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इस पुसतक मे जीवन केमौििक पश िवषयक संतो -महापुरुषों का गहन वेदािनरिक अधरययन एवं
उनके अनुभव का नवनीि िभनरन-िभनरन पररकार से पररसरिुि िकया गया है जो आज के दुबररल
तन-मन वाले समाज के िलए अिरयंि आव शर यक है। अगर पाँच -सात बार इसका पठन एव म ं ननशाित
पूववक िकया जाय तो यह आधयाििमक नवनीत पुििदायक िसद होगा। इसकेमनन से तमाम पशो केउतर भी भीतर से
े गेगे , ऐसी आशा है।
सफुिरत होन ि
संतो का पसाद अपनी यथामित-गिि से समाज के समकरष पररसरिुि करिे हुए सिमिि आनंद
का अनुभव करिी है।
परमािमा केपयारे .... संतो केदि ं ु ! इस पकाशन केिवषय मे आपसे पितिियाए स
ु ारे बािक बध ँ वीकायवहै।
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आंिर जरयोि
आिध-वयािध से मुिित
मानवधमरर
आिरम-संरकण का उपायः धमव
आिरमशररदरधा
नमसरकार की मिहमा
िवदाई की वेिा मे
कीिररन की मिहमा
जागो रे जागो...
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भारि देश के ऋिषयों ने जो अदभुि खोजें की हैं, वैसी खोजे िवश मे कही भी नही हईु है।
मनुषरय का सरवभाव िीन गुणों के पररभाव से संचािलि होिा है। उनमें से रजो-तमोगुण मनुषय को
अिरयंि दुःखद अनुभव करवाकर उसके विररमान जीवन को िनकृषरट बना देिा है और ििर वृकरष,
पशु, पकी जैसी तुचछ योिनयो मे िे जाता है। सििवगुण वतवमान जीवन को िदवय बनाता है और सवगव एव ब ं हिोकआिद
उचरच लोकों में पहुँचािा है। इसमें भी यिद बररहरमवेिरिाओं का पररिरयकरष सािनरनधरय एवं
सिसंग िमिे तो तीनो गुणो से पार अपन अ े स ि ी आ न द ं धनआिमाकोजानकरजीवजीवनमुित
चलो, अब रजो-तमोगुण केकुपभाव एव स ं ि ि वगुणकेसुपभावकोिनहारे।
तमोगुणी मानव वगव आिसी-पमादी होकर, गंदे िवषय-िवकारो का मन मे संगह करकेबैठे -बैठे या
सोते-सोते भी इिनियभोग केसवप देखता रहता है। यिद कभी कमवपरायण हो तो भी यह वगव िहस ं ा , दरवेष, मोह जैसे
देहधमरर के कमरर में ही पररवृिरि रहकर बंधनों में बँधिा जािा है। मिलन आहार, अ शु दरध
िवचार और दि ु आचार का सेवन करते-करिे िमोगुणी मानव पुिले को आलसी-पमादी रहते हएु ही देहभोग की
भूख िमटाने की िजिनी आव शर यकिा होिी है उिना ही कमररपरायण रहने का उसका मन होिा
है।
रजोगुणी मनुषरय पररमादी नहीं, पवृितपरायण होता है। उसकी कमवपरपंरा की पृषभूिम मे आंतिरक हेतु
रूप से काम, कररोध, िोभ, मोह, मद, मिरसर, दंभ आिद सब भरा हुआ होिा है। सिरिािधकार की
तीवर िािसा और देहरका केही कमव -िवकमों केकंटकवृक उसकी मनोभूिम मे उगकर फूिते -फिते है। उसकेिोभ की
सीमा बढ-बढ़कर रकरि-संबिंधयो तक पहँच ु ती है। कभी उससे आगे बढकर जहा मान िमिता हो, वाहवाही या धनयवाद
की वषारर होिी है, ऐसे पसंगो मे वह थोडा खचव कर िेता है। ऐसे रजोगुणी मनुषय का मन भी बिहमुवख ही कहिाता
है। ऐसा मन बड़परपन के पीछे पागल होिा है। उसका मन िवषय-िविास की वसतुओं को एकिित
करने में िलपरि होकर अथरर-संचय एव िंवषय-संचय करन क े े ख े िहीखेितारहताहै।
इन दोनो ही वगों कमनुषयो का मन सवचछंदी , सवाथी, सतािपय, अथररिपररय और मान चाहने वाला
े
होिा है और कभी-कभार छल-पपच ं केसमक उसकेअनुसार टकर िेन म े े भ ी स क महोनके ीयोगयतारखताहै।
ऐसे मन की िदशा इिनियो केपित , इिनियो केिवषयो केपित और िवषय भोगो केपित िनवृत न होन प े र भोगपािपतकेिनिय
नवीन कमोररं को करने की योजना में पररवृिरि हो जािी है। ऐसा मन िवचार करके बुिदरध को
शुद नही करता अिपतु बुिद को रजोगुण से रगँकर, अपनी वासनानुसार उसकी सरवीकृिि लेकर - '
' ऐसी दभ
ं युित मानयता खडी कर देता है।
ऐसे आसुरी भाव से आिानत िोगो का अनुकरण आप मत करना। राजसी वयिितयो केरजोगुण से अनक े पकार
की वासनाएँ उिरपनरन होिी हैं अिः हे भाई ! सावधान रहना। रजो-तमोगुण की पधानता से ही समसत पाप
पनपते है। जैसे हिँसया, चाकू, छुरी, तिवार आिद िभन-िभनरन होिे हुए भी उनकी धािु लोहा एक ही है
ऐसे ही पाप केनाम िभन -िभनरन होने पर भी पाप की जड़ रजो-तमोगुण ही है।
संसार मे बहमुत ऐसे वगव का ही है। ऐसा वगव पवृितपरायण कहिाता है। इसकेकमव मे मोकबुिद नही होती। अतः
यिद इस वगव को सवति ं रप से वयवहार करन द े े तो स म ा ज मे ऐ सीअवयवसथाउठखडीहोत
सवाथव और दभ ं रपी बादि छा जाते है, कपट एवं पररपंच की आँधी चलने लगिी है िथा सवररिरर दुःख
और िवपििरियों के पररहार होने से पररजा िररािह-िािह पुकार उठती है। ये दो वगव ही यिद परसपर टकराने
िगे तो िहसं ा, दरवेष, सवाथव और भोगबुिद केकमों मे ही पजा ििपत रहन ि े ग त ी ह ै औ रयुदकीनौबतआजातीहै।
पियेक युग एव प ं ि य े क द े शमेऐसेहीसंहारहोतारहताहै।
यह उनित का मागव नही है। अवनित की ओर जाते मानव केििए आिमोनित केआनदं की ओर चिन क े ेििए
बुिदरध के शोधन की, उसकी िवचार शिकरि में िववेक के सूयरर का उदय करने की आव शर यकिा
है। मन एवं इिनरदररयों को िवषयों के सरमरण, िचनरिन, पािपत एव भ ं ोगकीजनम -जनमातरो की जो आदत
पडी हईु है, उनमें असारिा का दररशन होने पर मन उनसे िवमुख होिा है िब बुिदरध को अपने
से भी परे आिमा की ओर अिभमुख होन क े ी र ि , आिर
च एविंजजासाहोतीहै
सरस पीने का सौभागरय पररापरि होिा
है, संसार की मायाजाि से बचन क े ा बििमिताहै।
जब बुिद को आिमिनरीकण केििए िवचार करन क े ी भ ो गम ु ि त दश ापापतहोतीहैतबवहपिय
उपयोग करिी है। उस वकरि उसके अनरिःकरण में आिरमा का कुछ पररकाश पड़िा है, िजससे
