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पपपपपपपप

पपपपपपप
पपपपपपप

योतोकोईबाबूभाजाउदयभानु लाल के पिरवार मे बीसो ही पाणी थे, कोई ममेरा भाई था, कोई फुफेरा,
था, कोई भतीजा, लेिकन यहा हमे उनसे कोई पयोजन नही, वह अचछे वकील
थे, लकमी पसन थी और कुटुमब के दिरद पािणयो को आशय देना उनका कतवय ही था।
हमारा समबनध तो केवल उनकी दोनो कनयाओं से है, िजनमे बडी का नाम िनमरला और छोटी
का कृषणा था। अभी कल दोनो साथ-साथ गुिडया खेलती थी। िनमरला का पनदहवा साल था,
कृषणा का दसवा, िफर भी उनके सवभाव मे कोई िवशेष अनतर न था। दोनो चंचल, िखलािडन
और सैर-तमाशे पर जान देती थी। दोनो गुिडया का धूमधाम से बयाह करती थी, सदा काम से
जी चुराती थी। मा पुकारती रहती थी, पर दोनो कोठे पर िछपी बैठी रहती थी िक न जाने
िकस काम के िलए बुलाती है। दोनो अपने भाइयो से लडती थी, नौकरो को डाटती थी और
बाजे की आवाज सुनते ही दार पर आकर खडी हो जाती थी पर आज एकाएक एक ऐसी बात
हो गई है, िजसने बडी को बडी और छोटी को छोटी बना िदया है। कृषणा यही है , पर िनमरला
बडी गमभीर, एकानत-िपय और लजजाशील हो गई है। इधर महीनो से बाबू उदयभानुलाल
िनमरला के िववाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मेहनत िठकाने लगी है। बाबू
भालचनद िसनहा के जयेष पुत भुवन मोहन िसनहा से बात पकी हो गई है। वर के िपता ने कह
िदया है िक आपकी खुशी ही दहेज दे, या न दे, मुझे इसकी परवाह नही; हा, बारात मे जो लोग
जाये उनका आदर-सतकार अचछी तरह होना चिहए, िजसमे मेरी और आपकी जग-हंसाई न
हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील, पर संचय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने
किठन समसया थी। इसिलए जब वर के िपता ने सवयं कह िदया िक मुझे दहेज की परवाह
नही, तो मानो उनहे आंखे िमल गई। डरते थे, न जाने िकस-िकस के सामने हाथ फैलाना पडे,
दो-तीन महाजनो को ठीक कर रखा था। उनका अनुमान था िक हाथ रोकने पर भी बीस
हजार से कम खचर न होगे। यह आशासन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाये।
इसकी सूचना ने अजान बिलका को मुंह ढाप कर एक कोने मे िबठा रखा है। उसके
हृदय मे एक िविचत शंका समा गई है, रो-रोम मे एक अजात भय का संचार हो गया है, न जाने
कया होगा। उसके मन मे वे उमंगे नही है, जो युवितयो की आंखो मे ितरछी िचतवन बनकर,
ओंठो पर मधुर हासय बनकर और अंगो मे आलसय बनकर पकट होती है। नही वहा
अिभलाषाएं नही है वहा केवल शंकाएं, िचनताएं और भीर कलपनाएं है। यौवन का अभी तक
पूणर पकाश नही हुआ है।
कृषणा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नही जानती। जानती है, बहन को अचछे-अचछे
गहने िमलेगे, दार पर बाजे बजेगे, मेहमान आयेगे, नाच होगा-यह जानकर पसन है और यह भी
जानती है िक बहन सबके गले िमलकर रोयेगी, यहा से रो-धोकर िवदा हो जायेगी, मै अकेली
रह जाऊंगी- यह जानकर दु :खी है, पर यह नही जानती िक यह इसिलए हो रहा है, माताजी
और िपताजी कयो बहन को इस घर से िनकालने को इतने उतसुक हो रहे है। बहन ने तो
िकसी को कुछ नही कहा, िकसी से लडाई नही की, कया इसी तरह एक िदन मुझे भी ये लोग
िनकाल देगे? मै भी इसी तरह कोने मे बैठकर रोऊंगी और िकसी को मुझ पर दया न आयेगी?
इसिलए वह भयभीत भी है।
संधया का समय था, िनमरला छत पर जानकर अकेली बैठी आकाश की और तृिषत नेतो
से ताक रही थी। ऐसा मन होता था पंख होते, तो वह उड जाती और इन सारे झंझटो से
छू ट जाती। इस समय बहुधा दोनो बहने कही सैर करने जाया करती थी। बगघी खाली न
होती, तो बगीचे मे ही टहला करती, इसिलए कृषणा उसे खोजती िफरती थी, जब कही न पाया,
तो छत पर आई और उसे देखते ही हंसकर बोली-तुम यहा आकर िछपी बैठी हो और मै तुमहे
ढू ंढती िफरती हूं। चलो, बगघी तैयार करा आयी हूं।
िनमरला- ने उदासीन भाव से कहा-तू जा, मै न जाऊंगी।
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कृषणा-नही मेरी अचछी दीदी, आज जरर चलो। देखो, कैसी ठणडी-ठणडी हवा चल रही
है।
िनमरला-मेरा मन नही चाहता, तू चली जा।
कृषणा की आंखे डबडबा आई। कापती हुई आवाज से बोली- आज तुम कयो नही चलती
मुझसे कयो नही बोलती कयो इधर-उधर िछपी-िछपी िफरती हो? मेरा जी अकेले बैठ-े बैठे
घबडाता है। तुम न चलोगी, तो मै भी न जाऊगी। यही तुमहारे साथ बैठी रहूंगी।
िनमरला-और जब मै चली जाऊंगी तब कया करेगी? तब िकसके साथ खेलेगी और
िकसके साथ घूमने जायेगी, बता?
कृषणा-मै भी तुमहारे साथ चलूंगी। अकेले मुझसे यहा न रहा जायेगा।
िनमरला मुसकराकर बोली-तुझे अममा न जाने देगी।
कृषणा-तो मै भी तुमहे न जाने दंगू ी। तुम अममा से कह कयो नही देती िक मै न जाउंगी।
िनमरला- कह तो रही हूं, कोई सुनता है!
कृषणा-तो कया यह तुमहारा घर नही है?
िनमरला-नही, मेरा घर होता, तो कोई कयो जबदरसती िनकाल देता?
कृषणा-इसी तरह िकसी िदन मै भी िनकाल दी जाऊंगी?
िनमरला-और नही कया तू बैठी रहेगी! हम लडिकया है, हमारा घर कही नही होता।
कृषणा-चनदर भी िनकाल िदया जायेगा?
िनमरला-चनदर तो लडका है, उसे कौन िनकालेगा?
कृषणा-तो लडिकया बहुत खराब होती होगी?
िनमरला-खराब न होती, तो घर से भगाई कयो जाती?
कृषणा-चनदर इतना बदमाश है, उसे कोई नही भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी
नही करती।
एकाएक चनदर धम-धम करता हुआ छत पर आ पहंच ु ा और िनमरला को देखकर बोला-
अचछा आप यहा बैठी है। ओहो! अब तो बाजे बजेगे, दीदी दुलन बनेगी, पालकी पर चढेगी,
ओहो! ओहो!
चनदर का पूरा नाम चनदभानु िसनहा था। िनमरला से तीन साल छोटा और कृषणा से दो
साल बडा।
िनमरला-चनदर, मुझे िचढाओगे तो अभी जाकर अममा से कह दंगू ी।
चनद-तो िचढती कयो हो तुम भी बाजे सुनना। ओ हो-हो! अब आप दुलन बनेगी। कयो
िकशनी, तू बाजे सुनेगी न वैसे बाजे तूने कभी न सुने होगे।
कृषणा-कया बैणड से भी अचछे होगे?
चनद-हा-हा, बैणड से भी अचछे, हजार गुने अचछे, लाख गुने अचछे। तुम जानो कया एक
बैणड सुन िलया, तो समझने लगी िक उससे अचछे बाजे नही होते। बाजे बजानेवाले लाल-लाल
विदरया और काली-काली टोिपया पहने होगे। ऐसे खबूसूरत मालूम होगे िक तुमसे कया कहूं
आितशबािजया भी होगी, हवाइया आसमान मे उड जायेगी और वहा तारो मे लगेगी तो लाल,
पीले, हरे, नीले तारे टू ट-टू टकर िगरेगे। बडा बजा आयेगा।
कृषणा-और कया-कया होगा चनदन, बता दे मेरे भैया?
चनद-मेरे साथ घूमने चल, तो रासते मे सारी बाते बता दं। ू ऐसे-ऐसे तमाशे होगे िक
देखकर तेरी आंखे खुल जायेगी। हवा मे उडती हुई पिरया होगी, सचमुच की पिरया।
कृषणा-अचछा चलो, लेिकन न बताओगे, तो मारंगी।
चनदभानू और कृषणा चले गए, पर िनमरला अकेली बैठी रह गई। कृषणा के चले जाने से
इस समय उसे बडा कोभ हुआ। कृषणा, िजसे वह पाणो से भी अिधक पयार करती थी, आज
इतनी िनठुर हो गई। अकेली छोडकर चली गई। बात कोई न थी, लेिकन दु :खी हृदय दुखती
हुई आंख है, िजसमे हवा से भी पीडा होती है। िनमरला बडी देर तक बैठी रोती रही। भाई-

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बहन, माता-िपता, सभी इसी भाित मुझे भूल जायेगे, सबकी आंखे िफर जायेगी, िफर शायद इनहे
देखने को भी तरस जाऊं।
बाग मे फूल िखले हुए थे। मीठी-मीठी सुगनध आ रही थी। चैत की शीतल मनद समीर
चल रही थी। आकाश मे तारे िछटके हुए थे। िनमरला इनही शोकमय िवचारो मे पडी-पडी सो
गई और आंख लगते ही उसका मन सवप-देश मे, िवचरने लगा। कया देखती है िक सामने एक
नदी लहरे मार रही है और वह नदी के िकनारे नाव की बाठ देख रही है। सनधया का समय
है। अंधेरा िकसी भयंकर जनतु की भाित बढता चला आता है। वह घोर िचनता मे पडी हुई है
िक कैसे यह नदी पार होगी, कैसे पहंुचूंगी! रो रही है िक कही रात न हो जाये, नही तो मै
अकेली यहा कैसे रहूंगी। एकाएक उसे एक सुनदर नौका घाट की ओर आती िदखाई देती है।
वह खुशी से उछल पडती है और जयोही नाव घाट पर आती है, वह उस पर चढने के िलए
बढती है, लेिकन जयोही नाव के पटरे पर पैर रखना चाहती है, उसका मललाह बोल उठता है-
तेरे िलए यहा जगह नही है! वह मललाह की खुशामद करती है, उसके पैरो पडती है, रोती है,
लेिकन वह यह कहे जाता है, तेरे िलए यहा जगह नही है। एक कण मे नाव खुल जाती है। वह
िचलला-िचललाकर रोने लगती है। नदी के िनजरन तट पर रात भर कैसे रहेगी, यह सोच वह
नदी मे कूद कर उस नाव को पकडना चाहती है िक इतने मे कही से आवाज आती है-ठहरो,
ठहरो, नदी गहरी है, डू ब जाओगी। वह नाव तुमहारे िलए नही है, मै आता हूं, मेरी नाव मे बैठ
जाओ। मै उस पार पहंच ु ा दंगू ा। वह भयभीत होकर इधर-उधर देखती है िक यह आवाज कहा
से आई? थोडी देर के बाद एक छोटी-सी डोगी आती िदखाई देती है। उसमे न पाल है, न
पतवार और न मसतूल। पेदा फटा हुआ है, तखते टू टे हुए, नाव मे पानी भरा हुआ है और एक
आदमी उसमे से पानी उलीच रहा है। वह उससे कहती है, यह तो टू टी हईु है, यह कैसे पार
लगेगी? मललाह कहता है- तुमहारे िलए यही भेजी गई है, आकर बैठ जाओ! वह एक कण सोचती
है- इसमे बैठूं या न बैठूं? अनत मे वह िनशय करती है- बैठ जाऊं। यहा अकेली पडी रहने से
नाव मे बैठ जाना िफर भी अचछा है। िकसी भयंकर जनतु के पेट मे जाने से तो यही अचछा है
िक नदी मे डू ब जाऊं। कौन जाने , नाव पार पहंुच ही जाये। यह सोचकर वह पाणो की मुटी मे
िलए हुए नाव पर बैठ जाती है। कुछ देर तक नाव डगमगाती हुई चलती है , लेिकन पितकण
उसमे पानी भरता जाता है। वह भी मललाह के साथ दोनो हाथो से पानी उलीचने लगती है।
यहा तक िक उनके हाथ रह जाते है, पर पानी बढता ही चला जाता है, आिखर नाव चकर
खाने लगती है, मालूम होती है- अब डू बी, अब डू बी। तब वह िकसी अदृशय सहारे के िलए
दोनो हाथ फैलाती है, नाव नीचे जाती है और उसके पैर उखड जाते है। वह जोर से िचललाई
और िचललाते ही उसकी आंखे खुल गई। देखा, तो माता सामने खडी उसका कनधा पकडकर
िहला रही थी।

पप

बा बू उदयभानुलाल का मकान बाजार बना हुआ है। बरामदे मे सुनार के हथौडे और कमरे मे
दजी की सुईया चल रही है। सामने नीम के नीचे बढई चारपाइया बना रहा है। खपरैल
मे हलवाई के िलए भटा खोदा गया है। मेहमानो के िलए अलग एक मकान ठीक िकया गया
है। यह पबनध िकया जा रहा है िक हरेक मेहमान के िलए एक-एक चारपाई, एक-एक कुसी
और एक-एक मेज हो। हर तीन मेहमानो के िलए एक-एक कहार रखने की तजवीज हो रही
है। अभी बारात आने मे एक महीने की देर है, लेिकन तैयािरया अभी से हो रही है। बाराितयो
का ऐसा सतकार िकया जाये िक िकसी को जबान िहलाने का मौका न िमले। वे लोग भी याद
करे िक िकसी के यहा बारात मे गये थे। पूरा मकान बतरनो से भरा हुआ है। चाय के सेट है ,
नाशते की तशतिरया, थाल, लोटे, िगलास। जो लोग िनतय खाट पर पडे हुका पीते रहते थे,
बडी ततपरता से काम मे लगे हुए है। अपनी उपयोिगता िसद करने का ऐसा अचछा अवसर

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उनहे िफर बहुत िदनो के बाद िमलेगा। जहा एक आदमी को जाना होता है , पाच दौडते है।
काम कम होता है, हुललड अिधक। जरा-जरा सी बात पर घणटो तकर-िवतकर होता है और
अनत मे वकील साहब को आकर िनणरय करना पडता है। एक कहता है, यह घी खराब है,
दसू रा कहता है, इससे अचछा बाजार मे िमल जाये तो टाग की राह से िनकल जाऊं। तीसरा
कहता है, इसमे तो हीक आती है। चौथा कहता है, तुमहारी नाक ही सड गई है, तुम कया जानो
घी िकसे कहते है। जब से यहा आये हो, घी िमलने लगा है, नही तो घी के दशरन भी न होते
थे! इस पर तकरार बढ जाती है और वकील साहब को झगडा चुकाना पडता है।
रात के नौ बजे थे। उदयभानुलाल अनदर बैठे हुए खचर का तखमीना लगा रहे थे। वह
पाय: रोज ही तखमीना लगते थे पर रोज ही उसमे कुछ-न-कुछ पिरवतरन और पिरवधरन करना
पडता था। सामने कलयाणी भौहे िसकोडे हुए खडी थी। बाबू साहब ने बडी देर के बाद िसर
उठाया और बोले-दस हजार से कम नही होता, बिलक शायद और बढ जाये।
कलयाणी-दस िदन मे पाच से दस हजार हुए। एक महीने मे तो शायद एक लाख नौबत
आ जाये।
उदयभानु-कया करं, जग हंसाई भी तो अचछी नही लगती। कोई िशकायत हुई तो लोग
कहेगे, नाम बडे दशरन थोडे। िफर जब वह मुझसे दहेज एक पाई नही लेते तो मेरा भी कतरवय
है िक मेहमानो के आदर-सतकार मे कोई बात उठा न रखूं।
कलयाणी- जब से बहा ने सृिष रची, तब से आज तक कभी बाराितयो को कोई पसन
नही रख सकता। उनहे दोष िनकालने और िननदा करने का कोई-न-कोई अवसर िमल ही
जाता है। िजसे अपने घर सूखी रोिटया भी मयससर नही वह भी बारात मे जाकर तानाशाह
बन बैठता है। तेल खुशबूदार नही, साबुन टके सेर का जाने कहा से बटोर लाये, कहार बात
नही सुनते, लालटेने धुआं देती है, कुिसरयो मे खटमल है, चारपाइया ढीली है, जनवासे की जगह
हवादार नही। ऐसी-ऐसी हजारो िशकायते होती रहती है। उनहे आप कहा तक रोिकयेगा?
अगर यह मौका न िमला, तो और कोई ऐब िनकाल िलये जायेगे। भई, यह तेल तो रंिडयो के
लगाने लायक है, हमे तो सादा तेल चािहए। जनाब ने यह साबुन नही भेजा है, अपनी अमीरी
की शान िदखाई है, मानो हमने साबुन देखा ही नही। ये कहार नही यमदत ू है, जब देिखये िसर
पर सवार! लालटेने ऐसी भेजी है िक आंखे चमकने लगती है, अगर दस-पाच िदन इस रोशनी
मे बैठना पडे तो आंखे फूट जाएं। जनवासा कया है, अभागे का भागय है, िजस पर चारो तरफ
से झोके आते रहते है। मै तो िफर यही कहूंगी िक बारितयो के नखरो का िवचार ही छोड दो।
उदयभानु- तो आिखर तुम मुझे कया करने को कहती हो?
कलयाणी-कह तो रही हूं, पका इरादा कर लो िक मै पाच हजार से अिधक न खचर
करंगा। घर मे तो टका है नही, कजर ही का भरोसा ठहरा, तो इतना कजर कयो ले िक िजनदगी
मे अदा न हो। आिखर मेरे और बचचे भी तो है, उनके िलए भी तो कुछ चािहए।
उदयभानु- तो आज मै मरा जाता हूं?
कलयाणी- जीने -मरने का हाल कोई नही जानता।
कलयाणी- इसमे िबगडने की तो कोई बात नही। मरना एक िदन सभी को है। कोई
यहा अमर होकर थोडे ही आया है। आंखे बनद कर लेने से तो होने -वाली बात न टलेगी। रोज
आंखो देखती हूं, बाप का देहानत हो जाता है, उसके बचचे गली-गली ठोकरे खाते िफरते है।
आदमी ऐसा काम ही कयो करे?
उदयभानु न जलकर कहा- जो अब समझ लूं िक मेरे मरने के िदन िनकट आ गये, यही
तुमहारी भिवषयवाणी है! सुहाग से िसतयो का जी ऊबते नही सुना था, आज यह नई बात मालूम
हुई। रंडापे मे भी कोई सुख होगा ही!
कलयाणी-तुमसे दुिनया की कोई भी बात कही जाती है, तो जहर उगलने लगते हो।
इसिलए न िक जानते हो, इसे कही िटकना नही है, मेरी ही रोिटयो पर पडी हुई है या और
कुछ! जहा कोई बात कही, बस िसर हो गये, मानो मै घर की लौडी हूं, मेरा केवल रोटी और

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कपडे का नाता है। िजतना ही मै दबती हूं, तुम और भी दबाते हो। मुफतखोर माल उडाये,
कोई मुंह न खोले, शराब-कबाब मे रपये लुटे, कोई जबान न िहलाये। वे सारे काटे मेरे बचचो
ही के िलए तो बोये जा रहे है।
उदयभानु लाल- तो मै कया तुमहारा गुलाम हूं?
कलयाणी- तो कया मै तुमहारी लौडी हूं?
उदयभानु लाल- ऐसे मदर और होगे, जो औरतो के इशारो पर नाचते है।
कलयाणी- तो ऐसी िसतयो भी होगी, जो मदों की जूितया सहा करती है।
उदयभानु लाल- मै कमाकर लाता हूं, जैसे चाहूं खचर कर सकता हूं। िकसी को बोलने
का अिधकार नही।
कलयाणी- तो आप अपना घर संभिलये! ऐसे घर को मेरा दरू ही से सलाम है, जहा मेरी
कोई पूछ नही घर मे तुमहारा िजतना अिधकार है, उतना ही मेरा भी। इससे जौ भर भी कम
नही। अगर तुम अपने मन के राजा हो, तो मै भी अपने मन को रानी हूं। तुमहारा घर तुमहे
मुबारक रहे, मेरे िलए पेट की रोिटयो की कमी नही है। तुमहारे बचचे है, मारो या िजलाओ। न
आंखो से देखूंगी, न पीडा होगी। आंखे फूटी, पीर गई!
उदयभानु- कया तुम समझती हो िक तुम न संभालेगी तो मेरा घर ही न संभलेगा? मै
अकेले ऐसे-ऐसे दस घर संभाल सकता हूं।
कलयाणी-कौन? अगर ‘आज के महीने िदन िमटी मे न िमल जाये, तो कहना कोई
कहती थी!
यह कहते-कहते कलयाणी का चेहरा तमतमा उठा, वह झमककर उठी और कमरे के
दार की ओर चली। वकील साहब मुकदमे मे तो खूब मीन-मेख िनकालते थे, लेिकन िसतयो के
सवभाव का उनहे कुछ यो ही-सा जान था। यही एक ऐसी िवदा है, िजसमे आदमी बूढा होने पर
भी कोरा रह जाता है। अगर वे अब भी नरम पड जाते और कलयाणी का हाथ पकडकर िबठा
लेते, तो शायद वह रक जाती, लेिकन आपसे यह तो हो न सका, उलटे चलते-चलते एक और
चरका िदया।
बोल-मैके का घमणड होगा?
कलयाणी ने दारा पर रक कर पित की ओर लाल-लाल नेतो से देखा और िबफरकर
बोल- मैके वाले मेरे तकदीर के साथी नही है और न मै इतनी नीच हूं िक उनकी रोिटयो पर
जा पडू ं।
उदयभानु-तब कहा जा रही हो?
कलयाणी-तुम यह पूछने वाले कौन होते हो? ईशर की सृिष मे असंखय पािपयो के िलए
जगह है, कया मेरे ही िलए जगह नही है?
यह कहकर कलयाणी कमरे के बाहर िनकल गई। आंगन मे आकर उसने एक बार
आकाश की ओर देखा, मानो तारागण को साकी दे रही है िक मै इस घर मे िकतनी िनदरयता से
िनकाली जा रही हूं। रात के गयारह बज गये थे। घर मे सनाटा छा गया था, दोनो बेटो की
चारपाई उसी के कमरे मे रहती थी। वह अपने कमरे मे आई, देखा चनदभानु सोया है, सबसे
छोटा सूयरभानु चारपाई पर उठ बैठा है। माता को देखते ही वह बोला-तुम तहा दई ती अममा?
कलयाणी दरू ही से खडे-खडे बोली- कही तो नही बेटा, तुमहारे बाबूजी के पास गई
थी।
सूयर-तुम तली दई, मुधे अतेले दर लदता था। तुम कयो तली दई ती, बताओ?
यह कहकर बचचे ने गोद मे चढने के िलए दोनो हाथ फैला िदये। कलयाणी अब अपने
को न रोक सकी। मातृ-सनेह के सुधा-पवाह से उसका संतपत हृदय पिरपलािवत हो गया।
हृदय के कोमल पौधे, जो कोध के ताप से मुरझा गये थे, िफर हरे हो गये। आंखे सजल हो
गई। उसने बचचे को गोद मे उठा िलया और छाती से लगाकर बोली-तुमने पुकार कयो न
िलया, बेटा?

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सूयर-पुतालता तो ता, तुम थुनती न ती, बताओ अब तो कबी न दाओगी।
कलयाणी-नही भैया, अब नही जाऊंगी।
यह कहकर कलयाणी सूयरभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। मा के हृदय से िलपटते
ही बालक िन:शंक होकर सो गया, कलयाणी के मन मे संकलप-िवकलप होने लगे, पित की बाते
याद आती तो मन होता-घर को ितलाजिल देकर चली जाऊं, लेिकन बचचो का मुंह देखती, तो
वासलय से िचत गदगद हो जाता। बचचो को िकस पर छोडकर जाऊं? मेरे इन लालो को कौन
पालेगा, ये िकसके होकर रहेगे? कौन पात:काल इनहे दध ू और हलवा िखलायेगा, कौन इनकी
नीद सोयेगा, इनकी नीद जागेगा? बेचारे कौडी के तीन हो जायेगे। नही पयारो, मै तुमहे छोडकर
नही जाऊंगी। तुमहारे िलए सब कुछ सह लूंगी। िनरादर-अपमान, जली-कटी, खोटी-खरी,
घुडकी-िझडकी सब तुमहारे िलए सहूंगी।
कलयाणी तो बचचे को लेकर लेटी, पर बाबू साहब को नीद न आई उनहे चोट करनेवाली
बाते बडी मुिशकल से भूलती थी। उफ, यह िमजाज! मानो मै ही इनकी सती हूं। बात मुंह से
िनकालनी मुिशकल है। अब मै इनका गुलाम होकर रहूं। घर मे अकेली यह रहे और बाकी
िजतने अपने बेगाने है, सब िनकाल िदये जाये। जला करती है। मनाती है िक यह िकसी तरह
मरे, तो मै अकेली आराम करं। िदल की बात मुंह से िनकल ही आती है, चाहे कोई िकतना ही
िछपाये। कई िदन से देख रहा हूं ऐसी ही जली-कटी सुनाया करती है। मैके का घमणड होगा,
लेिकन वहा कोई भी न पूछेगा, अभी सब आवभगत करते है। जब जाकर िसर पड जायेगी तो
आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। रोती हुई जायेगी। वाह रे घमणड! सोचती है-मै ही यह
गृहसथी चलाती हूं। अभी चार िदन को कही चला जाऊं, तो मालूम हो जायेगा, सारी शेखी
िकरिकरी हो जायेगा। एक बार इनका घमणड तोड ही दं। ू जरा वैधवय का मजा भी चखा दं। ू

न जाने इनकी िहममत कैसे पडती है िक मुझ यो कोसने लगत है। मालूम होता है , पेम इनहे छू
नही गया या समझती है, यह घर से इतना िचमटा हुआ है िक इसे चाहे िजतना कोसूं, टलने
का नाम न लेगा। यही बात है, पर यहा संसार से िचमटनेवाले जीव नही है! जहनुम मे जाये
यह घर, जहा ऐसे पािणयो से पाला पडे। घर है या नरक? आदमी बाहर से थका-मादा आता है,
तो उसे घर मे आराम िमलता है। यहा आराम के बदले कोसने सुनने पडते है। मेरी मृतयु के
िलए वरत रखे जाते है। यह है पचीस वषर के दामपतय जीवन का अनत! बस, चल ही दं। ू जब
देख लूंगा इनका सारा घमणड धूल मे िमल गया और िमजाज ठणडा हो गया, तो लौट आऊंगा।
चार-पाच िदन काफी होगे। लो, तुम भी याद करोगी िकसी से पाला पडा था।
यही सोचते हुए बाबू साहब उठे, रेशमी चादर गले मे डाली, कुछ रपये िलये, अपना
काडर िनकालकर दस ू रे कुते की जेब मे रखा, छडी उठाई और चुपके से बाहर िनकले। सब
नौकर नीद मे मसत थे। कुता आहट पाकर चौक पडा और उनके साथ हो िलया।
पर यह कौन जानता था िक यह सारी लीला िविध के हाथो रची जा रही है। जीवन-
रंगशाला का वह िनदरय सूतधार िकसी अगम गुपत सथान पर बैठा हुआ अपनी जिटल कूर
कीडा िदखा रहा है। यह कौन जानता था िक नकल असल होने जा रही है, अिभनय सतय का
रप गहण करने वाला है।
िनशा ने इनदू को परासत करके अपना सामाजय सथािपत कर िलया था। उसकी
पैशािचक सेना ने पकृित पर आतंक जमा रखा था। सदवृितया मुंह िछपाये पडी थी और
कुवृितया िवजय-गवर से इठलाती िफरती थी। वन मे वनयजनतु िशकार की खोज मे िवचार रहे
थे और नगरो मे नर-िपशाच गिलयो मे मंडराते िफरते थे।
बाबू उदयभानुलाल लपके हुए गंगा की ओर चले जा रहे थे। उनहोने अपना कुता घाट
के िकनारे रखकर पाच िदन के िलए िमजापुर चले जाने का िनशय िकया था। उनके कपडे
देखकर लोगो को डू ब जाने का िवशास हो जायेगा, काडर कुते की जेब मे था। पता लगाने मे
कोई िदकत न हो सकती थी। दम-के-दम मे सारे शहर मे खबर मशहूर हो जायेगी। आठ
बजते-बजते तो मेरे दार पर सारा शहर जमा हो जायेगा, तब देख,ूं देवी जी कया करती है?

7
यही सोचते हुए बाबू साहब गिलयो मे चले जा रहे थे, सहसा उनहे अपने पीछे िकसी
दसू रे आदमी के आने की आहट िमली, समझे कोई होगा। आगे बढे, लेिकन िजस गली मे वह
मुडते उसी तरफ यह आदमी भी मुडता था। तब बाबू साहब को आशंका हुई िक यह आदमी
मेरा पीछा कर रहा है। ऐसा आभास हुआ िक इसकी नीयत साफ नही है। उनहोने तुरनत जेबी
लालटेन िनकाली और उसके पकाश मे उस आदमी को देखा। एक बिरषष मनुषय कनधे पर
लाठी रखे चला आता था। बाबू साहब उसे देखते ही चौक पडे। यह शहर का छटा हुआ
बदमाश था। तीन साल पहले उस पर डाके का अिभयोग चला था। उदयभानु ने उस मुकदमे
मे सरकार की ओर से पैरवी की थी और इस बदमाश को तीन साल की सजा िदलाई थी।
सभी से वह इनके खून का पयासा हो रहा था। कल ही वह छू टकर आया था। आज दैवात्
साहब अकेले रात को िदखाई िदये, तो उसने सोचा यह इनसे दाव चुकाने का अचछा मौका
है। ऐसा मौका शायद ही िफर कभी िमले। तुरनत पीछे हो िलया और वार करने की घात ही मे
था िक बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलाई। बदमाश जरा िठठककर बोला-कयो बाबूजी
पहचानते हो? मै हूं मतई।
बाबू साहब ने डपटकर कहा- तुम मेरे िपछे-िपछे कयो आरहे हो?
मतई- कयो, िकसी को रासता चलने की मनाही है? यह गली तुमहारे बाप की है?
बाबू साहब जवानी मे कुशती लडे थे, अब भी हृष-पुष आदमी थे। िदल के भी कचचे
न थे। छडी संभालकर बोले-अभी शायद मन नही भरा। अबकी सात साल को जाओगे।
मतई-मै सात साल को जाऊंगा या चौदह साल को, पर तुमहे िजदा न छोडू ंगा। हा,
अगर तुम मेरे पैरो पर िगरकर कसम खाओ िक अब िकसी को सजा न कराऊंगा, तो छोड दं। ू
बोलो मंजूर है?
उदयभानु-तेरी शामत तो नही आई?
मतई-शामत मेरी नही आई, तुमहारी आई है। बोलो खाते हो कसम-एक!
उदयभानु-तुम हटते हो िक मै पुिलसमैन को बुलाऊं।
मतई-दो!
उदयभानु-(गरजकर) हट जा बादशाह, सामने से!
मतई-तीन!
मुंह से ‘तीन’ शबद िनकालते ही बाबू साहब के िसर पर लाठी का ऐसा तुला हाथ पडा
िक वह अचेत होकर जमीन पर िगर पडे। मुंह से केवल इतना ही िनकला-हाय! मार डाला!
मतई ने समीप आकर देखा, तो िसर फट गया था और खून की घार िनकल रही थी।
नाडी का कही पता न था। समझ गया िक काम तमाम हो गया। उसने कलाई से सोने की
घडी खोल ली, कुते से सोने के बटन िनकाल िलये, उंगली से अंगूठी उतारी और अपनी राह
चला गया, मानो कुछ हुआ ही नही। हा, इतनी दया की िक लाश रासते से घसीटकर िकनारे
डाल दी। हाय, बेचारे कया सोचकर चले थे, कया हो गया! जीवन, तुमसे जयादा असार भी
दुिनया मे कोई वसतु है? कया वह उस दीपक की भाित ही कणभंगुर नही है, जो हवा के एक
झोके से बुझ जाता है! पानी के एक बुलबुले को देखते हो, लेिकन उसे टू टते भी कुछ देर
लगती है, जीवन मे उतना सार भी नही। सास का भरोसा ही कया और इसी नशरता पर हम
अिभलाषाओं के िकतने िवशाल भवन बनाते है! नही जानते, नीचे जानेवाली सास ऊपर आयेगी
या नही, पर सोचते इतनी दरू की है, मानो हम अमर है।

पपप

िव वाह का िवलाप और अनाथो का रोना सुनाकर हम पाठको का िदल न दुखायेगे। िजसके


ऊपर पडती है, वह रोता है, िवलाप करता है, पछाडे खाता है। यह कोई नयी बात नही।
हा, अगर आप चाहे तो कलयाणी की उस घोर मानिसक यातना का अनुमान कर सकते है, जो

8
उसे इस िवचार से हो रही थी िक मै ही अपने पाणाधार की घाितका हूं। वे वाकय जो कोध के
आवेश मे उसके असंयत मुख से िनकले थे, अब उसके हृदय को वाणो की भाित छेद रहे थे।
अगर पित ने उसकी गोद मे कराह-कराहकर पाण-तयाग िदए होते, तो उसे संतोष होता िक मैने
उनके पित अपने कतरवय का पालन िकया। शोकाकुल हृदय को इससे जयादा सानतवना और
िकसी बात से नही होती। उसे इस िवचार से िकतना संतोष होता िक मेरे सवामी मुझसे पसन
गये, अिनतम समय तक उनके हृदय मे मेरा पेम बना रहा। कलयाणी को यह सनतोष न था।
वह सोचती थी-हा! मेरी पचीस बरस की तपसया िनषफल हो गई। मै अनत समय अपने
पाणपित के पेम के वंिचत हो गयी। अगर मैने उनहे ऐसे कठोर शबद न कहे होते, तो वह
कदािप रात को घर से न जाते।न जाने उनके मन मे कया-कया िवचार आये हो? उनके
मनोभावो की कलपना करके और अपने अपराध को बढा-बढाकर वह आठो पहर कुढती रहती
थी। िजन बचचो पर वह पाण देती थी, अब उनकी सूरत से िचढती। इनही के कारण मुझे
अपने सवामी से रार मोल लेनी पडी। यही मेरे शतु है। जहा आठो पहर कचहरी-सी लगी
रहती थी, वहा अब खाक उडती है। वह मेला ही उठ गया। जब िखलानेवाला ही न रहा, तो
खानेवाले कैसे पडे रहते। धीरे-धीरे एक महीने के अनदर सभी भाजे-भतीजे िबदा हो गये।
िजनका दावा था िक हम पानी की जगह खून बहानेवालो मे है, वे ऐसा सरपट भागे िक पीछे
िफरकर भी न देखा। दुिनया ही दस ू री हो गयी। िजन बचचो को देखकर पयार करने को जी
चाहता था उनके चेहरे पर अब मिकखया िभनिभनाती थी। न जाने वह काित कहा चली गई?
शोक का आवेग कम हुआ, तो िनमरला के िववाह की समसया उपिसथत हुई। कुछ लोगो
की सलाह हईु िक िववाह इस साल रोक िदया जाये, लेिकन कलयाणी ने कहा- इतनी तैयिरयो
के बाद िववाह को रोक देने से सब िकया-धरा िमटी मे िमल जायेगा और दस ू रे साल िफर यही
तैयािरया करनी पडेगी, िजसकी कोई आशा नही। िववाह कर ही देना अचछा है। कुछ लेना-
देना तो है ही नही। बाराितयो के सेवा-सतकार का काफी सामान हो चुका है, िवलमब करने मे
हािन-ही-हािन है। अतएव महाशय भालचनद को शक-सूचना के साथ यह सनदेश भी भेज िदया
गया। कलयाणी ने अपने पत मे िलखा-इस अनािथनी पर दया कीिजए और डू बती हुई नाव को
पार लगाइये। सवामीजी के मन मे बडी-बडी कामनाएं थी, िकंतु ईशर को कुछ और ही मंजूर
था। अब मेरी लाज आपके हाथ है। कनया आपकी हो चुकी। मै लोगो के सेवा-सतकार करने
को अपना सौभागय समझती हूं, लेिकन यिद इसमे कुछ कमी हो, कुछ तुिट पडे, तो मेरी दशा
का िवचार करके कमा कीिजयेगा। मुझे िवशास है िक आप इस अनािथनी की िननदा न होने
देगे, आिद।
कलयाणी ने यह पत डाक से न भेजा, बिलक पुरोिहत से कहा-आपको कष तो होगा,
पर आप सवयं जाकर यह पत दीिजए और मेरी ओर से बहुत िवनय के साथ किहयेगा िक
िजतने कम आदमी आये, उतना ही अचछा। यहा कोई पबनध करनेवाला नही है।
पुरोिहत मोटेराम यह सनदेश लेकर तीसरे िदन लखनऊ जा पहंुचे।
संधया का समय था। बाबू भालचनद दीवानखाने के सामने आरामकुसी पर नंग-धडंग
लेटे हुए हुका पी रहे थे। बहुत ही सथूल, ऊंचे कद के आदमी थे। ऐसा मालूम होता था िक
काला देव है या कोई हबशी अफीका से पकडकर आया है। िसर से पैर तक एक ही रंग था-
काला। चेहरा इतना सयाह था िक मालूम न होता था िक माथे का अंत कहा है िसर का
आरमभ कहा। बस, कोयले की एक सजीव मूितर थी। आपको गमी बहुत सताती थी। दो
आदमी खडे पंखा झल रहे थे, उस पर भी पसीने का तार बंधा हुआ था। आप आबकारी के
िवभाग मे एक ऊंचे ओहदे पर थे। पाच सौ रपये वेतन िमलता था। ठेकेदारो से खूब िरशत
लेते थे। ठेकेदार शराब के नाम पानी बेचे, चौबीसो घंटे दक
ु ान खुली रखे, आपको केवल खुश
रखना काफी था। सारा कानून आपकी खुशी थी। इतनी भयंकर मूितर थी िक चादनी रात मे
लोग उनहे देख कर सहसा चौक पडते थे-बालक और िसतया ही नही, पुरष तक सहम जाते
थे। चादनी रात इसिलए कहा गया िक अंधेरी रात मे तो उनहे कोई देख ही न सकता था-

9
शयामलता अनधकार मे िवलीन हो जाती थी। केवल आंखो का रंग लाल था। जैसे पका
मुसलमान पाच बार नमाज पढता है, वैसे ही आप भी पाच बार शराब पीते थे, मुफत की शराब
तो काजी को हलाल है, िफर आप तो शराब के अफसर ही थे, िजतनी चाहे िपये, कोई हाथ
पकडने वाला न था। जब पयास लगती शराब पी लेते । जैसे कुछ रंगो मे परसपर सहानुभूित
है, उसी तरह कुछ रंगो मे परसपर िवरोध है। लािलमा के संयोग से कािलमा और भी भयंकर
हो जाती है।
बाबू साहब ने पंिडतजी को देखते ही कुसी से उठकर कहा-अखखाह! आप है? आइए-
आइए। धनय भाग! अरे कोई है। कहा चले गये सब-के-सब, झगडू , गुरदीन, छकौडी, भवानी,
रामगुलाम कोई है? कया सब-के-सब मर गये! चलो रामगुलाम, भवानी, छकौडी, गुरदीन, झगडू।
कोई नही बोलता, सब मर गये! दजरन-भर आदमी है, पर मौके पर एक की भी सूरत नही नजर
आती, न जाने सब कहा गायब हो जाते है। आपके वासते कुसी लाओ।
बाबू साहब ने ये पाचो नाम कई बार दुहराये, लेिकन यह न हुआ िक पंखा झलनेवाले
दोनो आदिमयो मे से िकसी को कुसी लाने को भेज देते। तीन-चार िमनट के बाद एक काना
आदमी खासता हुआ आकर बोला-सरकार, ईतना की नौकरी हमार कीन न होई ! कहा तक
उधार-बाढी लै-लै खाई मागत-मागत थेथर होय गयेना।
भाल- बको मत, जाकर कुसी लाओ। जब कोई काम करने की कहा गया, तो रोने
लगता है। किहए पिडतजी, वहा सब कुशल है?
मोटेराम-कया कुशल कहूं बाबूजी, अब कुशल कहा? सारा घर िमटी मे िमल गया।
इतने मे कहार ने एक टू टा हुआ चीड का सनदक ू लाकर रख िदया और बोला-कसी-
मेज हमारे उठाये नाही उठत है।
पंिडतजी शमाते हुए डरते-डरते उस पर बैठे िक कही टू ट न जाये और कलयाणी का
पत बाबू साहब के हाथ मे रख िदया।
भाल-अब और कैसे िमटी मे िमलेगा? इससे बडी और कौन िवपित पडेगी? बाबू
उदयभानु लाल से मेरी पुरानी दोसती थी। आदमी नही, हीरा था! कया िदल था, कया िहममत थी,
(आंखे पोछकर) मेरा तो जैसे दािहना हाथ ही कट गया। िवशास मािनए, जबसे यह खबर सुनी
है, आंखो मे अंधेरा-सा छा गया है। खाने बैठता हूं, तो कौर मुंह मे नही जाता। उनकी सूरत
आंखो के सामने खडी रहती है। मुंह जूठा करके उठ जाता हूं। िकसी काम मे िदल नही
लगता। भाई के मरने का रंज भी इससे कम ही होता है। आदमी नही, हीरा था!
मोटे- सरकार, नगर मे अब ऐसा कोई रईस नही रहा।
भाल- मै खूब जानता हूं, पंिडतजी, आप मुझसे कया कहते है। ऐसा आदमी लाख-दो-
लाख मे एक होता है। िजतना मै उनको जानता था, उतना दस ू रा नही जान सकता। दो-ही-
तीन बार की मुलाकात मे उनका भकत हो गया और मरने दम तक रहूंगा। आप समिधन साहब
से कह दीिजएगा, मुझे िदली रंज है।
मोटे-आपसे ऐसी ही आशा थी! आज-जैसे सजजनो के दशरन दुलरभ है। नही तो आज
कौन िबना दहेज के पुत का िववाह करता है।
भाल-महाराज, देहज की बातचीत ऐसे सतयवादी पुरषो से नही की जाती। उनसे
समबनध हो जाना ही लाख रपये के बराबर है। मै इसी को अपना अहोभागय समझता हूं। हा!
िकतनी उदार आमतमा थी। रपये को तो उनहोने कुछ समझा ही नही, ितनके के बराबर भी
परवाह नही की। बुरा िरवाज है, बेहद बुरा! मेरा बस चले, तो दहेज लेनेवालो और दहेज
देनेवालो दोनो ही को गोली मार दंू, हा साहब, साफ गोली मार दंू, िफर चाहे फासी ही कयो न हो
जाय! पूछो, आप लडके का िववाह करते है िक उसे बेचते है? अगर आपको लडके के शादी मे
िदल खोलकर खचर करने का अरमान है, तो शौक के खचर कीिजए, लेिकन जो कुछ कीिजए,
अपने बल पर। यह कया िक कनया के िपता का गला रेितए। नीचता है, घोर नीचता! मेरा बस
चले, तो इन पािजयो को गोली मार दं। ू

10
मोटे- धनय हो सरकार! भगवान् ने आपको बडी बुिद दी है। यह धमर का पताप है।
मालिकन की इचछा है िक िववाह का मुहूतर वही रहे और तो उनहोने सारी बाते पत मे िलख दी
है। बस, अब आप ही उबारे तो हम उबर सकते है। इस तरह तो बारात मे िजतने सजजन
आयेगे, उनकी सेवा-सतकार हम करेगे ही, लेिकन पिरिसथित अब बहुत बदल गयी है सरकार,
कोई करने-धरनेवाला नही है। बस ऐसी बात कीिजए िक वकील साहब के नाम पर बटा न
लगे।
भालचनद एक िमनट तक आंखे बनद िकये बैठे रहे, िफर एक लमबी सास खीच कर
बोले-ईशर को मंजूर ही न था िक वह लकमी मेरे घर आती, नही तो कया यह वज िगरता? सारे
मनसूबे खाक मे िमल गये। फूला न समाता था िक वह शुभ-अवसर िनकट आ रहा है, पर कया
जानता था िक ईशर के दरबार मे कुछ और षडयनत रचा जा रहा है। मरनेवाले की याद ही
रलाने के िलए काफी है। उसे देखकर तो जखम और भी हरा जो जायेगा। उस दशा मे न
जाने कया कर बैठूं। इसे गुण समिझए, चाहे दोष िक िजससे एक बार मेरी घिनषता हो गयी,
िफर उसकी याद िचत से नही उतरती। अभी तो खैर इतना ही है िक उनकी सूरत आंखो के
सामने नाचती रहती है, लेिकन यिद वह कनया घर मे आ गयी, तब मेरा िजनदा रहना किठन हो
जायेगा। सच मािनए, रोते-रोते मेरी आंखे फूट जायेगी। जानता हूं, रोना-धोना वयथर है। जो
मर गया वह लौटकर नही आ सकता। सब करने के िसवाय और कोई उपाय नही है , लेिकन
िदल से मजबूर हूं। उस अनाथ बािलका को देखकर मेरा कलेजा फट जायेगा।
मोटे- ऐसा न किहए सरकार! वकील साहब नही तो कया, आप तो है। अब आप ही
उसके िपता-तुलय है। वह अब वकील साहब की कनया नही, आपकी कनया है। आपके हृदय
के भाव तो कोई जानता नही, लोग समझेगे, वकील साहब का देहानत हो जाने के कारण आप
अपने वचन से िफर गये। इसमे आपकी बदनामी है। िचत को समझाइए और हंस -खुशी कनया
का पािणगहण करा लीिजए। हाथी मरे तो नौ लाख का। लाख िवपित पडी है , लेिकन
मालिकन आप लोगो की सेवा-सतकार करने मे कोई बात न उठा रखेगी।
बाबू साहब समझ गये िक पंिडत मोटेराम कोरे पोथी के ही पंिडत नही, वरन वयवहार-
नीित मे भी चतुर है। बोले-पंिडतजी, हलफ से कहता हूं, मुझे उस लडकी से िजतना पेम है,
उतना अपनी लडकी से भी नही है, लेिकन जब ईशर को मंजूर नही है, तो मेरा कया बस है?
वह मृतयु एक पकार की अमंगल सूचना है, जो िवधाता की ओर से हमे िमली है। यह िकसी
आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी है िवधाता सपष रीित से कह रहा है िक यह िववाह
मंगलमय न होगा। ऐसी दशा मे आप ही सोिचये, यह संयोग कहा तक उिचत है। आप तो
िवदान आदमी है। सोिचए, िजस काम का आरमभ ही अमंगल से हो, उसका अंत अमंगलमय हो
सकता है? नही, जानबूझकर मकखी नही िनगली जाती। समिधन साहब को समझाकर कह
दीिजएगा, मै उनकी आजापालन करने को तैयार हूं, लेिकन इसका पिरणाम अचछा न होगा।
सवाथर के वंश मे होकर मै अपने परम िमत की सनतान के साथ यह अनयाय नही कर सकता।
इस तकर ने पिडतजी को िनरतर कर िदया। वादी ने यह तीर छोडा था, िजसकी
उनके पास कोई काट न थी। शतु ने उनही के हिथयार से उन पर वार िकया था और वह
उसका पितकार न कर सकते थे। वह अभी कोई जवाब सोच ही रहे थे , िक बाबू साहब ने
िफर नौकरो को पुकारना शुर िकया- अरे, तुम सब िफर गायब हो गये- झगडू , छकौडी, भवानी,
गुरदीन, रामगुलाम! एक भी नही बोलता, सब-के-सब मर गये। पंिडतजी के वासते पानी-वानी
की िफक है? ना जाने इन सबो को कोई कहा तक समझये। अकल छू तक नही गयी। देख
रहे है िक एक महाशय दरू से थके-मादे चले आ रहे है, पर िकसी को जरा भी परवाह नही।
लाओं, पानी-वानी रखो। पिडतजी, आपके िलए शबरत बनवाऊं या फलाहारी िमठाई मंगवा दं। ू
मोटेरामजी िमठाइयो के िवषय मे िकसी तरह का बनधन न सवीकार करते थे। उनका
िसदानत था िक घृत से सभी वसतुए ं पिवत हो जाती है। रसगुलले और बेसन के लडडू उनहे

11
बहुत िपय थे, पर शबरत से उनहे रिच न थी। पानी से पेट भरना उनके िनयम के िवरद था।
सकुचाते हुए बोले-शबरत पीने की तो मुझे आदत नही, िमठाई खा लूंगा।
भाल- फलाहारी न?
मोटे- इसका मुझे कोई िवचार नही।
भाल- है तो यही बात। छू त-छात सब ढकोसला है। मै सवयं नही मानता। अरे, अभी
तक कोई नही आया? छकौडी, भवानी, गुरदीन, रामगुलाम, कोई तो बोले!
अबकी भी वही बूढा कहार खासता हुआ आकर खडा हो गया और बोला-सरकार, मोर
तलब दै दीन जाय। ऐसी नौकरी मोसे न होई। कहा लो दौरी दौरत-दौरत गोड िपराय लागत
है।
भाल-काम कुछ करो या न करो, पर तलब पिहले चिहए! िदन भर पडे-पडे खासा करो,
तलब तो तुमहारी चढ रही है। जाकर बाजार से एक आने की ताजी िमठाई ला। दौडता हुआ
जा।
कहार को यह हुकम देकर बाबू साहब घर मे गये और सती से बोले-वहा से एक
पंिडतजी आये है। यह खत लाये है, जरा पढो तो।
पती जी का नाम रंगीलीबाई था। गोरे रंग की पसन-मुख मिहला थी। रप और यौवन
उनसे िवदा हो रहे थे, पर िकसी पेमी िमत की भाित मचल-मचल कर तीस साल तक िजसके
गले से लगे रहे, उसे छोडते न बनता था।
रंगीलीबाई बैठी पान लगा रही थी। बोली-कह िदया न िक हमे वहा बयाह करना मंजूर
नही।
भाल-हा, कह तो िदया, पर मारे संकोच के मुंह से शबद न िनकलता था। झूठ-मूठ का
होला करना पडता।
रंगीली-साफ बात करने मे संकोच कया? हमारी इचछा है, नही करते। िकसी का कुछ
िलया तो नही है? जब दस ू री जगह दस हजार नगद िमल रहे है; तो वहा कयो न करं? उनकी
लडकी कोई सोने की थोडे ही है। वकील साहब जीते होते तो शरमाते-शमाते पनदह-बीस
हजार दे मरते। अब वहा कया रखा है?
भाल- एक दफा जबान देकर मुकर जाना अचछी बात नही। कोई मुख से कुछ न कह,
पर बदनामी हुए िबना नही रहती। मगर तुमहारी िजद से मजबूर हूं।
रंगीलीबाई ने पान खाकर खत खोला और पढने लगी। िहनदी का अभयास बाबू साहब
को तो िबलकुल न था और यदिप रंगीलीबाई भी शायद ही कभी िकताब पढती हो, पर खत-वत
पढ लेती थी। पहली ही पाित पढकर उनकी आंखे सजल हो गयी और पत समापत िकया। तो
उनकी आंखो से आंसू बह रहे थे-एक-एक शबद करणा के रस मे डू बा हुआ था। एक-एक
अकर से दीनता टपक रही थी। रंगीलीबाई की कठोरता पतथर की नही, लाख की थी, जो एक
ही आंच से िपघल जाती है। कलयाणी के करणोतपादक शबदो ने उनके सवाथर-मंिडत हृदय को
िपघला िदया। रंधे हुए कंठ से बोली-अभी बाहण बैठा है न?
भालचनद पती के आंसुओं को देख-देखकर सूखे जाते थे। अपने ऊपर झलला रहे थे
िक नाहक मैने यह खत इसे िदखाया। इसकी जररत कया थी? इतनी बडी भूल उनसे कभी
न हुई थी। संिदगध भाव से बोले-शायद बैठा हो, मैने तो जाने को कह िदया था। रंगीली ने
िखडकी से झाककर देखा। पंिडत मोटेराम जी बगुले की तरह धयान लगाये बाजार के रासते
की ओर ताक रहे थे। लालसा मे वयग होकर कभी यह पहलू बदलते, कभी वह पहलू। ‘एक
आने की िमठाई’ ने तो आशा की कमर ही तोड दी थी, उसमे भी यह िवलमब, दारण दशा थी।
उनहे बैठे देखकर रंगीलीबाई बोली-है-है अभी है, जाकर कह दो, हम िववाह करेगे, जरर
करेगे। बेचारी बडी मुसीबत मे है।
भाल- तुम कभी-कभी बचचो की-सी बाते करने लगती हो, अभी उससे कह आया हूं िक
मुझे िववाह करना मंजूर नही। एक लमबी-चौडी भूिमका बाधनी पडी। अब जाकर यह संदेश

12
कहूंगा, तो वह अपने िदल मे कया कहेगा, जरा सोचो तो? यह शादी-िववाह का मामला है।
लडको का खेल नही िक अभी एक बात तय की, अभी पलट गये। भले आदमी की बात न
हुई, िदललगी हुई।
रंगीली- अचछा, तुम अपने मुंह से न कहो, उस बाहण को मेरे पास भेज दो। मै इस
तरह समझा दंगू ी िक तुमहारी बात भी रह जाये और मेरी भी। इसमे तो तुमहे कोई आपित नही
है।
भाल-तुम अपने िसवा सारी दुिनया को नादान समझती हो। तुम कहो या मै कहूं, बात
एक ही है। जो बात तय हो गयी, वह हो गई, अब मै उसे िफर नही उठाना चाहता। तुमही तो
बार-बार कहती थी िक मै वहा न करंगी। तुमहारे ही कारण मुझे अपनी बात खोनी पडी। अब
तुम िफर रंग बदलती हो। यह तो मेरी छाती पर मूंग दलना है। आिखर तुमहे कुछ तो मेरे मान-
अपमान का िवचार करना चािहए।
रंगीली- तो मुझे कया मालूम था िक िवधवा की दशा इतनी हीन हो गया है? तुमही ने तो
कहा था िक उसने पित की सारी समपित िछपा रखी है और अपनी गरीबी का ढोग रचकर
काम िनकालना चाहती है। एक ही छंटी औरत है। तुमने जो कहा, वह मैने मान िलया। भलाई
करके बुराई करने मे तो लजजा और संकोच है। बुराई करके भलाई करने मे कोई संकोच
नही। अगर तुम ‘हा’ कर आये होते और मै ‘नही’ करने को कहती, तो तुमहारा संकोच उिचत
था। ‘नही’ करने के बाद ‘हा’ करने मे तो अपना बडपपन है।
भाल- तुमहे बडपपन मालूम होता हो, मुझे तो लुचचापन ही मालूम होता है। िफर तुमने
यह कैसे मान िलया िक मैने वकीलाइन मे िवषय मे जो बात कही थी, वह झूठी थी! कया वह
पत देखकर? तुम जैसी खुद सरल हो, वैसे ही दस ू रे को भी सरल समझती हो।
रंगीली- इस पत मे बनावट नही मालूम होती। बनावट की बात िदल मे चुभती नही।
उसमे बनावट की गनध अवशय रहती है।
भाल- बनावट की बात तो ऐसी चुभती है िक सचची बात उसके सामने िबलकुल फीकी
मालूम होती है। यह िकससे-कहािनया िलखने वाले िजनकी िकताबे पढ-पढकर तुम घणटो रोती
हो, कया सचची बाते िलखते है? सरासर झूठ का तूमार बाधते है। यह भी एक कला है।
रंगीली- कयो जी, तुम मुझसे भी उडते हो! दाई से पेट िछपाते हो? मै तुमहारी बाते मान
जाती हूं, तो तुम समझते हो, इसे चकमा िदया। मगर मै तुमहारी एक-एक नस पहचानती हूं।
तुम अपना ऐब मेरे िसर मढकर खुद बेदाग बचना चहाते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूं, जब
वकील साहब जीते थे, जो तुमने सोचा था िक ठहराव की जररत ही कया है, वे खुद ही
िजतना उिचत समेझेगे देगे, बिलक िबना ठहराव के और भी जयादा िमलने की आशा होगी। अब
जो वकील साहब का देहानत हो गया, तो तरह-तरह के हीले-हवाले करने लगे। यह भलमनसी
नही, छोटापन है, इसका इलजाम भी तुमहारे िसर है। मै। अब शादी-बयाह के नगीच न
जाऊंगी। तुमहारी जैसी इचछा हो, करो। ढोगी आदिमयो से मुझे िचढ है। जो बात करो,
सफाई से करो, बुरा हो या अचछा। ‘हाथी के दात खाने के और िदखाने के और’ वाली नीित
पर चलना तुमहे शोभा नही देता। बोला आब भी वहा शादी करते हो या नही?
भाला- जब मै बेईमान, दगाबाज और झूठा ठहरा, तो मुझसे पूछना ही कया! मगर खूब
पहचानती हो आदिमयो को! कया कहना है, तुमहारी इस सूझ-बूझ की, बलैया ले ले!
रंगीली- हो बडे हयादार, ब भी नही शरमाते। ईमान से कहा, मैने बात ताड ली िक
नही?
भाल-अजी जाओ, वह दस ू री औरते होती है जो मदों को पहचानती है। अब तक मै
यही समझता था िक औरतो की दृिष बडी सूकम होती है, पर आज यह िवशास उठ गया और
महातमाओं ने औरतो के िवषय मे जो ततव की बाते कही है, उनको मानना पडा।
रंगीली- जरा आईने मे अपनी सूरत तो देख आओं, तुमहे मेरी कमस है। जरा देख लो,
िकतना झेपे हुए हो।

