Ak Mazza 2024
Hindi ? Notes by Padhai Ak Mazza 2024
पाठ का सार E
हालदार साहब हर 15 िदन कंपनी के काम से उस कस्बे से गुजरते थे कस्बे में कुछ पक्के मकान
एक छोटा सा बाजार बालक बािलकाओं के 2 िवद्यालय एक सीमेंट का कारखाना दो खुली छत
वाले िसनेमा घर तथा एक नगर पािलका की इस कस्बे में मुख्य बाजार में मुख्य चौराहे पर नेताजी
सुभाष चंद्र बोस की एक संगमरमर से बनी हुई खूबसूरत सी मूितर् लगी थी िजसे वह गुजरते हुए
!
हमेशा दे खा करते थे हालदार साहब जब पहली बार इस मूितर् को दे खा तो उन्हें लगा िक इसे
नगरपािलका के िकसी उत्साही अिधकारी ने बहुत जल्दबाजी में लगवाया होगा सकता है की मूितर्
को बनवाने में काफी समय पत्र व्यवहार आिद में लग गया हो और बाद में कस्बे के इकलौते हाई
!
स्ककूल के इकलौते डाइिनं ग मास्टर को यह कायर् सौंप िदया गया होगा िजन्होंने इस कायर् को महीने भर में पूरा करने का िवश्वास
िदलाया होगा मूितर् संगमरमर की तो बनी थी लेिकन उसकी िवशेषता यह थी जो हालदार साहब को बहुत ही आकिषर् त कर रही थी िक
उस मूितर् का जो चश्मा था वह सचमुच का था हालदार साहब को मूितर् बनाने वालों का यह नया िवचार और नया अंदाज बहुत पसंद
आया हालदार साहब जब अगली बार वहां आए तो उन्हें दे खकर यह बड़ा अजीब सा लगा की मूितर् का चश्मा बदला हुआ है हालदार
साहब ने पान वाले से इसका कारण पूछा उसने बताया िक कैप्टन इन चश्मा को बदलता है हालदार साहब ने सोचा िक कैप्टन कोई
भूतपूवर् सैिनक या नेताजी की आजाद िहं द फौज का िसपाही होगा इस संबंध में पूछने पर पान वाले ने िखल्ली उड़ाते हुए मजाक बनाते
हुए कहा साहब कहां हो लंगड़ा क्या जाएगा फौज में उसी समय हालदार साहब ने दे खा िक कैप्टन एक बूढ़ा मिरयल सा आदमी है जो
िसर पर गांधी टोपी और आं खों में काला चश्मा लगाए रहता है इधर-उधर घूमता है और चश्मे बेचता है और अपने चश्मा में से एक
चश्मा वह मूितर् को लगा दे ता है और अगर िकसी ग्राहक ने मूितर् के चश्मे जैसा फ्रेम मांगा तो वह उसी फ्रेम को वहां से उतारकर ग्रह को
दे दे ता है और मूितर् पर नया फ्रेम लगा दे ता है हालदार साहब ने मूितर् के चश्मे के पीछे की कहानी जानना चाहे तो नेपाल वाले से यह
पता चला िक मूितर् कार समय कम होने के कारण मूितर् का चश्मा बनाना भूल गया था िजसके कारण मूितर् को िबना चश्मे की लगा िदया
गया कैप्टन को नेताजी की िबना चश्मे वाली मूितर् अच्छी नहीं लगती थी इसिलए वह मूितर् पर चश्मा लगा िदया करता था हालदार
साहब लगभग 2 साल तक मूितर् पर लगे चश्मे को बदलते दे खते रहे
एक िदन जब हालदार साहब िफर उसी कस्बे से िनकले तो उन्होंने दे खा िक मूितर् पर कोई चश्मा नहीं है और बाजार बंद था अगली बार
भी उन्हें मूितर् पर कोई चश्मा नहीं िदखाई िदया उत्सुकता के कारण उन्होंने पान वाले से जाकर पूछा उसने बताया िक कैप्टन मर गया है
हालदार साहब को यह सोच कर बहुत दु ख हुआ िक हम नेता जी की मूितर् िबना चश्मे के रहेगी
अगली बार जब हालदार साहब उधर से िनकले तो उन्होंने सोचा िक आप वह मूितर् को नहीं दे खेंगे िकं तु आदत से मजबूर होने के कारण
जब उन्होंने चौराहे पर लगी हुई नेता जी की मूितर् को दे खा तो उनकी आं खें भर आई िकसी बच्चे ने सरकंडे से बना हुआ चश्मा लगा िदया
था हालदार साहब बाबू को उठे और बड़ों के साथ बच्चों मैं भी अथात र् प्रत्येक नागिरक में दे शभिक्त की भावना व्याप्त है।
बािरश की िरमिझम में जब पूरा गांव वालों को लेकर खेती में िनकल पड़ता है और बच्चे भी जब खेतों में उछल कूद कर
रहे होते हैं उसी समय सबके कानों में एक मधुर संगीत की लहर सुनाई दे ती है उनके कंठ से िनकलता संगीत का एक एक
शब्द भी सबको मोिहत कर दे ता है तब पता चलता है िक बालगोिबन भगत की चमेली खड़े हुए अपने खेतों में धान के
पौधों का रोपण कर रहे हैं काम और संगीत का ऐसा संयुक्त साधना िमलती बहुत मुिश्कल होती है भादो की आधी रात में
भी मेिडको की टर टर से भी ऊपर बालगोिबन भगत का संगीत सुनाई पड़ता है
जब सारा िवश्व नींद में सोया होता है तब बालगोिबन भगत का संगीत सभी को जगा दे ता है सुबह बाल गोिवं द
भगत का प्रातः काल वाला गीत चालू हो जाता है ठं ड में दांत कट कटाने वाले भोर में उनकी उं गिलयां खंजड़ी पर
चलना आरंभ कर दे ती हैं और गाते गाते वह इतने जोश में आ जाते हैं िक उनके मिस्तष्क पर पसीना आने लगता है
गिमर् यों में उमस भरी शाम में िमत्र मंडल के साथ बैठकर संगीत में इस प्रकार लीव हो जाते हैं िक उनका मन धन पर
हावी हो जाता था अथात
र् वह सब गाना गाते गाते नृत्य करने लगते थे
बालगोिबन भगत की संगीत साधना का चरम उस िदन दे खने को िमला जब लोगों को यह पता चला िक उनके पुत्र
बीमारी के बाद चल बसा है लोग जब उनके घर पर पहुंचे तो दे खा िक भगत ने मृतक पुत्र को चटाई पर िलटा कर
एक सफेद कपड़े से ढक रखा है तथा उस पर कुछ फूल और तुलसी तुलसी िबखेर दी है उसके िसरहाने एक िचराग
जलाकर आसन जमाए हुए गीत गाए जा रहे हैं उनकी बहू को भी रोना भूलकर उत्सव मनाने को क्या कह रहे हैं
क्योंिक आत्मा परमात्मा के पास चली गई है िजसका शोक मनाना उनकी दृिष्ट में व्यथर् है
बालगोिबन भगत कोई समाज सुधारक नहीं है िकं तु अपने घर में उन्होंने समाज सुधार को जैसा कायर् िकया है उन्होंने अपनी पुत्रवधू को भी उसके
भाई को बुलाकर उसके साथ भेजते हुए कहा िक इसका िफर से िववाह कर दो यह अभी जवान है बहू ने मायके ना जाने की िजद करने और यह
कहने की मेरे जाने के बाद आपके खाने पीने का क्या होगा लेिकन मैं नहीं माने और अपने फैसले पर अटल रहे
बाल गोिवं द भगत की मृत्यु भी उनके व्यिक्तत्व के अनुरूप शांत तरीके से हुई करीब 30 कोस चलकर में गंगा स्नान को गए और वहां साधु
सन्यािसयों के संगत में जमे रहे उन्हें स्नान की अपेक्षा साधू सन्यािसयों की संगत अिधक अच्छी लगती थी लौट कर उन्हें बुखार आने लगा इस पर भी
उन्होंने अपने रोजमरार् के काम स्नान ध्यान और खेतीबाड़ी दे खना इत्यािद नहीं छोड़ा लोगों ने िनयमों में ढील दे ने को कहा तो हंस कर डालते रहे और
शाम को भी गीत गाते रहे लेिकन उस िदन उनके गीतों में वह बात नहीं थी अगले िदन भर में भगत का गीत सुनाई ना दे ने पर लोगों ने जाकर दे खा तो
वह स्वगर् िसधार चुके थे
लखनवी अंदाज यशपाल द्वारा िलखी गई एक बहुत ही रोमांचक कहानी है यशपाल यात्रा करते समय सेकंड क्लास का िटकट लेते हैं
