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Course Code : B.A.

(Hindi)

Assignment No. : BAHINDI-602/2023

Ans1. प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में
एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी
अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद
(प्रेमचन्द) की आरम्भिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। प्रेमचंद के माता-पिता के सम्बन्ध में रामविलास
शर्मा लिखते हैं कि- "जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब पन्द्रह वर्ष
के हुए तब उनका विवाह कर दिया गया और सोलह वर्ष के होने पर उनके पिता का भी देहान्त हो
गया।"[1] मुंशी प्रेमचंद अपने शादी के फै सले पर पिता के बारे में लिखते हैं की “पिताजी ने जीवन के
अंतिम वर्षों में एक ठोकर खाई और स्वंय तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डु बो दिया और मेरी शादी बिना
सोचे समझे करा दिया|

इस बात की पुष्टि रामविलास शर्मा के इस कथन से होती है कि- "सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में
शादी, पण्डे-पुरोहित का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह
साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके
कथा-साहित्य में झलक उठे थे।"[2] उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। 13 वर्ष की उम्र में ही
उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार',
मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया[3]। उनका पहला विवाह
पंद्रह साल की उम्र में हुआ। 1906 में उनका दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ जो बाल-विधवा थीं।
वे सुशिक्षित महिला थीं जिन्होंने कु छ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी
तीन सन्ताने हुईं-श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा
उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही
उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। उनकी शिक्षा के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-
"1910 में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास लेकर इण्टर किया और 1919 में अंग्रेजी, फ़ारसी और
इतिहास लेकर बी. ए. किया।"[4] १९१९ में बी.ए.[5] पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद
पर नियुक्त हुए।

1921 ई. में असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर
स्कू ल इंस्पेक्टर पद से 23 जून को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय
बना लिया। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने
प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। प्रेस उनके
लिए व्यावसायिक रूप से लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ। 1933 ई. में अपने ऋण को पटाने के लिए उन्होंने
मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कम्पनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार
कर लिया। फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबन्ध भी पूरा नहीं कर सके
और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरन्तर बिगड़ता गया।

Ans2. संस्कृ ति अस्मिता व्यक्ति को अपने आगोश में समेटने और जीवन को परिष्कृ त करने
वाले परिवेश का नाम है। संस्कृ ति एक तरह से जीवनयापन का एक ढब भी है जिसमें उस
समाज की भाषा, ज्ञान-विज्ञान, खान-पान, रहन-सहन, उसके कलानुभव, शिष्टाचार आदि
विभिन्न घटक शामिल हैं I

हमारी अपनी परम्परा से प्राप्त संस्कार इसका चरित्र बनाते हैं। यह बात अलग, अलहदा है कि
प्रायः इसके बनने व बिगड़ने को कला क्षेत्र से ही जोड़कर देखा जाता रहा है, जो किसी भी
प्रकार से न्यायसंगत नहीं है। किसी भी नगर या राष्ट्र की सांस्कृ तिक अस्मिता की बात जब
की जाती है तो उसके मानी होते हैं उस राष्ट्र या नगर के लोगों के जीने के ढब और उसके पीछे
काम कर रही दृष्टि।

जीवन के जीने के ढब के पीछे जो दृष्टि कार्य कर रही है, उसकी भूमिका समाज के लिये
निर्णायक है क्योंकि उसी के अनुरूप समाज के स्वरूप का निर्धारण होगा। दृष्टि की उदात्तता
और गहराई एक श्रेष्ठ समाज की अमूल्य पूँजी होती है जिसके सहारे वह समाज युगों-युगों
तक अपनी संस्कृ ति के सातत्य को बरकरार रखता है।

अब प्रश्न उठता है कि आखिर इस दृष्टि का विकास समाज में कै से होता है? या एक सभ्य
समाज स्वयं अपनी विकास-प्रक्रिया में इसे कै से प्राप्त करता है? इसके उत्तर में कहा जा
सकता है कि किसी भी संस्कृ ति के स्वरूप-निर्धारण में विभिन्न घटक उत्तरदायी होते हैं। वे
घटक उस संस्कृ ति के परिवेश से जुड़े होते हैं।

