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गोस्वामी तुलसीदास
िवरिचत
रामचिरतमानस
बालकाण्ड
ीगणेशाय नमः
ीरामचिरतमानस थम सोपान
बालकाण्ड
ोक
वणार्नामथर्संघानां रसानां छन्दसामिप ।
मङ्गलानां च क ार्रौ वन्दे वाणीिवनायकौ ॥ १ ॥
सीतारामगुण ामपुण्यारण्यिवहािरणौ ।
वन्दे िवशु िवज्ञानौ कबी रकपी रौ ॥ ४ ॥
उ विस्थितसंहारकािरणीं क्लेशहािरणीम ् ।
सवर् य
े स्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम ् ॥ ५ ॥
नानापुराणिनगमागमसम्मतं यद्
रामायणे िनगिदतं क्विचदन्यतोऽिप ।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषािनबन्धमितमञ्जुलमातनोित ॥ ७ ॥
सोरठा
जो सुिमरत िसिध होइ गन नायक किरबर बदन ।
करउ अनु ह सोइ बुि रािस सुभ गुन सदन ॥ १ ॥
दोहरा
जथा सुअंजन अंिज दृग साधक िस सुजान ।
कौतुक दे खत सैल बन भूतल भूिर िनधान ॥ १ ॥
दोहरा
सुिन समुझिहं जन मुिदत मन मज्जिहं अित अनुराग ।
लहिहं चािर फल अछत तनु साधु समाज याग ॥ २ ॥
दोहरा
बंदउँ संत समान िचत िहत अनिहत निहं कोइ ।
अंजिल गत सुभ सुमन िजिम सम सुगंध कर दोइ ॥ ३(क) ॥
बहिर
ु बंिद खल गन सितभाएँ । जे िबनु काज दािहनेहु बाएँ ॥
पर िहत हािन लाभ िजन्ह केरें । उजरें हरष िबषाद बसेरें ॥ १ ॥
हिर हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥
जे पर दोष लखिहं सहसाखी । पर िहत घृत िजन्ह के मन माखी ॥ २ ॥
तेज कृ सानु रोष मिहषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥
उदय केत सम िहत सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥ ३ ॥
पर अकाजु लिग तनु पिरहरहीं । िजिम िहम उपल कृ षी दिल गरहीं ॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥ ४ ॥
पुिन नवउँ पृथरु ाज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥
बहिर
ु स सम िबनवउँ तेही । संतत सुरानीक िहत जेही ॥ ५ ॥
बचन ब जेिह सदा िपआरा । सहस नयन पर दोष िनहारा ॥ ६ ॥
दोहरा
उदासीन अिर मीत िहत सुनत जरिहं खल रीित ।
जािन पािन जुग जोिर जन िबनती करइ स ीित ॥ ४ ॥
दोहरा
भलो भलाइिह पै लहइ लहइ िनचाइिह नीचु ।
सुधा सरािहअ अमरताँ गरल सरािहअ मीचु ॥ ५ ॥
दोहरा
जड़ चेतन गुन दोषमय िबस्व कीन्ह करतार ।
संत हं स गुन गहिहं पय पिरहिर बािर िबकार ॥ ६ ॥
दोहरा
ह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होिह कुबस्तु सुबस्तु जग लखिहं सुलच्छन लोग ॥ ७(क) ॥
मित अित नीच ऊँिच रुिच आछी । चिहअ अिमअ जग जुरइ न छाछी ॥
छिमहिहं सज्जन मोिर िढठाई । सुिनहिहं बालबचन मन लाई ॥ ४ ॥
जौ बालक कह तोतिर बाता । सुनिहं मुिदत मन िपतु अरु माता ॥
हँ िसहिह कूर कुिटल कुिबचारी । जे पर दषन
ू भूषनधारी ॥ ५ ॥
िनज किवत केिह लाग न नीका । सरस होउ अथवा अित फीका ॥
जे पर भिनित सुनत हरषाही । ते बर पुरुष बहत
ु जग नाहीं ॥ ६ ॥
जग बहु नर सर सिर सम भाई । जे िनज बािढ़ बढ़िहं जल पाई ॥
सज्जन सकृ त िसंधु सम कोई । दे िख पूर िबधु बाढ़इ जोई ॥ ७ ॥
दोहरा
भाग छोट अिभलाषु बड़ करउँ एक िबस्वास ।
पैहिहं सुख सुिन सुजन सब खल करहिहं उपहास ॥ ८ ॥
दोहरा
भिनित मोिर सब गुन रिहत िबस्व िबिदत गुन एक ।
सो िबचािर सुिनहिहं सुमित िजन्ह कें िबमल िबवेक ॥ ९ ॥
छं द
मंगल करिन किल मल हरिन तुलसी कथा रघुनाथ की ॥
गित कूर किबता सिरत की ज्यों सिरत पावन पाथ की ॥
भु सुजस संगित भिनित भिल होइिह सुजन मन भावनी ॥
भव अंग भूित मसान की सुिमरत सुहाविन पावनी ॥
दोहरा
ि य लािगिह अित सबिह मम भिनित राम जस संग ।
दारु िबचारु िक करइ कोउ बंिदअ मलय संग ॥ १०(क) ॥
मिन मािनक मुकुता छिब जैसी । अिह िगिर गज िसर सोह न तैसी ॥
नृप िकरीट तरुनी तनु पाई । लहिहं सकल सोभा अिधकाई ॥ १ ॥
तैसेिहं सुकिब किबत बुध कहहीं । उपजिहं अनत अनत छिब लहहीं ॥
भगित हे तु िबिध भवन िबहाई । सुिमरत सारद आवित धाई ॥ २ ॥
दोहरा
जुगुित बेिध पुिन पोिहअिहं रामचिरत बर ताग ।
पिहरिहं सज्जन िबमल उर सोभा अित अनुराग ॥ ११ ॥
दोहरा
सारद सेस महे स िबिध आगम िनगम पुरान ।
नेित नेित किह जासु गुन करिहं िनरं तर गान ॥ १२ ॥
दोहरा
अित अपार जे सिरत बर जौं नृप सेतु करािहं ।
चिढ िपपीिलकउ परम लघु िबनु म पारिह जािहं ॥ १३ ॥
दोहरा
सरल किबत कीरित िबमल सोइ आदरिहं सुजान ।
सहज बयर िबसराइ िरपु जो सुिन करिहं बखान ॥ १४(क) ॥
सोरठा
बंदउँ मुिन पद कंजु रामायन जेिहं िनरमयउ ।
सखर सुकोमल मंजु दोष रिहत दषन
ू सिहत ॥ १४(घ) ॥
दोहरा
िबबुध िब बुध ह चरन बंिद कहउँ कर जोिर ।
होइ सन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोिर ॥ १४(छ) ॥
दोहरा
सपनेहुँ साचेहुँ मोिह पर जौं हर गौिर पसाउ ।
तौ फुर होउ जो कहे उँ सब भाषा भिनित भाउ ॥ १५ ॥
बंदउँ अवध पुरी अित पाविन । सरजू सिर किल कलुष नसाविन ॥
नवउँ पुर नर नािर बहोरी । ममता िजन्ह पर भुिह न थोरी ॥ १ ॥
िसय िनंदक अघ ओघ नसाए । लोक िबसोक बनाइ बसाए ॥
बंदउँ कौसल्या िदिस ाची । कीरित जासु सकल जग माची ॥ २ ॥
गटे उ जहँ रघुपित सिस चारू । िबस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥
दसरथ राउ सिहत सब रानी । सुकृत सुमंगल मूरित मानी ॥ ३ ॥
करउँ नाम करम मन बानी । करहु कृ पा सुत सेवक जानी ॥
िजन्हिह िबरिच बड़ भयउ िबधाता । मिहमा अविध राम िपतु माता ॥४ ॥
सोरठा
बंदउँ अवध भुआल सत्य ेम जेिह राम पद ।
ु
िबछरत दीनदयाल ि य तनु तृन इव पिरहरे उ ॥ १६ ॥
सोरठा
नवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन ।
जासु हृदय आगार बसिहं राम सर चाप धर ॥ १७ ॥
दोहरा
िगरा अरथ जल बीिच सम किहअत िभन्न न िभन्न ।
बदउँ सीता राम पद िजन्हिह परम ि य िखन्न ॥ १८ ॥
दोहरा
दोहरा
एकु छ ु एकु मुकुटमिन सब बरनिन पर जोउ ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन िबराजत दोउ ॥ २० ॥
दोहरा
राम नाम मिनदीप धरु जीह दे हरी ार ।
तुलसी भीतर बाहे रहँु जौं चाहिस उिजआर ॥ २१ ॥
दोहरा
सकल कामना हीन जे राम भगित रस लीन ।
नाम सु ेम िपयूष हद ितन्हहँु िकए मन मीन ॥ २२ ॥
अगुन सगुन दइ
ु सरूपा । अकथ अगाध अनािद अनूपा ॥
मोरें मत बड़ नामु दह
ु ू तें । िकए जेिहं जुग िनज बस िनज बूतें ॥ १ ॥
ोिढ़ सुजन जिन जानिहं जन की । कहउँ तीित ीित रुिच मन की ॥
एकु दारुगत दे िखअ एकू । पावक सम जुग िबबेकू ॥ २ ॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें । कहे उँ नामु बड़ राम तें ॥
ब्यापकु एकु अिबनासी । सत चेतन धन आनँद रासी ॥ ३ ॥
अस भु हृदयँ अछत अिबकारी । सकल जीव जग दीन दखारी
ु ॥
नाम िनरूपन नाम जतन तें । सोउ गटत िजिम मोल रतन तें ॥ ४ ॥
दोहरा
िनरगुन तें एिह भाँित बड़ नाम भाउ अपार ।
कहउँ नामु बड़ राम तें िनज िबचार अनुसार ॥ २३ ॥
राम भगत िहत नर तनु धारी । सिह संकट िकए साधु सुखारी ॥
नामु स ेम जपत अनयासा । भगत होिहं मुद मंगल बासा ॥ १ ॥
दोहरा
सबरी गीध सुसेवकिन सुगित दीिन्ह रघुनाथ ।
नाम उधारे अिमत खल बेद िबिदत गुन गाथ ॥ २४ ॥
दोहरा
राम तें नामु बड़ बर दायक बर दािन ।
रामचिरत सत कोिट महँ िलय महे स िजयँ जािन ॥ २५ ॥
मासपारायण, पहला िव ाम
व
ु ँ सगलािन जपेउ हिर नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ॥
सुिमिर पवनसुत पावन नामू । अपने बस किर राखे रामू ॥ ३ ॥
अपतु अजािमलु गजु गिनकाऊ । भए मुकुत हिर नाम भाऊ ॥
कहौं कहाँ लिग नाम बड़ाई । रामु न सकिहं नाम गुन गाई ॥ ४ ॥
दोहरा
नामु राम को कलपतरु किल कल्यान िनवासु ।
जो सुिमरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ २६ ॥
चहँु जुग तीिन काल ितहँु लोका । भए नाम जिप जीव िबसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥ १ ॥
ध्यानु थम जुग मखिबिध दजें
ू । ापर पिरतोषत भु पूजें ॥
किल केवल मल मूल मलीना । पाप पयोिनिध जन जन मीना ॥ २ ॥
नाम कामतरु काल कराला । सुिमरत समन सकल जग जाला ॥
राम नाम किल अिभमत दाता । िहत परलोक लोक िपतु माता ॥ ३ ॥
निहं किल करम न भगित िबबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥
कालनेिम किल कपट िनधानू । नाम सुमित समरथ हनुमानू ॥ ४ ॥
दोहरा
राम नाम नरकेसरी कनककिसपु किलकाल ।
जापक जन हलाद िजिम पािलिह दिल सुरसाल ॥ २७ ॥
दोहरा
सठ सेवक की ीित रुिच रिखहिहं राम कृ पालु ।
उपल िकए जलजान जेिहं सिचव सुमित किप भालु ॥ २८(क) ॥
दोहरा
भु तरु तर किप डार पर ते िकए आपु समान ॥
तुलसी कहँू न राम से सािहब सीलिनधान ॥ २९(क) ॥
दोहरा
मै पुिन िनज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
समुझी निह तिस बालपन तब अित रहे उँ अचेत ॥ ३०(क) ॥
तदिप कही गुर बारिहं बारा । समुिझ परी कछु मित अनुसारा ॥
भाषाब करिब मैं सोई । मोरें मन बोध जेिहं होई ॥ १ ॥
जस कछु बुिध िबबेक बल मेरें । तस किहहउँ िहयँ हिर के ेरें ॥
िनज संदेह मोह म हरनी । करउँ कथा भव सिरता तरनी ॥ २ ॥
बुध िब ाम सकल जन रं जिन । रामकथा किल कलुष िबभंजिन ॥
रामकथा किल पंनग भरनी । पुिन िबबेक पावक कहँु अरनी ॥ ३ ॥
रामकथा किल कामद गाई । सुजन सजीविन मूिर सुहाई ॥
सोइ बसुधातल सुधा तरं िगिन । भय भंजिन म भेक भुअंिगिन ॥ ४ ॥
असुर सेन सम नरक िनकंिदिन । साधु िबबुध कुल िहत िगिरनंिदिन ॥
संत समाज पयोिध रमा सी । िबस्व भार भर अचल छमा सी ॥ ५ ॥
दोहरा
राम कथा मंदािकनी िच कूट िचत चारु ।
तुलसी सुभग सनेह बन िसय रघुबीर िबहारु ॥ ३१ ॥
दोहरा
कुपथ कुतरक कुचािल किल कपट दं भ पाषंड ।
दहन राम गुन ाम िजिम इं धन अनल चंड ॥ ३२(क) ॥
कीिन्ह स्न जेिह भाँित भवानी । जेिह िबिध संकर कहा बखानी ॥
सो सब हे तु कहब मैं गाई । कथा बंध िबिच बनाई ॥ १ ॥
जेिह यह कथा सुनी निहं होई । जिन आचरजु करैं सुिन सोई ॥
कथा अलौिकक सुनिहं जे ग्यानी । निहं आचरजु करिहं अस जानी ॥२ ॥
रामकथा कै िमित जग नाहीं । अिस तीित ितन्ह के मन माहीं ॥
नाना भाँित राम अवतारा । रामायन सत कोिट अपारा ॥ ३ ॥
कलपभेद हिरचिरत सुहाए । भाँित अनेक मुनीसन्ह गाए ॥
किरअ न संसय अस उर आनी । सुिनअ कथा सारद रित मानी ॥ ४ ॥
दोहरा
राम अनंत अनंत गुन अिमत कथा िबस्तार ।
सुिन आचरजु न मािनहिहं िजन्ह कें िबमल िबचार ॥ ३३ ॥
दोहरा
मज्जिह सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर ।
जपिहं राम धिर ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर ॥ ३४ ॥
दोहरा
जस मानस जेिह िबिध भयउ जग चार जेिह हे तु ।
अब सोइ कहउँ संग सब सुिमिर उमा बृषकेतु ॥ ३५ ॥
दोहरा
सुिठ सुद
ं र संबाद बर िबरचे बुि िबचािर ।
तेइ एिह पावन सुभग सर घाट मनोहर चािर ॥ ३६ ॥
दोहरा
पुलक बािटका बाग बन सुख सुिबहं ग िबहारु ।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु ॥ ३७ ॥
दोहरा
जे ा संबल रिहत निह संतन्ह कर साथ ।