क्योंिक लेखक हैं तो कई नई कहािनयां िलखने हेतु और उसके िवषय पर सोचने के िलए एकांत चािहए होता है यशपाल ने सेकंड क्लास
का िटकट ले िलया साथ ही उनकी इच्छा थी िक रेल की िखड़की से मागर् में आने वाली प्राकृितक दृश्यों को दे खकर कुछ सोच सकें
िजस िडब्बे में लेखक चढ़े उसमें पहले से ही एक नवाब साहब पालथी मारे हुए बैठे हुए थे उनके सामने दो ताजे ताजे हरे हरे कीड़े वाली
पर रखे हुए थे लेखक ने उस िडब्बे में चढ़ने पर नवाब साहब ने कोई उत्साह नहीं िदखाया उसके इस िडब्बे में आने से इसिलए खुश नहीं है
क्योंिक िकसी सफेदपोश के सामने एक हीरे जैसी साधारण खाद्य सामग्री खाने में उन्हें संकोच हो रहा होगा
ट्रेन चल पड़ती है बहुत दे र हो गई तो नवाब साहब को लगा िक वह खीरे िकस प्रकार खाएं तब हार कर उन्होंने लेखक को खीरा खाने के
िलए िनमंत्रण िदया िजसे लेखक ने धन्यवाद सािहत ठु करा िदया लेखक द्वारा खीरा खाने के िलए मना करने पर नवाब साहब ने कीड़ों को
नीचे रखे हुए तौिलए को झाड़ कर सामने िबछाया सीट के नीचे से लोटा उठाकर दोनों हीरो को िखड़की से बाहर धोया और ताली से पूछ
िलया दोनों के िसर काटे उन्हें िघसकर उनका झाग िनकाला और बहुत इितहास से छीलकर खीरों को तौिलए पर सजाया यह सब करने
के बाद उन्होंने और खीरों पर जीरा नमक और लाल िमचर् की सूखी बुरक दी यह सब दे खकर लेखक एवं नवाब साहब दोनों के मुंह में
पानी आ रहा था यह सब करने के बाद में नवाब साहब ने एक बार िफर लेखक को खीरा खाने का िनमंत्रण िदया खीरा खाने की इच्छा
होते हुए भी लेखक ने नवाब साहब का प्रस्ताव है क्या का डोकरा िदया िक उनका मेधा कमजोर है तब नवाब साहब ने खीरों को सोऊंगा
स्वाद का आनंद िलया और उनकी रोको एक-एक करके िखड़की से बाहर फेंक िदया इसके बाद लेखक की ओर दे खते हुए ताली से हाथ
और होंठ पूछ िलए कह रहे हैं िक एक ही तरीका है तुम क्या जानो इसके बाद से भरे पेट की सुगंध और स्वाद की कल्पना मात्र से पेट
भरा सकती है तो िवचार घटना और पात्रों के लेखक की इच्छा मात्र से नई कहानी क्यों नहीं बन सकती
लेिखका ने अपने जन्म स्थान गाँव भानपुरा, िजला मंदसौर (मध्य प्रदे श) के साथ-साथ राजस्थान िस्थत अजमेर के ब्रह्मपुरी मोहल्ले के दो मंिजले
मकान से जुड़ी बहुत-सी बातों को याद िकया है। अजमेर के इसी दो मंिजले मकान में ऊपरी तल पर उनके िपता अव्यविस्थत ढंग से फैली-िबखरी
पुस्तकों-पित्रकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ िलखते रहते थे या 'िडक्टेशन' दे ते रहते थे। नीचे के कमरों में उनकी माँ, भाई-बहन आिद
रहते थे।
लेिखका के िपता अजमेर आने से पहले मध्य प्रदे श के इं दौर में रहते थे, जहाँ उनकी बहुत प्रितष्ठा थी। वह अनेक सामािजक-राजनीितक संगठनों
से भी जुड़े थे। उन्होंने िशक्षा का न केवल उपदे श िदया, बिल्क बहुत-से िवद्यािथर् यों को अपने घर पर रखकर भी पढ़ाया है, िजसमें से कई तो बाद में
ऊँचे-ऊँचे पदों पर भी पहुँ चे। यह सब उनकी खुशहाली के िदनों की बात है, जो लेिखका ने सुनी हैं।
लेिखका ने स्वीकार िकया है िक उनके िपताजी अंदर से टू टे हुए व्यिक्त थे, जो एक बहुत बड़े आिथर् क झटके के कारण इं दौर से अजमेर आ
गए थे और केवल अपने बलबूते पर अपने अधूरे अंग्रेज़ी-िहं दी शब्दकोश (िवषयवार) को पूरा कर रहे थे। इस कायर् ने उन्हें यश और प्रितष्ठा
तो बहुत दी, िकं तु अथर् नहीं िदया, िजससे उनकी आिथर् क िस्थित में कोई सुधार नहीं हुआ और उनकी सकारात्मक सोच नकारात्मक सोच में
पिरवितर् त होती चली गई।
लेिखका को प्रतीत होता है िक उनके व्यिक्तत्व में उनके िपता की कुछ किमयों और खूिबयाँ तो अवश्य ही आ गई हैं, िजन्होंने चाहे अनचाहे
उनके भीतर कई ग्रंिथयों को जन्म दे िदया। लेिखका का रंग काला है तथा बचपन में वे दु बली और मिरयल-सी थीं। उनके िपता को गोरा रंग
बहुत पसंद था। यही कारण है िक पिरवार में लेिखका से दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँ समुख बहने सुशीला से हर बात में उनकी
तुलना की जाती थी। इससे लेिखका के भीतर हीन भावना उत्पन्न हो गई, जो आज तक है। इसी का पिरणाम है िक इतना नाम और प्रितष्ठा
प्राप्त करने के पश्चात् भी जब उनकी लेखकीय उपलिब्धयों की प्रशंसा की जाती है, तो लेिखका संकोच से िसमटने और गड़ने लगती हैं।
लेिखका की माँ का स्वभाव अपने पित जैसा नहीं था। वे एक अनपढ़ मिहला थीं। वे अपने पित के क्रोध को चुपचाप सहते हुए स्वयं को घर
के कामों में व्यस्त िकए रहती थीं। अनपढ़ होने के बाद भी लेिखका की माँ धरती से भी अिधक धैयर् और सहनशिक्त वाली थी। उन्होंने अपने
पित की हर ज्यादती (अत्याचार) को अपना भाग्य समझा। उन्होंने पिरवार में िकसी से कुछ नहीं माँगा, बिल्क जहाँ तक हो सका, िदया ही
िदया है। इसका पिरणाम यह हुआ िक सहानुभूितवश भाई-बहनों का लगाव तो माँ के साथ था, िकं तु लेिखका कभी उन्हें अपने आदशर् के रूप
में स्वीकार न कर पाईं।
लेिखका पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। िजस समय उनकी सबसे बड़ी बहन का िववाह हुआ, उस समय लेिखका लगभग सात साल की
थीं। अपने से दो साल बड़ी बहन सुशीला के साथ लेिखका ने लड़िकयों के सारे खेल खेले पैसे तो उन्होंने लड़कों वाले खेल भी खेले, िकं तु
भाई घर में कम रहा करते थे, इसिलए वह लड़िकयों वाले खेल अिधक खेल सकीं। उस समय पड़ोस का दायरा आज की तरह सीिमत नहीं
था। आज तो हर व्यिक्त अपने आप में िसमट कर रह गया है। पास-पड़ोस की यादें कई बार कई पात्रों के रूप में लेिखका की आरंिभक
रचनाओं में आ गई हैं।
40 के दशक में लेिखका के पिरवार में लड़िकयों के िववाह की अिनवायर् योग्यता थी - सोलह वषर् की उम्र और मैिट्रक तक की िशक्षा। वषर्
1944 में लेिखका की बहन खुशीला ने यह योग्यता. पाई और शादी करके कोलकाता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई करने के िलए
कोलकाता चले गए। इसके बाद िपताजी का ध्यान लेिखका की ओर गया।
िजस उम्र में लड़की को स्कूली िशक्षा के साथ सुघड़ गृिहणी (घर चलाने अनुसार में कुशल) और कुशल पाक-शास्त्री बनने के नुस्खे िसखाए
जाते थे, उस समय िपताजी का आग्रह रहा करता था िक लेिखका रसोई नामक भिटयारखाने (रसोई के काम-काज) से दू र ही रहे, क्योंिक
उनके वहाँ रहना अपनी प्रितभा और क्षमता को भट्टी में झोंकना था। िपताजी के पास कई पािटर् यों, संगठनों के व्यिक्त आते और उनके बीच
