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संन्यासी साधकों और कीततनकारोंसे नम्र ननवेदन

[ यह लेख पहले ‘कल्याण’ के ९ वें वर्तमें (संवत् १९९१, सन् १९३४ में) प्रकानित हुअ

था । वततमान समयमें आसकी नविेर् ईपयोनगता देखते हुए आसे यहााँ ददया जा रहा है । ] श्रीपरमात्मदेव तथा ईनके भक्तोंकी कृ पा और अज्ञासे अज मैं यहााँ संन्यासी साधकोंके अचरण और दकततनके सम्बन्धमें ईन भावोंको नलखनेकी चेष्टा करता हाँ जो मुझे नप्रय लगते हैं । यद्यनप मैं ऄपनेको नलखने और आस तरह ईपदेि-अदेि देनेका दकसी तरह भी ऄनधकारी नहीं मानता, और न मुझसे ऐसे अचरण पूरी तौरसे बनते ही हैं, तथानप मुझको िास्त्रीय तथा सन्तोंके अदरणीय अचारनवचार कु छ नप्रय मालूम होते हैं, आसीनलये ऐसी चचातमें समय नबताना ऄपना ऄहोभाग्य समझकर कु छ प्रयास कर रहा हाँ । अिा करता हाँ, मेरे ऄन्यान्य साधक भाइ भी ऐसे नवचार यदा-कदा प्रकट करें गे; क्योंदक ऐसा करनेसे मुझ-सरीखे लोगोंको ईनके नवचार पढ़नेको नमलेंगे और ईन भाआयोंका भी कु छ समय सच्चचातमें बीतेगा । सन्त-महात्मा तथा िास्त्रोंके वचनोंके ऄनुसार सत्संगमें सुने हुए और ग्रन्थोंमें पढ़े हुए जो कु छ नवचार मैं यहााँ नलखता हाँ, ईनमें यदद कोइ बात ऄनुनचत हो तो नवज्ञ महानुभाव ऄपना ही बालक समझकर मुझे क्षमा करनेकी कृ पा करें गे । साधकको हर्त, िोक, काम, क्रोध अददसे ऄलग रहनेकी पूरी कोनिि करनी चानहये । कम-से-कम आनके विीभूत तो कभी नहीं होना चानहये । ईसमें भी मुझ-जैसोंको तो रागद्वेर्स्वरूप कानमनी और काञ्चनसे ईसी तरह डरना चानहये जैसे साधारण लोग भूत, प्रेत, सपत, व्याघ्राददसे डरते हैं और यह समझना चानहये दक नजस क्षण कानमनी-काञ्चनमें संन्यासी साधककी असनक्त हुइ दक बस, ईसी क्षण ईसका पतन हो गया । यह कभी नहीं समझना चानहये दक राग-द्वेर्, काम-क्रोध अदद ऄन्तःकरणके धमत हैं । ये धमत नहीं हैं, नवकार हैं । जो आनको ऄन्तःकरणके धमत समझ लेता है वह िरीर-नाि होनेतक ऄन्तःकरण रहनेके कारण आनका भी रहना ऄननवायत मानता है; फलतः वह ऄपनेको ज्ञानी मानकर भी ऐसा समझ लेता है दक राग-द्वेर्, काम-क्रोधादद तो जबतक ऄन्तःकरण है तबतक रहेंगे ही, मेरा आनसे क्या सम्बन्ध है ? वास्तवमें ऐसा समझना भ्रम ही है । जो ऐसा समझता है

