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मुके श जैन की कवितायें

वे तुम्हारे पास आयेंगे

×× ×और तुम संकोच

से अपने को सिकोड़ने लगोगे। वे

चाहेंगे कि तुम इतने सिकु ड़ जाओ कि

सिफ़र हो जाओ।

सन्‍2009

कविता के उन्माद में

मैं हवाओं को चीरता हुआ चला जाता हूँ

चिकु साई की भाँति


2

मुके श जैन । गढ़ाकोटा (सागर) में जन्म । 6 दिसम्बर, 1965 सोमवार । मध्यम वर्गीय परिवार ।

पेशा व्यवसाय । बचपन से ही बे-परवाह । सागर विश्वविद्यालय को पिकनिक स्पाट की तरह माना,

जहाँ 4 साल मजे किये । एम. काम. पूर्वार्ध्द । सम्प्रति- बनियागिरी ।

पता- सब्जी मण्डी, गढ़ाकोटा

(सागर) म. प्र.

भारत

मोबाइल नं. +919329258031

E-mail- jnmg_sgrmp@rediffmail.com

उसके लिए सड़क

रास्ता भर होती है

मोड़
3

इस तरह मुड़ जाता है

जैसे मोड़ ही न हो

आदमी तो होते ही नहीं हैं

सड़क पर उसके लिए

न मक़ान, न दुकानें

लड़कियाँ भी नहीं

यह पक्का है वह उदास नहीं है

उसकी भाषा

सिगरेट के धुएँ में मिलकर

और तल्ख़ हो जाती है

वह समाज के मुँह पर

थूंकता है धुआं

तुम्हे लगेगा वह प्रदूषण फें कता है .

03/05/1992

आओ , उस टपरे पर

एक -एक कप चाय

पीलें

कु छ बातें हो जायेंगी इसी बहानें

गुज़रे दिनों की

पढ़ने के दिन की बातें तो


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गुज़री बातें है

उन बातों के बाद की

बातें कर लें

घर के धक्कों की बातें

बेतरतीब बालों , दाढ़ी की बातें

जूतों से हवाई चप्पल पर आने की बातें ,

देखकर खूबसूरत लड़कियों को

चाल धीमी न होने की बातें ,

भूल गये आदर्शों की बातें ,

बातें

बातें »»»

कहाँ हो पायी बातें

आया चाय का कप

पतली बेस्वाद चाय

कह गई

सारी बातें .
5

किसी ने दरवाज़ा खटखटाया


6

फिर खटखटाया

नाम लेकर पुकारा मेरा

मैं सुनता रहा आवाज़

लेकिन उठा नहीं

मुझे आश्‍चर्य हुआ

कोई मुझे जानता है

मेरे नाम से

मैंने आइने में

अपने चेहरे की

एक एक रेखा

ध्यान से देखी ,

मैं कु छ हूँ

यह सोचता रहा मैं

शायद , पहली बार होंठ खिल उठे थे

मेरा सारा ज़िस्म

जो कभी

सिकु ड़कर
»»»

नम्बरों में बदल गया था

आज़ दिखा है
7

समूचा का समूचा .

27/03/1989

वे बड़े हैं
( वे अपना बड़ा होना बताना चाहते हैं )
वे चाहते हैं
हम उन्हें सुबह - शाम नमस्ते करें .
(वे विश्‍व विद्यालय के छात्र नहीं हैं )

हमें ध्यान रखना है वे कु पित न हों .


वे पीटेंगे हमें .
( विश्‍व विद्यालय के वरिष्ट छात्रों की तरह नहीं )
मटियामेट कर देंगे .

वे बड़ी सफाई से हफ्ता वसूली करते हैं .

जो उन्हें नमस्ते नहीं करते , उनसे


दुनिया को खतरा है .
वे हमें उनसे मुक्‍ति दिलाते हैं .