घंटों तक बहस हुआ करती थी। लेिखका जब चाय-पानी या नाश्ता दे ने के िलए जातीं, तो उनके िपताजी उन्हें यह कहते हुए बैठा लेते िक वह
भी सुने और जाने िक दे श में चारों ओर क्या हो रहा है।
वषर् 1945 में लेिखका ने हाई स्कूल पास करके सािवत्री गल्सर् हाईस्कूल, जो िपछले वषर् ही कॉिलज बना था, उसमें फस्टर् इयर में प्रवेश
िलया। उस समय उनका पिरचय शीला अग्रवाल से हुआ, जो उसी वषर् िहं दी की प्राध्यािपका िनयुक्त हुई थीं। शीला अग्रवाल ने ही लेिखका
का वास्तिवक रूप में सािहत्य से पिरचय कराया और मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला, िजसका पिरणाम यह हुआ िक लेिखका ने
सािहत्य जगत के कई प्रिसद्ध सािहत्यकारों (प्रेमचंद, जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण आिद) को पढ़ा। शीला अग्रवाल ने न केवल
लेिखका का सािहित्यक दायरा बढ़ाया, बिल्क घर की चारदीवारी के बीच बैठकर लेिखका ने दे श की िस्थितयों को जानने-समझने का जो
िसलिसला शुरू िकया था, उसे सिक्रय भागीदारी में बदल िदया, िजस कारण वह स्वाधीनता आं दोलन में भाग लेने लगीं।
लेिखका के िपता यह तो चाहते थे िक वह उनकी उपिस्थित में घर में आए लोगों के बीच उठे -बैठे जाने समझे, िकं तु उन्हें यह बदाश्तर् नहीं था
िक लेिखका घर से बाहर िनकलकर सड़कों पर लड़कों के साथ नारेबाज़ी करती िफरे। जब भी उन्हें यह पता चलता, वे क्रोध में आग बबूला
हो उठते थे। कई बार ऐसा होता िक कोई दिकयानूसी व्यिक्त िपताजी को भड़का दे ता िक उनकी लड़की सड़कों पर लड़कों के साथ हंगामा
करती िफर रही है। यह सुनकर वे बहुत गुस्सा हो जाते, िकं तु जब उन्हें पता चलता िक उनकी पुत्री को लोग बहुत सम्मान दे ते हैं, तो वे गवर् से
भर उठते।
एक बार लेिखका के घर पर कॉिलज से िप्रं िसपल का पत्र आया, उनकी िशकायत की गई थी। पत्र पढ़ते ही लेिखका के िपताजी क्रोध से
िजसमें भर उठे और उन्हें भला-बुरा कहने लगे। जब वह कॉिलज से वापस लौटे तो उनके क्रोध का स्थान प्रशंसा ने ले िलया था। उन्हें यह
जानकर बहुत खुशी हो रही थी िक उनकी पुत्री को कॉिलज में छात्राएँ इतना सम्मान दे ती हैं िक उनके एक बार कह दे ने पर अपनी कक्षाओं
का बिहष्कार तक कर दे ती है।
वषर् 1947 के मई माह में प्राध्यािपका शीला अग्रवाल को कॉिलज प्रशासन ने अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर नोिटस िदया, िजसमें उन
पर लड़िकयों को भडकाने और अनुशासन भंग करने में सहयोग करने का आरोप लगाया गया था। इसके अितिरक्त जुलाई माह में थडर् ईयर
की क्लासेज़ बंद करके लेिखका और एक दो अन्य छात्राओं के प्रवेश पर रोक लगा दी गई। इस बात पर लड़िकयों ने कॉिलज से बाहर
रहकर प्रशासन के िनणय र् के िवरुद्ध खूब प्रदशन
र् िकए। इसका पिरणाम यह हुआ िक कॉिलज प्रशासन को थडर् ईयर की क्लासेज़ पुनः शुरू
करनी पड़ी। उस समय इस खुशी से भी बड़ी खुशी लेिखका को दे श को स्वाधीनता िमल जाने की हुई थी।
T Padhai Ak Mazza
Ch-5 नौबत खाने में इबादत (यतेंद्र िमश्र) T Padhai Ak Mazza
नौबत खाने में इबादत प्रिसद्ध शहनाई वादक उस्ताद िबिस्मल्लाह खां पर िलखी गई रोचक शैली में एक व्यिक्त िचत्र है िजसे यतेंद्र
िमस द्वारा िलखा गया है
िबिस्मल्लाह खान का असली नाम अमीरुद्दीन था अमीर उद्दीन आयु में अभी केवल 6 वषर् का है और उसका बड़ा भाई शमसुद्दीन 9 वषर्
का है अमीरुद्दीन को रागों की अिधक जानकारी नहीं है दोनों भाइयों के मामा बात-बात पर कल्याण भैरवी लिलत और मुल्तानी रंगों
की बात कहते हैं जब वह बातें उन दोनों को समझ में नहीं आती दोनों मामा सािदक हुसैन तथा अली बख्श दे श के जाने-माने शहनाई
वादक हैं उनकी िदनचयार् में बालाजी का मंिदर सबसे ऊपर आता है तथा उनके हर िदन की शुरुआत इसी की दहलीज पर होती है
अमीरुद्दीन का जन्म िबहार के डुमराव में एक संगीत प्रेमी पिरवार में हुआ था बालक अमीरुद्दीन 5 से 6 वषर् उमराव में बताकर अपनी
निनहाल काशी बनारस आ गया था डुमराव का इितहास में कोई स्थान नहीं है केवल इस तत्व पर अितिरक्त की शहनाई बजाने के
िलए िजस रीड का प्रयोग होता है वह एक प्रकार की घात िजसे नरकट कहते हैं उससे बनाई जाती है और यह डुमराव में मुख्यत हैं सोन
नदी के िकनारे पाई जाती है अमीरुद्दीन के परदादा उस्ताद सलाम हुसैन खां डुमराव के िनवासी थे
अमीरुद्दीन को 14 साल की उम्र में पुराने बालाजी के मंिदर के नौबत खाने में रहे आज के िलए जाना पड़ता था बालक अमीरुद्दीन को
बालाजी मंिदर तक जाने का वह रास्ता पसंद था जो रसूलन बाई और बतूलन बाई के यहां से होकर गुजरता था क्योंिक उनके गानों को
सुनकर उसे अत्यंत खुशी िमलती थी अपने ढेरों साक्षात्कार ओं में िबिस्मल्लाह खान साहब ने इस बात को स्वीकार भी िकया है िक उन्हें
अपने जीवन के आरंिभक िदनों में संगीत का लगाओ इन्हीं गाियका बहनों के कारण हुआ था
वैिदक इितहास में शहनाई का कोई उल्लेख तो नहीं िमलता है इस संगीत शास्त्रों का अत्यंत खूबसूरत शास्त्रों में िगना जाता है अरब
दे शों में कुकर बजाए जाने वाले बाघ को नय बोलते हैं शहनाई शहनाई को अत्यंत खूबसूरत क्यों उपािध दी गई है 80 बरस की आयु में
भी वह यही सोचते हैं िक उनमें स्वरों को सलीके से बरतने का गुण कब आएगा शहनाई के इस मंगल ध्विन के नायक िबिस्मल्लाह का
80 बरस से स्वर मांग रहे हैं वह नमाज के बाद सजदे में एक सुर दे ने तथा सुर में वह तासीर पैदा करने की प्राथना र् करते हैं िक आं खों से
सच्चे मोती की तरह आं सू िनकल आए
मोहरम र् के महीनों में िशया मुसलमान हजरत इमाम हुसैन और उनके कुछ सािथयों के प्रित 10 िदन की अजादारी मनाते हैं यह कहा
जाता है िक िबिस्मल्लाह खान के खानदान का कोई व्यिक्त मोहरम र् के िदनों में ना तो शहनाई बजाता है ना ही िकसी संगीत के
कायक्रम
र् में सिम्मिलत होता है 8 तारीख को खास आप खड़े होकर शहनाई बजाते हैं इस िदन दाल मंडी में वतमान र् के करीब 8
िकलोमीटर की दू र पैदल रोते हुए नौहा पढ़ते हुए जाते हैं इस िदन कोई नहीं बचता उनकी आं खें माम हुसैन और उनके पिरवार के लोगों
की शहादत में नम रहती है
िबिस्मल्लाह खान छु पकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनते थे सब लोग उसके बाद अपनी जहां से उठ कर चले जाते थे तब िबिस्मल्लाह का छोटी-
बड़ी शहनाई यों में से अपने नाना बाजे शहनाई ढू ंढते थे और एक-एक शहनाई को खािरज करते जाते उन्हें बचपन में िफल्मों का बहुत शौक था उन
