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VAIDIK VANGMAY MAIN GANIT VIGYAN KI SHRUTIMULAKTA

Article · January 2019

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1 author:

Chander Kant Sharma


Mewar University
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International Journal of Sanskrit Research 2019; 5(4): 218-223

ISSN: 2394-7519
IJSR 2019; 5(4): 218-223
© 2019 IJSR वैदिक व ग्ां मय में गणित णवज्ञ न की श्रुणतमूलकत
www.anantaajournal.com
Received: 25-05-2019
Accepted: 27-06-2019 Dr. Chander Kant
Dr. Chander Kant
Assistant Professor/Head, स र ांश
Department of Astrology वैदिक व ांग्मय क मूल ध र वेि अपने गर्भ में असांख्य श स्त्रों एवां णवद्य ओं को पल्लणवत एवां पुणपपत
(Faculty of Alternative
Theraphy), Mewar University, करत रह है। वैदिक व ांग्मय णवश्व व ांग्मय मे मूधभन्य स्थ न में सुशोर् यम न है। इसके अन्तगभत वेि
NH – 79, Gangrar, Chittaurgarh,
Rajasthan, India अथव सांणहत , ब्र ह्मि, आरण्यक, उपणनषि एवां वेि ांग् सणममणलत हैं। आधुणनक युग र्ौणतक प्रगणत
क युग है। म नव सम ज क ढ ांच आर्थभक है, और अथभ य धन क आध र गणित है। व्य प र में
तोल-र् व, ल र्-ह णन, ब्य ज, कमीशन, िल ली, स ांझ , आयकर इत्य दि सर्ी में गणित के ज्ञ न
की आवश्यकत होती है। रे ख गणित, र्ूणमणत, ज्य णमणत, णिकोिणमणत इत्य दि गणितीय णवणधयों
क आरमर् गणितीय प्रदिय ओं को सरल रीणत से समझने के णलए हुआ है। गणित क प्रयोग प्रत्येक
कल और णवज्ञ न में हुआ है। णचि कल क आध र रे ख गणित है। सांगीत कल में स्वरों क
णनिेशन, त र की लमब ईयों तथ कां पन सांख्य ओं से ही होत है। ब ांसुरी में सप्तक के स्वरों को उत्पन्न
करने के णलए छेि गणित के अनुस र दकए ज ते हैं। पपांगल श स्त्र के गि शब्ि की उत्पणि गिन से
ही हुई है। र्ौणतक श स्त्र णजसने वेत र के त र आदि से युग पररविभन कर दिय है, पूिभतः गणित पर
अवलणमबत है। रे णियों की तरां गों की उपणस्थणत सवभप्रथम गणित द्व र ही णसद्ध की गई। आक शीय
णपण्िों से समबणन्धत अध्ययन श स्त्र ज्योणतषश स्त्र क आध र स्तमर् गणित है। स्वयां ही प्रकृ णत र्ी
गणितमय है। णनयम नुस र हम रे जीवन क प्रत्येक क्षेि र्ी गणित पर आध ररत है। वैदिक व ांग्मय
में गणित के प्र रणमर्क इणतह स के ब रे में अनेक महत्त्वपूिभ तथ्य िृणिपथ होते हैं। यद्यणप वतभम न
समय में अध्ययन की णवणर्न्न श ख ओं में णवणशिीकरि िृणिर्ूत हो रह है, तथ णप श स्त्रों में
अांग णगर् व समबन्ध होने के क रि एक श स्त्र के ज्ञ न के णलए अनेक श स्त्रों क स म न्य ज्ञ न होन
आवश्यक समझ ज सकत है।

कु ट शब्द: वैदिक व ांग्मय में गणितीय णवणधय ाँ, शून्य क आणवपक र तथ महत्त्व, िशमलव ांक
प्रि ली, बौध यन प इथोगोरस प्रमेय, वगभमूल और र्ूपररणध म न इत्य दि।

