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पाठ-पुनः पाठ
लॉ क डा उ न
57 वें दिन का पाठाहार
तेंतीसवीं ि‍क़स्त‍
क्रम
प्रकाशकीय
4

कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए


ग़ज़ल
दुष्यंत कुमार
6

युद्ध और शान्ति
उपन्यास-अंश
लेव तोलस्तोय
8

मैं बोनसाई अपने समय का


आत्मकथा-अंश
रामशरण जोशी
29
जगलेखा
इन दिनों फेसबुक

सं कट में कविता
संजय कुंदन
53

ख़ाली जगह
आशुतोष दुबे
55

यह चलना मज़बूरी है...


मनोरमा सिंह
57

टैबू अभिव्यक्ति का नया तरीका है!


अनुराधा सिंह
59
प्रकाशकीय

कोरोना का संकट अब वैश्विक बदलाव का नया प्रस्थान बिंदु बन


चुका है। इसका असर मानव जीवन पर कई रूपों में पड़ने वाला है।
कुछ संकेत अब स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं। यह हमारी पढ़ने-लिखने
की आदतों पर भी अपनी छाप छोड़ेगा, ऐसा लग रहा है। अभी आप
चाहते हुए भी अपनी मनचाही किताब खरीद नहीं सकते, हम आपकी
कोई मदद कर नहीं सकते। जितनी ई-बुक या ऑडियो बुक ऑनलाइन
प्लेटफॉर्म पर मौजूद हैं, उनमें से ही चयन करना, पढ़ना और सुनना
एक विकल्प है। दूसरा विकल्प है, घर में उपलब्ध पढ़ी-अनपढ़ी किताबों
को इस लॉक डाउन की अवधि में पढ़ जाना। हमसे कई साहित्य-
अनुरागियों ने अपने ऐसे अनुभव साझा किए हैं कि उन्हें आजकल कई
भूली-बिसरी रचनाएँ याद आ रही हैं। उन्हें पढ़ने का मन हो रहा
है। कुछ को नई किताबों के बारे में भी जानने की उत्सुकता है,
जिनके बारे में चर्चा सुन रखी है। हमने इन सब स्थितियों के
मद्देनज़र जब तक लॉकडाउन है तब तक प्रतिदिन आप सबको एक
पुस्तिका उपलब्ध कराने का संकल्प किया है। व्हाट्सएप्प पर
निःशुल्क पाठाहार।

लॉकडाउन : 53वाँ दिन


प्रकाशक

22 मार्च 2020 से हमने फेसबुक लाइव के जरिये अपने व्यापक


साहित्यप्रेमी समाज से लेखकों के संवाद का एक सिलसिला बना रखा
है। जब से सोशल डिस्टेंसिंग यानी संग-रोध का दूसरा दौर शुरू हुआ
है, तब से हम अपनी जिम्मेदारी और बढ़ी हुई महसूस कर रहे हैं।
सभी के लिए मानसिक खुराक उपलब्ध रहे, यह अपना सामाजिक
दायित्व मानते हुए अब हम ‘पाठ-पुनर्पाठ’ पुस्तिकाओं की यह श्रृंखला
शुरू कर रहे हैं। ईबुक और ऑडियोबुक डाउनलोड करने की सुविधा
सबके लिए सुगम नहीं है। इसलिए हम अब व्हाट्सएप्प पर सबके
लिए नि:शुल्क रचनाएँ नियमित उपलब्ध कराने जा रहे हैं। इन्हें प्राप्त
करने के लिए आप राजकमल प्रकाशन समूह का यह व्हाट्सएप्प नम्बर
98108 02875 अपने फोन में सुरक्षित करें और उसके बाद उसी नम्बर
पर अपना नाम लिखकर हमें मैसेज करें। आपको नियमित नि:शुल्क
पुस्तिका मिलने लगेगी। हम समझते हैं कि यह असुविधाकारी नहीं है।
आप जब चाहें, पावती सेवा बंद करवा सकते हैं। जब चाहें, पुनः
शुरू करा सकते हैं। जब तक लॉक डाउन है, आप घर में हैं लेकिन
अकेले नहीं हैं। राजकमल प्रकाशन समूह आपके साथ है। भरोसा रखें।

साथ जुड़ें, साथ पढ़ें...

अशोक महेश्वरी
प्रबंध निदेशक, राजकमल प्रकाशन समूह

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कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए
*
दुष्यंत कुमार

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये


कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है


चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे


ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही


कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता


मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
लॉकडाउन : 54वाँ दिन
कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले


मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये।
[साये में धूप संग्रह से]

7
युद्ध और शान्ति
खंड-3

*
लेव तोलस्तोय

इसी बीच मास्को ख़ाली हो गया था। उसमें लोग तो थे, उसमें
उसके भूतपूर्व निवासियों का पचासवाँ भाग रह गया था, लेकिन
वह ख़ाली था। वह उसी तरह से ख़ाली था जैसे मधुमक्खियों के
छत्ते की महारानी के बिना नष्ट होता हुआ छत्ता ख़ाली होता है।
महारानीहीन छत्ते में ि‍ज़न्दगी नहीं होती, लेकिन सरसरी नज़र से देखने
पर वह दूसरे छत्तों की तरह जीवन से धड़कता प्रतीत होता है।
दोपहर की गर्म धूप में महारानीहीन छत्ते के गिर्द भी वैसे ही मधुमक्खियाँ
मँडराती रहती हैं जैसे जीवन से धड़कते अन्य छत्तों के गिर्द; उसमें
भी उसी भाँति दूर से ही शहद की सुगन्ध आती है, उसमें भी उसी
प्रकार मधुमक्खियाँ दाख़ि‍ल होती हैं और उससे बाहर निकलती हैं।
किन्तु उसे ध्यान से देखते ही यह बात समझ में आ जाती है कि
छत्ते में ि‍ज़न्दगी नहीं रही। मधुमक्खियाँ उसमें न तो जीवित छत्तों की
भाँति दाख़ि‍ल होती हैं और बाहर निकलती हैं, न ही मधुमक्खी-पालक
लॉकडाउन : 55वाँ दिन
युद्ध और शान

को पहले जैसी सुगन्ध और ध्वनि की अनुभूति होती है। रुग्ण छत्ते


की दीवार को धीरे से थपथपाने पर पहले की तरह मधुमक्खियों
के फ़ौरन और एक साथ जवाब देने के बजाय; दसियों हज़ार
मधुमक्खियों के भिनभिनाने, रौद्र रूप धारण करते हुए डंकों को
ऊपर उठाने और पंखों को ज़ोर से सरसराने तथा जीवन का आभास
देनेवाली आवाज़ की जगह उसे ख़ाली छत्ते के विभिन्न स्थानों से
अलग-अलग भिनभिनाहट सुनाई देती है। मधुमक्खियों के प्रवेश-द्वार
से अब पहले ही भाँति शहद की मदिरा-मिश्रित-सी सुगन्ध नहीं आती,
छत्ते की पूरी तरह भरे होने की गर्माहट की नहीं, बल्कि शहद के
साथ रिक्तता और सड़ी हुई मिट्टी की गन्ध की अनुभूति होती है।
प्रवेश-द्वार के पास अब वे सन्तरी-मधुमक्खियाँ भी नहीं हैं जो ख़तरे
की सूचना देती हैं और अपने डंक ऊपर उठाकर छत्ते की रक्षा के
लिए अपने प्राण तक देने को तैयार होती हैं। पानी के उबलने की
आवाज़ से मिलती-जुलती मधुमक्खियों के श्रम की समरस और
धीमी ध्वनि भी नहीं रही, इसकी जगह गड़बड़, अलग-अलग और
अटपटी आवाज़ों का शोर सुनाई देता है। काली, कुछ लम्बी-सी,
शहद से सनी चोर-मधुमक्खियाँ भीरुता और धूर्तता से छत्ते में प्रवेश
करती हैं तथा उससे बाहर निकलती हैं। वे डंक नहीं मारतीं, बल्कि
ख़तरे से बच निकलती हैं। पहले वे शहद लिये हुए छत्ते में प्रवेश
करती थीं और ख़ाली बाहर जाती थी, लेकिन अब वो शहद लेकर
बाहर जाती हैं। मधुमक्खी-पालक छत्ते का निचला भाग खोलता है
और उसके तल में नज़र डालता है। एक-दूसरी की टाँगों के सहारे
छत्ते के तल में लटकी, श्रम में जुटी काली, चमकीली और श्रम की
सतत फुसफुसाहट से मोम को बाहर निकालती मधुमक्खियों की जगह
अब उसे छत्ते के तल और भिन्न दीवारों पर उनींदी और क्षीण तथा
खोई-खोई-सी मधुमक्खियाँ भिन्न दिशाओं में भटकती दिखाई देती हैं।
अच्छे ढंग से चिपके और पंखों द्वारा बुहारे गए फ़र्श की जगह अब
9
पाठ-पुनः पाठ

मोम के टुकड़े, मधुमक्खियों का मल, अधमरी, पैरों को ज़रा-ज़रा


हिलाती-डुलाती तथा पूरी तरह मरी हुई मधुमक्खियाँ दिखाई देती हैं
जिन्हें यहाँ से हटाया नहीं गया है।
मधुमक्खी-पालक छत्ते का ऊपरवाला भाग खोलता है और उसके
शिखर को बहुत ध्यान से देखता है। मधुमक्खियों की बहुत ही सटी
हुई और हर दरार को भरकर मधुकोषों को गर्म रखनेवाली क़तारों की
जगह वह छत्तों के निर्माण की कलापूर्ण और जटिल कारीगरी देखता
है, किन्तु उसमें भी अब पहले जैसी कौमार्य-सुलभ निर्मलता नहीं है।
सब कुछ उपेक्षित और गन्दा हो गया है। काली चोर-मधुमक्खियाँ
शहद की तलाश में फुर्ती से और छिपे-छिपे छत्तों में घूमती हैं,
जबकि छत्ते की क्षीण और दुर्बल, मुरझाई तथा बूढ़ी-सी लगनेवाली
मधुमक्खियाँ मानो जीवन की चाह और चेतना खोकर धीरे-धीरे हिलती-
डुलती हैं और चोर-मधुमक्खियों के लिए किसी तरह की बाधा नहीं
बनतीं। काहिल नर-मधुमक्खियाँ, भिड़, तितलियाँ और ततैये उड़ते
हुए अटपटे ढंग से छत्ते की दीवारों से टकराते हैं। कहीं-कहीं मृत
बच्चों और शहदवाले मधुकोषों के बीच विभिन्न दिशाओं से खीजी-
खीजी भिनभिनाहट सुनाई देती है; कहीं पुरानी आदत और याददाश्त
के मुताबिक़ दो मधुमक्खियाँ अपनी शक्ति से ज़्यादा ज़ोर लगाती
हुई छत्ते के एक भाग को साफ़ कर रही है और यह न जानते हुए
कि वे किसलिए ऐसा करती हैं, मृत मधुमक्खी या ततैये को बाहर
निकाल रही हैं। एक अन्य कोने में दो बूढ़ी मधुमक्खियाँ आपस में
धीरे-धीरे लड़ रही हैं या अपने को साफ़ कर रही हैं अथवा एक-
दूसरी को खिला रही हैं तथा ख़ुद भी यह नहीं जानतीं कि वे मैत्री
या शत्रुता से ऐसा कर रही हैं। तीसरी जगह पर मधुमक्खियों की
भीड़ एक-दूसरी को कुचलती हुई किसी एक बलि पर झपट रही
है, उसे पीट और उसका गला घोंट रही है। शक्तिहीन हो जानेवाली
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
युद्ध और शान

या मृत मधुमक्खी धीरे-धीरे और एक हलके से रोयें की भाँति लाशों


के ढेर पर गिर जाती है। मधुमक्खी पालक शहद के बिना मध्य
के दो मधुकोषों को हटाता है ताकि घोंसले को देख सके। हज़ारों
मधुमक्खियों के काले घेरों की जगह, जो पहले एक-दूसरी के साथ
पीठें सटाए बैठी रहती थीं और जन्म-प्रक्रिया के उच्चतम रहस्य की
रक्षा करती थीं, अब उसे केवल सैकड़ों उदास, अर्धजीवित और
सो रही मधुमक्खियों के अंजर-पंजर ही दिखाई देते हैं। वे स्वयं यह
नहीं जानती थीं कि लगभग सभी-की-सभी उस पावन-स्थान पर मर
चुकी हैं जिसकी वे रक्षा कर रही थीं और जिसका अब अस्तित्व
नहीं रहा था। उनसे मिट्टी और क्षय की ही गन्ध आती है। उनमें से
केवल कुछ ही हिलती-डुलती हैं, ऊपर उठती हैं, मुरझाई-मुरझाई-
सी उड़ती हैं, शत्रु के हाथ पर बैठती हैं, मगर उनमें डंक मारकर
मरने की शक्ति बाक़ी नहीं रही है, जबकि बाक़ी सभी मृत हैं और
मछली की केंचुली की भाँति बड़ी आसानी से नीचे झड़ जाती हैं।
मधुमक्खी-पालक छत्ते पर खड़ि‍या से निशान बना देता है और वक़्त
मिलने पर इसे तोड़कर जला डालता है।
मास्को भी इसी तरह से ख़ाली था, जब थका-हारा, बेचैन और माथे
पर बल डाले नेपोलियन अपनी धारणा के अनुसार बेशक औपचारिकता
के लिए ही, किन्तु शिष्टता की दृष्टि से आवश्यक—प्रतिनिधिमण्डल
की प्रतीक्षा करते हुए कामेरकोलेज्स्की प्राचीर के पास इधर-उधर
आ-जा रहा था।
पुरानी आदतों का अनुकरण करते और यह न समझ पाते हुए कि
वे क्या कर रहे हैं, मास्को के विभिन्न भागों में अभी भी कुछ
लोग निरुद्देश्य ढंग से आ-जा रहे थे।
जब उचित सावधानी से नेपोलियन को यह सूचना दी गई कि
11
पाठ-पुनः पाठ

मास्को ख़ाली है तो उसने सूचना देनेवाले को ग़ुस्से से देखा और


मुँह फेरकर इधर-उधर आता-जाता रहा।
“बग्घी लाई जाए,” उसने कहा। वह ड्यूटी बजा रहे एडजुटेंट की
बग़ल में बैठ गया और उसने मास्को के उपनगर की ओर बग्घी
बढ़ाने को कहा।
‘मास्को ख़ाली है। कैसी अनहोनी बात है!’ उसने अपने आपसे कहा।
वह शहर में न जाकर दोरोगामीलोव्स्की उपनगर में ठहर गया। नाटक
का चरमबिन्दु सामने नहीं आया था।

