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जीवन यात्रा क्रम

कुं डली मे जीवन की यात्रा पहले भाव से शरु होती है ,चौथे भाव तक शरीर का पालन पोषण
ककया जाता है और पहली यात्रा शरु हो जाती है सप्तम भाव तक पहली यात्रा चलती है ,सप्तम के
बाद जीवन की दू सरी यात्रा शरु होती है जो दसवे भाव तक चलती है ,दसवे से तीसरी और
अन्तिम यात्रा शरु हो जाती है जो दबारा से जीवन को दे ने के कलये पहले तक अपनी यात्रा को
जारी रखने के कलये माना जाता है .इस प्रकार से जीवन की यात्रायें क्रम से चलती रहती है ,शरीर
बदल जाते है योकन बदल जाती है कमो के अनसार जीवन का क्षेत्र बदल जाता है । अच्छे काम
जीवन की यात्रा मे ककये जाते है तो अच्छी योकन की प्रान्तप्त हो जाती है बरे काम ककये जाते है
तो बरी योकन की प्रान्तप्त हो जाती है । अच्छे और बरे दोनो प्रकार के कायय ककये जाते है तो अच्छे
और बरे दोनो प्रकार के सन्तिकलत पररणाम कमलते रहते है । शरीर पररवार जीवन साथी और
दकनयादारी यह चार रास्ते हर जीव के प्रकत अपने कवचार चार रास्तोुं की तरह से होते है और इन
चारो के कमलने के स्थान को चौराहे से जोड कर दे खा जा सकता है । जो व्यन्ति कजस रास्ते पर
जा रहा होता है वह अपने रास्ते को अगर लगातार दाकहनी तरफ़ लेकर चला जाता है तो वह
पहले पररवार मे चलेगा कफ़र जीवन साथी के साथ चलेगा और बाद मे जगत व्यवहार को लेकर
चलने के बाद वापस कफ़र से जीवन के प्रकत आकर नया जीवन शरु कर दे गा,यह मान्यता जगत
मे मान्य है और वैकदक तथा शास्त्रीय रीकत से इसे उत्तम रास्ता कहा जाता है । इसके कवपरीत
दू सरा व्यन्ति अपने लगातार बायीुं तरफ़ लेकर चलेगा तो वह पहले जगत व्यवहार को दे खना शरु
कर दे गा और कफ़र जीवन साथी और बाद मे पररवार की तरफ़ दे खकर दबारा से शरीर के प्रकत
आकर नया जन्म लेगा और दबारा से अपनी सृकि क्रम का साझेदार बन जायेगा। इस प्रकार से
दो प्रकार के भाव जीवन मे माने जाते है ।

सबह जागने के बाद व्यन्ति के अन्दर कई प्रकार के भाव पैदा होते है जो उसे पूरे कदन के कलये
अपनी चेतन और अचेतन मन के द्वारा प्रकट ककये जाते है । वह ककस क्षेत्र मे अपने को ले
जाये गा वह कवचार उसे या तो अपने कदमाग से लेकर चलना पडता है अथवा दू सरे लोग उसके
मन को अकिग्रहण करने के बाद चलाने के कलये माने जाते है । जो लोग अपने मन से चलते है वे
अक्सर बायीुं ओर चलने वाले माने जाते है और जो दू सरोुं के प्रकत दू सरोुं की िारणा से चलते है
वे दाकहनी तरफ़ चलने वाले लोगोुं के जैसे माने जाते है । जब उन्नकत और अवनकत क कारण दे खा
जाता है तो दाकहनी तरफ़ वाले व्यन्ति तो जगत के व्यवहार को पहले नही दे खते है वे पररवार
की सहायता से कफ़र जीवन साथी की सहायता से जगत व्यवहार को समझने की चेिा करते है
और उन्हे भावी कि ही कमलते है लेककन जो दाकहनी तरफ़ चलने वाले लोग होते है वे सीिे से
जगत व्यवहार से जडते है और उन्हे स्वाथी जगत की श्रेणी मे पहले से ही कनपटना होता तो वे
अपने जगत व्यवहार से अपने जीवन साथी को भी केवल आदे श से ही लेकर चलते है और अपने
पररवार को भी आदे श से लेकर चलने के कलये माने जाते है इस प्रकार से वे जगत व्यवहार के
आगे अपने वास्तकवक मूल्य को भूल कर केवल जगत व्यवहार के कलये ही होकर रह जाते है ,उन्हे
अपने जीवन का वास्तकवक रास्ता नही कमलता है जो कमलता है वह स्वाथय की रीकत से ही कमलता
है । जै से जगत व्यवहार का रास्ता खत्म हो जाता है तो जीवन साथी भी अपने स्वाथय की पूकतय के
कलये साथ चलता है और जैसे ही जीवन साथी का स्वाथय पूरा हो जाता है व्यन्ति अपने पररवार के
ऊपर कनभय र होकर रह जाता है एक समय ऐसा भी आता है जब व्यन्ति कनराट अकेला रहकर
अपने द्वारा लोगोुं की छल वाली नीकतयोुं के प्रकत सोचता हुआ अिगकत को प्राप्त करता है और
दू सरे जीवन मे अपनी उसी नीकत को िारणा मे लेकर चलता है ,उस िारणा के अन्दर जो पहले
जीवन की अनभूकत होती है वह दू सरे जीवन मे बदली हुयी होती है पहले जैसे उसे ठगा गया था
वह दू सरोुं को ठगना शरु कर दे ता है और जब जीवन साथी का क्षेत्र आता है तो वह जीवन
साथी के स्वाथय को भी अपनी चाहत से ठगने की बात सोचता है और स्वाथी भावना के रहते उसे
केवल अपनी स्वाथो की पूकतय के कलये ही प्रयोग मे लाता है अि मे अपने पररवार को भी ठग
कर दू सरी दकनया मे अपने को लेजकर ककसी ऐसे क्षेत्र को पकडता है जहाुं उसके जान पकहचान
या कोई सगा सम्बन्धी नही होता है वह अपने को अकेला रखकर अिगकत को प्राप्त करता है ।