िवषयो का अंधकार कुछ अंश मे कीण होता है। यह है नीचे से ऊपर जान व , आंिर में से पररकट
े ािातीसरा
होने वाला सरवयंभू सुख की लालसावाला, बुिदरध के सरवयं के पररकाश का भोकरिा – सिरिरवगुण।
इस सििवगुण की पकाशमय िसथित केकारण बुिद का शोधन होता है। कमव -अकमरर, धमरर अधमरर, नीिि-अनीिि,
सार-असार, िनिरय-अिनिरय वगैरह को समझकर अलग करने एवं धमरर, नीिि, सदाचार तथा िनिय
वसतु केपित िचत की सहज सवाभािवक अिभरिच करन क े ी शि ि त इसीसेसंपापतहोतीहै।
एक ओर मानवीय जीवन के आंिर पररदेश में आिरमा (आनंदमय कोष) एवं बुिदरध
(िवजानमय कोष) है िो दूसरी ओर परराण (पाणमय कोष) तथा शरीर (अनरनमय कोष) है। इन दोनों के
बीच मन (मनोमय कोष) है। वह जब बिहमुररख बनिा है िब परराण िथा शरीर दरवारा इिनरदररयाँ
िवषय-भोगों में िलपरि होकर वैसे ही धमरर-कमरर में पररवृिरि रहिी हैं। यही है मानवीय
जीवन की तामिसक एव र ं ा ज िसकअवसथाकीचिाकारगित।
परतं ु उसी मन (मनोमय कोष) को ऊधरवररमुख, अंिमुररख अथवा आिरमािभमुख करना – यही है
मानव जीवन का परम कलरयाणकारी लकरषरय। ऋिषयों में परम आनंदमय आिरमा को ही लकरषरय
माना है करयोंिक मनुषरय के जीवनकाल की मीमांसाकरने पर यह बाि सरपषरट होिी है िक
उसकी सब भाग दौड़ होिी है सुख के िलए, िनिरय सुख के िलए। िनिरय एवं िनराविध सुख की
िनरंिर आकांकरषा होने के बावजूद भी वह रजो-तमोगुण एव इ ं ि न ि यिोिुपताकेअधीनहोकरहमेश
बिहमुररख ही रहिा है। उसकी समसरि िकररयाएँ िवषयपररािपरि के िलए ही होिी हैं। उसकी
जीवन-संपदा, शारीिरक बि, संकलपशिित आिद का जो भी उसका सववसव माना जाता है वह सब जनम मृियु केबीच मे ही
वयथव नि हो जाता है।
परत ं ु उसी मन(अंिःकरण) पर यिद सििवगुण का पकाश पडे तो उसे सवधमव-सवमव की, किरिररवरय-
अकिरिररवरय की सूकरषरम छानबीन करने का सूझिा है। सुख-दुःख के दरवनरदरव में उसे िनिरय
सुख की िदशा सूझती है। दरुाचार केतूफानी भवँर मे से उसे शात , गंभीर सिरिरवगुणी गंगा के पररवाह में
अवगाहन करने की समझ आने लगिी है। िवचार-सदिवचार की कुशिता आती है। िवचार , इचछा, कमरर
आिद में शुभ को पहचानने की सूझबूझ बढ़िी है। िजससे शुभेचरछा, शुभ िवचार एव श ं ुभकमवहोने
िगते है।
जनम मरण जैसे दनदो केसवरप अथात् संसार -चकरर एवं कमरर के रहसरय को समझािे हुए एवं
उसी को अ शु भ बिािे हुए गीिा में भगवान शररीकृषरण कहिे हैं।
।
'वह कमवतििव मै तुझे भिीभाित समझाकर कहूँगा, िजसे जानकर तू अशुभ से अथात् कमवबनधन से मुित हो
जाएगा।'
( 4.16)
धमरर के, पुणय केनाम अिग -अलग हैं िकनरिु उनका मूल है सिरिरव। सिरिरवगुणरूपी जड़ का
िसंचन होन स े े ज ो ि व श ा ि व ृ कह ो ताहै,उसवति , मुिकरहिै।दायी
समेमं ीठेसुफखििगते वेहीफिआंतिरकसुख
सुख का मागव खोि देते है। यह जीव गुणो केथपेडे से बचकर ही अपन ग े ु ण ा त ी त सवरपमे - िसथरहोसकताहैएव
साकािकार कर सकता है। िजसकेधयान से बहाजी , श भगवान िवषरणु एवं सामरबसदा ि व भीसामथरयररएवं
अनोखा आनंद पािे हैं उसी चैिनरयसरवरूप का साकरषािरकार करने के िलए आपका जनरम हुआ
है इसका िनरंिर सरमरण रखना।
अनुकररम
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शीराम जी न पेूछाः''हे मुिनशररेषरठ ! शरीर मे वयािधया एव म ं न म े ?" ैसेउिपनहोतीहै
आ िधयाक
विशषजी न क े हाः"िपय रामचंि जी ! मन की इचरछा-वासनाओं एव ि ं च न त ा ओ ं से, आिधउिपनहोतीहैएवव
िपत, तथा कफ इन दोषो केअसंतुिन से वयािध उिपन होती है। "
हमारे शरीर में हजारों सामानरय नािड़याँ हैं। उनमें अनरन रस आिद की अिरयंि
अिधकिा अथवा नरयूनिा से सामानरय रोग होिे हैं एवं सौ मुखरय नािड़याँ है िजनमें
िविािसता एव अ ं न यम ा न ि स क क ा र ण ो स े म ि ि नताभरनस े ेबडेरोगहोतेह
रोग है। यह जीव कभी आिध अथाररिर मन की िचंिा, भय, शोक आिद से तो कभी वयािध से दःुख पाता रहता
है। दुःख के रूपानरिरण को ही वह बेचारा सुख मान लेिा है िजससे पुनः सुख के नाम पर
दुःख ही भोगिा रहिा है।
तन की वयािध और मन की आिध कम-जयादा मािा मे सभी को रहती है परत ं ु जो परम पुरषाथी आिध-वयािध की
ँ कर उसे उखाड देता है उसकी आिध -वयािध िंबे समय तक नही िटक सकती । अमुक वसतु, अमुक
जड को ढूढ
िसथित, अमुक धन, रूप-िावणय, पद-पितषा वगैरह की इचछा से मन मे आिध आती है, मन िचंििि होिा है।
सामानय िचंितत होता है तो सामानय नािडयो पर पभाव पडता है और िवशेष िचंितत होता है तो िवशेष नािडयो पर पभाव
पडता है। जीव जब अिगन से पकाया हआ ु भोजन गहण करता है तब जठरािगन उसे पुनः भीतर पकाती है एव उ ं समेसे
बनने वाला रस रसवािहिनयों एवं रकरिवािहिनयाँ गररहण करिी हैं िथा शरीररूपी यंिरर को
चलािी हैं िकनरिु जब मन में िचंिा, भय, शोक होते है तब नािडयो मे कोभ होता है िजससे नाडी-समूह अपनी
कायररकरषमिा खो बैठिा है। यही कारण है िक प शु अथवा दुबररल मन के मनुषरयों को जब भय
होिा है िो उनकी नािड़याँ अपनी कायररकरषमिा खो बैठिी हैं एवं उनके मल-मूिरर का
िवसजवन हो जाता है।
अंिःकरण में न शर वर वसरिुओं के राग को वासना कहिे हैं। यह वासना ही आसिकरि
एवं िपररयिा का रूप धारण करके बंदर की िरह आठ पररकार के सुखों की आशा, तृषणा एव म ं मतामे
कूदिी रहिी है। जीव अपने वासरििवक सरवरूप को न जानने के कारण इन आिधयों का कई
जनमो से िशकार होता आया है।
कई बार पररदोषकाल में िकये गये भोजन, मैथुन आिद से, अ शु दरध अनरन, अपिविरर