13
भाल- सच कहना, िकतना झेपा हुआ हूं?
रंगीली- इतना ही, िजतना कोई भलामानस चोर चोरी खुल जाने पर झेपता है।
भाल- खैर, मै झेपा ही सही, पर शादी वहा न होगी।
रंगीली- मेरी बला से, जहा चाहो करो। कयो, भुवन से एक बार कयो नही पूछ लेते?
भाल- अचछी बात है, उसी पर फैसला रहा।
रंगीली- जरा भी इशारा न करना!
भाल- अजी, मै उसकी तरफ ताकूंगा भी नही।
संयोग से ठीक इसी वकत भुवनमोहन भी आ पहंुचा। ऐसे सुनदर, सुडौल, बिलष युवक
कालेजो मे बहुत कम देखने मे आते है। िबलकुल मा को पडा था, वही गोरा-िचटा रंग, वही
पतले-पतले गुलाब की पती के-से ओंठ, वही चौडा, माथा, वही बडी-बडी आंखे, डील-डौल बाप
का-सा था। ऊंचा कोट, बीचेज, टाई, बूट, हैट उस पर खूब ल रहे थे। हाथ मे एक हाकी-
िसटक थी। चाल मे जवानी का गरर था, आंखो मे आमतमगौरव।
रंगीली ने कहा-आज बडी देर लगाई तुमने ? यह देखो, तुमहारी ससुराल से यह खत
आया है। तुमहारी सास ने िलखा है। साफ-साफ बतला दो, अभी सबेरा है। तुमहे वहा शादी
करना मंजूर है या नही?
भुवन- शादी करनी तो चािहए अममा, पर मै करंगा नही।
रंगीली- कयो?
भुवन- कही ऐसी जगह शादी करवाइये िक खूब रपये िमले। और न सही एक लाख
का तो डौल हो। वहा अब कया रखा है? वकील साहब रहे ही नही, बुिढया के पास अब कया
होगा?
रंगीली- तुमहे ऐसी बाते मुंह से िनकालते शमर नही आती?
भुवन- इसमे शमर की कौन-सी बात है? रपये िकसे काटते है? लाख रपये तो लाख
जनम मे भी न जमा कर पाऊंगा। इस साल पास भी हो गया, तो कम-से-कम पाच साल तक
रपये से सूरत नजर न आयेगी। िफर सौ-दो-सौ रपये महीने कमाने लगूंगा। पाच-छ: तक
पहंचु ते-पहंुचते उम के तीन भाग बीत जायेगे। रपये जमा करने की नौबत ही न आयेगी।
दुिनया का कुछ मजा न उठा सकूंग। िकसी धनी की लडकी से शादी हो जाती, तो चैन से
कटती। मै जयादा नही चाहता, बस एक लाख हो या िफर कोई ऐसी जायदादवाली बेवा िमले,
िजसके एक ही लडकी हो।
रंगीली- चाहे औरत कैसे ही िमले।
भूवन- धन सारे ऐबो को िछपा देगा। मुझे वह गािलया भी सुनाये, तो भी चूं न करं।
दुधार गाय की लात िकसे बुरी मालूम होती है?
बाबू साहब ने पशंसा-सूचक भाव से कहा-हमे उन लोगो के साथ सहानुभित है और
दु :खी है िक ईशर ने उनहे िवपित मे डाला, लेिकन बुिद से काम लेकर ही कोई िनशय करना
चिहए। हम िकतने ही फटे-हालो जाये, िफर भी अचछी-खासी बारात हो जायेगी। वहा भोजन
का भी िठकाना नही। िसवा इसके िक लोग हंसे और कोई नतीजा न िनकलेगा।
रंगीली- तुम बाप-पूत दोनो एक ही थैली के चटे-बटे हो। दोनो उस गरीब लडकी के
गले पर छुरी फेरना चाहते हो।
भुवन-जो गरीब है, उसे गरीबो ही के यहा समबनध करना चिहए। अपनी हैिसयत से
बढकर.....।
रंगीली- चुप भी रह, आया है वहा से हैिसयत लेकर। तुम कहा के धना-सेठ हो? कोई
आदमी दारा पर आ जाये, तो एक लोटे पानी को तरस जाये। बडे हैिसयतवाले बने हो!
यह कहकर रंगीली वहा से उठकर रसोई का पबनध करने चली गयी।
भुवनमोहन मुसकराता हुआ अपने कमरे मे चला गया और बाबू साहब मूछो पर ताव देते
हुए बाहर आये िक मोटेराम को अिनतम िनशय सुना दे। पर उनका कही पता न था।

14
मोटेरामजी कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने मे बहुत देर
हुई, तो उनसे बैठा न गया। सोचा यहा बैठे-बैठे काम न चलेगा, कुछ उदोग करना चािहए।
भागय के भरोसे यहा अडी िकये बैठे रहे, तो भूखो मर जायेगे। यहा तुमहारी दाल नही गलने
की। चुपके से लकडी उठायी और िजधर वह कहार गया था, उसी तरफ चले। बाजार थोडी
ही दरू पर था, एक कण मे जा पहंुचे। देखा, तो बुडढा एक हलवाई की दक ू ान पर बैठा िचलम
पी रहा था। उसे देखते ही आपने बडी बेतकललुफी से कहा-अभी कुछ तैयार नही है कया
महरा? सरकार वहा बैठे िबगड रहे है िक जाकर सो गया या ताडी पीने लगा। मैने
कहा-‘सरकार यह बात नही, बुढडा आदमी है, आते ही आते तो आयेगा।’ बडे िविचत जीव है।
न जाने इनके यहा कैसे नौकर िटकते है।
कहार-मुझे छोडकर आज तक दस ू रा कोई िटका नही, और न िटकेगा। साल-भर से
तलब नही िमली। िकसी को तलब नही देते। जहा िकसी ने तलब मागी और लगे डाटने।
बेचारा नौकरी छोडकर भाग जाता है। वे दोनो आदमी, जो पंखा झल रहे थे, सरकारी नौकर
है। सरकार से दो अदरली िमले है न! इसी से पडे हुए है। मै भी सोचता हूं, जैसा तेरा ताना-
बाना वैसे मेरी भरनी! इस साल कट गये है, साल दो साल और इसी तरह कट जायेगे।
मोटेराम- तो तुमही अकेले हो? नाम तो कई कहारो का लेते है।
कहार- वह सब इन दो-तीन महीनो के अनदर आये और छोड-छोड कर चले गये। यह
अपना रोब जमाने को अभी तक उनका नाम जपा करते है। कही नौकरी िदलाइएगा, चलूं?
मोटेराम- अजी, बहुत नौकरी है। कहार तो आजकल ढू ंढे नही िमलते। तुम तो पुराने
आदमी हो, तुमहारे िलए नौकरी की कया कमी है। यहा कोई ताजी चीज? मुझसे कहने लगे,
िखचडी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैने कह िदया-सरकार, बुढडा आदमी है, रात को उसे
मेरा भोजन बनाने मे कष होगा, मै कुछ बाजार ही से खा लूंगा। इसकी आप िचनता न करे।
बोले, अचछी बात है, कहार आपको दुकान पर िमलेगा। बोलो साहजी, कुछ तर माल तैयार है?
लडडू तो ताजे मालूम होते है तौल दो एक सेर भर। आ जाऊं वही ऊपर न?
यह कहकर मोटेरामजी हलवाई की दक ू ान पर जा बैठे और तर माल चखने लगे। खूब
छककर खाया। ढाई-तीन सेर चट कर गये। खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ करते
जाते थे- शाहजी, तुमहारी दक ू ान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया। बनारसवाले
ऐसे रसगुलले नही बना पाते, कलाकनद अचछी बनाते है, पर तुमहारी उनसे बुरी नही, माल डालने
से अचछी चीज नही बन जाती, िवदा चिहए।
हलवाई-कुछ और लीिजए महाराज! थोडी-सी रबडी मेरी तरफ से लीिजए।
मोटेराम-इचछा तो नही है, लेिकन दे दो पाव-भर।
हलवाई-पाव-भर कया लीिजएगा? चीज अचछी है, आध सेर तो लीिजए।
खूब इचछापूणर भोजन करके पंिडतजी ने थोडी देर तक बाजार की सैर की और नौ
बजते-बजते मकान पर आये। यहा सनाटा-सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रही थी।
अपने चबूतरे पर िबसतर जमाया और सो गये।
सबेरे अपने िनयमानुसार कोई आठ बजे उठे, तो देखा िक बाबूसाहब टहल रहे है। इनहे
जगा देखकर वह पालागन कर बोले-महाराज, आज रात कहा चले गये? मै बडी रात तक
आपकी राह देखता रहा। भोजन का सब सामान बडी देर तक रखा रहा। जब आज न आये,
तो रखवा िदया गया। आपने कुछ भोजन िकया था। या नही?
मोटे- हलवाई की दक ू ान मे कुछ खा आया था।
भाल- अजी पूरी-िमठाई मे वह आननद कहा, जो बाटी और दाल मे है। दस-बारह आने
खचर हो गये होगे, िफर भी पेट न भरा होगा, आप मेरे मेहमान है, िजतने पैसे लगे हो ले
लीिजएगा।
मोटे- आप ही के हलवाई की दक ू ान पर खाया था, वह जो नुकड पर बैठता है।
भाल- िकतने पैसे देने पडे?

15
मोटे- आपके िहसाब मे िलखा िदये है।
भाल- िजतनी िमठाइया ली हो, मुझे बता दीिजए, नही तो पीछे से बेईमानी करने लगेगा।
एक ही ठग है।
मोटे- कोई ढाई सेर िमठाई थी और आधा सेर रबडी।
बाबू साहब ने िवसफिरत नेतो से पंिडतजी को देखा, मानो कोई अचमभे की बात सुनी
हो। तीन सेर तो कभी यहा महीने भर का टोटल भी न होता था और यह महाशय एक ही बार
मे कोई चार रपये का माल उडा गये। अगर एक आध िदन और रह गये , तो या बैठ जायेगी।
पेट है या शैतान की कब? तीन सेर! कुछ िठकाना है! उिदगन दशा मे दौडे हुए अनदर गये और
रंगीली से बोल-कुछ सुनती हो, यह महाशय कल तीन सेर िमठाई उडा गये। तीन सेर पकी
तौल!
रंगीलीबाई ने िविसमत होकर कहा-अजी नही, तीन सेर भला कया खा जायेगा! आदमी है
या बैल?
भाल- तीन सेर तो अपने मुंह से कह रहा है। चार सेर से कम न होगा, पकी तौल!
रंगीली- पेट मे सनीचर है कया?
भाल- आज और रह गया तो छ: सेर पर हाथ फेरेगा।
रंगीली- तो आज रहे ही कयो, खत का जवाब जो देना देकर िवदा करो। अगर रहे तो
साफ कह देना िक हमारे यहा िमठाई मुफत नही आती। िखचडी बनाना हो, बनावे, नही तो
अपनी राह ले। िजनहे ऐसे पेटुओं को िखलाने से मुिकत िमलती हो, वे िखलाये हमे ऐसी मुिकत
न चािहये!
मगर पंिडत िवदा होने को तैयार बैठे थे, इसिलए बाबूसाहब को कौशल से काम लेने
की जररत न पडी।
पूछा- कया तैयारी कर दी महाराज?
मोटे- हा सरकार, अब चलूंगा। नौ बजे की गाडी िमलेगी न?
भाल- भला आज तो और रिहए।
यह कहते-कहते बाबूजी को भय हुआ िक कही यह महाराज सचमुच न रह जाये ,
इसिलये वाकय को यो पूरा िकया- हा, वहा भी लोग आपका इनतजार कर रहे होगे।
मोटे- एक-दो िदन की तो कोई बात न थी और िवचार भी यही था िक ितवेणी का सनान
करंगा, पर बुरा न मािनए तो कहूं, आप लोगो मे बाहाणो के पित लेशमात भी शदा नही है।
हमारे जजमान है, जो हमारा मुंह जोहते रहते है िक पंिडतजी कोई आजा दे , तो उसका पालन
करे। हम उनके दारा पहंुच जाते है, तो वे अपना धनय भागय समझते है और सारा घर-छोटे से
बडे तक हमारी सेवा-सतकार मे मगन हो जाते है। जहा अपना आदर नही, वहा एक कण भी
ठहरना असहाय है। जहा बहाण का आदर नही, वहा कलयाण नही हो सकता।
भाल- महाराज, हमसे तो ऐसा अपराध नही हुआ।
मोटे- अपराध नही हुआ! और अपराध कहते िकसे है? अभी आप ही ने घर मे जाकर
कहा िक यह महाशय तीन सेर िमठाई चट कर गये, पकी तौल। आपने अभी खानेवाले देखे
कहा? एक बार िखलाइये तो आंखे खुल जाये। ऐसे-ऐसे महान पुरष पडे है, जो पसेरी भर
िमठाई खा जाये और डकार तक न ले। एक-एक िमठाई खाने के िलए हमारी िचरौरी की जाती
है, रपये िदये जाते है। हम िभकुक बाहाण नही है, जो आपके दार पर पडे रहे। आपका नाम
सुनकर आये थे, यह न जानते थे िक यहा मेरे भोजन के भी लाले पडेगे। जाइये, भगवान्
आपका कलयाण करे!
बाबू साहब ऐसा झेपे िक मुंह से बात न िनकली। िजनदगी भर मे उन पर कभी ऐसी
फटकार न पडी थी। बहुत बाते बनायी-आपकी चचा न थी, एक दस ू रे ही महाशय की बात थी,
लेिकन पंिडतजी का कोध शानत न हुआ। वह सब कुछ सह सकते थे, पर अपने पेट की
िननदा न सह सकते थे। औरतो को रप की िननदा िजतनी िपय लगती है, उससे कही अिधक

16
अिपय पुरषो को अपने पेट की िननदा लगती है। बाबू साहब मनाते तो थे ; पर धडका भी
समाया हुआ था िक यह िटक न जाये। उनकी कृपणता का परदा खुल गया था, अब इसमे
सनदेह न था। उस पदे को ढाकना जररी था। अपनी कृपणता को िछपाने के िलए उनहोने
कोई बात उठा न रखी पर होनेवाली बात होकर रही। पछता रहे थे िक कहा से घर मे इसकी
बात कहने गया और कहा भी तो उचच सवर मे। यह दुष भी कान लगाये सुनता रहा, िकनतु
अब पछताने से कया हो सकता था? न जाने िकस मनहूस की सूरत देखी थी यह िवपित गले
पडी। अगर इस वकत यहा से रष होकर चला गया; तो वहा जाकर बदनाम करेगा और मेरा
सारा कौशल खुल जायेगा। अब तो इसका मुंह बनद कर देना ही पडेगा।
यह सोच-िवचार करते हुए वह घर मे जाकर रंगीलीबाई से बोले-इस दुष ने हमारी-
तुमहारी बाते सुन ली। रठकर चला जा रहा है।
रंगीली-जब तुम जानते थे िक दार पर खडा है, तो धीरे से कयो न बोले?
भाल-िवपित आती है; तो अकेले नही आती। यह कया जानता था िक वह दार पर कान
लगाये खडा है।
रंगीली- न जाने िकसका मुंह देख था?
भाल-वही दुष सामने लेटा हुआ था। जानता तो उधर ताकता ही नही। अब तो इसे
कुछ दे-िदलाकर राजी करना पडेगा।
रंगीली- ऊंह, जाने भी दो। जब तुमहे वहा िववाह ही नही करना है, तो कया परवाह है?
जो चाहे समझे, जो चाहे कहे।
भाल-यो जान न बचेगी। आओं दस रपये िवदाई के बहाने दे दं। ू ईशर िफर इस
मनहूस की सूरत न िदखाये।
रंगीली ने बहुत अछताते-पछताते दस रपये िनकाले और बाबू साहब ने उनहे ले जाकर
पंिडतजी के चरणो पर रख िदया। पंिडतजी ने िदल मे कहा-धतैरे मकखीचूस की! ऐसा रगडा
िक याद करोगे। तुम समझते होगे िक दस रपये देकर इसे उललू बना लूंगा। इस फेर मे न
रहना। यहा तुमहारी नस-नस पहचानते है। रपये जेब मे रख िलये और आशीवाद देकर अपनी
राह ली।
बाबू साहब बडी देकर तक खडे सोच रहे थे-मालूम नही, अब भी मुझे कृपण ही समझ
रहा है या परदा ढंक गया। कही ये रपये भी तो पानी मे नही िगर पडे।

पपप

क लयाणी के सामने अब एक िवषम समसया आ खडी हुई। पित के देहानत के बाद उसे
अपनी दुरवसथा का यह पहला और बहुत ही कडवा अनुभव हुआ। दिरद िवधवा के िलए
इससे बडी और कया िवपित हो सकती है िक जवान बेटी िसर पर सवार हो? लडके नंगे पाव
पढने जा सकते है, चौका-बतरन भी अपने हाथ से िकया जा सकता है, रखा-सूखा खाकर
िनवाह िकया जा सकता है, झोपडे मे िदन काटे जा सकते है, लेिकन युवती कनया घर मे नही
बैठाई जा सकती। कलयाणी को भालचनद पर ऐसा कोध आता था िक सवयं जाकर उसके मुंह
मे कािलख लगाऊं, िसर के बाल नोच लूं, कहूं िक तू अपनी बात से िफर गया, तू अपने बाप
का बेटा नही। पंिडत मोटेराम ने उनकी कपट-लीला का नगन वृतानत सुना िदया था।
वह इसी कोध मे भरी बैठी थी िक कृषणा खेलती हुई आयी और बोली-कै िदन मे बारात
आयेगी अममा? पंिडत तो आ गये।
कलयाणी- बारात का सपना देख रही है कया?
कृषणा-वही चनदर तो कह रहा है िक-दो-तीन िदन मे बारात आयेगी, कया न जायेगी
अममा?
कलयाणी-एक बार तो कह िदया, िसर कयो खाती है?

17
कृषणा-सबके घर तो बारात आ रही है, हमारे यहा कयो नही आती?
कलयाणी-तेरे यहा जो बारात लाने वाला था, उसके घर मे आग लग गई।
कृषणा-सच, अममा! तब तो सारा घर जल गया होगा। कहा रहते होगे? बहन कहा
जाकर रहेगी?
कलयाणी-अरे पगली! तू तो बात ही नही समझती। आग नही लगी। वह हमारे यहा
बयाह न करेगा।
कृषणा-यह कयो अममा? पहले तो वही ठीक हो गया था न?
कलयाणी-बहुत से रपये मागता है। मेरे पास उसे देने को रपये नही है।
कृषणा-कया बडे लालची है, अममा?
कलयाणी-लालची नही तो और कया है। पूरा कसाई िनदरयी, दगाबाज।
कृषणा-तब तो अममा, बहुत अचछा हुआ िक उसके घर बहन का बयाह नही हुआ। बहन
उसके साथ कैसे रहती? यह तो खुश होने की बात है अममा, तुम रंज कयो करती हो?
कलयाणी ने पुती को सनेहमयी दृिष से देखा। इनका कथन िकतना सतय है? भोले
शबदो मे समसया का िकतना मािमरक िनरपण है? सचमुच यह ते पसन होने की बात है िक ऐसे
कुपातो से समबनध नही हुआ, रंज की कोई बात नही। ऐसे कुमानुसो के बीच मे बेचारी िनमरला
की न जाने कया गित होती अपने नसीबो को रोती। जरा सा घी दाल मे अिधक पड जाता, तो
सारे घर मे शोर मच जाता, जरा खाना जयादा पक जाता, तो सास दिनया िसर पर उठा लेती।
लडका भी ऐसा लोभी है। बडी अचछी बात हुई, नही, बेचारी को उम भर रोना पडता।
कलयाणी यहा से उठी, तो उसका हृदय हलका हो गया था।
लेिकन िववाह तो करना ही था और हो सके तो इसी साल, नही तो दस ू रे साल िफर
नये िसरे से तैयािरया करनी पडेगी। अब अचछे घर की जररत न थी। अचछे वर की जररत
न थी। अभािगनी को अचछा घर-वर कहा िमलता! अब तो िकसी भाित िसर का बोझा उतारना
था, िकसी भाित लडकी को पार लगाना था, उसे कुए ं मे झोकना था। यह रपवती है,
गुणशीला है, चतुर है, कुलीन है, तो हुआ करे, दहेज नही तो उसके सारे गुण दोष है, दहेज हो
तो सारे दोष गुण है। पाणी का कोई मूलय नही, केवल देहज का मूलय है। िकतनी िवषम
भगयलीला है!
कलयाणी का दोष कुछ कम न था। अबला और िवधवा होना ही उसे दोषो से मुकत
नही कर सकता। उसे अपने लडके अपनी लडिकयो से कही जयादा पयारे थे। लडके हल के
बैल है, भूसे खली पर पहला हक उनका है, उनके खाने से जो बचे वह गायो का! मकान था,
कुछ नकद था, कई हजार के गहने थे, लेिकन उसे अभी दो लडको का पालन-पोषण करना
था, उनहे पढाना-िलखाना था। एक कनया और भी चार-पाच साल मे िववाह करने योगय हो
जायेगी। इसिलए वह कोई बडी रकम दहेज मे न दे सकती थी, आिखर लडको को भी तो
कुछ चािहए। वे कया समझेगे िक हमारा भी कोई बाप था।
पंिडत मोटेराम को लखनऊ से लौटे पनदह िदन बीत चुके थे। लौटने के बाद दस ू रे ही
िदन से वह वर की खोज मे िनकले थे। उनहोने पण िकया था िक मै लखनऊ वालो को िदखा
दंगू ा िक संसार मे तुमही अकेले नही हो, तुमहारे ऐसे और भी िकतने पडे हुए है। कलयाणी रोज
िदन िगना करती थी। आज उसने उनहे पत िलखने का िनशय िकया और कलम-दवात लेकर
बैठी ही थी िक पंिडत मोटेराम ने पदापरण िकया।
कलयाणी-आइये पंिडतजी, मै तो आपको खत िलखने जा रही थी, कब लौटे?
मोटेराम-लौटा तो पात:काल ही था, पर इसी समय एक सेठ के यहा से िनमनतण आ
गया। कई िदन से तर माल न िमले थे। मैने कहा िक लगे हाथ यह भी काम िनपटाता चलूं।
अभी उधर ही से लौटा आ रहा ह,ूं कोई पाच सौ बहाणो को पंगत थी।
कलयाणी-कुछ कायर भी िसद हुआ या रासता ही नापना पडा।

18
मोटेराम- कायर कयो न िसद होगा? भला, यह भी कोई बात है? पाच जगह बातचीत कर
आया हूं। पाचो की नकल लाया हूं। उनमे से आप चाहे िजसे पसनद करे। यह देिखए इस
लडके का बाप डाक के सीगे मे सौ रपये महीने का नौकर है। लडका अभी कालेज मे पढ
रहा है। मगर नौकरी का भरोसा है, घर मे कोई जायदाद नही। लडका होनहार मालूम होता
है। खानदान भी अचछा है दो हजार मे बात तय हो जायेगी। मागते तो यह तीन हजार है।
कलयाणी- लडके के कोई भाई है?
मोटे-नही, मगर तीन बहने है और तीनो कवारी। माता जीिवत है। अचछा अब दस ू री
नकल िदये। यह लडका रेल के सीगे मे पचास रपये महीना पाता है। मा-बाप नही है। बहुत
ही रपवान् सुशील और शरीर से खूब हृष-पुष कसरती जवान है। मगर खानदान अचछा
नही, कोई कहता है, मा नाइन थी, कोई कहता है, ठकुराइन थी। बाप िकसी िरयासत मे
मुखतार थे। घर पर थोडी सी जमीदारी है, मगर उस पर कई हजार का कजर है। वहा कुछ
लेना-देना न पडेगा। उम कोई बीस साल होगी।
कलयाणी-खानदान मे दाग न होता, तो मंजूर कर लेती। देखकर तो मकखी नही िनगली
जाती।
मोटे-तीसरी नकल देिखए। एक जमीदार का लडका है, कोई एक हजार सालाना नफा
है। कुछ खेती-बारी भी होती है। लडका पढ-िलखा तो थोडा ही है, कचहरी-अदालत के काम
मे चतुर है। दुहाजू है, पहली सती को मरे दो साल हुए। उससे कोई संतान नही, लेिकन
रहना-सहन, मोटा है। पीसना-कूटना घर ही मे होता है।
कलयाणी- कुछ देहज मागते है?
मोटे-इसकी कुछ न पूिछए। चार हजार सुनाते है। अचछा यह चौथी नकल िदये।
लडका वकील है, उम कोई पैतीस साल होगी। तीन-चार सौ की आमदनी है। पहली सती मर
चुकी है उससे तीन लडके भी है। अपना घर बनवाया है। कुछ जायदाद भी खरीदी है। यहा
भी लेन-देन का झगडा नही है।
कलयाणी- खानदान कैसा है?
मोटे-बहुत ही उतम, पुराने रईस है। अचछा, यह पाचवी नकल िदए। बाप का
छापाखाना है। लडका पढा तो बी. ए. तक है, पर उस छापेखाने मे काम करता है। उम
अठारह साल की होगी। घर मे पेस के िसवाय कोई जायदाद नही है, मगर िकसी का कजर
िसर पर नही। खानदान न बहुत अचछा है, न बुरा। लडका बहुत सुनदर और सचचिरत है।
मगर एक हजार से कम मे मामला तय न होगा, मागते तो वह तीन हजार है। अब बताइए, आप
कौन-सा वर पसनद करती है?
कलयाणी-आपको सबो मे कौन पसनद है?
मोटे-मुझे तो दो वर पसनद है। एक वह जो रेलवई मे है और दस ू रा जो छापेखाने मे
काम करता है।
कलयाणी-मगर पहले के तो खानदान मे आप दोष बताते है?
मोटे-हा, यह दोष तो है। छापेखाने वाले को ही रहने दीिजये।
कलयाणी-यहा एक हजार देने को कहा से आयेगा? एक हजार तो आपका अनुमान है,
शायद वह और मुंह फैलाये। आप तो इस घर की दशा देख ही रहे है, भोजन िमलता जाये,
यही गनीमत है। रपये कहा से आयेगे? जमीदार साहब चार हजार सुनाते है, डाक बाबू भी दो
हजार का सवाल करते है। इनको जाने दीिजए। बस, वकील साहब ही बच सकते है। पैतीस
साल की उम भी कोई जयादा नही। इनही को कयो न रिखए।
मोटेराम-आप खूब सोच-िवचार ले। मै यो आपकी मजी का ताबेदार हूं। जहा किहएगा
वहा जाकर टीका कर आऊंगा। मगर हजार का मुंह न देिखए, छापेखाने वाला लडका रत है।
उसके साथ कनया का जीवन सफल हो जाएगा। जैसी यह रप और गुण की पूरी है, वैसा ही
लडका भी सुनदर और सुशील है।

19
कलयाणी-पसनद तो मुझे भी यही है महाराज, पर रपये िकसके घर से आये! कौन देने
वाला है! है कोई दानी? खानेवाले खा-पीकर चंपत हुए। अब िकसी की भी सूरत नही िदखाई
देती, बिलक और मुझसे बुरा मानते है िक हमे िनकाल िदया। जो बात अपने बस के बाहर है,
उसके िलए हाथ ही कयो फैलाऊं? सनतान िकसको पयारी नही होती? कौन उसे सुखी नही
देखना चाहता? पर जब अपना काबू भी हो। आप ईशर का नाम लेकर वकील साहब को टीका
कर आइये। आयु कुछ अिधक है, लेिकन मरना-जीना िविध के हाथ है। पैतीस साल का
आदमी बुढडा नही कहलाता। अगर लडकी के भागय मे सुख भोगना बदा है, तो जहा जायेगी
सुखी रहेगी, दु :ख भोगना है, तो जहा जायेगी दु :ख झेलेगी। हमारी िनमरला को बचचो से पेम
है। उनके बचचो को अपना समझेगी। आप शुभ मुहूतर देखकर टीका कर आये।

पपपप

िन मरला का िववाह हो गया। ससुराल आ गयी। वकील साहब का नाम था मुंशी तोताराम।
सावले रंग के मोटे-ताजे आदमी थे। उम तो अभी चालीस से अिधक न थी, पर
वकालत के किठन पिरशम ने िसर के बाल पका िदये थे। वयायाम करने का उनहे अवकाश न
िमलता था। वहा तक िक कभी कही घूमने भी न जाते, इसिलए तोद िनकल आई थी। देह के
सथून होते हुए भी आये िदन कोई-न-कोई िशकायत रहती थी। मंदिगन और बवासीर से तो
उनका िचरसथायी समबनध था। अतएव बहुत फूंक-फूंककर कदम रखते थे। उनके तीन
लडके थे। बडा मंसाराम सोहल वषर का था, मंझला िजयाराम बारह और िसयाराम सात वषर
का। तीनो अंगेजी पढते थे। घर मे वकील साहब की िवधवा बिहन के िसवा और कोई औरत
न थी। वही घर की मालिकन थी। उनका नाम था रकिमणी और अवसथा पचास के ऊपर
थी। ससुराल मे कोई न था। सथायी रीित से यही रहती थी।
तोताराम दमपित-िवजान मे कुशल थे। िनमरला के पसन रखने के िलए उनमे जो
सवाभािवक कमी थी, उसे वह उपहारो से पूरी करना चाहते थे। यदिप वह बहु ही िमतवययी
पुरष थे, पर िनमरला के िलए कोई-न-कोई तोहफा रोज लाया करते। मौके पर धन की परवाइ
न करते थे। लडके के िलए थोडा दध ू आता था, पर िनमरला के िलए मेवे, मुरबबे, िमठाइया-
िकसी चीज की कमी न थी। अपनी िजनदगी मे कभी सैर-तमाशे देखने न गये थे, पर अब
छुिटयो मे िनमरला को िसनेमा, सरकस, एटर, िदखाने ले जाते थे। अपने बहुमूलय समय का
थोडा-सा िहससा उसके साथ बैठकर गामोफोन बजाने मे वयतीत िकया करते थे।
लेिकन िनमरला को न जाने कयो तोताराम के पास बैठने और हंसने -बोलने मे संकोच
होता था। इसका कदािचत् यह कारण था िक अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका िपता था,
िजसके सामने वह िसर-झुकाकर, देह चुराकर िनकलती थी, अब उनकी अवसथा का एक
आदमी उसका पित था। वह उसे पेम की वसतु नही सममान की वसतु समझती थी। उनसे
भागती िफरती, उनको देखते ही उसकी पफुललता पलायन कर जाती थी।
वकील साहब को नके दमपित-िवजान न िसखाया था िक युवती के सामने खूब पेम की
बाते करनी चािहये। िदल िनकालकर रख देना चिहये, यही उसके वशीकरण का मुखय मंत
है। इसिलए वकील साहब अपने पेम-पदशरन मे कोई कसर न रखते थे, लेिकन िनमरला को इन
बातो से घृणा होती थी। वही बाते, िजनहे िकसी युवक के मुख से सुनकर उनका हृदय पेम से
उनमत हो जाता, वकील साहब के मुंह से िनकलकर उसके हृदय पर शर के समान आघात
करती थी। उनमे रस न था उललास न था, उनमाद न था, हृदय न था, केवल बनावट थी,
घोखा था और शुषक, नीरस शबदाडमबर। उसे इत और तेल बुरा न लगता, सैर-तमाशे बुरे न
लगते, बनाव-िसंगार भी बुरा न लगता था, बुरा लगता था, तो केवल तोताराम के पास बैठना।
वह अपना रप और यौवन उनहे न िदखाना चाहती थी, कयोिक वहा देखने वाली आंखे न थी।

20
वह उनहे इन रसो का आसवादन लेने योगय न समझती थी। कली पभात-समीर ही के सपशर से
िखलती है। दोनो मे समान सारसय है। िनमरला के िलए वह पभात समीर कहा था?
पहला महीना गुजरते ही तोताराम ने िनमरला को अपना खजाची बना िलया। कचहरी
से आकर िदन-भर की कमाई उसे दे देते। उनका खयाल था िक िनमरला इन रपयो को
देखकर फूली न समाएगी। िनमरला बडे शौक से इस पद का काम अंजाम देती। एक-एक पैसे
का िहसाब िलखती, अगर कभी रपये कम िमलते, तो पूछती आज कम कयो है। गृहसथी के
समबनध मे उनसे खूब बाते करती। इनही बातो के लायक वह उनको समझती थी। जयोही
कोई िवनोद की बात उनके मुंह से िनकल जाती, उसका मुख िलन हो जाता था।
िनमरला जब वसताभूषणो से अलंकृत होकर आइने के सामने खडी होती और उसमे
अपने सौनदयर की सुषमापूणर आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृषण कामना से तडप उठता
था। उस वकत उसके हृदय मे एक जवाला-सी उठती। मन मे आता इस घर मे आग लगा दं। ू
अपनी माता पर कोध आता, पर सबसे अिधक कोध बेचारे िनरपराध तोताराम पर आता। वह
सदैव इस ताप से जला करती। बाका सवार लददू-टटू पर सवार होना कब पसनद करेगा,
चाहे उसे पैदल ही कयो न चलना पडे? िनमरला की दशा उसी बाके सवार की-सी थी। वह उस
पर सवार होकर उडना चाहती थी, उस उललासमयी िवदत् गित का आननद उठाना चाहती थी,
टटू के िहनिहनाने और कनौितया खडी करने से कया आशा होती? संभव था िक बचचो के साथ
हंसने -खेलने से वह अपनी दशा को थोडी देर के िलए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता,
लेिकन रकिमणी देवी लडको को उसके पास फटकने तक न देती, मानो वह कोई िपशािचनी
है, जो उनहे िनगल जायेगी। रकिमणी देवी का सवभाव सारे संसार से िनराला था, यह पता
लगाना किठन था िक वह िकस बात से खुश होती थी और िकस बात से नाराज। एक बार
िजस बात से खुश हो जाती थी, दस ू री बार उसी बात से जल जाती थी। अगर िनमरला अपने
कमरे मे बैठी रहती, तो कहती िक न जाने कहा की मनहूिसन है! अगर वह कोठे पर चढ जाती
या महिरयो से बाते करती, तो छाती पीटने लगती-न लाज है, न शरम, िनगोडी ने हया भून
खाई! अब कया कुछ िदनो मे बाजार मे नाचेगी! जब से वकील साहब ने िनमरला के हाथ मे
रपये-पैसे देने शुर िकये, रकिमणी उसकी आलोचना करने पर आरढ हो गयी। उनहे मालूम
होता था। िक अब पलय होने मे बहुत थोडी कसर रह गयी है। लडको को बार-बार पैसो की
जररत पडती। जब तक खुद सवािमनी थी, उनहे बहला िदया करती थी। अब सीधे िनमरला
के पास भेज देती। िनमरला को लडको के चटोरापन अचछा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने
से इनकार कर देती। रकिमणी को अपने वागबाण सर करने का अवसर िमल जाता-अब तो
मालिकन हुई है, लडके काहे को िजयेगे। िबना मा के बचचे को कौन पूछे? रपयो की िमठाइया
खा जाते थे, अब धेले-धेले को तरसते है। िनमरला अगर िचढकर िकसी िदन िबना कुछ पूछे-
ताछे पैसे दे देती, तो देवीजी उसकी दसू री ही आलोचना करती-इनहे कया, लडके मरे या िजये,
इनकी बला से, मा के िबना कौन समझाये िक बेटा, बहुत िमठाइया मत खाओ। आयी-गयी तो
मेरे िसर जायेगी, इनहे कया? यही तक होता, तो िनमरला शायद जबत कर जाती, पर देवीजी तो
खुिफया पुिलस से िसपाही की भाित िनमरला का पीछा करती रहती थी। अगर वह कोठे पर
खडी है, तो अवशय ही िकसी पर िनगाह डाल रही होगी, महरी से बाते करती है, तो अवशय ही
उनकी िननदा करती होगी। बाजार से कुछ मंगवाती है, तो अवशय कोई िवलास वसतु होगी।
यह बराबर उसके पत पढने की चेषा िकया करती। िछप-िछपकर बाते सुना करती। िनमरला
उनकी दोधरी तलवार से कापती रहती थी। यहा तक िक उसने एक िदन पित से कहा-आप
जरा जीजी को समझा दीिजए, कयो मेरे पीछे पड रहती है?
तोताराम ने तेज होकर कह- तुमहे कुछ कहा है, कया?
‘रोज ही कहती है। बात मुंह से िनकालना मुिशकल है। अगर उनहे इस बात की
जलन हो िक यह मालिकन कयो बनी हुई है, तो आप उनही को रपये-पैसे दीिजये, मुझे न

21
चािहये, यही मालिकन बनी रहे। मै तो केवल इतना चाहती हूं िक कोई मुझे ताने -मेहने न िदया
करे।’
यह कहते-कहते िनमरला की आंखो से आंसू बहने लगे। तोताराम को अपना पेम
िदखाने का यह बहुत ही अचछा मौका िमला। बोले-मै आज ही उनकी खबर लूंगा। साफ कह
दंगू ा, मुंह बनद करके रहना है, तो रहो, नही तो अपनी राह लो। इस घर की सवािमनी वह नही
है, तुम हो। वह केवल तुमहारी सहायता के िलए है। अगर सहायता करने के बदले तुमहे िदक
करती है, तो उनके यहा रहने की जररत नही। मैने सोचा था िक िवधवा है , अनाथ है, पाव
भर आटा खायेगी, पडी रहेगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे है, तो वह तो अपनी बिहन ही
है। लडको की देखभाल के िलए एक औरत की जररत भी थी, रख िलया, लेिकन इसके यह
माने नही िक वह तुमहारे ऊपर शासन करे।
िनमरला ने िफर कहा-लडको को िसखा देती है िक जाकर मा से पैसे मागे, कभी कुछ-
कभी कुछ। लडके आकर मेरी जान खाते है। घडी भर लेटना मुिशकल हो जाता है। डाटती
हूं, तो वह आखे लाल-पीली करके दौडती है। मुझे समझती है िक लडको को देखकर जलती
है। ईशर जानते होगे िक मै बचचो को िकतना पयार करती हूं। आिखर मेरे ही बचचे तो है।
मुझे उनसे कयो जलन होने लगी?
तोताराम कोध से काप उठे। बोल-तुमहे जो लडका िदक करे, उसे पीट िदया करो। मै
भी देखता हूं िक लौडे शरीर हो गये है। मंसाराम को तो मे बोिडरगं हाउस मे भेज दंगू ा। बाकी
दोनो को तो आज ही ठीक िकये देता हूं।
उस वकत तोताराम कचहरी जा रहे थे, डाट-डपट करने का मौका न था, लेिकन
कचहरी से लौटते ही उनहोने घर मे रिकमणी से कहा-कयो बिहन, तुमहे इस घर मे रहना है या
नही? अगर रहना है, शानत होकर रहो। यह कया िक दस ू रो का रहना मुिशकल कर दो।
रिकमणी समझ गयी िक बहू ने अपना वार िकया, पर वह दबने वाली औरत न थी।
एक तो उम मे बडी ितस पर इसी घर की सेवा मे िजनदगी काट दी थी। िकसकी मजाल थी
िक उनहे बेदखल कर दे! उनहे भाई की इस कुदता पर आशयर हुआ। बोली-तो कया लौडी
बनाकर रखेगे? लौडी बनकर रहना है, तो इस घर की लौडी न बनूंगी। अगर तुमहारी यह
इचछा हो िक घर मे कोई आग लगा दे और मै खडी देखा करं, िकसी को बेराह चलते देख;ूं तो
चुप साध लूं, जो िजसके मन मे आये करे, मै िमटी की देवी बनी रहूं, तो यह मुझसे न होगा।
यह हुआ कया, जो तुम इतना आपे से बाहर हो रहे हो? िनकल गयी सारी बुिदमानी, कल की
लौिडया चोटी पकडकर नचाने लगी? कुछ पूछना न ताछना, बस, उसने तार खीचा और तुम
काठ के िसपाही की तरह तलवार िनकालकर खडे हो गये।
तोता-सुनता हूं, िक तुम हमेशा खुचर िनकालती रहती हो, बात-बात पर ताने देती हो।
अगर कुछ सीख देनी हो, तो उसे पयार से, मीठे शबदो मे देनी चािहये। तानो से सीख िमलने के
बदले उलटा और जी जलने लगता है।
रिकमणी-तो तुमहारी यह मजी है िक िकसी बात मे न बोलूं, यही सही, िकन िफर यह न
कहना, िक तुम घर मे बैठी थी, कयो नही सलाह दी। जब मेरी बाते जहर लगती है, तो मुझे
कया कुते ने काटा है, जो बोलूं? मसल है- ‘नाटो खेती, बहुिरयो घर।’ मै भी देखूं, बहुिरया कैसे
कर चलाती है!
इतने मे िसयाराम और िजयाराम सकूल से आ गये। आते ही आते दोनो बुआजी के पास
जाकर खाने को मागने लगे।
रिकमणी ने कहा-जाकर अपनी नयी अममा से कयो नही मागते, मुझे बोलने का हुकम
नही है।
तोता-अगर तुम लोगो ने उस घर मे कदम रखा, तो टाग तोड दंगू ा। बदमाशी पर कमर
बाधी है।

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िजयाराम जरा शोख था। बोला-उनको तो आप कुछ नही कहते, हमी को धमकाते है।
कभी पैसे नही देती।
िसयाराम ने इस कथन का अनुमोदन िकया-कहती है, मुझे िदक करोगे तो कान काट
लूंगी। कहती है िक नही िजया?
िनमरला अपने कमरे से बोली-मैने कब कहा था िक तुमहारे कान काट लूंगी अभी से झूठ
बोलने लगे?
इतना सुनना था िक तोताराम ने िसयाराम के दोनो कान पकडकर उठा िलया। लडका
जोर से चीख मारकार रोने लगा।
रिकमणी ने दौडकर बचचे को मुंशीजी के हाथ से छुडा िलया और बोली- बस, रहने भी
दो, कया बचचे को मार डालोगे? हाय-हाय! कान लाल हो गया। सच कहा है, नयी बीवी पाकर
आदमी अनधा हो जाता है। अभी से यह हाल है, तो इस घर के भगवान ही मािलक है।
िनमरला अपनी िवजय पर मन-ही-मन पसन हो रही थी, लेिकन जब मुंशी जी ने बचचे
का कान पकडकर उठा िलया, तो उससे न रहा गया। छुडाने को दौडी, पर रिकमणी पहले ही
पहंचु गयी थी। बोली-पहले आग लगा दी, अब बुझाने दौडी हो। जब अपने लडके होगे, तब
आंखे खुलेगी। पराई पीर कया जानो?
िनमरला- खडे तो है, पूछ लो न, मैने कया आग लगा दी? मैने इतना ही कहा था िक
लडके मुझे पैसो के िलए बार-बार िदक करते है, इसके िसवाय जो मेरे मुंह से कुछ िनकला हो,
तो मेरे आंखे फूट जाये।
तोता-मै खुद इन लौडो की शरारत देखा करता ह,ूं अनधा थोडे ही हूं। तीनो िजदी और
शरीर हो गये है। बडे िमया को तो मै आज ही होसटल मे भेजता हूं।
रिकमणी-अब तक तुमहे इनकी कोई शरारत न सूझी थी, आज आंखे कयो इतनी तेज हो
गयी?
तोताराम- तुमही न इनहे इतना शोख कर रखा है।
रकिमणी- तो मै ही िवष की गाठ हूं। मेरे ही कारण तुमहारा घर चौपट हो रहा है। लो
मै जाती हूं, तुमहारे लडके है, मारो चाहे काटो, न बोलूंगी।
यह कहकर वह वहा से चली गयी। िनमरला बचचे को रोते देखकर िवहृल हो उठी।
उसने उसे छाती से लगा िलया और गोद मे िलए हुए अपने कमरे मे लाकर उसे चुमकारने
लगी, लेिकन बालक और भी िससक-िससक कर रोने लगा। उसका अबोध हृदय इस पयार मे
वह मातृ-सनेह न पाता था, िजससे दैव ने उसे वंिचत कर िदया था। यह वातसलय न था, केवल
दया थी। यह वह वसतु थी, िजस पर उसका कोई अिधकार न था, जो केवल िभका के रप मे
उसे दी जा रही थी। िपता ने पहले भी दो-एक बार मारा था, जब उसकी मा जीिवत थी,
लेिकन तब उसकी मा उसे छाती से लगाकर रोती न थी। वह अपसन होकर उससे बोलना
छोड देती, यहा तक िक वह सवयं थोडी ही देर के बाद कुछ भूलकर िफर माता के पास दौडा
जाता था। शरारत के िलए सजा पाना तो उसकी समझ मे आता था, लेिकन मार खाने पार
चुमकारा जाना उसकी समझ मे न आता था। मातृ-पेम मे कठोरता होती थी, लेिकन मृदुलता
से िमली हुई। इस पेम मे करणा थी, पर वह कठोरता न थी, जो आतमीयता का गुपत संदेश
है। सवसथ अंग की पारवाह कौन करता है? लेिकन वही अंग जब िकसी वेदना से टपकने
लगता है, तो उसे ठेस और घके से बचाने का यत िकया जाता है। िनमरला का करण रोदन
बालक को उसके अनाथ होने की सूचना दे रहा था। वह बडी देर तक िनमरला की गोद मे
बैठा रोता रहा और रोते-रोते सो गया। िनमरला ने उसे चारपाई पर सुलाना चाहा, तो बालक ने
सुषुपतावसथा मे अपनी दोनो कोमल बाहे उसकी गदरन मे डाल दी और ऐसा िचपट गया, मानो
नीचे कोई गढा हो। शंका और भय से उसका मुख िवकृत हो गया। िनमरला ने िफर बालक को
गोद मे उठा िलया, चारपाई पर न सुला सकी। इस समय बालक को गोद मे िलये हुए उसे वह

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तुिष हो रही थी, जो अब तक कभी न हुई थी, आज पहली बार उसे आतमवेदना हुई, िजसके
ना आंख नही खुलती, अपना कतरवय-मागर नही समझता। वह मागर अब िदखायी देने लगा।

पप

उसिक िदनिनमरलअपने पगाढ पणय का सबल पमाण देने के बाद मुंशी तोताराम को आशा हुई थी
ा के ममर-सथल पर मेरा िसका जम जायेगा, लेिकन उनकी यह आशा लेशमात भी
पूरी न हुई बिलक पहले तो वह कभी-कभी उनसे हंसकर बोला भी करती थी, अब बचचो ही के
लालन-पालन मे वयसत रहने लगी। जब घर आते, बचचो को उसके पास बैठे पाते। कभी
देखते िक उनहे ला रही है, कभी कपडे पहना रही है, कभी कोई खेल, खेला रही है और कभी
कोई कहानी कह रही है। िनमरला का तृिषत हृदय पणय की ओर से िनराश होकर इस अवलमब
ही को गनीमत समझने लगा, बचचो के साथ हंसने -बोलने मे उसकी मातृ-कलपना तृपत होती
थी। पित के साथ हंसने -बोलने मे उसे जो संकोच, जो अरिच तथा जो अिनचछा होती थी,
यहा तक िक वह उठकर भाग जाना चाहती, उसके बदले बालको के सचचे, सरल सनेह से
िचत पसन हो जाता था। पहले मंसाराम उसके पास आते हुए िझझकता था, लेिकन मानिसक
िवकास मे पाच साल छोटा। हॉकी और फुटबाल ही उसका संसार, उसकी कलपनाओं का
मुकत-केत तथा उसकी कामनाओं का हरा-भरा बाग था। इकहरे बदन का छरहरा, सुनदर,
हंसमुख, लजजशील बालक था, िजसका घर से केवल भोजन का नाता था, बाकी सारे िदन न
जाने कहा घूमा करता। िनमरला उसके मुंह से खेल की बाते सुनकर थोडी देर के िलए अपनी
िचनताओं को भूल जाती और चाहती थी एक बार िफर वही िदन आ जाते, जब वह गुिडया
खेलती और उसके बयाह रचाया करती थी और िजसे अभी थोडे आह, बहुत ही थोडे िदन
गुजरे थे।
मुंशी तोताराम अनय एकानत-सेवी मनुषयो की भाित िवषयी जीव थे। कुछ िदनो तो वह
िनमरला को सैर-तमाशे िदखाते रहे, लेिकन जब देखा िक इसका कुछ फल नही होता, तो िफर
एकानत-सेवन करने लगे। िदन-भर के किठन मािसक पिरशम के बाद उनका िचत आमोद-
पमोद के िलए लालियत हो जाता, लेिकन जब अपनी िवनोद-वािटका मे पवेश करते और उसके
फूलो को मुरझाया, पौधो को सूखा और कयािरयो से धूल उडती हुई देखते, तो उनका जी
चाहता-कयो न इस वािटका को उजाड दं?ू िनमरला उनसे कयो िवरकत रहती है, इसका रहसय
उनकी समझ मे न आता था। दमपित शासत के सारे मनतो की परीका कर चुके, पर मनोरथ
पूरा न हुआ। अब कया करना चािहये, यह उनकी समझ मे न आता था।
एक िदन वह इसी िचंता मे बैठे हुए थे िक उनके सहपाठी िमत नयनसुखराम आकर बैठ
गये और सलाम-वलाम के बाद मुसकराकर बोले-आजकल तो खूब गहरी छनती होगी। नयी
बीवी का आिलंगन करके जवानी का मजा आ जाता होगा? बडे भागयवान हो! भई रठी हुई
जवानी को मनाने का इससे अचछा कोई उपाय नही िक नया िववाह हो जाये। यहा तो िजनदगी
बवाल हो रही है। पती जी इस बुरी तरह िचमटी है िक िकसी तरह िपणड ही नही छोडती। मै
तो दस ू री शादी की िफक मे हूं। कही डौल हो, तो ठीक-ठाक कर दो। दसतूरी मे एक िदन
तुमहे उसके हाथ के बने हुए पान िखला देगे।
तोताराम ने गमभीर भाव से कहा-कही ऐसी िहमाकत न कर बैठना, नही तो पछताओगे।
लौिडया तो लौडो से ही खुश रहती है। हम तुम अब उस काम के नही रहे। सच कहता हूं मै
तो शादी करके पछता रहा ह,ूं बुरी बला गले पडी! सोचा था, दो-चार साल और िजनदगी का
मजा उठा लू,ं पर उलटी आंते गले पडी।
नयनसुख-तुम कया बाते करते हो। लौिडयो को पंजो मे लाना कया मुिशकल बात है,
जरा सैर-तमाशे िदखा दो, उनके रप-रंग की तारीफ कर दो, बस, रंग जम गया।
तोता-यह सब कुछ कर-धरके हार गया।

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नयन-अचछा, कुछ इत-तेल, फूल-पते, चाट-वाट का भी मजा चखाया?
तोता-अजी, यह सब कर चुका। दमपित-शासत के सारे मनतो का इमतहान ले चुका,
सब कोरी गपपे है।
नयन-अचछा, तो अब मेरी एक सलाह मानो, जरा अपनी सूरत बनवा लो। आजकल
यहा एक िबजली के डॉकटर आये हुए है, जो बुढापे के सारे िनशान िमटा देते है। कया मजाल
िक चेहरे पर एक झुरीया या िसर का बाल पका रह जाये। न जाने कया जादू कर देते है िक
आदमी का चोला ही बदल जाता है।
तोता-फीस कया लेते है?
नयन-फीस तो सुना है, शायद पाच सौ रपये!
तोता-अजी, कोई पाखणडी होगा, बेवकूफो को लूट रहा होगा। कोई रोगन लगाकर दो-
चार िदन के िलए जरा चेहरा िचकना कर देता होगा। इशतहारी डॉकटरो पर तो अपना िवशास
ही नही। दस-पाच की बात होती, तो कहता, जरा िदललगी ही सही। पाच सौ रपये बडी
रकम है।
नयन-तुमहारे िलए पाच सौ रपये कौन बडी बात है। एक महीने की आमदनी है। मेरे
पास तो भाई पाच सौ रपये होते, तो सबसे पहला काम यही करता। जवानी के एक घणटे की
कीमत पाच सौ रपये से कही जयादा है।
तोता-अजी, कोई ससता नुसखा बताओ, कोई फकीरी जुडी-बूटी जो िक िबना हरर-
िफटकरी के रंग चीखा हो जाये। िबजली और रेिडयम बडे आदिमयो के िलए रहने दो। उनही
को मुबारक हो।
नयन-तो िफर रंगीलेपन का सवाग रचो। यह ढीला-ढाला कोट फेको, तंजेब की चुसत
अचकन हो, चुनटदार पाजामा, गले मे सोने की जंजीर पडी हुई, िसर पर जयपुरी साफा बाधा
हुआ, आंखो मे सुरमा और बालो मे िहना का तेल पडा हुआ। तोद का िपचकना भी जररी है।
दोहरा कमरबनद बाधे। जरा तकलीफ तो होगी, पार अचकन सज उठेगी। िखजाब मै ला
दंगू ा। सौ-पचास गजले याद कर लो और मौके-मौके से शेर पढी। बातो मे रस भरा हो। ऐसा
मालूम हो िक तुमहे दीन और दुिनया की कोई िफक नही है, बस, जो कुछ है, िपयतमा ही है।
जवामदी और साहस के काम करने का मौका ढू ंढते रहो। रात को झूठ -मूठ शोर करो-चोर-
चोर और तलवार लेकर अकेले िपल पडो। हा, जरा मौका देख लेना, ऐसा न हो िक सचमुच
कोई चोर आ जाये और तुम उसके पीछे दौडो, नही तो सारी कलई खुल जायेगी और मुफत के
उललू बनोगे। उस वकत तो जवामदी इसी मे है िक दम साधे खडे रहो, िजससे वह समझे िक
तुमहे खबर ही नही हुई, लेिकन जयोही चोर भाग खडा हो, तुम भी उछलकर बाहर िनकलो और
तलवार लेकर ‘कहा? कहा?’ कहते दौडो। जयादा नही, एक महीना मेरी बातो का इमतहान
करके देखे। अगर वह तुमहारी दम न भरने लगे, तो जो जुमाना कहो, वह दं।

तोताराम ने उस वकत तो यह बाते हंसी मे उडा दी, जैसा िक एक वयवहार कुशल
मनुषय को करना चिहए था, लेिकन इसमे की कुछ बाते उसके मन मे बैठ गयी। उनका असर
पडने मे कोई संदेह न था। धीरे-धीरे रंग बदलने लगे, िजसमे लोग खटक न जाये। पहले
बालो से शुर िकया, िफर सुरमे की बारी आयी, यहा तक िक एक-दो महीने मे उनका कलेवर
ही बदल गया। गजले याद करने का पसताव तो हासयासपद था, लेिकन वीरता की डीग मारने
मे कोई हािन न थी।
उस िदन से वह रोज अपनी जवामदी का कोई-न-कोई पसंग अवशय छेड देते। िनमरला
को सनदेह होने लगा िक कही इनहे उनमाद का रोग तो नही हो रहा है। जो आदमी मूंग की दाल
और मोटे आटे के दो फुलके खाकर भी नमक सुलेमानी का मुहताज हो, उसके छैलेपन पर
उनमाद का सनदेह हो, तो आशयर ही कया? िनमरला पर इस पागलपन का और कया रंग जमता?
हो उसे उन पार दया आजे लगी। कोध और घृणा का भाव जाता रहा। कोध और घृणा उन
पर होती है, जो अपने होश मे हो, पागल आदमी तो दया ही का पात है। वह बात-बात मे

