You are on page 1of 5

असम की प्राचीन संस्कृ ति

-अरुण कु मार उपाध्याय, भुवनेश्वर


(१) ब्रह्मा का स्थान-महाभारत शान्ति पर्व, अध्याय ३४८-३४९ में ७ मनुष्य ब्रह्मा का वर्णन है। उसमें पद्मनाभ ब्रह्मा का निवास असम में था। इन्होंने दक्ष,
विवस्वान्, इक्ष्वाकु को शिक्षा दी थी। यह एक व्यक्ति नहीं हो सकते। दक्ष यज्ञ के बाद शिव का दूसरा विवाह हुआ जिससे कार्त्तिके य उत्पन्न हुए। उनका जन्म
प्रायः १५,८०० ईपू. था जब अभिजित नक्षत्र से उत्तरी ध्रुव की दिशा दूर हट रही थी तथा धनिष्ठा से वर्षा और वर्ष का आरम्भ होता था (महाभारत, वन पर्व,
अध्याय २३०/८-१०)। वैवस्वान् के पुत्र वैवस्वत मनु १३९०२ ई.पू. में तथा इक्ष्वाकु ८५७६ ई.पू. में हुए। उनके पुत्र विकु क्षि (उकु सी) का इराक के किश में
लेख मिला था जिसका काल ८३०० ई.पू. अनुमानित है। प्रायः ८००० वर्षों की परम्परा दक्ष काल से आरम्भ हो कर इक्ष्वाकु (१६-८,००० ई.पू.) तक
चली।
महाभारत शान्ति पर्व-अध्याय ३४८-
यदिदं सप्तमं जन्म पद्मजं ब्रह्मणो नृप। तत्रैष धर्मः कथितः स्वयं नारायणेन ह॥४८॥
पितामहाय शुद्धाय युगादौ लोकधारिणे। पितामहश्च दक्षाय धर्ममेतं पुरा ययौ॥४९॥
ततो ज्येष्ठे तु दौहित्रे प्रादाद् दक्षो नृपोत्तम। आदित्ये सवितुर्ज्येष्ठे विवस्वान् जगृहे ततः॥५०॥
त्रेता युगादौ च ततो विवस्वान् मनवे ददौ। मनुश्च लोकभूत्यर्थं सुतायेक्ष्वाकवे ददौ॥५१॥
इक्ष्वाकु णा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थितः। गमिष्यति क्षयान्ते च पुनर्नारायणं नृप॥५२॥
यही गीता (४/१) में भगवान् कृ ष्ण ने योग परम्परा के विषय में कहा है-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽभ्रवीत्॥
महाभारत शान्ति पर्व-अध्याय ३४९-
प्राप्ते प्रजाविसर्गे वै सप्तमे पद्मसम्भवे। नारायणो महायोगी शुभाशुभविवर्जितः॥१७॥
भारत पृथ्वी में ज्ञान का के न्द्र होने से अज था। विष्णु या अज की नाभि मणिपुर है (शरीर में नाभि के पास मणिपुर चक्र) उससे ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। ह्माल का
पूर्वी भाग ब्रह्मा का क्षेत्र था जहां से निकली नदी ब्रह्मपुत्र है। नदियों के स्रोत का क्षेत्र विटप (वृक्ष) है-जैसे वृक्ष की हजारों छोटी जड़ें मिट्टी से जल ले कर ऊपर
तक पहुंचाती हैं, उसी प्रकार एक बड़े क्षेत्र के वर्षा का जल भी छोटी छोटी धाराओं से निकलता है जो मिल कर नदी बनती है। पश्चिमी हिमालय का जल सिन्धु
नदी से निकलता है-वह विष्णु विटप है। मध्य हिमालय का जल गंगा से निकलता है, वह शिव विटप या शिव जटा है। पूर्वी भाग ब्रह्म विटप है जिससे ब्रह्मपुत्र
निकलता है। ब्रह्मपुत्र के पूर्व का भाग ब्रह्म देश है। असम की एक उपाधि भी ब्रह्मा है। हर्षवर्धन की ६४२ ई. की रथयात्रा में राजा के रूप में हर्षवर्धन इन्द्र बना था
तथा ब्रह्मा क्षेत्र असम के राजा भास्करवर्मन् ब्रह्मा बने थे। (History of Ancient India by R S Tripathi, page 307)
(२) पूर्व की संस्था। मनुस्मृति में लिखा है कि वेद शब्दों से संस्था बनी-सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् । वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च