संपकव से अथवा ऋतु केबदिन स े े व य ा ि ध उ ि प न ह ो तीहै।जोआिधकािशकारहोउस
कई बार पहले वरयािध होिी है ििर आिध होिी है और कई बार आिध के कारण वरयािध होिी
है। कइयों के जीवन में िो दोनों साथ ही डेरा डालकर बैठी होिी हैं।
जो वयािधया आिध केिबना उिपन होते है उनहे आयुवेिदक उपचार , होमरयोपैथी, पाकृितक उपचार , मंिरर,
आशीवाररद, जप, धरयान, पाणायाम, योगासन आिद से दरू िकया जा सकता है। आिध को ईशरािपवत कमों से, संिसंग से
एवं साधु-समागम से कम िकया जा सकता है। शरीर केरोगिनवारण केििए तो अनक े ो िचिकिसािय , औषधालय,
डॉिटर, हकीम, वैदािद की वयवसथा िमि जाती है िकनतु मन केरोग को दरू करन क े े ि ि ए ऐसीजगहबडीमुििकिसे
कहीं-कहीं ही पररापरि होिी है। आिध एवं वरयािध िजस अिवदरया अथाररिर आिरमा के अजरञान
से उिपन होती है उस अिवदा को िनवृत करन क े ा स , िवरिाभहैीदि
थ ि तोउससे ।ु शरीर
वभहै की वयािध तो एक बार
िमटिी है िो पुनः हो जािी है, मन की आिध भी िमटकर पुनः हो जािी है िकनरिु इन दोनों का
कारण आिरम-अजर श ञान यिद िमटिा है िो यह जीव अपने िवसरवभाव का अनुभव करके मुिकरि
का आनंद पा सकिा है। ििर उसे आिध नहीं सिािी और वरयािध भी बहुि नहीं होिी। कभी
पारबध वेग से शरीर मे वयािध आ भी गयी हो तो वह उसकेिचत पर पभाव नही डाि पाती , जैसे िक रामकृषण परमहस ं ,
रमण महिषरर जैसे जीवनरमुकरि महापुरुषों के िचिरि पर ददररनाक रोग का भी पररभाव न पड़ा।
शरीर की वयािध िमटान क े े ि ि एि ज त न ी स त क व ताजररीहैउसकीआिधसत
की हो िो िन-मन दोनों सरवसरथ रहिे हैं। उससे भी कम मेहनि यिद आिध-वयािध मे फँसान वेािी
अिवदरया को िमटाने के िलए की जाय िो जीव सदा के िलए मुकरि हो जािा है।
अजरञान के कारण अपने मन-इिनियो पर संयम नही रहता, फिसवरप िचत भी रात-िदन राग-
दरवेष से पररेिरि होकर 'यह िमिा...... यह न िमिा.....' करके मोहगररसरि हो जािा है। अनेक
इचछाओं केउिपन होन स े े , अिवदरया से, िचिरि को न जीिने से, अ शु दरध आहार के सेवन से ,
संधयाकाि एव प ं द ो ष क ािमे , िमशान
भोजनतथामै
आिद खराब
थुनकरनस े े पर घूमन स
सथानो े े, दुषरट कमोररं का
िचंिन करने से, दुजररनों के संग से, िवष, सपव, िसंह आिद का भय होन स े े, नािड़यों में अनरन-रस
न पहुँचने अथवा अिधक पहुँचने से उिरपनरन कि-िपतािद दोषो से, पाणो केवयाकुि होन स े ेएवइंसी
पकार केअनय दोषो से शरीर मे वयािधया उिपन होती है।
अब ये आिध और वरयािध िकस िरह नषरट हो सकिी हैं, वह देखे।
आिध दो पररकार की होिी हैः एक सामानरय एवं दूसरी जिटल। भूख-पयास एव संिी-पुिािद की
इचछा आिद से उिपन आिध सामानय मानी जाती है एव ज ं न म ा ि द ि व कारदेनवेािीवासनामयआ
अनरन जल एवं सरिररी-पुिािद इिचछत वसतु िमि जान स े े स ा म ा न य आि ध निहोजातीहैएवआ ं िधयोकेन
जान स े े म ा न ि स क र ो गभ ी न ि ह ो ज ा त े है।िजसपकाररजजुमेअ
िबना नहीं िमटिी वैसे ही आिरमजरञान के िबना जनरम-मरण को उिरपनरन करने वाली जिटल
वासनामय आिध भी नही िमटती। िजस पकार वषा ऋतु की नदी िकनारे केसभी वृको को उखाड देती है वैसे ही यिद जनम -
मरण की जिटल आिध नषरट हो जाय िो वह सब आिध-वयािधयो को जड मूि से उखाड फेकती है।
कई बार आिध के दरवारा वरयािध उिरपनरन होिी है। कैसे ? िचिरि यिद िवषाद, िचंिा, भय
आिद से गररसरि हो िो उसका असर शरीर पर भी पड़िा है, पिरणामसवरप शरीर मे वयािधया उिपन हो
जाती है।
।
इिनियो का सवामी मन है। मन का सवामी पाण है। पाण यिद कुिभत होते है तो नािडया अपनी कायवकमता खो
बैठिी हैं, िजससे वयािधया उिपन होती है। ऐसी वयािधयो को दरू करन म े ेमंिजाप , साधुसेवा, पुणयकमव, तीथवसनान,
पाणायाम, धरयान, सिकृिय आिद सहायक है। इनसे आिधया दरू होती है एव आ ं ि ध यो केदरूहोनस े ेउनसेउिपन
वयािधया भी िमट जाती है।
शात िचत मे सििवगुण बढन स े े त न ए व म ं न क े र ो ग द र ू होतेहै।सुखकीिािसाएवदं
अपिविरर होिा है। सुखसरवरूप परमािरमा का धरयान िकया जाय एवं दुःखहारी शररीहिर की शरण
सचचे हृदय से गहण की जाय तो आिध वयािध की चोटे जयादा नही िगती। पेम ईशर से करे एव इ ं च छासंसारकीरखे
अथवा पररेम संसार से करे एवं इचरछा ई शर वर की रखे ऐसा मनुषरय उलझ जािा है परंिु जो
बुिदरधमान है वह ई शर -वर पािपत की इचछा से ही ईशर को पेम करता है। उसकी सासािरक पिरिसथितया पारबधवेग से
चलिी रहिी हैं। लोकदृिषरट से सब पररवृििरियाँ करिे हुए भी उसकी गौण एवं मुखरय दोनों
वृितया ईशर मे ही रहती है। वह ईशर को ही पेम करता है एव ई ं शर क ो ह ी च ा हताहै।ईशरिनियहैअतःउसेिवन
का भय नहीं होिा। ई शर वर सदा अपने आिरमरूप है अिः उस िववेकी को िवयोग का संदेह भी
नहीं रहिा। अिः आप भी ई शर वर की इचरछा करें एवं ई शर वर से ही पररेम करें , इससे भय एवं
संदेह िनििंतता एव श ं ु द प ेममेपिरणतहोजायेगे।
जैसे हाथी केपानी मे िगरन प े रक ो भ केक, ारणपानीउछिताहै
जैसे बाण से िबधं ा हआ
ु िहरण मागव मे गित करने
िगते है। सब नािडया कफ-िपतािद दोषो से भर जान क े े क ा र ण ि वष म ताकोपापतहोतीहै।पाणोकेद
करषुबरध होने पर कई नािड़याँ अनरन-रस से पूरी भर जािी हैं िो कई नािड़याँ िबलरकुल खाली
रह जािी हैं। परराण की गिि बदल जाने से या िो अनरन-रस िबगड़ जािा है या अनरन न
पचन क े े का रण -रसहोजाताहै
अजीणव अिरयअ ंिथवाअन
जीणरर हो जािा है, सूख जाता है िजससे शरीर मे
िवकार उिपन होता है।
जैसे नदी का पवाह िकडी, ितनखो आिद को सागर की ओर िे जाता है वैसे ही पाणवायु खाये गये आहार को