वे बड़े हैं
( समय - समय पर इसकी याद दिलाते हैं ) .
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21/02/2005

आओ, मुझे ज़रुरत है

तुम्हारी

सिर रखकर तुम्हारी

गोद में

विस्मृति में डू ब जाऊं !

आओ,

तुम मंथर नदी हो ,

ज़रुरत है मुझे

विश्रान्ति की

अपने सीने पर

मुझे सिर रखने दो .


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08/11/1989

हेलो डियर
तुमने देखी हैं उस लड़की की जाँघें
जो अभी अभी सायकिल से गिरी थी यहाँ
क्या सेक्सी जाँघें थीं .

मेरे तो मुँह में पानी आ गया था


सभी की नज़रें चिपकी थीं उसकी जाँघों से
सभी चर्चा कर रहे थे उसकी स्कार्ट के बारे में :
‘कै सा ज़माना आ गया है छि: . छि: . .‘

06/11/1990
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कु छ बातें करनी हैं तुमसे

आओ बैठें उस मंदिर की सीढ़ी पर

जब कहा था मैंने

तुम्हारा उत्‍तर क्या था

होंठ मौन थे .

शब्दों को भीतर ही

तुमने टुकड़े-टुकड़े कर डाला था

और एक गहरी दृष्टि मुझ पर

ऎसा क्या था

मैं काँप उठा था .

कहा जब मैंने साहस करके

क्या मैं पसंद नहीं

जो तुम दो-बातें करने भी नहीं आते

तब तड़फ उठीं थीं तेरी धुँधली आँखें

कु छ बोली थीं ,

कहती थीं

मैं लड़की हूं

तुमसे दो-बातें करने

नहीं आ सकती

लोग क्या कहेंगे


11

»»»

डरती हूं ,

लेकिन तुम्हारे आँसू

कु छ और भी कहते थे :

‘ कहीं गहरे

कु छ चुभता है -

लड़की होना ‘ .

23/04/88

मत करो मत करो

प्यार

प्यार करना पागलपन है .

सावधान सावधान
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समाज की औक़ात का ध्यान रखो .

मत तोड़ो मत तोड़ो

मत तोड़ो

इयत्‍ता ,

खतरा है

अंधेरे में

हो जाओ मर्दखोर

औरतखोर

इसमें कोई खतरा नहीं

लेकिन ,

उजाले में

मत छू लेना एक-दूसरे को

ऎसा करना विकृ ति है . / 14/12/1989

मैं नहीं जानता /

यह क्या है ,

मन-मृग बावरा

भटकता है

मैं गेर नहीं पाता

मैं नहीं मानता

यह मेरी कमज़ोरी है

पर नहीं जानता
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यह क्या है .

वह इधर से
रोज़
भुनसारे
गुज़रता है
बैलों को हाँकता हुआ .
एक क्षण को वह
बैलों को रोकता है
सामने देखता है
मुस्कराता हुआ
बढ़ जाता है .

सामने
एक घर है
दरवाज़े के दोनों ओर
चबूतरे हैं
छप्पर को ढकतीं
बेलें कु म्हड़ा की ,
गोबर से
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छापी लीपी गयीं


दीवारें जिन्हें
हर साल
वह
अपनी माँ के साथ
छापती , लीपती है .

वह कहता है
इन दीवारों में
उसकी गंध
समायी है
जो नया उत्साह देती है
ठीक
खेत की गंध की तरह .

09/12/1987

मैं किताब खोलता हूँ

चंद पंक्तियाँ ही पढ़ पाता

धुंधला जाते हैं अक्षर

खो जाता हूँ पन्नों में स्मृति के

एक बड़ी दुर्घटना है यह

नहीं, दुर्घटना नहीं

ये सुखद क्षण हैं मेरे

मैं खोता हूँ तुम मैं

तुम होती हो मुझ में

जब लौटता हूँ

हर बार मँजा होता हूँ

ऎसा क्यों होता है


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तुम्हारी बेरुखी ही

(वह नहीं जिसमें

प्यार नहीं होता,

तुम्हारी आँखों में

कूं द पड़ने को तत्पर

प्यार देखा है मैंने) »»»

मुझे तप्त और

व्याकु ल करती है,

कहीं गहरे पैठ तुम मुझमें

मुझको अपने में खीचा करती हो.


