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अक्सर पैरेंट्स को लगता है कि बच्चों को अनुशासन और नियमों में बांधकर रखना बहुत ज़रूरी है, जबकि वो ये भूल जाते

हैं कि ज़्यादा अनुशासन से


बच्चे ज़िद्दी और बागी होने लगते हैं. कई पैरेंट्स को लगता है डांटने या नियम-क़ानून में रखकर बच्चों को बिगड़ने से बचाया जा सकता है. पैरेंटिंग का
यह तरीक़ा उसके आगे के जीवन के लिए अच्छा साबित होगा. जबकि ज़्यादा सख़्ती बच्चे को तोड़ कर रख देता है. बच्चे और पैरेंट्स के बीच रिश्ता
ख़राब होने लगता है. माता-पिता जब अपनी इच्छाएं बच्चों पर थोपने लगते हैं या ज़बर्दस्ती उससे अपने मन की करवाने लगते हैं, तब बच्चा भले ही
उनकी बात उस वक़्त मान लेता है, लेकिन फिर वह अपसेट हो जाते हैं और फिर धीरे-धीरे वह अभिभावकों की बात मानना छोड़ देते हैं. छोटी उम्र में
इसका असर ज़्यादा नहीं दिखाता, पर बड़े होते बच्चे को हर बात पर टोका-टोकी और कड़ा अनुशासन उन्हें चिड़चिड़ा बना देता है.

कोरोना के बीच बच्चों और किशोरों का जीवन वैसे ही कठिन हो गया है. बंगलूर स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ (निमहान्स ) के बाल मनोवैज्ञानिक
डॉ. प्रीति जैकब, डॉ. राजेन्द्र के एम और डॉ. श्रेयोसी घोष ने कई उपयोगी बातें बताईं. उनका कहना है कि महामारी में स्कू लों और दोस्तों से कट चुके
बच्चों में मानसिक तनाव बढ़ सकता है. हालांकि, बच्चों के लिए थोड़े-बहुत नियम-अनुशासन ज़रूरी होता है, बल्कि बड़ों के लिए भी नियम अनुशासन
जरूरी है. लेकिन यही बात बच्चों को प्यार-दुलार से समझाया जा सकता है.
पढ़ाई और एक्स्ट्रा एक्टिविटीज़ में भी अच्छे प्रदर्शन के लिए पैरेंट्स बच्चों पर दबाव बनाने लगते हैं, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं कि हरेक बच्चे की
अपनी कै पसिटी होती हैं और हर बच्चा एक जैसा नहीं हो सकता. सब के सीखने-जानने की क्षमता अलग-अलग होती है. लेकिन हर माता-पिता चाहते
हैं कि उनका बच्चा सुपरहिट रहे, सबसे आगे.
किशोरावस्था जीवन बहुत ही नाज़ुक और महत्वपूर्ण अवस्था होती है. इस उम्र में बच्चों की गिनती न तो बच्चों में होती है और न बड़ों में. इस उम्र में
बच्चों को न तो आप बच्चे की तरह डील कर सकते हैं और न ही बड़ों की तरह. इसलिए इन्हें कोई भी बात समझाने के लिए आपको बीच का रास्ता
निकालना होगा. आमतौर पर किशोरावस्था में बच्चों में कई शारीरिक और मानसिक बदलाव होते हैं. वे इस उम्र में ख़ुद को बड़ा और समझदार समझने
लगते हैं, जबकि वास्तव में वह ठीक से परिपक्व नहीं हुए होते हैं. इसलिए उनके स्वभाव में भी कभी-कभी अधिक ग़ुस्सा, आक्रमक तो कभी अत्यधिक
भावुकता देखने को मिलती है. इसलिए माता-पिता को अपने किशोर बच्चे के व्यवहार से तालमेल मिलाकर चलने में ही समझदारी है. आमतौर पर देखा
जाता है कि बच्चे अपने माता-पिता से खुलकर बातें नहीं कर पाते हैं. जो बातें वह अपने दोस्तों से कह पाते हैं, माता-पिता के सामने नहीं रख पाते.
क्योंकि माता-पिता के साथ उनका दोस्तों की तरह बॉन्ड नहीं होता. कड़े अनुशासन की वजह से वह अपने मन की बात पैरेंट्स से शेयर नहीं कर पाते
हैं.

बच्चों के साथ ज़्यादा अनुशासन से हो सकते हैं कई नुक़सान


ज़्यादा अनुशासन से बच्चा आपसे और दूर होता चला जाएगा और इससे समस्या और बढ़ेगी. कु छ माता-पिता अपने किशोर बच्चे को काबू में रखने के
लिए ढेर सारे नियम बना देते हैं, जैसे कि उसे कब उठना-सोना है, कब दोस्तों के साथ खेलने जाना है, कितनी देर मोबाइल चलाना है इत्यादि.
लेकिन जब बच्चे उनके बनाए नियम को तोड़ देते हैं, तो माता-पिता ग़ुस्से में आकर और ज़्यादा नियम बना देते हैं. ऐसा करने से अक्सर हालात और
बिगड़ जाते हैं. किताब ‘पैरेंट/ टीन ब्रेकथ्रू’ समझाती है कि आप अपने बच्चे को जितना ज़्यादा काबू में रखने की कोशिश करेंगे, वह उतना ही ज़्यादा
आपका विरोध करेगा. किताब यह भी बताती है कि बच्चों को काबू में रखना उतना ही मुश्किल है, जितना मुश्किल मुलायम ब्रेड पर कड़क मक्खन
लगाना, क्योंकि कड़क मक्खन से ब्रेड टू ट सकती है. ऐसे में ज़ोर अपनाना इसका उपाय नहीं है.
सही अनुशासन आपकी मदद कर सकता है. अनुशासन और सज़ा में फर्क़ होता है. सज़ा का मतलब किसी को दुख-दर्द देना और अनुशासन का
मतलब किसी को कु छ सीखाना होता है.

आपका बच्चा तभी आपको अपना दोस्त मानेगा, जब आप उसके साथ हमेशा खड़े रहेंगे. बच्चों को यह एहसास दिलाना होगा कि आप उसके लिए हमेशा
उपस्थित हैं.

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