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by truth, the soul is purified by learning and tapasya


The body is purified by water, the mind is purified


 




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attracted to a person for his good character and
No task should be taken thoughtlessly. Irrationality
is the cause for great calamity! Wealth itself is


सकू ्‍तिसौरभम्
द्वितीयपुष्‍पम्
माध्‍यमिक स्‍तर के शिक्षार्थियों के लिए
प्रथम सस्ं ‍करण ISBN 978-93-5007-351-3
अगस्‍त 2015 श्रावाण 1937 q प्रकाशक की पर्वू अनमु ति के ि‍बना इस प्रकाशन के किसी
भाग को छापना तथा इलेक्‍ट्राॅनिकी, मशीनी, फोटोप्रतिलिपि,
पुनर्मुद्रण रिकॉर्डिंग अथवा किसी अन्‍य विधि से पनु : प्रयोग पद्धति द्वारा
जनू 2020 ज्ये� 1942 उसका संग्रहण अथवा प्रसारण वर्जित है।
q इस प‍स्‍त
ु क की बिक्री इस शर्त के साथ की गई है कि प्रकाशक
की पर्वू अनमु ति के बिना यह पस्‍त
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पनु विक्रय या किराए पर न दी जाएगी, न बेची जाएगी।
q इस प्रकाशन का सही मल्‍यू इस पृष्‍ठ पर मद्रि
ु त है। रबड़ की महु र
© राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनसु ंधान और प्रशिक्षण अथवा चिपकाई गई पर्ची (स्‍टीकर) या किसी अन्‍य विधि द्वारा
परिषद,् 2015 अकि ं त कोई भी संशोधित मल्‍य
ू गलत है तथा मान्‍य नहीं होगा।

एन.सी.ई.आर.टी. के प्रकाशन प्रभाग के कार्यालय


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नयी दिल्‍ली 110 016 फोन : 011-26562708
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प्रकाशन सहयोग
एन.सी.ई.आर.टी. वाटरमार्क 80 जी.एस.एम. अध्‍यक्ष, प्रकाशन प्रभाग : अनपू कुमार राजपतू
पेपर पर मद्ु रित।
मख्ु ‍य संपादक : श्‍वेता उप्‍पल
सचिव, राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनसु धं ान और मख्ु ‍य उत्‍पादन अधिकारी : अरुण चितकारा
प्रशिक्षण परिषद,् श्री अरविदं मार्ग, नयी मख्ु ‍य व्‍यापार प्रबंधक : िवपिन िदवान
दिल्‍ली 110 016 द्वारा प्रकाशन प्रभाग में
उत्‍पादन सहायक : मक
ु े श गौड़
प्रकाशित तथा एसके प्रैस प्राइवेट िलमिटेड
220, पटपड़गंज इडं स्‍ट्रियल एरिया, िदल्‍ली आवरण
110 092 द्वारा मिु द्रत। अमित श्रीवास्‍तव
पुरोवाक्

प्रस्तुत पस्त
ु क सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्प ु म् राष्ट्रीय शैक्षिक अनसु ंधान एवं
प्रशिक्षण परिषद् के पर्वू त: सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी शिक्षा विभाग
की लघु पस्त ु क माला योजना के अन्तर्गत, सम्प्रति भाषा शिक्षा विभाग
द्वारा कक्षा 9-10 के छात्रांे के लिए परू क पस्त ु क के रूप में एवं सामान्य
संस्कृ त जिज्ञासओ ु ं को ध्यान में रखकर विकसित की गई है। इसे प्रस्तुत
करते हुए मझु े हार्दिक प्रसन्नता हो रही है।
मझु े विश्‍वास है कि यह पस्‍त ु क सस्‍कृं त छात्रों तथा सामान्‍य सस्‍कृ ं त
जिज्ञासओ ु ं के लिए अत्‍यधिक लाभकारी होगी।
पस्‍त ु क के प्रणयन ि‍वशेषत: सामग्री-संकलन, पाण्‍डुलिपि संशोधन
तथा निर्माणादि कार्यों में अनेकविध सहयोग के लिए श्रीमती उर्मिल खगंु र
सहित भ्‍ााषा शिक्षा विभाग के पर्वू संस्‍कृ त आचार्य डॉ. कमलाकान्‍त मिश्र,
डॉ. जतीन्‍द्र मोहन मिश्र, उपाचार्य, सस्‍कृ ं त एवं डॉ. रणजि‍त बेहरे ा, पर्वू
सहायक आचार्य तथा वर्तमान विभागाध्‍यक्ष प्रो. कृ ष्‍णचन्‍द्र त्रिपाठी हमारे
धन्‍यवाद के पात्र हैं।
पस्‍त ु क की पाण्‍डुलिपि समीक्षा के लिए आयोजित गोष्ठियों में उपस्थि‍त
होकर जिन विषय-विशेषज्ञों एवं अनभु वी सस्‍कृ ं त अध्‍यापकों ने अपने
बहुमल्‍य
ू सझु ावों एवं सहयोग से पस्‍त ु क को उपयोगी बनाने में योगदान
दिया है, परिषद् उनके प्रति हार्दिक कृ तज्ञता ज्ञापित करती है।
पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपस्‍त ु क का विकास एक निरन्‍तर चलने वाली
प्रक्रिया है। अत: पस्‍तु क को और उपयोगी बनाने के लिए विशेषज्ञों एवं
अध्‍यापकों के अनभु व पर आधारित परामर्शों का सहर्ष स्‍वागत किया
जाएगा तथा सश ं ोधित सस्‍क
ं रण तैयार करते समय उनका समचु ित उपयोग
किया जाएगा।
बी.के . त्रिपाठी
नई दिल्‍ली निदेशक
14 अगस्‍त 2015 राष्‍ट्रीय शैक्षिक अनसु धं ान एवं प्रशिक्षण परिषद्
भूमिका