रूसी सेनाएँ रात के दो बजे से दिन के दो बजे तक मास्को से


गुज़रीं और यहाँ से जानेवाले अन्तिम नागरिकों और घायलों को भी
अपने साथ ले गईं।
सेनाओं के आने के समय कामेन्नी, मोस्क्वोरेत्स्की और याउज़्स्की
पुलों पर ही सबसे ज़्यादा रेल-पेल हुई।
सेनाएँ जब दो भागों में बंटकर और क्रेमलिन के गिर्द घूमकर
मोस्कक्वोरेत्स्की और कामेन्नी पुलों की ओर बढ़ रही थीं, यहाँ
होनेवाली देर और घिच-पिच का लाभ उठाते हुए ढेरों सैनिक चुपके से
तथा चोरी-छिपे वसीली ब्लाजेन्नी के बड़े गिरजाघर और बोरोवीत्स्की
फाटक को लाँघते हुए पुलों से पहाड़ी पर और फिर लाल चौक
में वापस आ गए। उनकी सहज वृत्ति ने उन्हें यह बता दिया कि
यहाँ ये किसी भी तरह की कठिनाई के बिना पराए माल पर हाथ
साफ़ कर सकते हैं। गोस्तीनी द्वोर के सभी ओनों-कोनों में वैसी ही
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
युद्ध और शान

भीड़ थी जैसी कि सस्ते मालोंवाले बाज़ार में होती है। लेकिन यहाँ
मीठी-मीठी बातों से ग्राहकों को अपनी दुकान की ओर फुसलानेवालों,
फेरी लगानेवालों तथा रंग-बिरंगी पोशाकों में महिला-ग्राहकों की भीड़
नहीं थी। यहाँ तो हथियारों के बिना वर्दियाँ और फ़ौजी ओवरकोट
पहने हुए सिर्फ़ फ़ौजी ही नज़र आ रहे थे जो दुकानों की क़तारों
में चुपचाप ख़ाली हाथ दाख़ि‍ल होते थे और सामान लेकर बाहर
निकलते थे। व्यापारी, दुकानदार और उनके सहायक (उनकी संख्या
बहुत कम थी) फ़ौजियों के बीच किंकर्तव्यविमूढ़-से आ-जा रहे थे,
अपनी दुकानों को खोलते और बन्द करते थे तथा युवा सहायकों के
साथ अपना माल कहीं ले जाते थे। इस बाज़ार के चौक में फ़ौजियों
के अपनी-अपनी सेनाओं में जाने के लिए ढोल बजाय जा रहे थे।
किन्तु ढोलों की आवाज़ लुटेरे सैनिकों को पहले की भाँति सेना में
वापस दौड़ने के लिए नहीं, बल्कि इसके विपरीत, ढोल से दूर भागने
को प्रेरित करती थी। दुकानों में और रास्तों पर फ़ौजियों के बीच
भूरे कोट पहने, सिर मुंडे अपराधी भी नज़र आ रहे थे। दो फ़ौजी
अफ़सर, जिनमें से एक वर्दी पर गुलूबन्द लपेटे और गहरे सलेटी रंग
के दुबले-से घोड़े पर सवार था तथा दूसरा फ़ौजी ओवरकोट पहने
और पैदल था, इल्यीन्का सड़क के सिरे पर खड़े बातें कर रहे थे।
एक तीसरा अफ़सर सरपट घोड़ा दौड़ाता हुआ इनके पास आया।
“जनरल का हुक्म है कि जैसे भी हो, इन सबको फ़ौरन यहाँ से
वापस भगाना चाहिए। यह तो बड़ी बेहूदा बात हो रही है! आधे
फ़ौजी इधर-उधर भाग गए हैं।”
“तुम कहाँ जा रहे हो?...और तुम लोग भी...” वह तीन प्यादा फ़ौजियों
पर चिल्लाया जो बन्दूक़ों के बिना और अपने फ़ौजी ओवरकोटों के
पल्लुओं को ऊपर उठाए हुए दुकानों की क़तारों की तरफ़ खिसके
जा रहे थे। “रुको, बदमाशो!”
13
पाठ-पुनः पाठ

“हाँ, कोशिश कर देखो इन्हें एकत्रित करने की!” दूसरे अफ़सर ने


जवाब दिया। “इन्हें इकट्ठा नहीं कर पाओगे। हमें जल्दी आगे बढ़ना
चाहिए ताकि बाक़ी बचे हुए भी न भाग जाएँ। बस, यही किया जा
सकता है!”
“लेकिन आगे बढ़ें तो कैसे? वहाँ पुल पर वे रुक गए हैं, जैसे किसी
ने कील गाड़ दी हो और हिलते-डुलते ही नहीं। या फिर हम इनके
गिर्द घेरा डाल दें ताकि आ‍ख़ि‍री भी न भाग जाएँ?”
“आप वहाँ जाइए! इन्हें दुकानों से बाहर निकाल दीजिए!” बड़े
अफ़सर ने चिल्लाकर कहा।
गुलूबन्द लपेटे हुए अफ़सर घोड़े से नीचे उतरा, उसने ढोल-वादक
को पुकारा और उसे साथ लेकर दुकानों की तरफ़ गया। कुछ फ़ौजी
एक साथ वापस भाग चले। नाक के पास गालों पर लाल-लाल
फुंसियोंवाला एक दुकानदार अपने फूले-फूले चेहरे पर स्वार्थपूर्ण,
शान्त-दृढ़ भाव लिये हाथों को लहराता हुआ जल्दी-जल्दी और
बाँकपन से इस फ़ौजी अफ़सर के पास आया।
“हुज़ूर,” उसने कहा, “मेहरबानी कीजिए, हमें बचाइए। छोटी-मोटी
चीज़ों के मामले में तो हम ख़ुद भी परवाह नहीं करते, ख़ुशी से
देने को तैयार हैं। आप जैसे सज्जन व्यक्ति के लिए मैं कभी कपड़े
का एक या दो टुकड़े भी बड़ी ख़ुशी से लाकर पेश कर सकता हूँ!
कारण कि हम सारी स्थिति को समझते हैं, लेकिन यह तो बिलकुल
लूट ही मची हुई है! कृपया मदद कीजिए! सन्तरी खड़े कर दीजिए,
और कुछ नहीं तो हमें दुकानें ही बन्द कर लेने दीजिए...”
अफ़सर के इर्द-गिर्द कुछ दुकानदार जमा हो गए।
“अरे, किसलिए व्यर्थ झींक रहे हो!” इनमें से एक दुबले-पतले और
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
युद्ध और शान

कठोर चेहरेवाले ने कहा। “जिसका सिर ही कट रहा हो, वह बालों


के लिए नहीं रोता। जिसे जो चाहिए, ले सकता है!” और उसने ज़ोर
से हाथ झटकर अफ़सर की ओर से मुँह फेर लिया।
“तुम्हारे लिए यह कहना बड़ा आसान है,” पहले दुकानदार ने
झल्लाकर जवाब दिया। “आप, हुज़ूर, हमारी मदद कीजिए।”
“कहने की बात ही क्या है!” दुबले-पतले दुकानदार ने चिल्लाकर
जवाब दिया। “मेरी तीन दुकानों में यहाँ एक लाख रूबल का माल
भरा हुआ है। फ़ौजों के यहाँ से चले जाने पर क्या इसे बचाया जा
सकता है। भगवान की इच्छा के सामने भला किसका बस चलता है!”
“हुज़ूर, जनाब, मदद कीजिए,” पहले दुकानदार ने सिर झुकाते हुए
फिर से मिन्नत की। फ़ौजी अफ़सर दुविधा में पड़ा हुआ खड़ा रहा
और उसके चेहरे पर अनिश्चितता का भाव झलक रहा था।
“मुझे क्या लेना-देना है इससे!” वह अचानक चिल्लाकर कह उठा
और तेज़ क़दमों से दुकानों की क़तार की तरफ़ बढ़ चला। एक
दुकान में से, जिसका दरवाज़ा खुला हुआ था, घूँसों और गाली-गलौज
की आवाज़ सुनाई दे रही थी और फ़ौजी अफ़सर जिस वक़्त इसके
पास पहुँचा, तो मुंडे हुए सिरवाले व्यक्ति को, जो भूरा कोट पहने
था, ज़ोर से बाहर फेंका गया।
यह व्यक्ति झुककर दुकानदारों और फ़ौजी अफ़सर के क़रीब से भागता
हुआ निकल गया। फ़ौजी अफ़सर दुकान में घुसे हुए फ़ौजियों पर
झपटा। किन्तु इसी समय मोस्क्वोरेत्स्की पुल के एकत्रित भारी भीड़
की ज़ोरदार चीख़ें सुनाई दीं और अफ़सर चौक की तरफ़ भाग गया।
“क्या बात है? क्या बात है?” उसने पूछा, किन्तु उसका साथी
अफ़सर वसीली ब्लाजेन्नी के क़रीब से गुज़रता हुआ चीख़ों की
15
पाठ-पुनः पाठ

दिशा में अपने घोड़े को सरपट दौड़ाता जा रहा था। यह अफ़सर भी


अपने घोड़े पर सवार होकर उसके पीछे हो लिया। पुल के नज़दीक
पहुँचने पर उसे तोपगाड़ी से नीचे उतारी गई दो तोपें, पुल पर बढ़ती
प्यादा फ़ौजें, कुछ उलटी पड़ी घोड़ागाडि़याँ, भीड़ के कुछ हरे-सहमे
और फ़ौजियों के मुस्कराते चेहरे दिखाई दिए। तोपों के नज़दीक एक
घोड़ा-गाड़ी खड़ी थी जिसमें दो घोड़े जुते हुए थे। इस घोड़ागाड़ी के
पहिए के पीछे पट्टोंवाले चार शिकारी कुत्ते दुबके हुए थे। घोड़ागाड़ी
सामान से लदी थी और उसके ऊपर उलटी रखी बच्चों की कुर्सी
पर बैठी हुई एक औरत बहुत ज़ोर से गला फाड़कर चिल्ला रही
थी। फ़ौजी अफ़सर के साथियों ने उसे बताया कि लोगों की भीड़
और यह औरत इसलिए चीख़-चिल्ला रही थी कि जनरल येर्मोलोव
ने यहाँ भीड़-भड़क्का देखकर और यह मालूम होने पर कि फ़ौजी
दुकानों की तरफ़ भाग रहे हैं तथा ग़ैरफ़ौजी लोग पुल पर जमघट
लगाए हुए हैं, यह हुक्म दे दिया कि तोपगाड़ी से दो तोपें उतार ली
जाएँ और वह पुल पर गोले बरसाने का दिखावा करेगा। लोगों की
भीड़ ने घोड़ागाडि़यों को उलटते, एक-दूसरे को कुचलते, ज़ोर से
चीख़ते-चिल्लाते और रेल-पेल करते हुए पुल ख़ाली कर दिया और
फ़ौजें आगे बढ़ चलीं।

इसी बीच नगर सुनसान हो गया था। सड़कों पर लगभग कोई नहीं
था। सभी फाटक, सभी दुकानें बन्द थीं। शराबख़ानों के आस-पास
कहीं किसी का चिल्लाना या किसी शराबी का गाना सुनाई देता था।
सड़कों पर घोड़ागाडि़याँ नहीं थीं और पैदल चल रहे किसी व्यक्ति
के पाँवों की भी कभी-कभार ही आहट मिलती थी। पोवर्स्काया सड़क
पर एकदम सन्नाटा और वीराना था। रोस्तोवों की हवेली के बहुत बड़े
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
युद्ध और शान

अहाते में बची-बचाई सूखी घास और घोड़ों की लीद पड़ी थी तथा


एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। पूरे सामान के साथ छोड़
दिए गए रोस्तोवों के घर के बड़े ड्राइंगरूम में इस वक़्त दो व्यक्ति
थे—अहाते की देखभाल करनेवाला चौकीदार इग्नात और वसीलिच
का पोता, छोकरा नौकर मीश्का जो अपने दादा के साथ मास्को
में रह गया था। मीश्का क्वालीकॉर्ड बाजा खोलकर एक उँगली से
उसे बजा रहा था। चौकीदार कमर पर दोनों हाथ रखे तथा ख़ुशी से
मुस्कराते हुए बड़े आईने के सामने खड़ा था।
“क्यों, बढ़ि‍या है न, चाचा इग्नात!” मीश्का ने अचानक दोनों हाथों
से क्वालीकॉर्ड के परदों को धपधपाते हुए पूछा।
“अरे, वाह!” इग्नात ने दर्पण में अपने चेहरे की अधिकाधिक फैलती
मुस्कान पर हैरान होते हुए जवाब दिया।
“बेहया कहीं के। सचमुच तुम दोनों बेहया हो!” दबे पाँव ड्राइंगरूम
में आ जानेवाली माव्रा कुज़्मीनिश्ना की पीछे से आवाज़ सुनाई दी।
“इन मोटे तोबड़ेवाले को दाँत निपोरते तो देखो! तुम दोनों की इस
सबके लिए ख़बर ली जानी चाहिए। वहाँ नीचे, अभी तक सामान
ठीक-ठाक नहीं हुआ और वसीलिच का थकान के मारे बुरा हाल
है। देखना, बाद में तुम्हें कैसा मज़ा चख़ाया जाएगा!”
इग्नात ने मुस्कुराना बन्द करके अपनी पेटी ठीक की और आज्ञाकारिता
से आँखें झुकाए हुए कमरे से बाहर चला गया।
“चाची, मैं अभी बहुत धीरे-धीरे ही इसे बजाऊँगा,” छोकरे ने कहा।
“हाँ, दूँगी मैं तुझे इसे धीरे-धीरे बजाने, शैतान कहीं का!” माव्रा
कुज़्मीनिश्ना ने उसे घूँसा दिखाते हुए जवाब दिया। “जा, जाकर
दादा के लिए समोवार गर्म कर।”
17
पाठ-पुनः पाठ

माव्रा कुज़्मीनिश्ना ने धूल झाड़कर क्लावीकॉर्ड को बन्द कर दिया,


गहरी साँस लेकर ड्राइंगरूम से बाहर आई और घर के दरवाज़े पर
ताला लगा दिया।
माव्रा कुज़्मीनिश्ना अहाते में आकर यह सोचने लगी कि अब किधर
जाए—वसीलिच के साथ चाय पीने के लिए नौकरों के उपभवन में
या स्टोर-रूम में आकर उस सामान को ठीक-ठाक करे जो अभी
तक ठीक नहीं किया गया था?
सुनसान सड़क पर तेज़ क़दमों की आहट मिली। यह आवाज़ छोटे
फाटक के पास आकर रुक गई। किसी का हाथ अर्गल को खोलने
की कोशिश करने लगा और इस तरह अर्गल की कुछ आवाज़ होने
लगी।
माव्रा कुज़्मीनिश्ना फाटक के पास आई।
“आपको किससे मिलना है?”
“काउंट, काउंट रोस्तोव से।”
“आप कौन हैं?”
“मैं फ़ौजी अफ़सर हूँ। मुझे उनसे ज़रूर मिलना है,” सुखद और
कुलीनों जैसे रूसी लहजे में उत्तर मिला।
माव्रा कुज़्मीनिश्ना ने फाटक खोल दिया। रोस्तोवों के चेहरों से
मिलते-जुलते चेहरेवाला एक अठारह वर्षीय अफ़सर अहाते में आया।
“भैया मेरे, वे तो चले गए। कल, शाम को यहाँ से चले गए,”
माव्रा कुज़्मीनिश्ना ने प्यार से जवाब दिया।
फाटक के पास खड़े जवान अफ़सर ने मानो इस दुविधा में पड़ते
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
युद्ध और शान