निर्ममे॥ (मनुस्मृति (१/२१) पूर्व का महा वाक्य है-अहं ब्रह्माऽस्मि। अहम से अहोम क्षेत्र (असम), ब्रह्मा से ब्रह्म देश तथा अस्मि का बहुवचन रूप स्यामः से
स्याम देश (थाईलैण्ड) हुआ।
(३) इन्द्र का स्थान-इन्द्र को पूर्व दिशा का लोकपाल कहा गया है। पाकशासन नाम-इन्द्र ने पश्चिम दिशा में पाक दैत्यों का वध किया था, अतः उनका
पाकशासन नाम पड़ा था। वामन पुराण, अध्याय ७१-
ततो बाणैरवच्छाद्य मयादीन् दानवान् हरिः। पाकं जघान तीक्ष्णाग्रै मार्गणैः कङ्कवाससैः॥१३॥
तत्र नाम विभुर्लेभे शासनत्वात् शरैर्दृढैः। पाकशासनतां शक्रः सर्वामरपतिर्विभुः॥१४॥
भागवत पुराण (८/११/२८) में भी। स्कन्द पुराण (७/४/१७/३६-४०)-
ऐशान्यां दिशि विप्रेन्द्राः स्थिता ये तान्वदाम्यहम्॥ ३६ ॥
एतेषां क्षेत्रपालानां सस्त्रीणां च द्विजोत्तमाः ॥ नेता प्रभु(म?)श्च स्वामी च जयन्तः पालकस्तथा ॥ ३८ ॥
निगृह्णात्यनुगृह्णाति रक्षिता पुरवासिनाम् ॥ जयन्तादेशमादाय ते दुष्टान्घातयन्ति च ॥ ३९ ॥
नागस्थलस्थितः स्वामी जयन्तः पालकः सदा ॥
भागवत पुराण (६/१८/७, ११/५/२६) में विष्णु का एक नाम जयन्त है। देवीभागवत (९/२२/७) में शङ्खचूड - सेनानी रत्नसार से जयन्त के युद्ध का
उल्लेख है। पद्म पुराण (६/६/९) में इन्द्र - पुत्र जयन्त द्वारा जालन्धर - सेनानी संह्लाद से युद्ध का कथन है। जयन्त तथा उसकी बहन के नाम पर असम की
जयन्तिया पहाड़ी है।
इन्द्र को शतक्रतु (१०० यज्ञ करने वाले, या १०० वर्ष तक कर्म करने वाले) तथा सहस्राक्ष (राजा रूप में १००० गुप्तचर या सूचना देने वाले) कहते थे। इनके
नाम पर सैकिया तथा हजारिका उपाधि हैं। परवर्ती काल में इसका अर्थ हुआ १०० या १००० सैनिकों का नायक।
जो अभी तक अपराजित रहा वह अच्युत है। इन्द्र उनको भी पराजित करने वाले अच्युत-च्युतः थे। अतः यहा के राजा को च्युतः = चुतिया कहते थे। प्रायः
ऐसा ही अर्थ हिब्रू भाषा के शब्द Chutzpah (चुतियापा) का है-unabashed audacity। शक्तिशाली व्यक्ति अत्याचार करने लगता है, अतः यह
गाली हो गया। इन्द्र के अधीन नाग लोगों का क्षेत्र चुतिया-नागपुर था जो अंग्रेजी माध्यम से छोटा-नागपुर (झारखण्ड) हो गया।
यस्मान्न ऋते विजयन्ते जनासो यं युध्यमाना अवसे हवन्ते।
यो विश्वस्य प्रतिमानं बभूव यो अच्युतच्युत स जनास इन्द्रः॥ (ऋग्वेद २/१२/९)
= जिसके बिना लोगों की विजय नहीं होती, जिसको युद्ध के समय हवि दी जाती है, जो विश्व के लिये प्रतिमान हुआ (भाषा, माप-तौल, व्यवहार के प्रमाण
निर्धारित करने वाला), जो अभी तक अच्युत या अपराजित थे, उनको भी च्युत या पराजित करनेवाला व्यक्ति (सजना) इन्द्र ही है।
राजा या बड़े को नाम से नहीं बुलाते हैं, अतः इन्द्र को स-जना (वह व्यक्ति) कहते थे। इसी से सजना (पति) हुआ है।
बाद में राजा अत्याचारी हो गये, अतः चुतिया शब्द गाली हो गया। महान् अर्थ में बड़ा शब्द भी इन्द्र के लिये ही था-
बड़्-महान्-बण् महाँ असि सूर्य बळादित्य महाँ असि।
महस्ते महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि। (ऋग्वेद ८/१०१/११)
यहां मूल शब्द बट् है, सन्धि होने से बट् + महान् = बण्-महान्। आज भी थाईलण्ड की मुद्रा बट् (Baht) है। बट् -महान् का अर्थ है जिसके पास बहुत बट्