ितन्ह कहँु मानस अगम अित िजन्हिह न ि य रघुनाथ ॥ ३८ ॥
दोहरा
ोता ि िबध समाज पुर ाम नगर दहँु ु कूल ।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमग
ं ल मूल ॥ ३९ ॥
दोहरा
बालचिरत चहु बंधु के बनज िबपुल बहरंु ग ।
नृप रानी पिरजन सुकृत मधुकर बािरिबहं ग ॥ ४० ॥
दोहरा
समन अिमत उतपात सब भरतचिरत जपजाग ।
किल अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ ४१ ॥
दोहरा
अवलोकिन बोलिन िमलिन ीित परसपर हास ।
भायप भिल चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥ ४२ ॥
दोहरा
मित अनुहािर सुबािर गुन गिन मन अन्हवाइ ।
सुिमिर भवानी संकरिह कह किब कथा सुहाइ ॥ ४३(क) ॥
दोहरा
िनरूपम धरम िबिध बरनिहं त व िबभाग ।
कहिहं भगित भगवंत कै संजुत ग्यान िबराग ॥ ४४ ॥
दोहरा
संत कहिह अिस नीित भु िु त पुरान मुिन गाव ।
होइ न िबमल िबबेक उर गुर सन िकएँ दराव
ु ॥ ४५ ॥
दोहरा
दोहरा
कहउँ सो मित अनुहािर अब उमा संभु संबाद ।
भयउ समय जेिह हे तु जेिह सुनु मुिन िमिटिह िबषाद ॥ ४७ ॥
दोहरा
ह्दयँ िबचारत जात हर केिह िबिध दरसनु होइ ।
गु रुप अवतरे उ भु गएँ जान सबु कोइ ॥ ४८(क) ॥
सोरठा
दोहरा
अित िविच रघुपित चिरत जानिहं परम सुजान ।
जे मितमंद िबमोह बस हृदयँ धरिहं कछु आन ॥ ४९ ॥
दोहरा
जो व्यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो िक दे ह धिर होइ नर जािह न जानत वेद ॥ ५० ॥
छं द
मुिन धीर जोगी िस संतत िबमल मन जेिह ध्यावहीं ।
किह नेित िनगम पुरान आगम जासु कीरित गावहीं ॥
सोइ रामु ब्यापक भुवन िनकाय पित माया धनी ।
अवतरे उ अपने भगत िहत िनजतं िनत रघुकुलमिन ॥
सोरठा
लाग न उर उपदे सु जदिप कहे उ िसवँ बार बहु ।
बोले िबहिस महे सु हिरमाया बलु जािन िजयँ ॥ ५१ ॥
दोहरा
दोहरा
राम बचन मृद ु गूढ़ सुिन उपजा अित संकोचु ।
सती सभीत महे स पिहं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ ५३ ॥
दोहरा
सती िबधा ी इं िदरा दे खीं अिमत अनूप ।
जेिहं जेिहं बेष अजािद सुर तेिह तेिह तन अनुरूप ॥ ५४ ॥
दोहरा
गई समीप महे स तब हँ िस पूछी कुसलात ।
लीन्ही परीछा कवन िबिध कहहु सत्य सब बात ॥ ५५ ॥
मासपारायण, दसरा
ू िव ाम
दोहरा
परम पुनीत न जाइ तिज िकएँ ेम बड़ पापु ।
गिट न कहत महे सु कछु हृदयँ अिधक संतापु ॥ ५६ ॥
दोहरा
सतीं हृदय अनुमान िकय सबु जानेउ सबर्ग्य ।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नािर सहज जड़ अग्य ॥ ५७ ॥
हृदयँ सोचु समुझत िनज करनी । िचंता अिमत जाइ निह बरनी ॥
कृ पािसंधु िसव परम अगाधा । गट न कहे उ मोर अपराधा ॥ १ ॥
संकर रुख अवलोिक भवानी । भु मोिह तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
िनज अघ समुिझ न कछु किह जाई । तपइ अवाँ इव उर अिधकाई ॥२ ॥
सितिह ससोच जािन बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हे तू ॥
बरनत पंथ िबिबध इितहासा । िबस्वनाथ पहँु चे कैलासा ॥ ३ ॥
तहँ पुिन संभु समुिझ पन आपन । बैठे बट तर किर कमलासन ॥
संकर सहज सरुप सम्हारा । लािग समािध अखंड अपारा ॥ ४ ॥
दोहरा
सती बसिह कैलास तब अिधक सोचु मन मािहं ।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम िदवस िसरािहं ॥ ५८ ॥
दोहरा
तौ सबदरसी सुिनअ भु करउ सो बेिग उपाइ ।
होइ मरनु जेही िबनिहं म दसह
ु िबपि िबहाइ ॥ ५९क ॥
सोरठा
जलु पय सिरस िबकाइ दे खहु ीित िक रीित भिल ।
िबलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुिन ॥ ५९ख ॥
दोहरा
दच्छ िलए मुिन बोिल सब करन लगे बड़ जाग ।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग ॥ ६० ॥
दोहरा
िपता भवन उत्सव परम जौं भु आयसु होइ ।
तौ मै जाउँ कृ पायतन सादर दे खन सोइ ॥ ६१ ॥
दोहरा
किह दे खा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमािर ।
िदए मुख्य गन संग तब िबदा कीन्ह ि पुरािर ॥ ६२ ॥
ज िप जग दारुन दख
ु नाना । सब तें किठन जाित अवमाना ॥
समुिझ सो सितिह भयउ अित ोधा।बहु िबिध जननीं कीन्ह बोधा ॥४॥
दोहरा
िसव अपमानु न जाइ सिह हृदयँ न होइ बोध ।
सकल सभिह हिठ हटिक तब बोलीं बचन स ोध ॥ ६३ ॥
दोहरा
सती मरनु सुिन संभु गन लगे करन मख खीस ।
जग्य िबधंस िबलोिक भृगु रच्छा कीिन्ह मुनीस ॥ ६४ ॥
दोहरा
दोहरा
ि कालग्य सबर्ग्य तुम्ह गित सबर् तुम्हािर ॥
कहहु सुता के दोष गुन मुिनबर हृदयँ िबचािर ॥ ६६ ॥
कह मुिन िबहिस गूढ़ मृद ु बानी । सुता तुम्हािर सकल गुन खानी ॥
सुद
ं र सहज सुसील सयानी । नाम उमा अंिबका भवानी ॥ १ ॥
सब लच्छन संपन्न कुमारी । होइिह संतत िपयिह िपआरी ॥
सदा अचल एिह कर अिहवाता । एिह तें जसु पैहिहं िपतु माता ॥ २ ॥
होइिह पूज्य सकल जग माहीं । एिह सेवत कछु दलर्
ु भ नाहीं ॥
एिह कर नामु सुिमिर संसारा । ि य चढ़हिहँ पित त अिसधारा ॥ ३ ॥
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी । सुनहु जे अब अवगुन दइु चारी ॥
अगुन अमान मातु िपतु हीना । उदासीन सब संसय छीना ॥ ४ ॥
दोहरा
जोगी जिटल अकाम मन नगन अमंगल बेष ॥
अस स्वामी एिह कहँ िमिलिह परी हस्त अिस रे ख ॥ ६७ ॥
दोहरा
कह मुनीस िहमवंत सुनु जो िबिध िलखा िललार ।
दे व दनुज नर नाग मुिन कोउ न मेटिनहार ॥ ६८ ॥
दोहरा
जौं अस िहिसषा करिहं नर जिड़ िबबेक अिभमान ।
परिहं कलप भिर नरक महँु जीव िक ईस समान ॥ ६९ ॥
दोहरा
अस किह नारद सुिमिर हिर िगिरजिह दीिन्ह असीस ।
होइिह यह कल्यान अब संसय तजहु िगरीस ॥ ७० ॥
दोहरा
ि या सोचु पिरहरहु सबु सुिमरहु ीभगवान ।
पारबितिह िनरमयउ जेिहं सोइ किरिह कल्यान ॥ ७१ ॥
दोहरा
सुनिह मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोिह ।
सुद
ं र गौर सुिब बर अस उपदे सेउ मोिह ॥ ७२ ॥
दोहरा
बेदिसरा मुिन आइ तब सबिह कहा समुझाइ ॥
पारबती मिहमा सुनत रहे बोधिह पाइ ॥ ७३ ॥
दोहरा
भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु िगिरजाकुमािर ।
पिरहरु दसह
ु कलेस सब अब िमिलहिहं ि पुरािर ॥ ७४ ॥
दोहरा
िचदानन्द सुखधाम िसव िबगत मोह मद काम ।
िबचरिहं मिह धिर हृदयँ हिर सकल लोक अिभराम ॥ ७५ ॥
कतहँु मुिनन्ह उपदे सिहं ग्याना । कतहँु राम गुन करिहं बखाना ॥
जदिप अकाम तदिप भगवाना । भगत िबरह दख
ु दिखत
ु सुजाना ॥ १ ॥
एिह िबिध गयउ कालु बहु बीती । िनत नै होइ राम पद ीती ॥
नैमु ेमु संकर कर दे खा । अिबचल हृदयँ भगित कै रे खा ॥ २ ॥
गटै रामु कृ तग्य कृ पाला । रूप सील िनिध तेज िबसाला ॥
बहु कार संकरिह सराहा । तुम्ह िबनु अस तु को िनरबाहा ॥ ३ ॥
बहिबिध
ु राम िसविह समुझावा । पारबती कर जन्मु सुनावा ॥
अित पुनीत िगिरजा कै करनी । िबस्तर सिहत कृ पािनिध बरनी ॥ ४ ॥
दोहरा
दोहरा
पारबती पिहं जाइ तुम्ह ेम पिरच्छा लेहु ।
िगिरिह े िर पठएहु भवन दिर
ू करे हु संदेहु ॥ ७७ ॥
दोहरा
सुनत बचन िबहसे िरषय िगिरसंभव तब दे ह ।
नारद कर उपदे सु सुिन कहहु बसेउ िकसु गेह ॥ ७८ ॥
दोहरा
अब सुख सोवत सोचु निह भीख मािग भव खािहं ।
सहज एकािकन्ह के भवन कबहँु िक नािर खटािहं ॥ ७९ ॥
दोहरा
महादे व अवगुन भवन िबष्नु सकल गुन धाम ।
जेिह कर मनु रम जािह सन तेिह तेही सन काम ॥ ८० ॥
दोहरा
तुम्ह माया भगवान िसव सकल जगत िपतु मातु ।
नाइ चरन िसर मुिन चले पुिन पुिन हरषत गातु ॥ ८१ ॥
दोहरा
सब सन कहा बुझाइ िबिध दनुज िनधन तब होइ ।
संभु सु संभत
ू सुत एिह जीतइ रन सोइ ॥ ८२ ॥
एिह िबिध भलेिह दे विहत होई । मर अित नीक कहइ सबु कोई ॥
अस्तुित सुरन्ह कीिन्ह अित हे तू । गटे उ िबषमबान झषकेतू ॥ ४ ॥
दोहरा
सुरन्ह कहीं िनज िबपित सब सुिन मन कीन्ह िबचार ।
संभु िबरोध न कुसल मोिह िबहिस कहे उ अस मार ॥ ८३ ॥
छं द
भागेउ िबबेक सहाय सिहत सो सुभट संजुग मिह मुरे ।
सद ंथ पबर्त कंदरिन्ह महँु जाइ तेिह अवसर दरेु ॥
होिनहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा ।
दइु माथ केिह रितनाथ जेिह कहँु कोिप कर धनु सरु धरा ॥
दोहरा
जे सजीव जग अचर चर नािर पुरुष अस नाम ।
ते िनज िनज मरजाद तिज भए सकल बस काम ॥ ८४ ॥
छं द
भए कामबस जोगीस तापस पावँरिन्ह की को कहै ।
दे खिहं चराचर नािरमय जे मय दे खत रहे ॥
अबला िबलोकिहं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं ।
दइु दं ड भिर ांड भीतर कामकृ त कौतुक अयं ॥
सोरठा
धरी न काहँू िधर सबके मन मनिसज हरे ।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेिह काल महँु ॥ ८५ ॥
छं द
जागइ मनोभव मुएहँु मन बन सुभगता न परै कही ।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही ॥
िबकसे सरिन्ह बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा ।
कलहं स िपक सुक सरस रव किर गान नाचिहं अपछरा ॥
दोहरा
सकल कला किर कोिट िबिध हारे उ सेन समेत ।
चली न अचल समािध िसव कोपेउ हृदयिनकेत ॥ ८६ ॥
छं द
जोिग अकंटक भए पित गित सुनत रित मुरुिछत भई ।
रोदित बदित बहु भाँित करुना करित संकर पिहं गई ।
अित ेम किर िबनती िबिबध िबिध जोिर कर सन्मुख रही ।
भु आसुतोष कृ पाल िसव अबला िनरिख बोले सही ॥
दोहरा
अब तें रित तव नाथ कर होइिह नामु अनंगु ।
िबनु बपु ब्यािपिह सबिह पुिन सुनु िनज िमलन संगु ॥ ८७ ॥
जब जदबं
ु स कृ ष्न अवतारा । होइिह हरन महा मिहभारा ॥
कृ ष्न तनय होइिह पित तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥ १ ॥
रित गवनी सुिन संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥
दे वन्ह समाचार सब पाए । ािदक बैकुंठ िसधाए ॥ २ ॥
सब सुर िबष्नु िबरं िच समेता । गए जहाँ िसव कृ पािनकेता ॥
पृथक पृथक ितन्ह कीिन्ह संसा । भए सन्न चं अवतंसा ॥ ३ ॥
दोहरा
सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।
िनज नयनिन्ह दे खा चहिहं नाथ तुम्हार िबबाहु ॥ ८८ ॥
दोहरा
कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदे स ।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारे उ कामु महे स ॥ ८९ ॥
मासपारायण तीसरा िव ाम
दोहरा
िहयँ हरषे मुिन बचन सुिन दे िख ीित िबस्वास ॥
चले भवािनिह नाइ िसर गए िहमाचल पास ॥ ९० ॥
दोहरा
लगे सँवारन सकल सुर बाहन िबिबध िबमान ।
होिह सगुन मंगल सुभद करिहं अपछरा गान ॥ ९१ ॥
दोहरा
िबष्नु कहा अस िबहिस तब बोिल सकल िदिसराज ।
िबलग िबलग होइ चलहु सब िनज िनज सिहत समाज ॥ ९२ ॥
छं द
तन खीन कोउ अित पीन पावन कोउ अपावन गित धरें ।
भूषन कराल कपाल कर सब स सोिनत तन भरें ॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगिनत को गनै ।
बहु िजनस ेत िपसाच जोिग जमात बरनत निहं बनै ॥
सोरठा
नाचिहं गाविहं गीत परम तरं गी भूत सब ।
दे खत अित िबपरीत बोलिहं बचन िबिच िबिध ॥ ९३ ॥
जस दलह
ू ु तिस बनी बराता । कौतुक िबिबध होिहं मग जाता ॥