रसरूप बनाकर भीिर अपने-अपने सरथानों में पहुँचा देिी है। परंिु जो अनरन परराणवायु की
िवषमता केकारण शरीर केभीतरी भाग मे कही अटक जाता है वह सवाभािवक रप से कफ आिद धातुओं को िबगाडकर
वयािधया उिपन करता है।
इस पकार आिध से वयािधया उिपन होती है और आिध केिमट जान प े र व या िधयाभीनिहोजातीहै।
शी विशषजी कहते है- "हे रामचंदरर जी ! जैसे हरडे सवभाव से ही जुिाब िगा देती है वैसे मंिािद के
उचरचारण से, आरोगरय-मंिरर का शररदरधा पूवररक जप करने से आिध-वयािधया नि हो जाती है। जैसे
कसौटी पर कसने से सरवणरर अपनी िनमररलिा पररगट कर देिा है वैसे ही शुभकमरर या
पुणयकमव करन स े े त थ ा सि प ु र ष ो क ी स े व ा क रनस े ेिचतिनमविहोजाताहै।
पकाश बढता है वैसे ही िचत शुद होन स े े आ र ो ग य एव आ ं न दंबढनि े गताहै।िचतकेशुदरहनस े ेप
कररमानुसार ही संचार करिी है एवं आहार को ठीक से पचा देिी है िजससे नषरट होिी है।"
हमें यही दृिषरटगोचर होिा है िक हम बाहरय उपचारों में ही अपने समय-शिित का हास
कर देिे हैं ििर भी वरयािधयों से िनवृिरि होकर आनंद एवं शांिि पररापरि नहीं कर पािे।
जबिक िचतशुिद केमागव से वयािधयो केदरू होन प े र आ न द ं ए वश ं ा ि त पापतहोतीहै।देशकेिोगय
इन उपायो को अमि मे िाये तो िकतनी शम-शिित बच जाय एव म ं न ु ष य आरोगयएवद ! ं ीघायुपापतकरसके
अनुकररम
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'मानव' शबद का अथव है मनु की संतान। 'मनु' शबद का मूि है – मनन। । मनु की
पती है शतरपा। मानवजीवन मे जान की पूणवता एव श ं द ा अ न क े र प ो म े,पगटहोतीहै।कहीआँखोसेप
कहीं हाथ जोड़ने से पररगट होिी है, कहीं िसर झुकाने से, कहीं बोलने से और कहीं
आदर देने से पररगट होिी है। शररदरधा जरञान की सहचािरणी है। कभी अकेला जरञान शुषरक हो
जाता है तो शदा जान को मधुरता पदान करती है, सदभाव पदान करती है, भिकरि पररदान करिी है।
जीवन मे न शुषक जान चािहए और न ही अजानपूणव शदा। शदा मे चािहए तििवजान एव स ं ं यमतथाजानमे
चािहए शररदरधा। मनु एवं शिरूपा के संयोग से बनिा है मानव। मानव के जीवन में चािहए
जान एव श ं द ा क ा स म न व य। क े व ि श े
द ा क ीपधानतासेवहअंधानबनऔ
उचरछंृ खल न बने – इस हेिु दोनों का जीवन में होना अिनवायरर है।
शासिो मे आया है िक सभी पािणयो मे मानव शेष है िकनतु केवि इतन स े े 'हाँ, हम वासरिव
ह ी आपमानिोिक
में मानव हैं एवं इिर (अनरय) पािणयो से शेष है' – यह पयापत नही है। इस शेषता को िसद करन क े ी
जवाबदारी भी मानव केऊपर है। केवि दसतावेज केबि पर कोई मनुषय शेष नही हो जाता। उसे तो अपनी जीवन -शैिी
एवं रहन-सहन से सािबत करना पडता हैः "मैं मानव हूँ, मानव कहलाने के िलए ये गुण मेरे
जीवन मे है और मानवता से पितत करन व े ािे-इन इन दगुुवणो से मै दरू रहता हूँ।"
यहा हम मानवता मे जो दोष पिवि हो जाते है, उनकी चचारर करेंगे। 'मनुसरमृिि' कहिी है िक
मानवजीवन में दस दोष का पाप नहीं होने चािहए – चार वाणी के पाप, तीन मान केपाप एव त ं ीन
शरीर केपाप। अब िमानुसार देखे।
।
।।
दूसरे के पास इिना सारा धन है ! उसे कैसे हड़प कर
िे ? इसका िचनतन न करे। वरन् सवय प , दररवरय उिरपनरन करें, आदान-पदान करे, िविनमय करे।
ं िरशमकरे
दूसरे के धन की िचनरिा करिे रहोगे िो मन जलने लगेगा। पिरणामसरवरूप न जाने वह
कैसा कुकमरर करवा दे ! दूसरे के धन-वैभव का िचंतन करना यह मानिसक पाप है, इससे बचना चािहए
ऐसा मत समझना िक केवि मन मे ऐसा िवचारन स े े कोईपापनही
िगता। नही, मन में दूसरे के नुकरसान का िवचार करने से भी पाप लगिा है करयोंिक मन में
संकलप होता है तब उसका मंथन भी होन भ े ी ि गत ा ह ै । श री र म े े ग
भीवैसेहीरसायनबननि
होने लगिी हैं। िकसी के िलए अिनषरट िवचार आया िो समझो आपके मन में पाप का बीज
बो िदया गया ! वह अंकुिरत होकर धीरे -धीरे वृकरष का रूप भी ले सकिा है, आपको पापपरायण बना
सकता है। अतः िकसी को तकिीफ हो ऐसा मन मे िवचार तक नही करना चािहए। यह मानिसक पाप है, इससे
सावधानीपूववक बचना चािहए।
जो बात हम नही जानते उसे सिय मानकर चिना। ऐसी मानयता बना िेना यह
मन का िीसरा पाप है।
सिय िया है ? । िजसका कभी बाध न हो वह है सिय। हम उस सिय को नही
जानते िकंतु जानन क े ा द ा व ा क र न िे , बाकी
ग जाते है।आिमारामीसं
िो सब लोग तोकाअनुभवहीसचोटहोताह
मन-इिनियो कजगत मे अपने -अपने मि-पथ-मजहब को महिरिरव देकर अपनी मानरयिा पुषरट करिे
े ं
हैं। सिरय मानरयिाओं के आधार पर नहीं िटका होिा परंिु जो िमाम मानरयिाएँ मानिा है
उस मन को जहाँ से सिरिासरिूििरर िमलिी है वह है अबािधि सिरयसरवरूप आिरमदेव। उसी में
महापुरुष िवशररांिि पाये हुए होिे हैं एवं उन महापुरुषों के वचन पररमाणभूि माने जािे
हैं िजनरहें शासरिरर 'आपरिवचन' कहिे हैं।
िजस धमव मे ऐसे बहवेताओं का मागवदशवन नही ििया जाता, उस धमरर-संपदाय केिोग जड मानयताओं मे ही
जकडकर िजदी एव ज ं ि ट ि ह ो ज ा त े , िजदी एवं
ह ै । य ह िजदऔरजिटितामनकातीसरादोषह
जिटि रहना यह इस दोष केिकण है।
।
।।
'पराये हक का िेना, अवैधािनक िहंसा करना, पर-सिी का संग करना – ये तीन शारीिरक पाप कहे जाते
हैं।'
आपके पास जो भी चीज है, वह आपकेहक की होनी चािहए। िपता -िपतामह
की िरि से वसीयि के रूप में िमली हो, अपने पिरशररम से नरयायपूवररक पररापरि की हो,
खरीदी हो, िकसी ने दी हो अथवा िकसी राजरय पर िवजय हािसल कर पररापरि की हो िो भी ठीक है।