इस यात्रा क्रम को कई लोग बीच मे बदल लेते है और वे जो दाकहने चलने वाले होते है वे अपने
को बायें चलाने लगते है और बायें चलने वाले दाकहने चलने के कलये भी माने जाते है कई लोग
ऐसे भी होते है जो अपने को बीच मे ही रोकर एक जगह पर स्थाकपत कर लेते है कफ़र उनका
जीवन के रहते हुये कोई मकसद नही होता है । या तो वे कनताि अकेले रहकर जीवन को
कनकालते है या अपने को दू सरो के भरोसे छोड कर पडे रहते है । जो लोग अकेले पडे रहते है
उनके अन्दर या तो खद का अहम भरा हुआ होता है या वे ककसी के अहम के कशकार हो गये
होते है । जो अहम के कशकार हुये होते है वे हर बात से अपने अन्दर शन्तिहीन मानने लगते है
और जो अपने अहम से अकेले पडे रहते है वे दू सरो को शन्तिहीन समझने लगते है । लेककन
दोनो ही बातो में दम नही होता है कारण जीव अपनी शन्ति को लेकर पैदा होता है और अपनी
शन्ति का प्रयोग करने के बाद ही अपनी गकत को समेट लेता है । अगर उसके अन्दर अहम की
भावना आजाती है तो वह अपने चलते हुये जीवन क्रम को कबगाडने का क्रम ही पैदा करता है
उसे अपनी शन्ति के आगे दू सरे की शन्ति की आभास नही हो पाता है । यही बात उन लोगो के
कलये भी पै दा होती है जो अपने को दू सरो का अहम का कशकार बनाकर पडे रहते है उन्हे
अपनी शन्ति का आभास नही हो पाता है ।

शन्ति का आभास प्राप्त करने के कलये जो चल रहा है उसे तो समझना होता ही है लेककन जो
आगे चलना है उसके प्रकत अनमान लगाना भी जरूरी होता है जो लोग अपने अनसार चलते है
और आगे की बातो को अनमान लगाकर जानने की क्षमता को रखते है वे तो आगे सफ़ल हो
जाते है और जो लोग जो हो रहा है उसी को मानकर चलते रहते है वे कभी कभी बडे रास्ते
पर जाकर भटक जाते है और अपने को जबरदस्ती ही शन्तिहीन मानने लगते है । एक समस्या
हमे शा के कलये कटक कर नही बैठती है वह समस्या पहले कचकडया की पूुंछ की तरह से प्रकट
होती है और बाद मे उसके पुंखोुं की तरह से फ़ैल कर बडी हो जाती है लेककन जब समाप्त
होती है तो कचकडया की चोुंच की तरह से समाप्त हो जाती है । कई बार यह भी दे खा जाता है
कक लोग अपने अपने अनसार समस्या का कनस्तारण करने की कोकशश करते है और वे असफ़ल
हो जाते है अगर उनके अन्दर अहम की मात्रा है तो वे समस्या को और अकिक बढाने लगते है
ले ककन जो लोग समझदार होते है वे उस समस्या के कनराकरण के कलये एक से अकिक लोगो से
पूुं छ कर चलते है तथा कजन लोगो ने अकिक बताया होता है और एक प्रकार का उत्तर कदया
होता है उन्ही का कहा मानकर चलने से अकिकतर बडी से बडी समस्या समाप्त हो जाती है ।

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