और राग-द्वेर्, काम-क्रोध अददसे बचनेकी कोनिि नहीं करता, वह ज्ञानी तो दूर रहा, ऄच्छा साधक भी नहीं है । यह ननश्चय समझ रखना चानहये दक सच्चे ज्ञानीमें वस्तुतः काम-क्रोध अदद रहते ही नहीं । नजसे खूब ऄच्छा बोलना अता है, जो िास्त्रवाक्योंद्वारा ब्रह्मका सुन्दर ननरूपण कर सकता है ऄथवा जो ज्ञानपर ऄच्छे-ऄच्छे तकत प्रधान ननबन्ध नलख सकता है, वह ज्ञानी ही है, ऐसा नहीं समझना चानहये । ये सब बातें तो ग्रन्थोंके पढ़नेसे हो सकती हैं । नाटकमें भी िुकदेवका पाटत दकया जा सकता है । ज्ञानी तो वह है जो ऄज्ञानके समुद्रसे सवतथा तर गया । राग-द्वेर्, कामक्रोधादद ऄज्ञानमें ही हैं । ज्ञानमें तो आनका लेि भी नहीं । जो लोग वास्तनवक ब्राह्मी नस्थनततक पहुाँचनेसे पहले ही के वल पुस्तकीय ज्ञानके अधारपर ऄपनेको ज्ञानी मान बैठते हैं और नवनध-ननर्ेधसे मुक्त समझकर साधन छोड़ बैठते हैं, वे प्रायः नगर ही जाते हैं । क्योंदक जबतक ऄज्ञान है तबतक आनन्द्रयोंके भोगोंमें असनक्त है ही, और पाप होनेमें प्रधान कारण भोगोंकी असनक्त ही है । दफर, जहााँ काम-क्रोधादद ही ऄन्तःकरणके ऄननवायत धमत मान नलये जायाँ, वहााँ तो कहना ही क्या ? ऄतएव मुझ-जैसे साधकोंको तो बड़ी ही सावधानी के साथ दुगुतणोंसे बचते रहनेका पूरा ध्यान रहना चानहये । ऄपनेको राग-द्वेर्, काम-क्रोध-लोभादद दोर्ोंसे हरदम बचाते रहना चानहये । संन्यासाश्रममें तो साधकको कभी भूलकर भी स्त्री और धनके साथ दकसी प्रकारका भी सम्बन्ध न जोड़ना चानहये । आनका संग ही न करना चानहये । जो नसद्ध महापुरुर् हैं, ईनमें तो कोइ ऐसा दोर् रह ही नहीं सकता । यह स्मरण रखना चानहये दक ढोंगी ज्ञानीकी ऄपेक्षा ऄज्ञानी रहना ऄच्छा है; ईसको पापोंसे डर तो रहता है । ढोंगी तो जान-बूझकर ढोंगकी रक्षाके नलये भी पाप करता है । ऄतएव ढोंगको कभी कल्पनामें भी न अने देना चानहये; सच्चा संन्यासी बनना चानहये । और ‒ यावदायुस्त्वया वन्द्यो वेदान्तो गुरुरीश्वरः । मनसा कमतणा वाचा श्रुतेरेवैर् ननश्चयः ॥ (तत्त्वोपदेि ८६) ‒अचायतचरणोंकी आस ईनक्तके ऄनुसार िास्त्रकी नवनधको सवतदा मानते रहना चानहये । संन्यासीके पालन करनेयोय कु छ धमत ये हैं‒ गृहस्थोंका संग न करे । स्त्रीकी तो तस्वीर भी न देखे । धनका स्पित न करे । दकसीके साथ कोइ नाता न जोड़े । दकसी भी नवर्यमें ममत्व न करे । मान-बड़ाइ स्वीकार न करे । वैराग्यकी बड़ी सावधानीसे रक्षा करे । आनन्द्रयोंको संयममें रखे ।वस्तुओंका संग्रह न करे । जमात न बनावे । घर न बााँधे । व्यथत न बोले । ब्रह्मचयत धारण करे ।

काम-क्रोध-लोभाददसे सदा मुक्त रहे । दकसीसे द्वेर् न करे । दकसीमें राग न करे । ननत्य अत्मनचन्तन या भगवत्स्मरणमें ही लगा रहे । जो संन्यासी ऄपने आस संन्यास-धमतका पालन नहीं करता वह प्रायः नगर जाता है । ऄतएव ऄपने अश्रम-धमतका पूरा पालन करना चानहये । नवनध-ननर्ेधसे परे पहुाँचे हुए महापुरुर्ोंके द्वारा भी लोकसंग्रहाथत अदित िुभ कमत ही हुअ करते हैं । ऄगर भक्त बननेकी चाह हो तो भगवान्के िरण होकर भगवान्का सतत भजन करते रहना चानहये । लोग भक्त समझें या कहें, आस बातकी परवा छोड़ ही देनी चानहये । भगवान्का नाम और गुणकीततन प्रेमसे करते रहना चानहये । जहााँतक बने, ऄपनी भनक्तको प्रकट नहीं होने देना चानहये । लोग हमारी पूजा करें , हमारा सम्मान करें , ऐसा ऄवसर ही नहीं अने देना चानहये । मान-बड़ाइसे सदा सावधानीसे बचते रहना चानहये । स्त्रीका और स्त्रीसंनगयोंका संग तो कभी नहीं करना चानहये । धनका लोभ मनमें न अने देना चानहये । प्रनतष्ठाको तो िूकरीनवष्ठा ही समझना चानहये । कीततन करना चानहये, खूब कीततन करना चानहये; परन्तु करना चानहये भगवान्के प्रीत्यथत, लोकरं जनके नलये नहीं । लोकरं जनका कीततन बाह्य हो जायगा । कीततन करनेवालेके मनमें यह दृढ़ भाव ननश्चयरूपसे होना चानहये दक मेरे भगवान् ननश्चय ही यहााँ मौजूद हैं और मैं ईन्हींके सामने ईन्हींके प्रीत्यथत ईनके नाम-गुण गा रहा हाँ । भगवान्के नाम-गुणोंके ऄथतका नचन्तन करते हुए‒भगवान्का ध्यान करते हुए कीततनमें मस्त होना चानहये । यदद ऐसा भाव न हो तो आस प्रकारका ऄभ्यास ही करना चानहये । परन्तु ऐसा कभी नहीं सोचना चानहये दक मेरे आस कीततनसे लोगोंको‒देखने-सुननेवालोंको प्रसन्नता हुइ या नहीं, ईनका मन मेरी ओर अकर्षर्त हुअ या नहीं । भगवान्के नाममें श्रद्धा कीनजये, प्रेम कीनजये और श्रद्धा तथा प्रेममें सानकर ही भगवान्के नामका ईच्चारण कीनजये । दफर अपके मुखसे ननकला हुअ एक ही नाम चमत्कार ईत्पन्न कर देगा । श्रीश्रीचैतन्य महाप्रभुके श्रीमुखसे ननकला हुअ एक ही नाम सुननेवालेको पागल कर देता था; क्योंदक ईस नामके साथ श्रीचैतन्यकी प्रेमिनक्त भरी रहती थी । एक बात और याद रखनी चानहये । भगवान्का कीततन करनेवालोंको सदाचारी होना ही चानहये, दैवी सम्पनिवान् बनना ही चानहये । जो भगवान्का नाम लेकर नाचता-गाता है, परन्तु नजसके अचरण िुद्ध नहीं हैं, ईससे जनतापर ऄच्छा ऄसर नहीं पड़ता । लोग ईसको अदित मानकर अचरणोंकी ओर ध्यान नहीं देते, नजससे दूसरे लोगोंको कीततन तथा कीततन