िकंिु िकसी की वसरिु को उसकी अनुमिि अथवा जानकारी के िबना ले लेना यह शारीिरक पाप
है। जो वसरिु आपके हक की नहीं है, जो आपको दी भी नही गयी है ऐसी दस ू रे की वसतु को हडप िेना यह
िोभकृत पाप है।
। जो धमानुसार एव स ं ं िवधानुसारनहीहैऐसे
कृिरय का आचरण यह शारीिरक पाप है। िजससे अपनी और अपने पड़ोसी की, दोनों की
िौिकक, पारिौिकक एव आ ं , उसमें रूकावट न आये ऐसा कमरर धमरर है और ऐसे
धयाििमकउनितहो
धमरर को भंग करना यह पाप है।
िहंसा दो पररकार की होिी हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जलरलाद िकसी को िाँसी पर
िटकाता है, सैिनक आिमणकारी शिुदेश केसैिनक पर बदंक ू चिाता है तो यह कानूनी िहस ं ा अपराध नही मानी जाती ,
वरन् उसकेििए वेतन िदया जाता है। हमारे शासिीय संिवधान केिवरद जो िहसं ा है वह हमारे जीवन मे नही होनी चािहए।
मानविा को सुदृढ़ बनाने िक िलए, सुरिकत रखन क े े ि ि एऔ र ग , वाणी े ेििएहमारेजीव
ौरवािनवतकरनक
से, सकलप से िकसी को कि न हो इसका धयान रखना चािहए। हम जो करे, जो कुछ बोिे , जो कुछ िे , जो कुछ भोगे ,
उससे अनरय को िकलीि न हो इसका यथासंभव धरयान रखना चािहए। यह मानविा का भूषण है।
पर-सिी केसाथ संबध ं यह कामकृत पाप है।
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पर सिी केसाथ संबध ं से बढकर शरीर को रोग देन वेािा , मृिरयु देने वाला, आयुषरय घटाने वाला
अनरय कोई दोष नहीं है। मानव की मयाररदा का यह उलरलंघन है। यह मयाररदा मानव की खास-
िवशेषता है। पशु, पकी, देविा अथवा दैिरयों में यह मयाररदा नहीं होिी।
जैसे िोभ एक िवकार है, कररोध एक िवकार है, वैसे ही काम भी एक िवकार है। यह परपंरा से आता है।
मािा-िपता, दादा-दादी, नाना-नानी के मन में भी यह था। इस परराकृििक पररवाह को मयाररिदि
करने का उपाय अनरय िकसी योिन में नहीं है। मनुषरय जीवन में ही उपाय है िक िववाह
संसकार केदारा माता -िपता, सास-ससुर एव अ ं ि ग न क ो स ा क ी ब नाकरिववाहकासंबधं जोड
बाद ही पिि-पती यज केअिधकारी होते है। 'पती' शबद का भी इसी अथव मे उपयोग िकया जाता है –
' । ' यज मे, धमररकायरर में जो सहधिमररणी हो, सहभािगनी हो वह है पती। यह
पिवि िववाह संसकार धमव की दिृि से मानव को सवोिकृि , संयमी एव म ं य ा ि द तबनाताहै।िजससेमानवताक
होिी है उस आचार, िवचार, िविध, संसकार एव म ं य ा द ा क ा प ािनमानवकोअवियकरनाचािह
करया ? ' ' अथाररिर मानव िजसे धमाररनुसार, ईशरीय संिवधान केअनुसार आिम -दृिषरट से,
मानविा की दृिषरट से अपने जीवन में सरवीकार करे। िजसमें कोई मयाररदा नहीं है वह
मयाररदाहीन जीवन मनुषरय जीवन नहीं, पशु जीवन कहिाता है।
यहा हमन म े ा न व त ा क ो द ि ू ष तकरनवेािीचीजोकीमीमास
मनुषरयिा को उजरजवल करने वाली बािों के िवषय में िवचार करेंगे। इन बािों को,
मानविा की इन िवशेषिाओं को समझे। धमरर को कहीं से उधार नहीं लेना है अिपिु वह
हमारे ही अंदर िसरथि है, उसे पररगट करना पड़िा है। हीरे में चमक बाहर से नहीं भरनी
पडती, िकंिु हीरे को िघसकर उसके भीिर की चमक को पररगट करना पड़िा है।
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धमरर में पहली बाि यह है िक वह मनमाना नहीं होना चािहए। शासरिरर
एवं गुरु के अनुशासन के िबना िजसे अपने मन से ही धमरर मान लेिे हैं वह धमरर
अहंकार बढ़ाने वाला होिा है एवं गलि मागरर पर ले जािा है। अिभमान ऐसे ही गलि
मागरर पर चलने के िलए पररोिरसािहि करिा रहिा है। मनमुख होकर सरवीकार िकया गया धमरर
सफिता िमिन प े र अह क ं ा र ब ढ ा त ा हैऔरअसफितािमिनपेरदस ू रोपरद
धमरर में अनुशासन होना अिरयंि जरूरी है। वह अनुशासन चाहे शासरिरर का हो, सदगुर
का हो, मािा-िपता का हो या अनय िकसी सुज िहतैषी का हो िेिकन होना जरर चािहए। िकसी केअनुशासन मे कोई
कायरर िकया जािा है िो सिलिा िमलने पर अिधमान नहीं आिा और िविल होने पर दूसरों
पर दोषारोपण की कुबुिद नही जगती।
धमरर में दूसरी बाि है आशररय की। ई शर वर का आशररम लेकर िजस धमरर
का आचरण करेंगे उससे हमारी िकररयाशिकरि बनी रहेगी, करषीण नहीं होगी। िकसी बड़े का
आशररय न हो िो मन में सिलिा के िवषय में शंका उठिी है, कायरर पूणरर होने में संदेह
होिा है। कायरर के पिरणाम में संदेह उठने से िनिषरकररयिा आ जािी है, हमारी शिकरि
करषीण हो जािी है। अिः अनुशासन के साथ-साथ धमव मे ईशर एव स ं द ग ुरकाआशयआवियकहै।
धमरर में िीसरी बाि आिी है – अमयाररिदि रूप से बढ़िी हुई वासना को
रोकना अथाररिर संयम करना। जो लोग अपने जीवन में िबना िकसी मयाररदा के वासना बढ़ा
देिे हैं, वे बडे दःुखी हो जाते है। उदाहरण केििये , िकसी की वािषररक आय एक लाख रूपये है।
उसकी आय बढ़ी िो वासना बढ़ी और खचरर के रंग-ढंग भी बढे। वािषवक वयय तीन िाख तक पहँच ु ा जबिक
आय डेढ़ लाख हो गयी थी। िीन लाख का वरयय डेढ़ लाख पर लाना किठन हो गया। अिः आशा
एवं इचरछा के पैर धीरे-धीरे पसारने चािहए। एकाएक ऐसी आशा न करें िजससे आधा
कायरर होने पर सुख िमलने की जगह आधा कायरर न होने का दुःख सिाने लगे।
धमरर में चौथी महिरवपूणरर बाि हैः "मैं ही धमरर पूरा कर
िूँगा।" ऐसा मानकर िकसी धमव का पारभ ं न करे। "मैं ही करूँगा, मेरे भाई करेंगे, मेरी संिानें
करेंगी। कोई उिरिम धमररकायरर मेरे दरवारा पूणरर हो जाय िो अचरछी बाि है। वह कायरर
िकनरहीं अनरय लोगों के दरवारा पूणरर हो िो भी एषणीय है।" कोई कायरर 'केवल मेरे िलए ही
