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Quadrant II – Transcript and Related Materials

Programme: Bachelor of Arts (Third Year)


Subject: Hindi
Paper Code: HND-105
Paper Title: Bhartiya Sahitya
Unit: 01
Module Name: भारतीय साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ
Module No: 03
Name of the Presenter: Ms. Priyanka R. Chodankar

Transcript

नमस्कार, मेरा नाम प्रियंका चोडणकर है। मैं शासकीय महाविद्यालय सांखळी में
सहायक प्राद्यापिका के रूप में कार्यरत हूँ। आज के इस व्याख्यान में हम तृतीय
वर्ष कला षष्टम सत्र के HND-105 ‘भारतीय साहित्य’ इस पेपर के अंतर्गत
आज ‘भारतीय साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ ’ इस विषय पर चर्चा करेंगे। इस
व्याख्यान के माध्यम से विद्यार्थी भारतीय साहित्य के अध्ययन में आने वाली
कठिनाईयों से परिचित होंगे।
भारतीय साहित्य से तात्पर्य अखिल भारतीय स्तर पर विभिन्न भारतीय भाषाओं में
अब तक लिखे जा रहे साहित्य से है। जिन भारतीय भाषाओं में यह साहित्य
लिखा जा रहा है उन्हें हम मोटे तौर पर आधुनिक आर्य भाषाएँ और द्रविड भाषाएँ
जैसे दो वर्गों में बाँट सकते हैं। जहाँ तक प्राचीन साहित्य का संबंध है वह पीछले
दो हज़ार वर्षों पुराना साहित्य है जो मुख्यत: संस्कृत, प्राकृत, द्रविड भाषाओं में
और विशेष कर तमिल में उपलब्ध है।
 भारतीय साहित्य के अध्ययन की समस्याएँ ।
1. बहु सांस्कृतिकता की समस्या।
भारतीय समाज सदियों से न केवल बहुभाषिक वरन् बहुसांस्कृतिक भी रहा है।
आर्य संस्कृति, द्रविड संस्कृति, कोल, भील संस्कृति, मोट वर्मी या किरात
संस्कृति। ऐसी स्थिति में एक भाषाई समाज की संकल्पना निराधार है। हमारे देश
में संस्कृति शब्द का प्रयोग सामान्यत: मानवीय आचरण और सामाजिक व्यवहार
के संदर्भ में किया जाता है। यह बहु सांस्कृतिकता भी एक समस्या के रूप में
सामने आती है जिसमें प्रत्येक प्रांत अपनी अलग संस्कृति ओढे हुए नजर आता
है।
किसी भी देश का साहित्य उस देश की समस्याओं के चित्रण पर केंद्रीत होता है।
भारत जैसे बडे देश में राष्ट्रीय स्तर की समस्याएँ नि:संदेह एक समान है। परंतु
प्रांतीय आधार पर इन समस्याओं में भिन्नता दिखाई पडती है। यह भिन्नता रहन-
सहन, रीति-रिवाज़ों तथा आर्थिक और राजनीतिक आधारों पर स्पष्ट देखी जा
सकती है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की समस्याएँ भारत के नगर कस्बों और
ग्रामीण अंचल से भिन्न है। इसलिए विभिन्न भाषाओं में लिखित यह समूचा भारतीय
साहित्य एक ही काल में एक जैसी बात नहीं करता। हम यह नहीं कह सकते कि
अमुक साहित्य में वर्णित समस्याएं भारतीय नहीं है। कुल मिलाकर भारतीय
साहित्य को जानने के लिए सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य की समस्याओं को
समझना होगा। भारतीय साहित्य को आत्मसात करने के लिए जैसे उसकी
संस्कृति का ज्ञान अवश्यक है, वैसे ही इसके भाषाओं का ज्ञान रहना ज़रूरी है।