या सम्पत्ति है। असम में कई नाम बट् (बड) पर हैं-बोडो, बड़दलई, बड़गुहैन, बड़पुजारी। बण्-महान् के नाम पर महान्त उपाधि है।
इन्द्र के हाथी को वटू री तथा ऐरावत को महा वटू री कहा गया है-
अभिव्लग्या चिदद्रिवः शीर्षा यातुमतीनाम्। छिन्धि वटू रिणा पदा महावटू रिणा पदा।
ऐरावत का अर्थ है इरावती नदी क्षेत्र के हाथी। प्राचीन असम तथा थाईलैण्ड में हाथी को वटू री कहते थे।
(४) प्राग्ज्योतिष पुर-दो प्राग्ज्योतिष पुर थे-एक भारत (मुख्य खण्ड) की पूर्व सीमा जहां सूर्योदय पहले होता था। दूसरा भारत के मध्य उज्जैन से ९० अंश
पश्चिम जो असुर भाग की पूर्व सीमा थी। पश्चिम में सीता की खोज के लिये यहां तक जाने के लिये सुग्रीव ने वानरों को भेजा था। रामायण, किष्किन्धा काण्ड,
अध्याय ४२-
चतुर्भागे समुद्रस्य चक्रवान्नाम पर्वतः। तत्र चक्रं सहस्रारं निर्मितं विश्वकर्मणा॥२७॥
तत्र पञ्चजनं हत्वा हयग्रीवं च दानवम्। आजहार ततश्चक्रं शङ्खं च पुरुषोत्तमः॥२८॥
तत्र प्राग्ज्योतिषं नाम जातरूपमयं पुरम्। यस्मिन्वसति दुष्टात्मा नरको नाम दानवः॥३१॥
यस्मिन्हरिहयः श्रीमान्माहेन्द्रः पाकशासनः। अभिषिक्तः सुरै राजा मेघवान्नाम पर्वतः॥३५॥
ब्रह्म पुराण (अध्याय ९३ या २०२)-भौमोऽयं नरको नाम प्राग्ज्योतिषपुरेश्वरः॥८॥
छत्रं यत् सलिलस्रावी तज्जहार प्रचेतसः। मन्दरस्य तथा शृङ्गं हृतवान् मणिपर्वतम्॥१०॥
भागवत पुराण (८/५९/२-६) में भी समुद्र के भीतर भौमासुर के दुर्ग का उल्लेख है। प्राग्ज्योतिष पुर की राजधानी लोहे आदि के घेरे से सुरक्षित रहने के कारण
उसका नाम मुर था (मुर या मुर्रम = लौह अयस्क)-
हृतोऽमराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम्॥२॥ स भार्योगरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ।
गिरिदुर्गैः शस्त्रदुर्गैर्जलान्यनिलदुर्गमम्। मुरपाशायुतैर्घोरैर्दृढैः सर्वत आवृतम्॥३॥
मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पञ्चशिरा जलात्॥६॥
मत्स्य पुराण, अध्याय ११४ में भारत के पूर्व दिशा के देशों में प्राग्ज्योतिषपुर का उल्लेख है-
एते देश उदीच्यास्तु प्राच्यान् देशान्निबोधत॥४४॥ अङ्गा वङ्गा मद्गुरका अन्तर्गिरिर्बहिर्गिरी।
ततः प्लवङ्गमातङ्गा यमका मालवर्णकाः। सुह्मोत्तराः प्रविजया मार्गवागेय मालवाः॥४५॥
प्राग्ज्योतिषाश्च पुण्डाश्च विदेहास्ताम्रलिप्तका। शाल्वमागधगोनर्दाः प्राच्या जनपदाः स्मृताः॥४६॥
भगदत्त भी २ कहे गये हैं। महाभारत, सभा पर्व, अध्याय१४ में उनको पश्चिम दिशा में यवनाधिपति तथा मुर और नरकदेश का शासन करने वाला कहा है-
मुरं च नरकं चैव शास्ति यो यवनाधिपः। अपर्यन्त बलो राजा प्रतीच्यां वरुणो यथा॥१४॥
भगदत्तो महाराज वृद्धस्तव पितुः सखा। स वाचा प्रणतस्तस्य कर्मणा च विशेषतः॥१५॥
सभा पर्व अध्याय २६ में भारत के पूर्वी भाग के राजा तथा चीन और समीपवर्ती द्वीपों का भी अधिपति और इन्द्र का मित्र कहा गया है-
शाकलद्वीपवासाश्च सप्तद्वीपेषु ये नृपाः। अर्जुनस्य च सैन्यैस्तैर्विग्रहस्तुमुलोऽभवत्॥६॥
स तानपि महेष्वासान् विजिग्ये भरतर्षभ। तैरेव सहितः सर्वैः प्राग्ज्योतिषमुपाद्रवत्॥७॥
तत्र राजा महानासीद् भगदत्तो विशाम्पते। तेनासीत् सुमहद् युद्धं पाण्डवस्य महात्मनः॥८॥
