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अनुकररम

बहचय य र का ह ेत ु म ंत

रोज दूध में िनहारकर 21 बार इस मंतरर का जप करें और दूध पी लें। इससे
बररहरमचयरर की रकरषा होती है। सरवभाव में आतरमसातर कर लेने जैसा यह िनयम है।
अनुकररम
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बररहरमचयरर रकरषा हेतु मंतरर


िनवेदन
ईशरीय ििधान और सहज साधना
परम शांित का पररसरथान-िबनरदुः शररदरधा
सनातन सतरय की िवभावना
वेदानरत का सतरसंग-पररसाद
सेवाभगत और मेवाभगत
मोह-मुदगरः आतरमिवचार
धरयान-पररसाद
......तो कुछ नहीं तुमने िकया
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बात वही असर करती है जो िदल से िनकलती है। रटी रटायी बातों का हमारे िदलों
पर वह पररभाव नहीं पड़ता जो पररभाव आतरमारामी सतरपुरूषों की अनुभवमूलक वाणी का पड़ता
है। वे महापुरूष अपनी अमृतवाणी से मनरद और मरलान जगत को तेजसरवी और कांितमान
बनाते हैं..... मन-बुिदरध के बनरधन में फँसे हुए साधकों मन-बुिदरध से पार परमे शर वर
ततरतरव में जगाते हैं। उनके करूणामय हृदय से िनःसृत वाणी का पररभाव अनूठा होता है।
ऐसे ही एक सतपुरष पूजयपाद संत शी आसारामजी महाराज की हृदय िाणी का सोत शोताजनो को, भकरतों को
और आधरयाितरमक राह के पिथकों को, साधकों को पिरपरलािवत करके पावन बनाता है। वे
कहते हैं-
".....ईशरीय ििधान को न जानन स े े ह ी स ा र े द ः ु ख दददआतेहै।ईशरीयििधानहम
भी वरयिकरत, वसरतु, परराणी, पदाथरर में हम आबदरध हुए तो ई र वरीयिवधान हमें वहाँ से ऊपर
उठाने के िलए िवघरन बाधाएँ और दणरड देकर भी सावधान कर देता है। जो पररेम परमातरमा
से करना चािहए वह पररेम अगर िकसी वरयिकरत, वसरतु, पद से िकया तो ई शर वरीय िवधान हमें
वहाँ से बलातर घसीट लेता है। अतः ई र वरीयिवधान को समझकर सहज मुिकरत के मागरर पर
अगररसर रहो।"
"......शदालु पुरष ही परम ततति केजान को उपलबध होता है। "
".....लोग पूछते हैं िक आपके मत में सबसे बड़ा धमरर कौन-सा है ? भाई ! मत मित
के होते हैं। सारी मितयाँ जहाँ से पररका पाती हैं वह परमातरमा सबसे बड़ा है। वही
वासरतव में सतरय है।"
"..... िजनरहोंने अपने कानों से परमातरमा की कथा नहीं सुनी उनके कान साँप के
िबल के समान हैं। िजनरहोंने अपने मुख से परमातरमा का नाम नहीं िलया उनकी िजहरवा
दादुर (मेढक) की िजहरवा के समान है।"
"......ईशर की सृिि मे सब मंगलमय ििधान है। पुरष अगर मोह करकेपुत -पिरवार को अपना मानता
हुआ उलझता है तो उसकी बुिदरधमान सरतररी सरवयं मोहरिहत होकर पित के मोह को भी युिकरत से
िनकाल सकती है। िसंधवकीरर खूबचनरद की घटना से यह जरञात होता है।"
"......सचरचा साधक, श स ि त र ष र य प र र ितषरठायासुिवधानहींचाह
िलए ही सेवा करता है। सेवा से जो सुख और पररितषरठा सरथायी बनती है वह सुख और
पररितषरठा चाहनेवालों के भागरय में कहाँ से ? वह श तो चाहरिहत िषरय को ही पररापरत होती
है।"
अंतरातरमा में िवशररांित पाये हुए िसरथतपररजरञ महापुरूष अपने साधकों को अपने
अंतमररन में आतरमजरञान का मनन करने का मागररदररशन देते हैं। ऐसी अनूठी िदवरय वाणी
का संगररह आपके करकमलों में पररसरतुत करते हुए हम आनिनरदत हैं।

अनुकररम
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एक होता है ऐिहक िवधान और दूसरा होता है ई शर वरीय िवधान। ऐिहक िवधान ऐिहक
लोगों के दरवारा बनता है और संचािलत होता है। जैसे राजरय सरकार अपना िवधान बनाती
है, नगरपािलका अपना िवधान बनाती है, कुटुमरब-पिरवार अपना िवधान बनाता है, राषरटरर
अपना िवधान बनाता है। यह है ऐिहक िवधान।
ऐिहक ििधान मे ििनता होती है कयोिक िजस राषट के, िजस राजरय के, िजस नगर के िजस नगर के
िजस पररकार के लोग होते हैं उस पररकार का िवधान उनको अचरछा लगता है।
ऐिहक ििधान बनान ि े ा ल े क िी ि ू ल ि ी कर ल े त ेहैऔरकईअमलकरनिेालेघ
का उलरलंघन करने वाला कई बार बच भी जाता है। 'इनरकमटैकरस... सेलटैकरस' के कानून से
कई लोग युिकरत करके बच भी जाते हैं।
दूसरा होता है ई शर वरीय िवधान। ई शर वरीय -गाँव के िलए, राजरय-राजरय के
िवधान गाँव
िलए, देश-देश के िलए, राषरटरर-राषरटरर के िलए अलग नहीं होता। अननरत बररहरमाणरडों में
एक ही ई शर वरीय िवधान काम करता है , वह एक ही समान ही होता है। देवों का िवधान, दैतरयों
का िवधान और मनुषरयों का िवधान अलग हो सकता है लेिकन सब जगह ई र वरीयिवधान एक
ही होता है।
ईशरीय ििधान को समझकर जीन स े े स ा ध नासहजमेहोजातीहै।
ईशरीय ििधान केअनुकूल जो चलता है िह ईशर की पसनता पाता है। जैसे सरकार केििधान केिखलाफ चलने
वाला आदमी सरकार दरवारा दिणरडत होता है से ही ई र वरीयिवधान के िखलाफ चलने
वाला जीव दिणरडत होता है। ई र वरीयिवधान के अनुसार चलने वाला जीव ई र वरका
परयारा हो जाता है और उसको ई शर वरीय िवधान सहाय करता है। िखलाफ चलने वाले को
ईशरीय ििधान पचा-पचाकर सबक िसखा देता है, रूला-रूलाकर सबक िसखा देता है, दुःख पीड़ा,
ददरर देकर सब िसखाता है। तलवार की धार पर चलने के िलए मजबूर करता है।
ऐिहक ििधान मे छू टछाट है। किी उसमे पोल चल जाती है लेिकन ईशरीय ििधान मे पोल नही चलती। ईशरीय
िवधान को समझकर सरवीकार कर लेने वाला आदमी ीघरर सफल हो जाता है। ई र वरीय
िवधान का अनादर करने से अथवा ई शर वरीय िवधान के अजरञान से आदमी को बहुत सहन
करना पड़ता है।
हम जब जब दुःखी होते हैं, जब-जब अशांत होते हैं, जब-जब भयभीत होते हैं तब
िन ि र च त स म शझ ल ो ि क ह मारेदर -जब हम
वाराई र वरीयिवधानकाउल
पररसनरन होते हैं, िनभीररक होते हैं, खुश होते है। िनििनत होते है तब समझ लो िक अनजान म े ेिीहमने
ईशरीय ििधान का पालन िकया है।
दुयोररधन जब जनरमा था तब गीदड़ बोल रहे थे, अपशकुन हो रहे थे। गांधारी ने
धृतराषरटरर से कहा थाः "यह लड़का कुल का नाश करेगा, फेंक दो इसको।" िकनरतु धृतराषरटरर ने
इनरकार कर िदया।
धमाररतरमा पुरूष भी जब-जब ई शर वरीय िवधान के अनुकूल चलते हैं तो सुख पाते हैं
और पररितकूल चलते हैं तो वे भी मारे जाते हैं। कृपाचायरर, भीषरम-िपतामह, दररोण आिद
अधमरर की पीठ ठोक रहे थे। अठारह अकरषौिहणी सेना मारी गई। िकसने मारी ? इसके पीछे
दुयोररधन कारणभूत था।
जब धािमररक जन भी अधमरर की पीठ ठोकता है तब वह भी ई र वरीयिवधान का अपमान
करता है। अतः उसे भी ई शर वरीय िवधान के अनुसार सहन करना ही पड़ेगा।
दुयोररधन, जयदररथ आिद अनाचार करते थे तो अजुररन का खून उबल उठता था लेिकन
युिधिषरठर अजुररन को दबाते थे.... दबाते थे.... दबाते थे। दबते-दबते अजुररन िवषाद से
भर गया था। आदमी बहुत दबता है तो उसे िहसरटीिरया का रोग होता है। िहसरटीिरया का रोग
और तनरदुरुसरती इन दोनों के बीच एक अवसरथा होती है। अजुररन उस अवसरथा में आ गया था।
युदरध के मैदान में भी वह हृदय की दुबररलता, मोह और उस रोग से आवृत हो गया था।
आदमी जब भावुक होता है और उसे दबाया जाता है अथवा अित दुःखों में वह दबता
है, हताश बना रहता है तो उसकी दुबररल भावुकता को डाँट-फटकारकर िनकालना और उसमें
साहस और उतरसाह भरना ही उसकी दवाई है। भावुक बचरचों की मूखररतापूणरर भावनाएँ पोसने
से उनकी उनरनित नहीं होती।
शीकृषण अजुदन से इसीिलए कहते है -