संस्‍कृ त विश्‍व की प्राचीनतम भाषा है जिसका विशाल साहित्‍य (वेद,


वेदा�, उपनिषद,् परु ाण, विविध शास्‍त्र, काव्‍य अादि) अनेक दृष्टियों से
महत्त्‍वपर्णू है। यह उदात्त संस्‍कारों के साथ ही साथ शास्‍त्रीय ज्ञान तथा
मौलिक चिन्‍तन का अगाध स्रोत भी है। इसमें विद्यमान सभु ाषित भारतीय
मनीषियों के ऐसे सवु चन हैं जो अनभु वों पर आधारित होने के कारण
शाश्‍वत सत्‍य का उदघ् ाटन करते हैं तथाा विषमता से यक्त ु इस जगत में
संकटग्रस्‍त किंकर्तव्‍य‍विमढ़ू मनष्ु ‍यों का मार्गदर्शन करते हैं। लोक-कल्‍याण
के ि‍लए प्रयक्तु ये सक्त‍ि
ू याँ जीवन की विस�तियों को सहज एवं सरल रूप
से सल ु झाने का कार्य करती हैं। इनमें नीति, कर्त्तव्‍य, सत्‍य, व्‍यवहार, परिवार,
समाज, राष्‍ट्र तथा विश्‍वबन्‍धुत्‍व सबं ंधी अनेकानेक शाश्‍वत जीवनमल्‍य ू
विद्यमान हैं। जीवन के यथार्थ का दिग्‍दर्शन कराने वाली एवं नैतिक मलू ्‍याें
कोे मन-मस्तिष्‍क में आरूढ़ करने वाली इन सक्त‍ि ू यों से लोकहित की
सहज प्रेरणा मिलती है जिसकी सहायता से मनष्ु ‍य अपने जीवन में सत्‍यम,्
शिवम् और सन्ु ‍दरम् की अलौकिक छवि प्रकट कर सकता है। भाषागत
सरलता, भावों की सहजता तथा संवेदना की गहराई के साथ ही साथ
अभिव्‍यक्त‍ि की मनोरम शैली के कारण सक्ति ू साहित्‍य निश्‍चय ही विशेष
रूप से अवलोकनीय है।
शभु चिन्‍तक मित्र की तरह संस्‍कृ त-सक्ति ू याँ जन-जन का मार्गदर्शन
करती हैं। ये जीवन में परिस्थिति-जनित समस्‍याओ ं का सद्य: समाधान
सझु ाकर मानव को सख ु -शान्ति तथा सन्‍मार्ग की अोर अग्रसर होने की
प्रेरणा प्रदान करती हैं। इनके लघु आकार में जनमानस के लिए व्‍यावहारिक
संदश े तथा शाश्‍वत जीवनदर्शन के संकेत 'गागर में सागर' की भाँति समाए
हुए हैं। इनकी मधरु ता की प्रशसं ा में एक सक्ति ू है-
'तस्‍माद्धि काव्‍यं मधुरं तस्‍मादपि सभ ु ाषितम'्
अर्थात् काव्‍य मधरु होता है और उसमें भी सभु ाषित (अधिक मधरु
होता है)
आज जब समाज में मानवीय मल्‍यों ू का ह्रास हो रहा है, राष्‍ट्रीय
शै‍क्षिक अनसु ंधान और प्रशिक्षण परिषद् इन मल्‍यों ू को छात्रों एवं सामान्‍य
लोगों में ि‍वकसित करने हेतु प्रयत्‍न कर रही है। संस्‍कृ त वाङ्मय से चयनित
स‍क्ति
ू यों का विशेष महत्त्‍व है— इसी उद्देश्‍य से परू क पाठ�-सामग्री के
ि‍वकासक्रम में सस्‍ ं कृ त लघु पुस्‍तकमाला योजना के अतं र्गत विभिन्‍न
शास्‍त्रों से संकलित एवं छात्रों के बौद्धिक स्‍तर के अनरू ु प एक सभु ाषित
संग्रह प्रस्‍तुत किया गया है। यह संग्रह सक्ू तिसौरभम,् तीन खण्‍डों (तीन
पष्ु ‍पों) में क्रमश: उच्‍च प्राथमिक, माध्‍यमिक एवं उच्‍चतर माध्‍यमिक छात्रों
के लिए विभक्‍त है, जिसका यह द्वितीय खण्‍ड है।
प्रस्तुत सकू ्‍तिसौरभम् सक ु ु मारमति विद्यालय-स्‍तरीय छात्रों में संस्‍कृ त
साहित्‍य के प्रति अभिरुचि उत्‍पन्‍न करने एवं उनमें नैतिक मल्‍यों ू का विकास
करने में उपादेय होगा। इस पस्‍त ु क के ि‍नर्माण में जिन ग्रन्‍थों, ग्रन्‍थकारों एवं
विद्वानों का सहयोग प्राप्‍त हुआ है, सम्‍पादक उनके प्रति हार्दिक कृ तज्ञता
व्‍यक्त करता है। पस्‍त ु क के प्रकाशन में विविध सहयोग के ि‍लए विभाग के
पर्वू कर्मचारी श्री रामप्रकाश और डॉ. दयाशक ं र तिवारी एवं श्री अविनाश
पाण्‍डेय, जे.पी.एफ., श्री प्रभाकर पाण्‍डेय, जे.पी.एफ., रे खा तथा अनिता
कुमारी, डी.टी.पी. ऑपरे टर धन्‍यवाद के पात्र हैं।

vi
पुस्‍तक निर्माण समिति

आद्या प्रसाद मिश्र, पर्वू कुलपति, इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय, इलाहाबाद,


उत्तर प्रदेश
उमा शक ं र शर्मा ऋषि, पर्वू विभागाध्‍यक्ष, संस्‍कृ त विभाग, पटना
विश्‍वविद्यालय, पटना
कमला कान्‍त मिश्र, पर्वू आचार्य, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.,
नई दिल्‍ली
चन्‍द्रकान्‍त शक्ु ‍ल, पर्वू कुलपति, कामेश्‍वर सिंह दरभगं ा संस्‍कृ त
विश्‍वविद्यालय, दरभगं ा, बिहार
छविकृ ष्‍ण आर्य, पर्वू प्राचार्य, के न्‍द्रीय वि़द्यालय, जामनगर, गजु रात
जगदीश प्रसाद सेमवाल, पर्वू निदेशक, विश्‍वेश्‍वरानन्‍द वैदिक शोध
सस्‍था
ं न, होशियारपरु , पंजाब
नीलाभ तिवारी, सहायक आचार्य, राष्‍ट्रीय सस्‍कृ ं त संस्‍थान, भोपाल
परिसर, भोपाल, मध्‍य प्रदेश
प्रभाकर पाण्‍डेय, जे.पी.एफ., संस्‍कृ त, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.
नई दिल्‍ली
योगेश्‍वर दत्त शर्मा, दिल्‍ली वि‍श्‍वविद्यालय, दिल्‍ली
लता अरोडा, पर्वू सस्‍ ं कृ त अध्‍यापक, के न्‍द्रीय विद्यालय, आर.के .परु म,
सेक्‍टर-8, नई दिल्‍ली
वासदु वे शास्‍श्री, पर्वू प्रभारी, संस्‍कृ त, एस.सी.ई.आर.टी., उदयपरु ,
राजस्‍थान
श्‍वेता उप्‍पल, मख्ु ‍य संपादक एवं अनवु ादक (अग्ं रेजी), प्रकाशन प्रभाग,
एन.सी.ई.आर.टी., नई दिल्‍ली
सरु े श चन्‍द्र शर्मा, पर्वू सचिव, दिल्‍ली सस्‍कृ
ं त अकादमी, दिल्‍ली
श्रीकृ ष्‍ण सेमवाल, पर्वू उपाध्‍यक्ष, गोस्‍वामी गिरिधारिलाल शोध संस्‍थान,
नई दिल्‍ली
सह सयं ोजक एवं सपं ादक
जतीन्‍द्र मोहन मिश्र, एसोसिएट प्रोफे सर, भाषा शिक्षा विभाग,
एन.सी.ई.आर.टी. नई दिल्‍ली
रणजित बेहरे ा, पर्वू सहायक आचार्य, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.
नई दिल्‍ली
सयं ोजक एवं सपं ादक
कृ ष्‍ण चन्‍द्र त्रिपाठी, विभागाध्‍यक्ष, भाषा शिक्षा विभाग, एन.सी.ई.आर.टी.
नई दिल्‍ली

