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एक

अं तम ऊँ चाई

कतना होता आगे बढ़ते जाने का मतलब


अगर दस दशाएँ हमारे सामने होत
हमारे चारो ओर नह ।
कतना आसान होता चलते चले जाना
य द केवल हम चलते होते
बाक़ सब का होता।

मने अ र इस ऊल-जुलल ू द ु नया को


दस सर से सोचने और बीस हाथ से पाने क को शश म
अपने लए बेहद मु ल बना लया है।

शु -शु म सब यही चाहते ह


क सब कुछ शु से शु हो,
ँ ते प च
ले कन अं त तक प च ँ ते ह त हार जाते ह
हम कोई दलच ी नह रहती
क वह सब कैसे समा होता है
जो इतनी धूमधाम से शु आ था
हमारे चाहने पर।

दगु म वन और ऊँ चे पवत को जीतते ए


जब तुम अं तम ऊँ चाई को भी जीत लोगे –
तब तु लगेगा क कोई अं तर नह बचा अब
तुमम और उन प र क कठोरता म
ज तुमने जीता है –
जब तुम अपने म क पर बफ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और कांपोगे नह –
तब तुम पाओगे क कोई फक़ नह
सब कुछ जीत लेने म
और अं त तक ह त न हारने म।

समु क मछली

बस वह से लौट आया ँ हमेशा


अपने को अधूरा छोड़कर
जहां झूठ है, अ ाय, है, कायरता है, मूखता है-
ेक वा को बीच ही म तोड़-मरोड़कर,
ेक श को अकेला छोड़कर,
वापस अपनी ही बेमुरौव पीड़ा के
एकांगी अनुशासन म
कसी तरह पुनः आरंभ होने के लए।

अखबारी अ र के बीच छपे


अनेक चेहर म एक फक् चेहरा
अपराधी क तरह पकड़ा जाता रहा बार-बार
अ ुत कुछ जीने क चोर-को शश म :
ले कन हर सजा के बाद वह कुछ और पोढ़ा होता गया,
वह से उगता रहा जहाँ से तोड़ा गया,
उसी बेरहम द ु नया क गड़बड़ रौनक म
गुज
ं ायश ढूढ़
ँ ता रहा बेहयाई से जीने क । कसी तरह
बची उ ख चकर दोहरा ले
एक से दो और दो से कई गुना या फर
घेरकर अपने को कसी नए व ार से
इतना छोटा कर ले जैसे मछली
और इस तरह शु हो फर कोई दस ू रा समु ...

आप म

कभी तुमने क वता क ऊँ चाई से


देखा है शहर?
अ -े भले रंग के नुकसान के व
जब सूरज उगल देता है र ।

बजली के सहारे रात


त एक घाव ाह ब र पर।
जब भागने लगता एक पूँछदार सपना
आँख से नकलकर
शानदार मोटर के पीछे। वह आती है
घर क दरू ी से होटल क नकटता तक
ले कन मुझे तैयार पाकर लौट जाती है
मेरा ान भटकाकर उस अँधेरे क ओर
जो रोशनी के आ व ार से पहले था।

उसक देह के लचकते मोड़,


बेहाल सड़क से होकर अभी गुज़रे ह
कुछ गए-गुज़रे देहाती ाल, जैसे
पनघट, गोरी, ब या बगैरह
और इसी अहसास को मने
अ र इ ेमाल से बचाकर
रहने दया क वता क ऊँ चाई पर,
और बदले म मोम क कसी
सजी बनी गु ड़या को
बाह म पघलने दया।
जलते-बुझते नीऑन-पो र क तरह
यह सधी-समझी स ता!
सोचता ।ँ
इस शहर और मेरे बीच
कसक ज़ रत बेशम है?-
एक ओर हर सुख क व ा,
दसू री ओर ार आप म है।