।।
'हे अजुररन ! तू नपुंसकता को मत पररापरत हो, तुझमें यह उिचत नहीं जान पड़ती। हे
परंतप ! हृदय की तुचरछ दुबररलता को तरयागकर युदरध के िलए खड़ा हो जा।'
(गीताः 2.3)
धमरर के नाम पर जब कायरता होती है और ई र वरीयिवधान का उलरलंघन करते हैं
तो हािन जरयादा होती है।
गांधारी जानती थी िक यह पाप का पुतला है मेरा बेटा। दररौपदी-वसरतररहरण के
पररसंग में सारी सभा देख रही थी। रजसरवला अवसरथा में आयी हुई एकवसरतररा दररौपदी के
बाल पकड़कर दुःशासन भरी सभा में घसीट ले आया। दुयोररधन अपनी जाँघ पर िबठाने के
िलए ललकारता है। वे शर या कहकर कणरर दररौपदी का अपमान करता है। दुःशासन ने भरी सभा
में कौरव वंश के तमाम महानुभावों के सामने दररौपदी के चीर खींचे उसे नगरन करने
के िलए, िफर भी कोई बोला नहीं। सब देखते रहे। ऐसा हलाहल अनरयाय करने वाले दुषरट
लोगों के पररित जब पांडव कुछ पररितिकररया करते हैं तो वे दुषरट लोग नीित-मयाररदा की
बातें सुनाने लगते हैं, धमरर की दुहाई देते हैं।
युदरध के मैदान में जब कणरर के रथ का पिहया फँस गया तब वह उसे िनकालने के
िलए नीचे उतरा। उस समय ररीकृषरण ने अजुररन से कहा िक अब मौका है। उसको िगरा दे।
अजुररन ने सरसंधान िकया तब कणरर बोलता हैः "यह धमररयुदरध नहीं है। रुको.... मैं
िनःशसरतरर हूँ और मेरे पर शसरतरर चलाते हो ?" इस पररकार कणरर धमरर की दुहाइयाँ देने
लगा।
े हाः "अब तू धमरर की दुहाइयाँ देता है ? तब कहाँ था जब कौरव सभा में
शीकृषण न क
दररौपदी की कररुर िनभररतरसररना हो रही थी ? उस समय तेरा धमरर कहाँ गया था ?"
कभी-कभी तो लुचरचे राकरषस लोग भी आपितरतकाल में धमरर की दुहाई देने लग जाते
हैं। आपितरतकाल में धमरर की दुहाई देकर अपना बचाव करना यह कोई धमरर के अनुकूल
चलना नहीं है। आपितरतकाल में भी अपने धमरर में लगे रहना चािहए, ईशरीय ििधान मे सहमत
होना चािहए।
ईशरीय ििधान यह है िक तुमहारी तरकी होनी चािहए, तुमरहें िवकास-यातररा करनी चािहए, जीवन
में उनरनत होना चािहए।
भूगोल, िवजरञान तथा परराणी के गभाररशय की पररिकररयाओं से यह िसदरध हो चुका है िक
तमाम जीवसृिषरट में मनुषरय आिखरी सजररन है। गभाररवसरथा में समय-समय पर गभरर का
िनरीकरषण करके िवजरञानी लोग इस िनषरकषरर पर आये िक गभाररशय में जीव-जनरत,ु मेढक,
बनरदर आिद की आकृितयाँ धारण करते-करते आिखर में जीव मनुषरय आकृित को धारण करता
है। हमारा सबका मन इन सब यातरराओं में घूमकर आया है। मानव योिन में आने के बाद
भी अगली योिनयों की कुछ जड़ता रह गई है। उस तमस को हटाने के िलए मानव जनरम में
जीव को बुिदरध थोड़ी िवशेष दी गई। उस हलरके सरवभाव पर िवजय पाकर अपने सरव-सरवभाव
में जगने के िलए मौका िदया गया। इस बुिदरध का उपयोग करके आप िवकास करते हैं तो
आपके ई शर वरीय िवधान का आदर िकया है ऐसा माना जायेगा। आपकी तरकरकी हो जायेगी।
आपमें पहले के जो कुछ संसरकार हैं वे जोर नहीं करेंगे। आप जनरम-मरण से मुकरत हो
जाएँगे।
ईशरीय ििधान का पयोजन है आपकी तरकी करना। अगर आप जडता को पोसते है , तरकरकी करने से
इनरकार करते हैं, आलसरय पररमाद करते हैं, पुराने कुसंसरकारों को, गनरदी आदतों को,
जीवभाव को, देहाधरयास को, शरीर की ििलािसता को, पाशवी वृितरतयों को पकड़ रखते है, न शर वर
चीजों और समरबनरधों में आबदरध होते हैं, तो आपको ई शर वरीय िवधान के डणरडे
लगेंगे। जहाँ-जहाँ आपकी ममता है, आसिकरत है, वहाँ से आपको कड़ुए फल िमलेंगे,
िफर वह ममता-आसिकरत चाहे पतरनी पर हो, पुतरर पर हो, देह पर हो, िजस पर भी हो।
यह ई शर वरीय िवधान का उदरदे शर य है िक आप तरकरकी कीिजए। ईमानदारी से सजग
होकर तरकरकी करते हैं, ममता और आसिकरतरिहत होकर कमरर
करते हैं, तो ई शर वरीय िवधान आपको सहाय करता है , आप ई शर वरीय पररसनरनता पाते हैं।
आपके िलए मुिकरत के दरवार खुल जाते हैं, जीते जी मुकरतता का अनुभव होता है। आप भोग,
िवलास और अहं पोसने में लगकर संयम, सदाचार और आधरयाितरमक उनरनित से, मुँह
मोड़ते हैं और वहीं के वहीं पड़े रहते हैं तो हािन होती है। कालचकरर रुकता नहीं है।
पेड़, पौधे, वनसरपित में भी तरकरकी है। कीट-पतंग, प श -पकर
ु षी आिद भी तरकरकी
करते-करते मानव देह में आते हैं। जब मानव देह िमल गई, बुिदरध िमल गई िफर भी आप
िवकिसत नहीं हुए तो ई शर वरीय िवधान आपको िफर से चौरासी लाख योिनयों के चकरकर की
सजा दे देता है। आप ई शर वरीय िवधान के अनुकूल नहीं चलते हैं तो ई शर वरीय िवधान
आपके िचतरत में भय पैदा कर देता है, अशांित पैदा कर देता है। आपको जो बुिदरध दी है
वह वापस समेट लेता है।
ईशरीय ििधान है िक सबमे एक ही चैतनय है और एक ही मे सब है। औरो केसिरप मे िदखन ि े ालेलोगआपके
ही सरवरूप हैं। उनके साथ आतरमीयता से वरयवहार करते हैं तो आपकी उनरनित होती है।
शोषण की बुिद से वयिहार करते है तो आपकी अिनित होती है। िदखन म े े िले, हसतर ीधनता, वैभव पाकर आप
उनरनत िदखें, सचमुच में भीतर की शांित, िनभररयता, आननरद, सहजता आिद दैवी गुण करषीण
होने लगेंगे। देर-सबेर ई शर वरीय िवधान आपको शोषण , कपट आिद दोषों से दूर करने के
िलए सजा देकर शुदरध करेगा। अतः ई शर वरीय िवधान की सजा िमलने से पहले ही सजग हो
जाओ।
ईशरीय ििधान का पालन करन औ े र क र ि ा न के े दैि,ीकायद
आपकी योगरयहैता,
मेआपलगते तोआपकीबुिद
आपकी करषमता बढ़ती है। आप मानों अभी खाली हाथ हैं और ई र वरीयिवधान के अनुसार
चलते हैं तो जहाँ भी कदम रखेंगे वहाँ आपके इदररिगदरर सब सामिगररयाँ और उन
सामिगररयों को सँभालनेवाले सेवक और सामिगररयों का उपयोग करके आपका अनुसरण
करने वाले लोग आपके समरमुख हािजर हो जाएँगे।
यही फकरर है जनसाधारण और संत पुरूषों में। संत पुरूष खाली हाथ घूमते-घामते आ
जाते हैं, अपना आसन जमा देते हैं, बैठ जाते हैं ई शर वर में तलरलीन होकर। बाकी
सब उनके इदरर-िगदरर हो जाता है। िजनके पास सब कुछ है, सतरता है, राजरय है, धन है,
उनमें वे िचपके रहते हैं भावी की िचनरता करके िवदे ी बैंकों में धन इकटरठा करते
रहते हैं तो ई शर वरीय िवधान का उलरलंघन होता है। उनकी नजरों में सबका िहत नहीं है
लेिकन सबका शोषण करके अपना वरयिकरतगत सरवाथरर िसदरध करने में लगे हैं। इस पररकार
वे ई शर वरीय िवधान का अनादर करते हैं तो उनरहें अपना पद छूट जाने का भी भय होता है ,
पररितषरठा खो जाने का भी भय होता है, मरने का भी अित भय होता है। अनरत में भयभीत
होते-होते जीवन जीने का भी मजा खो बैठते हैं बेचारे। वे जो कुछ संगररह करते हैं
– पैसे, मकान, गािड़याँ आिद..... उन सबका आननरद वे नहीं ले पाते। उनका फायदा
डरराइवर, नौकर-चाकर और बैंकें ले लेती हैं। तुम अगर बाहरय वसरतुओं से अिधक पररेम
करते हो या िकसी वरयिकरत का आधार जरयादा लेते हो या िकसी सतरता या पद से आबदरध होते
हो तो उस वसरतु, वरयिकरत, पद और सतरता से घसीटकर हटाये जाओगे। अतः सावधान ! िमथरया
संबंधों को, न शर वर पदों को, वसरतुओं को इतना पररेम न करो िक िपररयतम को ही भूल जाओ और
घसीटे जाओ, ठुकराये जाओ।
भीषरम-िपतामह, दररोणाचायरर, कृपाचायरर जैसे लोग भी जब अधमरर के पकरष में होते
हैं, अधिमररयों की पीठ ठोकते हैं तो ई र वरीयिवधान उनको भी युदरध के मैदान में
िठकाने लगा देता है।
भगवान तो आये थे धमरर की सरथापना करने के िलए और इतने सारे लोग मारे
गये, अठारह अकरषौिहणी सेना खतरम हो गई, कौरव कुल उजड़ गया। यह तो अधमरर हुआ.....!
नहीं..... अधमरर नहीं हुआ। लगता तो है अधमरर हुआ लेिकन धमरर की सरथापना हुई।
अगर दुयोररधन मरता नहीं, उसकी पीठ ठोकने वाले नहीं मरते, कौरव पकरष जीत जाता तो
अधमरर की जीत होती। धमरर मर जाता।
युिधिषरठर धमरर के पकरष में हुए और धमरर की जीत हुई, धमरर की सरथापना हुई। धमरर की
सरथापना करके, ईशरीय ििधान का आदर करकेजीिो केकलयाण का िचनतिन िकया। जीि केकलयाण का मूल कया है
?
जीव का इिनरदररयों के तरफ िखंचाव है, िवकारों की ओर आकषररण है। कई जनरमों से
जीव का यह सरवभाव है। धमरर जीव में िनयम ले आता है, संयम ले आता है। ऐसा करना....
ऐसा नही करना, ऐसा नही खाना, ऐसा खाना..., ऐसा िोगना..... ऐसा नही िोगना...... इस पररकार िनयंतररण करके
धमरर जीव को संयमी बनाता है। जीव को जगाकर अपने िवसरवरूप में पररितिषरठत करना, यह
ईशरीय ििधान का पालन है।
अपने िवसरवरूप की ओर चलने के िलए पररकृित ई रशवरीय ि व धान का पालन कराती
है। आदमी जरयों-जरयों सीधे ढंग से ई शर वर के सरवभाव में , ईशर केजान मे , ईशरीय शाित की ओर
चलने लगता है तरयों-तरयों उसका जीवन सहज, सुलभ और सरल हो जाता है। ई शर वरीय
िवधान को समझकर जीने से सहज में साधना हो जाती है। आदमी ई र वरीयिवधान को
छोड़कर जरयों-जरयों इिनरदररयों को पोसकर, अहंकार को पोसकर, िकसी को नोंचकर, िकसी को
शोषकर जीना चाहता है तो अशानत रहता है, भयभीत रहता है, मरने के बाद भी घटीयंतरर की नाँई कई
योिनयों के चकरकर में जाकर दुःख भोगता है।
आप जब बालक थे, अजरञ थे तो ई शर वरीय िवधान ने आपको ऐिहक िवदरया दी। आपमें
अशररदरधा थी तो शररदरधा थी। शररदरधा छुपी हुई थी तो ई शर वरीय िवधान की परंपरा से आपकी
शदा जागृत हईु। बालयािसथा मे आपकेपास कहा था योग , कहाँ थी समझ, कहाँ था कीतररन और कहाँ थी
भिकरत ? यह ई शर वरीय िवधान है िक हम उनरनत होते चले आये। जब हम जनरमे थे तब
िकतने मूढ़ थे... िकतने मूखरर थे ? जरयों-जरयों बड़े हुए तरयों-तरयों उनरनत होने के िलए
माहौल बन गया, संसरकार िमल गये। यह ई शर वरीय िवधान है।
कहाँ तो पानी की एक बूँद से जनरम लेने वाला जीव और कहाँ बड़ा राजािधराज बन
जाता है। कोई बड़ा जोगी, जती बन जाता है ! यह ई शर वरीय िवधान है।
सखरखर में िवलायतराय नाम के एक संत हो गये। सीधा-सादा गृहसरथी जीवन जीते
थे। आज कल के गृहसरथी की नाँई काम-िवकारों में अपने को खपा देने जैसा मिलन,
गृहसरथ जीवन नहीं था उनका। गृहसरथ होते हुए भी संयम, वीयरररकरषा, एकानरतवास, अनरतमुररखता
आिद में वे ई शर वरीय िवधान का पालन करते थे। उनमें आितरमक शिकरतयाँ िवकिसत हो
गई। संकलरप सामथरयरर आ गया।
लीलाराम नाम का एक वरयिकरत कहीं मुनीमी करता था (हमारे सदगुरूदेव की यह बात
नहीं है।) वह कहीं फँस गया। पैसे के लेन देन में कुछ हेराफेरी के बारे में उस पर
केस चला। िबररिटश शासन में सजाएँ भी कड़क होती थीं। जान-पहचान, लाँच-िर शर वत कम
चलती थी। लीलाराम घबराया और िवलायतराम के चरणों में आया। िवनती की। िवलायतराम
ने कहाः
"तुमने जो िकया है वह भोगना पड़ेगा, मैं करया करूँ ?"
"महाराज ! मैं आपकी शरण हूँ। मुझे कैसे भी करके आप बचाओ। दुबारा गलती नहीं
होगी। गलती हो गई है उसके िलए आप जो सजा करें, मैं भोग लूँगा। नरयायाधी सजा
करेगा, जेल में भेज देगा, इसकी अपेकरषा आपके शररीचरणों में रहकर अपने पाप
धोऊँगा।"
संत का हृदय िपघल गया। बोलेः
"अचरछा ! अब तू अपना केस रख दे उस शहंशाह परमातरमा पर। िजस ई शर वर के िवधान
का तूने उलरलंघन िकया है उसी ई र वरकी रण हो जा, उसी ई शर वर का िचनरतन कर। उसकी कृपा
करूणा िमलेगी तो बेड़ा पार हो जाएगा।"
लीलाराम ने गुरू की बात मान ली। बस, जब देखो तब शहंशाह..... शहश ं ाह.... चलते-
िफरते शाहंशाह..... शाहश ं ाह मान ल े क य
ं ाह.....! शाहश य ह ी ज ो स िोपिरसताहै।मनउसकातदाक
मुकदरदमे के िदन पहुँचा कोटरर में। जज ने पूछाः
"इतने-इतने पैसे की तुमने हेराफेरी की, यह सचरची बात है ?"
"शाहश ं ाह...."
"तेरा नाम करया है?"
"शहशं ाह..."
"यह करयों िकया ?"
"शहश ं ाह..."
सरकारी वकील उलट छानबीन करता है, परर शर न पूछता है तो एक ही जवाबः"शहश ं ाह..."
"अरे ठीक बोल नहीं तो िपटाई होगी।"
"शंहशाह..."
"यह कोटरर है।"
"शहश ं ाह..."
"तेरी खाल िखंचवाएँगे।"
"शहश ं ाह...."
लीलाराम का यह ढोंग नहीं था। गुरू के वचन में डट गया था।
... गुरू के वचन में लग गया। "शहश ं ाह.... शहश
ं ाह.... शहश
ं ाह...." उसके
ऊपर डाँट-फटकार का कोई पररभाव नहीं पड़ा, पररलोभन का कोई पररभाव नहीं पड़ा। उसका
शहशं ाह का िचनतन ऊपर-ऊपर से थोपा हुआ नहीं था अिपतु गुरूवचन गहरा चला गया था उसके
अंतर में। वह एकदम तदाकार हो गया था।
जब तुम अपने देह की िचनरता छोड़कर, सुख-दुःख के पिरणामों की िचनरता छोड़कर
परम ततरतरव में लग जाते हो तो पररकृित तुमरहारे अनुकूल हो जाती है। यह भी ई र वरीय
िवधान है। बुदरध सब भूल गये, धरयानमगरन हो गये। ऊपर से चटरटान लुढ़कती हुई आई और
वहाँ आते-आते दो िहसरसों में बँट गई, बुदरध के दोनों ओर से चली गई। बुदरध बाल-बाल
बच गये।
नरेनरदरर धरयानमगरन बैठा था। साँप िनकला और सब बचरचे िततर-िबतर हो गये। साँप
नरेनरदरर की गोद में आया और िफर भी काटा नहीं और चला गया। वही बालक नरेनरदरर आगे
चलकर सरवामी िववेकाननरद के नाम से िव शर विवखरयात हुआ।
आप जरयों-जरयों देह से, मन से अिधक गहराई में जाते हैं तरयों-तरयों आपकी
सुरकरषा ई शर वरीय िवधान के अनुसार होती है।
सरवामी िववेकाननरद एक बार इतने दुःखी हुए, जीवन से इतने ऊबे िक बस, अब रहा
नहीं जाता। सोचने लगे िकः "घर भी छोड़ा, जवानी के िवलािसता के मजे भी छोड़े और
अभी तक भगवान नहीं िमले ? िधकरकार है हमारे जीने को। सा जीवन जीकर भी करया करना
? संनरयासी होकर मुफरत की रोटी खाना, दूसरों पर बोझा चढ़ाना ! कुछ सोचा तो होती नहीं।
इससे तो अचरछा है इस शरीर का अनरत ला दूँ।"
वे जंगल में चले गये। 'कोई भूखा-परयासा शेर िमल जाय, उसके सामने अपने
आपको धर दूँ तािक िकसी परराणी के िलए अपने रीर का उपयोग तो हो जाय !'
िववेकाननरद घने जंगल में पहुँचे। भूखे ेर की दहाड़ सुनाई दे रही थी। चलते-
चलते वहाँ पहुँच गये। शेर के नजदीक गये।
"ले ले वनकेसरी ! अपना आहार सरवीकार कर ले।"
ईशरीय ििधान उनसे कुछ दस ू रा ही काम करिाना चाहता था। आप शरीर से ऊपर उठ जाते हो तो आपकेशरीर
की सुरकरषा पररकृित कर लेती है।
पररकृित ने उस भूखे शेर का िचतरत बदल िलया। शेर ने िववेकाननरद को खाया नहीं।
मीरा को मारने के िलए राणा ने खूब पररयास िकये। जहर भेजा तो भी कुछ नहीं।
ईशरीय ििधान मे हम िजतना अििग रहते है उतनी ही पकृित अनुकूल हो जाती है। ईशरीय ििधान मे कम अििग
रहते है तो पररकृित कम अनुकूल रहती है और ई र वरीयिवधान का उलरलंघन करते हैं तो
पररकृित हमें डणरडे मारती है।
जब-जब दुःख आ जाय, िचनरता आ जाय, शोक आ जाय, भय आ जाय तो उस समय इतना तो
जरूर समझ लें िक हमने ई शर वरीय िवधान का कोई -न-कोई अनादर िकया है। ई शर वर अपमान
कराके हमें समतावान बनाना चाहते हैं और हम अपमान पसनरद नहीं करते हैं। यह
ईशर का अनादर है। ईशर हमे िमत देकर उतसािहत करना चाहते है लेिकन हम िमतो की ममता मे फँसते है इसिलए दःुख
होता है। ई शर वर हमें धन देकर सतरकमरर कराना चाहते हैं लेिकन हम धन को पकड़ रखना
चाहते हैं इसिलए 'टेनरशन' (तनाव) बढ़ जाता है। ई शर वर हमें कुटुम-रबपिरवार देकर इस
संसार की भूलभुलैया से जागृत होने को कह रहे हैं लेिकन हम िखलौनों से खेलने लग
जाते हैं तो संसार की ओर से थपरपड़ें पड़ती हैं।
ईशरीय ििधान हमारी तरकी.... तरकरकी.... और तरकरकी ही चाहता है। जब थपरपड़ पड़ती है
तब भी हेतु तरकरकी का है। जब अनुकूलता िमलती है तब ई र वरीयिवधान का हेतु हमारी
तरकरकी का है। जैसे माँ डाँटती है तो भी बचरचे के िहत के िलए और परयार-पुचकार करती
है तो भी उसमें बचरचे का िहत ही िनिहत होता है। ई र वरीयिवधान के अनुसार हमारी
गलती होती है तो माँ डाँटती है, गलती न हो इसिलए डाँटती है।
जैसे माँ का, बाप का वरयवहार बचरचे के पररित होता है से ही ई र वरीयिवधान
का वरयवहार हम लोगों के पररित होता है। यहाँ के िवधान बदल जाते हैं, नगरपािलकाओं
के िवधान बदल जाते हैं, सरकार के कानून बदल जाते हैं लेिकन ई र वरीयिवधान सब
काल के िलए, सब लोगों के िलए एक समान रहता है। उसमें कोई छोटा-बड़ा नहीं है,
अपना पराया नहीं है, साधु-असाधु नहीं है। ई शर वरीय िवधान साधु के िलए भी है और असाधु
के िलए भी है। साधु भी अगर ई र वरीयिवधान साधु के िलए भी है और असाधु के िलए भी
है। साधु अगर ई शर वरीय िवधान के अनुकूल चलते हैं तो उनका िचतरत पररसनरन होता है ,
उदातरत बनता है। अपने पूवाररगररह या दुरागररह छोड़कर तन-मन-वचन से पररािणमातरर का
कलरयाण चाहते हैं तो ई शर वरीय िवधान उनके अनरतःकरण में िदवरयता भर देता है। वे
सरवाथररकेिनरदररत हो जाते हैं तो उनका अनरतःकरण संकुिचत कर देता है।
ईशरीय ििधान िकसी वयिकत ििशेष केिलए िरयायत नही करता। िह चाहता है िक आपकी तरकी हो। यह
पररिकररया सतत चालू है। जैसे कालचकरर चलता है से ही आपकी तरकरकी के िलए
ईशरीय ििधान चलता है। तरकी.... तरकरकी... और तरकरकी। बस, एक ही उपाय है। आगे बढ़ो... आगे
बढ़ो...... नहीं तो मार खाओ।
अपने जीवन में जो जड़ता है, गनरदी आदतें हैं या मोह-ममता है इसको छोड़ना
है, आगे बढ़ना है। आगे नहीं बढ़ते हो तो चोटें जरूर खाते हो। जो सावधानी से आगे
नहीं बढ़ता है वह मारा जाता है, कुचला जाता है, उसे दुःख भोगना पड़ता है।
धृतराषरटरर अपनी महतरतरवाकांकरषा को और दुयोररधन अपनी पाप चेषरटा को छोड़ता नहीं
है। उसी में दोनों िचपके हैं। लाकरषागृह बनाया, दरयूतकररीडा खेले, पांडवों को सताया।
शीकृषण समझान क े े ि ल ए द त ू ह ो क रगये,िफरिीनहीमान।
आगे नहींे बढ़े
अपनीकुतो
चेिअपना
ानहीछोडी
और अपने सािथयों का िवना िकया।
गांधारी ई शर वरीय िवधान को जानती तो थी , धमरर का उसे जरञान तो था, ईशरीय ििधान के
अनुरूप तो चलती थी लेिकन मोह में सी आ गई िक उसे भी सहन करना पड़ा।
महाभारत का युदरध चालू था। गांधारी ने दुयोररधन से कहाः "तुझ पर इतनी मुसीबतें
आती हैं तो मैं अपने सतीतरव का थोड़ा आ ि ष त ु झे द ू ँगी।कलसुबहतूआजानाएक
िदगमरबर होकर.... जनरम के समय बचरचा जैसा होता है सा िबलरकुल नगरन होकर। मैं अपनी
आँख की पटरटी खोलूँगी। तेरे शरीर पर मेरी पररथम दृिषरट पड़ते ही तेरा शरीर वजरर जैसा
हो जायेगा।"
गांधारी धमरर पर तो थी लेिकन उसका धमरर भी अधमरर की पीठ ठोकता है। अधमरर की
पीठ ठोकने से धािमररक का िहत हो जाएगा, ऐसा नही है। धािमदक का िी अिहत हो जाता है।
गांधारी की बात पाणरडवों तक पहुँच गई। युिधिषरठर िसर पर हाथ देकर िचिनरतत हो गये
िक गांधारी जब दुयोररधन को देख लेगी तब उस पापी की काया वजरर जैसी हो जाएगी, िफर
उसका नाश होना असमरभव है। पापी का जब तक नाश नहीं होगा तब तक पापी औरों का नाश
करता रहेगा।
शीकृषण छािनी मे आये तो सब िचिनतत। पूछा िक कया बात है ? ....तो पाणरडवों ने बात बताई िक
गांधारी दुषरट दुयोररधन को वजररकाय बनाने वाली है। उस पापी को गांधारी भी आधार देती
है। धमरर अधमरर की पीठ ठोक रहा है।
शीकृषण हस
ँ नल े गे।धमदराजबोलेः
"हे शररीकृषरण ! हम सब मरे जा रहे हैं और आपको हँसी आ रही है !"
शीकृषण तो सब जानते है। उनकेपास हसँ ी केिसिाय और कया हो सकता है ! उनरहें पता है िक धमरर
जब अधमरर की पीठ ठोकता है तब अधमरर पुषरट तो होता है लेिकन अिवना ी नहीं होता। पुषरट
होकर िफर मरता है।
हम लोग मंिदर में जाते हैं, मिसरजद में जाते हैं, चचरर में जाते हैं, इधर
जाते हैं, उधर जाते हैं लेिकन अपनी चेषरटाओं को धमरर के अनुकूल, ईशरीय ििधान केअनुकूल
करते हैं िक वासनाओं के अनुकूल करते हैं यह जरा जाँचो। अधमरर की ओर चलते हैं
तो धािमररक कहलाने के बावजूद भी अ ांत होते हैं। जब हम धमरर के तरफ चलते हैं तब
चाहे धािमररक न भी कहलाएँ िफर भी हममें ांित, सुख, आननरद, िनभररयता आिद सब सदगुण
ईशरीय ििधान पकट कर देता है।
े हाः "तुम िचनरता मत करो।"
शीकृषण न क
शीकृषण पाणििो का पक लेते है और कौरिो से ििपरीत चलते है ऐसी बात नही है। शीकृषण धमद का पक लेते है।
धमरर से आदमी सुखी होता है और धमरर से ही आदमी ई शर वरीय िवधान के अनुकूल आगे
बढ़ता है। अधमरर से आदमी नीचे िगरता है। लोग िनःसरवाथररता छोड़कर सरवाथररपरायण हो
जाते हैं। िनरहंकािरता छोड़कर अहंकारी हो जाते हैं।
अहंकार का िवलय करना यह धमरर है। सरवाथरर का िवलय करना यह धमरर है। जरयों-
जरयों सरवाथरर का िवलय करते हैं तरयों-तरयों ई शर वरीय िवधान के अनुसार चलते हैं।
जरयों-जरयों संकीणररता आती जाती है तरयों-तरयों अधमरर आता जाता है। हृदय िजतना-िजतना
िवशाल है, बहुजन िहताय बहुजनसुखाय के िलए हृदय में भावना है उतना-उतना आप धमरर के
जरयादा नजदीक हैं। वह भावना कम है उतना आप धमरर के कम नजदीक हैं और बहुजन िहताय
की भावना है ही नहीं..... "मैं और मेरा पिरवार" का ही वतुररल है तो समझो िक ई र वरीय
िवधान का उलरलंघन हो रहा है। ई र वरीयिवधान का उलरलंघन हो रहा है इसिलए िचनरत,ा भय,
शोक, बीमारी, परेशानी आिद पीछे लगे ही रहते हैं।
पररभातकाल के अंधेरे में नंगा होकर दुयोररधन गांधारी के पास जाने लगा।
रासरते में शररीकृषरण पहुँच गये और बोलेः
"भले आदमी ! इतना बड़ा युवान पुतरर होकर माँ के पास जा रहा है सा िबलरकुल
नंगा ! जरा सोच तो सही ! वजररकाय बनना है यह तो ठीक है लेिकन कम से कम अपना
गुहरयांग तो ढाँक ले। यह फूलों की माला है। यह माला ही लगा ले कौपीन की जगह पर। अपनी
किट को तो ढाँक दे ! ऐसा युिान पुत और िह िी युिराज पद पर ! हिसरतनापुर का सवेररसवारर ! .....और
ऐसे ?"
दुयोररधन शमरर के मारे बैठ गया। शररीकृषरण की बात उसे ठीक लगी। माला लेकर किट
बाँध ली। पहुँचा गांधारी के पास। गांधारी ने अपनी बाहर की आँखों पर तो पटरटी बाँध रखी
थी, भीतर भी ममता की पटरटी बाँध ली। पटरटी खोलकर संकलरप करके देखती है दुयोररधन की
ओर तो....
"अरे ! तेरे को कहा था िक नंगे होकर आना। यह माला िकसने बँधवाई ? उस
वनमाली ने ही तेरे को माला बँधवाई होगी। तेरी और तो सारी काया वजरर की हो गई लेिकन
िजतना िहसरसा फूलमाला से ढँका है उतना कचरचा रह गया। उतने अंग को सँभालना।"
जब दुयोररधन और भीम के बीच दरवनरदरवयुदरध हो रहा था, भीषण गदायुदरध चल रहा था तब
दुयोररधन मर नहीं रहा था। उस समय ररीकृषरण ने भीम को इ ारे से समझाया िक उसको उसी
जगह पर ठोक। भीम ने जब वहाँ पर पररहार िकया तब वह पापी िगरा।
यह ई शर वरीय िवधान है िक मार खाकर भी आदमी को सुधरना पड़ता है। डणरडे खाकर
भी सुधरना पड़ता है और अगर मर गये तो नकोररं में जाकर या इतर योिनयों में जाकर भी
सुधार की पररिकररया तो चालू ही रहती है। आगे बढ़ो... आगे बढ़ो... आगे बढ़ो नहीं तो
जनरमों और मरो... मरो और जनरमो.....।
पुणरय करया है ? पाप करया है ?
समझो कोई बालक पाँच साल का है। वह पहली करलास में है तो पुणरय है। बड़ा होने
पर भी िफर-िफर से पहली करलास में ही रहता है तो वह पाप हो जाता है। िजस अवसरथा में
तुम आये हो उस अवसरथा के अनुरूप उिचत वरयवहार करके उनरनत होते हो तो वह पुणरय है।
इससे िवपरीत करते हो तो तुम दैवी िवधान का उलरलंघन करते हो।
िजस समय जो शासरतरर-मयाररदा के अनुरूप कतरतररवरय िमल जाय उस समय वह कतरतररवरय
अनासकरत भाव से ई शर वर की पररसनरनता के िनिमतरत िकया जाय तो वह पुणरय है। घर में
मिहला को भोजन बनाना है तो 'मैं साकरषातर मेरे नारायण को िखलाऊँगी' ऐसी िािना से बनायगी
तो भोजन बनाना पूजा हो जायगा। झाड़ू लगाना है तो से चाव से लगाते रहो और चूहे की
नाँई घर में भोजन बनाते रहो, कूपमणरडूक बने रहो। सतरसंग भी सुनो, साधन भी करो, जप भी
करो, धरयान भी करो, सेवा भी करो और अपना मकान या घर भी सँभालो। जब छोड़ना पड़े तब
पूरे तैयार भी रहो छोड़ने के िलए। अपने आतरमदेव को सा सँभालो। िकसी वसरतु में,
वरयिकरत में, पद में आसिकरत नहीं। सारा का सारा छोड़ना पड़े तो भी तैयार। इसी को
बोलते हैं अनासिकरतयोग।
जीवन में तरयाग का सामथरयरर होना चािहए। सब कुछ तरयागने की िकरत होनी चािहए।
िजनके पास तरयागने की शिकरत होती है वे ही वासरतव में भोग सकते हैं। िजसके पास
तरयागने की शिकरत नहीं है वह भोग भी नहीं सकता। तरयाग का सामथरयरर होना चािहए। यश िमल
गया तो यश के तरयाग का सामथरयरर होना चािहए, धन के तरयाग का सामथरयरर होना चािहए, सतरता
के तरयाग का सामथरयरर होना चािहए।
सतरता भोगने की इचरछा है और सतरता नहीं िमल रही है तो आदमी िकतना दुःखी होता
है ! सतरता िमल भी गई दो-पाँच साल के िलए और िफर चली गई। कुसीरर तो दो-पाँच साल की
और कराहना िजनरदगी भर। यही है बाहरी सुख का हाल। िवकारी सुख तो पाँच िमनट का और
झंझट जीवन भर की।
सतरता िमली तो सतरता छोड़ने का सामथरयरर होना चािहए। दृ र यिदखा तो बार-बार दृ शर य
देखने की आसिकरत को छोड़ने का सामथरयरर होना चािहए। धन िमला तो धन का सदुपयोग
करने के िलए धन छोड़ने का सामथरयरर होना चािहए। यहाँ तक िक अपना रीर छोड़ने का
सामथरयरर होना चािहए। जब मृतरयु आवे तब रीर को भीतर से पकड़कर बैठे न रहें। चलो,
मृतरयु आयी तो आयी, हम तो वही हैं िचदघन चैतनरय िचदाका सरवरूप.... सोऽहं...सोऽहमर।