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उनकी चुटिकया लेती, उनका मजाक उडाती, जैसे लोग पागलो के साथ िकया करते है। हा,
इसका धयान रखती थी िक वह समझ न जाये। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का पायिशत
कर रहा है। यह सारा सवाग केवल इसिलए तो है िक मै अपना दु :ख भूल जाऊं। आिखर
अब भागय तो बदल सकता नही, इस बेचारे को कयो जलाऊं?
एक िदन रात को नौ बजे तोताराम बाके बने हुए सैर करके लौटे और िनमरला से बोले -
आज तीन चोरो से सामना हो गया। जरा िशवपुर की तरफ चला गया था। अंधेरा था ही।
जयोही रेल की सडक के पास पहंुचा, तो तीन आदमी तलवार िलए हुए न जाने िकधर से
िनकल पडे। यकीन मानो, तीनो काले देव थे। मै िबलकुल अकेला, पास मे िसफर यह छडी
थी। उधर तीनो तलवार बाधे हुए, होश उड गये। समझ गया िक िजनदगी का यही तक साथ
था, मगर मैने भी सोचा, मरता ही ह,ूं तो वीरो की मौत कयो न मरं । इतने मे एक आदमी ने
ललकार कर कहा-रख दे तेरे पास जो कुछ हो और चुपके से चला जा।
मै छडी संभालकर खडा हो गया और बोला-मेरे पास तो िसफर यह छडी है और इसका
मूलय एक आदमी का िसर है।
मेरे मुंह से इतना िनकलना था िक तीनो तलवार खीचकर मुझ पर झपट पडे और मै
उनके वारो को छडी पर रोकने लगा। तीनो झलला-झललाकर वार करते थे, खटाके की
आवाज होती थी और मै िबजली की तरह झपटकर उनके तारो को काट देता था। कोई दस
िमनट तक तीनो ने खूब तलवार के जौहर िदखाये, पर मुझ पर रेफ तक न आयी। मजबूरी
यही थी िक मेरे हाथ मे तलवार न थी। यिद कही तलवार होती, तो एक को जीता न छोडता।
खैर, कहा तक बयान करं । उस वकत मेरे हाथो की सफाई देखने कािबल थी। मुझे खुद
आशयर हो रहा था िक यह चपलता मुझमे कहा से आ गयी। जब तीनो ने देखा िक यहा दाल
नही गलने की, तो तलवार मयान मे रख ली और पीठ ठोककर बोले-जवान, तुम-सा वीर आज
तक नही देखा। हम तीनो तीन सौ पर भारी गाव-के-गाव ढोल बजाकर लूटते है, पर आज
तुमने हमे नीचा िदखा िदया। हम तुमहारा लोहा मान गए। यह कहकर तीनो िफर नजरो से
गायब हो गए।
िनमरला ने गमभीर भाव से मुसकराकर कहा-इस छडी पर तो तलवार के बहुत से िनशान
बने हुए होगे?
मुंशीजी इस शंका के िलए तैयार न थे, पर कोई जवाब देना आवशयक था, बोले-मै वारो
को बराबर खाली कर देता। दो-चार चोटे छडी पर पडी भी, तो उचटती हुई, िजनसे कोई
िनशान नही पड सकता था।
अभी उनके मुंह से पूरी बात भी न िनकली थी िक सहसा रिकमणी देवी बदहवास
दौडती हुई आयी और हाफते हुए बोली-तोता है िक नही? मेरे कमरे मे साप िनकल आया है।
मेरी चारपाई के नीचे बैठा हुआ है। मै उठकर भागी। मुआ कोई दो गज का होगा। फन
िनकाले फुफकार रहा है, जरा चलो तो। डंडा लेते चलना।
तोताराम के चेहरे का रंग उड गया, मुंह पर हवाइया छुटने लगी, मगर मन के भावो को
िछपाकर बोले-साप यहा कहा? तुमहे धोखा हुआ होगा। कोई रससी होगी।
रिकमणी-अरे, मैने अपनी आंखो देखा है। जरा चलकर देख लो न। है, है। मदर होकर
डरते हो?
मुंशीजी घर से तो िनकले, लेिकन बरामदे मे िफर िठठक गये। उनके पाव ही न उठते
थे कलेजा धड-धड कर रहा था। साप बडा कोधी जानवर है। कही काट ले तो मुफत मे पाण
से हाथ धोना पडे। बोले-डरता नही हूं। साप ही तो है, शेर तो नही, मगर साप पर लाठी नही
असर करती, जाकर िकसी को भेजूं, िकसी के घर से भाला लाये।
यह कहकर मुंशीजी लपके हुए बाहर चले गये। मंसाराम बैठा खाना खा रहा था।
मुंशीजी तो बाहर चले गये, इधर वह खाना छोड, अपनी हॉकी का डंडा हाथ मे ले, कमरे मे
घुस ही तो पडा और तुरत ं चारपाई खीच ली। साप मसत था, भागने के बदले फन िनकालकर

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खडा हो गया। मंसाराम ने चटपट चारपाई की चादर उठाकर साप के ऊपर फेक दी और
ताबडतोड तीन-चार डंडे कसकर जमाये। साप चादर के अंदर तडप कर रह गया। तब उसे
डंडे पर उठाये हुए बाहर चला। मुंशीजी कई आदिमयो को साथ िलये चले आ रहे थे।
मंसाराम को साप लटकाये आते देखा, तो सहसा उनके मुंह से चीख िनकल पडी, मगर िफर
संभल गये और बोले-मै तो आ ही रहा था, तुमने कयो जलदी की? दे दो, कोई फेक आए।
यह कहकर बहादुरी के साथ रिकमणी के कमरे के दार पर जाकर खडे हो गये और
कमरे को खूब देखभाल कर मूंछो पर ताव देते हुए िनमरला के पास जाकर बोले-मै जब तक
आऊं-जाऊं, मंसाराम ने मार डाला। बेसमझ् लडका डंडा लेकर दौड पडा। साप हमेशा भाले
से मारना चािहए। यही तो लडको मे ऐब है। मैने ऐसे-ऐसे िकतने साप मारे है। साप को
िखला-िखलाकर मारता हूं। िकतनो ही को मुटी से पकडकर मसल िदया है।
रिकमणी ने कहा-जाओ भी, देख ली तुमहारी मदानगी।
मुंशीजी झेपकर बोले-अचछा जाओ, मै डरपोक ही सही, तुमसे कुछ इनाम तो नही माग
रहा हूं। जाकर महाराज से कहा, खाना िनकाले।
मुंशीजी तो भोजन करने गये और िनमरला दार की चौखट पर खडी सोच रही थी-
भगवान्। कया इनहे सचमुच कोई भीषण रोग हो रहा है? कया मेरी दशा को और भी दारण
बनाना चाहते हो? मै इनकी सेवा कर सकती हूं, सममान कर सकी हूं, अपना जीवन इनके
चरणो पर अपरण कर सकती हूं, लेिकन वह नही कर सकती, जो मेरे िकये नही हो सकता।
अवसथा का भेद िमटाना मेरे वश की बात नही । आिखर यह मुझसे कया चाहते है -समझ्
गयी। आह यह बात पहले ही नही समझी थी, नही तो इनको कयो इतनी तपसया करनी पडती
कयो इतने सवाग भरने पडते।

पपप

उसिनशयिदनकरसे िनमरिदया।ला काअबरंतक


ग-ढंग बदलने लगा। उसने अपने को कतरवय पर िमटा देने का
नैराशय के संताप मे उसने कतरवय पर धयान ही न िदया था
उसके हृदय मे िवपलव की जवाला-सी दहकती रहती थी, िजसकी असह वेदना ने उसे
संजाहीन-सा कर रखा था। अब उस वेदना का वेग शात होने लगा। उसे जात हुआ िक मेरे
िलए जीवन का कोई आंनद नही। उसका सवप देखकर कयो इस जीवन को नष करं । संसार
मे सब-के-सब पाणी सुख-सेज ही पर तो नही सोते। मै भी उनही अभागो मे से हूं। मुझे भी
िवधाता ने दुख की गठरी ढोने के िलए चुना है। वह बोझ िसर से उतर नही सकता। उसे
फेकना भी चाहूं, तो नही फेक सकती। उस किठन भार से चाहे आंखो मे अंधेरा छा जाये, चाहे
गदरन टू टने लगे, चाहे पैर उठाना दुसतर हो जाये, लेिकन वह गठरी ढोनी ही पडेगी ? उम भर
का कैदी कहा तक रोयेगा? रोये भी तो कौन देखता है? िकसे उस पर दया आती है? रोने से
काम मे हजर होने के कारण उसे और यातनाएं ही तो सहनी पडती है।
दस
ू रे िदन वकील साहब कचहरी से आये तो देखा-िनमरला की सहासय मूितर अपने
कमरे के दार पर खडी है। वह अिननद छिव देखकर उनकी आंखे तृपत हा गयी। आज बहुत
िदनो के बाद उनहे यह कमल िखला हुआ िदखलाई िदया। कमरे मे एक बडा-सा आईना दीवार
मे लटका हुआ था। उस पर एक परदा पडा रहता था। आज उसका परदा उठा हुआ था।
वकील साहब ने कमरे मे कदम रखा, तो शीशे पर िनगाह पडी। अपनी सूरत साफ-साफ
िदखाई दी। उनके हृदय मे चोट-सी लग गयी। िदन भर के पिरशम से मुख की काित मिलन
हो गयी थी, भाित-भाित के पौिषक पदाथर खाने पर भी गालो की झुिररया साफ िदखाई दे रही
थी। तोद कसी होने पर भी िकसी मुंहजोर घोडे की भाित बाहर िनकली हईु थी। आईने के ही
सामने िकनतू दस ू री ओर ताकती हुई िनमरला भी खडी हुई थी। दोनो सूरतो मे िकतना अंतर
था। एक रत जिटत िवशाल भवन, दस ू रा टू टा-फूटा खंडहर। वह उस आईने की ओर न देख

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सके। अपनी यह हीनावसथा उनके िलए असह थी। वह आईने के सामने से हट गये , उनहे
अपनी ही सूरत से घृणा होने लगी। िफर इस रपवती
कािमनी का उनसे घृणा करना कोई आशयर की बात न थी। िनमरला की ओर ताकने का भी
उनहे साहस न हुआ। उसकी यह अनुपम छिव उनके हृदय का शूल बन गयी।
िनमरला ने कहा-आज इतनी देर कहा लगायी? िदन भर राह देखते-देखते आंखे फूट
जाती है।
तोताराम ने िखडकी की ओर ताकते हुए जवाब िदया-मुकदमो के मारे दम मारने की
छुटी नही िमलती। अभी एक मुकदमा और था, लेिकन मै िसरददर का बहाना करके भाग खडा
हुआ।
िनमरला-तो कयो इतने मुकदमे लेते हो? काम उतना ही करना चािहए िजतना आराम से
हो सके। पाण देकर थोडे ही काम िकया जाता है। मत िलया करो, बहुत मुकदमे। मुझे
रपयो का लालच नही। तुम आराम से रहोगे, तो रपये बहुत िमलेगे।
तोताराम-भई, आती हुई लकमी भी तो नही ठुकराई जाती।
िनमरला-लकमी अगर रकत और मास की भेट लेकर आती है, तो उसका न आना ही
अचछा। मै धन की भूखी नही हूं।
इस वकत मंसाराम भी सकूल से लौटा। धूप मे चलने के कारण मुख पर पसीने की बूंदे
आयी हुई थी, गोरे मुखडे पर खून की लाली दौड रही थी, आंखो से जयोित-सी िनकलती मालूम
होती थी। दार पर खडा होकर बोला-अममा जी, लाइए, कुछ खाने का िनकािलए, जरा खेलने
जाना है।
िनमरला जाकर िगलास मे पानी लाई और एक तशतरी मे कुछ मेवे रखकर मंसाराम को
िदए। मंसाराम जब खाकर चलने लगा, तो िनमरला ने पूछा-कब तक आओगे?
मंसाराम-कह नही सकता, गोरो के साथ हॉकी का मैच है। बारक यहा से बहुत दरू
है।
िनमरला-भई, जलद आना। खाना ठणडा हो जायेगा, तो कहोगे मुझे भूख नही है।
मंसाराम ने िनमरला की ओर सरल सनेह भाव से देखकर कहा-मुझे देर हो जाये तो
समझ लीिजएगा, वही खा रहा हूं। मेरे िलए बैठने की जररत नही।
वह चला गया, तो िनमरला बोली-पहले तो घर मे आते ही न थे, मुझसे बोलते शमाते
थे। िकसी चीज की जररत होती, तो बाहर से ही मंगवा भेजते। जब से मैने बुलाकर कहा,
तब से आने लगे है।
तोताराम ने कुछ िचढकर कहा-यह तुमहारे पास खाने-पीने की चीजे मागने कयो आता
है? दीदी से कयो नही कहता?
िनमरला ने यह बात पशंसा पाने के लोभ से कही थी। वह यह िदखाना चाहती थी िक
मै तुमहारे लडको को िकतना चाहती हूं। यह कोई बनावटी पेम न था। उसे लडको से
सचमुच सनेह था। उसके चिरत मे अभी तक बाल-भाव ही पधान था, उसमे वही उतसुकता,
वही चंचलता, वही िवनोदिपयता िवदमान थी और बालको के साथ उसकी ये बालवृितया
पसफुिटत होती थी। पती-सुलभ ईषया अभी तक उसके मन मे उदय नही हुई थी, लेिकन पित
के पसन होने के बदले नाक-भौ िसकोडने का आशय न समझकर बोली-मै कया जानूं, उनसे
कयो नही मागते? मेरे पास आते है, तो दुतकार नही देती। अगर ऐसा करं , तो यही होगा िक
यह लडको को देखकर जलती है।
मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न िदया, लेिकन आज उनहोने मुविकलो से बाते नही की,
सीधे मंसाराम के पास गये और उसका इमतहान लेने लगे। यह जीवन मे पहला ही अवसर था
िक इनहोने मंसाराम या िकसी लडके की िशकोनित के िवषय मे इतनी िदलचसपी िदखायी हो।
उनहे अपने काम से िसर उठाने की फुरसत ही न िमलती थी। उनहे इन िवषयो को पढे हुए
चालीस वषर के लगभग हो गये थे। तब से उनकी ओर आंख तक न उठायी थी। वह कानूनी

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पुसतको और पतो के िसवा और कुछ पडते ही न थे। इसका समय ही न िमलता, पर आज
उनही िवषयो मे मंसाराम की परीका लेने लगे। मंसाराम जहीन था और इसके साथ ही मेहनती
भी था। खेल मे भी टीम का कैपटन होने पर भी वह कलास मे पथम रहता था। िजस पाठ को
एक बार देख लेता, पतथर की लकीर हो जाती थी। मुंशीजी को उतावली मे ऐसे मािमरक पश
तो सूझे नही, िजनके उतर देने मे चतुर लडके को भी कुछ सोचना पडता और ऊपरी पशो को
मंसाराम से चुटिकयो मे उडा िदया। कोई िसपाही अपने शतु पर वार खाली जाते देखकर
जैसे झलला-झललाकर और भी तेजी से वार करता है, उसी भाित मंसाराम के जवाबो को सुन-
सुनकर वकील साहब भी झललाते थे। वह कोई ऐसा पश करना चाहते थे, िजसका जवाब
मंसाराम से न बन पडे। देखना चाहते थे िक इसका कमजोर पहलू कहा है। यह देखकर अब
उनहे संतोष न हो सकता था िक वह कया करता है। वह यह देखना चाहते थे िक यह कया
नही कर सकता। कोई अभयसत परीकक मंसाराम की कमजोिरयो को आसानी से िदखा देता,
पर वकील साहब अपनी आधी शताबदी की भूली हुई िशका के आधार पर इतने सफल कैसे
होते? अंत मे उनहे अपना गुससा उतारने के िलए कोई बहाना न िमला तो बोले-मै देखता हूं, तुम
सारे िदन इधर-उधर मटरगशती िकया करते हो, मै तुमहारे चिरत को तुमहारी बुिद से बढकर
समझता हूं और तुमहारा यो आवारा घूमना मुझे कभी गवारा नही हो सकता।
मंसाराम ने िनभीकता से कहा-मै शाम को एक घणटा खेलने के िलए जाने के िसवा िदन
भर कही नही जाता। आप अममा या बुआजी से पूछ ले। मुझे खुद इस तरह घूमना पसंद
नही। हा, खेलने के िलए हेड मासटर साहब से आगह करके बुलाते है, तो मजबूरन जाना
पडता है। अगर आपको मेरा खेलने जाना पसंद नही है, तो कल से न जाऊंगा।
ू री ही रख पर जा रही है, तो तीवर सवर मे बोले-मुझे इस
मुंशीजी ने देखा िक बाते दस
बात का इतमीनान कयोकर हो िक खेलने के िसवा कही नही घूमने जाते? मै बराबर िशकायते
सुनता हूं।
मंसाराम ने उतेिजत होकर कहा-िकन महाशय ने आपसे यह िशकायत की है, जरा मै
भी तो सुन?ूं
वकील-कोई हो, इससे तुमसे कोई मतलब नही। तुमहे इतना िवशास होना चािहए िक मै
झूठा आकेप नही करता।
मंसाराम-अगर मेरे सामने कोई आकर कह दे िक मैने इनहे कही घूमते देखा है, तो मुंह
न िदखाऊं।
वकील-िकसी को ऐसी कया गरज पडी है िक तुमहारी मुंह पर तुमहारी िशकायत करे
और तुमसे बैर मोल ले? तुम अपने दो-चार सािथयो को लेकर उसके घर की खपरैल फोडते
िफरो। मुझसे इस िकसम की िशकायत एक आदमी ने नही, कई आदिमयो ने की है और कोई
वजह नही है िक मै अपने दोसतो की बात पर िवशास न करं । मै चाहता हूं िक तुम सकूल ही
मे रहा करो।
मंसाराम ने मुंह िगराकर कहा-मुझे वहा रहने मे कोई आपित नही है, जब से किहये,
चला जाऊं।
वकील- तुमने मुंह कयो लटका िलया? कया वहा रहना अचछा नही लगता? ऐसा मालूम
होता है, मानो वहा जाने के भय से तुमहारी नानी मरी जा रही है। आिखर बात कया है , वहा तुमहे
कया तकलीफ होगी?
मंसाराम छातालय मे रहने के िलए उतसुक नही था, लेिकन जब मुंशीजी ने यही बात
कह दी और इसका कारण पूछा, सो वह अपनी झेप िमटाने के िलए पसनिचत होकर बोला-मुंह
कयो लटकाऊं? मेरे िलए जैसे बोिडरगं हाउस। तकलीफ भी कोई नही, और हो भी तो उसे सह
सकता हूं। मै कल से चला जाऊंगा। हा अगर जगह न खाली हईु तो मजबूरी है।

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मुंशीजी वकील थे। समझ गये िक यह लौडा कोई ऐसा बहाना ढू ंढ रहा है, िजसमे मुझे
वहा जाना भी न पडे और कोई इलजाम भी िसर पर न आये। बोले-सब लडको के िलए जगह
है, तुमहारे ही िलये जगह न होगी?
मंसाराम- िकतने ही लडको को जगह नही िमली और वे बाहर िकराये के मकानो मे पडे
हुए है। अभी बोिडरगं हाउस मे एक लडके का नाम कट गया था, तो पचास अिजरया उस जगह
के िलए आयी थी।
वकील साहब ने जयादा तकर-िवतकर करना उिचत नही समझा। मंसाराम को कल
तैयार रहने की आजा देकर अपनी बगघी तैयार करायी और सैर करने चल गये। इधर कुछ
िदनो से वह शाम को पाय: सैर करने चले जाया करते थे। िकसी अनुभवी पाणी ने बतलाया
था िक दीघर जीवन के िलए इससे बढकर कोई मंत नही है। उनके जाने के बाद मंसाराम
आकर रिकमणी से बोला बुआजी, बाबूजी ने मुझे कल से सकूल मे रहने को कहा है।
रिकमणी ने िविसमत होकर पूछा-कयो?
मंसाराम-मै कया जानू? कहने लगे िक तुम यहा आवारो की तरह इधर-उधर िफरा करते
हो।
रिकमणी-तूने कहा नही िक मै कही नही जाता।
मंसाराम-कहा कयो नही, मगर वह जब माने भी।
रिकमणी-तुमहारी नयी अममा जी की कृपा होगी और कया?
मंसाराम-नही, बुआजी, मुझे उन पर संदेह नही है, वह बेचारी भूल से कभी कुछ नही
कहती। कोई चीज मागने जाता हूं, तो तुरनत उठाकर दे देती है।
रिकमणी-तू यह ितया-चिरत कया जाने , यह उनही की लगाई हुई आग है। देख, मै
जाकर पूछती हूं।
रिकमणी झललाई हुई िनमरला के पास जा पहंच ु ी। उसे आडे हाथो लेने का, काटो मे
घसीटने का, तानो से छेदने का, रलाने का सुअवसर वह हाथ से न जाने देती थी। िनमरला
उनका आदर करती थी, उनसे दबती थी, उनकी बातो का जवाब तक न देती थी। वह चाहती
थी िक यह िसखावन की बाते कहे, जहा मै भूलूं वहा सुधारे, सब कामो की देख-रेख करती
रहे, पर रिकमणी उससे तनी ही रहती थी।
िनमरला चारपाई से उठकर बोली-आइए दीदी, बैिठए।
रिकमणी ने खडे-खडे कहा-मै पूछती हूं कया तुम सबको घर से िनकालकर अकेले ही
रहना चाहती हो?
िनमरला ने कातर भाव से कहा-कया हुआ दीदी जी? मैने तो िकसी से कुछ नही कहा।
रिकमणी-मंसाराम को घर से िनकाले देती हो, ितस पर कहती हो, मैने तो िकसी से
कुछ नही कहा। कया तुमसे इतना भी देखा नही जाता?
िनमरला-दीदी जी, तुमहारे चरणो को छू कर कहती हूं, मुझे कुछ नही मालूम। मेरी आंखे
फूट जाये, अगर उसके िवषय मे मुंह तक खोला हो।
रिकमणी-कयो वयथर कसमे खाती हो। अब तक तोताराम कभी लडके से नही बोलते
थे। एक हफते के िलए मंसाराम निनहाल चला गया था, तो इतने घबराए िक खुद जाकर िलवा
लाए। अब इसी मंसाराम को घर से िनकालकर सकूल मे रखे देते है। अगर लडके का बाल
भी बाका हुआ, तो तुम जानोगी। वह कभी बाहर नही रहा, उसे न खाने की सुध रहती है, न
पहनने की-जहा बैठता, वही सो जाता है। कहने को तो जवान हो गया, पर सवभाव बालको-सा
है। सकूल मे उसकी मरन हो जायेगी। वहा िकसे िफक है िक इसने खोया या नही, कहा
कपडे उतारे, कहा सो रहा है। जब घर मे कोई पूछने वाला नही, तो बाहर कौन पूछेगा मैने
तुमहे चेता िदया, आगे तुम जानो, तुमहारा काम जाने।
यह कहकर रिकमणी वहा से चली गयी।

30
वकील साहब सैर करके लौटे, तो िनमरला न तुरतं यह िवषय छेड िदया-मंसाराम से वह
आजकल थोडी अंगेजी पढती थी। उसके चले जाने पर िफर उसके पढने का हरज न होगा?
दसू रा कौन पढायेगा? वकील साहब को अब तक यह बात न मालूम थी। िनमरला ने सोचा था
िक जब कुछ अभयास हो जायेगा, तो वकील साहब को एक िदन अंगेजी मे बाते करके चिकत
कर दंगू ी। कुछ थोडा-सा जान तो उसे अपने भाइयो से ही हो गया था। अब वह िनयिमत रप
से पढ रही थी। वकील साहब की छाती पर साप-सा लोट गया, तयोिरया बदलकर बोले-वे कब
से पढा रहा है, तुमहे। मुझसे तुमने कभी नही कहा।
िनमरला ने उनका यह रप केवल एक बार देखा था, जब उनहोने िसयाराम को मारते-
मारते बेदम कर िदया था। वही रप और भी िवकराल बनकर आज उसे िफर िदखाई िदया।
सहमती हुई बोली-उनके पढने मे तो इससे कोई हरज नही होता, मै उसी वकत उनसे पढती हूं
जब उनहे फुरसत रहती है। पूछ लेती हूं िक तुमहारा हरज होता हो, तो जाओ। बहुधा जब वह
खेलने जाने लगते है, तो दस िमनट के िलए रोक लेती हूं। मै खुद चाहती हूं िक उनका
नुकसान न हो।
बात कुछ न थी, मगर वकील साहब हताश से होकर चारपाई पर िगर पडे और माथे
पर हाथ रखकर िचंता मे मगन हो गये। उनहोनं िजतना समझा था, बात उससे कही अिधक
बढ गयी थी। उनहे अपने ऊपर कोध आया िक मैने पहले ही कयो न इस लौडे को बाहर रखने
का पबंध िकया। आजकल जो यह महारानी इतनी खुश िदखाई देती है, इसका रहसय अब
समझ मे आया। पहले कभी कमरा इतना सजा-सजाया न रहता था, बनाव-चुनाव भी न करती
थी, पर अब देखता हूं कायापलट-सी हो गयी है। जी मे तो आया िक इसी वकत चलकर
मंसाराम को िनकाल दे, लेिकन पौढ बुिद ने समझाया िक इस अवसर पर कोध की जररत
नही। कही इसने भाप िलया, तो गजब ही हो जायेगा। हा, जरा इसके मनोभावो को टटोलना
चािहए। बोले-यह तो मै जानता हूं िक तुमहे दो-चार िमनट पढाने से उसका हरज नही होता,
लेिकन आवारा लडका है, अपना काम न करने का उसे एक बहाना तो िमल जाता है। कल
अगर फेल हो गया, तो साफ कह देगा-मै तो िदन भर पढाता रहता था। मै तुमहारे िलए कोई
िमस नौकर रख दंगू ा। कुछ जयादा खचर न होगा। तुमने मुझसे पहले कहा ही नही। यह तुमहे
भला कया पढाता होगा, दो-चार शबद बताकर भाग जाता होगा। इस तरह तो तुमहे कुछ भी न
आयेगा।
िनमरला ने तुरनत इस आकेप का खणडन िकया-नही, यह बात तो नही। वह मुझे िदल
लगा कर पढाते है और उनकी शैली भी कुछ ऐसी है िक पढने मे मन लगता है। आप एक िदन
जरा उनका समझाना देिखए। मै तो समझती हूं िक िमस इतने धयान से न पढायेगी।
मुंशीजी अपनी पश-कुशलता पर मूंछो पर ताव देते हुए बोले-िदन मे एक ही बार पढाता
है या कई बार?
िनमरला अब भी इन पशो का आशय न समझी। बोली-पहले तो शाम ही को पढा देते थे,
अब कई िदनो से एक बार आकर िलखना भी देख लेते है। वह तो कहते है िक मै अपने
कलास मे सबसे अचछा हूं। अभी परीका मे इनही को पथम सथान िमला था, िफर आप कैसे
समझते है िक उनका पढने मे जी नही लगता? मै इसिलए और भी कहती हूं िक दीदी समझेगी,
इसी ने यह आग लगाई है। मुफत मे मुझे ताने सुनने पडेगे। अभी जरा ही देर हुई, धमकाकर
गयी है।
मुंशीजी ने िदल मे कहा-खूब समझता हूं। तुम कल की छोकरी होकर मुझे चराने
चली। दीदी का सहारा लेकर अपना मतलब पूरा करना चाहती है। बोले -मै नही समझता,
बोिडरगं का नाम सुनकर कयो लौडे की नानी मरती है। और लडके खुश होते है िक अब अपने
दोसतो मे रहेगे, यह उलटे रो रहा है। अभी कुछ िदन पहले तक यह िदल लगाकर पढता था,
यह उसी मेहनत का नतीजा है िक अपने कलास मे सबसे अचछा है, लेिकन इधर कुछ िदनो से

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इसे सैर-सपाटे का चसका पड चला है। अगर अभी से रोकथाम न की गयी, तो पीछे करते-
धरते न बन पडेगा। तुमहारे िलए मै एक िमस रख दंगू ा।
दस ू रे िदन मुंशीजी पात:काल कपडे-लते पहनकर बाहर िनकले। दीवानखाने मे कई
मुविकल बैठे हुए थे। इनमे एक राजा साहब भी थे, िजनसे मुंशीजी को कई हजार सालाना
मेहनताना िमलता था, मगर मुंशीजी उनहे वही बैठे छोड दस िमनट मे आने का वादा करके
बगघी पर बैठकर सकूल के हेडमासटर के यहा जा पहंच ु े। हेडमासटर साहब बडे सजजन पुरष
थे। वकील साहब का बहुत आदर-सतकार िकया, पर उनके यहा एक लडके की भी जगह
खाली न थी। सभी कमरे भरे हुए थे। इंसपेकटर साहब की कडी ताकीद थी िक मुफिससल के
लडको को जगह देकर तब शहर के लडको को िदया जाये। इसीिलए यिद कोई जगह खाली
भी हुई, तो भी मंसाराम को जगह न िमल सकेगी, कयोिक िकतने ही बाहरी लडको के पाथरना-
पत रखे हुए थे। मुंशीजी वकील थे, रात िदन ऐसे पािणयो से सािबका रहता था, जो लोभवश
असंभव का भी संभव, असाधय को भी साधय बना सकते है। समझे शायद कुछ दे-िदलाकर
काम िनकल जाये, दफतर कलकर से ढंग की कुछ बातचीत करनी चािहए, पर उसने हंसकर
कहा- मुंशीजी यह कचहरी नही, सकूल है, हैडमासटर साहब के कानो मे इसकी भनक भी पड
गयी, तो जामे से बाहर हो जायेगे और मंसाराम को खडे-खडे िनकाल देगे। संभव है, अफसरो
से िशकायत कर दे। बेचारे मुंशीजी अपना-सा मुंह लेकर रह गये। दस बजते-बजते झुझ ं लाये
हुए घर लौटे। मंसाराम उसी वकत घर से सकूल जाने को िनकला मुंशीजी ने कठोर नेतो से
उसे देखा, मानो वह उनका शतु हो और घर मे चले गये।
इसके बाद दस-बारह िदनो तक वकील साहब का यही िनयम रहा िक कभी सुबह कभी
शाम, िकसी-न-िकसी सकूल के हेडमासटर से िमलते और मंसाराम को बोिडरगं हाउस मे दािखल
करने कल चेषा करते, पर िकसी सकूल मे जगह न थी। सभी जगहो से कोरा जवाब िमल
गया। अब दो ही उपाय थे-या तो मंसाराम को अलग िकराये के मकान मे रख िदया जाये या
िकसी दस ू रे सकूल मे भती करा िदया जाये। ये दोनो बाते आसान थी। मुफिससल के सकूलो
मे जगह अकसर खाली रहेती थी, लेिकन अब मुंशीजी का शंिकत हृदय कुछ शात हो गया
था। उस िदन से उनहोने मंसाराम को कभी घर मे जाते न देखा। यहा तक िक अब वह
खेलने भी न जाता था। सकूल जाने के पहले और आने के बाद, बराबर अपने कमरे मे बैठा
रहता। गमी के िदन थे, खुले हुए मैदान मे भी देह से पसीने की धारे िनकलती थी, लेिकन
मंसाराम अपने कमरे से बाहर न िनकलता। उसका आतमािभमान आवारापन के आकेप से मुकत
होने के िलए िवकल हो रहा था। वह अपने आचरण से इस कलंक को िमटा देना चाहता था।
एक िदन मुंशीजी बैठे भोजन कर रहे थे, िक मंसाराम भी नहाकर खाने आया, मुंशीजी ने
इधर उसे महीनो से नंगे बदन न देखा था। आज उस पर िनगाह पडी, तो होश उड गये।
हिडडयो का ढाचा सामने खडा था। मुख पर अब भी बहाचयर का तेज था, पर देह घुलकर
काटा हो गयी थी। पूछा-आजकल तुमहारी तबीयत अचछी नही है, कया? इतने दुबरल कयो हो?
मंसाराम ने धोती ओढकर कहा-तबीयत तो िबलकुल अचछी है।
मुंशीजी-िफर इतने दुबरल कयो हो?
मंसाराम- दुबरल तो नही हूं। मै इससे जयादा मोटा कब था?
मुंशीजी-वाह, आधी देह भी नही रही और कहते हो, मै दुबरल नही हूं? कयो दीदी, यह ऐसा
ही था?
रिकमणी आंगन मे खडी तुलसी को जल चढा रही थी, बोली-दुबला कयो होगा, अब तो
बहुत अचछी तरह लालन-पालन हो रहा है। मै गंवािरन थी, लडको को िखलाना-िपलाना नही
जानती थी। खोमचा िखला-िखलाकर इनकी आदत िबगाड देते थी। अब तो एक पढी-िलखी,
गृहसथी के कामो मे चतुर औरत पान की तरह फेर रही है न। दुबला हो उसका दुशमन।
मुंशीजी-दीदी, तुम बडा अनयाय करती हो। तुमसे िकसने कहा िक लडको को िबगाड
रही हो। जो काम दस ू रो के िकये न हो सके, वह तुमहे खुद करने चािहए। यह नही िक घर से

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कोई नाता न रखो। जो अभी खुद लडकी है, वह लडको की देख-रेख कया करेगी? यह
तुमहारा काम है।
रिकमणी-जब तक अपना समझती थी, करती थी। जब तुमने गैर समझ िलया, तो मुझे
कया पडी है िक मै तुमहारे गले से िचपटू ं? पूछो, कै िदन से दध
ू नही िपया? जाके कमरे मे देख
आओ, नाशते के िलए जो िमठाई भेजी गयी थी, वह पडी सड रही है। मालिकन समझती है, मैने
तो खाने का सामान रख िदया, कोई न खाये तो कया मै मुंह मे डाल दंू? तो भैया, इस तरह वे
लडके पलते होगे, िजनहोने कभी लाड-पयार का सुख नही देखा। तुमहारे लडके बराबर पान
की तरह फेरे जाते रहे है, अब अनाथो की तरह रहकर सुखी नही रह सकते। मै तो बात
साफ कहती हूं। बुरा मानकर ही कोई कया कर लेगा? उस पर सुनती हूं िक लडके को सकूल
मे रखने का पबंध कर रहे हो। बेचारे को घर मे आने तक की मनाही है। मेरे पास आते भी
डरता है, और िफर मेरे पास रखा ही कया रहता है, जो जाकर िखलाऊंगी।
इतने मे मंसाराम दो फुलके खाकर उठ खडा हुआ। मुंशीजी ने पूछा-कया दो ही फुलके
तो िलये थे। अभी बैठे एक िमनट से जयादा नही हुआ। तुमने खाया कया, दो ही फुलके तो
िलये थे।
मंसाराम ने सकुचाते हुए कहा-दाल और तरकारी भी तो थी। जयादा खा जाता हूं, तो
गला जलने लगता है, खटी डकारे आने लगती है।
मुंशीजी भोजन करके उठे तो बहुत िचंितत थे। अगर यो ही दुबला होता गया, तो उसे
कोई भंयकर रोग पकड लेगा। उनहे रिकमणी पर इस समय बहुत कोध आ रहा था। उनहे
यही जलन है िक मै घर की मालिकन नही हूं। यह नही समझती िक मुझे घर की मालिकन
बनने का कया अिधकार है? िजसे रपया का िहसाब तक नही अता, वह घर की सवािमनी कैसे
हो सकती है? बनी तो थी साल भर तक मालिकन, एक पाई की बचत न होती थी। इस
आमदनी मे रपकला दो-ढाई सौ रपये बचा लेती थी। इनके राज मे वही आमदनी खचर को भी
पूरी न पडती थी। कोई बात नही, लाड-पयार ने इन लडको को चौपट कर िदया। इतने बडे-
बडे लडको को इसकी कया जररत िक जब कोई िखलाये तो खाये। इनहे तो खुद अपनी
िफक करनी चािहए। मुंशी जी िदनभर उसी उधेड-बुन मे पडे रहे। दो-चार िमतो से भी िजक
िकया। लोगो ने कहा-उसके खेल-कूद मे बाधा न डािलए, अभी से उसे कैद न कीिजए, खुली
हवा मे चिरत के भष होने की उससे कम संभावना है, िजतना बनद कमरे मे। कुसंगत से
जरर बचाइए, मगर यह नही िक उसे घर से िनकलने ही न दीिजए। युवावसथा मे एकानतवास
चिरत के िलए बहुत ही हािनकारक है। मुंशीजी को अब अपनी गलती मालूम हुई। घर
लौटकर मंसाराम के पास गये। वह अभी सकूल से आया था और िबना कपडे उतारे, एक
िकताब सामने खोलकर, सामने िखडकी की ओर ताक रहा था। उसकी दृिष एक िभखािरन
पर लगी हुई थी, जो अपने बालक को गोद मे िलए िभका माग रही थी। बालक माता की गोद
मे बैठा ऐसा पसन था, मानो वह िकसी राजिसंहासन पर बैठा हो। मंसाराम उस बालक को
देखकर रो पडा। यह बालक कया मुझसे अिधक सुखी नही है? इस अनत िवश मे ऐसी कौन-
सी वसतु है, िजसे वह इस गोद के बदले पाकर पसन हो? ईशर भी ऐसी वसतु की सृिष नही
कर सकते। ईशर ऐसे बालको को जनम ही कयो देते हो, िजनके भागय मे मातृ-िवयोग का दुख
भोगना बडा? आज मुझ-सा अभागा संसार मे और कौन है? िकसे मेरे खाने-पीने की, मरने -जीने
की सुध है। अगर मै आज मर भी जाऊं, तो िकसके िदल को चोट लगेगी। िपता को अब मुझे
रलाने मे मजा आता है, वह मेरी सूरत भी नही देखना चाहते, मुझे घर से िनकाल देने की
तैयािरया हो रही है। आह माता। तुमहारा लाडला बेटा आज आवारा कहा जा रहा है। वही
िपताजी, िजनके हाथ मे तुमने हम तीनो भाइयो के हाथ पकडाये थे, आज मुझे आवारा और
बदमाश कह रहे है। मै इस योगय भी नही िक इस घर मे रह सकूं। यह सोचते-सोचते
मंसाराम अपार वेदना से फूट-फूटकर रोने लगा।

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उसी समय तोताराम कमरे मे आकर खडे हो गये। मंसाराम ने चटपट आंसू पोछ डाले
और िसर झुकाकर खडा हो गया। मुंशीजी ने शायद यह पहली बार उसके कमरे मे कदम
रखा था। मंसाराम का िदल धडधड करने लगा िक देखे आज कया आफत आती है। मुंशीजी
ने उसे रोते देखा, तो एक कण के िलए उनका वातसलय घेर िनदा से चौक पडा घबराकर बोले -
कयो, रोते कयो हो बेटा। िकसी ने कुछ कहा है?
मंसाराम ने बडी मुिशकल से उमडते हुए आंसुओं को रोककर कहा- जी नही, रोता तो
नही हूं।
मुंशीजी-तुमहारी अममा ने तो कुछ नही कहा?
मंसाराम-जी नही, वह तो मुझसे बोलती ही नही।
मुंशीजी-कया करं बेटा, शादी तो इसिलए की थी िक बचचो को मा िमल जायेगी, लेिकन
वह आशा पूरी नही हईु , तो कया िबलकुल नही बोलती?
मंसाराम-जी नही, इधर महीनो से नही बोली।
मुंशीजी-िविचत सवभाव की औरत है, मालूम ही नही होता िक कया चाहती है? मै जानता
िक उसका ऐसा िमजाज होगा, तो कभी शादी न करता रोज एक-न-एक बात लेकर उठ खडी
होती है। उसी ने मुझसे कहा था िक यह िदन भर न जाने कहा गायब रहता है। मै उसके
िदल की बात कया जानता था? समझा, तुम कुसंगत मे पडकर शायद िदनभर घूमा करते हो।
कौन ऐसा िपता है, िजसे अपने पयारे पुत को आवारा िफरते देखकर रंज न हो? इसीिलए मैने
तुमहे बोिडरगं हाउस मे रखने का िनशय िकया था। बस, और कोई बात नही थी, बेटा। मै
तुमहारा खेलन-कूदना बंद नही करना चाहता था। तुमहारी यह दशा देखकर मेरे िदल के टुकडे
हुए जाते है। कल मुझे मालूम हुआ मै भम मे था। तुम शौक से खेलो, सुबह-शाम मैदान मे
िनकल जाया करो। ताजी हवा से तुमहे लाभ होगा। िजस चीज की जररत हो मुझसे कहो,
उनसे कहने की जररत नही। समझ लो िक वह घर मे है ही नही। तुमहारी माता छोडकर
चली गयी तो मै तो हूं।
बालक का सरल िनषकपट हृदय िपतृ-पेम से पुलिकत हो उठा। मालूम हुआ िक
साकात् भगवान् खडे है। नैराशय और कोभ से िवकल होकर उसने मन मे अपने िपता का
िनषुर और न जाने कया-कया समझ रखा। िवमाता से उसे कोई िगला न था। अब उसे जात
हुआ िक मैने अपने देवतुलय िपता के साथ िकतना अनयाय िकया है। िपतृ-भिकत की एक
तरंग-सी हृदय मे उठी, और वह िपता के चरणो पर िसर रखकर रोने लगा। मुंशीजी करणा से
िवहल हो गये। िजस पुत को कण भर आंखो से दरू देखकर उनका हृदय वयग हो उठता था,
िजसके शील, बुिद और चिरत का अपने -पराये सभी बखान करते थे, उसी के पित उनका
हृदय इतना कठोर कयो हो गया? वह अपने ही िपय पुत को शतु समझने लगे, उसको िनवासन
देने को तैयार हो गये। िनमरला पुत और िपता के बी मे दीवार बनकर खडी थी। िनमरला को
अपनी ओर खीचने के िलए पीछे हटना पडता था, और िपता तथा पुत मे अंतर बढता जाता
था। फलत: आज यह दशा हो गयी है िक अपने अिभन पुत उनहे इतना छल करना पड रहा
है। आज बहुत सोचने के बाद उनहे एक एक ऐसी युिकत सूझी है, िजससे आशा हो रही है िक
वह िनमरला को बीच से िनकालकर अपने दस ू रे बाजू को अपनी तरफ खीच लेगे। उनहोने उस
युिकत का आरंभ भी कर िदया है, लेिकन इसमे अभीष िसद होगा या नही, इसे कौन जानता
है।
िजस िदन से तोतोराम ने िनमरला के बहुत िमनत-समाजत करने पर भी मंसाराम को
बोिडरगं हाउस मे भेजने का िनशय िकया था, उसी िदन से उसने मंसाराम से पढना छोड िदया।
यहा तक िक बोलती भी न थी। उसे सवामी की इस अिवशासपूणर ततपरता का कुछ-कुछ
आभास हो गया था। ओफफोह। इतना शकी िमजाज। ईशर ही इस घर की लाज रखे।
इनके मन मे ऐसी-ऐसी दुभावनाएं भरी हुई है। मुझे यह इतनी गयी-गुजरी समझते है। ये बाते
सोच-सोचकर वह कई िदन रोती रही। तब उसने सोचना शूर िकया, इनहे कया ऐसा संदेह हो

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रहा है? मुझ मे ऐसी कौन-सी बात है, जो इनकी आंखो मे खटकती है। बहुत सोचने पर भी
उसे अपने मे कोई ऐसी बात नजर न आयी। तो कया उसका मंसाराम से पढना, उससे हंसना-
बोलना ही इनके संदेह का कारण है, तो िफर मै पढना छोड दंगू ी, भूलकर भी मंसाराम से न
बोलूंगी, उसकी सूरत न दखूंगी।
लेिकन यह तपसया उसे असाधय जान पडती थी। मंसाराम से हंसने -बोलने मे उसकी
िवलािसनी कलपना उतेिजत भी होती थी और तृपत भी। उसे बाते करते हुए उसे अपार सुख
का अनुभव होता था, िजसे वह शबदो मे पकट न कर सकती थी। कुवासना की उसके मन मे
छाया भी न थी। वह सवप मे भी मंसाराम से कलुिषत पेम करने की बात न सोच सकती थी।
पतयेक पाणी को अपने हमजोिलयो के साथ, हंसने -बोलने की जो एक नैसिगरक तृषणा होती है,
उसी की तृिपत का यह एक अजात साधन था। अब वह अतृपत तृषणा िनमरला के हृदय मे
दीपक की भाित जलने लगी। रह-रहकर उसका मन िकसी अजात वेदना से िवकल हो
जाता। खोयी हुई िकसी अजात वसतु की खोज मे इधर-उधर घूमती-िफरती, जहा बैठती, वहा
बैठी ही रह जाती, िकसी काम मे जी न लगता। हा, जब मुंशीजी आ जाते, वह अपनी सारी
तृषणाओं को नैराशय मे डुबाकर, उनसे मुसकराकर इधर-उधर की बाते करने लगती।
कल जब मुंशीजी भोजन करके कचहरी चले गये, तो रिकमणी ने िनमरला को खुब तानो
से छेदा-जानती तो थी िक यहा बचचो का पालन-पोषण करना पडेगा, तो कयो घरवालो से नही
कह िदया िक वहा मेरा िववाह न करो? वहा जाती जहा पुरष के िसवा और कोई न होता। वही
यह बनाव-चुनाव और छिव देखकर खुश होता, अपने भागय को सराहता। यहा बुडढा आदमी
तुमहारे रंग-रप, हाव-भाव पर कया लटू होगा? इसने इनही बालको की सेवा करने के िलए तुमसे
िववाह िकया है, भोग-िवलास के िलए नही वह बडी देर तक घाव पर नमक िछडकती रही, पर
िनमरला ने चूं तक न की। वह अपनी सफाई तो पेश करना चाहती थी, पर न कर सकती थी।
अगर कहे िक मै वही कर रही हूं, जो मेरे सवामी की इचछा है तो घर का भणडा फूटता है।
अगर वह अपनी भूल सवीकार करके उसका सुधार करती है, तो भय है िक उसका न जाने
कया पिरणाम हो? वह यो बडी सपषवािदनी थी, सतय कहने मे उसे संकोच या भय न होता था,
लेिकन इस नाजुक मौके पर उसे चुपपी साधनी पडी। इसके िसवा दस ू रा उपाय न था। वह
देखती थी मंसाराम बहुत िवरकत और उदास रहता है, यह भी देखती थी िक वह िदन-िदन
दुबरल होता जाता है, लेिकन उसकी वाणी और कमर दोनो ही पर मोहर लगी हुई थी। चोर के
घर चोरी हो जाने से उसकी जो दशा होती है, वही दशा इस समय िनमरला की हो रही थी।

पप

जबकभीकोईइसबातबातहमारीकी आशा
आशा के िवरद होती है, तभी दुख होता है। मंसाराम को िनमरला से
न थी िक वे उसकी िशकायत करेगी। इसिलए उसे घोर वेदना
हो रही थी। वह कयो मेरी िशकायत करती है? कया चाहती है? यही न िक वह मेरे पित की
कमाई खाता है, इसके पढान-िलखाने मे रपये खचर होते है, कपडा पहनता है। उनकी यही
इचछा होगी िक यह घर मे न रहे। मेरे न रहने से उनके रपये बच जायेगे। वह मुझसे बहुत
पसनिचत रहती है। कभी मैने उनके मुंह से कटु शबद नही सुने। कया यह सब कौशल है ? हो
सकता है? िचिडया को जाल मे फंसाने के पहले िशकारी दाने िबखेरता है। आह। मै नही
जानता था िक दाने के नीचे जाल है, यह मातृ-सनेह केवल मेरे िनवासन की भूिमका है।
अचछा, मेरा यहा रहना कयो बुरा लगता है? जो उनका पित है, कया वह मेरा िपता नही
ं सती-पुरष के संबध
है? कया िपता-पुत का संबध ं से कुछ कम घिनष है? अगर मुझे उनके
संपूणर आिधपतय से ईषया नही होती, वह जो चाहे करे, मै मुंह नही खोल सकता, तो वह मुझे
एक अगुंल भर भूिम भी देना नही चाहती। आप पके महल मे रहकर कयो मुझे वृक की छाया मे
बैठा नही देख सकती।

35
हा, वह समझती होगी िक वह बडा होकर मेरे पित की समपित का सवामी हो जायेगा,
इसिलए अभी से िनकाल देना अचछा है। उनको कैसे िवशास िदलाऊं िक मेरी ओर से यह
शंका न करे। उनहे कयोकर बताऊं िक मंसाराम िवष खाकर पाण दे देगा, इसके पहले िक
उनका अिहत कर। उसे चाहे िकतनी ही किठनाइया सहनी पडे वह उनके हृदय का शूल न
बनेगा। यो तो िपताजी ने मुझे जनम िदया है और अब भी मुझ पर उनका सनेह कम नही है,
लेिकन कया मै इतना भी नही जानता िक िजस िदन िपताजी ने उनसे िववाह िकया, उसी िदन
उनहोने हमे अपने हृदय से बाहर िनकाल िदया? अब हम अनाथो की भाित यहा पडे रह सकते
है, इस घर पर हमारा कोई अिधकार नही है। कदािचत् पूवर संसकारो के कारण यहा अनय
अनाथो से हमारी दशा कुछ अचछी है, पर है अनाथ ही। हम उसी िदन अनाथ हुए, िजस िदन
अममा जी परलोक िसधारी। जो कुछ कसर रह गयी थी, वह इस िववाह ने पूरी कर दी। मै तो
खुद पहले इनसे िवशेष संबध ं न रखता था। अगर, उनही िदनो िपताजी से मेरी िशकायत की
होती, तो शायद मुझे इतना दुख न होता। मै तो उसे आघात के िलए तैयार बैठा था। संसार मे
कया मै मजदरू ी भी नही कर सकता? लेिकन बुरे वकत मे इनहोने चोट की। िहंसक पशु भी
आदमी को गािफल पाकर ही चोट करते है। इसीिलए मेरी आवभगत होती थी, खाना खाने के
िलए उठने मे जरा भी देर हो जाती थी, तो बुलावे पर बुलावे आते थे, जलपान के िलए पात:
हलुआ बनाया जाता था, बार-बार पूछा जाता था-रपयो की जररत तो नही है? इसीिलए वह
सौ रपयो की घडी मंगवाई थी।
मगर कया इनहे कया दस ू री िशकायत न सूझी, जो मुझे आवारा कहा? आिखर उनहोने
मेरी कया आवारगी देखी? यह कह सकती थी िक इसका मन पढने -िलखने मे नही लगता, एक-
न-एक चीज के िलए िनतय रपये मागता रहता है। यही एक बात उनहे कयो सूझी? शायद
इसीिलए िक यही सबसे कठोर आघात है, जो वह मुझ पर कर सकती है। पहली ही बार
इनहोने मुझे पर अिगन–बाण चला िदया, िजससे कही शरण नही। इसीिलए न िक वह िपता की
नजरो से िगर जाये? मुझे बोिडरगं -हाउस मे रखने का तो एक बहाना था। उदेशय यह था िक
इसे दधू की मकखी की तरह िनकाल िदया जाये। दो-चार महीने के बाद खचर-वचर देना बंद
कर िदया जाये, िफर चाहे मरे या िजये। अगर मै जानता िक यह पेरणा इनकी ओर से हुई है ,
तो कही जगह न रहने पर भी जगह िनकाल लेता। नौकरो की कोठिरयो मे तो जगह िमल
जाती, बरामदे मे पडे रहने के िलए बहुत जगह िमल जाती। खैर, अब सबेरा है। जब सनेह
नही रहा, तो केवल पेट भरने के िलए यहा पडे रहना बेहयाई है, यह अब मेरा घर नही। इसी
घर मे पैदा हुआ हूं, यही खेला हूं, पर यह अब मेरा नही। िपताजी भी मेरे िपता नही है। मै
उनका पुत हूं, पर वह मेरे िपता नही है। संसार के सारे नाते सनेह के नाते है। जहा सनेह
नही, वहा कुछ नही। हाय, अममाजी, तुम कहा हो?
यह सोचकर मंसाराम रोने लगा। जयो-जयो मातृ सनेह की पूवर-समृितया जागृत होती
थी, उसके आंसू उमडते आते थे। वह कई बार अममा-अममा पुकार उठा, मानो वह खडी सुन
रही है। मातृ-हीनता के दु :ख का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ। वह आतमािभमानी था,
साहसी था, पर अब तक सुख की गोद मे लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने
आप को िनराधार समझ रहा था।
रात के दस बज गये थे। मुंशीजी आज कही दावत खाने गये हुए थे। दो बार महरी
मंसाराम को भोजन करने के िलए बुलाने आ चुकी थी। मंसाराम ने िपछली बार उससे
झुंझलाकर कह िदया था-मुझे भूख नही है, कुछ न खाऊंगा। बार-बार आकर िसर पर सवार
हो जाती है। इसीिलए जब िनमरला ने उसे िफर उसी काम के िलए भेजना चाहा, तो वह न
गयी।
बोली-बहूजी, वह मेरे बुलाने से न आवेगे।
िनमरला-आयेगे कयो नही? जाकर कह दे खाना ठणडा हुआ जाता है। दो चार कौर खा
ले।

36
महरी-मै यह सब कह के हार गयी, नही आते।
िनमरला-तूने यह कहा था िक वह बैठी हुई है।
महरी-नही बहूजी, यह तो मैने नही कहा, झूठ कयो बोलूं।
िनमरला-अचछा, तो जाकर यह कह देना, वह बैठी तुमहारी राह देख रही है। तुम न
खाओगे तो वह रसोई उठाकर सो रहेगी। मेरी भूंगी, सुन, अबकी और चली जा। (हंसकर) न
आवे, तो गोद मे उठा लाना।
भूंगी नाक-भौ िसकोडते गयी, पर एक ही कण मे आकर बोली-अरे बहूजी, वह तो रो रहे
है। िकसी ने कुछ कहा है कया?
िनमरला इस तरह चौककर उठी और दो-तीन पग आगे चली, मानो िकसी माता ने अपने
बेटे के कुए ं मे िगर पडने की खबर पायी हो, िफर वह िठठक गयी और भूंगी से बोली-रो रहे है?
तूने पूछा नही कयो रो रहे है?
भूंगी- नही बहूजी, यह तो मैने नही पूछा। झूठ कयो बोलू?ं
वह रो रहे है। इस िनसतबध राित मे अकेले बैठै हुए वह रो रहे है। माता की याद
आयी होगी? कैसे जाकर उनहे समझाऊं? हाय, कैसे समझाऊं? यहा तो छीकते नाक कटती
है। ईशर, तुम साकी हो अगर मैने उनहे भूल से भी कुछ कहा हो, तो वह मेरे गे आये। मै कया
करं ? वह िदल मे समझते होगे िक इसी ने िपताजी से मेरी िशकायत की होगी। कैसे िवशास
िदलाऊं िक मैने कभी तुमहारे िवरद एक शबद भी मुंह से नही िनकाला? अगर मै ऐसे देवकुमार
के-से चिरत रखने वाले युवक का बुरा चेतूं, तो मुझसे बढकर राकसी संसार मे न होगी।
िनमरला देखती थी िक मंसाराम का सवासथय िदन-िदन िबगडता जाता है, वह िदन-िदन
दुबरल होता जाता है, उसके मुख की िनमरल काित िदन-िदन मिलन होती जाती है, उसका
सहास बदन संकुिचत होता जाता है। इसका कारण भी उससे िछपा न था, पर वह इस िवषय
मे अपने सवामी से कुछ न कह सकती थी। यह सब देख-देखकर उसका हृदय िवदीणर होता
रहता था, पर उसकी जबान न खुल सकती थी। वह कभी-कभी मन मे झुझ ं लाती िक मंसाराम
कयो जरा-सी बात पर इतना कोभ करता है? कया इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया?
मेरी और बात है, एक जरा-सा शक मेरा सवरनाश कर सकता है, पर उसे ऐसी बातो की इतनी
कया परवाह?

उसके जी मे पबल इचछा हुई िक चलकर उनहे चुप कराऊं और लाकर खाना िखला दं। ू
बेचारे रात-भर भूखे पडे रहेगे। हाय। मै इस उपदव की जड हूं। मेरे आने के पहले इस
घर मे शाित का राजय था। िपता बालको पर जान देता था, बालक िपता को पयार करते थे।
मेरे आते ही सारी बाधाएं आ खडी हुई। इनका अंत कया होगा? भगवान् ही जाने। भगवान् मुझे
मौत भी नही देते। बेचारा अकेले भूखो पडा है। उस वकत भी मुंह जुठा करके उठ गया था।
और उसका आहार ही कया है, िजतना वह खाता है, उतना तो साल-दो-साल के बचचे खा जाते
है।
िनमरला चली। पित की इचछा के िवरद चली। जो नाते मे उसका पुत होता था, उसी
को मनाने जाते उसका हृदय काप रहा था। उसने पहले रिकमणी के कमरे की ओर देखा, वह
भोजन करके बेखबर सो रही थी, िफर बाहर कमरे की ओर गयी। वहा सनाटा था। मुंशी
अभी न आये थे। यह सब देख-भालकर वह मंसाराम के कमरे के सामने जा पहंुची। कमरा
खुला हुआ था, मंसाराम एक पुसतक सामने रखे मेज पर िसर झुकाये बैठा हुआ था, मानो शोक
और िचनता की सजीव मूितर हो। िनमरला ने पुकारना चाहा पर उसके कंठ से आवाज न
िनकली।
सहसा मंसाराम ने िसर उठाकर दार की ओर देखा। िनमरला को देखकर अंधेरे मे
पहचान न सका। चौककर बोला-कौन?