िदनों थडर् क्लास का िटकट 6 पैसे में िमलता था वे इसके िलए दो पैसे मामू से दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेकर घंटों लाइन में लगकर
िटकट हािसल करते थे उन्हें सुलोचना की िफल्में बहुत अच्छी लगती थी और बहुत बड़े शौकीन थे इधर सुलोचना की नई िफल्म िसनेमा हॉल में आई
और उधर अमीरुद्दीन अपनी कमाई ले कर चल पड़े िफल्म दे खने जो बालाजी मंिदर पर रोज शहनाई बजाने सोने िमलती थी इसी तरह वह कुलसुम
की दे सी घी में तली संगीत में कचौड़ी के भी शौकीन थे क्योंिक जब कल कल आते ही में कचौड़ी डालती थी वह तो उस समय उन्हें छन से उठने वाली
आवाज में सारे आरोह अवरोह िदख जाते थे
काशी में संगीत कायक्रम
र् के आयोजन की परंपरा िपछले कई वषोर्ं से शहर के दिक्षण में लंका पर िस्थत संकट मोचन मंिदर में चली आ रही है
हनुमान जयंती के अवसर पर यही 5 िदनों तक शास्त्रीय और गायक वादन की उत्कृष्ट सभा होती है इसमें िबिस्मल्लाह खान जरूर जाते हैं
िबिस्मल्लाह खान की खा काशी िवश्वनाथ जी के प्रित भी आपा श्रद्धा थी मैं जब भी काशी से बाहर रहते तब िवश्वनाथ बालाजी के मंिदर की िदशा
की ओर मुंह करके बैठते और थोड़ी से ही दे र मगर उस और शहनाई का प्याला घुमा िदया जाता था इस बात को स्वीकार भी िकया है िक काशी की
धरती को छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकते क्योंिक यही गंगा शािहद बाबा िवश्वनाथ बालाजी का मंिदर है िजसमें उनके खानदान की कई पीिढ़यों ने
शहनाई बजाई है उनके िलए शहनाई और काशी से बढ़कर इस धरती पर कोई जन्नत नहीं है काशी संस्कृित की पाठशाला है और यहां कलाकार
हनुमान वाह नेत्र िवश्वनाथ है काशी में हजारों सालों से इितहास है यहां की संस्कृित मंिदर भिक्त आस्था सब एक दू सरे में घुलिमल से गए हैं उन्हें भी
नहीं दे खा जा सकता
िबिस्मल्ला खां और उनकी शहनाई दोनों एक दू सरे के बहुत करीब थे खान साहब को ताल मालूम था राग मालूम था एक बार उनकी िकसी िशष्य ने
उन्हें फटी तहमत पहनने के िलए टोकते हुए कहा िक इतना प्रिसद्ध और भारत रत्न जैसा सम्मान िमलने वाले इं सान फटी तहमत पहने हुए है
िबिस्मल्ला ख़ां का उत्तर था िक सम्मान उन्हें उनकी शहनाई के कारण िमला है ना िक वस्त्र के कारण िजनका कहना था िक मािलक से यही दु आ है
िक स्वणार् फटे चाहे तहमत फट जाए क्योंिक फटी तहमत तो िसल जाएगी
िबिस्मल्लाह खान को यही दु ख है िक आप खा काशी में पहली वाली मलाई बफर् की कचौड़ी या जलेबी नहीं िमलती और ना ही संगठनों के िलए
गाय को के मन में पहले जैसा कोई आदर ही रहा है अब घंटों िरयाज को कोई नहीं पूछता
िजसका आज अभाव है इसके बाद भी काशी की शुभ है वह शाम आज भी संगीत के स्वरों के साथ होती है यह पावन भूिम है यहां मरना भी मंगल
दायक है यह दोनों कामों की एकता का प्रतीक है भारत रत्न से लेकर इस दे श के ढेरों िवश्विवद्यालयों के मानक उपािधयों से अलंकृत और संगीत
नाटक के अकादमी पुरस्कार और पद्म भूषण जैसे अनेक सामानों से िवभूिषत िबिस्मल्लाह खान की 90 वषर् में भरी पूरी आयु में 21 अगस्त
2006 को स्वगवास
र् हो गया
संस्कृित और सभ्यता शब्द का इस्तेमाल सबसे अिधक होता है और सबसे कम लोगों को समझ में भी आते हैं िस्थित और भी खराब हो जाती है
िवशेषण को जोड़ िदया जाता है शब्दों को समझाने के िलए दो उदाहरण दे ता है वही इस पाठ में िजसका नाम संस्कृित है लेखक में सभ्यता और
संस्कृित के मध्य के अंतर को बताए का भी प्रयास िकया है बहुत से व्यिक्तयों को नाही सभ्यता का पता है और ना ही संस्कृित के नाम पर समाज में
बहुत गलत बातें फैलाई जा रही है
लेखक इन शब्दों के अंतर को समझाने के िलए दो उदाहरण दे ता है पहला उदाहरण है िक अिग्न के अिवष्कार का और दू सरा सुई धागे का
जब मानव का अिग्न से पिरचय नहीं हुआ था उस समय िजस व्यिक्त ने सबसे पहले अिग्न का आिवष्कार िकया होगा बहुत बड़ा आिवष्कार करने
वाला रहा होगा इसी प्रकार वह व्यिक्त भी बहुत बड़ा आिवष्कार करने वाला रहा होगा यह कल्पना भी नहीं की होगी िक लोहे के एक टु कड़े को
िघसकर उसके एक िसर पर छे द करें और उसमें से धागा प्रोकर कपड़े के दो टु कड़ों को एक साथ जोड़ा जा सकता है वह योिगता प्रवृित्त अथवा
िजसके बल पर आग और सुिवधा का आिवष्कार हुआ होगा व्यिक्त िवशेष संस्कृित है जब उस संस्कृित द्वारा जो अिवष्कार हुआ उसे सभ्यता कहा
जा सकता है
हां एक तौर पर!!
लेिकन एक संस्कृित व्यिक्त को िकसी नई चीज की खोज कर आती है िकं तु उसकी संतान को खोज की गई वह चीज अपने पूवज
र् से अपने आप
िमल जाती है इस संतान को सभ्य तो कहा जा सकता है लेिकन संस्कृत नहीं
चिलए इसको समझाने के िलए एक उदाहरण दे ता हूं न्यूटन ने गुरुत्वाकषण
र् यानी ग्रेिवटी के िसद्धांत का आिवष्कार िकया लेिकन आज के टाइम में
िफिजक्स में या भौितक िवज्ञान में िवद्यािथर् यों को ग्रेिवटी के अंतगत
र् कई अन्य बातों का भी ज्ञान है जो शायद न्यूटन को भी नहीं हो आज के
िवद्याथीर् न्यूटन से अिधक सभ्य तो कहे जा सकते हैं लेिकन न्यूटन के बराबर संस्कृत नहीं कहे जा सकते
अगर हम आग और सुई धागे के आिवष्कार में क्या पेट की ज्वाला का कोई प्रेरणा रही होगी हमें पता चलता है िक नहीं लेिकन सचमुच सभ्यता का
एक बड़ा आयुष है िक हमें ऐसे संस्कृत व्यिक्तयों से िमलता है िजनकी चेतना पर भौितक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है िकं तु उसका कुछ अंश
िनश्चय ही उन लोगों से प्राप्त हुआ है िजन्होंने तत्व िवशेष की प्रािप्त भौितकी प्रेरणा से नहीं बिल्क अपने अंदर की सहज संस्कृित के सहारे की है
मतलब मैं क्या कहना चाह रहा हूं आज वह व्यिक्त िजसका पेट भरा हुआ है और तन ढका हुआ है खुले आकाश के नीचे सोया हुआ रात को
जगमगाते हुए तारों को दे खता है तो उसे केवल इसिलए नींद नहीं आती क्योंिक वह यह जानने के िलए परेशान है िक यह मोती भरा ताल क्या है
इस दृिष्ट से रात के तारों को दे ख कर ना सोच रखने वाला मानव व्यवहार आज के ज्ञान का प्रथम स्रोत है
केवल ज्ञान प्राप्त करने वाली प्रबल आकांक्षा ही मानव संस्कृित के माता-िपता नहीं है जो योग्यता िकसी व्यिक्त या िकसी मानव के सब त्याग
करवाती है वह भी संस्कृित है जो दू सरों के मुंह में टु कड़ा डालने के िलए अपने मुंह का टु कड़े को छोड़ दे ता है उसे यह बात क्यों और कैसे सोच पाती
होगी?