इहाँ िहमाचल रचेउ िबताना । अित िबिच निहं जाइ बखाना ॥ १ ॥
सैल सकल जहँ लिग जग माहीं । लघु िबसाल निहं बरिन िसराहीं ॥
बन सागर सब नदीं तलावा । िहमिगिर सब कहँु नेवत पठावा ॥ २ ॥
कामरूप सुद
ं र तन धारी । सिहत समाज सिहत बर नारी ॥
गए सकल तुिहनाचल गेहा । गाविहं मंगल सिहत सनेहा ॥ ३ ॥
थमिहं िगिर बहु गृह सँवराए । जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥
पुर सोभा अवलोिक सुहाई । लागइ लघु िबरं िच िनपुनाई ॥ ४ ॥
छं द
दोहरा
जगदं बा जहँ अवतरी सो पुरु बरिन िक जाइ ।
िरि िसि संपि सुख िनत नूतन अिधकाइ ॥ ९४ ॥
छं द
तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जिटल भयंकरा ।
सँग भूत ेत िपसाच जोिगिन िबकट मुख रजनीचरा ॥
जो िजअत रिहिह बरात दे खत पुन्य बड़ तेिह कर सही ।
दे िखिह सो उमा िबबाहु घर घर बात अिस लिरकन्ह कही ॥
दोहरा
समुिझ महे स समाज सब जनिन जनक मुसुकािहं ।
बाल बुझाए िबिबध िबिध िनडर होहु डरु नािहं ॥ ९५ ॥
छं द
कस कीन्ह बरु बौराह िबिध जेिहं तुम्हिह सुद
ं रता दई ।
जो फलु चिहअ सुरतरुिहं सो बरबस बबूरिहं लागई ॥
तुम्ह सिहत िगिर तें िगरौं पावक जरौं जलिनिध महँु परौं ॥
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत िबबाहु न हौं करौं ॥
दोहरा
भई िबकल अबला सकल दिखत
ु दे िख िगिरनािर ।
किर िबलापु रोदित बदित सुता सनेहु सँभािर ॥ ९६ ॥
छं द
जिन लेहु मातु कलंकु करुना पिरहरहु अवसर नहीं ।
दखु
ु सुखु जो िलखा िललार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं ॥
दोहरा
तेिह अवसर नारद सिहत अरु िरिष स समेत ।
समाचार सुिन तुिहनिगिर गवने तुरत िनकेत ॥ ९७ ॥
छं द
िसय बेषु सती जो कीन्ह तेिह अपराध संकर पिरहरीं ।
हर िबरहँ जाइ बहोिर िपतु कें जग्य जोगानल जरीं ॥
अब जनिम तुम्हरे भवन िनज पित लािग दारुन तपु िकया ।
अस जािन संसय तजहु िगिरजा सबर्दा संकर ि या ॥
दोहरा
सुिन नारद के बचन तब सब कर िमटा िबषाद ।
छन महँु ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥ ९८ ॥
छं द
गारीं मधुर स्वर दे िहं सुंदिर िबंग्य बचन सुनावहीं ।
भोजनु करिहं सुर अित िबलंबु िबनोद ु सुिन सचु पावहीं ॥
जेवँत जो बढ़्यो अनंद ु सो मुख कोिटहँू न परै क ो ।
अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको र ो ॥
दोहरा
बहिर
ु मुिनन्ह िहमवंत कहँु लगन सुनाई आइ ।
समय िबलोिक िबबाह कर पठए दे व बोलाइ ॥ ९९ ॥
छं द
कोिटहँु बदन निहं बनै बरनत जग जनिन सोभा महा ।
सकुचिहं कहत िु त सेष सारद मंदमित तुलसी कहा ॥
छिबखािन मातु भवािन गवनी मध्य मंडप िसव जहाँ ॥
अवलोिक सकिहं न सकुच पित पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥
दोहरा
मुिन अनुसासन गनपितिह पूजेउ संभु भवािन ।
कोउ सुिन संसय करै जिन सुर अनािद िजयँ जािन ॥ १०० ॥
छं द
दाइज िदयो बहु भाँित पुिन कर जोिर िहमभूधर क ो ।
का दे उँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गिह र ो ॥
िसवँ कृ पासागर ससुर कर संतोषु सब भाँितिहं िकयो ।
पुिन गहे पद पाथोज मयनाँ ेम पिरपूरन िहयो ॥
दोहरा
नाथ उमा मन ान सम गृहिकंकरी करे हु ।
छमेहु सकल अपराध अब होइ सन्न बरु दे हु ॥ १०१ ॥
बहु िबिध संभु सास समुझाई । गवनी भवन चरन िसरु नाई ॥
जननीं उमा बोिल तब लीन्ही । लै उछं ग सुंदर िसख दीन्ही ॥१ ॥
करे हु सदा संकर पद पूजा । नािरधरमु पित दे उ न दजा
ू ॥
बचन कहत भरे लोचन बारी । बहिर
ु लाइ उर लीिन्ह कुमारी ॥ २ ॥
कत िबिध सृजीं नािर जग माहीं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥
भै अित ेम िबकल महतारी । धीरजु कीन्ह कुसमय िबचारी ॥ ३ ॥
पुिन पुिन िमलित परित गिह चरना । परम ेम कछु जाइ न बरना ॥
सब नािरन्ह िमिल भेिट भवानी । जाइ जनिन उर पुिन लपटानी ॥ ४ ॥
छं द
जनिनिह बहिर
ु िमिल चली उिचत असीस सब काहँू दईं ।
िफिर िफिर िबलोकित मातु तन तब सखीं लै िसव पिहं गई ॥
जाचक सकल संतोिष संकरु उमा सिहत भवन चले ।
सब अमर हरषे सुमन बरिष िनसान नभ बाजे भले ॥
दोहरा
चले संग िहमवंतु तब पहँु चावन अित हे तु ।
िबिबध भाँित पिरतोषु किर िबदा कीन्ह बृषकेतु ॥ १०२ ॥
छं द
जगु जान षन्मुख जन्मु कमुर् तापु पुरुषारथु महा ।
तेिह हे तु मैं बृषकेतु सुत कर चिरत संछेपिहं कहा ॥
यह उमा संगु िबबाहु जे नर नािर कहिहं जे गावहीं ।
कल्यान काज िबबाह मंगल सबर्दा सुखु पावहीं ॥
दोहरा
दोहरा
थमिहं मै किह िसव चिरत बूझा मरमु तुम्हार ।
सुिच सेवक तुम्ह राम के रिहत समस्त िबकार ॥ १०४ ॥
दोहरा
िस तपोधन जोिगजन सूर िकंनर मुिनबृंद ।
बसिहं तहाँ सुकृती सकल सेविहं िसब सुखकंद ॥ १०५ ॥
दोहरा
जटा मुकुट सुरसिरत िसर लोचन निलन िबसाल ।
नीलकंठ लावन्यिनिध सोह बालिबधु भाल ॥ १०६ ॥
दोहरा
भु समरथ सबर्ग्य िसव सकल कला गुन धाम ॥
जोग ग्यान बैराग्य िनिध नत कलपतरु नाम ॥ १०७ ॥
दोहरा
जौं नृप तनय त िकिम नािर िबरहँ मित भोिर ।
दे ख चिरत मिहमा सुनत मित बुि अित मोिर ॥ १०८ ॥
जौं अनीह ब्यापक िबभु कोऊ । कबहु बुझाइ नाथ मोिह सोऊ ॥
अग्य जािन िरस उर जिन धरहू । जेिह िबिध मोह िमटै सोइ करहू ॥१ ॥
मै बन दीिख राम भुताई । अित भय िबकल न तुम्हिह सुनाई ॥
तदिप मिलन मन बोधु न आवा । सो फलु भली भाँित हम पावा ॥ २ ॥
अजहँू कछु संसउ मन मोरे । करहु कृ पा िबनवउँ कर जोरें ॥
भु तब मोिह बहु भाँित बोधा । नाथ सो समुिझ करहु जिन ोधा ॥३॥
तब कर अस िबमोह अब नाहीं । रामकथा पर रुिच मन माहीं ॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा । भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥ ४ ॥
दोहरा
बंदउ पद धिर धरिन िसरु िबनय करउँ कर जोिर ।
बरनहु रघुबर िबसद जसु िु त िस ांत िनचोिर ॥ १०९ ॥
दोहरा
बहिर
ु कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम ।
जा सिहत रघुबंसमिन िकिम गवने िनज धाम ॥ ११० ॥
दोहरा
मगन ध्यानरस दं ड जुग पुिन मन बाहे र कीन्ह ।
रघुपित चिरत महे स तब हरिषत बरनै लीन्ह ॥ १११ ॥
झूठेउ सत्य जािह िबनु जानें । िजिम भुजंग िबनु रजु पिहचानें ॥
जेिह जानें जग जाइ हे राई । जागें जथा सपन म जाई ॥ १ ॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू । सब िसिध सुलभ जपत िजसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । वउ सो दसरथ अिजर िबहारी ॥ २ ॥
किर नाम रामिह ि पुरारी । हरिष सुधा सम िगरा उचारी ॥
धन्य धन्य िगिरराजकुमारी । तुम्ह समान निहं कोउ उपकारी ॥ ३ ॥
दोहरा
रामकृ पा तें पारबित सपनेहुँ तव मन मािहं ।
सोक मोह संदेह म मम िबचार कछु नािहं ॥ ११२ ॥
दोहरा
रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दािन ।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जािन ॥ ११३ ॥
दोहरा
सोरठा
अस िनज हृदयँ िबचािर तजु संसय भजु राम पद ।
सुनु िगिरराज कुमािर म तम रिब कर बचन मम ॥ ११५ ॥
सगुनिह अगुनिह निहं कछु भेदा । गाविहं मुिन पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरुप अलख अज जोई । भगत ेम बस सगुन सो होई ॥ १ ॥
जो गुन रिहत सगुन सोइ कैसें । जलु िहम उपल िबलग निहं जैसें ॥
जासु नाम म ितिमर पतंगा । तेिह िकिम किहअ िबमोह संगा ॥ २ ॥
राम सिच्चदानंद िदनेसा । निहं तहँ मोह िनसा लवलेसा ॥
सहज कासरुप भगवाना । निहं तहँ पुिन िबग्यान िबहाना ॥ ३ ॥
हरष िबषाद ग्यान अग्याना । जीव धमर् अहिमित अिभमाना ॥
राम ब्यापक जग जाना । परमानन्द परे स पुराना ॥ ४ ॥
दोहरा
पुरुष िस कास िनिध गट परावर नाथ ॥
रघुकुलमिन मम स्वािम सोइ किह िसवँ नायउ माथ ॥ ११६ ॥
दोहरा
रजत सीप महँु मास िजिम जथा भानु कर बािर ।
जदिप मृषा ितहँु काल सोइ म न सकइ कोउ टािर ॥ ११७ ॥
दोहरा
जेिह इिम गाविह बेद बुध जािह धरिहं मुिन ध्यान ॥
सोइ दसरथ सुत भगत िहत कोसलपित भगवान ॥ ११८ ॥
दोहरा
पुिन पुिन भु पद कमल गिह जोिर पंकरुह पािन ।
बोली िगिरजा बचन बर मनहँु ेम रस सािन ॥ ११९ ॥
दोहरा
िहँ यँ हरषे कामािर तब संकर सहज सुजान
बहु िबिध उमिह संिस पुिन बोले कृ पािनधान ॥ १२०(क) ॥
नवान्हपारायन,पहला िव ाम
मासपारायण, चौथा िव ाम
सोरठा
सुनु सुभ कथा भवािन रामचिरतमानस िबमल ।
कहा भुसुंिड बखािन सुना िबहग नायक गरुड ॥ १२०(ख) ॥
दोहरा
असुर मािर थापिहं सुरन्ह राखिहं िनज िु त सेतु ।
जग िबस्तारिहं िबसद जस राम जन्म कर हे तु ॥ १२१ ॥
दोहरा
दोहरा
छल किर टारे उ तासु त भु सुर कारज कीन्ह ॥
जब तेिह जानेउ मरम तब ाप कोप किर दीन्ह ॥ १२३ ॥
दोहरा
बोले िबहिस महे स तब ग्यानी मूढ़ न कोइ ।
जेिह जस रघुपित करिहं जब सो तस तेिह छन होइ ॥ १२४(क) ॥
सोरठा
दोहरा
सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान िनरिख मृगराज ।
छीिन लेइ जिन जान जड़ ितिम सुरपितिह न लाज ॥ १२५ ॥
दोहरा
सिहत सहाय सभीत अित मािन हािर मन मैन ।
गहे िस जाइ मुिन चरन तब किह सुिठ आरत बैन ॥ १२६ ॥
दोहरा
संभु दीन्ह उपदे स िहत निहं नारदिह सोहान ।
भार ाज कौतुक सुनहु हिर इच्छा बलवान ॥ १२७ ॥
दोहरा
रूख बदन किर बचन मृद ु बोले ीभगवान ।
तुम्हरे सुिमरन तें िमटिहं मोह मार मद मान ॥ १२८ ॥
सुनु मुिन मोह होइ मन ताकें । ग्यान िबराग हृदय निहं जाके ॥
चरज त रत मितधीरा । तुम्हिह िक करइ मनोभव पीरा ॥ १ ॥
नारद कहे उ सिहत अिभमाना । कृ पा तुम्हािर सकल भगवाना ॥
करुनािनिध मन दीख िबचारी । उर अंकुरे उ गरब तरु भारी ॥ २ ॥
दोहरा
िबरचेउ मग महँु नगर तेिहं सत जोजन िबस्तार ।
ीिनवासपुर तें अिधक रचना िबिबध कार ॥ १२९ ॥
दोहरा
आिन दे खाई नारदिह भूपित राजकुमािर ।
कहहु नाथ गुन दोष सब एिह के हृदयँ िबचािर ॥ १३० ॥
दोहरा
एिह अवसर चािहअ परम सोभा रूप िबसाल ।
जो िबलोिक रीझै कुअँिर तब मेलै जयमाल ॥ १३१ ॥
दोहरा
जेिह िबिध होइिह परम िहत नारद सुनहु तुम्हार ।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ १३२ ॥
दोहरा
दोहरा
सखीं संग लै कुअँिर तब चिल जनु राजमराल ।
दे खत िफरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ १३४ ॥
दोहरा
होहु िनसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ ।
हँ सेहु हमिह सो लेहु फल बहिर
ु हँ सेहु मुिन कोउ ॥ १३५ ॥
दोहरा
असुर सुरा िबष संकरिह आपु रमा मिन चारु ।
स्वारथ साधक कुिटल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ १३६ ॥
दोहरा
ाप सीस धरी हरिष िहयँ भु बहु िबनती कीिन्ह ।
िनज माया कै बलता करिष कृ पािनिध लीिन्ह ॥ १३७ ॥
दोहरा
बहिबिध
ु मुिनिह बोिध भु तब भए अंतरधान ॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ १३८ ॥
दोहरा
एक कलप एिह हे तु भु लीन्ह मनुज अवतार ।
सुर रं जन सज्जन सुखद हिर भंजन भुिब भार ॥ १३९ ॥
एिह िबिध जनम करम हिर केरे । सुंदर सुखद िबिच घनेरे ॥