37
िनमरला ने कापते हुए सवर मे कहा-मै तो हूं। भोजन करने कयो नही चल रहे हो?
िकतनी रात गयी।
मंसाराम ने मुंह फेरकर कहा-मुझे भूख नही है।
िनमरला-यह तो मै तीन बार भूंगी से सुन चुकी हूं।
मंसाराम-तो चौथी बार मेरे मुंह से सुन लीिजए।
िनमरला-शाम को भी तो कुछ नही खाया था, भूख कयो नही लगी?
मंसाराम ने वयंगय की हंसी हंसकर कहा-बहुत भूख लगेगी, तो आयेग कहा से?
यह कहते-कहते मंसाराम ने कमरे का दार बंद करना चाहा, लेिकन िनमरला िकवाडो
को हटाकर कमरे मे चली आयी और मंसाराम का हाथ पकड सजल नेतो से िवनय-मधुर सवर
मे बोली-मेरे कहने से चलकर थोडा-सा खा लो। तुम न खाओगे, तो मै भी जाकर सो रहूंगी।
दो ही कौर खा लेना। कया मुझे रात-भर भूखो मारना चाहते हो?
मंसाराम सोच मे पड गया। अभी भोजन नही िकया, मेरे ही इंतजार मे बैठी रही। यह
सनेह, वातसलय और िवनय की देवी है या ईषया और अमंगल की मायािवनी मूितर? उसे अपनी
माता का समरण हो आया। जब वह रठ जाता था, तो वे भी इसी तरह मनाने आ करती थी
और जब तक वह न जाता था, वहा से न उठती थी। वह इस िवनय को असवीकार न कर
सका। बोला-मेरे िलए आपको इतना कष हुआ, इसका मुझे खेद है। मै जानता िक आप मेरे
इंतजार मे भूखी बैठी है, तो तभी खा आया होता।
िनमरला ने ितरसकार-भाव से कहा-यह तुम कैसे समझ सकते थे िक तुम भूखे रहोगे
और मै खाकर सो रहूंगी? कया िवमाता का नाता होने से ही मै ऐसी सवािथरनी हो जाऊंगी?
सहसा मदाने कमरे मे मुंशीजी के खासने की आवाज आयी। ऐसा मालूम हुआ िक वह
मंसाराम के कमरे की ओर आ रहे है। िनमरला के चेहरे का रंग उड गया। वह तुरत ं कमरे से
िनकल गयी और भीतर जाने का मौका न पाकर कठोर सवर मे बोली-मै लौडी नही हूं िक इतनी
रात तक िकसी के िलए रसोई के दार पर बैठी रहूं। िजसे न खाना हो, वह पहले ही कह िदया
करे।
मुंशीजी ने िनमरला को वहा खडे देखा। यह अनथर। यह यहा कया करने आ गयी?
बोले-यहा कया कर रही हो?
िनमरला ने ककरश सवर मे कहा-कर कया रही हूं, अपने भागय को रो रही हूं। बस, सारी
बुराइयो की जड मै ही हूं। कोई इधर रठा है, कोई उधर मुंह फुलाये खडा है। िकस-िकस
को मनाऊं और कहा तक मनाऊं।
मुंशीजी कुछ चिकत होकर बोले-बात कया है?
िनमरला-भोजन करने नही जाते और कया बात है? दस दफे महरी को भे, आिखर आप
दौडी आयी। इनहे तो इतना कह देना आसान है, मुझे भूख नही है, यहा तो घर भर की लौडी
हूं, सारी दुिनया मुंह मे कािलख पोतने को तैयार। िकसी को भूख न हो, पर कहने वालो को
यह कहने से कौन रोकेगा िक िपशािचनी िकसी को खाना नही देती।
मुंशीजी ने मंसाराम से कहा-खाना कयो नही खा लेते जी? जानते हो कया वकत है?
मंसाराम िसतमभत-सा खडा था। उसके सामने एक ऐसा रहसय हो रहा था, िजसका
ममर वह कुछ भी न समझ सकताथा। िजन नेतो मे एक कण पहले िवनय के आंसू भरे हुए थे ,
उनमे अकसमात् ईषया की जवाला कहा से आ गयी? िजन अधरो से एक कण पहले सुधा-वृिष
हो रही थी, उनमे से िवष पवाह कयो होने लगा? उसी अधर चेतना की दशा मे बोला-मुझे भूख
नही है।
मुंशीजी ने घुडककर कहा-कयो भूख नही है? भूख नही थी, तो शाम को कयो न कहला
िदया? तुमहारी भूख के इंतजार मे कौन सारी रात बैठा रहे? तुममे पहले तो यह आदत न थी।
रठना कब से सीख िलया? जाकर खा लो।
मंसाराम-जी नही, मुझे जरा भी भूख नही है।

38
तोताराम-ने दात पीसकर कहा-अचछी बात है, जब भूख लगे तब खाना। यह कहते हुए
एवह अंदर चले गये। िनमरला भी उनके पीछे ही चली गयी। मुंशीजी तो लेटने चले गये , उसने
जाकर रसोई उठा दी और कुललाकर, पान खा मुसकराती हुई आ पहंच ु ी। मुंशीजी ने पूछा-
खाना खा िलया न?
िनमरला-कया करती, िकसी के िलए अन-जल छोड दंगू ी?
मुंशीजी-इसे न जाने कया हो गया है, कुछ समझ मे नही आता? िदन-िदन घुलता चला
जाता है, िदन भर उसी कमरे मे पडा रहता है।
िनमरला कुछ न बोली। वह िचंता के अपार सागर मे डुबिकया खा रही थी। मंसाराम ने
मेरे भाव-पिरवतरन को देखकर िदल मे कया-कया समझा होगा? कया उसके मन मे यह पश उठा
होगा िक िपताजी को देखते ही इसकी तयोिरयं कयो बदल गयी? इसका कारण भी कया उसकी
समझ मे आ गया होगा? बेचारा खाने आ रहा था, तब तक यह महाशय न जाने कहा से फट
पडे? इस रहसय को उसे कैसे समझाऊं समझाना संभव भी है? मै िकस िवपित मे फंस गयी?
सवेरे वह उठकर घर के काम-धंधे मे लगी। सहसा नौ बजे भूंगी ने आकर कहा-मंसा
बाबू तो अपने कागज-पतर सब इके पर लाद रहे है।
भूंगी-मैने पूछा तो बोले, अब सकूल मे ही रहूंगा।
मंसाराम पात:काल उठकर अपने सकूल के हेडमासटर साहब के पास गया था और
अपने रहने का पबंध कर आया था। हेडमासटर साहब ने पहले तो कहा-यहा जगह नही है,
तुमसे पहले के िकतने ही लडको के पाथरना-पत पडे हुए है, लेिकन जब मंसाराम ने कहा-मुझे
जगह न िमलेगी, तो कदािचत् मेरा पढना न हो सके और मै इमतहान मे शरीक न हो सकूं, तो
हेडमासटर साहब को हार माननी पडी। मंसाराम के पथम शेणी मे पास होने की आशा थी।
अधयापको को िवशास था िक वह उस शाला की कीितर को उजजवल करेगा। हेडमासटर
साहब ऐसे लडको को कैसे छोड सकते थे? उनहोने अपने दफतर का कमरा खाली करा
िदया। इसीिलए मंसाराम वहा से आते ही अपना सामान इके पर लादने लगा।
मुंशीजी ने कहा-अभी ऐसी कया जलदी है? दो-चार िदन मे चले जाना। मै चाहता हूं,
तुमहारे िलए कोई अचछा सा रसोइया ठीक कर दं। ू
मंसाराम-वहा का रसोइया बहुत अचछा भोजन पकाता है।
मुंशीजी-अपने सवासथय का धयान रखना। ऐसा न हो िक पढने के पीछे सवासथय खो
बैठो।
मंसाराम-वहा नौ बजे के बाद कोई पढने नही पाता और सबको िनयम के साथ खेलना
पडता है।
मुंशी जी-िबसतर कयो छोड देते हो? सोओगे िकस पर?
मंसाराम-कंबल िलए जाता हूं। िबसतर जररत नही।
मुंशी जी-कहार जब तक तुमहारा सामान रख रहा है, जाकर कुछ खा लो। रात भी तो
कुछ नही खाया था।
मंसाराम-वही खा लूंगा। रसोइये से भोजन बनाने को कह आया हूं यहा खाने लगूंगा तो
देर होगी।
घर मे िजयाराम और िसयाराम भी भाई के साथ जाने के िजद कर रहे थे िनमरला उन
दोनो के बहला रही थी-बेटा, वहा छोटे नही रहते, सब काम अपने ही हाथ से करना पडता है।
एकाएक रिकमणी ने आकर कहा-तुमहारा वज का हृदय है, महारान। लडके ने रात भी
कुछ नही खाया, इस वकत भी िबना खाय-पीये चला जा रहा है और तुम लडको के िलए बाते
कर रही हो? उसको तुम जानती नही हो। यह समझ लो िक वह सकूल नही जा रहा है,
बनवास ले रहा है, लौटकर िफर न आयेगा। यह उन लडको मे नही है, जो खेल मे मार भूल
जाते है। बात उसके िदल पर पतथर की लकीर हो जाती है।

39
िनमरला ने कातर सवर मे कहा-कया करं , दीदीजी? वह िकसी की सुनते ही नही। आप
जरा जाकर बुला ले। आपके बुलाने से आ जायेगे।
रिकमणी- आिखर हुआ कया, िजस पर भागा जाता है? घर से उसका जी कभ उचाट न
होता था। उसे तो अपने घर के िसवा और कही अचछा ही न लगता था। तुमही ने उसे कुछ
कहा होगा, या उसकी कुछ िशकायत की होगी। कयो अपने िलए काटे बो रही हो? रानी, घर
को िमटी मे िमलाकर चैन से न बैठने पाओगी।
िनमरला ने रोकर कहा-मैने उनहे कुछ कहा हो, तो मेरी जबान कट जाये। हा, सौतेली
मा होने के कारण बदनाम तो हूं ही। आपके हाथ जोडती हूं जरा जाकर उनहे बुला लाइये।
रिकमणी ने तीवर सवर मे कहा- तुम कयो नही बुला लाती? कया छोटी हो जाओगी? अपना
होता, तो कया इसी तरह बैठी रहती?
िनमरला की दशा उस पंखहीन पकी की तरह हो रही थी, जो सपर को अपनी ओर आते
देख कर उडना चाहता है, पर उड नही सकता, उछलता है और िगर पडता है, पंख
फडफडाकर रह जाता है। उसका हृदय अंदर ही अंदर तडप रहा था, पर बाहर न जा सकती
थी।
इतने मे दोनो लडके आकर बोले-भैयाजी चले गये।
िनमरला मूितरवत् खडी रही, मानो संजाहीन हो गयी हो। चले गये? घर मे आये तक नही,
मुझसे िमले तक नही चले गये। मुझसे इतनी घृणा। मै उनकी कोई न सही, उनकी बुआ तो
थी। उनसे तो िमलने आना चािहए था? मै यहा थी न। अंदर कैसे कदम रखते? मै देख लेती
न। इसीिलए चले गये।

पप

मंसाराम के जाने से घर सूना हो गया। दोनो छोटे लडके उसी सकूल मे पढते थे। िनमरला
रोज उनसे मंसाराम का हाल पूछती। आशा थी िक छुटी के िदन वह आयेगा, लेिकन जब
छुटी के िदन गुजर गये और वह न आया, तो िनमरला की तबीयत घबराने लगी। उसने उसके
िलए मूंग के लडडू बना रखे थे। सोमवार को पात: भूंगी का लडडू देकर मदरसे भेजा। नौ
बजे भूंगी लौट आयी। मंसाराम ने लडडू जयो-के-तयो लौटा िदये थे।
िनमरला ने पूछा-पहले से कुछ हरे हुए है, रे?
भूंगी-हरे-वरे तो नही हुए, और सूख गये है।
िनमरला- कया जी अचछा नही है?
भूंगी-यह तो मैने नही पूछा बहूजी, झूठ कयो बोलूं? हा, वहा का कहार मेरा देवर लगता
है । वह कहता था िक तुमहारे बाबूजी की खुराक कुछ नही है। दो फुलिकया खाकर उठ
जाते है, िफर िदन भर कुछ नही खाते। हरदम पढते रहते है।
िनमरला-तूने पूछा नही, लडडू कयो लौटाये देते हो?
भूंगी- बहूजी, झूठ कयो बोलूं? यह पूछने की तो मुझे सुध ही न रही। हा, यह कहते थे
िक अब तू यहा कभी न आना, न मेरे िलए कोई चीज लाना और अपनी बहूजी से कह देना िक
मेरे पास कोई िचटी-पतरी न भेजे। लडको से भी मेरे पास कोई संदेशा न भेजे और एक ऐसी
बात कही िक मेरे मुंह से िनकल नही सकती, िफर रोने लगे।
िनमरला-कौन बात थी कह तो?
भूंगी-कया कहूं कहते थे मेरे जीने को धीकार है? यही कहकर रोने लगे।
िनमरला के मुंह से एक ठंडी सास िनकल गयी। ऐसा मालूम हुआ, मानो कलेजा बैठा
जाता है। उसका रोम-रोम आतरनाद करने लगा। वह वहा बैठी न रह सकी। जाकर िबसतर
पर मुंह ढापकर लेट रही और फूट-फूटकर रोने लगी। ‘वह भी जान गये’। उसके
अनत:करण मे बार-बार यही आवाज गूंजने लगी-‘वह भी जान गये’। भगवान् अब कया होगा?

40
िजस संदेह की आग मे वह भसम हो रही थी, अब शतगुण वेग से धधकने लगी। उसे अपनी
कोई िचंता न थी। जीवन मे अब सुख की कया आशा थी, िजसकी उसे लालसा होती? उसने
अपने मन को इस िवचार से समझाया था िक यह मेरे पूवर कमों का पायिशत है। कौन पाणी
ऐसा िनलरजज होगा, जो इस दशा मे बहुत िदन जी सके? कतरवय की वेदी पर उसने अपना
जीवन और उसकी सारी कामनाएं होम कर दी थी। हृदय रोता रहता था, पर मुख पर हंसी का
रंग भरना पडता था। िजसका मुंह देखने को जी न चाहता था, उसके सामने हंस-हंसकर बाते
करनी पडती थी। िजस देह का सपशर उसे सपर के शीतल सपशर के समान लगता था, उससे
आिलंिगत होकर उसे िजतनी घृणा, िजतनी ममरवेदना होती थी, उसे कौन जान सकता है? उस
समय उसकी यही इचछा थी िक धरती फट जाये और मै उसमे समा जाऊं। लेिकन सारी
िवडमबना अब तक अपने ही तक थी। अपनी िचंता उसन छोड दी थी, लेिकन वह समसया
अब अतयंत भयंकर हो गयी थी। वह अपनी आंखो से मंसाराम की आतमपीडा नही देख सकती
थी। मंसाराम जैसे मनसवी, साहसी युवक पर इस आकेप का जो असर पड सकता था,
उसकी कलपना ही से उसके पाण काप उठते थे। अब चाहे उस पर िकतने ही संदेह कयो न
हो, चाहे उसे आतमहतया ही कयो न करनी पडे, पर वह चुप नही बैठ सकती। मंसाराम की रका
करने के िलए वह िवकल हो गयी। उसने संकोच और लजजा की चादर उतारकर फेक देने
का िनशय कर िलया।
वकील साहब भोजन करके कचहरी जाने के पहले एक बार उससे अवशय िमल िलया
करते थे। उनके आने का समय हो गया था। आ ही रहे होगे , यह सोचकर िनमरला दार पर
खडी हो गयी और उनका इंतजार करने लगी लेिकन यह कया? वह तो बाहर चले जा रहे है।
गाडी जुतकर आ गयी, यह हकु म वह यही से िदया करते थे। तो कया आज वह न आयेगे ,
बाहर-ही-बाहर चले जायेगे। नही, ऐसा नही होने पायेगा। उसने भूंगी से कहा-जाकर बाबूजी
को बुला ला। कहना, एक जररी काम है, सुन लीिजए।
मुंशीजी जाने को तैयार ही थे। यह संदेशा पाकर अंदर आये, पर कमरे मे न आकर
दरू से ही पूछा-कया बात है भाई? जलदी कह दो, मुझे एक जररी काम से जाना है। अभी थोडी
देर हुई, हेडमासटर साहब का एक पत आया है िक मंसाराम को जवर आ गया है, बेहतर हो िक
आप घर ही पर उसका इलाज करे। इसिलए उधर ही से हाता हुआ कचहरी जाऊंगा। तुमहे
कोई खास बात तो नही कहनी है।
िनमरला पर मानो वज िगर पडा। आंसुओं के आवेग और कंठ-सवर मे घोर संगाम होने
लगा। दोनो पहले िनकलने पर तुले हुए थे। दो मे से कोई एक कदम भी पीछे हटना नही
चाहता था। कंठ-सवर की दुबरलता और आंसुओं की सबलता देखकर यह िनशय करना किठन
नही था िक एक कण यही संगाम होता रहा तो मैदान िकसके हाथ रहेगा। अखीर दोनो साथ-
साथ िनकले, लेिकन बाहर आते ही बलवान ने िनबरल को दबा िलया। केवल इतना मुंह से
िनकला-कोई खास बात नही थी। आप तो उधर जा ही रहे है।
मुंशीजी- मैने लडको पूछा था, तो वे कहते थे, कल बैठे पढ रहे थे, आज न जाने कया
हो गया।
िनमरला ने आवेश से कापते हुए कहा-यह सब आप कर रहे है
मुंशीजी ने तयोिरया बदलकर कहा-मै कर रहा हूं? मै कया कर रहा हूं?
िनमरला-अपने िदल से पूिछए।
मुंशीजी-मैने तो यही सोचा था िक यहा उसका पढने मे जी नही लगता, वहा और
लडको के साथ खामाखवह पढेगा ही। यह तो बुरी बात न थी और मैने कया िकया?
िनमरला-खूब सोिचए, इसीिलए आपने उनहे वहा भेजा था? आपके मन मे और कोई बात
न थी।
मुंशीजी जरा िहचिकचाए और अपनी दुबरलता को िछपाने के िलए मुसकराने की चेषा
करके बोले-और कया बात हो सकती थी? भला तुमही सोचो।

41
िनमरला-खैर, यही सही। अब आप कृपा करके उनहे आज ही लेते आइयेगा, वहा रहने
से उनकी बीमारी बढ जाने का भय है। यहा दीदीजी िजतनी तीमारदारी कर सकती है , दस
ू रा
नही कर सकता।
एक कण के बाद उसने िसर नीचा करके कहा-मेरे कारण न लाना चाहते हो, तो मुझे
घर भेज दीिजए। मै वहा आराम से रहूंगी।
मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न िदया। बाहर चले गये, और एक कण मे गाडी सकूल
की ओर चली।
मन। तेरी गित िकतनी िविचत है, िकतनी रहसय से भरी हुई, िकतनी दुभेद। तू
िकतनी जलद रंग बदलता है? इस कला मे तू िनपुण है। आितशबाजी की चखी को भी रंग
बदलते कुछ देरी लगती है, पर तुझे रंग बदलने मे उसका लकाश समय भी नही लगता। जहा
अभी वातसलय था, वहा िफर संदेह ने आसन जमा िलया।
वह सोचते थे-कही उसने बहाना तो नही िकया है?

पप

मंसाराम दो िदन तक गहरी िचंता मे डू बा रहा। बार-बार अपनी माता की याद आती, न खाना
अचछा लगता, न पढने ही मे जी लगता। उसकी कायापलट-सी हो गई। दो िदन गुजर गये
और छातालय मे रहते हुए भी उसने वह काम न िकया, जो सकूल के मासटरो ने घर से कर
लाने को िदया था। पिरणाम सवरप उसे बेच पर खडा रहना पडा। जो बात कभी न हुई थी,
वह आज हो गई। यह असह अपमान भी उसे सहना पडा।
तीसरे िदन वह इनही िचंताओं मे मगन हुआ अपने मन को समझा रहा था-कहा संसार मे
अकेले मेरी ही माता मरी है? िवमाताएं तो सभी इसी पकार की होती है। मेरे साथ कोई नई
बात नही हो रही है। अब मुझे पुरषो की भाित िदगुण पिरशम से अपना म करना चािहए, जैसे
माता-िपता राजी रहे, वैसे उनहे राजी रखना चािहए। इस साल अगर छातवृित िमल गई, तो
मुझे घर से कुछ लेने की जररत ही न रहेगी। िकतने ही लडके अपने ही बल पर बडी-बडी
उपािधया पापत कर लेते है। भागय के नाम को रोने-कोसने से कया होगा।
इतने मे िजयाराम आकर खडा हो गया।
मंसाराम ने पूछा-घर का कया हाल है िजया? नई अममाजी तो बहुत पसन होगी?
िजयाराम-उनके मन का हाल तो मै नही जानता, लेिकन जब से तुम आये हो, उनहोने
एक जून भी खाना नही खाया। जब देखो, तब रोया करती है। जब बाबूजी आते है, तब
अलबता हंसने लगती है। तुम चले आये तो मैने भी शाम को अपनी िकताबे संभाली। यही
तुमहारे साथ रहना चाहता था। भूंगी चुडैल ने जाकर अममाजी से कह िदया। बाबूजी बैठे थे,
उनके सामने ही अममाजी ने आकर मेरी िकताबे छीन ली और रोकर बोली, तुम भी चले
जाओगे, तो इस घर मे कौन रहेगा? अगर मेरे कारण तुम लोग घर छोड-छोडकर भागे जा रहे
तो लो, मै ही कही चली जाती हूं। मै तो झललाया हुआ था ही, वहा अब बाबूजी भी न थे,
िबगडकर बोला, आप कयो कही चली जायेगी? आपका तो घर है, आप आराम से रिहए। गैर तो
हमी लोग है, हम न रहेगे, तब तो आपको आराम-आराम ही होग।
मंसाराम-तुमने खूब कहा, बहुत ही अचछा कहा। इस पर और भी झललाई होगी और
जाकर बाबूजी से िशकायत की होगी।
िजयाराम-नही, यह कुछ नही हुआ। बेचारी जमीन पर बैठकर रोने लगी। मुझे भी
करणा आ गयी। मै भी रो पडा। उनहोने आंचल से मेरे आंसू पोछे और बोली, िजया। मै ईशर
को साकी देकर कहती हूं िक मैने तुमहारे भैया केइिवषय मे तुमहारे बाबूजी से एक शबद भी नही
कहा। मेरे भाग मे कलंक िलखा हुआ है, वही भाग रही हूं। िफर और न जाने कया-कया कहा,
जा मेरी समझ मे नही आया। कुछ बाबुजी की बात थी।

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मंसाराम ने उिदगनता से पूछा-बाबूजी के िवषय मे कया कहा? कुछ याद है?
िजयाराम-बाते तो भई, मुझे याद नही आती। मेरी ‘मेमोरी’ कौन बडी ते है, लेिकन
उनकी बातो का मतलब कुछ ऐसा मालूम होता था िक उनहे बाबूजी को पसन रखने के िलए
यह सवाग भरना पड रहा है। न जाने धमर-अधमर की कैसी बाते करती थी जो मै िबलकुल न
समझ सका। मुझे तो अब इसका िवशास आ गया है िक उनकी इचछा तुमहे यहा भेजन की न
थी।
मंसाराम- तुम इन चालो का मतलब नही समझ सकते। ये बडी गहरी चाले है।
िजयाराम- तुमहारी समझ मे होगी, मेरी समझ मे नही है।
मंसाराम- जब तुम जयोमेटी नही समझ सकते, तो इन बातो को कया समझ सकोगे?
उस रात को जब मुझे खाना खाने के िलए बुलाने आयी थी औरउनके आगह पर मै जाने को
तैयार भी हो गया था, उस वकत बाबूजी को देखते ही उनहोने जो कैडा बदला, वह कया मै कभी
भी भूल सकता ह?ूं
िजयाराम-यही बात मेरी समझ मे नही आती। अभी कल ही मै यहा से गया, तो लगी
तुमहारा हाल पूछने। मैने कहा, वह तो कहते थे िक अब कभी इस घर मे कदम न रखूंगा। मैने
कुछ झूठ तो कहा नही, तुमने मुझसे कहा ही था। इतना सुनना था िक फूट-फूटकर रोने लगी
मै िदल मे बहुत पछताया िक कहा-से-कहा मैने यह बात कह दी। बार-बार यही कहती थी,
कया वह मेरे कारण घर छोड देगे? मुझसे इतने नाराज है।? चले गये और मझसे िमले तक
नही। खाना तैयार था, खाने तक नही आये। हाय। मै कया बताऊं, िकस िवपित मे हूं। इतने
मे बाबूजी आ गये। बस तुरनत आंखे पोछकर मुसकुराती हुई उनके पास चली गई। यह बात
मेरी समझ मे नही आती। आज मुझे बडी िमनत की िक उनको साथ लेते आना। आज मै तुमहे
खीच ले चलूंगा। दो िदन मे वह िकतनी दुबली हो गयी है, तुमहे यह देखकर उन पर दया
आयी। तो चलोगे न?
मंसाराम ने कुछ जवाब न िदया। उसके पैर काप रहे थे। िजयाराम तो हािजरी की
घंटी सुनकर भागा, पर वह बेच पर लेट गया और इतनी लमबी सास ली, मानो बहुत देर से
उसने सास ही नही ली है। उसके मुख से दुससह वेदना मे डू बे हुए शबद िनकले -हाय ईशर।
इस नाम के िसवा उसे अपना जीवन िनराधार मालूम होता था। इस एक उचछवास मे िकतना
नैराशय था, िकतनी संवेदना, िकतनी करणा, िकतनी दीन-पाथरना भरी हुई थी, इसका कौन
अनुमान कर सकता है। अब सारा रहसय उसकी समझ मे आ रहा था और बार-बार उसका
पीिडत हृदय आतरनाद कर रहा था-हाय ईशर। इतना घोर कलंक।
कया जीवन मे इससे बडी िवपित की कलपना की जा सकती है? कया संसार मे इससे
घोरतम नीचता की कलपना हो सकती है? आज तक िकसी िपता ने अपने पुत पर इतना िनदरय
कलंक न लगाया होगा। िजसके चिरत की सभी पशंसा करते थे, जो अनय युवको के िलए
आदशर समझा जाता था, िजसने कभी अपिवत िवचारो को अपने पास नही फटकने िदया, उसी
पर यह घोरतम कलंक। मंसाराम को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका िदल फटा जाता है।
दसू री घंटी भी बज गई। लडके अपने -अपने कमरे मे गए, पर मंसाराम हथेली पर गाल
रखे अिनमेष नेतो से भूिम की ओर देख रहा था, मानो उसका सवरसव जलमगन हो गया हो,
मानो वह िकसी को मुंह न िदखा सकता हो। सकूल मे गैरहािजरी हो जायेगी, जुमाना हो
जायेगा, इसकी उसे िचंता नही, जब उसका सवरसव लुट गया, तो अब इन छोटी-छोटी बातो का
कया भय? इतना बडा कलंक लगने पर भी अगर जीता रहूं, तो मेरे जीने को िधकार है।
उसी शोकाितरेक दशा मे वह िचलला पडा-माताजी। तुम कहा हो? तुमहारा बेटा, िजस
पर तुम पाण देती थी, िजसे तुम अपने जीवन का आधार समझती थी, आज घोर संकट मे है।
उसी का िपता उसकी गदरन पर छुरी फेर रहा है। हाय, तुम हो?
मंसाराम िफर शातिचत से सोचने लगा-मुझ पर यह संदेह कयो हो रहा है? इसका कया
कारण है? मुझमे ऐसी कौन-सी बात उनहोने देखी, िजससे उनहे यह संदेह हुआ? वह हमारे िपता

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है, मेरे शतु नही है, जो अनायास ही मझ पर यह अपराध लगाने बैठ जाये। जरर उनहोने
कोई-कोई बात देखी या सुनी है। उनका मुझ पर िकतना सनेह था। मेरे बगैर भोजन न करते
थे, वही मेरे शतु हो जाये, यह बात अकारण नही हो सकती।
अचछा, इस संदेह का बीजारोपण िकस िदन हुआ? मुझे बोिडरगं हाउस मे ठहराने की
बात तो पीछे की है। उस िदन रात को वह मेरे कमरे मे आकर मेरी परीका लेने लगे थे , उसी
िदन उनकी तयोिरया बदली हुई थी। उस िदन ऐसी कौन-सी बात हुई, जो अिपय लगी हो। मै
नई अममा से कुछ खाने को मागने गया था। बाबूजी उस समय वहा बैठे थे। हा, अब याद
आती है, उसी वकत उनका चेहरा तमतमा गया था। उसी िदन से नई अममा ने मुझसे पढना
छोड िदया। अगर मै जानता िक मेरा घर मे आना-जाना, अममाजी से कुछ कहना-सुनना और
उनहे पढाना-िलखाना िपताजी को बुरा लगता है, तो आज कयो यह नौबत आती? और नई
अममा। उन पर कया बीत रही होगी?
मंसाराम ने अब तक िनमरला की ओर धयान नही िदया था। िनमरला का धयान आते ही
उसके रोये खडे हो गये। हाय उनका सरल सनेहशील हृदय यह आघात कैसे सह सकेगा?
आह। मै िकतने भम मे था। मै उनके सनेह को कौशल समझता था। मुझे कया मालूम था िक
उनहे िपताजी का भम शात करने के िलए मेरे पित इतना कटु वयवहार करना पडता है। आह।
मैने उन पर िकतना अनयाय िकया है। उनकी दशा तो मुझसे भी खराब हो रही होगी। मै तो
यहा चला आय, मगर वह कहा जायेगी? िजया कहता था, उनहोने दो िदन से भोजन नही
िकया। हरदम रोया करती है। कैसे जाकर समझाऊं। वह इस अभागे के पीछे कयो अपने
िसर यह िवपित ले रही है? वह बार-बार मेरा हाल पूछती है? कयो बार-बार मुझे बुलाती है? कैसे
कह दंू िक माता मुझे तुमसे जरा भी िशकायत नही, मेरा िदल तुमहारी तरफ से साफ है।
वह अब भी बैठी रो रही होगी। िकतना बडा अनथर है। बाबूजी को यह कया हो रहा
है? कया इसीिलए िववाह िकया था? एक बािलका की हतया करने के िलए ही उसे लाये थे? इस
कोमल पुषप को मसल डालने के िलए ही तोडा था।
उनका उदार कैसे होगा। उस िनरपरािधनी का मुख कैस उजजवल होगा? उनहे केवल
मेरे साथ सनेह का वयवहार करने के िलए यह दंड िदया जा रहा है। उनकी सजजनता का
उनहे यह उपहार िमल रहा है। मै उनहे इस पकार िनदरय आघात सहते देखकर बैठा रहूंगा?
अपनी मान-रका के िलए न सही, उनकी आतम-रका के िलए इन पाणो का बिलदान करना
पडेगा। इसके िसवाय उदार का काई उपाय नही। आह। िदल मे कैसे-कैसे अरमान थे। वे
सब खाक मे िमला देने होगे। एक सती पर संदेह िकया जा रहा है और मेरे कारण। मुझे
अपनी पाणो से उनकी रका करनी होगी, यही मेरा कतरवय है। इसी मे सचची वीरता है। माता,
मै अपने रकत से इस कािलमा को धो दंगू ा। इसी मे मेरा और तुमहारा दोनो का कलयाण है।
वह िदन भर इनही िवचारो मे डू बा रहा। शाम को उसके दोनो भाई आकर घर चलने के
िलए आगह करने लगे।
िसयाराम-चलते कया नही? मेरे भैयाजी, चले चलो न।
मंसाराम-मुझे फुरसत नही है िक तुमहारे कहने से चला चलूं।
िजयाराम-आिखर कल तो इतवार है ही।
मंसाराम-इतवार को भी काम है।
िजयाराम-अचछा, कल आआगे न?
मंसाराम-नही, कल मुझे एक मैच मे जाना है।
िसयाराम-अममाजी मूंग के लडडू बना रही है। न चलोगे तो एक भी पाआगे। हम तुम
िमल के खा जायेगे, िजया इनहे न देगे।
िजयाराम-भैया, अगर तुम कल न गये तो शायद अममाजी यही चली आये।
मंसाराम-सच। नही ऐसा कयो करेगी। यहा आयी, तो बडी परेशानी होगी। तुम कह
देना, वह कही मैच देखने गये है।

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िजयाराम-मै झूठ कयो बोलने लगा। मै कह दंगू ा, वह मुंह फुलाये बैठे थे। देख ले उनहे
साथ लाता हूं िक नही।
िसयाराम-हम कह देगे िक आज पढने नही गये। पडे-पडे सोते रहे।
मंसाराम ने इन दत ू ो से कल आने का वादा करके गला छुडाया। जब दोनो चले गये,
तो िफर िचंता मे डू बा। रात-भर उसे करवटे बदलते गुजरी। छुटी का िदन भी बैठे-बैठे कट
गया, उसे िदन भर शंका होती रहती िक कही अममाजी सचमुच न चली आये। िकसी गाडी की
खडखडाहट सुनता, तो उसका कलेजा धकधक करने लगता। कही आ तो नही गयी?
छातालय मे एक छोटा-सा औषधालय था। एक डाकटर साहब संधया समय एक घणटे
के िलए आ जाया करते थे। अगर कोई लडका बीमार होता तो उसे दवा देते। आज वह आये
तो मंसाराम कुछ सोचता हुआ उनके पास जाकर खडा हो गया। वह मंसाराम को अचछी तरह
जानते थे। उसे देखकर आशयर से बोले-यह तुमहारी कया हालत है जी? तुम तो मानो गले जा
रहे हो। कही बाजार का का चसका तो नही पड गया? आिखर तुमहे हुआ कया? जरा यहा तो
आओ।
मंसाराम ने मुसकराकर कहा-मुझे िजनदगी का रोग है। आपके पास इसकी भी तो कोई
दवा है?
डाकटर-मै तुमहारी परीका करना चाहता हूं। तुमहारी सूरत ही बदल गयी है, पहचाने भी
नही जाते।
यह कहकर, उनहोने मंसाराम का हाथ पकड िलया और छाती, पीठ, आंखे, जीभ सब
बारी-बारी से देखी। तब िचंितत होकर बोले-वकील साहब से मै आज ही िमलूंगा। तुमहे
थाइिसस हो रहा है। सारे लकण उसी के है।
मंसाराम ने बडी उतसुकता से पूछा-िकतने िदनो मे काम तमाम हो जायेगा, डकटर
साहब?
डाकटर-कैसी बात करते हो जी। मै वकील साहब से िमलकर तुमहे िकसी पहाडी
जगह भेजने की सलाद दंगू ा। ईशर ने चाहा, तो बहुत जलद अचछे हो जाओगे। बीमारी अभी
पहले सटेज मे है।
मंसाराम-तब तो अभी साल दो साल की देर मालूम होती है। मै तो इतना इंतजार नही
कर सकता। सुिनए, मुझे थायिसस-वायिसस कुछ नही है, न कोई दस ू री िशकायत ही है, आप
बाबूजी को नाहक तरददुद मे न डािलएगा। इस वकत मेरे िसर मे ददर है, कोई दवा दीिजए।
कोई ऐसी दवा हो, िजससे नीद भी आ जाये। मुझे दो रात से नीद नही आती।
डॉकटर ने जहरीली दवाइयो की आलमारी खोली और शीशी से थोडी सी दवा
िनकालकर मंसाराम को दी। मंसाराम ने पूछा-यह तो कोई जहर है भला इस कोई पी ले तो
मर जाये?
डॉकटर-नही, मर तो नही जाये, पर िसर मे चकर जरर आ जाये।
मंसाराम-कोई ऐसी दवा भी इसमे है, िजसे पीते ही पाण िनकल जाये?
डॉकटर-ऐसी एक-दो नही िकतनी ही दवाएं है। यह जो शीशी देख रहे हो, इसकी एक
बूंद भी पेट मे चली जाये, तो जान न बचे। आनन-फानन मे मौत हो जाये।
मंसाराम-कयो डॉकटर साहब, जो लोग जहर खा लेते है, उनहे बडी तकलीफ होती
होगी?
डॉकटर-सभी जहरो मे तकलीफ नही होती। बाज तो ऐसे है िक पीते ही आदमी ठंडा हो
जाता है। यह शीशी इसी िकसम की है, इस पीते ही आदमी बेहोश हो जाता है, िफर उसे होश
नही आता।
मंसाराम ने सोचा-तब तो पाण देना बहुत आसान है, िफर कयो लोग इतना डरते है? यह
शीशी कैसे िमलेगी? अगर दवा का नाम पूछकर शहर के िकसी दवा-फरोश से लेना चाहूं, तो
वह कभी न देगा। ऊंह, इसे िमलने मे कोई िदकत नही। यह तो मालूम हो गया िक पाणो का

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अनत बडी आसानी से िकया जा सकता है। मंसाराम इतना पसन हुआ, मानो कोई इनाम पा
गया हो। उसके िदल पर से बोझ-सा हट गया। िचंता की मेघ-रािश जो िसर पर मंडरा रही
थी, िछन-िभन् हो गयी। महीनो बाद आज उसे मन मे एक सफूितर का अनुभव हुआ। लडके
िथयेटर देखने जा रहे थे, िनरीकक से आजा ले ली थी। मंसाराम भी उनके साथ िथयेटर
देखने चला गया। ऐसा खुश था, मानो उससे जयादा सुखी जीव संसार मे कोई नही है।
िथयेटर मे नकल देखकर तो वह हंसते-हंसते लोट गया। बार-बार तािलया बजाने और ‘वनस
मोर’ की हाक लगाने मे पहला नमबर उसी का था। गाना सुनकर वह मसत हो जाता था, और
‘ओहो हो। करके िचलला उठता था। दशरको की िनगाहे बार-बार उसकी तरफ उठ जाती
थी। िथयेटर के पात भी उसी की ओर ताकते थे और यह जानने को उतसुक थे िक कौन
महाशय इतने रिसक और भावुक है। उसके िमतो को उसकी उचछृ ंखलता पर आशयर हो रहा
था। वह बहुत ही शातिचत, गमभीर सवभाव का युवक था। आज वह कयो इतना हासयशील हो
गया है, कयो उसके िवनोद का पारावार नही है।
दो बजे रात को िथयेटर से लौटने पर भी उसका हासयोनमाद कम नही हुआ। उसने
एक लडके की चारपाई उलट दी, कई लडको के कमरे के दार बाहर से बंद कर िदये और
उनहे भीतर से खट-खट करते सुनकर हंसता रहा। यहा तक िक छातालय के अधयक महोदय
करी नीद मे भी शोरगुल सुनकर खुल गयी और उनहोने मंसाराम की शरारत पर खेद पकट
िकया। कौन जानता है िक उसके अनत:सथल मे िकतनी भीषण काित हो रही है? संदेह के
िनदरय आघात ने उसकी लजजा और आतमसममान को कुचल डाला है। उसे अपमान और
ितरसकार का लेशमात भी भय नही है। यह िवनोद नही, उसकी आतमा का करण िवलाप है।
जब और सब लडके सो गये, तो वह भी चारपाई पर लेटा, लेिकन उसे नीद नही आयी। एक
कण के बाद वह बैठा और अपनी सारी पुसतके बाधकर संदक ू मे रख दी। जब मरना ही है, तो
पढकर कया होगा? िजस जीवन मे ऐसी-एसी बाधाएं है, ऐसी-ऐसी यातनाएं है, उससे मृतयु कही
अचछी।
यह सोचते-सोचते तडका हो गया। तीन रात से वह एक कण भी न सोया था। इस
वकत वह उठा तो उसके पैर थर-थर काप रहे थे और िसर मे चकर सा आ रहा था। आंखे
जल रही थी और शरीर के सारे अंग िशिथल हो रहे थे। िदन चढता जाता था और उसमे
इतनी शिकत िदन चढता जाता था और उसमे इतनी शिकत भी न थी िक उठकर मुंह हाथ धो
डाले। एकाएक उसने भूंगी को रमाल मे कुछ िलए हुए एक कहार के साथ आते देखा।
उसका कलेजा सन रह गया। हाय। ईशर वे आ गयी। अब कया होगा? भूंगी अकेले नही
आयी होगी? बगघी जरर बाहर खडी होगी? कहा तो उससे उठा पश जाता था, कहा भूंगी को
देखते ही दौडा और घबराई हुई आवाज मे बोला-अममाजी भी आयी है, कया रे? जब मालूम हुआ
िक अममाजी नही आयी, तब उसका िचत शात हुआ।
भूंगी ने कहा-भैया। तुम कल गये नही, बहूजी तुमहारी राह देखती रह गयी। उनसे कयो
रठे हो भैया? कहती है, मैने उनकी कुछ भी िशकायत नही की है। मुझसे आज रोकर कहने
लगी-उनके पास यह िमठाई लेती जा और कहना, मेरे कारण कयो घर छोड िदया है? कहा रख
दंू यह थाली?
मंसाराम ने रखाई से कहा-यह थाली अपने िसर पर पटक दे चुडैल। वहा से चली है
िमठाई लेकर। खबरदार, जो िफर कभी इधर आयी। सौगात लेकर चली है। जाकर कह
देना, मुझे उनकी िमठाई नही चािहए। जाकर कह देना, तुमहारा घर है तुम रहो, वहा वे बडे
आराम से है। खूब खाते और मौज करते है। सुनती है, बाबूजी की मुंह पर कहना, समझ
गयी? मुझे िकसी का डर नही है, और जो करना चाहे, कर डाले, िजससे िदल मे कोई अरमान
न रह जाये। कहे तो इलाहाबाद, लखनऊ, कलकता चला जाऊं। मेरे िलए जैसे बनारस वैसे
दसू रा शहर। यहा कया रखा है?

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भूंगी-भैया, िमठाई रख लो, नही रो-रोकर मर जायेगी। सच मानो रो-रोकर मर
जायेगी।
मंसाराम ने आंसुओं के उठते हुए वेग को दबाकर कहा-मर जायेगी, मेरी बला से। कौन
मुझे बडा सुख दे िदया है, िजसके िलए पछताऊं। मेरा तो उनहोने सवरनाश कर िदया। कह
देना, मेरे पास कोई संदेशा न भेज,े कुछ जररत नही।
भूंगी- भैया, तुम तो कहते हो यहा खूब खाता हूं और मौज करता हूं, मगर देह तो आधी
भी न रही। जैसे आये थे, उससे आधे भी न रहे।
मंसाराम-यह तेरी आंखो का फेर है। देखना, दो-चार िदन मे मुटाकर कोलू हो जाता हूं
िक नही। उनसे यह भी कह देना िक रोना-धोना बंद करे। जो मैने सुना िक रोती है और
खाना नही खाती, मुझसे बुरा कोई नही। मुझे घर से िनकाला है, तो आप न से रहे। चली है,
पेम िदखाने। मै ऐसे ितया-चिरत बहुत पढे बैठा हूं।
भूंगी चली गयी। मंसाराम को उससे बाते करते ही कुछ ठणड मालूम होने लगी थी।
यह अिभनय करने के िलए उसे अपने मनोभावो को िजतना दबाना पडा था, वह उसके िलए
असाधय था। उसका आतम-सममान उसे इस कुिटल वयवहार का जलद-से-जलद अंत कर देने
के िलए बाधय कर रहा था, पर इसका पिरणाम कया होगा? िनमरला कया यह आघात सह
सकेगी? अब तक वह मृतयु की कलपना करते समय िकसी अनय पाणी का िवचार न करता था,
पर आज एकाएक जान हुआ िक मेरे जीवन के साथ एक और पाणी का जीवन-सूत भी बंधा
हुआ है। िनमरला यह समझेगी िक मेरी िनषुरता ही ने इनकी जान ली। यह समझकर उसका
कोमल हृदय फट न जायेगा? उसका जीवन तो अब भी संकट मे है। संदेह के कठोर पंजे मे
फंसी हुई अबला कया अपने का हतयािरणी समझकर बहुत िदन जीिवत रह सकती है?
मंसाराम ने चारपाई पर लेटकर िलहाफ ओढ िलया, िफर भी सदी से कलेजा काप रहा
था। थोडी ही देर मे उसे जोर से जवर चढ आया, वह बेहोश हो गया। इस अचेत दशा मे उसे
भाित-भाित के सवप िदखाई देने लगे। थोडी-थोडी देर के बाद चौक पडता, आंखे खुल जाती,
िफर बेहोश हो जाता।
सहसा वकील साहब की आवाज सुनकर वह चौक पडा। हा, वकील साहब की आवाज
थी। उसने िलहाफ फेक िदया और चारपाई से उतरकर नीचे खडा हो गया। उसके मन मे
एक आवेग हुआ िक इस वकत इनके सामने पाण दे दं। ू उसे ऐसा मालूम हुआ िक मै मर जाऊं ,
तो इनहे सचची खुशी होगी। शायद इसीिलए वह देखने आये है िक मेरे मरने मे िकतनी देर है।
वकील साहब ने उसका हाथ पकड िलया, िजससे वह िगर न पडे और पूछा-कैसी तबीयत है
लललू। लेटे कयो न रहे? लेट न जाओ, तुम खडे कयो हो गये?
मंसाराम-मेरी तबीयत तो बहुत अचछी है। आपको वयथर ही कष हुआ। मुंशी
जी ने कुछ जवाब न िदया। लडके की दशा देखकर उनकी आंखो से आंसू िनकल आये। वह
हृष-पुष बालक, िजसे देखकर िचत पसन हो जाता था, अब सूखकर काटा हो गया था।
पाच-छ: िदन मे ही वह इतना दुबला हो गया था िक उसे पहचानना किठन था। मुंशीजी ने उसे
आिहसता से चारपाई पर िलटा िदया और िलहाफ अचछी तरह उसे उढाकर सोचने लगे िक अब
कया करना चािहए। कही लडका हाथ से तो नही जाएगा। यह खयाल करके वह शोक
िवहवल हो गये और सटू ल पर बैठकर फूट-फूटकर रोने लगे। मंसाराम भी िलहाफ मे मुंह
लपेटे रो रहा था। अभी थोडे ही िदनो पहले उसे देखकर िपता का हृदय गवर से फूल उठता
था, लेिकन आज उसे इस दारण दशा मे देखकर भी वह सोच रहे है िक इसे घर ले चलूं या
नही। कया यहा दवा नही हो सकती? मै यहा चौबीसो घणटे बैठा रहूंगा। डॉकटर साहब यहा है
ही। कोई िदकत न होगी। घर ले चलने से मे उनहे बाधाएं-ही-बाधाएं िदखाई देती थी, सबसे
बडा भय यह था िक वहा िनमरला इसके पास हरदम बैठी रहेगी और मै मना न कर सकूंगा, यह
उनके िलए असह था।

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इतने मे अधयक ने आकर कहा-मै तो समझता हूं िक आप इनहे अपने साथ ले जाये।
गाडी है ही, कोई तकलीफ न होगी। यहा अचछी तरह देखभाल न हो सकेगी।
मुंशीजी-हा, आया तो मै इसी खयाल से था, लेिकन इनकी हालत बहुत ही नाजुक
मालूम होती है। जरा-सी असावधानी होने से सरसाम हो जाने का भय है।
अधयक-यहा से इनहे ले जाने मे थोडी-सी िदकत जरर है, लेिकन यह तो आप खुद
सोच सकते है िक घर पर जो आराम िमल सकता है, वह यहा िकसी तरह नही िमल सकता।
इसके अितिरकत िकसी बीमार लडके को यहा रखना िनयम-िवरद भी है।
मुंशीजी- किहए तो मै हेडमासटर से आजा ले लूं। मुझे इनका यहा से इस हालत मे ले
जाना िकसी तरह मुनािसब नही मालूम होता।
अधयक ने हेडमासटर का नाम सुना, तो समझे िक यह महाशय धमकी दे रहे है। जरा
ितनककर बोले-हेडमासटर िनयम-िवरद कोई बात नही कर सकते। मै इतनी बडी िजममेदारी
कैसे ले सकता हूं?
अब कया हो? कया घर ले जाना ही पडेगा? यहा रखने का तो यह बहाना था िक ले
जाने बीमारी बढ जाने की शंका है। यहा से ले जाकर हसपताल मे ठहराने का कोई बहाना
नही है। जो सुनेगा, वह यही कहेगा िक डाकटर की फीस बचाने के िलए लडके को असपताल
फेक आये, पर अब ले जाने के िसवा और कोई उपाय न था। अगर अधयक महोदय इस वकत
िरशत लेने पर तैयार हो जाते, तो शायद दो-चार साल का वेतन ले लेते, लेिकन कायदे के
पाबंद लोगो मे इतनी बुिद, इतनी चतुराई कहा। अगर इस वकत मुंशीजी को कोई आदमी ऐसा
उज सुझा देता, िजसमे उनहे मंसाराम को घर न ले जाना पडे, तो वह आजीवन असका
एहसान मानते। सोचने का समय भी न था। अधयक महोदय शैतान की तरह िसर पर सवार
था। िववश होकर मुंशीजी ने दोनो साईसो को बुलाया और मंसाराम को उठाने लगे। मंसाराम
अधरचेतना की दशा मे था, चौककर बोला, कया है? कोन है?
मुंशीजी-कोई नही है बेटा, मै तुमहे घर ले चलना चाहता हूं, आओ, गोद मे उठा लूं।
मंसाराम- मुझे कयो घर ले चलते है? मै वहा नही जाऊंगा।
मुंशीजी- यहा तो रह नही सकत, िनयम ही ऐसा है।
मंसाराम- कुछ भी हो, वहा न जाऊंगा। मुझे और कही ले चिलए, िकसी पेड के नीचे,
िकसी झोपडे मे, जहा चाहे रिखए, पर घर पर न ले चिलए।
अधयक ने मुंशीजी से कहा-आप इन बातो का खयाल न करे, यह तो होश मे नही है।
मंसाराम- कौन होश मे नही है? मै होश मे नही हूं? िकसी को गािलया देता हू? दात
काटता ह?ूं कयो होश मे नही हूं? मुझे यही पडा रहने दीिजए, जो कुछ होना होगा, अगरन ऐसा
है, तो मुझे असपताल ले चिलए, मै वहा पडा रहूंगा। जीना होगा, जीऊगा, मरना होगा मरं गा,
लेिकन घर िकसी तरह भी न जाऊंगा।
यह जोर पाकर मुंशीजी िफरा अधयक की िमनते करने लगे , लेिकन वह कायदे का
पाबंदी आदमी कुछ सुनता ही न था। अगर छू त की बीमारी हुई और िकसी दस ू रे लडके को
छू त लग गयी, तो कौन उसका जवाबदेह होगा। इस तकर के सामने मुंशीजी की कानूनी दलीले
भी मात हो गयी।
आिखर मुंशीजी ने मंसाराम से कहा-बेटा, तुमहे घर चलने से कयो इंकार हो रहा है? वहा
तो सभी तरह का आराम रहेगा। मुंशीजी ने कहने को तो यह बात कह दी, लेिकन डर रहे थे
िक कही सचमुच मंसाराम च लने पर राजी न हो जाये। मंसाराम को असपताल मे रखने का
कोई बहाना खोज रहे थे और उसकी िजममेदारी मंसाराम ही के िसर डालना चाहते थे। यह
अधयक के सामने की बात थी, वह इस बात की साकी दे सकते थे िक मंसाराम अपनी िजद से
असपताल जा रहा है। मुंशीजी का इसमे लेशमात भी दोष नही है।

48
मंसाराम ने झललाकर हा-नही, नही सौ बार नही, मै घ नही जाऊंगा। मुझे असपताल ले
चिलए और घर के सब आदिमयो को मना कर दीिजए िक मुझे देखने न आये। मुझे कुछ नही
हुआ है, िबलकुल बीमार नही हू। आप मुझे छोड दीिजए, मै अपने पाव से चल सकता हूं।
वह उठ खडा हुआ और उनमत की भाित दार की ओर चला, लेिकन पैर लडखडा
गये। यिद मुंशीजी ने संभाल न िलया होता, तो उसे बडी चोट आती। दोनो नौकरो की मदद
से मुंशीजी उसे बगघी के पास लाये और अंदर बैठा िदया।
गाडी असपताल की ओर चली। वही हुआ जो मुंशीजी चाहते थे। इस शोक मे भी
उनका िचत संतुष था। लडका अपनी इचछा से असपताल जा रहा था कया यह इस बात का
पमाण नही था िक घर मे इसे कोई सनेह नही है? कया इससे यह िसद नही होता िक मंसाराम
िनदोष है ? वह उसक पर अकारण ही भम कर रहे थे।
लेिकन जरा ही देर मे इस तुिष की जगह उनके मन मे गलािन का भाव जागत हुआ।
वह अपने पाण-िपय पुत को घर न ले जाकर असपताल िलये जा रहे थे। उनके िवशाल भवन
मे उनके पुत के िलए जगह न थी, इस दशा मे भी जबिक उसकी जीवल संकट मे पडा हुआ
था। िकतनी िवडमबना है!
एक कण के बाद एकाएक मुंशीजी के मन मे पश उठा-कही मंसाराम उनके भावो को
ताड तो नही गया? इसीिलए तो उसे घर से घृणा नही हो गेयी है? अगर ऐसा है, तो गजब हो
जायेगा।
उस अनथर की कलपना ही से मुंशीजी के रोए खडे हो गये और कलेजा धकधक करने
लगा। हृदय मे एक धका-सा लगा। अगर इस जवर का यही कारण है, तो ईशर ही मािलक
है। इस समय उनकी दशा अतयनत दयनीय थी। वह आग जो उनहोने अपने िठठुरे हुए हाथो
को सेकने के िलए जलाई थी, अब उनके घर मे लगी जा रही थी। इस करणा, शोक,
पशाताप और शंका से उनका िचत घबरा उठा। उनके गुपत रोदन की धविन बाहर िनकल
सकती, तो सुनने वाले रो पडते। उनके आंसू बाहर िनकल सकते, तो उनका तार बंध जाता।
उनहोने पुत के वणर-हीन मुख की ओर एक वातसलयूपणर नेतो से देखा, वेदना से िवकल होकर
उसे छाती से लगा िलया और इतना रोये िक िहचकी बंच गयी।
सामने असपताल का फाटक िदखाई दे रहा था।

पपपपपप

मुंशीहै? मुतोताराम संधया समय कचहरी से घर पहंुचे, तो िनमरला ने पूछा- उनहे देखा, कया हाल
ंशीजी ने देखा िक िनमरला के मुख पर नाममात को भी शोक यािचनता का िचनह नही
है। उसका बनाव-िसंगार और िदनो से भी कुछ गाढा हुआ है। मसलन वह गले का हार न
पहनती थी, पर आजा वह भी गले मे शोभ दे रहा था। झूमर से भी उसे बहुत पेम था, वह आज
वह भी महीन रेशमी साडी के नीचे, काले-काले केशो के ऊपर, फानुस के दीपक की भाित
चमक रहा था।
मुंशीजी ने मुंह फेरकर कहा- बीमार है और कया हाल बताऊं?
िनमरला- तुम तो उनहे यहा लाने गये थे?
मुंशीजी ने झुझ ं लाकर कहा- वह नही आता, तो कया मै जबरदसती उठा लाता? िकतना
समझाया िक बेटा घर चलो, वहा तुमहे कोई तकलीफ न होने पावेगी, लेिकन घर का नाम
सुनकर उसे जैसे दनू ा जवर हो जाता था। कहने लगा- मै यहा मर जाऊंगा, लेिकन घर न
जाऊंगा। आिखर मजबूर होकर असपताल पहंुचा आया और कया करता?
रिकमणी भी आकर बरामदे मे खडी हो गई थी। बोली- वह जनम का हठी है, यहा
िकसी तरह न आयेगा और यह भी देख लेना, वहा अचछा भी न होगा?