वस्तुतः किसी भी संस्कृ ति के परिवेश में वहाँ का सामान्य जीवन, जीवनमूल्य, कलात्मक
रुचियाँ, व्यवहार, आचार-विचार, भौगोलिक परिस्थितियाँ एवं समन्वयात्मक प्रवृत्ति का योग
होता है। जो संस्कृ ति अपनी सामान्य प्रक्रिया में इन सब का समन्वयात्मक स्वरूप ग्रहण कर
इनमें ऐक्य स्थापित करने की ओर अग्रसर होती है, वही उदात्त दृष्टि वाली संस्कृ ति कही
जाएगी।
संस्कृ ति एवं सांस्कृ तिक परिवेश की उपर्युक्त स्थापनाओं के के न्द्र में बीकानेर को रखा जाये
तो कह सकते हैं कि विगत पाँच सौ वर्षों में शहर ने राजस्थान प्रदेश में अपनी विशिष्ट पहचान
इसी सांस्कृ तिक परिवेश या कला से जीवन को जीने के अपने ढब से बनाई है। बीकानेर
आध्यात्मिक और धार्मिक नगरी रही है। यहाँ के सांस्कृ तिक परिवेश में धर्म का स्थान अधिक
उच्च एवं महत्त्वपूर्ण है। यहाँ के लोग शान्त, सौम्य और मिलनसार रहे हैं।

आज भी प्रदेश के अन्य जिलों की तुलना में इन गुणों के रहते यहाँ का माहौल अपने-आप में
एक मिसाल है। ऐसा नहीं है कि यहाँ एकाधिक समुदाय नहीं थे, ऐसा भी नहीं है कि यहाँ
जातियों की बहुतायत नहीं थी और ऐसा भी नहीं है कि यहाँ विभिन्न धर्मों का प्रचलन नहीं
रहा।

इन सबकी उपस्थिति शहर के अतीत से लेकर वर्तमान तक लक्षित की जा सकती है। परन्तु
यहाँ की संस्कृ ति की आबोहवा में कु छ ऐसा था कि जिसने व्यक्ति-को-व्यक्ति से जोड़े रखा,
समाज-को-समाज से, धर्म-को-धर्म से। किसी भी प्रकार की कटु ता यहाँ लोगों के विचारों व
व्यवहार में नहीं रही। वरन इसके बरअक्स मानवीयता ने सेतु रूप में कार्य करते हुए
समाजोत्थान-यज्ञ के क्रम को जारी रखा।

तालाबों ने समाजोत्थान एवं सुखद सांस्कृ तिक परिवेश के साथ जन को एकता के सूत्र में
पिरोए रखने में अपनी अहम भूमिका अदा की। बीकानेर में स्थिति विभिन्न समुदायों के
तालाब और उनके आगोर परिसर व मन्दिर-बगीचियों में जाति, धर्म, लिंग, वर्ण के भेद से परे
सम्यक व्यवहार को आज भी आचरण में देखा जा सकता है।

संसोलाव तालाब के किनारे पहाड़ीनाथ परिसर में आज भी दोपहर के समय आप यह नजारा


आसानी से देख सकते हैं कि जहाँ इसी समाज द्वारा निर्मित विभिन्न विकृ त नियमों की
धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। जब एक पुष्करणा ब्राह्मण जाति का वयोवृद्ध शिला पर भांग घोटता
है और पानी लाने वाला कोई गिरि-पुरी होता है। और बाद में भांग पीने वालों में स्वामी, सुथार
एवं अन्य की उपस्थिति को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस दृश्य को देखते ही सहज
भाव से मधुशाला में बच्चन की ये पंक्तियाँ स्मृति में कौंध उठती हैं:
मन्दिर-मस्जिद बैर करा दे
मेल कराती मधुशाला

