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अपनी पुस्तक "विषैला वामपंथ" में डॉ राजीव मिश्रा ने मिट्टी से रुपये बनाने

की कहानी लिखी थी। पढिए और समझिए यह "ब्राह्मण भारत छोड़ो" नारे


से उसका क्या और कै सा संबंध है ।
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एक गाँव में एक बनिया और एक कु म्हार था. कु म्हार ने बनिये से कहा, मैं
तो बर्तन बनाता हूँ, पर गरीब हूँ...तुम्हारी कौन सी रुपये बनाने की मशीन है
जो तुम इतने अमीर हो?
बनिये ने कहा - तुम भी अपने चाक पर मिट्टी से रुपये बना सकते हो.
कु म्हार बोला - मिट्टी से मिट्टी के रुपये ही बनेंगे ना, सचमुच के तो नहीं
बनेंगे.
बनिये ने कहा - तुम ऐसा करो, अपने चाक पर 1000 मिट्टी के रुपये
बनाओ, बदले में मैं उसे सचमुच के रुपयों में बदल कर दिखाऊँगा.

कु म्हार ज्यादा बहस के मूड में नहीं था...बात टालने के लिए हाँ कह दी.

महीने भर बाद कु म्हार से बनिये ने फिर पूछा - क्या हुआ ? तुम पैसे देने
वाले थे...
कु म्हार ने कहा - समय नहीं मिला...थोड़ा काम था, त्योहार बीत जाने
दो...बनाउँगा...

फिर महीने भर बाद चार लोगों के बीच में बनिये ने कु म्हार को फिर टोका -
क्या हुआ? तुमने हज़ार रुपये नहीं ही दिए...दो महीने हो गए...
कु म्हार फिर टाल गया - दे दूँगा, दे दूँगा... थोड़ी फु रसत मिलने दो.
अब कु म्हार जहाँ चार लोगों के बीच में मिले, बनिया उसे हज़ार रुपये याद
दिलाए... कु म्हार हमेशा टाल जाए...

6 महीने बाद बनिये ने पंचायत बुलाई और कु म्हार पर हज़ार रुपये की


देनदारी का दावा ठोक दिया. गाँव में दर्जनों लोग गवाह बन गए जिनके
सामने बनिये ने हज़ार रुपये मांगे थे और कु म्हार ने देने को कहा था. कु म्हार
की मिट्टी के रुपयों की कहानी सबको अजीब और बचकानी लगी और
पंचायत ने कु म्हार से हज़ार रुपये वसूली का हुक्म सुना दिया...

अब पंचायत छंटने पर बनिये ने समझाया - देखा, मेरे पास बात बनाने की


मशीन है. इस मशीन में मिट्टी के रुपये कै से सचमुच के रुपये हो जाते हैं,
समझ में आया?
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इस कहानी में आप नैतिकता, न्याय और विश्वास के प्रपंचों में ना
पड़ें...जाति को भी न देखें, सिर्फ टेक्निक को देखें...बनिया जो कर रहा था,
उसे कहते हैं narrative building...कथ्य निर्माण...सत्य और तथ्य का
निर्माण नहीं होता, कथ्य का निर्माण हो ही सकता है. अगर आप अपने
आसपास कथ्य निर्माण होते देखते हैं, पर उसकी महत्ता नहीं समझते, उसे
चैलेंज नहीं करते तो एकदिन सत्य इसकी कीमत चुकाता है...
बोलने से क्या होता है? बोलने से कथ्य-निर्माण होता है...दुनिया में देशों
का इतिहास बोलने से, नैरेटिव बिल्डिं ग से बनता बिगड़ता रहा है.
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कहानी समाप्त। अब आते हैं "ब्राह्मण भारत छोड़ो" वाले नारे पर। यह नारा
कई सालों से लगाया जा रहा है। ब्राह्मणों के यूरेशियाई होने का दावा एक
अमेरिकन वैज्ञानिक मायके ल जे बामशाद के भारत में किये संशोधन के
आधार पर करते रहे हैं। हालांकि डॉ बामशाद का संशोधन खारिज किया जा
चुका है, वामन मेश्राम और उसके उतने ही अनपढ़ गुर्गे इस संशोधन की
दुहाई देते रहते हैं।

वैसे यह पूरे संशोधन पर कई प्रश्न उठाते हैं जो मैंने 2015 में ही उठाए थे कि
डॉ बामशाद जो वाकई एक बड़ा नाम रहे हैं, उनको भारत में कौन लाया था
और उसका उद्देश्य क्या था ? संशोधन कहाँ हुआ था और क्या भारत का
वह दक्षिण पूर्व क्षेत्र आर्यन आक्रमण के सबूत खोजने के लिए योग्य है भी ?
सैम्पल साइज़ क्या था ? डॉ बामशाद तब भी एक स्थापित नाम थे, तो इस
तथाकथित संशोधन के लिए फं डिं ग किसने और किस उद्देश्य से की थी ?
राजशेखर रेड्डी की इसमें कितनी सहभागिता रही ? ईसाई संस्थानों की
मिलीभगत और सहभागिता क्या रही ?

बामशाद आज भी जीवित हैं, लेकिन भारतीय कोर्ट के सामने उनको लाना


आसान नहीं होगा। लेकिन ब्राह्मण संस्थानों और संघटनाओं की ओर से इन
नारेबाजों पर करोड़ों का नरसंहार के इरादे की के स करना बनता था। यह
बात भी लिखी थी लेकिन वही चार लोगों की कहानी है , एनीबड़ी, समबड़ी,
एवरीबड़ी और नोबड़ी।

Nobody does what everybody should volunteer to do.

आज वही बात सामने आई है। बोल बोल कर झूठ स्थापित होने जा रहा है
और पता नहीं यह देश इसकी क्या कीमत चुकाएगा। और यह भी पता नहीं
कि अपनी संताने अमेरिका में निर्बाध सेटल्ड रहे इसलिए कितने बड़े
नौकरशाह इस देश का क्या ही नुकसान करेंगे।

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