रिसया यानी रूस का भाग्य बनाने वाला लेिनन अपनी डेट पर रखे हुए डबल रोटी के सूखे टु कड़ों को स्वयं ना खाकर दू सरों को िखला िदया करता
था संसार के मजदू रों को सुखी दे खने का स्वप्न दे खने वाले काल माक्सर् ने अपना सारा जीवन दु खों में बता िदया ढाई हजार साल पहले िसद्धाथर् ने
अपना घर केवल इसिलए छोड़ िदया था िक िकसी तरह अिधक पाने की लालच में लड़ते झगड़ते मनुष्य आपस में ही सुख से ना रह सके मानस की
जो योग्यता है आग हो सुई धागे का आिवष्कार हो तारों की जानकारी हो बहुत की की जानकारी हो वह िकसी महामानव से सवस्व
र् त्याग कर आती
है वह संस्कृित है सभ्यता हमारी संस्कृित का पिरणाम है हमारे खाने पीने ओढ़ने पहनने के तरीके हमारा कल्चर के साधन है
काव्य खंड
Note -यहां पर पद के मायने
िलखे हुए हैं अपनी पाठ्य
पुस्तक से पदों को पढ़ें और
गोिपयां उधर से कहती हैं िक हमारे श्री कृष्ण हमारे िलए हािरल पक्षी की लकड़ी के समान है िजस प्रकार हािरल अपने पैरों
में दवाई लकड़ी को नहीं छोड़ता उसी प्रकार हम अपने भी मन वचन और कमर् से श्रीकृष्ण को दृढ़ता पूवक र् अपने िदल में
बस आए हुए हैं हम तो जागते सोते सपनों में और िदन-रात श्री कृष्ण श्री श्री कृष्ण रत्ती रहती हैं हम तो जॉब के नाम सुनते
ही ऐसा लगता है जैसे मुंह में कड़वी ककड़ी चली गई है योग रुपीज इस बीमारी को तुम हमारे िलए लाए हो उसे हमने ना
तो पहले कभी देखा है ना ही उसके बारे में सुना है ना ही इसका कभी व्यवहार करके देखा है सूरदास गोिपयों के माध्यम से
यह कहना चाहते हैं िक इस जोक को जो तुम उन्हें को ही जाकर सौंप दो िजनका मन चकरी के समान चंचल है हमारा मन
तो िस्थर है वह तो सदैव श्री कृष्ण के प्रेम में ही रामा रहता है
काव्यांश 6
भावाथर्
लक्ष्मण ने परशुराम से कहा- हे मुिन! आपके शील स्वभाव के बारे में कौन नहीं जानता? वह संपण
ू र् संसार में प्रिसद्ध है। आप माता-िपता के
ऋण से तो अच्छी तरह मुक्त हो गए। अब केवल गुरु का ऋण शेष रह गया है, िजसका आपके जी पर बड़ा बोझ है। शायद यह ऋण
हमारे ही माथे पर था। बहुत िदन बीत गए, इस पर ब्याज़ भी बहुत चढ़ गया होगा। अब िकसी िहसाब करने वाले को बुला लाइए तो मैं
तुरत
ं ही थैली खोलकर सारी धनरािश दे देता हूँ । लक्ष्मण के कटु वचन सुनकर जब परशुराम ने अपना फरसा सँभाला तो सारी सभा हाय-
हाय करके पुकारने लगी। लक्ष्मण बोले-हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा िदखा रहे हैं, पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर आपको बचा
रहा हूँ । मुझे लगता है आपको कभी युद्ध के मैदान में वीर योद्धा नहीं िमले हैं। हे ब्राह्मण देवता! आप घर में ही अपनी वीरता के कारण फूले-
फूले िफर रहे हैं अथात्
र् अत्यिधक खुश हो रहे हैं। लक्ष्मण के ऐसे वचन सुनकर सभा में उपिस्थत सभी लोग 'यह अनुिचत है, यह अनुिचत है'
कहकर पुकारने लगे। यह देखकर श्रीराम ने लक्ष्मण को आँ खों के इशारे से रोक िदया। लक्ष्मण के उत्तर परशुराम की क्रोधािग्न में आहुित
के सदृश कायर् कर रहे थे। इस क्रोधािग्न को बढ़ते देख रघुवंशी सूयर् राम, लक्ष्मण के वचनों के िवपरीत, जल के समान शांत करने वाले
वचनों का प्रयोग करते हुए परशुराम जी से लक्ष्मण को क्षमा कर की िवनती करने लगे।
दू सरा काव्यांश
कभी कहते हैं िक यह तो दुभाग्य र् की बात होगी िक सरल मन वाले िक मैं हंसी उड़ाओ मैं तो अभी तक स्वयं दू सरों के स्वाभाव को
नहीं समझ पा रहा हूं मैं तुम्हारे सामने अपनी किमयां बता कर करूं या लोगों का छल कपट पूणर् व्यवहार को दुिनया से मुझे जो धोखे
िमले हैं उन्हें तुम्हें बताऊं मधुर चांदनी रातों के उज्जवल गाथा को कैसे गाऊं िजसमें हंसते िखलिखलाते हुए िप्रया के साथ बातें होती
थी उन िनजी क्षणों का वणन र् मैं कैसे कर सकता हूं उन क्षणों को लोगों को बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कभी अपनी
आत्मकथा बताते हुए कहता है िक मुझे जीवन में वही सुख कहां िमला िजसका स्वप्न देख कर मैं जाग गया था शोक तो मेरी बाहों में
आने से पहले मुस्कुरा कर भाग गया मतलब मेरी अिभलाषा कभी सफल नहीं होगी मुझे कभी सुख की प्रािप्त ही नहीं हुई
काव्यांश तीसरा
कभी अपनी िप्रय के सौंदयर् का वणन र् करते हुए यह बताता है िक उसके लािलमा युक्त गालों को देखकर ऐसा लगता है जैसे प्रेम
िबखरती ओरछा उिदत हो रही है अथात र् ऐसा लगता था जैसे उड़ता भी अपने लािलमा उसी से िलया करती थी आज मैं उसकी ही यादों
के सहारा लेकर अपने जीवन के रास्ते की थकान दू र करता हूं अथात र् उसी की यादें मेरे थके हुए जीवन का सहारा है ऐसे पल कभी
नहीं आए इसिलए मेरे जीवन की कहानी को खोल कर देखना चाहते हो मेरे छोटे से जीवन के अभाव से मेरी बड़ी-बड़ी कथाएं हैं मैं
अपने जीवन के सामान्य गाथाओं को कैसे कहूं मेरे िलए अच्छा रहेगा िक मैं दू सरे महान लोगों की कथाओं को सुनता हूं और अपने बारे
में चुप रहूं तुम मेरी भोली भाली आत्मकथा को सुनकर क्या प्रेरणा प्राप्त कर सकोगे इस समय शांत है अभी तक कर सोया है इसिलए
अभी आत्मकथा िलखने का उिचत समय नहीं आया
दू सरा काव्यांश
किव को बच्चे की मुस्कान मनमोहक लगती है जब बच्चा पहली बार िकसी को देखता है तो वह अजनबी की तरह उसे घूरता
रहता है इसी कारण कभी बच्चे से कहता है िक तुम मुझे पहचान नहीं पाए इसी कारण लगातार िबना पलक झपकाए अजनबी
यों की तरह तो मुझे देख रहे हो कभी बच्चे से कहता है िक इस प्रकार लगातार देखते रहने से तुम थक गए होगे इसिलए मैं ही
तुम्हारी ओर से अपनी आं खें हटा लेता हूं यिद तुम मुझे पहली बार मैं नहीं पहचान सके तो कोई बात नहीं यिद तुम्हारी मां
तुम्हारा पिरचय मुझसे ना कराती अथात र् यिद तुम्हारी मां तुम्हें और मेरे बीच माध्यम का कामना करती तो तुम मुझे देख कर
हंसते नहीं और मैं तुम्हारे इन नए नए िनकले दांतों वाली मुस्कान को देखने का सौभाग्य प्राप्त ना कर पाता
तीसरा काव्यांश
कभी बच्चे की मधुर मुस्कान को देखकर कहता है िक तुम धन्य हो और तुम्हारी मां भी धन्य है जो तुम्हें एक दू सरे का साथ
िमला है मैं तो सदैव भारी रहा तुम्हारे िलए अपिरिचत ही रहा मैं एक अितिथ हूं ए िप्रय मुझसे तुम्हारी अमृता कैसे हो
सकती है अथात र् मेरा तुमसे कोई संपकर् नहीं रहा तुम्हारे िलए तो तुम्हारी मां की उं गिलयां में ही सारा जहान है िजन्होंने तुम्हें
पंचामृत िपलाया इसिलए तुम उनका हाथ पकड़ कर मुझे ितरछी नजरों से देख रहे हो जब तुम्हारी नजरें मेरी नजर से िमल