प्रस्त वन
णवश्व में गणित णवज्ञ न की उप िेयत णछपी हुई नहीं है। गणित णवज्ञ न की आध रणशल
पर ही अन्य समग्र णवज्ञ नों क णवक स एवां मूल्य ांकन हो रह है। खगोल ज्ञ न, णजसे गणित
Correspondence
Dr. Chander Kant क एक आवश्यक अांग समझ ज त है, गणित के अर् व में अपन कोई महत्त्व नहीं रखत ।
Assistant Professor/Head,
Department of Astrology इसी तथ्य की पृणि में श स्त्रें क णवच र है, दक गणित ज्ञ न के णबन खगोल ज्ञ न असांर्व है।
(Faculty of Alternative
Theraphy), Mewar University,
NH – 79, Gangrar, Chittaurgarh,
जैस दक कह र्ी गय है-
Rajasthan, India

~ 218 ~
International Journal of Sanskrit Research

‘अन्तरे ि गणितां गोलोऽणप न ज्ञ यते, तस्म द्यो शून्य से र् ग िेने पर दकसी र्ी र णश की अनन्त लणब्ध
आती है। जैसे सृणि के अनन्त जीव प्रलय क ल में अच्युत के
गणितां न वेणि स कथां गोल दिकां ज्ञ स्यणत’ 1 ।।
उिर में सम ज ते हैं। सवभप्रथम अव्यक्त गणित में म न
णनध भरि के णलए य वि् त वत् इत्य दि की कल्पन की गई
गणित के अनेक र्ेिों में व्यक्त (अांकगणित), अव्यक्त
थी। र् स्कर च यभ ने इसक र्ी सांकेत बीजगणित में दकय
(बीजगणित) न मक िो प्रमुख र्ेि हैं। यद्यणप वतभम न समय है –
में अध्ययन की णवणर्न्न श ख ओं में णवणशिीकरि हो रह
है, तथ णप श स्त्रें में अांग णगर् व समबन्ध होने के क रि एक य वि वत् क लको नीलकोऽन्यो विभः पीतो
श स्त्र के ज्ञ न के णलए अनेक श स्त्रें क स म न्य ज्ञ न लोणहतश्चैति द्य ।
आवश्यक समझ ज सकत है। इसी सन्िर्भ में अव्यक्त न ां कणल्पत न ां म नसांज्ञ स्तत्सांख्य नां
ज्योणतर्वभज्ञ न के सुप्रणसद्ध खगोलणवि र् स्कर च यभ ने र्ी कतुभम च यभवययः ।। 4
कह है, दक अनेक प्रक र के गणितों तथ शब्िश स्त्र ज्ञ न के
अनन्तर ही णशपयपरमपर क कोई उिम णवद्य प ि णशपय म नसांज्ञ को णनध भररत करने के णलए य वत्, त वत्,
ज्योणतषश स्त्र के ज्ञ न प्र णप्त क अणधक री हो सकत है। क लक, नीलक, अन्य विभ श्वेत, हररत, पीत आदि की
जैस दक कह र्ी गय है- कल्पन यें आच यों ने की हैं। अव्यक्त गणित के द्व र
आक शीय र्ूगोलीय चमत्क र तथ अन्य प्रक र के चमत्क र
णद्वणवधगणितमुक्तां व्यक्तमव्यक्तयुक्तां तिवगमणनष्ठः िृणिर्ूत होते हैं। व्यक्त और अव्यक्त गणित में योग, णवयोग,
शब्िश स्त्रे प्रणतष्ठः ।
गुि इत्य दि क गणित सम न ही है। र्ेि णसर्भ इतन है, दक
यदि र्वणत तिेिां ज्योणतषां र्ूररर्ेिां
व्यक्त में अांक और अव्यक्त में विभ की कल्पन की ज ती है।
प्रपरितुमणधक री सोऽन्यथ न मध री 2 ।।
वैदिक व ङमय णवश्व क प्र चीनतम स णहत्य है, णजसमें वेि
वेि की अनन्त ज्ञ नर णश सन तन अग ध तथ अथव सांणहत , ब्र ह्मि, आरण्यक, उपणनषि एवां वेि घõ
अपररवतभनीय रत्न कर के सम न है। इस अक्षुण्ि ज्ञ न कोष सणममणलत हैं। वैदिक व ङमय में ऋग्यजुस मथवभ च र
में से णवद्व नों ने स ांस्कृ णतक, र जनैणतक, कल -कौशल, सांणहत एां प्रमुख हैं। इनमें ऋग्वेि सांणहत सबसे प्र चीन है।
कृ णषश स्त्र आदि अनेक तत्वों को मक्खन के सम न सम ज ऋग्वेि दि सांणहत ओं में बहुत सी जगह पर गणित के ब रे
को प्रि न दकये हैं। ज्योणतष तथ गणित श स्त्र की विभन प्र प्त होत है। वेिों के स म न्य अध्ययन के णलए छः
श्रुणतमूलकत के सन्िर्भ में सवभप्रथम वेिों के अन्तगभत गणित वेि ांगों क प्र िुर्