viii
विषयानुक्रमणी
द्वितीयपुष्‍पम् (प्रथम भाग:)

पृष्‍ठ सख्‍या

1. आत्‍म-विश्‍वास: 1
2. आरोग्‍यसाधनं तक्रम
् 2
3. उत्तमजन: 3
4. उत्‍साह: 4
5. कुसंगति-परित्‍याग: 5
6. गणु -गरिमा 6
7. विपत्तिमार्ग: 7
8. जीवनमलू ्‍यानि 8
9. त्‍याग: 9
10. धीरवैशिष्‍ट्यम ् 10
11. क्रियाशीलता 12
12. सत्‍पुरुषा: 13
13. दर्जु न: 14
14. दरू दर्शिता 15
15. महापरुु ष: 16
16. मनस्विता 17
17. मातृपितृ भक्ति: 18
18. मातृभमि ू : 19
19. मानवीयगणु ा: 20
20. अनर्थकारणम ् 21
द्वितीयपुष्‍पम् (द्वितीयो भाग:)
21. सन्मित्रलक्षणम ् 22
22. धनद:ु खत्‍वम ् 23
23. गणु पजू ा 24
24. राक्षसी वाणी 25
25. सनू तृ ा वाणी 26
26. वाणीकौशलम ् 27
27. विद्यामहिमा 28
28. शौर्यम ् 30
29. सहं ति: 31
30. सज्‍जन: 33
31. सत्‍यनिष्‍ठा 35
32. सत्‍संगति: 36
33. वैरशान्ति: 37
34. सदाचार: 38
35. परुु षपरीक्षा 39
36. सर्वसमभाव: 40
37. श्रेष्‍ठज्ञानी 41
श्‍लोकानाम् अकारादिक्रमसची ू 42

x
प्रथमो भाग:

1. आत्‍म-विश्‍वास:
नाभिषेको न संस्‍कार:
सिंहस्‍य क्रियते वने ।
विक्रमार्जितसत्त्‍वस्‍य
स्‍वयमेव मृगेन्‍द्रता ।।1।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम-् 7)
(गरुडपरु ाणम-् शौनकनीतिसार:- 115/15)
जंगल में शेर का न राज्‍याभिषेक किया जाता है और न ही कोई संस्‍कार ।
पराक्रम से प्राप्‍त बल वाले सिहं का मृगराज होना स्‍वत: सिद्ध है ।
In the forest none perform either the coronation
or the anointment of the lion. He is the king of all
animals naturally because of his valour earned
from his strength.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 1


2. अारोग्‍यसाधनं तक्रम्
न तक्रसेवी व्‍यथते कदाचित,्
न तक्रदग्‍धा: प्रभवन्ति रोगा: ।
यथा सरु ाणाममृतं प्रधानं,
तथा नराणां भवि ु तक्रमाहु: ।।2।।
(कस्‍यचित)्
मट्ठा का सेवन करने वाला बहुत कम रोग-पीड़ित नहीं होता, तक्र द्वारा नष्‍ट
किये गये (उदर के ) रोग फिर से उत्‍पन्‍न नहीं होते । जैसे देवताओ ं के लिए
अमृत प्रधान है वैसे ही इस पृथ्‍वी पर मनष्ु ‍यों के लिए (नीरोग रखने के लिए)
मट्ठा (अर्थात् छाछ) महत्त्‍वपर्णू है ।
One who drinks butter-milk rarely falls sick or gets
any disease. Ailments cured by butter-milk do not
occur again. As nectar is important for Gods, so is
butter-milk for human beings on this earth.

2 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


3. उत्तमजन:
वज्रादपि कठोराणि,
मृदनि
ू कुसमु ादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि,
को हि विज्ञातमु र्हति ।।3।।
(उत्तररामचरितम,् अक
ं -2, श्‍लोक:-7)
उत्तम जनों के हृदय वज्र से भी कठोर तथा पष्ु ‍प से भी कोमल होते हैं ।
उनकी चित्तवृति को जानने में भला कौन समर्थ हो सकता है ?
The heart of extraordinary persons is stronger
than a thunderbolt as well as more delicate than
a flower. Who can know the state of minds of such
extraordinary persons?

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 3


4. उत्‍साह:
उत्‍साहसम्‍प�मदीर्घसत्ू रं
क्रियाविधिज्ञं व्‍यसनेष्‍वस�म् ।
शरू ं कृ तज्ञं दृढसौहृदं च,
लक्ष्‍मी: स्‍वयं याति निवासहेताे: ।।4।।
(सभु ाषितावलि:, पृ.49, श्‍लोक:-315)
उत्‍साह से परिपर्णू कार्य में देर न करने वाले, कार्य की विधि को जानने
वाले, व्‍यसनों में अनासक्‍‍त, पराक्रमी, किए हुए उपकार को समझने वाले
तथा स्थिर मैत्री वाले व्‍यक्ति के पास लक्ष्‍मी स्‍वयं निवास करने आती है ।
Laxmi (good fortune) lives with a person who is
enthusiastic, does not procrastinate, knows a
systematic way of working, away from vices, brave,
grateful and is loyal in friendship.