49
मुंशीजी ने कातर सवर मे कहा- तुम दो-चार िदन के िलए वहा चली जाओ, तो बडा
अचछा हो बहन, तुमहारे रहने से उसे तसकीन होती रहेगी। मेरी बहन, मेरी यह िवनय मान लो।
अकेले वह रो-रोकर पाण दे देगा। बस हाय अममा! हाय अममा! की रट लगाकर रोया करता
है। मै वही जा रहा हूं, मेरे साथ ही चलो। उसकी दशा अचछी नही। बहन, वह सूरत ही नही
रही। देखे ईशर कया करते है?
यह कहते-कहते मुंशीजी की आंखो से आंसू बहने लगे, लेिकन रिकमणी अिवचिलत
भाव से बोली- मै जाने को तैयार हूं। मेरे वहा रहने से अगर मेरे लाल के पाण बच जाये , तो मै
िसर के बल दौडी जाऊं, लेिकन मेरा कहना िगरह मे बाध लो भैया, वहा वह अचछा न होगा। मै
उसे खूब पहचानती हूं। उसे कोई बीमारी नही है, केवल घर से िनकाले जाने का शोक है।
यही दु :ख जवर के रप मे पकट हुआ है। तुम एक नही, लाख दवा करो, िसिवल सजरन को ही
कयो न िदखाओ, उसे कोई दवा असार न करेगी।
मुंशीजी- बहन, उसे घर से िनकाला िकसने है? मैने तो केवल उसकी पढाई के खयाल
से उसे वहा भेजा था।
रिकमणी- तुमने चाहे िजस खयाल से भेजा हो, लेिकन यह बात उसे लग गयी। मै तो
अब िकसी िगनती मे नही हूं, मुझे िकसी बात मे बोलने का कोई अिधकार नही। मािलक तुम,
मालिकन तुमहारी सती। मै तो केवल तुमहारी रोिटयो पर पडी हुई अभिगनी िवधवा हूं। मेरी
कौन सुनेगा और कौन परवाह करेगा? लेिकन िबना बोले रही नही जाता। मंसा तभी अचछा
होगा: जब घर आयेगा, जब तुमहारा हृदय वही हो जायेगा, जो पहले था।
यह कहकर रिकमणी वहा से चली गयी, उनकी जयोितहीन, पर अनुभवपूणर आंखो के
सामने जो चिरत हो रहे थे, उनका रहसय वह खूब समझती थी और उनका सारा कोध
िनरपरािधनी िनमरला ही पर उतरता था। इस समय भी वह कहते-कहते रग गयी, िक जब तक
यह लकमी इस घर मे रहेगी, इस घर की दशा िबगडती हो जायेगी। उसको पगट रप से न
कहने पर भी उसका आशय मुंशीजी से िछपा नही रहा। उनके चले जाने पर मुंशीजी ने िसर
झुका िलया और सोचने लगे। उनहे अपने ऊपर इस समय इतना कोध आ रहा था िक दीवार
से िसर पटककर पाणो का अनत कर दे। उनहोने कयो िववाह िकया था? िववाह करेन की कया
जररत थी? ईशर ने उनहे एक नही, तीन-तीन पुत िदये थे? उनकी अवसथा भी पचास के
लगभग पहंुच गेयी थी िफर उनहोने कयो िववाह िकया? कया इसी बहाने ईशर को उनका
सवरनाश करना मंजूर था? उनहोने िसर उठाकर एक बार िनमरला को सहास, पर िनशल मूितर
देखी और असपताल चले गये। िनमरला की सहास, छिव ने उनका िचत शानत कर िदया था।
आज कई िदनो के बाद उनहे शािनत मयसर हुई थी। पेम-पीिडत हृदय इस दशा मे कया इतना
शानत और अिवचिलत रह सकता है? नही, कभी नही। हृदय की चोट भाव-कौशल से नही
िछपाई जा सकती। अपने िचत की दुबरनजा पर इस समय उनहे अतयनत कोभ हुआ। उनहोने
अकारण ही सनदेह को हृदय मे सथान देकर इतना अनथर िकया। मंसाराम की ओर से भी
उनका मन िन:शंक हो गया। हा उसकी जगह अब एक नयी शंका उतपन हो गयी। कया
मंसाराम भाप तो नही गया? कया भापकर ही तो घर आने से इनकार नही कर रहा है? अगर वह
भाप गया है, तो महान् अनथर हो जायेगा। उसकी कलपना ही से उनका मन दहल उठा।
उनकी देह की सारी हिडडया मानो इस हाहाकार पर पानी डालने के िलए वयाकुल हो उठी।
उनहोने कोचवान से घोडे को तेज चलाने को कहा। आज कई िदनो के बाद उनके हृदय मंडल
पर छाया हुआ सघन फट गया था और पकाश की लहरे अनदर से िनकलने के िलए वयग हो
रही थी। उनहोने बाहर िसर िनकाल कर देखा, कोचवान सो तो नही रहा ह। घोडे की चाल
उनहे इतनी मनद कभी न मालूम हुई थी।
असपताल पहंुचकर वह लपके हुए मंसाराम के पास गये। देखा तो डॉकटर साहब
उसके सामने िचनता मे मगन खडे थे। मुंशीजी के हाथ-पाव फूल गये। मुंह से शबद न िनकल
सका। भरभराई हुई आवाज मे बडी मुिशकल से बोले- कया हाल है, डॉकटर साहब? यह कहते-

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कहते वह रो पडे और जब डॉकटर साहब को उनके पश का उतर देने मे एक कण का िवलमबा
हुआ, तब तो उनके पाण नहो मे समा गये। उनहोने पलंग पर बैठकर अचेत बालक को गोद मे
उठा िलया और बालक की भाित िससक-िससककर रोने लगे। मंसाराम की देह तवे की तरह
जल रही थी। मंसाराम ने एक बार आंखे खोली। आह, िकतनी भयंकर और उसके साथ ही
िकतनी दी दृिष थी। मुंशीजी ने बालक को कणठ से लगाकर डॉकटर से पूछा-कया हाल है,
साहब! आप चुप कयो है?
डॉकटर ने संिदगध सवर से कहा- हाल जो कुछ है, वह आपे देख ही रहे है। 106 िडगी
का जवर है और मै कया बताऊं? अभी जवर का पकोप बढता ही जाता है। मेरे िकये जो कुद हो
सकता है, कर रहा हूं। ईशर मािलक है। जबसे आप गये है, मै एक िमनट के िलए भी यहा से
नही िहला। भोजन तक नही कर सका। हालत इतनी नाजुक है िक एक िमनट मे कया हो
जायेगा, नही कहा जा सकता? यह महाजवर है, िबलकुल होश नही है। रह-रहकर ‘िडलीिरयम’
का दौरा-सा हो जाता है। कया घर मे इनहे िकसी ने कुछ कहा है! बार-बार, अममाजी, तुम कहा
हो! यही आवाज मुंह से िनकली है।
डॉकटर साहब यह कह ही रहे थे िक सहसा मंसाराम उठकर बैठ गया और धके से
मुंशीज को चारपाई के नीचे ढकेलकर उनमत सवर से बोला- कयो धमकाते है, आप! मार
डािलए, मार डािल, अभी मार डािलए। तलवार नही िमलती! रससी का फनदा है या वह भी
नही। मै अपने गले मे लगा लूंगा। हाय अममाजी, तुम कहा हो! यह कहते-कहते वह िफर
अचेते होकर िगर पडा।
मुंशीजी एक कण तक मंसाराम की िशिथल मुदा की ओर वयिथत नेतो से ताकते रहे,
िफर सहस उनहोने डॉकटर साहब का हाथ पकड िलया और अतयनत दीनतापूणर आगह से बोले -
डॉकटर साहब, इस लडके को बचा लीिजए, ईशर के िलए बचा लीिजए, नही मेरा सवरनाश हो
जायेगा। मै अमीर नही हूं लेिकन आप जो कुछ कहेगे, वह हािजर करं गा, इसे बचा लीिजए।
आप बडे-से-बडे डॉकटर को बुलाइए और उनकी राय लीिजएक , मै सब खचर दंगू ा। इसीक
अब नही देखी जाती। हाय, मेरा होनहार बेटा!
डॉकटर साहब ने करण सवर मे कहा- बाबू साहब, मै आपसे सतय कह रहा हूं िक मै
इनके िलए अपनी तरफ से कोई बात उठा नही रख रहा हूं। अब आप दस ू रे डॉकटरो से सलाह
लेने को कहते है। अभी डॉकटर लािहरी, डॉकटर भािटया और डॉकटर माथुर को बुलाता हूं।
िवनायक शासती को भी बुलाये लेता हूं, लेिकन मै आपको वयथर का आशासन नही देना चाहता,
हालत नाजुक है।
मंशीजी ने रोते हुए कहा- नही, डॉकटर साहब, यह शबद मुंह से न िनकािलए। हाल
इसके दुशमनो की नाजुक हो। ईशर मुझ पर इतना कोप न करेगे। आप कलकता और बमबई
के डॉकटरो को तारा दीिजए, मै िजनदगी भर आपकी गुलामी करं गा। यही मेरे कुल का दीपक
है। यही मेरे जीवन का आधार है। मेरा हृदय फटा जा रहा है। कोई ऐसी दवा दीिजए, िजससे
इसे होश आ जाये। मै जरा अपने कानो से उसकी बाते सुनूं जानूं िक उसे कया कष हो रहा
है? हाय, मेरा बचचा!
डॉकटर- आप जरा िदल को तसकीन दीिजए। आप बुजुगर आदमी है, यो हाय-हाय करने
और डॉकटरो की फौज जमा करने से कोई नतीजा न िनकलेगा। शानत होकर बैिठए, मै शहर
के लोगो को बुला रहा हूं, देिखए कया कहते है? आप तो खुद ही बदहवास हुए जाते है।
मुंशीजी- अचछा, डॉकटर साहब! मै अब न बोलूंग, जबान तब तक न खोलूंगा, आप जो
चाहे करे, बचचा अब हाथ मे है। आप ही उसकी रका कर सकते है। मै इतना ही चाहता हूं
िक जरा इसे होश आ जाये, मुझे पहचान ले, मेरी बाते समझने लगे। कया कोई ऐसी संजीवनी
बूटी नही? मै इससे दो-चार बाते कर लेता।

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यह कहते-कहते मुंशीजी आवेश मे आकर मंसाराम से बोले- बेटा, जरा आंखे खोलो,
कैसा जी है? मै तुमहारे पास बैठा रो रहा हूं, मुझे तुमसे कोई िशकायत नही है, मेरा िदल तुमहारी
ओर से साफ है।
डॉकटर- िफर आपने अनगरला बाते करनी शुर की। अरे साहब, आप बचचे नही है,
बुजुगर है, जरा धैयर से काम लीिजए।
मुंशीजी- अचछा, डॉकटर साहब, अब न बोलूंगा, खता हुई। आप जो चाहे कीिजए। मैने
सब कुछ आप पर छोड िदया। कोई ऐसा उपाय नही, िजससे मै इसे इतना समझा सकूं िक
मेरा िदल साफ है? आप ही कह दीिजए डॉकटर साहब, कह दीिजए, तुमहारा अभागा िपता बैठा
रो रहा है। उसका िदल तुमहारी तरफ से िबलकुल साफ है। उसे कुछ भम हुआ था। वब अब
दरू हो गया। बस, इतना ही कर दीिजए। मै और कुछ नही चाहता। मै चुपचाप बैठा हूं।
जबान को नही खोलता, लेिकन आप इतना जरर कह दीिजए।
डॉकटर- ईशर के िलए बाबू साहब, जरा सब कीिजए, वरना मुझे मजबूर होकर आपसे
कहना पडेगा िक घर जाइए। मै जरा दफतर मे जाकर डॉकटरो को खत िलख रहा हूं। आप
चुपचाप बैठे रिहएगा।
िनदरयी डॉकटर! जवान बेटे की यहा दशा देखकर कौन िपता है, जो धैयर से कामे लेगा?
मुंशीजी बहुत गमभीर सवभाव के मनुषय थे। यह भी जानते थे िक इस वकत हाय-हाय मचाने से
कोई नतीजा नही, लेिकन िफरी भी इस समय शानत बैठना उनके िलए असमभव था। अगर
दैव-गित से यह बीमारी होती, तो वह शानत हो सकते थे, दस ू रो को समझा सकते थे, खुद
डॉकटरो का बुला सकते थे, लेिकन कयायह जानकर भी धैयर रख सकते थे िक यह सब आग
मेरी ही लगाई हुई है? कोई िपता इतना वज-हृदय हो सकता है? उनका रोम-रोम इस समय
उनहे िधकार रहा था। उनहोने सोचा, मुझे यह दुभावना उतपन ही कयो हुई? मैने कया िबना
िकसी पतयक पमाण के ऐसी भीषण कलपना कर डाली? अचदा मुझे उसक दशा मे कया करना
चािहए था। जो कुछ उनहोने िकया उसके िसवा वह और कया करते, इसका वह िनशय न कर
सके। वासतव मे िववाह के बनधन मे पडना ही अपने पैरो मे कुलाडी माराना था। हा, यही
सारे उपदव की जड है।
मगर मैने यह कोई अनोखी बात नही की। सभी सती-पुरष का िववाह करते है।
उनका जीवन आननद से कटता है। आननद की अचदा से ही तो हम िववाह करते है। मुहलले
मे सैकडो आदिमयो ने दस ू री, तीसरी, चौथी यहा तक िक सातवी शिदया की है और मुझसे भी
कही अिधक अवसथा मे। वह जब तक िजये आराम ही से िजये। यह भी नही हआ िक सभी
सती से पहले मर गये हो। दुहाज-ितहाज होने पर भी िकतने ही िफर रंडुए हो गये। अगर
मेरी-जैसी दशा सबकी होती, तो िववाह का नाम ही कौन लेता? मेरे िपताजी ने पचपनवे वषर मे
िववाह िकया था और मेरे जनम के समय उनकी अवसथा साठ से कम न थी। हा, इतनी बात
जरर है िक तब और अब मे कुछ अंतर हो गया है। पहले सतीया पढी-िलखी न होती थी।
पित चाहे कैसा ही हो, उसे पूजय समझती थी, यह बात हो िक पुरष सब कुछ देखकर भी
बेहयाई से काम लेता हो, अवशय यही बात है। जब युवक वृदा के साथ पसन नही रह सकता,
तो युवती कयो िकसी वृद के साथ पसन रहने लगी? लेिकन मै तो कुछ ऐसा बुडढा न था।
मुझे देखकर कोई चालीस से अिधक नही बता सकता। कुछ भी हो, जवानी ढल जाने पर
जवान औरत से िववाह करके कुछ-न-कुछ बेहयाई जरर करनी पडती है, इसमे सनदेह नही।
सती सवभाव से लजजाशील होती है। कुलटाओं की बात तो दस ू री है, पर साधारणत: सती
पुरष से कही जयादा संयमशील होती है। जोड का पित पाकर वह चाहे पर-पुरष से हंसी-
िदललगी कर ले, पर उसका मन शुद रहता है। बेजोडे िववाह हो जाने से वह चाहे िकसी की
ओर आंखे उठाकर न देखे, पर उसका िचत दुखी रहता है। वह पकी दीवार है, उसमे सबरी
का असर नही होता, यह कचची दीवार है और उसी वकत तक खडी रहती है, जब तक इस पर
सबरी न चलाई जाये।

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इनही िवचारा मे पडे-पडे मुंशीजी का एक झपकी आ गयी। मने के भावो ने ततकाल
सवप का रप धारण कर िलया। कया देखते है िक उनकी पहली सती मंसाराम के सामने खडी
कह रही है- ‘सवामी, यह तुमने कया िकया? िजस बालक को मैने अपना रकत िपला-िपलाकर
पाला, उसको तुमने इतनी िनदरयता से मार डाला। ऐसे आदशर चिरत बालक पर तुमने इतना
घोर कलंक लगा िदया? अब बैठे कया िबसूरते हो। तुमने उससे हाथ धो िलया। मै तुमहारे
िनदरया हाथो से छीनकर उसे अपने साथ िलए जाती हूं। तुम तो इतनो शकी कभी न थे। कया
िववाह करते ही शक को भी गले बाध लाये? इस कोमल हृदय पर इतना कठारे आघात! इतना
भीषण कलंक! इतन बडा अपमान सहकर जीनेवाले कोई बेहया होगे। मेरा बेटा नही सह
सकता!’ यह कहते-कहते उसने बालक को गोद मे उठा िलया और चली। मुंशीजी ने रोते हुए
उसकी गोद से मंसाराम को छीनने के िलए हाथ बढाया, तो आंखे खुल गयी और डॉकटर
लािहरी, डॉकटर लािहरी, डॉकटर भािटया आिद आधे दजरन डॉकटर उनको सामने खडे िदखायी
िदये।

पपपप

तीनमंसिदनारामगुकोजरदेगयेख आती
और मुंशीजी घर न आये। रिकमणी दोनो वकत असपताल जाती और
थी। दोनो लडके भी जाते थे, पर िनमरला कैसे जाती? उनके पैरो
मे तो बेिडया पडी हुई थी। वह मंसाराम की बीमारी का हाल-चाल जानने क िलए वयग रहती
थी, यिद रिकमणी से कुछ पूछती थी, तो ताने िमलते थे और लडको से पूछती तो बेिसर-पैर
की बाते करने लगते थे। एक बार खुद जाकर देखने के िलए उसका िचत वयाकुल हो रहा
था। उसे यह भय होता था िक सनदेह ने कही मुंशीजी के पुत-पेम को िशिथल न कर िदया हो,
कही उनकी कृपणता ही तो मंसाराम क अचछे होने मे बाधक नही हो रही है? डॉकटर िकसी के
सगे नही होते, उनहे तो अपने पैसो से काम है, मुदा दोजख मे जाये या बिहशत मे। उसक मन
मे पबल इचछा होती थी िक जाकर असपताल क डॉकटरो का एक हजार की थैली देकर कहे -
इनहे बचा लीिजए, यह थैली आपकी भेट है, पर उसके पास न तो इतने रपये ही थे, न इतने
साहस ही था। अब भी यिद वहा पहंुच सकती, तो मंसाराम अचछा हो जाता। उसकी जैसी
सेवा-शुशूषा होनी चािहए, वैसी नही हो रही है। नही तो कया तीन िदन तक जवर ही न उतरता?
यह दैिहक जवर नही, मानिसक जवर है और िचत के शानत होने ही से इसका पकोप उतर
सकता है। अगर वह वहा रात भर बैठी रह सकती और मुंशीजी जरा भी मन मैला न करते, तो
कदािचत् मंसाराम को िवशास हो जाता िक िपताजी का िदल साफ है और िफर अचछे होने मे
देर न लगती, लेिकन ऐसा होगा? मुंशीजी उसे वहा देखकर पसनिचत रह सकेगे? कया अब भी
उनका िदल साफ नही हुआ? यहा से जाते समय तो ऐसा जात हुआ था िक वह अपने पमाद पर
पछता रहे है। ऐसा तो न होगा िक उसके वहा जाते ही मुंशीजी का सनदेह िफर भडक उठे
और वह बेटे की जान लेकर ही छोडे?
इस दुिवधा मे पडे-पडे तीन िदन गुजर गये और न घर मे चूला जला, न िकसी ने कुछ
खाया। लडको के िलए बाजार से पूिरया ली जाती थी, रिकमणी और िनमरला भूखी ही सो
जाती थी। उनहे भोजन की इचछा ही न होती।
चौथे िदन िजयाराम सकूल से लौटा, तो असपताल होता हुआ घर आया। िनमरला ने
पूछा-कयो भैया, असपताल भी गये थे? आज कया हाल है? तुमहारे भैया उठे या नही?
िजयाराम रआंसा होकर बोला- अममाजी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थे।
चुपचाप चारपाई पर पडे जोर-जोर से हाथ-पाव पटक रहे थे।
िनमरला के चेहरे का रंग उड गया। घबराकर पूछा- तुमहारे बाबूजी वहा न थे?
िजयाराम- थे कयो नही? आज वह बहुत रोते थे।
िनमरला का कलेजा धक्-धक् करने लगा। पूछा- डॉकटर लोग वहा न थे?

53
िजयाराम- डॉकटर भी खडे थे और आपस मे कुछ सलाह कर रहे थे। सबसे बडा
िसिवल सजरन अंगरेजी मे कह रहा था िक मरीज की देह मे कुछ ताजा खून डालना चािहए।
इस पर बाबूजीय ने कहा- मेरी देह से िजतना खून चाहे ले लीिजए। िसिवल सजरन ने हंसकर
कहा- आपके बलड से काम नही चलेगा, िकसी जवान आदमी का बलड चािहए। आिखर उसने
िपचकारी से कोई दवा भैया के बाजू मे डाल दी। चार अंगुल से कम के सुई न रही होगी, पर
भैया िमनके तक नही। मैने तो मारे डरके आंखे बनद कर ली।
बडे-बडे महान संकलप आवेश मे ही जनम लेते है। कहा तो िनमरला भय से सूखी जाती
थी, कहा उसके मुंह पर दृढ संकलप की आभा झलक पडी। उसने अपनी देह का ताजा खून
देने का िनशय िकया। आगर उसके रकत से मंसाराम के पाण बच जाये , तो वह बडी खुशी से
उसकी अिनतम बूंद तक दे डालेगी। अब िजसका जो जी चाहे समझे, वह कुछ परवाह न
करेगी। उसने िजयाराम से काह- तुम लपककर एक एका बुला लो, मै असपताला जाऊंगी।
िजयाराम- वहा तो इस वकत बहुत से आदमी होगे। जरा रात हो जाने दीिजए।
िनमरला- नही, तुम अभी एका बुला लो।
िजयाराम- कही बाबूजी िबगडे न?
िनमरला- िबगडने दो। तुमे अभी जाकर सवारी लाओ।
िजयाराम- मै कह दंगू ा, अममाजी ही ने मुझसे सवारी मंगाई थी।
िनमरला- कह देना।
िजयाराम तो उधर तागा लाने गया, इतनी देर मे िनमरला ने िसर मे कंघी की, जूडा
बाधा, कपडे बदले, आभूषण पहने, पान खाया और दार पर आकर तागे की राह देखने लगी।
रिकमणी अपने कमरे मे बैठी हुई थी उसे इस तैयारी से आते देखकर बोली- कहा
जाती हो, बहू?
िनमरला- जरा असपताल तक जाती हूं।
रिकमणी- वहा जाकर कया करोगी?
िनमरला- कुछ नही, करं गी कया? करने वाले तो भगवान है। देखने को जी चाहता है।
रिकमणी- मै कहती ह,ूं मत जाओ।
िनमरला- ने िवनीत भाव से कहा- अभी चली आऊंगी, दीदीजी। िजयाराम कह रहे है िक
इस वकत उनकी हालत अचछी नही है। जी नही मानता, आप भी चिलए न?
रिकमणी- मै देख आई हूं। इतना ही समझ लो िक, अब बाहरी खून पहंुचाने पर ही
जीवन की आशा है। कौन अपना ताजा खून देगा और कयो देगा? उसमे भी तो पाणो का भय
है।
िनमरला- इसीिलए तो मै जाती हूं। मेरे खून से कया काम न चलेगा?
रिकमणी- चलेगा कयो नही, जवान ही का तो खून चािहए, लेिकन तुमहारे खून से
मंसाराम की जान बचे, इससे यह कही अचछा है िक उसे पानी मे बहा िदया जाये।
तागा आ गया। िनमरला और िजयाराम दोनो जा बैठे। तागा चला।
रिकमणी दार पर खडी देत तक रोती रही। आज पहली बार उसे िनमरला पर दया आई,
उसका बस होता तो वह िनमरला को बाध रखती। करणा और सहानुभूित का आवेश उसे कहा
िलये जाता है, वह अपकट रप से देख रही थी। आह! यह दुभागय की पेरणा है। यह सवरनाश
का मागर है।
िनमरला असपताल पहंुची, तो दीपक जल चुके थे। डॉकटर लोग अपनी राय देकर िवदा
हो चुके थे। मंसाराम का जवर कुछ कम हो गयाथा वह टकटकी लगाए हुद दार की ओर देख
रहा था। उसकी दृिष उनमुकत आकाश की ओर लगी हुई थी, माने िकसी देवता की पतीका
कर रहा हो! वह कहा है, िजस दशा मे है, इसका उसे कुछ जान न था।

54
सहसा िनमरला को देखते ही वह चौककर उठ बैठा। उसका समािध टू ट गई। उसकी
िवलुपत चेतना पदीपत हो गई। उसे अपने िसथित का, अपनी दशा का जान हो गया, मानो कोई
भूली हुई बात याद हो गई हो। उसने आंखे फाडकर िनमरला को देखा और मुंह फेर िलया।
एकाएक मुंशीजी तीवर सवर से बोले- तुम, यहा कया करने आई?
िनमरला अवाक् रह गई। वह बतलाये िक कया करने आई? इतने सीधे से पश का भी
वह कोई जवाब दे सकी? वह कया करने आई थी? इतना जिटल पश िकसने सामने आया
होगा? घर का आदमी बीमार है, उसे देखने आई है, यह बात कया िबना पूछे मालूम न हो सकती
थी? िफर पश कयो?
वह हतबुदी-सी खडी रही, मानो संजाहीन हो गई हो उसने दोनो लडको से मुंशीजी के
शोक और संताप की बाते सुनकर यह अनुमान िकया था िक अब उसनका िदल साफ हो गया
है। अब उसे जात हुआ िक वह भम था। हा, वह महाभम था। मगर वह जानती थी आंसुओं
की दृिष ने भी संदेह की अिगन शात नही की, तो वह कदािप न आती। वह कुढ-कुढाकर मर
जाती, घर से पाव न िनकालती।
मुंशजी ने िफर वही पश िकया- तुम यहा कयो आई?
िनमरला ने िन:शंक भाव से उतर िदया- आप यहा कया करने आये है?
मुंशीजी के नथुने फडकने लगा। वह झललाकर चारपाई से उठे और िनमरला का हाथ
पकडकर बोले- तुमहारे यहा आने की कोई जररत नही। जब मै बुलाऊं तब आना। समझ
गई?
अरे! यह कया अनथर हुआ! मंसाराम जो चारपाई से िहल भी न सकता था, उठकर
खडा हो गया औग िनमरला के पैरो पर िगरकर रोते हुए बोला- अममाजी, इस अभागे के िलए
आपको वयथर इतना कष हुआ। मै आपका सनेह कभी भी न भूलंगा। ईशर से मेरी यही पाथरना
है िक मेरा पुनरजनम आपके गभर से हो, िजससे मै आपके ऋण से अऋण हो सकूं। ईशर
जानता है, मैने आपको िवमाता नही समझा। मै आपको अपनी माता समझता रहा । आपकी
उम मुझसे बहुत जया न हो, लेिकन आप, मेरी माता के सथान पर थी और मैने आपको सदैव
इसी दृिष से देखा...अब नही बोला जाता अममाजी, कमा कीिजए! यह अंितम भेट है।
िनमरला ने अशु-पवाह को रोकते हुए कहा- तुम ऐसी बाते कयो करते हो? दो-चार िदन मे
अचछे हो जाओगे।
मंसाराम ने कीण सवर मे कहा- अब जीने की इचछा नही और न बोलने की शिकत ही
है।
यह कहते-कहते मंसाराम अशकत होकर वही जमीन पर लेट गया। िनमरला ने पित की
ओर िनभरय नेतो से देखते हुए कहा- डॉकटर ने कया सलाह दी?
मुंशीजी- सब-के-सब भंग खा गए है, कहते है, ताजा खून चािहए।
िनमरला- ताजा खून िमल जाये, तो पाण-रका हो सकती है?
मुंशीजी ने िनमेला की ओर तीवर नेतो से देखकर कहा- मै ईशर नही हूं और न डॉकटर
ही को ईशर समझता हूं।
िनमरला- ताजा खून तो ऐसी अलभय वसतु नही!
मुंशीजी- आकाश के तारे भी तो अलभय नही! मुंह के सामने खदंक कया चीज है?
िनमरला- मै आपना खून देने को तैयार हूं। डॉकटर को बुलाइए।
मुंशीजी ने िविसमत होकर कहा- तुम!
िनमरला- हा, कया मेरे खून से काम न चलेगा?
मुंशीजी- तुम अपना खून दोगी? नही, तुमहारे खून की जररत नही। इसमे पाणो का भय
है।
िनमरला- मेरे पाण और िकस िदन काम आयेगे?

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मुंशीजी ने सजल-नेत होकर कहा- नही िनमरला, उसका मूलय अब मेरी िनगाहो मे बहुत
बढ गया है। आज तक वह मेरे भोग की वसतु थी, आज से वह मेरी भिकत की वसतु है। मैने
तुमहारे साथ बडा अनयाय िकया है, कमा करो।

पपपप

जोिनकालने
कु छ होना था हो गया, िकसी को कुछ न चली। डॉकटर साहब िनमरला की देह से रकत
की चेषा कर ही रहे थे िक मंसाराम अपने उजजवल चिरत की अिनतम झलक
िदखाकर इस भम-लोक से िवदा हो गया। कदािचत् इतनी देर तक उसके पाण िनमरला ही की
राह देख रहे थे। उसे िनषकलंक िसद िकये िबना वे देह को कैसे तयाग देते? अब उनका
उदेशय पूरा हो गया। मुंशीजी को िनमरला के िनदोष होने का िवशास हो गया, पर कब? जब हाथ
से तीर िनकल चुका था, जब मुसिफर ने रकाब मे पाव डाल िलया था।
पुत-शोक मे मुंशीजी का जीवन भार-सवरप हो गया। उस िदन से िफर उनके ओठो
पर हंसी न आई। यह जीवन अब उनहे वयथर-सा जान पडता था। कचहरी जाते, मगर मुकदमो
की पैरवी करने के िलए नही, केवल िदल बहलाने के िलए घंटे-दो-घंटे मे वहा से उकताकर
चले आते। खाने बैठते तो कौर मुंह मे न जाता। िनमरला अचछी से अचछी चीज पकाती पर
मुंशीजी दो-चार कौर से अिधक न खा सकते। ऐसा जान पडता िक कौर मुंह से िनकला आता
है! मंसाराम के कमरे की ओर जाते ही उनका हृदय टू क-टू क हो जाता था। जहा उनकी
आशाओं का दीपक जलता रहता था, वहा अब अंधकार छाया हुआ था। उनके दो पुत अब भी
थे, लेिकन दध ू देती हुई गायमर गई, तो बिछया का कया भरोसा? जब फूलने-फलनेवाला वृक
िगर पडा, ननहे-ननहे पौधो से कया आशा? यो ता जवान-बूढे सभी मरत है, लेिकन दु :ख इस बात
का था िक उनहोने सवयं लडके की जान ली। िजस दम बात याद आ जाती, तो ऐसा मालूम
होता था िक उनकी छाती फट जायेगी-मानो हृदय बाहर िनकल पडेगा।
िनमरला को पित से सचची सहानुभूित थी। जहा तक हो सकता था, वह उनको पसन
रखने का िफक रखती थी और भूलकर भी िपछली बाते जबान पर न लाती थी। मुंशीजी
उससे मंसाराम की कोई चचा करते शरमाते थे। उनकी कभी-कभी ऐसी इचछा होती िक एक
बार िनमरला से अपने मन के सारे भाव खोलकर कह दंू, लेिकन लजजा रोक लेती थी। इस
भाित उनहे सानतवना भी न िमलती थी, जो अपनी वयथा कह डालने से, दस ू रो को अपने गम मे
शरीक कर लेने से, पापत होती है। मवाद बाहर न िनकलकर अनदर-ही-अनदर अपना िवष
फैलाता जाता था, िदन-िदन देह घुलती जाती थी।
इधर कुछ िदनो से मुंशीजी और उन डॉकटर साहब मे िजनहोने मंसाराम की दवा की
थी, याराना हो गया था, बेचारे कभी-कभी आकर मुंशीजी को समझाया करते, कभी-कभी अपने
साथ हवा िखलाने के िलए खीच ले जाते। उनकी सती भी दो-चार बार िनमरला से िमलने आई
थी। िनमरला भी कई बार उनके घर गई थी, मगर वहा से जब लौटती, तो कई िदन तक उदास
रहती। उस दमपित का सुखमय जीवन देखकर उसे अपनी दशा पर दु :ख हुए िबना न रहता
था। डॉकटर साहब को कुल दो सौ रपये िमलते थे, पर इतने मे ही दोनो आननद से जीवन
वयतीत करते थे। घर मं केवल एक महरी थी, गृहसथी का बहुत-सा काम सती को अपने ही
हाथो करना पडता थ। गहने भी उसकी देह पर बहुत कम थे, पर उन दोनो मे वह पेम था, जो
धन की तृण के बराबर परवाह नही करता। पुरष को देखकर सती को चेहरा िखल उठता
था। सती को देखकर पुरष िनहाल हो जाता था। िनमरला के घर मे धन इससे कही अिधक
था, अभूषणो से उनकी देह फटी पडती थी, घर का कोई काम उसे अपने हाथ से न करना
पडता था। पर िनमरला समपन होने पर भी अिधक दुखी थी, और सुधा िवपनन होने पर भी
सुखी। सुधा के पास कोई ऐसी वसतु थी, जो िनमरला के पास न थी, िजसके सामने उसे अपना
वैभव तुचछ जान पडता था। यहा तक िक वह सुधा के घर गहने पहनकर जाते शरमाती थी।

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एक िदन िनमरला डॉकटर साहब से घर आई, तो उसे बहुत उदास देखकर सुधा ने
पूछा-बिहन, आज बहुत उदास हो, वकील साहब की तबीयत तो अचछी है, न?
िनमरला- कया कहूं, सुधा? उनकी दशा िदन-िदन खराब होती जाती है, कुछ कहते नही
बनता। न जाने ईशर को कया मंजूर है?
सुधा- हमारे बाबूजी तो कहते है िक उनहे कही जलवायु बदलने के िलए जाना जररी
है, नही तो, कोई भंयकर रोग खडा हो जायेगा। कई बार वकील साहब से कह भी चुके है पर
वह यही कह िदया करते है िक मै तो बहुत अचछी तरह हूं, मुझे कोई िशकायत नही। आज
तुम कहना।
िनमरला- जब डॉकटर साहब की नही सुना, तो मेरी सुनेगे?
यह कहते-कहते िनमरला की आंखे डबडबा गई और जो शंका, इधर महीनो से उसके
हृदय को िवकल करती रहती थी, मुंह से िनकल पडी। अब तक उसने उस शंका को िछपाया
था, पर अब न िछपा सकी। बोली-बिहन मुझे लकण कुद अचछे नही मालूम होते। देखे, भगवान्
कया करते है?
साधु-तुम आज उनसे खूब जोर देकर कहना िक कही जलवायु बदलने चािहए। दो
चार महीने बाहर रहने से बहुत सी बाते भूल जायेगी। मै तो समझती हूं,शायद मकान बदलने
से भी उनका शोक कुछ कम हो जायेगा। तुम कही बाहर जा भी न सकोगी। यह कौन-सा
महीना है?
िनमरला- आठवा महीना बीत रहा है। यह िचनता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैने
तो इसके िलए ईशर से कभी पाथरन न की थी। यह बला मेरे िसर न जाने कयो मढ दी? मै बडी
अभािगनी हूं, बिहन, िववाह के एक महीने पहले िपताजी का देहानता हो गया। उनके मरते ही
मेरे िसर शनीचर सवार हुए। जहा पहले िववाह की बातचीत पकी हुई थी, उन लोगो ने आंखे
फेर ली। बेचारी अममा को हारकर मेरा िववाह यहा करना पडा। अब छोटी बिहन का िववाह
होने वाला है। देख,े उसकी नाव िकस घाट जाती है!
सुधा- जहा पहले िववाह की बातचीत हुई थी, उन लोगो ने इनकार कयो कर िदया?
िनमरला- यह तो वे ही जाने। िपताजी न रहे, तो सोने की गठरी कौन देता?
सुधा- यह ता नीचता है। कहा के रहने वाले थे?
िनमरला- लखनऊ के। नाम तो याद नही, आबकारी के कोई बडे अफसर थे।
सुधा ने गमभीरा भाव से पूछा- और उनका लडका कया करता था?
िनमरला- कुछ नही, कही पढता था, पर बडा होनहार था।
सुधा ने िसर नीचा करके कहा- उसने अपने िपता से कुछ न कहा था? वह तो जवान
था, अपने बाप को दबा न सकता था?
िनमरला- अब यह मै कया जानूं बिहन? सोने की गठरी िकसे पयारी नही होती? जो पिणडत
मेरे यहा से सनदेश लेकर गया था, उसने तो कहा था िक लडका ही इनकार कर रहा है।
लडके की मा अलबता देवी थी। उसने पुत और पित दोनो ही को समझाया, पर उसकी कुछ
न चली।
सुधा- मै तो उस लडके को पाती, तो खूब आडे हाथो लेती।
िनमरला- मरे भागय मे जो िलखा था, वह हो चुका। बेचारी कृषणा पर न जाने कया
बीतेगी?
संधया समय िनमरला ने जाने के बाद जब डॉकटर साहब बाहर से आये, तो सुधा ने
कहा-कयो जी, तुम उस आदमी का कया कहोगे, जो एक जगह िववाह ठीक कर लेने बाद िफर
लोभवश िकसी दस ू री जगह?
डॉकटर िसनहा ने सती की ओर कुतूहल से देखकर कहा- ऐसा नही करना चािहए, और
कया?
सुधा- यह कयो नही कहते िक ये घोर नीचता है, पहले िसरे का कमीनापन है!

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िसनहा- हा, यह कहने मे भी मुझे इनकार नही।
सुधा- िकसका अपराध बडा है? वर का या वर के िपता का?
िसनहा की समझ मे अभी तक नही आया िक सुधा के इन पशो का आशय कया है ?
िवसमय से बोले- जैसी िसथित हो अगर वह िपता क अधीन हो, तो िपता का ही अपराध
समझो।
सुधा- अधीन होने पर भी कया जवान आदमी का अपना कोई कतरवय नही है? अगर
उसे अपने िलए नये कोट की जररत हो, तो वह िपता के िवराध करने पर भी उसे रो-धोकर
बनवा लेता है। कया ऐसे महतव के िवषय मे वह अपनी आवाज िपता के कानो तक नही पहंच ु ा
सकता? यह कहो िक वह और उसका िपता दोनो अपराधी है, परनतु वर अिधक। बूढा आदमी
सोचता है- मुझे तो सारा खचर संभालना पडेगा, कनया पक से िजतना ऐंठ सकूं, उतना ही
अचछा। मगेर वर का धमर है िक यिद वह सवाथर के हाथो िबलकुल िबक नही गया है, तो अपने
आतमबल का पिरचय दे। अगर वह ऐसा नही करता, तो मै कहूंगी िक वह लोभी है और कायर
भी। दुभागयवश ऐसा ही एक पाणी मेरा पित है और मेरी समझ मे नही आता िक िकन शबदो मे
उसका ितरसकार करं !
िसनहा ने िहचिकचाते हुए कहा- वह...वह...वह...दस ू री बात थी। लेन-देन का कारण
नही था, िबलकुल दस ू री बाता थी। कनया के िपता का देहानत हो गया था। ऐसी दशा मे हम
लोग कयो करते? यह भी सुनने मे आया था िक कनया मे कोई ऐब है। वह िबलकुल दस ू री
बाता थी, मगर तुमसे यह कथा िकसने कही।
सुधा- कह दो िक वह कनया कानी थी, या कुबडी थी या नाइन के पेट की थी या भषा
थी। इतनी कसर कयो छोड दी? भला सुनूं तो, उस कनया मे कया ऐब था?
िसनहा- मैने देखा तो था नही, सुनने मे आया था िक उसमे कोई ऐब है।
सुधा- सबसे बडा ऐब यही था िक उसके िपता का सवगरवास हो गया था और वह कोई
लंबी-चौडी रकम न दे सकती थी। इतना सवीकार करते कयो झेपते हो? मै कुछ तुमहारे कान
तो काट न लूंगी! अगर दो-चार िफकरे कहूं, तो इस कान से सुनकर उसक कान से उडा
देना। जयादा-ची-चपड करं , तो छडी से काम ले सकते हो। औरत जात डणडे ही से ठीक
रहती है। अगर उस कनया मे कोई ऐब था, तो मै कहूंगी, लकमी भी बे-ऐब नही। तुमहारी खोटी
थी, बस! और कया? तुमहे तो मेरे पाले पडना था।
िसनहा- तुमसे िकसने कहा िक वह ऐसी थी वैसी थी? जैसे तुमने िकसी से सुनकर मान
िलया।
सुधा- मैने सुनकर नही मान िलया। अपनी आंखो देखा। जयादा बखान कया करं , मैने
ऐसी सुनदी सती कभी नही देखी थी।
िसनहा ने वयग होकर पूछा-कया वह यही कही है? सच बताओ, उसे कहा देखा! कया
तुमळारे घर आई थी?
सुधा-हा, मेरे घर मे आई थी और एक बार नही, कई बार आ चुकी है। मै भी उसके
यहा कई बार जा चुकी हूं, वकील साहब के बीवी वही कनया है, िजसे आपने ऐबो के कारण
तयाग िदया।
िसनहा-सच!
सुधा-िबलकुल सच। आज अगर उसे मालूम हो जाये िक आप वही महापुरष है, तो
शायद िफर इस घर मे कदम न रखे। ऐसी सुशीला, घर के कामो मे ऐसी िनपुण और ऐसी
परम सुनदारी सती इस शहर मे दो ही चार होगी। तुम मेरा बखान करते हो। मै। उसकी
लौडी बनने के योगय भी नही हूं। घर मे ईशर का िदया हुआ सब कुछ है, मगर जब पाणी ही
मेाल केा नही , तो और सब रहकर कया करेगा? धनय है उसके धैयर को िक उस बुडढे खूसट
वकील के साथ जीवन के िदन काट रही है। मैने तो कब का जहर खा िलया होता। मगर मन

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की वयथा कहने से ही थोडे पकट होती है। हंसती है, बोलती है, गहने -कपडे पहनती है, पर
रोया-रोया राया करता है।
िसनहा-वकील साहब की खूब िशकायत करती होगी?
सुधा-िशकायत कयो करेगी? कया वह उसके पित नही है? संसार मे अब उसके िलए जो
कुछ है, वकील साहब। वह बुडढे हो या रोगी, पर है तो उसके सवामी ही। कुलवंती सतीया
पित की िननदा नही करती,यह कुलटाओं का काम है। वह उनकी दशा देखकर कुढती है, पर
मुंह से कुछा नही कहती।
िसनहा- इन वकील साहब को कया सूझी थी, जो इस उम मे बयाह करने चले?
सुधा- ऐसे आदमी न हो, तो गरीब कवािरयो की नाव कौन पार लगाये? तुम और तुमहारे
साथी िबना भारी गठरी िलए बात नही करते, तो िफर ये बेचारर िकसके घर जायं? तुमने यह
बडा भारी अनयाय िकया है, और तुमहे इसका पािशयचत करना पडेगा। ईशर उसका सुहाग
अमर करे, लेिकन वकील साहब को कही कुछ हो गया, तो बेचारी का जीवन ही नष हो
जाये
े ेआगा। ज तो वह बहुत रोती थी। तुम लोग सचमुच बडे िनदरयी हो। मै। तो अपने
सोहन का िववाह िकसी गरीब लडकी से करं गी।
डॉकटर साहब ने यह िपछला वाकया नही सुना। वह घोर िचनता मं पड गये। उनके
मन मे यह पश उठ-उठकर उनहे िवकल करने लगा-कही वकील साहब को कुछ हो गया तो?
आज उनहे अपने सवाथर का भंयकर सवरप िदखायी िदया। वासतव मे यह उनही का अपराध
था। अगर उनहोने िपता से जोर देकर कहा होता िक मै। और कही िववाह न करं गा, तो कया
वह उनकी इचछा के िवरद उनका िववाह कर देते?
सहसा सुधा ने कहा-कहो तो कल िनमरला से तुमहारी मुलाकात करा दं?ू वह भी जरा
तुमहारी सूरत देख ले। वह कुछ बोलगी तो नही, पर कदािचत् एक दृिष से वह तुमहारा इतना
ितरसकार कर देगी, िजसे तुम कभी न भूल सकोगे। बोलो, कल िमला दँू? तुमहारा बहुत
संिकपत पिरचय भी करा दंगू ी
िसनहा ने कहा-नही सुधा, तुमहारे हाथ जोडता हूं, कही ऐसा गजब न करना! नही तो
सच कहता हूं, घर छोडकर भाग जाऊंगा।
सुधा-जो काटा बोया है, उसका फल खाते कयो इतना डरते हो? िजसकी गदरन पर
कटार चलाई है, जरा उसे तडपते भी तो देखो। मेरे दादा जी ने पाच हजार िदये न! अभी छोटे
भाई के िववाह मं पाच-छ: हजार और िमल जायेगे। िफर तो तुमहारे बराबर धनी संसार मे काई
दस ू रा न होगा। गयारह हजार बहुत होते है। बाप-रे-बाप! गयारह हजार! उठा-उठाकर रखने
लगे, तो महीनो लग जाये अगर लडके उडाने लगे, तो पीिढयो तक चले। कही से बात हो रही
है या नही?
इस पिरहास से डॉकटर साहब इतना झेपे िक िसर तक न उठा सके। उनका सारा
वाक्-चातुयर गायब हो गया। ननहा-सा मुंह िनकल आया, मानो मार पड गई हो। इसी वकत
िकसी डॉकटर साहब को बाहर से पुकारा बेचारे जान लेकर भागे। सती िकतनी पिरहास
कुशल होती है, इसका आज पिरचय िमल गया।
रात को डॉकटर साहब शयन करते हुए सुधा से बोले-िनमला की तो कोई बिहन है न?
सुधा- हा, आज उसकी चचा तो करती थी। इसकी िचनता अभी से सवार हो रही है।
अपने ऊपर तो जो कुछ बीतना था, बीत चुका, बिहन की िकफक मे पडी हुई थी।मा के पास
तो अब ओर भी कुछ नही रहा, मजबूरन िकसी ऐसे ही बूढे बाबा क गले वह भी मढ दी
जरयेगी।
िसनहा- िनमरला तो अपनी मा की मदद कर सकती है।
सुधा ने तीकण सवर मे कहा-तुम भी कभी-कभी िबलकुल बेिसर’ पैर की बाते करने
लगते हो। िनमरला बहुत करेगी, तो दा-चार सौ रपये दे देगी, और कया कर सकती है? वकील
साहब का यह हाल हो रहा है, उसे अभी पहाड-सी उम काटनी है। िफर कौन जाने उनके घर

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का कयश हाल है? इधर छ:महीने से बेचारे घर बैठे है। रपये आकाश से थोडे ही बरसते है।
दस-बीस हजार होगे भी तो बैक मे होगे, कुछ िनमरला के पास तो रखे न होगे। हमारा दो सौ
रपया महीने का खचर है, तो कया इनका चार सौ रपये महीने का भी न होगा?
सुधा को तो नीद आ गई,पर डॉकटर साहब बहुत देर तक करवट बदलते रहे, िफर
कुछ सोचकर उठे और मेज पर बैठकर एक पत िलखने लगे।

पपपप

दोनोऔरबातेमुंशएकी तोताराम
ही साथ हुई-िनमरला के कनया को जनम िदया, कृषणा का िववाह िनिशत हुआ
का मकान नीलाम हो गया। कनया का जनम तो साधारण बात थी,
यदिप िनमरला की दृिष मे यह उसके जीवन की सबसे महान घटना थी, लेिकन शेष दोनो
घटनाएं अयाधारण थी। कृषणा का िववाह-ऐसे समपन घराने मे कयोकर ठीक हुआ? उसकी
माता के पास तो दहेज के नाम को कौडी भी न थी और इधर बूढे िसनहा साहब जो अब पेशन
लेकर घर आ गये थे, िबरादरी महालोभी मशहूर थे। वह अपने पुत का िववाह ऐसे दिरद घराने
मे करने पर कैसे राजी हुए। िकसी को सहसा िवशास न आता था। इससे भी बड आशयर की
बात मुंशीजी के मकान का नीलाम होना था। लोग मुंशीजी को अगर लखपती नही, तो बडा
आदमी अवशय समझते थे। उनका मकान कैसे नीलाम हुआ? बात यह थी िक मुंशीजी ने एक
महाजन से कुछ रपये कजर लेकर एक गाव रहेन रखाथा। उनहे आशा थी िक साल-आध-साल
मे यह रपये पाट देगे, िफर दस-पाच साल मे उस गाव पर कबजा कर लेगे। वह
जमीदारअसल और सूद के कुल रपये अदा करने मे असमथर हो जायेगा। इसी भरोसे पर
मुंशीजी ने यह मामला िकया था। गाव बेहुत बडा था, चार-पाच सौ रपये नफा होता था,
लेिकन मन की सोची मन ही मे रह गई। मुंशीज िदल को बहुत समझाने पर भी कचहरी न
जा सके। पुतशोक ने उनमं कोई काम करने की शिकत ही नही छोडी। कौन ऐसा हृदय –
शूनय िपता है, जो पुत की गदरन पर तलवार चलाकर िचत को शानत कर ले?
महाजन के पास जब साल भर तक सूद न पहंुचा और न उसके बार-बार बुलाने पर
मुंशीजी उसके पास गये। यहा तक िक िपछली बार उनहोने साफ-साफ कही िदया िक हम
िकसी के गुलाम नही है, साहूजी जो चाहे करे तब साहूजी को गुससा आ गया। उसने नािलश
कर दी। मुंशजी पैरवी करने भी न गये। एकाएक िडगी हो गई। यहा घर मे रपये कहा रखे
थे? इतने ही िदनो मे मुंशीजी की साख भी उठ गई थी। वह रपये का कोई पबनध न कर
सके। आिखर मकान नीलाम पर चढ गया। िनमला सौर मे थी। यह खबर सुनी, तो कलेजा
सन-सा हो गया। जीवन मे कोई सुख न होने पर भी धनाभाव की िचनताओं से मुकत थी। धन
मानव जीवन मे अगर सवरपधान वसतु नही, तो वह उसके बहुत िनकट की वसतु अवशय है।
अब और अभावो के साथ यह िचनता भी उसके िसर सवार हुई। उसे दाई दारा कहला भेजा,
मेरे सब गहने बेचकर घर को बचा लीिजए, लेिकन मुंशीजी ने यह पसताव िकसी तरह सवीकार
न िकया।
उस िदन से मुंशीजी और भी िचनतागसत रहने लगे। िजस धन का सुख भोगने के िलए
उनहोने िववाह िकया था, वह अब अतीत की समृित मात था। वह मारे गलािन क अब िनमरला
को अपना मुंह तक न िदखा सकते। उनहे अब उसक अनयाय का अनुमान हो रहा था, जो
उनहोने िनमरला के साथ िकया था और कनया के जनम ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी,
सवरनाश ही कर डाला!
बारहवे िदन सौर से िनकलकर िनमरला नवजात िशशु को गोद िलये पित के पास गई।
वह इस अभाव मे भी इतनी पसन थी, मानो उसे कोई िचनता नही है। बािलका को हृदय से
लगार वह अपनी सारी िचनताएसं भूल गई थी। िशशु के िवकिसत और हषर पदीपत नेतो को
देखकर उसका हृदय पफुिललत हो रहा था। मातृतव के इस उदगार मे उसके सारे कलेश

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िवलीन हो गये थे। वह िशशु को पित की गोद मे देकर िनहाल हो जाना चाहती थी, लेिकन
मुंशीजी कनया को देखकर सहम उठे। गोद लेने के िलए उनका हृदय हुलसा नही, पर उनहोने
एक बार उसे करण नेतो से देखा और िफर िसर झुका िलया, िशशु की सूरत मंसाराम से
िबलकुल िमलती थी।
िनमरला ने उसके मन का भाव और ही समझा। उसने शतगुण सनेह से लडकी को
हृदय से लगा िलया मानो उसनसे कह रही है-अगर तुम इसके बोझ से दबे जाते हो, तो आज
से मै इस पर तुमहार साया भी नही पडने दंगू ी। िजस रतन को मैने इतनी तपसया के बाद पाया
है, उसका िनरादर करते हुए तुमहार हृदय फट नही जाता? वह उसी कण िशशु को गोद से
िचपकाते हुए अपने कमरे मे चली आई और देर तक रोती रही। उसने पित की इस
उदासीनता को समझने की जरी भी चेषा न की, नही तो शायद वह उनहे इतना कठोर न
समझती। उसके िसर पर उतरदाियतव का इतना बडा भार कहा था,जो उसके पित पर आ
पडा था? वह सोचने की चेषा करती, तो कया इतना भी उसकी समझ मे न आता?
मुंशीजी को एक ही कण मे अपनी भूल मालूम हो गई। माता का हृदय पेम मे इतना
अनुरकत रहता है िक भिवषय की िचनतज और बाधाएं उसे जरा भी भयभीत नही करती। उसे
अपने अंत:करण मे एक अलौिकक शिकत का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उनके सामने
परासत कर देती है। मुंशीजी दौडे हुए घर मे आये और िशशु को गोद मे लेकर बोले मुझे याद
आती है, मंसा भी ऐसा ही था-िबलकुल ऐसा ही!
िनमरला-दीदीजी भी तो यही कहती है।
मुंशीजी-िबलकुल वही बडी-बडी आंखे और लाल-लाल ओंठ है। ईशर ने मुझे मेरा
मंसाराम इस रप मे दे िदया। वही माथा है, वही मुंह, वही हाथ-पाव! ईशर तुमहारी लीला अपार
है।
सहसा रिकमणी भी आ गई। मुंशीजी को देखते ही बोली-देखो बाबू, मंसाराम है िक
नही? वही आया है। कोई लाख कहे, मै न मानूंगी। साफ मंसाराम है। साल भर के लगभग ही
भी तो गया।
मुंशीजी-बिहन, एक-एक अंग तो िमलता है। बस, भगवान् ने मुझे मेरा मंसाराम दे
िदया। (िशशु से) कयो री, तू मंसाराम ही है? छौडकर जाने का नाम न लेना, नही िफर खीच
लाऊंगा। कैसे िनषुर होकर भागे थे। आिखर पकड लाया िक नही? बस, कह िदया, अब मुझे
छोडकर जाने का नाम न लेना। देखो बिहन, कैसी टुकुर-टुकुर ताक रही है?
उसी कण मुंशीजी ने िफर से अिभलाषाओं का भवन बनाना शुर कर िदया। मोह ने
उनहे िफर संसार की ओर खीचा मानव जीवन! तू इतना कणभंगुर है, पर तेरी कलपनाएं िकतनी
दीघालु! वही तोताराम जो संसार से िवरकत हो रह थे, जो रात-िदन मुतयु का आवाहन िकया
करते थे, ितनके का सहारा पाकर तट पर पहंुचने के िलए पूरी शिकत से हाथ-पाव मार रहे
है।
मगर ितनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहंुचा है?

पपपपपपप

िन मरला को यदिप अपने घर के झंझटो से अवकाश न था, पर कृषणा के िववाह का संदेश


पाकर वह िकसी तरह न रक सकी। उसकी माता ने बेहुत आगह करके बुलाया था।
सबसे बडा आकषरण यह था िक कृषणा का िववाह उसी घर मे हो रहा था, जहा िनमरला का
िववाह पहले तय हुआ था। आशयर यही था िक इस बार ये लोग िबना कुछ दहेज िलए कैसे
िववाह करने पर तैयार हो गए! िनमरला को कृषणा के िवषय मे बडी िचनता हो रही थी। समझती
थी- मेरी ही तरह वह भी िकसी के गले मढ दी जायेगी। बहुत चाहती थी िक माता की कुछ
सहायता करं , िजससे कृषणा के िलए कोई योगय वह िमले, लेिकन इधर वकील साहब के घर
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बैठ जाने और महाजन के नािलश कर देने से उसका हाथ भी तंग था। ऐसी दशा मे यह खबर
पाकर उसे बडी शिनत िमली। चलने की तैयारी कर ली। वकील साहब सटेशन तक पहंुचाने
आये
ै । ननही बचची से उनहे बहुत पेम था। छोैैड ह ते ी न थे, यहा तक िक िनमरला के साथ
चलने को तैयार हो गये, लेिकन िववाह से एक महीने पहले उनका ससुराल जा बैठना िनमरला
को उिचत न मालूम हुआ। िनमरला ने अपनी माता से अब तक अपनी िवपित कथा न कही
थी। जो बात हो गई, उसका रोना रोकर माता को कष देने और रलाने से कया फायदा?
इसिलए उसकी माता समझती थी, िनमरला बडे आननद से है। अब जो िनमरला की सूरत देखी,
तो मानो उसके हृदय पर धका-सा लग गया। लडिकया सुसुराल से घुलकर नही आती, िफर
िनमरला जैसी लडकी, िजसको सुख की सभी सामिगया पापत थी। उसने िकतनी लडिकयो को
दज ू की चनदमा की भाित ससुराल जाते और पूणर चनद बनकर आते देखा था। मन मे कलपना
कर रही थी, िनमरला का रंग िनखर गया होगा, देह भरकर सुडौल हो गई होगी, अंग-पतयंग की
शोभा कुछ और ही हो गई होगी। अब जो देखा, तो वह आधी भी न रही थी न यौवन की
चंचलता थी सन वह िवहिसत छिव लो हृदय को मोह लेती है। वह कमनीयता, सुकुमारता, जो
िवलासमय जीवन से आ जाती है, यहा नाम को न थी। मुख पीला, चेषा िगरी हुई, तो माता ने
पूछा-कयो री, तुझे वहा खाने को न िमलता था? इससे कही अचछी तो तू यही थी। वहा तुझे
कया तकलीफ थी?
कृषणा ने हंसकर कहा-वहा मालिकन थी िक नही। मालिकन दुिनया भर की िचनताएं
रहती है, भोजन कब करे?
िनमरला-नही अममा, वहा का पानी मुझे रास नही आया। तबीयत भारी रहती है।
माता-वकील साहब नयोते मे आयेगे न? तब पूछूंगी िक आपने फूल-सी लडकी ले जाकर
उसकी यह गत बना डाली। अचछा, अब यह बता िक तूने यहा रपये कयो भेजे थे? मैने तो
तुमसे कभी न मागे थे। लाख गई-गुलरी हूं, लेिकन बेटी का धन खाने की नीयत नही।
िनमरला ने चिकत होकर पूछा- िकसने रपये भेजे थे। अममा, मैने तो नही भेजे।
माता-झूठ ने बोल! तूने पाच सौ रपये के नोट नही भेजे थे?
कृषणा-भेजे नही थे, तो कया आसमान से आ गये? तुमहारा नाम साफ िलखा था। मोहर
भी वही की थी।
िनमरला-तुमहारे चरण छू कर कहती हूं, मैने रपये नही भेजे। यह कब की बात है?
माता-अरे, दो-ढाई महीने हुए होगे। अगर तूने नही भेज,े तो आये कहा से?
िनमरला-यह मै कया जानू? मगर मैने रपये नही भेजे। हमारे यहा तो जब से जवान बेटा
मरा है, कचहरी ही नही जाते। मेरा हाथ तो आप ही तंग था, रपये कहा से आते?
माता- यह तो बडे आशयर की बात है। वहा और कोई तेरा सगा समबनधी तो नही है?
वकील साहब ने तुमसे िछपाकर तो नही भेज?े
िनमरला- नही अममा, मुझे तो िवशास नही।
माता- इसका पता लगाना चािहए। मैने सारे रपये कृषणा के गहने -कपडे मे खचर कर
डाले। यही बडी मुिशकल हुई।
दोनो लडको मे िकसी िवषय पर िववाद उठ खडा हुआ और कृषणा उधर फैसला करने
चली गई, तो िनमरला ने माता से कहा- इस िववाह की बात सुनकर मुझे बडा आशयर हुआ। यह
कैसे हुआ अममा?
माता-यहा जो सुनता है, दातो उंगली दबाता है। िजन लोगो ने पकी की कराई बात फेर
दी और केवल थोडे से रपये के लोभ से, वे अब िबना कुछ िलए कैसे िववाह करने पर तैयार
हो गये, समझ मे नही आता। उनहोने खुद ही पत भेजा। मैने साफ िलख िदया िक मेरे पास
देने-लेने को कुछ नही है, कुश-कनया ही से आपकी सेवा कर सकती हूं।
िनमरला-इसका कुछ जवाब नही िदया?