जब आदमी-आदमी नह रह पाता

दरअसल म वह आदमी नह ँ जसे आपने


ज़मीन पर छटपटाते ए देखा था।
आपने मुझे भागते ए देखा होगा
दद से हमदद क ओर।
व बुरा हो तो आदमी आदमी नह रह पाता। वह भी
मेरी ही और आपक तरह आदमी रहा होगा। ले कन
आपको यक़ न दलाता ँ
वह जो मेरा कोई नह था, जसे आपने भी
अँधेरे म मदद के लए च ा- च ाकर
दम तोड़ते सुना था।
शायद उसी मु ल व म
जब म एक डरे ए जानवर क तरह
उसे अकेला छोड़कर बच नकला था ख़तरे से सुर ा क ओर,
वह एक फंसे ए जानवर क तरह
खूँ ार हो गया था।
बंधा शकार

कुछ ठहर-सा गया है मेरे ब ु ल पास,


मुझे सुघ
ँ ता आ।
कसी भी ण
आ मण कर सकनेवाली
एक बबर ताक़त। वह
ा चाहता है?

ा है मेरे पास
उसको देने लायक
जसे उसक तरफ फककर
अपने को बचा लू?ं

वह अपनी खुरदरु ी देह को रगड़ता है


मेरी देह से जो अकड़कर वृ हो गई है।
कह कुछ दरू जाकर क गया है।
उसे कोई ज ी नह ।
वह जानता है क म बंधा ँ
और वह एक खुला शकारी है।
एक अजीब दन

आज सारे दन बाहर घूमता रहा


और कोई दघ
ु टना नह ई।
आज सारे दन लोग से मलता रहा
और कह अपमा नत नह आ।
आज सारे दन सच बोलता रहा
और कसी ने बुरा न माना।
आज सबका यक न कया
और कह धोखा नह खाया।

और सबसे बड़ा चम ार तो यह
क घर लौटकर मने कसी और को नह
अपने ही को लौटा आ पाया।

एक अदद क वता

जैसे एक जंगली फूल क आक कता


मुझम क धकर मुझसे अलग हो गई हो क वता

और म छूट गया ं कह
जहन् नुम के ख़लाफ़
एक अदद जुलसू
एक अदद हड़ताल
एक अदद नारा
एक अदद वोट
और अपने को अपने ही
देश क जेब म सम् भाले
एक अवमू त नोट
सोचता आ क भो
अब कौन कसे कस- कसके नरक से नकाले

इ ज़ाम

कल फर एक ह ा ई
अजीब प र तय म।

म अ ताल गया
ले कन वह जगह अ ताल नह थी।
वहाँ म डॉ र से मला
ले कन वह आदमी डॉ र नह था।
उसने नस से कुछ कहा
ले कन वह ी नस नह थी।
फर वे ऑपरेशन- म म गए
ले कन वह जगह ऑपरेशन- म नह थी।
वहां बेहोश करनेवाला डॉ र
पहले ही से मौजूद था-मगर वह भी
दरअसल कोई और था।

फर वहाँ एक अधमरा ब ा लाया गया


जो बीमार नह , भूखा था।

डॉ र ने मेज़ पर से
ऑपरेशन का चाकू उठाया
मगर वह चाकू नह
ज़ंग लगा भयानक छुरा था।
छुरे को ब े के पेट म भ कते ए उसने कहा
अब यह ब ु ल ठीक हो जाएगा।
आदमी अ वसायी था

'आदमी अ वसायी था' अगर


इतने ही क जय ी मनाकर
सी दी गई उसक
उसके ही क जड़ से। न उगने पाई
उसक को शश। बेलोच प र के मुक़ाबले
कटकर रह गए उसके हाथ

सो कौन सं ार देगा
उन सारे औज़ार को
जो प र से ादा उसको तराशते रहे।
चोट जनक पाश वक खर च और घाव को
अपने ऊपर झेलता
और वापस करता वन कर
ता क एक खी कठोरता क
भीतरी सु रता कसी तरह बाहर आए।

उसको छूती आँख का अधैय क वह पारस नह


जो छूते ही चीज़ को सोना कर दे? क् य खोजना पड़ता है
मथक म, व ो य म, ेष म, पक म
झूठ के उ ी तरफ़ क् य इतना रा ा चलना पड़ता है
एक साधारण स ाई तक भी प च ँ पाने के लए?