हुए कि अहाते में जाए या न जाए, चटख़ारा भरा।


“ओह, कितने अफ़सोस की बात है!” वह कह उठा, “मुझे कल
आना चाहिए था...ओह, कितने अफ़सोस की बात है!...”
इसी बीच माव्रा कुज़्मीनिश्ना इस जवान व्यक्ति के चेहरे में रोस्तोव
वंश के जाने-पहचाने नाक-नक़्श, उसके फटे हुए हलके ओवरकोट
और ख़स्तहाल बूटों को बहुत ध्यान और बड़ी सहानुभूति से देख
रही थी।
“आपको काउंट की किसलिए ज़रूरत थी?” उसने पूछा।
“ओह, ख़ैर...अब तो कुछ भी नहीं हो सकता!” फ़ौजी अफ़सर ने
क्षुब्ध होते हुए कहा और मानो जाने के इरादे से फाटक को खोलना
चाहा। वह डाँवाडोल मन से फिर रुक गया।
“बात यह है,” उसने अचानक कहा। “मैं काउंट का रिश्तेदार हूँ
और मुझ पर उनकी हमेशा ही बड़ी कृपा रही है। बात यह है (उसने
किसी तरह की झेंप के बिना तथा ख़ुशमिज़ाजी से अपने हलके
ओवरकोट और बूटों को देखा) कि मैं फटेहाल हूँ और जेब भी
ख़ाली है; इसलिए मैं काउंट से कुछ पैसे...”
माव्रा कुज़्मीनिश्ना ने उसे अपनी बात पूरी नहीं करने दी।
“आप, ज़रा देर को, एक मिनट को रुक जाएँ। बस, एक मिनट,”
उसने कहा। फ़ौजी अफ़सर ने फाटक पर से जैसे ही अपना हाथ
हटाया, माव्रा कुज़्मीनिश्ना मुड़ी और अपनी बुढ़ापे की टाँगों पर तेज़ी
से पिछवाड़े के अहाते में स्थित अपने उपभवन की ओर चल दी।
माव्रा कुज़मीनिश्ना जब अपने कमरे की तरफ़ भागी जा रही थी, उसी
वक़्त फ़ौजी अफ़सर सिर झुकाकर अपने फटे बूटों को देखता और
19
पाठ-पुनः पाठ

ज़रा मुस्कुराता हुआ अहाते में इधर-उधर आ-जा रहा था। ‘कितने
अफ़सोस की बात है कि मामा जी नहीं मिले। कितनी अच्छी है
यह बुढ़ि‍या! न जाने किधर चली गई वह? कैसे मैं यह मालूम करूँ
कि मेरे लिए किन सड़कों से होते हुए अपनी रेजिमेंट तक पहुँचना
आसान रहेगा जो अब रोगोज्स्की चौक में पहुँच गई होगी?’ जवान
अफ़सर इस वक़्त सोच रहा था। माव्रा कुज़्मीनिश्ना हाथों में लपेटा
हुआ चौख़ानेदार रूमाल तथा चेहरे पर भीरुता, साथ ही दृढ़ता का
भाव लिये घर के कोने से सामने आई। जवान अफ़सर से कुछ
क़दम इधर रह जाने पर उसने रूमाल खोला, उसमें से पच्चीस रूबल
का सफ़ेद नोट निकाला और उसे जल्दी से अफ़सर को दे दिया।
“अगर मालिक, हमारे साहब घर पर होते तो स्पष्ट है कि उन्होंने
रिश्तेदार की तरह...लेकिन आज की स्थिति में...शायद....” माव्रा
कुज़्मीनिश्ना घबरा और झेंप गई। किन्तु अफ़सर ने इनकार नहीं
किया, उतावली किए बिना नोट ले लिया और माव्रा कुज़्मीनिश्ना
को धन्यवाद दिया। “काश, काउंट घर पर होते,” मानो सफ़ाई पेश
करते हुए वह कहती रही। “आप पर प्रभु ईसा की कृपादृष्टि रहे,
भैया! भगवान आपकी रक्षा करें,” माव्रा कुज़्मीनिश्ना ने सिर झुकाकर
उसे विदा करते हुए कहा। जवान फ़ौजी अफ़सर मानो अपने पर
हँसता, मुस्कुराता, सिर हिलाता और सूनी सड़कों पर लगभग भागता
हुआ अपनी रेजिमेंट से जा मिलने के लिए याउज्स्की पुल की तरफ़
बढ़ चला।
और माव्रा कुज़्मीनिश्ना, जिसकी आँखें नम हो गई थीं, कुछ सोचती,
सिर हिलाती और इस अपरिचित जवान अफ़सर के लिए अचानक
मातृवत वात्सल्य और दया की प्रबल भावना अनुभव करती हुई देर
तक बन्द फाटक के सामने खड़ी रही।

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युद्ध और शान

वारवारका सड़क के एक अर्ध-निर्मित घर के निचले भाग में, जहाँ


एक शराबख़ाना था, नशे में धुत लोगों का चीख़ना-चिल्लाना और
गाना सुनाई दे रहा था। एक गन्दे और छोटे से कमरे में मेज़ के
सामने रखी बेंचों पर कोई दसेक फ़ैक्टरी-मज़दूर बैठे थे। सभी नशे
में गड़गच्च और पसीने से तर थे, उनकी आँखें धुँधलाई हुई थीं और
वे ज़ोर से तथा ख़ूब चौड़ा मुँह खोलकर कोई गाना गा रहे थे। वे
अलग-अलग आवाज़ों में, मन मारकर और उत्साहहीन ढंग से गा
रहे थे, सम्भवत: इसलिए नहीं कि गाना चाहते थे, बल्कि केवल यह
दिखाने के लिए कि उन पर शराब का नशा हावी हो गया है और
वे मौज कर रहे हैं। उनमें से एक, लम्बे क़द का सुनहरे बालोंवाला
नौजवान, जो नीले रंग का साफ़-सुथरा लम्बा कोट पहने था, उनके
क़रीब खड़ा था। सीधी और पतली नाकवाला उसका चेहरा सुन्दर
कहा जा सकता था, अगर उसके पतले, भिंचे लगातार हिलते-डुलते
होंठ और धुँधली, तनी भौंहोंवाली और निश्चल आँखें उसकी सौन्दर्य
को न बिगाड़तीं। वह गानेवालों के सिरों के ऊपर खड़ा था और
सम्भवत: किसी समारोही चीज़ की कल्पना करते हुए अटपटे ढंग
से कोहनी तक आस्तीन चढ़ा हुआ गोरा हाथ हिला रहा था और
उस हाथ की गन्दी उँगलियों को अस्वाभाविक ढंग से फैलाने की
कोशिश कर रहा था। उसके कोट की आस्तीन लगातार नीचे आ
रही थी और यह नौजवान बाएँ हाथ से उसे फिर यत्नपूर्वक ऊपर
चढ़ा लेता था मानो इसमें कोई विशेष महत्त्वपूर्ण बात थी कि उभरी
नसोंवाला उसका हिलता-डुलता हाथ अवश्य उघाड़ा रहे। गाने के
बीच में ही ड्योढ़ी तथा पोर्च में मार-पीट और घूँसेबाज़ी का शोर
सुनाई दिया। लम्बे क़द के इस नौजवान ने ज़ोर से हाथ झटका।

21
पाठ-पुनः पाठ

“बस, काफ़ी है!” वह आदेश देते हुए चिल्लाया, “साथियो, मार-


पीट हो रही है!” और वह लगातार अपनी आस्तीनें ऊपर चढ़ाते हुए
पोर्च में चला गया।
फ़ैक्टरी-मज़दूर भी उसके पीछे-पीछे चल दिए। आज सुबह से इस
शराबख़ाने में शराब पीनेवाले इन मज़दूरों ने लम्बे नौजवान के नेतृत्व
में शराबख़ाने के मालिक को फ़ैक्टरी से कुछ खालें ला दी थीं और
इनके बदले में इन्हें शराब पिलाई गई थी। बग़ल के लुहारख़ाने के
लुहारों ने शराबख़ाने में गाने और मौज करने की आवाज़ें सुनकर
तथा यह मानते हुए कि लोग उसका ताला तोड़कर उसमें घुस गए
हैं, जबर्दस्ती उसमें जाना चाहा। इसलिए पोर्च में मार-पीट होने लगी।
शराबख़ाने का मालिक दरवाज़े पर एक लुहार के साथ हाथापाई
कर रहा था और जब फ़ैक्टरी-मज़दूर दरवाज़े पर आए तो लुहार
शराबख़ाने के मालिक की गिरफ़्त से निकलकर मुँह के बल सड़क
की पटरी पर जा गिरा।
दूसरा लुहार छाती के ज़ोर से शराबख़ाने के मालिक को धकेलते
हुए दरवाज़े से भीतर घुसने की कोशिश कर रहा था।
आस्तीन ऊपर चढ़ाए हुए नौजवान ने दरवाज़े में घुस रहे लुहार के
मुँह पर एक घूँसा मारा और ज़ोर से चिल्लाया :
“साथियो! हमारे लोगों को पीटा जा रहा है!”
इसी वक़्त पहला लुहार पटरी पर से उठा और अपने घायल चेहरे को
खरोंचकर उससे ख़ून बहाते हुए रुआँसी आवाज़ में चिल्ला उठा :
“बचाओ! हत्या!...एक आदमी की हत्या कर डाली गई! भाइयो!...”
“हे भगवान, आदमी की हत्या कर दी गई, एक आदमी की जान ले
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युद्ध और शान

ली गई!” पड़ोस के फाटक से बाहर आनेवाली एक औरत चिल्ला


उठी। लहूलुहान लुहार के इर्द-गिर्द लोगों की भीड़ जमा हो गई।
“क्या तुमने अब तक लोगों को कम लूटा है, उनके कपड़े तक उतरवा
लिये हैं,” किसी ने शराबख़ाने के मालिक को सम्बोधित करते हुए
कहा, “अब तुमने आदमी की हत्या कर डाली। बदमाश कहीं का!”
पोर्च में खड़ा हुआ लम्बा-तड़ंगा नौजवान अपनी धुँधली-सी आँखों
को कभी तो शराबख़ाने के मालिक और कभी लुहारों की तरफ़ घुमा
रहा था मानो यह तय कर रहा हो कि अब किसके साथ हाथापाई
करनी चाहिए।
“हत्यारा!” वह अचानक शराबख़ाने के मालिक पर चिल्ला उठा,
“साथियो, इसकी मुश्के बाँध दो!”
“तुम लोग मेरी मुश्के बाँधोगे, मुँह धो रखो!” उसने अपने पर
झपटनेवाले लोगों को दूर हटाते हुए चीख़कर कहा और अपने सिर
से टोपी उतारकर उसे ज़मीन पर फ़ेंक दिया। उसकी इस हरकत
का मानो कोई धमकानेवाला रहस्यपूर्ण महत्त्व था और उसे घेरनेवाले
मज़दूर दुविधा की स्थिति में रुक गए।
“मेरे भाई, क़ानून-क़ायदा तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ। मैं
थानेदार के पास पहुँचूगँ ा। तुम सोचते हो कि नहीं जाऊँगा? आजकल
तो कोई भी लूट-मार करने की हिम्मत नहीं कर सकता!” शराबख़ाने
के मालिक ने टोपी उठाते हुए चिल्लाकर कहा।
“तो आओ, हम थानेदार के पास चलते हैं! हाँ, हाँ...चलते हैं!”
शराबख़ाने का मालिक और लम्बा-तड़ंगा नौजवान एक-दूसरे के पीछे
यह वाक्य दोहराते रहे और दोनों एक-साथ सड़क पर चल दिए।
लहूलुहान लुहार उनकी बग़ल में चल रहा था। फ़ैक्टरी-मज़दूर और
23
पाठ-पुनः पाठ

दूसरे लोग बातें करते और शोर मचाते हुए इनके पीछे-पीछे जा रहे थे।
मारोसेइका सड़क के नुक्कड़ पर शटरों से बन्द कर एक बड़े मकान
के सामने, जिस पर मोचीख़ाने का साइनबोर्ड लगा था था, लबादे
और फटे कोट पहने दुबले-पतले, मुरझाए तथा उदास चेहरोंवाले
कोई बीसेक मोची खड़े थे।
“वह जैसे भी चाहता है, वैसे ही लोगों को उल्लू बनता है!” भौंहें
सिकोड़े हुए विरली दाढ़ीवाला एक दुबला-पतला मोची कह रहा था।
“हमारा ख़ून चूसता रहा और बस, हिसाब बराबर! हफ़्ते-भर तक
हमें बेवक़ूफ बनाता रहा और आ‍‍‍‍‍ख़ि‍र हमारी यह हालत करके ख़ुद
यहाँ से चला गया।”
लोगों की भीड़ और लहूलुहान व्यक्ति को देखकर बातें करनेवाला
मोची चुप हो गया और सारे मोची जिज्ञासा के वशीभूत होकर फ़ौरन
भीड़ के साथ चल दिए।
“लोग-बाग कहाँ जा रहे हैं?”
“ज़ाहिर ही है कि कहाँ जा रहे हैं, थानेदार के पास!”
“क्या यह सच है कि हमारी फ़ौजें पिट गई हैं?”
“और तुमने क्या सोचा था! सुनो तो लोग क्या कह रहे हैं।”
सवाल-जवाब सुनाई देने लगे। शराबख़ाने का मालिक भीड़ के बढ़
जाने से पीछे रह गया और अपने शराबख़ाने को वापस चला गया।
लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने अपने शत्रु यानी शराबख़ाने के मालिक को
खिसकते हुए नहीं देखा; वह अपने उस हाथ को, जिसकी आस्तीन
चढ़ाए था, हिलाते हुए लगातार बोलता जा रहा था और इस तरह
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युद्ध और शान

सभी के ध्यान का केन्द्र-बिन्दु बना हुआ था। अधिकतर लोग अपने


मन को विह्वल करनेवाले प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए इसी नौजवान
को घेरे हुए थे।
“कोई यह कहता है कि व्यवस्था दिखाओ, क़ानून-क़ायदा दिखाओ।
इसी काम के लिए तो सरकार है! मैं ठीक कह रहा हूँ न, ईसाई धर्म-
ईमान को माननेवाले लोगो?” लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने ज़रा मुस्कराते
हुए कहा।
“वह समझता है कि सरकार ही नहीं हैं भला सरकार के बिना काम
चल सकता है? वरना हमें लूटनेवालों की कोई कमी नहीं होगी।”
“लोग यों ही बेकार की बातें कर रहे हैं!” भीड़ में से किसी की
आवाज़ सुनाई दी, “क्या वे ऐसे ही मास्को को छोड़ देंगे। किसी
ने मज़ाक़ में ऐसा कह दिया और दूसरों ने इसे सच मान लिया।
हमारी कितनी फ़ौज मौजूद है यहाँ। उसे ऐसे आसानी से तो नहीं
घुस आने देंगे। इसी के लिए तो सरकार है। ध्यान से सुनो कि
लोग क्या कह रहे हैं,” लम्बे-तड़ंगे नौजवान की ओर संकेत करते
हुए कुछ लोगों ने कहा।
चीनी लोगों की बस्ती की दीवार के क़रीब लोगों का एक छोटा सा
दल गाढ़े का ओवरकोट पहने हुए एक व्यक्ति को घेरे था जिसके
हाथों में एक काग़ज़ था।
“सरकारी हुक्म पढ़ा जा रहा है! सरकारी हुक्म!” भीड़ में यह शोर
सुनाई दिया और लोग काग़ज़ को पढ़नेवाले की तरफ़ दौड़ पड़े।
गाढ़े का ओवरकोट पहने व्यक्ति 31 अगस्त का पर्चा पढ़ रहा था।
जब भीड़ ने उसे घेर लिया तो वह कुछ घबरा गया, किन्तु लम्बे-
तड़ंगे नौजवान की माँग पर, जो दूसरों को धकियाता हुआ उसके
25
पाठ-पुनः पाठ