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माता-शासतीजी पत लेकर गये थे। वह तो यही कहते थे िक अब मुंशीजी कुछ लेने के
इचछुक नही है। अपनी पहली वादा-िखलाफ पर कुछ लिजजत भी है। मुंशीजी से तो इतनी
उदारता की आशा न थी, मगर सुनती हूं, उनके बडे पुत बहुत सजजन आदमी है। उनहोने कह
सुनकर बाप को राजी िकया है।
िनमरला- पहले तो वह महाशय भी थैली चाहते थे न?
माता- हा, मगर अब तो शासतीजी कहते थो िक दहेज के नाम से िचढते है। सुना है
यहा िववाह न करने पर पछताते भी थे। रपये के िलए बात छोडी थी और रपये खूब पाये,
सती पसंनद नही।
िनमरला के मन मे उस पुरष को देखने की पबल उतकंठा हुई, जो उसकी अवहेलना
करके अब उसकी बिहन का उदार करना चाहता है पायिशत सही, लेिकन िकतने ऐसे पाणी है,
जो इस तरह पायिशत करने को तैयार है? उनसे बाते करने के िलए, नम शबदो से उनका
ितरसकार करने के िलए, अपनी अनुपम छिव िदखाकर उनहे और भी जलाने के िलए िनमरला
का हृदय अधीर हो उठा। रात को दोनो बिहने एक ही केमरे मे सोई। मुहलले मे िकन-िकन
लडिकयो का िववाह हो गया, कौन-कौन लडकोरी हुई, िकस-िकस का िववाह धूम-धाम से
हुआ। िकस-िकस के पित कन इचछानुकूल िमले, कौन िकतने और कैस गहने चढावे मे लाया,
इनही िवषयो मे दोनो मे बडी देर तक बाते होती रही। कृषणा बार-बार चाहती थी िक बिहन के
घर का कुछ हाल पूछं, मगर िनमरला उसे पूछने का अवसर न देती थी। जानती थी िक यह जो
बाते पूछेगी उसके बताने मे मुझे संकोच होगा। आिखर एक बार कृषणा पूछ ही बैठी-जीजाजी
भी आयेगे न?
िनमला- आने को कहा तो है।
कृषण- अब तो तुमसे पसन रहते है न या अब भी वही हाल है? मै तो सुना करती थी
दुहाजू पित सती को पाणो से भी िपया समझते है, वहा िबलकुल उलटी बात देखी। आिखर
िकस बात पर िबगडते रहते है?
िनमरला- अब मै िकसी के मन की बात कया जानू?
कुषणा- मै तो समझती हूं, तुमहारी रखाई से वह िचढते होगे। तुम हो यही से जली हुई
गई थी। वहा भी उनहे कुछ कहा होगा।
िनमरला- यह बात नही है, कृषणा, मै सौगनध खाकर कहती हूं, जो मेरे मन मे उनकी
ओर से जरा भी मैल हो। मुझसे जहा तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं, अगर उनकी
जगह कोई देवता भी होता, तो भी मै इससे जयादा और कुछ न कर सकती। उनहे भी मुझसे
पेम है। बराबर मेरा मुंख देखते रहते है, लेिकन जो बात उनक और मेरे काबू के बाहर है,
उसके िलए वह कया कर सकते है और मै कया कर सकती हूं? न वह जवान हो सकते है, न मै
बुिढया हो सकती हूं। जवान बनने के िलए वह न जाने िकतने रस और भसम खाते रहते है , मै
बुिढया बनने के िलए दध ू -घी सब छोडे बैठी हूं। सोचती हूं, मेरे दुबलेपन ही से अवसथा का भेद
कुछ कम हो जाय, लेिकन न उनहे पौिषक पदाथों से कुछ लाभ होता है, न मुझे उपवसो से।
जब से मंसाराम का देहानत हो गया है, तब से उनकी दशा और खराब हो गयी है।
कृषणा- मंसाराम को तुम भी बहुत पयार करती थी?
िनमरला- वह लडका ही ऐसा था िक जो देखता था, पयार करता था। ऐसी बडी-बडी
डोरेदार आंखे मैने िकसी की नही देखी। कमल की भाित मुख हरदम िखला रह था। ऐसा
साहसी िक अगर अवसर आ पडता, तो आग मे फाद जाता। कृषणा, मै तुमसे कहती हूं, जब
वह मेरे पास आकर बैठ जाता, तो मै अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरदम
सामने बैठा रहे और मै देखा करं । मेरे मन मे पाप का लेश भी न था। अगर एक कण के िलए
भी मैने उसकी ओर िकसी और भाव से देखा हो, तो मेरी आंखे फूट जाये, पर न जाने कयो उसे
अपने पास देखकर मेरा हृदय फूला न समाता था। इसीिलए मैने पढने का सवाग रचा नही तो

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वह घर मे आता ही न था। यह मै। जानती हूं िक अगर उसके मन मे पाप होता, तो मै उसके
िलए सब कुछ कर सकती थी।
कृषणा- अरे बिहन, चुप रहो, कैसी बाते मुंह से िनकालती हो?
िनमरला- हा, यह बात सुनने मे बुरी मालूम होती है और है भी बुरी, लेिकन मनुषय की
पकृित को तो कोई बदल नही सकता। तू ही बता- एक पचास वषर के मदर से तेरा िववाह हो
जाये, तो तू कया करेगी?
कृषणा-बिहन, मै तो जहर खाकर सो रहूं। मुझसे तो उसका मुंह भी न देखते बने।
िनमरला- तो बस यही समझ ले। उस लडके ने कभी मेरी ओर आंख उठाकर नही
देखा, लेिकन बुडढे तो शकी होते ही है, तुमहारे जीजा उस लडके के दुशमन हो गए और आिखर
उसकी जान लेकर ही छोडी। िजसे िदन उसे मालूम हो गया िक िपताजी के मन मे मेरी ओर
से सनदेह है, उसी िदन के उसे जवर चढा, जो जान लेकर ही उतरा। हाय! उस अिनतम समय
का दृशय आंखो से नही उतरता। मै असपताल गई थी, वह जवी मे बेहोश पडा था, उठने की
शिकत न थी, लेिकन जयो ही मेरी आवाज सुनी, चौककर उठ बैठा और ‘माता-माता’ कहकर
मेरे पैरो पर िगर पडा (रोकर) कृषणा, उस समय ऐसा जी चाहता था अपने पाण िनकाल कर
उसे दे दं।ू मेरे पैरा पर ही वह मूिछरत हो गया और िफर आंखे न खोली। डॉकटर ने उसकी
देह मे ताजा खून डालने का पसताव िकया था, यही सुनकर मै दौडी गई थी लेिकन जब तक
डॉकटर लोग वह पिकया आरमभ करे, उसके पाण, िनकल गए।
कृषणा- ताजा रकत पड जाने से उसकी जान बच जाती?
िनमरला- कौन जानता है? लेिकन मै तो अपने रिधर की अिनतम बूंद तक देने का तैयार
थी उस दशा मे भी उसका मुखमणडल दीपक की भाित चमकता था। अगर वह मुझे देखते ही
दौडकर मेरे पैरो पर न िगर पडता, पहले कुछ रकत देह मे पहंुच जाता, तो शायद बच जाता।
कृषणा- तो तुमने उनहे उसी वकता िलटा कयो न िदया?
िनमरला- अरे पगली, तू अभी तक बात न समझी। वह मेरे पैरो पर िगरकर और माता-
पुत का समबनध िदखाकर अपने बाप के िदल से वह सनदेह िनकाल देना चाहता था। केवल
इसीिलए वह उठा थ। मेरा कलेश िमटाने के िलए उसने पाण िदये और उसकी वह इचछा पूरी
हो गई। तुमहारे जीजाजी उसी िदन से सीधे हो गये। अब तो उनकी दशा पर मुझे दया आती
है। पुत-शाक उनक पाण लेकर छोडेगा। मुझ पर सनदेह करके मेरे साथ जो अनयाय िकया
है, अब उसका पितशोध कर रहे है। अबकी उनकी सूरत देखकर तू डर जायेगी। बूढे बाबा
हो गये है, कमर भी कुछ झुक चली है।
कृषणा- बुडढे लोग इतनी शकी कयो होते है, बिहन?
िनमरला- यह जाकर बुडढो से पूछो।
कृषणा- मै समझती हूं, उनके िदल मे हरदम एक चोर-सा बैठा रहता होगा िक इस युवती
को पसन नही रख सकता। इसिलए जरा-जरा-सी बात पर उनहे शक होने लगता है।
िनमरला- जानती तो है, िफर मुझसे कयो पूछती है?
कुषणा- इसीिलए बेचारा सती से दबता भी होगा। देखने वाले समझते होगे िक यह बहुत
पेम करता है।
िनमरला- तूने इतने ही िदनो मे इ तनी बाते कहा सीख ली? इन बातो को जाने दे, बता,
तुझे अपना वर पसनद है? उसकी तसवीर ता देखी होगी?
कृषणा- हा, आई तो थी, लाऊं, देखोगी?
एक कण मे कृषणा ने तसवीर लाकर िनमरला के हाथ मे रख दी।
िनमरला ने मुसकराकर कहा-तू बडी भागयवान् है।
कृषणा- अममाजी ने भी बहुत पसनद िकया।
िनमरला- तुझे पसनद है िक नही, सो कह, दस ू रो की बात न चला।

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कृषणा- (लजाती हुई) शकल-सूरत तो बुरी नही है, सवभाव का हाल ईशर जाने।
शासतीजी तो कहते थे, ऐसे सुशील और चिरतवान् युवक कम होगे।
िनमरला- यहा से तेरी तसवीर भी गई थी?
कृषणा- गई तो थी, शासतीजी ही तो ले गए थे।
िनमरला- उनहे पसनद आई?
कृषणा- अब िकसी के मन की बात मै कया जानूं? शासती जी कहते थे, बहुत खुश हुए
थे।
िनमरला- अचछा, बता, तुझे कया उपहार दं?ू अभी से बता दे, िजससे बनवा रखूं।
कृषणा- जो तुमहारा जी चाहे, देना। उनहे पुसतको से बहुत पेम है। अचछी-अचछी
पुसतके मंगवा देना।
िनमरला-उनके िलए नही पूछती तेरे िलए पूछती हूं।
कृषणा- अपने ही िलये तो मै कह रही हूं।
िनमरला- (तसवीर की तरफ देखती हुई) कपडे सब खदर के मालूम होते है।
कृषणा- हा, खदर के बडे पेमी है। सुनती हूं िक पीठ पर खदर लाद कर देहातो मे बेचने
जाया करते है। वयाखयान देने मे भी चतुर है।
िनमरला- तब तो मुझे भी खद पहनना पडेगा। तुझे तो मोटे कपडो से िचढ है।
कृषणा- जब उनहे मोटे कपडे अचछे लगते है, तो मुझे कयो िचढ होगी, मैने तो चखा
चलाना सीख िलया है।
िनमरला- सच! सूत िनकाल लेती है?
कृषणा- हा, बिहन, थोडा-थोडा िनकाल लेती हूं। जब वह खदर के इतने पेमी है, जो
चखा भी जरर चलाते होगे। मै न चला सकूंगी, तो मुझे िकतना लिजजत होना पडेगा।
इस तरह बात करते-करते दोनो बिहनो सोई। कोई दो बजे रात को बचची रोई तो
िनमरला की नीद खुली। देखा तो कृषणा की चारपाई खाली पडी थी। िनमरला को आशयर हुआ
िक इतना रात गये कृषणा कहा चली गई। शायद पानी-वानी पीने गई हो। मगरी पानी तो
िसरहाने रखा हुआ है, िफर कहा गई है? उसे दो-तीन बार उसका नाम लेकर आवाज दी, पर
कृषणा का पता न था। तब तो िनमरला घबरा उठी। उसके मन मे भाित-भाित की शंकाएं होने
लगी। सहसा उसे खयाल आया िक शायद अपने कमरे मे न चली गई हो। बचची सो गई, तो
वह उठकर कृषणा के के कमरे के दार पर आई। उसका अनुमान ठीक था, कृषणा अपने कमरे
मे थी। सारा घर सो रहा था और वह बैठी चखा चला रही थी। इतनी तनमयता से शायद
उसने िथऐटर भी न देखा होगा। िनमरला दंग रह गई। अनदर जाकर बोली- यह कया कर रही
है रे! यह चखा चलाने का समय है?
कृषणा चौककर उठ बैठी और संकोच से िसर झुकाकर बोली- तुमहारी नीद कैसे खुल
गई? पानी-वानी तो मैने रख िदया था।
िनमरला- मै कहती हूं, िदन को तुझे समय नही िमलता, जो िपछली रात को चखा लेकर
बैठी है?
कृषणा- िदन को फुरसत ही नही िमलती?
िनमरला- (सूत देखकर) सूत तो बहुत महीन है।
कृषणा- कहा-बिहन, यह सूत तो मोटा है। मै बारीक सूतकात कर उनके िलए साफा
बनाना चाहती हूं। यही मेरा उपहार होगा।
िनमरला- बात तो तूने खूब सोची है। इससे अिधक मूलयवसान वसतु उनकी दृिष मे
और कया होगी? अचछा, उठ इस वकत, कल कातना! कही बीमार पड जायेगी, तो सब धरा रह
जायेगा।
कृषणा- नही मेरी बिहन, तुम चलकर सोओ, मै अभी आती हूं।

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िनमरला ने अिधक आगह न िकया, लेटने चली गई। मगर िकसी तरह नीद न आई।
कृषणा की उतसुकता और यह उमंग देखकर उसका हृदय िकसी अलिकत आकाका से
आनदोिलत हो उठा ओह! इस समय इसका हृदय िकतना पफुिललत हो रहा है। अनुराग ने इसे
िकतना उनमत कर रखा है। तब उसे अपने िववाह की याद आई। िजस िदन ितलक गया था,
उसी िदन से उसकी सारी चंचलता, सारी सजीवता िवदा हो गेई थी। अपनी कोठरी मे बैठी
वह अपनी िकसमत को रोती थी और ईशर से िवनय करती थी िक पाण िनकल जाये।
अपराधी जैसे दंड की पतीका करता है, उसी भाित वह िववाह की पतीका करती थी, उस
िववाह की, िजसमे उसक जीवन की सारी अिभलाषाएं िवलीन हो जाएंगी, जब मणडप के नीचे
बने हुए हवन-कुणड मे उसकी आशाएं जलकर भसम हो जायेगी।

पपपप

महीना कटते देर न लगी। िववाह का शुभ मुहूतर आ पहंच


ु ा मेहमानो से घार भार गया। मंशी
तोताराम एक िदन पहले आ गये और उसनके साथ िनमरला की सहेली भी आई। िनमरला ने
बहुत आगह न िकया था, वह खुद आने को उतसुक थी। िनमरला की सबसे बडी उतकंठा यही
थी िक वर के बडे भाई के दशरन करं गी और हो सकता तो उसकी सुबुिद पर धनयवाद दंगू ी।
सुधा ने हंस कर कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?
िनमरला- कयो, बोलने मे कया हािन है? अब तो दस ू रा ही समबनध हो गया और मै न बोल
सकूंगी, तो तुम तो हो ही।
सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा। मै पराये मदर से नही बोल सकती। न जाने कैसे
आदमी हो।
िनमरला-आदमी तो बुरे नही है, और िफर उनसे कुछ िववाह तो करना नही, जरा-सा
बोलने मे कया हािन है? डॉकटर साहब यहा होते, तो मै तुमहे आजा िदला देती।
सुधा-जो लोग हुदय के उदार होते है, कया चिरत के भी अचछे होते है? पराई सती की
घूरने मे तो िकसी मदर को संकोच नही होता।
िनमरला-अचछा न बोलना, मै ही बाते कर लूंगी, घूर लेगे िजतना उनसे घूरते बनेगा, बस,
अब तो राजी हुई।
इतने मे कृषणा आकर बैठ गई। िनमरला ने मुसकराकर कहा-सच बता कृषणा, तेरा मन
इस वकत कयो उचाट हो रहा है?
कृषणा-जीजाजी बुला रहे है, पहले जाकर सुना आआ, पीछे गपपे लडाना बहुत िबगड रहे
है।
िनमरला- कया है, तून कुछ पूछा नही?
कृषणा- कुछ बीमार से मालूम होते है। बहुत दुबले हो गए है।
िनमरला- तो जरा बैठकर उनका मन बहला देती। यहा दौडी कयो चली आई? यह कहो,
ईशर ने कृपा की, नही तो ऐसा ही पुरषा तुझे भी िमलता। जरा बैठकर बाते करो। बुडढे बाते
बडी लचछेदार करते है। जवान इतने डीिगयल नही होते।
कृषणा- नही बिहन, तुम जाओ, मुझसे तो वहा बैठा नही जाता।
िनमरला चली गई, तो सुधा ने कृषणा से कहा- अब तो बारात आ गई होगी। दार-पूजा
कयो नही होती?
कृषणा- कया जाने बिहन, शासतीजी सामान इकटा कर रहे है?
सुधा- सुना है, दल
ू ा का भावज बडे कडे सवाभाव की सती है।
कृषणा- कैसे मालूम?
सुधा- मैने सुना है, इसीिलए चेताये देती हूं। चार बाते गम खाकर रहना होगा।

66
कृषणा- मेरी झगडने की आदत नही। जब मेरी तरफ से कोई िशकायत ही न पायेगी तो
कया अनायास ही िबगडेगी!
सुधा- हा, सुना तो ऐसा ही है। झूठ-मूठ लडा कारती है।
कृषणा- मै तो सौबात की एक बात जानती ह,ूं नमता पतथर को भी मोम कर देती है।
सहसा शोर मचा- बारात आ रही है। दोनो रमिणया िखडकी के सामने आ बैठी। एक
कण मे िनमरला भी आ पहंुची।
वर के बडे भाई को देखने की उसे बडी उतसुकता हो रही थी।
सुधा ने कहा- कैसे पता चलेगा िक बडे भाई कौन है?
िनमरला- शासतीजी से पूछूं, तो मालूम हो। हाथी पर तो कृषणा के ससुर महाशय है।
अचछा डॉकटर साहब यहा कैसे आ पहंच ु े! वह घोडे पर कया
है, देखती नही हो?
सुधा- हा, है तो वही।
िनमरला- उन लोगो से िमतता होगी। कोई समबनध तो नही है।
सुधा- अब भेट हो तो पूछूं, मुझे तो कुछ नही मालूम।
िनमरला- पालकी मे जो महाशय बैठे हुए है, वह तो दल ू ा के भाई जैसे नही दीखते।
सुधा- िबलकुल नही। मालूम होता है, सारी देहे मे पेछ-ही-पेट है।
िनमरला- दसू रे हाथी पर कौन बैठा है, समझ मे नही आता।
सुधा- कोई हो, दल ू ा का भाई नही हो सकता। उसकी उम नही देखती हो, चालीस के
ऊपर होगी।
िनमरला- शासतजी तो इस वकत दार-पूजा िक िफक मे है, नही ा तोाा उनसे
पूछती।
संयोग से नाई आ गया। सनदक ू ो की कु ंिलया िनमरला के पास थी। इस वकत दारचार
के िलए कुछ रपये की जररत थी, माता ने भेजा था, यह नाई भी पिणडत मोटेराम जी के साथ
ितलक लेकर गया था।
िनमरला ने कहा- कया अभी रपये चािहए?
नाई- हा बिहनजी, चलकर दे दीिजए।
िनमरला- अचछा चलती हूं। पहले यह बता, तू दल ू ा क बडे भाई को पहचानता है?
नाई- पहचानता काहे नही, वह कया सामने है।
िनमरला- कहा, मै तो नही देखती?
नाई- अरे वह कया घोडे पर सवार है। वही तो है।
िनमरला ने चिकत होकर कहा- कया कहता है, घोडे पर दल ू ा के भाई है! पहचानता है
या अटकल से कह रहा है?
नाई- अरे बिहनजी, कया इतना भूल जाऊंगा अभी तो जलपान का सामान िदये चला
आता हूं।
िनमरल- अरे, यह तो डॉकटर साहब है। मेरे पडोस मे रहते है।
नाई- हा-हा, वही तो डॉकटर साहब है।
िनमरला ने सुधा की ओर देखकर कहा- सुनती ही बिहन, इसकी बाते? सुधा ने हंसी
रोककर कहा-झूठ बोलता है।
नाई- अचछा साहब, झूठ ही सही, अब बडो के मुंह कौन लगे! अभी शासतीजी से पूछवा
दंगू ा, तब तो मािनएगा?
नाई के आने मे देर हुई, मोटेराम खुद आंगन मे आकर शोर मचाने लगे-इस घर की
मयादा रखना ईशर ही के हाथ है। नाई घणटे भर से आया हुआ है, और अभी तक रपये नही
िमले।
िनमरला- जरा यहा चले आइएगा शासतीजी, िकतने रपये दरकरार है, िनकाल दंू?

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शासतीजी भुनभुनाते और जोर-जारे से हाफते हुए ऊपर आये और एक लमबी सास
लेकर बोले-कया है? यह बातो का समय नही है, जलदी से रपये िनकाल दो।
िनमरला- लीिजए, िनकाल तो रही हूं। अब कया मुंह के बल िगर पडू ं? पहले यह बताइए
िक दल ू हा के बडे भाई कौन है?
शासतीजी- रामे-राम, इतनी-सी बात के िलए मुझे आकाश पर लटका िदया। नाई कया
न पहचानता था?
िनमरला- नाई तो कहता है िक वह जो घोडे पर सवार है, वही है।
शासतीजी- तो िफर िकसे बता दे? वही तो है ही।
नाई- घडी भर से कह रहा हूं, पर बिहनजी मानती ही नही।
िनमरला ने सुधा की ओर सनेह, ममता, िवनोद कृितम ितरसकार की दृिष से देखकर
कहा- अचछा, तो तुमही अब तक मेरे साथ यह ितया-चिरत खेर रही थी! मै जानती, तो तुमहे
यहा बुलाती ही नही। ओफफोह! बडा गहरा पेट है तुमहारा! तुम महीनो से मेरे साथ शरारत
करती चली आती हो, और कभी भूल से भी इस िवषय का एक शबद तुमहारे मुंह से नही
िनकला। मै तो दो-चार ही िदन मे उबल पडती।
सुधा- तुमहे मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहा आती ही कयो?
िनमरला- गजब-रे-गजब, मै डॉकटर साहब से कई बार बाते कर चुकी हूं। तुमहारो ऊपर
यह सारा पाप पडेगा। देखा कृषणा, तूने अपनी जेठानी की शरारत! यह ऐसी मायािवनी है, इनसे
डरती रहना।
कृषणा- मै तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढाऊंगी। धनय-भाग िक इनके दशरन
हुए।
िनमरला- अब समझ गई। रपये भी तुमहे न िभजवाये होगे। अब िसर िहलाया तो सच
कहती हूं, मार बैठूंगी।
सुधा- अपने घर बुलाकर के मेहमान का अपमान नही िकया जाता। िनमरला- देखो
तो अभी कैसी-कैसी खबरे लेती हूं। मैने तुमहारा मान रखने को जरा-सा िलख िदया था और
तुम सचमुच आ पहंुची। भला वहा वाले कया कहते होगे?
सुधा- सबसे कहकर आई हूं।
िनमरला- अब तुमहारे पास कभी न आऊंगी। इतना तो इशारा कर देती िक डॉकटर
साहब से पदा रखना।
सुधा- उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई? न देखते तो अपनी िकसमत को रोते
कैसे? जानते कैसे िक लोभ मे पडकर कैसी चीज खो दी? अब तो तुमहे देखकर लालाजी हाथ
मलकर रह जाते है। मुंह से तो कुछ नही सकहते, पर मन मे अपनी भूल पर पछताते है।
िनमरला- अब तुमहारे घर कभी न आऊंगी।
सुधा- अब िपणड नही छू ट सकता। मैने कौन तुमहारे घर की राह नी देखी है।
दार-पूजा समापत हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठ जलपान कर रहे थे। मुंशीजी की
बेगल मे ही डॉकटर िसनहा बैठे हुए थे। िनमरला ने कोठे पर िचक की आड से उनहे देखा और
कलेजा थामकर रह गई। एक आरोगय, यौवन और पितभा का देवता था, पर दस ू रा...इस िवषय
मे कुछ न कहना ही दिचत है।
िनमरला ने डॉकटर साहब को सैकडो ही बार देखा था, पर आज उसके हृदय मे जो
िवचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यह जी चाहता था िक बुलाकर खूब फटकारं , ऐसे-
ऐसे ताने मारं िक वह भी याद करे, रला-रलाकर छोडू ं, मेगर रहम करके रह जाती थी।
बारात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। िनमरला भोजन के थाल चुनने मे
वयसत थी। सहसा महरी ने आकर कहा- िबटी, तुमहे सुधा रानी बुला रही है। तुमहारे कमरे मे
बैठी है।

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िनमरला ने थाल छोड िदये और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अनदर कदम रखते
ही िठठक गई, डॉकटर िसनहा खडे थे।
सुधा ने मुसकराकर कहा- लो बिहन, बुला िदया। अब िजतना चाहो, फटकारो। मै
दरवाजा रोके खडी ह,ूं भाग नही सकते।
डॉकटर साहब ने गमभीर भाव से कहा- भागता कौन है? यहा तो िसर झुकाए खडा हूं।
िनमरला ने हाथ जोडकर कहा- इसी तरह सदा कृपा-दृिष रिखएगा, भूल न जाइएगा।
यह मेरी िवनय है।

पपपपप

कृ षणा के िववाह के बाद सुधा चली गई, लेिकन िनमरला मैके ही मे रह गई। वकील साहब
बार-बार िलखते थे, पर वह न जाती थी। वहा जाने को उसका जी न चाहता था। वहा
कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खीच ले जाये। यहा माता की सेवा और छोटे भाइयो की
देखभाल मे उसका समय बडे आननद के कट जाता था। वकील साहब खुद आते तो शायद
वह जाने पर राजी हो जाती, लेिकन इस िववाह मे, मुहलले की लडिकयो ने उनकी वह दुगरत
की थी िक बेचारे आने का नाम ही न लेते थे। सुधा ने भी कई बार पत िलखा, पर िनमरला ने
उससे भी हीले-हव़ाले िकया। आिखर एक िदन सुधा ने नौकर को साथ िलया और सवयं आ
धमकी।
जब दोनो गले िमल चुकी, तो सुधा ने कहा-तुमहे तो वहा जाते मानो डर लगता है।
िनमरला- हा बिहन, डर तो लगता है। बयाह की गई तीन साल मे आई, अब की तो वहा
उम ही खतम हो जायेगी, िफर कौन बुलाता है और कौन आता है?
सुधा- आने को कया हुआ, जब जी चाहे चली आना। वहा वकील साहब बहुत बेचैन हो
रहे है।
िनमरला- बहुत बेचैन, रात को शायद नीद न आती हो।
सुधा- बिहन, तुमहारा कलेजा पतथर का है। उनकी दशा देखकर तरस आता है।
कहते थे, घर मे कोई पूछने वाला नही, न कोई लडका, न बाला, िकससे जी बहलाये? जब से
दसू रे मकान मे उठ आए है, बहुत दुखी रहते है।
िनमरला- लडके तो ईशर के िदये दो-दो है।
सुधा- उन दोनो की तो बडी िशकायत करते थे। िजयाराम तो अब बात ही नही
सुनता-तुकी-बतुकी जवाब देता है। रहा छोटा, वह भी उसी के कहने मे है। बेचारे बडे लडके
की याद करके रोया करते है।
िनमरला- िजयाराम तो शरीर न था, वह बदमाशी कब से सीख गया? मेरी तो कोई बात
न टालता था, इशारे पर काम करता था।
सुधा- कया जाने बिहन, सुना, कहता है, आप ही ने भैया को जहर देकर मार डाला, आप
हतयारे है। कई बार तुमसे िववाह करने के िलए ताने दे चुका है। ऐसी-ऐसी बाते कहता है िक
वकील साहब रो पडते है। अरे, और तो कया कहूं, एक िदन पतथर उठाकर मारने दौडा था।
िनमरला ने गमभीर िचनता मे पडकर कहा- यह लडका तो बडा शैतान िनकला। उसे यह
िकसने कहा िक उसके भाई को उनहोने जहर दे िदया है?
सुधा- वह तुमही से ठीक होगा।
िनमरला को यह नई िचनता पैदा हुई। अगर िजया की यही रंग है, अपने बाप से लडने
पर तैयार रहता है, तो मुझसे कयो दबने लगा? वह रात को बडी देर तक इसी िफक मे डू बी
रही। मंसाराम की आज उसे बहुत याद आई। उसके साथ िजनदगी आराम से कट जाती।
इस लडके का जब अपने िपता के सामने ही वह हाल है, तो उनके पीछे उसके साथ कैसे
िनवाह होगा! घर हाथ से िनकल ही गया। कुछ-न-कुछ कजर अभी िसर पर होगा ही, आमदनी

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का यह हाल। ईशवर ही बेडा पार लगायेगे। आज पहली बार िनमरला को बचचो की िफक पैदा
हुई। इस बेचारी का न जाने कया हाल होगा? ईशर ने यह िवपित िसर डाल दी। मुझे तो
इसकी जररत न थी। जनम ही लेना था, तो िकसी भागयवान के घर जनम लेती। बचची
उसकी छाती से िलपटी हुई सो रही थी। माता ने उसको और भी िचपटा िलया, मानो कोई
उसके हाथ से उसे छीने िलये जाता है।
िनमरला के पास ही सुधा की चारपाई भी थी। िनमेला तो िचनतज सागर मे गोता था रही
थी और सुधा मीठी नीद का आननद उठा रही थी। कया उसे अपने बालक की िफक सताती
है? मृतयु तो बूढे और जवान का भेद नही करती, िफनर सुधा को कोई िचनता कयो नही
सताती? उसे तो कभी भिवषय की िचनता से उदास नही देखा।
सहसा सुधा की नीद खुल गई। उसने िनमरला को अभी तक जागते देखा, तो बोली-
अरे अभी तुम सोई नही?
िनमरला- नीद ही नही आती।
सुधा- आंखे बनद कर लो, आप ही नीद आ जायेगी। मै तो चारपाई पर आते ही मर-सी
जाती हूं। वह जागते भी है, तो खबर नही होती। न जाने मुझे कयो इतनी नीद आती है।
शायद कोई रोग है।
िनमरला- हा, बडा भारी रोग है। इसे राज-रोग कहते है। डॉकटर साहब से कहो-दवा
शुर कर दे।
सुधा- तो आिखर जागकर कया सोचूं? कभी-कभी मैके की याद आ जाती है, तो उस
िदन जरा देर मे आंख लगती है।
िनमरला- डॉकटर साहब की यादा नही आती?
सुधा- कभी नही, उनकी याद कयो आये? जानती हूं िक टेिनस खेलकर आये होगे, खाना
खाया होगा और आराम से लेटे होगे।
िनमरला- लो, सोहन भी जाग गया। जब तुम जाग गई
तो भला यह कयो सोने लगा?
सुधा- हा बिहन, इसकी अजीब आदत है। मेरे साथ सोता और मेरे ही साथ जागता
है। उस जनम का कोई तपसवी है। देखो, इसके माथे पर ितलक का कैसा िनशान है। बाहो
पर भी ऐसे ही िनशान है। जरर कोई तपसवी है।
िनमरला- तपसवी लोग तो चनदन-ितलक नही लगाते। उस जनम का कोई धूतर पुजारी
होगा। कयो रे, तू कहा का पुजारी था? बता?
सुधा- इसका बयाह मै बचची से करं गी।
िनमरला- चलो बिहन, गाली देती हो। बिहन से भी भाई का बयाह होता है?
सुधा- मै तो करं गी, चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुनदर बहू और कहा पाऊंगी? जरा
देखो तो बहन, इसकी देह कुछ गमर है या मुझके ही मालूम होती है।
िनमरला ने सोहन का माथा छू कर कहा-नही-नही, देह गमर है। यह जवर कब आ गया!
दध ू तो पी रहा है न?
सुधा- अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी। शायद सदी लग गई, उढाकर सुलाये देती
हूं। सबेरे तक ठीक हो जायेगा।
सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी और
बुखार और भी तेज हो गया। आंखे चढ गई और िसर झुक गया। न वह हाथ-पैर िहलाता था,
न हंसता-बोलता था, बस, चुपचाप पडा था। ऐसा मालूम होता था िक उसे इस वकत िकसी
का बोलना अचछा नही लगता। कुछ-कुछ खासी भी आने लगी। अब तो सुधा घबराई।
िनमरला की भी राय हुई िक डॉकटर साहब को बुलाया जाये, लेिकन उसकी बूढी माता ने कहा-
डॉकटर-हकीम साहब का यहा कुछ काम नही। साफ तो देख रही हूं। िक बचचे को नजर लग
गई है। भला डॉकटर

70
आकर कया करेगे?
सुधा- अममाजी, भला यहा नजर कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कही गया भी
नही।
माता- नजर कोई लगाता नही बेटी, िकसी-िकसी आदमी की दीठ बुरी होती है, आप-ही-
आप लग जाती है। कभी-कभी मा-बाप तक की नजर लग जाती है। जब से आया है, एक बार
भी नही रोया। चोचले बचचो को यही गित होती है। मै इसे हुमकते देखकर डरी थी िक कुछ -
न-कुछ अिनष होने वाला है। आंखे नही देखती हो, िकतनी चढ गई है। यही नजर की सबसे
बडी पहचान है।
बुिढया महरी और पडोस की पंिडताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर िदया। बस
महंगू ने आकर बचचे का मुंह देखा और हंस कर बोला-मालिकन, यह दीठ है और नही। जरा
पतली-पतली तीिलया मंगवा दीिजए। भगवान ने चाहा तो संझा तक बचचा हंसने लगेगा।
सरकणडे के पाच टुकडे लाये गये। महगूं ने उनहे बराबर करके एक डोरे से बाध िदया
और कुछ बुदबुदाकर उसी पोले हाथो से पाच बार सोहन का िसर सहलाया। अब जो देखा, तो
पाचो तीिलया छोटी-बडी हो गेई थी। सब सतीयो यह कौतुक देखकर दंग रह गई। अब नजर
मे िकसे सनदेह हो सकता था। महगूं ने िफर बचचे को तीिलयो से सहलाना शुर िकया। अब
की तीिलया बराबर हो गई। केवल थोडा-सा अनतर रह गया। यह सब इस बात का पमाण था
िक नजर का असर अब थोडा-सा और रह गया है। महगू सबको िदलासा देकर शाम को िफर
आने का वायदा करके चला गया। बालक की दशा िदन को और खराब हो गई। खासी का
जोर हो गया। शाम के समय महगूं ने आकरा िफर तीिलयो का तमाशा िकया। इस वकत पाचो
तीिलयो बराबर िनकली। सतीया िनिशत हो गई लेिकन सोहन को सारी रात खासते गुजरी।
यहा तक िक कई बार उसकी आंखे उलट गई। सुधा और िनमरला दोनो ने बैठकर सबेरा
िकया। खैर, रात कुशल से कट गई। अब वृदा माताजी नया रंग लाई। महगूं नजर न उतार
सका, इसिलए अब िकसी मौलवी से फूंक डलवाना जररी हो गया। सुधा िफर भी अपने पित
को सूचना न दे सकी। मेहरी सोहन को एक चादर से लपेट कर एक मिसजद मे ले गई और
फूंक डलवा लाई, शाम को भी फूंक छोडी, पर सोहन ने िसर न उठाया। रात आ गई, सुधा ने
मन मे िनशय िकया िक रात कुशल से बीतेगी, तो पात:काल पित को तार दंगू ी।
लेिकन रात कुशल से न बीतने पाई। आधी रात जाते-जाते बचचा हाथ से िनकल
गया। सुधा की जीन- समपित देखते-देखते उसके हाथो से िछन गई।
वही िजसके िववाह का दो िदन पहले िवनोद हो रहा था, आज सारे घर को रला रहा
है। िजसकी भोली-भाली सूरत देखकर माता की छाती फूल उठती थी, उसी को देखकर आज
माता की छाती फटी जाती है। सारा घर सुधा को समझाता था, पर उसके आंसू न थमते थे,
सब न होता था। सबसे बडा दु :ख इस बात का था का पित को कौन मुंह िदखलाऊंगी! उनहे
खबर तक न दी।
रात ही को तार दे िदया गया और दसू रे िदन डॉकटर िसनहा नौ बजते-बजते मोटर पर
आ पहंुचे। सुधा ने उनके आने की खबर पाई, तो और भी फूट-फूटकर रोने लगी। बालक
की जल-िकया हुई, डॉकटर साहब कई बार अनदर आये, िकनतु सुधा उनके पास न गई।
उनके सामने कैसे जाये? कौन मुंह िदखाये? उसने अपनी नादानी से उनके जीवन का रत
छीनकर दिरया मे डाल िदया। अब उनके पास जाते उसकी छाती के टुकडे-टुकडे हुए जाते
थे। बालक को उसकी गोद मे देखकर पित की आंखे चमक उठती थी। बालक हुमककर
िपता की गोद मे चला जाता था। माता िफर बुलाती, तो िपता की छाती से िचपट जाता था
और लाख चुमराने -दुलारने पर भी बाप को गोद न छोडता था। तब मा कहती थी- बैडा
मतलबी है। आज वह िकसे गोद मे लेकर पित के पास जायेगी? उसकी सूनी गोद देखकर
कही वह िचललाकर रो न पडे। पित के सममुख जाने की अपेका उसे मर जाना कही आसान

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जान पडता था। वह एक कण के िलए भी िनमरला को न छोडती थी िक कही पित से सामना न
हो जाये।
िनमरला ने कहा- बिहन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती िफरोगी।
रात ही को चले जायेगे। अममा कहती थी।
सुधा से सजल नेतो से ताकते हुए कहा- कौन मुंह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर
लग रहा है िक उनके सामने जाते ही मेरा पैरा न थराने लगे और मै िगर पडू ं।
िनमरला- चलो, मै तुमहारे साथ चलती हूं। तुमहे संभाले रहूंगी।
सुधा- मुझे छोडकर भाग तो न जाओगी?
िनमरला- नही-नही, भागूंगी नही।
सुधा- मेरा कलेजा तो अभी से उमडा आता है। मै इतना घोर वरजपाता होने पर भी बैठी
हूं, मुझे यही आशयर हो रहा है। सोहन को वह बहुत पयार करते थे बिहन। न जाने उनके िचत
की कया दशा होगी। मै उनहे ढाढस कया दंगू ी, आप हो रोती रहूंगी। कया रात ही को चले
जायेगे?
िनमरला- हा, अममाजी तो कहती थी छुटी नही ली है।
दोनो सहेिलया मदाने कमरे की ओर चली, लेिकन कमरे के दार पर पहंुचकर सुधा ने
िनमरला से िवदा कर िदया। अकेली कमरे मे दािखल हुई।
डॉकटर साहब घबरा रहे थे िक न जाने सुधा की कया दशा हो रही है।
भाित-भाित की शंकाएं मन मे आ रही थी। जाने को तैयार बैठे थे , लेिकन जी न चाहता था।
जीवन शूनय-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ रहे थे, अगर ईशर को इतनी जलदी यह
पदाथर देकर छीन लेना था, तो िदया ही कयो था? उनहोने तो कभी सनतान के िलए ईशर से
पाथरना न की थी। वह आजनम िन:सनतान रह सकते थे, पर सनतान पाकर उससे वंिचत हो
जाना उनहं असहा जान पडता था। कया सचमुच मनुषय ईशर का िखलौना है? यही मानव
जीवन का महतव है? यह केवल बालको का घरौदा है, िजसके बनने का न कोई हेतु है न
िबगडने का? िफर बालको को भी तो अपने घरौदे से अपनी कागेज की नावो से , अपनी लकडी
के घोडो से ममता होती है। अचछे िखलौने का वह जान के पीछे िछपाकर रखते है। अगर
ईशर बालक ही है तो वह िविचत बालक है।
िकनतु बुिद तो ईशर का यह रप सवीकार नही करती। अननत सृिष का कता उदणड
बालक नही हो सकता है। हम उसे उन सारे गुणो से िवभूिषत करते है, जो हमारी बुिद का
पहंच ु से बाहर है। िखलाडीपन तो साउन महान् गुणो मे नही! कया हंसते-खेलते बालको का
पाण हर लेना खेल है? कया ईशर ऐसा पैशािचक खेल खेलता है?
सहसा सुधा दबे-पाव कमरे मे दािखल हुई। डासॅकटर साहब उठ खडे हुए और उसके
समीप आकर बोले-तुम कहा थी, सुधा? मै तुमहारी राह देख रहा था।
सुधा की आंखो से कमरा तैरता हुआ जान पडा। पित की गदरन मे हाथ डालकर उसने
उनकी छाती पर िसर रख िदया और रोने लगी, लेिकन इस अशु-पवाह मे उसे असीम धैयर और
सातवना का अनुभव हो रहा था। पित के वक-सथल से िलपटी हुई वह अपने हृदय मे एक
िविचत सफूितर और बल का संचार होते हुए पाती थी, मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक
अंचल की आड मे आ गया हो।
डॉकटर साहब ने रमणी के अशु-िसंिचत कपोलो को दोनो हाथो मे लेकर कहा-सुधा,
तुम इतना छोटा िदल कयो करती हो? सोहन अपने जीवन मे जो कुछ करने आया था, वह कर
चुका था, िफर वह कयो बैठा रहता? जैसे कोई वृक जल और पकाश से बढता है, लेिकन पवन
के पबल झोको ही से सुदृढ होता है, उसी भाित पणय भी दु :ख के आघातो ही से िवकास पाता
है। खुशी के साथ हंसनेवाले बहुतेरे िमल जाते है, रंज मे जो साथ रोये, वहर हमारा सचचा
िमत है। िजन पेिमयो को साथ रोना नही नसीब हुआ, वे मुहबबत के मजे कया जाने? सोहन की

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मृतयु ने आज हमारे दैत को िबलकुल िमटा िदया। आज ही हमने एक दस ू रे का सचचा सवरप
देखा।;?!
सुधा ने िससकते हुए कहा- मै नजर के धोखे मे थी। हाय! तुम उसका मुंह भी न
देखने पाये। न जाने इन सिदनो उसे इतनी समझ कहा से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता,
तो अपने केष भूलकर मुसकरा देता। तीसरे ही िदन मरे लाडले की आंख बनद हो गई। कुछ
दवा-दपरन भी न करने पाई।
यह कहते-कहते सुधा के आंसू िफर उमड आये। डॉकटर िसनहा ने उसे सीने से
लगाकर करणा से कापती हुई आवाज मे कहा-िपये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद न
मरा होगा, िजससे घरवालो की दवा-दपरन की लालसा पूरी हो गई।
सुधा- िनमरला ने मेरी बडी मदद की। मै तो एकाध झपकी ले भी लेती थी, पर उसकी
आंखे नही झपकी। रात-रात िलये बैठी या टहलती रहती थी। उसके अहसान कभी न
भूलंगी। कया तुम आज ही जा रहे हो?
डॉकटर- हा, छुटी लेने का मौका न था। िसिवल सजरन िशकार खेलने गया हुआ था।
सुधा- यह सब हमेशा िशकार ही खेला करते है?
डॉकटर- राजाओं को और काम ही कया है?
सुधा- मै तो आज न जाने दंगू ी।
डॉकटर- जी तो मेरा भी नही चाहता।
सुधा- तो मत जाओ, तार दे दो। मै भी तुमहारे साथ चलूंगी। िनमरला को भी लेती
चलूंगी।
सुधा वहा से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था। पित की पेमपूणा
कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर िलया था। पेम मे असीम िवशास
है, असीम धैयर है और असीम बल है।

पपपपप

जबहमेहमारेदसू रोऊपरके तानेकोईभीबडीसहनेिवपितपडतेआहैपडती है, तो उससे हमे केवल दु :ख ही नही होता,


। जनता को हमारे ऊपर िटपपिणयो करने का वह
सुअवसर िमल जाता है, िजसके िलए वह हमेशा बेचैन रहती है। मंसाराम कया मरा, मानो
समाज को उन पर आवाजे कसने का बहान िमल गया। भीतर की बाते कौन जाने , पतयक बात
यह थी िक यह सब सौतेली मा की करतूत है चारो तरफ यही चचा थी, ईशर ने करे लडको
को सौतेली मा से पाला पडे। िजसे अपना बना-बनाया घर उजाडना हो, अपने पयारे बचचो की
गदरन पर छुरी फेरनी हो, वह बचचो के रहते हुए अपना दस
ू रा बयाह करे। ऐसा कभी नही देखा
िक सौत के आने पर घर तबाह न हो गया हो, वही बाप जो बचचो पर जान देता था सौत के
आते ही उनही बचचो का दुशमन हो जाता है, उसकी मित ही बदल जाती है। ऐसी देवी ने जैनम
ही नही िलया, िजसने सौत के बचचो का अपना समझा हो।
मुिशकल यह थी िक लोग िटपपिणयो पर सनतुष न होते थे। कुछ ऐसे सजजन भी थे ,
िजनहे अब िजयाराम और िसयाराम से िवशेष सनेह हो गया था। वे दानो बालको से बडी
सहानुभूित पकट करते, यहा तक िक दो-सएक मिहलाएं तो उसकी माता के शील और सवभाव
को याद करे आंसू बहाने लगती थी। हाय-हाय! बेचारी कया जानती थी िक उसके मरते ही
लाडलो की यह दुदरशा होगी! अब दध ू -मकखन काहे को िमलता होगा!
िजयाराम कहता- िमलता कयो नही?
मिहला कहती- िमलता है! अरे बेटा, िमलना भी कई तरह का होता है। पानीवाल दध ू
टके सेर का मंगाकर रख िदया, िपयो चाहे न िपयो, कौन पूछता है? नही तो बेचारी नौकर से

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दध ू दुहवा कर मंगवाती थी। वह तो चेहरा ही कहे देता है। दध ू की सूरत िछपी नही रहती,
वह सूरत ही नही रही
िजया को अपनी मा के समय के दध ू का सवाद तो याद था सनही, जो इस आकेप का
उतर देता और न उस समय की अपनी सूरत ही याद थी, चुप रह जाता। इन शुभाकाकाओं
का असर भी पडना सवाभािवक था। िजयाराम को अपने घरवालो से िचढ होती जाती थी।
मुंशीजी मकान नीलामी हो जोने के बाद दस ू रे घर मे उठ आये, तो िकराये की िफक हुई।
िनमरला ने मकखन बनद कर िदया। वह आमदनी हा नही रही, तो खचर कैसे रहता। दोनो कहार
अलगे कर िदये गये। िजयाराम को यह कतर-बयोत बुरी लगती थी। जब िनमरला मैके चली
गयी, तो मुंशीजी ने दध ू भी बनद कर िदया। नवजात कनया की िचनता अभी से उनके िसर पर
सवार हा गयी थी।
िसयाराम ने िबगडकर कहा- दध ू बनद रहने से तो आपका महल बन रहा होगा, भोजन
भी बंद कर दीिजए!
मुंशीजी- दधू पीने का शौक है, तो जाकर दुहा कयो नही लाते? पानी के पैसे तो मुझसे
न िदये जायेगे।
िजयाराम- मै दध ू दुहाने जाऊं, कोई सकूल का लडका देख ले तब?
मुंशीजी- तब कुछ नही। कह देना अपने िलए दध ू िलए जाता हूं। दध
ू लाना कोई चोरी
नही है।
िजयाराम- चोरी नही है! आप ही को कोई दध ू लाते देख ले, तो आपको शमर न आयेगी।
मुंशीजी- िबलकुल नही। मैने तो इनही हाथो से पानी खीचा है, अनाज की गठिरया लाया
हूं। मेरे बाप लखपित नही थे।
िजयाराम-मेरे बाप तो गरीब नही, मै कयो दध ू दुहाने जाऊं? आिखर आपने कहारो को
कयो जवाब दे िदया?
मंशीजी- कया तुमहे इतना भी नही सूझता िक मेरी आमदनी अब पहली सी नही रही
इतने नादान तो नही हो?
िजयाराम- आिखर आपकी आमदनी कयो कम हो गयी?
मुंशीजी- जब तुमहे अकल ही नही है, तो कया समझाऊं। यहा िजनदगी से तंगे आ गया
हूं, मुकदमे कौन ले और ले भी तो तैयार कौन करे? वह िदल ही नही रहा। अब तो िजंदगी के
िदन पूरे कर रहा हूं। सारे अरमान लललू के साथ चले गये।
िजयाराम- अपने ही हाथो न।
मुंशीजी ने चीखकर कहा- अरे अहमक! यह ईशर की मजी थी। अपने हाथो कोई
अपना गला काटता है।
िजयाराम- ईशर तो आपका िववाह करने न आया था।
मंशीजी अब जबत न कर सके, लाल-लाल आंखे िनकालक बोले-कया तुम आज लडने
के िलए कमर बाधकर आये हो? आिखर िकस िबरते पर? मेरी रोिटया तो नही चलाते? जब इस
कािबल हो जाना, मुझे उपदेश देना। तब मै सुन लूंगा। अभी तुमको मुझे उपदेश देने का
अिधकार नही है। कुछ िदनो अदब और तमीज सीखो। तुम मेरे सलाहकार नही हो िक मै जो
काम करं , उसमे तुमसे सलाह लूं। मेरी पैदा की हुई दौलत है, उसे जैसे चाहूं खचर कर
सकता हूं। तुमको जबान खोलने का भी हक नही है। अगर िफर तुमने मुझसे बेअदबी की, तो
नतीजा बुरा होगा। जब मंसाराम ऐसा रत खोकर मरे पाण न िनकले, तो तुमहारे बगैर मै मर न
जाऊंगा, समझ गये?
यह कडी फटकार पाकर भी िजयाराम वहा से न टला। िन:शंक भाव से बोला-तो आप
कया चाहते है िक हमे चाहे िकतनी ही तकलीफ हो मुंह न खोले? मुझसे तो यह न होगा। भाई
साहब को अदब और तमीज का जो इनाम िमला, उसकी मुझे भूख नही। मुझमे जहर खाकर
पाण देने की िहममत नही। ऐसे अदब को दरू से दंडवत करता हूं।

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मुंशीजी- तुमहे ऐसी बाते करते हुए शमर नही आती?
िजयाराम- लडके अपने बुजुगों ही की नकल करते है।
मुंशीजी का कोध शानत हो गया। िजयाराम पर उसका कुछ भी असर न होगा, इसका
उनहे यकीन हो गया। उठकर टहलने चले गये। आज उनहे सूचना िमल गयी के इस घर का
शीघ ही सवरनाश होने वाला है।
उस िदन से िपता और पुत मे िकसी न िकसी बात पर रोज ही एक झपट हो जाती है।
मुंशीजी जयो-तयो तरह देते थे, िजयाराम और भी शेर होता जाता था। एक िदन िजयाराम ने
रिकमणी से यहा तक कह डाला- बाप है, यह समझकर छोड देता हूं, नही तो मेरे ऐसे-ऐसे
साथी है िक चाहूं तो भरे बाजार मे िपटवा दं। ू रिकमणी ने मुंशीजी से कह िदया। मुंशीजी ने
पकट रप से तो बेपरवाही ही िदखायी, पर उनके मन मे शंका समा गया। शाम को सैर करना
छोड िदया। यह नयी िचनता सवार हो गयी। इसी भय से िनमरला को भी न लाते थे िक शैतान
उसके साथ भी यही बताव करेगा। िजयाराम एक बार दबी जबान मे कह भी चुका था- देख,ूं
अबकी कैसे इस घर मे आती है? मुंशीजी भी खूब समझ गये थे िक मै इसका कुछ भी नही
कर सकता। कोई बाहर का आदमी होता, तो उसे पुिलस और कानून के िशंजे मे कसते।
अपने लडके को कया करे? सच कहा है- आदमी हारता है, तो अपने लडको ही से।
एक िदन डॉकटर िसनहा ने िजयाराम को बुलाकर समझाना शुर िकया। िजयाराम
उनका अदब करता था। चुपचाप बैठा सुनता रहा। जब डॉकटर साहब ने अनत मे पूछा,
आिखर तुम चाहते कया हो? तो वह बोला- साफ-साफ कह दं?ू बूरा तो न मािनएगा?
िसनहा- नही, जो कुछ तुमहारे िदल मे हो साफ-साफ कह दो।
िजयाराम- तो सुिनए, जब से भैया मरे है, मुझे िपताजी की सूरत देखकर कोध आता
है। मुझे ऐसा मालूम होता है िक इनही ने भैया की हतया की है और एक िदन मौका पाकर हम
दोनो भाइयो को भी हतया करेगे। अगर उनकी यह इचछा न होती तो बयाह ही कयो करते?
डॉकटर साहब ने बडी मुिशकल से हंसी रोककर कहा- तुमहारी हतया करने के िलए उनहे
बयाह करने की कया जररत थी, यह बात मेरी समझ मे नही आयी। िबना िववाह िकये भी तो
वह हतया कर सकते थे।
िजयाराम- कभी नही, उस वकत तो उनका िदल ही कुछ और था, हम लोगो पर जान
देते थे अब मुंह तके नही देखना चाहते। उनकी यही इचछा है िक उन दोनो पािणयो के िसवा
घर मे और कोई न रहे। अब जसे लडके होगे उनक रासते से हम लोगो का हटा देना चाहते
है। यही उन दोनो आदिमयो की िदली मंशा है। हमे तरह-तरह की तकलीफे देकर भगा देना
चाहते है। इसीिलए आजकल मुकदमे नही लेते। हम दोनो भाई आज मर जाये , तो िफर देिखए
कैसी बहार होती है।
डॉकटर- अगर तुमहे भागना ही होता, तो कोई इलजाम लगाकर घर से िनकल न देते?
िजयाराम- इसके िलए पहले ही से तैयार बैठा हूं।
डॉकटर- सुनूं, कया तैयारी कही है?
िजयाराम- जब मौका आयेगा, देख लीिजएगा।
यह कहकर िजयराम चलता हुआ। डॉकटर िसनहा ने बहुत पुकारा, पर उसने िफर कर
देखा भी नही।
कई िदन के बाद डॉकटर साहब की िजयाराम से िफर मुलाकात हो गयी। डॉकटर
साहब िसनेमा के पेमी थे और िजयाराम की तो जान ही िसनेमा मे बसती थी। डॉकटर साहब ने
िसनेमा पर आलोचना करके िजयाराम को बातो मे लगा िलया और अपने घर लाये। भोजन का
समय आ गया था,, दोनो आदमी साथ ही भोजन करने बैठे। िजयाराम को वहा भोजन बहुत
सवािदष लगा, बोल- मेरे यहा तो जब से महाराज अलग हुआ खाने का मजा ही जाता रहा।
बुआजी पका वैषणवी भोजन बनाती है। जबरदसती खा लेता हूं, पर खाने की तरफ ताकने को
जी नही चाहता।

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डॉकटर- मेरे यहा तो जब घर मे खाना पकता है, तो इसे कही सवािदष होता है।
तुमहारी बुआजी पयाज-लहसुन न छू ती होगी?
िजयाराम- हा साहब, उबालकर रख देती है। लालाली को इसकी परवाह ही नही िक
कोई खाता है या नही। इसीिलए तो महाराज को अलग िकया है। अगर रपये नही है, तो
गहने कहा से बनते है?
डॉकटर- यह बात नही है िजयाराम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गयी है। तुम
उनहे बहुत िदक करते हो।
िजयाराम- (हंसकर) मै उनहे िदक करता हूं? मुझससे कसम ले लीिजए, जो कभी उनसे
बोलता भी हूं। मुझे बदनाम करने का उनहोने बीडा उठा िलया है। बेसबब, बेवजह पीछे पडे
रहते है। यहा तक िक मेरे दोसतो से भी उनहे िचढ है। आप ही सोिचए, दोसतो के बगैर कोई
िजनदा रह सकता है? मै कोई लुचचा नही हू िक लुचचो की सोहबत रखू,ं मगर आप दोसतो ही
के पीछे मुझे रोज सताया करते है। कल तो मैने साफ कह िदया- मेरे दोसत घर
आयेगे, िकसी को अचछा लगे या बुरा। जनाब, कोई हो, हर वकत की धौस ही सह सकता।
डॉकटर- मुझे तो भाई, उन पर बडी दया आती है। यह जमाना उनके आराम करने का
था। एक तो बुढापा, उस पर जवान बेटे का शोक, सवासथय भी अचछा नही। ऐसा आदमी कया
कर सकता है? वह जो कुछ थोडा-बहुत करते है, वही बहुत है। तुम अभी और कुछ नही कर
सकते, तो कम-से-कम अपने आचरण से तो उनहे पसन रख सकते हो। बुडढो को पसन
करना बहुत किठन काम नही। यकीन मानो, तुमहारा हंसकर बोलना ही उनहे खुश करने को
काफी है। इतना पूछने मे तुमहारा कया खचर होता है। बाबूजी, आपकी तबीयत कैसी है? वह
तुमहारी यह उदणडता देखकर मन-ही-मन कुढते रहते है। मै तुमसे सच कहता हूं, कई बार रो
चुके है। उनहोने मान लो शादी करने मे गलती की। इसे वह भी सवीकार करते है , लेिकन तुम
अपने कतरवय से कयो मुंह मोडते हो? वह तुमहारे िपता है, तुमहे उनकी सेवा करनी चािहए। एक
बात भी ऐसी मुंह से न िनकालनी चािहए, िजससे उनका िदल दुखे। उनहे यह खयाल करने का
मौका ही कयो दे िक सब मेरी कमाई खाने वाले है, बात पूछने वाला कोई नही। मेरी उम तुमसे
कही जयादा है, िजयाराम, पर आज तक मैने अपने िपताजी की िकसी बात का जवाब नही
िदया। वह आज भी मुझे डाटते है, िसर झुकाकर सुन लेता हूं। जानता हूं, वह जो कुछ कहते
है, मेरे भले ही को कहते है। माता-िपता से बढकर हमारा िहतैषी और कौन हो सकता है?
उसके ऋण से कौन मुकत हो सकता है?
िजयाराम बैठा रोता रहा। अभी उसके सदावो का समपूणरत: लोप न हुआ था, अपनी
दुजरनता उसे साफ नजर आ रही थी। इतनी गलािन उसे बहुत िदनो से न आयी थी। रोकर
डॉकटर साहब से कहा- मै बहुत लिजजत हूं। दस ू रो के बहकाने मे आ गया। अब आप मेरी
जरा भी िशकयत न सुनेगे। आप िपताजी से मेरे अपराध कमा कर दीिजए। मै सचमुच बडा
अभागा हूं। उनहे मैने बहुत सताया। उनसे किहए- मेरे अपराध कमा कर दे, नही मै मुंह मे
कािलख लगाकर कही िनकल जाऊंगा, डू ब मरं गा।
डॉकटर साहब अपनी उपदेश-कुशलता पर फूले न समाये। िजयाराम को गले लगाकर
िवदा िकया।
िजयाराम घर पहंुचा, तो गयारह बज गये थे। मुंशीजी भोजन करे अभी बाहर आये थे।
उसे देखते ही बोले- जानते हो कै बजे है? बारह का वकत है।
िजयाराम ने बडी नमता से कहा- डॉकटर िसनहा िमल गये। उनके साथ उनके घर तक
चला गया। उनहोने खाने के िलए िजद िक, मजबूरन खाना पडा। इसी से देर हो गयी।
मुंशीज- डॉकटर िसनहा से दुखडे रोने गये होगे या और कोई काम था।
िजयाराम की नमता का चौथा भाग उड गय, बोला- दुखडे रोने की मेरी आदत नही है।
मुंशीजी- जरा भी नही, तुमहारे मुंह मे तो जबान ही नही। मुझसे जो लोग तुमहारी बाते
करते है, वह गढा करते होगे?