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वह मुझे प्यार करती है


बंद कमरे में

मुझे चूमते हुए


उसका ज़िस्म
काँप जाता है

वह बार बार
मेरी बाहों से खिसलकर ,
दरवाजे से झाँकती है

इतने-से ही अंतराल
में वह मुझे समूचा
पा लेना चाहती है

वह मुझे प्यार करती है


बंद कमरे में

पुस्तकें मेज़ पर
खुली ,
पेन का ढक्कन बंद नहीं ,
कु र्सी इस तरह रखी है
कि जरा-सा खटका हो ,
और वह कु र्सी पर हो
हाथ में पेन लिए

बंद कमरे में


प्यार करती है वह .

08/12/1989

निशान्त जैन कालेज में पढ़ रहा है .

उसने प्रथम श्रेणी में स्नातक परीक्षा पास की .

निशान्त जैन एक होशियार लड़का है .

उसके माता - पिता खुश हैं .

निशान्त जैन ने स्नातकोत्तर परीक्षा भी


17

प्रथम श्रेणी में पास की .

वह एक होशियार लड़का है .

उसके माता - पिता खुश है .

अब निशान्त जैन रोज़गार समाचार

पढ़ रहा है .

उसने कई टॆस्ट भी दिये .

वह पास भी हुआ .

उसने साक्षात्कार भी दिये .

निशान्त जैन एक होशियार लड़का है .

अब निशान्त जैन ने परचून की

»»»

दुकान खोल ली है .

निशान्त जैन सचमुच एक होशियार लड़का है .

उसके माता - पिता खुश हैं .

7/02/2005
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मैंने जब पत्थर छु आ
जानता नहीं पत्‍थर में कु छ घटित हुआ
पर
मैं सहसा स्पंदित हो उठा
जैसे मैंने तुम्हें छु आ हो .
पत्‍थर मेरे ताप से तप्‍त हो उठा होगा
तभी तो मुझ को
ऎसी अनुभूति हुई ,
इस अनुभूति में
मेरा अस्थिर मन
सहसा डोल उठा ,
इस अस्थिरता में
मैं निर्वासित नहीं हुआ था
स्वयं में डू बा था .
मुझको चारों तरफ़
तुम्हारा ही
स्पर्श
बिखरा हुआ दिखता है -
ये अखिल विश्‍व
सारी की सारी वस्तुएं -
तुम बन गईं .
और जब
मेरा - तुम्हारा
स्पर्श होता
मैं स्वयं से बाहर आ कर
तुम में समाहित हो जाता .
फिर
मैं और तुम -
मैं और तुम नहीं होते :
अखिल विश्‍व में
फै ल जाते हैं .
19

21/07/1987
मरने से ठीक पहिले मैं याद करना चाहूँगा

वे क्षण जो उस क्षण मधुरतम थे . फिर उस

पीर को धो डालूंगा जो उस क्षण ने दी थी .

- मुके श जैन

18/04/1996

हर क्षण

जीता हूँ

अहसास यही

तुम में रीता हूँ

और
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तुम्हे अपने में

जीता हूँ .

अन्योन्‍-प्रभावकारी तेजस्विता

सूक्ष्म-अति-सूक्ष्म-रूपविता.

विशुद्ध सौन्दर्य !

स्वर्ण-रंग प्रस्फु रिता.

कौन हो तुम ?

क्यों आनंद नि:सृत होता ?

परम रहस्य यही है क्या ?

-तुम को नमन सौन्दर्यता .