अपने बजाय

र ार से जीते
दशक क लीला द दरू ी को लांघते ए : या
एक ही कमरे म उड़ते-टू टते लथपथ
दीवार के बीच
अपने को रोककर सोचता जब

तेज़ से तेज़तर के बीच समय म


कसी द ु नयादार आदमी क द ु नया से
हटाकर ान
कसी ान देनेवाली बात को,
तब ज़ री लगता है ज़ ा रखना
उस नै तक अकेलेपन को
जसम ब होकर
ाथना क जाती है
या अपने से सच कहा जाता है
अपने से भागते रहने के बजाय।
म जानता ँ कसी को कान कान खबर
न होगी
य द टू ट जाने दं ू उस नाजुक र े को
जसने मुझे मेरी ही गवाही से बाँध रखा है,
और कसी बातूनी मौके का फ़ायदा उठाकर
उस बहस म लग जाऊँ
जसम अपनी सारी ज ेदा रय से छूटकर
अपना वक ल बन जाता है।

तुम मेरे हर तरफ़

और तुम मेरे हर तरफ़


हर व
इतनी मौजूद :
मेरी द ु नया म
तु ारा बराबर आना-जाना
फर भी ठीक से पहचान म न आना
क कह सकूं
देखो, यह रही मेरी पहचान
मेरी अपनी ब ु ल अपनी
सबसे पहलेवाली
या सबसे बादवाली
कसी भी चीज़ क तरह
ब ुल और न त।
अब उसे च त करते मेरी उँ ग लय के बीच से
नचुड़कर बह जाते के रंग,
लोग और चीज़ के वणन
भाषा के बीच क खाली जगह म गर जाते।
ठहरे पानी के गहरे बाब म
एक परछा एक परत और सकुड़ती।
शाम के अं धेरे ठ े हाथ।
मेरे क पर बफ़ क तरह ठ े हाथ
मुझे महसूस करते ह।

सतह

सतह इतनी सतही नह होती


न वजह इतनी वजही
न इतना ही
क सतह को मान लया जाए काग़ज़
और हाथ को कहा जाए हाथ ही।

जतनी जगह म दखता है एक हाथ


उसका ा र ा है उस बाक़ जगह से
जसम कुछ नह दखता है?
ा वह हाथ
जो लख रहा
उतना ही है
जतना दख रहा?
या उसके पीछे एक और हाथ भी है
उसे लखने के लए बा करता आ?

बाक़ क वता

प पर पानी गरने का अथ
पानी पर प े गरने के अथ से भ है।

जीवन को पूरी तरह पाने


और पूरी तरह दे जाने के बीच
एक पूरा मृ ु- च है।

बाक़ क वता
श से नह लखी जाती,
पूरे अ को ख चकर एक वराम क तरह
कह भी छोड़ दी जाती है...
दो

लगभग दस बजे रोज़

लगभग दस बजे रोज़


वही घटना
फर घटती है।
वही लोग
उसी तरह
अपने बीवी-ब को अकेला छोड़कर
घर से बाहर नकल आते ह। मगर
भूक नह आता।

शाम होते-होते
वही लोग
उ घर म
वापस लौट आते ह,
शामत के मारे
थके-हारे।

म जानता ँ
भूक इस तरह नह आएगा। इस तरह
कुछ नह होगा।
वे लोग कसी और वजह से डरे ए ह।
ये सब बार-बार
उसी एक प च ँ े ए नतीजे पर प च
ँ कर
रह जाएँगे क झूठ एक कला है, और
हर आदमी कलाकार है जो यथाथ को नह
अपने यथाथ को
कोई न कोई अथ देने क को शश य पागल है!