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िजयाराम- और िदनो की मै नही कहता, लेिकन आज डॉकटर िसनहा के यहा मैने कोई
बात ऐसी नही की, जो इस वकत आपके सामने न कर सकूं।
मुंशीजी- बडी खुशी की बात है। बेहद खुशी हुई। आज से गुरदीका ले ली है कया?
िजयाराम की नमता का एक चतुथाश और गायब हो गया। िसर उठाकर बोला- आदमी
िबना गुरदीका िलए हुए भी अपनी बुराइयो पर लिजजत हो सकता है। अपाना सुधार करने के
िलए गुरपनत कोई जररी चीज नही।
मुंशीजी- अब तो लुचचे न जमा होगे?
िजयाराम- आप िकसी को लुचचा कयो कहते है, जब तक ऐसा कहने के िलए आपके
पास कोई पमाण नही?
मुंशीजी- तुमहारे दोसत सब लुचचे-लफंगे है। एक भी भला आदमी नही। मै तुमसे कई
बार कह चुका िक उनहे यहा मत जमा िकया करोख् पर तुमने सुना नही। आज मे आिखर बार
कहे देता हूं िक अगर तुमने उन शोहदो को जमा िकया, तो मुझो पुिलस की सहायता लेनी
पडेगी।
िजयाराम की नमता का एक चतुथाश और गायब हो गया। फडककार बोला- अचछी
बात है, पुिलस की सहायता लीिजए। देखे कया करती है? मेरे दोसतो मे आधे से जयादा पुिलस
के अफसरो ही के बेटे है। जब आप ही मेरा सुधार करने पर तुले हुए है, तो मै वयथर कयो कष
उठाऊं?
यह कहता हुआ िजयाराम अपने कमरे मे चला गया और एक कण के बाद हारमोिनया
के मीठे सवरो की आवाज बाहर आने लगी।
सहृदयता का जलया हुआ दीपक िनदरय वयंगय के एक झोके से बुझ गया। अडा हुआ
घोडा चुमकाराने से जोर मारने लगा था, पर हणटर पडते ही िफर अड गया और गाडी की पीछे
ढकेलने लगा।

पपपपपप

अ बकी सुधा के साथ िनमरला को भी आना पडा। वह तो मैके मे कुछ िदन और रहना
चाहती थी, लेिकन शोकातुर सुधा अकेले कैसे रही! उसको आिखर आना ही पडा।
रिकमणी ने भूंगी से कहा- देखती है, बहू मैके से कैसा िनखरकर आयी है!
भूंगी ने कहा- दीदी, मा के हाथ की रोिटया लडिकयो को बहुत अचछी लगती है।
रिकमणी- ठीक कहती है भूंगी, िखलाना तो बस मा ही जानती है।
िनमरला को ऐसा मालूम हुआ िक घर का कोई आदमी उसके आने से खुश नही।
मुंशीजी ने खुशी तो बहुत िदखाई, पर हृदयगत िचनता को न िछपा सके। बचची का नाम सुधा
ने आशा रख िदया था। वह आशा की मूितर-सी थी भी। देखकर सारी िचनता भाग जाती थी।
मुंशीजी ने उसे गोद मे लेना चाहा, तो रोने लगी, दौडकर मा से िलपट गयी, मानो िपता को
पहचानती ही नही। मुंशीजी ने िमठाइयो से उसे परचाना चाहा। घर मे कोई नौकर तो था नही,
जाकर िसयाराम से दो आने की िमठाइया लाने को कहा।
िजयराम भी बैठा हुआ था। बोल उठा- हम लोगो के िलए तो कभी िमठाइया नही
आती।
मंशीजी ने झुंझलाकर कहा- तुम लोग बचचे नही हो।
िजयाराम- और कया बूढे है? िमठाइया मंगवाकर रख दीिजए, तो मालूम हो िक बचचे है
या बूढे। िनकािलए चार आना और आशा के बदौलत हमारे नसीब भी जागे।
मुंशीजी- मेरे पास इस वकत पैसे नही है। जाओ िसया, जलद जाना।
िजयाराम- िसया नही जायेगा। िकसी का गुलाम नही है। आशा अपने बाप की बेटी है,
तो वह भी अपने बाप का बेटा है।

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मुंशीजी- कया फजूज की बाते करते हो। ननही-सी बचची की बराबरी करते तुमहे शमर
नही आती? जाओ िसयाराम, ये पैसे लो।
िजयाराम- मत जाना िसया! तुम िकसी के नौकर नही हो।
िसया बडी दुिवधा मे पड गया। िकसका कहना माने ? अनत मे उसने िजयाराम का
कहना मानने का िनशय िकया। बाप जयादा-से-जयादा घुडक देगे, िजया तो मारेगा, िफर वह
िकसके पास फिरयाद लेकर जायेगा। बोला- मै न जाऊंगा।
मुंशीजी ने धमकाकर कहा- अचछा, तो मेरे पास िफर कोई चीज मागने मत आना।
मुंशीजी खुद बाजार चले गये और एक रपये की िमठाई लेकर लौटे। दो आने की
िमठाई मागते हुए उनहे शमर आयी। हलवाई उनहे पहचानता था। िदल मे कया कहेगा?
िमठाई िलए हुए मुंशीजी अनदर चले गये। िसयाराम ने िमठाई का बडा-सा दोना देखा,
तो बाप का कहना न मानने का उसे दुख हुआ। अब वह िकस मुंह से िमठाई लेने अनद
जायेगा। बडी भूल हुई। वह मन-ही-मन िजयाराम को चोटो की चोट और िमठाई की िमठास मे
तुलना करने लगा।
सहसा भूंगी ने दो तशतिरया दोनो के सामने लाकर रख दी। िजयाराम ने िबगडकर
कहा- इसे उठा ले जा!
भूंगी- काहे को िबगडता हो बाबू कया िमठाई अचछी नही लगती?
िजयाराम- िमठाई आशा के िलए आयी है, हमारे िलए नही आयी? ले जा, नही तो सडक
पर फेक दंगू ा। हम तो पैसे-पैसे के िलए रटते रहते ह। औ यहा रपये की िमठाई आती है।
भूंगी- तुम ले लो िसया बाबू, यह न लेगे न सही।
िसयाराम ने डरते-डरते हाथ बढाया था िक िजयाराम ने डाटकर कहा- मत छू ना
िमठाई, नही तो हाथ तोडकर रख दंगू ा। लालची कही का!
िसयाराम यह धुडकी सुनकर सहम उठा, िमठाई खाने की िहममत न पडी। िनमरला ने
यह कथा सुनी, तो दोनो लडको को मनाने चली। मुंशजी ने कडी कसम रख दी।
िनमरला- आप समझते नही है। यह सारा गुससा मुझ पर है।
मुंशीजी- गुसताख हो गया है। इस खयाल से कोई सखती नही करता िक लोग कहेगे,
िबना मा के बचचो को सताते है, नही तो सारी शरारत घडी भर मे िनकाल दं।ू
िनमरला- इसी बदनामी का तो मुझे डर है।
मुंशीजी- अब न डरं गा, िजसके जी मे जो आये कहे।
िनमरला- पहले तो ये ऐसे न थे।
मुंशीजी- अजी, कहता है िक आपके लडके मौजूद थे, आपने शादी कयो की! यह कहते
भी इसे संकोच नही हाता िक आप लोगो ने मंसाराम को िवष दे िदया। लडका नही है, शतु है।
िजयाराम दार पर िछपकर खडा था। सती-पुरष मे िमठाई के िवषय मे कया बाते होती
है, यही सुनने वह आया था। मुंशीजी का अिनतम वाकय सुनकर उससे न रहा गया। बोल
उठा- शतु न होता, तो आप उसके पीछे कयो पडते? आप जो इस वकत कर हरे है, वह मै बहुत
पहले समझे बैठा हूं। भैया न समझ थे, धोखा ख गये। हमारे साथ आपकी दाला न गलेगी।
सारा जमाना कह रहा है िक भाई साहब को जहर िदया गया है। मै कहता हूं तो आपको कयो
गुससा आता है?
िनमरला तो सनाटे मे आ गयी। मालूम हुआ, िकसी ने उसकी देह पर अंगारे डाल
िदये। मंशजी ने डाटकर िजयाराम को चुप कराना चाहा, िजयाराम िन:शं खडा ईट का जवाब
पतथर से देता रहा। यहा तक िक िनमरला को भी उस पर कोध आ गया। यह कल का
छोकरा, िकसी काम का न काज का, यो खडा टरा रहा है, जैसे घर भर का पालन-पोषण यही
करता हो। तयोिरया चढाकर बोली- बस, अब बहुत हुआ िजयाराम, मालूम हो गया, तुम बडे
लायक हो, बाहर जाकर बैठो।

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मुंशीजी अब तक तो कुछ दब-दबकर बोलते रहे, िनमरला की शह पाई तो िदल बढ
गया। दात पीसकर लपके और इसके पहले िक िनमरला उनके हाथ पकड सके, एक थपपड
चला ही िदया। थपपड िनमरला के मुंह पर पडा, वही सामने पडी। माथा चकरा गया। मुंशीजी
ने सूखे हाथो मे इतनी शिकत है, इसका वह अनुमान न कर सकती थी। िसर पकडकर बैठ
गयी। मुंशीजी का कोध और भी भडक उठा, िफर घूंसा चलाया पर अबकी िजयाराम ने उनका
हाथ पकड िलया और पीछे ढकेलकर बोला- दरू से बाते कीिजए, कयाे े े नाहक अपनी बेइजजती
करवाते है? अममाजी का िलहाज कर रहा हूं, नही तो िदखा देता।
यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। मुंशीजी संजा-शूनय से खडे रहे। इस वकत
अगर िजयाराम पर दैवी वज िगर पडता, तो शायद उनहे हािदरक आननद होता। िजस पुत का
कभी गोद मे लेकर िनहाल हो जाते थे, उसी के पित आज भाित-भाित की दुषकलपनाएं मन मे
आ रही थी।
रिकमणी अब तक तो अपनी कोठरी मे थी। अब आकर बोली-बेटा आपने बराबर का
हो जाये तो उस पर हाथ न छोडना चािहए।
मुंशीजी ने ओंठ चबाकर कहा- मै इसे घर से िनकालकर छोडू ंगा। भीख मागे या चोरी
करे, मुझसे कोई मतलब नही।
रिकमणी- नाक िकसकी कटेगी?
मुंशीजी- इसकी िचनता नही।
िनमरला- मै जानती िक मेरे आने से यह तुफान खडा हो जायेगा, तो भूलकर भी न
आती। अब भी भला है, मुझे भेज दीिजए। इस घर मे मुझसे न रहा जायेगा।
रिकमणी- तुमहारा बहुत िलहाज करता है बहू, नही तो आज अनथर ही हो जाता।
िनमरला- अब और कया अनथर होगा दीदीजी? मै तो फूंक-फूंककर पाव रखती हूं, िफर
भी अपयश लग ही जाता है। अभी घर मे पाव रखते देर नही हुई और यह हाल हो गेया।
ईशर ही कुशल करे।
रात को भोजन करने कोई न उठा, अकेले मुंशीजी ने खाया। िनमरला को आज नयी
िचनता हो गयी- जीवन कैसे पार लगेगा? अपना ही पेट होता तो िवशेष िचनता न थी। अब तो
एक नयी िवपित गले पड गयी थी। वह सोच रही थी- मेरी बचची के भागय मे कया िलखा है
राम?

पपप

िच नता मे नीद कब आती है? िनमरला चारपाई पर करवटे बदल रही थी। िकतना चाहती थी
िक नीद आ जाये, पर नीद ने न आने की कसम सी खा ली थी। िचराग बुझा िदया था,
िखडकी के दरवाजे खोल िदये थे, िटक-िटक करने वाली घडी भी दस ू रे कमरे मे रख आयीय
थी, पर नीद का नाम था। िजतनी बाते सोचनी थी, सब सोच चुकी, िचनताओं का भी अनत हो
गया, पर पलके न झपकी। तब उसने िफर लैमप जलाया और एक पुसतक पढने लगी। दो-
चार ही पृष पढे होगे िक झपकी आ गयी। िकताब खुली रह गयी।
सहसा िजयाराम ने कमरे मे कदम रखा। उसके पाव थर-थर काप रहे थे। उसने
कमरे मे ऊपर-नीचे देखा। िनमरला सोई हुई थी, उसके िसरहाने ताक पर, एक छोटा-सा पीतल
का सनदक ू चा रकखा हुआ था। िजयाराम दबे पाव गया, धीरे से सनदक ू चा उतारा और बडी
तेजी से कमरे के बाहर िनकला। उसी वकत िनमरला की आंखे खुल गयी। चौककर उठ खडी
हुई। दार पर आकर देखा। कलेजा धक् से हो गया। कया यह िजयाराम है? मेरे केमरे मे कया
करने आया था। कही मुझे धोखा तो नही हुआ? शायद दीदीजी के कमरे से आया हो। यहा
उसका काम ही कया था? शायद मुझसे कुछ कहने आया हो, लेिकन इस वकत कया कहने आया
होगा? इसकी नीयत कया है? उसका िदल काप उठा।

79
मुंशीजी ऊपर छत पर सो रहे थे। मुंडेर न होने के कारण िनमरला ऊपर न सो सकती
थी। उसने सोचा चलकर उनहे जगाऊं, पर जाने की िहममत न पडी। शकी आदमी है, न जाने
कया समझ बैठे और कया करने पर तैयार हो जाये? आकर िफर पुसतक पढने लगी। सबेरे
पूछने पर आप ही मालूम हो जायेगा। कौन जाने मुझे धोखा ही हुआ हो। नीद मे कभी-कभी
धोखा हो जाता है, लेिकन सबेरे पूछने का िनशय कर भी उसे िफर नीद नही आयी।
सबेरे वह जलपान लेकर सवयं िजयाराम के पास गयी, तो वह उसे देखकर चौक
पडा। रोज तो भूंगी आती थी आज यह कयो आ रही है? िनमरला की ओर ताकने की उसकी
िहममत न पडी।
िनमरला ने उसकी ओर िवशासपूणर नेतो से देखकर पूछा- रात को तुम मेरे कमरे मे गये
थे?
िजयाराम ने िवसमय िदखाकर कहा- मै? भला मै रात को कया करने जाता? कया कोई
गया था?
िनमरला ने इस भाव से कहा, मानो उसे उसकी बात का पूरी िवशास हो गया- हा, मुझे
ऐसा मालूम हुआ िक कोई मेरे कमरे से िनकला। मैने उसका मुंह तो न देखा, पर उसकी पीठ
देखकर अनुमान िकया िक शयद तुम िकसी काम से आये हो। इसका पता कैसे चले कौन
था? कोई था जरर इसमे कोई सनदेह नही।
िजयाराम अपने को िनरपराध िसद करने की चेषा कर कहने लगा- मै। तो रात को
िथयेटर देखने चला गया था। वहा से लौटा तो एक िमत के घर लेट रहा। थोडी देर हुई
लौटा हूं। मेरे साथ और भी कई िमत थे। िजससे जी चाहे, पूछ ले। हा, भाई मै बहुत डरता
हूं। ऐसा न हो, कोई चीज गायब हो गयी, तो मेरा नामे लगे। चोर को तो कोई पकड नही
सकता, मेरे मतथे जायेगी। बाबूजी को आप जानती है। मुझो मारने दौडेगे।
िनमरला- तुमहारा नाम कयो लगेगा? अगर तुमही होते तो भी तुमहे कोई चोरी नही लगा
सकता। चोरी दस ू रे की चीज की जाती है, अपनी चीज की चोरी कोई नही करता।
अभी तक िनमरला की िनगाह अपने सनदक ू चे पर न पडी थी। भोजन बनाने लगी। जब
वकील साहब कचहरी चले गये, तो वह सुधा से िमलने चली। इधर कई िदनो से मुलाकात न
हुई थी, िफर रातवाली घटना पर िवचार पिरवतरन भी करना था। भूंगी से कहा- कमरे मे से
गहनो का बकस उठा ला।
भूंगी ने लौटकर कहा- वहा तो कही सनदक ू नही है। ककहा रखा था? िनमरला ने
िचढकर कहा- एक बार मे तो तेरा काम ही कभी नही होता। वहा छोडकर और जायेगा कहा।
आलमारी मे देखा था?
भूंगी- नही बहूजी, आलमारी मे तो नही देखा, झूठ कयो बोलूं?
िनमरला मुसकरा पडी। बोली- जा देख, जलदी आ। एक कण मे भूंगी िफर खाली हाथ
लौट आयी- आलमारी मे भी तो नही है। अब जहा बताओ वहा देखूं।
िनमरला झुंझलाकर यह कहती हुई उठ खडी हुई- तुझे ईशर ने आंखे ही न जाने
िकसिलए दी! देख, उसी कमरे मे से लाती हूं िक नही।
भूंगी भी पीछे-पीछे कमरे मे गयी। िनमरला ने ताक पर िनगाह डाली, अलमारी खोलकर
देखी। चारपाई के नीचे झाककार देखा, िफर कपडो का बडा संदक ू खोलकर देखा। बकस
का कही पता नही। आशयर हुआ, आिखर बकसा गया कहा?
सहसा रातवाली घटना िबजली की भाित उसकी आंखो के सामने चमक गयी। कलेजा
उछल पडा। अब तक िनिशनत होकर खोज रही थी। अब ताप-सा चढ आया। बडी उतावली
से चारो ओर खोजने लगी। कही पता नही। जहा खोजना चािहए था, वहा भी खोजा और जहा
नही खोजना चािहए था, वहा भी खोजा। इतना बडा सनदक ू चा िबछावन के नीचे कैसे िछप
जाता? पर िबछावन भी झाडकर देखा। कण-कण मुख की कािनत मिलन होती जाती थी। पाण

80
नही मे समाते जाते थे। अनत मे िनराशा होकर उसने छाती पर एक घूंसा मारा और रोने
लगी।
गहने ही सती की समपित होते है। पित की और िकसी समपित पर उसका अिधकार
नही होता। इनही का उसे बल और गौरव होता है। िनमरला के पास पाच-छ: हजार के गहने
थे। जब उनहे पहनकर वह िनकलती थी, तो उतनी देर के िलए उललास से उसका हृदय
िखला रहता था। एक-एक गहना मानो िवपित और बाधा से बचाने के िलए एक-एक रकासत
था। अभी रात ही उसने सोचा था, िजयाराम की लौडी बनकर वह न रहेगी। ईशर न करे िक
वह िकसी के सामने हाथ फैलाये। इसी खेवे से वह अपनी नाव को भी पार लगा देगी और
अपनी बचची को भी िकसी-न-िकसी घाट पहंुचा देगी। उसे िकस बात की िचनत है! उनहे तो
कोई उससे न छीन लेगा। आज ये मेरे िसंगार है, कल को मेरे आधार हो जायेगे। इस िवचार
से उसके हृदय को िकतनी सानतवना िमली थी! वह समपित आज उसके हाथ से िनकल गयी।
अब वह िनराधार थी। संसार उसे कोई अवलमब कोई सहारा न था। उसकी आशाओं का
आधार जड से कट गया, वह फूट-फूटकर रोने लगी। ईशर! तुमसे इतना भी न देखा गया?
मुझ दुिखया को तुमने यो ही अपंग बना िदया थ, अब आंखे भी फोड दी। अब वह िकसके
सामने हाथ फैलायेगी, िकसके दार पर भीख मागेगी। पसीने से उसकी देह भीग गयी, रोते-रोते
आंखे सूज गयी। िनमरला िसर नीचा िकये रा रही थी। रिकमणी उसे धीरज िदला रही थी,
लेिकन उसके आंसू न रकते थे, शोके की जवाल केम ने होती थी।
तीन बजे िजयाराम सकूल से लौटा। िनमरला उसने आने की खबर पाकर िविकपत की
भाित उठी और उसके कमरे के दार पर आकर बोली-भैया, िदललगी की हो तो दे दो। दुिखया
को सताकर कया पाओगे?
िजयाराम एक कण के िलए कातर हो उठा। चोर-कला मे उसका यह पहला ही पयास
था। यह कठारेता, िजससे िहंसा मे मनोरंजन होता है अभी तक उसे पापत न हुई थी। यिद
उसके पास सनदक ू चा होता और िफर इतना मौका िमलता िक उसे ताक पर रख आवे, तो
कदािचत् वह उसे मौके को न छोडता, लेिकन सनदक ू उसके हाथ से िनकल चुका था। यारो
ने उसे सराफे मे पहंुचा िदया था और औने-पौने बेच भी डाला थ। चोरो की झूठ के िसवा और
कौन रका कर सकता है। बोला-भला अममाजी, मै आपसे ऐसी िदललगी करं गा? आप अभी तक
मुझ पर शक करती जा रही है। मै कह चुका िक मै रात को घर पर न था, लेिकन आपको
यकीन ही नही आता। बडे दु :ख की बात है िक मुझे आप इतना नीच समझती है।
िनमरला ने आंसू पोछते हुए कहा- मै तुमहारे पर शक नही करती भैया, तुमहे चोरी नही
लगाती। मैने समझा, शायद िदललगी की हो।
िजयाराम पर वह चोरी का संदेह कैसे कर सकती थी? दुिनया यही तो कहेगी िक
लडके की मा मर गई है, तो उस पर चोरी का इलजाम लगाया जा रहा है। मेरे मुंह मे ही तो
कािलख लगेगी!
िजयाराम ने आशासन देते हुए कहा- चिलए, मै देख,ूं आिखर ले कौन गया? चोर आया
िकस रासते से?
भूंगी- भैया, तुम चोरो के आने को कहते हो। चूहे के िबल से तो िनकल ही आते है,
यहा तो चारो ओर ही िखडिकया है।
िजयाराम- खूब अचछी तरह तलाश कर िलया है?
िनमरला- सारा घर तो छान मारा, अब कहा खोजने को कहते हो?
िजयाराम- आप लोग सो भी तो जाती है मुदों से बाजी लगाकर।
चार बजे मुंशीजी घर आये, तो िनमरला की दशा देखकर पूछा- कैसी तबीयत है? कही ददर तो
नही है? कह कहकर उनहोने आशा को गोद मे उठा िलया।
िनमरला कोई जवाब न दे सकी, िफर रोने लगी।

81
भूंगी ने कहा- ऐसा कभी नही हुआ था। मेरी सारी उमर इसी घर मं कट गयी। आज
तक एक पैसे की चोरी नही हुई। दुिनया यही कहेगी िक भूंगी का कोम है, अब तो भगेवान ही
पत-पानी रखे।
मुंशीजी अचकन के बटन खोल रहे थे, िफर बटन बनद करते हुए बोले- कया हुआ?
कोई चीज चोरी हो गयी?
भूंगी- बहूजी के सारे गहने उठ गये।
मुंशीजी- रखे कहा थे?
िनमरला ने िससिकया लेते हुए रात की सारी घटना बयाना कर दी, पर िजयाराम की
सूरत के आदमी के अपने कमरे से िनकलने की बात न कही। मुंशीजी ने ठंडी सास भरकर
कहा- ईशर भी बडा अनयायी है। जो मरे उनही को मारता है। मालूम होता है, अिदन आ गये
है। मगर चोर आया तो िकधर से? कही सेध नही पडी और िकसी तरफ से आने का रासता
नही। मैने तो कोई ऐसा पाप नही िकया, िजसकी मुझे यह सजा िमल रही है। बार-बार कहता
रहा, गहने का सनदक ू चा ताक पर मत रखो, मगेर कौन सुनता है।
िनमरला- मै कया जानती थी िक यह गजब टू ट पडेगा!
मुंशीजी- इतना तो जानती थी िक सब िदन बराबर नही जाते। आज बनवाने जाऊं, तो
इस हजार से कम न लगेगे। आजकल अपनी जो दशा है, वह तुमसे िछपी नही, खचर भर का
मुिशकल से िमलता है, गहने कहा से बनेगे। जाता ह,ूं पुिलस मे इितला कर आता हूं, पर िमलने
की उममीद न समझो।
िनमरला ने आपित के भाव से कहा- जब जानते है िक पुिलस मे इितला करने से कुद न
होगा, तो कयो जा रहे है?
मुंशीजी- िदल नही मानता और कया? इतना बडा नुकसान उठाकर चुपचाप तो नही बैठ
जाता।
िनमरला- िमलनेवाले होते, तो जाते ही कयो? तकदीर मे न थे, तो कैसे रहते?
मुंशीजी- तकदीर मे होगे, तो िमल जायेगे, नही तो गये तो है ही।
मुंशीजी कमरे से िनकले। िनमरला ने उनका हाथ पकडकर कहा- मै कहती ह,ूं मत
जाओ, कही ऐसा न हो, लेने के देने पड जाये।
मुंशीजी ने हाथ छुडाकर कहा- तुम भी बचचो की-सी िजद कर रही हो। दस हजार का
नुकसान ऐसा नही है, िजसे मै यो ही उठा लूं। मै रो नही रहा हूं, पर मेरे हृदय पर जो बीत रही
है, वह मै ही जानता हूं। यह चोट मेरे कलेजे पर लगी है। मुंशीजी और कुछ न कह सके।
गला फंस गया। वह तेजी से कमरे से िनकल आये और थाने पर जा पहंुचे। थानेदार उनका
बहुत िलहाज करता था। उसे एक बार िरशत के मुकदमे से बरी करा चुके थे। उनके साथ
ही तफतीश करने आ पहंुचा। नाम था अलायार खा।
शाम हो गयी थी। थानेदार ने मकान के अगवाडे-िपछवाडे घूम-घूमकर देखा। अनदर
जाकर िनमरला के कमरे को गौर से देखा। ऊपर की मुंडेर की जाच की। मुहलले के दो-चार
आदिमयो से चुपके-चुपके कुछ बाते की और तब मुंशीजी से बोले- जनाब, खुदा की कसम, यह
िकसी बाहर के आदमी का काम नही। खुदा की कसम, अगर कोई बाहर की आमदी िनकले,
तो आज से थानेदारी करना छोड दं। ू आपके घर मे कोई मुलािजम ऐसा तो नही है, िजस पर
आपको शुबहा हो।
मुंशीजी- घर मे तो आजकल िसफर एक महरी है।
थानेदार-अजी, वह पगली है। यह िकसी बडे शाितर का काम है, खुदा की कसम।
मुंशीजी- तो घर मे और कौन है? मेरे दोने लडके है, सती है और बहन है। इनमे से
िकस पर शक करं ?

82
थानेदार- खुदा की कसम, घर ही के िकसी आदमी का काम है, चाहे, वह कोई हो,
इनशाअललाह, दो-चार िदन मे मै आपको इसकी खबर दंगू ा। यह तो नही कह सकता िक माल
भी सब िमल जायेगा, पर खुदा की कसम, चोर जरर पकड िदखाऊंगा।
थानेदार चला गया, तो मुंशीजी ने आकर िनमरला से उसकी बाते कही। िनमरला सहम
उठी- आप थानेदार से कह दीिजए, तफतीश न करे, आपके पैरो पडती हूं।
मुंशीजी- आिखर कयो?
िनमरला- अब कयो बताऊं? वह कह रहा है िक घर ही के िकसी का काम है।
मुंशीजी- उसे बकने दो।
िजयाराम अपने कमरे मे बैठा हुआ भगवान् को याद कर रहा था। उसक मुंह पर
हवाइया उड रही थी। सुन चुका थािक पुिलसवाले चेहरे से भाप जाते है। बाहर िनकलने की
िहममत न पडती थी। दोनो आदिमयो मे कया बाते हो रही है , यह जानने के िलए छटपटा रहा
था। जयोही थानेदार चला गया और भूंगी िकसी काम से बाहर िनकली, िजयाराम ने पूछा-
थानेदार कया कर रहा था भूंगी?
भूंगी ने पास आकर कहा- दाढीजार कहता था, घर ही से िकसी आदमी का काम है,
बाहर को कोई नही है।
िजयाराम- बाबूजी ने कुछ नही कहा?
भूंगी- कुछ तो नही कहा, खडे ‘हूं-हूं’ करते रहे। घर मे एक भूंगी ही गैर है न! और तो
सब अपने ही है।
िजयाराम- मै भी तो गैर हूं, तू ही कयो?
भूंगी- तुम गैर काहे हो भैया?
िजयाराम- बाबूजी ने थानेदार से कहा नही, घर मे िकसी पर उनका शुबहा नही है।
भूंगी- कुछ तो कहते नही सुना। बेचारे थानेदार ने भले ही कहा- भूंगी तो पगली है, वह
कया चोरी करेगी। बाबूजी तो मुझे फंसाये ही देते थे।
िजयाराम- तब तो तू भी िनकल गयी। अकेला मै ही रह गया। तू ही बता, तूने मुझे
उस िदन घर मे देखा था?
भूंगी- नही भैया, तुम तो ठेठर देखने गये थे।
िजयाराम- गवाही देगी न?
भूंगी- यह कया कहते हो भैया? बहूजी तफतीश बनद कर देगी।
िजयराम- सच?
भूंगी- हा भैया, बार-बार कहती है िक तफतीश न कराओ। गहने गये, जाने दो, पर
बाबूजी मानते ही नही।
पाच-छ: िदन तक िजयाराम ने पेट भर भोजन नही िकया। कभी दो-चार कौर खा
लेता, कभी कह देता, भूख नही है। उसके चेहरे का रंग उडा रहता था। राते जागते कटती,
पितकण थानेदार की शंका बनी रहती थी। यिद वह जानता िक मामला इतना तूल खीचेगा, तो
कभी ऐसा काम न करता। उसने तो समझा था- िकसी चोर पर शुबहा होगा। मेरी तरफ
िकसी का धयान भी न जायेगा, पर अब भणडा फूटता हुआ मालूम होता था। अभागा थानेदार
िजस ढंगे से छान-बीन कर रहा था, उससे िजयाराम को बडी शंका हो रही थी।
सातवे िदन संधया समय घर लौटा तो बहुत िचिनतत था। आज तक उसे बचने की
कुछ-न-कुछ आशा थी। माल अभी तक कही बरामद न हुआ था, पर आज उसे माल के
बरामद होने की खबर िमल गयी थी। इसी दम थानेदार कासटेिबल के िलए आता होगा। बचने
को कोई उपाय नही। थानेदार को िरशत देने से समभव है मुकदमे को दबा दे, रपये हाथ मे
थे, पर कया बात िछपी रहेगी? अभी माल बरामद नही हुआ, िफर भी सारे शहर मे अफवाह थी
िक बेटे ने ही माल उडाया है। माल िमल जाने पर तो गली-गली बात फैल जायेगी। िफर वह
िकसी को मुंह न िदखा सकेगा।

83
मुंशीजी कचहरी से लौटे तो बहुत घबराये हुए थे। िसर थामकर चारपाई पर बैठ गये।
िनमरला ने कहा- कपडे कयो नही उतारते? आज तो और िदनो से देर हो गयी है।
मुंशीजी- कया कपडे ऊतारं ? तुमने कुछ सुना?
िनमरला- कय बात है? मैने तो कुछ नही सुना?
मुंशीजी- माल बरामद हो गया। अब िजया का बचना मुिशकल है।
िनमरला को आशयर नही हुआ। उसके चेहरे से ऐसा जान पडा, मानो उसे यह बात
मालूम थी। बोली- मै तो पहले ही कर रही थी िक थाने मे इतला मत कीिजए।
मुंशीजी- तुमहे िजया पर शका था?
िनमरला- शक कयो नही था, मैने उनहे अपने कमरे से िनकलते देखा था।
मुंशीजी- िफर तुमने मुझसे कयो न कह िदया?
िनमरला- यह बात मेरे कहने की न थी। आपके िदल मे जरर खयाल आता िक यह
ईषयावश आकेप लगा रही है। किहए, यह खयाल होता या नही? झूठ न बोिलएगा।
मुंशीजी- समभव है, मै इनकार नही कर सकता। िफर भी उसक दशा मे तुमहे मुझसे
कह देना चािहए था। िरपोटर की नौबत न आती। तुमने अपनी नेकनामी की तो- िफक की, पर
यह न सोचा िक पिरणाम कया होगा? मै अभी थाने मे चला आता हूं। अलायार खा आता ही
होगा!
िनमरला ने हताश होकर पूछा- िफर अब?
मुंशीजी ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा- िफर जैसी भगवान् की इचछा। हजार-दो
हजार रपये िरशत देने के िलए होते तो शायद मामेला दब जाता, पर मेरी हालत तो तुम जानती
हो। तकदीर खोटी है और कुछ नही। पाप तो मैने िकया है, दणड कौन भोगेगा? एक लडका
था, उसकी वह दशा हुई, दस ू रे की यह दशा हो रही है। नालायक था, गुसताख था, गुसताख
था, कामचोर था, पर था ता अपना ही लडका, कभी-न-कभी चेत ही जाता। यह चोट अब न
सही जायेगी।
िनमरला- अगर कुछ दे-िदलाकर जान बच सके, तो मै रपये का पबनध कर दं। ू
मुंशीजी- कर सकती हो? िकतने रपये दे सकती हो?
िनमरला- िकतना दरकार होगा?
मुंशीजी- एक हजार से कम तो शायद बातचीत न हो सके। मैने एक मुकदमे मे उससे
एक हजार िलए थे। वह कसर आज िनकालेगा।
िनमरला- हो जायेगा। अभी थाने जाइए।
मुंशीजी को थाने मे बडी देर लगी। एकानत मे बातचीत करने का बहुत देर मे मौका
िमला। अलायार खा पुराना घाघ थ। बडी मुिशकल से अणटी पर चढा। पाच सौ रवये लेकर
भी अहसान का बोझा िसर पर लाद ही िदया। काम हो गया। लौटकर िनमरला से बोला- लो
भाई, बाजी मार ली, रपये तुमने िदये, पर काम मेरी जबान ही ने िकया। बडी-बडी मुिशकलो से
राजी हो गया। यह भी याद रहेगी। िजयाराम भोजन कर चुका है?
िनमरला- कहा, वह तो अभी घूमकर लौटे ही नही।
मुंशीजी- बारह तो बज रहे होगे।
िनमरला- कई दफे जा-जाकर देख आयी। कमरे मे अंधेरा पडा हुआ है।
मुंशीजी- और िसयाराम?
िनमरला- वह तो खा-पीकर सोये है।
मुंशीजी- उससे पूछा नही, िजया कहा गया?
िनमरला- वह तो कहते है, मुझसे कुछ कहकर नही गये।
मुंशीजी को कुछ शंका हुई। िसयाराम को जगाकर पूछा- तुमसे िजयाराम ने कुछ कहा
नही, कब तक लौटेगा? गया कहा है?
िसयाराम ने िसर खुजलाते और आंखो मलते हुए कहा- मुझसे कुछ नही कहा।

84
मुंशीजी- कपडे सब पहनकर गया है?
िसयाराम- जी नही, कुता और धोती।
मुंशीजी- जाते वकत खुश था?
िसयाराम- खुश तो नही मालूम होते थे। कई बार अनदर आने का इरादा िकया, पर
देहरी से ही लौट गये। कई िमनट तक सायबान मे खडे रहे। चलने लगे , तो आंखे पोछ रहे
थे। इधर कई िदन से अकसा रोया करते थे।
मुंशीजी ने ऐसी ठंडी सास ली, मानो जीवन मे अब कुछ नही रहा और िनमरला से बोले -
तुमने िकया तो अपनी समझ मे भले ही के िलए, पर कोई शतु भी मुझ पर इससे कठारे आघात
न कर सकता था। िजयाराम की माता होती, तो कया वह यह संकोच करती? कदािप नही।
िनमरला बोली- जरा डॉकटर साहब के यहा कयो नही चले जाते? शायद वहा बैठे हो।
कई लडके रोज आते है, उनसे पूिछए, शायद कुछ पता लग जाये। फूंक-फूंककर चलने पर
भी अपयश लग ही गया।
मुंशीजी ने मानो खुली हुई िखडकी से कहा- हा, जाता हूं और कया करं गा।


मुंशीज बाहर आये तो देखा, डॉकटर िसनहा खडे है। चौककर पूछा- कया आप देर से
खडे है?
डॉकटर- जी नही, अभी आया हूं। आप इस वकत कहा जा रहे है? साढे बारह हो गये
है।
मुंशीजी- आप ही की तरफ आ रहा था। िजयाराम अभी तक घूमकर नही आया।
आपकी तरफ तो नही गया था?
डॉकटर िसनहा ने मुंशीजी के दोनो हाथ पकड िलए और इतना कह पाये थे, ‘भाई
साहब, अब धैयर से काम..’ िक मुंशीजी गोली खाये हुए मनुषय की भाित जमीन पर िगर पडे।

पपपपपप

िकमणी ने िनमरला से तयािरया बदलकर कहा-


कया नंगे पाव ही मदरसे जायेगा?
िनमरला ने बचची के बाल गूंथते हुए कहा- मै कया करं ? मेरे पास रपये नही है।
रिकमणी- गहने बनवाने को रपये जुडते है, लडके के जूतो के िलए रपयो मे आग लग
जाती है। दो तो चले ही गये, कया तीसरे को भी रला-रलाकर मार डालने का इरादा है?
िनमरला ने एक सास खीचकर कहा- िजसको जीना है, िजयेगा, िजसको मरना है,
मरेगा। मै िकसी को मारने -िजलाने नही जाती।
आजकल एक-न-एक बात पर िनमरला और रिकमणी मे रोज ही झडप हो जाती थी।
जब से गहने चोरी गये है, िनमरला का सवभाव िबलकुल बदल गया है। वह एक-एक कौडी दात
से पकडने लगी है। िसयाराम रोते-रोते चहे जान दे दे, मगर उसे िमठाई के िलए पैसे नही
िमलते और यह बताव कुछ िसयाराम ही के साथ नही है, िनमरला सवयं अपनी जररतो को
टालती रहती है। धोती जब तक फटकनर तार-तार न हो जाये, नयी धोती नही आती। महीनो
िसर का तेल नही मंगाया जाता। पान खाने का उसे शौक था, कई-कई िदन तक पानदान
खाली पडा रहता है, यहा तक िक बचची के िलए दध ू भी नही आता। ननहे से िशशु का भिवषय
िवराट् रप धारण करके उसके िवचार-केत पर मंडराता रहता ।
मुंशीजी ने अपने को समपूणरतया िनमरला के हाथो मे सौप िदया है। उसके िकसी काम
मे दखल नही देते। न जाने कयो उससे कुछ दबे रहते है। वह अब िबना नागा कचहरी जाते
है। इतनी मेहनत उनहोने जवानी मे भी न की थी। आंखे खराब हो गयी है, डॉकटर िसनहा ने
रात को िलखने -पढने की मुमुिनयत कर दी है, पाचनशिकत पहले ही दुबरल थी, अब और भी

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खराब हो गयी है, दमे की िशकायत भी पैदा ही चली है, पर बेचारे सबेरे से आधी-आधी रात
तक काम करते है। काम करने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अचछी हो या न हो, काम
करना ही पडता है। िनमरला को उन पर जरा भी दया आती। वही भिवषय की भीषण िचनता
उसके आनतिरक सदावो को सवरनाश कर रही है। िकसी िभकुक की आवाज सुनकर झलला
पडती है। वह एक कोडी भी खचर करना नही चाहती ।
एक िदन िनमरला ने िसयाराम को घी लाने के िलए बाजार भेजा। भूंगी पर उनका
िवशास न था, उससे अब कोई सौदा न मागती थी। िसयाराम मे काट-कपट की आदत न
थी। औने -पौने करना न जानता था। पाय: बाजार का सारा काम उसी को करना पडता।
िनमरला एक-एक चीज को तोलती, जरा भी कोई चीज तोल मे कम पडती, तो उसे लौटा देती।
िसयाराम का बहुत-सा समय इसी लौट-फेरी मे बीत जाता था। बाजार वाले उसे जलदी कोई
सौदा न देते। आज भी वही नौबत आयी। िसयाराम अपने िवचार से बहुत अचछा घी, कई
दकू ारन से देखकर लाया, लेिकन िनमरला ने उसे सूंघते ही कहा- घी खराब है, लौटा आओ।
िसयाराम ने झुंझलाकर कहा- इससे अचछा घी बाजार मे नही है, मै सारी दक ू ाने
देखकर लाया हूं?
िनमरला- तो मै झूठ कहती हूं?
िसयाराम- यह मै नही कहता, लेिकन बिनया अब घी वािपस न लेगा। उसने मुझसे
कहा था, िजस तरह देखना चाहो, यही देखो, माल तुमहारे सामने है। बोिहनी-बटे के वकत मे
सौदा वापस न लूंगा। मैने सूंघकर, चखकर िलया। अब िकस मुंह से लौटने जाऊ?
िनमरला ने दात पीसकर कहा- घी मे साफ चरबी िमली हईु है और तुम कहते हो, घी
अचछा है। मै इसे रसोई मे न ले जाऊंगी, तुमहारा जी चाहे लौटा दो, चाहे खा जाओ।
घी की हाडी वही छोडकर िनमरला घर मे चली गयी। िसयाराम कोध और कोभ से
कातर हो उठा। वह कौन मुंह लेकर लौटाने जाये? बिनया साफ कह देगा- मै नही लौटाता।
तब वह कया करेगा? आस-पास के दस-पाच बिनये और सडक पर चलने वाले आदमी खाडे हो
जायेगे। उन सबो के सामने उसे लिजजत होना पडेगा। बाजार मे यो ही कोई बिनया उसे
जलदी सौदा नही देता, वह िकसी दक ू ान पर खडा होने नही पाता। चारो ओर से उसी पर
लताड पडेगी। उसने मन-ही-मन झुझ ं लाकर कहा- पडा रहे घी, मै लौटाने न जाऊंगा।
मातृ-हीन बालक के समान दुखी, दीन-पाणी संसार मे दस ू रा नही होता और सारे दु :ख
भूल जाते है। बालक को माता याद आयी, अममा होती, तो कया आज मुझे यह सब सहना
पडता? भैया चले गये, मै ही अकेला यह िवपित सहने के िलए कयो बचा रहा? िसयाराम की
आंखो मे आंसू की झडी लग गयी। उसके शोक कातर कणठ से एक गहरे िन:शास के साथ
िमले हुए ये शबद िनकल आये- अममा! तुम मुझे भूल कयो गयी, कयो नही बुला लेती?
सहसा िनमरला िफर कमरे की तरफ आयी। उसने समझा था, िसयाराम चला गया
होगा। उसे बैठा देखा, तो गुससे से बोली- तुम अभी तक बैठे ही हो? आिखर खाना कब बनेगा?
िसयाराम ने आंखे पोड डाली। बोला- मुझे सकूल जाने मे देर हो जायेगी।
िनमरला- एक िदन देर हो जायेगी तो कौन हरज है? यह भी तो घर ही का काम है?
िसयाराम- रोज तो यही धनधा लगा रहता है। कभी वकत पर सकूल नही पहंच ु ता। घर
पर भी पढने का वकत नही िमलता। कोई सौदा दो-चार बार लौटाये िबना नही जाता। डाट तो
मुझ पर पडती है, शिमरदं ा तो मुझे होना पडता है, आपको कया?
िनमरला- हा, मुझे कया? मै तो तुमहारी दुशमन ठहरी! अपना होता, तब तो उसे दु :ख
होता। मै तो ईशर से मानाया करती हूं िक तुम पढ-िलख न सको। मुझमे सारी बुराइया-ही-
बुराइया है, तुमहारा कोई कसूर नही। िवमाता का नाम ही बुरा होता है। अपनी मा िवष भी
िखलाये, तो अमृत है; मै अमृत भी िपलाऊं, तो िवष हो जायेगा। तुम लोगो के कारण मे िमटी मे
िमल गयी, रोते-रोत उम काटी जाती है, मालूम ही न हुआ िक भगवान ने िकसिलए जनम िदया

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था और तुमहारी समझ मे मै िवहार कर रही हूं। तुमहे सताने मे मुझे बडा मजा आता है।
भगवान् भी नही पूछते िक सारी िवपित का अनत हो जाता।
यह कहते-कहते िनमरला की आंखे भर आयी। अनदर चली गयी। िसयाराम उसको
रोते देखकर सहम उठा। गलािनक तो नही आयी; पर शंका हुई िक ने जाने कौन-सा दणड
िमले। चुपके से हाडी उठा ली और घी लौटाने चला, इस तरह जैसे कोई कुता िकसी नये गाव
मे जाता है। उसे देखकर साधारण बुिद का मनुषय भी आनुमान कर सकता था िक वह अनाथ
है।
िसयाराम जयो-जयो आगे बढता था, आनेवाले संगाम के भय से उसकी हृदय-गित बढती
जाती थी। उसने िनशय िकया-बिनये ने घी न लौटाया, तो वह घी वही छोडकर चला आयेगा।
झख मारकर बिनया आप ही बुलायेगा। बिनये को डाटने के िलए भी उसने शबद सोच िलए।
वह कहेगा- कयो साहूजी, आंखो मे धूल झोकते हो? िदखाते हो चोखा माल और और देते ही रदी
माल? पर यह िनशय करने पर भी उसके पैर आगे बहुत धीरे-धीरे उठते थे। वह यह न चाहता
था, बिनया उसे आता हुआ देखे, वह अकसमात् ही उसके सामने पहंुच जाना चाहता था।
इसिलए वह चकार काटकर दस ू री गली से बिनये की दक
ू ान पर गया।
बिनये ने उसे देखते ही कहा- हमने कह िदया था िक हमे सौदा वापस न लेगे। बोलो,
कहा था िक नही।
िसयाराम ने िबगडकर कहा- तुमने वह घी कहा िदया, जो िदखाया था? िदखाया एक
माल, िदया दस ू रा माल, लौटाओगे कैसे नही? कया कुछ राहजनी है?
साह- इससे चोखा घी बाजार मे िनकल आये तो जरीबाना दं। ू उठा लो हाडी और दो-चार
दकू ार देख आओ।
िसयाराम- हमे इतनी फुसरत नही है। अपना घी लौटा लो।
साह- घी न लौटेगा।
बिनये की दुकान पर एक जटाधारी साधू बैठा हुआ यह तमाश देख रहा था। उठकर
िसयाराम के पास आया और हाडी का घी सूंघकर बोला- बचचा, घी तो बहुत अचछा मालूम होता
है।
साह सने शह पाकर कहा- बाबाजी हम लोग तो आप ही इनको घिटया माल नही देते।
खराब माल कया जाने-सुने गाहको को िदया जाता है?
साधु- घी ले जाव बचचा, बहुत अचछा है।
िसयाराम रो पडा। घी को बुरा िसदा करने के िलए उसके पास अब कया पमाण था?
बोला- वही तो कहती है, घी अचछा नही है, लौटा आओ। मै तो कहता था िक घी अचछा है।
साधु- कौन कहता है?
साह- इसकी अममा कहती होगी। कोई सौदा उनके मन ही नही भाता।
बेचारे लडके को बार-बार दौडाया करती है। सौतेली मा है न! अपनी मा हो तो कुछ
खयाल भी करे।
साधु ने िसयराम को सदय नेतो से देखा, मानो उसे ताण देने के िलए उनका हृदय
िवकल हो रहा है। तब करण सवर से बोले- तुमहारी माता का सवगरवास हुए िकतने िदन हुए
बचच?
िसयाराम- छठा साल है।
साधु- ता तुम उस वकत बहुत ही छोटे रहे होगे। भगेवान् तुमहारी लीला िकतनी िविचत
है। इस दुधमुंहे बालक को तुमने मात्-पेम से वंिचत कर िदया। बडा अनथर करते हो भगवान्!
छ: साल का बालक और राकसी िवमाता के पानले पडे! धनय हो दयािनिध! साहजी, बालक पर
दया करो, घी लौटा लो, नही तो इसकी मात इसे घर मे रहने न देगी। भगवान की इचछा से
तुमहारा घी जलद िबक जायेगा। मेरा आशीवाद तुमहारे साथ रहेगा

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साहजी ने रपये वापस न िकये। आिखर लडके को िफर घी लेने आना ही पडेगा। न
जाने िदन मे िकतनी बार चकर लगाना पडे और िकस जािलये से पाला पडे। उसकी दुकान मे
जो घी सबसे अचछा था, वह िसयाराम िदल से सोच रहा था, बाबाजी िकतने दयालु है? इनहोने
िसफािरश न की होती, तो साहजी कयो अचछा घी देते?
िसयाराम घी लेकर चला, तो बाबाजी भी उसके साथ ही िलये। रासते मे
मीठी-मीठी बाते करने लगे।
‘बचचा, मेरी माता भी मुझे तीन साल का छोडकर परलोक िसधारी थी। तभी से मातृ-
िवहीन बालको को देखता हूं तो मेरा हृदय फटने लगता है।’
िसयाराम ने पूछा- आपके िपताजी ने भी तो दस ू रा िववाह कर िलया था?
साधु- हा, बचचा, नही तो आज साधु कयो होता? पहले तो िपताजी िववाह न करते थे।
मुझे बहुत पयार करते थे, िफर न जाने कयो मन बदल गया, िववाह कर िलया। साधु हूं, कटु
वचन मुंह से नही िनकालना चािहए, पर मेरी िवमात िजतनी ही सुनदर थी, उतनी ही कठोर थी।
मुझे िदन-िदन-भर खाने को न देती, रोता तो मारती। िपताजी की आंखे भी िफर गयी। उनहे
मेरी सूरत से घृणा होने लगी। मेरा रोना सुनकर मुझे पीटने लगते। अनत को मै एक िदन घर
से िनकल खडा हुआ।
िसयाराम के मन मे भी घर से िनकल भागने का िवचार कई बार हुआ था। इस समय
भी उसके मन मे यही िवचार उठ रहा था। बडी उतसुकता से बोला-घर से िनकलकर आप
कहा गये?
बाबाजी ने हंसकर कहा- उसी िदन मेरे सारे कषो का अनत हो गया िजस िदन घर के
मोह-बनधन से छू टा और भय मन से िनकला, उसी िदन मानो मेरा उदार हो गया। िदन भर मै
एक पुल के नीचे बैठा रहा। संधया समय मुझे एक महातमा िमल गये। उनका सवामी
परमाननदजी था। वे बाल-बहचारी थे। मुझ पर उनहोने दया की और अपने साथ रख िलया।
उनके साथ रख िलया। उनके साथ मै देश-देशानतरो मे घूमने लगा। वह बडे अचछे योगी थे।
मुझे भी उनहोने योग-िवदा िसखाई। अब तो मेरे को इतना अभयास हो येगया है िक जब इचछा
होती है, माताजी के दशरन कर लेता हूं, उनसे बात कर लेता हूं।
िसयाराम ने िवसफािरत नेतो से देखकर पूछा- आपकी माता का तो देहानत हो चुका
था?
साधु- तो कया हुआ बचच, योग-िवदा मे वह शिकत है िक िजस मृत-आतम को चाहे, बुला
ले।
िसयाराम- मै योग-िवदा सीख् लू,ं तो मुझे भी माताजी के दशरन होगे?
साधु- अवशय, अभयास से सब कुछ हो सकता है। हा, योगय गुर चािहए। योग से
बडी-बडी िसिदया पापत हो सकती है। िजतना धन चाहो, पल-मात मे मंगा सकते हो। कैसी
ही बीमारी हो, उसकी औषिध अता सकते हो।
िसयाराम- आपका सथान कहा है?
साधु- बचचा, मेरे को सथान कही नही है। देश-देशानतरो से रमता िफरता हूं। अचछा,
बचचा अब तुम जाओ, मै। जरा सनान-धययान करने जाऊंगा।
िसयराम- चिलए मै भी उसी तरफ चलता हूं। आपके दशरन से जी नही भरा।
साधु- नही बचचा, तुमहे पाठशाला जाने की देरी हो रही है।
िसयराम- िफर आपके दशरन कब होगे?
साधु- कभी आ जाऊंगा बचचा, तुमहारा घर कहा है?
िसयाराम पसन होकर बोला- चिलएगा मेरे घर? बहुत नजदीक है। आपकी बडी कृपा
होगी।
िसयाराम कदम बढाकर आगे-आगे चलने लगा। इतना पसन था, मानो सोने की गठरी
िलए जाता हो। घर के सामने पहंुचकर बोला- आइए, बैिठए कुछ देर।

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साधु- नही बचचा, बैठूंगा नही। िफर कल-परसो िकसी समय आ जाऊंगा। यही तुमहारा
घर है?
िसयाराम- कल िकस वकत आइयेगा?
साधु- िनशय नही कह सकता। िकसी समय आ जाऊंगा।
साधु आगे बढे, तो थोडी ही दरू पर उनहे एक दस ू रा साधु िमला। उसका नाम था
हिरहराननद।
परमाननद से पूछा- कहा-कहा की सैर की? कोई िशकार फंसा?
हिरहराननद- इधरा चारो तरफ घूम आया, कोई िशकार न िमला एकाध िमला भी, तो
मेरी हंसी उडाने लगा।
परमाननद- मुझे तो एक िमलता हुआ जान पडता है! फंस जाये तो जानूं।
हिरहराननद- तुम यो ही कहा करते हो। जो आता है, दो-एक िदन के बाद िनकल
भागता है।
परमाननद- अबकी न भागेगा, देख लेना। इसकी मा मर गयी है। बाप ने दस ू रा िववाह
कर िलया है। मा भी सताया करती है। घर से ऊबा हुआ है।
हिरहराननद- खूब अचछी तरह। यही तरकीब सबसे अचछी है। पहले इसका पता लगा
लेना चािहए िक मुहलले मे िकन-िकन घरो मे िवमाताएं है? उनही घरो मे फनदा डालना चािहए।

पपपप

िनमरला ने िबगडकर कहा- इतनी देर कहा लगायी?