स किरातैश्च चीनैश्च वृतः प्राग्ज्योतिषोऽभवत्। अन्यैश्च बहुभिर्योधैः सागरानूपवासिभिः॥९॥
उपपन्नं महाबाहो त्वयि कौरवनन्दन। पाकशासनदायादे वीर्यमाहवशोभिनि॥११॥
अहं सखा महेन्द्रस्य शक्रादनवरो रणे। न शक्ष्यामि च ते तात स्थातुं प्रमुखतो युधि॥१२॥
वर्तमान इण्डोनेसिया को शुण्डा द्वीप (एशिया नकशे में हाथी की सूंढ़ के जैसा) या सप्तद्वीप कहा है, या महानाद (मेदिनी कोष १८/५१ के अनुसार हाथी) कहा
है। इसके पूर्व भाग में जहां जम्बू द्वीप में पहले सूर्योदय होता है, इन्द्र ने पिरामिड (त्रिशिरा-४ त्रिभुजों से घिरा) बनवाया था।
वाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०-रत्नवन्तं यवद्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्॥२९॥
त्रिशिराः काञ्चनः के तुस्तालस्तस्य महात्मनः। स्थापितः पर्वतस्याग्रे विराजति सवेदिकः॥५३॥
पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृ तं तत्त्रिदशेश्वरैः। ततः परं हेममयः श्रीमानुदयपर्वतः॥५४॥
महाभारत युद्ध में ये कौरव पक्ष से लड़े थे तथा अपने सुप्रतीक हाथी द्वारा कई वीरों को पराजित किया। इसके वैष्णवास्त्र से अर्जुन की रक्षा भगवान् कृ ष्ण ने की
थी। भगदत्त को अराने के लिये इसका चश्मा अर्जुन ने तोड़ा था
महाभारत द्रोण पर्व, अध्याय २६-भीमोऽपि निष्क्रम्य ततः सुप्रतीकाग्रतोऽभवत्॥२६॥
अध्याय २९-विद्धस्ततो ऽतिव्यथितो वैष्णवास्त्रमुदीरयन्।।१७॥
विसृष्टं भगदत्तेन तदस्त्रं सर्वघाति वै। उरसा प्रतिजग्राह पार्थं संच्छाद्य के शवः॥१८॥
वली संछन्न नयनः शूरः परमदुर्जयः। अक्ष्णोरुन्मीलनार्थाय बद्धपट्टो ह्यसौ नृपः॥४५॥
मानव अधिकार
-अरुण कु मार उपाध्याय, भुवनेश्वर
मानव अधिकार की भावना के वल भारतीय संस्कृ ति में है। यहां देव संस्कृ ति का उद्देश्य है अपने लिये उत्पादन करो और सन्तुष्ट रहो। इस के विपरीत असुर
संस्कृ ति का उद्देश्य रहा है कि बल पूर्वक लूट लो। असुर संस्कृ ति सदा से मानवाधिकार के विरुद्ध रही है। पूरे विश्व का यथासम्भव विनाश करने के बाद अब वे
भारत तथा हिन्दू धर्म की सभी चीजों में दोष दिखा रहे हैं तथा मानव अधिकारों का उपदेश दे रहे हैं।
बाइबिल और कु रान में कहा है कि सभी पदार्थ और जीव मनुष्य के उपभोग के लिये हैं, या स्त्री भगवान् की कृ ति नहीं है, वह मनुष्य की जांघ की हड्डी से बनी
है। स्त्री को निर्जीव सम्पत्ति के रूप में मानना असुर परम्परा रही है जिसका उल्लेख दुर्गा सप्तशती में है-(शुम्भ सन्देश) रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥
१११॥
स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्। सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥११२॥
किन्तु भारत में स्त्री पुरुष को बराबरी का मानते थे-
(दुर्गा) यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥१२०॥
बाइबिल में-Genesis (1/27-28)-God created man in his [own] image, -- (28) And God blessed them, and
God said unto them, Be fruitful, and multiply, and replenish the earth, and subdue it: and have
dominion over the fish of the sea, and over the fowl of the air, and over every living thing that moveth
upon the earth.