भ व हुआ। जो इस प्रक र है- णशक्ष
के अांकुरों पर णवच र दकय गय है। स्थूल रूप से गणित के (Phonetics), कल्प (Ritualistics)] व्य करि
र्ेिों में व्यक्त गणित के अन्तगभत कणल्पत अांको द्व र सांयोग,
(Grammar), णनरूक्त (Etymology), छन्ि
णवयोग, गुि , र् ग इत्य दि प्रदिय द्व र गणित की
(Prosody)और ज्योणतष (Astronomy & Astrology) ।
दिय ओं को स णधत दकय ज त हैं। एवां अव्यक्त गणित में
कल्पो न म णवणधः के अनुस र कल्प में वैदिक यज्ञों और
कणल्पत अांक के स्थ न पर अक्षर को म नकर सांयोग, णवयोग, अन्य अनुष्ठ नों क आयोणजत और समपन्न करने के णनयम
गुि , र् ग आदि प्रदिय द्व र गणितीय दिय ओं को तथ उनसे सांबणन्धत अन्य ब तों कही गई हैं। कल्प के च र
स णधत दकय ज त है। व्यक्त गणित क बीज अव्यक्त र्ेि कहे गये हैं- श्रौतसूि, शुल्बसूि, गृह्यसूि एवां धमभसि
ू ।
गणित हैं और अव्यक्त गणित ब्रह्म स्वरूप म न गय है। यह श्रौतसूिों में यज्ञ णवणध के ब रे में, शूल्बसूिों में यज्ञ वेदि
अपने उिर में समस्त र णशयों को आत्मस त कर लेत है,
णनम भि दि के ब रे में, गृह्यसूिों में गर् भध न दि सोलह
जैस दक र् स्कर च यभ ने अपने बीजगणित में एक श्लोक के
सांस्क रों के ब रे में और धमभसूिों में ध र्मभक रहस्यों के ब रे
म ध्यम से प्रणतप दित दकय है – में णवस्तृत विभन दकय गय है।
ज्य णमणत क उद्भव र् रत में यज्ञ की वेिी क णनम भि करने
अणस्मन् णवक रः खहरे न र श वणप प्रणविेपवणप
के सन्िर्भ में हुआ थ । शुल्बसूि र् रत की प्र चीन रचन यें
णनःसृतेषु ।
हैं, जो यज्ञ के णलए वेदियों के णनम भि क विभन करती हैं,
बहुपवणप स्य ल्लयसृणिक लेऽनन्तेऽच्युते र्ूतगिेषु
मूलरूप से ज्य णमणत रचन ओं पर के णन्ित है। शुल्ब शब्ि की
यद्वत् ।। 3
उत्पणि शुल्ब ध तु से हुई है, णजसक अथभ है न पन । वैसे
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शुल्ब क स म न्य अथभ रस्सी य िोरी की सह यत से णनणश्चत है। यह +1 और -1 के मध्य में है। कह ज त है, दक
जमीन न पने, णनश न लग ने और च प इत्य दि खींचने क ‘यिच्छ णवन्य से शून्य’ अथ भत् अनज न एवां अज्ञ त अांक के
क म करने से है। इस तरह के क यभ करने व ले को शुल्ब णवि स्थ न पर शून्य क प्रयोग दकय ज त है। शून्य क प्रयोग
कहते हैं। सूि शैली (Abhoristic style) में णलखे ज ने के य वि् त वि् अथ भत् जो है, वही के अथभ में होत है। शून्य के
क रि इन्हें सूि कह गय । ये शुल्बसूि अपने लेखकों के आणवपक र ने णवणर्न्न प्रदिय ओं को अत्यन्त सरल बन
न म से ज ने ज ते हैं। प्र चीन िम से शुल्बसूि इसी प्रक र
दिय । प्र चीन र् रत में शून्य की जो आकृ णत अपन ई गयी,
हैं- बौध यन शुल्बसूि, आपस्तमब शुल्बसूि, क त्य यन
वही सांस र के अणधक ांश िेशों में प्रचणलत हुई।
शुल्बसूि, म नव शुल्बसूि। इन शुल्बसूिें क रचन समय सवभप्रथम ऋग्वेि में सांख्य ओं के ब रे में तथ िशमलव दि
1200 ई- से 800 ई-पू- म न गय है। इसमें बौध यन प्रदिय के ब रे में विभन प्र प्त होत है। ऋग्वेि 6 में कई
शुल्बसूि सबसे प्र चीन म न ज त है। ध र्मभक, ऐणच्छक स्थ नों पर हज र के णलए ‘सहस्र’ तथ िसहज र के णलए
और प रलौदकक जीवन को समृद्ध, सुखी और सर्ल बन ने ‘अयुत’ क प्रयोग दकय गय है। िशोिर अथ भत्
के णलए दकये ज ने व ले णनत्य और क मय यज्ञों की वेदियों िशगुिोिर गिन के णलए यजुवेि के णनम्न मन्ि के अनुस र