कलप कलप ित भु अवतरहीं । चारु चिरत नानािबिध करहीं ॥ १ ॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत बंध बनाई ॥
िबिबध संग अनूप बखाने । करिहं न सुिन आचरजु सयाने ॥ २ ॥
हिर अनंत हिरकथा अनंता । कहिहं सुनिहं बहिबिध
ु सब संता ॥
रामचं के चिरत सुहाए । कलप कोिट लिग जािहं न गाए ॥ ३ ॥
यह संग मैं कहा भवानी । हिरमायाँ मोहिहं मुिन ग्यानी ॥
सोरठा
सुर नर मुिन कोउ नािहं जेिह न मोह माया बल ॥
अस िबचािर मन मािहं भिजअ महामाया पितिह ॥ १४० ॥
दोहरा
सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥
राम कथा किल मल हरिन मंगल करिन सुहाइ ॥ १४१ ॥
सोरठा
दोहरा
ादस अच्छर मं पुिन जपिहं सिहत अनुराग ।
बासुदेव पद पंकरुह दं पित मन अित लाग ॥ १४३ ॥
दोहरा
एिह िबिध बीतें बरष षट सहस बािर आहार ।
संबत स सह पुिन रहे समीर अधार ॥ १४४ ॥
दोहरा
वन सुधा सम बचन सुिन पुलक फुिल्लत गात ।
बोले मनु किर दं डवत ेम न हृदयँ समात ॥ १४५ ॥
दोहरा
नील सरोरुह नील मिन नील नीरधर स्याम ।
लाजिहं तन सोभा िनरिख कोिट कोिट सत काम ॥ १४६ ॥
कुंडल मकर मुकुट िसर ाजा । कुिटल केस जनु मधुप समाजा ॥
उर ीबत्स रुिचर बनमाला । पिदक हार भूषन मिनजाला ॥ ३ ॥
केहिर कंधर चारु जनेउ । बाहु िबभूषन सुंदर तेऊ ॥
किर कर सिर सुभग भुजदं डा । किट िनषंग कर सर कोदं डा ॥ ४ ॥
दोहरा
तिडत िबिनंदक पीत पट उदर रे ख बर तीिन ॥
नािभ मनोहर लेित जनु जमुन भवँर छिब छीिन ॥ १४७ ॥
दोहरा
बोले कृ पािनधान पुिन अित सन्न मोिह जािन ।
मागहु बर जोइ भाव मन महादािन अनुमािन ॥ १४८ ॥
सुिन भु बचन जोिर जुग पानी । धिर धीरजु बोली मृद ु बानी ॥
नाथ दे िख पद कमल तुम्हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥ १ ॥
एक लालसा बिड़ उर माही । सुगम अगम किह जात सो नाहीं ॥
तुम्हिह दे त अित सुगम गोसाईं । अगम लाग मोिह िनज कृ पनाईं ॥ २ ॥
जथा दिर िबबुधतरु पाई । बहु संपित मागत सकुचाई ॥
तासु भा जान निहं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥ ३ ॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥
सकुच िबहाइ मागु नृप मोिह । मोरें निहं अदे य कछु तोही ॥ ४ ॥
दोहरा
दािन िसरोमिन कृ पािनिध नाथ कहउँ सितभाउ ॥
चाहउँ तुम्हिह समान सुत भु सन कवन दराउ
ु ॥ १४९ ॥
दोहरा
सोइ सुख सोइ गित सोइ भगित सोइ िनज चरन सनेहु ॥
सोइ िबबेक सोइ रहिन भु हमिह कृ पा किर दे हु ॥ १५० ॥
सोरठा
दोहरा
यह इितहास पुनीत अित उमिह कही बृषकेतु ।
भर ाज सुनु अपर पुिन राम जनम कर हे तु ॥ १५२ ॥
मासपारायण पाँचवाँ िव ाम
दोहरा
जब तापरिब भयउ नृप िफरी दोहाई दे स ।
जा पाल अित बेदिबिध कतहँु नहीं अघ लेस ॥ १५३ ॥
दोहरा
स्वबस िबस्व किर बाहबल
ु िनज पुर कीन्ह बेसु ।
अरथ धरम कामािद सुख सेवइ समयँ नरे सु ॥ १५४ ॥
दोहरा
जँह लिग कहे पुरान िु त एक एक सब जाग ।
बार सह सह नृप िकए सिहत अनुराग ॥ १५५ ॥
दोहरा
नील महीधर िसखर सम दे िख िबसाल बराहु ।
चपिर चलेउ हय सुटु िक नृप हाँिक न होइ िनबाहु ॥ १५६ ॥
दोहरा
खेद िखन्न ु त
छि तृिषत राजा बािज समेत ।
खोजत ब्याकुल सिरत सर जल िबनु भयउ अचेत ॥ १५७ ॥
दोहा
भूपित तृिषत िबलोिक तेिहं सरबरु दीन्ह दे खाइ ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपित हरषाइ ॥ १५८ ॥
दोहरा
िनसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान ।
बसहु आजु अस जािन तुम्ह जाएहु होत िबहान ॥ १५९(क) ॥
भलेिहं नाथ आयसु धिर सीसा । बाँिध तुरग तरु बैठ महीसा ॥
नृप बहु भाित संसेउ ताही । चरन बंिद िनज भाग्य सराही ॥ १ ॥
पुिन बोले मृद ु िगरा सुहाई । जािन िपता भु करउँ िढठाई ॥
मोिह मुिनस सुत सेवक जानी । नाथ नाम िनज कहहु बखानी ॥ २ ॥
तेिह न जान नृप नृपिह सो जाना । भूप सु द सो कपट सयाना ॥
बैरी पुिन छ ी पुिन राजा । छल बल कीन्ह चहइ िनज काजा ॥ ३ ॥
समुिझ राजसुख दिखत
ु अराती । अवाँ अनल इव सुलगइ छाती ॥
दोहरा
कपट बोिर बानी मृदल
ु बोलेउ जुगुित समेत ।
नाम हमार िभखािर अब िनधर्न रिहत िनकेित ॥ १६० ॥
दोहरा
अब लिग मोिह न िमलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु ।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु ॥ १६१(क) ॥
सोरठा
तुलसी दे िख सुबेषु भूलिहं मूढ़ न चतुर नर ।
सुद
ं र केिकिह पेखु बचन सुधा सम असन अिह ॥ १६१(ख)
दोहरा
आिदसृि उपजी जबिहं तब उतपित भै मोिर ।
नाम एकतनु हे तु तेिह दे ह न धरी बहोिर ॥ १६२ ॥
ु भ कछु नाहीं ॥
जिन आचरुज करहु मन माहीं । सुत तप तें दलर्
तपबल तें जग सृजइ िबधाता । तपबल िबष्नु भए पिर ाता ॥ १ ॥
तपबल संभु करिहं संघारा । तप तें अगम न कछु संसारा ॥
भयउ नृपिह सुिन अित अनुरागा । कथा पुरातन कहै सो लागा ॥ २ ॥
करम धरम इितहास अनेका । करइ िनरूपन िबरित िबबेका ॥
उदभव पालन लय कहानी । कहे िस अिमत आचरज बखानी ॥ ३ ॥
सुिन मिहप तापस बस भयऊ । आपन नाम कहत तब लयऊ ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही । कीन्हे हु कपट लाग भल मोही ॥ ४ ॥
सोरठा
सुनु महीस अिस नीित जहँ तहँ नाम न कहिहं नृप ।
मोिह तोिह पर अित ीित सोइ चतुरता िबचािर तव ॥ १६३ ॥
दोहरा
जरा मरन दख
ु रिहत तनु समर िजतै जिन कोउ ।
एकछ िरपुहीन मिह राज कलप सत होउ ॥ १६४ ॥
दोहरा
एवमस्तु किह कपटमुिन बोला कुिटल बहोिर ।
िमलब हमार भुलाब िनज कहहु त हमिह न खोिर ॥ १६५ ॥
दोहरा
होिहं िब बस कवन िबिध कहहु कृ पा किर सोउ ।
तुम्ह तिज दीनदयाल िनज िहतू न दे खउँ कोउँ ॥ १६६ ॥
दोहरा
अस किह गहे नरे स पद स्वामी होहु कृ पाल ।
मोिह लािग दख
ु सिहअ भु सज्जन दीनदयाल ॥ १६७ ॥
दोहरा
िनत नूतन ि ज सहस सत बरे हु सिहत पिरवार ।
मैं तुम्हरे संकलप लिग िदनिहं किरब जेवनार ॥ १६८ ॥
दोहरा
मैं आउब सोइ बेषु धिर पिहचानेहु तब मोिह ।
जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोिह ॥ १६९ ॥
दोहरा
िरपु तेजसी अकेल अिप लघु किर गिनअ न ताहु ।
अजहँु दे त दख
ु रिब सिसिह िसर अवसेिषत राहु ॥ १७० ॥
तापस नृप िनज सखिह िनहारी । हरिष िमलेउ उिठ भयउ सुखारी ॥
िम िह किह सब कथा सुनाई । जातुधान बोला सुख पाई ॥ १ ॥
अब साधेउँ िरपु सुनहु नरे सा । जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदे सा ॥
पिरहिर सोच रहहु तुम्ह सोई । िबनु औषध िबआिध िबिध खोई ॥ २ ॥
कुल समेत िरपु मूल बहाई । चौथे िदवस िमलब मैं आई ॥
तापस नृपिह बहत
ु पिरतोषी । चला महाकपटी अितरोषी ॥ ३ ॥
भानु तापिह बािज समेता । पहँु चाएिस छन माझ िनकेता ॥
दोहरा
राजा के उपरोिहतिह हिर लै गयउ बहोिर ।
लै राखेिस िगिर खोह महँु मायाँ किर मित भोिर ॥ १७१ ॥
दोहरा
नृप हरषेउ पिहचािन गुरु म बस रहा न चेत ।
बरे तुरत सत सहस बर िब कुटंु ब समेत ॥ १७२ ॥
दोहरा
दोहरा
भूपित भावी िमटइ निहं जदिप न दषन
ू तोर ।
िकएँ अन्यथा होइ निहं िब ाप अित घोर ॥ १७४ ॥
दोहरा
भर ाज सुनु जािह जब होइ िबधाता बाम ।
धूिर मेरुसम जनक जम तािह ब्यालसम दाम ॥ ।१७५ ॥
काल पाइ मुिन सुनु सोइ राजा । भयउ िनसाचर सिहत समाजा ॥
दोहरा
उपजे जदिप पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप ।
तदिप महीसुर ाप बस भए सकल अघरूप ॥ १७६ ॥
दोहरा
गए िबभीषन पास पुिन कहे उ पु बर मागु ।
तेिहं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥ १७७ ॥
दोहरा
खाईं िसंधु गभीर अित चािरहँु िदिस िफिर आव ।
कनक कोट मिन खिचत दृढ़ बरिन न जाइ बनाव ॥ १७८(क) ॥
दोहरा
कौतुकहीं कैलास पुिन लीन्हे िस जाइ उठाइ ।
मनहँु तौिल िनज बाहबल
ु चला बहत
ु सुख पाइ ॥ १७९ ॥
दोहरा
कुमुख अकंपन कुिलसरद धूमकेतु अितकाय ।
एक एक जग जीित सक ऐसे सुभट िनकाय ॥ १८० ॥
दोहरा
ु
छधा छीन बलहीन सुर सहजेिहं िमिलहिहं आइ ।
तब मािरहउँ िक छािड़हउँ भली भाँित अपनाइ ॥ १८१ ॥
दोहरा
भुजबल िबस्व बस्य किर राखेिस कोउ न सुतं ।
मंडलीक मिन रावन राज करइ िनज मं ॥ १८२(क) ॥
छं द
जप जोग िबरागा तप मख भागा वन सुनइ दससीसा ।
आपुनु उिठ धावइ रहै न पावइ धिर सब घालइ खीसा ॥
अस अचारा भा संसारा धमर् सुिनअ निह काना ।
तेिह बहिबिध
ु ासइ दे स िनकासइ जो कह बेद पुराना ॥
सोरठा
मासपारायण छठा िव ाम
छं द
सुर मुिन गंधबार् िमिल किर सबार् गे िबरं िच के लोका ।
सँग गोतनुधारी भूिम िबचारी परम िबकल भय सोका ॥
ाँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई ।
जा किर तैं दासी सो अिबनासी हमरे उ तोर सहाई ॥
सोरठा
धरिन धरिह मन धीर कह िबरं िच हिरपद सुिमरु ।
जानत जन की पीर भु भंिजिह दारुन िबपित ॥ १८४ ॥
दोहरा
सुिन िबरं िच मन हरष तन पुलिक नयन बह नीर ।
अस्तुित करत जोिर कर सावधान मितधीर ॥ १८५ ॥
छं द
जय जय सुरनायक जन सुखदायक नतपाल भगवंता ।
गो ि ज िहतकारी जय असुरारी िसधुंसत
ु ा ि य कंता ॥
पालन सुर धरनी अ त
ु करनी मरम न जानइ कोई ।
जो सहज कृ पाला दीनदयाला करउ अनु ह सोई ॥
जय जय अिबनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा ।
अिबगत गोतीतं चिरत पुनीतं मायारिहत मुकुंदा ॥
जेिह लािग िबरागी अित अनुरागी िबगतमोह मुिनबृंदा ।
िनिस बासर ध्याविहं गुन गन गाविहं जयित सिच्चदानंदा ॥
जेिहं सृि उपाई ि िबध बनाई संग सहाय न दजा
ू ।
सो करउ अघारी िचंत हमारी जािनअ भगित न पूजा ॥
जो भव भय भंजन मुिन मन रं जन गंजन िबपित बरूथा ।
मन बच म बानी छािड़ सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥
सारद िु त सेषा िरषय असेषा जा कहँु कोउ निह जाना ।
जेिह दीन िपआरे बेद पुकारे वउ सो ीभगवाना ॥
भव बािरिध मंदर सब िबिध सुंदर गुनमंिदर सुखपुंजा ।
मुिन िस सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥
दोहरा
जािन सभय सुरभूिम सुिन बचन समेत सनेह ।
गगनिगरा गंभीर भइ हरिन सोक संदेह ॥ १८६ ॥
दोहरा
िनज लोकिह िबरं िच गे दे वन्ह इहइ िसखाइ ।
बानर तनु धिर धिर मिह हिर पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥
दोहरा
कौसल्यािद नािर ि य सब आचरन पुनीत ।
पित अनुकूल ेम दृढ़ हिर पद कमल िबनीत ॥ १८८ ॥
िनज दख
ु सुख सब गुरिह सुनायउ । किह बिस बहिबिध
ु समुझायउ ॥
धरहु धीर होइहिहं सुत चारी । ि भुवन िबिदत भगत भय हारी ॥ २ ॥
सृग
ं ी िरषिह बिस बोलावा । पु काम सुभ जग्य करावा ॥
भगित सिहत मुिन आहित
ु दीन्हें । गटे अिगिन चरू कर लीन्हें ॥ ३ ॥
जो बिस कछु हृदयँ िबचारा । सकल काजु भा िस तुम्हारा ॥
यह हिब बाँिट दे हु नृप जाई । जथा जोग जेिह भाग बनाई ॥ ४ ॥
दोहरा
तब अदृस्य भए पावक सकल सभिह समुझाइ ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ १८९ ॥
दोहरा
जोग लगन ह बार ितिथ सकल भए अनुकूल ।
चर अरु अचर हषर्जुत राम जनम सुखमूल ॥ १९० ॥