अचरछा है' ऐसा िनणवय करकेही न करे। 'जो कोई जब भी यह कायव करेगा तो वह कायव उसकेििए भी अचछा ही
होगा।' इस पकार कमव केसवरप की उतमता का बोध होना चािहए।
सवगव से गंगाजी को धरती पर िाना था। राजा अंशुमान न प , कायरर
े ुरषाथव िकया पूरा न हुआ। अं शु मान
के पुिरर ने कायरर चालू रखा िकनरिु उनका भी जीवन पूरा हो गया। गंगाजी को पृथरवी पर लाना –
यह उतम कायव था तो तीसरी पीढी मे भगीरथ न य े ह क ा य व प 'यह कायव मेरे
ू रािकया।यिदराजाअं शुमानिवचारतेिक
जीवनकाि मे पूणव हो जाय, ऐसा नही है' तो कायव का पारभं ही न हो पाता।
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'कायरर में िवघरन आयेगा' ऐसे भय से कायव का पारभ ं ही न करना यह हीन पुरष का िकण है। मधयम
पुरष कायव का पारभं तो कर देता है िकंतु बीच मे िवघ आन प े र क ा य व छ ो ड द े ताहै- ।उतमपुरषकायहि
बार िवघरन आये, आघाि पड़े, घायि हो जाय िफर भी कायव को अधूरा नही छोडता। उसकी दिृि मे यिद कायव
उिरिम होिा है िो बीच में आने वाले िवघरनों की वह कोई परवाह नहीं करिा।
हम जो सिरकायरर करिे हैं उससे हमें कुछ िमले – यह जरूरी नहीं है। िकसी भी
सिकायव का उदेिय हमारी आदतो को अचछी बनाना है। हमारी आदते अचछी बने , सवभाव शुद, मधुर हो और
उदरदे शर यु शदरध आिरमसुख पाने का हो। जीवन िनमररल बने इस उदरदे शर य से ही सिरकायरर
करने चािहए।
िकसी को पानी िपलायें, भोजन करायें एवं बदले में पचरचीस-पचास रपये िमि जाये –
यह अचछे कायव करन क े ा फ ि न ह ी ह ै ।अ च छ े क ा य व करनक े ाफियहहैिकहमा
तभी सुखी होगे िया ? पयासे को पानी एव भ ं ू ख े क ो भ ो ज न द े न ा यहकायवियासवयहंीइतनाअच
को करने मािरर से हमें सुख िमले ? है ही। उिरिम कायरर को करने के िलसरवरूप िचिरि
में जो पररसनरनिा होिी है, िनमररलिा का अनुभव होिा है उससे उिरिम िल अनरय कोई नहीं
है। यही िचिरि का पररसाद है, मन की िनमररलिा है, अंिःकरण की शुिदरध है िक कायरर करने
मािरर से पररसनरन हो जायें। अिः िजस कायरर को करने से हमारा िचिरि पररसनरन हो, जो कायव
शासिसममत हो, महापुरुषों दरवारा अनुमोिदि हो वही कायरर धमरर कहलािा है। मनु महाराज कहिे
हैं-
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'िजससे अंतःकरण िनमवि हो, हृदय पिरिृपरि हो, उस कायरर को पररयिरनपूवररक करना चािहए,
उससे िवपरीि कायरर का िरयाग करना चािहए।'
िजस पकार सरोवर मे जा िमिन व े ा ि ा ग ं ,दापानीठहरकरिनमव
उसकी िरंगेिशहोजाताहै
ांि हो जािी
हैं ऐसे ही सिरकृिरय करिे-करिे हमारा मन िनमररल होने लगिा है, शात होन ि े – गताहैयह
सबसे बडा फि है। कायव केबदिे मे दस ू रा कुछ पान क े ी इ च छ ा र खन ायहघाटेकाधध ं ाकरनक े ेसमानहै।
तािपयव यह है िक कमव मे अनुशासन होना चािहए – यह है बुिद केििए आशय। कमव मे बडो का सहारा होना चािहए
– यह है शदा केििए आशय। कमव को अचछे ढंग से पूणव करना चािहए। हम जो -जो कायव करे, उसका हमें सिोंष
होना चािहए।
मानव जीवन कमरर एवं जरञान के समनरवय से ही ठीक से चलिा है। हम आँख से
देखिे हैं वह जरञान है, पैर से चिते है वह कमव है। हम िजतना-िजतना आगे देखेगे उतना-उिना चल
सकेगे। जैसे-जैसे चिते जायेगे , वैसे-वैसे आगे िदखता जायेगा। इस पकार कमव एव ज ं ा न क ेसमनवयसे-रथहीजीवन
परम िकय की ओर आगे बढता रहता है। जीवन मे केवि कमव होगा तो जीवन यि ं वत् बन जायेगा एव क ं े विजानहोगातो
जीवन मे अकमवणयता आ जायेगी। अतः जीवन को यिद सही रप से चिाना हो तो जान एव क ं म व कासमनवयकरके
चलाना चािहए।
जीवन मे इतनी भावुकता न आ जाय िक हम समझदारी से ही परे हो जाये ! जीवन मे भावुकता भिे रहे, पेम रहे,
भिकरि रहे परंिु अिि भावुकिा, अिि पकरषपाि भले रहे, पेम रहे, भिकरि रहे परंिु अिि
भावुकिा, अिि पकरषपाि न हो िजससे िववेक ही छूट जाय। िववेक शू नरय होने से िो बड़ी
हािन होिी है। ऐसी बुिदरधहीन भावुकिा िो प शु ओं में भी दृिषरटगोचर होिी है। अिः सदैव
सावधानी एव ब ं ुिदपूव-सिरता
वकजीवनका पवाह पवािहत होना चािहए।
अनुकररम
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बाहर की वसरिुओं को शुदरध करने के िलए जो िकररया होिी है, उसे शररम कहिे हैं
और हृदय को शुदरध करने के िलए जो िकररया होिी है, उसे धमरर कहिे हैं। बाहरय वसरिुओं
के उिरपादन, पिरवतवन एव प ं ि र व ध व नक े ि ि ए ज ो क मव िकयेजातेहैवहशमहैऔरह
कमरर िकये जािे हैं वह धमरर है। बाहरय वसरिुओं का गहन जरञान िवजरञान है और
अिंसरिसरव िवषयक गहरा जरञान ििरिरवजरञान है।
पाकृत वसतुए स ँ व य अ ँ प न स े व ा भ ा ि व कधमवकीरकाकरतीहै।पृथव
िेगी, आिरमसािर कर लेगी उसी पररकार जल, अिगरन, वायु एव आ ं क ा श भ ी चीजोकोपचािेतेहै।आकाश
शबद को पचा िेता है, वायु सपशव को, अिगरन रूप को, जि रस को एव प ं ृ थ व ी ग ं ध कोपचािेतीहै।इसीसेइनपाच
तििवो को कोई पाप-पुणय नही िगता। इनमे न तो 'मैं' है न 'मेरा', न किरिृररिरव है न भोकरिृिरव है।
अपने सरवभाव में िसरथि पेड़-पौधे, जीव-जत ं ु, पशु-पिकयो को भी पाप-पुणय नही िगता। नादान बचचो को भी
पाप-पुणय नही िगता, पागिो को भी पाप-पुणय नही िगता। पाप-पुणय अथवा धमव-अधमरर का संबंध सामानरय
मनुषरयों के साथ ही है।
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मनुषरय जब अपने सिरवसरवरूप से िवपरीि कुछ करिा है िब उसका वह असिर कमरर