पापी आदमी के परराण नीचे के केनरदररों से िनकलते हैं, गुदादरवार आिद से।
मधरयम आदमी के परराण नािभ आिद से िनकलते हैं। कुछ लोगों के परराण मुख, आँख, कणरठ
आिद से िनकलते हैं। योगे र वरोंके परराण िनरूदरध होकर तालू से िनकलते हैं।
आप जप करते है, धरयान करते हैं तो आपके मन और परराणों को ऊपर के केनरदररों
में जीने की आदत पड़ जाती है। परराण ऊपर के केनरदररों से िनकलते है तो उनरनत हो
जाते है। अगर काम-िवकार में रहते हैं, भोग भोगने में और खाने पीने में रहते
हैं और खाये िपये हुए पदाथरर छोड़ने के अंगों में ही आसिकरत है तो िफर वृकरष आिद
की योिन में जाओ जहाँ नीचे से ऊपर की ओर खींचने की पररवृितरत होती है।
वृकरष अपना भोग पदाथरर नीचे से उठाकर ऊपर ले जाते हैं। प ु आिद सामने से
लेते हैं और पीछे फेंकते हैं। मनुषरय है जो भोग-पदाथोररं को ऊपर से लेता है,
नीचे को फेंकता है और सरवयं ऊपर उठ जाता है।
अथाररत भोगों को नीचे िगराकर आप योग करो। आसिकरत को, पुरानी आदतों नीचे
छोड़कर आप ऊपर उठो। यह है िवधान का आदर।
ईशरीय ििधान चाहता है िक तुम ईशरीय सििाि मे जग जाओ। बार-बार गभरर में जाकर माताओं को
पीड़ा मत दो, अपने को पीड़ा मत दो, समाज को पीड़ा मत दो। मुकरत हो जाओ। आपको जो बुिदरध
िमली है उसका िवकास करो। ई शर वरीय िवधान तुमसे यह भी अपेकरषा करता है िक हर
पिरिसरथित में तुम सम रहने की को ि करो। आपमें और ई र वरमें करया दूरी है वह जरा खोज
लो। आप ई शर वर से िमल लो। कब तक िबछुड़े रहोगे?
िकतना सुनरदर है ई शर वरीय िवधान! उसमें पररािणमातरर के िहत के िसवाय और कुछ
नहीं होता। िवधान िजतना-िजतना वरयापक होता है उतना-उतना बहुजन िहताय होता है।
अपने भागरय के हम आप िवधाता होते हैं। रेल की पटिरयाँ बनीं िफर रेल का
भागरय बन गया िक वह दूसरी जगह नहीं जा सकती। पटिरयाँ उसका भागरय हैं, गित कम या
जरयादा होना यह उसका पुरूषाथरर है। पटिरयाँ जब बन रही थीं तब चाहे िजधर की बना सकते
थे।
पूवररकाल में पटिरयाँ बनाना यह भी आपका पुरूषाथरर था और अब उन पटिरयों पर
चलना भी आपका पुरूषाथरर है। पूवरर के जो समरबनरध आपने बना िलये, जो मानरयताएँ बना लीं
वे पटिरयाँ आपने ही तो डाली। अब नयी जगह पर दूसरी पटिरयाँ भी डाल सकते हो और
पुरानी पटिरयों का सदुपयोग भी कर सकते हो।
"करया करें महाराजशररी ! अपने भागरय में िलखा हो तभी संतों के दरवार जा सकते
हैं।"
बात ठीक है। संतों के दरवार तक जाने की पटिरयाँ तो बन गई हैं लेिकन िकतनी
गित से जाना यह आपके हाथ की बात है। पटिरयाँ तो िफट हो गई हैं। अपनी जीवन की गाड़ी
उस पर चलाते हो िक नहीं चलाते, यह भी देखना पड़ेगा।
आपके आज का कमरर कल का पररारबरध बन जाता है। कल का अजीणरर आज के उपवास
से ठीक हो जाता है। कल का कजारर आज चुका देने से िमट जाता है। कल की कमाई आज के
भोग-िवलास से नषरट भी हो जाती है। मनुषरय के जीवन में उसके कमोररं के अनुसार उतार-
चढ़ाव आते हैं। इसिलए दैवी िवधान को दृिषरट समकरष रखकर कमरर िकये जाते हैं तो मजा
आता है।
मैं बात बता रहा था िवलायतराय और लीलाराम की। कोटरर में लीलाराम को जो कुछ
पूछा जाय तो एक ही जवाबः हं ाह ...... शहश ं ाह..... शहश ं ाह......।
जज के िचतरत में हुआ िक यह कैसे पागल को पकड़कर लाये हैं। इतना अपमान
करते हैं, इतना डाँटते हैं, भय िदखाते हैं, ितरसरकारपूणरर वरयवहार करते हैं तभी भी
इस पागल को कुछ पता नहीं चलता है ! जज ने उसको बरी कर िदया।
लीलाराम िवलायतराय के पास। गुरू बोलेः
"छूट गया केस से बेटा?"
तो लीलाराम बोलता हैः "शहश ं ाह.....।"
"भूख लगी है ?"
"शहश ं ाह....।"
"यह कोटरर नहीं है। अब केस बरी हो गया। अब ठीक से बात करो।"
"शहश ं ाह....।"
गुरू ने देखा िक िबलरकुल सचरचाई से मेरे वचन िलये हैं..... वाह ! गुरू का हृदय
पररसनरन हो गया। पररसनरन हो गया तो लीलाराम की हं ाही पर गुरू का हसरताकरषर हो गया।
गुरू ने कहाः
"अचरछा...। जब जरूरत पड़े तब बोलना 'शहश ं ाह....' अभी तो मुझसे बात कर थोड़ी देर।"
गुरू ने संकलरप करके उसके शहंशाह के भाव का थोड़ा िनयंतररण कर िलया। लीलाराम ने
भोजन आिद िकया और गुरू से परराथररना की िकः
"अब तो मैं गुरू के आशररम में ही रहूँगा। सचरचे शहंशाह के दरबार में
रहूँगा।
लीलाराम गुरूआशररम में रहने लगा। कोई दुःखी, रोगी आ जाता तो गुरू लीलाराम से
बोलतेः
"इसको जरा देखो।"
देखना करया है ? उसके िसर पर लीलाराम हाथ घुमा देताः 'शहश ं ाह....' तो ददरर ठीक हो
जाता। पेट में पीड़ा है.... अपने हाथ से कुछ पररसाद दे देता तो पीड़ा गायब। कमर
दुःखती है, बुढ़ापा है। लीलाराम कमर पर हाथ घुमा देताः 'शहश ं ाह.....' तो कमर शहंशाह हो
जाती। धनरधा नहीं चलता है। लीलाराम थपरपड़ मार देताः 'शहश ं ाह....' उसके धनरधे में नगद
नारायण हो जाता।
लीलाराम हाथ घुमाकर 'शहश ं ाह.....' कह देता और लोगों के काम हो जाते। धीरे-धीरे
कीितरर फैलने लगी।
ईशरीय ििधान से कीितद तो होगी लेिकन कीितद मे फँसना उिचत नही। मान तो िमलेगा लेिकन अहक
ँ ार करना
उिचत नहीं। हम अहंकार करने वाले कौन होते हैं ? हमारी योगरयता करया है ?
सृिषरटिनयनरता इतने सारे बररहरमाणरड बना देता है उसमें हमारा एक वरयिकरततरतरव, एक मकान,
एक दुकान, एक गाड़ी.... इसमें अहंकार करया करना ? अहंकार करके उस िव शर विनयंता से
अलग होकर अपनी िवशेषता करया बताओगे ? वह िवशेषता कब तक रहेगी। आप उससे जुड़े
रहो। िकतना भी बड़ा कुणरड हो पानी का लेिकन पानी के िकसी मूल सररोत से जुड़ा नहीं रहेगा
तो पानी पड़ा-पड़ा गनरदा हो जायगा, आिखर सूख जायगा। छोटी-सी टंकी भी अगर मूल सररोत से
जुड़ी रहेगी तो पानी िनरनरतर ताजा बना रहेगा और कभी खतरम नहीं होगा।
ऐसे ही आप ईशर से जुडे रहोगे तो आपकी ताजगी बनी रहेगी। ईशर से अलग अपनी कुछ ििशेषता बनाआगे तो
वह िवशेषता करषीण हो जायगी। बररहरमजरञान आपको ई शर वर से जोड़े रखता है। देहाधरयास
आपको ई शर वर की िवशालता से वंिचत कर देता है।
लीलाराम जरञानी तो था नहीं। आ गया देहाधरयास में। फूल उठा िक गुरू जी िजतना नहीं
कर सकते उतना हम कर सकते हैं। गुरू जी तो इलाज बताते हैं, साधना बताते हैं,
परराणायाम बताते हैं, आशीवाररद देते हैं। िकसी की जरयादा शररदरधा होती है तो वह ठीक
होता है। .....और हम तो िजसको कह देते हैं 'शहश ं ाह....' उसका काम हो जाता है।
गु
श रू को लगा िक िषरय अहंकार में आ गया है।
गुरू की आजरञा मानने से गुरू का िचतरत पररसनरन हुआ। गुरू के िचतरत की पररसनरनता से
उसकी शिकरत िवकिसत हो गई। अनुिचत आचरण करने से गुरू के िचतरत में करषोभ हुआ। गुरू के
िचतर
शश त में िषरय के िलए करषोभ होता है तो िषरय का अमंगल होता है। वह अमंगल कैसे
होता है ? कोई दैतरय गला पकड़कर नकरर में नहीं ले जाता। हमारा वरयवहार अनुिचत होता
है तो अनरतयाररमी ई शर वर को या गुरू के हृदय को ठेस पहुँचती है तो हमारी मित हलरके
िनणररय करती है। मित जब हलरके िनणररय करती है तो हलरके कमोररं में िगरती है, िफर
हलरका पिरणाम आता है और पतन हो जाता है। गुरू का िचतरत पररसनरन होता है तो हमारी मित
ऊँची हो जाती है। ऊँची हो जाती है तो ऊँचे िनणररय करती है, ऊँचे कमरर करती है और
ऊँचे पद को पररापरत करती है। सा नहीं िक देवता पकड़कर हमें सरवगरर में ले जायगा
या दैतरय पकड़कर हमें नकरर में ले जायगा। नहीं......। गुपरत रूप से हमारे सब संसरकारों
के िचतरर अनरतःकरण में अंिकत होते रहते हैं। तुम उिचत करते हो िक अनुिचत करते हो,
इसका िचतरर भीतर ही भीतर िलया जा रहा है।
लीलाराम अहंकार पररेिरत कमरर करने लगा तो गुरू को पता चला, गुरू के हृदय को ठेस
लगी। लीलाराम की मित िबगड़ी। लीलाराम के दरवारा िकसी का काम बन गया तो कोई राब की
बोतल ले आया, कोई कुछ ले आया तो कोई कुछ। लीलाराम नशा करने लगा। बुिदरध नीचे िगरी।
शराब-कबाब में वह गकरर हो गया। गुरू के िदल को और ठेस पहुँची।
एक िदन िवलायतराय कहीं जा रहे थे। लीलाराम से बोलेः "चलो कहीं घूम आते
हैं।" लीलाराम चला। दो-पाँच श और िषरय भी साथ हो िलए। रासरते में नदी पड़ी। िवलायतराय
ने कहाः "यहाँ हम सरनान करेंगे।" सेवक ने साबुन िदया। लोटा भर-भर के पानी डाला।
गुरूजी लीलाराम से बोलेः "तू भी गोता मार ले, जलरदी कर।"
लीलाराम गोता मारकर बाहर िनकलता है तो लीलाबाई हो गया। उसने देखा तो वहाँ न
कोई नदी है न गुरूजी हैं।
अकेली लीलाबाई.....! िबलरकुल सुनरदरी लीलाबाई....! अंग सरतररी के, वसरतरर सरतररी के,
चूिड़याँ और जेवर भी आ गये। वह िमररनरदा हो गया िक मैं तो लीलाराम था, 'शहश ं ाह....'
करने वाला था। यह करया हो गया ?
इतने में चार चाणरडाल आते हुए िदखे। उनरहोंने पूछाः
"करयों री ! इधर बैठी है अकेली ? कौन है ?"
अब कैसे बोले िक मैं लीलाराम हूँ ? वह तो शिमररनरदा हो गया। चारों चाणरडाल
झगड़ा करने लगे। एक बोलाः 'इससे मैं शादी करूँगा।' दूसरा बोलाः "मैं करूँगा।" आिखर
चारों में जो बलवान था उसके साथ लीलाबाई का गंधवरर िववाह हो गया। गनरधवरर िववाह
माने ले भागू शादी...... 'लव-मैिरज'। समय बीता। लीलाबाई को दो तीन बेटे हुए, दो-तीन
बेिटयाँ हुईं। बेिटयों की शािदयाँ हुईं चाणरडालों से। दामाद हुए.... पिरवार बढ़ा। चाणरडालों
में सांसािरक वरयवहार जैसे होता है वह सब हुआ। सुख-दुःख के कई पररसंग आये और
गये। लीलाबाई साठ साल की बूढ़ी हो गयी। बहुत सारे दुःख भोगे। पित मर गया। छोरे लोफर
हो गये। लीलाबाई िसर कूटने लगीः "हे भगवान ! मैं करया करूँ ? पित चला गया। मैं िवधवा
हो गई। मुझे भी तू उठा ले।"
'मुझे भी तू उठा ले....' करके आँख खोली तो वही नदी और वही सरनान। गुरूजी ने जो
साबुन लगाया था िसर पर, उसकी झाग भी पूरी उतरी नहीं थी। लीलाराम चिकत हो गया िक मैं
लीलाबाई बन गया था, साठ साल की चाणरडाली का सारा संसार देखा, बेटे-बेिटयाँ, दामाद
और बहुएँ आिद का बड़ा पिरवार बना... और यहाँ तो अभी सरनान भी पूरा नहीं हुआ है ! यह सब
करया है ?
िवलायतराम मुसरकराते हुए बोलेः
"देख ! शूली मे से काटा हो गया। तेरा चाणिाल होन क े ा प ा र ब ध त ो ,
कटगया।पहले कीकीहईुि
लेिकन अब पहले जैसी शिकरत तेरे पास नहीं रहेगी। वैदरय का धनरधा कर, पिरशररम करके
गुजारा करते रहना, मुझे मुँह मत िदखाना।"
ईशरीय ििधान का हम आदर करते है तो उनित होती है और अनादर करते है तो अिनित होती है। ईशरीय
िवधान का आदर यह है िक हमारे पास जो कुछ है वह हमारा वरयिकरतगत नहीं है। सब उस
जगिनरनयनरता का है। हमारा जो कुछ भी है वह हमारा नहीं है। हमारा रीर भी नहीं है।
हवाएँ उसकी, पररकाश उसका, पृथव र ी उसकी, सूयरर उसका, अनरन-जल उसका। उसी का अनरन-जल खा
पीकर हमारे माता-िपता ने हमको जनरम िदया तो यह शरीर हमारा कैसे हुआ ? शरीर िी उसी का है
और उसी की हवा लेकर हम जी रहे हैं। उसी का पानी पीकर हम जी रहे हैं। उसी की पृथरवी
पर हम चल रहे हैं।
जो कुछ उसी का है, जो कुछ है उसी के िलए है। हम सब अपना और अपने िलए मान
लेते हैं तब ई शर वरीय िवधान का अनादर करते हैं। इसी से परेशानी , मुसीबतें आ घेरती
हैं। इसी से जनरम-मरण की सजा िमलती रहती है।
हम एक सेकेणरड भी ई शर वर से अलग नहीं रह सकते , उसकी चीजों से अलग नहीं रह
सकते। आपके शरीर में से पूरी हवा िनकाल दें तो कुछ िमनटों के िलए कैसा रहेगा ?
आप नहीं जी सकते।
आप ई शर वर से तिनक भी दूर नहीं हैं िफर भी उसके साथ आपकी सुरता नहीं िमली है
तो दूरी का अनुभव करके आप दुःखी हो रहे हैं। ई र वरके सािनरनधरय का अनुभव हो जाता तो
हमारी दुदररशा थोड़े ही होती ! सदा साथ में रहने वाले अनरतयाररमी का अनुभव नहीं हो रहा
है इसीिलए दुःख सह रहे हैं, पीड़ा सह रहे हैं, िचनरताएँ कर रहे हैं, परेशािनयाँ उठा
रहे हैं।
हमारी बुिदरध का दुभाररगरय तो यह है िक जो सदा साथ में है उसी साथी से िमलने के
िलए ततरपरता नहीं आती। जो हाजरा-हजूर है उससे िमलने की ततरपरता नहीं आती। वह सदा
हमारे साथ होने पर भी हम अपने को अकेला मानते हैं िक दुिनयाँ में हमारा कोई नहीं।
हम िकतना अनादर करते हैं अपने ई शर वर क!ा
'हे धन ! तू मेरी रकरषा कर। हे मेरे पित ! तू मेरी रकरषा कर। पतरनी ! तू मेरी रकरषा
कर। हे मेरे बेटे ! बुढ़ापे में तू मेरी रकरषा कर।' हम ई शर वरीय िवधान का िकतना
अनादर कर रहे हैं !!
बेटा रकरषा करेगा ? पित रकरषा करेगा ? पतरनी रकरषा करेगी ? धन रकरषा करेगा ?
लाखों-लाखों पित होते हुए भी पितरनयाँ मर गईं। लाखों-लाखों बेटे होते हुए भी बाप
परेशान रहे। लाखों-लाखों बाप होते हुए भी बेटे परेशान रहे करयोंिक बापों में बाप,
बेटों में बेटा, पितयों में पित, पितरनयों में पतरनी बन कर जो बैठा है उस परयारे के
तरफ हमारी िनगाह नहीं जाती।

जब उस सतरय को भूले हैं, ईशरीय ििधान को िूले है तिी जनम-मरण के रोग, भय, शोक, दुःख
िचनरता आिद सब घेरे रहते हैं। अतः बार-बार मन को इन िवचारों से भरकर, अनरतयाररमी
को साकरषी समझकर परराथररना करते जाएँ, पररेरणा लेते जाएँ और जीवन की ाम होने
से पहले तदाकार हो जाएँ।
ॐ शांित...... ॐ आननरद...... ॐ....ॐ.....ॐ....।
शाित.... शाित.....। वाह पररभु ! तेरी जय हो ! ईशरीय ििधान। तुझे नमसकार ! हे ई शर !वर
तू ही
अपनी भिकरत दे और अपनी ओर शींच ले।
नारायण..... नारायण..... नारायण.....
िवधान का सरमरण करके साधना करेंगे तो आपकी सहज साधना हो जायगी। िगिर गुफा
में तप करने, समािध लगाने नहीं जाना पड़ेगा। सतत सावधान रहें तो सहज साधना हो
जाएगी। ई शर वरीय िवधान को समझकर जीवन िजएं , उसके साथ जुड़े रहें तो सहज साधना हो
जाएगी।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ


।।
'िजतेिनरदररय, साधनपरायण और शररदरधावानर मनुषरय जरञान को पररापरत होता है तथा
जरञान को पररापरत होकर वह िबना िवलमरब के, ततरकाल ही भगवतरपररािपरत रूप परम ांित को
पररापरत हो जाता है।'
(भगवदगीताः 4.31)
भगवान शररीकृषरण यहाँ जो जरञान कहते हैं वह परमातरम-ततरतरव के जरञान से
समरबिनरधत है। एक होता है िहक जरञान और दूसरा होता है वासरतिवक जरञान। वासरतिवक
जरञान की सतरता से ही ऐिहक जरञान की गाड़ी चलती है। वासरतिवक शुदरध जरञान की सतरता
लेकर ही हमारी इिनरदररयाँ, हमारा मन सब अलग-अलग िदखाकर, भेद की कलरपना करके
वरयवहार करते हैं। जब तक यह जीव वािसरतवक जरञान में िटकता नहीं तब तक उसे परम
शाित नही िमलती। जब तक परम शाित नही िमली तब तक इस जीि केजनम -मरण के दुःख, मुसीबतें और
कषरट का अनरत नहीं आता।
आिधदैिवक शांित और आिधभौितक शांित याने मानिसक शांित, ये शांितयाँ तो
बेचारी कई बार आती हैं और चली जाती हैं। जब आतरमजरञान होता है, आतरम-साकरषातरकार
होता है तब आधरयाितरमक शांित, परम शांित का अनुभव होता है। एक बार परम शांित िमली तो
वह जाती नहीं।
.....
परम शांित कब और कैसे आती है ?