के णनम ि
भ दि गणितीय ज्ञ न के णलए शुल्बसूिें क ज्ञ न एक, िश, शत, सहस्र, अयुत, णनयुत, प्रयुत, अबुभि, न्यबुभि,
महत्त्वपूिभ है। ये वेि ांग ज्योणतष के आिशभ ‘गणितां मूधभणन समुि, मध्य, अन्त और पर द्धभ इस प्रक र की सूची प्र प्त
णस्थतम्’ को चररत थभ करते हैं। शूल्बसूिों में वर्िभत प्रचुर होती है। इन तेरह न मों की सूची क उल्लेख यजुवेि की
गणितीय स मग्री हमें प्र चीन र् रतीय गणित के ब रे में व जसनेयी सांणहत णजसे शुक्लयजुवेि र्ी कह ज त है,
णवशेष ज्ञ न प्रि न करती है। बौध यन ने अपने ग्रन्थ में एक
उसके 17 वें अध्य य में िी गई है। मन्ि इस प्रक र है-
सूि के रूप में णवकिभ के वगभ क णनयम दिय है। 5
इम मे अग्न इिक धेनवः सत्वेक च िश च शतां च शतां च
िीघभचतुरस्रस्य क्ष्प य रज्ुः प श्वभम नी तीयभघ्म नी च सहस्रां च युतां च युतां च णनयुतां च णनयुतां च प्रयुतां च बुि
भ ां च
यत्पृथग्र्ूते कु रुतस्तिुर्यां करोणत। अथ त
भ ् एक आयत क न्यबुभिां च समुिश्च मध्यमां च न्तञ्च पर द्धभञ्चैत मे अग्न इिक
णवकिभ उतन ही क्षेि इकठ्ठ बन त है, णजतने दक उसकी धेनवः सन्त्वमुिमुपस्मांल्लोके ।।
लमब ई और चौड ई अलग-अलग बन ती है। यही अथ भत् हे अणग्निेव ज्ञ नव न्! णवद्व न! पुरोणहत! सम न र ज्य
प इथेगोरस (छिी शत ब्िी) क प्रमेय है। उन्होनें बत य दक रूप महल में लगी, र ज्य के न न णवर् गों में णनयुक्त
एक प इथेगोररयन णिर्ुज एक समकोि णिर्ुज होत है। श सक वगभ, र्ृत्यवगभ रूप ईटें सेन यें और प्रज यें अथव इि
णजसकी र्ुज एां X, Y, Z पूि भकों के अनुप त में होती हैं। अथ भत् वेतन रूप से दिये गये अन्न य णपण्ि पर णनयुक्त
प इथेगोरस प्रमेय के अनुस र णनम्न प्रणतबन्ध को सन्तुि अम त्य, र्ृत्य आदि सब अथव मेरे अणर्लणषत र ज्य ांग
करती है- प्रज गि मैं मेरे णलए गौओं के सम न समृद्ध और ऐश्वयभ को
बढ ने व ली और पुि करने व ली हो। गोएां एक एक करके
𝑧2 = 𝑥2 − 𝑦2
िस हों, िस िस से बढकर सौ, सौ से बढकर हज र, हज र
𝑦2 = 𝑧2 − 𝑥2
𝑥2 = 𝑦2 + 𝑧2 से िस हज र, िस हज र से ल ख, ल ख से िस ल ख, िस
ल ख से करोि, करोि से िस करोि, िस करोि से अरब,
जो दक बौध यन ने पहले ही स्पि कर दिय थ , अतः स्पि
अरब से खरब, खरब से मह पद्म, मह पद्म से शांख (समुि),
है दक इस प्रमेय की ज नक री र् रतीय गणितज्ञों को
प इथेगोरस के पहले से थी । अतः इस प्रमेय को बौध यन समुि से अन्त, मध्य और पर द्धभ हो ज यें। ये ग यें मेरी ि न
प्रमेय कह ज न च णहए । दकए गए वेतन आदि पर बद्ध, णप्रय एवां सांगरित र ज्य की
सांख्य ओं के सही अव गमन करने के णलए और गणितीय ईटों के सम न प्रज गि िुध र गौओं के सम न ऐश्वयभ रस िेने
समस्य ओं के सम ध न के णलए गणितज्ञों ने आश्चयभजनक व ली होकर इस लोक में सुखक री हों। समबणन्धत वैदिक
खोज की है, शून्य । शून्य क सांस्कृ त में अथभ है- ख अथ भत् ऋणष के न म पर इसे मेघ णतणथसूची र्ी कहते हैं। इसी
आक श अथव जो कु छ र्ी नहीं है, ख लीपन । न होकर र्ी सूची के सिृश तैणिरीय सांणहत (कृ पियजुवेि), शतपथ
दकसी र्ी अन्य सांख्य की र् णन्त एक सांख्य है, जो छोटी से ब्र ह्मि, क िकसांणहत , मैियिीसांणहत , पञ्चणवशब्र ह्मि
छोटी धन त्मक सांख्य है। सांख्य स्के ल में इसक स्थ न
~ 220 ~
International Journal of Sanskrit Research