नौमी ितिथ मधु मास पुनीता । सुकल पच्छ अिभिजत हिर ीता ॥
मध्यिदवस अित सीत न घामा । पावन काल लोक िब ामा ॥ १ ॥
सीतल मंद सुरिभ बह बाऊ । हरिषत सुर संतन मन चाऊ ॥
बन कुसुिमत िगिरगन मिनआरा । विहं सकल सिरताऽमृतधारा ॥ २ ॥
सो अवसर िबरं िच जब जाना । चले सकल सुर सािज िबमाना ॥
दोहरा
सुर समूह िबनती किर पहँु चे िनज िनज धाम ।
जगिनवास भु गटे अिखल लोक िब ाम ॥ १९१ ॥
छं द
भए गट कृ पाला दीनदयाला कौसल्या िहतकारी ।
हरिषत महतारी मुिन मन हारी अ त
ु रूप िबचारी ॥
लोचन अिभरामा तनु घनस्यामा िनज आयुध भुज चारी ।
भूषन बनमाला नयन िबसाला सोभािसंधु खरारी ॥
कह दइु कर जोरी अस्तुित तोरी केिह िबिध करौं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेिह गाविहं िु त संता ।
सो मम िहत लागी जन अनुरागी भयउ गट ीकंता ॥
ांड िनकाया िनिमर्त माया रोम रोम ित बेद कहै ।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर पित िथर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना भु मुसकाना चिरत बहत
ु िबिध कीन्ह चहै ।
किह कथा सुहाई मातु बुझाई जेिह कार सुत ेम लहै ॥
माता पुिन बोली सो मित डौली तजहु तात यह रूपा ।
कीजै िससुलीला अित ि यसीला यह सुख परम अनूपा ॥
सुिन बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
यह चिरत जे गाविहं हिरपद पाविहं ते न परिहं भवकूपा ॥
दोहरा
िब धेनु सुर संत िहत लीन्ह मनुज अवतार ।
िनज इच्छा िनिमर्त तनु माया गुन गो पार ॥ १९२ ॥
दोहरा
नंदीमुख सराध किर जातकरम सब कीन्ह ।
हाटक धेनु बसन मिन नृप िब न्ह कहँ दीन्ह ॥ १९३ ॥
ध्वज पताक तोरन पुर छावा । किह न जाइ जेिह भाँित बनावा ॥
सुमनबृि अकास तें होई । ानंद मगन सब लोई ॥ १ ॥
बृंद बृंद िमिल चलीं लोगाई । सहज संगार िकएँ उिठ धाई ॥
कनक कलस मंगल धिर थारा । गावत पैठिहं भूप दआरा
ु ॥ २ ॥
किर आरित नेवछाविर करहीं । बार बार िससु चरनिन्ह परहीं ॥
मागध सूत बंिदगन गायक । पावन गुन गाविहं रघुनायक ॥ ३ ॥
सबर्स दान दीन्ह सब काहू । जेिहं पावा राखा निहं ताहू ॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा । मची सकल बीिथन्ह िबच बीचा ॥ ४ ॥
दोहरा
गृह गृह बाज बधाव सुभ गटे सुषमा कंद ।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नािर नर बृंद ॥ १९४ ॥
दोहरा
मास िदवस कर िदवस भा मरम न जानइ कोइ ।
रथ समेत रिब थाकेउ िनसा कवन िबिध होइ ॥ १९५ ॥
दोहरा
मन संतोषे सबिन्ह के जहँ तहँ दे िह असीस ।
सकल तनय िचर जीवहँु तुलिसदास के ईस ॥ १९६ ॥
ु
कछक िदवस बीते एिह भाँती । जात न जािनअ िदन अरु राती ॥
नामकरन कर अवसरु जानी । भूप बोिल पठए मुिन ग्यानी ॥ १ ॥
किर पूजा भूपित अस भाषा । धिरअ नाम जो मुिन गुिन राखा ॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा । मैं नृप कहब स्वमित अनुरूपा ॥ २ ॥
जो आनंद िसंधु सुखरासी । सीकर तें ैलोक सुपासी ॥
सो सुख धाम राम अस नामा । अिखल लोक दायक िब ामा ॥ ३ ॥
दोहरा
लच्छन धाम राम ि य सकल जगत आधार ।
गुरु बिस तेिह राखा लिछमन नाम उदार ॥ १९७ ॥
धरे नाम गुर हृदयँ िबचारी । बेद तत्व नृप तव सुत चारी ॥
मुिन धन जन सरबस िसव ाना । बाल केिल तेिहं सुख माना ॥ १ ॥
बारे िह ते िनज िहत पित जानी । लिछमन राम चरन रित मानी ॥
भरत स ुहन दनउ
ू भाई । भु सेवक जिस ीित बड़ाई ॥ २ ॥
स्याम गौर सुद
ं र दोउ जोरी । िनरखिहं छिब जननीं तृन तोरी ॥
चािरउ सील रूप गुन धामा । तदिप अिधक सुखसागर रामा ॥ ३ ॥
हृदयँ अनु ह इं द ु कासा । सूचत िकरन मनोहर हासा ॥
कबहँु उछं ग कबहँु बर पलना । मातु दलारइ
ु किह ि य ललना ॥ ४ ॥
दोहरा
ब्यापक िनरं जन िनगुन
र् िबगत िबनोद ।
सो अज ेम भगित बस कौसल्या के गोद ॥ १९८ ॥
दोहरा
सुख संदोह मोहपर ग्यान िगरा गोतीत ।
दं पित परम ेम बस कर िससुचिरत पुनीत ॥ १९९ ॥
दोहरा
ेम मगन कौसल्या िनिस िदन जात न जान ।
सुत सनेह बस माता बालचिरत कर गान ॥ २०० ॥
दोहरा
दे खरावा मातिह िनज अदभुत रुप अखंड ।
रोम रोम ित लागे कोिट कोिट ड
ं ॥ २०१ ॥
अगिनत रिब सिस िसव चतुरानन । बहु िगिर सिरत िसंधु मिह कानन ॥
काल कमर् गुन ग्यान सुभाऊ । सोउ दे खा जो सुना न काऊ ॥ १ ॥
दे खी माया सब िबिध गाढ़ी । अित सभीत जोरें कर ठाढ़ी ॥
दे खा जीव नचावइ जाही । दे खी भगित जो छोरइ ताही ॥ २ ॥
तन पुलिकत मुख बचन न आवा । नयन मूिद चरनिन िसरु नावा ॥
िबसमयवंत दे िख महतारी । भए बहिर
ु िससुरूप खरारी ॥ ३ ॥
अस्तुित किर न जाइ भय माना । जगत िपता मैं सुत किर जाना ॥
हिर जनिन बहिबिध
ु समुझाई । यह जिन कतहँु कहिस सुनु माई ॥ ४ ॥
दोहरा
बार बार कौसल्या िबनय करइ कर जोिर ॥
अब जिन कबहँू ब्यापै भु मोिह माया तोिर ॥ २०२ ॥
दोहरा
दोहरा
कोसलपुर बासी नर नािर बृ अरु बाल ।
ानहु ते ि य लागत सब कहँु राम कृ पाल ॥ २०४ ॥
दोहरा
ब्यापक अकल अनीह अज िनगुन
र् नाम न रूप ।
भगत हे तु नाना िबिध करत चिर अनूप ॥ २०५ ॥
दोहरा
बहिबिध
ु करत मनोरथ जात लािग निहं बार ।
किर मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार ॥ २०६ ॥
दोहरा
दे हु भूप मन हरिषत तजहु मोह अग्यान ।
धमर् सुजस भु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अित कल्यान ॥ २०७ ॥
दोहरा
सौंपे भूप िरिषिह सुत बहु िबिध दे इ असीस ।
जननी भवन गए भु चले नाइ पद सीस ॥ २०८(क) ॥
सोरठा
पुरुषिसंह दोउ बीर हरिष चले मुिन भय हरन ॥
कृ पािसंधु मितधीर अिखल िबस्व कारन करन ॥ २०८(ख)
दोहरा
आयुष सब समिपर् कै भु िनज आ म आिन ।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगित िहत जािन ॥ २०९ ॥
दोहरा
गौतम नािर ाप बस उपल दे ह धिर धीर ।
चरन कमल रज चाहित कृ पा करहु रघुबीर ॥ २१० ॥
छं द
परसत पद पावन सोक नसावन गट भई तपपुंज सही ।
दे खत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोिर रही ॥
अित ेम अधीरा पुलक सरीरा मुख निहं आवइ बचन कही ।
अितसय बड़भागी चरनिन्ह लागी जुगल नयन जलधार बही ॥
धीरजु मन कीन्हा भु कहँु चीन्हा रघुपित कृ पाँ भगित पाई ।
अित िनमर्ल बानीं अस्तुित ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई ॥
मै नािर अपावन भु जग पावन रावन िरपु जन सुखदाई ।
राजीव िबलोचन भव भय मोचन पािह पािह सरनिहं आई ॥
मुिन ाप जो दीन्हा अित भल कीन्हा परम अनु ह मैं माना ।
दे खेउँ भिर लोचन हिर भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना ॥
िबनती भु मोरी मैं मित भोरी नाथ न मागउँ बर आना ।
दोहरा
अस भु दीनबंधु हिर कारन रिहत दयाल ।
तुलिसदास सठ तेिह भजु छािड़ कपट जंजाल ॥ २११ ॥
मासपारायण सातवाँ िव ाम
दोहरा
सुमन बािटका बाग बन िबपुल िबहं ग िनवास ।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहँु पास ॥ २१२ ॥
दोहरा
धवल धाम मिन पुरट पट सुघिटत नाना भाँित ।
िसय िनवास सुंदर सदन सोभा िकिम किह जाित ॥ २१३ ॥
दोहरा
संग सिचव सुिच भूिर भट भूसरु बर गुर ग्याित ।
चले िमलन मुिननायकिह मुिदत राउ एिह भाँित ॥ २१४ ॥
दोहरा
ेम मगन मनु जािन नृपु किर िबबेकु धिर धीर ।
बोलेउ मुिन पद नाइ िसरु गदगद िगरा गभीर ॥ २१५ ॥
दोहरा
रामु लखनु दोउ बंधब
ु र रूप सील बल धाम ।
मख राखेउ सबु सािख जगु िजते असुर सं ाम ॥ २१६ ॥
दोहरा
िरषय संग रघुबंस मिन किर भोजनु िब ामु ।
बैठे भु ाता सिहत िदवसु रहा भिर जामु ॥ २१७ ॥
दोहरा
जाइ दे खी आवहु नगरु सुख िनधान दोउ भाइ ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन दे खाइ ॥ २१८ ॥
मासपारायण, आठवाँ िव ाम
नवान्हपारायण, दसरा
ू िव ाम
मुिन पद कमल बंिद दोउ ाता । चले लोक लोचन सुख दाता ॥
बालक बृंिद दे िख अित सोभा । लगे संग लोचन मनु लोभा ॥ १ ॥
पीत बसन पिरकर किट भाथा । चारु चाप सर सोहत हाथा ॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी । स्यामल गौर मनोहर जोरी ॥ २ ॥
केहिर कंधर बाहु िबसाला । उर अित रुिचर नागमिन माला ॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन । बदन मयंक ताप य मोचन ॥ ३ ॥
कानिन्ह कनक फूल छिब दे हीं । िचतवत िचतिह चोिर जनु लेहीं ॥
िचतविन चारु भृकुिट बर बाँकी । ितलक रे खा सोभा जनु चाँकी ॥ ४ ॥
दोहरा
रुिचर चौतनीं सुभग िसर मेचक कुंिचत केस ।
नख िसख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस ॥ २१९ ॥
दोहरा
बय िकसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।
अंग अंग पर वािरअिहं कोिट कोिट सत काम ॥ २२० ॥
दोहरा
िब काजु किर बंधु दोउ मग मुिनबधू उधािर ।
आए दे खन चापमख सुिन हरषीं सब नािर ॥ २२१ ॥
दोहरा
नािहं त हम कहँु सुनहु सिख इन्ह कर दरसनु दिर
ू ।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृ त भूिर ॥ २२२ ॥
बोली अपर कहे हु सिख नीका । एिहं िबआह अित िहत सबहीं का ॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा । ए स्यामल मृदगात
ु िकसोरा ॥ १ ॥
सबु असमंजस अहइ सयानी । यह सुिन अपर कहइ मृद ु बानी ॥
सिख इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं । बड़ भाउ दे खत लघु अहहीं ॥२॥
परिस जासु पद पंकज धूरी । तरी अहल्या कृ त अघ भूरी ॥
सो िक रिहिह िबनु िसवधनु तोरें । यह तीित पिरहिरअ न भोरें ॥ ३ ॥
जेिहं िबरं िच रिच सीय सँवारी । तेिहं स्यामल बरु रचेउ िबचारी ॥
तासु बचन सुिन सब हरषानीं । ऐसेइ होउ कहिहं मुद ु बानी ॥ ४ ॥
दोहरा
िहयँ हरषिहं बरषिहं सुमन सुमुिख सुलोचिन बृंद ।
जािहं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद ॥ २२३ ॥
पुर पूरब िदिस गे दोउ भाई । जहँ धनुमख िहत भूिम बनाई ॥
अित िबस्तार चारु गच ढारी । िबमल बेिदका रुिचर सँवारी ॥ १ ॥
चहँु िदिस कंचन मंच िबसाला । रचे जहाँ बेठिहं मिहपाला ॥
तेिह पाछें समीप चहँु पासा । अपर मंच मंडली िबलासा ॥ २ ॥
ु
कछक ऊँिच सब भाँित सुहाई । बैठिहं नगर लोग जहँ जाई ॥
ितन्ह के िनकट िबसाल सुहाए । धवल धाम बहबरन
ु बनाए ॥ ३ ॥
दोहरा
सब िससु एिह िमस ेमबस परिस मनोहर गात ।
तन पुलकिहं अित हरषु िहयँ दे िख दे िख दोउ ात ॥ २२४ ॥
दोहरा
सभय स ेम िबनीत अित सकुच सिहत दोउ भाइ ।
गुर पद पंकज नाइ िसर बैठे आयसु पाइ ॥ २२५ ॥
दोहरा
सकल सौच किर जाइ नहाए । िनत्य िनबािह मुिनिह िसर नाए ॥
समय जािन गुर आयसु पाई । लेन सून चले दोउ भाई ॥ १ ॥
भूप बागु बर दे खेउ जाई । जहँ बसंत िरतु रही लोभाई ॥
लागे िबटप मनोहर नाना । बरन बरन बर बेिल िबताना ॥ २ ॥
नव पल्लव फल सुमान सुहाए । िनज संपित सुर रूख लजाए ॥
चातक कोिकल कीर चकोरा । कूजत िबहग नटत कल मोरा ॥ ३ ॥
मध्य बाग सरु सोह सुहावा । मिन सोपान िबिच बनावा ॥
िबमल सिललु सरिसज बहरंु गा । जलखग कूजत गुंजत भृग
ं ा ॥ ४ ॥
दोहरा
बागु तड़ागु िबलोिक भु हरषे बंधु समेत ।