जरञान हुआ िक परम शांित आ गई। उसमें समय नहीं लगता।
जरञान पाने के िलए भगवान साधन बता रहे हैं-

कई बार हमें कहा जाता है िक, बस, 'शदा करो.... मान लो... कुछ बोलने की जरूरत नहीं
है।' हम शररदरधा करें और हमारी शररदरधा का कोई उपयोग कर ले, दुरूपयोग कर ले और हमारे
मन-बुिदरध कुिणरठत रह जाएँ तो ?
यहाँ सावधानी रखनी है। शररीमद आदरय शंकराचायरर ने कहा हैः "शदा का अथद यह नही िक
िकसी मजहब को, िकसी मत को, िकसी पंथ को मानकर िकसी कोने में जीवन भर पड़े रहो,
कोलरहू के बैल की तरह वतुररल में घूमते रहो... इसका नाम शररदरधा नहीं है।"
शदालु लोगो को कई बार ऐसा लगता है िक उनमे बहत ु शदािाि है। ऐसे शदालुओं को उनकी शदा का माप
िनकालने के िलए अवसर देते हुए ररीकृषरण कहते हैं- आपकी शररदरधा िकतनी है उसे
जानना चाहो तो सोचो, साधन भजन में आपकी ततरपरता िकतनी है, मुिकरतलाभ के िलए
आपमें ततरपरता िकतनी है। आप में िजतनी ततरपरता होगी उतना इिनरदररयसंयम होगा।
िजतना इिनरदररयसंयम होगा उतनी अनरतरातरमा बलवान होगी। सुख-दुःख में आप िहलेंगे
नहीं। ऐसा अवसर आयेगा िक िव शर व का बड़े -में-बड़ा ऐिहक लाभ भी आपको उलरलू नहीं
बनायगा, बड़े-में-बड़ी हािन भी आपको परे ान नहीं करेगी।
उलरलू को जैसे सूयरर नहीं िदखता से ही िजसको अपनी असिलयत नहीं िदखती वही
आदमी छोटी-छोटी चीजों में सुखी-दुःखी होकर, पिरिसरथितयों से पररभािवत होकर अपने
आपको नषरट कर देता है।
शदा तो हर जगह करनी ही पडती है। ििकतमागद मे िी शदा की आिशयकता है और वयिहार मे िी शदा की
आव शर यकता है।'वरयापार में मुनाफा होगा' इस शररदरधा के साथ ही वरयापार-धंधा िकया जाता
है। बदररीनाथ जाते-जाते कई गािड़याँ िगर पड़ती हैं िफर भी लोग डरराइवर पर िव शर वास
करके बस में बैठते हैं। अपने बाप के िवषय में भी ररदरधा करनी पड़ती है। माँ ने
कह िदया और बेटे ने मान िलया। चाचा-मामा भी शररदरधा से मान िलया। हम गुजराती हैं,
मारवाड़ी हैं, िसनरधी हैं यह भी तो हमने सुन-सुनकर माना है।
यह सब वरयवहािरक शररदरधा है। शररीकृषरण िजस शररदरधा की बात कहते हैं वह शररदरधा है
अपने आतरमदेव को पाने की, जनरम-मृतरयु जरा वरयािध से सदा के िलए छूटने की, तमाम-
तमाम मुसीबतों से सदा के िलए जान छुड़ाने की।
जो सदा पिरवतररनशील है उस संसार के पररित हमारा आकषररण है और जो सदा अचल
है उसके पररित हमारी शररदरधा नहीं है। अचल ततरतरव को पाने के िलए हममें उतरसाह
नहीं है इसिलए हम अशानरत होते हैं। जो न शर वर चीजें हैं , चल वसरतुएँ हैं उनकी पाकर
सुखी होने की हमारी नादानी बनी रही है। जो वासरतव में शांतसरवरूप है, सुखसरवरूप है,
िजसको पाने के बाद और कुछ पाना ेष नहीं रहता, िजसमें िसरथत होने के बाद मौत की भी
मौत हो जाती है ऐसे परमातरमततरतरव को पाने की अगर ततरपरता आ जाय, अपने उस वासरतिवक
सरवरूप में िटकने की दृढ़ता आ जाय तो ांित तो हमारा सरवभाव है।
शाित आपका सििाि है, अमरता आपका सरवभाव है, आपको पता नहीं। मरने वाले रीर
और िमटनेवाली वसरतुओं से हम इतने िवमोिहत हो गये िक अपनी अमरता का जरञान हमने
आज तक नहीं पाया।
अपने मुँह में बतरतीस दाँत हैं। हैं तो पतरथर लेिकन कभी सा नहीं हुआ िक 'ये
पतरथर करयों मुँह में पड़े हैं ? उसे िनकालकर फेंक दूँ।' ऐसा ििचार किी नही आता। रोटी-
सबरजी खाते-खाते कुछ ितनका दात मे फँस जाता है तो जीि िहा बार -बार जाती है। जब तक उसको िनकाल
नहीं देती तब चैन नहीं लेती। मुँह में दाँत होना सरवाभािवक है। लेिकन दाँतों के बीच
कुछ फँस जाना यह असरवाभािवक है। असरवाभािवकता को हटाना पड़ता है।
ऐसे ही सुखी और शाितपूणद जीिन सब चाहते है। दःुख और अशाित कोई नही चाहता। सुख और शाित पाणी का
मूल सरवभाव है। दुःख और अशांित मन की बेवकूफी से.... इचरछा और वासना की बेवकूफी से
आती है।
कोई नहीं चाहता िक मुझे दुःख िमले, अशांित िमले। शांित और सुख तुमरहारा सरवभाव
है। यह आपकी सरवाभािवक माँग है। अ ांित और दुःख आपकी माँग नहीं, िफर भी अशांित और
दुःख पैदा करे ऐसे िवकारों के साथ, ऐसी तुचछ चीजो केसाथ आप िमल जाते है। िमलन क े ी इसआदतको
तोड़ने के िलए साधन में ततरपरता होनी चािहए।
?
साधरय को पाय िबना अगर साधक रह जाता है तो परमातरमा में उसकी इतनी ररदरधा
नहीं है। कोई मत-पंथ-समरपररदाय बोले िक 'तुम मर जाओगे तब तुमरहें कनरधों पर उठाकर
ले जाएँगे।' ....तो यह अनरधशररदरधा है।
शीकृषण कहते है िक शदा केसाथ ततपरता हो। अगर मरन क े े ब ा द क ो ई िकसीकोकनधोपरउठाकर
जाता हो तो भगवान शररीकृषरण ने अजुररन को भगवदगीता कही करयों ? अजुररन को इतना ही कहते
िक युदरध कर ले... तू मर जायगा तो तुमरहें कनरधों पर उठाकर मुकरत कर दूँगा। विसषरठजी
महाराज ने राम जी को आतरमजरञान का उपदेश करयों िदया ? राजा जनक को भी अषरटावकरर बोल
देते िक तुम नामदान ले लो, मरने के बाद मैं कनरधों पर चढ़ाकर पहुँचा दूँगा।
नहीं...। शररदरधा के साथ ततरपरता चािहए। जरञान के िलए साधन में ततरपर होगा तो
इिनरदररयों में संयम आयेगा। असंयमी इिनरदररयाँ मन और देह को कमजोर कर देती है।
छोटी-छोटी बातों का पररभाव िजस आदमी के िचतरत पर पड़ जाता है वह आदमी बहुत छोटा हो
जाता है।
तुम िकसी आदमी का भिवषरय जानना चाहते हो तो देखो िक उससे बात करते-करते
छोटी-छोटी बातों का पररभाव उसके िचतरत पर पड़ता है िक नहीं। छोटी-छोटी बातों का
पररभाव पड़ता है तो समझ लेना, उसका भिवषरय छोटा है। िजस पर छोटी-छोटी बातों का
पररभाव नहीं पड़ता उसका हृदय िव ाल होता चला जायगा। जरयों-जरयों छोटे-छोटे पररसंगों
का, छोटे-छोटे सुख-दुःखों का, मान-अपमान का पररभाव िचतरत पर कम पड़ेगा तरयों-तरयों
उसकी साधरय के पररित ततरपरता िसदरध होती जाएगी, उसका हृदय िवशाल होता जाएगा, वह महान
होता जाएगा और एक िदन वह महातरमा बन जाएगा।
अपने िचतरत के ऊपर ही अपने वरयवहार का आधार है। कोई भी धमररगुरू हो, कुलपित
हो, समाज का अगुआ हो तो उसके घर की करया पिरिसरथित है यह मत देखो। उसके िचतरत की
जैसी िसरथित होगी ऐसी ही उसके घर में सुवरयवसरथा या अवरयवसरथा होगी।
हम िकसी को कुछ कायरर करने का आदे दें तब कहने के ढंग पर िनभररर करता है
िक सामने वाले में कायरर करने के पररित उतरसाह की वृितरत उठेगी, अधरर उतरसाह उठेगा या
िवपरीत िवचार उठेगा। तुमरहारे िचतरत में राग-दरवेष की ठोकरें िजतनी कम लगेंगी, कायरर
में िजतनी ततरपरता होगी, शदा होगी उतना ही तुमहारा वयिहार ििशालतापूणद होगा, वरयापक भावनायुकरत
होगा और िजतनी वरयापक भावना होगी, िचतरत एकागरर होगा उतना ही सामने वाले पर पररभाव
पड़ेगा। वह आपके अनुकूल चलेगा।
जो दूसरों को ठग की नजरों से देखता है उसको ठग ही िमलते हैं। जो दूसरों को
चोर की िनगाहों से देखता है उसे चोर ही िमलते हैं। जो दूसरों को अपने परयारे
परबररहरम परमातरमा की िनगाहों से देखता है वह परमातरमामय बन जाता है। आपकी जैसी
दृिषरट होती है ऐसा ही पिरणाम आता है।
पा शर चातरय जगत में अभी शररदरधा के िवषय में कुछ अधरययन चल रहा है। मानव के
मन की मानरयता करया-करया पिरणाम ला सकती है उस पर िवजरञानी लोग पररयोग कर रहे हैं।
कुछ वषरर पूवरर की एक घिटत घटना है। िकसी आदमी पर खून का केस चला। खून के दो
मामलों में वह अपराधी िसदरध हुआ और फाँसी की सजा घोिषत हो गई। िफर उसने फैसला
बदलवाने हेतु हाईकोटरर में यािचका दायर की, सुपररीम कोटरर में गया लेिकन हारता चला
गया। आिखर राषरटररपित को दया की अजीरर भेजी, वह भी ठुकरा दी गई। फाँसी की िदनाँक
िन
श ि रचतकीगई।
वैजरञािनकों ने उसे समझायाः अपने पाप का फल भोगने के िलए अब तू फाँसी पर
चढ़ेगा। अब बचने की कोई उमरमीद नहीं है तो मरते-मरते एक काम ऐसा करके जा िजससे
तेरा शरीर मानव जात के काम आ जाय। फाँसी पर लटक मरो या हमारे पररयोग में मरो,
मरना तो है ही।"
वह अपराधी सहमत हो गया। वैजरञािनकों ने कानूनी रीित से अनुमित पररापरत कर ली।

फाँसी के िलए जो िदन िन ि र च त ि क य ा गयाथाउसिदनडॉकरटरोंतथ
अपने साधनों से सुसजरज होकर पररयोग करना ुरू िकया। उनरहोंने उस आदमी से कहाः "हम
सपरर के दंश से तेरी मृतरयु करायेंगे। सपरर के डँसने के बाद शरीर में जहर कैसे
आगे बढ़ता है, िकतने समय में कैसे मृतरयु होगी, यह हम वैजरञािनक साधनों से
जाँचेंगे। िवष का िनवारण कैसे करना इसकी खोज हम इस पररयोग से करेंगे। इस पररकार
तेरी मृतरयु फाँसी से नहीं अिपतु सपररदं से होगी।"
िन ि र च शत स म य प र प र र योग ालामेंएकघोड़ालाय
साँप लाया गया। उस आदमी के सामने घोड़े को साँप का दं लगवाया गया। घोड़े पर जहर
का पररभाव पड़ा। वह छटपटाकर िगर पड़ा और कुछ ही देर में मर गया। उस मुजिरम ने यह
सब देखा। िवजरञािनयों ने कहाः
"इसी सपरर के दरवारा तुमरहारी आिखरी मंिजल तय करायेंगे।"
आँखों पर पिटरटयाँ बाँध दी गईं। कनरधे तक काला कपड़ा ढाँक िदया गया। समय
बताया जा रहा हैः पाँच िमनट बाकी हैं.... अब चार िमनट बाकी... अब तीन... ढाई... दो डेढ़...
एक.... आधी....अब सपररदंश लगाया जा रहा है..... एक... दो... तीन....।
सपररदंश के बदले िवजरञािनयों ने चूहे से कटवा िदया। उसे कहा गया िक उसी साँप
ने तेरे को काटा। उस आदमी को पकरका िव र वासथा िक साँप ने ही काटा है। उसके िचतरत
पर पररभाव पड़ गया। शरीर का छटपटाना शुरू हो गया। जैसे घोड़ा छटपटाया था ऐसे ही वह
आदमी भी छटपटाया। डॉकरटरों ने उसका खून चेक िकया तो वे हैरान हो गये िक इसके खून
जहर कैसे आ गया ? चूहे को जाँचा तो उसमें ऐसा जहन नहीं था। वह आदमी तो मर गया।
'मुझे साँप ने काटा.... साँप ने काटा.....' इस घबराहट से आदमी मर सकता है। भय
के कारण हाटररफेल हो सकता है। कहीं छापे पड़े और आदमी का हाटररफेल हो जाय, ऐसे
पररसंग बनते हैं। मन का पररभाव तन पर पड़ता है। िवजरञानी चिकत हुए िक मन का पररभाव
तन पर तो लेिकन तन में िवष कैसे बन गया ? उनको आिखर िनषरकषरर रूप में कहना पड़ा िक
मन में ऐसी शिकरत होती है िक वह तन में जहर भी बना लेता है।
उनको यह पता नहीं था िक हजारों वषरर पूवरर भारत के छोटे-छोटे योगी भी कहते थे
िक तुमरहारे मन में अगर तीवरर ररदरधा है तो अमृत से िवष बन सकता है और िवष से अमृत
बन सकता है।
राितरर के अनरधेरे में पेड़ के ठूँठे में चोर िदखते हो तो काँपने लगते हो।
रसरसी में साँप की कलरपना कर लेते हो तो मारे डर के उछल पड़ते हो। आपके मन की
जैसी अवसरथा होती है वैसा पररभाव आपके तन पर पड़ता है, आपका वरयवहार उस पररकार का
होता है।
मन आपका कलरपवृकरष है। इसीिलए कहा जाता है िक कपड़ा िबगड़ जाय तो िचनरता
नहीं, पैसा िबगड़ जाये तो िचनरता नहीं लेिकन अपना मन मत िबगाड़ना करयोंिक इसी के
दरवारा परमातरमा का साकरषातरकार होता है।
कभी छोटी-छोटी बातों में घबड़ाना नहीं। जो आदमी घबड़ा जाता है वह धोखा खाता
है। जो आदमी कुिपत होकर िनणररय लेता है उसे बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। ांतमना
होकर, मानिसक सनरतुलन लाकर सब िनणररय करें।
मरख बादशाह को बहकाया गया िक िहनरदुओं को मुसलमान बनाओगे तो खुदाताला आपको
िबसरत ले जाएँगे। उन नादानों को यह पता नहीं िकः
,
, ।।
! ।
,
तलवार के बल से, राजसतरता के जुलरम से दूसरों को धमररभररषरट करके उनरहें
मुसलमान बनाने पर खुदाताला राजी होता हो, तो वह सचरचा खुदाताला हो भी नहीं सकता। जो
खुद ही है रोम-रोम में, उसी को खुदा बोलते हैं। जो आप ही आप हैं.... ना कोई माई ना कोई
बाप... आप ही आप..... वही जो खुद ही खुद बस रहा है उसे खुदा कहते हैं। जो रोम-रोम में
बस रहा है उसे राम बोलते हैं। वह एक का एक है, नाम अनेक है। जैसे गंगा एक और
घाट अनेक, ऐसे ही जान सिरप परमातमा एक और उसकी उपासना-आराधना के घाट अनेक हो सकते
हैं। जरूरी थोड़े ही है िक सब एक ही घाट से गंगा-सरनान करें ? कोई कहीं से जाय, कोई
कहीं से जाय। पहुँचना एक ही जल में है। लेिकन अंध ररदरधा वाली मित को यह पता नहीं
चलता। शररदरधा के साथ ततरपरता और इनरदररियसंयम तो तभी आदमी ठीक िनणररय लेता है।
मरख बादशाह ने गलत िनणररय िलया। गलत िनणररय कोई भले ही ले ले लेिकन उस

गलत िनणररय के िकारआप बनो न बनो यह आपके हाथ की बात है। कोई गलत िनणररय लेता
है और आप पर जुलरम करता है, तो श उसके जुलरम के िकारबनो या न बनो, आप सरवतनरतरर हो।
कोई आप पर कुिपत होता है, आप पर कोप का िवष फेंकता है, उस िवष को िपयो न िपयो, उसे
उड़ेल दो, आपकी मजीरर। वह तो कुिपत होता है लेिकन आप उस समय सोचोः वह कोप कर रहा
है इस शरीर को देखकर, हाड़-मांस के शरीर पर नाराज हो रहा है। मुझ चैतनरय आतरमा का
करया िबगड़ेगा ? हिर ॐ ततरसतर.... कोप सब गपशप....।
अपने िचतरत की जो रकरषा नहीं करता है वह चाहे िकतने ही मंिदरों में जाए,
िकतनी ही मिसरजदों में जाय, िकतने ही िगरजाघरों में जाय लेिकन अपने िदल के घर
में जाने का दरवार बनरद कर देता है तो मिनरदर-मिसरजद में भी भगवान नहीं िमलते।
िजसने अपने िचतरत की ठीक से रकरषा की है वह मंिदर में जाता है तो उसे वहाँ
भगवान िमलते हैं। वासरतव में कण कण मे भगवान हैं तो मूितरर में उसे भगवान के
दीदार करयों नहीं होंगे ? जो आदमी अपने सरनेिहयों, कुटुिमरबयों में, समाज में परमातरमा
को िनहार नहीं सकता है वह मरने के बाद िकसी लोक में जाकर भगवान को देखे यह बात
गले नहीं उतरती।

परमातरमा तो सवररतरर है। हमारी वृितरत िजतनी तदाकार होती है, पररेम उभरता है
उतना ही वह परमातरम रस से भरती है.... देर सबेर हमारा आवरण भंग होता है, परमातरमा
का साकरषातरकार हो जाता है।

।।

सदगुरू जब िनगाह देते हैं तब बरराहरमण हो, करषितररय हो, वै शर य ह, ोशूद हो, सब तर
जाते हैं। भकरत जब सदगुरू की िनगाह में अपनी िनगाह िमला देते हैं, सदगुरू की ततरपरता
और शररदरधा में अपनी ततरपरता और शररदरधा िमला देते हैं तब परमातरमा का दीदार हो जाता
है। दूज का चाँद देखने के िलए िदखाने वाले की दृिषरट के साथ अपनी दृिषरट सूकरषरम करनी
पड़ती है। ऐसे ही परमातरमा पहले था, अब भी है, बाद में भी रहेगा। उसे देखने की
ततरपरता होती है, अपनी दृिषरट सूकरषरम होती है तब दीदार हो जाता है। दूज का चाँद तो िफर
गायब हो जायगा, अमावसरया को िबलरकुल नहीं िदखेगा लेिकन परमातरमारूपी चाँद एक बार
िफर िदख गया तो िफर कभी अदृ शर य नहीं होगा। वह सदा एकरस रहता है , शाशत रहता है।

मरख ने जब जुलरम िकया तब जो कायर लोग थे वे जुलरम के िकारहो गये और अपना
धमरर छोड़ िदया। वे मुसलमान हो गये।