(त ण्यब्र ह्मि), जैणमणनब्र ह्मि उपणनषि् तथ अथ भत् दिव्यगुिों को ध रि करने व ले ‘ियः एक िश सः’
श ांख यनश्रौतसूि में र्ी प्र प्त होती है। इससे मेघ णतणथसूची (3×11=33) अथ भत् िेवत गि सत् गुिो से युक्त हैं, उन्होंने
की लोकणप्रयत स्वतः ही णसद्ध हो ज ती है। करोि से आगे
उस सत्य क िशभन पहले ही कर णलय है। यह ां 33 से
लक्ष गुिोिर गिन स प्रि ली क एक सुन्िर उि हरि एवां
अणर्प्र य िेवत ओं की सांख्य ओं से है।
प्रम ि हमें ब ल्मीदक र म यि के युद्धक ण्ि में र्ी प्र प्त
व्यक्त गणित में ईक ई, िह ई, सैंकि प्रर्ृणत के प्रयोग द्व र
होत है। यजुवेि के 15 वें अध्य य के एक मन्ि में र्ी
सांख्य ओं के सम णवषम णवर् ग आदि के णवषय में प्रम ि योग, णवयोग दि के अनेक गणित हैं, णजनक स्वरूप हमें
प्र प्त होत है। मन्ि इस प्रक र है 7 - वेिों के अवलोकन से िृणिगोचर होत है। िशमलव गिन
पद्धणत के णलए वेिों क आश्रय णलय ज सकत है।
एक च मे णतस्त्रश्च मे णतस्त्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च
िशमलव णबन्िु लग कर एक से छोटी प्रत्येक सांख्य णलखी
मे सप्त च मे नव च मे नव च मे एक िश च मे एक िश च मे
ियोिश च मे ियोिश च मे पञ्चिश च मे पञ्चिश च मे ज सकती है। इसक मूल ऋग्वेि के णनम्न मन्ि में है 9-
सप्तिश च मे सप्तिश च मे नविश च मे नविश च मे
एकपवांशणतश्च मे एकपवांशणतश्च मे ियोपवांशणतश्च मे िश वणनभ्यो िशकक्ष्येभ्यो िशयोक्िेभ्यो
ियोपवांशणतश्च मे पञ्चपवांशणतश्च मे पञ्चपवांशणतश्च मे िशयोजनेभ्यः ।
सप्तपवांशणतश्च मे सप्तपवांशणतश्च मे नवपवांशणतश्च मे िश र्ीशूभ्यो अचभत जरे भ्यो िशधुरो िशयुक्त
नवपवांशणतश्च मे एकपिांशच्च मे एकपिांशच्च मे ियपिांशच्च मे वहद्भ्यः ।।
यज्ञेन कल्पन्त म् ।।
यह िश से गुणित और णवर् णजत करने की णवश्व को
चतस्त्रश्च मेऽिौ च मेऽिौ च मे द्व िश च मे द्व िश च मे
र् रतवषभ की सबसे िेन णवज्ञ न के क्षेि में ि शणमक स्थ न
षोिश च मे षोिश च मे पवांशणतश्च मे पवांशणतश्च मे
म न प्रि ली (Decimal Place Value System) है।
चतुपवांशणतश्च मे चतुपवांशणतश्च मेऽि पवांशणतश्च
मेऽि पवांशणतश्च मे द्व पिांशच्च मे द्व पिांशच्च मे षप्िांशच्च मे सांख्य ओं (Numbers) को सांख्य कों (Numberals) में
षप्िांशच्च मे चत्व ररां शच्च मे चत्व ररां शच्च मे णलखने की यह प्रि ली आज स रे णवश्व में इस्तेम ल की
चतुपचत्व ररां शच्च मे चतुपचत्व ररां शच्च मेऽिचत्व ररां शच्च ज ती है। इसको ि शणमक स्थ न म न प्रि ली इसणलए
मेऽिचत्व ररां शच्च मे यज्ञेन कल्पन्त म् ।। कहते हैं, क्योंदक इसमें आध र िश है, और अांको क म न
णनम्न मन्ि से आधुणनक गणित के णसद्ध न्त चलन कलन के उसके स्थ न के उपर णनर्भर करत है। सांख्य ओं को णलखने
अांक, वगभ और अन्तर की प्रदिय को र्ी समझ ज सकत में ‘अांक न ां व मतो गणतः’ णनयम क प लन दकय ज त है,
है। इसी प्रक र ही इसमें एक सांख्य को िो ब र कह गय अथ भत् अांक स्थ नों की गिन ि ई ओर से ब ई ओर की
है, णजससे 1+ 1 = 2 एवां एक के आगे िो व , िो से आगे ज ती है। स्थ न म न प्रि ली में सबसे ज्य ि महत्व शून्य
एक जोिने पर तीन, इसी प्रक र आगे जोिने पर च र, सांकेत क है, णजसके णबन प्रि ली णनजीव है। इस र् रतीय
प ांच, छः आदि सांख्य ओं के ब रे में ज न सकते हैं। चतस्त्रश्च पद्धणत की सबसे बिी णवशेषत है, दक यह बहुत ही सरल
मे इत्य दि यजुवेि के मन्ि से वगभ की प्रदिय स्पि प्रतीत दकन्तु सुस्वस्थ णसद्ध न्त पर आध ररत है और उसके द्व र
होती है। जैसे - च र गुन च र सोलह, छः गुन छः छिीस बिी से बिी सांख्य ओं को आस नी से णलख ज सकत है।
इत्य दि उि हरिों से स्पि इसे इस प्रदिय से र्ी समझ वैदिक व ङ्मय में सांख्य ओं को णनरूणपत करने के णलए
ज सकत है, दक तीन-तीन (33), च र-च र (44), प ांच- सांख्य ओं को णर्न्न णर्न्न न मों से कह गय है, जैसे -ख,