परम रम्य आरामु यहु जो रामिह सुख दे त ॥ २२७ ॥
दोहरा
तासु दसा दे िख सिखन्ह पुलक गात जलु नैन ।
कहु कारनु िनज हरष कर पूछिह सब मृद ु बैन ॥ २२८ ॥
स्याम गौर िकिम कहौं बखानी । िगरा अनयन नयन िबनु बानी ॥ १ ॥
सुिन हरषीँ सब सखीं सयानी । िसय िहयँ अित उतकंठा जानी ॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली । सुने जे मुिन सँग आए काली ॥ २ ॥
िजन्ह िनज रूप मोहनी डारी । कीन्ह स्वबस नगर नर नारी ॥
बरनत छिब जहँ तहँ सब लोगू । अविस दे िखअिहं दे खन जोगू ॥ ३ ॥
तासु वचन अित िसयिह सुहाने । दरस लािग लोचन अकुलाने ॥
चली अ किर ि य सिख सोई । ीित पुरातन लखइ न कोई ॥ ४ ॥
दोहरा
सुिमिर सीय नारद बचन उपजी ीित पुनीत ॥
चिकत िबलोकित सकल िदिस जनु िससु मृगी सभीत ॥ २२९ ॥
कंकन िकंिकिन नूपुर धुिन सुिन । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुिन ॥
मानहँु मदन दं द
ु भी
ु दीन्ही ॥ मनसा िबस्व िबजय कहँ कीन्ही ॥ १ ॥
अस किह िफिर िचतए तेिह ओरा । िसय मुख सिस भए नयन चकोरा ॥
भए िबलोचन चारु अचंचल । मनहँु सकुिच िनिम तजे िदगंचल ॥ २ ॥
दे िख सीय सोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥
जनु िबरं िच सब िनज िनपुनाई । िबरिच िबस्व कहँ गिट दे खाई ॥ ३ ॥
सुद
ं रता कहँु सुद
ं र करई । छिबगृहँ दीपिसखा जनु बरई ॥
सब उपमा किब रहे जुठारी । केिहं पटतरौं िबदे हकुमारी ॥ ४ ॥
दोहरा
िसय सोभा िहयँ बरिन भु आपिन दसा िबचािर ।
बोले सुिच मन अनुज सन बचन समय अनुहािर ॥ २३० ॥
दोहरा
करत बतकिह अनुज सन मन िसय रूप लोभान ।
मुख सरोज मकरं द छिब करइ मधुप इव पान ॥ २३१ ॥
दोहरा
लताभवन तें गट भे तेिह अवसर दोउ भाइ ।
िनकसे जनु जुग िबमल िबधु जलद पटल िबलगाइ ॥ २३२ ॥
दोहरा
केहिर किट पट पीत धर सुषमा सील िनधान ।
दे िख भानुकुलभूषनिह िबसरा सिखन्ह अपान ॥ २३३ ॥
दोहरा
दे खन िमस मृग िबहग तरु िफरइ बहोिर बहोिर ।
िनरिख िनरिख रघुबीर छिब बाढ़इ ीित न थोिर ॥ २३४ ॥
दोहरा
छं द
मनु जािहं राचेउ िमिलिह सो बरु सहज सुद
ं र साँवरो ।
करुना िनधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥
एिह भाँित गौिर असीस सुिन िसय सिहत िहयँ हरषीं अली ।
तुलसी भवािनिह पूिज पुिन पुिन मुिदत मन मंिदर चली ॥
सोरठा
जािन गौिर अनुकूल िसय िहय हरषु न जाइ किह ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥ २३६ ॥
बहिर
ु िबचारु कीन्ह मन माहीं । सीय बदन सम िहमकर नाहीं ॥ ४ ॥
दोहरा
जनमु िसंधु पुिन बंधु िबषु िदन मलीन सकलंक ।
िसय मुख समता पाव िकिम चंद ु बापुरो रं क ॥ २३७ ॥
दोहरा
अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोित मलीन ।
िजिम तुम्हार आगमन सुिन भए नृपित बलहीन ॥ २३८ ॥
दोहरा
सतानंद पद बंिद भु बैठे गुर पिहं जाइ ।
चलहु तात मुिन कहे उ तब पठवा जनक बोलाइ ॥ २३९ ॥
दोहरा
किह मृद ु बचन िबनीत ितन्ह बैठारे नर नािर ।
उ म मध्यम नीच लघु िनज िनज थल अनुहािर ॥ २४० ॥
दोहरा
नािर िबलोकिहं हरिष िहयँ िनज िनज रुिच अनुरूप ।
जनु सोहत िसंगार धिर मूरित परम अनूप ॥ २४१ ॥
िबदषन्ह
ु भु िबराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥
जनक जाित अवलोकिहं कैसैं । सजन सगे ि य लागिहं जैसें ॥ १ ॥
सिहत िबदे ह िबलोकिहं रानी । िससु सम ीित न जाित बखानी ॥
जोिगन्ह परम तत्वमय भासा । सांत सु सम सहज कासा ॥ २ ॥
हिरभगतन्ह दे खे दोउ ाता । इ दे व इव सब सुख दाता ॥
रामिह िचतव भायँ जेिह सीया । सो सनेहु सुखु निहं कथनीया ॥ ३ ॥
उर अनुभवित न किह सक सोऊ । कवन कार कहै किब कोऊ ॥
एिह िबिध रहा जािह जस भाऊ । तेिहं तस दे खेउ कोसलराऊ ॥ ४ ॥
दोहरा
राजत राज समाज महँु कोसलराज िकसोर ।
सुद
ं र स्यामल गौर तन िबस्व िबलोचन चोर ॥ २४२ ॥
दोहरा
कुंजर मिन कंठा किलत उरिन्ह तुलिसका माल ।
बृषभ कंध केहिर ठविन बल िनिध बाहु िबसाल ॥ २४३ ॥
दोहरा
सब मंचन्ह ते मंचु एक सुद
ं र िबसद िबसाल ।
मुिन समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे मिहपाल ॥ २४४ ॥
सोरठा
सीय िबआहिब राम गरब दिर
ू किर नृपन्ह के ॥
जीित को सक सं ाम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ २४५ ॥
दोहरा
जािन सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई ।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ॥ २४६ ॥
िसय सोभा निहं जाइ बखानी । जगदं िबका रूप गुन खानी ॥
उपमा सकल मोिह लघु लागीं । ाकृ त नािर अंग अनुरागीं ॥ १ ॥
िसय बरिनअ तेइ उपमा दे ई । कुकिब कहाइ अजसु को लेई ॥
जौ पटतिरअ तीय सम सीया । जग अिस जुबित कहाँ कमनीया ॥ २ ॥
िगरा मुखर तन अरध भवानी । रित अित दिखत
ु अतनु पित जानी ॥
िबष बारुनी बंधु ि य जेही । किहअ रमासम िकिम बैदेही ॥ ३ ॥
जौ छिब सुधा पयोिनिध होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥
सोभा रजु मंदरु िसंगारू । मथै पािन पंकज िनज मारू ॥ ४ ॥
दोहरा
एिह िबिध उपजै लिच्छ जब सुद
ं रता सुख मूल ।
तदिप सकोच समेत किब कहिहं सीय समतूल ॥ २४७ ॥
दोहरा
दोहरा
बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल मिहपाल ।
पन िबदे ह कर कहिहं हम भुजा उठाइ िबसाल ॥ २४९ ॥
दोहरा
तमिक धरिहं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलिहं लजाइ ।
मनहँु पाइ भट बाहबलु
ु अिधकु अिधकु गरुआइ ॥ २५० ॥
दोहरा
कुअँिर मनोहर िबजय बिड़ कीरित अित कमनीय ।
पाविनहार िबरं िच जनु रचेउ न धनु दमनीय ॥ २५१ ॥
दोहरा
किह न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान ।
नाइ राम पद कमल िसरु बोले िगरा मान ॥ २५२ ॥
दोहरा
तोरौं छ क दं ड िजिम तव ताप बल नाथ ।
जौं न करौं भु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ ॥ २५३ ॥
दोहरा
उिदत उदयिगिर मंच पर रघुबर बालपतंग ।
िबकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग ॥ २५४ ॥
दोहरा
रामिह ेम समेत लिख सिखन्ह समीप बोलाइ ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ िबलखाइ ॥ २५५ ॥
दोहरा
मं परम लघु जासु बस िबिध हिर हर सुर सबर् ।
महाम गजराज कहँु बस कर अंकुस खबर् ॥ २५६ ॥
दोहरा
दोहरा
भुिह िचतइ पुिन िचतव मिह राजत लोचन लोल ।
खेलत मनिसज मीन जुग जनु िबधु मंडल डोल ॥ २५८ ॥
दोहरा
लखन लखेउ रघुबंसमिन ताकेउ हर कोदं डु ।
पुलिक गात बोले बचन चरन चािप ांडु ॥ २५९ ॥
रामु चहिहं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुिन आयसु मोरा ॥ १ ॥
चाप सपीप रामु जब आए । नर नािरन्ह सुर सुकृत मनाए ॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अिभमानू ॥ २ ॥
भृगुपित केिर गरब गरुआई । सुर मुिनबरन्ह केिर कदराई ॥
िसय कर सोचु जनक पिछतावा । रािनन्ह कर दारुन दख
ु दावा ॥ ३ ॥
संभुचाप बड बोिहतु पाई । चढे जाइ सब संगु बनाई ॥
राम बाहबल
ु िसंधु अपारू । चहत पारु निह कोउ कड़हारू ॥ ४ ॥
दोहरा
राम िबलोके लोग सब िच िलखे से दे िख ।
िचतई सीय कृ पायतन जानी िबकल िबसेिष ॥ २६० ॥
छं द
भरे भुवन घोर कठोर रव रिब बािज तिज मारगु चले ।
िचक्करिहं िदग्गज डोल मिह अिह कोल कूरुम कलमले ॥
सुर असुर मुिन कर कान दीन्हें सकल िबकल िबचारहीं ।
कोदं ड खंडेउ राम तुलसी जयित बचन उचारही ॥
सोरठा
दोहरा
बंदी मागध सूतगन िबरुद बदिहं मितधीर ।
करिहं िनछाविर लोग सब हय गय धन मिन चीर ॥ २६२ ॥
दोहरा
संग सखीं सुदंर चतुर गाविहं मंगलचार ।
गवनी बाल मराल गित सुषमा अंग अपार ॥ २६३ ॥
सोरठा
रघुबर उर जयमाल दे िख दे व बिरसिहं सुमन ।
सकुचे सकल भुआल जनु िबलोिक रिब कुमुदगन ॥ २६४ ॥
दोहरा
गौतम ितय गित सुरित किर निहं परसित पग पािन ।
मन िबहसे रघुबंसमिन ीित अलौिकक जािन ॥ २६५ ॥
जौं िबदे हु कछु करै सहाई । जीतहु समर सिहत दोउ भाई ॥
साधु भूप बोले सुिन बानी । राजसमाजिह लाज लजानी ॥ ३ ॥
बलु तापु बीरता बड़ाई । नाक िपनाकिह संग िसधाई ॥
सोइ सूरता िक अब कहँु पाई । अिस बुिध तौ िबिध मुहँ मिस लाई ॥४ ॥
दोहरा
दे खहु रामिह नयन भिर तिज इिरषा मद ु कोहु ।
लखन रोषु पावकु बल जािन सलभ जिन होहु ॥ २६६ ॥
बैनतेय बिल िजिम चह कागू । िजिम ससु चहै नाग अिर भागू ॥
िजिम चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै िसव ोही ॥ १ ॥
लोभी लोलुप कल कीरित चहई । अकलंकता िक कामी लहई ॥
हिर पद िबमुख परम गित चाहा । तस तुम्हार लालचु नरनाहा ॥ २ ॥
कोलाहलु सुिन सीय सकानी । सखीं लवाइ गईं जहँ रानी ॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं । िसय सनेहु बरनत मन माहीं ॥ ३ ॥
रािनन्ह सिहत सोचबस सीया । अब धौं िबिधिह काह करनीया ॥
भूप बचन सुिन इत उत तकहीं । लखनु राम डर बोिल न सकहीं ॥ ४ ॥
दोहरा
अरुन नयन भृकुटी कुिटल िचतवत नृपन्ह सकोप ।
मनहँु म गजगन िनरिख िसंघिकसोरिह चोप ॥ २६७ ॥
दोहरा
सांत बेषु करनी किठन बरिन न जाइ सरुप ।
धिर मुिनतनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप ॥ २६८ ॥
दोहरा
बहिर
ु िबलोिक िबदे ह सन कहहु काह अित भीर ॥
पूछत जािन अजान िजिम ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ २६९ ॥
दोहरा
मासपारायण नवाँ िव ाम
दोहरा
रे नृप बालक कालबस बोलत तोिह न सँमार ॥
धनुही सम ितपुरािर धनु िबिदत सकल संसार ॥ २७१ ॥
दोहरा
मातु िपतिह जिन सोचबस करिस महीसिकसोर ।
गभर्न्ह के अभर्क दलन परसु मोर अित घोर ॥ २७२ ॥
दोहरा
जो िबलोिक अनुिचत कहे उँ छमहु महामुिन धीर ।
सुिन सरोष भृगुबंसमिन बोले िगरा गभीर ॥ २७३ ॥
कौिसक सुनहु मंद यहु बालकु । कुिटल कालबस िनज कुल घालकु ॥
भानु बंस राकेस कलंकू । िनपट िनरं कुस अबुध असंकू ॥ १ ॥
काल कवलु होइिह छन माहीं । कहउँ पुकािर खोिर मोिह नाहीं ॥
तुम्ह हटकउ जौं चहहु उबारा । किह तापु बलु रोषु हमारा ॥ २ ॥
लखन कहे उ मुिन सुजस तुम्हारा । तुम्हिह अछत को बरनै पारा ॥
अपने मुँह तुम्ह आपिन करनी । बार अनेक भाँित बहु बरनी ॥ ३ ॥
निहं संतोषु त पुिन कछु कहहू । जिन िरस रोिक दसह
ु दख
ु सहहू ॥
बीर ती तुम्ह धीर अछोभा । गारी दे त न पावहु सोभा ॥ ४ ॥
दोहरा
सूर समर करनी करिहं किह न जनाविहं आपु ।
िब मान रन पाइ िरपु कायर कथिहं तापु ॥ २७४ ॥
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोिह लािग बोलावा ॥
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधािर धरे उ कर घोरा ॥ १ ॥
अब जिन दे इ दोसु मोिह लोगू । ु
कटबादी बालकु बधजोगू ॥
दोहरा
गािधसूनु कह हृदयँ हँ िस मुिनिह हिरअरइ सूझ ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहँु न बूझ अबूझ ॥ २७५ ॥
दोहरा
लखन उतर आहित
ु सिरस भृगुबर कोपु कृ सानु ।
बढ़त दे िख जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ॥ २७६ ॥