Genesis (2:22) And the rib, which the LORD God had taken from man, made he a woman, and
brought her unto the man.
(१) दे व-असु र-चक् रीय क् रम में उपयोगी वस्तु का उत्पादन यज्ञ है । मनु ष्य सभ्यता सदा चलती रहे इसके लिये
यज्ञ चक् र सदा चलना चाहिये , केवल उसका बचा भाग उपभोग करना चाहिये ।
गीता, अध्याय ३-सहयज्ञाः प्रजाः सृ ष्ट् वा पु रो वाच प्रजापतिः। अने न प्रसविष्यध्वमे ष वोऽस्त्विष्टकामधु क्॥
१०॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मु च्यन्ते सर्वकिल्बिषै ः ॥१३॥
एवं प्रवर्तितं चक् रं नानु वर्तयतीह यः । अघायु रिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
मूल यज्ञ कृषि है जिसके अन्न से मनु ष्य का जीवन चल रहा है -गीता, अध्याय ३-
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमु दभ ् वः॥१४॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमु दभ ् वम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥१५॥
एक यज्ञ से बाकी सभी यज्ञों में सहायता मिलती रहे तो साध्य लोग उन्नति के शिखर पर पहुंच कर दे व बन जाते
हैं -
यज्ञे न यज्ञमयजन्त दे वास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति दे वाः ॥ (पु रुष-सूक्त, यजु र्वे द ३१/१६)
इसके विपरीत असु र का अर्थ है जो केवल असु (= बल) के द्वारा दस ू रों की सम्पत्ति पर कब्जा करते हैं । वे भी यज्ञ
करते थे पर अन्य यज्ञों में सहायता के लिये नहीं, बल्कि दसरों के नाश के लिये । ू
मे गास्थनीज ने भी लिखा है कि भारत के लोग अन्न तथा सभी चीजों का पर्याप्त उत्पादन करते थे , अतः भारत
को अन्य दे शों पर आक् रमण की जरूरत नहीं पड़ती थी। उसके कहने का अर्थ है कि सिकन्दर से ले कर अं गर् े जों
ने केवल लूटने के लिये भारत पर आक् रमण किया था, भारत के उद्धार के लिये नहीं।
Megasthenes: Indika
http://projectsouthasia.sdstate.edu/docs/history/primarydocs/Foreign_Views/GreekRoman/Megasthen
es-Indika.htm
(37) The inhabitants, in like manner, having abundant means of subsistence, exceed in consequence
the ordinary stature, and are distinguished by their proud bearing. ,… Owing to this, their country has
never been conquered by any foreign king:
(38) It is said that India, being of enormous size when taken as a whole, is peopled by races both
numerous and diverse, of which not even one was originally of foreign descent, but all were evidently
indigenous; and moreover that India neither received a colony from abroad, nor sent out a colony to
any other nation.
(२) अदिति-दिति-अदिति की सन्तान आदित्य या दे व हैं । दिति की सन्तान दै त्य हैं । दिति का अर्थ है काटना।
आकाश में चन्द्र कक्षा के मार्ग को २७ नक्षत्रों में काटा गया है जिनको चन्द्र की पत्नी कहा है -वह भी दिति है ।
यह दक्ष विभाग भी कहते हैं , अतः दिति को दक्ष की पु त्री कहा है । (विष्णु पु राण, १/१५/७८ आदि)। दिति के
वं शजों ने विश्व को कई भाग में बांट रखा है -
उनके पै गम्बर को मानने वाले अच्छे हैं , बाकी सभी काफिर हैं , जिनकी हत्या होनी चाहिये ।
पै गम्बर से पहले कुछ नहीं था, उसके बाद ही समाज व्यवस्था हुई।
उनके भगवान ही एकमात्र भगवान् हैं , बाकी भगवान् को मानने वाले पापी हैं ।