प ांच (55) इत्य दि से र्ी समझ ज सकत है। र् ग, नर्, अमबर, गगन के णलए शून्य, सूय,भ चन्ि, पृथ्वी के णलए
णवयोग आदि की प्रदिय र्ी अथवभवेि में र्ी िेखी ज एक, चक्षु, नेि, नयन आदि के णलए िो, अणग्न, अणनल,
सकती है। इसी प्रक र सांख्य ओं के गुिन आदि प्रदिय क प वक आदि के णलए तीन इत्य दि सांज्ञ ओं के स थ सांख्य ओं
र्ी उल्लेख ऋग्वेि में प्र प्त होत है, जो णनम्न मन्ि से स्पि क णनरूपि दकय गय है।
हम रे यह ां प्र यः सर्ी णवज्ञ नों और कल ओं क मूल स्रोत
है-
ब्रह्म को म न ज त है। णजससे स री सृणि की रचन की
युव ां िेव स्त्रयः एक िश सः सत्यस्य ििृशे है। अरब के इणतह सक रों ने र्ी णलख है, दक सृणि कि भ
पुरस्त त्।। 8 ब्रह्म के आिेश से ऋणषयों की एक गोष्ठी में नौ सांख्य ओं को
शून्य से छोिकर तथ ज्योणतष दि श स्त्रों क आणवपक र
~ 221 ~
International Journal of Sanskrit Research