अधमरर बन जािा है। जब वह अपने िचिरिसरवरूप जरञान से िवपरीि कुछ करिा है िब उसकी
वृित अधािमवक हो जाती है। जब वह अपन स े ु खए व आ ं न न द क े ििएदस ं ाकरनि
ू रेकीिहस े गताहैतब
हो जािा है।
अमुक काम खराब है। यह जानने के बावजूद भी उसे करने से पाप लगिा है।
पागिो एव छ ं ो ट े ब च च ो क ो ऐ स ा -पुणय का िनवास
ज ा न नहीहोताअतःउनहे पापभीनहीिगता।अथा
नहीं है। अपने किरिृररिरव में, अपनी बुिदरध में, अपनी कामना में ही पाप-पुणय का, धमरर-
अधमरर का िनवास होिा है। अिः मानव को खूब सावधान रहकर कमरर करना चािहए।
सामािजक दिृि से भी धमव अियत ं उपयोगी है। आप कोई भी कायव करे, धमरर उसमें िव शर वसनीय लािा है।
सिी धािमवक हो तो उसकेिपता , पित, पुि ही नही, वरन् अडोस-पडोस केिोग भी उस पर िवशास रखेगे। पुरष धािमवक
होगा िो उसके साथ वरयवहार रखने वाले सभी लोग उस पर िव शर वास रखेंगे िक यह झूठ
नहीं बोलेगा, कपट नहीं करेगा, दगा नहीं देगा।
जब तक आप अपन क े ो स म ा ज म े ि व श स न ीयनहीबनाओगेतबतकदस ू
िहचिकचायेंगे िक 'कहीं यह दगा न दे देवे।' िवशसनीयता केिबना िोग पित , पती, जमाई, सास, ससुर
से भी डरते है। समाज मे कोई भी कायव करन क े े ि ि ए ि व श ा स पािहोनापरमआवियकह
आपका धमरर आपको काम-भोग में बरबाद नहीं होने देगा और समाज में सुरिकरषि रखेगा।
जीवन मे संयम – यह धमव का सार है। मन मे आये वहा चिे न जाओ, मन में आये ऐसा काम न करो, मन में
आये ऐसा ले न लो, मन में आये ऐसा खा न लो, मन में आये ऐसा बोल न दो और मन में
आये ऐसा भोग न लो।
धमरर अथाररिर धारणा शिकरि। शासरिरर िजस धमरर का वणररन करिा है उसे अभरयुदय एवं
िनःशररेयस का कारण माना जािा है। । धमरर से लोक-
परिोक मे आपकी उनित होगी एव स ं म ा ज मेबध ं नोसेमुितरहोगे।
धमाररिरमा के पररिि समाज में एव िव शर वसनीयिा पररकट होिी है। इससे धमाररिरमा
के जीवन में अभरयुदय होिा है। अभरयुदय अथाररिर करया ? जैसे सूयव केउदय होते ही वह वृिद की ओर
आगे बढ़िा है वैसे ही मनुषरय के जीवन में जब धमरर आिा है िब उसका सवररिोनरमुखी
िवकास होता है। वह आंतिरक उनित केमागव पर पयाण करता है।
िवपरीत से िवपरीत पिरिसथित भी आये तब भी धमव को न छोडो, धैयरर को न छोड़ो, ईषया-दरवेष से
पेिरत होकर, उिावलेपन में एवं घबराकर कोई कदम न उठाओ। यह धृिि ही धमरर है। मान लो िक
वयापार मे कुछ नुकसान हो गया तो उससे घबराकर कोई दस ू रा कदम न उठाओ , नहीं िो जरयादा नुकसान कर
बैठोगे। जो नुकसान हुआ उसे धैयररपूवररक सहन कर लो एवं सोच िवचारकर धीरजपूवररक
िनणररय करके आगे बढ़ो। यह धृिि है, धमरर है।
िकसी से कोई अपराध हो जाय िो आपको करया करना चािहए ? अपराध िो आपसे भी
होिा रहिा है। ऐसा कौन है िजससे गलिी न होिी हो ? अपनी गलिी एवं अपराधों के िलए
करया करिे हो ? सहन कर िेते हो। ऐसे ही दस ू रो की गिितयो एव अ ं प र ा ध े ीआदतडािनी
ोकोसहनकरनक
चािहए। िकसी के बहकाने से बहकना या उिरिेिजि नहीं होना चािहए।
यिद आप दसू रे की संपित की रका करोगे तो िोग आपकी संपित की भी रका करेगे।
। दूसरों का माल हड़प करने लगोगे िो लोग भी आपका माल हड़प
कर लेंगे।
शासि कहते है पिवि वयिित पर वज भी िगरे तो उसका बाि बाका नही कर सकता।
। जो पिव अथात् वज से भी रका करे उसका नाम है पिवि। वज पिवि वयिित का सपशव
नहीं कर सकिा।
हमारे धमाररचार की िविध है िक पररािःकाल सूयोररदय से पहले उठें िब जरूरि लगे
तो िघुशंका, शौचािद करकेअथवा ऐसे ही थोडी देर तक िबसतर पर बैठकर बाहमुहूतव का सदपुयोग करे , पिवि िचंतन
करें करयोंिक सोिे समय सभी वासनाएँ शांि हो जािी है एवं जागने के बाद धीरे-धीरे
उिदि होिी हैं। पररभािकाल में नींद उड़ी है, सासािरक वासनाओं का उदय अभी नही हआ ु है – ऐसे
समय मे यिद अपन आ , परम सिय परमािमा का िचंतन करोगे तो खूब-खूब लाभ होगा। जैसे
े िमसवरपका
िवदतु केपवाह केसाथ जुडते ही बैटरी चाजव (आवेश िि) हो जािी है ऐसे ही पररािःकाल में अपने
िचिरि एवं जीवन को पिविरर करने वाले आिरमा-परमािमा केसाथ थोडा सा भी संबध ं जुड जाय तो हद
ृ य मे
उसकी शिकरि का आिवभाररव हो जािा है। वह जीवनशिकरि ििर िदन भर के िकररया-कलापों में
पुिि देती रहेगी।
पभात काि मे यिद बहत ु सुसती िगती हो, शरीर मे अशुिद हो तो भिे सनान करकेिफर आिमिचंतन केििए बैठो ,
परमािम-समरण केििए बैठो िेिकन िनिय कमव केनाम पर दस ू री खटपट मे नही पडना। सबसे पहिे परमािमा का ही िचंतन
करना परमाव शर यक है करयोंिक सबसे पिविरर वसरिु परमािरमा है। परमािरमा के िचंिन से
बढ़कर अनरय कुछ भी नहीं है। यिद बरराहरममुहूिरर में 5-10 िमनट के िलए आिरमा-परमािमा का
ठीक समरण हो जाय तो पूरे िदन केििए एव प ं ि त ि द नऐ स ा क रनपेरपूरेजीवनकेििएकाफीशिितिमि
अपना शरीर यिद मलीन लगिा हो िो ऐसा धरयान कर सकिे हैं-
"मेरे
श मसरिक में भगवान िविवराजमान हैं। उनकी जटा से गंगाजी की धवल धारा
बह रही है और मेरे िन को पिविरर कर रही है। मूलाधार चकरर के नीचे शिकरि एवं जरञान
का सररोि िनिहि है। उसमें से शिकरिशाली धारा ऊपर की ओर बह रही है एवं मेरे
बररहरमरंधरर िक के समगरर शरीर को पिविरर कर रही है। शररी सदगुरु के चरणारिवंद
बररहरमरंधरर में पररगट हो रहे हैं, जान-पकाश फैिा रहे है। "
ऐसा धयान न कर सको तो मन-ही-मन गंगा िकनारे के पिविरर िीथोररं में चले जाओ।
बदररी-केदार एवं गंगोिररी िक चले जाओ। उन पिविरर धामों में मन-ही-मन भावपूवररक सरनान