4 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


5. कुसगं ति-परित्‍याग:
वरं पर्वतदर्ु गेष,ु
भ्रान्‍त: वनचरै : सह ।
न मर्खज
ू नसम्‍पर्क :,
सरु े न्‍द्रभवनेष्‍वपि ।।5।।
(नीतिशतकम,् श्‍लोक:-14)
वनचरों (जंगल के निवासियों) के साथ पर्वतों व दर्गु म स्‍थानों पर भटकना
श्रेष्‍ठ होगा, न कि मर्ख
ू व्‍यक्ति के साथ देवराज इन्‍द्र के महल में रहना।
It is better to wander with the forest-dwellers
through mountains and difficult places than to have
the company of foolish people even in the palace of
Indra, the King of Gods.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 5


6. गुण-गरिमा
गणु ा गणु ज्ञेषु गणु ा भवन्ति
ते निर्गुणं प्राप्‍य भवन्ति दोषा: ।
आस्‍वाद्यतोया: प्रभवन्ति नद्य:,
समद्रु मासाद्य भवन्‍त्‍यपेया: ।।6।।
(हितोपदेश:, प्रस्‍ताविका, श्‍लोक:- 45)
गणिय
ु ों की संगति में गणु गणु ही रहते हैं, किन्‍तु गणु हीन व्‍यक्ति की संगति
में वे ही दोष बन जाते हैं। नदियों का जल मीठा होता है किन्‍तु वही समद्रु में
मिल जाने पर पीने योग्‍य नहीं रह जाता।
Virtues remain virtues in the company of the virtuous,
but in the company of a man with no virtues, merits
become demerits. Water of a river is potable but it
becomes saline when it merges with the sea.

6 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


7. विपत्तिमार्ग:
परनिन्‍दासु पाण्डित्‍यं,
स्‍वेषु कार्येष्‍वनद्यु म: ।
प्रद्वेषश्‍च गणु ज्ञेष,ु
पन्‍थानो ह्यापदां त्रय: ।।7।।
(सभु ाषितावलि:, श्‍लोक:-2739)
दसू रों की निन्‍दा करने में निपणु ता, अपने कार्य में आलस्‍य तथा गणु ज्ञ
व्‍यक्तियों से द्वेष, ये तीनों ही आपत्तियों के मार्ग हैं ।
Mastery in abusing others, lazy in his own work
and hostile with virtuous people, these three are the
causes of misfortunes.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 7


8. जीवनमूल्‍यानि
नास्ति विद्यासमं चक्:षु ,
नास्ति सत्‍यसमं तप: ।
नास्ति रागसमं द:ु ख,ं
नास्ति त्‍यागसमं सख
ु म् ।।8।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम् पृ. 167, श्‍लोक:-624)
विद्या के समान कोई नेत्र नहीं, सत्‍य के समान कोई तप नहीं, आसक्ति
(राग) के समान कोई द:ु ख नहीं और त्‍याग के समान कोई सखु नहीं है ।
There is no eye like knowledge, no penance like
truth, no sorrow like attachment and there is no
happiness like sacrifice.

8 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


9. त्‍याग:
नास्ति भमि
ू समं दानं,
नास्ति मातृसमो गरुु : ।
नास्ति सत्‍यसमो धर्मो,
नास्ति दानसमो निधि: ।।9।।
(महाभारतम-् स.ू सधु ा, 62/92)
भमि
ू दान के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गरुु नहीं, सत्‍य के
समान कोई धर्म नहीं और दान के समान कोई कोश नहीं है ।
There is no charity equal to giving away land, there
is no teacher like a mother, there is no virtue like the
truth and there is no treasure like charity.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 9


10. धीरवैशिष्‍ट्यम्
वश्‍येन्द्रियं जितात्‍मानं,
धृतदण्‍डं विकारिषु ।
परीक्ष्‍यकारिणं धीरम्
अत्‍यन्‍तं श्रीर्निषेवते ।।10।।
(सभु ाि‍षतावलि: पृ. 441, श्‍लोक:-2649)
जिनके वश में इद्रियं ाँ हों, जो स्‍वयं पर नियंत्रण रखनेवाले हों, दष्ु ‍टों को दण्‍ड
देने वाले तथा प्रत्‍येक कार्य को सोच-विचार कर करने वाले धीर (बद्धि ु मान)्
परुु ष का लक्ष्‍मी सम्‍मान करती है।
Laxmi (prosperity) serves the one immensely, who
has control over his senses and the self, punishes
the culprits and does his work carefully.

10 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


निन्‍दन्‍तु नीतिनिपणु ा: यदि वा स्‍तुवन्‍तु,
लक्ष्‍मी: समाविशतु गच्‍छतु वा यथेष्‍टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्‍तु यगु ान्‍तरे वा,
न्‍याय्यात्‍पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा: ।।11।।
(नीतिशतकम,् श्‍लोक:- 84)
नीति निपणु व्‍यक्ति चाहे निन्‍दा करें या प्रशसं ा, इच्‍छानसु ार चाहे लक्ष्‍मी
आए या चली जाए, आज ही मृत्‍यु हो जाए अथवा कालान्‍तर में, धीर
परुु षों के कदम कभी भी न्‍याय के पथ से विचलित नहीं होते ।
Men well versed with worldly affairs may condemn
or admire, for them fortune may come or go, to them
death may come now or later, those who are noble
do not deviate from the path of justice.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 11


11. क्रियाशीलता
शास्‍त्राण्‍यधीत्‍यापि भवन्ति मर्खा
ू :,
यस्‍तु क्रियावान् परुु ष: स विद्वान् ।
सचु िन्तितं चौषधमातरु ाणां,
न नाममात्रेण करोत्‍यरोगम् ।।12।।
(हितोपदेश:, मित्रलाभ:, श्‍लोक:-168)
शास्‍त्रों का अध्‍ययन करने पर भी लोग मर्ख
ू रह जाते हैं। वही वस्‍तुत: विद्वान्
है जो व्‍यवहार-कुशल है । जैसे सचु िन्तित औषधि से रोगी रोगमक्‍त ु होता
है; न कि उसका नाम लेने मात्र से ।
Even after studying the Shastras people remain fools.
Only that man is learned who puts his knowledge
into practice. Taking prescribed medicines properly
can cure the patient and not merely mentioning its
name.