अपने भगवान् या दत ू की मूर्त्ति लगाना या गले में लटकाना अच्छा है । अपने तीर्थों काबा, मदीना आदि का फोटो
रखना चाहिये । बाकी सभी मूर्त्ति पूजक और पापी हैं ।
जो उनके मत को मानने वाले नहीं हैं , उनके जीवन और सम्पत्ति पर इनका अधिकार है ।
इस प्रकार धर्म या अधर्म की व्याख्या के कारण इसाइयों ने ३ महादे शों उत्तर और दक्षिण अमे रिका की पूरी
आबादी की हत्या कर दी तथा अफ् रीका की आधी आबादी को गु लामों के रूप में बे च डाला। आज भी खनिज
साधनों पर कब्जा तथा व्यापार में असन्तु लन द्वारा लूट जारी है । अकबर के इतिहासकार फरिश्ता के अनु सार
इस्लाम ने भी भारत में ही ८ करोड़ लोगों की हत्या की है तथा सभी विद्यालयों, मन्दिरों आदि को नष्ट कर
दिया जिस पर वे गौरव करते हैं ।
इसके विपरीत अदिति का अर्थ है , सृ ष्टि का अनन्त चक् र-अदितिर्जातम्, अदितिर्जनित्वम् (ऋक् १/१८९/१०,
अथर्व ७/६/१, वा. यजु . २५/२३ आदि)।
दे व सभ्यता में यह कामना नहीं है कि बाकी मत वाले लोगों का नाश हो, बल्कि सबकी उन्नति की कामना करते
हैं -
सर्वे भवन्तु सु खिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग् भवे त॥ ्
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृ णुयाम दे वाः भद्रं पश्ये माक्षभिर्यजत्राः। स्थिरै रङ्गै स्तु ष्टु वांसस्तनूभिर्व्यशे म दे वहितं
यदायु ः॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृ द्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववे दाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टने मिः स्वस्ति नो
वृ हस्पतिर्दधातु ॥
भारत तथा हिन्दुओं की हर परम्परा की निन्दा की जाती है जिससे हम सभी आदर्श छोड़ दें। सबसे अधिक निन्दा वर्णाश्रम तथा मूर्ति पूजा की की जाती है।
भारत में मूर्ति पूजा का अर्थ यह नहीं है कि हम के वल ईसा और मेरी की मूर्ति बनायें तथा क्रास लटकायें, बाकी को मार दें। यहां हर मन्दिर में मुख्य देव के
साथ बाकी सभी की मूर्ति होती है। दुर्गा पूजा करने वाला शिव मन्दिर को नहीं तोड़ता है।
विश्व के हर भाग में आरम्भ से समाज व्यवसाय तथा सामाजित राजनैतिक अधिकार के अनुसार कई भागों में बंटा हुआ है। पर के वल भारत में कहते हैं कि
जाति प्रथा के कारण भारत नष्ट हो गया। क्या राम के समय जाति प्रथा नहीं थी जब उन्होंने बिना किसी सेनाके ससामान्य लोगों को जुटा कर विश्वविजयी
रावण को पराजित कर उसका अत्याचार बन्द किया था? क्या शिवाजी और राणा प्रताप के समय जाति प्रथा नहीं थी जब उन लोगों ने अपने से १० गुनी बड़ी
सेनाओं को बार बार पराजित किया। बल्कि उनकी अपनी जाति के लोग भी स्वार्थ के कारण आक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे। समाज में दलित भी इस लिये
हुये क्योंकि राजनैतिक पराधीनता के कारण कई जातियों का व्यवसाय नष्ट हो गया। आज भी भारत के समाज की कमजोरी यह है कि हमने हर जाति के
विकास का काम नहीं किया। जाति के विकास तथा गौरव को नष्ट कर भारत की ९७% लोगों को पिछड़ा घोषित कर दिया जो अपने को पिछड़ा रकने के लिये
ही संघर्ष करते हैं, उन्नति के वल उनके १-२ नेताओं की होती है। जो लोग मनुस्मृति की ४ जातियों की निन्दा करते हैं, उन लोगों ने भारत को १०,००० से
अधिक जातियों में बांट रखा है। अपने को पिछड़ा मान कर लोग अपनी जातियों का काम छोड़ना चाहते हैं। आजादी के बाद पिछड़ा बनने की चेष्टा के कारण