जाती है तब तुम मुस्कुरा देते हो उस समय तुम्हारे नए नए िनकले दांतों वाली मधुर मुस्कान मुझे बहुत ही पसंद आती है
फसल
पहला काव्यांश
किव ने इस बात को स्पष्ट िकया है िक लहराती फसल को पैदा करने में प्रकृित और मनुष्य दोनों का ही परस्पर सहयोग सहयोग होता है इसिलए
वह कहता है िक फसल को पैदा करने में केवल एक दो निदयों का ही नहीं अनेक निदयों अपना जल देकर उसके िसं चाई करती हैं उसमें केवल एक
दो मनुष्य का ही नहीं लाखों करोड़ों मनुष्य का पिरश्रम िमलता है और उसमें केवल 12 खेतों का ही नहीं हजारों हजारों खेतों की िमट्टी का गुणधमर्
िमलता है तब खेतों में लहरा की फसल पैदा होती है इस प्रकार प्रकृित और मनुष्य दोनों के सहयोग से सूजन संभव हो पाता है
दूसरा काव्यांश
कभी नहीं इस बात को स्पष्ट िकया है िक फसल को पैदा करने में प्रकृित और मनुष्य दोनों का ही सहयोग होता है इसी से सूजन
संभव होता है इसिलए कभी कहता है िक फसल का स्वयं कोई अिस्तत्व नहीं है वह दो निदयों द्वारा िकया गया उस पानी का
जादू है िजसे फसल की िसं चाई हुई है वह तो लाखों-करोड़ों मनुष्य द्वारा िकए गए पिरश्रम की मिहमा का फल है वह तो भूरी
काली िमट्टी का गुण धमर् है िजसमें फसल को बोया गया था वह तो सूरज की िकरणों का बदला हुआ रूप है िजसके द्वारा
फसल को रोशनी िमली साथ ही उसमें हवा का भी सम्मान सहयोग है इसी प्रकार सब के सहयोग से ही खेतों में लहराती फसल
खड़ी होती हैं
काव्यांश तीसरा
जब मुख्य गायक का गला तरस पर अथात र् ऊंचे स्वरों में गाते समय बैठने लगता है प्रेरणा उसका साथ छोड़ने लगती
है उसका उत्साह कम होने लगता है आवाज बुझने लगती है तभी मुख्य गायक को सहारा देती हुई ऊंचा स्वर सुनाई
देने लगता है कभी-कभी मुख्य गायक को यह बताने के िलए िक वह अकेला नहीं है और िजस राग को गाया जा
चुका है और िफर िफर से गाया जा सकता है संगतकार अपने स्वर में उसका साथ देता है इसी प्रकार में मुख्य गायक
के उत्साह को बढ़ाता है यह सब करते समय उसकी आवाज में एक िहचिकचाहट साफ सुनाई देती है यह संगतकार
िक अपने स्वर को मुख्य गायक के स्वगर् से ऊंचा ना उठ जाए यह वह हमेशा कोिशश रखता है उसे उसकी िवफलता
नहीं मानी जानी चािहए यह तो उसकी मानवी आता है िकसी भी क्षेत्र में नायक का साथ देने वाले ऐसे व्यिक्तयों को
कमजोर नहीं समझना चािहए िक कहीं नहीं केबल पर दू सरे लोग सफलता प्राप्त करते हैं
Kritika
Ch-1 माता का आं चल (िशवपूजन सहाय)
देहाती दुिनया के उपन्यास के िलए इस इश्क में ग्रामीण संस्कृित की झांकी बहुत अच्छी तरीके से िदखाई गई है पाठ में भोलानाथ के चिरत्र
के माध्यम से माता-िपता के स्नेह और दुलार बालकों और िविभन्न ग्रामीण खेल लोकगीत और बच्चों की मस्ती और शैतानों का बहुत अच्छा
वणन र् है
लेखक का नाम तारकेश्वर नाथ था िकं तु िपताजी लाल में उसे भोलानाथ कहते थे वह अपनी माता के केवल खाना खाने एम दू ध पीने तक
का नाता था वह िपता के साथ ही वहां की बैठक में सोया करता था िपता प्रात: काल उठकर भोलानाथ को भी साथ में ले लेते पूजा पाठ के
बाद िपताजी अपने एक राम नाम वहीं पर हजार बार राम नाम िलखकर पाठ करने की पोती के साथ बांध कर रख देते कभी-कभी बाबूजी
और बोला नाथ के बीच कुश्ती भी होती िपताजी
पीठ के बल लेट जाते थे और भोलेनाथ उनकी छाती पर चढ़कर लंबी लंबी मूछों खाने लगता है तो िपताजी हंसते-हंसते उसके हाथों को मूछों
से छु ड़ाकर तुमने लग जाते थे उससे अपने हाथों से कटोरे में दू ध और भात िखलाते थे
जब भोलानाथ का पेट भर जाता तो उसके बाद भी माँ थाली में दही-भात सानती और अलग-अलग तोता, मैना, कबूतर, हंस, मोर आिद के
बनावटी नाम से कौर बनाकर यह कहते हुए िखलाती जाती िक जल्दी खा लो, नहीं तो उड़ जाएँ गे, तब भोलानाथ सब बनावटी पिक्षयों को
चट कर जाता था। भोलानाथ की माँ उसे अचानक पकड़ लेती और एक चुल्लू कड़वा तेल उसके िसर पर अवश्य डालती थी तथा उसे सजा-
धजाकर कृष्ण- कन्हैया बना देती थी।
भोलानाथ के घर पर बच्चे तरह-तरह के नाटक खेला करते थे, िजसमें चबूतरे के एक कोने को नाटक घर की तरह प्रयोग िकया जाता था।
बाबूजी की नहाने की छोटी चौकी को रंगमंच बनाया जाता था। उसी पर िमठाइयों की दुकान, िचलम के खोंचे पर कपड़े के थालों में ढेले के
लड्डू, पत्तों की पूरी कचौिरयाँ, गीली िमट्टी की जलेिबयाँ, फूटे घड़े
के टु कड़ों के बताशे आिद िमठाइयाँ सजाई जातीं थीं। उसमें दुकानदार और खरीदार सभी बच्चे ही होते थे। थोड़ी देर में िमठाई की दुकान
हटाकर बच्चे घरौंदा बनाते थे। धूल की मेड़ दीवार बनती और ितनकों का छप्पर । दातून के खंभे, िदयासलाई की पेिटयों के िकवाड़ आिद ।
इसी प्रकार के अन्य सामानों से बच्चे ज्योनार (दावत) तैयार करते थे।
जब पंगत (सभी लोगों की पंिक्त) बैठ जाती थी, तब बाबूजी भी धीरे से आकर जीमने (भोजन करने) के िलए बैठ जाते थे। उनको बैठते
देखते ही बच्चे हँ सते हुए घरौंदा िबगाड़कर भाग जाते थे। कभी-कभी बच्चे बारात का भी जुलूस िनकालते थे। बारात के लौट आने पर
बाबूजी ज्यों ही दुलिहन का मुख िनरखने लगते, त्यों ही बच्चे हँ सकर भाग जाते। थोड़ी देर बाद िफर लड़कों की मंडली जुट जाती और खेती
की जाती।
बड़ी मेहनत से खेत जोते-बोए और पटाए जाते। फसल तैयार होते देर न लगती और बच्चे हाथों-हाथ फसल काटकर उसे पैरों से रौंद डालते
और कसोरे का सूप बनाकर, ओसाकर िमट्टी के दीये के तराजू पर तौलकर रािश तैयार कर देते थे। इसी बीच बाबूजी आकर पूछ लेते िक
इस साल की खेती कैसी रही, भोलानाथ ? तब बच्चे खेत-खिलहान छोड़कर हँ सते हुए भाग जाते थे।
आम की फसल के समय कभी-कभी खूब आँ धी आती है। आँ धी समाप्त हो जाने पर बच्चे बाग की ओर दौड़ पड़ते और चुन-चुनकर घुले
आम खाते थे। एक िदन आँ धी आने पर आकाश काले बादलों से ढक गया। मेघ गरजने लगे और िबजली कौंधने लगी। बरखा बंद होते ही
बाग में बहुत-से िबच्छू नज़र आए। बच्चे डरकर भाग चले। बच्चों में बैजू बड़ा ढीठ था। बीच में मूसन ितवारी िमल गए। बैजू उन्हें देखकर
िचढ़ाते हुए बोला- 'बुढ़वा बेइमान माँगे करैला का चोखा।' शेष बच्चों ने बैजू के सुर-में-सुर िमलाकर यही िचल्लाना शुरू कर िदया।
ितवारी ने पाठशाला जाकर वहाँ से बैजू और भोलानाथ को पकड़ लाने के िलए चार लड़कों को भेजा। बैजू तो नौ-दो ग्यारह हो गया और
भोलानाथ पकड़ा गया, िजसकी गुरुजी ने खूब खबर ली। बाबूजी ने जब यह हाल सुना, तो पाठशाला में आकर भोलानाथ को गोद में
उठाकर पुचकारा। वह गुरुजी की खुशामद करके भोलानाथ को अपने साथ घर ले चले। रास्ते में भोलानाथ को साथी लड़कों का झुंड