12 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


12. सत्‍पुरुषा:
सर्वभतू दयावन्‍ताे,
विश्‍वास्‍या: सर्वजन्‍तुषु ।
त्‍य�हिसं ा: सदाचारा –
स्‍ते नरा: स्‍वर्गगामिन: ।।13।।
(महा.अन.ु 144.9)
जो सब प्राणियों पर दया करते हैं, सब जीवों के विश्‍वास-पात्र होते हैं,
जिन्‍होंने हिसं ा को त्‍याग दिया है तथा जो सदाचारी हैं, वे व्‍यक्ति स्‍वर्ग प्राप्‍त
करते हैं ।
People who are kind to all living beings, are trusted
by all and those who have given up violence and are
of good moral conduct, achieve heaven (well-being).

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 13


13. दुर्जन:
खल: सर्षपमात्राणि,
परच्छिद्राणि पश्‍यति ।
आत्‍मनो बिल्‍वमात्राणि,
पश्‍य�पि न पश्‍यति ।।14।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम,् 56/1)
दष्ु ‍ट व्‍यक्ति दसू रों के राई के बराबर छोटे दोषों को भी देख लेते हैं, परंतु
अपने बेल के फल के समान बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देख पाते ।
An evil person sees the faults of others even as
small as a mustard seed, but does not see his own
faults as big as Bilva fruit, although being aware of
them.

14 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


14. दूरदर्शिता
अप्राप्‍तकालं वचनं,
बृहस्‍पतिरपि ब्वरु न् ।
प्राप्‍नोति बदु ्ध्‍यवज्ञानम,्
अपमानं च शाश्‍वतम् ।।15।।
(पञ्चतन्‍त्रम,् मित्रभेद:, श्‍लोक:- 67)
अनचु ित समय पर बोलते हुए बृहस्‍पति को भी अपनी बद्धि
ु की अवहेलना
झेलनी पड़ती है और निरंतर अपमानित होना पड़ता है ।
Even Brihaspati (the sage of wisdom and teacher of
gods) has to suffer disregard towards his intellect
and constant insult when he speaks untimely.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 15


15. महापुरुष:
उदेति सविता ताम्र:,
‍ताम्र एवास्‍तमेति च ।
सम्‍पत्तौ च विपत्तौ च,
महतामेकरूपता ।।16।।
(सभु ाषितावलि: 37/220)
सर्यू लाल वर्ण का ही उदित होता है और लाल वर्ण का ही अस्‍त होता है ।
सम्‍पत्ति और विपत्ति इन दोनों परिस्थितियों में महान् परुु ष एक जैसे रहते हैं ।
The sun rises red and is red as well when it sets.
The great people remain the same both in their
prosperity and adversity.

16 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


16. मनस्विता
कामं प्रियानपि प्राणान,्
विमञु ्चन्ति मनस्विन: ।
इच्‍छन्ति न त्‍वमित्रेभ्‍यो,
महतीमपि सत्क्रियाम् ।।17।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम,् 83/1)
स्‍वाभिमानी परुु ष स्‍वेच्‍छा से अपने प्रिय प्राणों का भी परित्‍याग कर देते हैं,
किन्‍तु शत्ओ
रु ं से बड़े-से-बड़ा सत्‍कार भी नहीं चाहते।
The self-esteemed people are ready to even give up
their precious lives, but they do not wish even the
greatest honour from their enemies.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 17


17. मातृपितृभक्ति:
यं माता-पितरौ क्‍लेश,ं
सहेते सम्‍भवे नणॄ ाम् ।
न तस्‍य निष्‍कृति: शक्‍या,
कर्तंु वर्षशतैरपि ।।18।।
(मनसु ्‍मृति:, अध्‍याय:- 2, श्‍लोक:- 227)
मानव को जन्‍म देने (पालन-पोषण) में माता-पिता जितना कष्‍ट सहते हैं,
उसका ॠण सैकड़ों वर्षों में भी नहीं चक
ु ाया जा सकता ।
The pain which the parents undergo during the birth
(upbringing) of their children cannot be compensated
even in hundreds of years.

18 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


18. मातृभूमि:
ग्रीष्‍मस्‍ते भमू े ! वर्षाणि
शरद्धेमन्‍त: शिशिरो वसन्‍त: ।
ॠतवस्‍ते विहिता हायनीरहोरात्रे
पृथिवी नो दहु ाताम् ।।19।।
(अथर्ववेद:, 12/1/36)
हे पृथ्‍वी! तम्‍हा
ु री ये छ: ऋतएु –ं ग्रीष्‍म, वर्षा, श्‍ारद,् हेमन्‍त, सर्दी और
वसन्‍त प्रति वर्ष आती हैं और जो ये दिन-रात होते हैं, वे हमें सदा समृद्धि
प्रदान करें ।
O Earth! may the six seasons like Grishma (Summer),
Varsha (rains), Sharad (Autumn), Hemanta (early
winter), Shishira (Winter) and Vasant (Spring)
coming in a year and day and night bestow upon
us all prosperities.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 19


19. मानवीयगुणा:
अष्‍टौ गणु ा: परुु षं दीपयन्ति,
प्रज्ञा च कौल्‍यं च दम: श्तरु ं च ।
पराक्रमश्‍चाबहुभाषिता च,
दानं यथाशक्ति कृ तज्ञता च ।।20।।
(महाभारतम,् उद्योगपर्व अध्‍याय:- 33, श्‍लोक:- 11)
बद्धि
ु मत्ता, अच्‍छे कुल में जन्‍म, इन्द्रियों पर संयम, शास्‍त्रों का ज्ञान, वीरता,
मितभाषण, यथाशक्ति दान और कृ तज्ञता– ये आठ गणु मानव के जीवन
को उज्‍ज्‍वल करते हैं ।
Intelligence, birth in a noble family, control over
the senses, knowledge, bravery, moderate speech,
charity as per capacity and sense of gratitude are
the eight qualities which enlightens the life of a man.

20 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


20. अनर्थकारणम्
यौवनं धनसम्‍पत्ति:,
प्रभत्ु ‍वमविवेकिता ।
एकै कमप्‍यनर्थाय,
किमु यत्र चतष्ु ‍टयम् ।।21।।
(हितोपदेश:, प्रस्‍ताविका, श्‍लोक:- 11)
यौवन, धन-सम्‍पत्ति, अधिकार और विवेक-शन्ू ‍यता, प्रत्‍येक अपने आप
में अन‍र्थकारी होता है, ये चारों जहाँ हों, वहाँ तो कहना ही क्‍या? (विनाश
अवश्‍यंभावी है)
Young age, wealth, power and lack of wisdom are
the sources of calamity, each one on their own too.
What would it be where all the four are present
together? (inevitable disaster)

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 21


द्वितीयो भाग:

21. सन्मित्रलक्षणम्
पापा‍ि�वारयति योजयते हिताय,
गह्
ु यं निगहू ति गणु ान् प्रकटीकरोति ।
आपदग् तं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्‍त: ।।22।।
(नीतिशतकम,् श्‍लोक:- 73)
जो पाप से हटाता है, हित-कार्यो में लगाता है, गोपनीय बातों को गप्ु ‍त
रखता है, गणु ों को प्रकाशित करता है, आपत्ति के समय साथ नहीं छोड़ता
तथा समय पर सहायता करता है, सज्‍जन ऐसे मित्र को सच्‍चा मित्र कहते
हैं ।
One who prevents his friend from committing sins,
enjoins him in beneficial actions, keeps his secrets,
exhibits his merits, never leaves him in adversity
and helps him in need, is described as a true friend
by sages.