अपने धमरर में रहकर मर जाना अचरछा है लेिकन दूसरे का धमरर भयजनक है,
मुिकरतमागरर से भटका देता है। अपने धमरर में, अपने कतरतररवरय में जो आदमी िटका रहता
है उसको पहले थोड़ा कषरट सहना पड़े लेिकन धमरर में िटकने का बल भी आता है।
िटकने में सफल होता है तो भी सुखी रहता है और कभी किठनाई सहकर चला भी जाता है तो
अपने धमरर पालने का भाव उसको वीरगित पररापरत करा देता है।
यहाँ एक सनरदेह कोई कर सकता हैः मरख बादशाह ने अपना धमरर तो पाला !
नहीं..... उसने अपना धमरर नहीं पाला। उसका राजधमरर करया था ? राजा के िलए पररजा
बालक समान है। एक बालक की बातों में आ जाओ और दूसरे बालकों को मारो काटो....। यह
माई बाप का कतरतररवरय नहीं है। राजा तो पररजा के तमाम वगोररं की उनरनित चाहे, हर पहलुओं
पर धरयान दे। लेिकन जो राजा िकसी की चाबी से अपनी खोपड़ी भर ले और तलवार के बल
से जुलरम करके खुदा के वहाँ खुश होना चाहे तो धमररभररषरट कहा जाएगा।
उस धमररभररषरट, महतरतरवाकाकरषी, रावण जैसे मरख ने अपना अंधा दमन चलाया और
कई िहनरदुओं की, िसिनरधयों को धमरर पिरवतररन के िलए लाचार िकया। समझदार और
िहमरमतवान लोगों ने मरख को कहा िक, "हमें सोचने के िलए थोड़ा समय दो। हम थोड़ी
अचररना-उपासना-पूजा करेंगे, भगवान हमारी सुनेगा और आपका भी कुछ मागररदरर न होगा।"
मरख ने कहाः "अगर तुमरहारा भगवान का ई शर वर नहीं आया तो धमरर बदलोगे?"
"हाँ, अगर नहीं आया तो बदलेंगे।"
उनको पूरा िव शर वास , आतरमशररदरधा थी िक रोम-रोम में रमने वाला राम जरूर कुछ
था
मागरर िदखाएगा।
िव शर व की कोई हसरती आपका कुछ िबगाड़ नहीं सकती , जब तब आपने अपने में से
शदा नही िबगाडी। हजार हजार मुसीबतो केबीच िी यिद अपन आ े प प रपू, ण आतर म-िव शर वास
दशदाहै है तो
आिखरी करषण में भी आपकी िवजय हो सकती है। जैसे दररौपदी जी की आिखरी करषणों की
परराथररना से भगवान वसरतरररूप में पररकट हो गये। वह पागल दुः ासन सािड़याँ खींचता
चला गया लेिकन सफल नहीं हुआ अपने दुषरट इरादे में। दररौपदी ने पूणरर ररदरधा और
ततरपरता से भगवान को पुकारा और भगवान ने पुकार सुन ली।
आपको अगर शररदरधा है, ततरपरता है तो सामने वाला आपको तंग नहीं कर सकता। आप
िजतने भयभीत होंगे उतनी परे ानी आपको आ िमलेगी। उस कैदी को वासरतव में साँप
ने नहीं काटा था लेिकन उसने िव शर वास कर िलया िक साँप ने ही काटा है और डर गया
तो उसकी मृतरयु हो गई।
थोड़ी बहुत बीमारी आ जाती है और आप नवररस (हताश) हो जाते हो, कराहने लगते हो
िक 'मैं बीमार हूँ..... मैं बीमार हूँ....' बीमारी में आपकी शररदरधा हो जाती है तो बीमारी
बढ़ती है। िनरोगता में ररदरधा होती है तो िनरोगता बढ़ती है। मसरती में ररदरधा होती
है तो मसरती बढ़ती है। झगड़े में ररदरधा होती है तो झगड़े बढ़ते हैं। मिहला मंिदर
में जाती है, आशररम में जाती है सतरसंग सुनने और भीतर से डरती रहती है िक मेरा
आदमी डाँटेगा....झगड़ा करेगा..... तो जरूर डाँटेगा। आपने पहले से ही उसको डाँटने
के िलए पररेरणा कर दी अपने भीतर से।
आपका मन कलरपवृकरष है। ऐसी शररदरधा बनाये रखो िक जीवन की शाम होने से
पहले जीवनदाता को पा लूँगा। मरने के बाद िकसी लोक में, िकसी सरवगरर में, िकसी
सचखणरड में जीवनदाता का पाना नहीं है। जीवनदाता तो अभ है, यहीं है। उसी की सतरता से
तो तुमरहारे िदल की धड़कनें चलती हैं भाई ! उसी की सतरता से आँखें देखती हैं। उसी
की सतरता से कान सुनते हैं। उसी की सतरता से मन संकलरप-िवकलरप करता है। उसी की सतरता
से बुिदरध िनणररय करती है। वह एकरस है।

! ।।
आदमी जब तक अपनी ओर नहीं आता है, आतरमसुख की ओर नहीं आता है तब तक
उसको िकतना भी सुख, िकतनी भी सुिवधाएँ िमले, अनरत में बेचारा भोग भोगते-भोगते
लाचार हो जाता है।

भोगों को आदमी करया भोगेगा, वह सरवयं ही बीमािरयों का, लाचािरयों का भोग हो जाता
है। भोजन करना तो ठीक है लेिकन मजे के िलए भोजन करेगा तो दो गररास जरयादा ठूँस
देगा। देखना ठीक है लेिकन देखने में अगर िवकार आता है, बार-बार देखकर मन में
कुछ पाप आता है तो अपना नाश होता है। इसिलए मनुषरय को चािहए िक वह सावधान रहे,
ततरपर रहे, संयमी रहे। लकरषरय याद रखे िक मुझे ई र वरको पाना है और उसमें ररदरधा
रखे। इससे अव शर यमेव कलरयाण होता है।
अपने ई शर वरीय सव , मान के समय, अपमान के
र भाव में शररदरधा करो। दुःख के समय
समय सावधान रहो।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

लोग पूछते हैं िक सबसे बड़ा धमरर कौन सा है ? सबसे शररेषरठ धमरर कौन सा है ?
सब मजहब अपनी अपनी डींग हाँकते हैं। सब हाँकते हैं िक हमारे मजहब में आ जाओ,
हमारे पंथ में, हमारे मत में आ जाओ। बस यही सचरचा है। .....तो सबसे बड़ा और सचरचा
धमरर आपके मत में कौन-सा है ?
भाई ! हमारे मत में तो सतरय िकसी मत के आधीन नहीं होता है। मेरे मत में जो
सतरय है वही वासरतिवक सतरय है ऐसा हो भी नहीं सकता। सतरय िकसी मत के आधीन है तो वह
सतरय है भी नहीं।
मत मित के होते हैं। सारी मितयाँ जहाँ से पररका पाती हैं वह परमातरमा वासरतिवक
में सतरय है। जैसे, सागर से पानी वाषरपीभूत होकर आका में जाता है, बादल बनकर
बरसता है, झरने होकर, छोटी बड़ी निदयाँ होकर बहता है, सरोवर होकर लहराता है। भूिम
में उतरकर कूप में जाता है। पृथरवी पर जो भी जलसरथान हैं वे सब सागर के ही पररसाद
हैं।
सागर का एक मेढक दैवयोग से िकसी कुएँ में पहुँचा। कुएँ का मेढक, कूपमणरडूक से
पूछता हैः
"तुम कहाँ से आये हो ?"
"मैं िवशाल सागर से आया हूँ।"
"सागर िकतना बड़ा है ?"
"बहुत बड़ा.... बहुत बड़ा....।"
"िकतना बड़ा ?"
"बहुत बड़ा।"
कुएँ के मेढक ने छलाँग मारी... पूछाः
"इतना बड़ा ?"
"नहीं.... इससे तो बहुत बड़ा।"
कूपमणरडूक ने दूसरी बड़ी छलाँग, िफर तीसरी.... चौथी... पाँचवीं छलाँग लगाते हुए
पूछा। सागर का मेंढक बोलता हैः
"नहीं, नहीं भाई ! सागर तो इससे कई गुना बड़ा है। कूप और सागर की तुलना ही नहीं
हो सकती।"
आिखर कूपमणरडूक ने साँस फुलाकर अपनी पूरी ताकत से लमरबे में लमरबी छलाँग
लगाई, एक छोर से दूसरे छोर तक। अहंकार में आकर कहने लगाः
"इससे बड़ा तो तुमरहारा सागर हो भी नहीं सकता है।"
तब सागर का मेढक बोलता हैः "भाई ! तुमरहारे सारे कुएँ उस सागर के पररसादमातरर
हैं।"
इसी पररकार तुमरहारे सारे मत, पंथ, मजहबरूपी कूप, िजनमें तुम छलाँगे मार-मारकर
बड़परपन की डींग हाँक रहे हो, वे सारे के सारे मजहब, मत, पंथ उस सिचरचदानंदघन
परमातरमा के ही पररसाद हैं। सब िचदघन चैतनरय का ही िववतरर है। जब सृिषरट नहीं बनी थी
तब भी जो था, सृिषरट है और मत, मजहब कई आये और कई गये, कई बने, कई बदले, कई
िबगड़े िफर भी जो सदा एकरस है वह सिचरचदानंद परमातरमा सबसे महान है, सबसे शररेषरठ
है, सनातन सतरय है।
हमारी तुमरहारी कई मितयाँ आयीं, िवचार-िवमररश, वरयाखरया, शासताथद हएु। किी गलत मागद मे
जाकर जनरम-मरण की भीषण यातनाएँ सहीं। कई सुजरञजनों ने अपनी मित उस मािलक को
अिपररत करके मािलक के साथ एकरसता का अनुभव िकया। वह एकरस परमातरमा वैसे का
वैसा है। वही सबका मूल आधार है, अिधषरठान है।
नादान लोग तकरर करते हैं िकः 'सवररतरर भगवान हैं, सबमें भगवान हैं, सब कुछ जो
है वह सब भगवान ही हैं तो हम कुछ भी करें..... पापाचार करें, जो चाहे सो खा लें, भोग
लें तो करया फकरर पड़ता है ? है। छोटे जीव बड़े जीवों के काम
आते हैं तो हम मांसाहार कर लें तो करया घाटा है ? जब सवररतरर भगवान हैं तो नरक में
भी भगवान हैं। पाप में भी भगवान हैं और पुणरय में भी भगवान हैं। सब भगवान ही भगवान
हैं तो मनमाना करयों न खाएँ ? धमरर की, नीित की, शासतो की, गुरू की, माता-िपता की जंजीरों
में करयों जकड़े रहें ?
अरे भाई ! सवररतरर भगवान हैं िफर भी आप चाहते तो सुख हो, चाहते तो आननरद हो।
सवररतरर भगवान है ऐसा सोचकर आप शांत तो नहीं हो गये। सुख के िलए आप चेषरटा तो
करते ही हो। शासरतरर के अनुकूल, माता-िपता और सदगुरू के अनुकूल चेषरटा करने से भगवान
का सुखसरवरूप अनुभव में आयेगा। मनमाना करोगे तो िफर उसका फल भी वैसा ही पररकट
होगा। नरक में भी भगवान हैं सा सोचकर नरक में ले जाने वाले कृतरय करोगे तो
भगवान तुमरहारे िलए नरकरूप में पररकट होंगे, बीमारी के रूप में पररकट होंगे, अशांित
के रूप में पररकट होंगे। भगवान को नरक के रूप में, बीमारी के रूप में, अशांित के रूप
में, दुःख के रूप में देखना चाहते हो तो मनमाना करो। अगर भगवान को सुखसरवरूप,
आननरदसरवरूप, पररेमसरवरूप, जरञानसरवरूप, मुिकरतसरवरूप देखना चाहते हो तो शासरतरर और
गुरूओं के आदेश के अनुकूल कमरर करो, अनरयथा मजीरर आपकी है। भगवान कैदी के रूप में
जेल में जाएँगे और जेलर के रूप में डणरडा भी मारेंगे। दुराचार करोगे तो भगवान
डणरडा मारने वाले के रूप में आयेंगे। 'गुरूजी ! यह सरवीकार करो.... साधक भैया ! यह
खाओ....' ऐसा कहते हएु िगिान आयेगे। िगिान फल-फूल लाइन में खड़े रहेंगेः 'गुरूदेव की जय
हो....।' शासत और गुरदेि की आजा केअनुकूल चलोगे तो िगिान आपकी जय -जयकार करेंगे। अगर
पापाचार करोगे तो वही भगवान डणरडा लेकर आयेंगेः चल 420 में... खून िकया है तो चल 302
में।
अब करया करना, करया नहीं करना, कैसे जीना.... मजीरर आपकी है। भगवान सब कुछ
बने बैठे हैं।
भगवान की लीला अनूठी है। वे सब हैं, सब जगह हैं। जैसे राितरर के सरवपरन में
तुम एक ही चेतन होते हो िकनरतु वहाँ जड़ चीजें भी बन जाती हैं, चेतन जीव भी बन जाते
हैं, सजरजन भी बन जाते हैं, दुजररन भी बन जाते हैं। िनयम बनाने वाले भी बन जाते
हैं िनयम का भंग करने वाले भी बन जाते हैं। िनयम-भंग करने वाले सजा के पातरर बन
जाते हैं, सजा देने वाले भी बन जाते हैं। सरवपरन में यह सब आपके एक ही चैतनरय
के पररसाद से बनता है।
एक अनरतःकरण में चैतनरय का सा चमतरकार हो सकता है तो वरयापक चैतनरय
ईशर इस सृिि का चमतकार कर दे इसमे कया सदेह है ?
हमारे िचतरत में एकदेशीयता नहीं होना चािहए, मत-मजहब की गुलामी नहीं होनी
चािहए। मत मित से बनते हैं। मजहब पीर-पैगमरबरों ने बनाये हैं। पीर-पैगमरबरों को
और मत-मतांतर बनाने वालों को िजस परमातरमा ने बनाया है उस परमातरमा की हम उपासना
करेंगे।
जो हमारे बाप का बाप है, दादाओं का दादा है, हमारे पूवररजों का भी जो पूवररज है,
िजसमें से हमारे सब पूवररज आये और लीन हो गये, पररािणमातरर को सतरता, सरफूितरर,
चेतना देने में जो संकोच नहीं करता उस िनःसंकोच नारायण का हम धरयान करते हैं।
नारायण..... नारायण..... नारायण.... नारायण.....।
हमारा नारायण, हमारा भगवान, हमारा खुदा एकदेशीय नहीं है, हमारा भगवान कोई
एककालीय नहीं है, हमारा परमातरमा एक ही आकृित में बँधा हुआ नहीं है।

हमारा भगवान वह है। तुमरहारा और पूरे िव र वका वासरतिवक में तो वही भगवान है।
मानो न मानो, तुमरहारी मजीरर। मानोगे तो उसकी मोहबरबत का सुख पाओगे। नहीं तो.....
ॐ.....ॐ.....ॐ.......ॐ.....
ॐकार की िजसकी सरवाभािवक धरविन है वह चेतन हमारा आतरमा है।
िकसी भी जाित का, मत का, मजहब का बचरचा पैदा होता है तो 'ऊँवाँ....
ऊँवाँ...ऊँवाँ....' करके उसी चेतना की खबर देता है। िकसी भी जाित का, मत का, मजहब का
आदमी बीमार पड़ता है तो चदरदर तानकर ांित पाने का ढंग सभी का एक जैसा होता
है। 'ऊँ.... ऊँ..... ऊँ...' कराहते हुए अनजाने में ही उस चेतना में आराम खोजते हैं
िजसकी सरवाभािवक धरविन ॐकार है। ासरतरर कहते हैं-
भगवान शररीकृषरण गीता में कहते हैं-

।।
'जो पुरूष ॐ इस एक अकरषर रूप बररहरम को उचरचारण करता हुआ और उसके अथररसरवरूप
मुझ िनगुररण बररहरम का िचनरतन करता हुआ रीर को तरयाग कर जाता है वह पुरूष परम गित को
पररापरत होता है।'
(भगवदर गीताः 8.13)
भगवान अपने को सवररवरयापक िचदघन चैतनरय मानते हैं। 'केवल अजुररन के रथ पर
मैं हूँ' ऐसा नही मानते। अगर ऐसा मानते तो अजुदन को कहते ही नही िक
.... सब धमोररं को छोड़कर मेरी शरण आ जा। अजुररन
शीकृषण की शरण मे तो था। तिी तो उसकेरथ की बागिोर िगिान न ह े ा थमेलीथी।
नहीं.... नहीं....। अजुररन शररीकृषरण की शरण में था, शीकृषण -ततरतरव की शरण में नहीं था।
इसिलए भगवान कहते हैं- अब शररीकृषरण-ततरतरव की शरण में आ जा। भगवान के का
अथरर है शररीकृषरण ततरतरव। धमरर की सरथापना करने वाले शररीकृषरण-ततरतरव की शरण में आ जा।

।।

।।
'हे भारत ! जब-जब धमरर की हािन और अधमरर की वृिदरध होती है तब-तब ही मैं अपने
रूप को रचता हूँ अथाररतर साकार रूप से लोगों के समरमुख पररकट होता हूँ। साधु पुरूषों का
उदरधार करने के िलए, पापकमरर करने वालों का िवनाश करने के िलए और धमरर की अचरछी
तरह से सरथापना करने के िलए मैं युग-युग में पररकट हुआ करता हूँ।'
(भगवदर गीताः 4.7.8)
भगवान युग-युग में आ जाते हैं तो करया िफर चले भी जाते हैं ?
नहीं....। तुम मनुषरय हो। तुम जब राह भूलते हो तब वही चैतनरय मनुषरय का रूप लेकर
तुमरहारा मागररदररशन करता है। वह समझाता है िक हे नर ! तू भी नारायण का सरवरूप है।
ऐसा कोई मजहब नही है ििश मे िक िजस मजहब केिगिान ने , खुदा ने , ईशर न ज े ी ि , ं तादीहो
क ोइतनीसितत
जीव की इतनी िदवरयता िवकिसत की हो। सनातन धमरर के भगवान अपने परयारे के सारिथ
बनते हैं, उससे नीचे बैठते हैं। जीव को रिथ बनाते हैं। जीव की आजरञा में चलते
हैं। अजुररन महाभारत के युदरध के पररारंभ में भगवान से कहता हैः

'हे अचरयुत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीिजए।'
गीता का नारायण नर के आधीन चलकर भी िदखाता है िक तू और मैं ततरतरव से एक
हैं। जैसे िपता बेटे के आधीन होकर उसका िवकास करके सयाना बना देता है से ही
सनातन धमरर का ई शर वर साकार अवतिरत होकर नरों को अपने नारायणसरवरूप में जगाने के
िलए लीला करता है। शबरी भीलने के जूठे बेर खाये हैं तो सनातन धमरर के भगवान ने
ू रे िकसी मजहब केिगिान न य े
खाये है। दस ह ि ह ममतनहीिदखाईहै।
दूसरे भगवान दुजररनों से मारे गये लेिकन सनातन धमरर के भगवानों ने दुजररनों
को सरवधाम अपने चरणों में पहुँचा िदया। ये भगवान दुजररनों से हारे नहीं।
िफर भी जो आदमी िजसको भी मानता हो, अपने जीवन में उदारता, िवशालता, सचरचाई,
सहानूभूित, मानवता लाना चािहए। िजस भगवान को भी मानो, कम-से-कम मनुषरय-मनुषरय के
पररित वफादार तो रहो। होना तो जीव मातरर के पररित वफादार चािहए। सबके िलए भलाई का भाव
होना चािहए। पररािणमातरर के पररित सदभाव होना चािहए।
भाव मन तक है। भाव आया और गया। उसको जो देखता है, उसको भी जानने की जो
को श ि करता है वह अननरत से िमल जाता है।
अननरत परमातरमा का वणररन हम करया कर सकते है। 'भगवान दयालु हैं... भगवान
नरयायकारी हैं... भगवान सवररवरयापक हैं.... भगवान ऐसे हैं.... भगवान वैसे हैं.... 'यह तो
ऋिषयों का पररसाद लेकर भगवान के गुणवान दुहराकर अपना िचतरत पावन करते हैं। भगवान
उदार हैं इसिलए उसे जैसा पुकारते हैं वैसा सरवीकार कर लेते हैं। बचरचा अपनी कैसी
भी तोतली भाषा में माँ की पुकारता है तो माँ सरवीकार कर लेती है।
अपने परयारे भगवान को अपने से दूर मानना, िकसी अनरय देश में, िकसी अनरय काल
में मानना यह मूखररता है। जैसे 50 साल का बूढ़ा बालमंिदर की पढ़ाई करने की बेवकूफी
करे, ऐसे ही मानि तन पाकर बीस-पचरचीस साल की उमरर में भी भगवान को कहीं के कहीं माने,
सुख के िलए िवकारों की आग में अपने को तपाता रहे यह मूखररता है। ऐसे लोगों के िलए
तुलसीदासजी कहते हैं-

