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“लोक परम्परा में शक्ति कि अवधारणा”

भारत के राष्ट्रीय जीवन और लोक परम्परा में प्रारम्भ से ही नारी के प्रति आदर और आराध्यता भाव विद्यमान रहा
है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है -
"यत्र नार्यस्तु पज्ू यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पज्ू यन्ते सर्वास्तफलाः क्रियाः ।। - मनु- 3/56

इतना ही नहीं हिन्दू लोक जीवन एवं परम्परा में नारी शक्ति स्वरूपा है। हमारे लोक जीवन में शक्ति कें द्रित अनेकानेक
उत्सव हैं। नवरात्रि की संकल्पना, मातृपजू न, कन्यापजू न, दैवीय स्वरूप में मान्यता और सामाजिक व्यवहार इसका
परिचायक है। तैत्तरीय उपनिषद में "मातृ देवो भव" माँ में देवत्व के प्रथम दर्शन होतें है। यहां शक्ति सर्वव्यापी चेतना
के रूप में है। जहाँ शक्ति नहीं वहां शन्ू यता है। देवी भागवत में कहा गया है कि "सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदास्ति
सनातनम" अर्थात यह सम्पर्णू जगत में ही हूँ , मेरे अलावा कोई अन्य अविनाशी जीव नहीं है। मार्कं डेय परु ाण में देवी
महात्म्य में उल्लेखित है -
"या देवी सर्वभतू ेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
यानी जो देवी समस्त प्राणियों में शक्ति स्वरूपा होकर अवस्थित है उन्हें नमस्कार बारम्बार नमस्कार है। महाकवि
कालिदास के महाकाव्य रघ वु ंशम में "जगतः पितरौ वदं े पार्वती परमेश्वरौ" का प्रणयन देवत्व के उभय पक्षों का
समानता के अनुरूप वर्णन है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने महात्म्य को उके रते हुए लिखा है कि -
"देवि पजि
ू पद कमल तुम्हारे ।
सरु नर मनि
ु सब होंहि सख ु ारे ।।"

शक्ति स्वरूपों का विश्ले षण करें तो ध्यान आता है कि सभी आदि देवों की भांति चतुर्भुजा हैं, सबकी सवारियां
तुलनात्मक रूप में ज्यादा सबल हैं, इसलिए नारी शक्ति के लिए हमारा बोध और चिंतन दोनों ही बदलने की
आवश्यकता है। ऋग्वेदीय समाज से ही उन्हें सहधर्मिणी और अर्धांगिनी माना गया है। उनकी ऊर्जा को समचू े विश्व
का सार माना गया है। नारी की सृजन शक्ति से विश्व की निर्मिती होती है। निर्मिति के वल जड़ की नहीं , चेतना की,
अनगिनत, असीमित, आंतरिक विवेक की, ज्ञान की, समझबूझ की।
यह के वल मंडन नहीं वास्तविकता है। अनेकानेक उदाहरण उपलब्ध हैं। गार्गी, मैत्रेयी, सावित्री, सीता, सलु ोचना
इत्यादि। वैदिक दर्शन में स्त्री-परुु ष दोनों ही समान तत्व हैं।

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