22 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


22. धनदु:खत्‍वम्
अर्थानामर्जने द:ु खम्
अर्जितानां च रक्षणे ।
नाशे द:ु खं व्‍यये द:ु खं
धिगर्थद:ु खभाजनम् ।।23।।
(महाभारतम,् स.ू स.ु अ. 145, अनश
ु ासनपर्व)
धन को अर्जित करने में कष्‍ट होता है, अर्जित धन की रक्षा में कष्‍ट होता
है, धन के नाश और व्‍यय में भी द:ु ख होता है । द:ु ख के पात्र इस धन को
धिक्‍कार है ।
There is pain in earning wealth, there is pain in the
preservation of what is earned. There is pain when
it is lost or when it is spent. Fie upon the wealth,
which is the source of the pain.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 23


23. गुणपूजा
यस्‍य कस्‍य प्रसतू ोऽपि
गणु वान् पज्ू ‍यते नर: ।
धनर्वंु श-विशद्धो
ु ऽपि
निर्गुण: किं करिष्‍यति ।।24।।
(हितोपदेश:, प्रस्‍ता. 23)
किसी भी कुल में पैदा हुआ मनष्ु ‍य यदि गणु वान् है, तभी वह पजू ा जाता है।
अच्‍छे बाँस से बना धनषु , यदि गणु (रस्‍सी-प्रत्‍यञ्चा) विहीन है तो वह
किसी काम का नहीं होता ।
Whatever may be the genealogy of a person, he is
respected only because of his virtues, just as a bow
made of superior quality bamboo, is of no use, if it
does not have a string tied to it.

24 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


24. राक्षसी वाणी
ॠषयो राक्षसीमाहु:
वाचमन्‍म
ु त्तदृप्‍तयो: ।
सा योनि: सर्ववैराणां
सा हि लोकस्‍य निर्ॠ त: ।।25।।
(उत्तररामचरितम,् अक
ं :- 5, श्‍लोक:- 30)
उन्‍मत्त और अभिमानी व्‍यक्ति के वचन को ॠषियों ने राक्षसी वाणी कहा
है, क्‍योंकि ऐसी वाणी सभी झगड़ों की जड़ है तथा संसार के विनाश का
कारण है ।
The speech of the arrogant and the proud has been
described as devilish by the Sages, as this is the
root of all enemity and the cause of destruction in
the world.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 25


25. सनू तृ ा वाणी
कामान्‍दुग्‍धे विप्रकर्षत्‍यलक्ष्‍मीं,
कीर्तिं सतू े दृष्‍कृ तं या हिनस्ति ।
शद्धां
ु शान्‍तां मातरं मड्.गलानां
धेनंु धीरा: सनू तृ ां वाचमाहु: ।।26।।
(उत्तररामचरितम,् अक
ं :- 5, श्‍लोक:- 30)
बद्धि
ु मान् लोग शद्ध
ु , शान्‍त (अनत्तेज
ु क) और सत्‍यप्रिय वाणी को गाय
(कामधेन)ु मानते हैं । जो हमारी इच्‍छाओ ं को पर्णू करती है, दरिद्रता को
दरू करती है तथा पापों को नष्‍ट करती है ।
Men of wisdom have described speech, which is
pure, soothing, bestowal of well-being, pleasant
and truthful, as a cow (Kamadhenu/provider) which
bestows everything. It fulfils all desires, removes
poverty, brings forth glory and destroys all sins.

26 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


26. वाणीकौशलम्
वचस्‍तत्र प्रयो�व्‍यं,
यत्रो�ं लभते फलम् ।
स्‍थायी भवति चात्‍यन्‍तं,
राग: शक्‍ल
ु पटे यथा ।।27।।
(पञ्चतंत्रम,् मित्रभेद:, श्‍लोक:- 34)
वाणी का वहीं प्रयोग करना चाहिए जहाँ वह वैसे ही सफल हो जैसे सफे द
कपड़े पर लाल रंग अत्‍यन्‍त पक्‍का होता है ।
Words should be uttered only when they bear fruit
on their delivery, just as the impression of the red
colour becomes permanent on a white cloth.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 27


27. विद्यामहिमा
विद्या नाम नरस्‍य रूप‍मधिकं प्रच्‍छ�गप्‍तं
ु धनं,
विद्या भोगकरी यश:सख ु करी ि‍वद्या गरू
ु णां गरुु : ।
विद्या बन्‍धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं,
विद्या राजसु पज्ू ‍यते न हि धनं विद्याविहीन: पश:ु ।।28।।
(नीतिशतकम)्
विद्या मनष्ु ‍य का विशिष्‍ट सौन्‍दर्य और छिपा हुआ धन है । यह भोग प्रदान
करती है, यश और सख ु देती है तथा गरुु ओ ं की भी गरुु है । विदेश जाने पर
विद्या बन्‍धुजन के समान है, यह उत्तम देवता है । राजाओ ं के द्वारा विद्या
पजू ी जाती है, धन नहीं । विद्या रहित व्‍यक्ति पशु (तल्ु ‍य) है ।
Learning is the specific grace (charm) of joy and a
secret treasure. It gives joy, fame and happiness.
It is the teacher of teachers, it is a great friend in
distant lands. It is the highest deity. Kings (royal
courts) also respect knowledge and not wealth. A
person without learning is (like) an animal.