21

मुझे

सब-कु छ

अब अच्छा लगता है

वसन्त को

समझने लगा हूँ

महसूस कर सकता हूँ

जब से

तुम

आये .
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रास्ता अनन्त

था प्रतिक्षारत

कदम चूमने मेरे ,

मैं था

कर्म-हीन-सा

न जाने कब से

-चल पड़ा

अनन्त-यात्रा की ओर

अनवरत्‍

जब से

»»»

तुम

आये .

तुम्हारी आँखों में

आशाओं के

गहरे-सागर,

उनसे

टपकती-सी

राग-द्युति,

और

तेजस्‍

उसकी

द्युति
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के सामने

सब की आभा

मन्द

मन में तेरे

जिजीविषा

अदम्य साहस

-निरन्तर गति – क्रमश: .

बच्चे उगे

बच्चे उगे

बड़े हुए

जैसे जंगली पौधे

12/05/1988
24

वह आती है

लकड़ी का गठ्‍ठर लादे

काँछ लगाकर धोती पहनी है उसने

काली काली पिण्डिलियाँ दीखती हैं

इन पिण्डिलियों को देख

मन में

कु छ भी घटित

नहीं होता है

-बस दो बातें होती हैं

समय बितानें.

वह मुहावरेदार भाषा

नहीं जानती /

अर्थ-अनर्थ कर लेती है.

सीदी-सादी भासा कै ती.

मैंने एक दु:साहस किया

अपना हाथ बढ़ा दिया :

मिलाने

झिझकि वह

फिर मेरी आँखों में देखा

»»»
न जाने क्या दीखा
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कु छ सोचा उसने

और हाथ बढ़ा दिया

मुझे ऎसा लगा

कि मैंने किसी छाल दार पेड़

को पकड़ा हो

वह खुरदरापन

खरौंच गया

हथेली लाल हुई .

वे तुम्हारे पास आयेंगे .समझायेंगे .

उनके अर्थों में तुम सामाजिक नहीं

हो . तुम नहीं चलते हो उनके पदचिन्हों

को टटोलते हुए . वे तुम्हें बतायेंगे समाज

के माने . वे तुम्हे भय दिखायेंगे .


26

वे तुम्हे बतायेंगे , तुम विचारों में

जीते हो . विचार व्यवहारिक नहीं

होते . फिर , वे तुम्हे बतायेंगे कि ये

कु ण्ठाओं के बदले हुए रूप हैं . तुम

इसका विरोध करोगे . तर्क दोगे .

वे कहेंगे बेमानी . और हंस देंगे

एक खास अंदाज में .

वे बहुत शक्‍तिशाली हैं . तुमसे भी

अधिक . वे तुम्हें तोड़ने का पूरा

प्रयास करेंगे . वे तुमसे कहेंगे , तुम

पागल हो . सनकी हो . प्रचार करेंगे . वे

»»»
तुम्हारा उपहास उड़ायेंगे . तुम्हारी

बातों पर हँसेंगे . वे तुम्हें इसका

एहसास करायेंगे . वे तुम्हारे चतुर्दिक

एक वृत्त बना लेंगे . गिरधर राठी

की ‘ऊब के अनंत दिन ‘की तरह .

फिर धीरे धीरे तुम्हें उनकी बातों पर

यक़ीन होने लगेगा . और तुम संकोच

से अपने को सिकोड़ने लगोगे . वे

चाहेंगे कि तुम इतने सिकु ड़ जाओ कि

सिफ़र हो जाओ .
27

23/12/1991

एक खण्डित नदी - तालाबनुमा

पानी गंदला - सड़ा हुआ

कि

पैर छु आने से भी डर लगता है ,

सीड़ियाँ - पंजा मात्र आड़ा रखा जा सकता है -

काई - भीगीं

पानी में

शैतान एक

जो खींचता है पैर

पकड़ .

खड़ा हूँ

दीवार पकड़े

प्रथम सीड़ी पर

नीचे

पानी

चढ़ने की

कोशिस
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शैतान

हर बार

»»»
खींचता है

छिटकता हूँ

पहुँचता हूँ

अन्तिम सीड़ी पर

पसीने से तरबतर

हाँपता हुआ

पीछे जब देखता हूँ

शैतान

भागता हूँ भागता हूँ ...