क़रीब पहुँच गया था, उसने ज़रा काँपती आवाज़ में पर्चे को फिर
से पढ़ना शुरू कर दिया।
“मैं कल तड़के ही महामान्य प्रिंस कुतूज़ोव के पास जा रहा हूँ,”
वह पढ़ रहा था (‘‘महामान्य!’’ लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने ज़रा मुस्कराते
और माथे पर बल डालते हुए गम्भीरता से दोहराया), “ताकि उनसे
सारी बातचीत कर लूँ, ज़रूरी क़दम उठाऊँ और कमीने दुश्मन को
नष्ट करने में फ़ौज की मदद करूँ; हम भी उसकी नाक में दम
कर देंगे...” पर्चा पढ़नेवाला यहाँ रुक गया (“देखा?” लम्बा-तड़ंगा
नौजवान विजेता के अन्दाज़ में चिल्ला उठा, “वह उसकी अक़्ल
ठिकाने कर देंगे...”)...‘‘ताकि इनकी जड़ें काटकर इन मेहमानों को
जहन्नुम रसीद कर दिया जाए। मैं लंच के वक़्त तक वापस आ
जाऊँगा और हम काम में जुट जाएँगे, इसे करेंगे, पूरा करेंगे और
कमीने दुश्मन का काम तमाम कर देंगे।”
अन्तिम शब्द गहरी ख़ामोशी में सुने गए। लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने
उदासी से सिर झुका लिया। यह स्पष्ट था कि अन्तिम शब्द किसी
की भी समझ में नहीं आए थे। ‘मैं कल लंच के वक़्त तक वापस
आ जाऊँगा,’ ये शब्द पढ़नेवाले और श्रोताओं को सम्भवत: विशेष
रूप से बुरे लगे। लोग बेहद उत्तेजित थे और इस पर्चे में जो कुछ
कहा गया था, वह बहुत आम और मामूली था। यह तो वही कुछ
था जिसे उनमें से हर आदमी कह सकता था और इसलिए उच्चतम
अधिकारी अर्थात मास्को के गवर्नर को इसे अपने पर्चे में नहीं कहना
चाहिए था।
सभी निराशापूर्ण मौन साधे खड़े थे। लम्बे-तड़ंगे नौजवान ने अपने
होंठ हिलाए और वह थोड़ा लड़खड़ाया।
“हम इसी से क्यों न पूछें!...यह वही तो है न? इससे पूछना कैसा
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युद्ध और शान

रहेगा!...इसमें कोई बुराई नहीं...यह हमें सब कुछ बता देगा...” भीड़


की पिछली क़तारों में अचानक यह सुनाई दिया और सभी का ध्यान
चौक में से जा रही बड़े थानेदार की टमटम की ओर चला गया
जिसके साथ दो घुड़सवार सिपाही भी थे।
काउंट रस्तोपचिन के आदेशानुसार थानेदार इस सुबह को नदी को
नावों को जलाने गया था और इस सिलसिले में उसे ख़ासी बड़ी
रक़म मिली थी जो इस वक़्त उसकी जेब में थी। जब उसने लोगों
की भीड़ को अपनी ओर आते देखा तो कोचवान को टमटम रोकने
का हुक्म दिया।
“कौन लोग हैं ये?” उसने अपनी टमटम के नज़दीक आ रहे
अलग-अलग और सहमे-सहमे लोगों से चिल्लाकर पूछा। “कौन हैं
ये लोग? मैं किससे पूछ रहा हूँ?” कोई जवाब न मिलने पर उसने
अपना सवाल दोहराया।
“हुज़ूर,” गाढ़े का ओवरकोट पहने क्लर्क ने जवाब दिया, “बड़े
हुज़ूर, हम कोई फ़सादी नहीं, बल्कि ये लोग, जैसा कि महामान्य
काउंट ने कहा है, उनके पर्चे के अनुसार अपनी जान की परवाह न
करते हुए सेवा करना चाहते हैं!”
“काउंट गए नहीं, यहीं पर हैं और आप लोगों के लिए भी आवश्यक
प्रबन्ध किया जाएगा,” थानेदार ने कहा। “गाड़ी बढ़ाओ!” उसने
कोचवान को आदेश दिया। लोगों की भीड़ दूर जाती टमटम की तरफ़
देखते हुए उनके गिर्द जमा हो गई जिन्होंने थानेदार की बातें सुनी थीं।
इसी समय थानेदार ने कुछ भयभीत होते हुए मुड़कर देखा, कोचवान
ने कुछ कहा और टमटम के घोड़े ज़्यादा तेज़ी से दौड़ने लगे।
“साथियो, हमें धोखा दिया गया है! आइए, सीधे काउंट के पास
27
पाठ-पुनः पाठ

चलें!” लम्बे-तड़ंगे नौजवान की आवाज़ सुनाई दी। “साथियो, इसे


जाने न दिया जाए! वह हमें पूरी तरह से जवाब दे! जाने न पाए!”
अनेक आवाज़ें सुनाई दीं और लोग टमटम के पीछे दौड़ने लगे।
शोर मचाती और थानेदार का पीछा करती लोगों की भीड़ लुब्यान्का
सड़क की तरफ़ बढ़ने लगी।
“कुलीन और व्यापारी तो सभी चले गए और हमें मरने-खपने के
लिए छोड़ गए? हम क्या कोई कुत्ते हैं?” भीड़ में अधिकाधिक लोग
ऐसा कह रहे थे।

अनुवाद : मदन लाल ‘मधु’

[युद्ध और शांति : खंड 3 उपन्यास से]

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मैं बोनसाई अपने समय का
*
रामशरण जोशी

सात-आठ महीने लखनऊ में बीत चुके हैं। ठीक-ठाक अंकों से मैंने
द्वितीय सत्र पास कर लिया है। तीसरा सैमिस्टर शुरू हो चुका है।
पर मैं विवश हूँ। मुझे तो लखनऊ में ही रहना है। लेकिन यह शहर
और लोग मुझे भाने लगे हैं। आत्मीयता मिल रही है। मैं यहीं रमा
रहूँ, यह जी करता है। ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के शाखा प्रमुख सुरेन्द्र
द्विवेदी और संवाददाता अशोक निगम से भी भरपूर सहयोग मिल
रहा है। तब कौन जाए इस शाने-अवध को छोड़कर!
पर मैं न विधाता हूँ और न ही बॉस। मैं एक सामान्य पत्रकार हूँ
जिसने अपना सफ़र ठीक से अभी शुरू भी नहीं किया है। लखनऊ
से मेरा नागपुर तबादला कर दिया गया है। मुझे पहले कुछ समय
दिल्ली बिताना होगा। इसके बाद मुझे नागपुर भेजा जाएगा। इस
आशय का आदेश दिल्ली मुख्यालय से लखनऊ शाखा पहुँच चुका
है। मेरी जगह पटना से भेजे गए सुरेश अखौरी1 लेंगे। वे पहुँच भी
चुके हैं। सप्ताह भर उन्हें लखनऊ के ख़बर गलियारों से वाकिफ़
29
पाठ-पुनः पाठ

कराने के बाद मैं इन्द्रप्रस्थ को कूच करूँगा। मैं हठात् लखनऊ


आया था, और अब इसी अदा में यहाँ से रवानगी भी हो रही है!
पर एक खुशी जरूर दिल में खिल रही है। मैं पढ़ाई फिर से शुरू
कर सकूँगा। अब दिल्ली में ही रहूँगा, नागपुर नहीं जाऊँगा। मैंने
मन बना लिया है।

मैं दिल्ली आ गया हूँ। ि‍फ़लहाल शुक्ल जी के साथ ही ठहरा हुआ


हूँ। भाभी भी यहीं हैं। मैंने फिर से कॉलेज में प्रवेश ले लिया है।
लखनऊ पड़ाव के कारण बारह महीने जरूर गोल हो गए हैं। पर
लखनऊ में अर्जित विविधतापूर्ण अनुभवों से इसकी भरपाई भी हो
गई है—न अब ख़ुद से गिला है, और न औरों से शिकायत!
इसे संयोग कहूँ या भाग्य की उदारता, मुझे अगले आदेश तक दिल्ली
में ही रिपोर्टिंग करने के निर्देश मिले हैं। वजह है कई वरिष्ठ पत्रकारों
का इस एजेंसी को छोड़ उभरती हुई एजेंसी-समाचार भारती में ऊँची
पगारों पर नियुक्तियाँ लेना। इस नई एजेंसी को कांग्रेस सरकार का
समर्थन भी मिला हुआ है। इसलिए शरद द्विवेदी2 के नेतृत्व में कई
संवाददाता, उप-सपांदक और टी.पी. ऑपरेटर समाचार भारती में
काम करने लगे हैं। इस पलायन से हिन्दुस्थान समाचार में हड़कंप
मचा हुआ है। इसके साथ ही मेरा नागपुर प्रस्थान अनिश्चितकाल
के लिए टल गया है।
मुझे दिल्ली महानगर परिषद्, नगर निगम, पुलिस और राज्यसभा की
बीटें दी गई हैं। रिपोर्टिंग का दायरा बढ़ गया है। जहाँ यह व्यापक
है, वहीं चुनौतीपूर्ण भी। देश की राजधानी व महानगर दिल्ली में
मुझे पत्रकारिता का अवसर मिल रहा है। मुझे ऑफिस की तरफ़ से
वेस्पा स्कूटर भी दे दिया गया है। इससे मेरी सक्रियता बढ़ गई है।
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मैं बोनसाई अपने समय क

अब मुझे संसद भवन से लेकर राजपुर मार्ग स्थित पुराना सचिवालय


व महानगर परिषद् के बीच आवाजाही करनी होती है। कश्मीरी गेट
पर पुलिस मुख्यालय और चाँदनी चौक में टाउन हॉल हैं। मैं इन
दोनों स्थानों पर भी ख़बरों के लिए टोहबाजी करता हूँ।
इन्द्रप्रस्थ की निराली स्थिति है। राजधानी दिल्ली में दो परस्पर
विरोधी दलों की सरकारें हैं : केन्द्र में इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में
कांग्रेस का शासन है—दिल्ली पुलिस केन्द्रीय गृहमंत्रलय के अधीन
है—दिल्ली विकास प्राधिकरण (डी.डी.ए.) भी केन्द्र के अधिकार
क्षेत्र में है—नयी दिल्ली नगर पालिका पर भी कांग्रेस का कब्जा
है—कई और भी एजेंसियाँ व स्वायत्त संस्थाएँ हैं जो कि प्रत्यक्ष
व परोक्ष रूप से कांग्रेस व केन्द्र सरकार के अधीन कार्य कर रही
हैं। इस नई दिल्ली इलावे़फ़ में ही विशाल भारत की सत्ता निवास
करती है—राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, केन्द्रीय सचिवालय सहित
सभी मंत्रलय इसी इलाक़े में हैं। विभिन्न देशों के दूतावास भी इस
इलाक़े से बाहर नहीं हैं।
पर यह अधूरी दिल्ली का परिदृश्य है। इससे कहीं विशाल है पुरानी
दिल्ली। मेरी दृष्टि में असली दिल्ली या अँगरेजी में ‘वाल्ड सिटी’ का
परिदृश्य नई दिल्ली से कतई अलहदा है। इस पर भारतीय जनसंघ
का शासन है। दिल्ली की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था एक प्रकार
से विकलांग है। दिल्ली में विधानसभा के बजाय महानगर परिषद् है।
दिल्ली सरकार के राजनीतिक प्रमुख को मुख्य कार्यकारी पार्षद कहा
जाता है, मुख्यमंत्री नहीं। इस समय जनसंघ के उभरते नेता विजय
कुमार मल्होत्रा इस पद पर हैं। दूसरे बड़े नेता मदनलाल खुराना
कार्यकारी पार्षद हैं, लालकृष्ण आडवाणी कद्दावर नेता और महानगर
परिषद् के अध्यक्ष भी हैं। अब हिन्दुस्थान समाचार का ऑफिस शंकर
मार्केट से उठकर मंडी हाउस3 में आ गया है। यह हिमाचल प्रदेश
31
पाठ-पुनः पाठ

की भूतपूर्व मंडी रियासत के नरेश की सम्पत्ति है। भौगोलिक दृष्टि


से मंडी हाउस से पुरानी दिल्ली का क्षेत्र पास पड़ता है।
चूँकि इन दिनों ऑफिस में लोगों की कमी है इसलिए मुझे काफ़ी
भाग-दौड़ करनी पड़ रही है। दोनों सत्ता नगरियों की गतिविधियों पर
नजर रखनी पड़ती है। प्रेस का रुतबा है, यह मैं महसूस कर रहा हूँ।
जीवन में पहली दफ़ा स्कूटर चला रहा हूँ। इसके आगे अँगरेजी में
‘प्रेस’ लिखा हुआ है। इस पर जब मैं सवार होता हूँ तो लगता है
लालबत्ती वाली गाड़ी में बैठा हुआ हूँ। मैं देश का विशिष्ट नागरिक
हूँ और आदर-सम्मान का हफ़दार हूँ! लोगों को मुझसे भयभीत भी
होना चाहिए। मैं स्वचालित वाहन पर सवार चलता-फिरता-उड़ता
‘बिजूका’4 हूँ!
यह वह समय है जब स्कूटर प्राप्ति के लिए पाँच से दस वर्ष लग
जाते हैं, ट्यूब-टायर के लिए परमिट लेना पड़ता है। वैसे पेट्रोल
क़रीब तीन रुपए लीटर है। लाइसेंस-परमिट का राज है इसलिए
हम पत्रकार भी मजे में हैं। जहाँ भोपाल में मैं लोगों को चीनी का
कोटा बाँट दिया करता था, यहाँ मित्रों को कार-स्कूटर के ट्यूब-
टायर दिलवा देता हूँ। और भी कई छोटे-मोटे फ़ायदे पहुँचा देता हूँ।
सुनता तो यह भी हूँ कि दिल्ली में थानों की नीलामी होती है। इसमें
कुछेक पत्रकार परोक्ष रूप से दलाल की भूमिका भी निभाते हैं।
दिल्ली के क्राइम रिपोर्टरों में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के ए.आर. विग
की हैसियत निराली है। पुलिस विभाग पर उनका ख़ासा प्रभाव है।
आई.जी. (महा-पुलिस अधीक्षक) से लेकर थाना इंचार्ज तक विग
की चाकरी में रहते हैं। उनके सम्मान में पार्टी भी दी जाती है।
वैसे भी विग अपने क़द-काठी से पत्रकार कम, पुलिस या फ़ौजी
अफ़सर ज्यादा लगते हैं!
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मैं बोनसाई अपने समय क