िमला। उन्हें नाचते और गाते देखकर भोलानाथ अपना रोना-धोना भूलकर बाबूजी की गोद से उतरकर लड़कों की मंडली में िमलकर उनकी
तान-सुर अलापने लगा।
एक टीले पर जाकर बच्चे चूहों के िबल में पानी डालने लगे। कुछ ही देर में सब थक गए। तब तक िबल में से एक सॉप िनकल आया, िजसे
देखकर रोते-िचल्लाते सब बेतहाशा भागे। भोलानाथ की सारी देह' लहूलुहान हो गई। पैरों के तलवे काँटों से छलनी हो गए। वह दौडा हुआ
आया और घर में घुस गया। उस समय बाबूजी बैठक के ओसारे में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उन्होंने भोलानाथ को बहुत पुकारा, पर भोलानाथ
उनकी आवाज़ अनसुनी करके माँ के पास जाकर उसके आँ चल में िछप गया।
भोलानाथ को डर से काँपते देखकर माँ ज़ोर से रोने लगी और सब काम छोड़ बैठी। झटपट हल्दी पीसकर भोलानाथ के घावों पर थोपी गई।
भोलानाथ के मुँह से डर के कारण 'साँप' तक नहीं िनकल पा रहा था। िचं ता के मारे माँ का बुरा हाल था। इस बीच बाबूजी ने आकर
भोलानाथ को माँ की गोद से लेना चाहा, िकं तु भोलानाथ ने माँ के आँ चल को नहीं छोड़ा।
Ch-2 साना-साना हाथ जोिड़ (मधु कांकिरया)
लेिखका को गंतोक (गैंगटॉक) शहर सुबह, शाम और रात, हर समय बहुत अच्छा लगता है। यहाँ की रहस्यमयी िसतारों भरी रात लेिखका
को सम्मोिहत-सी करती प्रतीत होती है। लेिखका ने यहाँ एक नेपाली युवती से प्राथना र् के बोल सीखे थे-" साना-साना हाथ जोिड़, गदहु र्
प्राथना।
र् हाम्रो जीवन ितम्रो कौसेली।" िजसका िहं दी में अथर् है-छोटे-छोटे हाथ जोड़कर प्राथना
र् कर रही हूँ िक मेरा सारा जीवन अच्छाइयों
को समिपर् त हो
सुबह लेिखका को यूमथांग के िलए िनकलना था। जैसे ही उनकी आँ ख खुलती है, वह बालकनी की ओर भागती हैं, क्योंिक उन्हें लोगों ने
बताया था िक यिद मौसम साफ़ हो, तो बालकनी से भी कंचनजंघा (िहमालय की तीसरी सबसे बड़ी चोटी) िदखाई देती है। उस सुबह
मौसम अच्छा होने के बाद भी आसमान हल्के हल्के बादलों से ढका हुआ था, िजसके कारण लेिखका को कंचनजंघा िदखाई नहीं पड़ी,
िकं तु सामने तरह-तरह के रंग-िबरंगे ढेर सारे फूल िदखाई िदए।
गंगतोक (गैंगटॉक) से 149 िकमी की दू री पर यूमथांग था। लेिखका के साथ चल रहे ड्राइवर-कम-गाइड िजतेन नागेर् उन्हें बताता है िक
यहाँ के सारे रास्तों में िहमालय की गहनतम घािटयाँ और फूलों से लदी वािदयाँ िमलेंगी। आगे बढ़ने पर उन्हें एक स्थान पर एक कतार में
लगी सफ़ेद बौद्ध पताकाएँ िदखाई देती नागेर् उन्हें बताता है िक यहाँ बुद्ध की बहुत मान्यता है। जब भी िकसी बुिद्धस्ट की मृत्यु होती है,
उसकी आत्मा की शांित के िलए शहर से दू र िकसी भी पिवत्र स्थान पर एक सौ आठ श्वेत पताकाएँ फहरा दी जाती हैं और इन्हें उतारा
नहीं जाता। ये स्वयं ही नष्ट हो जाती हैं।कई बार कोई नया कायर् आरंभ करने पर भी पताकाएँ लगाई जाती हैं, लेिकन ये पताकाएँ सफ़ेद
न होकर रंगीन भी होती हैं। लेिखका को यहाँ जगह-जगह पर दलाई लामा की तस्वीर िदखाई देती है। यहाँ तक िक िजस जीप वह बैठी
थी, उसमें भी दलाई लामा का िचत्र लगा हुआ था।
थोड़ा आगे चलने पर 'कवी-लोंग स्टॉक' स्थान आता है, िजसे देखते ही िजतेन बताता है िक यहाँ 'गाइड' िफ़ल्म की शूिटं ग हुई थी। इसी
स्थान पर ितब्बत के चीस-खे बम्सन ने लेपचाओं के शोमेन से कुंजतेक के साथ संिध-पत्र पर हस्ताक्षर िकए थे तथा उसकी याद में यहाँ
पर एक पत्थर स्मारक के रूप में भी है। लेिखका को एक कुिटया में घूमता हुआ चक्र िदखाई देता है, िजस पर नागेर् उन्हें बताता है िक इसे
'धमर् चक्र' कहा जाता है। इसे लोग 'प्रेयर व्हील' भी कहते हैं। इसके िवषय में यह मान्यता है िक इसे घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं।
कुछ और आगे चलने पर बाज़ार, बिस्तयाँ और लोग पीछे छूटने लगे। कहीं-कहीं स्वेटर बुनती नेपाली युवितयाँ और पीठ पर भारी-भरकम
काटन र् (गत्ते का बक्सा) ढोते हुए बौने से बहादुर नेपाली िमल रहे थे। ऊपर से नीचे देखने पर मकान बहुत छोटे िदखाई दे रहे थे। अब रास्ते
वीरान, सँकरे और जलेबी की तरह घुमावदार होने लगे थे। िहमालय िवशालकाय होने लगा था। कहीं पवत र् िशखरों के बीच दू ध की धार
की तरह झर-झर नीचे िगरते हुए जलप्रपात िदखाई दे रहे थे, तो कहीं चाँदी की तरह चमक मारती ितस्ता नदी, जो िसलीगुड़ी ही लगातार
लेिखका के साथ चल रही थी, बहती हुई िदखाई दे रही थी।
अब जीप 'सेवन िसस्टसर् वॉटर फॉल' नामक स्थान पर रुकी, जहाँ एक िवशाल और सुंदर झरना िदखाई दे रहा था। सैलािनयों ने कैमरों से
उस स्थान के िचत्र लेने शुरू कर िदए। लेिखका यहाँ के प्राकृितक सौंदयर् में इतना खो गईं िक उनका िदल वहाँ से जाने को नहीं कर रहा था।
आगे चलने पर लेिखका को िहमालय की रंग-िबरंगी चोिटयाँ नए-नए रूपों में िदखाई देती हैं, जो अचानक बादलों छा जाने पर ढक जाती हैं।
धीरे-धीरे धुंध की चादर के छँट जाने पर उन्हें दो िवपरीत िदशाओं से आते छाया पहाड़ िदखाई देते हैं, जो अब अपने श्रेष्ठतम रूप में उनके
सामने थे। इस स्थान को देखकर लेिखका को ऐसा लगता है मानो स्वगर् यहीं पर है। वहाँ पर िलखा था-'िथं क ग्रीन' जो प्रकृित और
पयावरण
र् के प्रित सजग होने की बात कह रहा था। लेिखका वहाँ के प्राकृितक सौंदयर् से इतना प्रभािवत होती हैं िक जीप के कुछ देर वहाँ
रुकने पर वह थोड़ी दू र तक पैदल ही वहाँ के सौंदयर् को िनहारने लगती हैं। उनकी यह मुग्धता पहाड़ी औरतों द्वारा पत्थरों को तोड़ने की
आवाज़ से टू टती है।लेिखका को यह देखकर बहुत दुःख हुआ िक इतने सुंदर तथा प्राकृितक स्थान पर भी भूख, मौत और जीिवत रहने की
जंग चल रही थी। वहाँ पर बॉडरर् रोड ऑगेर्नाइजेशन के एक कमचारी
र् ने बताया िक िजन सुंदर स्थानों का दशन
र् करने वह जा रही हैं, यह सब
इन्हीं पहाड़ी मिहलाओं द्वारा बनाए जा रहे हैं। यह काम इतना खतरनाक है िक ज़रा भी ध्यान चूका तो मौत िनिश्चत है। लेिखका को ध्यान
आया िक एक स्थान पर िसिक्कम सरकार का लगाया हुआ बोडर् उन्होंने पढ़ा था, िजसमें िलखा था- एवर वंडडर् हू िडफाइं ड डेथ टू िबल्ड दीज़
रोड् स।' इसका िहं दी अनुवाद था- आप आश्चयर् करेंगे िक इन रास्तों को बनाने में लोगों ने मौत को झुठलाया है। वास्तव में, िकतना कम
लेकर भी ये पहाड़ी िस्त्रयों समाज को िकतना अिधक वापस कर देती हैं।
जब जीप और ऊँचाई पर पहुँ ची तो सात-आठ वषर् की उम्र के बहुत सारे बच्चे स्कूल से लौट रहे थे। िजतेन (गाइड) उन्हें बताता है िक यहाँ