27/08/1987

छोटा बच्चा रोता है

उसको भूख लगी है


29

घंटों चढ़ी पतीली

कब उतरेगी

चूल्हे की न-आगी भी

शान्त हो चुकी कब की

अम्मा , मुन्ने को क्यो भरमाती हो .

अम्मा कहती

आ जाने दो उसका बाबा

वह शायद कु छ गेहूँ लाये

सुबह जब वह निकला था

सट्टे पर बीड़ी देने

मैने उसको जता दिया था

घर में नहीं है इक दाना गेहूँ ,

वह आया नशे में धुत्त

गाली बकता

साली इत्‍ती-सी बीड़ी बनाती

मेरी पूरी भी दारू नहीं आती

पिटती अम्मा

अपना भाग्य कोसा करती

फिर , आधी रात तक

»»»

उसकी ऊँ गलियाँ सूपे पर चलती रहतीं

बच्चा रोता

पानी पी कर सो जाता है .
30

16/04/1988

मुझे ‍टी. व्ही. पर पता चला

कि मैसम बदल चुका है

इसकी दो-बातें दोस्तों से भी की हैं मैंने -

इससे अधिक कु छ नहीं

बागों में खिले फू ल

मुझे आकर्षित नहीं करते

( मेरे पास वक्त नहीं है ! )


31

मुझे आकर्षित करती हैं

सिटी बसों की नम्बर प्लेटें

बस स्टाप पर खड़ा मैं

घूरा करता हूं

सिटी बसों की नम्बर प्लेटों को

क्योंकि

मुझे जाना होता है

एक ख़ास स्थान पर -

काम करने

ख़ास बसों को बदल कर ,

»»»

मेरी आँखों में भय होता है .

19/11/1988
32

प्रेम, शब्द नहीं है

निर्व्यास प्रकाश-पुन्ज है

अकृ तिम

आदिम है .

घनीभूत तेजस्‍-कण

तीव्र

प्रखर-दीप्त

कि

कृ तिम प्रकाश-रंग

खो जाता है .

प्रेम –

आदिम होता है .
33

बनिया होने के माने हैं

चोर और कमीना होना

एक गँवार आदमी होना

जो जिन्दगी जीना नहीं जानता है

खूबसूरत लड़कियाँ बनियों के लिए

नहीं होतीं हैं

और बौद्धिकों के लिए तो बनिया

बात करने के काबिल भी नहीं

बनिया होने के माने हैं

जिन्दगी ढोना

कोई बाप सीधा रुख नहीं करता है

बनियों की तरफ़

क्लर्कों के बाद आती है बनियों

की औकात

बनिया होने के माने हैं

अयोग्य होना

प्रगतिशीलों के लिए अछू त

»»»

मैं बनिया हूं और कविता लिखता हूँ .

21/03/1992
34

जब आदमी

अपनी आदिमता में जीते होते हैं

वह चींखता है

भयानक

( तो )

रात और स्याह हो जाती है ,


35

अपने बंद कमरे में

चादर को अपने चारों ओर

और कसकर लपेट लेता हूं

और स्वस्थ सांस लेने को

मुँह चादर से बाहर निकालने का

साहस नहीं होता ,

वह क्यों चींखता है

यह सवाल

बहरहाल

»»»

मैं रात के अंधेरे में नहीं पूछता

दिन के उजाले में सोचता हूं .

फ़िलहाल

मेरे पास

इस सवाल का कोई ज़वाब नहीं

वह किसके विरुद्ध चींखता है

क्योंकि शायद इसलिए

कि वह पागल है .