करनेवालोंपर यहााँतक दक दकततनीय भगवान्पर भी अक्षेप करनेका ऄवसर नमल जाता है ।ऄतएव हमें ऄपनी नजम्मेवारी समझनी चानहये । कहीं हमारे अचरणसे पनवत्र संकीततन और हमारे भगवान्पर कोइ कलंक न लगाने पाये । वास्तवमें पनवत्र संकीततन और भगवान्पर तो कलंक लग ही नहीं सकता; तथानप कहनेके नलये भी हमारे दोर्से ऐसा क्यों होना चानहये ? अचरण िुद्ध नहीं है तो भी कीततन करना चानहये, परन्तु एकान्तमें । अचरणोंकी िुनद्धके नलये भगवान्के सामने रोना चानहये । भगवान्से भीख मााँगनी चानहये । परन्तु सावधान ! संकीततनके नामपर दुराचरणको कभी नछपाना नहीं चानहये और दुराचरणका समथतन तो दकसी भी हालतमें नहीं करना चानहये । संकीततनके नामपर वणत और अश्रमके कमोंकी ऄवहेलना या ईपेक्षा कभी नहीं करनी चानहये । स्वधमतका पालन करते हुए ही कीततन करना चानहये । ज्ञानकी, वैराग्यकी, सदाचारकी, वणातश्रमधमतकी और संध्या-गायत्रीकी संकीततनके नामपर कभी ननन्दा नहीं करनी चानहये; बनल्क आनको ऄवश्यपालनीय समझना चानहये, आन सबका अदर करना चानहये और यथायोग्य िास्त्रनवधानके ऄनुसार पालन करना चानहये । संकीततनके नामपर पक्षपात या भगवान्के नामोंमें उच-नीच-बुनद्ध और दलबंदी नहीं ाँ करनी चानहये । संकीततनका संगठन ऄवश्य करना चानहये, परन्तु दलबंदी नहीं । सरल पनवत्र ननष्कपट ननष्काम ऄनन्य प्रेमभावसे भगवान्के पनवत्र नामोंको स्वयं गाना चानहये और दूसरोंको ऐसा करनेके नलये प्रेरणा करनी चानहये । परन्तु यथासाध्य ईपदेिक, नेता ऄथवा अचायत नहीं बनना चानहये । पूजा, सत्कार, मान, बड़ाइ अददसे सदा ऄपनेको बचाते रहना चानहये । धन और स्त्रीके लालचमें तो कभी पड़ना ही नहीं चानहये । संकीततनके समय मुक्तकण्ठसे भगवान्के नामोंका घोर् करना चानहये । ज्ञान, नवद्विा, पद, धन अददके ऄनभमानमें चुप नहीं बैठ रहना चानहये । खड़ा कीततन होता हो तो संकोच छोड़कर खड़े हो जाना चानहये । कहीं हमारे अचरणसे भगवन्नामसंकीततनका ऄपमान न हो जाय । परन्तु नाचना चानहये प्रेमावेि होनेपर ही, लोग-ददखाउ नहीं । कलाका नृत्य दूसरी चीज है एवं प्रेममय भगवन्नामकीततनका दूसरी । याद रखना चानहये, भगवन्नामकीततन बहुत ही अदरणीय और उचा साधन है । ाँ आसका उची-से-उची भावनासे साधन करना चानहये । पनवत्र पुरुर्ोंद्वारा दकये हुए ाँ ाँ भगवन्नामसंकीततनकी ध्वनन जहााँतक पहुाँचेगी वहााँतकके समस्त जीवोंका ऄनायास ही कल्याण हो सकता है । ‒स्वामी रामसुखदास
‒‘क्या गुरु नबना मुनक्त नहीं?’ पुस्तकसे

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