28 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


सर्वद्रव्‍येषु विद्यैव
द्रव्‍यमाहुरनत्तु मम् ।
अहार्यत्‍वादनर्घ्यत्‍वाद,्
अक्षयत्‍वाच्‍च सर्वदा ।।29।।
(हितोपदेश:, प्रस्‍ताविका, श्‍लोक:- 4)
सभी सम्‍पत्तियों में विद्या ही सर्वोत्तम सम्‍पत्ति है क्‍योंकि इसे कभी कोई
छीन नहीं सकता, न इसके लिए कोई मल्ू ‍य चक ु ाने की आवश्‍यकता होती
है और न इसका कभी विनाश होता है ।
Of all the assets, learning is the best asset as it can
never be stolen, nor one has to pay anything for it,
nor can it ever perish.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 29


28. शौर्यम्
एके नापि हि शरू े ण,
पादाक्रान्‍तं महीतलम् ।
क्रियते भास्‍करे णवे ,
स्‍फारस्‍फु रिततेजसा ।।30।।
(नीतिशतकम,् श्‍लोक:- 107)
जिस प्रकार एक ही देदीप्‍यमान सर्यू के तेज से समस्‍त भमू ण्‍डल आक्रान्‍त
हो जाता है उसी प्रकार एक ही तेजस्‍वी शरू के चरणों के तले समस्‍त विश्‍व
आ जाता है ।
As the radiant Sun spreads its light all over the
universe, only one valiant person is enough to
spread his valour (charm) all over the world.

30 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


29. स‍हं ति:
अथ ये सहं ता वृक्षा:,
सर्वत: सप्रतिष्
ु ठिता: ।
न ते शीघ्रेण वातेन,
हन्‍यन्‍ते ह्येकसंश्रयात् ।।31।।
(पञ्चतन्‍त्र, काकोलक
ू ीयम,् श्‍लोक:-35)
जो वृक्ष एक साथ और अच्‍छी तरह बद्ध-मल ू हैं, वे एक साथ जड़ेु होने के
कारण तेज़ आँधी से भी नष्‍ट नहीं हाेते ।
The trees which stand together and are deep-rooted
cannot be uprooted even by strong winds, because
they stand united.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 31


अल्‍पानामपि वस्‍तूनां,
स‍हं ति: कार्यसाधिका ।
तृणर्गुै णत्‍वमाप�ै:,
बध्‍यन्‍ते मत्तदन्तिन: ।।32।।
(हितोपदेश:, मित्रलाभ:- 35)
छोटी-छोटी वस्‍तुएँ जब मिल जाती हैं, तो उनसे बड़े-बड़े काम सिद्ध हो
जाते हैं। जैसे रस्‍सी तिनकों से बनती है और उससे शक्तिशाली हाथी भी
बाँधे जाते हैं ।
Very small things when united can do great things,
just as a rope made of small pieces of straws can
bind even a giant elephant.

32 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


30. सज्‍जन:
मनसि वचसि काये पण्ु ‍यपीयषू पर्णा ू :,
त्रिभवु नमपु कारश्रेणिभि: प्रीणयन्‍त: ।
परगणु परमाणनू ् पर्वतीकृ त्‍य नित्‍यं,
निजहृदि विकसन्‍त: सन्ति सन्‍त: कियन्‍त: ।।33।।
(नीतिशतकम,् श्‍लोक:- 79)
जिसके मन, वचन और शरीर पण्ु ‍यरूपी अमृत से पर्णू हैं, जो अपने उपकारों
(की परम्‍परा) से तीनों लोकों को तृप्‍त करते हैं, जो दसू रों के परमाणु जैसे
छोटे गणु ों को भी पर्वत के समान (बड़े) समझकर अपने हृदय में रखते हैं,
ऐसे सज्‍जन संसार में कितने हैं?
How many such people are there, whose body,
mind and words are filled with nectar of virtues,
who please everybody by their charity and who
consider even atom like small virtues of others as
big as mountain in their hearts?

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 33


शरदि न वर्षति गर्जति,
वर्षति वर्षासु नि:स्‍वनो मेघ: ।
नीचो वदति न कुरुते,
न वदति सजु न: करोत्‍येव ।।34।।
(शाङ्र्गधरपद्धति:, श्‍लोक:- 245)
शरद् ॠतु में बादल गरजता तो है किन्‍तु बरसता नहीं और वर्षा ॠतु में
वह गरजता नहीं, अपितु बरसता है । उसी प्रकार एक वाचाल कहता तो
है किन्‍तु करता कुछ नहीं और सज्‍जन कहता तो कुछ नहीं, किन्‍तु करता
अवश्‍य है।
The cloud only thunders in autumn and does not
rain, wheras, it rains in monsoon without a thunder.
Similarly, a boaster only talks and does nothing,
while a good person does not speak (much) but
definitely takes action.

34 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


31. सत्‍यनिष्‍ठा
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा:,
वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।
ध्‍ार्म: स नो यत्र न सत्‍यमस्ति,
सत्‍यं न तद्यच्‍छलमभ्‍युपैति ।।35।।
(हिता., विग्रह- 61)
वह सभा, सभा नहीं जिसमें कोई वृद्ध नहीं, वे वृद्ध, वृद्ध नहीं जो धर्म की
बात नहीं बोलते, वह धर्म, धर्म नहीं जिसमें सत्‍य न हो और वह सत्‍य, सत्‍य
नहीं जो कपटयक्‍त
ु हो ।
That gathering is not a gathering which has no elder
in it; that elder is not an elder who does not talk of
Dharma; that Dharma is not a Dharma which has
no truth in it; that truth is not a truth which is full
of deceit.
नासत्‍यवादिन: सख्‍यं
न पणु ्‍यं न यशो भवि
ु ।
दृश्‍यते नापि कल्‍याणं
कालकूटमिवाश्‍नत: ।।36।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम,् पृ. 83, असत्‍यनिन्‍दा)
विषपान करने वाले व्‍यक्ति की भाँ‍ि‍त असत्‍य बोलने वाले व्‍यक्ति को न तो
मैत्री मिलती है, न पण्ु ‍य, न यश और न ही कल्‍याण प्राप्‍त होता है ।
Person who tells lies, has neither friendship
nor virtue nor fame nor welfare like the one who
consumes poison.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 35


32. सत्‍संगति:
चन्‍दनं शीतलं लोके ,
चन्‍दनादपि चन्‍द्रमा: ।
चन्‍द्रचन्‍दनयोर्मध्‍ये,
शीतला साधसु ंगति: ।।37।।
(सभु ाषितरत्‍नभाण्‍डागारम,् पृ.86,
सत्‍संगतिप्रशसं ा, श्‍लोक:- 6)
इस ससं ार में चन्‍दन शीतल है, चन्‍द्रमा चन्‍दन से भी शीतल है। सज्‍जनों की
संगति चन्‍द्रमा और चन्‍दन से भी अधिक शीतल है।
In this world, sandalwood is cool, the moon is cooler
than the sandalwood. But the company of a good
person is cooler (calming) than both the moon and
the sandalwood.