02/12/1988
36

मेरी आँखों में


एक सपना है
छिपा-हुआ है
धुन्ध के पीछे

कांपता है
कांपता है
कांपता है वह , जब भी
उसको उत्‍तेजना मिलती है

( शायद वह जानता है
उस पर मेरे
माँ-बाप की सत्ता है ,
वह जकड़ा है )

सपने का कं पना , मुझको


हिला हिला जाता है

ब्यौरे सपने के , या
अपने हिलने की
आवाज़ें
तुमको कै से दूं
मेरी जीभ कटी हुई है .

10/11/1989
37

मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है .

बच्चा खुद को नंगा देखकर खुश होता है .

न - जाने - हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग


रोज़ मरते हैं . लोगों की आँखों में झाँको
तो न - जाना - सा फलसफ़ा एक खौफ़ की
मांनिंद भीतर उतर जाता है . जहाँ बच्चों
की आँखों की नग्नता अँकु राती है .

अखवार पढ़ते हुए अचानक कविता


पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी - सी होती है .
यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा
शुरु होता है .

कविता प्रिया की तरह नहीं आती है .


तग़ादा करने आये बनिया की तरह
एहसास कराती है .

20/01/1996

मैं तुम्हें प्यार नहीं करता


फिर भी दिल में एक अज़ब सी कसक
उठती है
जब अचानक तुम्हारा ज़िक्र आता है ,
अनजाने ही तुम्हें वह सम्मान देने लगा हूँ
जो आज तक किसी लड़की को नहीं दिया

मैं तुम्हें प्यार नहीं करता


फिर भी तुम से मिलना चाहता हूँ
तुम्हारा घर पास ही है
लेकिन पग - दो - पग बढ़ा कर वापिस
लौट आता हूँ
38

इसलिए नहीं कि मैं तुम्हें प्यार नहीं


करता हूँ
फिर भी , नहीं जानता ऎसा क्यों होता है .

मैं तुम्हें प्यार नहीं करता


फिर भी जहाँ तुम्हारे पहुँचने की सम्भावना होती है
मैं वहाँ अवश्य पहुँचता हूँ
और यदि वहाँ तुम नहीं मिलते
तो दिल टू ट - सा जाता है .

24/02/1987

घर पर सभी कहते हैं

तुम देर से उठने लगे हो

मैं आज भी छह बजे उठता हूँ

लेकिन

लेटा रहता हूँ

और सोचता रहता हूँ

तुम्हारे-अपने बारे में

सभी कहते हैं

तुम्हें क्या हो गया है


39

पुकारने पर सुनते नहीं

अपने में ही -

कभी मुस्कराहट

कभी उदासी

मैं नहीं जानता

कि

ऎसा क्यों होता है .

22/11/1987

जलने लगे बदन

अपने ही ताप से , लोंगों के

आवरण राख हुए

आकर्षित हुए झील से

कू द गये लोग

जल वाष्प बन उड़ गया

कोहरा छा गया

कोहरा थरथरा उठा

चींखों से .

07/04/1986
40

मेरी चप्पल
घिस गई हैं

अब क्या होगा
इसी सोच में बैठा हूँ मैं

खीझ-खीझ उठता हूँ मैं


उस पर , जिसने
पहली चप्पल बनाई होगी ,
यदि नहीं बनाता ,
तो यह दिन नहीं देखना पड़ता
मुझको , मेरी सारी चिन्ता चप्पल है

नंगे पैरों कै से चलूं


मेरी भी तो कोई इज़्ज़त है
अब क्या होगा

अब खरीदनी ही होगी
चप्पल एक जोड़ी
कतर-ब्यौत करके खर्चों में ,
खर्चे , जो
मेरी इज़्ज़त बरकरार रखते हैं