कर लो। पाँच-सात िमनट तक पावन तीथों मे सनान करन क े ा ि च ं तन कर - तोजीवनमेपिविता
िोगे
आँगन को सरवचरछ रखने के साथ-साथ इस पकार तन-मन को भी सरवसरथ, सवचछ एव भ ं ा वनाकेजिसे
पिवि करन म े -सात
े जीवनक ेपाचिमनट पितिदन िगा दोगे तो कभी हािन नही होगी। इसमे तो िाभ ही िाभ है।
सूयोदय से पूवव अविय उठ जाना चािहए। सूयव हमे पकाश देता है। पकाशदाता का आदर नही करेगे तो
जानादाता गुरदेव का भी आदर नही कर सकेगे। सूयोदय से पहिे उठकर पूजा करन क े ा अ थ व हैजानादाताकाआदर
करना। पूजा अथाररिर अपने जीवन में सिरकार की िकररया। यह मानव का किरिररवरय है। भगवान
भासरकर, जानदाता सदगुरदेव एव दंेवी-देविाओं का आदर िो करना ही चािहए। इिना ही नहीं, अपने
शरीर का भी आदर करना चािहए। शरीर का आदर कैसे करे ? नीििशासरिरर में एक शरलोक आिा हैः
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"मैले वसरिरर पहनने वाले, दाँि गंदे रखने वाले, जयादा खान वेािे, िनषरठुर बोलने
वािे, सूयोदय एव स ं ू य ा स त क े स म य स ो न व े ािे" सवयिंवषणुभगवानहोतोउनहेभीिकमी
आिद नारायण सरवयं को गंदा देखें, मुँह में से दुगररनरध आने लगे, आलसी हो
जाये तो िकमी जी उनसे तिाक िे िे। सवचछता एव प ं ि , सुरिच पापत करना यह भी
व ि त ादारािोगोकीपीितपापतकरना
पूजा का, धमरर का एक अंग है। इसमें दूसरों की भी पूजा है एवं सरवयं की भी।
भोजन में शुिदरध एवं पिविररिा होनी चािहए। उपिनषदों में आया है।
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आहार शुदरध हो िो सिरिरव गुण की वृिदरध होिी है। सिरिरवगुण बढ़िा है िो आिरमसरवरूप
की सरमृिि जलरदी होिी है।
हम जो भोजन करिे हैं वह ऐसा पिविरर होना चािहए िक उसे लेने से हमारा मन
िनमररल हो जाय। भोजन के बाद आलस एवं िनदररा आये ऐसा भोजन नहीं लेना चािहए। शरीर
उिरिेजना आ जाय ऐसा भोजन भी नहीं लेना चािहए।
'शीमद भ् ागवत' भोजन के संबंध में िीन बािें सरपषरट रूप से बिायी गयी हैं-
। भोजन अपने शरीर के िलए पथरयकारक हो, सवभाव से एव ज ं ाितसे
पिवि हो तथा उसे तैयार करन म े े जय ा द ा श म न प ड े ।ज र ा िवचारकरोिकआपजोभोज
िगान क े े य ोगयहै? िभले
कनही ही आप थाली परोस कर शररीिवगररह के समकरष न रखें, िफर भी भगवान
सबकेपेट मे बैठकर खाते है। माि खाते ही नही पचाते भी है। गीता मे भगवान शी कृषण कहते है।
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"मैं ही समसरि पररािणयों के शरीर में िसरथि रहने वाला परराण एवं अपान से युकरि
वैशानर अिगनरप होकर चार पकार केअन को पचाता हँ। ू '
( 15.14)
अिः आप जो वसरिु खाने वाले हो, वह भगवान को ही िखिान व े , वैहशो ानर अिगन मे हवन करने
ािे
वािे हो – यह समझ िो। होम करते समय हिवषय का हवन करते है उसी पकार भोजन का गास मुख मे रखते हएु भावना
करो िक 'यह हिवषय है एव प ं े ट मे ि ' ऐसा करनइस
स थ तजठरािगनमे े
सकाहवनकररहाह े आ ँ। ू पकावहभोजनहवनरप
धमरर बन जायेगा।
भोजन पिविरर सरथान में एवं पिविरर पािररों में बनाया हुआ होना चािहए। भोजन
बनाने वाला वरयिकरि भी शुदरध, सवचछ, पिवि एव प ं स न ह ो न ा च ा िहए।भोजनबनानवेािावय
मुझे पूरा वेिन नहीं िमलिा, मािा भी दुःखी अवसरथा में भोजन बनािी हो, गाय दुहने वाला
दुःखी हो, गाय भी दुःखी हो िो ऐसे भोजन एवं दूध से िृिपरि एवं शांिि नहीं िमल सकिी।
मािसक धमरर में आयी हुई मिहला के हाथ का भोजन िचिरिपररसाद के िलए अिरयंि हािनकारक
है।
भोजन बनाने में उपयोग में आने वाली वसरिुएँ भी सरवभाव से एवं जािि से शुदरध
होनी चािहए। मनुषरय की पाचन शिकरि प शु ओं की पाचनशिकरि के समान नहीं होिी। अिः मनुषरय
का भोजन अिगरन में पकाया हुआ हो िो िहिावह है। कई पदाथरर सूयरर, जि एव व ं ा युदारापकाएहएु
भी होिे हैं। पका हुआ भोजरय पदाथरर पेट में आिा है िो ठीक ढंग से पच जािा है।
उसमें से रस उिरपनरन होिा है जो मानव में शिकरि उिरपनरन करिा है।
सवािधक महििवपूणव बात तो यह है िक भोजन हमारे हक का होना चािहए। शासिकार कहते है -
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'केवल िमटरटी एवं पानी से शुदरध की गयी वसरिु ही शुदरध नहीं होिी। अथरर शु िदरध ही
वासतिवक शुिद है अथात् पिवि धन से पापत हक की वसतु ही शुद मानी जाती है।'
अपने हक का भोजन करने वाले का जीवन पिविरर हो जािा है। अंिःकरण को पिविरर
एवं िनमररल करने के िलए आहार शु िदरध पर धरयान देना अिरयंि आव शर यक है। अपनी
संसकृित संसकार -पधान है, भोग-पधान या अथव-पधान नही। धन ही जीवन का सववसव नही है। ऐसे संत-महािरमा एवं
गृहसरथ भी देखने को िमलिे हैं िक िजनके पास कुछ नहीं है, अिकंचन है ििर भी अिरयंि
पसन है। वे कोई पागि नही है, पूरे सवसथ है, बुिदरधमान हैं। िविरि अथवा पदाथोररं के िबना भी इिने
पसन रहते है, इतन ि े न मव ि ि च तव ा ि े र ह त े ह , ैििजन
कउनसेजोिमिताहैवहभ
पर मीठी नजर डािते है उनका जीवन भी मीठा-मधुर हो जािा है। इस पररकार जीवन में िचिरि की
िनमररलिा अिरयंि महिरिरवपूणरर है। संपििरि सुख का कारण नहीं है, वरन् िचत की िनमविता सुख का
कारण है। आपकी जेब में से कोई दो रूपये चुरा ले िो आपको अचरछा नहीं लगेगा िकनरिु
यिद आप अपन ह े ा थ ो स े द ो ि ा खर प य े -संपित मे तहीोमनिनमव
कादानकरोगे सुख होिएवपंसनहोउठेगा।यिद
तो दान करन क े े ब ा द आ प क ो प िा त ा प ह ोनाचािहएिकनतुऐसानहीहै।जीवनमेस
पिविताओं केसाथ धन की पिविता भी आवियक है।
अनुकररम