कभी-कभी शाम को घर लौटते समय


मेरे मन म एक अमूत कला के भयानक संकेत
आसमान से फट पड़ते ह-जैसे कसी ने
तमाम बदरंग लोग और चीज़ को इक ा पीसकर
कसी सपाट जगह पर लीप दया हो
और र के सरासर जो खम के व
आदमी के तमाम दबे ए रंग
खुद-ब-खुद उभर आए ह ।

वभ ?

(मु बोध के नधन पर)

वह थक कर बैठ गया जस जगह


वह न पहली, न अ म,
न नीचे, न ऊपर,
न यहाँ, न वहाँ...

कभी लगता-एक कदम आगे सफलता।


कभी लगता-पाँव के आसपास जल भरता।

सोचता ँ उससे वदा ले लूँ


वह जो बुरा-सा च ाम हलता न डु लता।
वह शायद अ है क अ तम है।

वैसे जीना कस जीने से कम है


जब क वह कह से भी अपने को लौटा ले सकता था
शखर से साधारण तक,
श के अथजाल से केवल उनके उ ारण तक।

स के रा े जब द ु नया घटती
और बढ़ता है,
कतनी अजीब तरह
अपने-आपसे अलग होना पड़ता है।

लखनऊ

कसी नौजवान के जवान तरीक़ पर ो रयाँ चढ़ाए


एक टू टी आरामकुस पर
अधलेटे
अधमरे बूढ़े-सा खाँसता आ लखनऊ।
कॉफ़ -हाउस, हज़रतगंज, अमीनाबाद और चौक तक
चार तहज़ीब म बंटा आ लखनऊ।

बना बात बात-बात पर बहस करते ए-


एक-दस ू रे से ऊबे ए मगर एक-दस ू रे को सहते ए-
एक-दस ू रे से बचते ए पर एक-दस
ू रे से टकराते ए-
ग़म पीते ए और ग़म खाते ए-
ज़ गी के लए तरसते कुछ मरे ए नौजवान वाला लखनऊ।

नई शामे-अवध-
दस सेके म समझाने-समझनेवाली कसी बात को
क़रीब दो घ े क बहस के बाद समझा-समझाया,
अपनी सरपट दौड़ती अ ल को
कसी बे-अ ल क समझ के छकड़े म जोतकर
हज़रतगंज क सड़क पर दौड़ा-दौड़ाकर थकाया,
ा हश क जगह बहस से काम चलाया,
और शामे-अवध को शामते-अवध क तरह बताया।
बाज़ार-
जहां ज़ रत का दम घुटता है,
बाज़ार-
जहाँ भीड़ का एक युग चलता है,
सड़क-
जन पर जगह नह ,
भागभाग-
जसक वजह नह ,
महज एक बे-रौनक़ आना-जाना,
यह है-शहर का वसातखाना।

कसी मुदा शानोशौकत क क़ -सा,


कसी बेवा के स -सा,
जजर गु द के ऊपर
अवध क उदास शाम का शा मयाना थामे,
कसी तवायफ क ग़ज़ल-सा
हर आनेवाला दन कसी बीते ए कल-सा,
कमान-कमर नवाब के झुके ए
शरीफ आदाब-सा लखनऊ,
ख हर म ससकते कसी बेगम के शबाब-सा लखनऊ,
बारीक़ मलमल पर कढ़ी ई बारी क़य क तरह
इस शहर क कमज़ोर नफ़ासत,
नवाबी ज़माने क ज़नानी अदाओं म
कसी मनचले को रझाने के लए
क़ ा लयां गाती ई नज़ाक़त :
कसी मरीज़ क तरह नई ज़ गी के लए तरसता,
सरशार और मजाज़ का लखनऊ,
कसी शौक न और हाय कसी बे नयाज़ का लखनऊ :

