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Copy of मुकेश जैन की कवितायें
Copy of मुकेश जैन की कवितायें
सिफ़र हो जाओ।
सन्2009
मुके श जैन । गढ़ाकोटा (सागर) में जन्म । 6 दिसम्बर, 1965 सोमवार । मध्यम वर्गीय परिवार ।
पेशा व्यवसाय । बचपन से ही बे-परवाह । सागर विश्वविद्यालय को पिकनिक स्पाट की तरह माना,
(सागर) म. प्र.
भारत
E-mail- jnmg_sgrmp@rediffmail.com
रास्ता भर होती है
मोड़
3
जैसे मोड़ ही न हो
न मक़ान, न दुकानें
लड़कियाँ भी नहीं
उसकी भाषा
और तल्ख़ हो जाती है
वह समाज के मुँह पर
थूंकता है धुआं
03/05/1992
आओ , उस टपरे पर
एक -एक कप चाय
पीलें
गुज़रे दिनों की
गुज़री बातें है
उन बातों के बाद की
बातें कर लें
घर के धक्कों की बातें
बातें
बातें »»»
आया चाय का कप
कह गई
सारी बातें .
5
फिर खटखटाया
मेरे नाम से
अपने चेहरे की
एक एक रेखा
ध्यान से देखी ,
मैं कु छ हूँ
जो कभी
सिकु ड़कर
»»»
आज़ दिखा है
7
समूचा का समूचा .
27/03/1989
वे बड़े हैं
( वे अपना बड़ा होना बताना चाहते हैं )
वे चाहते हैं
हम उन्हें सुबह - शाम नमस्ते करें .
(वे विश्व विद्यालय के छात्र नहीं हैं )
वे बड़े हैं
( समय - समय पर इसकी याद दिलाते हैं ) .
8
21/02/2005
तुम्हारी
गोद में
आओ,
ज़रुरत है मुझे
विश्रान्ति की
अपने सीने पर
08/11/1989
हेलो डियर
तुमने देखी हैं उस लड़की की जाँघें
जो अभी अभी सायकिल से गिरी थी यहाँ
क्या सेक्सी जाँघें थीं .
06/11/1990
10
जब कहा था मैंने
होंठ मौन थे .
शब्दों को भीतर ही
ऎसा क्या था
कु छ बोली थीं ,
कहती थीं
नहीं आ सकती
»»»
डरती हूं ,
कु छ और भी कहते थे :
‘ कहीं गहरे
कु छ चुभता है -
लड़की होना ‘ .
23/04/88
मत करो मत करो
प्यार
सावधान सावधान
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मत तोड़ो मत तोड़ो
मत तोड़ो
इयत्ता ,
खतरा है
अंधेरे में
हो जाओ मर्दखोर
औरतखोर
लेकिन ,
उजाले में
मत छू लेना एक-दूसरे को
यह क्या है ,
मन-मृग बावरा
भटकता है
यह मेरी कमज़ोरी है
पर नहीं जानता
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यह क्या है .
वह इधर से
रोज़
भुनसारे
गुज़रता है
बैलों को हाँकता हुआ .
एक क्षण को वह
बैलों को रोकता है
सामने देखता है
मुस्कराता हुआ
बढ़ जाता है .
सामने
एक घर है
दरवाज़े के दोनों ओर
चबूतरे हैं
छप्पर को ढकतीं
बेलें कु म्हड़ा की ,
गोबर से
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वह कहता है
इन दीवारों में
उसकी गंध
समायी है
जो नया उत्साह देती है
ठीक
खेत की गंध की तरह .
09/12/1987
एक बड़ी दुर्घटना है यह
जब लौटता हूँ
तुम्हारी बेरुखी ही
मुझे तप्त और
वह बार बार
मेरी बाहों से खिसलकर ,
दरवाजे से झाँकती है
इतने-से ही अंतराल
में वह मुझे समूचा
पा लेना चाहती है
पुस्तकें मेज़ पर
खुली ,
पेन का ढक्कन बंद नहीं ,
कु र्सी इस तरह रखी है
कि जरा-सा खटका हो ,
और वह कु र्सी पर हो
हाथ में पेन लिए
08/12/1989
वह एक होशियार लड़का है .
पढ़ रहा है .
वह पास भी हुआ .
»»»
दुकान खोल ली है .
7/02/2005
18
मैंने जब पत्थर छु आ
जानता नहीं पत्थर में कु छ घटित हुआ
पर
मैं सहसा स्पंदित हो उठा
जैसे मैंने तुम्हें छु आ हो .
पत्थर मेरे ताप से तप्त हो उठा होगा
तभी तो मुझ को
ऎसी अनुभूति हुई ,
इस अनुभूति में
मेरा अस्थिर मन
सहसा डोल उठा ,
इस अस्थिरता में
मैं निर्वासित नहीं हुआ था
स्वयं में डू बा था .
मुझको चारों तरफ़
तुम्हारा ही
स्पर्श
बिखरा हुआ दिखता है -
ये अखिल विश्व
सारी की सारी वस्तुएं -
तुम बन गईं .
और जब
मेरा - तुम्हारा
स्पर्श होता
मैं स्वयं से बाहर आ कर
तुम में समाहित हो जाता .
फिर
मैं और तुम -
मैं और तुम नहीं होते :
अखिल विश्व में
फै ल जाते हैं .