Ans3. आप खुद के लिए और अपने आसपास के लोगों के लिए सबसे


अच्छी चीज जो कर सकते हैं, वह है खुद को एक आनंदमय इंसान
बनाना। खासकर आज के दौर में जब क्रोध, नफरत और असहनशीलता
भयानक तौर से लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है, ऐसे में आनंदमय
इंसान ही सबसे बड़ी राहत नजर आता है।

आप खुद के लिए और अपने आसपास के लोगों के लिए सबसे अच्छी


चीज जो कर सकते हैं, वह है खुद को एक आनंदमय इंसान बनाना।
जो लोग आनंद मय होने का महत्व जानते हैं, वही हर तरफ आनंद का
माहौल बनाने की कोशिश करेंगे। सवाल यह है कि आनंद में कै से रहें?
पांच साल की उम्र में आप बगीचे में तितली के पीछे भागते थे, आपको
याद होगा। तितली को छू ते हुए उसके रंग आपके हाथ पर झिलमिलाते
हुए चिपक जाते थे। उस समय आपको यही अनुभव होता था कि
दुनिया में इससे बढ़कर और कोई आनंद है ही नहीं। बड़े होने की प्रक्रिया
में आपने सभी सुख-सुविधाओं के साधन जमा कर लिए। लेकिन क्या
हुआ? कहां गईं आपकी खुशियां? ऐसा इसलिए है कि आप सुख को ही
खुशी समझ बैठे हैं, जबकि खुशी या आनंद आपको अपने भीतर
खोजना है।
सुख किसी वस्तु या व्यक्ति पर निर्भर करता है

बड़े होकर आप अपना अतीत ढोने लगे। जब आप अपने अतीत का


बोझ लेकर चलते हैं, तो आपका चेहरा लटक जाता है, खुशी गायब हो
जाती है, उत्साह खत्म हो जाता है। मान लीजिए अगर आप पर किसी
तरह कोई बोझ नहीं है तो आप बिल्कु ल एक छोटे बच्चे की तरह होते
हैं।

यह तो अपने भीतर गहराई में खोद कर ढूंढ निकालने की चीज़ है। यह


प्यास बुझाने के लिए एक कु एं को खोदने जैसा है।
आप इतने साल के हैं या उतने साल के , इसका सीधा सा मतलब हुआ
कि आप अपने साथ उतने सालों का कू ड़ा ढो रहे होते हैं। इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता कि आप किस तरह आनंदित होते हैं। जरूरी यह है आप
किसी भी तरह आनंद अनुभव करते हैं। अब सवाल है इसे कायम रखने
का - इसे कायम रखने के योग्य कै से बनें? अधिकांश लोग सुख को ही
आनंद समझ लेते हैं। आप कभी भी सुख को स्थायी नहीं बना सकते, ये
आपके लिए हमेशा कम पड़ते हैं, किन्तु आनंदित होने का अर्थ है कि
यह किसी भी चीज पर निर्भर नहीं है। सुख हमेशा किसी वस्तु या
व्यक्ति पर निर्भर करता है।
Ans4/जलियाँवाला बाग काण्ड ने प्रेमचंद पर अमिट प्रभाव डाला था और ब्रिटिश सरकार के
चेहरे को देखते हुए गाँधी जी की जनसभा में आने के बाद सहसा यह मानसिक परिर्वतन हुआ
कि अब अपनी रचनाओं को किसी बड़े उद्देश्य के प्रति समर्पित करूँ । यह भी जान लें कि सन्
1916 में नॉर्मल स्कू ल के अध्यापक के पद पर गोरखपुर आने से पहले मुंशी प्रेमचंद हमीरपुर
के महोबा में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कू ल थे।