36 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


33. वैरशान्ति:
न हि वैरेण वैराणि,
शाम्‍यन्‍तीह कदाचन ।
अवैरेण तु शाम्‍यन्ति,
एष धर्म: सनातन: ।।38।।
(ध‍म्‍मपदम,् अनदि
ू त)
इस ससं ार में शत्तरु ा कभी भी शत्तरु ा के द्वारा शान्‍त नहीं होती । वह तो
प्रेमभाव से ही शान्‍त होती है। यही शाश्‍वत धर्म है।
In this world, hostility can never be ceased by
hostility. This can be stopped only by non-voilence.
This is the eternal truth.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 37


34. सदाचार:
शान्तितल्‍यं
ु तपो नास्ति,
न सन्‍तोषात् परं सख
ु म् ।
न तृष्‍णाया: परो व्‍याधि:,
न च धर्मो दयापर: ।।39।।
(चाणक्‍यनीति:)
शान्ति के समान कोई तप नहीं है, संतोष से बढ़कर कोई सख ु नहीं है,
तृष्‍णा (लालच) से बड़ी कोई बीमारी नहीं है और दया से बढ़कर कोई धर्म
नहीं है ।
There is no tapasya like peace, no happiness like
contentment, no disease like lust and there is no
Dharma like kindness.

38 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


35. पुरुषपरीक्षा
यथा चतर्भि
ु : कनकं परीक्ष्‍यते,
निघर्षणच्‍छेदनतापताडनै: ।
तथा चतर्भि
ु : परुु ष: परीक्ष्‍यते,
त्‍यागेन शीलेन गणु ने कर्मणा ।।40।।
(चाणक्‍यनीति:, श्‍लोक:- 512)
घिसने, छे दने, तपाने और पीटने के चार प्रकारों से जैसे सोने की परीक्षा की
जाती है वैसे ही त्‍याग, शील, गणु और कर्म से परुु ष की परीक्षा की जाती है।
As the gold is tested in four ways–rubbing, cutting,
heating and striking, in the same way, a man is
known by his charity, good conduct, merit and
action.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 39


36. सर्वसमभाव:
संगच्‍छध्‍वं संवदध्‍वं,
सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पर्वेू ,
सजं ानाना उपासते ।।41।।
(ॠग्‍वेद:, मण्‍डलम-् 10, स�
ू म-् 19, मन्‍त्र:-2)
तमु सभी साथ मिलकर चलो, एक साथ मिलकर बोलो, एक दसू रे के
विचार समझो, जिस प्रकार पहले देवताओ ं ने समान विचार रखते हुए
अपना-अपना योग्‍य स्‍थान प्राप्‍त किया है।
Stay together, speak in unison, understand each
other's thoughts (mind), as the earlier dieties, by
coordinating well with each other attained their
individual space.

40 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


37. श्रेष्‍ठज्ञानी
अज्ञेभ्‍यो ग्रन्थिन: श्रेष्‍ठा,
ग्रन्थिभ्‍यो धारिणो वरा:।
धारिभ्‍यो ज्ञानिन: श्रेष्‍ठा,
ज्ञानिभ्‍यो व्‍यवसायिन: ।।42।।
(मनसु ्‍मृति:. 12-103)
अशिक्षितों की अपेक्षा पस्‍तु क पढ़ने वाले श्रेष्‍ठ हैं। पस्‍त
ु क पढ़ने वालों से
उनके अर्थ को आत्‍मसात् करने वाले श्रेष्‍ठ हैं, ग्रन्‍थों के अर्थ को आत्‍मसात्
करने वालों की अपेक्षा उनके ज्ञानी श्रेष्‍ठ हैं। ज्ञानियों की अपेक्षा अर्थ को
कार्यान्वित करने वाले श्रेष्‍ठ हैं।
The readers of books are better than the illiterates;
those who understand the meaning of the book are
better than the readers; those who have knowledge
are better than those who grasp the meaning of the
books; and those who put it into practice are still
better.

सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम् 41


श्‍लोकानाम् अकारादिक्रमसच
ू ी
श्‍लोकादि प.ृ सख
ं ्‍या श्‍लोकादि प.ृ सख
ं ्‍या
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा... 41 नास्ति विद्यासमं चक्:षु ... 8
अथ ये संहता वृक्षा:... 31 नासत्‍यवादिन: सख्‍यं ... 35
अप्राप्तकालं वचनं... 15 निन्‍दन्‍तु नीतिनिपणु ा:.. 10
अर्थानामर्जने द:ु खम.् .. 23 परनिन्‍दासु पाण्डित्‍यं... 7
अल्पानामपि वस्‍तूनां... 32 पापान्निवारयति... 22
अष्टौ गणु ा: परुु ष.ं .. 20 मनसि वचसि काये... 33
उत्साहसम्पन्नम् दीर्घसत्रू ... 4 यथ्‍ाा चतर्भिु : कनक ं परीक्ष्‍ते . .. 39
उदेति सविता ताम्र: ... 16 यं माता-पितरौ क्‍लेश.ं .. 18
ॠषयो राक्षसीमाहु: ... 25 यस्‍य कस्‍य प्रसतू ोऽपि... 24
यौवनं धनसम्‍पत्ति:... 21
एके नापि हि शरू े ण... 30
वचस्‍तत्र प्रयोक्‍तव्‍यं... 27
कामं प्रियानाि‍प प्राणान.् .. 17
वज्रादपि कठोराणि... 3
कामान्दुग्‍धे विप्रकर्षत्‍यलक्ष्‍मीं... 26
वरं पर्वतदर्ु गेष.ु .. 5
खल: सर्षपमात्राणि... 14
वश्येन्द्रियं जितात्‍मानं... 10
गणु ा गणु ज्ञेष.ु .. 6 विद्या नाम नरस्‍य... 28
ग्रीष्‍मस्‍ते भमू े वर्षाणि... 19 शरदि न वर्षति... 34
चन्‍दनं शीतलं लोके ... 36 शान्तितल्‍यंु तपो नास्ति... 38
न तक्रसेवी व्‍यथते... 2 शास्त्राण्यधीत्यापि... 12
न सा सभा यत्र... 35 संगच्छध्वं संवदध्वं... 40
न हि वैरेण वैराणि... 37 सर्वद्रव्येषु विद्यैव... 29
नाभिषेको न संस्‍कार:... 1 सर्वभतू दयावन्तो... 13
नास्ति भमि ू समं दानं... 9 उदेति सविता ताम्र... 16

42 सकू ्‍तिसौरभम-् द्वितीयपष्ु ‍पम्


 


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