19
21/07/1987
मरने से ठीक पहिले मैं याद करना चाहूँगा
- मुके श जैन
18/04/1996
हर क्षण
जीता हूँ
अहसास यही
और
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जीता हूँ .
अन्योन्-प्रभावकारी तेजस्विता
सूक्ष्म-अति-सूक्ष्म-रूपविता.
विशुद्ध सौन्दर्य !
कौन हो तुम ?
मुझे
सब-कु छ
अब अच्छा लगता है
वसन्त को
जब से
तुम
आये .
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रास्ता अनन्त
था प्रतिक्षारत
मैं था
कर्म-हीन-सा
न जाने कब से
-चल पड़ा
अनन्त-यात्रा की ओर
अनवरत्
जब से
»»»
तुम
आये .
आशाओं के
गहरे-सागर,
उनसे
टपकती-सी
राग-द्युति,
और
तेजस्
उसकी
द्युति
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के सामने
सब की आभा
मन्द
मन में तेरे
जिजीविषा
अदम्य साहस
बच्चे उगे
बच्चे उगे
बड़े हुए
12/05/1988
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वह आती है
इन पिण्डिलियों को देख
मन में
कु छ भी घटित
नहीं होता है
समय बितानें.
वह मुहावरेदार भाषा
नहीं जानती /
मिलाने
झिझकि वह
»»»
न जाने क्या दीखा
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कु छ सोचा उसने
को पकड़ा हो
वह खुरदरापन
खरौंच गया
»»»
तुम्हारा उपहास उड़ायेंगे . तुम्हारी
सिफ़र हो जाओ .
27
23/12/1991
कि
काई - भीगीं
पानी में
शैतान एक
जो खींचता है पैर
पकड़ .
खड़ा हूँ
दीवार पकड़े
प्रथम सीड़ी पर
नीचे
पानी
चढ़ने की
कोशिस
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शैतान
हर बार
»»»
खींचता है
छिटकता हूँ
पहुँचता हूँ
अन्तिम सीड़ी पर
पसीने से तरबतर
हाँपता हुआ
शैतान
27/08/1987
कब उतरेगी
चूल्हे की न-आगी भी
शान्त हो चुकी कब की
अम्मा कहती
सुबह जब वह निकला था
गाली बकता
पिटती अम्मा
»»»
बच्चा रोता
पानी पी कर सो जाता है .
30
16/04/1988
क्योंकि
एक ख़ास स्थान पर -
काम करने
»»»
19/11/1988
32
निर्व्यास प्रकाश-पुन्ज है
अकृ तिम
आदिम है .
घनीभूत तेजस्-कण
तीव्र
प्रखर-दीप्त
कि
कृ तिम प्रकाश-रंग
खो जाता है .
प्रेम –
आदिम होता है .
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जिन्दगी ढोना
बनियों की तरफ़
की औकात
अयोग्य होना
»»»
21/03/1992
34
जब आदमी
वह चींखता है
भयानक
( तो )
वह क्यों चींखता है
यह सवाल
बहरहाल
»»»
फ़िलहाल
मेरे पास
कि वह पागल है .
02/12/1988
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कांपता है
कांपता है
कांपता है वह , जब भी
उसको उत्तेजना मिलती है
( शायद वह जानता है
उस पर मेरे
माँ-बाप की सत्ता है ,
वह जकड़ा है )
ब्यौरे सपने के , या
अपने हिलने की
आवाज़ें
तुमको कै से दूं
मेरी जीभ कटी हुई है .
10/11/1989
37
20/01/1996
24/02/1987
लेकिन
अपने में ही -
कभी मुस्कराहट
कभी उदासी
कि
22/11/1987
कू द गये लोग
जल वाष्प बन उड़ गया
कोहरा छा गया
चींखों से .
07/04/1986
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मेरी चप्पल
घिस गई हैं
अब क्या होगा
इसी सोच में बैठा हूँ मैं
अब खरीदनी ही होगी
चप्पल एक जोड़ी
कतर-ब्यौत करके खर्चों में ,
खर्चे , जो
मेरी इज़्ज़त बरकरार रखते हैं
22/06/1989
25/06/1989
अक्षत्
दो अश्रु-कण
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तुम्हें
लेकिन आज
तुम्हारा नाम
मंत्रोच्चार बना
मुझ से उच्चारित ये
कम्पन
16/01/1989
मेरे होने का
दुनिया को,
मैं न होता –
तो भी दुनिया को
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09/01/1989
निस्तब्ध
लम्बी रात
अके लापन
मन चंचल / विकल
तीखी वेदना।
संसय जलता।
तप्त मैं
आखों में
27/10/1988
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सह-अनुभूत किया
तरंगें मन की
तभी तो आनंद-तत्व
निष्पन्न हुआ।
03/06/2008
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किसी बुद्ध से ही
सवाल कर सकता है
रोज
कितने ही आदमियों
की नजरों के सामने से
कोई मुर्दा
किसी आदमी से
यह जरूर कहता है
और आदमी घर आकर
»»»
क्योंकि
05/12/1988
बचपन के
जब भी इच्छा होती
तत्क्षण
मन निर्मल थे।
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संग तुम्हारे
साथ साथियों के ;
मन को कु छ भी
मन निश्छल थे।
बाहर तक
कु छ खेल रचायें
अक्षत्
दो अश्रु-कण
तुम्हें
लेकिन आज
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तुम्हारा नाम
मंत्रोच्चार बना
मुझ से उच्चारित ये
कम्पन
16/01/1989