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Chaitanya As An Ideal Sannyasin
Chaitanya As An Ideal Sannyasin
Br.suraj
st
1 year B course
(2023-2025)
जो अपने कु लको, मान-सम्मानको, सुन्दर पत्नीको भक्तो को और रोति हुई माता को छोड़कर
संसारमें प्रेमको प्रकट करके उसके प्रकाशनके निमित्त वनवासी वैरागी बन गये ऐसे गौरहरि भगवान हमपर
प्रसन्न हों।
1. निमाई का वैराग्य
श्रीरामकृ ष्ण चैतन्य महाप्रभु के बारे में कथामृत में कहते हैं,"वे ईश्वर के अवतार थे। उनमें और
जीवों में बड़ा अंतर है। उन्हें ऐसा वैराग्य था की सार्वभौम ने जब जीभ पर चीनी डाल दी, तब चीनी हवा में
'फर-फर ' करके उड़ गयी, भीगी तक नहीं। वे सदा ही समाधिमग्न रहते थे।" चैतन्य महाप्रभु का पूर्वाश्रम का
नाम निमाई था । निमाई जब लगभग 24 साल के थे तब उनके मन में संन्यास ग्रहण करने का विचार आया
और उनका वैराग्य दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था।
एक दिन नित्यानन्दजी प्रभुकी मनोदशा देखकर ताड़ गये कि जरूर प्रभु हम सबको छोड़कर कहीं
अन्यत्र जानेकी बात सोच रहे हैं। इसीलिये उन्होंने एकान्त में प्रभुसे पूछा- 'प्रभो! आप हमसे अपने मनकी
कोईबात नहीं छिपाते। आजकल आपकी दशा कु छ विचित्र सी हो रही है। हम जानना चाहते हैं। इसका क्या
कारण हैं?’
नित्यानन्दजी की ऐसी बात सुनकर गद्गद कण्ठसे प्रभु कहने लगे- "श्रीपाद! तुमसे छिपा ही क्या है?
मैं अपने मनकी दशा तुम से छिपा नहीं सकता! मुझे कहनेमें दुःख हो रहा है। अब मेरा मन यहाँ नहीं लग रहा
है। जीवोंका दुःख अब मुझसे देखा नहीं जाता। में जीवोंके कल्याण के निमित्त अपने सारे संसारी सुखोंका
परित्याग करूँ गा। मेरा मन अब गृहस्थी में नहीं लगता है। अब मैं परिव्राजक धर्म पालन करूँ गा। शिखा
सूत्रका त्याग करके मैं वीतराग संन्यासी बनूँगा। मेंरा हृदय अब संन्यासी होने के लिये तड़प रहा है। मैं अब
पूर्ण शान्ति और सच्चे सुखकी खोजमें संन्यासी बनकर द्वार-द्वारपर भटकूँ गा। मैं अपरिग्रही संन्यासी बनकर
सभी प्रकारके परिग्रहोका त्याग करूँ गा।"
7. महाप्रभुका मातृहृदय
सनातन के शरीर में खुजली का प्रकोप था। उनके शरीर से रक्त-पीब बहता था। परन्तु
चैतन्यदेव उसकी परवाह न करते हुए, देखते ही उन्हें प्रेमालिंगन प्रदान करते थे। अपनी देह के रक्त मवाद से
महाप्रभु के पवित्र अंगोंको कलुषित होते देखकर सनातन को असीम दुःख होता। इसी कारण से वे दूर जाना
चाहते थे। जब ये बात सनातन ने चैतन्यदेव के सामने रखी तो वे गम्भीर स्वर में सनातन से कहने लगे, "यह
भला है और यह बुरा हैं,ऐसा द्वैतज्ञान मन का धर्म और भ्रम है। मैं संन्यासी हूँ। समदृष्टि ही मेरा धर्म है।
चन्दन और कीचड़ में मेरी समबुद्धि हैं इस कारण मैं तुम्हारा त्याग नहीं कर सकता। यदि में घृणा बोध करूँ ,
तो मेरे धर्म का लोप हो जायेगा।" महाप्रभु ने उन्हें स्नेह पूर्वक समझाते हुए कहा, "जैसे माता के शरीर पर
शिशु का मल-मूत्र लग जाने पर उसे घृणा तो नहीं, बल्कि और भी सुख होता हैं; जैसे बालक का मल-मूत्र
उसे चन्दन के समान भाता है। वैसे ही सनातन के मवाद से मेरे मन मैं घृणा का भाव नहीं उपजता।"
9. उपसंहार
सच में चैतन्य महाप्रभु एक आदर्श संन्यासी है। वे जीवोको त्यागका पाठ पढ़ाना चाहते थे। वे
दिखा देना चाहते थे की प्रभु-प्राप्तिके लिये प्यारी-से-प्यारी वस्तुका का भी परित्याग करना आवश्यक है। नहीं
तो उन्हें स्वयं संन्यासका क्या प्रयोजन था?
अद्वैताचार्यजीने पूछा- "आपने यह अद्वैत वेदान्तियोंकी भाँति संन्यास लेकर दण्ड-धारण क्यों किया है?”
इसपर महाप्रभु कहते हैं- "आचार्य! संन्यास धारण करनेमें द्वैत-अद्वैतकी कौन-सी बात है। मुख्य बात तो है
अपने प्यारेके पादपद्मोंतक पहुचना, सो यह बिना सर्वस्व त्याग किये होनेका नही। यही सोचकर मैं संन्यास-
धर्ममें दीक्षित हुआ हूँ। यह जो तुम दण्ड देख रहे हो, सो तो मेरी साधनावस्था का द्योतक है। यह मन बड़ा ही
चञ्चल है, जबतक साधन और नियमरूपी दण्डसे इसे हाँकते न रहोगे, तबतक यह अपनी बदमाशियों को
छोड़ेगा नहीं। इसीलिये इसे वशमें करनेके निमित्त मैंने यह दण्ड धारण किया है। दण्डके भयसे यह इधर-
उधर न भाग सके गा।"