2. काल विभाजन की समस्या।


भारत एक बड़ा राष्ट्र है। वृहत्तर भारत या प्राचीन भारत तो और विशाल था। ऐसी
स्थिति में भारतीय साहित्य की परिकल्पना एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि जब हम
किसी काल में किसी एक विचारधारा की बात भारत के संदर्भ में करते हैं तो भारत
के एक भूभाग में उसका अस्तित्व ही नहीं मिलता। इसलिए भारतीय साहित्य में
समान प्रवृत्तियाँ नहीं मिलती। किसी एक भाषा के साहित्य में आदिकाल की प्रवृत्ति
कुछ है तो दस ू री भाषा के साहित्य की प्रवृत्ति कुछ और तीसरी भाषा के साहित्य
की विकास ही प्रारंभ नहीं होता। ऐसी स्थिति में भारतीय साहित्य के इतिहास के
कालक्रम निर्धारण की भी महत्वपूर्ण समस्या उत्पन्न होती है कि भारतीय साहित्य
के युगक्रम को एक निश्चित कालावधि के आधार पर रेखांकित किया जाए या
प्रवृत्ति परिवर्तन को विवेचन का आधार बनाया जाए।
3. राष्ट्रीय एकता की भावना की समस्या।
आधुनिक इतिहासकारों ने प्राचीन भारत को अलग खंडों में प्रस्तुत कर यह
निष्कर्ष निकाला है कि भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं। भारत में एक भाषा कभी
थी ही नहीं। जब संस्कृत का प्रभाव था तब यहाँ संस्कृत और द्रविड दो भाषाएँ
थीं। वे यह भी तर्क देते हैं कि राजनैतिक दृष्टि से भारत में एकता का सवाल ही
नहीं उठता क्योंकि यहाँ सैकडों राजा थे जो परस्पर लड़ते रहेते थे। भारत में
धार्मिक दृष्टि से भी एकता नहीं थी। हिंद,ू बौद्ध, जैन धर्म जैसे कितने ही धर्म यहाँ
प्रचलित थे। ब्रिटिश पूर्व भारत में राष्ट्रीय एकता थी ही नहीं। भारतीय राष्ट्रीयता
आधुनिक काल की देन है। इस तर्क को आधार मानकर भारतीय साहित्य के
अध्ययन का प्रयास करें तो यह समस्या खडी होती है कि नागरिकता, ध्वज
संविधान की भांति एक भाषा भी होनी चाहिए जिसे उस देश की राष्ट्रभाषा कहा
जाए और उसके साहित्य को भारतीय साहित्य।
4. बहुभाषिकता की समस्या।
भारत बहु भाषिक देश है। यहाँ मराठी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयायम,
कश्मीरी, पंजाबी , हिंदी आदि विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य मिलता है। अत:
विभिन्न भाषों के माध्यम से अभिव्यक्त, विभिन्न साहित्य एक होकर भारतीय
साहित्य की संज्ञा कैसे प्राप्त कर सकता है?
इस प्रश्न को हम हिंदी साहित्य की अपनी संकल्पना द्वारा समझ सकते हैं। जब हम
हिंदी साहित्य की आज बात करते हैं तब उसे खड़ी बोली की कृति तक सीमित
नहीं रखते। इसमें निराला, पंत, प्रसाद, प्रेमचंद, आदि की रचनों के साथ-साथ
जायसी, सूर, विद्यापति, तुलसी आदि की कृतियों को भी समाहित करने में
संकोच नहीं करते। इन विभिन्न भाषा बोलियों में अभिव्यक्त होने वाला साहित्य एक
है क्योंकि इसकी जातीय चेतना एक है। स्पष्ट है उसकी भाषाई भिन्नता उसको एक
साहित्य मानने में बाधक नहीं है। इसी प्रकार हम यह भी कह सकते है कि तमिल
का तमिलभाषी, महराष्ट्र का मराठीभाषी, बंगाल का बंग्लाभाषी तमाम क्षेत्रिय
विशिष्टताओं के बावजूद भारतीय है।
5. क्षेत्रीयता की समस्या।
जब हम उस पूरे साहित्य के अध्ययन की समस्याओं पर विचार करते हैं ,तो यह
समस्याएँ प्राचीन और नवीन दोनों ही प्रकार के साहित्य से जुडी हुई है। भारतीय
साहित्य के अध्ययन से जुडी हुई समस्याओं पर विचार करते समय सबसे बडी
समस्या भारतीय भाषाओं की क्षेत्रीयता है। उदाहरण के लिए बंग्ला, मराठी,
गुजराती, उडीया, तेलुगू, मलयालम,कोंकणी इत्यादि भाषाएँ अपने-अपने प्रांतों