िसयाराम ने िढठाई से कहा- रासते मे एक जगह सो गया था।
िनमरला- यह तो मै नही कहती, पर जानते हो कै बज गये है? दस कभी के बज गये।
बाजार कुद दरू भी तो नही है।
िसयाराम- कुछ दरू नही। दरवाजे ही पर तो है।
िनमरला- सीधे से कयो नही बोलते? ऐसा िबगड रहे हो, जैसे मेरा ही कोई कामे करने गये
हो?
िसयाराम- तो आप वयथर की बकवास कयो करती है? िलया सौदा लौटाना कया आसान
काम है? बिनये से घंटो हुजजत करनी पडी यह तो कहो, एक बाबाजी ने कह-सुनकर फेरवा
िदया, नही तो िकसी तरह न फेरता। रासते मे कही एक िमनट भी न रका, सीधा चला आता
हूं।
िनमरला- घी के िलए गये-गये, तो तुम गयारह बजे लौटे हो, लकडी के िलए जाओगे, तो
साझ ही कर दोगे। तुमहारे बाबूजी िबना खाये ही चले गये। तुमहे इतनी देर लगानी था, तो
पहले ही कयो न कह िदया? जाते ही लकडी के िलए।
िसयाराम अब अपने को संभाल न सका। झललाकर बोला- लकडी िकसी और से
मंगाइए। मुझे सकूल जाने को देर हो रही है।
िनमरला- खाना न खाओगे?
िसयाराम- न खाऊंगा।
िनमरला- मै खाना बनाने को तैयार हूं। हा, लकडी लाने नही जा सकती।
िसयाराम- भूंगी को कयो नही भेजती?
िनमरला- भूंगी का लाया सौदा तुमने कभी देखा नही है?
िसयाराम- तो मै इस वकत न जाऊंगा।
िनमरला- मुझे दोष न देना।
िसयाराम कई िदनो से सकूल नही गया था। बाजार-हाट के मारे उसे िकताबे देखने
का समय ही न िमलता था। सकूल जाकर िझडिकया खान, से बेच पर खडे होने या ऊंची

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टोपी देने के िसवा और कया िमलता? वह घर से िकताबे लेकर चलता, पर शहर के बाहर
जाकर िकसी वृक की छाह मे बैठा रहता या पलटनो की कवायद देखता। तीन बजे घर से
लौट आता। आज भी वह घर से चला, लेिकन बैठने मे उसका जी न लगा, उस पर आंते अल
ग जल रही थी। हा! अब उसे रोिटयो के भी लाले पड गये। दस बजे कया खाना न बन
सकता था? माना िक बाबूजी चले गये थे। कया मेरे िलए घर मे दो-चार पैसे भी न थे? अममा
होती, तो इस तरह िबना कुछ खाये-िपये आने देती? मेरा अब कोई नही रहा।
िसयाराम का मन बाबाजी के दशरन के िलए वयाकुल हो उठा। उसने सोचा- इस वकत
वह कहा िमलेगे? कहा चलकर देख?ूं उनकी मनोहर वाणी, उनकी उतसाहपद सानतवना, उसके
मन को खीचने लगी। उसने आतुर होकर कहा- मै उनके साथ ही कयो न चला गया? घर पर
मेरे िलए कया रखा था?
वह आज यहा से चला तो घर न जाकर सीधा घी वाले साहजी की दुकान पर गया।
शायद बाबाजी से वहा मुलाकात हो जाये, पर वहा बाबाजी न थे। बडी देर तक खडा-खडा
लौट आया।
घर आकर बैठा ही था िकस िनमरला ने आकर कहा- आज देर कहा लगाई? सवेरे खाना
नही बना, कया इस वकत भी उपवास होगा? जाकर बाजार से कोई तरकारी लाओ।
िसयाराम ने झललाकर कहा- िदनभर का भूखा चला आता हूं; कुछ पीनी पीने तक को
लाई नही, ऊपर से बाजार जाने का हुकम दे िदया। मै नही जाता बाजार, िकसी का नौकर नही
हूं। आिखर रोिटया ही तो िखलाती हो या और कुछ? ऐसी रोिटया जहा मेहनत करं गा, वही
िमल जायेगी। जब मजूरी ही करनी है, तो आपकी न करं गा, जाइए मेरे िलए खाना मत
बनाइएगा।
िनमरला अवाक् रह गयी। लडके को आज कया हो गया? और िदन तो चुपके से जाकर
काम कर लाता था, आज कयो तयोिरया बदल रहा है? अब भी उसको यह न सूझी िक िसयाराम
को दो-चार पैसे कुछ खाने के दे दे। उसका सवभाव इतना कृपण हो गया था, बोली- घर का
काम करना तो मजूरी नही कहलाती। इसी तरह मै भी कह दंू िक मै खाना नही पकाती,
तुमहारे बाबूजी कह दे िक कचहरी नही जाता, तो कया हो बताओ? नही जाना चाहते, तो मत
जाओ, भूंगी से मंगा लूंगी। मै कया जानती थी िक तुमहे बाजार जाना बुरा लगता है, नही तो
बला से धेले की चीज पैसे मे आती, तुमहे न भेजती। लो, आज से कान पकडती हूं।
िसयाराम िदल मे कुछ लिजजत तो हुआ, पर बाजार न गया। उसका धयान बाबाजी की
ओर लगा हुआ था। अपने सारे दुखो का अनत और जीवन की सारी आशाएं उसे अब बाबाजी
क आशीवाद मे मालूम होती थी। उनही की शरण जाकर उसका यह आधारहीन जीवन साथरक
होगा। सूयासत के समय वह अधीर हो गया। सारा बाजार छान मारा, लेिकन बाबाजी का कही
पता न िमला। िदनभर का भूख-पयासा, वह अबोध बालक दुखते हुए िदल को हाथो से दबाये,
आशा और भय की मूितर बना, दुकानो, गािलयो और मिनदरो मे उस आशमे को खोजता िफरता
था, िजसके िबना उसे अपना जीवन दुससह हो रहा था। एक बार मिनदर के सामने उसे कोई
साधु खडा िदखाई िदया। उसने समझा वही है। हषोललास से वह फूल उठा। दौडा और साधु
के पास खडा हो गया। पर यह कोई और ही महातमा थे। िनराश हो कर आगे बढ गया।
धारे-धीरे सडको पर सनाटा दा गया, घरो के दारा बनद होने लगे। सडक की पटिरयो
पर और गिलयो मे बंसखटे या बोरे िबछा-िबछाकर भारत की पजा सुख-िनदा मे मगन होने लगी,
लेिकन िसयाराम घर न लौटा। उस घर से उसक िदल फट गया था, जहा िकसी को उससे
पेम न था, जहा वह िकसी परािशत की भाित पडा हुआ था, केवल इसीिलए िक उसे और कही
शरण न थी। इस वकत भी उसके घर न जाने को िकसे िचनता होगी? बाबूजी भोजन करके
लेटे होगे, अममाजी भी आराम करने जा रही होगी। िकसी ने मेरे कमरे की ओर झाककर देखा
भी न होगा। हा, बुआजी घबरा रही होगी, वह अभी तक मेरी राह देखती होगी। जब तक मै न
जाऊंगा, भोजन न करेगी।

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रिकमणी की याद आते ही िसयाराम घर की ओर चल िदया। वह अगर और कुछ न
कर सकती थी, तो कम-से-कम उसे गोद मे िचमटाकर रोती थी? उसके बाहर से आने पर
हाथ-मुंह धोने के िलए पानी तो रख देती थी। संसार मे सभी बालक दध ू की कुिललयो नही
करते, सभी सोने के कौर नही खाते। िकतनो के पेट भर भोजन भी नही िमलता; पर घर से
िवरकत वही होते है, जो मातृ-सनेह से वंिचत है।
िसयाराम घर की ओर चला ही िक सहसा बाबा परमाननद एक गली से आते िदखायी
िदये।
िसयाराम ने जाकर उनका हाथ पकड िलया। परमाननद ने चौककर पूछा- बचचा, तुम
यहा कहा?
िसयाराम ने बात बनाकर कहा- एक दोसत से िमलने आया था। आपका सथान यहा से
िकतनी दरू है?
परमाननद- हम लोग तो आज यहा से जा रहे है, बचचा, हिरदार की याता है।
िसयाराम ने हतोतसाह होकर कहा- कया आज ही चले जाइएगा?
परमाननद- हा बचचा, अब लौटकर आऊंगा, तो दशरन दंगू ा?
िसयाराम ने कात कंठ से कहा- मै भी आपके साथ चलूंगा।
परमाननद- मेरे साथ! तुमहारे घर के लोग जाने देगे?
िसयाराम- घर के लोगो को मेरी कया परवाह है? इसके आगे िसयाराम और कुछ सन
कह सका। उसके अशु-पूिरत नेतो ने उसकी करणा
-गाथा उससे कही िवसतार के साथ सुना दी, िजतनी उसकी वाणी कर सकती थी।
परमाननद ने बालक को कंठ से लगाकर कहा- अचछा बचच, तेरी इचछा हो तो चल।
साधु-सनतो की संगित का आननद उठा। भगवान् की इचछा होगी, तो तेरी इचछा पूरी होगी।
दाने पर मणडराता हुआ पकी अनत मे दाने पर िगर पडा। उसके जीवन का अनत िपंजरे
मे होगा या वयाध की छुरी के तले- यह कौन जानता है?

पपपप

मुंशीजी पाच बजे कचहरी से लौटे और अनदर आकर चारपाई पर िगर पडे। बुढापे की देह,
उस पर आज सारे िदन भोजन न िमला। मुंह सूख गया। िनमरला समझ गयी, आज िदन
खाली गया िनमरला ने पूछा- आज कुछ न िमला।
मुंशीजी- सारा िदन दौडते गुजरा, पर हाथ कुछ न लगा।
िनमरला- फौजदारी वाले मामले मे कया हुआ?
मुंशीजी- मेरे मुविकल को सजा हो गयी।
िनमरला- पंिडत वाले मुकदमे मे?
मुंशीजी- पंिडत पर िडगी हो गयी।
िनमरला- आप तो कहते थे, दावा खिरज हो जायेगा।
मुंशीजी- कहता तो था, और जब भी कहता हूं िक दावा खािरज हो जाना चािहए था,
मगर उतना िसर मगजन कौन करे?
िनमरला- और सीरवाले दावे मे?
मुंशीजी- उसमे भी हार हो गयी।
िनमरला- तो आज आप िकसी अभागे का मुंह देखकर उठे थे।
मुंशीजी से अब काम िबलकुल न हो सकता था एक तो उसके पास मुकदमे आते ही न
थे और जो आते भी थे, वह िबगड जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह िनमरला से
िछपाते रहते थे। िजस िदन कुछ हाथ न लगता, उस िदन िकसी से दो-चार रपये उधार

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लाकर िनमरला को देत,े पाय: सभी िमतो से कुछ-न-कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न
लगा।
िनमरला ने िचनतापूणर सवर मे कहा- आमदनी का यह हाल है, तो ईशशर ही मािलक है,
उसक पर बेटे का यह हाल है िक बाजार जाना मुिशकल है। भूंगी ही से सब काम कराने को
जी चाहता है। घी लेकर गयारह बजे लौटा। िकतना कहकर हार गयी िक लकडी लेते आओ,
पर सुना ही नही।
मुंशीजी- तो खाना नही पकाया?
िनमरला- ऐसी ही बातो से तो आप मुकदमे हारते है। ईधन के िबना िकसी ने खाना
बनाया है िक मै ही बना लेती?
मुंशीजी- तो िबना कुछ खाये ही चला गया।
िनमरला- घर मे और कया रखा था जो िखला देती?
मुंशीजी ने डरते-डरते कहका- कुछ पैसे-वैसे न दे िदये?
िनमरला ने भौहे िसकोडकर कहा- घर मे पैसे फलते है न?
मुंशीजी ने कुछ जवाब न िदया। जरा देर तक तो पतीका करते रहे िक शायद जलपान के िलए
कुछ िमलेगा, लेिकन जब िनमरला ने पानी तक न मंगवाय, तो बेचारे िनराश होकर चले गये।
िसयाराम के कष का अनुमान करके उनका िचत चचंल हो उठा। एक बार भूंगी ही से
लकडी मंगा ली जाती, तो ऐसा कया नुकसान हो जाता? ऐसी िकफायत भी िकस काम की िक
घर के आदमी भूखे रह जाये। अपना संदक ू चा खोलकर टटोलने लगे िक शायद दो-चार आने
पैसे िमल जाये। उसके अनदर के सारे कागज िनकाल डाले, एक-एक, खाना देखा, नीचे हाथ
डालकर देखा पर कुछ न िमला। अगर िनमरला के सनदक ू मे पैसे न फलते थे , तो इस
सनदक ू चे मे शायद इसके फूल भी न लगते हो, लेिकन संयोग ही किहए िक कागजो को
झाडकते हुए एक चवनी िगर पडी। मारे हषर के मुंशीजी उछल पडे। बडी-बडी रकमे इसके
पहले कमा चुके थे, पर यह चवनी पाकर इस समय उनहे िजतना आहाद हुआ, उनका पहले
कभी न हुआ था। चवनी हाथ मे िलए हुए िसयाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा। कोई
जवाब न िमला। तब कमरे मे जाकर देखा। िसयाराम का कही पता नही- कया अभी सकूल से
नही लौटा? मन मे यह पश उठते ही मुंशीजी ने अनदर जाकर भूंगी से पूछा। मालूम हुआ सकूल
से लौट आये।
मुंशीजी ने पूछा- कुछ पानी िपया है?
भूंगी ने कुछ जवाब न िदया। नाक िसकोडकर मुंह फेरे हुए चली गयी।
मुंशीजी अिहसता-आिहसता आकर अपने कमरे मे बैठ गये। आज पहली बार उनहे
िनमेला पर कोध आया, लेिकन एक ही कण कोध का आघात अपने ऊपर होने लगा। उस
अंधेरे कमेरे मे फशर पर लेटे हुए वह अपने पुत की ओर से इतना उदासीन हो जाने पर
िधकारने लगे। िदन भर के थके थे। थोडी ही देर मे उनहे नीद आ गयी।
भूंगी ने आकर पुकारा- बाबूजी, रसोई तैयार है।
मुंशीजी चौककर उठ बैठे। कमरे मे लैमप जल रहा था पूछा- कै बज गये भूंगी? मुझे तो
नीद आ गयी थी।
भूंगी ने कहा- कोतवाली के घणटे मे नौ बज गये है और हम नाही जािनत।
मुंशीजी- िसया बाबू आये?
भूंगी- आये होगे, तो घर ही मे न होगे।
मुंशीजी ने झललाकर पूछा- मै पूछता हूं, आये िक नही? और तू न जाने कया-कया जवाब
देती है? आये िक नही?
भूंगी- मैने तो नही देखा, झूठ कैसे कह दं।

मुंशीजी िफर लेट गये और बोले- उनको आ जाने दे, तब चलता हूं।

92
आध घंटे दार की ओर आंख लगाए मुंशीजी लेटे रहे, तब वह उठकर बाहर आये और
दािहने हाथ कोई दो फलाग तक चले। तब लौटकर दार पर आये और पूछा- िसया बाबू आ
गये?
अनदर से आवाज आयी- अभी नही।
मुंशीजी िफर बायी ओर चले और गली के नुकड तक गये। िसयाराम कही िदखाई न
िदया। वहा से िफर घर आये और दारा पर खडे होकर पूछा- िसया बाबू आ गये?
अनदर से जवाब िमला- नही।
कोतवाली के घंटे मे दस बजने लगे।
मुंशीजी बडे वेग से कमपनी बाग की तरफ चले। सोचन लगे, शायद वहा घूमने गया हो
और घास पर लेटे-लेट नीद आ गयी हो। बाग मे पहंुचकर उनहोने हरेक बेच को देखा, चारो
तरफ घूमे, बहुते से आदमी घास पर पडे हुए थे, पर िसयाराम का िनशान न था। उनहोने
िसयाराम का नाम लेकर जोर से पुकारा, पर कही से आवाज न आयी।
खयाल आया शायद सकूल मे तमाशा हो रहा हो। सकूल एक मील से कुछ जयादा ही
था। सकूल की तरफ चले, पर आधे रासते से ही लौट पडे। बाजार बनद हो गया था। सकूल
मे इतनी रात तक तमाशा नही हो सकता। अब भी उनहे आशा हो रही थी िक िसयाराम लौट
आया होगा। दार पर आकर उनहोने पुकारा- िसया बाबू आये? िकवाड बनद थे। कोई आवाज न
आयी। िफर जोर से पुकारा। भूंगी िकवाड खोलकर बोली- अभी तो नही आये। मुंशीजी ने
धीरे से भूंगी को अपने पास बुलाया और करण सवर मे बोले- तू ता घर की सब बाते जानती
है, बता आज कया हुआ था?
भूंगी- बाबूजी, झूठ न बोलूंगी, मालिकन छुडा देगी और कया? दस
ू रे का लडका इस तरह
नही रखा जाता। जहा कोई काम हुआ, बस बाजार भेज िदया। िदन भर बाजार दौडते बीतता
था। आज लकडी लाने न गये, तो चूला ही नही जला। कहो तो मुंह फुलावे। जब आप ही
नही देखते, तो दस ू रा कौन देखेगा? चिलए, भोजन कर लीिजए, बहूजी कब से बैठी है।
मुंशीजी- कह दे, इस वकत नही खायेगे।
मुंशीजी िफर अपने कमेरे मे चले गये और एक लमबी सास ली। वेदना से भरे हुए ये
शबद उनके मुंह से िनकल पडे- ईशर, कया अभी दणड पूरा नही हुआ? कया इस अंधे की लकडी
को हाथ से छीन लोगे?
िनमरला ने आकर कहा- आज िसयाराम अभी तक नही आये। कहती रही िक खाना
बनाये देती हूं, खा लो मगर सन जाने कब उठकर चल िदये! न जाने कहा घूम रहे है। बात तो
सुनते ही नही। कब तक उनकी राह देखा कर! आप चलकर खा लीिजए, उनके िलए खाना
उठाकर रख दंगू ी।
मुंशीजी ने िनमरला की ओर कठारे नेतो से देखकर कहा- अभी कै बजे होगे?
िनमरल- कया जाने , दस बजे होगे।
मुंशीजी- जी नही, बारह बजे है।
िनमरला- बारह बज गये? इतनी देर तो कभी न करते थे। तो कब तक उनकी राह
देखोगे! दोपहर को भी कुछ नही खाया था। ऐसा सैलानी लडका मैने नही देखा।
मुंशीजी- जी तुमहे िदक करता है, कयो?
िनमरला- देिखये न, इतना रात गयी और घर की सुध ही नही।
मुंशीजी- शायद यह आिखरी शरारत हो।
िनमरला- कैसी बाते मुंह से िनकालते है? जायेगे कहा? िकसी यार-दोसत के यहा पड रहे
होगे।
मुंशीजी- शायद ऐसी ही हो। ईशर करे ऐसा ही हो।
िनमरला- सबेरे आवे, तो जरा तमबीह कीिजएगा।
मुंशीजी- खूब अचछी तरह करं गा।

93
िनमरला- चिलए, खा लीिजए, दरू बहुत हुई।
मुंशीजी- सबेरे उसकी तमबीह करके खाऊंगा, कही न आया, तो तुमहे ऐसा ईमानदान
नौकर कहा िमलेगा?
िनमरला ने ऐंठकर कहा- तो कया मैने भागा िदया?
मुंशीजी- नही, यह कौन कहता है? तुम उसे कयो भगाने लगी। तुमहारा तो काम करता
था, शामत आ गयी होगी।
िनमरला ने और कुछ नही कहा। बात बढ जाने का भय था। भीतर चली आयीय।
सोने को भी न कहा। जरा देर मे भूंगी ने अनदर से िकवाड भी बनद कर िदये।
कया मुंशीजी को नीद आ सकती थी? तीन लडको मे केवल एक बच रहा था। वह भी
हाथ से िनकल गया, तो िफर जीवन मे अंधकार के िसवाय और है? कोई नाम लेनेवाल भी नही
रहेगा। हा! कैसे-कैसे रत हाथ से िनकल गये? मुंशीजी की आंखो से अशुधारा बह रही थी, तो
कोई आशयर है? उस वयापक पशाताप, उस सघन गलािन-ितिमर मे आशा की एक हलकी-सी
रेखा उनहे संभाले हुए थी। िजस कण वह रेखा लुपत हो जायेगी, कौन कह सकता है, उन पर
कया बीतेगी? उनकी उस वेदना की कलपना कौन कर सकता है?
कई बार मुंशीजी की आंखे झपकी, लेिकन हर बार िसयाराम की आहट के धोखे मे
चौक पडे।
सबेरा होते ही मुंशीजी िफर िसयाराम को खोजने िनकले। िकसी से पूछते शमर आती
थी। िकस मुंह से पूछे? उनहे िकसी से सहानुभूित की आशा न थी। पकट न कहकर मन मे
सब यही कहेगे, जैसा िकया, वैसा भोगो! सारे दिन वह सकूल के मैदानो, बाजारो और बगीचो
का चकर लगाते रहे, दो िदन िनराहार रहने पर भी उनहे इतनी शिकत कैसे हईु , यह वही जाने।
रात के बारह बजे मुंशीजी घर लौटे, दरवाजे पर लालटेन जल रही थी, िनमरला दार पर
खडी थी। देखते ही बोली- कहा भी नही, न जाने कब चल िदये। कुछ पता चला?
मुंशीजी ने आगनेय नेतो से ताकते हुए कहा- हट जाओ सामने से, नही तो बुरा होगा। मै
आपे मे नही हूं। यह तुमहारी करनी है। तुमहारे ही कारण आज मेरी यह दशा हो रही है। आज
से छ: साल पहले कया इस घर की यह दशा थी? तुमने मेरा बना-बनाया घर िबगाड िदया, तुमने
मेरे लहलहाते बाग को उजाड डाला। केवल एक ठूंठ रह गया है। उसका िनशान िमटाकर
तभी तुमहे सनतोष होगा। मै अपना सवरनाश करने के िलए तुमहे घर नही जाया था। सुखी
जीवन को और भी सुखमय बनाना चाहता था। यह उसी का पायिशत है। जो लडके पान की
तरह फेरे जाते थे, उनहे मेरे जीते-जी तुमने चाकर समझ िलया और मै आंखो से सब कुछ
देखते हुए भी अंधा बना बैठा रहा। जाओ, मेरे िलए थोडा-सा संिखया भेज दो। बस, यही
कसर रह गयी है, वह भी पूरी हो जाये।
िनमरला ने रोते हुए कहा- मै तो अभािगन हूं ही, आप कहेगे तब जानूंगी? ने जाने ईशर ने
मुझे जनम कयो िदया था? मगर यह आपने कैसे समझ िलया िक िसयाराम आवेगे ही नही?
मुंशीजी ने अपने कमरे की ओर जाते हुए कहा- जलाओ मत जाकर खुिशया मनाओ।
तुमहारी मनोकामना पूरी हो गयी।
िनमरला सारी रात रोती रही। इतना कलंक! उसने िजयाराम को गहने ले जाते देखने
पर भी मुंह खोलने का साहस नही िकया। कयो? इसीिलए तो िक लोग समझेगे िक यह िमथया
दोषारोपण करके लडके से वैर साध रही है। आज उसके मौन रहने पर उसे अपरािधनी
ठहराया जा रहा है। यिद वह िजयाराम को उसी कण रोक देती और िजयाराम लजजावश कही
भाग जाता, तो कया उसके िसर अपराध न मढा जाता?
िसयाराम ही के साथ उसने कौन-सा दुवयरवहार िकया था। वह कुछ बचत करने के
िलए ही िवचार से तो िसयाराम से सौदा मंगवाया करती थी। कया वह बचत करके अपने िलए
गहने गढवाना चाहती थी? जब आमदनी की यह हाल हो रहा था तो पैसे-पैसे पर िनगाह रखने
के िसवाय कुछ जमा करने का उसके पास और साधान ही कया था? जवानो की िजनदगी का

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तो कोई भरोसा ही नही, बूढो की िजनदगी का कया िठकाना? बचची के िववाह के िलए वह
िकसके सामने हाथ फैलती? बचची का भार कुद उसी पर तो नही था। वह केवल पित की
सुिवधा ही के िलए कुछ बटोरने का पयत कर रही थी। पित ही की कयो? िसयाराम ही तो
िपता के बाद घर का सवामी होता। बिहन के िववाह करने का भार कया उसके िसर पर न
पडता? िनमरला सारी कतर- वयोत पित और पुत का संकट-मोचन करने ही के िलए कर रही
थी। बचची का िववाह इस पिरिसथित मे सकंट के िसवा और कया था? पर इसके िलए भी
उसके भागय मे अपयश ही बदा था।
दोपहर हो गयी, पर आज भी चूला नही जला। खाना भी जीवन का काम है, इसकी
िकसी को सुध ही नथी। मुंशीजी बाहर बेजान-से पडे थे और िनमरला भीतर थी। बचची कभी
भीतर जाती, कभी बाहर। कोई उससे बोलने वाला न था। बार-बार िसयाराम के कमरे के दार
पर जाकर खडी होती और ‘बैया-बैया’ पुकारती, पर ‘बैया’ कोई जवाब न देता था।
संधया समय मुंशीजी आकर िनमरला से बोले- तुमहारे पास कुछ रपये है?
िनमरला ने चौककर पूछा- कया कीिजएगा।
मुंशीजी- मै जो पूछता हूं, उसका जवाब दो।
िनमरला- कया आपको नही मालूम है? देनेवाले तो आप ही है।
मुंशीजी- तुमहारे पास कुछ रपये है या नही अगेर हो, तो मुझे दे दो, न हो तो साफ
जवाब दो।
िनमरला ने अब भी साफ जवाब न िदया। बोली- होगे तो घर ही मे न होगे। मैने कही
और नही भेज िदये।
मुंशीजी बाहर चले गये। वह जानते थे िक िनमरला के पास रपये है, वासतव मे थे भी।
िनमरला ने यह भी नही कहा िक नही है या मै न दंगू ी, उर उसकी बातो से पकट हो यगया िक
वह देना नही चाहती।
नौ बजे रात तो मुंशीजी ने आकर रिकमणी से काह- बहन, मै जरा बाहर जा रहा हूं।
मेरा िबसतर भूंगी से बंधवा देना और टंक मे कुछ कपडे रखवाकर बनद कर देना ।
रिकमणी भोजन बना रही थी। बोली- बहू तो कमेरे मे है, कह कयो नही देते? कहा जाने
का इरादा है?
मुंशीजी- मै तुमसे कहता हूं, बहू से कहना होता, तो तुमसे कयो कहाता? आज तुमे कयो
खाना पका रही हो?
रिकमणी- कौन पकावे? बहू के िसर मे ददर हो रहा है। आिखरइस वकत कहा जा रहे
हो? सबेरे न चले जाना।
मुंशीजी- इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन िदन हो गये। इधर-इधर घूम-घामकर
देख,ूं शायद कही िसयाराम का पता िमल जाये। कुछ लोग कहते है िक एक साधु के साथ
बाते कर रहा था। शायद वह कही बहका ले गया हो।
रिकमणी- तो लौटोगे कब तक?
मुंशीजी- कह नही सकता। हफता भर लग जाये महीना भर लग जाये। कया िठकाना
है?
रिकमणी- आज कौन िदन है? िकसी पंिडत से पूछ िलया है िक नही?
मुंशीजी भोजन करने बैठे। िनमरला को इस वकत उन पर बडी दया आयी। उसका
सारा कोध शानत हो गया। खुद तो न बोली, बचची को जगाकर चुमकारती हुई बोली- देख, तेरे
बाबूजी कहा जो रहे है? पूछ तो?
बचची ने दार से झाककर पूछा- बाबू दी, तहा दाते हो?
मुंशीजी- बडी दरू जाता हूं बेटी, तुमहारे भैया को खोजने जाता हूं। बचची ने वही से
खडे-खडे कहा- अम बी तलेगे।
मुंशीजी- बडी दरू जाते है बचची, तुमहारे वासते चीजे लायेगे। यहा कयो नही आती?

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बचची मुसकराकर िछप गयी और एक कण मे िफर िकवाड से िसर िनकालकर बोली-
अम बी तलेगे।
मुंशीजी ने उसी सवर मे कहा- तुमको नहर ले तलेगे।
बचची- हमको कयो नई ले तलोगे?
मुंशीजी- तुम तो हमारे पास आती नही हो।
लडकी ठुमकती हुई आकर िपता की गोद मे बैठ गयी। थोडी देर के िलए मुंशीजी
उसकी बाल-कीडा मे अपनी अनतवेदना भूल गये।
भोजन करके मुंशीजी बाहर चले गये। िनमरला खडेकी ताकती रही। कहना चाहती
थी- वयथर जो रहे हो, पर कह न सकती थी। कुछ रपये िनकाल कर देने का िवचार करती
थी, पर दे न सकती थी।
अंत को न रहा गया, रिकमणी से बोली- दीदीजी जरा समझा दीिजए, कहा जा रहे है!
मेरी जबान पकडी जायेगी, पर िबना बोले रहा नही जाता। िबना िठकाने कहा खोजेगे? वयथर की
हैरानी होगी।
रिकमणी ने करणा-सूचक नेतो से देखा और अपने कमरे मे चली गई।
िनमरला बचची को गोद मे िलए सोच रही थी िक शायद जाने के पहले बचची को देखने
या मुझसे िमलने के िलए आवे, पर उसकी आशा िवफल हो गई? मुंशीजी ने िबसतर उठाया और
तागे पर जा बैठे।
उसी वकत िनमरला का कलेजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान पडा िक इनसे भेट न
होगी। वह अधीर होकर दार पर आई िक मुंशीजी को रोक ले, पर तागा चल चुका था।

पपपपपप

िद न न गुजरने लगे। एक महीना पूरा िनकल गया, लेिकन मुंशीजी न लौटे। कोई खत भी
न भेजा। िनमरला को अब िनतय यही िचनता बनी रहती िक वह लौटकर न आये तो कया
होगा? उसे इसकी िचनता न होती थी िक उन पर कया बीत रही होगी, वह कहा मारे-मारे िफरते
होगे, सवासथय कैसा होगा? उसे केवल अपनी औंर उससे भी बढकर बचची की िचनता थी।
गृहसथी का िनवाह कैसे होगा? ईशर कैसे बेडा पार लगायेगे? बचची का कया हाल होगा? उसने
कतर-वयोत करके जो रपये जमा कर रखे थे, उसमे कुछ-न-कुछ रोज ही कमी होती जाती
थी। िनमरला को उसमे से एक-एक पैसा िनकालते इतनी अखर होती थी, मानो कोई उसकी
देह से रकत िनकाल रहा हो। झुझ ं लाकर मुंशीजी को कोसती। लडकी िकसी चीज के िलए
रोती, तो उसे अभािगन, कलमुंही कहकर झललाती। यही नही, रिकमणी का घर मे रहना उसे
ऐसा जान पडता था, मानो वह गदरन पर सवार है। जब हृदय जलता है, तो वाणी भी अिगनमय
हो जाती है। िनमरला बडी मधुर-भािषणी सती थी, पर अब उसकी गणना ककरशाओ मे की जा
सकती थी। िदन भर उसके मुख से जली-कटी बाते िनकला करती थी। उसके शबदो की
कोमलता न जाने कया हो गई! भावो मे माधुयर का कही नाम नही। भूंगी बहुत िदनो से इस घर
मे नौकर थी। सवभाव की सहनशील थी, पर यह आठो पहहर की बकबक उससे भी न सकी
गई। एक िदन उसने भी घर की राह ली। यहा तक िक िजस बचची को पाणो से भी अिधक
पयार करती थी, उसकी सूरत से भी घृणा हो गई। बात-बात पर घुडक पडती, कभी-कभी मार
बैठती। रिकमणी रोई हुई बािलका को गोद मे बैठा लेती और चुमकार-दुलार कर चुप कराती।
उस अनाथ के िलए अब यही एक आशय रह गया था।
िनमेला को अब अगर कुछ अचछा लगता था, तो वह सुधा से बात करना था। वह वहा
जाने का अवसर खोजती रहती थी। बचची को अब वह अपने साथ न ले जाना चाहती थी।
पहले जब बचची को अपने घर सभी चीजे खाने को िमलती थी, तो वह वहा जाकर हंसती-
खेलती थी। अब वही जाकर उसे भूख लगती थी। िनमरला उसे घूर -घूरकर देखती, मुिटठया-

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बाधकर धमकाती, पर लडकी भूख की रट लगाना न छोडती थी। इसिलए िनमरला उसे साथ
न ले जाती थी। सुधा के पास बैठकर उसे मालूम होता था िक मै आदमी हूं। उतनी देर के
िलए वह िचंताआं से मुकत हो जाती थी। जैसे शराबी शराब के नशे मे सारी िचनताएं भूल जाता
है, उसी तरह िनमरला सुधा के घर जाकर सारी बाते भूल जाती थी। िजसने उसे उसके घर
पर देखा हो, वह उसे यहा देखकर चिकत रह जाता। वही ककरशा, कटु-भािषणी सती यहा
आकर हासयिवनोद और माधुयर की पुतली बन जाती थी। यौवन-काल की सवाभािवक वृितया
अपने घर पर रासता बनद पाकर यहा िकलोले करने लगती थी। यहा आते वकत वह माग-
चोटी, कपडे-लते से लैस होकर आती और यथासाधय अपनी िवपित कथा को मन ही मे रखती
थी। वह यहा रोने के िलए नही, हंसने के िलए आती थी।
पर कदािचत् उसके भागय मे यह सुख भी नही बदा था। िनमरला मामली तौर से दोपहर
को या तीसरे पहर से सुधा के घर जाया करती थी। एक िदन उसका जी इतना ऊबा िक
सबेरे ही जा पहंुची। सुधा नदी सनान करने गई थी, डॉकटर साहब असपताल जाने के िलए
कपडे पहन रहे थे। महरी अपने काम-धंधे मे लगी हुई थी। िनमरला अपनी सहेली के कमरे मे
जाकर िनिशनत बैठ गई। उसने समझा-सुधा कोई काम कर रही होगी, अभी आती होगी। जब
बैठे दो-िदन िमनट गुजर गये, तो उसने अलमारी से तसवीरो की एक िकताब उतार ली और
केश खोल पलंग पर लेटकर िचत देखने लगी। इसी बीच मे डॉकटर साहब को िकसी जररत
से िनमरला के कमरे मे आना पडा। अपनी ऐनक ढू ंढते िफरते थे। बेधडक अनदर चले आये।
िनमरला दार की ओर केश खोले लेटी हुई थी। डॉकटर साहब को देखते ही चौककार उठ बैठी
और िसर ढाकती हुई चारपाई से उतकर खडी हो गई। डॉकटर साहब ने लौटते हुए िचक के
पास खडे होकर कहा- कमा करना िनमरला, मुझे मालूम न था िक यहा हो! मेरी ऐनक मेरे कमरे
मे नही िमल रही है, न जाने कहा उतार कर रख दी थी। मैने समझा शायद यहा हो।
िनमरला सने चारपाई के िसरहाने आले पर िनगाह डाली तो ऐनक की िडिबया िदखाई
दी। उसने आगे बढकर िडिबया उतार ली, और िसर झुकाये, देह समेटे, संकोच से डॉकटर
साहब की ओर हाथ बढाया। डॉकटर साबह ने िनमरला को दो-एक बार पहले भी देखा था, पर
इस समय के-से भाव कभी उसके मन मे न आये थे। िजस जवाजा को वह बरसो से हृदय मे
दवाये हुए थे, वह आज पवन का झोका पाकर दहक उठी। उनहोने ऐनक लेने के िलए हाथ
बढाया, तो हाथ काप रहा था। ऐनक लेकर भी वह बाहर न गये, वही खोए हुए से खडे रहे।
िनमरला ने इस एकानत से भयभीत होकर पूछा- सुधा कही गई है कया?
डॉकटर साहब ने िसर झुकाये हुए जवाब िदया- हा, जरा सनान करने चली गई है।
िफर भी डॉकटर साहब बाहन न गये। वही खडे रहे। िनमरला ने िफश पूछा- कब तक
आयेगी?
डॉकटर साहब ने िसर झुकाये हुए केहा- आती होगी।
िफर भी वह बाहर नही आये। उनके मन मे घारे दनद मचा हुआ था। औिचतय का बंधन नही,
भीरता का कचचा तागा उनकी जबान को रोके हुए था। िनमरला ने िफर कहा- कही घूमने -
घामने लगी होगी। मै भी इस वकत जाती हूं।
भीरता का कचचा तागा भी टू ट गया। नदी के कगार पर पहंुच कर भागती हुई सेना मे
अदुत शिकत आ जाती है। डॉकटर साहब ने िसर उठाकर िनमरला को देखा और अनुराग मे
डू बे हुए सवर मे बोले- नही, िनमरला, अब आती हो होगी। अभी न जाओ। रोज सुधा की खाितर
से बैठती हो, आज मेरी खाितर से बैठो। बताओ, कम तक इस आग मे जला कर? सतय
कहता हूं िनमरला...।
िनमरला ने कुछ और नही सुना। उसे ऐसा जान पडा मानो सारी पृथवी चकर खा रही
है। मानो उसके पाणो पर सहसो वजो का आघात हो रहा है। उसने जलदी से अलगनी पर
लटकी हुई चादर उतार ली और िबना मुंह से एक शबद िनकाले कमरे से िनकल गई। डॉकटर

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साहब िखिसयाये हुए-से रोना मुंह बनाये खडे रहे! उसको रोकने की या कुछ कहने की िहममत
न पडी।
िनमरला जयोही दार पर पहंुची उसने सुधा को तागे से उतरते देखा। सुधा उसे िनमरला
ने उसे अवसर न िदया, तीर की तरह झपटकर चली। सुधा एक कण तक िवसमेय की दशा मे
खडी रही। बात कया है, उसकी समझ मे कुछ न आ सका। वह वयग हो उठी। जलदी से
अनदर गई महरी से पूछने िक कया बात हुई है। वह अपराधी का पता लगायेगी और अगर उसे
मालूम हुआ िक महरी या और िकसी नौकर से उसे कोई अपमान-सूचक बात कह दी है, तो वह
खडे-खडे िनकाल देगी। लपकी हुई वह अपने कमरे मे गई। अनदर कदम रखते ही डॉकटर
को मुंह लटकाये चारपाई पर बैठे देख। पूछा- िनमरला यहा आई थी?
डॉकटर साहब ने िसर खुजलाते हुए कहा- हा, आई तो थी।
सुधा- िकसी महरी-अहरी ने उनहे कुछ कहा तो नही? मुझसे बोली तक नही, झपटकर
िनकल गई।
डॉकटी साहब की मुख-कािनत मिजन हो गई, कहा- यहा तो उनहे िकसी ने भी कुछ नही
कहा।
सुधा- िकसी ने कुछ कहा है। देखो, मै पूछती हूं न, ईशर जानता है, पता पा जाऊंगी,
तो खडे-खडे िनकाल दंगू ी।
डॉकटर साहब िसटिपटाते हुए बोले- मैने तो िकसी को कुछ कहते नही सुना। तुमहे
उनहोने देखा न होगा।
सुधा-वाह, देखा ही न होगा! उसनके सामने तो मै तागे से उतरी हूं। उनहोने मेरी ओर
ताका भी, पर बोली कुद नही। इस कमरे मे आई थी?
डॉकटर साहब के पाण सूखे जा रहे थे। िहचिकचाते हुए बोले- आई कयो नही थी।
सुधा- तुमहे यहा बैठे देखकर चली गई होगी। बस, िकसी महरी ने कुछ कह िदया
होगा। नीच जात है न, िकसी को बात करने की तमीज तो है नही। अरे, ओ सुनदिरया, जरा
यहा तो आ!
डॉकटर- उसे कयो बुलाती हो, वह यहा से सीधे दरवाजे की तरफ गई। महिरयो से बात
तक नही हुई।
सुधा- तो िफर तुमही ने कुछ कह िदया होगा।
डॉकटर साहब का कलेजा धक्-धक् करने लगा। बोले- मै भला कया कह देता कया
ऐसा गंवाह हूं?
सुधा- तुमने उनहे आते देखा, तब भी बैठे रह गये?
डॉकटर- मै यहा था ही नही। बाहर बैठक मे अपनी ऐनक ढू ंढता रहा, जब वहा न
िमली, तो मैने सोचा, शायद अनदर हो। यहा आया तो उनहे बैठे देखा। मै बाहर जाना चाहता
था िक उनहोने खुद पूछा- िकसी चीज की जररत है? मैने कहा- जरा देखना, यहा मेरी ऐनक
तो नही है। ऐनक इसी िसरहाने वाले ताक पर थी। उनहोने उठाकर दे दी। बस इतनी ही बात
ह ुई।
सुधा- बस, तुमहे ऐनक देते ही वह झललाई बाहर चली गई? कयो?
डॉकटर- झललाई हुई तो नही चली गई। जाने लगी, तो मैने कहा- बैिठए वह आती
होगी। न बैठी तो मै कया करता?
सुधा ने कुछ सोचकर कहा- बात कुछ समझ मे नही आती, मै जरा उसके पास जाती
हूं। देख,ूं कया बात है।
डॉकटर-तो चली जाना ऐसी जलदी कया है। सारा िदन तो पडा हुआ है।
सुधा ने चादर ओढते हुऐ कहा- मेरे पेट मे खलबली माची हुई है, कहते हो जलदी है?

98
सुधा तेजी से कदम बढती हुई िनमरला के घर की ओर चली और पाच िमनट मे जा
पहंच
ु ी? देखा तो िनमरला अपने कमरे मे चारपाई पर पडी रो रही थी और बचची उसके पास
खडी रही थी- अममा, कयो लोती हो?
सुधा ने लडकी को गोद मे उठा िलया और िनमरला से बोली-बिहन, सच बताओ, कया
बात है? मेरे यहा िकसी ने तुमहे कुछ कहा है? मै सबसे पूछ चुकी, कोई नही बतलाता।
िनमरला आंसू पोछती हुई बोली- िकसी ने कुछ कहा नही बिहन, भला वहा मुझे कौन
कुछ कहता?
सुधा- तो िफर मुझसे बोली कयो नही ओर आते-ही-आते रोने लगी?
िनमरला- अपने नसीबो को रो रही हूं, और कया।
सुधा- तुम यो न बतलाओगी, तो मै कसम दंगू ी।
िनमरला- कसम-कसम न रखाना भाई, मुझे िकसी ने कुछ नही कहा, झूठ िकसे लगा दं?ू
सुधा- खाओ मेरी कसम।
िनमरला- तुम तो नाहक ही िजद करती हो।
सुधा- अगर तुमने न बताया िनमरला, तो मै समझूंगी, तुमहे जरा भी पेम नही है। बस,
सब जबानी जमा- खचर है। मै तुमसे िकसी बात का पदा नही रखती और तुम मुझे गैर
समझती हो। तुमहारे ऊपर मुझे बडा भरोसा थ। अब जान गई िक कोई िकसी का नही
होता।
सुधा की आंखे सजल हो गई। उसने बचची को गोद से उतार िलया और दार की ओर
चली। िनमरला ने उठाकर उसका हाथ पकड िलया और रोती हईु बोली- सुधा, मै तुमहारे पैर
पडती हूं, मत पूछो। सुनकर दुख होगा और शायद मै िफर तुमहे अपना मुंह न िदखा सकूं। मै
अभिगनी ने होती, तो यह िदन िह कयो देखती? अब तो ईशर से यही पाथरना है िक संसार से
मुझे उठा ले। अभी यह दुगरित हो रही है, तो आगे न जाने कया होगा?
इन शबदो मे जो संकेत था, वह बुिदमती सुधा से िछपा न रह सका। वह समझ गई िक
डॉकटर साहब ने कुछ छेड-छाड की है। उनका िहचक-िहचककर बाते करना और उसके
पशो को टालना, उनकी वह गलािनमये, काितहीन मुदा उसे याद आ गई। वह िसर से पाव तक
काप उठी और िबना कुछ कहे-सुने िसंहनी की भाित कोध से भरी हुई दार की ओर चली।
िनमरला ने उसे रोकना चाहा, पर न पा सकी। देखते-देखते वह सडक पर आ गई और घर की
ओर चली। तब िनमरला वही भूिम पर बैठ गई और फूट-फूटकर रोने लगी।

पपपपपप

िनमरला िदन भर चारपाई पर पडी रही। मालूम होता है, उसकी देह मे पाण नही है। न सनान
िकया, न भोजन करने उठी। संधया समय उसे जवर हो आया। रात भर देह तवे की भाित
तपती रही। दस ू रे िदन जवर न उतरा। हा, कुछ-कुछ कमे हो गया था। वह चारपाई पर लेटी
हुई िनशल नेतो से दार की ओर ताक रही थी। चारो ओर शूनय था, अनदर भी शूनय बाहर भी
शूनय कोई िचनता न थी, न कोई समृित, न कोई दु :ख, मिसतषक मे सपनदन की शिकत ही न रही
थी।
सहसा रिकमणी बचची को गोद मे िलये हुए आकर खडी हो गई। िनमरला ने पूछा- कया
यह बहुत रोती थी?
रिकमणी- नही, यह तो िससकी तक नही। रात भर चुपचाप पडी रही, सुधा ने थोडा-
सा दधू भेज िदया था।
िनमरला- अहीिरन दधू न दे गई थी?
रिकमणी- कहती थी, िपछले पैसे दे दो, तो दं।
ू तुमहारा जी अब कैसा है?
िनमरला- मुझे कुछ नही हुआ है? कल देह गरम हो गई थी।

99
रिकमणी- डॉकटर साहब का बुरा हाल है?
िनमरला ने घबराकर पूछा- कया हुआ, कया? कुशल से है न?
रिकमणी- कुशल से है िक लाश उठाने की तैयारी हो रही है! कोई कहता है, जहर खा
िलया था, कोई कहता है, िदल का चलना बनद हो गया था। भगवान् जाने कया हुआ था।
िनमरला ने एक ठणडी सास ली और रं धे हुए कंठ से बोली- हाया भगवान्! सुधा की कया
गित होगी! कैसे िजयेगी?
यह कहते-कहते वह रो पडी और बडी देर तक िससकती रही। तब बडी मुिशकल से
उठकर सुधा के पास जाने को तैयार हुई पाव थर-थर काप रहे थे, दीवार थामे खडी थी, पर
जी न मानता था। न जाने सुधा ने यहा से जाकर पित से कया कहा? मैने तो उससे कुछ कहा
भी नही, न जाने मेरी बातो का वह कया मतलब समझी? हाय! ऐसे रपवान् दयालु, ऐसे सुशील
पाणी का यह अनत! अगर िनमरला को मालूम होत िक उसके कोध का यह भीषण पिरणाम होगा,
तो वह जहर का घूंट पीकर भी उस बात को हंसी मे उडा देती।
यह सोचकर िक मेरी ही िनषुरता के कारण डॉकटर साहब का यह हाल हुआ, िनमरला
के हृदय के टुकडे होने लगे। ऐसी वेदना होने लगी, मानो हृदय मे शूल उठ रहा हो। वह
डॉकटर साहब के घर चली।
लाश उठ चुकी थी। बाहर सनाटा छाया हुआ था। घर मे सतीया जमा थी। सुधा
जमीन पर बैठी रो रही थी। िनमरला को देखते ही वह जोर से िचललाकर रो पडी और आकर
उसकी छाती से िलपट गई। दोनो देर तके रोती रही।
जब औरतो की भीड कम हुई और एकानत हो गया, िनमरला ने पूछा- यह कया हो गया
बिहन, तुमने कया कह िदया?
सुधा अपने मन को इसी पश का उतर िकतनी ही बार दे चुकी थी। उसकी मन िजस
उतर से शात हो गया था, वही उतर उसने िनमरला को िदया। बोली- चुप भी तो न रह सकती
थी बिहन, कोध की बात पर कोध आती ही है।
िनमरला- मैने तो तुमसे कोई ऐसी बात भी न कही थी।
सुधा- तुम कैसे कहती, कह ही नही सकती थी, लेिकन उनहोने जो बात हुई थी, वह
कह दी थी। उस पर मैने जो कुद मुंह मे आया, कहा। जब एक बात िदल मे आ गई,तो उसे
हुआ ही समझना चािहये। अवसर और घात िमले, तो वह अवशय ही पूरी हो। यह कहकर
कोई नही िनकल सकता िक मैने तो हंसी की थी। एकानत मे एसा शबद जबान पर लाना ही
कह देता है िक नीयत बुरी थी। मैने तुमसे कभी कहा नही बिहन, लेिकन मैने उनहे कई बात
तुमहारी ओर झाकते देखा। उस वकत मैने भी यही समझा िक शायद मुझे धोखा हो रहा हो।
अब मालूम हुआ िक उसक ताक-झाक का कया मतलब था! अगर मैने दुिनया जयादा देखी
होती, तो तुमहे अपने घर न आने देती। कम-से-कम तुम पर उनकी िनगाह कभी ने पडने देती,
लेिकन यह कया जानती थी िक पुरषो के मुंह मे कुछ और मन मे कुछ और होता है। ईशर को
जो मंजूर था, वह हुआ। ऐसे सौभागय से मै वैधवय को बुर नही समझती। दिरद पाणी उस धनी
से कही सुखी है, िजसे उसका धन साप बनकर काटने दौडे। उपवास कर लेना आसान है,
िवषैला भोजन करन उससे कही मुंिशकल ।
इसी वकत डॉकटर िसनहा के छोटे भाई और कृषणा ने घर मे पवेश िकया। घर मे
कोहराम मच गया।

पपपपपपप

एकअकेमहीना और गुजर गया। सुधा अपने देवर के साथ तीसरे ही िदन चली गई। अब िनमरला
ली थी। पहले हंस-बोलकर जी बहला िलया करती थी। अब रोना ही एक काम रह
गया। उसका सवासथय िदन-िदन िबगडेकता गया। पुराने मकान का िकराया अिधक था।

100
दस ू रा मकान थोडे िकराये का िलया, यह तंग गली मे था। अनदर एक कमरा था और छोटा-
सा आंगन। न पकाशा जाता, न वायु। दुगरनध उडा करती थी। भोजन का यह हाल िक पैसे
रहते हुये भी कभी-कभी उपवास करना पडता था। बाजार से जाये कौन? िफर अपना कोई
मदर नही, कोई लडका नही, तो रोज भोजन बनाने का कष कौन उठाये? औरतो के िलये रोज
भोजन करेन की आवशयका ही कया? अगर एक वकत खा िलया, तो दो िदन के िलये छुटी हो
गई। बचची के िलए ताजा हलुआ या रोिटया बन जाती थी! ऐसी दशा मे सवासथय कयो न
िबगडता? िचनत, शोक, दुरवसथा, एक हो तो कोई कहे। यहा तो तयताप का धावा था। उस
पर िनमरला ने दवा खाने की कसम खा ली थी। करती ही कया? उन थोडे-से रपयो मे दवा की
गुंजाइश कहा थी? जहा भोजन का िठकाना न था, वहा दवा का िजक ही कया? िदन-िदन
सूखती चली जाती थी।
एक िदन रिकमणी ने कहा- बहु, इस तरक कब तक घुला करोगी, जी ही से तो जहान
है। चलो, िकसी वैद को िदखा लाऊं।
िनमरला ने िवरकत भाव से कहा- िजसे रोने के िलए जीना हो, उसका मर जाना ही
अचछा।
रिकमणी- बुलाने से तो मौत नही आती?
िनमरला- मौत तो िबन बुलाए आती है, बुलाने मे कयो न आयेगी? उसके आने मे बहुत िदन
लगेगे बिहन, जै िदन चलती हूं, उतने साल समझ लीिजए।
रिकमणी- िदल ऐसा छोटा मत करो बहू, अभी संसार का सुख ही कया देखा है?
िनमरला- अगर संसार की यही सुख है, जो इतने िदनो से देख रही ह,ूं तो उससे जी भर
गया। सच कहती हूं बिहन, इस बचची का मोह मुझे बाधे हुए है, नही तो अब तक कभी की
चली गई होती। न जाने इस बेचारी के भागय मे कया िलखा है?
दोनो मिहलाएं रोने लगी। इधर जब से िनमरला ने चारपाई पकड ली है, रिकमणी के
हृदय मे दया का सोता-सा खुल गया है। देष का लेश भी नही रहा। कोई काम करती हो,
िनमरला की आवाज सुनते ही दौडती है। घणटो उसके पास कथा-पुराण सुनाया करती है।
कोई ऐसी चीज पकाना चाहती है, िजसे िनमरला रिच से खाये। िनमरला को कभी हंसते देख
लेती है, तो िनहाल हो जाती है और बचची को तो अपने गले का हार बनाये रहती है। उसी की
नीद सोती है, उसी की नीद जागती है। वही बािलका अब उसके जीवन का आधार है।
रिकमणी ने जरा देर बाद कहा- बहू, तुम इतनी िनराश कयो होती हो? भगवान् चाहेगे, तो
तुम दो-चार िदन मे अचछी हो जाओगी। मेरे साथ आज वैदजी के पास चला। बडे सजजन
है।
िनमरला- दीदीजी, अब मुझे िकसी वैद, हकीम की दवा फायदा न करेगी। आप मेरी
िचनता न करे। बचची को आपकी गोद मे छोडे जाती हूं। अगर जीती-जागती रहे, तो िकसी
अचछे कुल मे िववाह कर दीिजयेगा। मै तो इसके िलये अपने जीवन मे कुछ न कर सकी,
केवल जनम देने भर की अपरािधनी हूं। चाहे कवारी रिखयेगा, चाहे िवष देकर मार डािलएग, पर
कुपात के गले न मिढएगा, इतनी ही आपसे मेरी िवनय है। मैने आपकी कुछ सेवा न की,
इसका बडा दु :ख हो रहा है। मुझ अभािगनी से िकसी को सुख नही िमला। िजस पर मेरी
छाया भी पड गई, उसका सवरनाश हो गया अगर सवामीजी कभी घर आवे, तो उनसे किहएगा
िक इस करम-जली के अपराध कमा कर दे।
रिकमणी रोती हुई बोली- बहू, तुमहारा कोई अपराध नही ईशर से कहती हूं, तुमहारी ओर
से मेरे मन मे जरा भी मैल नही है। हा, मैने सदैव तुमहारे साथ कपट िकया, इसका मुझे मरते
दम तक दु :ख रहेगा।
िनमरला ने कातर नेतो से देखते हुये केहा- दीदीजी, कहने की बात नही, पर िबना कहे
रहा नही जात। सवामीजी ने हमेशा मुझे अिवशास की दृिष से देखा, लेिकन मैने कभी मन मे
भी उनकी उपेका नही की। जो होना था, वह तो हो ही चुका था। अधमर करके अपना

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परलोक कयो िबगाडती? पूवर जनम मे न जाने कौन-सा पाप िकया था, िजसका वह पायिशत
करना पडा। इस जनम मे काटे बोती, तोत कौन गित होती?
िनमरला की सास बडे वेग से चलने लगी, िफर खाट पर लेट गई और बचची की ओर
एक ऐसी दृिष से देखा, जो उसके चिरत जीवन की संपूणर िवमतकथा की वृहद् आलोचना थी,
वाणी मे इतनी सामथयर कहा?
तीन िदनो तक िनमरला की आंखो से आंसुओं की धारा बहती रही। वह न िकसी से
बोलती थी, न िकसी की ओर देखती थी और न िकसी का कुछ सुनती थी। बस, रोये चली
जाती थी। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है?
चौथे िदन संधया समय वह िवपित कथा समापत हो गई। उसी समय जब पशु-पकी
अपने -अपने बसेरे को लौट रहे थे, िनमरला का पाण-पकी भी िदन भर िशकािरयो के िनशानो,
िशकारी िचिडयो के पंजो और वायु के पचंड झोको से आहत और वयिथत अपने बसेरे की ओर
उड गया।
मुहलले के लोग जमा हो गये। लाश बाहर िनकाली गई। कौन दाह करेगा, यह पश
उठा। लोग इसी िचनता मे थे िक सहसा एक बूढा पिथक एक बकुचा लटकाये आकर खडा हो
गया। यह मुंशी तोताराम थे।

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