दकय है। मह र् रत 10 के वन पवभ में र्ी इस प्रि ली से द्व िशप्रधश्चिमेकां िीणि न भ्य णन क उ तणच्चके त ।
तणस्मनृत्स कां णिशत न शघड्ढव र्पभत ः
गिन करने की ब त कही गई है। ऋग्वेि 11 के पुरुषसूक्त में
षणिनभचल चल रूः ।। 16
प ि और णिप ि शब्िों क प्रयोग णमलत है, णजसक अथभ है
𝟏 𝟑 𝟏 𝟏
तथ । मैियिी सांणहत 12 के अनुस र को प ि तथ अथ भत् एक वृि में ब रह पररणधय ां अथ भत् र णशय ां एक
𝟒 𝟒 𝟒 𝟖
को शर्,
𝟏
को कु ष्ठ तथ
𝟏
को कल कह गय है। ऋग्वेि चन्ि और तीन न णर्यों से युक्त है। यह कौन नहीं ज नत
𝟏𝟐 𝟏𝟎
दक इस चन्ि में तीन सौ स ि अर य खुिें हैं। ष णष्ठकपद्धणत
13 के एक मन्ि में र्ी कल और शर् शब्ि क प्रयोग हुआ
(Setagesimal) क अनुसरि करके पूरे वृिीय च प को
है। सांख्य और णर्न्न के सन्िर्भ में कल शब्ि बहुत ही रोचक
360 र् गों में ब ांट गय है। णवद्व न इसक आध र
और अनेक अथो व ल है। सांख्य रूप में कल क अथभ 16
ज्योणतषीय आवश्यकत म नते हैं। ऐस इसणलए दक सूयभ
होत है। चन्िम के घटते बढते िम रूप को र्ी कल कहते
अपनी प्रत्यक्ष वृिीय कक्ष को एक वषभ अथ भत् लगर्ग 360
हैं। इस प्रक र चन्िम में र्ी 16 कल यें म नी गई हैं। कल
दिनों में पूर करत है। ज्योणतष में सूयभ के प्रत्यक्ष कक्ष वृि
क व्य पक अथभ र् ग (Part) होत है। च प के कोिीय म प
𝟏
य ि णन्त वृि को मेष, वृष, णमथुन दि ब रह र णशयों में
के समबन्ध में एक कल (Minute) अांश के बर बर होती
𝟔𝟎 णवर् णजत दकय गय है। इसी क अनुसरि करते हुए दकसी
है। जबदक स रे चि में 3600 अांश म ने ज ते हैं। र्ी वृि को 12 र णशयों में णवर् णजत करके उसके प्रत्येक
रे ख गणित क र्ी ज्ञ न वेिों द्व र सांर्व है, यजुवेि में यज्ञ र् ग को र णश (Sign) कह गय । इस प्रक र कोिीय म प
मण्िप आदि के णनम भि में रे ख गणित क प्रयोग होत थ , एक र णश 30 र् ग य अांश (Degree) को णनरूणपत करने
जो णनम्न मन्ि से स्पि है – लगी। र् रतीय ज्योणतष और णिकोिणमणत में णनम्न सांज्ञ यों
के णवषय में कह गय है-
इयां वेदिः परो अन्तः पृणथव्य अयां यज्ञो र्ुवनस्य
1 चि = 12 र णश (Sign)
न णर्ः ।
अयां सोमो कृ पिो अश्वस्य रे तो ब्रह्म पां व चः परमां 1 र णश = 30 अांश (Degree)
व्योम ।। 14 1 अांश = 60 कल य णलप्त (Minute)
1 कल = 60 णवकल (Second)
अथ भत् उक्त मन्ि में व्य स और पररणध की पररर् ष के
1 णवकल = 60 तत्पर (Third)
णवषय में बत य गय है, जो यह पृथ्वी क च रों ओर घेर
1 तत्पर = 60 प्रणत तत्पर (Fourth)
है, उसे पररणध कह गय और जो उपर से अन्त तक णमलने
व ली जो पृथ्वी की रे ख है, वह व्य स कही गई। यह समस्त
आधुणनक णिकोिणमणत क र्लक ज्य Sine के आदि
जगत की न णर् है। चन्ि आदि र्ी इसी प्रक र की पररणध से
स्वरूप क जन्म प्रत्यक्ष रूप से र् रत में हुआ है। और ज्य
युक्त हैं। वृणिक रक सूय,भ अणग्न, व यु की र्ी पररणध र्ी इसी
के पुर स्थ पन और र् रतीय णसद्ध न्त ग्रन्थों क गणित के
तरह है। ऋग्वेि के एक मन्ि में र्ी पररणध आदि शब्िों क इणतह स में प्रमुख योगि न है। आधुणनक समय में ज्य क
उल्लेख णमलत है, यथ – अथभ Sine तथ जीव अथ भत् च प क अथभ Chord
प्रचणलत हो गय है। व स्तव में आधुणनक णिकोिणमणत शब्ि
क सीत् प्रम प्रणतम ककां णनि नम ज्यां दकम सीत्
अांग्रेजी शब्ि रिगोनोमैिी Trigonometry क शणब्िक
पररणधः,
अनुव ि है। इस णवषय क प्र चीन न म ज्य गणित अथ भत्
कः आसीत् प्र उग्रां दकमुत्थां यद्देव िेवमयजन्त णवश्वे
ज्य पर आध ररत गणित थ । ज्य णमणत शब्ि इसी तरह
।। 15
अांग्रेजी शब्ि ज्योमैिी Geometry शब्ि, जो र्ू म प से
णिकोिणमणत एवां रे ख गणित में उपयोगी वृि की पररणध बन है, जो इसक श णब्िक अनुव ि है।
360 होती है, णजसक प्रम ि ऋग्वेि के णनम्न मन्ि से स्पि प्र चीन र् रतीय ग्रन्थों में यह णवषय क्षेिव्यवह र अथव
क्षेिणमणत के अन्तगभत आत थ । व स्तव में णिकोिणमणत क
होत है-
णवक स ज्योणतष के दिय कल पों को पूर करने के णलए
दकय गय थ । अतः इसके समबणन्धत बहुत सी स मग्री
~ 222 ~
International Journal of Sanskrit Research