दोहरा
लखन कहे उ हँ िस सुनहु मुिन ोधु पाप कर मूल ।
जेिह बस जन अनुिचत करिहं चरिहं िबस्व ितकूल ॥ २७७ ॥
दोहरा
सुिन लिछमन िबहसे बहिर
ु नयन तरे रे राम ।
गुर समीप गवने सकुिच पिरहिर बानी बाम ॥ २७८ ॥
अित िबनीत मृद ु सीतल बानी । बोले रामु जोिर जुग पानी ॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना । बालक बचनु किरअ निहं काना ॥ १ ॥
बररै बालक एकु सुभाऊ । इन्हिह न संत िबदषिहं
ू काऊ ॥
तेिहं नाहीं कछु काज िबगारा । अपराधी में नाथ तुम्हारा ॥ २ ॥
कृ पा कोपु बधु बँधब गोसाईं । मो पर किरअ दास की नाई ॥
किहअ बेिग जेिह िबिध िरस जाई । मुिननायक सोइ करौं उपाई ॥ ३ ॥
कह मुिन राम जाइ िरस कैसें । अजहँु अनुज तव िचतव अनैसें ॥
एिह के कंठ कुठारु न दीन्हा । तौ मैं काह कोपु किर कीन्हा ॥ ४ ॥
दोहरा
दोहरा
परसुरामु तब राम ित बोले उर अित ोधु ।
संभु सरासनु तोिर सठ करिस हमार बोधु ॥ २८० ॥
दोहरा
भुिह सेवकिह समरु कस तजहु िब बर रोसु ।
बेषु िबलोकें कहे िस कछु बालकहू निहं दोसु ॥ २८१ ॥
दोहरा
बार बार मुिन िब बर कहा राम सन राम ।
बोले भृगुपित सरुष हिस तहँू बंधु सम बाम ॥ २८२ ॥
दोहरा
जौं हम िनदरिहं िब बिद सत्य सुनहु भृगुनाथ ।
तौ अस को जग सुभटु जेिह भय बस नाविहं माथ ॥ २८३ ॥
दोहरा
जाना राम भाउ तब पुलक फुिल्लत गात ।
जोिर पािन बोले बचन ह्दयँ न ेमु अमात ॥ २८४ ॥
दोहरा
दे वन्ह दीन्हीं दं द
ु भीं
ु भु पर बरषिहं फूल ।
हरषे पुर नर नािर सब िमटी मोहमय सूल ॥ २८५ ॥
ू
टटतहीं धनु भयउ िबबाहू । सुर नर नाग िबिदत सब काहु ॥ ४ ॥
दोहरा
तदिप जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु ।
बूिझ िब कुलबृ गुर बेद िबिदत आचारु ॥ २८६ ॥
दत
ू अवधपुर पठवहु जाई । आनिहं नृप दसरथिह बोलाई ॥
मुिदत राउ किह भलेिहं कृ पाला । पठए दत
ू बोिल तेिह काला ॥ १ ॥
बहिर
ु महाजन सकल बोलाए । आइ सबिन्ह सादर िसर नाए ॥
हाट बाट मंिदर सुरबासा । नगरु सँवारहु चािरहँु पासा ॥ २ ॥
हरिष चले िनज िनज गृह आए । पुिन पिरचारक बोिल पठाए ॥
रचहु िबिच िबतान बनाई । िसर धिर बचन चले सचु पाई ॥ ३ ॥
पठए बोिल गुनी ितन्ह नाना । जे िबतान िबिध कुसल सुजाना ॥
िबिधिह बंिद ितन्ह कीन्ह अरं भा । िबरचे कनक कदिल के खंभा ॥ ४ ॥
दोहरा
हिरत मिनन्ह के प फल पदमराग
ु के फूल ।
रचना दे िख िबिच अित मनु िबरं िच कर भूल ॥ २८७ ॥
दोहरा
सौरभ पल्लव सुभग सुिठ िकए नीलमिन कोिर ॥
हे म बौर मरकत घविर लसत पाटमय डोिर ॥ २८८ ॥
दोहरा
बसइ नगर जेिह लच्छ किर कपट नािर बर बेषु ॥
तेिह पुर कै सोभा कहत सकुचिहं सारद सेषु ॥ २८९ ॥
पहँु चे दत
ू राम पुर पावन । हरषे नगर िबलोिक सुहावन ॥
भूप ार ितन्ह खबिर जनाई । दसरथ नृप सुिन िलए बोलाई ॥ १ ॥
किर नामु ितन्ह पाती दीन्ही । मुिदत महीप आपु उिठ लीन्ही ॥
बािर िबलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भिर छाती ॥ २ ॥
रामु लखनु उर कर बर चीठी । रिह गए कहत न खाटी मीठी ॥
पुिन धिर धीर पि का बाँची । हरषी सभा बात सुिन साँची ॥ ३ ॥
खेलत रहे तहाँ सुिध पाई । आए भरतु सिहत िहत भाई ॥
पूछत अित सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ तें पाती आई ॥ ४ ॥
दोहरा
कुसल ानि य बंधु दोउ अहिहं कहहु केिहं दे स ।
सुिन सनेह साने बचन बाची बहिर
ु नरे स ॥ २९० ॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तुम्ह नीकें िनज नयन िनहारे ॥ २ ॥
स्यामल गौर धरें धनु भाथा । बय िकसोर कौिसक मुिन साथा ॥
पिहचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ । ेम िबबस पुिन पुिन कह राऊ ॥ ३ ॥
जा िदन तें मुिन गए लवाई । तब तें आजु साँिच सुिध पाई ॥
कहहु िबदे ह कवन िबिध जाने । सुिन ि य बचन दत
ू मुसकाने ॥ ४ ॥
दोहरा
सुनहु महीपित मुकुट मिन तुम्ह सम धन्य न कोउ ।
रामु लखनु िजन्ह के तनय िबस्व िबभूषन दोउ ॥ २९१ ॥
दोहरा
तहाँ राम रघुबंस मिन सुिनअ महा मिहपाल ।
भंजेउ चाप यास िबनु िजिम गज पंकज नाल ॥ २९२ ॥
दोहरा
तब उिठ भूप बिस कहँु दीिन्ह पि का जाइ ।
कथा सुनाई गुरिह सब सादर दत
ू बोलाइ ॥ २९३ ॥
सुिन बोले गुर अित सुखु पाई । पुन्य पुरुष कहँु मिह सुख छाई ॥
िजिम सिरता सागर महँु जाहीं । ज िप तािह कामना नाहीं ॥ १ ॥
ितिम सुख संपित िबनिहं बोलाएँ । धरमसील पिहं जािहं सुभाएँ ॥
तुम्ह गुर िब धेनु सुर सेबी । तिस पुनीत कौसल्या दे बी ॥ २ ॥
सुकृती तुम्ह समान जग माहीं । भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं ॥
तुम्ह ते अिधक पुन्य बड़ काकें । राजन राम सिरस सुत जाकें ॥ ३ ॥
बीर िबनीत धरम त धारी । गुन सागर बर बालक चारी ॥
तुम्ह कहँु सबर् काल कल्याना । सजहु बरात बजाइ िनसाना ॥ ४ ॥
दोहरा
चलहु बेिग सुिन गुर बचन भलेिहं नाथ िसरु नाइ ।
भूपित गवने भवन तब दतन्ह
ू बासु दे वाइ ॥ २९४ ॥
सोरठा
दोहरा
मंगलमय िनज िनज भवन लोगन्ह रचे बनाइ ।
बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ ॥ २९६ ॥
दोहरा
सोभा दसरथ भवन कइ को किब बरनै पार ।
जहाँ सकल सुर सीस मिन राम लीन्ह अवतार ॥ २९७ ॥
दोहरा
छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन ।
जुग पदचर असवार ित जे अिसकला बीन ॥ २९८ ॥
दोहरा
चिढ़ चिढ़ रथ बाहे र नगर लागी जुरन बरात ।
होत सगुन सुन्दर सबिह जो जेिह कारज जात ॥ २९९ ॥
दोहरा
सब कें उर िनभर्र हरषु पूिरत पुलक सरीर ।
कबिहं दे िखबे नयन भिर रामु लखनू दोउ बीर ॥ ३०० ॥
दोहरा
तेिहं रथ रुिचर बिस कहँु हरिष चढ़ाइ नरे सु ।
आपु चढ़े उ स्पंदन सुिमिर हर गुर गौिर गनेसु ॥ ३०१ ॥
सिहत बिस सोह नृप कैसें । सुर गुर संग पुरंदर जैसें ॥
किर कुल रीित बेद िबिध राऊ । दे िख सबिह सब भाँित बनाऊ ॥ १ ॥
सुिमिर रामु गुर आयसु पाई । चले महीपित संख बजाई ॥
हरषे िबबुध िबलोिक बराता । बरषिहं सुमन सुमंगल दाता ॥ २ ॥
भयउ कोलाहल हय गय गाजे । ब्योम बरात बाजने बाजे ॥
सुर नर नािर सुमंगल गाई । सरस राग बाजिहं सहनाई ॥ ३ ॥
घंट घंिट धुिन बरिन न जाहीं । सरव करिहं पाइक फहराहीं ॥
करिहं िबदषक
ू कौतुक नाना । हास कुसल कल गान सुजाना ॥ ४ ॥
दोहरा
तुरग नचाविहं कुँअर बर अकिन मृदंग िनसान ॥
नागर नट िचतविहं चिकत डगिहं न ताल बँधान ॥ ३०२ ॥
दोहरा
मंगलमय कल्यानमय अिभमत फल दातार ।
जनु सब साचे होन िहत भए सगुन एक बार ॥ ३०३ ॥
दोहरा
मासपारायण दसवाँ िव ाम
दोहरा
हरिष परसपर िमलन िहत ु
कछक चले बगमेल ।
जनु आनंद समु दइ
ु िमलत िबहाइ सुबेल ॥ ३०५ ॥
दोहरा
िसिध सब िसय आयसु अकिन गईं जहाँ जनवास ।
िलएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग िबलास ॥ ३०६ ॥
िनज िनज बास िबलोिक बराती । सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥
िबभव भेद कछु कोउ न जाना । सकल जनक कर करिहं बखाना ॥ १ ॥
िसय मिहमा रघुनायक जानी । हरषे हृदयँ हे तु पिहचानी ॥
िपतु आगमनु सुनत दोउ भाई । हृदयँ न अित आनंद ु अमाई ॥ २ ॥
सकुचन्ह किह न सकत गुरु पाहीं । िपतु दरसन लालचु मन माहीं ॥
िबस्वािम िबनय बिड़ दे खी । उपजा उर संतोषु िबसेषी ॥ ३ ॥
हरिष बंधु दोउ हृदयँ लगाए । पुलक अंग अंबक जल छाए ॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे । मनहँु सरोबर तकेउ िपआसे ॥ ४ ॥
दोहरा
भूप िबलोके जबिहं मुिन आवत सुतन्ह समेत ।
उठे हरिष सुखिसंधु महँु चले थाह सी लेत ॥ ३०७ ॥
दोहरा
पुरजन पिरजन जाितजन जाचक मं ी मीत ।
िमले जथािबिध सबिह भु परम कृ पाल िबनीत ॥ ३०८ ॥
दोहरा
रामु सीय सोभा अविध सुकृत अविध दोउ राज ।
जहँ जहँ पुरजन कहिहं अस िमिल नर नािर समाज ॥ ३०९ ॥
दोहरा
बारिहं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय ।
लेन आइहिहं बंधु दोउ कोिट काम कमनीय ॥ ३१० ॥
छं द
उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहँु किब कोिबद कहैं ।
बल िबनय िब ा सील सोभा िसंधु इन्ह से एइ अहैं ॥
पुर नािर सकल पसािर अंचल िबिधिह बचन सुनावहीं ॥
ब्यािहअहँु चािरउ भाइ एिहं पुर हम सुमग
ं ल गावहीं ॥
सोरठा
कहिहं परस्पर नािर बािर िबलोचन पुलक तन ।
सिख सबु करब पुरािर पुन्य पयोिनिध भूप दोउ ॥ ३११ ॥
दोहरा
धेनुधूिर बेला िबमल सकल सुमंगल मूल ।
िब न्ह कहे उ िबदे ह सन जािन सगुन अनुकुल ॥ ३१२ ॥
दोहरा
भाग्य िबभव अवधेस कर दे िख दे व ािद ।
लगे सराहन सहस मुख जािन जनम िनज बािद ॥ ३१३ ॥
सुरन्ह सुमग
ं ल अवसरु जाना । बरषिहं सुमन बजाइ िनसाना ॥
िसव ािदक िबबुध बरूथा । चढ़े िबमानिन्ह नाना जूथा ॥ १ ॥
ेम पुलक तन हृदयँ उछाहू । चले िबलोकन राम िबआहू ॥
दे िख जनकपुरु सुर अनुरागे । िनज िनज लोक सबिहं लघु लागे ॥ २ ॥
िचतविहं चिकत िबिच िबताना । रचना सकल अलौिकक नाना ॥
नगर नािर नर रूप िनधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥ ३ ॥
ितन्हिह दे िख सब सुर सुरनारीं । भए नखत जनु िबधु उिजआरीं ॥
िबिधिह भयह आचरजु िबसेषी । िनज करनी कछु कतहँु न दे खी ॥ ४ ॥
दोहरा
िसवँ समुझाए दे व सब जिन आचरज भुलाहु ।
हृदयँ िबचारहु धीर धिर िसय रघुबीर िबआहु ॥ ३१४ ॥
पुिन रामिह िबलोिक िहयँ हरषे । नृपिह सरािह सुमन ितन्ह बरषे ॥ ४ ॥
दोहरा
राम रूपु नख िसख सुभग बारिहं बार िनहािर ।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरािर ॥ ३१५ ॥
छं द
जनु बािज बेषु बनाइ मनिसजु राम िहत अित सोहई ।
आपनें बय बल रूप गुन गित सकल भुवन िबमोहई ॥
जगमगत जीनु जराव जोित सुमोित मिन मािनक लगे ।
िकंिकिन ललाम लगामु लिलत िबलोिक सुर नर मुिन ठगे ॥
दोहरा
भु मनसिहं लयलीन मनु चलत बािज छिब पाव ।
भूिषत उड़गन तिड़त घनु जनु बर बरिह नचाव ॥ ३१६ ॥
छं द
अित हरषु राजसमाज दह
ु ु िदिस दं द
ु भीं
ु बाजिहं घनी ।
बरषिहं सुमन सुर हरिष किह जय जयित जय रघुकुलमनी ॥
एिह भाँित जािन बरात आवत बाजने बहु बाजहीं ।
रािन सुआिसिन बोिल पिरछिन हे तु मंगल साजहीं ॥
दोहरा
सिज आरती अनेक िबिध मंगल सकल सँवािर ।
चलीं मुिदत पिरछिन करन गजगािमिन बर नािर ॥ ३१७ ॥
छं द
को जान केिह आनंद बस सब ु बर पिरछन चली ।
कल गान मधुर िनसान बरषिहं सुमन सुर सोभा भली ॥
आनंदकंद ु िबलोिक दलह
ू ु सकल िहयँ हरिषत भई ॥
अंभोज अंबक अंबु उमिग सुअंग पुलकाविल छई ॥
दोहरा
छं द
बैठािर आसन आरती किर िनरिख बरु सुखु पावहीं ॥
मिन बसन भूषन भूिर वारिहं नािर मंगल गावहीं ॥
ािद सुरबर िब बेष बनाइ कौतुक दे खहीं ।
अवलोिक रघुकुल कमल रिब छिब सुफल जीवन लेखहीं ॥
दोहरा
नाऊ बारी भाट नट राम िनछाविर पाइ ।
मुिदत असीसिहं नाइ िसर हरषु न हृदयँ समाइ ॥ ३१९ ॥
छं द
मंडपु िबलोिक िबची रचनाँ रुिचरताँ मुिन मन हरे ॥
िनज पािन जनक सुजान सब कहँु आिन िसंघासन धरे ॥
कुल इ सिरस बिस पूजे िबनय किर आिसष लही ।