तक सीमित होकर रह गई हैं। स्वाभाविक है ऐसी भाषाओं में लिखित साहित्य भी
प्रांतीय दायरे में सीमित होकर रह जाता है। कोंकणी की कोई अच्छी रचना उत्तर
भारत तक नहीं पहूँच पाती । इसी प्रकार उत्तर भारत की रचनाएँ गोवा में प्रवेश
नहीं पाती। फलस्वरूप श्रेष्ठ साहित्य एक ही देश में एक क्षेत्र से दस
ू रे क्षेत्रों तक
अनजाना बना रहता है।
6. अनुवाद के अभाव की समस्या।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अंग्रज
े ी के श्रेष्ठ साहित्य का अनुवाद हिंदी में प्राय:
उपलब्ध रहता है। इसी प्रकार यह अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में भी मिलता
है। इसके विपरित स्वयं भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य का एक से दस ू री
भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध नहीं होता। कभी-कभार किसी पुरस्कृत रचना का
ही अनुवाद अन्य भाषाओं में सामने आता है। अनुवाद की इसी कमी के कारण
भारतीय पाठक अन्य भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ लेखकों और उनके साहित्य से
अनभिज्ञ रहता है।
7. पाठकों की रुचि का अभाव
भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में साहित्य के प्रति आम आदमी के रुचि
का अभाव है। वस्तु स्थिति तो यह है कि करोड़ों की जनसंख्या में हज़ारों पाठक
भी नहीं हैं। किसी अच्छी रचना की वर्ष भर में कभी-कभी एक हज़ार प्रतियाँ
बिकना भी मुश्किल होता है। जबकि अंग्रज
े ी जैसी भाषा की किसी भी चर्चित रचना
की लाखों प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक जाती हैं। ऐसी स्थिति में जब अपनी ही भाषा
में पाठक का अभाव हो तो वह दस
ू री भाषाओं में लिखित साहित्य में रुचि कैसे
दिखा सकता है।
आम पाठक की बात क्या आज तो अच्छा लेखक दस ू री भाषा के अच्छे लेखक
का नाम तक नहीं जानता इस दिशा में राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर विभिन्न
भाषाओं के लेखक यदि प्रयज्ञ करें तो भी एक दस ू रे के साहित्य से परिचित हुआ
जा सकता है। भारत के साहित्य से जुडी पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बहुत कम है।
यदि ऐसी पत्रिकाएँ हों जिनमें लगातार इस या उस भाषा के श्रेष्ठ साहित्य को मूल
और अनुवाद सहित प्रकाशित किया जाए तो ऐसा साहित्य धीरे-धीरे पूरे देश तक
पहुँच सकता है। यदि किन्हीं दो भाषाओं के साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर
बल दिया जाए तो भारतीय साहित्य के प्रसार की सीमाएँ बढ़ सकती है। उदाहरण
के लिए आम हिंदी भाषी क्षेत्र के हिंदी लेखकों और शोधार्थियों को पुरस्कृत किया
जाता है। यदि इसी प्रकार प्रत्येक क्षेत्र से दस
ू री भाषाओं में लेखन, अध्ययन ओर
शोध करने वालों को पुरस्कृत करने की योजनाएँ आए तो बहुत से पाठक या
लेखक दस ू री भाषा के साहित्य में अधिक रुचि दिखाएँ गे। इसलिए भी सरकारी
और गैर सरकारी दोनों ही स्तरों पर प्रयास की जरुरत है।
निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि भारतीय साहित्य विभिन्न फूलों से भरा हुआ
खुशबुदार गुलदस्ता है और उसमें उपस्थित प्रत्येक फूल की अपनी एक अलग
पहचान है और अपना एक विशिष्ट महत्व है। भारतीय साहित्य के अध्ययन की
समस्याएँ अनुवाद के कार्य द्वारा कम हो सकती है। इसी के साथ-साथ प्रत्येक
पाठक और लेखक अपना दायित्व पूर्ण तत्परता से निभाएगा और आम जन की
पठन में रुचि भी इन समस्याओं को खत्म नहीं तो कम अवश्य कर सकती है।

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