22/06/1989

मन का कोना कोना छाना

तुम्ही हर ज़गह थे, मैं न था


41

रक्‍त-कणों में भी खोज़ा था

मैं बिन अब क्या खोना, पाना

तुम मुझ मैं, तो मैं भी हूँगा

शायद मैं अन्ज़ान बना हूँ

या फिर मैं नादान बना हूँ

साथ तुम्हारा, पा ही लूगाँ

क्यों व्याकु ल हूँ मैं को पाने

मैं होगा तो रचना होगी

जो जीवन का सपना होगी

फिर खोना, पाना को माने

मैं प्यार को सुविस्मृत करता

फिर निखार कर अर्पित करता

25/06/1989

आज मैं उद्विग्न हूँ

समर्पित करता हूँ

अक्षत्‍

दो अश्रु-कण
42

तुम्हें

मैं इस योग्य कहाँ था कि

तुम्हें पुकार सकूँ

तुम्हारा नाम लेकर,

लेकिन आज

ध्वनि देता हूँ

तुम्हारा नाम

मंत्रोच्चार बना

मुझ से उच्चारित ये

कम्पन

मुझ में समा रहा है.

16/01/1989

मेरे होने का

मुझे – कोई अर्थ नहीं है,

मैं हूँ – इसलिये हूँ

नहीं होता – तो नहीं होता

अर्थ है , मेरे होने का –

दुनिया को,

मैं न होता –

तो भी दुनिया को
43

अर्थ होता – मेरे न होने का।

मुझे अर्थ है – दुनिया के होने का।

09/01/1989

निस्तब्ध

लम्बी रात

अके लापन

क्षण क्षण लम्बा

मन चंचल / विकल

करवटें बदल बदल

नहीं कटती रात।

तीखी वेदना।

संसय जलता।

तप्त मैं

आखों में

क्षार क्षार धुआं- सा

नहीं गिरता अश्रु जल।

27/10/1988
44

दोस्त! तुमने पत्र लिखा/ मिला

स्याही को माध्यम बनाया नहीं

शायद संकीर्ण हो जाता

कागज कोरा लिखा।

मैंने पढ़ा उसे

सह-अनुभूत किया

न समर्पण था/ न आकांक्षा ही

आनंद तत्व मिला।

उद्वेलित हुई होंगी

तरंगें मन की

तभी तो आनंद-तत्व

निष्पन्न हुआ।

मन में स्पन्दन हुआ/ तरंगित हो उठा

उद्वेलन/ फिर निष्पन्न-आनंद-तत्व

03/06/2008
45

गुजरता हुआ मुर्दा

किसी बुद्ध से ही

सवाल कर सकता है

कि ’आदमी क्यों मरता है’

रोज

कितने ही मुर्दे गुजरते हैं

कितने ही आदमियों

की नजरों के सामने से

कोई मुर्दा

सवाल नहीं करता

किसी आदमी से

कि’आदमी क्यों मरता है’

गुजरता हुआ मुर्दा

यह जरूर कहता है

कि ’आदमी मरता है’

और आदमी घर आकर

»»»

औरत को बाहों में भर

बिस्तर पर चला जाता है

क्योंकि

मुर्दा आदमी से कहता है


46

कि ’आदमी मरता है’।

05/12/1988

कितने अच्छे थे! वे दिन

बचपन के

तुम बिन वे दिन

कहाँ गुजरते थे!

जब भी इच्छा होती

तत्क्षण

पास तुम्हारे आ जाता था

मन निर्मल थे।
47

कितने खेल रचाये थे

संग तुम्हारे

साथ साथियों के ;

मन को कु छ भी

घोंट घोंट खाता नहीं था

मन निश्छल थे।

आज कहाँ कह सकता तुम से

आओ, जरा चलें घूमने

बाहर तक

कु छ खेल रचायें

हम बड़े हुए हैं। 08/01/1989

आज मैं उद्विग्न हूँ

समर्पित करता हूँ

अक्षत्‍

दो अश्रु-कण

तुम्हें

मैं इस योग्य कहाँ था कि

तुम्हें पुकार सकूँ

तुम्हारा नाम लेकर,

लेकिन आज
48

ध्वनि देता हूँ

तुम्हारा नाम

मंत्रोच्चार बना

मुझ से उच्चारित ये

कम्पन

मुझ में समा रहा है.

16/01/1989

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