इतिहास गवाह है कि एक दिन ज़िला कलेक्टर ने उन्हें बुलाकर बताया कि उनका कहानी
संग्रह “सोज़े वतन” विद्रोह भड़काने वाला है, इसलिए उसे ज़ब्त किया जाता है। यह एक
सुपरिचित और बहुचर्चित घटना है। कलेक्टर ने उन्हें हुक्म दिया कि कलमगोई बंद करें।
लेकिन वे कब मैंने वाले थे। जूझना तो उनकी आदत में शुमार था। लिहाज़ा, उन्होंने अपना
नाम बदलकर प्रेमचंद उपनाम से लिखना शुरू कर दिया। यह बीसवीं सदी के शुरुआती दौर
के प्रेमचंद थे। बता दें कि घटना सन् 1905 की है। किसी ने सोचा भी न होगा कि इस
हुक्मरानी का उन पर किस कदर असर हुआ होगा। तो यह भी जान लें कि बड़े ही दब्बू,
शर्मीले, खामोश और अंतर्मुखी प्रेमचंद ने सबसे पहले एक झंडी उखाड़ी और उससे पीटना
शुरू कर दिया। जिसके बाद सारे लड़के भिड़ पड़े और अंग्रेज़ों को बुरी तरह पीट डाला। एक
कलमकार के विरोध व विद्रोह का यह एक नया आगाज़ था। हिंदी के उपन्यासकार प्रो.
रामदेव शुक्ल चुनार का एक किस्सा सुनाया था कि फु टबॉल का एक मैच हुआ था, मिशन
स्कू ल और अंग्रेजों के बीच में और अंग्रेज़ हार गये थे, और उन्होंने एक हिंदुस्तानी लड़के
को बूट से मार दिया। समझा जाता है कि इसी घटना के कारण मुंशी प्रेमचंद को चुनार
मिशन स्कू ल की नौकरी गँवानी पड़ी थी।

मुंशी प्रेमचंद निर्भीक होकर लिखते रहे और उन्होंने प्रतिबंधित अखबारों में भी लिखा। छद्म
नाम से लिखते रहे, पर हार नहीं मानी। मना जाता है कि वे रूसी क्रांति से प्रभावित थे और
टॉल्स्टॉय उन्होंने पढ़ रखा था। मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी लेखनी से स्वतंत्रता आंदोलन को
बल दिया। उनके लिए लिखना एक मिशन सा बन गया था। उसके पीछे देश सेवा का गहरा
ज़ज़्बा था। एक तरह की लड़ाई थी अंगेजों के खिलाफ। उपन्यास और कहानियों के अलावा
गोरखपुर से प्रकाशित दैनिक स्वदेश और मुंशी प्रेमचंद की अपनी पत्रिका हंस और जागरण
आदि में उनके लेख इस बात के गवाह हैं कि मुंशी प्रेमचन्द किस तरह अंग्रेजों के विरुद्ध
आंदोलन का हवा दे रहे थे। गरम दल के नेताओं जैसी गरम तासीर की क़लम उनकी
पहचान बन गई थी।

Ans5. प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में
जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण
किया। उनकी कृ तियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृ तियाँ हैं। अपनी
कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं।प्रेमचंद ने अपना
जीवन मध्यवर्गीय समाज में यापन किया तथा उसकी समस्याओं को अनुभूत भी किया
है। इसी वजह से 'सेवासदन' (1918) से लेकर 'गोदान' (1936) तक के श्रेष्ठ उपन्यासों में
भारतीय समाज के सभी वर्गों का यथार्थ चित्रण मिलता है । प्रेमचंद के साहित्य में
मध्यवर्गीय समाज चित्रण की प्रमुखता है ।उपन्यास का लक्ष्य अनमेल-विवाह तथा दहेज़
प्रथा के बुरे प्रभाव को अंकित करता है। निर्मला के माध्यम से भारत की मध्यवर्गीय
युवतियों की दयनीय हालत का चित्रण हुआ है। उपन्यास के अन्त में निर्मला की मृत्यृ इस
कु त्सित सामाजिक प्रथा को मिटा डालने के लिए एक भारी चुनौती है।

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