हम हिन्दी पत्रकारों में हरिदत्त शर्मा, रामवतार त्यागी, फ़तेहचन्द्र शर्मा


आराधक, आनन्द जैन, द्वारिका खोसला जैसे नाम चर्चित रहते हैं।
महिला पत्रकारों में प्रभादत्त (टी.वी. स्टार बरखा दत्त की माता),
सुजाता राय, रजिया जैसे नाम चर्चित हैं। अच्छी बात यह है कि
अँगरेजी और हिन्दी पत्रकारों में परस्पर सहयोग काफ़ी है, एक-दूसरे
से ख़बरें-सूचनाएँ साझा करते हैं। रिपोर्टिंग में मेरी विशेष स्थिति यह
है कि मैं जहाँ कांग्रेस शासित केन्द्र सरकार व मंत्रालयों को कवर
करता हूँ, वहीं मुझे जनसंघ की स्थानीय सरकार की नब्ज पर भी
अँगूठा रखे रखना होता है। इसलिए मैं विभिन्न अख़बारों के राष्ट्रीय
ब्यूरो के वरिष्ठ पत्रकारों और स्थानीय रिपोर्टरों से अक़सर टकराता
रहता हूँ।
दिल्ली की जनसंघ सरकार अपनी गति से चल रही है। राजधानी के
सौंदर्यीकरण का अभियान अपने यौवन पर है—सड़कों का चौड़ी
करना व फ्रलाई ओवर निर्माण, यमुना मुहानों व निगम बोध घाट
की सजावट एवं रिंग रोड पर धूपघड़ी—रिंग मार्ग का उद्यानीकरण
व विद्युत्तीकरण और नव मध्यवर्ग के लिए आकर्षक कॉलोनियाँ।
प्रति सप्ताह मुझे किसी-न-किसी योजना के उद्घाटन या आरम्भ को
कवर करना होता है। दिल्ली के परम्परागत वैश्व व ब्राह्मण नेतृत्व
पर विस्थापित पंजाबी नेतृत्व (मल्होत्रा, खुराना, केदारनाथ साहनी
आदि) भारी पड़ने लगा है। लगता है अब दिल्ली-जनसंघ पर सरहद
के उस पार से आए पंजाबियों का वर्चस्व लम्बे समय तक रहेगा।
अलबत्ता, दिल्ली कांग्रेस पर अभी भी पुराने वर्गों ब्रजमोहन शर्मा,
चौ. ब्रह्म प्रकाश, देशराज चौधरी, शिवचरण गुप्त, नूरुद्दीन अहमद,
राधारमण, मीर मुस्ताक़ अहमद, सुश्री सैनी आदि का दबदबा है। वैसे
पंजाबियों का नेतृत्व (ओ.पी. बहल, एच.के.एल. भगत, इन्द्रकुमार
गुजराल, माकन) भी आक्रामकता के साथ आगे आता जा रहा है।
33
पाठ-पुनः पाठ

कोई आश्चर्य नहीं, आने वाले समय में दिल्ली कांग्रेस पर इसका
कब्जा हो जाए!
इधर केन्द्र की राजनीति अशांत हो चुकी है। कांग्रेस में ज्वार-भाटे तो
हमेशा चलते ही रहते हैं। पर इस बार तो चक्रवात ही चक्रवात हैं।
लगता है इन चक्रवातों की रफ्ऱतार से इस अस्सी ऊपर पार्टी का
शीराजा जरूर बिखरेगा। कांग्रेस के धाकड़ व खुर्राट नेताओं (एस-
के. पाटिल, अतुल्य घोष, निजलिंगप्पा, बनारसीदास गुप्त, मोरारजी
देसाई, तारकेश्वरी सिन्हा आदि) और प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी एवं
उनके समर्थकों (उमाशंकर दीक्षित, डी.पी. मिश्र, ललितनारायण मिश्र,
हेमवती बहुगुणा, इन्द्रकुमार गुजराल, मोहनलाल सुखाड़िया, के.सी.
पंत, चंद्रशेखर, चंद्रजीत यादव, टी.टी. कृष्णमाचारी, मोहन धारिया,
अर्जुन अरोड़ा, अमृत नहाटा, कुमार मंगलम् आदि) के बीच ठन गई
है। जनवरी 1966 में ताशकंद में लालबहादुर शास्त्री जी के निधन
के पश्चात् इन्दिरा जी को इसलिए प्रधानमंत्री बनाया गया था कि
वे ‘गूंगी गुड़िया’ और ‘कठपुतली’ बनी रहेंगी। खुर्रांट नेताओं के
इशारों पर यह गुड़िया या दरबारी नृत्यांगना नाच करेगी। लेकिन अब
यह गुर्राने लगी है। इसने अपना ‘तांडव’ दिखाना शुरू कर दिया है।
कांग्रेस में कुछ नए शब्दों का प्रचलन शुरू हो गया है : सिंडीकेट
कांग्रेस (निजलिंगप्पा मंडली) बनाम इंडीकेट कांग्रेस (प्रधानमंत्री गुट)—
पुरानी या संगठन कांग्रेस (पार्टी अध्यक्ष समर्थक या खुर्रांटों की
मंडली) बनाम रुलिंग कांग्रेस या नई कांग्रेस। कांग्रेस के संगठन गुट
और सत्ताधारी गुट के बीच अर्द्धरात्रि तक जंग चलती रहती। मध्य
रात्रि के बाद अगले रोज की व्यूहरचना शुरू हो जाती है—गुटों के
सदस्यों की तोड़-फोड़, आरोप-प्रत्यारोप जंग—इन्दिरा निष्कासन की
तैयारी—प्रेस कांफ्रेंसें आदि। अँगरेजी प्रेस में ‘Nocturnal Warfare’
और हिन्दी प्रेस में ‘मध्यरात्रि जंग’ जैसे शब्द ख़ूब उछल रहे हैं।
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
मैं बोनसाई अपने समय क

इस समय घटनाओं के प्रमुख केन्द्र बने हुए हैं—जंतर-मंतर रोड


स्थित कांग्रेस कार्यालय, राजेन्द्र मार्ग स्थित देसाई-बंगला, औरंगजेब
रोड—अक़बर रोड का चौराहा (प्रधानमंत्री निवास स्थान के पास)
और साउथ एवेन्यू व नॉर्थ एवेन्यू में सांसदों (चन्द्रशेखर, अमृत
नाहटा, चन्द्रजीत यादव आदि) के निवास। सांसद भवन के गलियारों
में तो अलग से दिन भर आतिशबाजी चलती रहती है। ि‍फ़लहाल
मेरी बीट राज्यसभा है।
मैं इन ‘ख़बर ढाबों’ से रसीली-चटपटी ख़बरों को बटोरने के लिए
देर रात गए तक वेस्पा दौड़ाता रहता हूँ। शटल कॉक बन गया हूँ।
इस अंधी दौड़-धूप में कभी-कभी लगता है इन्दिरा गाँधी तो नहीं,
हम पत्रकार जरूर ‘बोलते-लिखते पुतले’ बन गए हैं—बिल्कुल
‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ तर्ज़ में! लेकिन मुझे आ रहा
है मजा, थ्रिल है, जोश-उमंग है। इन्दिरा जी की तरफ़ से यशपाल
कपूर पत्रकारों को साधे रखते हैं। वैसे अँगरेजी प्रेस का बड़ा वर्ग
इन्दिरा गाँधी के प्रगतिशील व समाजवादी क़दमों का मुरीद है। लेकिन
भाषायी प्रेस में दक्षिणपंथी तत्त्व अधिक हावी हैं।
इन्दिरा गाँधी ने 19 जुलाई, 1969 को उप-प्रधानमंत्री देसाई से वित्त
मंत्रलय छीन लिया है। इसके साथ ही एक अध्यादेश के जरिये
बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है। मैं तुरंत राजेन्द्र मार्ग स्थित
मोरारजी भाई की कोठी पर पहुँचता हूँ। अन्य पत्रकार अभी तक नहीं
पहुँचे हैं। देसाई जी से प्रतिक्रिया लेने वाला मैं पहला रिपोर्टर हूँ।
उप-प्रधानमंत्री देसाई का चेहरा तमतमा रहा है, विषाद में डूबा हुआ
है। वे बूढ़े जख़्मी शेर लग रहे हैं। मुझे देखती ही संस्कृत का यह
श्लोक दाग रहे हैं : ‘त्रिया चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानति
कुतो मनुष्यः।’ (स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवतागण भी
नहीं जानते हैं)! मैं यह प्रतिक्रिया लेकर तुरंत ही मंडी हाउस लौटता
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पाठ-पुनः पाठ

हूँ। टी.पी. पर यह फ्रलैश चला देता हूँ। किस एजेंसी की ख़बर


पहले पहुँचे, इसे लेकर हम रिपोर्टरों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती है।
इस घटना के साथ ही पार्टी संगठन और प्रधानमंत्री के बीच जंग और
भड़क उठी है। हालाँकि 11 जुलाई, 1969 को बंगलुरु में सम्पन्न
कार्यकारिणी की बैठक में ही इस जंग के विस्तार की पृष्ठभूमि तैयार
हो गई थी। कार्यकारिणी ने राष्ट्रपति पद के लिए
डी. नीलम संजीव रेड्डी को अपना अधिकृत प्रत्याशी घोषित किया
था, जबकि इन्दिरा गाँधी इसके विरोध में थीं। तीव्र मतभेद की स्थिति
में मतदान हुआ जिसमें प्रधानमंत्री हार गईं। इन्दिरा जी ने इस पराजय
को प्रधानमंत्री के नेतृत्व को सीधी चुनौती के रूप में देखा। यहीं से
खुले जंग का बिगुल बज गया।
प्रधानमंत्री दिल्ली लौटीं। उन्होंने अपने विश्वस्त सलाहकारों के साथ
परामर्श किया। कश्मीर की पंडित लॉबी (डी.पी. धर, हक़सर, कॉव,
फोतेदार आदि) ने भी इस जंग को हवा दी। दिल्ली एवं बम्बई में
सक्रिय मास्को और पूर्वी जर्मनी समर्थक लाबियाँ (कुमार मंगलम्,
हक़सर, सुभद्रा जोशी, रजनी पटेल, अमृत नाहटा, हेमवतीनन्दन
बहुगुणा, चन्द्रजीत यादव, अरुणा आसफ अली आदि) भी चाहती
थीं कि कांग्रेस में शुद्धिकरण की हवा चले, भारत समाजवाद की
दिशा में आगे बढ़े, दक्षिणपंथी व प्रतिक्रियावादी ताक़तें कमजोर पडें़।
प्रगतिशील क़दमों का बल्यू प्रिंट तैयार किया गया : एक, बैंकों का
राष्ट्रीयकरण—दो, भूतपूर्व नरेशों के प्रीवी पर्सों की समाप्ति। ये दो
क़दम कांग्रेस के भीतर व बाहर दक्षिणपंथी शक्तियों की परम्परागत
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक आधारों को तात्कालिक रूप से पीछे
धकेलने के लिए काफ़ी थे। इस रणनीति के तहत देश के प्रमुख
14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। मोरारजी देसाई ने इन्दिरा-
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सरकार से त्यागपत्र दे दिया। अगस्त में ही प्रीवी पर्सों (विशेषाधिकारों)


के खात्मे के लिए संविधान संशोधन की पहल शुरू की गई। यह
अलग बात है कि संशोधन विधेयक लोकसभा में तो पारित हो गया
लेकिन राज्यसभा में एक मत से पराजित हो गया।
इस घटना के पश्चात् मैं जनसंघ के वरिष्ठ नेता अटलबिहारी वाजपेयी
के यहाँ प्रतिक्रिया के लिए पहुँचता हूँ। मेरे साथ देवेन्द्र शुक्ल भी हैं।
शुक्ल जी से वाजपेयी जी के पुराने सम्बन्ध हैं। अटल जी अस्वस्थ
हैं लेकिन उदास भी हैं। वे स्वयं कहते हैं—
“जोशी, मैं तुम्हें दो प्रतिक्रियाएँ दूँगा।”
“जी कहिए! मुझे खुशी होगी।”
“एक जारी करने के लिए—ऑन रिकॉर्ड—और दूसरी याद रखने
के लिए—ऑफ रिकॉर्ड।”
“बताइए, मुझे अच्छा लगेगा।”
“राज्यसभा में संविधान संशोधन की हार लोकतंत्र की जीत है। इसे
प्रसारित कर दो।”
“अौर दूसरी, वाजपेयी जी?”
“इन्दिरा जी ने सही क़दम उठाया है। आख़ि‍र कब तक हम इन
राजे-महाराजाओं को ढोते रहेंगे? कभी तो इनका अन्त होना चाहिए?5”
वाजपेयी जी का यह रूप मैंने पहली बार देखा। मैं इससे प्रभावित
हूँ। आख़ि‍र, उन्होंने अपने दिल की बात कह डाली।
इस घटना से पहले राष्ट्रपति का चुनाव संग्राम हुआ। स्वतंत्र भारत
के इतिहास में यह पहला अवसर था जब प्रधानमंत्री ने अपनी ही
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पाठ-पुनः पाठ

पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार संजीव रेड्डी के नाम का नामाकंन


फॉर्म पर औपचारिक समर्थन तो किया लेकिन अन्ततः बड़ी चतुराई
से इसका विरोध कर दिया। इन्दिरा जी ने ‘अन्तरात्मा की आवाज’
पर राष्ट्रपति चुनाव में मतदान करने के नारे को गुंजित कर कांग्रेसी
सांसदों और विधायकों को विभाजित कर दिया। अन्ततः संजीव
रेड्डी हार गए और वी.वी. गिरि राष्ट्रपति बन गए। उन्होंने निर्दलीय
उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था। कुछ विपक्षी मत भी उन्हें
मिले। यह सही है कि यदि प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी का उन्हें पोशीदा
समर्थन नहीं मिलता तो उनकी हार निश्चित थी। चूँकि गिरि भूतपूर्व
श्रमिक नेता थे और पहले से ही उपराष्ट्रपति पद पर भी थे, इसलिए
उनका अपना भी एक स्वतंत्र प्रभाव क्षेत्र था। वी.वी. गिरि की जीत
में इन्दिरा जी की जीत देखी जा रही है। गिरि ने उपराष्ट्रपति भवन
को छोड़ अपनी पुत्री के यहाँ से चुनाव अभियान का संचालन किया
था। उनकी पुत्री ग्रेटर कैलाश में रहती हैं।
गिरि की विजय के पश्चात् उनकी पुत्री के निवास पर पत्रकारों का
जमघट लगा हुआ है। मैं देख रहा हूँ नेताओं, विशिष्ट जनों और
सामान्य जन का सैलाब उमड़ा हुआ है। इन्दिरा गाँधी स्वयं अपने
काि‍फ़ले के साथ यहाँ पहुँची हुई हैं। मकान की छत से गिरी उँगलियों
से ‘वी’ का निशान बना कर सभी का अभिनन्दन और बधाइयाँ
स्वीकार कर रहे हैं। इन्दिरा जी भी उन्हें पुष्प गुच्छ देकर बधाई दे
रही हैं। गिरी और उनका परिवार गद्गद हैं। इसके साथ ही इन्दिरा
गाँधी की सत्ता पर पकड़ अभेद्य बन गई है, और कांग्रेस के विभाजन
का रास्ता साफ़ हो चुका है। इन्दिरा जी ने अपने राजनीतिक आकाओं
को ही ‘गूंगा’ और ‘पुतला’ बना कर छोड़ दिया है!
इन्दिरा-विरोधियों की मनोदशा का साक्षात् अनुभव मुझे तब हुआ
जब मैं तारकेश्वरी जी से मिलने उनकी कोठी पर पहुँचा। वे प्रेस
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क्लब के पास रहती हैं। सामान्य शिष्टाचार के बाद बातचीत की


