जनम मरण के चक्र में, सुख-दुख आयें जांय।
मूरख सिर पीटै धुने, रो-रो के चिल्लांय।।
मनसा बाचा कर्मणा, पर पीड़न न होय।
धर्म - प्रेम सद्भावना, जीवन के मग दोय।।
जाति पांत के भेद ने, दए सम्बन्ध मिटाय।
सुख-दुख में कोउ कबहुं, करवै नही सहाय।।
देव अतिथि माता-पिता, का न करै सम्मान।
सकल पदारथ भोग नर,जीवित मृतक समान।।
परहित में कछु न करै, नाहक वक्त गमाय।
धरती पर बोझा बना, जीव अखारत जाय।।
तन मन धन से जीव की, सेवा जिनका कर्म।
ऐसे जन युग-युग अमर, समझ लीजिये मर्म।।
चिन्ता ज्वाल शरीर की, हाड़ मांस खा जाय। ज्यों पानी बिन मछलियां,तड़पतड़प मर जाय।।
मानव में तृष्णा भरी, औ चाहत की चाह।
दिन-दिन दूनी बढ़त है, आसमान सी राह।।
नजर नजर के फेर में,राई दिखत पहार।
जनम मरण के चक्र में, सुख-दुख आयें जांय।
मूरख सिर पीटै धुने, रो-रो के चिल्लांय।।
मनसा बाचा कर्मणा, पर पीड़न न होय।
धर्म - प्रेम सद्भावना, जीवन के मग दोय।।
जाति पांत के भेद ने, दए सम्बन्ध मिटाय।
सुख-दुख में कोउ कबहुं, करवै नही सहाय।।
देव अतिथि माता-पिता, का न करै सम्मान।
सकल पदारथ भोग नर,जीवित मृतक समान।।
परहित में कछु न करै, नाहक वक्त गमाय।
धरती पर बोझा बना, जीव अखारत जाय।।
तन मन धन से जीव की, सेवा जिनका कर्म।
ऐसे जन युग-युग अमर, समझ लीजिये मर्म।।
चिन्ता ज्वाल शरीर की, हाड़ मांस खा जाय। ज्यों पानी बिन मछलियां,तड़पतड़प मर जाय।।
मानव में तृष्णा भरी, औ चाहत की चाह।
दिन-दिन दूनी बढ़त है, आसमान सी राह।।
नजर नजर के फेर में,राई दिखत पहार।
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जनम मरण के चक्र में, सुख-दुख आयें जांय।
मूरख सिर पीटै धुने, रो-रो के चिल्लांय।।
मनसा बाचा कर्मणा, पर पीड़न न होय।
धर्म - प्रेम सद्भावना, जीवन के मग दोय।।
जाति पांत के भेद ने, दए सम्बन्ध मिटाय।
सुख-दुख में कोउ कबहुं, करवै नही सहाय।।
देव अतिथि माता-पिता, का न करै सम्मान।
सकल पदारथ भोग नर,जीवित मृतक समान।।
परहित में कछु न करै, नाहक वक्त गमाय।
धरती पर बोझा बना, जीव अखारत जाय।।
तन मन धन से जीव की, सेवा जिनका कर्म।
ऐसे जन युग-युग अमर, समझ लीजिये मर्म।।
चिन्ता ज्वाल शरीर की, हाड़ मांस खा जाय। ज्यों पानी बिन मछलियां,तड़पतड़प मर जाय।।
मानव में तृष्णा भरी, औ चाहत की चाह।
दिन-दिन दूनी बढ़त है, आसमान सी राह।।
नजर नजर के फेर में,राई दिखत पहार।
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