तराई में ले-देकर एक ही स्कूल है, जहाँ तीन-साढ़े तीन िकलोमीटर की पहाड़ी चढ़कर ये बच्चे स्कूल जाते हैं। पढ़ाई के अितिरक्त ये बच्चे
शाम के समय अपनी माँ के साथ मवेिशयों को चराते हैं, पानी भरते हैं और जंगल से लकिड़यों के भारी-भारी गट्ठर ढोते हैं।
यूमथांग पहुँ चने के िलए लायुंग में िजस मकान में लेिखका व उनके सहयात्री ठहरे थे, वह ितस्ता नदी के िकनारे लकड़ी का एक छोटा-सा
घर था। वहाँ का वातावरण देखकर उन्हें लगा िक प्रकृित ने मनुष्य को सुख-शांित, पेड़-पौधे, पशु सभी कुछ िदए हैं, िकं तु हमारी पीढ़ी ने
प्रकृित की इस लय, ताल और गित से िखलवाड़ करके अक्षम्य (क्षमा के योग्य न होने वाला) अपराध िकया है। लायुंग की सुबह बेहद शांत
और सुरम्य थी। वहाँ के अिधकतर लोगों की जीिवका का साधन पहाड़ी आलू, धान की खेती और दारू का व्यापार है। लेिखका सुबह
अकेले ही पहाड़ों की बफ़र् देखने िनकल जाती हैं, परंतु वहाँ ज़रा भी बफ़र् नहीं थी। लायुंग में एक िसक्कमी नवयुवक उन्हें बताता है िक
प्रदू षण के चलते यहाँ बफबारी
र् (स्नो-फॉल) लगातार कम होती जा रही है।
बफ़बारीर् देखने के िलए लेिखका अपने सहयाित्रयों के संग लायुंग से 500 फीट की ऊँचाई पर िस्थत 'कटाओ' नामक स्थान पर जाती हैं।
इसे भारत का िस्वट् ज़रलैंड कहा जाता है। 'कटाओ' जाने का मागर् बहुत दुगम र् था। सभी सैलािनयों की साँसें रुकी जा रही थीं। रास्ते धुंध
और िफसलन से भरे थे, िजनमें बड़े-बड़े शब्दों में चेताविनयाँ िलखी थीं- इफ यू आर मैिरड, डाइवोसर् स्पीड', 'दुघटना
र् से देर भली, सावधानी
से मौत टली।
कटाओ पहुँ चने के रास्ते में दू र से ही बफर् से ढके पहाड़ िदखाई देने लगे थे। पहाड़ ऐसे लग रहे थे जैसे िकसी ने उन पर पाउडर िछड़क िदया
हो या साबुन के झाग चारों ओर फैला िदए हों। सभी यहाँ बफ़र् पर कूदने लगे थे। लेिखका को लगा शायद ऐसी ही िवभोर कर देने वाली
िदव्यता के बीच हमारे ऋिष-मुिनयों ने वेदों की रचना की होगी और जीवन के गहन सत्यों को खोजा होगा। लेिखका की िमत्र मिण एकाएक
दाशिर् नकों की तरह कहने लगीं, "ये िहमिशखर जल स्तंभ हैं, पूरे एिशया के देखो, प्रकृित भी िकस नायाब ढंग से इं तज़ाम करती है। सिदर् यों
में बफर् के रूप में जल संग्रह कर लेती है और गिमर् यों में पानी के िलए जब त्रािह-त्रािह मचती है, तो ये ही बफर् िशलाएँ िपघल-िपघलकर
जलधारा बन हमारे सूखे कंठों को तरावट पहुँ चाती हैं। िकतनी अद्भुत व्यवस्था है जल संचय की!"
यहाँ से आगे बढ़ने पर उन्हें मागर् में इक्की दुक्की फ़ौजी छाविनयाँ िदखाई देती हैं। वहाँ से थोड़ी ही दू री पर चीन की सीमा थी। जब
लेिखका ने एक फौजी से पूछा िक इतनी कड़कड़ाती ठं ड (उस समय तापमान 15° सेिल्सयस था) में आप लोगों को बहुत तकलीफ़ होती
होगी, तो उसने उत्तर िदया-" आप चैन की नींद सो सकें, इसीिलए तो हम यहाँ पहरा दे रहे हैं। थोड़ी दू र एक फौजी छावनी पर िलखा था-
'वी िगव अवर टु डे फॉर योर टु मारो।' लेिखका को भारतीय सैिनकों पर बहुत गवर् होता है। वह सोचने लगती है िक पौष और माघ के महीनों
में जब केवल पेट्रोल को छोड़कर सब कुछ जम जाता है, उस समय भी ये सैिनक हमारी रक्षा के िलए िदन-रात लगे रहते हैं। यूमथांग की
घािटयों में ढेरों िप्रयुता और रूडोडेंड्रो के फूल िखले हुए थे। िजतेन उन्हें बताता है िक अगले पंद्रह िदनों में पूरी घाटी फूलों से भर उठे गी।
लेिखका यूमथांग में िचप्स बेचती हुई एक युवती से पूछती है क्या तुम िसिक्कमी हो ?' वह युवती उत्तर देती है- 'नहीं, मैं इं िडयन हूँ ।'
लेिखका को यह जानकर बहुत प्रसन्नता होती है िक िसिक्कम के लोग भारत में िमलकर बहुत प्रसन्न हैं।
जब लेिखका तथा उनके साथी जीप में बैठ रहे थे, तब एक पहाड़ी कुत्ते ने रास्ता काट िदया। लेिखका की साथी मिण बताती है िक ये
पहाड़ी कुत्ते हैं, जो केवल चाँदनी रात में ही भोंकते हैं। वापस लौटते हुए िजतेन उन्हें जानकारी देता है िक यहाँ पर एक पत्थर है, िजस पर
गुरुनानक के पैरों के िनशान हैं। कहा जाता है िक यहाँ गुरुनानक की थाली से थोड़े से चावल िछटककर बाहर िगर गए थे और िजस स्थान
पर चावल िछटक गए थे, वहाँ चावल की खेती होती है।
िजतेन उन्हें बताता है िक तीन-चार िकलोमीटर आगे 'खेदुम'' स्थान पर देवी-देवताओं का िनवास है। िसिक्कम के लोगों का िवश्वास है, जो
यहाँ गंदगी फैलाता है, उसकी मृत्यु हो जाती है। लेिखका के पूछने पर िक क्या तुम लोग पहाड़ों पर गंदगी नहीं फैलाते, तो वह उत्तर देता है-
नहीं मैडम, हम लोग पहाड़, नदी, झरने इन सबकी पूजा करते हैं। नामक एक
िजतेन यूमथांग के िवषय में एक जानकारी और देता है िक जब िसिक्कम भारत में िमला तो उसके कई वषोर्ं बाद भारतीय सेना के कप्तान
शेखर दत्ता के िदमाग में यह िवचार आया िक केवल सैिनकों को यहाँ रखकर क्या होगा, घािटयों के बीच रास्ते िनकालकर इस स्थान को
टू िरस्ट स्पॉट बनाया जा सकता है। आज भी यहाँ रास्ते बनाए जा रहे हैं। लेिखका सोचती है िक नए-नए स्थानों की खोज अभी भी जारी है
और शायद मनुष्य की कभी न समाप्त होने वाली खोज का नाम सौंदयर् है।
एक बार लेखक को जापान जाने का अवसर िमला। वहाँ जाकर उसने िहरोिशमा और उस अस्पताल को भी देखा, जहाँ
रेिडयम पदाथर् से आहत लोग वषोर्ं से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार उसे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ। उसे लगा िक कृितकार के िलए
अनुभव से अनुभिू त गहरी चीज़ है। यही कारण है िक िहरोिशमा में सब देखकर भी उसने तत्काल कुछ नहीं िलखा। िफर एक
िदन उसने वहीं सड़क पर घूमते हुए देखा िक एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया है। उसकी समझ में आया िक
िवस्फोट के समय कोई व्यिक्त वहाँ खड़ा रहा होगा और िवस्फोट से िबखरे हुए रेिडयोधमीर् पदाथर् की िकरणें उसमें रुद्ध हो गई
होंगी और उन िकरणों ने उसे भाप बनाकर उड़ा िदया होगा। इसी कारण पत्थर का वह छाया वाला अंश झुलसने से बन गया
होगा। यह देखकर उसे लगा िक समूची ट्रेजडी (दुःखद घटना) जैसे पत्थर पर िलखी गई है।
उस छाया को देखकर लेखक को जैसे एक थप्पड़-सा लगा। उसी क्षण अणु िवस्फोट जैसे उसकी अनुभूित में आ गया और वह
स्वयं िहरोिशमा के िवस्फोट का भोक्ता बन गया। अचानक एक िदन उसने भारत आकर िहरोिशमा पर एक किवता िलखी। यह
किवता अच्छी है या बुरी, इससे लेखक को मतलब नहीं है। उसके िलए तो वह अनुभूितजन्य सत्य है, िजससे वह यह जान
गया िक कोई रचनाकार रचना क्यों करता है।
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