दिशा इन्दिरा गाँधी के समाजवादी क़दमों की ओर मुड़ गई है।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्सों की समाप्ति जैसे ज्वलंत मुद्दों
पर मैं उनकी दिली प्रतिक्रिया को कुरेदने की कोशिश कर रहा हूँ।
वे चीख़ पड़ती हैं—
“देखो, इन्दिरा जो कर रही है—सब बक़वास है। ऐसे मौसमी नारों
से समाजवाद नहीं आता है। इन्दिरा अपनी गद्दी बचाने के लिए ये
सस्ते-घटिया हथकंडे अपना रही है।
जोशी, जो औरत अपनी पार्टी की नहीं हुई, अपने उम्मीदवार को
हरवाया, कांग्रेस—हम सबों के साथ विश्वासघात किया—वो किस
की हो सकती है? समाजवाद से इन्दिरा का क्या लेना-देना है? यह
तो सब नेहरू जी के साथ खत्म हो गया।”
कुछ रुक कर और चाय की चुस्कियों के बाद तारकेश्वरी जी अपने
बाहु-तेवर दिखलाने लगती हैं—
“तुम्हारी प्रधानमंत्री को लड़ने का बहुत शौक़ है न? ठीक है—जरा
इन्दिरा गाँधी सत्ता छोड़े और मेरे साथ अखाड़े में उतरे—दो मिनट
में फ़ैसला हो जाएगा—कौन शक्तिशाली है?
अपनी माँद में तो लोमड़ी भी ख़ुद को शेरनी समझती है! सरकार
तो इन्दिरा की माँद है!”
तारकेश्वरी जी का यह रौद्र रूप मेरे लिए अप्रत्याशित है। बाँहों को
चढ़ाकर कुश्ती के लिए अपने विरोधी को न्यौता देना, राजनीतिक
जंग का यह निराला अंदाज मैं तारकेश्वरी सिन्हा में देख रहा हूँ।
जलपान के बाद मैं चलने लगता हूँ। ईर्ष्या में झुलस रहीं बिहारी

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पाठ-पुनः पाठ

नेता के शब्द कानों से टकरा रहे हैं—


“जोशी, इन शब्दों को प्रसारित मत कर देना। यह सब ऑफ दी
रिकॉर्ड है, आपसी बातचीत है।”
“अाप निशि्ंचत रहें, मैडम! इतना मैं भी समझता हूँ।” यह विश्वास
दिला कर मैं बाहर आ गया हूँ। तारकेश्वरी जी सामान्य मुद्रा में
लौट आईं है। पर घृणा, जलन, कुंठा, हताशा, पराजय जैसी प्रवृत्तियाँ
इन्दिरा विरोधियों का जीवनाहार बन चुकी हैं।

कांग्रेस का विभाजन हो चुका है, रूलिंग कांग्रेस का अधिवेशन बम्बई


और अहमदाबाद में संगठन कांग्रेस के अधिवेशन होने जा रहे हैं।
इन अधिवेशनों से साफ़ हो जाएगा कि आम कांग्रेस जन इन्दिरा
गाँधी के साथ हैं या निजलिंगाप्पा के साथ? ये दोनों अधिवेशन एक
प्रकार से पुरानी और उभरती धाराओं के बीच शक्ति परीक्षण हैं। मैं
सत्तारूढ़ कांग्रेस के अधिवेशन को कवर करने के लिए बम्बई जा
रहा हूँ। कांग्रेस की स्पेशल ट्रेन नई दिल्ली से बम्बई सेन्ट्रल जा रही
है। मैं जिस डिब्बे में हूँ उसमें शशि भूषण, आदिश अदल, ओ.पी.
बहल, वीरेन्द्र जैन, सहित वरिष्ठ-कनिष्ठ नेताओं का जमावड़ा लगा
हुआ है। इन्दिरा गाँधी की जय-जयकार के नारों के बीच स्पेशल ट्रेन
रवाना हो रही है। जहाँ भी ट्रेन रुकती है—‘इन्दिरा गाँधी आई है,
नई रौशनी लाई है’—‘इन्दिरा बचाओ-देश बचाओ’—इन्दिरा गाँधी
जिंदाबाद जैसे नारे प्लेटफॉर्म पर गूँजने लगते हैं—मथुरा, भरतपुर,
सवाई माधोपुर, कोटा, झालावाड़, नागदा, रतलाम जैसे स्टेशनों से
उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश से कांग्रेसी ट्रेन में ठुँसते जा
रहे हैं। स्टेशनों से ट्रेन की विदाई ऐसे दी जाती है गोया कि ये श्वेत

लॉकडाउन : 57वाँ दिन


मैं बोनसाई अपने समय क

टोपीधारी कांग्रेसजन किसी युद्ध मोर्चे पर जा रहे हों! वैसे विभाजित


कांग्रेसियों के लिए ये दोनों अधिवेशन किसी जंग से कम नहीं हैं।
‘हिन्दुस्थान समाचार’ के लोगों को मैरिन ड्राइव पर स्थित एक होटल
में ठहराया गया है। अहमदाबाद और कलकत्ता से भी समाचार के
लोग कवरेज के लिए पहुँचे हुए हैं। मैं तीन रोज यहाँ रुकता हूँ।
पिछले क़रीब एक दशक में मेरी यह चौथी बम्बई यात्र (1958,
60, 62 और 1969) है। इसलिए बंबई-दर्शन का कोई आकर्षण
शेष नहीं है, सिवाय पुरानी यादों के साथ फिर से याराना करने के।
मैं इस यात्र में नवकेतन में सह-निर्देशक प्रेम प्रकाश, स्क्रिप्ट लेखक
उमेश माथुर, ‘धर्मयुग’ के सम्पादक धर्मवीर भारती, पवई लेक के
चितरंजन शर्मा, गोपाल शर्मा आदि से मिलता हूँ। वे मेरी इस भूमिका
से बेहद आनन्दित हैं। इन्हें मेरे पत्रकार का रूप अविश्वसनीय लगता
है। 1960 में एक सत्रह साल का लौंडा जयपुर से फ़रार होकर दादर
पहुँचता है, बेटिकट। एक्टर बनने के लिए स्टूडियो के चक्कर काटता
है। फिर दो महीने बाद निराश होकर लौट जाता है। नौ वर्ष बाद
वही लड़का पच्चीस वर्ष के युवा रिपोर्टर के रूप में अवतरित होता
है। पूरे ग्लैमर के साथ। इन तमाम शुभचिंतकों से धौलें बटोर कर
मैं दिल्ली रवाना हो रहा हूँ। भारती जी भी मुझ से धर्मयुग में ‘युवा
वाणी’ पर एक लेख लिखवा रहे हैं। धौल का एक रूप यह भी है।
इस बार मैं प्रथम श्रेणी के डिब्बे में हूँ। ग्रामीण जयपुर के सांसद
नवल किशोर शर्मा, प्रसिद्ध समाजवादी नेता एस-एम—जोशी जैसे
प्रतिष्ठित यात्रियों का सान्निध्य मुझे मिल रहा है। इस बार मेरी
बम्बई-यात्रा उपलब्धिपूर्ण है। धाँसू कहानी रचने के लिए यह मसाला
कम तो नहीं है!

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पाठ-पुनः पाठ

देश के राजनीतिक नक़्शे पर फैली धुंध अब छँट चुकी है। बम्बई और


अहमदाबाद अधिवेशनों से साफ़ हो चुका है कि कांग्रेस का बहुमत
प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के साथ है—सिंडेकट कांग्रेसियों (कामराज,
निजलिंगप्पा, घोष, पाटिल, देसाई) का जमाना सिमट चुका है—इंडीकेट
या इन्दिरा पंथियों का युग शुरू हो चुका है। कांग्रेस में सक्रिय युवा
तुर्क और भूतपूर्व कम्युनिस्ट (कुमार मंगलम्, यादव, नाहटा आदि)
भी प्रधानमंत्री के साथ हैं। संसद में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों और
समाजवादी सदस्यों (लोहिया व आचार्य नरेन्द्र देव वादियों) का परोक्ष
समर्थन भी इन्दिरा गाँधी को मिल रहा है। क़ायदे से, कांग्रेस के
विभाजन के बाद इन्दिरा-सरकार अल्पमत में आ चुकी है। लेकिन,
संसद में प्रगतिशील विपक्षी सांसदों के सहयोग से इन्दिरा जी अपनी
क़श्ती को सफलता के साथ खेती जा रही हैं।
इधर बंगाल अशांत होता जा रहा है। मार्क्सवादी पार्टी में विभाजन
और नक्सलवाड़ी आंदोलन के कारण देश में एक नए प्रकार की
क्रान्ति की जमीन तैयार हो रही है। युवा व श्रमिक आंदोलन भी
उभार पर हैं। इन दबावों का प्रभाव केन्द्र पर पड़ रहा है। शायद
प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी—इन दबावों के संभावित परिणामों को ध्यान
में रखकर प्रगतिशील क़दम उठा रही हैं। यह भी हो सकता है वे
समाजवादी, नक्सलबाड़ी और युवा-श्रमिक आंदोलनों को ठंडा करने
व जनता का ध्यान बाँटने के लिए स्वयं ही बदलाव की पहल कर
रही हों! बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्सों का खात्मा जैसी पहलों
से देश में इन्दिरा गाँधी के पक्ष में माहौल तो बन रहा है। जनता
उनके पक्ष में जुटने लगी है।
इसी माहौल में ‘प्रतिबद्ध’ या ‘Committed’ शब्द राजनीतिक मंचों
पर और प्रेस में ख़ूब गूँज रहा है। इसका सीधा अर्थ यह है कि जो
लोग इन्दिरा गाँधी की ताजा प्रगतिशील नीतियों-कार्यक्रमों के समर्थक
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हैं, वो प्रतिबद्ध हैं, जो विरोधी हैं वे दक्षिणपंथी व प्रतिक्रियावादी हैं।


इसलिए इन दिनों प्रेस में ‘Committed’, ‘Committed Bu-
reaucracy’ और ‘Committed Judiciary’ जैसे शब्द सुर्खियों
में हैं। इण्डियन एक्सप्रेस, स्टेट्स मैन जैसे दैनिक प्रधानमंत्री की
समाजवादी नीतियों की आए दिन धुनाई करते रहते हैं। प्रधानमंत्री
और उनके समर्थक तिलमिला जाते हैं। एजेंसी का संवाददाता होने
के नाते मुझे तीनों पक्षों : 1. सत्ता पक्ष, 2. विपक्ष, और 3. तटस्थ
या मध्यस्थ—को कवर करना होता है। एजेंसी की भूमिका भी
यही है कि बग़ैर लाग-लपेटे ख़बरें प्रसारित करे—विश्लेषण करना
या वैचारिकी ओढ़नी करने का काम अख़बारों का है। इसलिए मैं
सावधानी के साथ प्रतिबद्धता की बहसों की रिपोर्टिंग करता हूँ।
हाल ही में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में प्रतिबद्धता को लेकर सरकारी
पक्ष और वरिष्ठ सम्पादकों के बीच तीन घंटे तक जम कर बहस
चली। सरकारी पक्ष का प्रतिनिधित्व सूचना-प्रसारण मंत्री इंद्रकुमार
गुजराल ने किया, जबकि उनके विरोध में थे फ्रैंक मोरिस (एक्सप्रेस
समूह के प्रधान सम्पादक), कुलदीप नैयर सहित कई वरिष्ठ पत्रकार।
दोनों पक्षों ने बड़े प्रभावशाली ढंग से अपने पक्ष रखे, ऐतिहासिक
संदर्भों का भी उल्लेख किया। स्वतंत्रता आंदोलन में प्रेस की भूमिका
पर बहस हुई। प्रतिबद्धता की सैद्धांतिक व्याख्याओं का उल्लेख किया
गया। मुझे गुजराल साहब का तर्क-प्रस्तुतिकरण काफ़ी जानदार लगा।
वे दिग्गज सम्पादकों के सामने घाट नहीं पड़े। उनकी तैयारी पुरख़्ता
थी। बेशक़-मोरिस साहब ने भी अपने पद व प्रतिष्ठा के अनुकूल
भूमिका निभाई।
बहस के दौरान मुझे यह पीड़ा जरूर सालती रही, ‘काश! हिन्दी का
भी कोई सम्पादक इस बहस में शिरकत करता!’ राजधानी दिल्ली से
नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान
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पाठ-पुनः पाठ

जैसी पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं। इनके सम्पादक (अक्षय कुमार जैन,


रतनलाल जोशी, मनोहरश्याम जोशी, रघुवीर सहाय) भी कम नामी-
गिरामी नहीं हैं। फिर भी हिन्दी पत्रकार जगत् मृत-सा ही रहा! आख़ि‍र
क्यों? शायद हम लोग हीनग्रंथि के शिकार हैं। वैचारिक शून्यता भी
है, स्टैंड नहीं लेते हैं। चारण-संस्कृति के साथ रतिक्रिया करते हैं!
पिछले कुछ दिनों से ‘हिन्दुस्थान समाचार’ में एक नया अध्याय
शुरू हो गया है। प्रबंधकों के व्यवहार से पत्रकार और सभी श्रेणी
के कर्मचारी त्रस्त हैं। वेतन मानों को लागू नहीं किया जा रहा है।
सेवा-शर्तों का पालन नहीं किया जाता है। अवकाशों और कार्य-
अवधि का कोई ठिकाना नहीं है। समाचार में प्रबंधक बालेश्वर
जी की स्वेच्छाचारिता ही आरम्भ है, और अन्त भी! ओमप्रकाश
पंडित, मनमोहन शर्मा जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी उनके व्यवहार से
दुखी हैं। कई दफ़े इन लोगों के बीच आपस में झड़पें भी हो चुकी
हैं। सम्पादक हरिदत्त पाठक व वरिष्ठतम् प्रधान संवाददाता एन.बी.
लेले भी अग्रवाल जी के अड़ियल व्यवहार से परेशान हैं। साथियों
को सबके सामने डाँटना-डपटना उनका शग़ल बन चुका है।
बालेश्वर जी अपने साथियों की गतिविधियों पर भी कड़ी नजर रखते
हैं। उनकी पीछे से जासूसी करवाया करते हैं। इस काम के लिए
उन्होंने दो-तीन लोगों को पाल रखा है, जो पत्रकारों और ग़ैर-पत्रकारों
की आपसी हलचलों की नियमित रिपेर्टिंग उन्हें करते रहते हैं। इससे
समाचार का वातावरण बिगड़ता जा रहा है।
एक ताजा घटना है। एक रोज उन्होंने मुझे इसलिए डाँट दिया कि मैं
ऑफिस के बाद घर न लौट कर कनॉट प्लेस स्थित इंडियन कॉफी
हाउस में कॉफी पीने जाता हूँ। कॉफी हाउस में बैठने वाले कांग्रेसी
और समाजवादी नेताओं के साथ गप्पें लड़ाता हूँ। राजनीतिक बहसों
लॉकडाउन : 57वाँ दिन
मैं बोनसाई अपने समय क

