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प्रतिभा तिवारी, शोधार्थी

तमिलनाडु के न्द्रीय विश्वविद्यालय, तिरूवारूर


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शब्दों की जिन्दगी

शब्दों में धीरे -धीरे


भरती है जिन्दगी
बढ़ती है, होती है जवान
और एक दिन बढ़ू ी होकर
मर जाती है
वो जिन्दगी
जैसे ही मर जाए
उसे दफन करना मत भल ू ना
वरना वो सड़न और बदबू तम्ु हें भी
सड़ाएगी धीरे -धीरे ..
ये जो आवाजें हैं

ये जो आवाजें हैं
मझु े रोकती हैं तमु बनने से
दीवार बनाती हैं
शब्दों की
मझु े मंजरू है डूबना
उस समन्ु दर में
बार-बार
जिसमें आवाज नहीं
सिर्फ प्रेम है
सिर्फ खश्ू बू है अपनेपन की
सबकुछ बदल रहा है..
अब वे आवाजें नहीं !!
मेरी निजता

मेरी भी नजदीक होती है


प्रेम करती है
दल ु ारती है, नन्हें बच्चे की तरह
होने देती है मझु े
अपने जैसा
मेरे लिए अपने सारे काम छोड़कर
आ जाती है
मेरे पास
बहुत मासमि ू यत से
पछू ती है मझु से
मेरे बारे में..
हमेशा उसी तरह
बनी रहती है,
मेरी निजता..

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