यही है क़ ा
हमारा और आपका लखनऊ।

ज़ रत के नाम पर

क् य क म ग़लत को ग़लत सा बत कर देता ं


इस लए हर बहस के बाद
ग़लतफ़ह मय के बीच
बलकुल अकेला छोड़ दया जाता ं
वह सब कर दखाने को
जो सब कह दखाया
वे जो अपने से जीत नह पाते
सही बात का जीतना भी सह नह पाते
और उनक अस ह त ु ा के बीच
म कसी अपमानजनक नाते क तरह
वेमुरौ त तोड़ दया जाता ँ ।
ेक रोचक संग से हटाकर,
श ा द पु क क सुची क तरह
घरेलू उप ास के अ म
लापरवाही से जोड़ दया जाता ँ ।

वे सब मलकर
मेरी बहस क हत् या कर डालते ह
ज़ रत के नाम पर
और पूछते ह क ज़ गी क् या है
ज़ गी को बदनाम कर ।

लाउड ीकर

मुहल् ले के कुछ लोग लाउडस् पीकर पर


रात भर
क तन-भजन करते रहे।
मुहल् ले के कुत् ते लड़ते-झगड़ते
रात भर
शां त-भंजन करते रहे।
मुझे ख़ुशी थी क लोग भूकं नह रहे थे
(क तन तो अच् छी चीज़ है)
और कुत् त के सामने लाउडस् पीकर नह थे।
(गो क भूक ं ना भी सच् ची चीज़ है।)

एक हरा जंगल

एक हरा जंगल धम नय म जलता है।


तु ारे आँचल म आग...
चाहता ँ झपटकर अलग कर दँ ू तु
उन तमाम संदभ से जनम तुम बेचैन हो
और राख हो जाने से पहले ही
उस सारे को बचाकर
कसी दस ू री द ु नया के अपने आ व ार म शा मल
कर लूँ ।
लपट
एक नए तट क शीतल सदाशयता को छूकर
लौट जाएँ।

डूबते देखा समय को

डूबते देखा समय को


जो अभी अभी सूय था

अपने म अ
म, शाम म इस तरह
क जैसे वह ई नह -मने क ,
उसके थ रंग को
एक साह सक योजना दी।

पहले भी आया ँ

जैसे इन जगह म पहले भी आया ँ


बीता ।ँ
जैसे इन महल म कोई आने को था
मन अपनी मनमानी खु शयां पाने को था।
लगता है
इन बनती- मटती छायाय म तड़पा ँ
कया है इंतज़ार
दी ह स दयां गुज़ार
बार-बार
इन खाली जगह म भर-भर कर रीता ँ
रह-रह पछताया ँ
पहले भी आया ँ
बीता ।ँ

रा े (फतेहपुर सीकरी)
वे लोग कहाँ जाने क ज ी म थे
जो अपना सामान बीच रा म रखकर भूल गए ह?
नह , यह मत कहो क इ रा से
हज़ार -हज़ार फूल गए ह...
वह आक क वदा (कदा चत गत !)
जो शायद जाने क ज ी म फर आने क बात थी।

ये रा ,े जो कभी खास रा े थे,


अब आम रा े नह ।
ये महल, जो बादशाह के लए थे
अब कसी के वा े नह ।

आ य, क उन बेताब ज़ गय म
स क गुजं ाइश थी...
और ऐसा स क अब ये प र भी ऊब रहे ह।
अना ा देह (फतेहपुर सीकरी)

इन परछाइय के अलावा भी कोई साथ है।


सी ढ़य पर चढ़ते ए लगता है
ँ ूँगा।
क वहाँ कोई है, जहाँ प च

मुंडेर के क े हलते ह,
झरोखे झाँकते ह,
दीवार सुनती ह,
मेहराब जमुहाई लेती,
गु द, ता ज़य के गु द क तरह
हवा म कांपते ह।

तालाब के सेवार-वन म जल क परछाईयां चंचल ह,


हरी काई के कालीन पर एक अना ा देह लेटी है
और मीनार चाहती ह
क लुढ़ककर उसके उरोज को चूम ल।
तीन

द ी क तरफ़

जधर घुड़सवार का ख हो
उसी ओर घसटकर जाते ए
मने उसे कई बार पहले भी देखा है।

दोन हाथ बंधे, मज़बूरी म, फर एक बार


कौन था वह? कह नह सकता
क केवल दो बंधे ए हाथ ही
द ीप च ँ े थे।

इ ब
े तूता

माबर के जंगल म
सोचता इ बे तूता-पैने बांस क सू लय म बधे
कौन ह ये जनके शरीर से र चूता?