में भाग लेता हूँ। यह अलग बात है, इन बहसों में जनसंघ, संगठन
कांग्रेस के नेता निशाने पर होते हैं। अमेरिका की भी आलोचना होती
है। मुझे कड़े शब्दों में हिदायत दी गई कि मैं कार्य-समाप्ति पर घर
जाया करूँ, वरना अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।
संयोग है कि इस चेतावनी के दो रोज पश्चात् मंडी हाउस से बाहर
निकलते हुए गेट पर मेरा स्कूटर पुलिस वाहन से टकरा गया। ललाट
पर चोट आई। डॉक्टर के यहाँ ले जाया गया। सिर पर पट्टी बाँधी
गई। दो रोज तक बिस्तर पर पड़ा रहा। जब लौट कर आया तब
बालेश्वर जी ने साथियों के सामने मुझे डाँटना शुरू कर दिया। मैं भी
उखड़ गया। धैर्य का बाँध टूट गया। कब की भरी भड़ास निकलने
लगी। मैंने अपने प्रति आक्रमणों में कह डाला—आप अमानवीय हैं,
मनुष्यता नहीं है। दुर्घटना में मेरी जान कैसे बची, कितनी चोट लगी,
इलाज पर कितना ख़र्च हुआ, यह सब जानने के बजाय आपकी
चिंता केवल लोहे-टिन का स्कूटर है, उसका ख़र्च है। सच, उस रोज
ऑफिस में ऐसा धमाका लोगों ने पहली दफ़ा देखा था। ऑफिस
का वातावरण अधिक न बिगड़े, यह देखते हुए पंडित जी बालेश्वर
जी को सम्पादकीय कक्ष से बाहर ले गए।
दरअसल, समाचार में अधिकांश साथी संघ पृष्ठभूमि के हैं। उनका
सीधा सम्बन्ध झण्डेवालान (दिल्ली का संघ कार्यालय) और नागपुर
मुख्यालय से रहता है। इसलिए ये लोग शांतिपूर्वक बालेश्वर जी
की ज्यादतियाँ बर्दाश्त करते रहते हैं। पर मेरे साथ ऐसी कोई स्थिति
नहीं है। यद्यपि मैं जयपुर में बचपन में शाखा में जाता रहा हूँ।
देवेन्द्र शुक्ल की भावनाओं का सम्मान करते हुए दरियागंज की
शाखा में भी गया। जनसंघ की दरियागंज मंडल इकाई का उपाध्यक्ष
(1965-66) भी रहा। पर, संघ व जनसंघ का रंग मुझ पर चढ़
नहीं सका। ये लोग दिल-दिमाग़ से प्राचीनता में रमते हैं, विवशता
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पाठ-पुनः पाठ

में लोकतांत्रिक—धर्मनिरपेक्ष भारत के चोलाधारी बने रहते हैं।


मैं समझता हूँ, अब इस घुटन से मुक्ति लेने का समय आ गया है।
इन घटनाओं से एक लाभ यह जरूर हुआ कि अब साथियों का
भय दूर होने लगा है। आपस में चर्चाएँ शुरू हो गई हैं। हम कुछ
साथी मिलकर एक गुमनाम गोपनीय पत्र संघ के सर संघचालक को
नागपुर भेजते हैं, जिसमें बालेश्वर जी के दुर्व्यवहारों व अशोभनीय
करतूतों की शिकायत करते हैं। अतः पत्रकारों-ग़ैर-पत्रकारों के हितों
की रक्षा के लिए यूनियन के गठन के लिए मैं, भवतोष चक्रवर्ती,
विजय गुप्ता, चंद्रशेखर पाण्डेय, मधु साठे के बीच बैठकों का दौर
होता है। अन्ततः हम लोग ‘हिन्दुस्थान समाचार पत्रकार-कर्मचारी
संघ’ की स्थापना करते हैं। इसका महामंत्री विजय गुप्ता को बनाया
जाता है, और अध्यक्ष पद के लिए देश के प्रतिष्ठित समाजवादी
नेता एस.एम. जोशी हमारा अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं। उपाध्यक्ष
टी.पी. ऑपरेटर चन्द्रशेखर पाण्डेय बनाए जाते हैं।
अध्यक्ष पद की भी रोचक कहानी है। हुआ यह कि मेरे सुझाव पर
विजय गुप्ता, पाण्डेय और कुछ अन्य साथी भारतीय मजदूर संघ
के अध्यक्ष दत्तोपंत ढेंगड़ी के पास जाते हैं। वे साथियों की बात
और समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक सुनते हैं। फिर कुछ सोचने के
पश्चात् ढेंगड़ी जी पूछते हैं—
“आप मुझे ही क्यों अध्यक्ष बनाना चाहते हैं?”
“आप ईमानदार नेता हैं। संघ के हैं। हमारे हितों की रक्षा कर सकेंगे।”
विजय गुप्ता अपना पक्ष उनके सामने रख रहे हैं।
“यही तो बात है। मैं आपके हितों की रक्षा नहीं कर सकूँगा। बालेश्वर

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मैं बोनसाई अपने समय क

नागपुर में पुकार लगाएँगे। वहाँ से मुझे फ़ोन आएगा। तब मेरे लिए
मुश्किल हो जाएगी।”
“तब आप ही हमारा मार्ग निर्देशन करें—किसको अध्यक्ष बनाया
जाए?”
“तुम लोग ऐसा करो—अण्णा को बनाओ। उन पर किसी का दबाव
नहीं चलेगा। मैं उन्हें अभी फ़ोन कर देता हूँ।” ढेंगड़ी जी ने तुरंत
ही एस.एम. जोशी जी को सविस्तार फ़ोन पर मराठी में समाचार
के कर्मचारियों की समस्या बतला दी। ढेंगड़ी जी का यह ‘इनकार’
उनकी ईमानदारी और श्रमिकों के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है।
श्रमिक नेता को कैसा होना चाहिए, यह ढेंगड़ी जी से सीखना चाहिए।
हम सभी साथी कैनिंग लेन स्थित जोशी जी के यहाँ पहुँच गए।
चूँकि जोशी जी मुझे पहले से जानते थे, बम्बई-दिल्ली यात्रा साथ
की थी, इसलिए मैं भी उनके यहाँ पहुँच गया। मैंने भी उन्हें हिन्दी
में पत्रकारों और कर्मचारियों की समस्याओं-माँगों के सम्बन्ध में
विस्तार से बताया। उन्होंने अध्यक्ष बनने की सहमति दे दी। अगले
ही रोज यूनियन की स्थापना की घोषणा कर दी गई और बालेश्वर
जी को माँग पत्र दे दिया गया। सभी अख़बारों में इसकी ख़बर भी
मैंने दौड़-धूप करके छपा दी। ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के इतिहास
में यह स्तब्धकारी घटना थी। संघ और बालेश्वर जी के लिए यह
अकल्पनीय था कि किसी रोज समाचार में यूनियन बनेगी, माँग पत्र
दिया जाएगा और श्रमिक असंतोष की शुरुआत होगी! मेरे जीवन में
यूनियन की स्थापना से एक नया आयाम जुड़ा है। मुझे यह अपनी
भावी भूमिका का पूर्वाभ्यास लगता है!
मेरा नागपुर तबादला कर दिया गया है। लखनऊ वाले आदेश का

47
पाठ-पुनः पाठ

संदर्भ दिया गया है। मैंने जाने से इनकार कर दिया है। मैंने डी.यू.जे.
(दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स) से शिकायत की है। हमारी यूनियन
ने अपने माँग पत्र में मेरा भी प्रकरण शामिल किया है। हम यूनियन के
लोग मंडी हाउस गेट पर धरने पर बैठ गए हैं, नारेबाजी-पोस्टरबाजी
शुरू हो गई है। चाणक्य कहते हैं—शत्रु का शत्रु, आपका दोस्त।
समाचार भारती के धर्मवीर गाँधी व घनश्याम पंकज परोक्ष रूप से
यूनियन का समर्थन कर रहे हैं। पोस्टर-पर्चे आदि छपवाने में मदद
कर रहे हैं। वे बालेश्वर जी से अपना पुराना हिसाब-किताब चुकता
करना चाहते हैं। प्रबंध सम्पादक बालेश्वर अग्रवाल को हम लोगों
ने ऑटो से बाहर खींच कर घेराव भी किया। उन्होंने मेरे प्रकरण
को छोड़ लगभग अन्य सभी माँगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने
का आश्वासन दे दिया है, अवकाश की माँग तो तुरंत मान ली है।
राजधानी के अँगरेजी अख़बार, विशेषरूप से लिंक, पेट्रियट, स्टैट्समैन,
एक्सप्रेस आदि हमारे आंदोलन की कई ख़बरों को छाप भी रहे हैं।
बिल्टज के ब्यूरो प्रमुख ए.के. राघवन जी ने तो अपने सभी संस्करणों
में सवा पेज पर फैला विश्लेषणात्मक लेख लिखा है, जिसमें संघ
और समाचार के परम्परागत रिश्तों व वैचारिक प्रभावों की खोज-ख़बर
ली गई है। इसमें मेरे संघर्ष का भी उल्लेख है। सांसद सुभद्रा जोशी
जी का सेक्युलर हाउस और मासिक ‘सेक्युलर डेमोक्रेसी’ पत्रिका
के सम्पादक डॉ. डी.आर. गोयल से भी हमें अपेक्षित समर्थन मिल
रहा है। ये लोग धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष
के प्रति समर्पित रहते हैं। समाचार के प्रबंधकों और वरिष्ठ पत्रकारों
को यह उम्मीद नहीं थी कि राजधानी की प्रेस से मुझे और यूनियन
को ऐसा अप्रत्याशित समर्थन प्राप्त होगा! बालेश्वर जी ने सोचा था
कि यूनियन और मैं दो रोज में टूटकर बिखर जाएँगे। लौटकर हम
लोग उनके सामने शरणागत हो जाएँगे। उनकी तानाशाही के सामने
घुटने टेक देंगे। उनका यह सपना—सपना ही रहा!
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मैं बोनसाई अपने समय क

अलबत्ता, मेरी लड़ाई का दायरा अब फैल चुका है। इसमें कहीं-न-


कहीं विचारधारा की सुरभि घुलने लगी है। मैंने समाचार से इस्तीफ़ा
दे कर और फ्रीलांस पत्रकारिता शुरू कर दी है। मेरे लिए यह बड़ी
उपलब्धि है कि स्वच्छंद पत्रकारिता का पहला अवसर मुझे साप्ताहिक
‘दिनमान’ से मिला। इस दौर में दिनमान में छपने का अर्थ है गम्भीर
हिन्दी पत्रकारिता में आपका प्रवेश। इस अवसर का श्रेय मैं वरिष्ठ
कवि व सम्पादक रघुवीर सहाय जी6 को देता हूँ। सहाय जी ने मुझे
दिल्ली के साथ-साथ पूर्णियां जाकर ‘भू-हथियाओं आंदोलन’ की
रपट भेजने का मौका दिया। कम्युनिस्टों और समाजवादियों के नेतृत्व
में पूर्णियां जिले में जबरदस्त भू-हथियाओं आंदोलन कई रोज तक
चला। मैं एस.एम. जोशी जी के साथ पूर्णियां गया। उनके साथ ही
सर्किट हाउस में रुका। सीपीआई के जेड़.ए. अहमद भी यहाँ पहले
से पहुँचे हुए थे। मैं रोज सुबह आंदोलनकारियों के साथ जाता। उन्हें
जमीन पर कब्जा करते हुए देखता। उन पर पुलिस-डंडों की बरसात
देखता। जमीदारों के लठैतों की तैनाती दिखाई देती। महान् आंचलिक
कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की भूमि से मेरा यह पहला साक्षात्कार
था। उनकी माटी के साथ घुलने-मिलने, खेतों के कीचड़-कादे में
सनने से मैं निहाल था। मैं फारबिसगंज से सीमा पार कर विराटनगर
(नेपाल) भी गया। अभी तक तो मैं नेताओं, मंत्री-संत्री की करतूतों को
ही बटोर कर सजाता रहा हूँ, देश के ख़बर-बाजार को परोसता रहा
हूँ। लेकिन कठियार व पूर्णियां में मैंने ऐसे भारत को देखा जिसका
मेरे बोध-जगत् से कभी कोई सरोकार नहीं था—खेतिहर मजदूरों
की दुर्दशा—भूस्वामियों के विशाल खेत—लठैतों की फ़ौज—स्थानीय
पूर्व नरेश के पास वाहनों का बेड़ा—जीवन व लोकतंत्र का उपहास
करते हुए ये सांमत!
सम्पादक रघुवीर सहाय जी ने पूर्णियां से लौटने के बाद बाड़मेर-
49
पाठ-पुनः पाठ

जैसलमेर की अकाल स्थिति की रिपोर्टिंग भी करायी। मैं जयपुर,


अजमेर, जोधपुर होता हुआ जैसलमेर पहुँचा। रास्ते में बाबा रामदेव
पीर का मेला देखा। अजमेर में ख़्वाजा-उर्स और जोधपुर के पास
रामदेव मेले की रपटें भेजीं। दोनों की रिपोर्टिंग अलग प्रकार की
थीं। मैंने इन दोनों मेलों के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने
की आख्यात्मक रिपेार्टिंग की थी।
जैसलमेर से बाड़मेर पहुँचा तो सांसद अमृत नाहटा टकरा गए। उनकी
जीप में इस जिले के दूरस्थ क्षेत्रें में भी गया। एक रात हम लोग
रेत के टीलों में फँस गए। जीप आगे जाने का नाम ही नहीं ले रही
थी। वाहन के इस अड़ियल रवैये के कारण हम लोगों को रात टीलों
के बीच जागते व ठिठुरते हुए गुजारनी पड़ी। हम लोग इस आशंका
से डरे हुए भी थे कि कहीं अंधड़ न आ जाए, टीले न खिसकने
लगें। टीले जब खिसकते हैं तो ट्रकों-जीपों को अपने अंक में समा
लेते हैं। ख़ैर, हम सुरक्षित रहे। सुबह सब कुछ ठीक-ठाक रहा।
अगले रोज बाड़मेर के कलेक्टर चन्द्रप्रकाश मीणा के साथ भारत-पाक
सीमा की यात्र भी की। हम दोनों गडरारोड गए। वहाँ से वास्तविक
सीमा पर पहुँचे। सीमा सुरक्षा बल की सहायता से पाक रैंजर को
बुलाया। हमारे अधिकारी ने पहले सफ़ेद झंडी दिखाई, उधर से पाक
रैंजर ने दिखाई। पाँच मिनट के बाद दो पाक रैंजर सीमा-खंभा के
पास पहुँच गए। परस्पर परिचय हुआ। पाक रैंजरों ने चाय के लिए
हम लोगों को दावत दी, लेकिन ऐसा करना नियम तोड़ना होता।
आधा घंटा बिताने के बाद हम दोनों लौट आए।
और इस प्रकार मैं घुमंतू पत्रकारिता-यात्र का पथिक बन गया हूँ!