।।

।।
'करया करें ? जमाना खराब है... जमाना ऐसा है.. जमाना वैसा है... जमाना बदल
गया....'
जमाना तो बदल गया लेिकन बदले हुए जमाने को अबदल आतरमा देखता है। उस
आतरमा में आजा मेरे भैया !
िहमालय के जंगलों से गंगा बहती है। जंगल के बाँसों की आपस में रगड़ होने
से या िकसी कारण से जंगल में आग लगती है तो जंगल के हाथी भागकर गंगा में आ
जाते हैं। उनका कुछ नहीं िबगड़ता।
ऐसे ही तुमहारे िचत मे जब अशाित की आग लगे तब तुम जान की गंगा मे आ जाओ। नारायण केधयान मे िू ब
जाओ। िचदघन चैतनरय के सरवरूप में िव ररािनरत पा लो। सब समसरयाएँ हल हो जाएँगी।
नारायण.... नारायण... नारायण.... नारायण.... नारायण....
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-

।।

।।
िजनके कानों ने हिरकथा नहीं सुनी है वे कान नहीं हैं, साँप के िबल हैं।
िजनके जीवन में आतरमजरञान की कथा नहीं है उनका जीवन सचमुच दयाजनक है।
िजनकी िजहरवा पर भगवान का नामोचरचारण नहीं है उनकी िजहरवा मेंढक की िजहरवा जैसी है।
भगवनरनाम का गुणगान करने से िजहरवा पिवतरर होती है। भगवतरततरतरव की कथा सुनने
से कान पिवतरर होते हैं।
वेदानरत का सतरसंग एक ऐसा अनूठा बल देता है िक िनधररन को धनवानों का भी धनवान,
सतरतावानों का भी सतरतावान, महानर समरराट बना देता है। वह चाहे झोपड़ी में गुजारा करता
हो, खान क े ो द ो रट ा इ म िो जन ि ी न ि म ल ताहोलेिकनजीिनमेसदाच
जाता है। वेदानरत अजरञान को िमटाकर जीव को अपने आतरमपद में पररितिषरठत कर देता
है। सतरसंग जीवातरमा के पाप-ताप िमटाकर उसे शुदरध बना देता है। कथा सुनने से पाप नाश
होते हैं। कथा सुनने से अजरञान करषीण होता है। हिरकथा सुनने से, उसके पररसाद से मन
पावन होता है। िजनक जीवन में भीतर का पररसाद नहीं, उनका जीवन दयाजनक है।
गािध नाम का एक तपसरवी बरराहरमण था। अपना गाँव छोड़कर एकानरत सरथान में जाकर
धारणा-धरयान करने लगा। भगवान िवषरणु की उपासना करता रहा। उसकी धारणा िसदरध हुई और
भगवान नारायण ने उसको दरर न िदया। गािध ने कहाः
"हे भगवनर ! मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ।"
भगवान ने कहाः "माया तो धोखा देती है। 'माया' का मतलब है 'या मा सा माया।' जो है
नहीं िफर भी िदखती है। ऐसी माया के झंझट में पड़ना ठीक नहीं है। यह करया माँग िलया
तुमने ?"
"महाराज ! आपकी माया को एक बार देखने की इचरछा है।"
आिखर भगवान ने कहाः "हे गािध ! मैं तुम पर पररसनरन हूँ। तुम मेरी माया को
देखोगे और छोड़ भी दोगे। उसमें उलझोगे नहीं।"
वरदान देकर भगवान नारायण अनरतधाररन हो गये।
गािध बरराहरमण पररितिदन दो बार तालाब में सरनान करने जाता था। एक बार उसने
तालाब के जल में गोता मारा तो करया देखता है ? 'मेरी मृतरयु हो गई है। कुटुमरबी लोग अथीरर
में बाँधकर सरमशान में ले गये। शरीर जलाकर भसरम कर िदया।'
िफर वह देखता है िक एक चाणरडाली के गभरर में पररवेश हुआ। समय पाकर चाणरडाल
बालक होकर उतरपनरन हुआ। कटजल उसका नाम रखा गया। छोटे-छोटे चाणरडाल िमतररों के
साथ खेलता-कूदता कटजल बड़ा हुआ। िगलोल से पकरषी मारने लगा। कुल के अनुसार सब
नीच कमरर करने लगा। युवा होने पर चाणरडाली लड़की के साथ िववाह हुआ। िफर बेटे-
बेिटयाँ हुई। चाणरडाल पिरवार बढ़ा। कई िनदोररष प श-पिकर
ु षयों को मारकर अपना गुजारा करता
था। चालीस वषरर बीत गये चाणरडाल बहुएँ घर में आयी, चाणरडाल दामाद िमले। बेटे-
बेिटयों का पिरवार भी बड़ा होता चला।
तालाब के जल में एक ही गोता लगाया हुआ है और गािध बरराहरमण यह सब चाणरडाल
जीवन की लीला महसूस कर रहा है।
वह चाणरडाल कटजल एक िदन घूमता-घामता कररानरत देश में जा पहुँचा जहाँ का राजा
सरवगररवासी हो गया था। नया राजा चुनने के िलए हाथी को िसंगारा गया था। उसकी सूँड में
जल का कलश रख िदया गया था। हाथी िजस पर जल का कलश उड़ेल दे, उसको नगर का राजा
घोिषत िकया जायगा। हाथी ने कटजल पर कल उड़ेला और सूँड से उठाकर अपने ऊपर
िबठा िदया। बाजे, शहनाइया, ढोल, नगाड़े बजने लगे। कटजल का राजरयािभषेक हुआ। वह
चाणरडाल कररानरत देश का राजा बन गया। उसने अपने चाणरडाल के सब िनशान िमटा िदये।
अपना नाम भी बदल िदया। आठ वषरर तक उसने राजरय िकया। दास-दािसयों सिहत रािनयों से
सेिवत और मंतररी आिद से समरमािनत होता रहा।
वह पूवररकाल में चालीस वषरर तक िजस गाँव में रहा था उस गाँव के चाणरडाल
संयोगवश इस नगर में आये और उसे देख िलया। उनरहोंने उसे पुराने नाम से पुकारा।
राजा बना हुआ यह चाणरडाल कटजल घबराया। उन लोगों का ितरसरकार करके सबको भगा िदया।
महल में दास-दािसयाँ जान गईं िक यह मूँआ चाणरडाल है। धीरे-धीरे सारे नगर
में बात फैल गई। सबका मन उिदरवगरन हो गया।
नगर के पिवतरर बरराहरमण िचता जलाकर अपने रीर को भसरम करके परराय ि रचत
करने लगे। कई लोग तीथाररटन करने चले गये। रािनयाँ, दािसयाँ, टहलुए, मंतररी सब उदास
रहने लगे। अब राजा की आजरञा कोई माने नहीं।
कटजल ने सोचा िक मेरे कारण इतने लोगों ने आतरमहतरया कर ली। राजरय में
िवरोध फैल गया है। कोई आजरञा मानता नहीं है। लोग राजगदरदी छीन लें उसके पहले
मैं ही करयों न अपने आप अपना अनरत कर दूँ !
उसने आग जलाई और अपने आपको उसमें फेंका। शरीर को आग की जरवाला लगी,
तपन से पीिड़त हुआ तो वह तालाब के पानी से बाहर िनकल आया। देखा िक 'अरे ! यह तो
कुछ नहीं है ! अभी तो एक गोता ही लगाया था तालाब के पानी में और इतनी देर में मेरी
मृतरयु हुई, जीव चाणरडाली के गभरर में गया, जनरम िलया, बड़ा हुआ, चाणरडाली के साथ शादी की,
बचरचे हुए, आठ साल कररानरत देश में राजा बनकर राज िकया। मैंने यह सब करया देखा ?
चलो, जो होगा सो होगा। सब मेरी कलरपना है, सपना है, मरने दो।
ऐसा सोचकर िह अपन आ े श म म े ग य ा । दै िय ो गसेएकबूढातपसिीसाधूगािध
उसकी आवभगत की। राितरर को भोजनोपरानरत वातरताररलाप करते हुए बैठे थे तो गािध ने
पूछाः
"हे तपसरवी ! तुम इतने कृश करयों हो ?"
अितिथ ने कहाः 'करया बताऊँ......? कररानरत देश में एक चाणरडाल राजा राजरय करता था।
हाथी ने उसका वरण िकया था। आठ साल तक उसने राजरय िकया। मैं भी उसी नगर में रहा
था। बाद में पता चला िक राजा चाणरडाल है। मैंने सोचा, पापी राजा के राजरय में कई
चातुमाररस िकये, पापी का अनरन खाया। मेरा जप-तप करषीण हो गया। इसिलए मैं का ी गया।
वहाँ चानरदररायण वररत रखे।"
चानरदररायण वररत में मौन रखा जाता है, जप तप िकये जाते हैं। एकम के िदन एक
गररास भोजन, दूज के िदन दो गररास भोजन, तीज के िदन तीन गररास भोजन.... इस पररकार पूनम
के िदन पनरदररह गररास। िफर कृषरण पकरष की एकम के िदन से पनरदररह गररास भोजन में से एक
एक गररास घटाया जाता है और अमावसरया के िदन िबलरकुल िनराहार। चनरदरर की कला के साथ
भोजन घटता बढ़ता है अतः यह चानरदररायण वररत कहा जाता है। इससे आदमी के पाप-ताप दूर
होते हैं।
वह अितिथ कहता हैः "मैंने कई चानरदररायण वररत िकये हैं इसिलए मेरा शरीर कृश
हो गया है।"
गािध दंग रह गया िक यह तपसरवी िजस राजा के बारे में कहता है वह तो मैंने
तालाब के जल में गोता लगाते समय अपने िवषय में देखा है। वह एक सरवपरन था और यह
तपसरवी सचमुच काशी में चानरदररायण वररत करने गया ? इस बात को ठीक से देखना चािहए।
गािध बरराहरमण पूछता-पूछता उस गाँव में पहुँचा। वहाँ के बूढ़े चाणरडालों से पूछाः
"यहाँ कोई कटजल नाम का चाणरडाल रहता था ?" ....तो चाणरडालों ने बतायाः "हाँ, एक
चाणरडाली का बेटा वह कटजल यहाँ रहता था। िफर पासवाले कररानरत दे में वह राजा हो
गया था। बाद में वह आतरमहतरया करके, आग में जलकर मर गया। यहाँ उसके बेटे-
बेिटयों का लमरबा चौड़ा पिरवार भी मौजूद है।"
गािध ने अलग-अलग कई लोगों से पूछा। सभी ने उसी बात का समथररन िकया। अनेक
लोगों से वही की वही बात सुनी। उस कररानरत दे के लोगों से भी उसी चाणरडाल राजा की
घटना सुनने को िमली।
गािध आ शर चयरर िवमूढ़ हो गयाः"मैंने तो यह सब गोता लगाया उतनी देर में ही
देखा। यहाँ सचमुच में कैसे घटना घटी ? यह सब कैसे हुआ ? यह सचरचा िक वह सचरचा ?"
गािध ने सोचा िक अब िवशररािनरत पाना चािहए। वह एकानरत गुफा में चला गया। डेढ़
साल तक भगवान नारायण की आराधना-उपासना की। भगवान पररकट हुए। गािध बरराहरमण से वे
बोलेः
"देख गािध ! तूने कहा था िक मेरी माया देखना है। अब देख ली न ? यह सब मेरी
माया का पररभाव है। थोड़े समय में जरयादा काल िदखा देती है वह होता कुछ नहीं लेिकन
सचरचा भासता है। जल में गोता मारा तो चाणरडाल का जीवन सचरचा लग रहा था। बाहर आया तो
कुछ नहीं। उधर लोगों को चाणरडाल का राजरय पररतीत हुआ, वह भी माया है। यह भी बीत गया, वह
भी बीत गया। हर जीव का अपना-अपना देश और काल है।"
एक मनुषरय जीवन में मेंढकों की साठ पीिढ़याँ बीत जाती हैं। बैकरटीिरया की तो
करोड़ों पीिढ़याँ बीत जाती होंगी।
नेपोिलयन की लड़ाई को करीब पौने दो सौ वषरर हो गये। उस समय जो घटनाएँ घटी
वे देखनी हों तो योगशिकरत से देखी जा सकती हैं। पररकाश की िकरण एक सेकेनरड में
186000 मील की गित से चलती है। सूयरर से पररका की िकरण चलती है तो 8 िमनट में पृथव र ी
पर पहुँचती है। आकाश में कुछ तारे यहाँ से इतने दूर हैं िक हजारों लाखों वषोररं के
बाद भी, अभी तक उनकी िकरणें पृथव र ी तक नहीं पहुँच पायी हैं। कोई योगी अपने मन की गित
पररकाश की गित से भी अिधक तेजवाली कर लेता है तो वह नेपोिलयन के युदरध को देख
सकता है। इसी योगयुिकरत से योिगजन ितररकालद ीरर बनते हैं। अपने िचतरत की वृितरत को काल
की अपेकरषा आगे या पीछे फेंकते हैं तो सा हो सकता है।
जैसे आप बैठकर सोचो िक आज सुबह करया खाया था, कल करया खाया था, परसों करया
खाया था, तो मन से वह देख सकते हो, जान सकते हो। ऐसे ही योगी ठोस रूप से भूत-भिवषरय
देख सकते हैं।
यह जो कुछ भी जानने में आता है वह सब सरवपरन में सरक जाता है। िजससे जाना
जाता है वह आतरमा परमातरमा सतरय है। उस सतरय का जो अनुसनरधान करता है वह देर सबेर
आतरम-साकरषातरकार करके सदा के िलए माया से तर जाता है। जो देह को 'मैं' मानता है
और संसार की वसरतुओं को सचरची समझता है वह सरवपरन से सरवपनांतर तक, युग से युगांतर
तक बेचारा भटकता रहता है।
भगवान िवषरणु गािध बरराहरमण से कहते हैं-
"हे गािध ! तूने मुझसे माया िदखाने का वरदान माँगा था। मैंने यह माया िदखाई।
चाणरडाल के शरीर में और राजा के शरीर में जो तुमने सुख दुःख देखा, उस समय सचरचा
लग रहा था, अब वह सरवपरन हो गया। पानी में गोता लगाते समय जो सचरचा िदख रहा था, अब
सरवपरन हो गया।"
आज से दस जनरम पहले भी जो पतरनी, पुतरर, पिरवार िमला था, वह उस समय सचरचा लग
रहा था, अब सरवपरन हो गया। पाँच जनरम पहले वाला भी अब सरवपरन है और एक जनरम पहले
वाला भी अब सरवपरन है। इस जनरम का बचपन भी अब सरवपरन है। यौवनकाल भी अब सरवपरन हो
रहा है।
आपकी दृिषरट िजस समय जगत में सतरयबुिदरध करती है उस समय जगत का आकषररण,
समसरयाओं का पररभाव और सुख-दुःख की थपरपड़ें लगती हैं। अगर आप अपने सतरयसरवरूप
आतरमा का अनुसनरधान करते हो तो जगत के आकषररण और िवकषररण दूर रह जाते है, देर
सबेर अपने जगदी शर वर सरवभाव में जगकर मुकरत हो सकते हो।

सरवपरन जैसा जगत है। िदखता है सचरचा, िदखता है ठोस लेिकन उसमें गहराई नहीं।
आतरमजरञान का सतरसंग बहुत ऊँची चीज है। कथा वाताररएँ होना एक बात है लेिकन
ताितरतरवक सतरसंग, बररहरमजरञान का सतरसंग आिखरी चीज होती है। ऐशसा सतरसंग सतरपातरर िषरय
को ही पचता है। बररहरमवेतरता सदगुरू में सा सामथरयरर होता है जो िषरय को ततरतरवजरञान
करा सके। रामचनरदररजी ऐसे सदगुरू थे और हनुमानजी ऐसे सतरपातरर थे। अषरटावकरर जी ऐसे
सदगुरू थे और अजुररन ऐसा सतरपातरर था। नानक ऐसे सदगुरू थे और बाला मरदाना ऐसे
सतरपातरर थे।
बहुत बहुत सदभागरय होता है तब आदमी आतरमजरञान की बातें सुन पाता है।
आतरमजरञान के सतरसंग का मनन करने से बहुत लाभ होता है।