हमारे समाज में कई जरूरी काम करने वाले लोग नहीं रह गये हैं। खेती, बगान में काम करने वाले या भवन-मार्ग बनाने वाले कारीगर नहीं रहने के कारण बाहर
के लोग काम के लिया आजाते हैं। व्यक्तिगत रूप से उनका स्वागत होता है कि हमारा काम करने वाले लोग मिल गये। पर जब वे अपना प्रभुत्व बनाना चाहते हैं
तब हम बंगलादेशी का विरोध आरम्भ करते हैं।
सभी जातियां समाज के आवश्यक अंग हैं, इस अर्थ में पूरे समाज को मनुष्य मान कर जातियों को मनुष्य शरीर का अंग माना गया है। इसका अर्थ किसी का
बड़ा छोटा होना नहीं है। हर अंग मनुष्य के लिये उतना ही जरूरी है। प्रचार होता है कि शूद्रों को पद कह कर अपमानित किया जाता है। पर क्या पद के बिना
मनुष्य चल सकता है? पृथ्वी को भी पद कहा है, इस पर पद रखते हैं, अतः इसे पद्म भी कहते हैं।
पुरुष सूक्त (वा. यजु. अध्याय ३१)- ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृ तः।
उरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥११॥
पद्भ्यां भूमिः दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान् अकल्पयन्॥१३॥
सभी जाति समाज की रक्षा के लिये हैं, यह उनकी सामान्य उपाधि से स्पष्ट है।समाज की ४ प्रकार रक्षा-४ वर्णों की उपाधि ४ प्रकार की है-शर्मा, वर्मा, गुप्त,
दास।
शर्मा देवश्च विप्रश्च वर्मा त्राता च भूभुजः। भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास शूद्रस्य कारयेत्॥
ये सभी समाज की रक्षा और पालन के लिये हैं।
(१) शर्मा-आन्तरिक रक्षा-आत्मबल, ज्ञान और संयम आदि से होता है। शरीर की रक्षा के लिये आवरण है चर्म। इसी से शर्म हुआ है। सभी पशुओं के शरीर की
रक्षा के लिये चर्म का आवरण रहता है। चर्म से ही शर्म हुआ है। जिसके पास शास्त्र रूपी आवरण (चर्म = शर्म) है, वह शर्मा है। शास्त्र और नियम जानने वाला
ही अपनी भूल के लिये लज्जित होता है। अतः लज्जा को भी फारसी में शर्म कहते हैं। यद्यपि उपाधि रूप में शर्मा ब्राह्मणों के लिये ही प्रयुक्त होता है, लेकिन विष्णु
पुराण में कहा है कि कोई भी शास्त्र हीन व्यक्ति शर्म आवरण नहीं होने से नग्न है। इसे लोकभाषा में नंगा (भोजपुरी आदि में लंगा) कहते हैं। के वल सामाजिक
नियम नहीं, बल्कि अपनी और समाज की रक्षा के लिये भी शास्त्र का आवरण जरूरी है। नग्न अर्थात् ज्ञान हीन असंयमित व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाता है। यही
वास्तविक कवच है। समाज सुरक्षित और सुचारु रूप से चलने के लिये जरूरी है कि सभी वर्ण अपने कर्तव्य का पालन करें। सभी व्यक्ति चारो आश्रमों-ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास का पालन करें तो समाज में पूर्णता आती है और वह प्रगति करता है। ऋग्वेद तथा ऐतरेय ब्राह्मण में वाक् (ज्ञान) को शर्म कहा गया
है। शतपथ ब्राह्मण में इस शब्द की व्युत्पत्ति चर्म से कही गयी है। विष्णु पुराण, खण्ड ३, अध्याय १७ में इसका विस्तार से वर्णन है जिसके कु छ उद्धरण नीचे
दिये गये हैं।
चर्म वा एतत् कृ ष्णस्य (मृगस्य) तन्मानुषं शर्म देवत्रा। (शतपथ ब्राह्मण, ३/२/१/८)
वाग् वै शर्म। अग्निर्वै शर्माण्यन्नाद्यानि यच्छति। (ऐतरेय ब्राह्मण २/४०-४१)
ऋक् (३/१३/४)-स नः शर्माणि वीतये ऽग्निर्यच्छतु शन्तमा।
विष्णु पुराण (३/१७)-श्री मैत्रेय उवाच-
को नग्नः किं समाचारो नग्न संज्ञा नरो लभेत्। नग्न स्वरूपमिच्छामि यथावत् कथितं त्वया॥४॥