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मैं बोनसाई अपने समय क

संदर्भ
1. सुरेश अखौरी बाद में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ को छोड़ कर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में पहुँच गए।
कई वर्षों तक रहे।
2. शरद द्विवेदी बाद में यूनिवार्ता के सम्पादक बने और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी
रहे।
3. अब मंडी हाउस प्रसार भारती और दूरदर्शन के मुख्यालय में बदल गया है।
4. पंकज बिष्ट ने मेरे साथ स्कूटर सवारी के अनुभव का रोचक वर्णन, ‘समयांतर’ में प्रकाशित
अपने एक संस्मरण में विस्तार से किया है।
5. विस्तार के लिए देख:ें अटलबिहारी वाजपेयी अभिनन्दन ग्रंथ, सम्पादक राजेन्द्र शर्मा, प्रकाशक:
स्वदेश प्रकाशन, (भोपाल)
6. देखें : ‘कहाँ गए वो सम्पादक?’ मासिक पत्रिका ‘अक़सर’, सम्पादक हेतु भारद्वाज, (जयपुर)

[मैं बोनसाई अपने समय का पुस्तक से]

51
जगलेखा
इन दिनों फेसबुक
सं कट में कविता
*
संजय कुंदन

18 मई, 2020

कई लोग परेशान हैं कि कोरोना संकट के इस दौर में इतनी कविताएँ


क्यों लिखी जा रही हैं। ऐसा सोचने वालों के भीतर कहीं-न-कहीं यह
भाव है कि कविता लिखना कोई दोयम दर्जे का काम है। यह तो कोई
हल्की-फुल्की चीज है, मनोरंजन की चीज। बताइए, एक तरफ लोग
इतनी मुश्किलें झेल रहे हैं और आप कविता लिख रहे हैं! ऐसा कहने
वालों को यह नहीं मालूम कि संकट के दौर में ही सबसे ज्यादा कविताएँ
लिखी गई हैं। आपातकाल में सत्ता की तानाशाही के खिलाफ धर्मवीर
भारती, रघुवीर सहाय और नागार्जुन जैसे प्रतिष्ठित कवि तो लिख ही
रहे थे, प्रायः हर शहर में कवियों की एक जमात खड़ी हो गई थी।
बिहार में रेणु की अगुआई में सत्यनारायण, गोपी वल्लभ सहाय और
परेश सिन्हा जैसे कवि लगातार लिखकर आपातकाल का विरोध कर
रहे थे। इसके अलावा कितने ही ऐसे कवि लिख रहे थे, जिनके नाम
कोई नहीं जानता। नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय भी यही हाल था,
53
पाठ-पुनः पाठ

जिसने हिंदी को वेणु गोपाल, कुमार विकल और आलोकधन्वा जैसे


कवि दिये। आंदोलन में शामिल हर दूसरा व्यक्ति आंदोलन में अपनी
भूमिका निभाने के साथ कविता भी जरूर लिख रहा था। थोड़ा पीछे
चलें तो 1962 में भारत पर चीन आक्रमण के समय तो गाँव-गाँव में
लोग तुकबंदियाँ करने लगे थे। इसी तरह 1943 में बंगाल के अकाल
पर न जाने कितनी कविताएँ लिखी गईं। वामिक जौनपुरी का यह गीत
तो एक समय जन-जन की जुबान पर था—भूका है बंगाल रे साथी,
भूका है बंगाल। कोरोना का संकट किसी आपातकाल से कम है क्या?
पूरी मानवता का भविष्य ही दाँव पर लगा है। सत्ता की क्रूरता और पूँजी
की तानाशाही इतिहास के अनेक काले अध्यायों की याद दिला रही
है। ऐसे में एक कवि चुपचाप रहे? उससे सड़क पर उतरकर भूमिका
निभाने की अपेक्षा गलत नहीं है पर अगर वह ऐसा नहीं कर रहा तो
क्या कविता भी न लिखे? जिस तरह कई कविताओं में हमें नक्सलबाड़ी
और आपातकाल के दौर की तस्वीरें दिखती हैं, उसी तरह आज की कई
कविताएँ भावी पीढ़ी को कोरोना दौर के संघर्ष से परिचित कराएँगी।
और कहने की जरूरत नहीं कि जो बात इतिहास छुपाता है, कविता
उसे खोलकर बताती है। फिर यह भी सही है कि हर कविता एक स्तर
की नहीं होगी। लेकिन साधारण और खराब कविताओं के बीच से ही
कुछ कालजयी कविताएँ भी निकलेंगी।

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ख़ाली जगह
*
आशुतोष दुबे

17 मई, 2020

जब रफ़ी साहब गए तो उनके स्लॉट वाले गायकों की खोज रही। अनवर


अच्छे थे, मगर चले नहीं। शब्बीर कुमार और मोहम्मद अज़ीज़ बहुत
चले और फिर एकदम ग़ायब हो गए।
किशोर कुमार के गीतों के लिए भी अभिजीत, बाबुल सुप्रियो, विनोद
राठौड़ और कुमार सानू का इस्तेमाल हुआ, जिसमें सानू सबसे ज़्यादा
चले और फिर अब कहाँ हैं, नहीं पता।
मुकेश के स्लॉट में तो नितिन मुकेश ही थे। कमलेश अवस्थी के भी
कुछ गीत हैं। मगर मुकेश के बाद उन जैसे गायकों की कोई खास
तलाश हुई नहीं क्योंकि वह जगह ही उनके साथ चली गई। यही बात
मन्ना डे के साथ हुई।
लता जी के रिटायरमेंट के आसपास बहुत सी आवाज़ें आईं। अनुराधा

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पाठ-पुनः पाठ

पौडवाल, अलका याग्निक पहले और श्रेया घोषाल बाद में। आशा जी


के स्लॉट में बहुत हद तक सुनिधि चौहान।
मगर जैसे ही संगीत बदला, ये स्लॉट अपनेआप गायब हो गए। पचासों
नई आवाज़ें आ गईं। ये सब ठीक हैं, कोई कुछ ज़्यादा सफल है, कोई
कम। पर स्लॉट किसी का नहीं बन पाया है। ये ज़्यादातर एक दूसरे के
अंदाज़ में ही गा रहे हैं। सब अरिजीत हैं। सब श्रेया हैं।
अब कोई नए किशोर और नए रफ़ी को नहीं ढूँढता। अब लता नहीं
चाहिए। आशा भी नहीं।
अब किसी की ख़ाली जगह नहीं छूटती ।

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यह चलना मज़बूरी है...
*
मनोरमा सिंह

16 मई, 2020

हम भी पैदल खूब चले, लेकिन वह चलना मजबूरी नहीं थी, कुछ यात्राओं
का हिस्सा थीं...याद है ईया के साथ सिमरिया घाट गंगा नहाने जाना
जब गंगा जी घाट से दूर भाग जाती थीं और हम बालू में पैदल चल
उनके पास पहुँचते वो दूरी क्या होती थी, नहीं मालूम लेकिन नन्हें पैर
दुखने लगते थे। ...बचपन में कितने दफे मैरवा स्टेशन से अपने गाँव
पैदल जाती थी। पाँच से आठ किलोमीटर की दूरी वो रूट पर डिपेंड
करता था, गाँव से टायर गाड़ी छज्जा लगा हुआ और गद्दा चादर तकिया
बिछा हुआ आता, भोला काका हमारे गाड़ीवान थे, माँ थोड़ा आँचल
चेहरे पर आगे कर गाड़ी में बैठती, गाँव जाने की तारीख नज़दीक आते
माँ बेगुसराय, बरौनी रिफायनरी टॉउनशिप में पेड़ा बनाना शुरू कर
देती, दूध वाले बाबा रोज ज्यादा दूध देकर जाते, मेरे गाँव में माँ के
हाथ का बना बरौनी का पेड़ा फेमस था, मैरवा स्टेशन से उतरते सबसे
पहले भोला काका को पानी पीने के लिए वो पेड़ा मिलता, खैर हम
57
पाठ-पुनः पाठ

टायर गाड़ी पर बीच-बीच में बैठते, सारे रास्ते पैदल चलते, आसपास
के खेतों से ऊख चूसते, भुट्टा तोड़ते, चने और खेसारी के साग की
टुस्सी चबाते, टमाटर, मटर की छीमी खाते, जो खेत बगल से गुजरता
और खाने लायक चीज़ अगर होती तो उसका जायका लेते हुए आगे
बढ़ते, इस सफर में इंतज़ार चुपचुपवा डीह का होता, मेरे गाँव की सड़क
नहर की बाँध हुआ करती थी, वही नहर जिसमें नेपाल से नारायणी या
गंडक का पानी ठेल दिया जाता था, उस नहर के बनने से पहले तमाम
किस्म की फसलें होती थीं लेकिन नहर ने केवल चावल, गन्ना में समेट
दिया, शुरू में जब बिहार में चीनी मिलों का स्वर्णिम दौर था तब गन्ने
की खेती के मायने थे, हमारी आखों के सामने हमने इन चीनी मिलों
को कबाड़ में बदलते देखा और गन्ने की चौपट होती खेती भी, खैर
बात चुपचुपवा डीह की जहाँ अचानक नहर की ऊंचाई बढ़ जाती थी,
एक छोटा मंदिर, पीपल का पेड़, मंदिर के बाबा और एक चापा नल,
अजीब सी शान्ति होती थी उस जगह और नल का पानी इतना मीठा
कि हम कई बार पानी पीते फिर अपने थर्मस में भरते, बाबा से बात
करते, पीपल की छाँह में सुस्ताते फिर आगे बढ़ते...इंतज़ार उस पूल के
आने का करते जो गाँव का पुल था और उससे उतरते ही पांड़े लोगों
की बारी का, वहाँ एक सिंदूरियाँ आम का पेड़ होता था आधा लाल,
पीला, हरा वो आम गज़ब आकर्षक लगते, अगर गर्मियों के दिन होते
तो एक दो हासिल कर लेने के लालच से बचना मुश्किल था...ये वो
पैदल चलना होता जिसका हमें महीनों से इंतज़ार होता, हम उन रास्तों
पर पैदल ही चलना चाहते थे, रास्ते में मिलने वाले लोगों से बात करते,
हाल चाल पूछते बताते...लेकिन हमारा जाना प्रवासी पंछियों की तरह
होता था, जहाँ जब कुछ तय था, निश्चिंतता के साथ...

लॉकडाउन : 57वाँ दिन


टैबू अभिव्यक्ति का नया तरीका है!
*
अनुराधा सिंह

30 अप्रैल, 2020

वे जो यह कहते हैं कि इस बुरे वक्त में कविता कैसे की जा सकती


है, वे जो कहते हैं कि दिन इतने ख़राब हैं लिखने-पढ़ने का जी नहीं
करता। उन्हें देखना चाहिए कि इस बुरे वक़्त में यह लॉक्डडाउन देश
एक कलाकार के जाने से बिलख रहा है। देश नक्शों और इमारतों से
नहीं बनता, ज़ाहिर है लोगों से बनता है। ये वही लोग थे जो कोरोना से
नहीं डरे, उसकी क़ैद से भी नहीं डरे। ऐसी जानलेवा बीमारी के सामने
खड़े होकर उस पर गढ़े चुटकुले पढ़े। जलेबी, गोलगप्पे और समोसे
के अम्बार लगा दिये। मैं हमेशा सोचती थी, गज़ब लोग हैं, महामारी
फैली है पर असुरक्षित हम अपने मीठे की तलब पूरी न होने के अंदेशे
से हैं। वही बहादुर लोग भरभराकर ढह गये जब बड़ी-बड़ी आँखों से
हँसता उनका हीरो बीच से उठकर चल दिया। जनता साम्प्रदायिक कभी
नहीं थी, उसे जो ग़लत दिखता था उस पर चिल्लाती थी। अपने-अपने
स्वार्थों में सबने उसे मूर्ख और साम्प्रदायिक कहा। वह चुपचाप सुनती
59
पाठ-पुनः पाठ

रही। लेकिन आज वह चुप नहीं, उसे वह आदमी चाहिए जिसे उससे


छलपूर्वक छीन लिया गया है। इस देश में हमेशा साहित्य और कला
के लिए मोहब्बत किसी भी मूर्ख अराजकता या बीमारी के डर पर
भारी पड़ती रही है।
कोई नहीं कहेगा कि देश का इतना बुरा हाल है और तुम एक फ़िल्मी
आदमी के लिए रो रहे हो।सब यही कहेंगे कि इतनी देर हो गई, उसके
जाने का दुःख कम क्यों नहीं हो रहा।

2 मई, 2020

जैसे स्वप्न के भीतर स्वप्न देखा जाता रहा है, जैसे कविता और कवियों
पर कविताएँ की जाती रही हैं, वैसे ही पोस्टों पर पोस्ट लिखी जा रही हैं।
बाहर का सब मसाला चुक चुका है। सारे रिफॉर्म्स और सुधार सामने
उपलब्ध लोगों के ही हो रहे हैं। सारी प्रशंसाएँ, उपेक्षाएँ, आलोचनाएँ,
ईर्ष्याएँ, प्रतिस्पर्धाएँ, स्वीकार्यताएँ यहीं केंद्रित हैं। टैबू अभिव्यक्ति का
नया तरीका है। वैचारिक स्वतंत्रतता क्या है भला, हम तय करेंगे कि
कोई क्या बोले, कैसे बोले। विविधता क्यों हो, हमसे अलग कोई क्यों
सोचे और बोले?
यह तुम्हारा मानसिक लॉकडाउन, क्रांति नहीं अवसाद है। वे लोग जो
इस डिब्बे से बाहर भी एक जीवन जी रहे हैं, कुछ अलग बातें कर रहे
हैं, कुछ अदेखे दृश्यों और लोगों को तुम्हारी दुनिया में ला रहे हैं। उन्हें
छोटी ही सही रोशनी की किरण मानो। दुनिया बड़ी है, रोज़ बदल रही
है, उसके सीने से लगकर उसकी बदलती धड़कन सुनो। कुछ न हो
सके तो एक गमले की मिट्टी ज़रा देर मुट्ठी में भरे बैठे रहो।

लॉकडाउन : 57वाँ दिन


टैबू अभिव्यक्ति का नया तरीका

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