दन म भी इतना अं धेरा
या सु ान अ ा है
जसक अन् धी आँख से म देख रहा ँ
मशाल क फ क रोशनी म छटपटाता
तवारीख का एक पन् ना?-
इस बबर समारोह म
कौन ह ये अधमरे ब ,े औरत जनके बेदम शरीर से
हाथ पाँव एक एक कर अलग कए जा रहे ह?
का फ़र? या मनु ? कौन ह ये
मेरे इद गद जो
श रयत के खलाफ़
शराब पए जा रहे ह?

कोई नह । कुछ नह । यह सब
एक ग ा ाब है
यह सब आज का नह
आज से ब त पहले का इ तहास है
आ दम द र का
जसका म सा ी नह ...। सु ान,
मुझे इजाज़त दो,
मेरी नमाज़ का व है।

लापता का लया

रंग गे आं ढंग खे तहर


उसके माथे पर चोट का नशान
कद पांच फुट से कम नह
ऐसी बात करता क उसे कोई ग़म नह ।
तुतलाता है।
उ पूछो तो हज़ार साल से कुछ ादा बतलाता है।
देखने म पागल-सा लगता-- है नह ।
कई बार ऊंचाइय से गर कर टू ट चुका है

इस लए देखने पर जुड़ा आ लगेगा


ह ु ान के न शे क तरह।
काफ़ बाद

हमेशा क तरह इस बार भी


पु लस प च ँ गई थी घटना ल पर
घटना के काफ़ बाद
ता क इ तहास को सही-सही लखा जा सके
च दीद गवाह के बयान के मुता बक ।
एक पूरी तरह जल चुक चता
और पूरी तरह जल चुक लाश के सवाय
अब वहाँ कोई न था गवाह
जसने अपनी आँख से देखा हो
उन बूढ़े, जवान, ब को ज ने उ ाह से चता
बनाई थी
उन लोग को ज ने मलकर चता म आग
लगाई थी
और उन ह ार को ज ने कुछ बेबस इनसान को
लपट म झ क झ क कर होली मनाई थी...

यह सब कहाँ आ? इसी देश म।


यह सब होता है कसी देश म?-

बे ने म- ा ा म-बेलची म- वयतनाम म-
बांगला देश म-
स ाटा या शोर

कतना अजीब है
अपने ही सरहाने बैठकर
अपने को गहरी न द म सोते ए देखना।
यह रोशनी नह
मेरा घर जल रहा है।
मेरे ज़ ी पाँव को एक ल ा रा ा
नगल रहा है।
मेरी आँख नाव क तरह
एक अं धेरे महासागर को पार कर रही ह।

यह प र नह
मेरी चकनाचूर श का एक टु कड़ा है।
मेरे धड़ का पद ल
उसके नीचे गड़ा है।
मेरा मुंह एक ब तहखाना है। मेरे अ र
श का एक गुम खज़ाना है। बाहर
एक भारी र के नीचे दबे पड़े
कसी वैता लक अ दान म चा भय क तरह
मेरी कटी उँ ग लय के टु कड़े ।

ा म अपना मुँह खोल पा रहा ?ँ


ा म कुछ भी बोल पा रहा ?ँ

लगातार सांय...सांय...मुझम यह
स ाटा गूज
ं ता है क शोर?
इन आहट और घबराहट के पीछे
कोई हमदद है क चोर?
लगता है मेरे कान के बीच एक पाताल है
जसम म लगातार गरता चला जा रहा ।ँ

मेरी बा तरफ़
ा मेरा बायां हाथ है?
मेरा दा हना हाथ
ा मेरे ही साथ है?
या मेरे हाथ के ब से
मेरे ही सर को
गद क तरह खेला जा रहा है?