श्री पराशर उवाच-ऋग्यजुस्सामसंज्ञेयं त्रयी वर्णावृतिर्द्विज। एतामुज्झति यो मोहात् स नग्न पातकी द्विजः॥५॥
त्रयी समस्त वर्णानां द्विज संवरणं यतः। नग्नो भवत्युज्झितायामतस्तस्यां न संशयः॥६॥
हताश्च तेऽसुरा देवैः सन्मार्गपरिपन्थिनः॥३४॥
स्वधर्म कवचं तेषामभुद्यत् प्रथमं द्विज। तेन रक्षाभवत् पूर्वं नेशुर्नष्टे च तत्र ते॥३५॥
तत्र मैत्रेय तन्मार्ग वर्तिनो येऽभवञ्जनाः। नग्नास्ते तैर्यतस्त्यक्तं त्रयी संवरणं तथा॥३६॥
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थस्तथाश्रमी। परिव्राड् वा चतुर्थोऽत्र पञ्चमो नोपपद्यते॥३७॥
यस्तु सन्त्यज्य गार्हस्थ्यं वानप्रस्थो न जायते। परिव्राट् सापि मैत्रेय स नग्नः पापकृ न्नरः॥३८॥
ब्राह्मणाद्यास्तु ये वर्णास्स्वधर्मादन्यतो मुखाः। यान्ति ते नग्न संज्ञां तु हीनकर्मस्ववस्थिताः॥४८॥
(२) वर्मा-वर्म बाहरी आवरण या कवच है। युद्ध में शस्त्र से बचने के लिये लगाया जाता है। आजकल प्रदूषण से बचने के लिये भी मास्क लगाते हैं। क्षत्रिय पहले
अपने शरीर की रक्षा करता है, उसके बाद ही वह समाज की रक्षा करने में समर्थ होगा।
वर्मेव स्यूतं परिपासि विश्वतः (ऋक् १/३१/१५) = जैसे दृढ़ता से सिला हुआ कवच युद्ध में मनुष्य की रक्षा करता है, उसी प्रकार तू रक्षा करता है।
इन्द्रस्य वर्मासि (अथर्व ५/६/१३)
स त्वा वर्मणो महिमा पिपर्तु (ऋक् ६/७५/१, वाज. यजु २९/३८, तैत्तिरीय संहिता ४/६/६/१, मैत्रायणी संहिता ३/१६/३)
वर्मण्वन्तो न योधाः शिमीवन्तः (ऋक् १०/७८/३) = योद्धा कवच लगा कर ही शौर्य दिखा सकते हैं।
क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः शब्दस्य अर्थः भुवनेषु रूढ़ः (रघुवंश २/५३)-क्षत से समाज का त्राण करने वाले को ही क्षत्रिय कहा गया है।
(३) गुप्त-मनुष्य या समाज की रक्षा, रहस्य की रक्षा।
गुप्तं ददृशुरात्मानं सर्वा स्वप्नेषु वामनै (रघुवंश १०/६०)
जो गो अर्थात् कृ षि, वाणिज्य (द्रव्य यज्ञ) आदि गो रूपी यज्ञों द्वारा समाज की रक्षा करता है वह वैश्य है (विश = समाज)
राजा को भी रक्षक रूप में गोप्ता कहा गया है, जैसे मालविकाग्निमित्र में भरतवाक्य है-
आशास्यमीति विगम प्रभृति प्रजानां, सम्पत्स्यते न खलु गोप्तरि नाग्निमित्रे॥
=आशा करें कि अग्निमित्र जैसा गोप्ता नहीं रहने पर भी प्रजा की ईति, विगम आदि आपत्तियों से रक्षा होती रहेगी।
(४) दास-जो शीघ्रता या दक्षता से कार्य करता है वह शूद्र है-आशु + द्रवति = शूद्र (इस प्रकार निरुक्त में शुतुद्रि की व्युत्पत्ति दी गयी है)
सभी इंजीनियर इसी प्रकार के हैं। दिया गया कार्य जल्द समाप्त कर उसका पैसा लेना उद्देश्य है। समाज के सभी विशिष्ट काम इसी पर निर्भर हैं।
दास का अर्थ दास प्रथा या गुलामी कहते हैं। वामपन्थी प्रचार है कि ब्राह्मणों ने वेद लिखा तथा शूद्रों को दास बनाया। वे कोई पुस्तक नहीं पढ़ते न समाज की
वास्तविक स्थिति देखते हैं। ऋग्वेद का ब्राह्मण (व्याख्या) ग्रन्थ ऐतरेय महिदास का लिखा हुआ है अतः उसे ऐतरेय ब्राह्मण कहते हैं, ऐतरेय शूद्र नहीं।
आजकल २ प्रकार के दास प्रचलित हैं। सभी सरकारी अधिकारी तथा नेता जनता के दास (जनसेवक, public servant) कहे जाते हैं। पर वे सबसे बड़े
मालिक हैं और सबसे अधिक अत्याचार वे ही करते हैं।
दूसरे दास भगवान् के भक्त हैं, जैसे तुलसीदास, समर्थ रामदास आदि। जो भगवान् का दास हो गया वह हमारा स्वामी है अतः हम सन्तों को स्वामी कहते हैं,
पर वे अपने को दास कहते हैं।

You might also like