.....
उसने सवरर तीथोररं में सरनान कर िलया, उसने सवरर दान दे िदये, उसने सब यजरञ
कर िलये िजसने एक करषण भी अपने मन को आतरम-िवचार में, बररहरमिवचार में िसरथर
िकया।
आतरमजरञान सुनने के बाद मनन करने की िजसमें ततरपरता है उस आदमी का िनवास-
सरथान काशी है। आतरम-िवशररािनरत में गोता मारने वाला महापुरूष िजस पानी को छूता है वह
पानी गंगाजल है, िजस वसरतु को छूता है वह पररसाद है, जो वाकरय बोलता है वह मंतरर है।
उसके िलए सारे वृकरष चनरदन काषरठ हैं। उसके िलए सारा िव र वननरदन वन है। जो भीतर
से खुश है, पररसनरन है, सतरय का अनुभव करता है उसे बाहर भी सतरय का दीदार हो जाता है।
जो भीतर कलरपनाओं में उलझता है वह सरवगरर में भी सुख-दुःख की कलरपना करता है और
नकरर में भी दुःख पाता है। भागरयवशातर वह वैकुणरठ में भी चला जाय और आतरमजरञान में
रूिच न हो तो देर सबेर उसे दुःख भी होता है।
भगवान िवषरणु कहते हैं- "हे गािध ! तू अपने चैतनरयसरवरूप मुझ अनरतयाररमी नारायण
का अनुसनरधान करके, उसको पाकर सदा के िलए मेरे साथ एक हो जा। िफर तुझे माया का
भररम नहीं देखना पड़ेगा। माया के िवसरतार में सतरयबुिदरध मत करो। सतरयबुिदरध मुझ
चैतनरय में करो तािक मुिकरत का अनुभव हो जाय।"
जो आदमी माया को सतरय समझकर उलझ जाता है उसे कभी कोई महातरमा िमल जाय और
आतरमजरञान की ऊँची बात कहे तो उसे समझ में नहीं आती। महातरमा सदा वैकुणरठ में
रहते हैं अथाररतर वरयापक सरवरूप में िवराजते हैं जबिक साधारण लोगों की िचतरतवृितरत
कुिणरठत रहती है, देहाधरयास में जकड़ी रहती है।
अजरञािनयों का संग िमलता है जरयादा और जरञानी का संग िमलता है जरा सा। जरञानी
का जरा सा संग भी बड़ा महतरतरवपूणरर होता है।
खेतो मे, बाग-बगीचों में काम के पौधों के अलावा िनकमरमे घास-फूस भी उग आते
हैं. उनरहें चुन-चुनकर उखाड़ना पड़ता है, तभी उपयोगी पौधे पुषरट होकर पनप सकते हैं।
उस पर फूल िखलेंगे, सुगंिधत हवाएँ फैलेगी, पकरषी िकलरलोल करेंगे, लोगों को सुगनरधी
िमलेगी, मधुमिकरखयाँ रस चूसेंगी। फूल िखलवाने के िलए िनकमरमा घास-फूस हटाना पड़ता
है। फूल िखलने के बाद भी िनगरानी रखनी पड़ती है।
साधक के हृदय में भी आतरमजरञान के फूल िखलें इसिलए कुसंग का कचरा पहले
हटाना पड़ता है। वह खेत तो एक ही जगह रहता है जबिक साधकरूपी खेत तो चलता िफरता
खेत है। जहा जायेगा िहा अजान केकुसंसकार पडेगे। जहा जायेगा िहा देह को 'मैं' मानना, संसार को सचरचा
मानना, िवकारों का जागृत होना.... यह सब संसरकार हटाने पड़ते हैं।
साधक जब साधना में ततरपर होता है तब अपने भीतर ई र वरका अमृत बरसता हुआ
महसूस करता है। िफर साधक गलती करता है, घड़ा औंधा हो जाता है, साधक बेचारा रीता
रह जाता है। साधकरूपी माली िनकमरमे घास-फूल िनकालते-िनकालते िफर पररमाद में पड़
जाता है। उसका बगीचा जंगल हो जाता है।
ऐसे साधको को चािहए िक अपना समय बचाकर सपताह मे एक-दो िदन एकानरत कमरे में बैठ
जायँ। िबलरकुल मौन और जप। कुछ भी न ले, िबलरकुल िनराहार। इससे आदमी मर नहीं जाता।
उसकी आयु कम नहीं होगी। महावीर ने बारह साल में िसफरर एक साल भोजन िकया था। कभी
पचरचीस िदन में एक बार, कभी पनरदररह िदन में, कभी पैंतीस िदन में तो कभी पाँच िदन
में। जब धरयान तपसरया से उठे, भूख लगी तो खा िलया। बारह साल में 365 बार खाया, बस।
िफर भी कबीरजी से, नानकजी से महावीर जरयादा पुषरट थे।
आदमी का शरवास जरयादा चलता है तो खाने पीने की जरयादा जरूरत पड़ती है। अगर
तुम एकानरत में, िनवृितरत में बैठो और खाओ, न भी खाओ तो चल जाएगा। भूख-परयास, ठणरडी-
गरमी सहने का मनोबल बढ़ जायगा। आतरमबल बढ़ाने के िलए यह पररयोग करने जैसा है।
कभी महीने में दो िदन कभी सपरताह में एक िदन, दो िदन, कभी चार िदन और कभी एक साथ
आठ िदन िमल जाय तो और अचरछा है। इससे रीर में से कई िदन हािनकर जनरतु दूर हो
जाते हैं। आने वाली नस-नािड़यों की बीमािरयाँ भी दूर हो जाती हैं। साथ ही साथ धरयान
भजन भी बढ़ता है। उन िदनों में केवल जप करें और आसन पर बैठें। खायें-िपयें कुछ
नहीं, िकसी से बोलें-चालें कुछ नहीं।
भगवान में मन न लगे तो भगवान के िचतरर के सामने थोड़ी देर एकटक िनहारो।
भगवान से परराथररना करो िकः हे भगवान ! तुममें िचतरत नहीं लगता। तुम केवल इस िचतरर
में ही नहीं, मेरे हृदय में भी हो। तुमरहारी ही सतरता लेकर मन िचतरर-िविचतरर संसार देख
रहा है।
इस पररकार भगवान से बातें करो। अपने आप से गहराई में बातें करो। कभी
कीतररन करो, कभी जप करो, कभी िकताब पढ़ो, कभी शरवासोचरछवास को देखो। पहले दो तीन
घणरटे उबान आ सकती है। दो तीन घणरटे धैयरर के साथ अकेले कमरे में अगर बैठ गये
तो िफर चार घणरटे भी आराम से जाएँगे, चार िदन भी आराम से बीत जाएँगे और चालीस
िदन भी आराम से बीत जाएँगे।
तुम अपने आतरमा में हजारों वषरर रह सकते हो। रीर में और भोगों में जरयादा
समय नहीं रह सकते। जैसे आदमी कीचड़ में जरयादा समय नहीं रह सकता जबिक सरोवर
की सतह पर घणरटों भर तैर सकता है। से ही िवकारों में, कानरता में, ममता में आदमी
सतत नहीं रह सकता लेिकन आतरमा में दस हजार वषरर तक रह सकता है।
यह आतरमलाभ पाने के िलए बाहर का जो किलरपत और तुचरछ वरयवहार है उसमें से
समय बचाकर अनरतमुररख होना चािहए। इससे तुमरहारी साधना की कमाई िनखरेगी, बढ़ेगी।
राजा सुषेण को िवचार आया िक, "मैं िकसी जीवन के रहसरय समझने वाले महातरमा
की शरण में जाऊँ। पिणरडत लोग मेरे मन का सनरदेह दूर नहीं कर सकते।"
राजा सुषेण गाँव के बाहर महातरमा के पास पहुँचा। उस समय महातरमा अपनी बगीची
में खोदकाम कर रहे थे, पेड़-पौधे लगा रहे थे। राजा बोलाः
"बाबाजी ! मैं कुछ परर शर न ू ने को आया हूँ"।
पछ
बाबाजी बोलेः "मुझे अभी समय नहीं है। मुझे अपनी बगीची बनानी है।"
राजा ने सोचा िक बाबाजी काम कर रहे हैं और हम चुपचाप बैठें, यह ठीक नही।
राजा ने भी कुदाली फावड़ा चलाया।
इतने में एक आदमी भागता-भागता आया और आशररम में शरण लेने को घुसा और
िगर पड़ा, बेहोश हो गया। महातरमा ने उसको उठाया। उसके िसर पर चोट लगी थी। महातरमा ने
घाव पोंछा, जो कुछ औषिध थी, लगाई। राजा भी उसकी सेवा में लग गया। वह आदमी होश में
आया। सामने राजा को देखकर चौंक उठाः
"राजा साहब ! आप मेरी चाकरी में ? मैं करषमा माँगता हूँ....।" वह रोने लगा।
राजा ने पूछाः "करयों, करया बात है ?"
"राजनर ! आप राजरय में से एकानरत में गये हो सा जानकर आपकी हतरया करने
पीछे पड़ा था। मेरी बात खुल गई और आपके सैिनकों ने मेरा पीछा िकया, हमला िकया।
मैं जान बचाकर भागा और इधर पहुँचा।"
महातरमा ने राजा से कहाः "इसको करषमा कर दो।"
राजा मान गया। उस आदमी को दूध िपलाकर महातरमा ने रवाना कर िदया। िफर दोनों
वाताररलाप करने बैठे। राजा बोलाः
"महाराज ! मेरे तीन परर शर न - सबसे उतरतम समय कौन-सा है ? सबसे बिढ़या काम
हैं
कौन-सा है ? और सबसे बिढ़या वरयिकरत कौन सा है ? ये तीन परर शर न मेरे िदमाग में कई
महीनों से घूम रहे हैं। आपके िसवाय उनका समाधान देने की करषमता िकसी में भी नहीं
है। आप पारावार-दृिषरट हैं, आप आतरमजरञानी हैं, आप जीवनरमुकरत हैं, महाराज ! आप
मेरे परर शर नों का समाधान कीिजए।
महातरमा बोलेः "तुमरहारे परर शर नोंका जवाब तो मैंने सपररयोग दे िदया है। िफर भी
सुनः सबसे महतरतरवपूणरर समय है वतरतररमान, िजसमें तुम जी रहे हो। उससे बिढ़या समय
आयेगा तब कुछ करेंगे या बिढ़या समय था तब कुछ कर लेते। नहीं.... अभी जो समय है
वह बिढ़या है।
सबसे बिढ़या काम कौन-सा ? िजस समय जो काम सामने आ जाय वह बिढ़या।
उतरतम से उतरतम वरयिकरत कौन ? जो तुमरहारे सामने हो, पररतरयकरष हो वह सबसे उतरतम
वरयिकरत है।
राजा असंमजस में पड़ गया। बोलाः
"बाबाजी ! मैं समझा नहीं।"
बाबाजी ने समझायाः "राजनर ! सबसे महतरतरवपूणरर समय है वतरतररमान। वतरतररमान
समय का तुमने आज सदुपयोग नहीं िकया होता, तुम यहाँ से तुरनरत वापस चल िदये होते तो
कुछ अमंगल घटना घट जाती। यहाँ जो आदमी आया था उसका भाई युदरध में मारा गया था।
उसका बदला लेने के िलए वह तुमरहारे पीछे लगा था। मैं काम में लगा था और तुम भी
अपने वतरतररमान का सदुपयोग करते हुए मेरे साथ लग गये तो वह बेला बीत गई। तुम बच
गये।
सबसे बिढ़या का करया ? जो सामने आ जाये वह काम सबसे बिढ़या। आज तुमरहारे
सामने यह बगीची का काम आ गया और तुम कुदाली-फावड़ा लेकर लग गये। वतरतररमान समय
का सदुपयोग िकया। सरवासरथरय सँवारा। सेवाभाव से करने के कारण िदल को भी सँवारा। पुणरय
भी अिजररत िकया। इसी काम ने तुमरहें दुघररटना से बचा िलया।
बिढ़या में बिढ़या वरयिकरत कौन ? जो सामने पररतरयकरष हो। उस आदमी के िलए अपने
िदल में सदभाव लाकर सेवा की, पररतरयकरष सामने आये हुए आदमी के साथ यथायोगरय
सदवरयवहार िकता तो उसका हृदय-पिरवतररन हो गया, तुमरहारे पररित उसका वैरभाव धुल गया।
इस पररकार तुमरहारे सामने जो वरयिकरत आ जाय वह बिढ़या है। तुमरहारे सामने जो
काम आ जाय वह बिढ़या है और तुमरहारे सामने में जो समय है वतरतररमान, वह बिढ़या
है।"
िजस समय तुम जो काम करते हो उसमें अपनी पूरी चेतना लगाओ, िदल लगाओ। टूटे
हुए िदल से काम न करो। लापरवाही से काम न करो, पलायनवादी होकर न करो। उबे हुए, थके
हुए मन से न करो। हरेक कायरर को पूजा समझकर करो। हनुमानजी और जामरबवान युदरध करते
थे तो भी राम जी की पूजा समझकर करते थे। तुम िजस समय जो काम करो उसमें पूणरर रूप से
एकागरर हो जाओ। काम करने का भी आननरद आयेगा और काम भी बिढ़या होगा। जो आदमी काम
उतरसाह से नहीं करता, काम को भटकाता है उसका मन भी भटकने वाला हो जाता है। िफर
भजन-धरयान के समय भी मन भटकाता रहता है। इसिलए,
Work while you work and play while you play, that is the way to be happy and gay.
िजस समय जो काम करो, बड़ी सूकरषरमदृिषरट से करो, लापरवाही नहीं, पलायनवािदपना
नहीं। जो काम करो, सुचारू रूप से करो। बहुजन िहताय, बहुजन सुखाय काम करो। कम-से-कम
समय लगे और अिधक से अिधक सुनरदर पिरणाम िमले इस पररकार काम करो। ये उतरतम
कतरतारर के लकरषण हैं।
िजस समय जो वरयिकरत जो सामने आ जाय उस समय वह वरयिकरत ररेषरठ है सा
समझकर उसके साथ वरयवहार करो। करयोंिक ररेषरठ में ररेषरठ परमातरमा उसमें है न ! इस
पररकार की दृिषरट आपके सरवभाव को पिवतरर कर देगी।
यह वरयवहािरक वेदानरत है।
सरवाथरर की जगह पर सरनेह ले आओ। सहानुभूित और सचरचाई लाओ। िफर आपका
सवाररंगीण िवकास होगा और आप में सतरसंग का पररसाद िसरथर होने लगेगा।
ॐ शािनरतः ॐ.....ॐ.....
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

भगवान बुदरध ने एक बार घोषणा की िकः


"अब महािनवाररण का समय नजदीक आ रहा है। धमररसंघ के जो सेनापित हैं,
कोषाधरयकरष हैं, पररचार मंतररी हैं, वरयवसरथापक हैं तथा अनरय सब िभकरषुक बैठे हैं उन
सबमें
श से जो मेरा पटरट ि ष र ,यहोनाचाहताहो
िजसको मैं अपना िवशश
ेष िषरय घोिषत कर सकूँ
ऐसा वयिकत उठे और आगे आ जाये। "
ेष िषरय होने के िलए कौन इनरकार करे? सबके मन में हुआ िक भगवान
बुदरध का िवशश
का िवशेष िषरय बनने से िवशेष म ान िमलेगा , िवशेष पद िमलेगा, िवशेष वसरतरर और
िभकरषा िमलेगी।
एक होते हैं मेवाभगत और दूसरे होते हैं सेवाभगत। गुरू का मान हो, यश हो,
चारों और बोलबाला हो तब तो गुरू के चेले बहुत होंगे। जब गुरू के ऊपर कीचड़ उछाला
जायेगा, किठन समय आयेगा तब मेवाभगत पलायन हो जाएँगे, सेवाभगत ही िटकेंगे।
बुदरध के सामने सब मेवाभगत स ि त र ष र य ह ोनेकेिलयेअपनीऊ
एक उठाने लगे। बुदरध सबको इनरकार करते गये। उनको अपना िव ेष उतरतरािधकारी होने
के िलए कोई योगरय नहीं जान पड़ा। पररचारमंतररी खड़ा हुआ। बुदरध ने इशारे से मना िकया।
कोषाधरयकरष खड़ा हुआ। बुदरध राजी नहीं हुए। सबकी बारी आ गई िफर भी आननरद नहीं उठा।
अनरय िभकरषुओं ने घुस-पुस करके समझाया िक भगवान के संतोष के खाितर तुम उमरमीदवार
हो जाओ मगर आननरद खामोश रहा। आिखर बुदरध बोल उठेः
"आननरद करयों नहीं उठता है ?"
आननरद बोलाः "मैं आपके चरणों में आऊँ तो जरूर, आपके कृपापातरर के रूप में
ितलक तो करवा लूँ लेिकन मैं आपसे चार वरदान चाहता हूँ। बाद में आपका स ितरषरयबन
पाऊँगा।"
"वे चार वरदान कौन-से हैं ?" बुदरध ने पूछा।
"आपको जो बिढ़या भोजन िमले, िभकरषा गररहण करने के िलए िनमंतररण िमले
उसमें मेरा पररवेश न हो। आपका जो बिढ़या िवशेष आवास हो उसमें मेरा िनवास न हो।
आपको जो भेंट-पूजा और आदर-मान िमले उस समय मैं वहाँ से दूर रहूँ। आपकी जहाँ
पूजा-पररितषरठा होती हो वहाँ मुझे आपके स ि त र ष र य क ेरूपमेघोिषतनिकयाजाए
ढंग से रहने की आजरञा हो तो मैं सदा के िलए आपके चरणों में अिपररत हूँ।"
आज भी लोग आननरद को आदर से याद करते हैं।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जो लोग िसंध में रहते थे और िवदे ों में जाकर कमाते थे उनको िसंधवकीरर
कहा जाता था।
िसंधवकीरर खूबचनरद अपनी पतरनी, माँ बाप को छोड़कर िवदे में कमाने गया।
धनरधे-रोजगार में खूब बरकत रही। साल-दो-साल के अंतर पर घर आता-जाता रहा। इसी बीच
उसको एक बेटा हो गया। िफर वह कमाने के िलए िवदे चला गया और इधर बेटे को
नरयमोिनया हुआ और वह चल बसा। पतरनी ने सोचा िकः "पित को खबर देने से बेटा लौटेगा
तो नहीं और पित वहाँ बेचैन हो जाएगा।" पतरनी ने खूबचनरद को बेटे के अवसान की खबर
नहीं दी।
कुछ समय बाद खूबचनरद जब घर लौटने को हुआ तब उसकी पतरनी ने एक युिकरत रची।
अपनी पड़ोसन के गहने ले आयी और पहन िलये। खूब सज-धजकर पित का सरवागत करने
के िलए तैयार हो गयी। पित घर आया। पतरनी ने सरवागत िकया। पित ने पूछाः "बेटा िकशोर
कहाँ है ?"
"होगा कहीं अड़ोस-पड़ोस में। खेलता होगा। आप सरनानािद कीिजए, आराम कीिजए।"
खूबचनद न स े न ा न ि ो जन ि क य ा -बात में े गातोपतीचरणसेिाक
।िफरआरामकरनल
कहने लगीः
"देिखये, ये गहने िकतने सुनरदर हैं ! पड़ोसन के हैं और वह वापस माँग रही है
मगर मैं उसे वापस देना नहीं चाहती।"
पित बोलाः "पगली ! िकसी की अमानत है, उसे वापस देने में िवलंब कैसा ? ऐसा कयो
करती है ? तेरा सरवभाव करयों बदल गया ?"
"जा दे आ। पहले वह काम कर, जा गहने दे आ।"
"नहीं नहीं, ये तो मेरे हैं।" पतरनी नट गई।
"तू बोलती है िक पड़ोसन के हैं ? मैंने तुझे बनवाकर नहीं िदये तो ये गहने
तेरे कैसे हो गये ? तुमरहारे नहीं है िफर उनमें अपनापन करयों करती है ? ऐसी कया मूखदता
? जा, गहने दे आ।"
लमरबी-चौड़ी बातचीत के बाद वह सचमुच में गहने पड़ोसन को दे आई, िफर आकर
पित से बोलीः
"जैसे, वे गहने पराये थे और मैं अपना मान रही थी तो बेवकूफ थी, ऐसे ही िह पाच
भूतों का पुतला था न, हमारा िकशोर..... वह पाँच भूतों का था और पाँच भूतों में वापस चला
गया। अब मुझे दुःख होता है तो मैं बेवकूफ हूँ न ?"
पित बोलाः "अचरछा ! तूने िचटरठी करयों नहीं िलखी ?"
"िचटरठी इसिलए नहीं िलखी िक आप शायद वहाँ दुःखी हों। ऐसी बेवकूफी की िचटरठी करया
िलखना ?"
पित ने कहाः "ठीक है, बात तो सही है। पाँच भूतों के पुतले बनते हैं और
िबगड़ते है। िकशोर की आतरमा और हमारी आतरमा एक है। आतरमा की कभी मौत नहीं होती और
शरीर किी शाशत िटकते नही। कोई बात नही.....।"
, ।
अनुिचत पररसंग में, मोह के पररसंग में, अशांित के पररसंग में अगर तुम कृत
उपासक हो, अगर तुमरहारी कोई समझ है तो ऐसे दुःख या अशांित के पररसंग भी तुमरहें
अशांित नहीं दे सकेंगे।
अषरटावकरर जी कहते हैं-

।।
'तू बरराहरमण आिद जाित नहीं है और न तू चारों आ ररम वाला है, न तू आँख आिद
इिनरदररयों का िवषय है वरनर तू असंग, िनराकार, िव शर व '
का साकरषी है ऐसा जानकर सुखी हो।
जैसे तुम शरीर के साकरषी हो वैसे ही तुम मन के साकरषी हो, बुिदरध के साकरषी हो,
सुख और दुःख के साकरषी हो, सारे संसार के साकरषी हो।

'हे वरयापक ! मन समरबनरधी धमरर और अधमरर, सुख और दुःख तेरे िलए नहीं है और न
तू कतरतारर है और न तू भोकरता है। तू तो सदा मुकरत ही है।'
सुख और दुःख, धमरर अधमरर, पुणरय और पाप ये सब मन के भाव हैं, उस िवभु आतरमा के
नहीं। ये भाव सब मन में आते हैं। तुम मन नहीं हो। ये भाव तुमरहारे नहीं हैं। तुम
िव शर वसाकरषहो।ी
रानी मदालसा अपने बचरचों को उपदे देती थीः
। .... ... ....
जो मूढ़ अपने को बँधन में मानता है वह बँध जाता है और जो अपने मुकरत सरवभाव,
आतरमसरवरूप, आतरमा का मनन करता है वह मुकरत हो जाता है।
अषरटावकरर बहुत ऊँची बात कह रहे हैं। बुदरध तो सात कदम चले, बाद में कहते
हैं- "संसार दुःखरूप है, दुःख का उपाय है, दुःख से छूटा जा सकता है, मुिकरत हो सकती है।"
जबिक अषरटावकरर तो पररारंभ से ही आिखरी सतरय कह देते हैं- "तू पाँच भूतों का पुतला
नहीं है....।" यह एकदम सरवचरछ सीधी सी बात है लेिकन हम लोगों की उपासना नहीं है,
गैर-संसरकार िचतरत में पड़ गये हैं अतः कुछ करो। इतना-इतना कमाओ, इतना खाओ, इतना
धरो आिद.... बाद में कहीं सुखी होंगे।
सुख का दिरया लहरा रहा है, सुख का िसनरधु आपके पास है। वह सुखसरवरूप परमातरमा
आपको दुःखी करना भी नहीं चाहता। जैसे बचरचों पर दुःख पड़े तो माँ बेचैन हो जाती है
ऐसे ही आप पर अगर दःुख का पिाि पडता है तो सब मा की िी जो मा है िह परमातमा, वह अिसरततरव कोई खुश
नहीं होता। ई शर वर आपको दुःखी करके खुश नहीं होता , बिलरक आपको सुखी देखकर खुश होता
है। ई शर वर , गुरू कहो.... एक ही ततरतरव के दो नाम हैं।
कहो

।।
हम जब शांत होते हैं, मौन होते हैं, अपनी ओर लौटते हैं, अपने घर की ओर
जाते हैं तो भगवान और गुरू पररसनरन होते हैं। िजतना-िजतना आदमी मौन होता है,
िनवाररसिनक होता है, िनःसंकलरप होता है उतना-उतना वह महानर हो जाता है। िजतना-िजतना
वह बिहमुररख होता है उतना-उतना तुचरछ होता है, दुःखी होता है। िफर कुछ करके, कुछ खाकर,
कुछ देखकर आदमी सुखी होने का पररयास करता है। वह सुख भी िटकता नहीं है।
अषरटावकरर जी कहते हैं- सुखी होने के िलए कुछ करना नहीं है, केवल जानना है।
कोई मजदूरी करने की जरूरत नहीं है। केवल िचतरत की िवशररांित...। िचतरत जहाँ-जहाँ जाता
है उसको देखो। िजतना अिधक तुम शांत बैठ सकोगे उतना तुम महान हो जाओगे।
कीतररन करते-करते देहाधरयास को भूलना है। जप करते-करते इधर-उधर की बातों
को भूलना है। जब इधर-उधर की बातें भूल गये िफर जप भी भूल जाओ तो कोई हरकत नहीं।
। ।
भगवान िवषरणु की पूजा में सरतुित आती हैः