म जो कुछ भी कर पा रहा ँ
वह व ा है या वचार?
म दो पांव पर खड़ा ं या चार?
ा म खुशबू और बदबू म फ़क कर पा रहा ?ँ
ा वह सबसे ऊँ ची नाक मेरी ही है
जसक सीध म
म सीधा चला जा रहा ?ँ

वह कभी नह सोया

वह जगह
जहाँ से मेरे मन म यह वधा आई
क अब यह खोज हम आगे नह बढ़ा पा रही
मेरे घर के ब ु ल पास ही थी।

वह घाटी नह तलहटी थी
जसे हमने खोद नकाला था-
और जसे खोद नकालने क धुन म
हम सैकड़ साल पीछे गड़ते चले जा रहे थे
इतनी दरू और इतने गहरे
क अब हमारी खोज म हम ही खोज पाना मु ल था।

शायद वह एक स ता का अतीत हमसे वदा आ था


जहाँ साँस लेने म पहली बार मुझे
द त महसूस ई थी
और म बेतहाशा भागा था
उस ज़रा-से दखते आसमान, वतमान और खुली हवा क ओर
जो धीरे-धीरे मुँदते चले जा रहे थे।

एक खोज कहाँ से शु होती और कहाँ समा


इतना जान लेने के बाद ा है और क् या नह
यह से शु होती आदमी क खोज,
उसक रोज़मरा को शश
क वह कैसे ज़ ा रहे उन तमाम लड़ाईय के बीच
जो उसक नह -जो उसके लए भी नह - जनम
वह न यो ा कहलाए न कायर,
केवल अपना फज़ अदा करता चला जाए
ईमानदारी से
और फर भी अपने ही घर क दीवार म वह
ज़ ा न चुनवा दया जाए।

वह अचानक ही मल गया।
कुछ नजी कारण से उसने
अपना नाम नह केवल न र बताया।
इ तहास देखकर जब वह वष ऊब गया
उसने अपने लए क़ नुमा एक कमरा बनाया
और एक ब त भारी प र को ओढ़कर सो गया।
वह फर कभी नह जागा, य प उसे देखकर लगता था
क वह कभी नह सोया था। उस ठ ी सीली जगह म
उसक अपलक आँख का अमानु षक दबाव, उसक आकृ त,
उसक वहारहीन भाषा-कुछ संकेत भर शेष थे
क वह प र नह आदमी था
और हज़ार साल से आदमी क तरह
ज़ ा रहने क को शश कर रहा था।

उस टीले तक

जेब म कुछ पुराने स े ,


हाथ म लगाम,
लंगड़ाते ट ू य पर सवार,
ऊबड़ खाबड़ सफ़र तय करते
हमने जस टीले पर प च ँ कर पड़ाव कया
कहते ह वह से सक र ने अपने घर वापस
लौटने क को शश क थी!

'घर'-मने इस श क ाकुल गूजँ को


अ र ऐसी जगह पर सुना है
जो कभी कसी वजेता के जीत क अं तम हद रही है।

ले कन हम वहाँ व ु ल उ े रा े से प च
ँ े थे
और ब ु ल अक ात्। यानी कोई इरादा न था
क हम वह खड़े होकर, भूखे ासे ब से घरे,
उस उजाड़ जगह का मुआयना करते ए
सक र के भूत वा भ व के बारे म अनुमान लगाते।
"नह , हम अब और आगे नह जा सकते,
हम बेहद थक चुके ह, हम घर प च ँ ना चाहते ह"
उन सबने मलकर
लगभग बग़ावत कर दी थी। अगर म सक र होता
तो मुम कन है उस रात उन तेरह का खून कर देता
जो पीछे लौटनेवाल के अगुवा थे। हमने
वह सीमा क़रीब क़रीब ढं ू ढ़ ही नकाली थी
जहाँ तक सक र प च ँ ा था।

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