कौिसकिह पूजत परम ीित िक रीित तौ न परै कही ॥
दोहरा
बामदे व आिदक िरषय पूजे मुिदत महीस ।
िदए िदब्य आसन सबिह सब सन लही असीस ॥ ३२० ॥
बहिर
ु कीन्ह कोसलपित पूजा । जािन ईस सम भाउ न दजा
ू ॥
कीन्ह जोिर कर िबनय बड़ाई । किह िनज भाग्य िबभव बहताई
ु ॥ १ ॥
पूजे भूपित सकल बराती । समिध सम सादर सब भाँती ॥
आसन उिचत िदए सब काहू । कहौं काह मूख एक उछाहू ॥ २ ॥
सकल बरात जनक सनमानी । दान मान िबनती बर बानी ॥
िबिध हिर हरु िदिसपित िदनराऊ । जे जानिहं रघुबीर भाऊ ॥ ३ ॥
कपट िब बर बेष बनाएँ । कौतुक दे खिहं अित सचु पाएँ ॥
पूजे जनक दे व सम जानें । िदए सुआसन िबनु पिहचानें ॥ ४ ॥
छं द
पिहचान को केिह जान सबिहं अपान सुिध भोरी भई ।
आनंद कंद ु िबलोिक दलह
ू ु उभय िदिस आनँद मई ॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानिसक आसन दए ।
अवलोिक सीलु सुभाउ भु को िबबुध मन मुिदत भए ॥
दोहरा
रामचं मुख चं छिब लोचन चारु चकोर ।
करत पान सादर सकल ेमु मोद ु न थोर ॥ ३२१ ॥
छं द
चिल ल्याइ सीतिह सखीं सादर सिज सुमंगल भािमनीं ।
नवस साजें सुंदरी सब म कुंजर गािमनीं ॥
कल गान सुिन मुिन ध्यान त्यागिहं काम कोिकल लाजहीं ।
मंजीर नूपुर किलत कंकन ताल गती बर बाजहीं ॥
दोहरा
सोहित बिनता बृंद महँु सहज सुहाविन सीय ।
छिब ललना गन मध्य जनु सुषमा ितय कमनीय ॥ ३२२ ॥
छं द
दोहरा
होम समय तनु धिर अनलु अित सुख आहित
ु लेिहं ।
िब बेष धिर बेद सब किह िबबाह िबिध दे िहं ॥ ३२३ ॥
छं द
लागे पखारन पाय पंकज ेम तन पुलकावली ।
नभ नगर गान िनसान जय धुिन उमिग जनु चहँु िदिस चली ॥
जे पद सरोज मनोज अिर उर सर सदै व िबराजहीं ।
जे सकृ त सुिमरत िबमलता मन सकल किल मल भाजहीं ॥ १ ॥
दोहरा
जय धुिन बंदी बेद धुिन मंगल गान िनसान ।
सुिन हरषिहं बरषिहं िबबुध सुरतरु सुमन सुजान ॥ ३२४ ॥
छं द
अनुरुप बर दलिहिन
ु परस्पर लिख सकुच िहयँ हरषहीं ।
सब मुिदत सुंदरता सराहिहं सुमन सुर गन बरषहीं ॥
सुद
ं री सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं ।
जनु जीव उर चािरउ अवस्था िबमुन सिहत िबराजहीं ॥ ४ ॥
दोहरा
मुिदत अवधपित सकल सुत बधुन्ह समेत िनहािर ।
जनु पार मिहपाल मिन ि यन्ह सिहत फल चािर ॥ ३२५ ॥
जिस रघुबीर ब्याह िबिध बरनी । सकल कुअँर ब्याहे तेिहं करनी ॥
किह न जाइ कछु दाइज भूरी । रहा कनक मिन मंडपु पूरी ॥ १ ॥
कंबल बसन िबिच पटोरे । भाँित भाँित बहु मोल न थोरे ॥
गज रथ तुरग दास अरु दासी । धेनु अलंकृत कामदहा
ु सी ॥ २ ॥
बस्तु अनेक किरअ िकिम लेखा । किह न जाइ जानिहं िजन्ह दे खा ॥
लोकपाल अवलोिक िसहाने । लीन्ह अवधपित सबु सुखु माने ॥ ३ ॥
छं द
सनमािन सकल बरात आदर दान िबनय बड़ाइ कै ।
मुिदत महा मुिन बृंद बंदे पूिज ेम लड़ाइ कै ॥
िसरु नाइ दे व मनाइ सब सन कहत कर संपुट िकएँ ।
सुर साधु चाहत भाउ िसंधु िक तोष जल अंजिल िदएँ ॥ १ ॥
दोहरा
पुिन पुिन रामिह िचतव िसय सकुचित मनु सकुचै न ।
हरत मनोहर मीन छिब ेम िपआसे नैन ॥ ३२६ ॥
मासपारायण ग्यारहवाँ िव ाम
छं द
गाथे महामिन मौर मंजुल अंग सब िचत चोरहीं ।
पुर नािर सुर सुंदरीं बरिह िबलोिक सब ितन तोरहीं ॥
मिन बसन भूषन वािर आरित करिहं मंगल गाविहं ।
सुर सुमन बिरसिहं सूत मागध बंिद सुजसु सुनावहीं ॥ १ ॥
दोहरा
सिहत बधूिटन्ह कुअँर सब तब आए िपतु पास ।
सोभा मंगल मोद भिर उमगेउ जनु जनवास ॥ ३२७ ॥
दोहरा
सूपोदन सुरभी सरिप सुंदर स्वाद ु पुनीत ।
छन महँु सब कें परुिस गे चतुर सुआर िबनीत ॥ ३२८ ॥
पंच कवल किर जेवन लागे । गािर गान सुिन अित अनुरागे ॥
भाँित अनेक परे पकवाने । सुधा सिरस निहं जािहं बखाने ॥ १ ॥
परुसन लगे सुआर सुजाना । िबंजन िबिबध नाम को जाना ॥
चािर भाँित भोजन िबिध गाई । एक एक िबिध बरिन न जाई ॥ २ ॥
छरस रुिचर िबंजन बहु जाती । एक एक रस अगिनत भाँती ॥
जेवँत दे िहं मधुर धुिन गारी । लै लै नाम पुरुष अरु नारी ॥ ३ ॥
समय सुहाविन गािर िबराजा । हँ सत राउ सुिन सिहत समाजा ॥
एिह िबिध सबहीं भौजनु कीन्हा । आदर सिहत आचमनु दीन्हा ॥ ४ ॥
दोहरा
िनत नूतन मंगल पुर माहीं । िनिमष सिरस िदन जािमिन जाहीं ॥
बड़े भोर भूपितमिन जागे । जाचक गुन गन गावन लागे ॥ १ ॥
दे िख कुअँर बर बधुन्ह समेता । िकिम किह जात मोद ु मन जेता ॥
ाति या किर गे गुरु पाहीं । महा मोद ु ेमु मन माहीं ॥ २ ॥
किर नाम पूजा कर जोरी । बोले िगरा अिमअँ जनु बोरी ॥
तुम्हरी कृ पाँ सुनहु मुिनराजा । भयउँ आजु मैं पूरनकाजा ॥ ३ ॥
अब सब िब बोलाइ गोसाईं । दे हु धेनु सब भाँित बनाई ॥
सुिन गुर किर मिहपाल बड़ाई । पुिन पठए मुिन बृंद बोलाई ॥ ४ ॥
दोहरा
बामदे उ अरु दे विरिष बालमीिक जाबािल ।
आए मुिनबर िनकर तब कौिसकािद तपसािल ॥ ३३० ॥
दोहरा
बार बार कौिसक चरन सीसु नाइ कह राउ ।
यह सबु सुखु मुिनराज तव कृ पा कटाच्छ पसाउ ॥ ३३१ ॥
दोहरा
अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ ।
भए ेमबस सिचव सुिन िब सभासद राउ ॥ ३३२ ॥
दोहरा
दाइज अिमत न सिकअ किह दीन्ह िबदे हँ बहोिर ।
जो अवलोकत लोकपित लोक संपदा थोिर ॥ ३३३ ॥
सासु ससुर गुर सेवा करे हू । पित रुख लिख आयसु अनुसरे हू ॥
अित सनेह बस सखीं सयानी । नािर धरम िसखविहं मृद ु बानी ॥ ३ ॥
सादर सकल कुअँिर समुझाई । रािनन्ह बार बार उर लाई ॥
बहिर
ु बहिर
ु भेटिहं महतारीं । कहिहं िबरं िच रचीं कत नारीं ॥ ४ ॥
दोहरा
तेिह अवसर भाइन्ह सिहत रामु भानु कुल केतु ।
चले जनक मंिदर मुिदत िबदा करावन हे तु ॥ ३३४ ॥
दोहरा
रूप िसंधु सब बंधु लिख हरिष उठा रिनवासु ।
करिह िनछाविर आरती महा मुिदत मन सासु ॥ ३३५ ॥
छं द
किर िबनय िसय रामिह समरपी जोिर कर पुिन पुिन कहै ।
बिल जाँउ तात सुजान तुम्ह कहँु िबिदत गित सब की अहै ॥
पिरवार पुरजन मोिह राजिह ानि य िसय जािनबी ।
तुलसीस सीलु सनेहु लिख िनज िकंकरी किर मािनबी ॥
सोरठा
तुम्ह पिरपूरन काम जान िसरोमिन भावि य ।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥ ३३६ ॥
दोहा
ेमिबबस नर नािर सब सिखन्ह सिहत रिनवासु।
मानहँु कीन्ह िबदे हपुर करुनाँ िबरहँ िनवासु ॥ ३३७ ॥
दोहा
ेमिबबस पिरवारु सबु जािन सुलगन नरे स।
कुँअिर चढ़ाई पालिकन्ह सुिमरे िसि गनेस ॥ ३३८ ॥
बहिबिध
ु भूप सुता समुझाई। नािरधरमु कुलरीित िसखाई ॥
दासीं दास िदए बहते
ु रे। सुिच सेवक जे ि य िसय केरे ॥ १ ॥
सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होिहं सगुन सुभ मंगल रासी ॥
भूसुर सिचव समेत समाजा। संग चले पहँु चावन राजा ॥ २ ॥
समय िबलोिक बाजने बाजे। रथ गज बािज बराितन्ह साजे ॥
दसरथ िब बोिल सब लीन्हे । दान मान पिरपूरन कीन्हे ॥ ३ ॥
चरन सरोज धूिर धिर सीसा। मुिदत महीपित पाइ असीसा ॥
सुिमिर गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना ॥ ४ ॥
दोहा
सुर सून बरषिह हरिष करिहं अपछरा गान।
चले अवधपित अवधपुर मुिदत बजाइ िनसान ॥ ३३९ ॥
दोहा
कोसलपित समधी सजन सनमाने सब भाँित।
िमलिन परसपर िबनय अित ीित न हृदयँ समाित ॥ ३४० ॥
दोहा
नयन िबषय मो कहँु भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल ॥ ३४१ ॥
दोहा
िमले लखन िरपुसूदनिह दीिन्ह असीस महीस।
भए परस्पर ेमबस िफिर िफिर नाविहं सीस ॥ ३४२ ॥
दोहा
बीच बीच बर बास किर मग लोगन्ह सुख दे त।
अवध समीप पुनीत िदन पहँु ची आइ जनेत ॥ ३४३ ॥
दोहा
िबिबध भाँित मंगल कलस गृह गृह रचे सँवािर।
सुर ािद िसहािहं सब रघुबर पुरी िनहािर ॥ ३४४ ॥
जुथ जूथ िमिल चलीं सुआिसिन। िनज छिब िनदरिहं मदन िबलासिन ॥
सकल सुमग
ं ल सजें आरती। गाविहं जनु बहु बेष भारती ॥ ३ ॥
भूपित भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरिन समउ सुखु सोई ॥
कौसल्यािद राम महतारीं। ेम िबबस तन दसा िबसारीं ॥ ४ ॥
दोहा
िदए दान िब न्ह िबपुल पूिज गनेस पुरारी।
मुिदत परम दिर जनु पाइ पदारथ चािर ॥ ३४५ ॥
दोहा
कनक थार भिर मंगलिन्ह कमल करिन्ह िलएँ मात।
चलीं मुिदत पिरछिन करन पुलक पल्लिवत गात ॥ ३४६ ॥
दोहा
होिहं सगुन बरषिहं सुमन सुर दं द
ु भीं
ु बजाइ।
िबबुध बधू नाचिहं मुिदत मंजुल मंगल गाइ ॥ ३४७ ॥
दोहा
एिह िबिध सबही दे त सुखु आए राजदआर।
ु
मुिदत मातु परुछिन करिहं बधुन्ह समेत कुमार ॥ ३४८ ॥
दोहा
िनगम नीित कुल रीित किर अरघ पाँवड़े दे त।
बधुन्ह सिहत सुत पिरिछ सब चलीं लवाइ िनकेत ॥ ३४९ ॥
दोहा
एिह सुख ते सत कोिट गुन पाविहं मातु अनंद ु ॥
भाइन्ह सिहत िबआिह घर आए रघुकुलचंद ु ॥ ३५०(क) ॥
दोहा
दें िहं असीस जोहािर सब गाविहं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसरु सिहत गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ ॥ ३५१ ॥
दोहा
बधुन्ह समेत कुमार सब रािनन्ह सिहत महीसु।
पुिन पुिन बंदत गुर चरन दे त असीस मुनीसु ॥ ३५२ ॥
दोहा
चले िनसान बजाइ सुर िनज िनज पुर सुख पाइ।
कहत परसपर राम जसु ेम न हृदयँ समाइ ॥ ३५३ ॥
दोहा
सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोिल िब गुर ग्याित।
भोजन कीन्ह अनेक िबिध घरी पंच गइ राित ॥ ३५४ ॥
दोहा
लिरका िमत उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस किह गे िब ामगृहँ राम चरन िचतु लाइ ॥ ३५५ ॥
भूप बचन सुिन सहज सुहाए। जिरत कनक मिन पलँग डसाए ॥
सुभग सुरिभ पय फेन समाना। कोमल किलत सुपेतीं नाना ॥ १ ॥
उपबरहन बर बरिन न जाहीं। ग सुगंध मिनमंिदर माहीं ॥
रतनदीप सुिठ चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेिहं जोवा ॥ २ ॥
सेज रुिचर रिच रामु उठाए। ेम समेत पलँग पौढ़ाए ॥
अग्या पुिन पुिन भाइन्ह दीन्ही। िनज िनज सेज सयन ितन्ह कीन्ही ॥३॥
दे िख स्याम मृद ु मंजुल गाता। कहिहं स ेम बचन सब माता ॥
मारग जात भयाविन भारी। केिह िबिध तात ताड़का मारी ॥ ४ ॥
दोहा
घोर िनसाचर िबकट भट समर गनिहं निहं काहु ॥
मारे सिहत सहाय िकिम खल मारीच सुबाहु ॥ ३५६ ॥
दोहा
राम तोषीं मातु सब किह िबनीत बर बैन।
सुिमिर संभु गुर िब पद िकए नीदबस नैन ॥ ३५७ ॥
दोहा
कीन्ह सौच सब सहज सुिच सिरत पुनीत नहाइ।
ाति या किर तात पिहं आए चािरउ भाइ ॥ ३५८ ॥
नवान्हपारायण, तीसरा िव ाम
दोहा
मंगल मोद उछाह िनत जािहं िदवस एिह भाँित।
उमगी अवध अनंद भिर अिधक अिधक अिधकाित ॥ ३५९ ॥
दोहा
राम रूपु भूपित भगित ब्याहु उछाहु अनंद।ु
जात सराहत मनिहं मन मुिदत गािधकुलचंद ु ॥ ३६० ॥
छं द
िनज िगरा पाविन करन कारन राम जसु तुलसी क ो।
रघुबीर चिरत अपार बािरिध पारु किब कौनें ल ो ॥
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुिन जे सादर गावहीं।
बैदेिह राम साद ते जन सबर्दा सुखु पावहीं ॥
सोरठा
िसय रघुबीर िबबाहु जे स ेम गाविहं सुनिहं ।
ितन्ह कहँु सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु ॥ ३६१ ॥
मासपारायण, बारहवाँ िव ाम