।।
भगवान को मेघवणरर करयों कहा ? वरयापक चीज सदा मेघवणीरर होती है, गगन सदृश होती
है। आकाश नीला िदखता है, सागर का पानी नीला िदखता है। ऐसे जो परमातरमा है, जो िवषरणु
है, जो सबमें बस रहा है वह वरयापक है इसिलए उसको मेघवणरर कह िदया।
िशिजी का िचत, िवषरणुजी का िचतरर, रामजी का िचतरर, शीकृषण का िचत इसीिलए नीलिणद बनाये है
जानकारों ने। वासरतव में परमातरमा का कोई रंग नहीं होता। परमातरमा की वरयापकता िदखाने
के िलए नीलवणरर की कलरपना की गई है।
इसी पररकार आपका आतरमा िकसी वणरर का नहीं है, िकसी जाित का नहीं है, िकसी
आशररम का नहीं है। लेिकन वह िजस देह में आता है उस देह के मुतािबक वणाररशररमवाला
हो भासता है। अपने को ऐसा मानते-मानते सुखी-दुःखी होता है, जनरमता-मरता है। जीवपने
की मानरयता बदल जाय तो भीतर इतना िदवरय खजाना छुपा है, इतनी गिरमा छुपी है िक उसको
सुखी होने के िलए न सरवगरर की जरूरत है न इलेकरटररोिनक साधनों की जरूरत है न दारू की
जरूरत है। सुखी होने के िलए िकसी भी चीज की जरूरत नहीं है। शरीर िजनरदा रखने के िलए
िकसी भी वसरतु की जरूरत नहीं है। आतरमा सा सुख सरवरूप है। .....और मजे की बात है िक
संसार में िबना वसरतु के कोई सुखी िदखता ही नहीं। वसरतु िमलती है तो वह सुखी होता है।
अजरञान की बिलहारी है !
वासरतव में वसरतुओं से सुख नहीं िमलता अिपतु वसरतुओं में सुख है यह मानने की
बेवकूफी बढ़ती जाती है।
िचतरत जब अनरतमुररख होता है तब जो शांित िमलती है, आतरमसुख की झलक िमलती है
उसके आगे संसार भर की चीजों का सुख काकिवषरठा जैसा तुचरछ है। िफर संसार के पदाथरर
आकिषररत नहीं कर सकते। एक बार खीर खाकर तृपरत हुए हो तो िफर िभखािरन के जूठे टुकड़े
तुमरहें आकिषररत नहीं करेंगे। एक बार तुमरहें समरराट पद िमल जाय िफर चपरासी की
नौकरी तुमरहें आकिषररत नहीं करेगी।
ऐसे ही मन को एक बार परमातमा का सुख िमल जाय, एक बार धरयान का सुख िमल जाय, मौन होते-
होते परमातरम-शाित का पूणद सुख िमल जाय तो िफर मन तुमहे धोखा नही देगा। मन का सििाि है िक जहा उसको
सुख िमल जाता है िफर उसी का वह िचनरतन करता है। उसी के पीछे तुमरहें दौड़ाता है।
संसार की चीजों में जो सुख की झलकें िमलती हैं वे अजरञानवश इिनरदररयों के
दरवारा िमलती हैं। इसीिलए अजरञानव जीव बेचारे उनके पीछे भागे जाते हैं।
सतरसंग के दरवारा, पुणरय पररािपरत के दरवारा, संतों की...... गुरू की कृपा के दरवारा जब
आतरमसुख की झलक िमलती है तब संसार के सारे सुख की झलकें वरयथरर हो जाती हैं।
भरथरी महाराज ने इसी को लकरषरय करके कहा होगाः

......
'रथ में घूमकर सुख लेना, फूलों की शैया में सुख लेना... ये सब मूढ़ता के खेल
थे। सुख तो मेरे आतरमा में यो ही भरा हुआ था।'
सुख को सब चाहते हैं। आपको अनरतमुररखता से िजतना-िजतना सुख िमलता जाता है
उतने-उतने आप महानर होते जाते हैं। बिहमुररखता से जो सुख का एहसास होता है, वह
केवल अभरयास होता है।
चैतनरय परमातरमारूपी सरोवर में एक लहर उठी, उसका नाम िचदावली। िचदावली से
बुिदरधवृितरत हुई। बुिदरध में िवकलरप आये तो मन हुआ। मन ने िचनरतन िकया तो िचतरत कहलाया।
देह के साथ अहंबुिदरध की तो अहंकार हुआ। वह वृितरत इिनरदररयों के दरवारा जगत में आयी।
िफर जगत में जात-पात आ गई। िफर वणरर आये, आशररम आये, राषरटररीयता आयी, कालापना
आया, गोरापना आया। ये सब हमने थोप िलये।
परमातरमारूपी सरोवर में सरपनरदनरूपी िचदावली हुई। िचदावली में िफर बुिदरधवृितरत।
बुिदरधवृितरत से संकलरप-िवकलरप हुए तो मनःवृितरत। उस वृितरत ने िचंतन िकया तो िचतरत
कहलाया। उस वृितरत ने देह में अहं िकया तो अहंकार कहलाया।
तीन पररकार के अहंकार हैं-
पहलाः 'मैं शरीर हूँ... शरीर केमुतािबक जाित िाला , धमररवाला, काला, गोरा, धनवान, गरीब
इतरयािद हूँ....' ऐसा अहकं ार नकद मे ले जान ि , देह
े ा ल ा है।देहकोमै मानकर
के समरबिनरधयों को मेरे
मानकर, देह से समरबिनरधत वसरतुओं को मेरी मानकर जो अहंकार होता है वह करषुदरर
अहंकार है। करषुदरर चीजों में अहंकार अटक गया है। यह अहंकार नकरर में ले जाता है।
दूसराः "मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं.....' यह अहंकार उदरधार करने वाला
है। भगवान का हो जाय तो जीव का बेड़ा पार है।
तीसराः 'मैं शुदरध बुदरध िचदाकाश, मायामल से रिहत आकाशरूप, वरयापक, िनलेररप,
असंग आतरमा, बररहरम हूँ।' यह अहंकार भी बेड़ा पार करने वाला है।'
पररहरलाद ने िकसी कुमरहार को देखा िक वह भटरठे को आग लगाने के बाद रो रहा है।
वह आकाश की ओर हाथ उठा-उठाकर परराथररनाएँ िकये जा रहा है.... आँसू बहा रहा है।
पररहरलाद ने पूछाः "करयों रोते हो भाई ? करयों परराथररनाएँ करते हो ?"
कुमरहार ने कहाः "मेरे भटरठे (पजावे) के बीच के एक मटके में िबलरली ने
अपने द बचरचे रखे थे। मैं उनरहें िनकालना भूल गया और अब चारों और आग लग चुकी
है। अब बचरचों को उबारना मेरे बस की बात नहीं है। आग बुझाना भी संभव नहीं है। मेरे
बस में नहीं है िक उन मासूम कोमल बचरचों को िजला दूँ लेिकन वह परमातरमा चाहे तो
उनरहें िजनरदा रख सकता है। इसिलए अपनी गलती का प शर चाताप भी िकये जा रहा हूँ और
बचरचों को बचा लेने के िलए परराथररना भी िकये जा रहा हूँ िकः
"हे पररभु ! मेरी बेवकूफी को, मेरी नादानी को नहीं देखना... तू अपनी उदारता को
देखना। मेरे अपराध को न िनहारना..... अपनी करूणा को िनहारना नाथ ! उन बचरचों को बचा
लेना। तू चाहे तो उनरहें बचा सकता है। तेरे िलए कुछ असमरभव नहीं। हे करूणािसंधो !
इतनी हम पर करूणा बरसा देना।'
कुमरहार का हृदय परराथररना से भर गया। अनजाने में उसका देहाधरयास खो गया।
अिसरततरव ने अपनी लीला खेल ली।
भटरठे में मटके पक गये। िजस मटके में बचरचे बैठे थे वह मटका भी पक गया
लेिकन बचरचे कचरचे के कचरचे..... िजनरदे के िजनरदे रहे।

वह ई शर वर चाहे तो करया नहीं कर सकता? वह तो सतत करता ही है।


परमातरमा तो चाहता है, अिसरततरव तो चाहता है िक आप सदा के िलए सुखी हो जाओ।
इसीिलए तो सतरसंग में आने की आपको पररेरणा देता है। अपनी अकरल और हो ि यारीसेतो
कर-कर के सब लोग थक गये हैं। परमातरमा की बार-बार करूणा हुई है और हम लोग बार-बार
उसे ठुकराते हैं िफर भी वह थकता नहीं है। हमारे पीछे लगा रहता है हमें जगाने के
िलए। कई योजनाएँ बनाता है, कई तकलीफें देता है, कई सुख देता है, कई पररलोभन देता
है, संतों के दरवारा िदलाता है।
वह करूणासागर परमातरमा इतना इतना करता है, तुमरहारा इतना खरयाल रखता है। िबलरली
के बचरचों को भटरठे में बचाया ! िबलरली के बचरचों को जलते भटरठे में बचा सकता है तो
अपने बचरचों को संसार की भटरठी से बचा ले और अपने आपमें िमला ले तो उसके िलए
कोई किठन बात नहीं है।
अिसरततरव चाहता है िक तुम अपने घर लौट आओ.... संसार की भटरठी में मत जलो।
मेरे आननरद-सागर में आओ.... िहलोरें ले रहा हूँ। तुम भी मुझमें िमल जाओ।
ॐ....ॐ....ॐ.....ॐ.....ॐ.....
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
श रू सतरपातरर िषरय को अपना हृदय खोलकर आितरमक अनुभूित का पररसाद दे रहे हैं-
सदगु
मैं िचदघन चैतनरय.... सबके िदल की धड़कनों को सतरता देने वाला ांत आतरमा
हूँ। िचतरत की अशांित के कारण िकसी-िकसी शरीर में मैं अशांत िदखता हूँ। िचतरत के
दुराचार से कहीं कहीं मैं दुराचारी िदखता हूँ। िचतरत के सदाचार से कहीं मैं सदाचारी
िदखता हूँ। िचतरत के शांत होने से मैं कहीं शांत िदखता हूँ। वासरतव में, मैं चैतनरयघन,
मुकरत महे शर वर ततरतरव हूँ। मेरा मुझको धनरयवाद है।
मैं शांत, अशांत, सजरजन और दुजररन, अनेक सरवांगों में, अनेक रंगों में, ढंगों
में, अनेक देहों में मैं िवषय-सुख भोग रहा हूँ। दैतरयों में ईषरयारर की आग-सा लग रहा
हूँ। ऋिषयों में तप कर रहा हूँ। िफर भी मैं कुछ नहीं करता। यह मेरी अषरटधा पररकृित है।
यह मेरी आहरलािदनी शिकरत है िजससे यह सब पररतीत हो रहा है। वासरतव में बना कुछ नहीं।
यह सरवपरन तुलरय खेल पाँच महाभूत, मन, बुिदरध, अहंकार... इस अषरटधा पररकृित से है।
मैं सदैव िनलेररप और पर हूँ। जैसे आका में सब चीजें हैं, सब चीजों में आकाश है
िफर भी चीजों के बनने िबगड़ने में, बढ़ने-घटने में आकाश पर कोई पररभाव नहीं
पड़ता। हजारों मकान बढ़ जाएँ या हजारों मकान िगर जाएँ िफर भी आका को कुछ नहीं
होता। आकाश सबमें है िफर भी सबसे नरयारा है।
ऐसे ही मै चैतनय आकाश हँू। िचदघन चैतनय आतमा हँ।
ू मेरी किी मृतयु नही होती कयोिक मेरा जनम ही नही
हुआ। मुझे कोई पुणरय नहीं... मुझे कोई पाप नहीं। पुणरय और पाप तो मन को होता है, तन को
होता है। मैं तो तन-मन से परे साकरषी, शानत, शुद, बुदरध चैतनरय आतरमा हूँ। आका की तरह
िनलेररप....।
ऐ मेरे मन ! अगर तू गुरू ततरतरव में जग जाएगा तो सुखी हो जायेगा। अगर तू इिनरदररयों के
साथ जुड़कर िवकारों को भोगेगा तो ना को पररापरत होगा। आज तक िवकारों में परे ान
होता ही आया है। इसिलए अब तू ऋिषयों के अनुभव की तरफ चल। मुझ चैतनरय के पररसाद को
पाकर सदा-सदा के िलए सुखी हो जा। अनरयथा मैं तुझसे दोसरती तोड़ दूँगा। आज तक तू मुझे
गुलाम बनाकर मेरा नाश कर रहा था। दो आँख से जुड़कर देखने की इचरछा से बाहर भटक
रहा था। कान से जुड़कर सुनने की इचरछा से भटक रहा था। िहरन बना तो भी मारा गया। पतंग
बना तो भी मारा गया। हे मेरे मन ! िजस-िजस शरीर में गया वहाँ दुःखी रहा। अब तू अपने
आप, चैतनरय सरवभाव की ओर, अपने सूकरषरमाितसूकरषरम, अणु से भी अणु और महानर से भी महानर
परमे शर वर सव
र भाव की ओर चल। अपने उस महानर सरवभाव को याद करके उसमें लीन हो जा।
हे बुलबुले ! हे तरंग ! तुम िकनारों से टकराओगे, टूटोगे, फूटोगे, िफर बनोगे
िफर िबगड़ोगे। हे तरंग ! तू अपने जल ततरतरव को जान ले। हे बुलबुला ! तू अपने जल
ततरतरव को जान ले।
हे मनरूपी बुलबुला ! हे बुिदरधरूपी तरंग ! तू अपने चैतनरय सरवभाव को जान ले। उसका
सरवभाव एक धरविन 'ॐ' कार है। 'मैं चैतनरय हूँ' ऐसा िचनतन करके 'ॐ' कार का गुँजन कर दे।
अपने चैतनरय सरवभाव में ीघरर जाग जा। चैतनरय के पररसाद से चैतनरयमय हो जा।
ॐ....ॐ...ॐ....
मैं िनभररय हूँ..... मैं शांत सिचरचदानंद आतरमा हूँ.... मुझे पता न था। जनरम-मृतरयु से
पार मैं तो अपने सरवभाव को भूल पररकृित से िमलकर बार-बार जनरमता-मरता-सा िदखता था
लेिकन मैं जनरमता मरता नहीं था। आज मैं भररांित से जागा हूँ।
ॐ....ॐ.....ॐ......
समता जीवन है। ई शर वरापररणबुिदरध जीवन है। बररहरमातरमैकरय जरञान ही सचरचा जरञान
और सचरचे जीवन का पररागटरय है। बररहरमातरमैकरय का जरञान ही वासरतिवक जीवन का दरवार
खोलता है। यह आतमा परमातमा है। यह आतमा बह है। यह आतमा शुद बुद िचदघन चैतनय है। यह आतमा ही सब देिो
का देव है, सवरर कालों का काल है। यह हमारा आतरमा ही परबररहरम परमातरमा है। यह आतरमा
ही जनिनयंता है। यही हमारे अनरतःकरण का िनयमन कर रहा है। यही हमारी आँखों को
देखने की शिकरत देता है। यही परमे शर वर हमारे साथ था , हमें पता न था। यही आननरदकनरद
हमारा आतरमा था हमें मालूम न था।
'मरने के बाद कहीं जाएँगे और परमे र वरिमलेंगे' यह तो शुरूआत में बचरचों को
थोड़ा-सा मोटा मोटा जरञान देने की वरयवसरथा थी। जब बुिदरध सूकरषरम होती है तो पता चलता
हैः

?
हमारा राम हमारा आतरमा है। हमारा शरयाम हमारा आतरमा ही है। हमारा िवटरठल हमारा
आतरमा ही है। वही आतरमा परमातरमा है। घड़े का आका ही महाका है। तरंग का जल ही सागर
का जल है।
ऐसे ही िचत मे जो चेतना है, वरयापक बररहरमाणरड में वही की वही चेतना है।
ॐ.....आननरद..... खूब आननद...
जो शररीकृषरण हैं वह तुम हो। जो शश ररीराम हैं वह तुम हो। जो िवहैं वह तुम हो। जो
जगदमरबा हैं वह तुम हो। वे अपने चैतनरय सरवभाव को जानते हैं और हम नहीं जानते
थे। अब जान िलया तो बन गया काम।
, ।
, ?
खूब आननद.... मधुर आननरद..... मधुर शािनरत.... आतरम शांित.....
परमातरम-पररसाद में हम पिरतृपरत हो रहे है। अब हमें यह वासना नहीं रही िक हम
मरकर भगवान के लोक में जाएँगे। यह बेवकूफी भी हमने छोड़ दी। मरने के बाद भगवान
िमलेगा यह तो बालकों को िसखाया गया था और बालकों ने िसखाया था। बररहरमवेतरता कभी
ऐसा नही िसखाते िक मरन क े े ब ा दि ग तेरा
ः ही सरवभाव
िानिमलेगा।अिीतूिहचैतनयहै
है 'ॐ'कार गुंजाना। 'ॐ'कार तेरे आतरम-सरवभाव से िनकलता है। इसिलए तू अभी चैतनरय
है।
दुराचारी मन ने, पापाचारी इचरछाओं ने, भयभीत िवचारों ने राग-दरवेष के तरंगों
ने तुमरहें अपनी मिहमा से वंिचत रखा था। अब गुरू का जरञान पचाने का अिधकार हो रहा है
इसिलए भय के िवचार, राग-दरवेष की आग, िवषमता की चेषरटाएँ आिद को िवदा देकर
देहाधरयास को छोड़। गुरू अपने परमातरम-भाव में िसरथत होकर तुमरहें आतरमा में जगा रहे
हैं जो वासरतव में सतरय है। यही सवरर सफलताओं की कुंजी है। 'मैं आतरमा हूँ' यह िबलरकुल
हकीकत है। 'मैं चैतनरय हूँ' यह िबलरकुल सचरची बात है। 'मेरा आतरमा ही परमातरमा है'
िबलरकुल िनःसनरदेह है।
मैं अपने अनुभूत आतरमसरवभाव में जग रहा हूँ। देह की मानरयताओं से मैं मर रहा
था और जनरम हो रहा था। अब आतरमा के सरवभाव से मैं अपने अमर सरवभाव में आ रहा हूँ।
िशषय केये अनुिियुकत िचन सुनकर गुरिाणी िीतर से पकट हईुः
'हे पुतरर ! इस देहाधरयास ने तुझे िचर काल से बाँध रखा था। अब ॐकार का गुँजन
करके देहािभमान को भगाकर आतरम-अिभमान को जगा दे। काँटे से काँटा िनकलता है।
जीवभाव को हटाने के िलए अपने चैतनरय सरवभाव को, अपने आतरमसरवभाव को जगाओ।
िवकार और िवषयों के आकषररण को हटाने के िलए अपने आतरमाननरद को जगाओ। अपने
आतरमा के सुख में सुखी हो जाओ तो बाहर का सुख तुमरहें करयों बाँधेगा ? उसकी कहाँ ताकत
है तुमरहें बाँधने की ? तुमरहीं बँध जाते थे वतरस ! अब तुम मुझ मुकरत आतरमा की शरण में
आये हो तो तुम भी मुकरत हो जाओ। ले लो यह ॐकार की गुँजन और जरञान की कैंची। काट दो
मोह-ममता के जाल को। तुमरहें बाँध सके या नकोररं में ले जा सके अथवा सरवगरर में
फँसा सके ऐसी ताकत िकसी में भी नहीं। तुम ही नकरर और सरवगरर के रासरते बनाकर उसमें
पचने और फँसने जाते थे, अजरञान के कारण। अब जरञान के पररसाद से तुमरहारा अजरञान
भाग गया। अगर थोड़ा रहा हो तो मार दो 'ॐ' की गदा िफर से। पररकट कर दो अपना आननरद।
पररकट कर दो अपनी मसरती। पररकट कर दो अपनी िनवाररसिनकता। मुझे अब कुछ नहीं चािहए,
करयोंिक सवरर मैं ही बना बैठा हूँ। मुझे नकरर का भय नहीं, सरवगरर की लालसा नहींष मृतरयु
मेरी होती नहीं। जनरम मेरा कभी था नहीं। मैं वह आतरमा हूँ।
तुम सब आतरमा ही हो। सब परमे र वरहो। मैं भी वही हूँ। तुम भी वही हो। जो मैं हूँ
वही तुम भी हो। जो तुम हो वह मैं हूँ।
हे िकलरलोल करते पकरषी ! तुम भी चैतनरय देव हो। हे गगनगामी योगी ! तुम अपने
चैतनरय सरवभाव को जानो। देह से जुड़कर तुम कब तक आका गमन करते रहोगे ? तुम तो
िचदाकाश सरवरूप में िवशररािनरत पा लो।
हे आकाशचारी िसदरधों ! आकाश में िवचरण करने वाले उतरतम कोिट के साधकों !
तुम अपने साधरय सरवभाव को जान लो। तुम तो धनरय हो ही जाओगे, तुमरहारी धनरयता का होना
परराकृितक जीवों के िलए बहुत कुछ आ ीवाररद हो जाएगा।
हे िसदरधों ! तुम परम िसदरधता को पा लो। हे साधकों ! तुम परम साधरय को पा लो। परम
साधरय तुमरहारा परमातरमा है न ! खूब मधुर अलौिकक अनुिूित मे तुम गोता मारते जाओ। तुम अगर
आननरदसरवरूप न होते, सुखसरवरूप न होते तो अभी अपने आतरमसरवभाव की बात सुनते तुम
इतने पिवतरर, शात और सुखसिरप नही हो सकते थे। तुम पहले से ही ऐसे थे। जयो-जरयों भूल िमटती है
तरयों-तरयों तुमरहें अपने सरवभाव की ांित और मसरती आती है।
जय हो....! पररभु तेरी जय हो....! हे गुरूदेव तुमरहारी जय हो....!

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अनुकररम
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