ज्योणतष के ग्रन्थों में णवद्यम न है। ज्योणतष श स्त्र आध र


होने के क रि ही च पीय णिकोिणमणत क णवक स सरल
णिकोिणमणत से पहले हुआ है। वतभम न में प्रचणलत चलन
कलन अथ भत् गणित णवज्ञ न क णसद्ध न्त जो अांको के वगभ
वृणद्ध की गणत णसद्ध करत है। यजुवेि में इसक प्रम ि प्र प्त
होत है। इस प्रक र के अनेक उि हरिों से स्पि है, दक
गणित के णवक स में वैदिक व ङमय क णवशेष योगि न
रह है।

सन्धवभ ग्रन्थ्
1. णस.णश.म. गो.अ. गो.प्र. श्लो.सां. 6
2. णस.णश.म. गो.अ. गो.प्र. श्लो.सां. 7
3. बीजगणितम् श्लोक सां. 20
4. बीजगणितम् श्लोक सां. 21
5. बौध यन शुल्वसूि प्रथम अध्य य सूि सां- 11

6. ऋग्वेि 8.56.22
7. यजुवेि 15
8. ऋग्वेि 10.57.42
9. ऋग्वेि 10.94.7
10. मह र् रत वन पवभ अ. 134 श्लोक. 16
11. पुरुषसूक्तम् ऋग्वेि सांणहत 10.90
12. मैि यिी सांणहत 3.7.7
13. ऋग्वेि 8.47
14. यजुवेि 23.62
15. ऋग्वेि 10.130-3
16. ऋग्वेि 1.164.48
17. णसद्ध न्तणशरोमणिः र् स्कर च यभः,
18. बीजगणितम् र् स्कर च यभः
19. ऋग्वेिः, यजुवि
े ः, मह र् रतम्,
20. ऋग्वेिसांणहत , मैि यिीसांणहत

~ 223 ~

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